Book Title: Panchsutra Varttikam
Author(s): Anandsagarsuri, Sagaranandsuri
Publisher: Agamoddharak Granthmala
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Page #1 -------------------------------------------------------------------------- ________________ THE FREE INDOLOGICAL COLLECTION WWW.SANSKRITDOCUMENTS.ORG/TFIC FAIR USE DECLARATION This book is sourced from another online repository and provided to you at this site under the TFIC collection. It is provided under commonly held Fair Use guidelines for individual educational or research use. We believe that the book is in the public domain and public dissemination was the intent of the original repository. We applaud and support their work wholeheartedly and only provide this version of this book at this site to make it available to even more readers. We believe that cataloging plays a big part in finding valuable books and try to facilitate that, through our TFIC group efforts. In some cases, the original sources are no longer online or are very hard to access, or marked up in or provided in Indian languages, rather than the more widely used English language. 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We shall work with you immediately. -The TFIC Team. Page #2 --------------------------------------------------------------------------  Page #3 -------------------------------------------------------------------------- ________________ WEVERMEEREYEARTUAHMEDNEMATTERNATIARRING ॥ श्रीवर्द्धमानस्वामिने नाका स्वाध्यायरुचि-मुमुक्षुजीवानां भावविशुद्धिझमाँ..... वीर्योल्लासजागृति-प्रर्बलहेतुभूते पूर्वधरप्राय-सूरिवरोत्तंसश्री चिरन्तनाऽऽचार्यपादरचित Miliohit TTTTTA 卐 - श्रीपञ्न्छास्त्र - 卐 আবিষ্ক -: वात्तिककाराः :पूज्यागमोद्धारकाचार्यश्रीआनंदसागरसूरीश्वराः " सज्झाय-ज्झाणणिरया मुणिणो" प्रकाशिका श्री आगमोद्धारक-जैन ग्रंथमाला कपडवंज वीर नि. सं. २४९७ वि. मं. २०२७ मूल्य हत्यकनयम आगमो सं. २० प्रथमावृति : ५०० Page #4 -------------------------------------------------------------------------- ________________ SirectorrearctsPREE-RESPEEAPPEARSAARCHRIAGES Desi2 ___-: पुस्तक-प्राप्ति-स्थान :रमणलाल जेचंदभाई शाह १० श्री जैन श्वे. मू. सुधारा खातानी पेढी कार्यवाहक महेसाणा श्री आगमोद्धारक ग्रंथमाला श्री आगमज्योत कार्यालय कपडवंज दिलीप नोवेल्टी स्टार (जि. खेडा, गुजरात) महेसाणा हा....दि....क......अ....नु....मो....द....ना सुधाराखातानी जैन पेढी महेसाणाना ज्ञानखाता तरफथी आ ग्रंथरत्नना प्रकाशननो संपूर्ण खर्च आपवामां आव्यो छे. ते बदल तेओना धर्म स्नेहनी भूरि भूरि अनुमोदना. AAAC-STHACHAPAGAPAGACCEPAL आ ग्रंथy प्रकाशन पू. गणिवर्य श्री लब्धिसागरजी म. श्रीना वरद हस्ते वि. सं. २०२५ ना माग. सु. ६ मंगलदिने पू. मुनिश्री सूयोदयसागरजी म.ने तथा पू. मुनि श्री यशोभद्रसागरजी म. ने थयेल गणीपदवीनी स्मृति निमित्ते स्वाध्यायरुचि पू. साधु साध्वीओना हितार्थे थयुं छे.. PPPROIN Page #5 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रस्तुत ग्रन्थ-श्री पंचसूत्र वार्तिकना पू. आगमोध्धारक श्रीना हाथे खेल लखाणनो नमूनो cdacKSocessedocdoessedoo-ocessedo रोमनिस्तानमायायति ये पानां PAKलाविभये चासोऽगनियमापतियानसंयुता: पञ्य, सभासस्पटलमनिपातपतिनामसजिनागमाATEEतराभाग मायायाaintu NAAEदिवियोग मावि . ENTRANTH HARTAPAINRITESHH षानदेनाAMRITTPp4sNE .. todoodc@NSOONOONOMo@doesceracedoedoedo . . . सूरीश्वराणामभिवादनम् यो लीनो जिनशास्त्ररक्षणविधौ यं सेवते भारती, धौतो येन मलः श्रुतजलैः यस्मै नताः सज्जनाः। यस्माद् बोधयुतोऽभवन्मुनिगण: यस्यागमेऽकुण्ठधीः, यस्मिन् ख्यातगुणाः सदा स जयतात् आनन्दसूरीश्वरः। ॥ आगमपर्यालोचनप्रधानो हि श्रमणः ॥ हहहहहहहह Page #6 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Ve मोक्ष नजीक क्यारे? आसण्णकाल-अवसिन्द्रियस्य जीवरम लरवणं इणमो। विलयसुहेसु ण रज्जड़. गवत्थामनु उज्जमइ ॥ ते जीव नजीकमा माक्षे जनागे छे. विषयनी वासनामां लपेटाय नहीं । क्षणिक इन्द्रियना सुखमां आसक्त ना बने । ज्ञानीनी आज्ञा प्रमाणे कर्म निर्जराना बयथी संयम मार्गे आगठ. वधवा अन्यंत उत्सुकता पूर्वक सथामण करे -श्री उपदेशमाळा गा. २९०. बैराग्यने एकावनारा साधना प्रवचनभक्तिः श्रुतमम्पदद्यमो, व्यतिकरश्च मंविग्नः । वैराग्यमार्ग सद्भाव भावधीस्थैर्यजनवानि ॥ वैराग्यमार्गना प्रशस्त परिणामोने टकाववाना माटे नीचेना त्रण साधनो जरूरी छे. ० शास्त्रो अने शासन उपर अंतग प्रेम . शास्त्रीय ज्ञान मेळवचा माटेनी सक्रियता • विशुद्ध आराधक विवेकी अने निष्ठासंपन्न पुण्यात्माआनी निश्रा. श्री प्रशमरति गा. १८१ ई Page #7 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परमपूज्य आगमोद्धारक ध्यानस्थ स्वर्गत आ० श्रीआनन्दसागरसूरीश्वराणां चित्रहारबंध गर्भा स्तुतिः गमोद्वारकध्यानस्थस्पताचार्यचर्याणां - चित्रहारबंध गर्भास्तुतिः ॥ सू शश्वच्छान्तिमयान् महामतिमतः कल्यङ्करान् कर्मठान्, भव्यापत्तिभरापहान् जलजवजन्तुभ्य आनन्ददान् । दान्तान् नौमितमां विभावितविधीन् व्याख्यानसज्जासनान्, प्रौढान् सत्यसखान् सदा नतधियाऽऽनन्दाब्धिसूरीश्वरान् ॥ Page #8 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हार्दिक-भावपूर्ण समर्पणम् - . - श्रीमतां पूज्यवर्याणामागमर्मस्पर्शिप्रज्ञधुरन्धराणां प्रावचनिकानां वादप्रगल्भवावदूकमौनकरणप्रत्यलानां शिलाताम्रपत्रोत्कीर्णागममन्दिरसंस्थासंस्थापकानां आगमवाचनादातृणां ध्यानस्थस्वर्गतानामागमोद्धारकाणां श्रीआनन्दसागरसूरीश्वराणां परमातिपवित्रचरणेन्दिवरयोः भावपूर्णश्रद्धाञ्जलिनिक्षेपपूर्व---. तेषामेव वरदहस्तयोः भक्तिप्रहृता-विनयनम्रतासनाथं मुक्तिमार्गसाधनसावधानमानस-मुमुक्षुभावसम्पन्नाराधकताभ्राजिसदाशयस्वामिश्रमणानां स्वाध्यायोपयोगि अध्यवसायविशुद्धिकारकञ्चेदं ग्रन्थरत्नं समर्प्य यकिश्चित्कृतार्थतामनुभवे सुधन्यमन्योऽहमभयाब्धिः। 1716448 ESSAGEMESSSSS Page #9 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॥ श्री गौतमस्वामिने नमः ॥ pornovasexwww . प्रकाशक तरफथी अमारु परम सौभाग्य छ के-जैनशासनना समर्थ ज्योतिर्धर, आगमोना आमूळचूल मर्मस्पर्शीज्ञाता अने प्रौढ तात्त्विक व्याख्याता पूज्यपाद श्रीआगमोद्धारक आचार्यश्री ना अपूर्व साहित्य सर्जनरुप नानी-मोटी कृतिओने प्रकट करवाना शुभ आशयथी वि. सं. २०१० मां पू. आगमोद्धारक श्री पट्टधर वात्सल्यसिंधु पू. गच्छाधिपति आ. श्री माणिक्यसागर सूरीश्वरजी म.ना चातुर्मासमां पू. आगमोद्धारकरीना शिष्यरत्न, तत्त्वाभ्याससुनिमग्न सूक्ष्मदृष्टिसंपन्न पू. गणिवर्य श्री सूर्योदयसागरजी म. नी शुभ प्रेरणाथी आ ग्रंथमाळानी स्थापना थयेल. - पू. गच्छाधिपतिश्रीए महती कृपा करी पू. आगमोद्धारकश्रीना नाना-मोटा ४१ ग्रंथो संपादित करी प्रकाशित करवानो लाभ अमोने आयो छे. प्रस्तुत श्री पंचसूत्र वार्तिक ग्रंथ श्री आगमोद्धारककृतिसंदोह भा. ४ मां प्रकट थयेल छे. पण ते वखतना यथाशक्य उपलब्ध साधनानुसार प्रकट थयेल होई तेने संपादननी विशिष्ट पद्धतिए तैयार करी स्वतंत्र पुस्तकाकारे प्रकट करवानी इच्छा पू. आगमोद्धारक आचार्यदेवन। पट्टविनेय, श्री सिद्धचक्राराधनतीर्थोद्धारक, शासनप्रभावक स्वर्गस्थ पू. आ. श्री चन्द्रसागर सूरीश्वरजीना शिष्यरत्न प्रशांतमूर्ति तपस्वी शासनसंरक्षक पू. उपाध्यायश्री धर्मसागरजी म. शिष्य श्री गणिवर्य श्री अभयसागरजी महाराजनी हती. पू. गच्छाधिपतिश्रीनी आज्ञा मेळवी तेओए अनेक कार्योमांथी पण समय काढी आत्मकल्याणकामी-स्वाध्यायरूचि जीवोने माटे अत्यंत उपयोगी आ ग्रंथ सुन्दर रीते तैयार करी आप्यो ते बदल अमे पू. महाराजश्रीना ऋणी छीए. आ ग्रंथना प्रकाशनमा आर्थिक लाभ लेवानी उदारता प्रकट करनार श्री -EXP प्रतापEST te TFSANDAS Page #10 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महेसाणा जैन संघ सुधाराखातांनी पेढीना कार्यकर्ताओना धर्मप्रेमनी पण सादर नों लइए छीए. प्रकाशन सम्बन्धी विविध मुश्केलीओने पोतानी अंतरंग शासनभक्ति अने धर्मानुरागथी पोताना धंधाकीय जीवनमांथी पण पू. महाराजश्रीना निर्देशानुसार दूर करी सुन्दर प्रकाशन माटे तनतोड प्रयत्न करनार शेठ श्री बाबुलाल केशवलाल (चाणस्मावाळा) (११ नगरशेठ मार्केट रतनपोळ) अमदावादना धर्मप्रेमनी खूबज हार्दिक अनु मोदना करीए छीए. आ ग्रंथनी प्रेस. कोपी करी आपनार श्री गोकुळभाई तथा पं. धीरुभाई (जैन पाठशाळा बीसनगर) तेमज सुंदर मुद्रण करनार वसंत अने दीपक प्रिन्टरीना कार्यवाहकोना श्रमनी सादर नोंध लइए छोए. आ ग्रंथनो यथायोग्य उपयोग करी पुण्यशाळी जीवो पोताना जीवनने जिनशासननी आराधनामां आगळ वधारे ए मंगल कामना साथै छद्मस्थसुलभ मुद्रणादिनी क्षतिओ बदल सकळ श्री संघ समक्ष क्षमा मांगीए छीए. कापडबजार कपडवंज (जि. खेडा) वीर. नि. सं. २४९७ वि. सं. २०२७ कार्तिक शुक्ल १३ गुरु amse 100 निवेदक : रमणलाल जेचंदभाई कार्यवाहक श्री आगमोद्धारक जैन ग्रन्थमाळा. कपडवंज Page #11 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ASSAGENDANIROENSENC पूज्यागमोद्धारकाचार्यश्रीआनन्दसागरसूरीश्वराणां स्तुत्यष्टकम् श्री - जैन- शासन-नभो - मिहिरायमाणं, सज्ज्ञान - संयम - शमादि-गुणाम्बुराशिम् । आप्तागमोद्धृतिकरं, कृत—भूप-बोधमानंद - सागरगुरुं प्रणमामि सूरिम् ॥१॥ आसीज्जनुः कपडवंज - पुरे यदीये, नाम्ना च यस्य यमुना जननी सुशीला । श्री मग्नलाल इति यज्जनकः प्रशांत, आनन्द - सागरगुरुं प्रणमामि सूरिम् ॥२॥ यो वैक्रमे मुनि-युग-क-मृगाङ्क (१९४७) वर्षे झव्हेर- - सागर - मुनीश्वर - पादपद्मे । आदत्त चारु चरणं शिववर्त्म धीरम्, आनन्द - सागरगुरुं प्रणमामि सूरिम् ||३|| प्राचीन - पुस्तक - समुद्धरणाय देव - चन्द्रादि-नाम-कलितः प्रथितः सुकोशः । यस्योपदेशमधिगम्य जनिं प्रपन्न - आनन्द - सागरगुरुं तमहं वन्दे ॥४॥ प्राज सदुपदेशमवाय यस्य श्री आगमोदय समित्यभिधा सुसंस्था । सिद्धांत - वाचन - प्रकाशन - कारिका श्री आनन्द-सागरगुरुं तमहं वन्दे ॥ ५ ॥ Page #12 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नियुक्ति-भाष्य-वरवृत्तियुतानि सम्यगू यः प्रापयत्प्रवचनानि विशोध्य यत्नात् । भव्योपकारकरसिकं श्रुतभक्तिभाजमानन्द-सागरगुरुं तमहं प्रवन्दे ॥६॥ यो वाचनां समददान्मुनिमण्डलाय, ज्ञानं प्रचारयितुमाप्त-जिनागमानाम् । सम्यग् जिनागमरहस्यविदां वरेण्यमानन्द-सागरगुरुं तमहं प्रवन्दे ॥७॥ एवं कृताऽन्य-शुभशासन-कृत्य-जातविख्यात-शारद-शशिप्रभ-शुभ्रकीर्तिम् । आचार्य-मौलिमुकुटं मुनिवृन्दवन्धमानन्द-सागरगुरुं प्रणमामि सूरिम् ॥८॥ PawrCCTDANCarroreverecances कीदृशो धर्मः ? को वा प्ररुपयेत् ? । " जन्मान्तकजराऽऽकीर्णो, निस्सारोऽशरणो भवः । तस्मादुद्धारकं धर्म, मुनिः प्रकल्पमृद् वदेत् ॥” पू. आगमोद्धारकश्री रचित "प्रकीर्ण पद्यावली" पद्य-१ PAN Page #13 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 0000000} पूज्यपादागमोद्धारकाचार्य-पट्ट - प्रतिष्ठित - शास्त्रदम्पर्यबोधक - वात्सल्य.सिंधु-पूज्यगच्छाधिपति-आचार्य श्रीमाणिक्यसागरसूरीश्वराणां आ...शी...र्व...च...न...म् * 卐 * 卐 विश्वजीवजीवनजीवातु- विशुद्धात्मकस्वरूपानुभूतिप्रत्यल - रत्नत्रयीसमाराधनाविविधप्रकारनिरुपका–ऽनादिभवाऽभ्यस्त भववासनाप्रभवकर्मजन्य - जनिमृतिसानुबंधतानि - रसनाऽमोघोपायप्रतिपादक - श्रीमजिनवरेन्द्रगदिताऽऽगमग्रन्थाभ्यासिनां विदितवेद्यतमानां सर्वेषां ज्ञातप्रायमेतत् यत्: प्रबलाऽतिदुर्धर्षमोह भूपदुर्धर चमूनायकानां राग-द्वेष-मोहानां क्षयार्थमेव धर्मस्याराधनं श्रेयस्तमम्, परं विशुद्ध वर्माराधनमन्तरा चिरप्ररूढा तिप्रत्नतमानां संस्कार-रूपें - णानादिमतां रागविद्विषां फलेग्रहिर्विजयः न सुशकः, धर्मस्य विशुद्धत्वं चाऽशुभसंस्कारह्रासजन्यं, तदर्थं च प्रणिधानशुद्धिसमुत्पादक - विशिष्टश्रुतरत्नस्वाध्यायादिकमत्यावश्यकम्, विना विशिष्टस्वाध्यायप्रवृत्तिमशुभतम संस्काराणां शक्तिव्याघातो न भवतीत्यत एवोद्धुष्यतेsपि " णवि सज्झायसमं तवोकम्मं " | एतादृशप्रकृष्टस्वाध्यायोपयोगि च चिरन्तनाचार्यप्रणीतं समर्थ प्रावचनि श्रुभक्त पूज्याचार्यश्रीहरिभद्रसूरिपादैर्विवृतं श्री पञ्चसूत्राख्यं हि श्रुतरत्नं आत्मशुद्धिप्रेप्सूनां श्रेयः संलक्ष्यवतां मुमुक्षूणां जीवनतुल्यं समस्ति । एतादृशस्य पूर्वधराप्ततमाचार्य भगवद् हृदय हिमवत्प्रभूतातिनिर्मलत राति सुगांगेय जलाघ्यवसायविशुद्धयापादकश्रीपञ्चसूत्राख्यश्रुतशिरोमणेः पूज्यागssमपारश्व - देवसूरतपागच्छसामाचारीसंरक्षणबद्ध कक्षागमजीवंत मूर्ति - आगमप्रौढव्याख्यातृ - प्रावचनिक मतल्लजाssगमवाचनाकारक-बहुश्रुतसूरिपुरंदर - ध्यानस्थस्वर्गतागमोद्धारक श्री आनन्दसागरसूरीशः बाल - मध्यम - प्रकृष्टधीमतां साधारण्येनाऽर्थबोधतात्पर्यगमकं विशिष्टमर्मस्पर्शी - हि सन्दृब्धम् । काबVEOLIM Page #14 -------------------------------------------------------------------------- ________________ " एतद्धि विवरणम् समेषां श्रेयः प्रेप्सूनां चेतःस्वास्थ्यापादकं परिणामविशुद्धिकारक - मात्मशुद्धिसमुपयोगि च भवतु " | इति चैतद्विवरणगतपूज्याऽऽगमोद्धारकाचार्यसत्तमविवृताऽनेकपदार्थव्यालोडनोभूतभावाऽनु बन्धप्रेरणया शुभाशंसान्यक्तीकरण सनाथोऽऽशीर्वचनरूपेण प्रचीकस्यते । " विवेकिनो हि मुमुक्षवः सदागमतलस्पर्शिसद्गुरुचरणोपासनानिश्रया प्रस्तुत - ग्रन्थपठन-मनन-पर्यालोचनादिभिर्निजात्मशुद्धिपथि अग्रसरा भवन्तु" इति च पुनः मङ्गलकामनापूर्वं पूर्वधरप्रायसूरिवरग्रथितस्यैतस्य पञ्चसूत्रस्याऽनन्यसाधारणगभीरार्थवत्त्वं प्रति ध्यानाकर्षणपूर्वं विरम्यते ससर्वसत्वहिताशंसमिति निवेद्यते— वीर नि० से २४९६ वि० सं० २०२६ आगमो० सं० २० भा० सु० ११ आर्किवासरे जगद्गुरुश्रीहोरसूरीश्वर - स्वर्गतिथौ बीलीमोरा (जि. सुरत ) गुजरात पूज्यपाद - गच्छाधिपति1. सूविर्याणां निदेशेन पुण्योदयाब्धिना श्रीमहावीर प्रभु स्तुतिः भव्यान्जबोधी सकलार्थविद् यः, प्रज्ञापनार्थं विवेचिका गौः । यस्येह तं नम्रसुरेन्द्र भूपं, नमामि वीरं जितमोहवीरम् ॥ पू० आगमोद्धारकाचार्यप्रणीत प्रथम विंशतिकादीपिका प्रारम्भ मङ्गलश्लोकः Page #15 -------------------------------------------------------------------------- ________________ MEHEATERTREENETयायामाचारमगरायाचनाचार HTTETiwariचल गंगवालगनगाव ENJ " 2200 rcipleanery-tiati जयचन्या Hindi Hache ॥ विजयतां जिनशासनम् ॥ सवात्तिकश्री पञ्चसूत्र ग्रन्थराजस्य प्रास्ताविकम् -: लेखक :। पू. आगमोद्धारकश्री शिष्यावतंस श्रीसिद्धचकाराधनतीर्थोद्धारकश्रीवर्धमानतपप्रचारक शासनप्रभावक-स्व. आ.श्रीचंद्रसागरसूरीश पट्टप्रभावक- व्याख्यानवाचस्पति-पू. आ. . श्रीदेवेन्द्रसागरसूरीश्वर-शिष्यरत्न-विद्वद्वर्य मुनिश्रीनरदेवसागरजी म. URI SANEL U e HerATatkiratraRREET ARTIERMATHEMETPयर समुपादीयतामनादिकालीनमिथ्यात्ववासितान्तःकरणाऽलब्धपारसंसारपारावार निमज्जदशेषजन्तुकदम्बकोत्तारणयानपात्रतुल्यं, निःशेषमङ्गलावलिसम्पादनप्रवीणत्रिकालविनिर्मितसमस्ताऽऽगमप्रकरसाररूपं, परमोत्कृष्टाऽपवर्गाऽद्वितीयसुखप्रापकं, विशुद्धध्यानसं- . ततिप्रवरनिमित्तभूतमभ्यन्तरतपोरुपपंचविधरंवाध्यायाऽनन्यतमोपयोगि, भवार्त्तिविच्छेदकमपूर्वकरुणारससम्भृतहृदयपूर्वधरचिरन्तनाचार्यप्रवरसन्दृब्धं, जिनपतिनिगदितसकलाssगमतत्त्वप्रज्ञापनप्रस्फुरत्प्रतिभबहुश्रुताऽऽमोद्धारकाचार्यश्रीआनन्दसागरसूरिवरविनिर्मित वार्तिकसमलङ्कृतम्, निर्दिष्टपापप्रतिघातगुणवीजाधानादिविषयपञ्चकत्वात् पञ्चसूत्र' - इतिसार्थकाऽभिधानभ्राजिष्णुश्रीपंचसूत्राख्यं ग्रन्थरत्नमिदम्........" । अर्थगाम्भीर्यादि-प्रासादिकगुणगणसमलङ्कृतः सुमधुरहृद्यवर्णावलिविभ्राजितश्च ग्रन्थरत्नान्तर्गतवाक्यप्रयोगः सकलसमयसमधिगतबुधत्वविद्वज्जनचेतश्चमत्करोति । - ईदृशे ग्रन्थरत्ने चास्मिन् कतिपये विषया निर्दिष्टाः ? केन हेतुना चैवविधः क्रमः ? इतिजिज्ञासायां संक्षिप्तरुपेण ग्रन्थान्तर्गतविषयदिग्दर्शनं समुचितं, तल्लेशतो निर्दयते.... हिमाल मा जान BANARAS.. Page #16 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 1-000 FECE ne ........... .. ........ ...... (१) " क्षीरनीरन्यायेनाऽनादिकालीनकर्माष्टकसंयोगहेतुत्वेन जीवैः परिभ्रम्यते दुःखरुपे संसारऽस्मिन् ततःकेन प्रकारेण विमुक्तिः स्यादिति सम्यङ् निरुपितमस्मिन् प्रकरणे " एअस्स बुच्छित्ती सुद्धधम्माओ" इत्यादिसूत्रैः । शुद्धधर्मावाप्त्यैव संसारविच्छेदः, धर्माऽवातिश्च पापकर्मविगमतः, तद्विगमश्च तथाभव्यत्वादिभावतः अहंदादिचतुःशरणगमन-दुष्कृतनिंदा-सुकृताऽनुसेवनादिप्रकारेण च तथाभव्यत्वपरिपाकः स्यादिति पापप्रतिघातसमुत्पन्नसम्यक् वरुपं वजं यथायत्नेन धारणीयं तदेव भवचक्रवाले दुरापमिति पुनः पुनः हृत्पद्मे चिन्तनीयम्....” इति हि प्रथमसूत्रे प्रतिपादितम् । (२) अवाप्तसम्यक्वरत्नो हि पश्चाणुव्रतादिश्राद्धोचितवतानि यतिधर्मलिप्सुः सन् गृणी यात्, परिपालयेच्चाज्ञानुसारेण यतः “आणा हि मोहविसपरममंतो" इति जिनाज्ञापरिपालनमेवः मोहमहाहिविषोत्तारणे गारुडिकमंत्रतुल्यमतो...भाव्यमाज्ञाs नुसारिणा, तथा च धर्मजागरिकादिप्रकारेण साधुधर्मपरिभावनया भावितात्मा स्यादिति द्वितीयसूत्रे व्यावर्णितम् । (३) " तथाविधश्च मातृ-पित्रादिसकाशाल्लयानुज्ञः कथश्चित्तमोहवशादननुज्ञातोऽपि ग्लानौपधादिन्यायेनाङ्गीकुर्यात् प्रवज्यामित्यादि तृतीये सूत्रे निर्देशितम् । (४) गृहीतपत्रव्यश्च " गुरुकुलबासी गुरुपडिवद्धे विणी : भूअत्थदरिसी " ण इओ हि तत्तं" ति मण्णई" इत्यादिविशेषणविशिष्टः सन् गुरुकुलवासादन्यं न किश्चिदपि तत्त्वभूतमस्त्येवं मन्यते । यतः "णाणस्स होई भागी" "तत्र वसतां ज्ञानस्यावातिः, दर्शन-चारित्रयोश्च स्थिरत्वं भवति याव-जीवं ये गुरुकुलवासे वसन्ति ते धन्या" इत्यादिविशेषावश्यकप्रामाण्येन गुरुनिश्रां बहु मन्यते । तथा च गुरुकुलचासत्यागेन दुष्करतपःकारिणामपि चारित्रं न लाभाय भवति, अतः सदेव गुरुकुलवासिना भाव्यं, तथा च गृहीतदीक्षेण गुरुणामाज्ञानुसारेणव वर्तितव्यमन्यथा दोपप्रसक्ति: “जो मं पडिमपणई सो गुरुं " इति वचनात् । एवंविधो मुनिः विधिपुरस्सरं-ग्रहण-आसेवनाशिक्षासंपादनतत्परः सन् 'वर्ष १० Page #17 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Sa : पर्यायातिक्रमे --सर्वदेवानां तेजोलेश्यां व्यतिक्रामति....शुक्लाभिजात्यश्च भवतीति निष्पादितं चारुरूपेण--तूर्यसूत्रे । (५) उपरोक्तरीत्या सम्यगाराधिता प्रव्रज्या मोक्षफलायैवः स्यात्, मुक्तिसुखं च "अपज्जवसिअमेव सिद्धिमुखं इतो चेवमुत्तमं इमं सव्वहा; अणुस्तुगतेऽणंतभावाओ": अनन्तत्वाऽनौत्सुक्यत्वादिगुणसंयुतम्, भवभ्रमणक्षय हेतुः इति विधिनाराधितश्रमणत्वंः सकलकर्ममलापनोदाय समर्थं स्यादिति पञ्चमसूत्रे प्ररुपितमस्ति । इत्येवं सूत्रोक्तविषयलेशो निर्दर्शितोऽत्र.... कमहेतुश्चैवमत्र.. मिथ्यात्वमोहनीयादिकर्मक्षयोपशम समुत्थाऽमलबोधिवीजं विना निःशेषकल्याणमूलप्रवज्याऽभिलाषाङ्कुरो नोत्पद्यते जन्तूनाम्, साधुधर्मपरिभावनाऽऽत्मकाऽङ्कुरमृते नैव भवदधितारकश्चारित्ररूपः पल्लवः पोस्फुरीति, यतिधर्माङ्गीकाररूपपल्लवं च विना कथं प्रव्रज्यापरिपालनात्मकः पादपः दरीदृश्येत ? ऋते चाऽर्हदादिसमाचरितसच्चारित्रपथः कथं · मुक्तिसुखरूपसुमधुरफलावाप्तिरिति ? हेतुहेतुमद्भावेन सकलकर्मध्वंसायाऽलं भवति सम्यंगध्ययनप्रकारेणोपासितोऽयं ग्रन्थराज इति सुनिश्चितमेव ॥ सर्वेप्सितंप्रदानकल्पद्रुमायमानग्रंथरत्नस्याऽस्य सरलबोधा. व्याख्या चतुश्चत्वारिंशदधिक चतुर्दशग्रन्थसौधसुत्रधारा यमानैरप्रतिमश्रुतधरैः श्रीहरिभद्रसूरिपुरन्दरै विदधे, तदेव ज्ञापयत्यस्य ग्रन्थमणेः परमोपयोगित्वं महदुपासनीयत्वं महत्त्वं चेति..... । वार्त्तिकं चास्य साधैकसूत्रं यावत् - श्री विशेषावश्यक तत्त्वार्थ - योगशास्त्रा: ssद्यनेकशास्त्र पाठविन्यासपूर्वकं सत्त्वावलिविमर्शविराजितं, सतर्क हेतूदाहरणादिकलाप-:कलितं, हृद्यनव्यशब्दसमूहविभ्राजि, प्रासादिकाऽर्थवाक्समुदयसमलङ्कृतम्, विद्वज्जनगणमनः प्रमोदप्रदानपटु, वावदूकपट ल प्रयुक्त कुतर्क तिमिरतिरस्कृतिपटुपरःशतवाचोयुक्तिमञ्जुलं, नैकविधशास्त्रदोहनरूपं ; सरलतया तत्त्वाववोधविधायि, विनिर्मितं समस्ताऽऽगमसमुद्धारक—श्रुतसरित्पतिपारग- प्रतिबोधितप्रजापालपूजितपादपद्माऽचार्यवर्यश्रीमदानन्द सागरवरिवयैः सत्तत्त्वग्रहणपटुम् तिमानानाविधभव्यजन्तुनिवहोपकारहेतवे ....॥ ....... वार्त्तिकेऽस्मिन् तीर्थ कृदतिशय चतुष्टयनिरुपणं, जीवास्तिकत्वादिसिद्धिः, जीव Ple Page #18 -------------------------------------------------------------------------- ________________ । mmanmammeermamtamann.... བསལལལས་བབས་ནས་བསམལ བ ''མཁ་གསལ་བསྡུས་པ་བག་ कर्मणोऽनादित्वं, जिनानां यथार्थवादित्वं, शरण्यभूताऽहंदादिचतुष्टयस्थितविशेषणानां चालनादिपुरस्सरं-तच्छरणस्वीकृतिक्रमहेतुपूर्वकं तदनुमोदनादिविधान, सप्रभेदं “पञ्चाचाराऽऽदि "निरुपणं, लोकोत्तर-लौकिकौषभेद भिन्नै जीवैः साधु क्षमापनादिविषयवर्णनं च चारुरूपेण प्रपञ्चितमस्ति........। सम्यगवलोकितं ज्ञातं च यद् धूनयति वराङ्गं विज्ञाततत्त्वसारविद्वद्वरेण्यानाम्........। कामधेनुकल्पस्य सवार्त्तिकस्याऽस्य ग्रन्थरत्नस्य "प्रास्ताविक" लेखनाथ परमपूज्य-शासनसंरक्षणबद्धकक्ष-तपस्विराजोपाध्यायश्रीधर्मसागरजिन्महाराजशिष्यरत्नगणिवर्यश्रीमदभयसागरजिजिभिरहं प्रेरितः, तेषां सत्प्रेरणया पूज्याऽऽगमोद्वारकाचार्यवर्यपट्टप्रभावकव्याकरणविशारद-स्वर्गतपरमपूज्याचार्यदेवश्रीचन्द्रसागरसूरीश-पट्टघरमदीयपरमतारक-गुरुदेवप्रशान्तमूर्ति-परमाध्यचरणाम्बुजाचार्यवर्यश्रीमद् देवेन्द्रसागरसूरीश्वराणां चाऽनुज्ञया मन्दमेधसाऽपि मया प्राथमिकोऽयं प्रयासः कृतः प्राथमिकत्वेनाल्पज्ञतया वा सुलभं क्षतिबाहुल्यम् । प्रार्थयेऽहमतो विनयाऽवनतमुद्रया-विद्वांसः कृपां विधाय मयि प्रास्ताविकेऽस्मिन् काश्चन क्षतयो दृष्टिपथमागच्छेयुस्ताः क्षाम्यन्तु, “शुभे यथाशक्ति यतनीयम्" इति न्यायेन प्रवृत्तोऽहं नोपहसनीयश्च तैरिति । . " सज्झायसमं णस्थि तवो" इति हेतोर्जिनपतिचरणचर्चकचतुर्विधश्रीसद्धेन पठनपाठनादिना स्वाध्यायविषयीकृतोऽयं सवार्तिको ग्रन्थराजः स्यादात्मविशुद्धिकारक इत्यभिलाषान्वितो यत्किञ्चिदत्र जिनाज्ञाविरुद्ध प्रतिपादितं स्यात्तस्य मिथ्यादुष्कृतपूर्वक विरमामि सङ्घन पठ्यमानोऽसौ, ग्रन्थराजः सवार्तिकः । प्रकाशतां चिरं विश्वे, यावदिन्दुनभोमणी....॥ राजकोट :तपागच्छ जैन उपाश्रयः । वीर. संवत्-२१९६-वि. सं.२०२६ श्रावण कृष्ण ६ शनिवासरः _ निवेदक:व्याख्यानवाचस्पति-परमाराध्य-पूज्य गुरुदेवश्रीमद् देवेन्द्रसागरसूरीश्वर-चरणाम्भोजभृङ्गायमानः नरदेवसागरः TAMAND A Page #19 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॥ नमः श्री जिनशासनाय सार्वीणाय ॥ . DED: सं...पा...द...की...यं - - PARAN __अयि ! विश्वविज्ञानमर्मस्पर्शिसमवबोधचमत्कृताऽनेकसुजनमनःप्रमोददानसुदक्षाः सदसद्विवेकबलोद्गीर्णसुधामधुरविविधवचनप्रोद्भतिसुबन्धुराः सहृदय-हृद्यविद्याविलासाश्चितसद्योगभ्राजिष्णवः विद्वमूर्धन्याः !!! . सुविदितमेतद् भवतां यत् - ": "न हि सदर्शनशुद्धिमन्तरा निर्जराऽऽधायकत्वं चरणस्य भवति, चरणशुद्धि विना सद्दर्शनशुद्धिरनपायिनी भवती" ति परस्परमुपष्टम्भकत्वं सम्यक्त्व-चरणयोरित्यतः : सर्वविरतिमतामपि यतिवरेन्द्राणां ज्ञानिनिर्दिष्टावश्यकादिक्रियाकलापकृत्यनन्तरं जायमाने क्षणिकत्वे "सज्झायज्झाणणिरये" तिटकोत्कर्णिवाक्यानुसारं स्वाध्यायस्य करणीयत्वं . शोश्रूयते, विरतिमार्गेऽसमर्थपदक्षेपानां चतुर्थगुणस्थानवतामपि दर्शनविशुद्धि दृढां चिकीर्षमाणानां मुहुर्मुहुः स्वाध्यायपरायणत्वं कर्तव्यत्वेन निर्दिश्यते । एतेन चैतत् स्पष्टीभवति यत् - " आ सम्यग्दर्शनावाप्तेः श्रेणिप्रतिपत्तिं यावत् स्वाध्यायस्य ‘सार्वकालिकं . हितकरत्वमस्ति ।" पूर्वाचायभगवद्भिश्च स्वाध्यायार्थ विविधसामग्रीप्रणयनं विहितमस्ति, किन्तु . सर्वेषां स्वाध्यायग्रन्थानां शिरोमणिभावं बिभ्रतीयं श्रीपञ्चसूत्री अतिप्राचीना पूर्वधरप्रायसूरिवरगुम्फिता शब्दरचनासौष्ठवेनाऽपि निविडतममोहाऽपसर्पिकेदानीमपि विशुद्धहृदयैर्महात्मभिरनुभूयते । . Page #20 -------------------------------------------------------------------------- ________________ LAST परं "विना गुरुगमं रहस्योद्घाटनं न भवती --" त्यतः प्रवरश्रुताऽभ्यासपटिष्ठधिषणाऽवधीरितसुरगुरुसुरगुरुमतिविसरैः दार्शनिकधुरंधरैः सूरिप्रष्टैः श्रीहरिभद्रसरिवरैरषा हि पंचसूत्री विवृताऽस्ति, किन्तु तद्धि विवरणं तदानीन्तनजनानामुपयोगित्वेन विशदतममपि इदानीन्तु संक्षिप्तमतीव गूढतमञ्च प्रज्ञाहासेनाऽवगम्यते । अतः पूज्यपादाग़मोद्धारकध्यानस्थस्वर्गताचार्यपुरंदरैः श्रीमद्भिरानंदसागर-सूरीश्वरपादेः एषा पंचसूत्री विवरीतुं प्रारब्धाऽऽसीत् विषमरोगशय्यामवस्थायाऽपि आजीवनाराद्धश्रुतज्ञानपरिपाकस्वरूपपरमोत्कृष्ट साम्यभाभिः शरवंद्वंयनेत्रमिते (२००५) वैक्रमेऽव्दे । द्वितीयसूत्रस्य पूर्वार्धपर्यन्तं च विवरणं सम्पन्नं, तदूर्ध्वं चेदानीन्तनजीवानां प्रबलशुभायतिमन्दतया शरीराऽपाटवादिना हेतुना तद्धि अपूर्णमेव स्थितम् , पूज्यपादाऽऽगमोद्धारकवर्याश्च वयःपरिपाकसहभूतोदरख्याधि-वातप्रकोपादिभिः प्रत्यवायर्नाटिताः नाऽपारयन् तं सम्पूर्ण कर्तुम् , हहा! दुष्पमाऽरविलसितमेतत् यत् --- महाभागपुरुषोत्तंसभावदयापरिपूतमपि सत्कार्यं दुर्दैवविडम्रिताद्यश्वीनधर्माराधकाणां पुण्यानुभावहानितः अपूर्णमेवाऽवतिष्ठत् , हन्त ! कि नाम शोचनीयमत्र दुष्पमाऽरप्रभावो वा पुण्या नुभावहीनतेति हि सम्यक् विचारणीयम् । किन्तु अमृतस्य तु लेशोऽपि सुदीर्घतरंगदापहो भवति, ततश्चापूर्णमपि विवरणमेतत् भव्यजीवानां तथाभवितुकामानामुपयोगि स्यादित्याशयेन श्रीआगमोद्धारककृतिसन्दोहे (द्वितीय-चतुर्थभागयोश्च) प्रकाशितपूर्वमपि एतद्धि विवरणं सुरुचिकर-- विशिष्टसम्पादनपद्धत्याऽत्पधियामपि मुमुक्षूणां भावोल्लासवृद्धिकरं भवेदिति शुभाभिसन्धिना.. वात्सल्यसिन्धु-शास्त्रैदम्पर्यवोधक-पूज्यगच्छाधिपतीनामाशी:पूर्णां सम्मतिमधिगत्य यथामति यथासाधनं यथाशक्ति च सुव्यवस्थितपद्धतिं स्वीकुर्वता मया यत् किञ्चित् श्रेयः कामतया प्रयतितमस्त्यत्र । तारिवकधीगम्यगभीरार्थवत एतस्य विवरणस्य सुरुचिभङ्गभिया च यत्र कुत्र विसंवादितमपि. संपादनपद्धती, परं नाऽत्रोपालम्भविषयोऽहं, यतः सद्गुरुकृपाकटाक्षेणैवाऽत्र . मदीया. प्रवृत्तिः, नाऽहमेतत्सम्पादनप्रत्यल इति च सौमनस्यपरिपूर्णचेतस्कानां सुजनानां विदुषां चरणयोः प्रणिपत्य निजाऽसामर्थ्य प्रणिपातपुरः विनिवेदये । .. .. ... 2A सदा मरम्पारसलवाललाराज VIVi४ का *.SASA SEArket" VIG rat Page #21 -------------------------------------------------------------------------- ________________ यथोपलम्भं साधनानां विवरणस्यैतस्य सुसम्पादनार्थं व्यवसितेऽपि छामस्थ्यप्रयुक्तक्षतीनां परिमार्जनाय सकलसङ्घसमक्षं मिथ्यादुष्कृतं एतद्ग्रन्थस्य सुविहित-परिणत-गीतार्थगुरुजनसविधे उपसम्पद्याऽध्ययनादिकं प्रकुर्वाणाः हितेप्सवः मुमुक्षवः निजाऽऽमशुद्धिं सम्प्राप्य परमण्दाऽवाप्ति प्रगुणतां विदध्युरिति मंगलाशंसां प्रकटीचक्राणो विनिवेदयति परमपूज्य-सुविहितमुनिसत्तम-सङ्घसमाधितत्पर-शासनसंरक्षकोपाध्यायगुरुदेवश्रीधर्मसागरजित्पादपद्मलीनोऽभयाब्धिः ॥ भद्रं भवतु सर्वजीवानां ॥ वीर नि० सं० २४९६ भाद्रपदसिततृतीयतिथौ भृगुवासरे प्रतापगढनगरे गुमानजीजैन मंदिरसविधस्थितोपाश्रयमध्ये देवगुरुप्रसत्तिवलेन लिखितमिदम् ॥ pacwwwrawaenwweresearwwwRAN ॐ हृदयङ्गम-सुभाषित-पद्यावली (१) मध्यमो-तम-हीनानां, दुर्लभा उत्तमा नराः । __. “पञ्चपा मध्यमाः सन्त्य,-धमैस्तु पूरितं जगत् ।। (२) अमुंचैवाऽधमा लोकं, परं चामुं च मध्यमाः । उत्तमाः पुनरिच्छन्ति, लोकमेव परं नराः ॥ (३) सुखेऽपि विदधात्यधमः सुभावा निर्वाह हेतुमद चापदि 'मध्यमोऽगी। प्राणानपि त्यजति साधुजनो विपत्सु, · नाऽकृत्यमाचरति चायतिशर्मकामः ॥ (४) चउहा पसंसणिज्जा, पुरिसा सव्वुत्तमा लोए । उत्तमउत्तम-उत्तम मज्झिम-भावा य सम्बेसि ।। L Page #22 -------------------------------------------------------------------------- ________________ mmswimmiAinmaansar Recommerceneracwood पूज्यागमोद्धारकाचार्यपादप्रणीत श्रीआगममहिमास्तवोद्धृतम् सुन्दर-पद्यचतुष्कम् ........... PLEASE uinerani " MA । - . आर्हन्त्यं शुभसाधनैरभिगतं कर्माऽपि बंधे हितं, यञ्च त्वं त्रितयं भवस्य भवनैर्गुण्यं विदन् शिष्टवान् । .. तन्नूनं महतां परार्थ-परता सत्या परं सत्फलाऽसावाप्याऽमलकेवलं यदि भणेच्छ्रेणिं सदाप्तागमीम् ॥१॥ प्राप्याशेषजगद्विलोकनपरं ज्ञानं निहत्याऽशुभा दृष्टश्रेणिभवारसारबलयुक्तश्रेण्या क्षपण्या प्रभुः । देवेन्द्रावलिसंहृतामतितरां पूजामधिष्ठाय च कुर्वन्नागमसन्ततिं सफलताभाग् नान्यदा हि प्रभुः ॥२॥ पूजा-प्रौढो जिनेशो न नमति निखिलऽभीष्टसिद्धया कृताथों, देवालिप्राभृतं सत् सुकृततरूपफलं सेवयन् किञ्चिदन्यम् । धन्यं तूद्दामधर्मा जगति मुनिगणं द्योतयन् स्वं कृतज्ञं, यन्मेऽदः सज्जिनत्वं मुनिगणपधृतादागमादेव जातम् ॥३॥ भज शास्त्रालि भज शास्त्रालिं भज शुद्धमते ? जिनपतिगदितां गणपतिविततां मुनिजनमान्यतरां विमलाम् । नरभवनिकरोऽसमफलावसरो भावितभावो गतदौःस्थ्यो, नम्नशिरस्को विगतरजस्को भवति नरस्तमजनमनाः ॥४॥ ............ ......... . . ........ Page #23 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १. पूज्यागमोद्धारकाचार्य श्रीग्रथितश्रीपञ्चस्त्रवार्तिक - तर्कावतारग्रन्थ अ...नु...क्र...म... णि...का पू० आगमोद्धारक श्री चित्रहारबंघगर्भ-स्तुतिः हार्दिक - भावपूर्ण समर्पणम् प्रकाशक तरफथी २. ३. ४. पू. आगमोद्धारक स्तुत्यष्टकम् ५. पू० गच्छाधिपति आचार्यदेवश्रीणां आशीर्वचनम् ६. पंचसूत्रग्रन्थराजस्य प्रास्ताविकम् (पू० मुनिनरदेव सागर लिखितम्) ७. सम्पादकीयम् आगममहिमा स्तुतिचतुष्कम् ८. ९. विषयानुक्रमः १०. विशोध्य पठन्तु ११. श्री पञ्चसूत्रवार्तिकग्रन्थः १२. श्री पञ्चसूत्रत कवितारः (अपूर्ण) १३. परिशिष्ट - १ संस्कृत-पद्यमयी पञ्चसूत्री . १४. श्रीपञ्चसूत्र-प्रथमसूत्र-भावगर्भ पू० गच्छाधिपति प्रसादीकृतं लोकप पृष्ठ १ २ ३-४ ५-६ ७-८ ९-१२ १३-१५ १६ १-१६ १-९८ १-३८ ३९-५५ ५६ Page #24 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विशोध्य पठन्तु पत्रं पत्रं पत्रं १ पंक्ति २ पंक्ति २७ ४४ ५ ५ ८ २० २६ २२ शुद्ध पाठः वीया' भगवता भोग °सत्त्वा ककटुकवत् दर्शिता ४५. ४५ ४५ २४ १३ २१ ४७ ११ २१ °दर्हतां ०च्छोतुश्चतुश्शरण ४८ वरबोधि० ५१ १९ शुद्ध पाठः ॥१०॥ इति [श्री तत्त्वार्थभाष्यकारिकाः अंतिमाः २३ तः ३२] তিvিU मतिमैत्री न्यत्काराभ्या० प्युक्तत्वेनैव 'बुझंती' त्या परमेष्ठि० कर्मोधाना तैरेव पदोक्तानि मनस्याधायाह धूवघडीओ सव्वमओ. °णुरूवं णमंसंति भगवत्पादौ नोप्लावयती २९ १६ व्याख्यानस्या प्रतिक्षिप्त ३९ १५ ४०१७ ४३ २३ तरेव मपि स्वादादि ५५ ५५ ५९ २१ २८ २७ ० ॥५॥ ० ॥६॥ ६० ६० ६० ९ १८ २१ ४४ ४४ ४४ १४ ० ० १९ . २१ २३ २५ ॥॥ ॥८॥ ॥९॥ ० ६० २३ Page #25 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पत्रं पंक्ति शुद्ध पाठः ६१ १० मोहतिमिरा० . मोहतिमिरं विशिष्टा पडिहार-सि-मज्ज ६१ २१ न्धित ६२६ दावानलता या ६२ १८ वाप्तेरेवा शुमालिस्व प्रज्ञप्तस्य .. सिद्धभावस्येति सिद्धभावस्येति ६७ २५ सिद्धभावस्येति ६७ २९ . केवळ . ६८ ३ जीवं *(निष्फलं ज्ञेयमेतत्) स्नानादि ___७२ २५ स्वरूपतो __७२ २६ °मप्यु ष्यतेऽल्प.० __७४ ९ उन्शिय. . . __७७ १७ जोगो ०कककाराः साम्भोगिकं ८६ २२ सव्वेसिं ८८ ३ निरतिचारा अत एवाह सम्म णिइयारा पत्रं पंक्तिः शुद्र पाठः . विंशते. ८९ १२ भगवता० . ८९ .१४ हन्तः परमकल्लाणा परम० ८९ १५ केवलिनः .. मोहवासिए ९२६ भूयः तत्राऽधीन० ज्ञानधनादीनां कर्मणां ९५ ११ विव सत्तेष्यते ९६ २८ त्तमोत्तमो ९७ २१ भिधारणेन नाऽन्ययेति भावनं २ २८ वहुवचनं ५ १० एवं १४ . २१ आणुगामियत्तं १६ . ५ 'परमेष्ठिनां , "तीर्थिकै. १६ १६ वादयो १५ . 'तुल्योच्यते । १८ .५ . नैरर्थक्यं । १८ १५ दुरनुष्ठेयत्वात् । १८ २१ शतक २८. Page #26 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पत्रं पंक्ति ___ पत्रं पंक्ति २० ७ २०११ २३ २२ २४ ७ २८ २९ १८ २२ m m शुद्ध पाठः स्रष्टा रगृहन० 'तमत्वमभिव्यनक्ति 'भिप्रेतः पापं पाठ्यमान० भोजनः निष्क्रम्या० करोमि शक्तीति° "कार्यः, सच औपपातिक० साधूना० शुद्ध पाठः प्रथमाध्येयतया शस्त्रपरिण° वक्तु . वदन्नप्रीति प्राप्नोतीति 'वृत्त्यादावा विद्यमानाः विकल्प प्रतिपत्तु० सक्तु नाऽऽसक्तानों प्रलापमानं असङ्क्लेशे० २४ २३ २५ १० २५ १८ २५ - २२ २६ ३ ३२ m २३ my اس ३७५ ___३७ १० س لس २७ २७ १९ २५ ___३९ २१ .. पूर्वधरमायसरिवरग्रथितपञ्चसूत्रमहत्त्व प्रदर्शनवाक्यसन्दर्भः ".xxx अपडिबंधमेअं असुहभावणिरोहेणं सुहभावबीमंत्ति सुप्पणिहाणंसम्मं पढिमच्वं ! सम्मं सोमव्वं !! . सम्म अणुप्पेहिअव्वं !!! त्ति ॥" Page #27 -------------------------------------------------------------------------- ________________ bobshsettesbobsbobsesast. श्रीपञ्चसूत्र-वार्तिकविषयानुक्रमः Obsessbdebattibtive पत्रं पंक्ति पत्रं पंक्ति १ भगवंताणं विशेषण १४ 'भाव' पद रहस्यम् ९ ३ तः ४ साफल्यं १५ तथाभव्यत्वस्या- ९ ५ तः ९ २ 'वीअरागाणं प्रभृति-१ १० तः नादित्वविचारः विशेषणचतुष्कस्य १६ प्रानिर्दिष्ट णंकारस्य ९ १४ तः १७ अतिशयचतुष्केन सह ३ २ पर्यन्तं पुणशब्दस्यात्र निर्दिसङ्गतिः प्टस्य च सूचकत्व३ 'तेलोकगुरूण ३ ४ तः विचारः - पदसार्थकता २२ पर्यन्तं १७ 'चउसरण' ९ १८ तः ३९ ४ णमोत्थु' पदमहत्त्वम् ३ २३ तः पदमहिमाख्यानम् ४ २३ पर्यन्तं १८ केवल्यादीना-माचार्यो५ आइक्खंति पदरहस्यं ५ १ तः १२ पाध्याययोश्च साधु पदे ९ २० तः २१ ६ 'अणाई जोवे' पद तात्पर्य ५ १३ तः समावेशविवक्षास्वरुपम् ६. २ पर्यन्तं १९ शरण्यानामर्हदादीना ९ २२ तः २५ ७ अणाइकम्मसंजोंग- ६ ३ तः । मत्र विशिष्टगुणणिव्वत्तिएआदिपद- ७ १० पर्यन्तं व्यावर्णनबीजोक्तिः चतुष्क रहस्यम् ८ 'एयस्स' पद तात्पर्यम् ७ १५ तः १७ । २० दुष्कृतगर्हा-सुकृतानु९ 'वोच्छित्ती' पद रहस्यम् ७ १८ तः २८ मोदनयोर्महत्वम् ९ २६ तः १० 'शुद्ध'पदस्य अर्थोद्घट्टनम् ८ १ तः १४ १० ९ पर्यन्तः ११ 'पाप' पद रहस्यम् ८ १५ तः २३ २१ शरणगमनादेरौचित्यं १० १० तः ११ १२ तथाभञ्यत्वव्याख्या . ८ २४ तः १९ २२ शरणगमनादि १३ आदि पद ग्राह्य- ९ १ तः २ सप्ततत्त्वानारत्नत्रयस्य · पदार्थ परामशः च संगतिः १० १२ तः १८ Page #28 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पक्रमः पत्रं पंक्ति २३ 'होउ कामेणं १० १९ तः २० । पदरहस्यम् २४ शरणगमनादीनां कर्तव्यकाल निर्देशः १० २३ तः २५ २५ णमो वीमरागाणं इत्यतः "तिकालमसंकिलेसे" ११ तः पर्यन्तं जिनानुवादसूत्रत्वेन निर्णीतस्य २३ १६ पर्यन्तः विशेष व्याख्या अनुबन्धचतुष्टयानु- ११ १ तः ७ पन्यासहेतुप्रदर्शनम् -'णमो' पद तात्पर्यम् ११ ८ तः १३ -अरुहंताणं भगवंताणं ११ १४ तः १८ पद महिमा -'वीमरागाणं' पद ११ १९ तः । रहस्यम् १२ ६ पर्यन्तं -'सव्वण्णूणं' पद १२ ७ तः २९ विशेषता -'देविंदपूइयाणं' पद १३ - १ तः १९ मद्घिट्टनं -जहट्टिमवत्थुवाईगंपद. १३ १२ तः रहस्योद्घाटनम् १५ १२ पर्यन्तं --'तेलुक्लगुरुण' पद- १५ १३ तः २६ पत्रं पंक्ति -'भगवंताण' पद १६ ८ तः ११ वैशिष्टयम् - णमो' पद तात्पर्यम् १६ ८ तः ११ -'जे एवमाइक्खंति' पद १६ २१ तः । तात्पर्यम् १७ ६ पर्यन्तं -'जीवे पद रहस्यम् १७ ७ तः १३ -'भवे पद तात्पर्यम् १७ १४ तः १९ -कम्मसंजोग' पद १७ २० तः २८ रहस्यम् -'भवव्युच्छित्तेरिष्टत्वो- १७ २९ तः १८ ३ पर्यन्तं '-एयस्स' पद रहस्यम् १८ ४ तः ६ -'वुच्छित्ती' पद १८ . ७ तः १६ तात्पर्यम् -'सुद्धधम्माओ' पद . १८ १७ तः मर्मवर्णनम् .. १९ २ पर्यन्तं -'संपत्ती' पद वैशिष्टयम् १९ ३ तः ५ -'तहाभव्वत्ताइ पद १९ ६ तः १४ तात्पर्यम् -'तस्स पुण विवाग' १९ १५ तः २१ पदानां रहस्यम् 'चतुश्शरणोपगमनस्या-१९ २२ तः २६ द्यत्वे बीजम् दुष्कृतगर्दा-सुकृतानु १९ २७ तः ३० मोदनयोरावश्यकता २० ३ पर्यन्तं शरण्यानां चतुस्सङ्खयायाः बीजम् २०४ तः १५ वैशिष्टयं -'अरुहताणं पद सार्थकता १५ २७ तः । १६ ७ पर्यन्तं Page #29 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - दुष्कृतगर्हासुकृतानुमोदनयोश्चतुशरण स्वीकारे दृष्टान्तेनानन्यथासिद्धहेतुता व्यावर्णनम् - 'अभ कायव्वामिणं' २० पद रहस्यम् - 'भुज्जो २ संकिले से ' पद रहस्यम् "जे एवमाइक्खति” पदसूचित श्रीभगवद्वचनानुवाद मार्मिकताव्यावर्णनम् चतुरशरणोपगमनाय पत्र २० २० २९ २१ लालसस्य मनोभूमिका व्यावर्णनम् अर्हतां शरणत्वे बीजम् २२ " जावज्जीवं " पद २२ रहस्यम् "मे" पद रहस्यम् २२ २३ “परमतिलोगणाहा " २३ पद रहस्यम् 'अर्चितपुण्ण संभारा २३ २४ पद रहस्यम् 'स्वीणरागद्दोसमोहा' २४ पद मर्मोद्घाटनं राग-द्वेष-मोह शब्दानां २४ कर्मग्रन्थादिषु प्रकृति पंक्ति १६ तः १८ १९ तः २५ २६ तः १५ पर्यन्तं १६ तः २० ३ तः १४ १५ तः २१ २२ तः २ पर्यन्तं ३ तः १५ १६ तः ४ पर्यन्तं ५ तः १४ १५ तः २४ वेन साक्षादनुपात्तानां स्वरुपम् राग-द्वेष-मोहानां रिपुत्व - बीजस्य पत्र २४ भगवता मर्हताच शरण्यत्वे रागादीनां घाताय हेतुत्वस्यवर्णनम् २५ क्षीणरागादि पदानां सुदेव कुदेवत्वादेर्विभागे २६ हेतुतावर्णनम् 'क्षीण' पदस्य साफल्यं २६ श्रीमदर्हतां क्षीण रागद्वेष मोहपदयोः सार्थकता 'अचिंत चिंतामणी २७ पदमहिमा 'भवजल हिपोआ' २८ पदरहस्यम् 'एगंतसरणा' पद महिमा सरणं पद तात्पर्यम् अग् अFai किमिति शरणं २५ २७ २८ २९ २९ सिद्ध शरण सूत्रस्या- २९ दौ निर्विष्टस्य तहा ३० पदस्य मार्मिकं रहस्यम् गुणगरिष्टेभ्यः सिद्धेभ्य ३० पंक्ति २५ तः ९ पर्यन्तं १० तः ३ पर्यन्तं ४ तः ८ १३ तः ६६ ७ तः २९ १ तः ९ ३० तः ७ पर्यन्तं ८ तः १८ १९ तः ११ पर्यन्तं १२ तः १६ Page #30 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पत्रं पंक्ति कथितमिति समाधानम् छिण्णजाइजरामरण- ३० १७ तः पदस्य ३१ १० पर्यन्त मार्मिक रहस्यम् भवेअकम्मकलंका ३१ ११ तः २० पद तात्पर्यम् कर्मणां कलकत्व- ३१ २६ तः । सङ्गतिः विविध रूपेण ३२ २५ तः २९ पणटुवाबाहा पद ३२. २५ तः २९ मर्मोद्घट्टनम् सिद्धेपु व्यावाधारहित- ३३ १ तः २३ स्य भिन्न २ रूपेण मार्मिक निरूपणम् केवलणाणदंसणा ३३ २४ तः २९ पद रहस्यम् केवलज्ञानस्य सर्वोत्कृ- ३४ १ तः । एतागर्भस्वरुपम् ३५ १७ पर्यन्तं केवलदर्शनसद्भाव ३५ १८ तः । संगतिः ३७ २ पर्यन्तं सिद्धिपुरणिवासी पद ३७ १ तः। तात्पर्यम् ४० २४ पर्यन्तं -जीवस्योद्धगमन ३७ ३ तः २० स्वभावत्व निदर्शनम् -सिद्धानां परमसुखमय ३७ २९ तः त्वे लोकानुभावस्य ३८ ३ पर्यन्तं वैशिष्ट्यम् -सिद्धेःपुरत्व संगतिः ३८ ४ तः १० पत्रं पंक्ति -णिवासिणो' पद ३८ ११ तः । रहस्यम्' ३९ १४ पर्यन्तं -सिद्धयमानजीवापेक्षया ३९ १५ तः अनन्तानामपि जीवानां ४० २४ पर्यन्तं व्युच्छेदाशङ्कायाः सुन्दरं निरसनम् 'णिस्वमसुह संगया'- ४० २५ तः २९ पद रहस्यम् सिद्धानांसुखत्वसङ्गतिः ४१ १ तः १६ सिद्धसुखस्य ४१ १७ तः निरुपमानत्व व्यावर्णनम् ४३ ३ पर्यन्तं प्रकारांतरेण सिद्ध ४४ ६ पर्यन्तं सुखस्य वर्णनम् श्री तत्त्वार्थभाष्यकारि- ४४ ७ तः का-दशकोल्लेखेन ४५ १ पर्यन्तं सिद्धानां निरूपमितसुख वर्णनम् श्री महानिशीथोल्लेख ४५ २. तः १६ प्रदर्शनेन सिद्ध सुख निरतिशयत्वम् 'सव्वहा कयकिच्चा' ४५ १७ तः पद मोद्घाटनम् ४६ १९ पर्यन्तं सिद्धा पद तात्पर्यम् ४६ २० तः २५ सिद्ध पदेन बुद्धादि ४६ २६ तः पदानामपि उपलक्षणम्.४७ ४ पर्यन्तं प्रासङ्गिकी जीवस्य ४७ ५ तः १३ ज्ञान स्वभावत्व सिद्धिः Page #31 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पत्रं पंक्ति सिद्धानां बुद्धत्व ४७ १४ तः सङ्गतिः ४८ ४ पर्यन्तं उपलक्षणेन पारगत्व- ४८ ४ तः ९ वर्णनम् प्रासङ्गिकं चारित्रस्य ४८ १० तः संसारसमुद्रस्य ४९ १३ पर्यन्तं पारगामकत्वमपेक्ष्य विशिष्टता प्रतिपादनं परम्परगतत्ववर्णनम् ४९ १४ तः १८ लोअग्गमुवगयाणं ४९ १९ तः पदमर्मवर्णनम् ५० २ पर्यन्तं सिद्धपदेन बुद्धत्वादि- ५० ३ तः ४ नामुपलक्षणत्वोपसंहारः सिद्धानां शरणत्वे को ५० ५ तः १७ हेतुरिति 'शरणं' पदतात्पर्यम् ५० १८ तः २५ सिद्धानां शरणत्वे ५० २६ तः प्रकृष्ट-हेतुवर्णनम् ५१ १ पर्यन्तं । साधूनां शरण्यत्व- ५१ २ तः १२ प्रतिपादनाय पूर्व भूमिका 'तहा' पदस्याद्भुतं ५१ १३ तः १९ तात्पर्यम् ५२ २२ पर्यन्तं 'पसंतगंभीरासया' ५१ २० तः रहस्यम् 'सावज्जजोगविरया' ५२ २३ तः पदतात्पर्यम् ५३ ११ पर्यन्तं पंचविहायारजाणगा ५३ १२ तः पदरहस्योद्घाटनम् ५४ २४ पर्यन्तं पत्रं पंक्ति 'परोवयारणिरया' पद- ५४ २५ तः तात्पर्यम् ५५ २० पर्यन्तं . 'पउमाइणिदंसणा' ५५ २१ तः पदरहस्यम् ५६ ५ पर्यन्तं 'झाणज्झयणसंगया' ५६ ६ तः पदमर्मव्याख्यानम् ५७ ११ पर्यन्तं 'विसुज्झमाणभावा' ५७ १२ तः २६ पदमार्मिकव्याख्या चतुश्शरणोपगमनस्य ५७ २७ तः मार्मिकहे तुवर्णनम् ५८ ३ पर्यन्तं केवलिप्रज्ञप्तस्य धर्मस्य ५८ ४ तः शरण्यत्वे प्रकृष्ट- ५९ २० पर्यन्तं ! हेतुवर्णनम् 'सुरासुरणरपूइओ ५९ २१ तः । पदतात्पर्यम् ६१ ४ पर्यन्तं 'मोहतिमिरंसुमाली' ६१ ५ तः पदरहस्यम् ६२ २९ पर्यन्तं 'रागद्दोसविसपरममंतो' ६३ १ तः पदतात्पर्यसङ्गतिः ६५ ६ पर्यन्तं 'हेऊ सयलकल्लाणाणं' ६५ ७ तः पदरहस्योद्घाटनम् ६६ ८ पर्यन्तं 'कम्मवणविहावसू ६६ ९ तः पदतात्पर्यसङ्गतिः ६७ २ पर्यन्तं 'साहगो सिद्ध ६७ ३ तः २५ भावस्स' पदमार्मिक व्याख्या 'केंवलिपण्णत्तो' पद ६७ २६ तः । · रहस्यम् ६८ २ पर्यन्तं Page #32 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पत्रं पंक्ति अशुभकर्मानुबन्धानां ९२ १९ तः श्लथीभवन-प्रहाण- ९३ ७ पर्यन्तं क्षय स्वरुपम् निकाचितानामपि ९३ ८ तः कर्मणां निरनुबन्धवत् ९४ ५ पर्यन्तं शुभकर्मानुबन्धाना- ९४ ६ तः मासकलन-परिपोषण- ९५ १७ पर्यन्तं निर्माणस्वरुपम् पापप्रतिघातगुणबीजा- ९५ १८ तः २२ धानसूत्रोपसंहारः अशुभभावनिरोधकत्वेन ९५ २३ तः शुभभावबीजत्वेन ९६ १९ पर्यन्तं पत्र पंक्ति च हेतुनैतस्य सम्यक्पाठ-श्रवणाऽनुप्रेक्षानां महत्वम् अन्त्यमंगलरुप- ९६ २० तः नमस्कारः ९७ १९ पर्यन्तं ग्रन्थकृतः परमोच्च ९७ २० तः २७ कोटिकी प्रकृष्ट शुभभावना आधसूत्रस्य नामा- ९८ १ तः ३ न्वर्थता वृत्तिकर्तुः प्रशस्तिः ९८-४ तः १३ awranwaraurarmarwaN म...न...नी...याः वा...क्य...क...ण्डि...काः 8 ० अक्षीणमोहाः सर्वेऽप्यसुमन्नोऽनादि___ मोहसत्ताका एव भवन्ति । ० यतो मूढस्तनः पापः, यतश्च पापः मत ___एवाऽनादि मोहवासितः । ० संसारस्य मार्गाऽहितः, हितस्तु मोक्षमार्ग एव । __श्री पंचसूत्रवार्तिक का. ९० aonkarunroboor Page #33 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ___ पू.आगमोद्धारकाचार्यदेवग्रथितश्रीपञ्चसूत्र-तर्कावतार-ग्रन्थ विषयानुक्रमः . पत्रं पंक्तिः पत्रं पंक्ति तः ग्रन्थनाम-साफल्यविचार: श्रीद्वितीयसूत्र-प्रारम्भगत १ ६ तः २१ जायाए पदरहस्यम् धर्म-गणयोर्व्याख्या १ २२ तः २ ७ पर्यन्तं श्रद्धापदमर्मवर्णनम् प्रतिपत्तिस्वरूपम् २ २० तः २१ भाविजापदरहस्यम् -२ २३ तः २८ एएसिमर्मोद्घाटनम् २ २८ तः ३० पयइसुंदरतंभावार्थः ३ १ तः १५ । ३ पर्यन्तं ० व्रतानां प्रकृतिसुन्दरत्व- ३ . १ तः ४ व्याख्यानम् • प्रासनिकषड्- . ३ . . ५ तः . जीवनिकायश्रद्धान- ४ ४ पर्यन्तं कष शुद्धि-हिंसा-दया-मैत्री । प्रमुखविशिष्टपदार्थानां साङ्गत्यप्रयुक्तं जिनशासनमहत्त्ववर्णनम् ० अणुव्रतानां पूर्वभूमिकायां ४ ५ तः १४ सम्यक्त्वस्य महत्धम् । ० जीवहिंसायाः स्थूलत्वे- ४ १५ तः २७ नाऽपि विरमणस्य महत्त्वम् . स्थूलप्राणवधविरतो ५ १ तः ५ प्रकृतिसुन्दरत्वयोजना ० प्रथमाणुव्रते प्रयुज्यमान ५ ६ तः । स्थूल' पदरहस्यम् ६ २० पर्यन्तं ० प्राणातिपातगतप्राण- ६ २१ तः शब्दरहस्यम् ७ १० पर्यन्तं ० अणुव्रतपञ्चकस्यानादि- ७ ११ तः १५ कालीनत्वस्वरूपम् । ० आगमिकपदार्थेषु युक्ति- ७ १६ तः २५ वादस्यौचित्यं न वेति विचारः ० युक्तिवादोपनिषच्छैल्या ७ २६ तः प्राणातिपातस्य प्रथम- ८ ७ पर्यन्तं पापस्थानत्वसङ्गतिः Page #34 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पत्रं पंक्ति धर्मस्य शरण्यत्व ६८ ३ तः ६ वर्णनम् दुष्कृतगर्यार्थ पूर्व- ६८ ७ तः १२ মুসিদ্ধা। दुष्कृतगर्दा विभागः ६८ १३ तः १५ (१) लोकोत्तराराध्य ६८ १६ तः । विषयकदुष्कृतगर्हास्वरुपम्७० १६ पर्यन्तं - 'जष्णं' पदमहत्त्वम् ६८ २४ तः २६ - 'अरिहंतेलु' बहुवचन- ६८ २७ तः . साफल्यम् ६९ ३ पर्यन्तं - अर्हतामहत्वनिर्वचनम् ६९ (२) लौकिकाप्तविषयक- ७० १७ तः २७ हुप्कृतगर्हास्वरुपम् सामान्यदुष्कृतगर्दा- ७१ १ तः १० स्वरुपम् दुष्कृतगस्विरुपम् ७१ ११ तः ७४ ६ पर्यन्तं गर्हास्वरुपम् ७४ ७तः ७५ २३ पर्यन्तं गर्हाया उपसंहारः ७५ २४ तः २६ मिथ्यादुष्कृतस्वरुपम् ७५ २७ तः । ७६ ८ पर्यन्तं दुष्कृतगर्हादृढीकरण- ७६ ९ तः १९ प्रकारः सुकृतासेवनपूर्व- ७६ २० तः भूमिकास्वरुपम् ८० ८ पर्यन्तं अनुशास्तिस्वरुपम् ७६ २४ तः ७६ ५ पर्यन्तं पत्रं पंक्ति महतां द्वादशांगी- ७७ ५ तः १० प्रणेतृत्वम् कल्याणमित्रत्वेन ७७ ११ तः १५ गुरुणां महत्त्वप्रतिपादनं सद्गुरुसंयोग प्रार्थना- ७७ १६ तः २२ महत्वम् कल्याणमित्रस्वरुपम् ७७ २३ तः ७८ पर्यन्तं बहुमानमहत्वम् ७८ ५ तः २४ सेवाह वाप्ति-आज्ञा- ७८ २५ तः । राधनमहत्वस्वरूपम् ७९ १७ पर्यन्तं निरतिचारप्रतिपत्ति- ७९ १८ तः । महत्वम् ८० ८ पर्यन्तं सुकृतासेवनस्वरुपम् ८० ९ तः २२ सुकृतासेवनप्रदर्शनम् ८० २३ तः ८६ २३ पर्यन्तं अर्हतामार्हन्त्यस्य ८० २७ तः सर्वातिशायिनः ८२ ४ पर्यन्तं अनुमोदनम् वीतरागाणामर्हता- ८२ ५ तः ८ मार्हन्त्यस्यानुमोदने किं फलम् ? अर्हतां स्वप्नदर्शन- ८२ ९ तः १९ जन्ममहोत्सवादेमहत्वम् सर्वेपामर्हतामनुमोदने ८२ २० तः किं बीजम् ? ८३ ९ पर्यन्तं Page #35 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पत्रं पंक्ति वीतरागाणां प्रसत्ते- ८४ १० तः १५ ।। रसंभवत्वात् "तित्थयरा मे पसोयंतु” कथं प्रतिपाधते ? अर्हतां भगवतामेका- ८३ १६ तः २९ न्तहितकारत्वम् सिद्धानां सिद्धभावानु- ८३ २२ तः २७ मोदनम् आचार्याणामाचास्स्या- ८४ १ तः २० नुमोदनीयत्वम् उपाध्यायानां सूत्रप्रदा- ८४ २१ तः नस्यानुमोदनीयता ८५ २ पर्यन्तं साधूनां साधुक्रियाया ८५ ३ तः ११ अनुमोद्यत्वम् सर्वेषामर्हदादीनामनु- ८५ १२ तः १६ ष्ठानस्यानुमोदने किं बीजम् ? श्रावकाणां मोक्षानुकूल- ८५ २७ तः योगानामनुमोदना ८६ १९ पर्यन्तं सर्वेषां देवानां ८६ २० तः २३ सर्वेषां जीवानां मार्गसाधनयोगस्य ८६ २४ तः साक्षान्मोक्षसाधनत्वा- ८७ ८ पर्यन्तं भावेऽपि अनुमोदनायां किं बीजम् ? अनुमोदनायाः प्रकृष्टा ८७ ९ तः । चतुरंगता ८८ ७ पर्यन्तं अचिन्त्यशक्ति ८८ ८ तः मतां परमेष्ठिनां पत्रं पंक्ति आध्यात्मिकी प्रार्थना ९१ २४ पर्यन्तं अर्हदादीनामद्भुत ८८ ८ तः २४ सामर्थ्यम् अर्हदादीनामचिन्त्य- ८८ २५ तः । शक्तिमत्त्वम् ८९ २ पर्यन्तं महतां वीतरागत्व ८९ ३ तः १३ सर्वज्ञता विशेषणद्वय प्रयोजनम् महतां परमकल्याणत्व- ८९ १४ तः २४ स्य सत्त्वानां कल्याणहेतुत्वस्य प्रतिपादनम् आराधकजीवस्य ८९ २५ तः शरणागतत्वरुपेण ९० ४ पर्यन्तं भूतकालीनस्य दीनस्वरुपस्य निन्दनम् प्रार्थनीयस्य . ९१ ५ तः १९ वस्तुनः प्रार्थनम् सर्वसत्वैः सहौचितन्त्य- ९१ १५ तः २० स्य प्रवृत्तिमहत्वम् मैत्रीभावस्य महत्वम् ९१ २१ तः २९ सुकृतासेवनोपसंहारः ९१ २५ तः । ___९२ ५ पर्यन्तं प्रणिधान सूत्रस्यैतस्य ९२ ६ तः पठनादेः किं फलम् ? ९५ २२ पर्यन्तं सम्यक्पाठश्रवणयोः ९२ ९ तः १४ स्वरुपम् अनुप्रेक्षास्वरुपम् ९२ १५ तः १८ Page #36 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पत्रं पंक्ति पत्रं पंक्ति • प्राणातिपातानन्तरं मृपा- ८ ८ तः० श्राद्धानां पापप्रवृत्ति- १७ ४ तः १७ वादोपन्यासे तर्कसङ्गत- ९ ८ पर्यन्तं सद्भावेऽपि आराधकाचं हेतूपन्यासः कथमिति विचारः • अदत्तादानविरतेस्तृतीयस्वे ९ ९ तः० प्रालि हत्यक्रिया- १७ १८ तः मार्मिकं बीजम् १० १५ पर्यन्तं प्राधान्यम् १८ १० पर्यन्तं ० चतुर्थाणुव्रतस्य क्रम- १० १६ तः बतानां दुरणचर १८ ११ तः २० दृष्ट्या महत्त्वम् १२ २० पर्यन्तं विशेषणतापर्यम् ० पञ्चमाणुव्रतस्य महत्त्व- १३ १तः . अणुवनानां १८ २१ तः क्रम-सङ्गति-स्वरूपादि-१४ १६ पर्यन्तं मंगदारुण १९ ७ पर्यन्त वर्णनम् विशेषण रहस्यम् • अणुव्रतानां प्रकृति- ३४ १० तः १८ ० अणुबनानां १९ ८ तः २६ 'सुन्दरत्त्वस्योपसंहारः महामोहनणग ० अणुव्रतानां आणु. विशेषग-सार्थक्यम् १४ १९ तः । गामियत्तं विशेषण- १५ १ पर्यन्तं ० अगुवनानां भूश्रीदुल्ल- १९ २७ तः साफल्यम् हत्तं विशेषणसतिः २० ५ पर्यन्तं अणुव्रतानां परोक्यारितं १५ २ तः० अणुवतग्रहणयोग्य- २० ६ तः ७ विशेषणसङ्गतिः १६ २३ पर्यन्तं भूमिकोपसंहारः ० प्रासङ्गिक जीवरक्षाया १५ ५ तः एवं पदस्य सम्बन्ध -- २० ८ तः १० अनुकम्पादानस्य च महत्त्वम् १६ १८ पर्यन्तं दर्शनम् तत्सङ्गतिश्च दया-दाननिषेधकानाञ्च जहासत्तीए पदरहस्यम् २० ११ तः अज्ञानबाहुल्यप्रदर्शनम् २१ २ पर्यन्तं ० साधुत्व-श्राद्धत्वयोरन्त- १६ २७ तः २८ यथाशक्तिपदस्य प्रकारा- २१ ३ तः १८ रस्य रहस्यम् Am AM ० श्राद्धानां पापेषु कायपातित्वम् १७ १ तः । Page #37 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पत्रं प्राणातिपातगतातिपात-२७ पदरहस्यम् पंक्ति ९ तः १५ प्रतिपन्नाणुव्रतानां मांस- २७ १६ तः २७ भक्षणं संगतं नवेति विचारः १ तः २४ स्थूलप्राणातिपातविरमण- २८ स्याधत्वसङ्गतिः पत्रं पंक्ति प्रासङ्गिकं आकार-दिक्-२२ १० तः । विधिशुद्धीनां स्वरूपम् २३ ८ पर्यन्तं अच्चंतभावसारं २३ ९ तः पदरहस्यम् २४ ११ पर्यन्तं पडिवज्जेज पद- २४ १२ तः २२ तात्पर्यम् तंजहा पदभावार्थः २४ २३ तः । २५ २ पर्यन्तं थूलगपदरहस्यम् २५ ३ तः १४ श्राद्धानां त्रिविध-त्रिविधेन २५ १५ तः २४ प्रत्याख्यानविचारः देवादितत्त्वत्रयोरागस्य २५ २५ तः अनन्तानुबन्धित्वाभावः २६ २ पर्यन्तं श्राद्धानां द्विविध-त्रिवि- २६ ३ तः २४ धेन प्रत्याख्याने गुरूणां न दोषापत्तिः प्रथमाणुव्रतस्यप्रकारान्तरेण २८ २५ तः महत्त्वम् २९ ७ पर्यन्तं द्वितीयाणुव्रत २९ ८ तः । महत्त्वविचारः ३१ ९ पर्यन्तं तृतीयाणुव्रतमहत्त्वसंगतिः ३१ १० तः । ३२ १६ पर्यन्तं चतुर्थाणुव्रतमहत्त्वं अति- ३२ १७ तः चारपञ्चकस्वरूपञ्च ३७ ११ पर्यन्तं पञ्चमाणुव्रत-तदतिचाराणां ३७ १२ तः स्वरूपम् ३८ ११ पर्यन्तं सम्यक्त्वस्य महत्वम् २६ २५ तः । २७ ४ पर्यन्तं Page #38 --------------------------------------------------------------------------  Page #39 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॥ नमः श्रीजिनशासनाय ॥ आत्मविशुद्धि-प्रधानसाधनभूतस्वाध्यायविशिष्टोपयोगिमार्मिक हृदयस्पर्शि-प्रकृष्टप्रभावसम्पन्नवर्णग्रथनाशोभित परमोत्कृष्टश्रुतस्वरूप श्रीचिरन्तनाचार्यविरचित श्रीपंचसूत्र ग्रंथराजस्य पूज्यपादागमोद्धारक — ध्यानस्थ स्वर्गताचार्य श्री आनन्दसागरसूरीशसन्दृब्धं वात्तिकम् -: सज्झायसमं णत्थि तवो ૧૨ ૧૧ ૧૦ S ४ २ : गीतार्थाय जगज्जन्तुपरमानन्ददायिने । गुरवे भगवद्धर्म देशकाय नमोनमः ॥ 元 Page #40 -------------------------------------------------------------------------- ________________ HO अप्रतिमश्रुतधर-श्रीपंचसूत्र-व्याख्याकार- . परमाराध्यपूज्याचार्यश्रीयुत हरिभद्रसूरीश्वराणां व्याख्यासमाप्तिप्रसंगोद्गीर्णा मं..ग..ल..भा..व..ना ॥ नमः श्रुतदेवतायै भगत्यै ॥ ॥ सर्वनमस्कारार्हेभ्यो नमः ॥ ॥ सर्ववन्दनानि वन्दे ॥ ॥ सर्वोपकारिणीमिच्छामा वैयावृत्त्यम् ॥ ॥ सर्वानुभावादौचित्ये मे धर्मे प्रवृत्तिर्भवतु ॥ ।। सर्वे सत्वाः सुखिनः सन्तु ॥ ॥ सर्वे सत्त्वाः सुखिनः सन्तु ।। ॥ सर्वे सत्त्वाः सुखिनः सन्तु ॥ Page #41 -------------------------------------------------------------------------- ________________ H ॥ णमो त्यु णं समणस्स भगवओ महावीरस्स ॥ ॥ पावपडिग्घाय-गुणवीयाहाणसणियं पढमसुत्तं ॥ HAPA AMIL मू०॥णमो वीअरागाणं सवण्णूर्ण देविंदपूइयाणं जहठिययत्थुवाईणं तेलुक्कगुरूणं अरुहंताणं भगवंताणं॥ वीरं विश्वेश्वरं नत्वा, बालानां वोधहेतते । टिप्पणं पञ्चसूत्रस्य, यथावगममुच्यते ॥१॥ वा० भगवद्भ्योऽर्हद्भ्यो नम इत्यभिधेयं, एकभविक-बद्धायुष्काणामर्हतां न व्यवहारेण सर्वेषां नमस्करणीयतेति मोक्षगाम्यन्त्यभवस्थाऽर्हद्ग्रहाय 'भगवद्भ्य' इति, भगवत्ता च शक्रस्तवप्रोक्ताऽऽदिकरत्वाऽऽदिगुणसम्पत्षट्ककलितत्वेन समग्रैश्वर्य-रूप-यशः-श्री-धर्म-प्रयत्नाऽतिशयवत्वात् । "एवं भगवत्तयाऽहतो नत्वा परमेष्ठितया नमनार्थ भावाऽऽर्हन्त्यरूपमतिशयचतुष्कं 'वीतरागेभ्य' इत्यादिभिर्दर्शितम् , स्वसमये एवमेवातिशयानां भावार्हन्त्यनिबन्धनानां भावात् क्रमश्चतुर्णी, न हि क्षपिते मोहरूपे क्षपकश्रेणिप्राबल्येनापाये मस्तकशूचिनाशे तालनाशवद् ज्ञानावरणीयादीनां त्रयाणां नाशोऽसम्भवी चिरकालान्तरितो वेत्यवश्यं वीतरागत्वेनावाप्तापायापगमातिशया अर्हन्तः सर्वज्ञा एव भवन्ति, तथापि जिनभवे उपशमश्रेणेरभावात् क्षपकच्छदमस्थवीतरागा एवार्हन्त इति वीतरागावस्थाप्राप्तेरनन्तरमवश्यं सर्वज्ञा एव ते इति 'सर्वज्ञेभ्य' इत्यनेन द्वितीयो ज्ञानातिशयः प्रतिपादितः। सार्वश्यं चाभ्युपगन्तुमर्हा जैना एव, यतः प्राक् तावद् ते जीवं ज्ञानमयमभ्युपगच्छन्ति, ज्योतिर्मय इव प्रकाशः । अपरे तु शरीरेन्द्रियविषयोत्पन्नस्य ज्ञानस्याधिकरणमात्मानमभिमन्यन्ते, न चाऽनन्तेनाप्यनेहसाऽनन्ताऽनन्तसङ्ख्याकसर्वद्रव्यक्षेत्रकालभावानां बोधो भवितुमर्हति, न चाऽलौकिकप्रत्यक्षगम्या न्य-(अ)शब्द-वर्ण-गन्ध-रस-स्पर्शाः पदार्था गम्या इन्द्रियाणां । एवं च यदपरैरात्मादि अतीन्द्रियं वस्तु प्रत्यपादि स्वस्वशास्त्रेषु, तत्सर्वं भगवद्भिर्जिनेश्वरै रेवालौकिकप्रत्यक्षोत्तमकैवल्यधारि Page #42 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (२) भिरेव साक्षादवलोकितं, तस्माद्यदनन्तांशोऽभिलाप्यानां गणधरैः श्रुत्वा भगवदेशनां द्वादशाङ्गे श्रुतरूपे निबद्धः, तदनुकारेणैवान्यैः स्वस्वशास्त्रेष्वात्माद्या अलौकिकप्रत्यक्षगम्याः पदार्था निबद्धाः । अत एव सुष्ठूच्यते 'सबप्पवायमूलं दुवालसंग मिति । किश्च जैनानामेव “ साक्ष्यस्वरूपाः, सर्वे जीवा" इत्यभ्युपगमः, यतस्ते तदावरणीय ज्ञानावरणीयं कर्म अभ्युपगच्छन्ति, अभ्युपयन्ति यथाक्षयोपशमं तस्य देशज्ञानानामाविभाव क्षपकश्रेण्या निहत्य मोहं, तद्घातप्रभावेणैव निहत्य समूलं ज्ञानावरणीयं, केवलज्ञानस्य सार्वश्यापरपर्यायस्याविर्भाव । ततः सार्वश्यमभ्युपगन्तुमर्हा जैना एव, नापरे इति । तादृशा निर्मोहा अलौकिकसर्वप्रत्यक्षज्ञानवन्तश्च भगवन्तोऽर्हन्त इति मोहमहारिविष्टब्धान्तःकरणैर्देशतोऽलौकिकप्रत्यक्षज्ञानधारकैः सेव्यन्तेऽत एवेन्द्रैः, यतस्ते गुणबहुमानिन इति । अपरे इन्द्रादेशकरानपि देवान् प्रसादयितुमिच्छन्ति तदर्थं स्तुवन्त्यपि चानेकधा, भगवन्तोऽर्हन्तस्तु न देवादितुष्टिप्रेप्सवः, न च तत्साहाय्यमपि स्वीकुर्वन्ति, प्रसिद्धं श्रीवीरस्य ततिमुपसर्गाणां निवारयितुं कृतेन्द्रेण विज्ञप्तिरवमता भगवतेति । पठ्यते च -- " तस्मादर्हति पूजामहन्नेवोत्तमोत्तमो लोके । देवर्षिनरेन्द्रेभ्यः पूज्येभ्योऽप्यन्यसत्त्वानाम् ॥१॥" (श्री-तत्त्वार्थ भाष्यकारिका-७) किञ्च-लोकानुभाव एवैष- यदुत्पन्नकेवला अर्हन्तो देवेन्द्रैः पूज्या एवेति, अत एवा "ऽभावितां पर्षदं देवमयत्वात् ज्ञात्वा भगवान् महावीरः क्षणं स्थितवान् , यावता देवेन्द्राः केवलज्ञानोत्पादकल्याणकोचितां पूजां प्रतेनुः, चचाल च पूजाक्षणसमाप्तेरनन्तरं रात्रावपि मध्यमामपापां प्रति" इति भगवतामर्हतां देवेन्द्रैः कृता पूजा या प्रातिहार्याष्टक-समवसरणाद्यैः सार्वज्ये, प्रागुत्तरमपि च्यवनजन्म-दीक्षा-मोक्षकल्याणकेषु यथायथं, सा जिननाम्न उदयादेव । अत एव 'धम्मदेसणाइहिं 'ति पाठः, आदिशब्देन पूजादेराक्षेपश्चोदीरितः शास्त्रकारैरनेकत्र । अते एवाऽविच्छेदेन प्रातिहार्याऽष्टकेनाऽर्हतां विरचनेऽप्यभूतपूर्वसमवसरणस्थाने इन्द्रायाः रचयन्त्येव देशनायै अर्हतां समवसरणं, तथाकरणेन च जिननाम्न उदयाज्जगज्जन्तुजातोद्धाराय प्रवृत्तानां भगवतामहतां स्यादेवानुकूल्यं ।। रचितायां च समवसरणपूजायां क्षीणकषायः सर्वज्ञोऽर्हन् विदधाति एव धर्मदेशनामिति देवेन्द्रपूजाऽतिशयादनन्तरं यथास्थितवस्तुवादित्व-पदद्वारा भगवतामहतां वचनातिशयस्य कीर्तनं सङ्गतमेव, ___* जिननामकर्मणो विपाकः केन रूपेण भवतीतिप्रदर्शकावश्यकनियुक्तिगाथाशकलमिदम् , गाथा चेयं"तं च कहं वेइज्जइ ? अगिलाए धम्मदेसणाऽऽईहिं" Page #43 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (३) सर्वज्ञानामेव भगवतामर्हतामशेष-रूप्यरूपि-सूक्ष्मेतरा-न्तरितदूरादि-पदार्थानामलौकिकसर्वप्रत्यक्षेणावलोक्य देशनात् [वचनातिशयः ] सम्भवति, न शेषाणां, तथाज्ञानाभावादिति । न च वाच्यं 'यथास्थितवस्तुवादी' त्यन्त्येन भावार्हन्त्यनिबन्धनानां चतुर्णामपायापगमादीनां कीर्तनात् व्यर्थं त्रैलोक्यगुरुभ्य' इति पदमिति । यत एते भगवन्तो यथास्थितानि वस्तूनि स्वयं वदन्तोऽपि न केवलं समवसरेणमुपेतानामार्याणामेव धर्मदेशनां कुर्वन्ति, किन्त्वर्हन्नाम्न एव प्रभावतो वाणी भगवतामष्टादशदेशीभाषामिश्रतया स्वरूपेणार्धमागधभाषामथ्यपि सन्ती देवानां दैवीतया, अनार्याणामनार्यभाषातया, आर्याणामार्यभाषातया यावत्तिरश्चामपि तिर्यग्भाषातया परिणमति । तत एव जगदुद्धारकरणप्रवृत्तिर्जगद्गुरुता च भगवतामहतां भवति, ततश्च वस्तुतस्त एव त्रैलोक्यगुरवो, नापरे मृषाबिरुदधारिणः कतिचिन्नरमात्रावगम्यभाषाभाषका इति आवश्यकतैव 'त्रैलोक्यगुरुभ्य' इति पदस्य पञ्चमस्यापि, परं न तत् स्वतन्त्रोऽतिशयः, किन्तु यथावस्थितवस्तुवादिपदस्यालङ्कारभूतम् इति । ___ वस्तुतस्तु 'रागाद्वा द्वेषाद्वे ' त्यादिवचनप्रामाण्यात् वीतराग-द्वेष-मोहानां वीतरागाणामेव सत्यवादित्वेऽधिकारः। - तत्रापि सार्वश्याऽभावे अलौकिकप्रत्यक्षगम्यानामात्मादीनामतीन्द्रियाणां मोक्षावसानानां वचनं स्वतन्त्रतयोच्यमानं न कदापि निश्चितसत्यं स्यात् , तत आवश्यकं सार्वश्यं, सत्यपि तस्मिन् आदेयता लोकानां तदैव स्याद् , यदा स्यात् इन्द्रादीनां पूजास्पदमिति कृतायां समवसरणरूपायां पूजायामवश्यमहन्तो देशयन्ति स्व-स्व-भाषागामिन्या भाषया धर्ममिति क्रम एषोऽविच्छेद्यो भावार्हन्त्यातिशयानामिति। . प्रस्तुते पापप्रतिघात-गुणबीजाधानरूपे आये सूत्रे प्रायेणाऽऽदिधार्मिका एव 'सदन्धमार्गगमन' न्यायेनाऽधिकारिण इति तेषामित्थंभूतमेव प्रणिधानमादौ योग्यमिति स्पष्टतया भावाऽऽर्हन्त्यनिबन्धनमतिशयचतुष्कं गदितमिति । एवमादिधार्मिकाणां प्रणिधानस्यादाववश्यङ्करणीयत्वान्न क्रियापदेन क्त्वाऽन्ताऽययेन नमस्कारः, किन्तु द्रव्य-भावसङ्कोचवाचिना पूजार्थकेन नम इत्यव्ययेनैव । तथा च नेदं शिष्यशिक्षायै मङ्गलं, किन्तु ग्रन्थस्यादावाचरणाय मङ्गलस्येदं सूत्रं णमोत्थु णं' इत्यादितो 'अरिहंताणं भगवंताणं ' इत्यन्तमिति । यदि च स्यात् तेषां मोहनीयाऽपायानां स्वरूप-भेद-रोधादिषु, क्षपकश्रेणौ, ज्ञानानां स्वरूपे, केवलस्य सर्वद्रव्यादिविषयसकलस्पष्टप्रत्यक्षे, देवलोकतदधिपेन्द्र-तत्कृतभगवदर्हदतिशयसन्दोहस्वरूपे, जीवादीनां पदार्थानां यथार्थत्वे, तथाविधवादाय स्याद्वादस्य स्वरूपे, स्वस्वभाषापरिणामस्यावश्यकत्वे विशेषज्ञाने जिज्ञासा तदा तत्तत्पदार्थस्वरूप-निरूपकाणि तन्त्राणि तेषां तेषां श्राव्यानि । यतस्तथाविधतत्तत्तन्त्राणां सम्यक् परिभावनात् तेषां तेषां - Page #44 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (४) " भाविज्जतं तु तंतणीईए । सइय-पुणवंधगाणं कुग्गहविरहं लहुं कुणइ" इतिवचनात् सकृद्वन्धक-मार्गाभिमुख-मार्गपतित-मार्गानुसारिणां सर्वेषां तत्तन्त्रपरिभावनया कुग्रहविरहभावात् । न च वाक्यं वाच्यं यदुत-सकृबन्धकादेरादिधार्मिकतयोक्तिः सा बाधति (बाधते) यतः 'शेषस्याप्युपचारतः' इत्यस्य व्याख्यायां 'शेप' शब्देनाऽपुनर्बन्धकविलक्षण-सकृबन्धकादेरेव पूर्वसेवादावधिकारितया ग्रहणादिति आवश्यकमादिधार्मिकाणां शास्त्रसम्यक्वं तदर्थं च तत्तत्तन्त्रपरिभावनं, तन्त्राणां च शुद्धिर्वक्तृशुद्धिसाध्येति स भावार्हन्त्यनिबन्धना-ऽतिशयचतुष्टयवत्तया भगवतामहतां नमस्कारः । एवं च नात्र प्रेक्षापूर्वकप्रवृत्तिमतां हिताय कथयितुं योग्यस्यानुबन्धचतुष्टयस्यावयवरूपेण मङ्गलतयाऽयं नमस्कारः, किन्तु शास्त्रसम्यक्त्वार्थं तन्त्रपरिभावनस्याऽऽवश्यकत्वात् तद्वक्तृशुद्भिज्ञापनपूर्वक-भगवदहत्प्रणिधानार्थोऽयं नमस्कारः । अत एव च 'जे एवमाइक्खंती' त्येवंरूपमतनं यत्पदाङ्कितं प्रोक्तस्वरूप-भगवदर्हदुद्देशक सूत्रमिति । तथाच नैष समग्रप्रकरणस्य पापप्रतिघात-गुणबीजाऽऽधानरूपस्याद्यस्य सूत्रस्य वा मङ्गलार्थको नमस्कारः, किन्तु जीवस्यानादिकतादिप्रतिपादकतन्त्रस्य सम्यक्षरिभावनार्थं तद्वक्तृशुद्धिज्ञापनार्थोऽयं भगवदर्हत्स्वरूपनिरूपणपूर्वको नमस्कार इति, 'प्रमोदभावनास्थानमेवैतेऽर्हन्त' इत्यादरस्यावश्यकतादर्शनार्थं च नमस्कारः, गुणवदुपबृंहणादेरकरणस्यैव दर्शनाचाराऽतिक्रमणरूपत्वात् , ___ तथाविधोऽपि कृतो नमस्कारः ‘एसो पंचणमुक्कारो' इत्यादिना सर्वपापनाश-प्रथममङ्गलहेतुतयाऽऽर्पसमाजे निश्चितत्वाद् विनविद्रावणे-ष्टसिद्धिहेतुर्भवत्येव, तथा कञ्चिदप्येकमर्थमाश्रित्य कृतो दीपोऽर्थान्तरप्रकाशनोपयोगी भवत्येव, तथा प्रमोदार्थकोऽप्येष नमस्कारो मङ्गलार्थको भवत्येव । . 'जे एवमाइक्खंती' तिनिर्देशाद् भगवदर्हत्स्वरूपझ्यापनार्थमेवैतत् सनमस्कारमपि सूत्रमिति धीधनैः सूक्ष्मधियोह्यमिति । तार्किकाणां वचनविश्वासेनैव वस्तुविश्वास इति सम्भवेऽपि यदत्रादौ वक्तुर्भक्त्युत्पादनाय विश्वासस्योत्पादस्तदादिधार्मिकत्वेन श्रद्धाप्रधानत्वात् , अत एव चोदेशात् प्रागनिर्देश इति ॥ एवं भगवत्स्वर्हत्सूत्पाद्य वक्तृपु विश्वासमथ तद्वचनमाह - मू० जे एचमाइक्खंति : अणाई जीवे ! अणाई जीवस्स भवे !! अणाइ-कम्मसंजोग-णिव्वत्तिए !!! दुक्खरूवे ! दुक्खफले ! ! ! दुक्खाणुवंधे !! ! Page #45 -------------------------------------------------------------------------- ________________ एकस्यैवार्हत एकदा भावे वक्तुरप्येकाकिन एव भावेऽपि यदत्र 'जे एवमाइक्खंती'ति बहुवचनं, तत् 'नानीदृशं कदाचिज्जगदि तिन्यायात् सर्वदा जगतो जीवादिमयत्वात् सर्वकालीना अपि भगवन्तोऽविषमरूपतयैव जीवादितत्वख्यायिन इति दर्शयित्वा सर्वक्षेत्र-कालभुवां मगवतामहतां समप्ररूपणा जीवादितत्त्वसङ्गतेति दर्शनार्थं । ततश्च न हि देश-क्षेत्रादिभेदेन जीवादीनां स्वरूपभेद इति साधितं । आदिधार्मिकाधिकारादेव 'आइक्खंती' त्येतावन्मात्रमेवोक्तं, न 'भासंति' प्रभृति । आख्यान-भाषण-प्रज्ञापना-प्ररूपण-दर्शनो-पदर्शनानामेवं भिदा-यथा धर्मो मङ्गलमित्याख्यानं, भावधर्मत्वादुत्कृष्टं मङ्गलमिति भाषणं, अहिंसा-संयम-तपांसि तद्भेदाः स्वरूपं चेति प्ररूपणा, साऽतिशया जगतां देवा इति जगत्प्रसिद्धिमनुसृत्य धर्माऽध्यवसायिभ्योऽपि सदा देवा नमस्यन्तीति प्रज्ञापना, 'जे लोए संति साहुणो' इत्युक्त्वा धर्माऽध्यवसायप्रधान-देवपूजास्पद-साधुसद्भावदर्शनं दर्शनं, पश्चात् 'तेण बुच्चंति साहुणो 'त्ति सर्वोपसंहारं कृत्वा कथाया विराम उपदर्शनमिति । अन्यत्राप्येतदनुसारेण बोध्यं बुद्धिमतेति । श्रोतृणां विशेषाऽवधानाय जीवानां वक्ष्यमाणस्वरूपेषु प्रागेव 'जे एव 'मित्याद्याख्यान, आदिधार्मिकत्वादेव नाऽऽदावावश्यकमपि जीवानां सत्त्वं प्रमाणाऽऽदिना साधितं, न च तेषामनादित्वाऽऽदिस्वरूपस्याऽपि प्रमाणाऽऽदि न्यस्तं, तेषां हि स्वभावत एव जीवानामस्तित्वाद्याऽऽगमगम्यमेव, तथा च आगमगम्यानामपि सति दृष्टान्तसाध्यत्वे दृष्टान्तेन साधनमावश्यकं, एष एव चाराधनाविधिः कथाया इति । . सत्यपि दृष्टान्ते 'यो यथा बुध्यते जन्तु 'रित्युक्तिमाश्रित्यात्र जीवानामस्तित्वाऽनादित्वाऽsदिकमागमगम्यतयैव प्रतिपादितं, विचित्रत्वादादिधार्मिकाणां, यदि केषाञ्चित्तेषां स्याज्जीवानामस्तित्वादिसिद्धौ जिज्ञासा तदा साऽवश्यमेव पूरणीयेति । जीवानामस्तित्वसाधने आदान १-परिभोग २-योगो ३-पयोग ४-कषाय ५-लेश्या ६-श्वासे ७-न्द्रिय ८-बन्धो-दय-निर्जरा ९-लक्षणा हेतवः १-अयस्कार २:कूर ३-परश्व ४-ग्नि ५-सुवर्ण ६-क्षीर ७-नर ८ -वास्या ९-ऽऽहारलक्षणेदृष्टान्तैरुपबृंहिताः त्रिकालविषयबोधरूप-चित्तप्रत्यक्षरूप-चेतनाऽनुस्मरणरूप - सज्ञाऽनेकभेदविज्ञान - सङ्ख्येतरकालीनधारणा-ऽर्थो -हारूपबुद्धिचेष्टारूपेहा - ऽर्थावगमरूपभतिसम्भावनारूप-तर्करूप-जीवाऽ-भिन्नगुणरूपाणि साधनानि दर्शनीयानि । अहंप्रत्ययात् जीवविषयकसंशयात् शुद्धशब्दत्वात् प्रतिनियताकाशरीरविधानादपि जीवानामस्तित्वसाधनं । सत्त्वात् कारणाविभागात् कारणानाशाद कारणसस्वाच्च नित्यत्वं प्रसाध्य भवकारणपारम्पर्येण चाऽनादिभववत्ता साध्येति । आङ्गा ख्यातेविशिष्टता तु प्रमाणनयनिक्षेपसप्तभङ्गीसापेक्षं स्याद्वादमर्यादार्थकथनस्य ज्ञापना । Page #46 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तेन कथञ्चिन्नित्यानित्य-भिन्नाभिन्नादिस्वरूपाणां कर्तृता-भोक्तृता-संसर्तत्व-मुक्तत्वादिधर्मविशिष्टानां जीवानामाख्यानं साधितं भवति । वीतरागाणां जन्माऽभावात् अज्ञानपांशुपिहितं, पुरातनं कर्मबीजमविनाशि । तृष्णाजलाभिषिक्तं, मुञ्चति जन्माङ्कुरं जन्तोः ॥१॥ ( ) इतिवचनाच्च भवभावस्य कर्मसंयोगनिवर्तितता, भवश्वाध्यक्षमेव जन्म-जरा-रोग-शोकाऽऽधिमृत्यादिभिराकीर्णो निःसारोऽशरणश्चेति दुःखरूप एव । नायं विद्याध्ययन-धनार्जनाऽऽदिवद् धर्मानुष्ठानादिवचेत्याह-'दुःखफल' इति, यतोऽलब्धस्वाऽऽख्यातधर्माणो जीवा मिथ्यात्वाऽ-विरत्यादिपरिणामेन हिंसाद्याऽऽश्रवप्रवृत्त्या च दुर्गदुर्गति-दुःखफलक र इति तेषां दुःखफल एव भव इति । सातिचारधर्माऽऽचाराऽनुष्ठायिनां जीवानां कतिचिद् भवा अशुभा अनन्तरं भवन्त्येवातिचारफलभोगादन्वेव धर्मानुबन्धप्राप्तेरिति भवस्य दुःखफलताऽपीत्याह-दुःखानुवन्ध' इति । अप्राप्ताकलङ्कस्वाऽऽख्यातधर्माणां भवत्येवानवदग्रकालं यावदनन्तेषु भवेपु परिभ्रमणमिति तादृशां जीवानां भवो दुःखानुबन्ध एवेत्यत्र कोऽपि न विवाद इति । 'तिकालमसंकिले से' इत्यन्तो जिनाख्यानानुवादग्रन्थः, परतस्तु विवरणग्रन्थ इति सम्भावना, तावता मूलरूपत्वादतीन्द्रियार्षदृग्वचनरूपत्वाच्च तथासम्भावना. तथा च अत्र पापप्रतिघात-गुणबीजाधानाऽऽल्यस्याऽऽद्यसूत्रसमुदायस्येदमादिसूत्रं, . जैनं शासनं न निग्रहानुग्रहपरायणं, न चाऽऽदेशकं, किन्तु सूर्य-प्रदीपादिवदिह यथार्थतया पदार्थोपदेशकमिति जीवानामनादित्वाऽऽदिनिरूपणं । अनादित्वमनादिपर्यवसानपदार्थावलोकनपटुकेवलज्ञानज्ञापित, अन्यच्च तदभावे भवस्य कर्मणो वा निर्हेतुकतयाऽसम्भवः, बीजाङ्करवदनादिसन्ततिर्भवकर्मणोः, 'नाऽसतां प्रादुर्भावो द्रव्याणां, न च सतां नाश' इति जीवद्रव्याणां सिद्धेऽनादित्वे भव-कर्मसंयोगयोरनादित्वं स्वभावसिद्धं, सिद्धेश्वेतेपु च त्रिषु भवस्य दुःखरूप-फलाऽ-नुबन्धितानिर्धारणं न दुष्करं, तथा चैतच्छूद्धानसारमेव जैनशासनं. एवं श्रद्धानं अनन्तानुबन्धिदर्शनमोहानां करणत्रयेण भेदे जाते एव सम्यक्त्वे एव भवति, परप्रवादिभिः कथञ्चिदनुकृत एतावानुपदेशः । ततश्च परप्रवादवासितान्तःकरणानामप्याऽऽदिधार्मिकाणामल्पायासेन स्वसमये आक्षेपः, "आदावाक्षेपिण्या एव प्रयोगो हितकर" इति तदुक्तिः, विक्षेपिण्यास्तु वैकल्पिकं हितं, तत एव च न कुदेव-नास्तिकाऽऽदीनां व्युदासोऽधिकृतः । Page #47 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (७) यच्च व्यवच्छेदप्राधान्येन व्याख्यानक्रिया कचित्तादृशे प्रसङ्गे सा न विक्षेपिका, परस्परं व्यवच्छेद्यव्यवच्छेदकत्वोक्तेर्गुणाऽधिकस्तुतावेव तस्यास्तात्पर्यात्, लोकोद्योतकव्याख्यावदिति । लौकिकानामपि कर्मसंयोग-तन्निर्वर्तितदुःखादि सम्मतमस्ति, तत एवं च विपाकक्षमाया लौकिकतयाssख्यानं सङ्गच्छते । एतावन्मात्रश्रद्धाने जीवास्तित्व-तन्नित्यत्व-कर्म कर्तृत्व-तद्भोक्तृत्वलक्षणानि चत्वार्यास्तिक्यस्थानान्यधिगतानि भवन्ति, तत्त्वेष्वपि जीवाऽ - जीवाss - श्रव-बन्धलक्षणानि तत्त्वानि समधिगतानि भवन्ति, परम् एतावानुपदेशः सिद्धानां जीव-कर्म-तत्संयोग-तजदुःखानां दर्शनपरः, यथा चादर्शे समं प्रतिबिम्बितं भवति, तथाऽत्र संसार प्रतिबिम्बितः परं हितोपदेशकता नैतावता पर्याप्यते, [[किन्तु ] उपादेयहेयानां पदार्थानां हेतु-स्वरूप - फलानुबन्धा चेत् (न) ज्ञाप्यन्ते, छद्मस्थज्ञानानां विशेषेग हेयोपादेय-हानोपादानप्रवृत्तिफलत्वात् । अत एव च जीवाऽजीवमात्रमनुक्त्वा शासने आश्रवादीनां मोक्षान्तानामुपदेशादि । अत एव भवस्य दुःखस्वरूपत्वाद्युक्त्वा हेयो- पादेयपदार्थ स्वरूपादिदर्शनार्थमाहएयस्स णं वोच्छित्ती सुद्धधम्माओ, सुद्धधम्मसंपत्ती पावकम्मविगमाओ, पावकम्मविगमो तहाभव्वत्ताहभावओ । एतदः प्रयोगात् एतस्य = दुःखस्वरूपादिभवस्येति यद्वा दुःखरूपादिकस्य भवस्यापि हेतुः कर्मसंयोग इति स एव प्रधान इति प्रधानस्य कर्मसंयोगस्यैतदा ग्रहणं, अतः सन्निकृष्टार्थकस्येदमो न प्रयोगः । ܕ किञ्च-कर्मोच्छेद एव दुःखादिरूपस्य भेवस्यान्तः स्यात् उद्योतवत्, दीपादिद्वारोत्पाद-नाशौ यथोद्योतस्य न स्वयं, तद्वदत्र कर्मोत्पाद - नाशद्वारैव दुःखादिरूपस्य भवस्योत्पाद - नाशाविति । पापकर्मणो वियोगस्यैव शुद्धधर्मप्राप्तिहेतुतयाऽऽम्नायात् तथाभय्यत्वादेरपि (च) पापकर्मण एव व्युच्छित्तिभणनात् एतच्छब्देन भवाऽनुसन्धानं [तु] भवस्यैव दुःखरूपत्वादेरनुभवादनिष्टतानुसन्धानेन शुद्धधर्मप्रवृत्तावुत्साहस्य जननार्थं स्यात्, न च तदसम्बद्धमिति । 6.46 77 46 विपाकोsनुभावः, ततश्च निर्जरे " ति ( श्री तत्त्वार्थसूत्र अध्याय ८ सू. ३२, ३४ ) ' कड(ण कम्माण ण मोक्खु अत्थि, गण्णत्थ वेयइत्ता तवसा (वा) झोसइत्ते ' (श्री दशवैकालिकसूत्र चू. १ ) ति च वचनात्, सर्वसंसारिणामनुक्षणं भोगेन क्षयभावेऽपि तत्क्षयस्य कर्मोंनुबन्धित्वादत्र निरनुबन्धी क्षयो यः सोऽनुसन्धेयः । भवस्य व्युच्छेदोऽपि सर्वसंसारस्य मरणपर्यवसानत्वादस्त्येव प्रतिभवं भवविच्छेदः, परं शुद्धधर्मसम्पाद्यो भवविच्छेदो भवान्तराऽननुबन्धीति भवान्तरानुबन्धी भवस्य विच्छेदो ग्राह्य इति । ર Page #48 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (८) पापकर्मणां भवस्य वा व्यवच्छित्तिप्रसङ्गादत्र क्षान्त्यादिको दशविधः स्वाख्यातधर्मो ग्राह्यः । सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्राणां तत्तत्प्रतिबन्धक-पापविच्छेदात्प्राप्यत्वेऽपि तेषां निःश्रेयसमार्गत्वादपवर्गेऽपि सत्त्वादुपादानकारणत्वात् ।। किञ्च-तत्कारकभूतस्य पापकर्म-विगमस्य तथाभव्यत्वहेतुकत्वभणनात् मोक्षे च भव्यत्वस्यैऽवाभावादिति मोक्षमार्गत्वेन ख्याततया पापकर्मविलयतया(च) सम्यग्दर्शनादीनां शुद्धधर्मतया ग्रहेऽपि न काचिद्धानिः, न हि प्रकाश्याऽन्तरस्याभावे दीपस्य प्रकाशस्वभावो विलीयते इति । किञ्च-न सम्यग्दर्शन-ज्ञानयोः शुद्धधर्मेण प्राप्तिः ताभ्यां प्राग मिथ्यात्वाऽज्ञानयोरेव भावात् , प्रागपि तदुत्पत्तेस्तत्तत्क्षयोपशमादेर्भावात्तस्य शुद्धधर्मत्वेन ग्रहे वा न विरोधः । लौकिकानामुपकारक्षान्त्यादीनां निरासार्थ धर्मस्य 'शुद्ध' ति विशेषणं । " सुप्रणिधानयुक्त औचित्येन सततं सत्कार-विधिसेवित एव शुद्धधर्मः कुशलानुवन्धिनिर्जरामापक " इति प्राप्तिः विशिष्यते "संपत्ती"। 'सव्वेसिं सावगाण मुक्खसाहणजोगे' त्यादिवचनादनन्तानुबन्ध्यादि-विलयजन्या अपि क्षात्यादयो ग्राह्याः धर्माः, एकोनसप्तति-कोटाकोटि-सागरोपमाऽधिक-मोहस्थिति-क्षयप्राप्यत्वात्तेषामपि तथाभव्यत्वजन्य-पापकर्मविगम-जन्यता न विरुद्धेति । यद्यपि “आत्मनो भवकूपे पातनादवगुण्ठनाद्वा सर्वाणि कर्माण्येव पापं" तथाप्यत्र परिभापितं 'पाप' कर्म गृह्यते, तस्य शुद्धधर्म-सम्प्राप्तेः प्रतिवन्धकत्वात् , तद्विगमादेव च शुद्धधर्मसम्प्राप्तेर्भावादिति । 'पापः पापेन कर्मणे' त्याद्युक्तेः पापशब्दस्य पापभूयिष्ठे प्राणिनि प्रवृत्तेः 'पापकर्म युक्तं । 'खेटं पापमपसद' मिति पापशब्दः सामान्येन नीचवाच्यपीति 'पापकर्म 'ति । सर्वेषां कर्मणामन्तःकोटीकोटीसागराऽधिकस्थितेः क्षयाय 'विगम' इति, तथा च विशिष्टो-शुद्धधर्मप्राप्तेरेनुगुणो नाशो ग्राह्यः, वेदनजन्य-पापकर्मनाशस्त्वशेपाणामसुमतामस्त्येवेति विशिष्टनाशग्रहणं । ___ यद्यपि शुद्धधर्म-पापकर्मविगम-तारतम्यकारिण्येव कर्मविच्छित्ति-शुद्धधर्मसम्प्राप्तिलब्धिस्तथापि पञ्चमीकरणं "आत्माऽध्यवसायस्यैवाऽसाधारणकारणत्वेन साधकतमते" ति ज्ञापनार्थमिति । भव्यत्वं हि पारिणामिको भावः, जीवाऽजीवेषु जोवाऽजीवत्ववत्, नहि केनचिदौदयिकाऽऽदिना निर्वर्तितः, मुद्गराशौ कङ्कटुवत् , भव्यत्वं च मोक्षप्रापकधर्माहत्वं, तच्च सर्वेषां भव्यानां समानमेव । वीजोद्भवकारणता यथाऽङ्कुरे, यथा वा बीजेऽङ्कुरोद्भवकारणता, तच्च सर्वेषामेव भव्यानां समानमेव, परं काल-क्षेत्र-पुरुष-साधनप्रभृतिभिर्भेदैस्तीर्थकृद्-गणधर-मूककेवलिप्रभृतिहेतुरूपैः चिराऽऽपकालीनादिभिभैदैश्च वीज-सम्यक्त्व-चारित्र-मोक्षप्राप्तीनां वैचित्र्यात् , अनन्यनिबन्धनत्वाच्च तेषां प्रतिभव्यं यद् विचित्रभव्यत्वं तदेव तथाभव्यखमिति । . Page #49 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आदिना बादर-त्रस-पञ्चेन्द्रियत्वाऽऽदीनि साधारणकारणानि, प्रान्त्याऽऽवर्तकालेऽपि सुषमाssदिकः, यथाप्रवृत्त्याऽऽदिकरणत्रिकोद्यमो यत्न इत्यादीनि चाऽसाधारणानि कारणानि ग्राह्याणि । भावशब्दोऽत्र सद्भावस्य वाचकः, न प्राप्तिहेतुर्धर्मस्य; तथाभव्यत्वादेरकृत्रिमताख्यापनार्थं च सद्भाववाचको.भावशब्द इति । तथाभव्यत्वस्याऽनादित्वादेवाऽव्यवहारराशावपि वर्तमानानां जिनानां सर्वजीवेषूत्तमत्वं गीयते, स्तूयते च 'पुरुषोत्तमेभ्य' इतिपदेन तत एव शक्रस्तवे । अनादिस्वभावस्थं हि तथाविधं भव्यत्वं न शुद्धधर्मसम्प्राप्तिहेतोः पापविगमस्य कारणं, किन्त्वङ्कुर प्रति सोच्छूनतावस्थबीजवत् परिपाकमागतं । ततश्च तथाभव्यत्वस्य परिपाके ये हेतवस्ते ज्ञेया आचरणीयाश्चेत्याहुः प्रकरणकाराः । तस्स पुणः विवागसाहणाणि- . चउसरणंगमणं, दुक्कड गरिहा, सुकडाण सेवणं । अओ कायचमिणं होउकामेण सया सुप्पणिहाणं । भुजो भुज्जो संकिलेसे, तिकालमसंकिले से । अधिकाराऽन्तरताज्ञापनाय प्राग् 'एयस्स ण मित्यत्र 'ण' कारस्योपन्यासस्तथाऽत्र 'पुनः शब्दस्य शंकारस्यालङ्कृतवाक्यार्थ उपन्यासः । ' तत्र हि वाक्ये संवर-निर्जरा-मोक्षाणां सूचा । अत्र हि प्रागलब्धलाभस्य तथाभव्यत्वस्य परिपाकरूपस्येति 'पुनः' शब्दोपन्यास इति । . शरणगमनोक्तेर्मङ्गलत्वं लोकोत्तमत्वं चानुगतमेव, निर्विघ्नमिष्टानां प्राप्ति-स्थैर्याऽविच्छेदकरत्वस्य लोकातिशायित्वस्य चानवगमे 'शरण' शब्दवाच्यभक्तिप्रताया असम्भवात् । अहंव्यतिरिक्तानां सर्वेषां केवल्यादीनामपि साधूनां साधुपदेन ग्रहः, आचार-विनय-सहायहेतूनामविवक्षणान्नाऽऽचार्याऽऽदयो भेदेनोक्ता इति । पर्युपास्यानां 'कल्लाणं मंगल' मित्यादिवचनात् पञ्चपरमेष्ठि-नमस्कारे गुणानां साक्षादनभिधानं गुणिद्वारैव ग्रहः, अत्र तु भक्तेराश्रयणाद् गुणरूपस्य धर्मस्य साक्षाद् ग्रह इति पदानां न्यूनाऽऽधिक्यविचारोऽत्र फलेग्रहिः। सर्वज्ञोक्ताश्चमे क्रम (!) (क्तश्चायंक्रमः ) इति आराधनासोपानान्येतानि चतुर्णा शरणस्याहदादीनां पुष्टालम्बनत्वात् संसारादुद्धर्तुकामानां । न च जैनं शासनं जिनेश्वराणामभीष्टस्तवाऽऽदिभिरुत्तमबोधिप्रार्थनावसानैर्मोक्षप्राप्तौ केवलैः कृतार्थ• तामानि, अतो दुष्कृतानां निन्दनं, सुकृतानां चानुमोदनं मते जैनेऽत्रावश्यकं । Page #50 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१०) जीवानां प्रमादबाहुल्यादनादिप्रमाद-वासनाऽऽभ्यासवशाच्चानीप्सतामपि प्रमादास्तजनितानि च पापानि दुरन्तानि भवन्ति, तत्र नाथयें, परं ! जातानां दुष्कृतानां निरनुवन्धिता तदैव स्यात् यदा तेषां निन्दनादि क्रियते, प्रतिक्रमणस्यैव सर्वाऽतिचारशोधनस्य मूलभूतत्वात् । 1 अत एव कृतसामायिका अपि निन्दाssदिना भूतकालीनान् सावद्ययोगान्निन्दन्त्येव तपश्चाभ्यन्तरं प्रतिक्रमणमिति निकाचितानामपि दुरितानां क्षयाय अभ्यन्तरमेव तपोऽलं, ततश्वातीत कालीनानां सर्वेषां गुणाधानाय गर्हाssवश्यकीसि । यथैव हि दुष्कृतानां पुराकृतानां निन्दनेन निरनुबन्धिता भवति, कृतानां सुकृतानामनुमोदनेनैव पुष्टानुबन्धिता भवतीत्याह-कृतानुमोदनरूपस्य सुकृतवरस्याचरणाय सुकृतासेवनमिति । इदं शरणगमन-दुष्कृतगर्हा-सुकृतानुसेवनरूपं त्रितयं सर्वेषां प्रपन्न - जैनशासनानामवश्यं कर्तव्यमिति सूत्रेष्वप्यङ्गोपाङ्गादिपु तद्भवसिद्धिकादीनामप्येतत् त्रिकमप्येवान्याऽऽराधना श्रूयते । अत एव च वक्ष्यति - " कर्तव्यमिदं भवितुकामेने "ति, एष उपदेश: सप्ततन्त्व्याः सारः, आराध्यानां देवगुरुधर्माणमाश्रयः, आसेव्यानां सम्यग्दर्शनचारित्राणामनन्यस्वरूपश्च । यत्रोऽत्र हेयानामाश्रव-बन्धानां विगमः पापकर्मविगमेन, संवर- निर्जरयोग्रता शुद्धधर्मसम्पत्तेः सम्पादनेन, भवविच्छेदेन मोक्षश्च स्पष्टतया भणितः, उपदेश्यत्वेन जीवस्तु साक्षात्कृतोऽस्त्येव । आराध्यपादानामाराधनं तु शरणगमनस्य दुष्कृतगर्हायुक्तसुकृताऽनुसेवनात् प्रागेवाऽऽख्यातं । न च विरहय्यार्हत्-सिद्ध-साधूनन्य आराध्यः शासने जैने । सम्यग्दर्शनादिरूपत्वमस्यैवं - यथास्थिततवानां जीवानामनादित्वादीनां श्रद्धाने बोधे च सम्यगदर्शनं सम्यग्ज्ञानं, दुष्कृतत्याग-सुकृतसेवे तु विहाय न किमपि चारित्रमिति । तत एव चाह - 'भवितुकामेने 'ति । अनादिकर्मजनिताऽनादिभवेन रहिततया भवितुमिच्छता सिद्धि प्राप्तुमनसेत्यर्थः, कर्तव्यं योग्यमेव इदं चतुः शरणगमनादिकं त्रयमिति । 'नमो वीतरागेभ्य' इत्यत आरभ्य यो वाक्यप्रबन्धः स प्रकरणकर्त्रा जिनानुवादेन प्रतिपादितः, परतच पापप्रतिघात गुगवोजाऽऽघानप्रतिपादनपरं सूत्रं सदनुष्ठात्रुक्त्यनुवादेन वक्ष्यति । अतोऽत्र चतुःशरणगमनादीनां कर्तत्र्यताकालं निर्दिशति - सङ्क्लेशकालश्चातङ्कोपसर्गाभिभवाऽऽदियुतः, तद्रहितत्वसक्लेशकालः, तत्राऽऽतङ्कादौ सततमन्यथा त्रिसन्ध्यमवश्यं कार्य, सिद्धिमाप्तुमनसेति योगः । Page #51 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अथ प्रकरणकारकृतस्य सनमस्कारस्य जिनाऽनुवादसूत्रस्य व्याख्या जिनोक्तानुवादपरत्वात् प्रस्तुतस्य सूत्रांशस्य न मङ्गलाऽऽद्यनुबन्धचतुष्टयस्योपन्यासः, जिनोक्तौ तस्यासम्भवात् , परमाप्तत्वादेव जिनानां तद्वचनेष्वादरेण प्रेक्षावतां प्रवृत्तेः सिद्धत्वात्, स्वयं देवाधिदेवत्वात् नाऽन्यनमस्कारेण निर्विघ्नपारगमनादि, किन्तु क्षयादेवाऽऽन्तराणां, उदयादेव च जिननाम्नः स्वतःसिद्धविनाऽत्यन्ताऽभावा एते, न चैते इष्टसिद्धय-निष्टनिवारणमन्यदा ब्रुवन्ति इति नार्थः प्रयोजनाभिधेययोर्दर्शनेनेति । 'नमो वीतरागेभ्य' इत्यतो 'अरुहंताणं भगवंताण' मित्युक्तं, तदनुवादकेन प्रकरणकारेणाऽनूद्यानां जिनानां परमगुरुत्वेन नमनाऽऽदिविनयस्यावश्यकर्त्तव्यत्वादुक्तं, नानुबन्धाङ्गत्वेनेति । अधुना व्याख्याकारा द्वितीये पदकरणनाम्नि व्याख्याभेदे स्त्यादीनि पदानि भेदयित्वा व्याख्यान्ति, प्राच्यास्तु पदानां नामिका-ऽऽख्यातिको-पसर्गिक-नेपातिकमित्रैर्भेदयित्वा पदव्याख्या कुर्वाणा अन्यतमं भेदं निर्धारयामासुः, अत एव नियुक्तो-' णमो इति णेवाइयं' इत्युक्तं, आख्यातिके 'नम्' धातुजाते पदे 'प्रहत्व' मात्रं स्यात् , नैपातिकनमःपदाच निपातानामनेकत्वाद् 'द्रव्यभावसङ्कोचः पदार्थ' इति पदार्थनाम्नि व्याख्याभेदे स्पष्टितं । तत एव च पूजार्थे नमसः क्यन् क्रियते, पठ्यते च - 'देवावि तं नमसंतीति । 'अहंद्भ्यो नम' इति वाच्ये 'देवतानां गुरूणां च नाम नोपपदं विने' त्युक्तेभंगवद्भ्य इत्युपपदं । यथा शक्रस्तवे ' णमोत्थुणं अरिहंताणं भगवंताण' मिति । तदा च 'भगवद्भ्योऽर्हद्भ्यो नम' इत्यभिधेयं शक्रस्तवे, समग्रैश्वर्यादीनां भगवच्छब्दवाच्यानां षण्णामर्थानां सम्पदाक्रमेण वाच्यत्वात् आदिकरत्वाऽऽदीनि विशेषणानि पश्चादुक्तानि । अत्र तु स्वतन्त्रतया भावाऽऽर्हन्त्यनिबन्धनानामतिशयानां चतुर्णा वक्तव्यत्वात् प्रागेव' विशेषणानि । ___ यद्यपि भगवच्छब्देन भावार्हन्त्यमागच्छेत्, परं च्यवनादा मोक्षगमनपि भावाऽऽहन्त्याऽभिगमपक्षे कैवल्यदशावर्तिभावाऽहत्परिग्रहायाऽऽवश्यकानि वीतरागादीनि चत्वारि विशेषगानीति । यद्यपि उपशान्तमोहावस्थायामस्ति वीतगगता, परं न साऽत्र, यतः प्रतिपातपर्यवसाना सा; न च जिनानां छामस्थ्येऽपि तथाप्रतिपातितेति क्षपकश्रेणिजन्यैव वीतरागावस्था स्वरूपतो ग्राह्या । किञ्च वीतरागतेयं सर्वज्ञताप्रापगप्रत्यला ग्राह्या, पुरतः 'सर्वज्ञेभ्य' इत्युक्तेः, ' सार्वज्यं च क्षीणमोहानामेव वीतरागाणां भवती' ति क्षीगमोहवीतरागतैव वीतरागपदेन ग्राह्येति, सूर्योदये उदितेऽरुणोदयकथनं निष्प्रयोजनं यथा, ततः पूर्वं तस्यावश्यम्भावात् । इत्थमेव माया-लोभरूपरागस्य क्षयात् प्रागेव क्रोध-मानरूपस्य द्वेषस्य हास्याऽऽदिषट् फरूपस्य मोहस्य च क्षयोऽवश्यं भवतीति वीतद्वेष-मोहवचनेन न कोऽप्यर्थः कोविदानां, तथापि स्वरूपदर्शनार्थमितरतीर्थीयदेवतानां च व्यवच्छेदार्थ यदि च वीतद्वेष-वीतमोहोक्तेरावश्यकता तर्युपलक्षणतया वीतद्वेष-बीतमोहता ग्राह्या, उप Page #52 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१४) एवं श्रीमदर्हन्तो भगवन्त एव सर्वज्ञतयाऽऽत्मादीनां साक्षात्कारं कृत्वा केवलेन तज्ज्ञातमेव जीवादिकं मोक्षाऽवसानं तत्वसमूहं यथाज्ञातमा चरव्युर्भगवद्गणधरादीन् प्रति, तत एवाssवश्यके नन्द्यां च केवलाऽधिकारेऽपि “ केवलणाणेणऽत्थे णाउं, जे तत्थ पण्णवणजोगे | भाई तित्थ "त्ति स्पष्टयोच्यते । तथा च ये केवलज्ञानवन्तः सन्तः केवलेनैव ज्ञातान् जीवाऽऽदीन् पदार्थान् वीत - रागतया यथाज्ञाताने वाऽऽचख्युस्त एव यथास्थितवस्तुवादिनः एवम्भूताच श्रीमदर्हन्तो भगवन्त इति तन्नमस्क्रिया । अन्यतीर्थीया यथा श्रीमतामर्हतां भगवतां देवत्वेन त्रिलोकीमान्यानां तौर्थेशत्वंमनुसृत्य स्वं प्रतिबिम्बं पूज्यतापदवीमानयन्तोऽपि नासानियतदृष्टयाऽऽस्य प्रसन्नता-चक्षुर्निर्विकारता-पर्यङ्कशयितादिकं देवलक्षणं न तस्मिन्नादर्तुं शक्ता जाता:, तथा भगवता महतामेव साक्षात्केवलेनालोक्य कृतां तत्त्वदेशनामपि नानुचक्रुः । प्राक् तावद् भगवद्भिरर्हद्भिर्जीवाऽजीवरूपं तत्त्वद्वयमेव निर्दिष्टं तद्वयस्य जगति सदा परस्पर- विविक्तस्वरूपतया भावात्, तदतिरेकेण तृतीयस्य कस्यापि पदार्थस्य अभावात् । विद्यमानयोरेव याथातथ्येन प्ररूपणेनैव यथास्थितवस्तुवादिता, कल्पितानां युक्त्या प्रसाध्यापि स्थापना तुरङ्गशृङ्गोत्पादसमानैव । उपदिष्टयोश्च जीवा—ऽजीवतत्त्वयोः केचित्तथाविधा जीवा एवावबुध्येयुः सभेद-प्रभेदौ जीवा - जीवौ, जीवानां शुद्धस्वरूपं, तस्याविर्भाव - तिरोभाव- तज्जनकहेतुसमूहं च । ततोऽदग्धदहनन्यायेन प्रभूतानां तथाविध-बोधवर्जितानां जीवानामुपकारायोपादेयतया मोक्षं, तत्साधनतया संवर- निर्जरे, तद्बाधकतया चाऽऽश्रव - वन्धौ च निरुपणीयावेव । तथा ( एवं ) परमार्थरूपां सप्ततत्त्वीमुपदिशन्त एव श्रोतॄणां भवनिस्तार- निःश्रेयसप्राप्तिप्रगुणतामाविष्कृत्य हितस्योपदेशका भवन्ति । संवess श्रवादयो न निःसाधनानां जीवानां भवन्ति, तत्साधनभूते च पुण्य-पापे एव । नह्यन्तरा पुण्यस्य पापस्य वोदयं संवराss - श्रवादीनां साधनानि योगगुत्यादयोऽवाप्यन्ते, परं ते निःश्रेयसादीनां न साक्षात् साधके वाधके वेति तयोर्निरूपणं वैकल्पिकं । केचित्तु ते (पुण्य-पापे) समाविश्य पदार्थ नवकं श्रीमदर्हद्भिर्भगवद्भिरुपदिष्टमित्यपि वदन्ति । न च तदप्यचारु, इति । Page #53 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१५) एवं च सप्ततत्त्व्या नवपदार्थ्या निरूपका एव हितकामिनां श्रोतृणां यथास्थितवस्तु• वादिनस्तत्त्वोपदेशकाच कथ्यन्ते । । । यद्यपि समेऽपि तीर्थिकाः स्व-स्वप्ररूपणया जगद्वतियावन्मात्रान् पदार्थान् विषयीकृत्यैव स्व-स्वशास्त्राणि रचितवन्तः, परं विहाय श्रीमदर्हतां भगवतां शासनं न काऽपि ज्ञेय-हेयो-पादेयविभागोपयोगितयाऽस्ति पदार्थानां निरूपणं, न च यथाऽवस्थितं पदार्थानां स्वरूपं तथा-निरूपणमपि । ___ततः श्रीमदर्हतां भगवतां द्वादशाऽङ्गरूपं यथास्थित-वस्तुनिरूपकमुपलभ्याऽपि तैः परतीथिकैलोकानावर्जयितुं केवलमात्मादयः पदार्थाः कतिचिदनुकृत्य निरूपिताः, नत्वाश्रव-संवरादयोऽनुकरणेनापि तैर्निरूपिताः । न चैतद्वैषम्यं निर्हेतुकं, यतो यदात्माऽऽदीनां निरूपणं तेऽनुकरणेनापि न कुर्युः, कथं लोकास्तेषामाराधनाय तत्पराः स्युः ?, यदि चाऽऽश्रव-संवराऽऽदीननुकृत्य निरूपयेयुस्तारम्भ-परिग्रहाऽऽदीनां कर्तव्यो भवेत्यागः, स च तेषां भवाऽभिनन्दिनां दुष्करतम इति नाऽनुकरणं कर्तु शक्तास्ते पूर्णतयेति । 'श्रीमदहन्तो भगवन्त एव यथास्थितवस्तुवादिन' इति सहजसिद्धमेवेति । ___ मोहादीनपायान् सर्वथा दूरीकृत्य सकल-लोकाऽलोक-भावप्रकाशकं शुद्धाऽऽत्मस्वरूपं केवलमवाप्य पूर्वभवीय-जगदुद्धारकचिन्ता-वरबोधिलाभप्रभावजाऽहंदादिपदाराधन-निकाचितजिननामोदयलब्ध-शकश्रेणिसपर्याका जीवाऽऽदियथार्थवस्तुवादिनो भवन्तोऽपि 'देशनाफलं श्रोतृणां बोधानुगत' मिति न्यायमाश्रित्य परार्थसम्पत्सिद्धिप्रद्योतनाय चाह-'त्रैलोक्यगुरुभ्य' इति त्रैलोक्यं चाधस्तिर्यगु-लोकरूपं, गुरुत्वाऽधिकाराच्च तत्स्थानां वानमन्तर-व्यन्तर-भवनपति-देव-मनुष्य-तिर्यग्ज्योतिष्क-सौधर्मकल्पाऽऽदिस्थितदेवानां ग्रहणं, न च 'तात्स्थ्यात्तव्यपदेश' इति न्यायोऽत्राऽसङ्गत इति । गुरुत्वं च कष-च्छेद-तापशुद्धस्य धर्मस्य शासनात् , तीर्थस्थापनेन, मोक्षमार्गस्य प्रवर्तनात् , त्राणाच्च यत् यथार्थ शास्त्रं तस्योपदेशनात् 'स्वयं परिहार' इत्युपदेशकरीतेश्च, स्वयं तथा तत्र प्रवर्तनाच्चेति । त्रैलोक्यगुरुत्वं च जिननामोदयात्-तथाविधाऽतिशयाऽवाप्तैः देव-नर-शबर-तिरश्च स्वयमुक्ताया अर्धमागधीवाण्या अपि स्व-स्वभाषात्वेन परिणामनात् । न चैनमतिशयमन्तरा सर्वदेशीभाषामयाऽर्धमागधभाषामन्तरा चाऽऽबाल-गोपालाङ्गनानां सदेवनराणां बोधो, न च तदभावे त्रैलोक्यगुरुत्वमिति श्रीमदर्हतां भगवतामेवैतत्सम्भवाद्योग्यमुक्तं विशेषणं त्रैलोक्यगुरुभ्य' इति । 'अईय' इति कर्मप्रकृतिसमुदायगत-जिननामकर्मोदयवद्भ्यः । . यथैक एव भानुः तिमिर-ततेनिराकरणात् यथार्थतया तिमिराऽरिः, तथैव दिनस्य विधानाद् दिनकरः, कुमुदानां विकासनाच्च कुमुदबान्धव इति यथार्थतया पृथक्पृथगभिधां लभते, एवमत्रापि Page #54 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१२) लक्षकता च वीतरागपदस्य रागक्षयात् प्रागवश्यं तयोः क्षयस्य भावात् , मोहादित्रिकस्य क्षय एव साक्ष्योत्पत्तेरिति । ___ यद्यपि सर्वज्ञविशेषणेन विशेषितेषु भगवदर्हत्सु नाऽर्थो वीतरागपदेन, सार्वश्यात् प्रागवाश्यं वीतरागताया भावात् , परं मुधा सर्वज्ञतावादिनां निरासाय सर्वज्ञताया अवश्यंपूर्वभाविताया 'केवलीयणाणलंभो णऽण्णाथ खए कसायाण' (श्री आव० नि० गा.) मितिवचनादर्शनायव वीतरागेति पदमुक्तमावश्यकं च तदिति सहचरत्वनियमात् सर्वदर्शिभ्य इत्यपि । साकारोपयुक्तस्य लब्धिप्राप्तेरादौ सर्वज्ञत्वं, 'विशेषगुणो हि ज्ञानमात्मन' इति सर्वज्ञत्वोपन्यासः, आत्मनो ज्ञानमयत्वात् केवलज्ञानस्यैवात्मस्वरूपत्वाच्च क्षीण-ज्ञानावरणीयस्य स्यादेव केवलवत्त्वं सार्वश्यं चेति । सार्वश्याभावे ह्यहंप्रत्यय-ग्राह्यस्य शब्दादिरहितस्याऽऽत्मनः सुख-दुःख-वेदनानुभवस्य साताsसातकर्मण एवमादीनामनेकानामलौकिकप्रत्यक्षगम्यानामध्यक्षज्ञानं न स्यात् । अनुमानगम्यत्वमप्येषां प्रत्यक्षदर्शिनिर्दिष्टसम्बन्धानुसार्येवेति । सर्वमपरिशेपं द्रव्य-क्षेत्र-काल-भावविशिष्टं द्रव्य-पर्यायात्मकं सामान्यविशेषरूपं वस्तु जानन्तीति सर्वज्ञाः । एतानपेक्ष्यैव 'मानाधीना मेयसिद्धि' रिति नियमः, तदज्ञातस्यासत्वात् अनाद्यनन्त-पदार्थगोचरत्वाच्चैतज्ज्ञानस्यानाद्यनन्ततया ज्ञानं, समन्ततो ज्ञातस्यापि वृत्तस्य नाद्यन्त्यभागव्यपदेशस्तथारूपत्वादेव वृत्तस्येति । किञ्च-द्रव्याणामनाद्यनन्तत्वाभावेऽनुपादानस्योत्पत्तिः निरन्वयो विनाशश्च प्रसज्यते, द्रव्याण्यपेक्ष्यैव च "नासतो जायतेऽभावः, नाभावो जायते सत' इति विद्वत्पर्पत्सु गीयते इति । एताभ्यां च द्वाभ्यां विशेषणाभ्यां श्रीमदर्हतां भगवतामातत्वसिद्धिर्दर्शिता, यत आप्तिमन्त आप्ताः, आप्तिश्चात्यन्तिकी हानिर्दोपाणां, दोषाश्च राग-द्वेष-मोहा अज्ञानं च, क्षीणमोही भूत्वा यथार्थ सार्वश्यमाप्तानां नैकोऽप्येषां मध्याद् दोषो भवति, सिद्धे चाप्तत्वे तद्वचनानां निस्संशयं प्रामाणिकता गीयते । न च साश्येन वक्तृता विरुध्यते, यथार्ह श्रोतृणां प्रतिबोधायाऽरक्तद्विष्टतया जीवादीनां तत्त्वानां ज्ञेय-हेयो-पादेयधर्मवतामुपदेशे वाधालशस्याप्यनवकाशात् , अन्यथा गमनाऽऽगमनादीनामपि विरुद्धताप्रसङ्गात्, अलौकिक-सर्वप्रत्यक्षगम्यानां जीव-पुण्य-पाप-स्वर्ग-नरक-मोक्षाऽऽदीनां ये प्रतिपादका आगमास्तेषां सर्वेषां कल्पितत्वप्रसङ्गात् । एवं क्षीणकषायतायाः सर्वज्ञतायाश्चाऽऽख्यानेन श्रीमदर्हतां भगवतां सम्पूर्णा स्वाऽऽर्थसम्पत्तिः प्रतिपादिता। Page #55 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१३) ‘जगति च गुणसम्पदामधिगमे एतदेव बीज-यद् गुणवतां पूजा-बहुमान-भक्त्यादि क्रियते, विशेषतश्च गुणसम्पदर्थिनो देवा इति योग्यमुक्तं "देवेन्द्रपूजितेभ्य' इति । । यद्यपि देवेन्द्राऽनुवृत्त्यादिभिः कारणैः सर्वैरपि भवनवास्याऽऽदिभिर्देवैरप्यहन्तो जन्मांदिषु कल्याणकेषु पूज्यन्ते, परं प्राक् तावत् सर्वेषां देवेन्द्राणामासनांनि चलन्ति, ततो ज्ञात्वा तत्तच्च्यवनादि वस्तु जिनानां महाकल्याणकारि यथाविधि शक्रस्तवेन स्तुवन्ति, पश्चात्तु तदादेशादपरदेवानां पूजाप्रवृत्तिर्जायते इति देवेन्द्रपूजिता इत्युक्तं । किञ्च-देवेन्द्राः सर्वेऽपि सम्यग्दृष्टयः स्युः, सम्यग्दृष्टीनां मैत्र्यादि-भावनाचतुष्कं स्वभावसिद्ध, तत्र प्रमोदभावनायां गुणवद्बहुमानस्यावश्यकर्त्तव्यत्वात् उपबृंहणा-प्रभावनयोश्च दर्शनाऽऽचारत्वादवश्यं भवति जिनेषु सदा पूज्यताबुद्धिः, समाचरन्ति चानन्यसदृशया भक्त्या तामिति योग्यमुक्तं 'देवेन्द्रपूजितेभ्य इति । यद्यपि श्रीमदहतां भगवतां सेवायै सततमिन्द्रा उपयुक्तास्तथापि च्यवनाऽऽदिषु कल्याणकेषु तेषां नन्दीश्वरमहादिकामपि प्रतिपत्ति कुर्वन्ति, परं सविशेषां भक्तिं शक्रादयो धर्मतत्त्व-देशनाभूमौ कुर्वन्ति शृण्वन्ति चात्यादरात् सह नरादिभिर्निषद्य भगवतां तां देशनामिति प्रोक्तं-'यथास्थितवस्तुवादिभ्य' इति । वस्तुभूतौ द्रव्य-पर्यायौ, अतीताऽनागत-वर्तमानपर्यायपरिणामि द्रव्यं, पर्यायास्तदवस्थारूपाः, अवस्था-तद्वतोश्च कथञ्चिदेव भिन्नाऽभिन्नत्वे, नहि ऋजुत्व-वक्रत्वाचा अङ्गल्यादिभ्यः सर्वथा मिन्ना अभिन्ना वा, ध्रुवांशस्तत्र द्रव्यं, 'तद्भावाऽव्यय' मिति यदुच्यते, उत्पाद-व्ययांश पर्यायाः 'तद्भावः परिणाम' इति च उच्यते । एवं चातीताऽनागतपूर्णज्ञानवानेवैकमपि द्रव्यं तत्तत्पर्यायपरिणामितया जानाति, अत एवोच्यते-'जे एगं जाणइ से सव्वं जाणइ 'ति, तथा च नाऽसर्वज्ञा यथास्थितस्यैकस्यापि वस्तुनो ज्ञातारः तथाज्ञानाभावे तथावस्तुवादिता तु दुरापास्तैव । किञ्च-ये न सर्वज्ञतां वृताः परतीर्थीयेश्वरास्ते आत्मानं साक्षात्कारेणाऽजानानाः कथङ्कार तत्स्वभावभूतान् ज्ञानादिगुणाननन्तान् पश्येयुः, ? तत आत्मनस्तद्गुणानां च चेन्न साक्षात्कारस्तदा तत्तद्गुणानामावारकाणि उपष्टम्भकानि च कथं विद्युः? इति विहायाऽऽर्हतशासनाऽधीश्वरान् न केऽप्यन्यतीर्थीयेश्वरा ज्ञानावरणीयाऽऽदीन कर्मणो विचित्रान् भेदानभिधातुमीशा बभूवुः, प्राकृतजनवत् पुण्यं पापं च कर्मतया केवलं जगुः, अत एव तेषां ज्ञानाऽऽवरणीयाऽऽदीनामाश्रवान् बन्धकारणानि च यथार्थतयाऽविदन्तः कथङ्कारं तेषामाश्रवाणां रोधने प्रारबद्धानां च निर्जरणे चोपयोगि सम्यगदर्शनादिकं कथं विद्युर्जगुश्च ? Page #56 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१६) वरबोधिमत्ताया यावच्छिवप्राप्ति दुर्वारकर्मरिपु-जयनाध्यवसायपूर्वकाऽसाधारणसत्वृत्तेजिन इति गीयते, स एव भव्यजीवैः संसाराऽम्भोधिपरपारगमनोत्सुकैः परमालम्बनं तीर्थं यदुपलभ्यते तत्तेनैव तद्वैतुशीलाऽनुकूल्यतया कृतमिति स एव तीर्थकरतयाऽभीधियते, स एव च संसार-पाराऽधिगमकाटिभिः सम्यग्दर्शनाऽऽदिरूपमोक्षमार्गप्रवृत्तैः परमगुरुतया प्रत्यहं कीर्तन-वन्दन-महिमाऽऽदिपरमपात्रतया . पूज्यते, देवैश्चाऽविच्छेदेनाऽष्टप्रांतिहार्यैःसद्धर्मदेशनाऽवसरे च समवसरणाऽर्च्यते इति कथ्यतेऽहनिति । तेभ्योऽर्हद्भ्यो नम इति योगः । अर्हन्तश्च भंगवन्त एव, समग्रैश्वर्यादियुक्तत्वात् विशेषतश्च भावावस्थामाप्ता इति तैयीतनीय देवनामोपपदाय च ' भगवद्भ्यं' इति । श्रीमदर्हतां भगवंतां भगक्त्वसिद्धिश्च शक्रस्तवाऽभिहिताभिः "आदिकर्तृभ्यः तीर्थकद्भ्यः स्वयंसम्बुद्धेभ्यः" इत्यादिभिः षड्भिः सम्पदाभिरनुसन्धेयेति ।। एवम्भूता अर्हन्त एव निःश्रेयसकामुकानां विशेषतश्च मोक्षमार्गमाराद्धकामानां नमस्कारार्थी इत्याह-'नम' इति । नमसा योगे चतुर्थ्या भवितव्यं, परं प्राकृतशैल्या चतुर्थ्याः स्थाने 'चउत्थिविभत्तीइ भण्णई छट्ठी ति नंदितायोक्तेः, विशेषतश्च चतुर्थी-बहुवचनस्थाने इति हेतोः वीतरागाऽऽदिषु पदेषु षष्ठीबहुवचनान्तप्रयोग इति । एतावत्पर्यन्तं वक्तृ-श्रोतृद्वयपठनीयं सूत्रं, ततो नम इति साधारणमव्ययं । . अथ प्रकरणकारा अनुवादं कुर्वन्त आहुः जे एवमाइक्खंतिः"अंणाई जीवे, अणाई जीवस्स भवे; अाई-कम्मसंजोग-णिव्वत्तिएं" अत्र 'ये एवमाख्यान्ती'-त्यनेन वाक्येनेदं सूच्यते यथा लौकिकैः प्रेक्षापूर्वकारिभिः शास्त्राणामभिधेयाद्यनुबन्ध-चतुष्टयी विचार्यते, तथा लोकोत्तरप्रेक्षापूर्वकारिभिः श्रोतृभिः सर्वेषामपि शास्त्राणां वीतरागादिऽऽ-विशेषणकलापयुक्ताऽऽप्तप्रणीततैवाऽन्वेष्या, तामन्तरेण निःश्रेयस-मार्गस्य यथार्थोपदेशः काश-कुसुमाऽऽलम्बनप्राय एवेति । किच-यथा व्याख्यातृभि-ररक्त-द्विष्ट-मूढ-व्युद्ग्राहिताऽऽदिगुणयुता एव श्रोतारोऽधिकर्तव्याः शास्त्र-श्रवणे, तहदेव श्रोतृभिरप्युपदेशकत्वे त एवाधिकर्तव्या येऽतीन्द्रियार्थदर्शि-वचनाऽनुसारिण एव सन्तो मात्रया तद्वचनानुवादपरा एव भवन्ति, तत एवं यतो निःश्रेयसोपयोग्युपदेशलाभस्तदर्थिन एव च निःश्रेयसंपदाभिलापुका यंत इति । Page #57 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१७) - अन्यच्च ब्रयमाणा जीवाऽनादिलाऽऽदिका स्त्रिकालमसक्लेश इत्यन्ताः पदार्थी अतीन्द्रिया-. थदृग्वेद्या एवेति प्रकरणकारास्तादृगुक्तगुणनजिनवचनानुवादेन ब्रुवन्तो ज्ञापयन्ति यदुत नैतदहं स्वमनीषिकया ब्रवीमि, येन छमस्थवक्तृतया प्रामाण्यसन्देह-दोलामधिरोहेदेतत् , किन्तु प्रोक्तगुणवदहत्प्रतिपादितं तद् ब्रवीमीति हेतोः, अविहतप्रामाण्यमेतद्वाक्यं समाचरणीयं चैतत् , न केवलं श्रोतव्यं, कर्तयमिदमिति भगवदुभिरर्हद्भिः प्रतिपादनादिति । जीवतीति जीव इति वर्तमाना(कृदन्तं तु जीवं पदार्थ नास्तिका अपि भूतेभ्यो भिन्नमभिन्न वोत्पाद्य जीवं प्राण-धारकतया (तम)भ्युपयन्ति । तत एव च परलोकाऽऽदीनां नास्तिता-मतिमत्त्वेन नास्तिका व्युत्पादिताः, अत एवाऽऽस्तिकवत् स्वतन्त्रं व्युत्पादितो नास्तिकशब्दः । परं जीवति अजीवीत् जीविष्यतीति च जीव इत्यौणादिके व्युत्पादितो जीवशब्दोऽत्र ग्राह्यः, तेन जीवशब्देनैव परलोक-गताऽऽगत-कारिजीवपदार्थसिद्धर्भवान्तरसिद्धिमकृत्वैवाs 'नादिजीवस्य भव' इति प्रतिपादितं । भवो हि शरीरधारणं, शरीरं च नाऽबीजमुत्पद्यते, शरीरबीजं कार्मणाख्यं शरीरमेव, तद्धि स्वस्याऽन्येषां च शरीराणामाधारभूतं, कार्मणं च प्रवाहेणाऽनादिमदेव, ततश्च तद्धारकजीववत्तदप्यनादि, ततश्च तत्कार्यभूतो भवोऽप्यनादिरेव । यथा चैकमपि बीजं दृष्ट्वा तत्त्ववेदिनो बीजाऽङ्कुरयोः स्वतन्त्रं परस्परं च कार्य-कारणरूपता पुरस्कृत्याऽनादि सन्तति स्वीकुर्वन्ति, एवमेव कर्मणामपि दृष्ट्वा तत्सन्तति तज्जन्यां भवसन्तति चावश्यतयाऽनादिरूपेण स्वीकुर्युरिति युक्तमुक्तं-'अनादिर्जीवः अनादिर्भवः अनादिः कर्मसंयोगश्चे' ति। ननु कर्मणां स्थितिरेवोत्कृष्टतः सप्तति-कोटीकोटी-सागरोपममितैवेति कथमनादिता कर्मण इति चेत् सत्यं, अत एव संयोग इति पदं, यतः प्रवाहेण तेषां तेषां कर्मणां संयोग आत्मभिरनादिकः, भिन्नानामपि कर्मणां संयोगस्त्वात्मनैव, स चाऽभूतपूर्वो नेत्यनादिक इति । ननु कर्मणां पुद्गलाश्चतुःस्पर्शाः, भवाऽवतारास्पदानि शरीराणि सुख-दुःखानुभवहेतवश्च पुद्गला अष्टस्पर्शा इति कथं परस्परं घटकतेति चेत् ! सत्य, बद्धानां कर्मणामबाधाकाल-व्यपगमे यदोदयो जायते, तदा तद्योग्यान् द्रव्य-भव-भावानाश्रित्यैव जायते, परं यथाकर्मैव वेदनं जायते इति 'कर्म-संयोगेन निर्वर्तितोऽयं भव' इति अनादिकर्मसंयोग-निवर्तितोऽयमनादिर्जीवस्य भव'इति कथ्यते । कर्माणि हि शरीराऽऽदिद्वारा स्वोदयं दर्शयन्ति, न स्वयमिति तत्वं । विहाय च भवाऽभिनन्दिनश्चरमावतिनो ये जीवास्ते स्वयं भवस्य कर्म-क्लेशैरनुबद्वतां, जन्मनो Page #58 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१८) दुःख-निमित्तता, जगतश्च जन्म-जरा-व्याध्या-तङ्क-मरणाऽऽदिभिर्याप्तता-मसारता-मशरणतां चाऽवगम्य स्वभावत एव तत्परिहारोद्यताः स्युस्ततो भवस्य हेयता दुःखमयता च नाऽसिद्धेति न तत्साधनाय यत्नः प्रकरणकाराणां, तत एव चाऽऽहुरनन्तरं प्रकरणकाराः __ 'एयस्य णं वोच्छित्तीसुद्धधम्माओ, एतच्छब्देनाऽनादिकर्मसंयोग-निवर्तितस्यानाऽऽदेर्भवस्य प्रहः, जीवस्य तु द्रव्यत्वादेव न व्युच्छेदसम्भवः, न च कोऽपि विवेकी नाशं स्वस्येच्छतीति भवस्यैव व्युच्छित्तिरुचिता, भवस्योच्छित्तिस्तु सामान्येन प्रतिभवं स्व-स्वजीवितस्याऽवसानेऽस्त्येवेति तस्याऽपुनर्भावेन व्युच्छेदस्य ग्रहाय व्युच्छित्तिरित्युक्तं । .. __यद्यपि पुनर्भवाऽभाव एव मोक्षः, स च जन्माऽऽदि-व्याबाधारहितोऽनन्ताऽ-व्याबाध-ज्ञानाssदिपूर्ण चेत्युपादेयतया वक्तुं शक्येत, परं तथास्वरूपो मोक्षः साधु-धर्म-पालनस्य फलत्वेन परमप्रयोजनतयाऽऽक्ष्येय इति नाऽत्राऽधिकृतः । किञ्च-सामान्येन सर्वेऽप्यास्तिका अविवादेन मोक्षप्राप्तिं भवविच्छेदादभ्युपयन्ति, मुक्तानां स्वरूपादिषु अनेकानां विप्रतिपत्तीनां भावात् , सोऽत्राधिकृतः, किन्तु सर्वाऽऽस्तिक-प्रतिपन्नं भवविच्छेदरूपमेव फलमत्राधिकृतमिति । यद्वा मोक्षस्य स्वरूपे न काचिच्छोतॄणां विधेयता, भवविच्छेदे सति तस्य स्वभावत एव सिद्धत्वात् , श्रोतृ-पुरुषार्थविषयस्तु भवविच्छेद एव । अत एव भगवद्भिस्तत्त्वार्थकारैरपि-'कृत्स्नकर्मक्षयो मोक्ष' इत्युक्तं, कर्मक्षयस्यैव पुरुषार्थविषयत्वात् । तथा च पञ्चमसूत्रे यत् मोक्षादेः स्वरूपं निरूिपितं तत्तत्स्वरूपस्य सिद्धस्य ज्ञापनार्थ, पुरुषार्थविषयतया साध्यं प्रयोजनं तु भवविच्छेद एवेति सुष्ठुक्तं 'एतस्य व्युच्छित्ति' रिति । ' यद्यपि 'पुण्याऽपुण्यक्षयान् मुक्ति' रितिवचसः प्रामाण्यात् भवस्य व्युच्छित्तिरभिप्रेता या सा शुद्धधर्मान्न भवति, तस्य पापकर्म-विगमभवत्वात् , पापविगमं प्रति तस्य कारणत्वाच्चेति, परं 'ठिइअणुभागं कसायाओ कुणई ' त्युक्तेः, स्थितिभाक् तु(1) (अनुभागरूपं) द्वयमपि पापरूपेभ्यः कषायेभ्य एव भवति, तत एव च मनुजगतिर्न केवलं पुण्यं पुरस्कृत्य परावर्त्तते परिवर्त । किश्च-शुद्धधर्मेण घातितेषु धातिषु अघातीनि तु भवोपग्राहीणीति न भवाऽन्तरमाधातुमलम्भूष्णूनीति पापकर्म-क्षय एव भवक्षयशब्देनाऽभिप्रेत इति । यद्वा शुद्धधर्मशब्देन केवलानि सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्राणि न गृहीतव्यानि, किन्त्वयोग्यवस्थाभाविनी सर्वसंवर-सर्वशरीरविप्रहाणहेतु-निर्जरामव्यवस्था ग्राह्या, तत्कारणतया पापकर्मवियोगो यदा गृह्यते, तदा सर्वस्यापि कर्मणो मोक्षप्रतिबन्धकत्वात् पापकर्मताऽवधायेति । प्रस्तुतस्तु शुद्धधर्मश्वरमाऽऽवर्तभाविनी मार्गाऽभिमुखाद्यवस्था परिगृह्यते; तत्रैव तथा Page #59 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भव्यत्व-परिपाकाऽऽदेरारम्भात् । अत एव सदन्धमार्गप्रवृत्तिन्यायेन तद्वर्तिनां चेतसोऽवक्रगमादिना, मार्गानुसारितोच्यते । - यद्यप्युपचारतः सकृद्बन्धकाऽऽदेरप्यस्त्येव योग-पूर्वभूमिका, परं तत्वदृष्टेरेवाऽधिकाराच्चरमाssवर्तभाव्येव शुद्धधर्मो गृह्यते, शुद्धधर्मप्राप्तिश्चाऽनन्तशो जाता, भव्यानामपि प्रार, अनन्तशो वेयकोपपात-श्रुतेः, परं चरमाऽऽवर्तमाविनी भावप्राप्तिं लक्षयितुं सम्माप्तिरिति (प्राप्तिः) समा विशेष्यते। . ततश्च शुद्धधर्म-सम्प्राप्तेः कारणतया पापकर्म-विगमो भववालकालंगत-मोह-विगम इति वाच्यः, तस्यैव चरमाऽऽवर्तगत-शुद्धधर्मसम्प्राप्तेः प्रतिबन्धकत्वात् । . . . . :' तथा च न सवेद्याऽऽदिभिन्नतया ज्ञानाऽऽवरणीयाऽऽदितया वोक्तं पापकर्म नैवाऽत्र-ग्राह्यं, अत' एव तथाविधस्य तस्य विंगमे तथाभव्यत्वाऽऽदिभाव एव हेतुतयोक्तः, तदवसरे कालो-यम-स्वभावाssदीनामहेतुत्वस्य गौण-हेतुत्वस्य वा स्वीकारादिति । परावर्त्तस्यान्त्ये भागे भाविन्या अपि निरांदिक-भवविच्छित्तिरस्या एव चरमावर्तभाविन्या मार्गप्रवृत्तेरिति नाऽयुक्तम् 'एअस्स णं वोच्छित्ती' त्यादिवचन;". अनन्त्य-पुद्गलपरावर्तीय-भवबालकालीन-मोहपापकर्मविगमस्तथाभव्यत्वभावत एव, तत्रेतरहेतुसत्त्वेऽपि 'स.च भवति कालादेव प्राधान्येन सुकृतादिभावेऽपी' त्युक्तेः कालादेव चरमाऽऽवर्तलक्षणात् तथाभव्यत्वं, आदितस्तत्परिपाकस्तत्कारणानि चेतराणि गौणतया ग्राह्याणि । अत एव 'जे एवें' त्यादि 'एयरस णं वोच्छित्ती' त्याद्यनूद्य सूत्रद्रयवत्तृतीयानूयसूत्रे वक्ष्यमाणे 'तस्स पुणे' त्यत्र तच्छब्देन तथाभव्यत्वमेव परामर्शिष्यन्ति प्रकरणकारा इति । न च वाच्यं समासे गौणीभूतं तथाभव्यत्वं कथं परामृश्यते ? इति 'अष्टापायविनिर्मुक्तस्तदुत्थगुणभूतयें (हारि० अष्टक ) इतिवद् गौणस्य विशेषणीभूतस्यापि ग्रहादिति । ... यद्वाऽऽदिशब्देन तत्परिपाक एव गृह्यते, ततश्च 'मुख्यस्य परामर्श' इति तथाभव्यत्वस्यापि भव्यत्ववदनादित्वात्तस्य पाकः प्रतिपुद्गलावतं भवत्येव, परं न तत्र चतुःशरणगमनायध्यवसायस्योद्भवः, किन्त्वत्रैव चरमावर्तीय एव पाके इति विशिष्टत्वादेतस्य पाकस्य आहुः प्रकरणकारा 'विपाक' इति । यद्यपि तथाभव्यत्वस्याऽपि विपाकश्चरमाऽऽवर्तवर्तिकालविशेषादेव, तथापि तद्विपाककालेऽवश्यमेतानि चतुःशरणगमनाऽऽदीन्यवश्यं भवन्ति, मोक्षकाले सभप्रकर्मक्षय-सद्भाववदिति । यद्यपि त्रयाणामपि शरणगमन-दुष्कृतनिन्दा-सुकृतानुऽसेवनानां सामान्येन तथाभव्यत्वविपाक-साधनत्वमुक्तं, तथापि दुष्कृतसुकृतानां स्वरूपं प्रतिशासनं भिन्नमित्याऽऽर्हतशासनाऽनुसारिणी ते ग्राह्ये इति प्रथममेव चतुःशरणगमनं व्याख्यातुमुचितमिति । चित्तसमाधानपूर्वकस्य सकलाऽनुष्ठानस्य शुद्धफलदायित्वं, तत एव च सकलानां स्वाध्याय-ध्यानाऽऽवश्यकादि-विशेषाऽनुष्ठानानामीर्यापथिकीप्रतिक्रमणपूर्वकता मता इति, अत्रांऽपि Page #60 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (२०) सुकृताऽनुसेवनस्याऽऽदौ दुष्कृत-गर्हाया आवश्यकता, पापधिक्कारवतामेव धर्मसिद्धेः सम्भवात्... सुकृताऽनुसेवनरूपस्य धर्मस्य सिद्धिहेतोरपि दुष्कृतनिन्दारूपस्य पापधिकारस्याऽऽवश्यकता . अनिवार्येति । शरण्येष्वपि चतुर्णामेवान्यूनाऽतिरिक्तानामेव शरणदातृत्वे योग्यता, शरण्यताग्रहणमपि चतुर्णा-. मेवाहदादीनां योग्यं यतो न विहाय चतुर एतान् जगत्यस्ति कोऽपि तथापकारस्त्राता पापेभ्यः, .. साधकश्च निःश्रेयससाधनानां । तथाभव्यत्त्वपरिपाकवांश्च जीवो निःश्रेयसमार्गस्य देशकतया प्रथममर्हतः शरणं प्रपद्यते, .. प्रतिपन्नश्चार्हता. शरणं तदैव निश्चितं मोक्षसाधनसमर्थः स्याद्यदि सनातनपदस्थाः सच्चिदानन्दपूर्णाः शाश्वताः सिद्धा मोक्षमार्गप्रवृत्तिफलरूपाः स्युरिति योग्यमेव द्वितीयं सिद्धानां भगवतां शरणीकरणमिति, लब्धे मार्गे स्थिरेऽवश्यप्राप्तव्ये निश्चिते च साध्ये तत्प्राप्तये यत्न आस्येयो बुद्धिमद्भिः, परं स यत्नो नैकाकिनाऽनादिकालोनप्रमादग्रस्तेन साध्यते, न च निःसाधनो यत्नः कार्यसाधक इति सहायकाः सन्मार्गोपदेशकाः सहायकाश्चावश्यमेष्टव्याः साधव इति तृतीये शरणे साधवः, भगवद्भिः केवलिभिः श्रीअहंदादिभिः प्ररूपितं शासनं धर्मरूपं यत् तदेवाऽपवर्गप्रापणप्रवणोऽध्वेति, तस्याऽप्यसाधारणोपकारकतया तत्त्वतस्त्वपवर्गमार्गरूपतयाऽवश्यं स्वीकरणीयैव शरणतेति योग्यमेवाsन्यूनाऽतिरिक्ततयाऽसाधारणोपकारतया च चतुर्णामेव शरणानां स्वीकार इति । एवं च चतुरन्तपृथ्वीसाधनसमर्थ-चक्रवर्तिचक्ररत्नवच्चतुर्गत्यन्तकारकचतुःशरणचक्रे गृहीते ऋषभकूटभेदवद् दुष्कृतानां तद्गद्विारा भेदन, नवनिधानसाधनवच्च सुकृतानामनुसेवनं च स्वभावसिद्धमेव, तद्वयमन्तरा तात्विकस्य चतुःशरणगमनस्यैवासम्भवात् । एवं च तत्वतः पारम्पर्येण सकलस्य मोक्षमार्गस्य सिद्धिरेतत्रितयेनेत्यतः आहुः प्रकरणकाराः श्रीमदर्हतां भगवतां वाक्यानुवादेन–'अओ कायन्यमिणं 'ति, यत एतावता ग्रन्थेन साधितमिदं यदुत-" चतुःशरणगमन-दुष्कृतनिन्दा-सुकृतानुसेवनैस्तथाभव्यखादेविपाकः, तस्माच्च तथाविधानां पापकर्मणां नाशः, नाशाच्च तथाविधानां पापानां शुद्धधर्मस्य सम्माप्तिः, तस्याश्च शुद्धधर्मसम्पचेरनादिकर्मसंयोगनिवर्तितस्य भवस्य व्युच्छेद इति । . ततो भवविच्छेदाऽनन्तरभाविना सिद्धावस्थेन भवितुकामेन कर्त्तव्यमिदं, सावधारणत्वाञ्च कर्तव्यमेवेदं त्रयमिति । अतः साधितकर्त्तव्यस्याऽस्य विधेः कालं दर्शयितुमाहुः प्रकरणकारा अनुवादयन्तः-'भुजो २ संकिलेसे तिकालमसंकिलेसे' इति, संक्लेशश्चात्र भयानके रोगे दीर्घकालीने आमये कस्मिंश्चिदपि वा मरणदायिनि प्रसङ्गे उपस्थिते या मनसो व्यग्रता, तदुत्थ आत्मपरिणामः, तस्मिंश्च सतिं यदा यदा शक्यं । Page #61 -------------------------------------------------------------------------- ________________ केत्तु त्रैयमिदं (किञ्च] तदा तदा कर्तव्यमेव; नात्र सूत्रध्यियनाऽऽदिवत् कालाऽकाल-स्वाध्यायिके-तरविचारः । एवं चास्य केवलिकथितत्वेऽपि च भूयोभूयः पाठ्यताऽऽम्नाता, आज्ञाधीनं च प्रवचन, मरणोपज्ञाराधनायाः शिव-सद्गतिप्राप्ति-पादपकन्दत्वात् नैतदशोभनं, एवं रागांधाबांधारहित: कालोऽसङ्कलेशकाला; . . 'तिकालति अहोरात्रे काले-त्रितयंग्रहणात् अहोरात्रेश्चादिमध्याऽन्त्यमागरूपं सन्ध्यात्रय,आद्यन्त्ये सन्ध्ये दिवसरात्र्योः; द्वयोरपि तत्रांशेन प्रवेशात् ; यथैकस्यैव पुत्रस्य माता-पित्रुभयसम्बन्धाद, उँभयोरपि पुत्रतया व्यपदेशस्तथाऽऽचरणया दिवसस्याऽऽद्य न्त्यभागभाविन्योरपि सन्ध्ययोः रिनन्तरतयां रात्रिसम्बन्धितयाऽपि कथने नासंगतिः काचित् । अत एवं शास्त्रे चतुःसन्ध्यत्वमहोरात्रस्य गीयते इति । यथा लोके आरक्षकाः सदा धिंयन्ते, परम् आपत्तौ भयस्य सावधानत्वाय भूयोभूयः प्रेर्यन्ते, एंवमिदमपि चतुःशरणगमनांऽऽदित्रयं मरगोपाग्रेकाले आर्त-रौद्रध्याननिवारणाय च विशेषेण विधेयमिति भूयोभूयः सङ्कलेशे कर्तव्यमिदमित्युक्तं; परं भयरहितेऽपि प्रस्तावे न धारिता न वां कृतकरणा ये आरक्षकास्ते नैवोपयुज्यन्ते (आपत्काले) इति भयरहितेऽपि प्रस्तावेऽवश्यं धार्यन्ते कृतकरणाच क्रियन्ते तद्वदत्रापि तथाविधाऽऽमयाऽऽदिजनिताऽऽर्त-रौद्रध्यान-दुर्गतिगमनादिप्रसङ्गाभावेऽपि अवश्यमभ्यासार्थ तत्करणपाटवार्थ सङ्कलेशरहितेऽपि अवश्यं त्रिसन्ध्यं करणेनाभ्यसनीयं तत्करणपाटवं च सम्पाद्य प्रागुक्ताऽऽ कालारक्षकधरणवदिति. . सम्पूर्णोऽत्राभवत् श्रीप्रकरणकार-भगवदनूदितः श्रीमदहद्भगवदुवचनप्रबन्धः॥ अतीन्द्रियवाद्विषयस्य चास्य, शास्त्रेऽत्र वाक्यं खलु सूत्रकारैः। अनूदितं श्रीजिनराजनाम्ना, पुरोऽत्र वाक्यानि सुधीरितानि ॥१॥ जिनाः समस्ताः समकालभाविनः, समोदितास्तत्त्वतंतिमताने ।। ततो वहूनां वचनानि लाखा-अनुवाद एषोऽत्र कृतों जिनानाम् ॥२॥ श्रुत्वा चैतद् भगवद्भाषितमनूदितं च प्रकरणकारैतिाऽऽसन्नसिद्धिकत्वाच्छोतुश्चतुरशरणगमनाऽऽदित्रितयसावधानमनस्कता, जातायां च तस्य तस्यामिङ्गिताऽऽकारबोधकुशलाः परोपकारकवैतदीक्षिताः मोक्षाऽध्वगमनतत्परीणां सम्यग्दर्शनाऽऽदिभिरभ्यन्तरसंत्याहार-ग्रहणाऽऽसेवनशिक्षा-वैयावृत्त्य-सन्मार्गगमनप्रोत्साहन-दुनिाऽवकाशरोधनपरायणताविधायैिश्च साधनैः श्रीसूरिप्रभृतिपदप्रतिष्ठिताः सांधवस्ती तस्य जातामवगम्य; साम्येन संगृह्यं तच्चतुःशरणाऽऽदित्रितयं, यथायथे सूत्राऽर्थोभैयैः समप्यािपयन्न्यादरात् परमगुरुसमाराधेन-सावधानमनस्कानां सूरिपुरन्दरादीनामनुकम्पया तथाविधेन स्वप्रयत्नेन लैब्धचतुःशरणगमनादित्रयविषयक-ग्रहणाऽऽसेवनशिक्षो भाविभद्रक आइत्यापवर्गसाधनत्परतामाह इदं सकलेश्रीश्रमणोऽऽदिसङ्घसमक्ष । श्रोतुः । २ सावधानतायाम् । ३ साधूनामितिशेषः । १. सावधानता । ५ श्रोतः। .... . Page #62 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (२२) स किमिहाऽऽह इति शङ्कासमाधानाय शिक्षाप्रवण-शैक्षकवचनान्येवाऽऽहु:-'जावजीवं मे' इत्यादि । . नाऽविदितमेतद् विदुषां यदुत-"जन्म-जरा-मरणातमसारमात जगदशरणं समीक्ष्य श्रोताऽयमुद्विग्नः स्वतो भवाद्," तत एव च भगवद्भिरपि भवस्यैतस्याऽनादिता तद्वदनादिकर्मसंयोग-निवर्तितता चाऽऽख्याता, जीवस्याऽनादितायाः साधनमपि तादृशस्य दुःखमयस्याऽशरणस्य भवस्याऽनादितायाः साधारणार्थमेव, तथा चाऽभिसमीक्ष्य भवस्य तथाविधे दुःखमयत्वेऽप्यशरणतामवश्यं शरणमङ्गीचिकीर्षुः स्यात् , अत एव च श्रीमदर्हद्भिर्भगवद्भिरपि त्रयाणां कर्त्तव्यानामादौ शरणगमवस्त्वभिधानपदमानीतं, अत एव श्रोताऽइह -' यावज्जीवं मम शरणं भगवन्त' इति । तथा च " ज्ञातं मया निःसारं जगत् , अवबुद्धो मया जन्म-जरा-मरणाऽऽतिपूरितो भवःभीतोऽहं जन्मादि-महाव्यथापूर्णाद् संसारात्, न वीक्षितं पूर्णेऽपि जगति मम रक्षणे प्रवीणं (प्रवर्ण) किञ्चित् , अधुनैव च लब्धा भवत्राण-विधानवेधस एते, ततो निश्चलोऽहं जातोऽवधान एतस्मिन्" यदुक्तं"अनादिकालादलब्धपूर्वा एते शरणसमर्था अधिगता भगवन्त इति, न कदाप्येतान् मोक्ष्यामि, न च अन्यथाधीभूत्वा परान् शरणं श्रयिष्य " इति निश्चित्य चेतसेदमाह यदुत-" भगवन्तो यावज्जीवं मम शरणमिति ।" तथा चैतत् कालाऽवधारणं सातत्या, न भवान्तरे शरणस्य निषेधार्थ, तद्भावे तत्र तस्याऽपीष्टत्वादेव, भवान्तरभावस्याऽनिच्छनीयत्वाच्च न तत्र भाविशरणविचारः । यच्च ‘मे सेवा भवे भवे तुम्ह चलणाण' मितिपाठेन भवान्तरसेवना-प्राप्तिप्रार्थनं क्रियते, तन्न मुख्यवृत्त्या करणाहमिति तु तत्रस्येनैव 'वारिज्जइ जइवि नियाणवंधण' मित्यनेन स्पष्ट्यत एवेति “यावज्जीव "मिति योग्यमेवेति । आ-भवं न मुच्चाम्येतान् भगवतः, आजीवनमेतेषामेव भक्तो तत्परो भविष्यामि, न चान्यान् कानपि तथाविधान् सम्भावयामि यानाश्रितुमुन्मनाः कदाचिदपि भविष्यामीति अनन्यशरणतयैवैतान् मगवतो यावज्जीवमनन्यमना श्रयिष्यामीति ।. . . 'मे' इत्यस्मत्पदमसमानशरणाश्रयणद्योतनाथ । तथा च "अहमेवाऽसाधारणतया भगवतः श्रयामि, मद्विधः शरणं प्रतिपन्नो न कश्चिद् भवभ्रमणपीडापीडितः प्राणी" ति ज्ञापयत्यनेन । किश्च-भ्रान्तः पूर्व समस्तेऽपि जगति, परं न क्वोप्यात्मसाधनवार्ताऽपि याथातथ्येनोपलब्धा, सर्वेषामपरतीर्थीयानामर्थ-काम-स्वर्ग-भूतिकामनापराणां शरीर-तत्पोपणसाधन-स्थान-सन्तान-समृद्धि-समुदाय-प्रवर्तनादिष्वेव प्रयत्नशीलवदर्शनात् । सति चैवं ज्ञानाऽऽदीनामात्मस्वरूपभूतानामनाविर्भूतानामाविर्भवनयोगेन लब्धानामपि तेषां निष्प्रत्यूह रक्षणपरायणतया या नाथता लभ्या, तस्या स्वप्नोऽपि न तत्र ज्ञायते, तर्हि अत्र श्रीमदर्हतां भगवतां शासनं तु सदेवाऽसुरमनुष्यस्य लोकस्य त्रिलोकगतस्य Page #63 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (२३) योग-क्षेमकरण-तत्परतया नाथरूपं, तत्प्रणायकाश्च "अरिहा ताव णियमा तित्थयरें"त्ति वचनात्तस्य शासनस्य नियतं प्रवर्तका एवेति । सर्वमेतद्विचिन्त्यैव ब्रवीमि 'परमतिलोगणाह 'त्ति, त्रिलोक्यां शासनस्य प्रवर्तनात् परमत्रिलोकनाथा इति । न च श्रीमदर्हतां भगवतां परमत्रिलोकनाथताऽसम्भविनी, यतस्त एव त्रिलोक्यां वर्तमानेषु सत्वेषु समग्रेषु परमैश्वर्यभाजो भवन्ति, तत्र च हेतुरेक एव, यतस्त एव अचिन्त्यपुण्यसम्भारा इति । विदितमेतद् विदुषां यदुत-सर्वास्वपि कर्मप्रकृतिषु अर्हन्नामैव तादृशं यद्बन्धोदयाऽऽदिषु सर्वेषु प्रशस्तं, बध्यते च तदन्तःकोटीकोटीसागरोपमस्थितिकं, तन्नामसम्बन्धप्रभावेणैव भावितीर्थकरजीवा अनेकभवेषु निःश्रेयसपथ-प्राप्तिभावनयाऽवश्यं भावितभावा एव भवन्ति । तीर्थकरभवात्तृतीयस्मिंस्तु भवे अवश्यं वरबोधिलाभेनैव ते वुध्यन्ते, तत्प्रभावेण च ते परार्थोद्यमिन एव भवेयुः । वरबोधेरनन्तरं श्रीअर्हदादीनां पदानां यदाराधनं कुर्वन्ति, तदपि गौणे स्वनिस्तारणभावे सत्यपि परनिस्तारणहेतुत्वेनैव - तादृशे धर्माराधने तेषां भाग्यवतामेषैव भावना यदुत "विद्यमाने एतादृशे भवनिस्तारणपरे श्रीजैनेन्द्रशासने किमिति प्राणिनो भ्राम्यन्ति जन्मजरातङ्कान्तकाकीर्णे भवे ? तदेतान् समस्तान् अनेनैव शासनप्रवहणेन निस्तारयामि दुःखजलधेर्भवादिति ।" - एतादृश्या एव भावनायास्तेषामर्हदादिपदानामाराधनात् श्रीजिननाम्नो बन्धो-दयाऽऽदिषु सर्वेषु शुभरूपायाः कर्मप्रकृतेर्बन्धो निकाचितो जायते, मृताश्च तत एकभवान्तरितास्ते अवश्यं तीर्थकरा भवन्ति, अत उच्यते-'अचिन्त्यपुण्यसम्भारा' इति । .. न हि प्राप्य वरं बोधि परार्थोद्यतास्ते भावि-तीर्थकरजीवा अपि न हि श्रीजिनपद-प्रभावजं पुण्यप्राग्भारं जानीतुं शक्ताश्चेतयन्ति चिन्ताविषयमपि वाऽऽनयन्तीति युक्तमुच्यते 'अचिन्त्यपुण्यसम्भारा' इति । एतादृशात् पुण्यसम्भारादेव गर्भावतारसमय एव गजाऽऽदि-चतुर्दश-भ्राजिष्णु-महास्वप्नदर्शनं मातुः, जातमात्रे सुराचलमूर्ध्नि सुराऽसुरेन्द्र-श्रेणिनिर्मितो जन्माभिषेकः, यावनिर्वाणकल्याणकमहोत्सवकृतिरपीन्द्रादीनां, तदेवमपरिमितत्वादचिन्त्यत्वाच्च तदीयपुण्यप्राग्भारस्य कियत् कथ्यते ? यावत् सर्वेषां सर्वविदां सर्ववित्त्वे समानेऽप्यचित्यपुण्यप्राग्भारोऽचिन्त्यो यत् – ' तेषां या भविष्यद्वाणी सा यानेव संशयान् समूलं यथावदुच्छेत्तुमलम्भविष्णुस्त एव संशयाः श्रोतृवर्गस्योत्पद्यन्ते, न न्यूना नातिरिक्ताः', न च विहायाऽचित्यपुण्यप्रारभारान्वितान् जिनेश्वरान्-यस्य कस्याऽपि सर्वविदोऽप्यस्त्येषोऽतिशयः, किञ्च-भगवतां जिनेश्वराणामेवान्योऽपि पूज्यप्राग्भारोऽचिन्यो यद्-अपरिमिता -अपि श्रोतारो Page #64 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (२४) योजनमात्रे क्षेत्रे भगवद्देशनामृतपानोद्यता देशनाक्षेत्रे स्थातुं शक्नुवन्ति, सर्वेऽपि नर-तिर्यग्-देवाऽऽदयो भगवन्मुखपद्मविनिर्गतां देशनागङ्गामवगाह्य स्व-स्वभाषातया परिणतिमापन्नां देशनावचनततिमवगाहन्ते । एत इवाऽपरेप्यतिशया अद्भुततमा भगवतां जिनेश्वराणामेव, अतः सत्यतममेतद् यदुत-"भगवन्तो जिनेश्वरा अचिन्त्यपुण्यसम्भारा" इति । यद्यपि श्रीमतामहेतां भगवतां जिननाम्नो बन्धकालाद् विशेषतश्च निकाचनकालादूर्ध्व जायत एवाऽनुत्तरपुण्यप्राग्भारोदयः, तस्मादेव चैकेन्द्रियादिष्वपि गता 'जात्या एव ते भवन्ति, निकाचनादनन्तरं प्रारबद्धतथाविधकर्मप्रभावाद् गता नरकेष्वपि नाऽन्यनारकवदनुभवन्त्यसातं, तत एव च 'उववाएण व सायमित्यादिकायां गाथायां 'कम्मुणो वा वित्ति पठ्यते, देवेष्वपि जातानां निकाचितजिननाम्नां न "माल्यम्लानि "रित्यादीनि पड् महाशोककारणानि भवन्ति, जाता अपि मनुष्यभवे उत्तमसंहनाऽऽदियुता एव भवन्ति, भवति च तेषामेव भगवतामचिन्त्यपुण्यप्राग्भारादेव देहसौगन्ध्याssदिकमतिशयचतुष्कममन्यजगतीजन-कल्पनाविषयाऽतीतं, परं तीर्थस्थापनाऽऽद्यवसरेषु धर्मदेशना-प्रभावार्थ चतुस्त्रिंशदतिशयसमूहयुतत्व-मिन्द्राऽऽदिविहिताऽविच्छिन्नभावार्हन्यन्निबन्धनमतिशयचतुष्कं च, तत्तु प्रक्षीणेषु घातिकर्मसु रागादिषु तत्प्रभावादेव च "केवलियणाणलंभो णण्णस्थ खए कसायाण "मितिवचनाच्चरिते जाते सार्वश्ये भवत्यत आहुः प्रकरणकारा भव्यजीवमुखेन 'क्षीणरागद्वेषमोहा' इति । यद्यपि परमाऽऽहतीयेषु कर्मप्रकृत्यादिशास्त्रेषु “ जीवानां सम्यक्त्वमूलकतत्वत्रयीविषयकाsप्रीतिकारक-प्रीतिघातकतयाऽष्टादशानां हिंसादीनां पापस्थानानां रत्या चाऽनन्ताऽनुवन्धिनः कषायाः सम्यक्त्वघातकाः, पापदेशस्याप्यपरिहाराद् देशविरतेः प्रतिबन्धका अप्रत्याख्यानाः, आरम्भ-परिग्रहविषय-कषायाऽऽद्यासक्त्या सर्वविरतेः प्रतिबन्धकाः प्रत्याख्यानाऽऽवरणाः, अकषाय-यथाख्यातचाारित्रप्रतिबन्धकतया सवलनाश्चेति वर्गचतुष्कवर्तिनः क्रोध-मान-माया-लोभाः कपाया" इत्येव कथ्यते, हास्याऽऽदिनवकं सनिमित्तमितरथा वाऽऽविर्भवन् नोकपायशब्देनाऽभिधे यते, परं न कापि कर्मप्रकृतीनां मूलेपूत्तरेषु वा भेदेपु राग-द्वेष-मोहा इति दोषत्रव्युत्कीर्त्यते, तथापि जीवस्य यत् स्वास्थ्यं तच्चलन राग-द्वेष-मोहरूपं,ततश्च द्वेषात् क्रोध-मानयोः रागान्माया-लोभयो!कपायेभ्यो हास्यादिपट्के च या प्रवृत्तिर्जायते, सा मोहनीयस्य भेदेषु गुणस्थानक्रमेण क्षय्येषु कर्मभेदेषु मोहत्वेन कपायत्वेन नोकपायत्वेन च कथ्यते । तत्त्वतस्त्वात्म-स्वास्थ्यवाधका राग-द्वेष-मोहा एव रिपवस्ततः सुष्ठुक्तं ' क्षीणराग-द्वेषमोहा' इति । यद्यप्यनुत्तरपुण्यसम्भारः सर्वज्ञताऽवगताऽभिलाप्या-नभिलाप्यपदार्थत्वेप्यभिलाप्याऽर्थदेशित्वेन १. श्रेष्ठा इत्यर्थः । Page #65 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (२५) जीवाऽऽदीनां तत्त्वानां द्वादशानां पर्षदां पुरतो युगपत् समग्र-श्रोतृजन-संशयच्छेदकारिण्या स्व-स्वभाषापरिणामिन्या देशनया सङ्गतेष्वेव भगवत्स्वर्हत्सु जगज्जनचेतश्चमत्कारकारको श्रीमदर्हतां भगवतामहेत्ताया अवबोधकश्च भवति, परं जगति सर्वेऽपि प्रावादुकाः स्वस्वतीर्थप्रणेतारं सर्वज्ञत्वेन. तद्वत्त्वाऽवधारणादेव च यथार्थवस्तुदेशकत्वेनाऽवधारयन्ति, न च तत् तथ्यं, यतो जीवानां हि संसारभ्रामक-कर्मबन्धननिबन्धनभूतौ राग-द्वेषौ स-मोहौ यावन्न स-मूलका कण्येते, तावन्न स्वच्छतामविकलामात्मनि धारयितुमलम्भूयते, अतः कार्यभूतमपि सकलसत्त्वोपकारमूलनिबन्धनमपि सर्वज्ञत्वाऽऽदिकमुपेक्ष्य क्षीणरागद्वेष-मोहत्वमुदीरितमहतां भगवतां शरणमभ्युपगन्तुकामेन भव्यजीवात्मना। ___ तत्त्वत एषामेवाऽऽस्मस्वरूपबाधकत्वान्निगकार्यता, तन्निराकरणादेव च श्रीमतामर्हतां भगवतां शरणदानपटुता स्वीकृताऽस्तीति । ... किञ्च-सुदेव-कुदेवानां विभागे यथाऽवस्थितवस्तुवादिताया निर्णय आवश्यकः, तमन्तरा जगदुद्धाराऽऽदिक्रियाया असम्भवात् , परं स निर्णयो यदि परवाक्यसन्ततः प्रामाण्येन क्रियते, तर्हि सत्य-सर्वज्ञतावत्वेन सिद्ध-सुदेवत्वस्यापि सुदेवत्वेन निर्णयो विधातुमशक्यः । यदि च तदीययैव वाक्यसन्तत्या तस्य सर्वज्ञता वेविद्यते, तर्हि तु कस्यचिदेव मात्रया अल्पया चुक-स्खलितेनाऽसर्वज्ञतायोतिका स्याद् वाक्यसन्ततिरिति न वाक्यसंहत्या सत्यसर्वज्ञताया निर्णयो विधातुं पार्यते, न च सर्वज्ञाऽसर्वज्ञतयोरस्ति किञ्चिचिह्न तथाविधं, येनाऽविनाभूतेन सार्वश्य-प्रत्ययो विधातुं सुकरः स्यात् । ___ न चैव सुदेव-कुदेवत्वयोविभागः कर्तुमशक्योऽसम्भाव्यो वा ? किन्तु सर्व-श्रेयसां मूलस्य यथाऽवस्थितवादित्वस्य यथा सार्वश्यं मूलं, तथैव सावश्यस्याप्यविनाभूतं मूलमस्त्येव वीतरागत्वं । तत्र च यद्यपि वीतरागत्वसिद्ध्यै न वीतरागतया प्रतिबद्धमस्ति किञ्चित् तथाविधं गमकं चिरं, तथापि वीतरागतायाः प्रतिपक्षभूतं रागस्य द्वेषस्य मोहस्य च गमकमस्त्येव तथाविधं चिह्न, तथा चाऽन्वयव्याप्त्या वीतरागत्वस्याऽसिद्धत्वेऽपि व्यतिरेकव्याप्त्या वीतरागत्वाऽभावसाधनं न दुष्कर, सिद्धे च तस्मिन् तद्वतः असर्वज्ञत्व-कुदेवत्वा-ऽयथावस्थितवादित्वाऽऽदयः स्वत एव सिद्धाः । न च वाच्यं गृह्य-न्यलिङ्गसिद्धिवादिनां जैनानं मते व्यतिरेकिणो हेतोरेव नास्ति सिद्धिरिति, यतो ये हि गृह्य-न्यलिङ्ग-सिद्धा उच्यन्ते ते हि यद्यन्तर्मुहूर्ताऽधिकाऽऽयुष्काः स्युस्तर्हि तेऽवश्यं स्त्री-शस्त्रांडक्षमालादिवियुता एव भवेयुः, स्व-लिङ्गग्रहणस्य तेषामप्यावश्यकत्वात् । ततः सदा स्त्री-शस्त्राऽऽदिधारका ये तेषां तथाकालिक्या व्यतिरेकव्याप्त्या न चिद्वतां किञ्चिद् बाधकमिति । न च वाच्यमेवं व्यतिरेकव्याप्त्या वीतरागत्वं तन्मूलं च सार्वश्यं सिध्येत् , न तु सुदेवत्वं, यतः सर्वज्ञा हि प्रतिउत्सर्पिणीरसङ्ख्या भवन्ति, सुदेवास्तु चतुर्विशतिरेवेति, सुदेवत्वं हि न केवलं व्यतिरेकव्याप्या सिद्धेन वीतरागत्वेन साध्यते, किन्तु तया कुदेवत्वाऽभावो निर्णीयते । एवं चाऽयोगव्यवच्छेदार्थोऽयमारम्भो, नाऽन्ययोगव्यवच्छेदार्थः । . . . . . Page #66 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सिद्धे चैव कुदेवत्वाऽभावे वीतरागत्वसिद्धया सार्वश्यसिद्धिः, तस्यां च यथावस्थितवादित्वाऽsदिसाधनं सुकरमेव, सिद्धेष्वेव चैतेष्वभीप्सिताऽहतां भगवतां सुदेवत्वसिद्धिरप्रतिहतैवेति प्रोक्तमावश्यक प्रकरणकारै गवतामर्हतां विशेषणं 'क्षीणरागद्वेषमोहा' इति । क्षीणाश्चाऽपुनर्भावेन विलयं गताः, अन्यथा तु प्रतिक्षणं संसारिणां राग-द्वेष-मोहानां वेदनात् "विपाकोऽनुभावः, ततश्च निर्जरे "ति वचनप्रामाण्याद् क्षीयन्ते एव राग-द्वेष-मोहानां परिणतयस्तत्कारणभूतानि कर्माणि च । राग-द्वेष-मोहानामपुनर्भावेन क्षयः क्षपकश्रेण्या एव नोपशमश्रेण्या " अर्हन्तो भगवन्तश्च तीर्थंकरभवे नोपशमश्रेणिमारोहन्ति, न चापरमप्यौपशमिकभावं, किन्तु क्षायिकमेव भावं।" जात्यं हि रत्नं नैर्मल्यमासादयदवस्थं स्वकान्तिप्राग्भारेणाऽऽलयमुद्योतयत्येव, न कदाप्यन्धपाषाणादिवदप्रकाशं तद् भवति । तद्वजिना तथाविधसाधना क्षायिकमेव भावमाप्नुवन्तीति योग्यमुक्तं'क्षीण-राग-द्वेष-मोहा' इति । क्षीण-राग-द्वेष-मोहत्वादेव च न स्त्री-शस्ना-ऽक्षमालाऽऽद्यङ्काः, न च जगज्जनन-स्येम-क्षयाऽऽदिवादेन जंगती-जागतोनिग्रहाऽनुग्रहयोर्दर्शकाः । श्रीमदर्हतां भगवतां क्षीण-रागद्वेषमोहता तु तदीयानामागमात्, वृत्तात् , मूर्तश्च । यतस्तैः केवलस्य मोक्षस्यैव साधनायाऽऽगमा आख्याताः, आगमेषु तेषामभ्युदयाऽर्थिताऽपि प्रतिबद्धा, यतस्तदीप्सापूर्त्यभिलाषिणां कृतोऽपि धर्मो न निःश्रेयसापकः पारमार्थिकश्च, सर्वेष्वप्यागमेषु सातत्येन मोक्षमार्गस्योपदेशं व्यतिरिच्य न किमप्यन्यदुपदिष्टं । न चाऽक्षीणराग-द्वेष-मोहत्वेन स्वयं पुत्र-पौत्रादिकप्रसक्तो ललनालालनाऽऽसक्तो गृह-पुत्र-दाराऽऽदिममत्ववानेवं परेभ्य उपदेष्टुमुद्यतः स्यात् । न च परोपदेशपाण्डित्यवत्तदुपदेशं शृणुयुराचरेयुर्वा सन्त इति । अवश्यं ज्ञायते यदुत क्षीणराग-द्वेप-मोहत्वादेवोपदिष्टा एवंविध आगमाः, गणभृदादिभिस्तदीयोपदेशमनुसृत्य स आगमार्थों यथावदाचीर्ण इति । वृत्तं च भगवतामर्हतां क्षीणराग-द्वेपमेव, उत्पत्तेः केवलस्याऽऽजन्म कोटिकोटिसुरसेवायास्तेनैव हेतुना भावादाख्यायतेऽपि तथैव । यतः क्षीणघातिकर्मणां भगवतामहंतामेकादशातिशया लोकाऽनुभावत आविर्भवन्ति, सुरा अपि क्षीण-घातिकर्मत्वादेव भगवतामर्हतामेकोनविंशतिमतिशयान् कुर्वन्ति । एवं च लोकानुभावजैकादश-सुरकृतकोनविंशतिसङ्ख्यकानां लोकातिगानामतिशयानां प्रादुर्भावः घातिकर्मक्षयादेव, राग-द्वेष-मोहाश्व मोहनीयाख्या घातिकर्मण एव भेदाः। किञ्च-क्षयायोत्थिता अर्हन्तो भगवन्तः समस्त-घातिकर्म-क्षयेणाऽवाप्तवे वलाः तीर्थप्रणयने समस्त-घातिकर्म-क्षयप्रत्यलमाविष्कुर्वन्त्येव स्ववृत्तमाचारागाहये आद्य एवाङ्गे, स्वमुखेनैव प्राग्वृत्त १ जगती-संसारः. जगत्यां भवाः ये ते जागताः संसारिप्राणिनः, तयोरित्यर्थः । Page #67 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (२७). स्माविष्करणान्न तत्रातिशयोक्तेर्लेशस्य कल्पितत्वस्य वांऽशेनापि सम्भवः, विलोकनाच्चापि तत्रस्थस्य तवृत्तस्य न कस्यापि सकर्णस्य तेषां क्षीण-घातिकर्मावस्थाप्राग्वृत्तवृत्तस्यावलोकनादाशङ्कालेशोऽपि क्षीणघातिकर्मत्वे तेषामिति । मूर्तिरपि च श्रीमदर्हतां भगवतामेव क्षीण-राग-द्वेष-मोहत्वमुगिरन्ती दृश्यते, यतस्तेषामेव प्रतिमायां वक्त्राब्जं शान्तरसनिमग्नं, अक्षिणी निर्विकारे नासाग्रस्थायिनी, मुखाब्जं च हास्याऽऽदिदोषततिवर्जितं, शरीरं समग्रं श्लथं पर्यङ्कासनस्थं च, एतादृश्या एव मुद्रया वीतरागत्वस्याऽऽवेदनं सहजमेव, वीतरागत्वावलम्बिन्या मुद्रयाऽपि विरहितत्वादन्येषामयमुपहासः कविभिः क्रियते यदुत“'नर्तका अपि नृपाऽऽदीनां वेपं धारयन्तस्तदीयां मुद्रामादावेवोद्वहन्ति, इमे तु परतीथिका देवकोटि प्रवेष्टुमिच्छवो देवस्य मुद्रां विधातुमपि न विज्ञा" इति । . तथा च भगवतामहतामेव मूर्तिभंगवतां क्षीणराग द्वेष-मोहत्वदशा-शंसिनीति भगवतां श्रीमतामर्हता क्षीण-रागद्वेषमोहता तेषामागमाद्, वृत्तान् मूर्तितश्च सिद्धिसौधमध्यारोहन्ती न केनापि शक्यते निवारयितुमिति । यद्यपि शास्त्रीयन्यायेन क्षीणरागा इत्येतावन्मात्रस्योक्तो क्षीणद्वेष-मोहत्वं प्रतीयत एव, मायालोभकषायद्वयलक्षणरागस्य विलयो द्वेष-मोहयोः क्षयादनन्तरमेव यतो भवतीति; परं भगवत्स्वर्हत्सु परमात्मसु सर्वथा कुदेवत्वस्याऽयोगं परेषां च कुतीर्थ्यानां कुदेवत्वपरिपूर्णतां च दर्शयितुमुक्तं क्षीणरागद्वेषमोहा' इति । एवम्भूतानां लोकातिगानां गुणानां निलया अपि भगवन्तोऽर्हन्तः स्वकृतभोगिनां संसारिजीवानां न त्राणं विधातुं समर्था भवन्ति, तत आहुः–'अचिन्त्यचिन्तामणय' इति । - यद्वा जगति त एव विधातुमलं दुःखभराऽऽकान्तानां त्राणं, ये शरणागतेषु प्रीतमनसः सन्तस्तान् शरणमुपेतानपेक्ष्य स्वस्य वज्रपञ्जरताभिमानमुद्हेयुः, शरणाऽऽगतानां प्राणिनां बाधकेषु परेषु च जीवेष्वजीवेषु वा समूलकाषं कषणाऽवधिकं रोषमादधते, शरणाऽऽगतानां त्राणसाधनेषु विरोधिनां क्षयकारकेषु, स्वेषां नियतैकस्थितिकारकेषु कारणसमूहेषु दृढबद्धाऽन्तःकरणास्तद्रक्षणैकचित्ताश्च स्युः, भगवन्तोऽहन्तस्तु क्षीणरागद्वेषमोहा इति कथं शरणे साधवः स्युरित्याहु:-'अचिन्त्यचिन्तामणय' इति । यथाहि चिन्तामण्यादय आराधक-विराधकेष्वरक्तद्विष्टाः सन्तः आराधकानामिष्टसिद्धयादिनेष्टाsर्थसाधकत्वं विराधकानां च दारिद्रापत्याऽऽदिनाऽनिष्टाऽऽपादनद्वाराऽनिष्टोत्पादका भवन्ति, भगवन्तोऽन्तः क्षीणरागद्वेषमोहा अपि तद्गुणज्ञानबहुमानाऽऽदरादिनाऽऽराधकानामानन्तर्येण प्राप्यत्वाभिमतमभ्युदयं, पारम्पर्येण साध्यत्वेन बहुमानितं निःश्रेयसं सम्पादयन्ति, तदाज्ञाऽनङ्गीकाराऽऽश्रवप्रवृत्त्यादिभिविराधकानां चानन्त-संसारवृद्धि-दुर्लभबोधित्वादिनाऽनिष्टभरं सम्पादयन्ति । Page #68 -------------------------------------------------------------------------- ________________ . (२८) नन्वेवं महार्थकरत्वेऽपि महानर्थकारित्वमपि भगवतामर्हतामापन्नमिति वैतालवदुःसाधाध्यास्ते, न चैकान्तेन शरण्या इति चेदाहुः- ' भवजलधिपोता' इति । चतुर्गतिमय-भयङ्करभवाऽऽवर्तभीषण-भवोदधितारणे भव्यानामसाधारणपोतायमानाः जिनवरा हि जिननामकर्मोदयादेव भवन्ति, जिनाऽभिधानकर्मबन्धश्च वरवोधिमतामेव, वरवोधिश्च तस्यैव स्यात् यो लब्धा सम्यक्त्वं ' किमेतादृशे भवजलधितारणसमर्थे सति जिनशासने जीवा भवोदधेः परं पारं नाप्नुवन्ति ?, तदमून् सर्वान् भवजलधेः परं पारमनेन नैर्ग्रन्थशासनेन नयामी "ति विचारयति, ततः प्रभृति स वग्बोधिमान् सर्वथा सर्वदा परार्थोद्यत एव भवति, परार्थोद्यतत्वादेव च जिननामकर्म निकाचयन् अनन्तं संसारमपवर्तयन् भवं तृतीयमवण्वष्क्याऽपवर्तयति, शास्त्रकारा अपि 'तइयभवोसकइत्ताण 'मित्याहुः । तथा च ' जिनेश्वरा भगवन्तो ह्यनेकभवेषु भव्यानां भवाब्धेस्तारणे एवोधता' इति यथार्थमेव भवजलधितारणपोतायमानत्वं भगवतां, विराधकानां संसारपातकारणत्वं तूलकानां स्वस्वभावस्य हीनत्वेन यथा उष्णांशुकिरणानामन्धत्वकारणता तथा ज्ञेयम् । भगवन्तस्तु स्वाऽभिप्रायेण तारणाऽनुकूलस्य तीर्थादेविधातृत्वेन च भव्यानां भवाऽऽभियङ्कर-भवजलधितारणप्रत्यल-पोतायमानत्वमेव, भगवतामर्हतां भवजलधिपोतत्वं च न केवलं स्वस्य भक्तानां वा कल्पनामात्रोद्भवं, किन्तु भयङ्करभवाऽऽवतंभीषण-भवोदधितारणसमर्थस्य शरणस्य दातृत्वेनैव, तत आहुः- एकान्तशरण्या' इति, एवं च भगवतामहतां परमभक्तिपात्रत्वेन शरणस्वीकारो भवितुकामेन कृत इति । सर्वेऽपि परतीर्थीयाः परमेश्वराः भवावर्त्तस्य जन्म जरातङ्काऽऽनिष्टसंयोगाऽऽदिदुःखप्रचुरतया सदाऽङ्गिनामेकाकितया संयुक्तान् सर्वान् विमुच्याऽशरणतया प्रभ्रष्टस्वार्थेन परिभ्रमणरूपतया निःसाराऽशरणत्वात्तत्तारणक्षमत्वं स्वेषां दर्शयन्येव मुक्तिपर्यवसानत्वादेवास्तिकवादानां, परं तत् त्राणकारित्वं तेपामेव सम्भवति, ये स्वयं भवनिबन्धनेभ्यो दूरतरीभूय परानपि तेभ्यो दूरीकतु प्रत्यलाः स्युः ।। ___ भगवन्तोऽर्हन्तस्तु क्षपकश्रेणिक्रमेण क्षपयित्वा मोहं, निहत्य च तद्वलेन बलवन्ति ज्ञानाssवरणीयाऽऽदीनि कर्माणि, निश्शेषवातिकर्मक्षयप्रभावेणैवावाप्त केवला रूपादिलौकिकप्रत्यक्षाऽतीताssस्माद्यतीन्द्रियान् पदार्थान् ज्ञात्वा, तत्स्वरूपभूतांस्तद्गुणान् ज्ञानादीनवेयन्ति, तत एव च तादृग्ज्ञानादीनां घातकान् ज्ञानाऽऽवरणाऽऽदीनवगच्छन्ति, यथार्थतया केवलाऽऽलोकेन ज्ञात्वा सर्व प्रज्ञापनीयपदार्थजालं भन्यानां पुरः प्ररूपयन्ति न चैषा प्ररूपणाऽपिं जीव-स्वभावभूतानां ज्ञानादीनां तदावारकाणां च कर्मणां क्वचिदपि लौकिके मार्गे विद्यते, दूरे तद्विपयो हेयो-पादेयतयोपदेश इति । ततश्च भव्यानां भवाब्धितारणायैव जीवाऽजीवरूप-तत्त्वद्वयीद्वारा सकलजगद्वर्तितखानां जातेsप्युपदेशे भवाब्धेस्तारणे समर्थे संवर-निजेरे, तबाधको चाश्रव-बन्धाववश्यमुपदेश्यपथमायातः, एवं Page #69 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (२९) साध्येन मोक्षेण युतां सप्ततत्त्वीमुपदिशन्त एव भवाब्धितारकभावमभ्युपयन्ति, त एव च . भवाब्धौ ब्रुडमानानामसुमतामेकान्तेन शरण्या भवितुमर्हन्ति । . अत एव परेषां नोदनावचनवज्जैनानां जिनेन्द्रोपदेश एवेष्टप्राप्त्य-निष्टनिवारणप्रत्यलः, नह्यास्तिकानां विहाय श्रीजिनेन्द्रोपदेशं इष्टप्राप्त्याऽऽदिसाधनज्ञानं सम्मतं, आस्तिकाश्चाऽत्र जीवे कथञ्चिदस्तित्व-नित्यत्व-कर्मकर्तृत्व-तद्भोक्तृत्व-मोक्ष-तदुपायसत्त्वानां श्रद्धानं न तु परलोकयायिता-मात्रस्वीकाररूपं, एवं सुदृढमिदमेव मनीषिणां मननीयतरं यदुत-भगवन्तोऽर्हन्त एव भवजलधावेकान्तशरण्याः , नान्यः कश्चिदप्यन्यतीर्थीय इति । "इत्थम्भूताः परमत्रिलोकनाथत्वाऽऽदिगुणयुक्ता अर्हन्त एव, अर्हन्तो भगवन्तश्चेत्थम्भूतगुणयुक्ता एवे" त्युभयथाऽवधारणाय रूढस्य भगवत्पदस्याहत्पदस्य चान्तरा विशेषणानां समुदाय इति । एवं च सिद्धादिष्वपि मध्ये विशेषणन्यासे हेतुरवधारणीय इति । अस्त्वितिक्रियाऽध्याहारात् 'शरणं सन्तु ' पूर्वोक्तस्वरूपा अर्हन्त इति । शरण महणेन च ' भयङ्करभवाऽऽवर्तात् त्रस्तोऽहं, न च तस्मात् त्राणकारी जगत्यपि विद्यते इति निश्चयवानहं, भगवन्तोऽर्हन्तश्वावश्यमेव तादृशाद् भवावर्तात् त्राणकर्तारः सन्ति, इति निश्चयवाँश्चाहं भगवतामहंतामनन्यभक्तो भवामीति प्रतिजानीते । शरणग्रहात् प्रागेवाऽन्यत्र मङ्गल-लोको-त्तमत्वयोरध्यवसायस्य दर्शनादिहापि तदाशयानुवेधेनैव व्यास्यानस्यनुचितत्वात् । वस्तुतस्तु भगवन्तोऽर्हन्तः सर्वजगत एव शरणं, परं यो यः पूर्वोक्तरीत्या शरणं गन्ता, स स शरणफलं लभत इति शरणग्रहणस्य तत्त्वमिति । यथा सेधितुकामेन भगवन्तोऽर्हन्तः शरणीकर्तव्यास्तथा भगवन्तः सिद्धा अपीति दर्शयितुं सिद्धशरणमभिधातुमाहुः-तथेति । यथा हि भगवन्तोऽहन्तः सिद्धार्गस्य प्रदर्शकत्वेन शरण्याः, शरणं च तेषामायातस्तथैवेति-अन्यूनाऽतिरिक्तभावेनैव सिद्धा अपि शरण्या एव, शरणं च तेषां प्रपन्नोऽस्मीति । किञ्च-तथेत्यव्ययेनैतदपि सूच्यते यदुत-न ह्यत्र सिद्धसूत्रस्य परसूत्रत्वात् व्याकरणरीत्या येनार्हच्छरणं पूर्व बाधयित्वा सिद्धानां शरणं स्वीक्रियते इति । पूर्वाऽपर-बाध्यबाधकभावोऽनेन, किन्तु समुच्चयः । तथा च यथाऽन्तः शरणं तथा सिद्धा अपि शरणमिति, यद्वाऽनुवृत्त्यैव तथाभावेन शरणस्वीकारलाभे तथाशब्दो विशेषं द्योतयति यदुत-श्रीमतां भगवतामर्हतामहत्त्वं भव्यानां भवोदधितारणाय तीर्थप्रवर्तकत्वेनैवास्ति, एवं च चेत् सिद्भिस्तद्वन्तश्च सिद्धा न स्युस्तर्हि स सर्वोऽप्यभिसन्धिर्व्यर्थः, तथा नोपकारित्वमर्हतां किन्त्वपकारित्वं, व्यर्थस्यैव मार्गो यतो देशित इति ।. Page #70 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (३०) किञ्च-आचार्यादयः परमेष्ठिस्वरूपा अपि साधुपदेन शरणतया स्वीकार्या अपि न मुक्तिगतिपर्यवसाना नियमेन तद्भवे भवन्ति, परं भगवन्तोऽर्हन्तस्तु सर्वेषां भव्यानामादर्शरूपा इति मोक्षपर्यवसाना एव यदि स्युस्तहि ते परमात्मतयाऽऽदर्शरूपतयाऽऽराध्या शरण्याः स्युरित्यवश्यं भगवतामर्हतां शरणस्य याथार्थ्याय सिद्धिस्तद्वन्तश्च सिद्धाः स्वीकार्याः, शरणं च तेषां स्वीकर्तव्यं सर्वबाधाऽतीत-सर्वगुणपूर्णत्वात्तेषामिति । तथा च भगवतां सिद्धानां निराबाधं सर्वकालं सम्पूर्णगुणवत्तयाऽवस्थानमेव भव्यानां परमाऽऽलम्बनं मोक्षमार्गस्याऽनुसरणायेति कथं तेऽकरणा अर्हन्ति शरणं कर्तुमिति विचारस्य नावकाशः । एवमर्हच्छरणवदेवाऽन्यूनाऽतिरिक्ततया सिद्धाः शरणमिति दर्शितम् । तेन चैतदपि प्रतितक्षिप्तमेव, यदुत-सिद्धाः कृतार्था इति योग्याः शरणं विधातुः, तद्विपरोता एमाहन्तः कर्मोदयाद्यधीनत्वात्तेषां इति कथं शरणत्वमिति, यतः केवलज्ञानाचा आत्मगुणा निराबाधं सम्पूर्णा एवार्हतामपीति योग्या एव ते शरणं कर्तुम् । किञ्च-अत्र यदादी सिद्धशरणादहन्छरणस्य स्वीकारस्तस्यैषोऽर्थः-यदुताऽहंदुपदेशेन सिद्धत्वावाप्तिः, सिद्धानां सदा सत्त्वं, सिद्धार्गश्च भगवदर्हत्प्रामाण्यादेव प्रामाण्यपदवीमासादयति, ततश्च भंगवताहतामेवादो प्रणामस्य स्वीकारो न्याय्यः शरणं चाप्यत एव तेषामादौ, न हि कारणात् क्वचिदपि पूर्व कार्य स्याद्, अर्हन्त एव च सिद्धभावस्य कारणमित्यापि प्रागेवाहतां शरणे स्वीकारो न्याय्य इति । अत्र भगवतां सिद्धानां प्रागेव जन्म-जरा-मरणकारणीभूतानां कर्मणां विच्छेदो जायते इति तमेव गुणमादावाहुः, आऽपि-'छिण्णजाइ-जरा-मरण-बन्धणे 'त्ति पठ्यते । किञ्च-त एव सिद्धशब्दवाच्याः स्युर्ये जाति-जरा-मरणानि तन्निबन्धन-कर्मवल्लीनिर्मूलनद्वारा छिन्द्येयुः, अन्येषां जन्माऽनुरादिसद्भावे शरीरादीनां तवारैव तज्जन्यानां जन्मादिदुःखानां चाऽवश्यं भावेन कृतकृत्यत्वाभावात् सिद्धत्वाभावादिति । नैयायिकानां यथा वीतरागाणां जन्मादर्शनं, तथाऽत्राऽऽर्षे प्रवचने वीतरागत्वे वास्तां, अप्रमत्तदशायामपि न प्रेत्य-जन्मकारणस्यायुषो बन्धः, न चायुष उदयाभावे कासाञ्चिदपि गत्यादिप्रकृतीनामुदय इति । सिद्धत्वस्याऽऽयं कारणं जन्माऽन्तरस्यायुषो बन्धस्याभाव इति । जन्माऽभावे च जरा-मरणयोस्त्वभावः स्वभावसिद्धत्वात् एव, प्रतिपादनं तु जरा-मरणयोरभावस्यावालगोपालाङ्गनं ताभ्यां भयातिरेकस्य स्वभावसिद्धत्वात् । अनेनैतदपि ज्ञाप्यते, यदुत सिद्धानां निरावाध-ज्ञान-दर्शन-सुख-वीर्याऽनन्त्यरूपचतुष्टयपूर्णत्वेन नित्याऽऽनन्दमयत्वात्तदवस्थायाः परमाऽऽश्रयणीयत्वेऽपि आबालगोपालगनं सिद्धं जरा-मरणोद्भवं सर्वाss"स्तिक-नास्तिकस्वीकार्य, जन्मभयं च सिद्धावस्थायां सत्यां न भवतीत्यर्विवादेनैव सर्वैरपि जन्म-जरामरणभयैरवश्यमेष्टव्यं सिद्धत्वमिति । Page #71 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (३१) जिना अपि "जन्म-जरा-मरणाऽऽर्तमशरणं जगदभिसमीक्ष्य निस्सार"मितिवचनेन सार्वजनीनं जन्म-जरा-मरणोद्धारमभ्यध्यासिषुरिति । यद्यपि भयत्रयीहीनत्वं भगवतां सिद्धानां, तथापि भाविनो जन्मनो लौकिकप्रत्यक्षाऽविषयत्वान्न तथा भयकारिता, यथा लौकिकप्रत्यक्षगम्याभ्यां जरा-मरणाभ्यामिति ग्रहणमनये रेव । वस्तुतस्तु जन्मन्यवरुद्धे न केनापि रोढुं शक्यं परतीर्थीयानां परमेश्वरपदाऽधिरूढानामपि मरणं जातमेव शरणमन्त्य (2) इति । एवं सकलं जगत् जरा-मरणाभ्यां बिभेति, परं तैश्च शक्यरोधे एव (:) जन्मरोधे एव ते निरुध्येते इति सम्यग्दृशो भीता जन्म-गर्भवसतेः, परमत्र लौकिकानुवृत्त्या क्षीण-जरामरणत्वमेव सिद्धानां स्तुतमिति । 'जातस्य हि ध्रुवो मृत्यु' रित्यविसंवादि वचनं, 'मृतस्य जननं ध्रुव'-मिति संसारिणमाश्रित्य । ततश्चाऽऽवश्यकमेव जरा-मरणाभ्यामुद्वेगवद्भिर्जन्मनस्तन्मूलरूपाया गर्भवसतेश्वोद्विजितव्यं, जरा-मरणयोरभावस्य जन्म-गर्भवसत्यभाव एव भावात् । एवं सत्यप्यत्र पूर्वोक्तहेतोर्जरा-मरणयोः क्षीणत्वं सिद्धानामाद्यगुणतया प्रतिपादितम् । आगमेष्वपि औदारिकाऽऽदीनां सर्वविग्रहाणां मोक्षकाल एव प्रोच्यते । भगवान् श्रीहरिभद्रसूरिस्तु-"आत्यन्तिको वियोगस्तु, देहादेर्मोक्ष उच्यते" इत्युक्त्वाऽन्त्यमरणमेव मोक्षतयोक्तत्वान्, मरणविभक्ति प्रकरणेऽपि केवलिनां मरणं पृथगेवोच्यते। एवं च तथाप्रकारमरणकरणेनाऽन्यमरणनिवृत्तिरेव मोक्षतया पर्यवस्यतीति, तद्वाहित्यमपि सिद्धानामुच्यमानं नाऽसङ्गततरम् । एवं यत् सिद्धानां जरा-मरणराहित्य, तन्न स्वतन्त्रतया कल्पनाशिल्पितं वा, किन्तु तत्कारणाभावस्य सम्पादनेनैव, न हि सनिदानस्य निदानस्यानुच्छेदे कदापि निदानिनो व्युच्छेदः सम्भवति, निदानत्वस्यैव व्याघातात्, जरा-मरणानि जन्म च सनिदानान्येव, "अज्ञानपांशुपिहितं, पुरातनं कर्मबीजमविनाशि । तृष्णाजलाभिषिक्तं, मुञ्चति जन्माऽङ्कुरं जन्तोः ॥१॥" इत्यादिवचनात् । तस्माद् भगवतां सिद्धानामपि जरा-मरणोच्छेदस्य वास्तवताप्रदर्शनार्थमाहुः'अपेतकर्मकलङ्काः' इति, अत्र च कर्मणां कलङ्कत्वकथनेनाऽऽत्मनश्चन्द्रत्वं ज्ञाप्यते । उच्यते च " स्थितः शीतांशुवज्जीवः, स्वभावेन सुनिर्मलः। चन्द्रिकावच्च विज्ञानं, तदावरणमभ्रवत् ॥१॥ इति ।" ततश्च यथा चन्द्रमाः स्वयं तेजोरूपः, न त्वन्यतेजसामाधारः, तद्वदाऽऽत्माऽपि स्वयं ज्ञानस्वरूपः, न तु ज्ञानाऽऽदीनामधिकरणम्, नहि सुवर्णे कपो यथाऽन्यत आगतः, किन्तु स्वभावसिद्धः, तद्पमेव च सुवर्णं, तथाऽत्राप्यात्मा ज्ञानमयः, ज्ञानरूप एवात्मा । पृथगुत्पद्य ज्ञानं चेदात्मनि समवायेत, आकाशकालादावप्यमूर्ते पुसमवायेत,तच्च त्रिष्वपि कालेषु न जायते, न च मनागपि अज्ञान्यात्मवादिनां परतीर्थीयानां वैशेषिकादीनामिति । अन्यच्च कर्मणां कलङ्कृत्वकथनेनैतदपि स्पष्टितमेव, यदुत-भवितुकामानां जीवानां नान्यत् किमपि Page #72 -------------------------------------------------------------------------- ________________ . (३२) शोधनीयं, कर्माण्येव च कलङ्करूपाणीति तान्येव शोधनप्रयत्नविश्याणि । अत एव च जैनानां शासने कर्मणामेव निर्विशेषतया शत्रुसंज्ञा । तत एव च भगवतामर्हतां निरुक्ते 'अरिहंताणं' निर्विशेषणेनाऽरिशब्देन कर्माण्युच्यन्ते, उच्यते च-'अट्ठविहं जं कम्मं अरिभूयं होइ सयजीवाण"-मिति नियुक्तिकारैरप्यष्टविधस्य कर्मण एवाऽरिभूतःवमिति । अपेतशब्देन सर्वथा कर्मकलङ्कराहित्यदर्शनात् बन्धो-दयसत्ताव्यवच्छेदः सिद्धानां ज्ञातत्यः । ततश्च यद्यपि सर्वेऽपि संसारिणोऽनुसमयमष्टविधानां कर्मणामुदयात् प्रतिसमयमेव 'विपाकोऽनुभावः, ततश्च निर्जरे'ति मुच्यन्त एवैभिः कर्मभिरष्टभिरपि, परं न कोऽपि संसारी कर्मसत्त्ववर्जितः, किन्तु तद्वन्त एव संसारिणः । अत एव 'संसारसमापन्नाः असंसारसमापन्ना' इत्यागमेषु सिद्ध-संसारिभेदौ निदर्शितौ, सर्वथा कर्मसत्त्वविनिर्मुक्ताः सिद्धा एव, नाऽन्ये केचिदिति सुष्टूक्तम् 'अपेतकर्मकलङ्का' इति । ईदृशाः सिद्धाः शरणमिति प्रक्रमान्ते योजनं, न च वाच्यं कर्मणां कलङ्केनौपम्यमसङ्गतं, यतः कर्मणां सनिदानत्वात् सकर्तृकत्वाच्चात्मना न सहभावित्वम् , कलङ्कस्य सदा चन्द्रमसि भाव इति वैषम्यादिति, यतः प्राक् तावत् आत्मभिः सह कर्मणां लोलीभाव एव बन्धः, वहन्ययस्पिण्डवल्लोलीभावाच्च कथञ्चित्तद्रूपताऽङ्गीक्रियते । किञ्च-कलङ्कस्य सर्वथाऽपगमे कथञ्चित्तदभिन्नत्वेऽपि न कलङ्किनोऽपगमः, तद्वदात्मभ्योऽपृथग्भूतानामपि कर्मणां सर्वथाऽपगमे नात्मनोऽपगमः, किन्तु कलङ्काऽपगमे कलङ्किवस्तुवदतिशयितस्वाभाविकनैर्मल्यवानेवात्मेति । ज्ञानाऽऽवरणीयाऽऽदिकर्मकलङ्कस्याऽनभ्युपगमे सर्वेषां सर्वज्ञत्वस्यामुमतामभावात् सर्वज्ञत्वं आत्मनां स्वभावः न स्यात्, उत्पद्यमानानां ज्ञानानामानन्त्याभावात् , अक्षाणां सर्वार्थगोचरस्वाभावाच्च न युगपदनन्तसकलपदार्थज्ञानरूपं सर्वज्ञत्वं सम्भवेत्, अपेतकर्मकलङ्कानां त्वदेहत्वात् ज्ञानस्यांशोऽपि न स्यात् , जडत्वापत्तरिष्टत्वं तु न जडा अपि स्वीकुर्वते । ततश्च आत्मनां संसारिणां कर्माणि ज्ञानाऽऽवरणीयाऽऽदीनि छादकत्वात् कलङ्करूपाणि । ज्ञानाsऽवरणीयाऽऽदिककर्म-कलङ्काऽभावः सार्वश्योत्पत्तेरादावेव जातः, परं सिद्धत्वदशामवाप्तोऽपि सिद्धाऽऽत्मा सार्वक्याऽऽदिस्वरूपेणैव तिष्ठति, न भवाऽत्ययेन तत्स्वरूपं व्यपैति । अत एव शक्रस्तवे भगवतामहतां भवाऽवस्थामाश्रित्य 'अप्पडिहयवरणाण-दसणधराणमित्याधुक्त्वोक्तेऽपि सार्वश्ये तेषां भगवतां सिद्धत्वदशामभ्युपगतानामपि तत्साश्यं तिष्ठत्येवेति ज्ञापनाय प्रोक्तं-"सवणूणं सबदरिसीणं 'ति । तदेवं कर्मकलङ्कदूरीकरणेनाऽवाप्तकेवला अवश्यं भवोपग्राहीणि चत्वारि नन्त्येव कर्माणि । एवं च जरा-मरणवन्धनकारणघात्युच्छेदे सर्वकर्मणां व्युच्छेदः, व्युच्छेदे च तेषां कारणोच्छेदेऽवश्य कार्योच्छेदस्य भावादाहुः-'प्रणष्टव्यावाधा' इति । अपुनर्भावार्थः प्रः, ततश्चाऽपुनर्भावेन तेषामबाधा नष्टाः, शेपसंसारिणामुदितानां कर्मणां क्षयात् तजन्या आवाधा नश्येयुः, न तासां तेषां नाशोऽपुनर्भावेन, पुनर्जन्माऽऽदिमये संसारे परिभ्रमणादवश्यं तासां तत्र भावादिति । अत एव चार्षे-'परिणिचाये' तिपदेन सदैव 'सबदुक्खाणमंतं करेंती 'त्युच्यते । Page #73 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (३३) यद्यपि विद्वांसो लीना आत्मरमणे जीवस्वरूपभूतानां (:)केवलज्ञानाद्यनन्तचतुष्टयस्य निरञ्जनत्वयुतस्य पुद्गलायत्तसारहितस्येत्येषां सद्भावे स्यात् संसारे परिभ्रमणं, (४) न विदध्युः सिद्धत्वाधिगमेच्छामपि, मध्यमबुद्धयश्च यदि संसारे रोगाणां जराया मरणस्य जन्मनश्च चक्रवर्तिनोऽपि तदायत्ततायां प्रवेशात् स्वकीयजनेष्वपि रोगादिप्रवेशस्य निवारयितुमशक्यत्वाच त्रिजगतोऽधिकसामर्थ्येन सर्वासु मदाक्रमणीयता न स्यान्न स्वप्नेऽपि धारयेयुर्मोक्षमाप्तुं, परमाबालगोपाङ्गनं सर्वं जगत् गर्भवसति-जन्म-बाल्ये-ष्टवियोगाऽनिष्टसंयोगाऽमीप्सिताऽर्थाऽप्राप्ति-नाशाऽऽधि-व्याधि-रोग-शोक-जराजीर्णत्व-मृत्यु-पराधीनत्वादयश्चेत् संसारे व्याबाधावहा न भवेयुर्न चैव वाञ्छेयुरल्यावाधपदप्राप्ति, परं प्रतिभवं गर्भवसत्याया आबाधा अनिवारणीयतया आपतन्त्येव, न च ता रोड़े केनापि परमेश्वरवादिनापि पार्यते, सिद्धत्वमेव बाधाभिः रहितमिति कृत्वैवाभीप्सन्ति सिद्धि साधयितुम् । तत्र सिद्धत्वेऽपि न चेद् व्यायाधानामभावः, न चैव तत्प्रति कस्यापि स्यात् प्रेप्सेति सुष्ट्रक्तं-'प्रणष्टव्यावाधा' इति । . तत्वेषु सप्तसु जीवतत्त्वस्यैकरूपत्वात् न सिदाऽऽ:मनां संसारिभ्यः स्वरूपेणाऽस्ति भेदः, किन्तु संसारिणां स्वरूपं ज्ञानाऽऽवरणीयादिभिश्चतुर्भिर्वातिकर्मभिरावृत्य प्रवृत्तिरहितं कृतं, शेपैश्चतुर्भिरघातिभिश्च प्रापितं विकारं, भगवतां सिद्धानां तु सकलमात्मस्वरूपमनावृतिमत्त्वादसंयुक्तत्वाच्च स्वव्यतिरिक्तैः, यथावदेव प्रवृत्तिमदिति सत्यपि एतावान् भेदावग्रहो भावतो निश्चयेन वा जातसम्यक्त्वानां स्यात् । यतस्त एव सदादिनिर्देशाऽऽदिभिरैरवगच्छन्ति जीवादीनि तत्त्वानि । ये तु ग्रन्थिभेदं विधायापि तथाविघयोधरहिता “ जिनप्रज्ञप्ताः पदार्था जीवादय एव तत्त्वानी"त्येवं प्रतिपन्ना व्यवहारेण द्रव्यतो सम्यग्दृशो जीवास्ते तथारूपं सिद्ध-संसारिणां स्वरूपभेदमजानाना अपि श्रीजिनोपज्ञया अव्यावाघो नान्यत्र क्वचिदपि चतुर्दशरग्वात्मकेऽपि लोके, किन्तु लोकाग्रभागस्थिते शिवालये एव सर्वथा सर्वकालोनो व्यावाधाऽभावोऽस्तीति निशम्य केवलं व्याबाधाऽभावमाश्रित्यैव भगवजिनोक्तं शिवसाधकाऽनुष्ठानमनुतिष्ठन्ति, बहवश्च ज्ञानाऽऽवरणस्वाभाव्यादेतादृशो जीवा विशेषतश्चाधुनेति व्यावाघानां जरा-मरणनिषेधद्वारा साधननिषेधेन 'अपेतकर्मकलङ्का 'इत्यनेन कारणनिषेधेन सर्वथा निषेधे कृतेऽपि स्पष्टतया तासां निषेधाय व्यावाधानां सूत्रमिदं 'प्रणष्टव्यावाधा' इति, तथा च गतार्थतामाशंक्य नाऽनर्थताऽस्य शङ्कचेति । । ____ यद्यप्येतैर्विशेषणत्रयैः सिद्धानां भव्यैरभीप्सनीयं स्वरूपं सिद्धं, परं प्रेक्षापूर्वकारिणो न केवलमनिष्टभर विनिवर्तयन्तः स्वान् कृतार्थानभिमन्यन्ते, किन्तु पराऽसाध्येष्टतमसञ्चयसियैदेतीष्टसम्पत्. सिद्धिरपि दर्शनीया सिद्धानामित्याहुः- केवलज्ञान-दर्शना' इति । यद्वा नैयायिक-वैशेषिकाऽऽदयोऽपि यन्निःश्रेयसमभ्युपगच्छन्ति तस्य विशेषगुणोच्छेदरूपत्वेन ज्ञानाऽऽदिचतुष्टयराहित्यवत्त्वमभ्युपयन्ति, परं तेषामपि मतेन मुक्तेषु जरादयस्तु नैवांऽशतोऽपि सन्तीति तादृशजडात्मकमुक्तत्वव्यच्छेदायाहुः- केवलज्ञानदर्शना' इति । Page #74 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (३४) अत्रेदमवधेयं जगति जीवानां यः स्पर्शनाऽऽदीन्द्रियाऽनिन्द्रियैः सावधानताद्वाराऽवबोधो जायते स इन्द्रियाणां मननादुत्पन्नत्वान्मतिशब्देनोच्यते, “स्वभावादेव चात्मनामे कोपयोग ते "ति प्राप्तेष्वनेकेषु स्पर्शेष्वेकस्यैव स्पर्शस्य, रसादिष्वेकस्य रसादेश्व बोधः स्यात्, एवं युगपदने केन्द्रियज्ञानाSनुत्पत्तये समप्रशरीरे व्यापिनोऽपि मनसोऽणुत्वकल्पनं निरर्थकम्, तथाकल्पनेऽप्ये केन्द्रियस्य तद्गतानामनेक-समानचित्रयाणामपरिच्छेदे अन्त्यश आत्मन एकोपयोगस्वभावतायामेव विश्रामादिति । यश्चातीन्द्रियाऽर्थदर्शिप्रोक्तानामनीन्द्रियाणामात्मादीनां श्रुतानां ज्ञानं तच्छ्रुतज्ञानं, तत्प्रत्यायने सर्वज्ञ्वचनातिरिक्तस्यास्यान्यस्य कस्यापि प्रमाणस्याभावात्, तद्वचनमात्र प्रतीति श्रद्धेयत्वात्, शिष्टानां च जगति व्यवहार ऐन्द्रियकैः पदार्थैस्ते च सर्वेऽपि रूप-रस- गन्ध-स्पर्शवत्वाद्रूपिण एव, ततश्च रूपपदार्थान् सर्वान् आ-परमाणोराऽचित्तस्कन्धं यदावेदयति ज्ञानाख्यात्मगुणांशः सोऽवधिभूतत्वाद्रूपिमात्रविषयतयाऽवधिज्ञानमिति तृतीयज्ञानभेदतयाऽऽख्यायते । ये चावाप्य भगवदर्हदुक्ततत्त्वानां श्रद्धानं करणत्रयोविधानपराक्रमजातेन सम्यक्वेंत स्थिरीभूय च तत्र सद्वृत्तरूपचारित्रस्य ज्ञानेऽपि सम्यक्वप्रभावाच्छ्रेष्ठतमत्वे तदवरोधकानां वत्र परिग्रह - विषय - कषायाद्यधीनत्व जनकानां मोहनीयांशानां यदा विदधन्ति शमादि, तदा तादृशीमवस्थामप्रमत्ताख्यामनुगताः प्राप्नुवन्ति शिष्टानां शिष्टञ्यवहारविषयमितानां चार्धतृतीयद्वीपान्तर्गत सञ्ज्ञिपञ्चेन्द्रियाणां मनचिन्तितान् पदार्थानवगन्तुं शक्नुवन्ति, ते मनसः पर्यायाणामवगमनात्मनःपर्यायज्ञानिन उच्यन्ते । तादृशं ज्ञानं च मनःपर्यायसञ्ज्ञया कथ्यते, लोकानुभावाच्च व्याघ्रानां पद्माविव नेदं प्रतिपदं व्यवहारविपर्यासकारणपरायणम्, वधायासक्तानां न च शब्दादिविषयादिप्रमादपरायणानां योगिनामपि जायते । तदेतानि चत्वारि ज्ञानानि देशज्ञापकानि आत्मस्वरूपापेक्षम सर्वविषयागोति मध्यादिभिर्विशेषणेव्यवच्छिय प्रज्ञाप्यन्ते तथा च ज्ञानशब्द आत्मनः स्वभावस्थज्ञानदर्शक, एवं चात्मन एकोपयोगस्वभावत्वमेवेति । सर्वोत्तममन्त्यं च पञ्चमं केवलज्ञानम् । तत्र केवळेति न मत्यादिचतुष्कवज्ञानांशधोतनाय व्यवच्छेदकं विशेषणम्, सम्पूर्णस्यात्मज्ञानस्यैव ग्रहात् । तथा च केवलेन युतानेवाश्रित्य नियन्तुं शक्यं ' यन्मानाधीना मेयसिद्धि: ', ' नाऽप्रमाणस्य मेयते 'ति नियमद्वयमपि केवलवन्तमेवाश्रित्य भवेद्योग्यः । तथा च यावज्ञेयव्यापित्वात् केवलं, जाते चास्मिन् नान्यज् ज्ञानं, सम्पूर्णत्वादेवास्य, न च तज्ज्ञान - ज्ञेयव्यतिरिक्तं च किञ्चिदन्यद् वस्तु, ततः स्वरूपेण विषयेणाऽप्रतिपक्षवत्त्वात्केवलेति विशेषणेन विशेषितम् । किञ्च परेषु मत्यादिषु जातेष्वपि न निश्शेषाणि वस्तूनि तत्तज्ज्ञानेन ज्ञायन्ते, नियतविषयत्वात्तेषाम् । न च यानि वस्तूनि तेन तेन ज्ञायन्ते तान्यपि यावत्स्व पर्यायविशिष्टानि, यतः सर्वान् पर्यायाने कस्यापि वस्तुनः सर्वज्ञ एव वेत्तुमलम् । Page #75 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनदृष्टया स्वव्यतिरिकाऽन्यसर्वपदार्थव्यावृत्तिरूपधर्मोपेतत्वात् । य एव पटे पटस्वभावः, स पटेतराऽभावरूपोऽपीति यावत् परवस्तुज्ञानाभावे एकपदार्थगतानां व्यावृत्तिधर्माणां ज्ञानाऽभावात्, स्वरूपेण ज्ञातस्यैव व्यावृत्तिरूपेण ज्ञानात् । तथा च सर्वेऽर्था अनुत्ति-व्यावृत्तिस्वरूपबत्तामपेक्ष्य सर्वात्मका इति । . ____परदर्शनदृष्टयाऽपि सर्वेऽर्थाः सर्व-तदितरपदार्थाऽन्योन्याऽभावाऽऽश्रयाः, अन्योऽन्याभावनियामकं च तत्पदार्थस्वरूपमेवेति, तत्त्वतः सर्वपदार्थज्ञाने तदितरेतराऽभावज्ञानं, ते चाऽभावा वस्तुरूपेणावच्छिन्ना इत्यवच्छेदकस्वभावज्ञानद्वाराऽपि सकलपदार्थज्ञानाऽविनाभावि एव एकस्याप्यर्थस्य यावत्स्वरूपयुतं ज्ञानमिति । एवं च व्यवच्छेदकत्वाभावादसाधारणं, न मत्यादिवद् व्यवच्छेद्यं, सर्वपर्यायोपेत सर्ववस्तुज्ञापकत्वाच सम्पूर्णम् , तदज्ञातस्य कस्याप्यर्थस्याभावोऽतः, मत्यादीनि ज्ञानानि सर्वविषयाणीति स्वाऽज्ञातवस्तुज्ञापनसापेक्षाणि, इदं तु निरवशेषपर्याययुतसमस्तवस्तुज्ञापकमिति नैतद्वतोऽन्यज्ञानाऽपेंक्षा । तथा च सर्वथा सर्वदा यदेकमसाधारणं सम्पूर्ण ज्ञानं, तत् पूर्वेभ्यो ज्ञानांशरूपज्ञानेभ्यो विशिष्य केवलेन विशिष्टं ज्ञानं केवलज्ञानमित्युच्यते । तच्च यद्यपि क्षपकक्षेणिप्रभावेण मनुष्या उत्पादयितुं शक्ताः, परं मनुष्यत्वस्य शाश्वतत्वाऽभावात्, केवलिनश्च जन्मान्तराभावात् सिद्धदशायामेव तस्यावस्थानमिति केवलज्ञानवराः सिद्धा इत्युक्तमिति । यथैव भगवन्तः सिद्धाः स्वरूपत्वाद्धारकाः केवलज्ञानस्य, तथैव केवलदर्शनमपि तथारूपमेवेंति, तस्यापि धारकास्ते इत्युक्तं केवलज्ञानदर्शनधरा इति । ___ अत्रेदमवधेयं, यदुत जगति ये केचित् पदार्थास्ते द्विस्वभावा एव, सर्वेषां पदार्थानां यतः स्वरूपवत्ता, ततः स्वरूपमेव सामान्यं, तद्वांश्च विशेषः, एवं 'व्यक्तेरभेद० ' इत्यादिना यो जातिबाधकः समुदायः परपदार्थक्रोडोकरण-परजातिनिरूपक इति न तेन बाधः, एकव्यक्तिकस्यापि स्वस्वरूपवत्वेनैव युक्तत्वादिति । ___ अत्र च चक्षुरादीनि दर्शनानि पदार्थान् तत्स्वरूपं सहगतान् पृथक् पृथक्तयां गृहणन्ति, पश्चाजायमान आभोगो ज्ञानाऽपरपर्यायो द्वयोरपि वैशिष्टयेनाऽव बोधं करोति । ततश्च दर्शनं सामान्यांचवोधकं ज्ञानं विशेषाऽववोधकं च, कथ्यते च-तथा च न दर्शनं विशेषान् न विषयीकुर्यात् , न वा ज्ञानं सामान्यं न विषयीकुर्यात् , एवं च सर्वज्ञता, सर्वदर्शित्वं च कश्यमानं यथायथमशेषान् अर्थान् विषयीकुर्यात् , न कश्चिददृष्टोऽज्ञातो वा पदार्थः स्यादिति । यथा च पर्वतो वह्निमानिति, पर्वते वह्निरिति चानुमानद्वयं न परस्परं विरुद्धम् , न चैनान्यस्य निरर्थकता, तद्वदत्रापि जगद्वर्तिनामशेषाणामर्थानां स्वतन्त्रतया सामान्यरूपतया विशेषरूपतयाँ चं Page #76 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (३६) भावात् समेषां पदानां सामान्यरूपतया विशेषरूपतया चेति यद् विज्ञानद्वयं न तत् परस्परं विरुद्धं बाधकं वा, अनावरणानां च महात्मनां सर्वदा सर्वेषामर्थानां स्वस्वरूपेण भानात् , सर्वेषामप्यर्थानां सामान्यरूपतया च भानमावश्यकं, विशेषतश्च प्रतिसमयमखिलविश्वगताऽखिलपदार्थवेदनापटीयो बोधवतां सर्वज्ञानाम् । ततः सर्वेऽपि सर्वज्ञाः प्रतिक्षण मखिलाऽर्थानां विशेषरूपतया वोधात् सर्वज्ञत्वाऽङ्किताः सामान्यरूपतया बोधाच्च सर्वदर्शित्वाङ्किताः स्युः । अत एव "प्रतिसमय निखिलाऽर्थग्राहके ज्ञान-दर्शने भगवन्तः केवलिनो धारयन्ती "ति तत्त्वार्थ-भाष्यकाराऽऽदयः । तैर्हि 'णाणंमि दंसगंमी'त्यादिगाथाया 'एतो 'त्तिशब्दस्य दिगर्थपञ्चम्यन्तयोजनेन 'इतः प्रागिति कृत्वा अग्रतः केवलिभावस्य वक्ष्यमाणत्वात् केवलित्वात् प्राग् अकैवल्यावस्थायां जीवाः ज्ञानदर्शनयोरेकतरस्मिन्नेवोपयुक्ताः स्युः, प्राते कैवल्ये तु किं स्यादित्याह-'सबस्स केवलिस्स जुगवंति ये केचित्केवलिनस्तेषां सर्वेषामपि ज्ञान-दर्शनयोरुभयोर्युगपदुपयुक्ततेति, तर्हि किमेकस्मिन् समये केवलिनामुपयोगद्वयं ज्ञान-दर्शनविषयकपार्थक्येनेत्याह-'दो णत्थि उवओग 'त्ति । कस्यापि जीवस्य कैवल्यवतस्तद्रहितस्य वा नैकस्मिन् समये पार्थक्येनोपयोगद्वयं स्यात् । . तथा च सेना-स्कन्धावारबोधवद् द्वयात्मकः स उपयोगः, न तु पृथग द्वयरूप इति व्याख्यानं क्रियते । श्रीभगवतीसूत्रं च 'जं समयं 'इत्यादि 'तत् समक 'मित्यर्थयित्वा वर्गाऽऽदिभिर्वशिष्टयस्य ज्ञानता, परस्य तु दर्शनतेति स्वरूपाख्याने पर्यवसोयते । स्नातकोपयोगावपि ज्ञान-दर्शनबोधपर्यवसानतायां नीयते इति भवतु किश्चिदप्यनृतं (?) परं सिद्धाः केवलज्ञान-दर्शनधरा इत्यत्र तु न केषामपि वैमत्यम् । आत्मा यतो ज्ञान-दर्शनस्वभावस्ततोऽशरीत्वेऽनिन्द्रियत्वेऽपि च सिद्धानां न केवलज्ञान-दर्शनधरत्वे बाधः कश्चित् । इन्द्रियाणि तु ज्ञान-दर्शनयोर्वहिरन्तरकरणरूपाणि, न तु ज्ञातृणि द्रष्टुणि वा, सत्स्वपि तेषु समानेष्वपि वैचित्र्येणोपल भात् , नाशेऽपि च तेषां तदुपलब्धाऽर्थबोधस्याऽनाशात् । किञ्च-आत्मा एव यदि ज्ञानादिस्वभावो देहपर्यन्तव्यापी वा नाभ्युपगम्येत, नास्तिकवादाऽभ्युपगमेनाऽऽभाऽपलापे एवं पर्यवसानं स्यात् , आत्माऽतिरिक्तपदार्थेषु चैतन्योत्पाद-स्थित्यादेरभ्युपगमात, मनोऽप्यात्माऽभिन्नमेवेति सुधीभिरूह्यमान्तरेण बोधेनेति । । किञ्च-आत्मनो ज्ञानस्वभावाऽभावे बोधस्य समानेष्वपि साधनेषु न्यूनाधिक्येन वैचित्र्यं न स्यात् , न स्याचाऽनुभूतस्याऽपि तद्भव एव स्मरणाऽस्मरणे, भवाऽन्तरस्मृतिस्त्वात्मन एव ज्ञानपरत्वे एव योग्या, मनसस्तदाधारहवे. तु तस्यैकस्श नित्यस्य चाऽभ्युपगमात् इह पूर्वकालीनाऽनुभूतस्येव पूर्वभवाऽनुभूतस्य सर्वेपामेव वाहुल्येन स्मरणप्रसङ्गस्याऽऽपातः सुदुर्निवार इति । Page #77 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (३७) निराबाधमेतदेव - यदात्मैव ज्ञानादिस्वभावैः तत्तत्क्षयोपशमाद्यनुसारेण चाडवाप्नोति वोधमिति । ततश्च सिद्धाः भगवन्तः सर्वथा कर्मकलङ्करहिता इति केवलज्ञानदर्शनधरा इति । नन्वेतादृशोऽप्येते क्वचिन्नियतदेशस्थिता अनियतदेशस्था वेति ?, नियत एव देशे ते स्थिता इति, आदौ तावत् जीवानां स्वस्वभाव ऊर्ध्वगमनरूप एव यथा धूमाऽऽग्निज्वालाssदीनाम् । अत एव सकर्मणां जीवानां गत्यन्तर-स्थानप्राप्यर्थमानुपूर्वीनाम्न आवश्यकता, गत्यादिनाम्नां चोदयस्थानुकूल - - क्षेत्रप्रापणं चावश्यकं मन्यते, मुक्तिश्च साधनैः सम्यग्दर्शन ज्ञान - चारित्रैरेव जन्यते तानि च साधनानि - नरलोकाद् बहिर्न सम्भवन्ति, जिनेन्द्रोत्पत्त्यादीनां नरलोक एव तद्धेतूनां भावात्, तत्रैव नरोक एव मुक्तेः साघनं, मुक्ताश्च नरलोके सम्यग्दर्शनाऽऽदिभिः साधनैरूर्ध्वमेव स्वभावाद् गच्छन्तः सिद्धिपर्यवसानगतिका एव भवन्ति। अत एव 'लोयग्गमुत्रगयाण' मिति 'तत्थ गंतूण सिज्झई'त्यादि चोच्यते । ननु जीवा ऊर्ध्वगमनस्वभावा एव, मुक्ताश्च कर्मप्रेरणारहिताः स्वस्वभावेनैवोर्ध्वं गच्छन्ति चेत् ?,. सिद्धशिलायां लोकाग्रे वा कथमवस्थिता भवेयुः ? किं न परतोऽपि स्वभावात् गच्छेयुरूर्ध्वमिति चेत् ? सत्यं, ? परं जीवानां पुद्गलानां च गतिपरिणतानामपि गतिपरिणामाऽऽपन्नानामपि मत्स्यानां - गत जलमित्र धर्मास्तिकाय एवावष्टम्भकः । स च न लोकाग्रात् परत इति सिद्धानां लोकाय एव स्थानम् । ननु धर्मास्तिकायस्य सत्त्वमेव कथं बोद्धव्यामिति चेत्, सत्यं पारमर्षप्रवचनवचनात् तच्छ्रद्वातुमर्हम् । किञ्च-यदि न स्यात्तादृग्दव्यं जीव- पुद्गलानां गतेर्नियामकम्, अलोकस्याऽपरिमितत्वात्, सर्वे जीवाः पुद्गलपरमाणवश्च तथा तथा नियामकाऽभावाद् गच्छेयुर्यथा जीवानामजीवानां दृश्यमाना अनुभूयमाना आवश्यकाश्च संयोगा एव न स्युः । दृश्यन्ते, उपलभ्यन्ते, उपपद्यन्ते च ते संयोगा इति लोके तेषां गतेर्नियामकतयाऽवश्यमभ्युपेय एव धर्मास्तिकायः, तदभ्युपगमे परतस्तद्भावादेव न सिद्धानां - गतिरिति योग्यमेव सिद्धानां भगवतां लोकाग्रे सिद्धिपुरेऽवस्थानमिति । किञ्च--चतुदर्शरज्ज्वाऽऽत्मकोऽयं लोको यत् त्रिधाऽधस्तिर्यगूर्ध्वलोकभेदेन तिष्ठति । तत्र लोकाऽनुभावादेवाऽधोलोके पुद्गलानामशुभतर एवाऽनुभावः, यद्वशान्नरकक्षेत्राणामशुभतरत्वात्तीत्रतीव्रतर तीव्रतमवेदनानां भवत्युद्भवः । तिर्यग्लोके मध्यमानुभावो लोकाऽनुभावादेव पुद्गलानां विद्यते, ततश्च तिर्यङ्-मनुष्यास्तत्र वर्तमानाः मध्यमरीतिजानि सुखानि वेदयन्ति तद्वदेव चोर्ध्वलोके ये वर्तन्ते पुदगलास्ते शुभ-शुभतर-शुभतमाऽऽदिपरिणामा लोकाऽनुभावादेव भवन्ति यावत् सर्वार्थसिद्धस्थाने सर्वलोकगतजीवाऽपेक्षया प्रकृष्टपुण्यवन्तो जोवा उत्पद्यन्ते, प्रकृष्टतरं च सातावेदनीयं क्षेत्रानुभावजातशुभपुद्गलसंयोगादनुभवन्ति, पौगलिकत्वात् सातावेदनीयकर्मगः, तस्मादप्युपरितने भागे या सिद्धशिला तत्र तदुपरितने च भागे पुद्गलानां लोकाऽनुभावादेव परमशुभतरत्वे किञ्चिदपि चोद्यं न तिष्ठति । Page #78 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (३८) यद्यपि सिद्धा भगवन्तः ज्ञान-दर्शन-सुख-वीर्याऽनन्त्यचतुष्टयीवत्वात् न तेषां ते पुद्गलाः सुखहेतवो भवन्ति, परं समग्रे जगति सर्वोत्तमानुभावव-पुद्गलस्थानं तदेवोलोकाऽप्रभागलक्षणं, तेन कर्म कलङ्कमुक्तानां प्रणष्टव्याबाधानां भगवतां तत्राऽवस्थानं योग्यमेवेति । जगति च समृद्धतयाऽनाक्रमणीयतया बुद्धिप्रधानपुरुषाऽऽवासतया च पुरमेव विशिष्यते प्रामादिभ्यः स्थानेभ्यः, तद्वत् ज्ञानादिचतुष्टयाऽनन्त्यसमृद्धं कर्मरिपुभिरनाक्रमणीय सनातनज्ञान-दर्शनाऽनन्त्योपयोगप्रवृत्तं च समग्रेऽपि संसारे सिद्धिरेवेति सा पुरेणोपमीयते । किश्च-दुस्तरसमुद्रतरणपटिष्टैरवाप्य समुद्राऽपरतटं पुरमेवाप्नुमभिप्रेयते, तद्वदत्रापि संयम-पोतेन दुःसार-संसारसमुद्रं प्रतीर्य साधवः सिद्धिमवाप्तुमिच्छतीति सिद्धरुपमानं पुरेणेति । किञ्च-यथा पुरमुपागता अध्वनीनाः सर्वदस्युप्रभृतिभयविप्रमुक्ता भवन्ति, तथाऽत्रापि सिद्धिमुपेतानामेव जन्म-ज़रा-व्याध्या-मयाऽन्तकाऽऽदिभयानि सर्वदा नष्टानि इति सिद्धेरुपमितिः पुरेणेति । ___ पुरेषु द्विविधा लोकाः-पोरा जानपदाश्च, तत्र ये पुरमेवाधितिष्ठन्ति स्वाऽऽश्रयाः ते पौराः, जानपदाश्च, तत्र ये पुरमेवाधितिष्ठन्ति स्वाऽऽश्रयाः ते पौराः पुरनिवासिन इति कथ्यन्ते, ये च बहिर्भागात् प्रयोजनं किञ्चिदुद्दिश्य पुरमधिश्रितास्ते जानपदा इति कथ्यन्ते । तत्र ये सिद्धा भगवन्तस्ते सिद्धिपुरनिवासिनः, सदैव तत्राऽवस्थानात्तेषां, ये तु पृथिव्यादयः स्थावरास्तत्र लोकाग्रभागे सिद्वाश्रयाऽविभक्तेष्वेवाऽऽकाशप्रदेशेषु सन्ति, ते तत्र न नियमावस्थानाः, चतुर्दशरज्जुप्रमाणलोके परिभ्रमणशीलत्वात्ततस्तत्र लोकाग्रभागे सिद्धिस्थाने ते जानपदतुल्यतयाऽविवसन्ति, न पौरवन्निवासितया। ततो योग्यमेवोक्तं भगवतः सिद्धानधिकृत्य सिद्धिपुरनिवासिन इति, समृद्धतमं निरावा, पूर्णसाधनोपेतं परचक्राऽनाक्रम्यं नृपतिस्थानं जगति मतं पुरमिति अनन्तचतुष्टय-ऋद्धिकलिताया जन्म-जरा-व्याध्यन्तकाद्याऽऽवाधारहितायाः सम्पूर्णसौख्यरूपायाः कर्मतृपसैन्याऽनाक्रमणीयायाः सर्वाऽधिपतीनां सिद्धाना-मनन्यस्थानभूतायाः सिद्धेः पुरेणोपमानम् । किञ्च-अटव्याः समुद्रस्य पारं जिगमिषुभिरवश्यं पुरप्राप्तिरभिसन्धीयते, अत्रापि च भवाऽटव्याः संसार-समुद्रस्य पारगामिन एवाऽऽगच्छन्तीति पुरेणोपमानं, तन्निवासिनश्च सिद्धा इति । किञ्च-आजन्माऽरण्यवासी म्लेच्छः अश्वाहरणप्राप्ताऽरण्यवासेन नृपेण तत्कृतस्योपकारस्याऽविस्मरणीयतां चिन्त्यमानेन नीतः स्वराजधानीपुरं, स्थापितश्च कियन्तमपि कालं महोपकारितामनुस्मरता बहुविधोपंचारपुरस्सरं तस्मिन्नेव पुरे स्वसमीप एव, कालान्तरेण स्मृत्वा निजं परिवाराऽऽदिकमागतोऽनुज्ञाप्याऽरण्यं स्वजनानामभ्यर्ण, स्वजनाश्च चिरेणागतं तं कालमेतावन्तं क्व स्थित इति पृच्छन्त्येव, स चानुभूतं सोपचारं पुरमेव निवेदयति, जातकुतूहलाच पौनःपुन्येन तस्यैव पृच्छन्त्येव स्वरूपं, स च नृपकृपापात्रीभूतो म्लेच्छो जाननपि सकलं यथार्थतया पुरस्वरूपम् , वाञ्छन्नपि स्वजनानां परमप्रीतिस्थानत्वा Page #79 -------------------------------------------------------------------------- ________________ यथोक्तयोदाहर्तु,तथाविधस्योपमानादिसाधनस्याऽभावात् नैव शक्नोति स्वजनानामाप्तानामप्यग्रत उदाहतु स्वरूपं नगरस्य, तद्वदत्रापि सर्वद्रव्य-क्षेत्र-काल-भावाऽवभासनपटिष्ठेन केवलाऽऽलोकेनाऽवलोक्यापि सिद्धिपुरं सोपचारं सामस्त्येन नैव शक्नोति विधातुं तत्प्रतिपादनम् , यतो जगति ये ये व्यवहारगता अर्था उपमानपदमानीयोच्यन्ते ते समस्ता अपि अनात्मीया अतथाभूताश्चेति विदन्नपि केवलज्ञानी न स्वरूपं सिद्धेराख्यातुमलम् । __ . लोकेऽप्यभिन्नस्वरूपाया अपि सख्याः पुरोन पतिप्रेमरसाऽऽदीनाख्यातुमपार्यत प्रियया सख्येति सुप्रसिद्धमेव, तद्वदत्राऽशेषानर्थान् विदनपि सामस्त्येन साधनस्य तथाविधस्याऽभावानोपदर्शयितुं शक्त इति पुरस्वरूपाऽकथनवृत्तमधिकृत्यापि सिद्धेः पुरत्वेनाभिसन्धानं समञ्ज नसमेव । किञ्च-अन्यत्र पुरादिष्वधिवसन् जीवो यावद्भवमप्यवसन् चिरकालं सामस्त्येन वासान्निवासितयाभिधीयते, इतरे त्वागन्तुतया, तद्वदत्रापि परं साधनन्तं कालं यावद्वासोऽत्र सिद्धानां भगवतामिति यथार्थतयैव सिद्धा भगवन्तः सिद्धपुरनिवासिनः । अत एव शास्त्रेऽपि सिद्धिगते मधेयेषु अपुनरावृत्तितयोच्यते, परतीर्थीयैरपि 'न पुनरावृत्तिः न पुनरावृत्ति 'रिति ब्रह्मसूत्राऽऽदिना अपुनरावृत्तिकथनेन सिद्धानां भगवतां साद्यनन्तस्थितिमत्त्वमभ्युपगतमेव । यैरेव ज्ञानिभिर्येनैव ज्ञानेन सिद्धानां साधनेनेह पुनरनागमनं दृष्टं, तैरेव ज्ञानिभिस्तेनैव ज्ञानेन जीवानां विशेतषश्च भव्यानां तथाविधराशिप्राचुर्यादव्यवच्छेदोऽपि दृष्ट इति, न जीवानां भव्यानां सिद्धिगमनेनाऽनन्तानामपि व्युच्छेदशङ्काया अवकाशः । अवधेयमत्रेदं यद्-अतीत-वर्तमानाऽनागताऽद्धासमयानां या सङ्ख्या आनन्त्याङ्किता, ततोप्यनन्तगुणैरधिका भव्यजीवानां सङ्ख्या, सिद्धिश्च नरलोकस्य पञ्चचत्वारिंशल्लक्षयोजनप्रमाणस्याभ्यन्तरे एव । बहिर्नरलोकाजिनादीनां सर्वथाऽभावात् अपि विद्याधराया नन्दीश्वराऽऽदिषु चैत्यवन्दनाऽर्थमागच्छन्त्येव त्वरितं पुनरत्रैव, न च तत्र धर्मदेशनाऽऽदि कुर्वते । नरलोकेऽपि भवोदधेस्तारणप्रत्यलस्य तीर्थस्य प्रवृत्तिस्तु पश्चदशसु कर्मभूमिष्वेव, तत्रापि अर्धषड्विंशतावार्यजनपदेष्वेव बाहुल्येन धर्मतीर्थमाप्य सिद्धेरानुकूल्यं, परत्र तु न "धर्म" इति वर्णद्वयं स्वप्नेऽप्यायाति हृदि । तेष्वपि च क्षेत्रेषु महत्स्वपि पूर्वाऽपरविदेहेषु स्वल्पक्षेत्रं धर्मतीर्थस्याऽनुकूलताभाक्, भरतैरवतेषु च दशकोटाकोटीसागरप्रमितास्वाप्युत्सर्पिण्य-वसर्पिणीष्वेकामेव सागरकोटी केवला तीर्थकालः, सोऽप्यन्तराऽन्तरैव तत्त्वतो जिनानां पर्यायाऽन्तकृभूमि-युगाऽन्तकृभूमिरूप एव सिद्धेर्योग्यः कालः । Page #80 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (४२) तदेवं सिद्धेर्योग्यानां क्षेत्र-कालाऽवस्थानामत्यन्तमल्पत्वमेव, जीवाश्चानन्ताऽनन्तसङ्ख्याकाः, यतो लोके यावदसङ्ख्येयाः सूक्ष्मनिगोदजीवानां गोलकाः, प्रतिगोलकं पट्स्वपि दिक्षु एकैकाऽऽकाशप्रदेशहानिवृद्धिभ्यामसङ्ख्येया अवगाहना, अवगाहनायां चैकैकस्यामनन्ताऽनन्ता जीवा इति, जीवानां सङ्ख्या विचार्यते, न स्यादेवाऽनन्तानामपि सिद्धिगतेः प्राप्तौ तद्व्युच्छेदाशङ्काकणोऽपि । किञ्च-एकैकस्मिन् निगोदे सूक्ष्मे बादरे वा ये जीवा अनन्ताऽनन्तसङ्ख्याकास्तेषां असहख्येयतमोऽपि भागो न कदापि सिद्धिमवाप्स्यति, किन्तु अतीताऽनागतकालीनाः सर्वेऽपि सिद्धाः सेत्स्यमाना जीवाः सर्वेऽप्येते एकस्याऽपि निगोदस्य जीवानामनन्ततम एव भागे भवति । ___ एतावति जीवसङ्ख्याने सत्यपि तव्युच्छेदशङ्कायाः प्रादुर्भावो महामोहोदयप्रभवः । परेषां च तथाविधेन वाक्येन व्युद्ग्रहणाद्दरन्ताऽनन्तभवसागरभ्रामकश्च, यथाहि दर्भाग्रबिन्दुप्रमाणस्य पानीयस्य शोपं दृष्ट्वा अदृष्टाऽपार-पारावाणामधीनामम्बुपूरस्य व्युच्छेदः शङ्कयमानो मौग्वर्यमेवाविष्कुर्यात् , तद्वदत्रापि तथाविधे भव्यजीवानामानान्त्ये परिमितक्षेत्र-कालेन सिद्धान् दृष्ट्वा सर्वभव्यव्युच्छेदशङ्कापि मौखर्यातिरेकेण न किञ्चिदन्यद् व्यक्तीकुर्यादिति । . अत्र दर्भाऽग्रबिन्दुजलधिजलगतं दृष्टान्तं सङ्ख्ययाऽननुरूपमपि व्यावहारिकतयोक्तं ज्ञातव्यमिति, यतो दर्भाऽप्रगतबिन्दुसमुद्रसलिलस्याध्यक्षं सङ्ख्यगुणेनैव तारतम्यं, न त्वसङ्ख्येयेन गुणेन, न चानन्तगुणेन, सिध्यमाननिगोदजीवानां त्वेकमपि निगोदगतजीवसमुदायमाश्रित्य तारतम्यमनन्तगुणेनैव भावादिति । न च वाच्यं तर्हि भव्यानाममि सतां मुक्तेरभावे भव्यत्वस्य निष्फलता अभव्यनिर्विशेषता वा तेपामिति, यतो नहि जगति यावन्ति बीजानि तानि प्रादुर्भावयन्त्यङ्कुराशि, न चाङ्कुरप्रादुर्भावाऽभावमात्रेण बीजत्वस्य निरर्थकता, अबीजसमानता वोद्भाव्यते केनापि विपश्चिता, ततश्च भव्यानां यथा यथा तथाभव्यत्वपरिपाको जायते तथा तथा ते पदमव्ययमाप्नुवन्ति, व्यवहारराशिगतानां नराणामेव सिद्धेः साधनस्य सद्भावात् , तेपां च सङ्ख्यातमानत्वात् नैककाले सर्वभव्यानामत्रागमः सिद्धिश्च, न च तत एव भव्योच्छेदः सिद्धेर्युच्छेदो वेति । तत्वतस्तु केवलेनैवाऽऽलोकेनाऽववुद्धा जीवास्तदनन्ताऽनन्तसङ्ख्या, सततसिद्धिभावो भव्यानां, जीवानां संसारस्य चाऽऽयवच्छेद इत्यतीन्द्रियार्थदर्शिवचनविश्वस्तेर्भाव्यमिति ।.. यथैवेन्द्रियपुद्गलानामिटानिष्टानां विद्यते ज्ञान दर्शनस्वभावस्य साधकता विपर्यासकता च, तथैव साताऽसातकर्मपुद्गलानामपि आत्मस्वभावस्य वेदनस्योपष्टम्भकत्वाद्विपर्यासकारित्वाच्चोपयोगो, न तु ते आत्मनः स्वभावस्याऽऽवारकाः, क्षये तु साताऽसातयोः सुखस्वभावस्यात्मनो निरावाधसुखमयत्वं सिद्धावेव भवति, अन्यत्र साताऽसातान्यतरकालतत्वस्य नियतत्वादिति प्राहुः-'निरुपमसुखसगाता' इति । Page #81 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (४१) न च वाच्यं संसारस्थस्य दुःखमिश्रस्याऽत्यन्तिके.च्छेदेनैव मुक्तरुपादेयता भविष्यतीति, यतः प्रेक्षावद्भिर्दुःखस्य प्रहाणेरिष्टत्वेऽप्यंशेन सुखपरिहाणेरिष्टत्वाभावात् । किञ्च-धर्मस्याऽऽचरणेन मोक्षः, धर्मश्च दुःखमेव दूरीकुर्यात् न तु सुखं, सुखदूरीकरणोदेशस्तु न मूर्खतमस्यापि, नचाऽनीप्सितं साधयन् धर्मो धर्मस्वं यायात् । नं च वाच्यं धर्मः पुण्यरूपः, पुण्यं च तज्जातीयपुद्गलोपचयरूपं, तदुदयाच्च सुखं, मोक्षश्च पुण्याऽपुण्योभयक्षयादेव जायते, तस्मात् पापानामात्यन्तिकक्षयेन यथा दुःखस्याऽत्यन्तिकः क्षयस्तथा पुण्यानामप्यास्यन्तिकक्षयेन सुखस्याप्यात्यन्तिकः क्षय एष्टव्य इति न्यायस्य समानत्वादिति । ____ यतः धर्मो हि द्विरूपः, तत्र योगसहकृतधर्मस्य पुण्यवन्धहेतुत्वेऽपि स्वरूपधर्मस्य सम्यग्दर्शनादेन पुण्ये हेतुता, न च पुण्यस्य कार्यताऽपि । यच्च सम्यक्त्वाऽऽदीनां देवाऽऽदिगत्यादिहेतुत्वं कथ्यते, तत्तत्सहचारितकषायसामर्थ्यसमुत्पन्नम्, नहि निष्कपायाऽवस्थाश्रितं सम्यग्दर्शनादि कस्यापि कर्मविशेषस्य बन्धे हेतुतामायाति, निष्कषायत्वे विशेषेण तु योगाऽतीतत्वदशायामात्मनः परमशुद्धिकारणमेलदेवेति ज्ञानयोगलक्षणेनोच्यमानो धर्मः द्वितीयोऽद्वितीयरूपः स नैर्मल्यमेव विदधाति, न लेशतोऽपि बन्धमिति । सिद्धत्वे न हि सातवेदनीयोदयजं सुखमाम्नायते, किन्त्वात्मस्वभावरूपमेव, अत एवाऽदः निरूपममित्युच्यते । संसारगतानां सुखानामेव पुद्गलजन्यसुखरुपमानात्, न च संसारे किमप्यपौद्गलिकं सुखमस्ति, येन तेन सिद्धसुखस्याऽपौद्गलिकस्यात्मरूपस्योपमानं स्यादिति । यथा हि विदुषामतिगुपिलो भ्रान्तिस्थानं परैज्ञातपूर्वः पदार्थ आयाति निश्चितावबोधविषये यदा, तदा य आनन्दस्तस्याऽऽमनो जायते, तथा कुमारिका वां प्रथमरतिसमागमे यदानन्दसुखमनुभवति, तद् द्वयमपि तादृशं भवति, यद् केनापि नोपमीयते तद्वदन भगवतां सिद्धानामनाबाधपदमुपगतानां संसारदुःखतापनिर्मुक्तानां कर्मज्वालाऽऽवलितः सर्वथा विमुक्तानामात्मस्वरूपभूतं तादृशं सुखं प्रादुर्भवति, यत्केनाप्युपमितुं न शक्यते । अत एव सर्वकालीन-सर्वदेवज नगतसुखानां राशिं प्रकल्प्य स राशिरनन्तानन्तशो वर्गेण वय॑ते, तथापि स समूहः सुखस्य भगवत एकस्य यदेकसमयमात्र सुखं तदनन्तभागमपि न सुखसमुदाय तं समानयतीत्युच्यते । श्रोतृप्रतीत्यर्थमेव एतदपि, अन्यथा पौद्गलिक-स्वाभाविकसुखयोर्लेशेनापि तुलनाया अभावादिति । येनोपमीयते तोल्येद्वा स सिद्धानामानन्दः, स उपमानभूतस्तुलनारूपो वा पदार्थस्तावत् परस्वरूप एव स्यात् , सांसारिकस्य यावद्व्यवहारस्य पराऽऽश्रितत्वात् । तत्कारगाऽन्वेषणे तु वक्त-- श्रोतृणां सर्वेषां परपुद्गलाऽऽश्रितानामेव व्यवहरणं, यतः आत्मा न पौद्गलिकः, न च तस्य पौद्गलि.. Page #82 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (४२) काऽऽनन्द एति वास्तवताम्, अपौद्गलिकस्य व्यवहाराऽभावात् , कथं तादृशमुपमानं तुलाद्रव्यं वा स्यायेनाऽपौद्गलिक आत्मा तादृश एव तदानन्द उपमीयते तोल्येत वेति । किञ्च-यो य इह जगति पौद्गलिकोऽप्यानन्दो यः सुखशब्देनाऽभिधीयते, स सर्वोऽपि तात्विकसुखशब्दवाच्यात् सुखाद् दूरतर एव । यतः सर्वोऽपि दृश्य आनन्दः पुद्गलानामायत्तः, अनुभवितुः कायादेरभ्यन्तरस्य साधनभूतानां बाह्यानां संयोगस्याऽऽयत्तः, अन्तशः पुण्यस्याधीनस्तच्च क्षीयते एवाऽनुशणमुपभोगेन फलस्याऽपचीयमानम् । एवं च दृश्यमानः सर्वोऽप्यानन्दस्तत्त्वतो वर्तमानकालेऽपि भविष्यचिन्तादुःखपूर्णः, स च कथं पुद्गलानां पुण्यकर्मगो भवजीवितस्य बाह्याभ्यन्तरसंयोगानां चानायत्तेन सिद्धानां सौख्येनोपमीयेत तोल्येत वा ? इति । किञ्च-दृश्यमानः सर्वोऽप्यानन्दो भ्रंशनांतरीयक एव, यतः स सर्वो बाह्य हेतोरुद्भवति, बाह्यहेतूद्भवं सर्वं च कादाचित्क्रमेव, यतः कादाचित्कभवनं कारणोपनिबन्धमिति विद्वत्पर्षदां सिद्ध हव प्रवादः, सिद्धानां तु सुखं पारमार्थिकाऽऽनन्दरूपं न कारणोपनिबन्धनम् । प्रतिबन्ध कानां कर्मणां सहकारिणां मर्यादाकारिणां च साताऽऽदीनां चाऽभावो जायमानोऽपि न परिणामिकारणतामनुरुध्येत । सिद्धानामात्मैव तथासुखोद्भवे परिणामिकारणतामनुरुध्यते । स चाऽहेतुक एव, स्वस्वभावरूपत्वात् तस्य, आत्मनश्चाऽविनाशिस्वरूपत्वादिति । शास्त्रेषु पठ्यतेऽपि । 'तं कह-भण्णइ. सोक्खं ? सुचिरेण वि जस्स दुक्खमल्लियइ 'त्ति । : या च यावती च सुखमात्राऽनुभूयते जीवितं धारयता सा चेत् प्रतिपातिनो भवति, तदा तत्सुखमात्रायाः पर्यवसाने दुःखस्यापि तावत्येव मात्रा समुद्भवति, तत एव सुखस्य विमानाऽऽधिपत्यस्य परां काष्ठमनुभवतः सुरानाश्रित्य च्यवन नातं दुःखं वर्गयता विदुषा प्रोच्यते शास्त्रे-यदुत तं सुरविमाणविभवं चिंतिय चवणं च देवलोगाओ । अइवलियं चिय हिययं सयसकर जं ण फुट्टेइ । ॥१॥ त्ति एवं च संसारवर्तिन्या चिन्तादिदुःखग्रस्तया प्रतिपातजमहादुःखसंवलितया सुखमात्रया तदत्यन्तप्रतिरूपिण्याश्चिनादिदुःखरहितायाः स्वस्वभावरूपत्वात् सनातनभाविन्याः सिद्धानां भगवतां वर्तमानायाः सुखमात्राया उपमानं तुलना न स्यादेवेति सिद्धानां भगवतामानन्दस्य निरुपमानतोच्यमाना सङ्गच्छत एव । यथा च जगत्तिनी सुखमात्रा दुःखेन भिन्नत्वादनन्तरं पाताच नोपमानमायाति, तथा सा न पूर्णाभिलापेति चापि नोपमानपदमायाति । यतः सा पुद्गलवातविषयकेच्छाधीना, इच्छा चाऽऽकाशप्रतिरूपिणी न कदापि पूर्तिमायाति, तदपूर्ती च तद्विषयकपुद्गल ना तृप्तिस्तत्सुखं च कौतस्त्यं पूर्ण Page #83 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (४३) " भवति ? सिद्धसुखसमूहस्तु न पौद्गल इति न तदिच्छापूर्त्ति जनितः किन्त्वात्मस्वभाव जोड़नन्यापेक्षोSसाधारणोऽन्यूनश्चेति सोऽभिलापरहितमिति, अपूर्णाऽभिलाषसंवलितेन सांसारिकेग परमसुखेनापि नोपमीयेत न च तोल्येतेति ' निरुपमाऽऽनन्दसङ्गताः सिद्धा भगवन्त ' इत्युच्यमानं संगतमेव युक्त्येति । उच्यते चात्र 6 यन्न दुःखेन सम्भिन्नं, न च भ्रष्टमनन्तरम् । अभिलाषाऽपनीतं च तज्ज्ञेयं परमं पदम् ' ॥१॥ इति । सर्वेऽपि मुमुक्षवः परमपदार्थिन: 'ब्रह्मचर्यं तपश्चेति, द्वयं तत्प्राप्तयेऽल 'मिति अध्यवसिताः, अध्यवसिताश्च तयोर्द्वयोरात्माऽऽनन्दकारितायां विषयाणां स्पर्शनादीन्द्रियपोषणस्य दुःखरूपतायां दुःखफलतायां दुःखाऽनुबन्धितायामिति न तेषामाशङ्का स्यात् स्वप्नेऽपि यदुत - ' सिद्धानां रताद्यभावात् स्वाद्वन्नादिभोगाऽभावाच्च किमेव सुखनामापीति, अनुभवविरुद्धे तथाऽऽराङ्कालेशस्याप्यसम्भवादिति । किञ्च-रताद्यनुभवश्चेत् सुखरूपः स्यात्, न पर्यवसायी स्यात् न च श्रान्ति-रेतःस्खलनाऽऽदिदुष्टः स्यात् । यथा च कण्डूतेः पामनस्यैव कच्छ्वाः प्रभावात् सौख्यं, न परस्य, न च कोऽपि कोविदः कण्डूतीनां सुखमवाप्स्यामीतिकृत्वा कच्छ्वा उत्पादनाय प्रयतते, न च कण्डूतीनामकरणं दुःखहेतुतथा सुखाऽभावकारणतया वा मन्यते, अन्नाऽऽदिभोगस्तु तेषामेव दुःखनिवृत्तिस्वरूपतया सुखतयाऽवभासते, ये बुभुक्षादिभिरार्त्ताः स्युः भ्रातादीनां तु स्वादुनमाऽनादिभोगादेरप्यनिष्टानुबन्धित्वस्यानुसन्धानेन प्रत्युत दुःखरूपत्वापातादिति । किञ्च ये हि जगति सर्वकालीनाः सर्वेषामसुमतां सर्वप्रकारा ये विषयास्वादास्ते तत्तज्ञानपूर्वका एव, अन्यथा जडानामिव सुखलादाभावात् । तानि च सर्वकालीनानि सर्वज्ञानानां भगवतां सिद्धानां लोकालोकाऽवभासक केवलज्ञानयुक्तत्वाद् प्रतिक्षणमेव भवन्तीति तादृशाऽज्ञशेश्वरानपेक्ष्यापि सिद्धाः सर्वज्ञानज्ञाना इति परमसुखिन एव तद्वदेव सर्वकालीनानां देवानां यदुपमातीतं सुखं नाट्यादिसंनिरीक्षणाऽऽदिसम्भवं तदपि प्रतिक्षणमनन्त केवलज्ञानयुक्तत्वाज्जानन्त्येवेति कथं न तदपेक्षयापि सिद्धा नाऽनन्तसौख्या इति । न च वाच्यं तर्हि अशुचिरसाद्यास्त्वादादिजन्म दुःखमपि सिद्धानां सर्वकालीनं भविष्यतीति, यतः तद्दुःखमशुचिरसाद्याऽऽस्वादादिजन्यं तदनुभवितृषु स्यात्, इमे तु तद्वेत्तार इति ज्ञानजन्यं सुखमेवाप्नुवन्तीति । यथा स्वप्नानां द्रष्टाऽनुभवेन सुखदुःखोभयं वेदयति, परं सातिशयज्ञानवान् तत्स्वप्ना - गमं जानानः ज्ञानजातं सुखमेवाप्नोति, नाऽनुभवजं दुःखलेशमपीति न बाधः निरुपमसुखसङ्गतत्वे सिद्धानामिति । Page #84 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (४४) किञ्च-संसारो हि कर्मनृपाणामाज्ञया जन्माद्यवस्थामादाय कायपञ्जरानन्यवृत्तितया सदैव नारकादिकाश्चतस्रो गतीः परिवर्तमानस्य जीवस्य गर्भवास- बाल्य जडत्वे-ष्टवियोगाऽनिष्टसंयोगाऽऽधिव्याधिनराजीर्णत्व कुग्राम-कुनरेन्द्र- कुत्सित पाखिर परिचारण-ऽऽदिभिर्दुःखैर्निचितः । मुक्तानां च न कर्मचारतन्त्र्यं न कायपञ्जराऽवरुद्ध वं, न जन्म-जराऽऽधि-व्याधि- जराऽन्तकादिदुःखं लेशेनाऽपि वर्तते, न च भविष्यत्यपि काळे भविष्यति, ततः सिद्वानां स्वाभाविकेनाऽऽत्मसुखेन निरुपमेनापरवशेनाव्ययजेन सुखित्वेऽपि जन्माद्याचाधाजानां दुःखानामभावादपि निरुपमसुख सङ्गता एव सिद्धा इति वक्तुं युक्ततममेव । अत एवाहुः श्री उमास्वाति भगवन्तस्तत्त्वार्थभाष्य एतद्विषये संसारविषयातीत, मुक्तानामव्ययं सुखम् । अव्यावाधमिति प्रोक्तं, परमं परमर्षिभिः || १॥ स्यादेतदशरीरस्य, जन्तोर्नष्टाष्टकर्मणः । कथं भवति मुक्तस्य, सुखमित्यत्र मे लोके चतुर्विहार्थेषु, सुखशब्दः विपये वेदनाऽभावे, विपाके मोक्ष सुखो वह्निः सुखो वायु-विषयेष्विह कथ्यते । दुःखाभावे च पुरुषः, सुखितोऽस्मीति मन्यते ॥ ४ ॥ पुण्य कर्मविपाकाच्च, कर्मक्लेशविमोक्षाच्च, मोक्षे सुस्वदनसुप्तवत् केचिदिच्छन्ति परिनिर्वृतिम् । सुखमनुत्तमम् ॥ ३५॥ सुखानुशयतस्तथा ॥ ३६ ॥ तदयुक्तं क्रियावच्चात्, श्रम- क्लम-मद-व्याधि- मदनेभ्यश्व मोहोत्पत्तेर्विपाकाच्च, दर्शनन्नस्य लोके तत्सदृशो ह्यर्थः, कृत्स्नेऽप्यन्यो न विद्यते । उपमीयेत तन, तस्मान्निरुपमं स्मृतम् ||३८|| लिङ्गप्रसिद्धेः प्रामाण्या - दनुमानोपमानयोः । अत्यन्तं चाप्रसिद्धं तद्, यत्तेनानुपमं स्मृतम् ॥३९॥ प्रत्यक्षं तद् भगवता - मर्हतां गृह्यतेऽस्तीत्यतः प्राज्ञैर्न तैश्व भाषितम् । च्छद्मस्थपरीक्षया ॥ ४० ॥ इति । ॥२॥ प्रयुज्यते । एव च ॥३॥ सुखमिष्टेन्द्रियार्थजम् । सम्भवात् I कर्मणः ||३७|| Page #85 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (४५) दर्शनशास्त्रत्वाच्च तत्वार्थस्यैवमुपन्यासः सिद्धानां निरुपमसुखसिद्धयर्थम् । आर्षे तु 'णवि अस्थि माणुसाणं, तं सुक्खं णेव सव्वदेवाणं । जं सिद्धाणं सोक्खं, अब्बावाहं उवगयाणं ॥१८॥ सुरगणसुहं समत्तं, सम्बद्धापिडियं अणंतगुणं । णवि पावइ मुत्तिसुहं, णंताहिवि वग्ग-वग्गूहि ॥१८१।। यावत् 'इय सयकालतित्ते 'त्यादि । णित्थिण्णसव्वदुक्खा, जाइजरामरणवंधणविमुक्का । अव्बावाहं सुक्खं, अणुहोति सासयं सिद्धा ॥१८८॥ इत्यन्तमुक्तमत्राऽवगन्तव्यम् । अत्र भाष्यकार्यद्-दुःखाऽभावरूपात् सुखात् कर्मक्लेशाऽभावजं मोक्षसुखं पार्थक्येनोक्तं तत् कर्मक्लेशानामात्मनां स्वरूपं यत् सुखाऽऽनन्त्यरूपं तद्बाधकानां व्यपगमात् स्वस्वभावसुख'ऽपेक्षया । - अत एवाऽऽर्षे 'परिणिव्यायंती 'त्युक्त्वाऽपि 'सव्वदुक्खाणमंतं करती'त्युच्यते । आत्मनः स्वयं सुखस्वरूपता तद्वेदनस्वभावयुक्तता चाऽत्र प्रागेव प्रसाधितेति । किश्च-आर्षप्रतिपादितासु गाथासु सिद्धसुखस्य सर्वादागुणनानन्तरं अनन्तवर्गकरणं, तत् सिद्धानां शाश्वतं सर्वाद्धं सुखमित्यस्यार्थस्य द्योतनाय, अनन्तवर्गभागस्य बहुत्वदर्शनार्थं चेति । एवं च वर्णितस्वरूपा अपि सिद्धा भगवन्तो यद्यकृतार्थाः स्युस्तदा वर्णितपूर्व समस्तमपि स्वरूपं न सुखरूपं स्याद् , अकृतार्थत्वे साध्यान्तरेच्छाभावेन दुःखासिकाया अविरामादित्याह-'सर्वथा कृतकृत्या' इति, सर्वथा कृतकृत्यत्वं भगवतां सिद्धानां सम्पूर्णानां सौख्यानामधिगमात्, न किञ्चिदपि तेषां कृत्यमवशिष्टमस्ति सर्वकालभाविनां सर्वभावानामवोकनाच । ___ यथा यथा तैतिं केवलेन भावि तथा तथैव सर्व जगति परिणमति । एषैव च भवितव्यता नियतिर्भावीत्यादिशब्दैः पोच्यते, कथमन्यथा भविष्यन्त्यां भाविन्या भवितव्यताया नियत्या वा पूर्वकालवर्तिता स्यात् ?, कथं च तस्याः सर्वाणि कार्याण्युद्दिश्य कारणताऽपि स्यात् ? । ... न च वाच्यं 'मुच्यतां जगदप्येषा मतिमैत्री निगद्यते ' इतिवचनात् सम्यक्त्वोत्पादेन सह जगतो मुक्तेर्भावनाया उद्भावितत्वात् वरबोधिमधिद्भिश्च जगत उद्धाराय समग्रस्य कट्या बन्धात् समस्तजगज्जन्तुजातस्योद्धाराऽभावे कथं सामान्यसिद्धानां तीर्थकृत्सिद्धानां च कृतकृत्यता स्यायेन सर्वथा कृतकृत्याः सिद्धा भगवन्त इत्युच्यमानं [चेत्] सङ्गतिमेति ? । यतो जातकेवला एव सिद्धयन्ति नेतरे, जातकेवलाश्चावश्यं येषां - येषां जीवानां यान् यांस्तारकानालम्ब्य भाविसिद्धिगमनं यावदगमनमपि Page #86 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (४६) तत् सर्वं यथावदवलोक्यत एव । तथा च ये जीवाः स्वमालम्बनीकृत्य भाविसिद्धिकास्तेषां तु स्वयं जाता एव सिद्धिसिद्धावालम्बन, परेषामपि महानुभावानामुपदेशाद्याश्रित्य ये गामिनः सिद्धि सौधं, ते तत एव सेत्स्यन्तीति निश्चितार्थज्ञान त् नैकस्यापि सिद्धस्याकृतकृत्यता। किञ्च-जैना नैकेश्वरवादिन इति, कालभेदेन भाविनोऽर्हन्तेऽनन्तास्तैश्च प्रतिबोधिता अप्यनन्ताः सिद्धिसौधमधिगन्तारो भविष्यन्तीति सर्वेऽपि सर्ववेदिनो विदन्तीति तेषां मते न कस्यापि सिद्धस्याकृतकृत्यता । सा वेकेश्वरवादिनां मते, एकत्वात्तारकस्य विधातृत्वाच्च भवति । तदर्थमेव च तेषामधरमानापि स्वशासनसत्कार-न्यत्काराम्यामवतारकल्पना जागर्तीति । ननु सिद्धशब्देन निष्ठितार्थत्वसूचनेन कृतकृत्यत्वस्य सूचनात्. कृतकृत्यत्वं पुनरुक्तं कथं नेति चेत् ?, सत्यं, प्राक् तावदर्थसिद्धादिभेदेनाने कधा द्रव्यसिद्धा अपि जगति सिद्धशदेनोच्यन्ते, न च ते कृतकृत्या इति कृतकृत्यग्रहणम् । यद्यपि प्रागर्हतां शरणं स्वीकार्यम् , तदनन्तरं शरणत्वेन स्वीकारः सिद्धानां आईतशासनप्रभावलब्धसिद्धीनामेव सिद्धानां शरणं सूचयन्ति । ते च भावसिद्धा एव, परमभिप्रायादिसिद्धानामपि शासने आहेते स्वीकारात् , आईतशासनस्वीकृतानामपि भावसिद्धानामेव शरणस्वीकाराधिकार इति सूचनार्थ सर्वथा कृतकृत्याः सिद्धा इति वचनं योग्यमेव । ___किञ्च -नामसिद्रादिव्यवच्छेदार्थमपि कृतकृत्यत्वग्रहो नाऽनुचितः । जीवेन सह यदीर्घकालं कर्म रजो मलं चेति त्रिविधं कर्म यत् सितंबद्ध मस्ति, तद् मातं-शुक्लध्यानाग्निना भस्मसान्नीतं यैस्तेऽत्र सितस्य ध्मानात् निरुक्तविधिना सिद्धा उच्यन्ते, त एव च कृतकृत्या भवितुमर्हन्ति । व्युत्पत्त्या च सिद्धयन्ति स्म-निष्ठितार्थाभवन्ति स्मेति सिद्धा इति कथ्यन्ते । तथा च तेषां व्युत्पत्तिप्तिद्धमेव कृतकृत्यत्वम् । ___ यद्वा सिद्भिशब्दो लोकाग्रभागवर्तिन्याः सर्वार्थसिद्धाख्यादेवलोकाद् द्वादशयोजनान्तरालाया ईषत्प्राग्भारशिलाया वाचकतया रुढः, आगमेयु सदातना चैषा सज्ञा, तस्यां स्थिता ये ते सिद्धाः, तास्थ्यात् तव्यपदेशस्य न्यायसिद्धत्वात् ।। यद्यपि लोकान्तलक्षणस्य सिद्धस्थानस्य सिद्धिशिलायाश्च योजनमन्तरालमस्ति, तथापि न कोऽप्यन्यः पदार्थः सिद्धानामुपलक्षकस्तत्रेति सिद्धिशिलाया उपरिस्थितत्वात् सिद्धा इति कथ्यन्ते । सिद्धशब्देनोपलक्षकतया बुद्धाद्यवस्था ध्वनिता द्रष्टव्या, यतः शासने आर्हते ये सिद्धा भवन्ति, ते यथा नोच्छेदरूपेणाऽयन्ताऽभावरूपास्तथैव नैव ज्ञानगुणशून्याः, यथा वैशेषिक-नैयायिकैविशेषगुणानां व्युच्छेदो मुक्तिरित्युक्त्वा ज्ञानशून्याः सिद्धजीवा इत्युघुष्टं, तथा नात्र, यतस्तैरिन्द्रियार्थसन्निकर्ष एव ज्ञानस्योत्पादकत्वेन मतः, सिद्धानां च शरीराद्यभावान्नेन्द्रियाणि, न चाथैः सन्निकर्षः ततो ज्ञानसत्तावन्तो नैव तेषां सिद्धाः, परं शासने आर्हते इन्द्रियाणि ज्ञानोत्पत्ति प्रतीत्य करणानि, न Page #87 -------------------------------------------------------------------------- ________________ च कर्तृणि । न चाधारोऽपि ज्ञानानां, किन्तु ज्ञानमय आत्मैव, इन्द्रियादीनि तु तदाविर्भावे करणानि, ज्ञानानामाधारोऽप्यात्मैव, हेतुश्च तुल्यसाधनेष्वतीन्द्रियादिषु ज्ञानोत्पत्तेर्वैषम्यं, स्मृतेर्वैचित्र्यं, प्रयत्ने महत्यपि कदाचिदस्मरणं, कदाचित्त्वल्पेऽपि प्रयत्ने स्मरणं, केषाञ्चिदनुभूतानां स्मरणं, केषाञ्चित्त्वस्मरणं, जीवेष्वपि केचित्स्मृतिमन्तः, विचित्रस्मृतिमन्तः, स्मृतिशून्याः, दुष्करस्मृतिका अपि । किञ्च-जीवस्य ज्ञानस्वभावाऽभावे भवान्तरविज्ञानं जातिस्मरणाख्यं न स्यात् , प्राक्तनभवीयतनुहृषीकाद्यभावादिति, पटुसंस्कारवतां पटुस्मृतीनां च भावान्न भवान्तरीयं मनस्तत्र तत्स्मारकं, मनसो नित्यत्वमणुत्वञ्च न प्रमाणसिद्धं, न च वास्तवमित्यात्मैव ज्ञानरूप इति । आत्मस्वभावभूतं च ज्ञानं केवलमेव, इन्द्रियाऽर्थसंनिकर्षाऽऽदिद्वारेण यावजागतीयानां पदार्थानां ज्ञानस्य कर्तुमशक्यत्वात् , नाऽऽत्मनामसर्वज्ञत्वे सर्वज्ञत्वस्य सम्भव इति, अभावे च सर्वज्ञस्य नाऽऽत्माद्यतीन्द्रियपदार्थदर्शी स्यात् , शास्त्राणि चैवमशेषाणि कपोलकल्पितदशामासादयेयुः । तस्मादभ्युपेयं(य) आत्मा ज्ञानमयत्वेन सर्वज्ञत्वरूपेण च, तथाऽभ्युपगमे च सिद्धान्तं (सिद्ध)भगवतां शुद्धात्मरूपत्वादवश्यमेव सार्वश्यं, ततश्च. सिद्धा ये, ते बुद्धा इति कथ्यन्ते । बुद्धत्वं च निश्शेषोपाधिरहितत्वात् केवलित्वरूपमेवेति । किञ्च-सिद्धत्वं हि प्रक्षीणसर्वकर्मत्वेन निष्ठितार्थत्वं, मत्यादीनि च ज्ञानानि न स्वाभाविकानि, निश्चयेनैकस्य केवलस्यैवावरणभेद-ततूक्षयोपशमभेदाऽपेक्षया मत्यादितया व्यपदेशात् , अत एव च मत्यादितारतम्यवतामपि पञ्चानामपि ज्ञानावरणानां क्षये एकमेव केवलं क्षायिकस्वभावं, न च तेषां प्रक्षायिकत्वं, तथा च क्षोणसर्वाऽऽवरणानां सिद्धानां केवलज्ञानयुक्तन्वेनैव बुद्धत्वमवसेयम्, अत एव च नाऽत्र सविशेषणः प्रयोग इति । किश्च-अस्त्येव भवस्थकेवलिनां बुद्धत्वं निरुपचरितं, परं भवस्थदशाया एव सान्तत्वान्न तदनाद्यनन्तं, अत एव च केवलज्ञानस्य स्वरूपतो भेदाऽभावेऽपि सयोग्यादिभेदेन केवलस्य भेदोपन्यासः, यदि च केवलस्याऽन्यादृशो भेदोऽभविष्यत् प्रथमाऽप्रथम-चरमाऽऽदिभेदा नावक्ष्यन्त ते हि समानरूपतयैकाकार एव वस्तुनि भवन्ति, बादरसम्परायचारित्राऽऽदीनां तथाविकल्पास्तव्यपदेशस्यैकत्वादेव, यद्वा विवक्षाऽवधीनैव भेदोक्तिसिद्धिर्न तु वस्तुभेदाधीनेति, नाऽपि भवेत्ताशभेदापेक्षयैकत्वं केवलस्य, पर मेगविहं केवल 'मितिवचनं तु सर्वत्र जागरुकं प्रमाणरूपं च । . ___किञ्च-मत्यादीनां यो वास्तवो भेदः स स्वरूपाऽपेक्षः, केवलस्य तु भेदस्तद्वद्भेदापेक्षः, न च तद्भेदे वस्तुनो वास्तवो भेदः, ततोऽपि केवलस्य न वैचित्र्यं स्वभावात् , परं सिद्धानां पार्थक्यात तदीयं शाश्वतं केवलज्ञानमिति सिद्धा एव बुद्धशब्देन विशिष्यन्ते । आगमेऽपि 'सिझति बुझंती' ति सिद्धानेव भगवत आश्रित्योच्यते इति । Page #88 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (४८) - वस्तुतः केवलेन सर्वलोकाऽलोकावभासकेन सर्वेषु पदार्थेषु बुद्धेष्वपि परमयोगफलस्याऽन्त्यसामर्थ्ययोगसाध्यस्याऽपवर्गस्वाभावान्न पूर्णबुद्धता तथाफलविकलवाद्विवक्षिता, प्राप्ते तु सिद्धत्वे केवलज्ञानाऽवबुद्धपरमाऽपवर्गप्राप्त्या बुद्धत्वस्य यथार्थता विवक्षितेति तदपेक्षया सिद्धा भगवन्त एव बुद्धा इति । 'बुद्धाणं बोहयाण 'मित्यत्र तूच्यमाना बुद्धता बोधकतायाः कारणत्वदर्शनाय, अत्र तु निरपेक्षा 'बुद्ध'त्तिशब्देन 'बुझंति'त्याख्यातेन वोच्यमाना निरपेक्षेति नाऽत्र तपोऽभिप्रायसिद्धादयो ग्राह्याः । न च [स] चरमभववर्तिकेवलज्ञानेनोच्यमानाः सापेक्षा वुद्धा वाच्याः, किन्वन्यादृश एंव, तेषां पूर्वोक्तानां सर्वथा कृतकृत्यत्वभावादित्याह-'पारगता' इति । जगति हि 'पार'शब्दो यद्यप्यरण्याऽऽदिपारेऽपि वर्तते, तथाप्यत्र प्रकरणान्निविशेषणत्वादन्यत्राऽनेकशः सूचनाच्च संसारसमुद्रस्यैव पारो ग्राह्यः, यतः श्री-औपपातिकादिषु शास्त्रेषु महता विस्तरेण संसारस्य समुद्रता तत्तारणप्रवणस्य संयमस्य च पोततोक्तेति । प्रस्तुतेऽपि संसारसमुद्रस्य पारंगता इति ग्राह्यम् । कविरूढ्या 'प्राप्तुं पारमपारस्य पारावारस्ये 'ति समुद्रस्य पाराधिगतिः दुष्करता च कथ्यते । अरण्यान्याः पाराधिगमेऽश्वादीनां वाहनानामुपकारिता, न च क्वापि संसारस्य परतीरप्रापकाणां तपः-संयमादीनामुपमाऽश्वादिभिः क्रियते इति संसारसमुद्र एव ग्राह्य इति, उक्तं चाऽर्हतां शरणं कुर्वतां प्राक् 'भवजलधिपोता' इति, अत्रापि च प्राक् “सिद्धिपुरनिवासिन" इति । — संसारसमुद्रस्य हि पारगमनं विधातुमनन्तभवानु(वो)यमिना भाव्यम् । यतो न चारित्रमन्तरा मोक्षः कदापि कस्यापि, विशेषतस्त्वर्हतां, यतस्ते हि न द्रव्यलिङ्गेऽपि भजनापदं, तेषामवश्यमुभयलिङ्गानामेव मोक्षस्य भावात् , येषामप्यन्यलिङ्गसिद्धानां भजनाऽस्ति लिङ्गद्वारे, साऽपि द्रव्यलिङ्गमाश्रित्य, सापि कन्दाचिकैव, यतः चिरजीविनस्तु तेऽवश्यं द्रव्यलिङ्गमादधुरेव । तत्त्वतस्तेऽपि नाऽपवादपदं सलिङ्गद्रव्यरूपे, परं भावलिङ्गं प्रतीत्य न कस्याऽपि कुत्राऽपि भजना, तस्यैकान्तिकत्वाद्। तद् चारित्ररूपं भावलिङ्गं तस्यैव भव्यस्य स्याद्, योऽनन्तभवान् यावदभ्यस्यति चारित्रम् । - चारित्रं हि शिक्षाप्रकर्पलभ्यं, शिक्षाप्रकर्षों हि लभ्योऽभ्यासेनैव, भूयो भूयः प्रवृत्तिहि कर्मसु कौशलमातनोतीति, 'अभ्यासो हि प्रायः प्रभूतजन्मानुगो भवति शुद्ध' इति चोक्तेः । . ___ न च वाच्यं चारित्रस्याऽऽकर्षा अष्टावेव शास्त्रकृभिराम्नायन्ते, तत्कथमनन्तान् भवांश्चारित्रमिति ? यत आकर्षास्ते भावचारित्रमपेक्ष्योच्यन्ते, इदं तूभयचारित्रमपेक्य, अष्टभवानन्त्यान् विमुच्यान्येषु सर्वेषु भवेषु द्रव्यचारित्रस्याऽवश्यंभावात् , अत एव सर्वेषां भव्यानामप्यनन्तशो अवेयकोत्पादस्य सिद्धिः । मरुदेव्याऽदिभिर्व्यभिचार इत्पपि नात्र नोयं, यतो नहि मरुदेवा अनन्तकालात् Page #89 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रांगव्यवहारतोऽनादिवनस्पतितो निर्गत्याऽत्राऽऽयाता, तादृशश्च जीवः कश्चिदेवेति नाऽनन्तद्रव्यः चरणप्रवादस्य बाधः, सामान्येनाऽप्यपवादस्य स्वस्थाननियतत्वेनोत्सर्गविधेरबाधादिति । . . किञ्च- त्रैकालिकसिद्धानामनन्तभाग एवाऽप्रतिपातितया सिद्धः, शेषास्तु सर्वेऽपि सिद्धाः प्रतिपातवन्तः । यद्यपि तत्र प्रतिपातस्यात्येव बहुत्वम् । यतः केऽपि एकशोऽन्तर्मुहूर्त्तमात्रकालप्रतिपातिनो भवन्ति, यावत् केचन बहुशः प्रतिपातिनः, अपाऽर्धपुद्गलाऽऽवत यावत् संसारे विपरिवर्तिनोऽपि भवन्ति, एतदेव च वृत्तान्तमनुश्रित्य शास्त्रकृद्भिः प्रतिभव्यं तथाभव्यत्वस्य सत्त्वं वैचित्र्यं च स्वीक्रियते । प्रस्तुतं तु सर्वेऽपि भव्याः प्राक् तावदनन्तशो द्रव्यचारित्रिणो भूत्वा चारित्रशिक्षामभ्यस्यन्ति, तथा जातेऽपि केचिद् पाप्य भावचारित्रमप्राप्य तादृक् प्रतिपातिनो भवन्ति यथा ह्यपाधपुद्गलावर्तमपि यावद् भावचारित्रं न लभन्ते, तावता कालेन भावचारित्रमाप्य परमपदं प्राप्नुवन्ति । एवं च साधितमिदं-संसारसमुद्रस्य प्रतरण महाकष्टमयं, ततः परमपदपुरस्य प्राप्तिरप्यतिकष्टमयीति । सिद्धानां संसारसमुद्रमुल्लङ्घय सिद्धपुरप्राप्ति:वमेव, किन्तु सम्यक्त्वादिगुणश्रेणिप्राप्तिपारम्पर्येणैवेत्याहुः-'परम्परगतेभ्य ' इति । एष हि नियमो निरपवाद एव यत् करणत्रिक-सम्यक्त्वाऽधिगम-क्षपकश्रेण्याऽऽरोह-सयोगाऽयोगकेवलित्वपरम्परयैव सिद्धरधिगमः, न ह्यत्राऽनन्तकालचक्रैरप्यपवादपदमायाति, ततः सुष्ठुक्तं-"परम्परागता एव सिद्धा" इति । एते च यद्यपि सिद्धिपुरनिवासितयोका अत्र, परं तदुक्तिरुपचारप्रधाना, यतः सर्वार्थसिद्धात् सिद्धिशिला द्वादशसु योजनेषु, तदुपर्येव च सिद्धानामवस्थानं, परमासन्नं तथाविधं न परं स्थिर स्थानं, विहाय तां सिद्धिशिलामीपत्माग्भारानाम्नीमिति, तया सिद्धानामवस्थानं, तां पुरत्वेन प्रकल्प्य ।. वस्तुतस्तु तस्या अप्युपरिक्रोशत्रयीमतिक्रम्य, तुर्यस्यापि क्रोशस्य पञ्चभागानतिक्रम्य प्रान्त्य एव तत्क्रोशषष्ठभागेऽवस्थानं सिद्धानां भगवताम् । न च तत्र सूक्ष्मा अपि पृथ्व्यादयस्तथाऽवगाहनया लोकाग्रं समवाप्य तिष्ठेयुस्तेषामङ्गुलासङ्ख्यभागमात्रावगाहात्, हस्तादिपरिमिता... वगाहनावन्तस्तु सिद्धा एव, सर्वेपि सिद्धा उपरितनभागे लोकाग्रमभिव्याप्यैव तिष्ठन्ति, ततः सुष्ठ्वेवोक्तं'लोकाग्रमुपगतेभ्य' इति । ___ यद्यपि चतुर्दशरज्जुप्रमाणे सर्वस्मिन्नपि लोके तस्य पञ्चास्तिकायात्मकत्वाद् धर्माऽधर्मास्तिकाययोः सत्त्वात् गति-स्थितिपरिणतानां जीव-पुद्गलानां गति-स्थिती प्रवर्तते एव, परं जीवानां सामान्येन Page #90 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (५०) विशेषतश्च क्षीणकर्म पानां सिंद्वानां भगवतामूर्ध्वगमनस्वभावत्वादेवोव लोकाग्रं यावद्गतिः प्रवर्तते । ततश्च सुष्ट्रच्यते 'लोकाग्रमुपगतेभ्य' इति । - एते बुद्धत्वाद्या जनानां सिद्धत्वाऽविनाभूता इति तद्ग्रहणेन तेऽपि गुणा उक्ता एवेति, उपलक्षणदृष्टया बुद्धत्वाद्याख्याने नाऽसङ्गतमिति । नवहतां भगवतां श्रुतादिकर्तृत्वात् स्यादेव भयत्राणादिकारकत्वेन शरण्यत्वाच्छरणीकरणं, भगवतां सिद्धानां तु सर्वदाऽकरणवीर्यत्वात् न किमपि भवभयार्तानां त्राणं विधातुं शक्तास्ततश्च तेषां शरणीकरणं न कमप्यर्थं पुष्णातीति चेत् ?, सत्यं ! परं जगति ये सर्वे धर्मास्ते आस्तिकानां मोक्षपर्यवसाना एव । अत एवं त एवाऽऽस्तिका उच्यन्ते, ये जीवानां कथञ्चिदस्तित्वं नास्तित्वं श्रद्दधानाः कर्मगा कर्तृतां भोक्तृतां मोक्षस्य सत्त्वं तदुपायानां च सत्त्वमात्मरुच्याऽभिप्रयन्ति, तथा च मोक्षश्रद्धानमूलमेवास्तिक्यं, ततो मोक्षपर्यवसानफलाः सर्वे आस्तिकधर्मा इत्युच्यमानं युक्तिसङ्गतमेव । ..मोक्षश्च तत्त्वतः स एवोच्यते-यत् अनावर्तनरूपेण सिद्धानां सिद्धत्वेऽवस्थानं, तथा च सर्वेऽप्यास्तिकाः सिद्धानामपुनरावृत्तिभावेन सदा चिदानन्दरूपतया चाऽवस्थानमपेक्षयैव प्रवर्तन्ते प्रवर्तिष्यन्ते चेति सिद्धाः सर्वेषामास्तिकानां स्वसत्यश्रद्धानद्वारेण शरणभूता एव । धर्मनेतृणां धर्मस्यापि सिद्धिपर्यवसानफलसत्त्वेनाऽविप्रतारकत्वमुपकारकत्वं च, नाऽन्यथा । अत एवान्यत्रात्मन एवाव्याबाधज्ञानमयत्वादिस्वरूपमाख्याय भगवतां सिद्धानां नमस्कारे अविप्रणाश एवं हेतुतया गीयते। तथा च सार्यनन्तभङ्गेन सच्चिदानन्दपूर्णतया तेषां भगवतामवस्थानमेव शरण्ये कारणम् । ततश्च सुष्ट्येवोक्तं यदुत-" सर्वथा कृतकृत्याः सिद्धाः,” “शरणं मे भवन्त्वि "ति त्वनुवर्तत एव । न च वाच्यं तद्वदेव शरणमित्यपि पदं न वाच्यं, प्रागुक्तत्वात्तदप्यनुवर्तनीयम् । तत्राऽत्रापि च शरणस्य मुख्यतया विधेयत्वादध्यवसायशुद्धये च तदुक्तेरावश्यकत्वात् , परमपदस्य मार्ग देशितवन्तो भगवन्तोऽर्हन्तस्ततो यथावस्थितमोक्षान्तसप्ततत्त्र्याः श्रद्धानमवाप्नुवन्ति, तत्प्राप्तरेव सम्यग्दृशः सन्तों भव्या जैहत्येवं संसारंगतं चित्तपातिवं, एतदेवं च मोक्षबीजम् । यतोऽलब्ध्वा कार्यपातितामभव्या अपि, केचन भव्या अपि अनन्तशो भगवंदुक्ताऽनुष्ठानपरायणा जाता, जायन्ते, भविष्यन्त्यां भविष्यन्ति, पर नैतावद्भिरप्यनुष्ठानैर्भद्रास्ते मोक्षमार्गमयवाप्नुवन्तोऽवाप्नुवन्ति अवाप्स्यन्ति वा । लब्धे च मोक्षवीजे न कोऽपि अपार्धपुद्गलावर्तादधिक संसार बम्भ्रमति, किन्तु अवश्यमपवर्गमेवाप्नुवन्तीति । चेतःपरावर्तका भगवन्तोईन्त इत्यवश्यं शरण्याः । जाते च तथाविधे चित्तपरावर्ते सिद्धा Our - 1Tmri कत्वान भगवन्तः साध न्तकालीनाऽनन्तपूर्णताधारणादिरूपतया ज्ञ . ता. द्वयेप्येत श्रितसः पर कारिणः ( मावत पर परमपचनस्य Page #91 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (५१) प्राप्तिनं चेतोमात्रवृत्त्या किन्तु चारित्रानुष्ठानेनैव । यद्यपि ज्ञानादिवच्चारित्रमप्यात्मगुण एव, अत एव च कर्मस्वष्टसु तस्य चारित्रगुणस्य मोहक दर्शनमोहसहचरं कर्माऽभ्युपगम्यते, अभ्युपगम्यते च सयोग्यादीनामपि यथाख्यातनामकं चारित्रमिति, सत्येवं चारित्रस्याऽऽमगुणत्वेऽपि तस्याऽऽविर्भावो रक्षा, वृद्धिः, पराकष्ठााधिगतिश्चेत्येतत् सर्वं ग्रहणाऽऽसेवनाख्यद्विविधशिक्षाया अधीनमेव । शिक्षाद्वये चाधिगत एव चारित्राऽऽविर्भावाद्या भवन्ति, तत एव च सकछेन्द्रियाणामपि शिक्षादेरयोग्यानां न चारित्रसत्तादि, शिक्षाद्वयं च प्रागुक्तं नाऽतीतेभ्योऽर्हद्भ्यः , तत्सत्त्वकालेऽपि नैते सर्वतीर्थयोग्यक्षेत्रेषु यावज्जोवं सर्वदा विहारिणः । न चाऽशरीराः सच्चिदानन्दपूर्णा अपि सिद्धा भगवन्तस्तद्वयं विधातुमीशाः, सर्वत्र क्षेत्रे काले च तच्छिक्षाद्वयस्य प्रचारमनगाराः साधव एव निर्ग्रन्थाः कुर्युरिति । वस्तुतस्तेषामापत्त्राणाऽऽदिधर्मयुक्तत्वात् शरणार्हतामभिमन्यमान आराधक आह-तहा पसंतगंभोरासयत्ति । तथा शब्देन प्रकार-सादृश्यवाचिना पूर्वोक्तशरणद्वयकारस्य तुल्यतां दर्शयन्निदमाह-यदुत 'एते भगवन्तोऽनगाराः, नाऽहंदादिवद्वीतरागसर्वज्ञतापदाः। यथा अर्हन्त.तीर्थस्थापनेन मोक्षमार्गस्य प्रवर्तकत्वात् कृतकृत्या असाधारणोपकारिणश्च, सिद्धाश्च भगवन्तः सर्वदा साद्यनन्तभङ्गेन सच्चिदानन्दपरिपूर्णतया सम्पूर्णकृतकृत्याः परमपदाऽऽराधकानां च भव्यानां परमालम्बनभूतास्तथा नैते सम्पूर्णकृतकृत्यतां याताः, तथापि भगवदर्हदादीनामिव मोक्षमार्गस्य वाहकतया तदनन्यपरमार्थतया प्रवृत्तत्वाच्च भगवदहदादिवदेवाऽन्यूनाऽतिरेकशरणाऽऽश्रयभूता इति । अत एव परममेष्ठिपञ्चकेऽपि भगवतामर्हदादीनामिव तेषामप्यन्यूनाति रिक्ता परमेष्ठिता नीयत इति । अत्रावधेयमिदं यदुत-सर्वेऽपि जीवा अनादितः कालात् भीषणतमे संसारार्णवे औदारिकादीनां पुद्गलानामनन्तान्, परावर्तान् भ्राम्यन्ति, अरघट्टघटीन्यायेन च मिथ्यात्वाऽऽदिकानपायाननुभवन्ति, तत्बलेनैव च ज्ञानावरणीयादीन् बघ्नन्ति कौघान् , आहृतस्याहारस्यानाभोगकरणेनैव जीवा यथा रसाऽसृगादितया विभागं कुर्वन्ति तबलेनैव पुनराहारयन्ति च, तद्वदेव जीवा अप्यनादितोऽनाभोगेन करणवीर्येण कर्मोघमादाय सप्ताऽष्टधाविभागेन परिणमय्य पुनस्तदुदयबलेनैव च नवीनान् कर्मी घानात्मसात्कुर्वन्ति, तथा च बीजाङ्कुरन्यायेन परिभ्राम्यन्ति संसारम् । सति चैतस्मिन् व्यतिकरे कश्चिदेवासुमांस्तथाभव्यत्वपरिपाकेनाऽन्त्यावर्तमागतः संसारपरिवर्तनप्रतिकूलमभिप्राय शमात्मकं अनुभवन्नान्दोलनारहितमानन्दमनुभवति, स हि महात्मा निजाशयं प्रशान्तवाहिनमनाभोगेनापि विधत्ते, न तस्य क्रोधाद्याध्मातता, किन्तु स्वभावेनैव शमदशायामेवानन्दयति । Page #92 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (५२) एष एव च सदन्धमार्गगमनन्यायेन मार्गगमोऽसुमत आदितो भवति, अनागताश्चनं मार्ग लोकपङ्क्तये भवरतये च परःसहस्राः शरदस्तपस्यन्तोऽपि दुःखानामुरो ददाना अपि नाऽगता मार्गम् । अनागताश्चैन ये शमादोन् धारयन्ति, ते तु वातजशोफपुष्टिधारिणः पुष्टा एव परिणामरमणीयलाभशून्या एव । __ अधिकारी चाहत आज्ञाया अत्रैवागतोऽसुमान् भवति । एष एव च धर्म-मार्गयोर्भेदः मार्गों हि चरमावर्ताऽऽरम्भाल्लभ्यो, धर्मस्त्वपापुद्गलावादिति । तथाविधदशाप्राप्तानामेवाऽनगाराणां भगवतां शरण्यत्वमर्हमिति ज्ञापनायादौ 'प्रशान्ते' ति | आगताश्च प्रशान्तवाहितां जीवास्त्यक्त्वा भवाभिनन्दितां मोक्षमेव गम्भीराशयतयाऽभिप्रेयन्ते, न च स्वप्नेऽ येते मुक्त्वाऽपवर्ग अन्यं सम्यक्त्वलक्षणेन संवेगेनाऽङ्कितत्वादभिलपन्ति । किञ्च-विनाऽऽशयस्य गाम्भीर्यमनादिकालीनाया मोहवासनाया मुक्तिः, सर्वकालसिञ्चिताया इन्द्रियार्थप्रसक्तेः पराकरणं, बाह्यार्थसाधनसावधानमात्राऽऽदिकुटुम्बजनस्य निर्मुक्तिरंशतोऽप्यननुभूतस्य मनसोऽप्यतिक्रान्तविषयस्य मोक्षस्य पुरस्कारेण सर्वप्रयत्नेनोद्यमनं, विविधभावनाऽङ्कितदुर्धरमहाव्रतधुराधरणं, जीवितान्तकराणामपि परीषहोपसर्गाणामापाते निरवद्यसंयमसाधनपुरस्सरमात्मनिःश्रेयससाधननिष्णत्वं न कदाचनापि कस्यापि शक्यतापदमापनीपद्येत । अतिपरिचितानामनादिसम्बद्धानामनुपदमनुभवपदवीमागच्छतां पुद्गलसमूहानां परमार्थपरमरिपुताऽध्यवसानेनाऽऽत्मस्वभावभूतसम्यग्दर्शनादिरत्नत्रयीद्वाराऽत्राप्य शाश्वताऽऽ:मीयाऽऽनन्दमयाऽपवर्गप्राप्तिप्रवणता-प्रव्रजनमति–प्रशान्तगम्भीराऽऽशयकार्यमनन्यसाधारणमवसेयं प्रशान्तगम्भीराशया अपि गृहिलिङ्गाऽऽदिसिद्धिश्रवणादप्रतिज्ञातसावद्ययोगा अपि स्युः । अपि च भगवतोऽर्हतः शासनं यद्यपि गुणानुरागमूलं, प्रधानश्च गुणानामेवानुरागस्तत्र परं व्यवहारपथः सलिङ्गाः एव गुणा, न निर्लिङ्गाः । अत एव चोत्पन्नकेवलस्यापि भगवतो भरतस्य न शकेन्द्रेण केवलमहिम्ना समागतेनापि वन्दनं कृतं, किन्तु विज्ञप्तिरेवं कृता यदुत प्रव्रज्यां गृह्णीध्वं, येन करोमि वन्दनमिति । प्रस्तुते शरणाधिकारेऽपि न प्रशान्तगम्भीराशया अपि अप्रतिज्ञातसावद्या योग्याः शरणे इत्याह'सावद्ययोगविरता' इति ! ___ संसारिणो हि जीवाः समस्ता अपि सयोगा एव, केवलमलेश्यावस्थामुपगता एव मुक्तिसौधसोपानस्था अयोगिनः । योगश्च यस्य स सर्वोऽपि प्राणिवर्गों यथायथमवद्यबन्धनबद्धव्यापारः । .. अत एव मिथ्यादर्शनादनन्तरं जैनशासने वन्धधामाऽभिमतमव्रतमिति । . जैने हि दर्शने पापादविरमणे पापक्रियाया अकरणेऽपि सुप्त-मूर्छितक्रियचौराऽभिमाराऽऽदिवत् Page #93 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (५३) पापग्रहणपरायणः, अत एंव चैकेन्द्रियादीनामसामर्थ्यमतामप्यनादिकः संसारः संङ्गच्छते । संगच्छते च तथाविधप्रवृत्तियुतानामपि महात्मनां विरमणभावादेव निष्पापत्वम् । यद्यपि त्याज्या एव योगाः समस्ता अपि, न च तदन्तराऽपवर्गावाप्तिः, परं न निस्साधनो मोक्ष इति तत्साधनाय निरवद्ययोगानामासेवनमावश्यकमिति सामायिकचारित्रभेदरूपमेव सावद्ययोगविरमणं साधुपदाभिलाषुकैरधिक्रियते ।। अत एवाऽत्र साधुशरणाऽधिकारे उक्तं कीदृशाः साधवः शरणमिति शङ्कानिरासपरं पदं 'सावद्ययोगविरता' इति ज्ञात्वा श्रद्धायाऽभ्युपेत्याऽकरणं हि विरमणम् , तेन कायबुद्धिपूर्वकसंसर्गवतामेव सावद्ययोगविरमणं, नाऽन्येषामितिनिरस्तम् । देश-सर्वविरतिविभागस्य यतो नाऽवकाशोऽत्र,स्पष्टतयैव साधूनां भगवतामेव शरण्यत्वस्वीकारोऽत्र, यतस्ततो नाऽत्र सर्वशब्देन सावधयोगस्य विशिष्टता कृता, साधूनां भगवतां सर्वेषामेव सावधयोगानां विरमणस्य यावज्जीवमावश्यकत्वादिति । सम्पादितक्षयोपशमाद्यवस्थातो मोहनीयादात्मनां दर्शन-चरणयुगलस्य सत्यां प्राप्तौ अवश्यं निरवद्ययोगानामासेवनं स्यात् । अत एव च कालाऽनध्यायादावपि प्रायश्चित्तम् । मोक्षमार्गप्रयाणं च पुरतो ज्ञानाद्याचारपञ्चकस्यासेवनत एव, यथा यथा चारित्रिणामाचारपञ्चकस्य साधने वीर्योत्साहस्य वृद्धिस्तथा तेथा तेषां मोक्षप्राप्तेरासन्नतमत्वादि भवतीत्यावश्यकं मुमुक्षणां ज्ञानाद्याचारपञ्चकस्याराधनम् , तच्च तदीयज्ञानपूर्वमेवेत्याह-'पञ्चविधाचारज्ञायका' इति ।। _ पञ्चविधश्चाचारो ज्ञानाऽऽदिविषयभेदात् , द्वादशाङ्गस्य प्रणयनमेव मोक्षार्थिजनासेवनीयस्य शासनस्य मूलं, तत्प्रवृत्तरेव तीर्थस्य प्रवृत्तिः, श्रुतपथप्रकाशननाशेनैव तीर्थस्याप्यवसानमिति । 'गीयस्थो य विहारो'त्ति. 'सज्झायसमं तवो कम्मं णे' त्यादि च वचनं वीतरागशासनगतमनुस्मरतामादौ ज्ञानाचारस्याष्टविधस्य समाचरणं, तदर्थमेव च तज्ज्ञानस्यावश्यकमिति ज्ञानाचार आदौ । कालाऽध्ययनाऽऽदिज्ञानाऽऽचाराऽऽराधनालब्धाऽऽचाराङ्गदिज्ञाना हि मुनयो निश्शंकितादिगुणैदर्शनाचारैः स्वयं युक्ताः स्युः परानपि तत्र योजयितारश्च, लब्धस्य व्यवहाररूपस्य वा सम्यक्त्वस्य निर्देशादिभिः सदादिभिश्च द्वारैर्जीवादीनां तत्त्वानामधिगमादाचारितज्ञानाचारलब्धसिद्धान्तज्ञानास्तस्य निश्चयरूपतां भावरूपतां वाऽऽनयेयुः। . किञ्च-यथा यथाऽतिशयशमरससागरं सिद्धान्तसागरमेवगाहन्ते मुनयस्तथा तथा सविशेषरूपेण प्रभावनान्तान् दर्शनाचारानाऽऽचरेयुः। वादि-नैमित्तिकादयो हि प्रभावकाः शासनस्यावगाढाऽऽगमसमुद्रा एवेति निष्पन्नानां ज्ञानाचारे सुकराऽऽवश्यकी च दर्शनाचारनिष्पत्तिः । . . . Page #94 -------------------------------------------------------------------------- ________________ . लब्धज्ञान-दर्शनानामपि चेन्न चारित्राऽऽचरणचङ्गिमाऽवश्यं स विराधको देशेन, भगवत्यादौ तथा भणनात् । तस्मात् सर्वाऽऽराधनार्थिभिर्ज्ञान-दर्शनधरैरपि चारित्रायोद्यन्तव्यम् । किञ्च-चारित्रयुतयोः सम्यग्दर्शनज्ञानयोर्मोक्षमार्गत्वं नान्यथा, 'एकतराभावेऽप्यसाधनानी'त्यादिभाष्यकाराद्युक्तेः, तथाऽऽवश्यकत्वं चारित्राचारस्य । किञ्च-मिथ्यादृशां सत्यपि शास्त्रादिबोधे यदज्ञानित्वमुच्यते, तज्ज्ञानफलरूपस्य चारित्रस्याऽभावा- . देव, तत्त्वदृष्टया च 'जं मोणंति पासह तं सम्मति पासहे ' त्यार्षवचनात् । परमसाफल्यं हि चारित्राचरणयुक्तयोरेव सम्यग्दर्शन-ज्ञानयोरित्यप्यावश्यकताऽन्यूना चारित्राचारस्य । अवस्थिताश्च सुविहिताश्चारित्रे संवरसाधनलब्धसामर्थ्याः 'संवरफलं तपोवल 'मितिवचनात् 'संजमेणं तवसा अप्पाणं भावेमाणे त्यादिवचनात् 'तवसा धुणइ कम्मरयं अबोहिकलुसं कड'मित्यादिवचनाच्च द्वादशविधेऽप्यनगाराणां कर्त्तव्यतपोपदिष्टे निर्जराहेतुकेऽनशनादितपसि रता अवश्य स्युरिति, तदनन्तरं तपआचाराणामुपन्यासः । यद्यपि सर्वेऽपि मुमुक्षवो मोक्षसाधनबद्धकक्षाका ज्ञानाचारादिषूद्यच्छन्ति, परं न सर्वे समानसंहननाः, न चैकसंहनना अपि समानसामर्थ्याः, परं न सर्वेषां तेषां महानुभावानां महर्षीणामस्त्याराधकत्वं, हेतुस्तु तत्राऽऽत्भवीर्यस्याऽनिगृहनेनोद्यमनमेव । तथा च सर्वेऽपि सुविहिता आराधका मोक्षमार्गस्यात्मवीर्यस्य मनोवाकायभेदस्य अनिगृहनेन पराक्रमणादेव । उच्यते च 'जुजइ य जहाथाम' मिति । अत एव क्वचिद् वीर्याचारस्य स्वस्थानाऽपेक्षया मनआदिभेदत्रयस्य ग्रहणेऽपि कचिद्विषयस्य प्राधान्यात् ज्ञान-दर्शन-चारित्रतासां भेदान् गृहीत्वा पड्विंशद्विधो वीर्याचार इति कथ्यते । तदेवंविधानां पञ्चानामाचाराणां ज्ञायका एवाऽऽराधका मोक्षस्य, त एव शरण्या इत्युक्तं'पञ्चविधाचारज्ञायकाः' इति । ___एवं मोचयित्वात्मानं भवराक्षसात् सिद्धिसाधनं विधाय स्वरूपावस्थां साधयताऽऽत्मना चतुर्णा शरण्यानां शरणमूरीकर्तुमुद्यतेन सद्भूतगुणबहुमानिनां साधून शरणं कुर्वता साधुगुणानां विहितमनुस्मरणम् । यथा च सुविहितात्मानः साधवः प्रशान्तगम्भीराशयादिभिः स्वरूपप्रख्यापकगुणैरो विधातुं शरणं तथा परोपकारनिरतत्वगुणेन सविशेषं ते तथा । किञ्च-विपश्चितां गुणगृह्यत्वे समानेऽपि परोपकारपरायणतागुणो विशेपेण स्वीकार्यताहेतुरित्युक्तं'परोपकारनिरताः' इति । विदिततममेतद्विदुषां-यद् सिद्धिसावधानाः सुविहिताः ग्रहणाऽऽसेवनाशिक्षायुग्ममनधिगम्य नाऽलं सिद्धिं राधयितुं, शिक्षाद्वयं च स्थविराऽधनगारसन्निधिसेवाप्राप्यमेव, सुविहिताश्चाऽनवरतं शैक्षादिभ्यो महता प्रयत्नेनापि ग्रहणाऽऽसेवनाशिक्षाद्वयशिक्षणपटुतामेव बिभ्रते। Page #95 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ततः प्राक् तावत् सर्वेऽपि सुविहिताः साधवो ग्रहणाऽऽसेवनाशिक्षादान-परोपकारनिरताः, अत एजोच्यते श्रुतग्रहणस्य फलं-'ठिओ य ठावइस्सामि 'त्यादि । । किञ्च-सुविहिताः साधवो यत् सम्भोगव्यवहारेण भिक्षा-भोजनादि कुर्वते, तत् बाल-ग्लानशैक्ष-वृद्ध-तपख्याऽऽचार्यो-पाध्यायादीनामर्थायैव । अत एवोच्यते मण्डल्यनुपजीविनामपि साधूनां भक्षणविधौ-साहवो तो चियत्तेणं णिमंतिज जयं जई 'त्यादि । किञ्च-सोपाचारीष्वपि दशस्विच्छाकारादिरूपासु निमन्त्रणा छन्दना चेति सामाचारीद्वयं साधूनां संविभागकरणेत परोपकारकरणार्थमेव । अन्यच चक्रवालसामाचारीरूपमिदमपि युग्मं, तेन सर्वदा सर्वावसरेषु तद्विधानमावश्यकं दर्शितं, परं चाऽसंविभागकारिणां साधूनां सुखशय्याया अभावमुक्त्वा दुःखशय्यावत्वं ज्ञापयित्वा विरोधककोटौ प्रवेशं निष्टङ्कयन्ति निष्णा इति । किश्च-गच्छस्य साध्वीवर्गस्य सारणायाः कर्तुयर्गेयस्याभावे आदातुकामानामप्यभ्युद्यतविहार निषिद्धं यत् तदादानं तत् परोपकारनिरतत्वगुणवत्त्वादेव साधूनां महात्मनाम् । अन्यच्च-स्वर्गादिसाधनपटिष्ठानामपि सुविहितानां मुनीनां निर्यामका भवन्त्यष्टचत्वारिंशत्सङ्खलाका यत् तदपि परोपकारनिरतत्वादेव, स्थविरकल्पस्य परोपकारप्रवणत्वेन ह्यावश्यकता, अत एव नग्नाटानामिव ग्लानमुन्यादीनां गृहस्थकरणिसमाश्रयिणां स्थविरकल्पिकेषु अपि बाल-ग्लान-वृद्धाऽऽचार्याऽऽदिवैयावृत्त्यसंविभागाऽर्थमेव च मण्डल्याश्रयणं, मण्डल्युपजीवका हि साधवः गोचराऽग्रमवतीर्णाः सकलश्रमणसङ्घयोग्यमेवाददते, पात्रादिकस्य सनिर्योगस्य धरणमपि नियतं स्थविराणां साधुगच्छोपग्रहार्थमेवेति सत्यमुक्तं-'परोपकारनिरताः' इति । अत एव च ग्लान-बालाऽऽदिवैयावृत्त्यायकरणे प्रायश्चित्तमनगाराणामवसीदतामनगाराणामुपे- ' क्षणेऽपीति । यथास्थितपरोपकारो हि तैरेव कर्तुं शक्यो, ये स्वयं कामभोगपङ्कावसन्ना न स्युरित्याह'पद्मादिनिदर्शनाः' इति । यद्वा निरुपमेयगुणा अयहदाया महागोपाऽऽदिदृष्टान्तवर्णनाया एव विदुषां । ततः साधुमहात्मनामपि दृष्टान्तवर्णनीयताया दर्शनायाऽऽह-' पद्मादिनिदर्शना' इति । तत्र पद्मनिदर्शनं-'जहा पोम्मं जले जाय 'मित्यादिनोत्तराध्ययनसूत्रसूत्रितं यथार्हमाहनतादर्शकं, यद्वा पद्मशब्देन पद्मपत्रं ग्राह्यं, तथा च पुष्करपद्मपत्रं यथा निर्लेपं, तथा निर्लेपगुणं धारयतो दृष्ट्वा लोकास्तान् पुष्करपद्मपत्रतया ख्यान्ति । पुष्करपद्मपत्रेण लोकेषु ते निदर्श्यन्ते इति श्रीपर्युषणाकल्पोक्तेः 'कंसे संखे' इत्याद्यकविंशतिपदाक्तानि निदर्शनानि ज्ञेयानि, आदिशब्दस्य प्रकारार्थत्वात् । Page #96 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (६६) यद्वाऽऽदिना शारदसलिलाऽऽदिनीह निदर्शनानि विवक्षितानि । ततस्तन्मध्यगतपुष्करपत्रादीनि ज्ञेयान्यत्र निदर्शनानि, विशेषप्रसिद्धेः पुष्करपत्राऽदिनिदर्शनानामुपादानमिति । यद्वा प्रशान्तगम्भीराशयेत्यनेन पदेन गभीरहृदो यो वर्णितः श्रीआचाराङ्गे, तेन समानतामुक्त्वा स्वरूपमुक्तं चारित्रप्राणस्य । अत्र तु पद्मादिनिदर्शना इतिपदेन मोक्षमार्गगामिषु तेषां महात्मनां तेनैव हृदसमत्वेनानेकप्रसिद्धेः ख्यातिः ख्यापितेति । सर्वेषामपि सञ्ज्ञिनां प्राग्भवीयप्रचुरपुण्यप्राग्भारलभ्यं मनः, नहि कदापि तथाविधपुण्योदयेन विना सञ्ज्ञित्वस्याप्तिः, परं तत् सञ्ज्ञित्वहेतुकं मनः पैशाचिकाऽऽख्यानगतपिशाचतुल्यं प्रोक्तानामिष्टार्थानां सम्पादकमन्यथोत्पातशतसमुद्यतं च । यतो मन एव सुष्टु प्रयुक्तं साधयति सिद्धि, मन्नं च रौद्रे देव माघवतीमहीं नयति नेतारमिति । अत एव च ‘पैशाचिकमाश्यान' मित्यादिगतं 'संयमयोगैरात्मा निरंतर व्यापृतः कार्य ' इति श्रीउमास्वातिभिः प्रशमरतावुपदिष्टं, परमिच्छाकाराऽऽदिप्रतिलेखनादिकानां संयमयोगानां नियतकालकर्तयत्वात् तपस्विनां महात्मनां शेत्रः कालो भूयान् उद्धरतीति तद्गत कर्तव्यतामाह4 'ध्यानाध्ययनसङ्गता ' इति । यद्वा प्रशान्तगम्भीराशयादिभिर्विशेषणैः साधुमहात्मनां संवरसमृद्धेः साधनेऽपि नैतावती मोक्षमार्गप्रयाणवृद्धिः, तावत्या एव गुणश्रेणेरवस्थानात्, 'गुणसेढी तत्तिया ठाई 'तिवचनात्, तस्मात् निर्जरासामर्थ्येन मोक्षमार्गप्रयाणस्य वृद्धेर्ज्ञापनार्थमाह - ' ध्यानाऽध्ययन,' इति । यद्यपि मुमुक्षवोऽनशनादिके द्वादशविधेऽपि सुविहितानामादरणीयतयाऽभिहिते निर्जराभेदे यथासामर्थ्यं रक्ता एव, अन्यथा वीर्याचारहानिदोषापत्तेः परं स्वाध्याये ध्याने च कालक्रमेण प्राप्ते विशेषेण रताः साधवः । 'पढमे पोरिसी सज्झायं, बीए झाणं झियायई 'ति प्रतिदिनसामाचारीप्रतिपादक श्रीमदुत्तराध्ययनवचनात् । अत्र यद्यपि ध्यानमध्ययनस्य कार्यरूपत्वात् पश्चाद्भावि, तथापि मोक्षमार्गप्रयाणे ध्यानस्याभ्यहितत्वात् प्राग्निपातः, अल्पस्वरत्वमस्त्येव । ध्याने चात्र 'परे मोक्ष हेतू ' इतिवचनाद् धर्मं - शुक्लाख्ये एव ग्राह्ये, तत्रापि शुक्लध्यानस्य श्रेणिविशेषे सयोगिकेवलिनि च भावात् सर्वश्रमणव्यापकताऽभावात् धर्म्यमेवात्र ध्यानं ग्राह्यम् । किंञ्च - धर्म्यध्यानस्य किञ्चित् किञ्चिद्ध्यानान्तरकालव्यवधानेनाजीवनमनगाराणां सम्भवात्तद् ग्राह्यं । धर्मध्यानं चाऽऽज्ञाविचयाऽऽदिभेदं सततं ध्येयं सुविहितैरिति तत्सङ्गता एव साधवः शरण्या भवन्तीति ते शरणमित्युक्त्वा कुरूटो- त्करूटाssमानां शरणानर्हत्वं प्रतिपादयति । Page #97 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (५७.) ध्यानं स्वभ्यस्तागमो गीतार्थ एव विधातुमलं साधुः न कोकणप्रायोऽपत्यकृषिचिन्तक इवेत्याह-- . . गीतार्थत्वाय अध्ययनेति । ननु ‘चाउकालं सज्झायस्स अकरणयाए 'तिवचनाद् दिवस-निशयोराद्यान्त्यप्रहरेष्वेवाध्ययनस्य सङ्गतिर्न सर्वकालमिति चेत् ! सत्यं, स नियम आबालवृद्धानां सर्वेषां गच्छवासिनां विशेषतो भक्तिमतामनगाराणां, सामान्येन तु 'काले ण कओ सज्झाओ 'त्ति 'सज्झाए ण सज्झाइयं 'ति च वचनात् सर्वकालमेवाऽकालाऽस्वाध्यायवर्जमध्ययनकाल इति योग्यमेवोच्यते-'शरण्याः साधवः अध्ययनसङ्गता' इति । यद्यपि परस्पराऽविनाभावि द्वयमेतत् , परं परमं शुभध्यानमेव निर्जराहेतुः। निकाचितान्यपि कर्माणि ध्यानप्रभावादेवापनेतुं शक्यन्ते विनैव भोगं, तदन्तरेण तु तल्लवेऽपि कृताऽतिनिष्ठुरकर्मगां दृढप्रहारिप्रभृतीनां मोक्षस्यासम्भवः, तथाविधध्यानहेतुनैव सततमध्ययनमग्नत्वभावात् साधूनां योग्यमुक्तं-'ध्यानाऽध्ययनसङ्गता' इति । एवंविधा भपि साधवः ध्यानाऽध्ययनलीना अपि प्रतिक्षणमपूर्वाऽपूर्वनिर्जरावृद्धिगुणप्रकर्षलाभवन्त एव मोक्षस्य साधनाय, साधने च तस्य साहाय्याय प्रभवेयुरित्याह- 'विशुध्यमानभावा' इति । विशुध्यमानभावत्वं च जातिस्मरण-कुलसंस्कारायभावेऽप्यवाप्ताष्टवयस्कचारित्रस्य मासाऽऽदिपर्यायेण व्यन्तरादिसुखासिकावृद्ध्या यावत् संवत्सरेण सर्वशुक्लाभिजात्यत्वेन, परस्य त्वन्तर्मुहूर्तेनाप्यवाप्य केवलस्य यथा स्यात्तथावसेयम् । . . .. :. . . . . . . __ अत एवोच्यते - 'जह जह सुयमवगाहइ अइसयरसपसरसंजुयमपुव्य 'मित्यादि । एवं ." निसर्गाधिगमयोरन्यतरजं तत्त्वार्थश्रद्धानात्मक "मित्यादि यावत् नित्यं निर्वाणसुखमवाप्नोती "ति तत्त्वार्थभाष्ये, “नित्योद्विग्नस्यैव "मित्यादि च प्रशमरतो, साधूनां साघुत्वप्राप्त्यादिफलप्रकर्षः। सर्वश्चैष फलप्रकर्षो विशुध्यमानभावस्यैव साधोरिति सुष्ठुक्तं "विशुध्यमानभावाः साधवः शरण "मिति । - एतादृशानां प्रशान्तगम्भीराशयादिगुणानां साधुष्वेव भावात् , साधूनामपि च यथार्थतया प्रशान्तगम्भीराशयत्वादिनियमात् यत् साधव इति प्रोच्यते, तत् द्रव्यवेषयुक्तानामेव, तादृशानां मोक्षसाधनाय प्रशान्तगम्भीराशयादिगुणधारिणां शरण्यताज्ञापनाय । ततश्च भावलिशानां निम्रन्थानामत्तमस्वेऽपि शरणकरणे साधवः, साधवस्तु द्रव्यभावोभयलिङ्गयुक्ता एव निर्ग्रन्था इति । .. . एवं स्वयं केवलज्ञानेन विज्ञाय पूर्वभवगताऽप्रतिपातिमत्यादित्रिज्ञानयुक्तेन. सम्यक्त्वेन स्वयम्बुद्धतयाऽऽचरितस्य चारित्रधर्मस्य फलस्वरूपतया तत्पूर्वभवोपात्तजिननामकर्मणोऽभिप्रेतफलदातृतयोदयात समवसरणं सुरसम्पादितमध्यास्य द्वादशाङ्गो धर्मः प्रतिपादित इति सफलसमाचीर्णसद्धर्मप्रतिपादक Page #98 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तयाऽहंतो भगवतः, तत्सद्धर्मसमाचरणसाधिताऽविनाश्यात्मस्वरूपाऽवाप्तसिद्धिसौधान् भगवतः सिद्धान् , तस्यैव सद्धर्मस्य समाचरणचतुरान् तत्समाचरणचणनररत्नपरमसयमधर्मसाधनसहायकरणतत्परांश्च सुविहितान् भगवतः शरणम् स्वीकरोति मुमुक्षुः । ____एतावता ग्रन्थेन शरण्यान् शरणतया स्वीकृत्य परमपुरुषाणामुपासना विहिता, परं जैने धर्मे यथैवोत्तमपुरुषाणामात्मश्रेयस्करमाराधनं तथैव परममार्गस्यापि केवलिप्रज्ञप्तस्याराधनमावश्यकतममेव । धर्मिष्ठपुरुषसमारीधनं तु गुरुत्वप्राप्तेर गेवाभीष्टं, तत्प्राप्तौ तु तथाविधपुरुषाणामाराधनाय प्रेरणमपि, 'केवलिनो गौतम ! माऽऽशातये 'ति श्रीवीरवचसाऽऽपत्तिकरं, परं केवलिप्रज्ञप्तस्य धर्मस्य समाराधन यावदयोग्यन्त्यसमयसर्वशरीरविप्रहाणमावश्यकमिति तस्य केवलिप्रज्ञप्तस्य धर्मस्य परमशरण्यत्वात् यावत्सिद्धिसाधनं चालम्बनीयत्वात्तत् शरणीकर्तुमाह-तहा केवलिपण्णत्तो धम्मो जावजीवं मे भगवं सरण 'मिति । अत्रावधेयमिदं यदुत-सर्वेऽपि तीथिका अविप्रतिपन्ना एतस्मिन् वस्तुनि, यदुत-" सर्वैरपि स्वीकृत आस्तिकैरात्माख्यः पदार्थः रूप-रस-गन्ध-स्पर्शाश्चक्षुरादीन्द्रियगम्या विषयास्तै रहित एव, तथा च नाऽसौ अतीन्द्रियज्ञानिनं विना ज्ञातुं शक्योऽन्यः ।" मंतीन्द्रियज्ञानी च वीतरागपरमात्मानमन्तरेण न कोऽपि जगति भवितुमर्हतीति सर्वतीर्थीयेषु रागद्वेष-मोहर्ललनास्त्री-मालासंसर्ग-हतवीतरागत्वेषु भगवानहन्नवाऽष्टादंशदोपरहितत्वाद्वीतरागः सर्वज्ञः, स एव चात्माद्यतीन्द्रियपदार्थानां साक्षात्परिच्छेदविधायी, अन्येषु प्रवृत्तास्ते आत्माद्यर्थवाचकतयाऽऽरमादयः शब्दास्ते भगवद्वीतरागार्हद्वचनानुकारेणैव । अत एवोच्यते 'सबप्पवायमूलं दुवालसंग 'मित्यादि । 'उदधाविव सर्वसिंधव' इत्यादि तु तानुसारिवावदूकपर्षदुद्गीर्णमतप्रवाहापेक्षम् । भगवन्तो जिनेश्वराश्चावगम्यं केवलेंनाऽखिलान् प्रज्ञापनीयेतरान् भावान् गणमुन्नांमकर्मोदयधरणंधौरान् गणधरानुद्दिश्य निखिलान् प्रज्ञापनीयार्थान् साक्षात् सूचकतया वा भाषन्ते । तत्र प्रथमं तावत् लोकादीनां शाश्वतत्वज्ञापनेनाऽकृत्रिमत्वादिज्ञापनायाऽस्तित्वादि समुपदिशन्ति, तदनु नैर्ग्रन्थं शासनं, तन्महिमानं सुरगत्यादिपूत्पत्तिकारणानि, नारकादि-सिद्धभगवदन्तसर्वार्थस्वरूपं प्रादुर्भावयन्ति । श्रुत्वा चैतां देशनां गणधरा भगवन्तः शासनोत्पत्ति-स्थिति-प्रवृत्ति-प्रवृद्धिप्रायोग्या अध्नन्ति द्वादशाङ्गीमित्यलमतिप्रसक्तेन । आल्यान्तश्च भगवन्तो देशनां कर्तव्यतयांऽनगाराउंगारधर्म यथाभद्रकत्वादिकाः सिद्धिसौघाsवस्थानाऽवसांना दशा उद्दिश्य समप्रमपि स्वर्गाऽपवर्गसुकुलोत्पत्यादिकं सर्वमपि फलतयाऽऽख्यान्ति । तत एव गीयते 'धर्मः स्वर्गापवर्गद' इत्यादि । Page #99 -------------------------------------------------------------------------- ________________ एवं च भगवन्तोभ्युदय-निःश्रेयसोभयहेतुतया धर्ममाख्यान्ति, परं तत्राऽभ्युदयहेतुताऽऽनुषङ्गिकीति-धर्मस्य फलरूपापि सा प्राप्या, न साध्या । अत एव न क्वचिदप्या धर्मस्याभ्युदयमुद्दिश्य कर्तव्योपदेशः, या तु तत्र निःश्रेयसहेतुता धर्मस्य, सा साध्या प्रयत्नाऽतिशयेनापीति सर्वत्राऽऽर्षागमेषु 'सम्यग्दर्शनज्ञानचारित्राणि मोक्षमार्ग' इत्यायेवोच्यते । ___यचात्र जिनेश्वरमात्रप्ररूपितस्य धर्मस्य केवलिप्रज्ञप्ततयाऽऽख्यानं शरणीकरणं च तत् न धर्मस्य स्वरूपे भगवतां जिनेश्वराणां जिनत्वद्योतकातिशयानां प्रभावः, किन्तु केवलित्वस्यैवेति द्योतनाय सर्वेषां जिनानां केवलिनां समानधर्मप्ररूपणा पदार्थस्वरूपानुपातित्वात् सर्वेषामपि समानेतिज्ञापनाय च । किञ्च मङ्गलव-लोकोत्तमत्वस्वीकाराऽऽदिपूर्वकमेव शरणं स्वीकर्तुं योग्य, परमेतस्याऽऽराधनासूत्रत्वात् फलरूपमेव शरणं स्वीकृतम् । प्रतिक्रमणाऽऽदिषु क्रियासूत्रत्वात् केवलिप्रज्ञतस्य धर्मस्यापरेषां चाहदादीनां स मङ्गलव-लोकोत्तमत्वस्वीकारपूर्वक एव शरणत्वस्वीकार इति । किञ्च- जैने हि शासने धर्मिणां धर्माऽऽधारतयैवाराध्यता, नहि कस्याप्याराध्यताऽत्र व्यक्ति-जातिलिङ्गाऽऽत्मना, परं धर्मो न हि मूर्तिमान् , तथा च कथं तस्य पर्युपासनाऽऽदि, ततो धर्मवानेव पर्युपासनायां ग्राह्यः । अत एव च परमेष्ठिपञ्चकनमस्कारो महामन्त्रतयाऽऽराध्यते, पूज्यन्ते च तद्गता अर्हदादयः, अत एव च पारमर्षेऽपि-'वंदामि नमसामी'त्यादीनां पदानां निरुपमानो न्यासः, 'पज्जुवासामिति । अस्यैव च 'कल्लाणं मंगलं 'मित्यादिपर्युपास्यपदौपम्येन न्यासः । अत्राऽपि च प्रागुपन्यस्तानामर्हदादीनां केवलिप्रज्ञाधर्मवत्ताप्रभावेनैव शरण्यता, तथापि पर्युपास्या मूर्ता इति, तत एव हेतोस्तेषां प्रागुपन्यासः, परं नैतावता धाराधनेन धर्मप्रभावः क्षीणः, किन्तु तद्वत् पूजाद्वारैव धर्मस्य सप्रभावत्वात् पुष्टतामापन्नो धर्मप्रभाव इत्याह-'तथेति । ____ अर्हत्-सिद्ध-साधुवदन्यूनातिरिक्ततयैव धर्ममपि शरण कुर्वे इत्याह, ज्ञापयति च धर्मिणां शरणस्य . स्वीकारादनु धर्मस्य शरणस्वीकारेण यदुत-बहुजनमतो धर्म इतिन्यायेन सर्वेऽप्यास्तिका धर्मस्य बहुमाने रता नाऽपरे । ___अत एव जैनशासनबहुमानिनामपि अहंदादीनां पञ्चानां परमेष्ठिनामाशातनायां मिथ्यात्वं माम्नायते । गोशाल-जमाल्यादयो हि भगवतः श्रमणान्महावीराद्विप्रतिपन्ना एव मिथ्यात्वं गताः । अधुनातना अपि जैन धर्मं शरणं ब्रुवाणा अपि भगवन्तं तद्वचनाऽन्यथाकरणद्वारा विप्रतिपन्ना एवमेवेति धर्मस्य मूर्तिमत्त्वाभावाद् धर्मिमहत्ताद्वारैव महत्ता धर्मस्येति मनस्वाऽऽधायाह-' सुरासुरनरपूजित' इति । Page #100 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (६२) क्रमशः क्षप्यमाणेषु चारित्रं उपशमश्रेणिः क्षपकश्रेणिश्चावश्यं तस्य भवतीति क्रमशः सकलमोहस्य नाशकत्वादपि धर्मबोधेरेव मोहतिमिरांशुमारिता ज्ञेया । अत एव रागद्वेषविषपरममन्त्र इत्यप्रेतनं विशेषणम् । तत्रानन्तानुबन्ध्यादिचतुष्कं नवनोकषायसहितं राग-द्वेष-शब्देन ग्राह्यं । तथा न स्थानमारेकाया यदुत-य एव मोहः, स एव रागद्वेषौ यावेव च रागद्वेषौ तावेव मोह इति.कथं मोहस्य रागद्वेषयोश्च पृथा ग्रहणमिति । ___ अत एव रागस्य सक्लेशजनकता द्वेषस्य शमेन्धनदावानलवाया प्रतिपादिता भगवता श्रीहरिभद्रसूरिणा सा अशुद्धवृत्तकरणहेतुता च मोहस्य सङ्गच्छतेतमाम् । विहायैव विषयतृष्णां गन्यागम्यविभागं विना सर्वत्र वर्तनारूपां लमते भगवत्केवलिप्रज्ञतं वोधिमिति नियमात् । ज्ञापितं चैतत् पोडशके श्री हरिभद्रसूरिभिर्यथा तथैव श्रीमद्भिरभयदेवमूरिभिरपि स्वकीये नवतत्त्वप्रकरणभाष्ये स्पष्टितमेव-" तादृश्या विषयतृष्णायाः शमनमेव सम्यक्त्वस्य शमरूपं लक्षणं तच्चाऽऽस्तिक्यादीनां संवेगान्तानां चतॄणां फलरूपमिति । ___ श्रीहरिभद्राचार्या विंशतिकाप्रकरणे उत्पत्तावास्तिक्यादीनां पश्चानुपूर्वीक्रमस्याभ्युपगत्वात् मतः केवलिप्रज्ञप्तस्य धर्मस्य बोधिरेव सम्यक्त्वाऽपरंपर्यायः, अत एवोच्यते-'तमतिमिरपडलविद्धंसणस्सेति श्रुतस्तवे, 'द्विविधमनेकद्वादशविधं महाविषयममितगमयुक्तं । संसाराऽर्णवपारगमनाय दुःस्वक्षयायाऽल 'मिति तत्त्वार्थभाप्ये द्वादशाऽङ्गतीर्थ देशनाप्रस्तावे न ह्यनन्तरं जायमानं फलमेव फलतयोच्यते, किन्तु अनन्तर-परम्परयोरेकतरेणापि उभयेनाऽपि च । अत एव च प्रयोजनाख्यानुबन्धस्यानन्तर-परम्परप्रयोजनमभिव्याप्याख्यायते फलवत्ता । तथा च केवलिप्रज्ञप्तधर्माऽवाप्तेरवाऽऽनन्तर्येण पारम्पर्येण च जायमानानि सकलानि फलानि मोक्षप्राप्तिपर्यवसानानानि ज्ञेयानि । अत्र तु मोहतिमिरांऽशुमालिन्वकथनेन जायमानमनन्तरं फलमेनाम्नातम् । किश्च जाते मोहतिमिरस्य ध्वंसे अवश्यमङ्गी रागद्वेषघातनतत्परः स्यात् , । अत एव च संवेगं सम्यक्त्वलक्षणतया वर्णयन्ति विद्वांसः । तथाविधां तस्याऽवाप्तबोधेरवेदयैव दशां सावद्यप्रवृत्याऽऽदिसपापव्यापारभृतानमपि सम्यग्दृशो देशविरतिमतो देशविरतांश्च श्रीसूत्रकृताङ्गे गणधरा धार्मिकपक्षतया निश्चिन्वते, प्राप्तौ च सम्यक्त्वस्य मिथ्यात्वमोहनीयस्यैव भेद उपयुक्ततमस्तथापि तद्भेदात् तद्विभागाच्च प्रागेव चारित्रमोहनीयमुपाऽनन्तानुबन्धिनामुपयमक्षयादीनां स्वीकुर्वत आचार्या आवश्यकताम् । . अनन्तानुबन्धिशमस्तु प्रागेवापूर्वकरणे । तेन न जातं सम्यक्त्वं तद्व्यञ्जकं, अभिव्यक्तिस्मु तत एवेन्यते, क्रोधकण्डूयाऽपगमेऽपि तव्यपगमादेवाऽपूर्वकरणाजात एव असाधारणः पक्षपातः शमवति भगवति, तन्मात्रप्रतिबद्धता च शमरूपा सम्यक्त्वादनन्तरमेवाभिव्यच्यते । ततश्च यथार्थमुक्तं'मोहतिमिरांशुमाली केवलिप्रज्ञप्तो धर्म' इति । Page #101 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (६३) - लल्धसम्यक्त्वा अपगतमोहतिमिरा अपि जना गुणस्थानानां परम्परा साधयित्वैव शक्नुः वन्न्यपवर्ग साधयितुं, नाऽन्यथा, उच्यते च 'परंपरगयाण' मिति । सा परम्पराऽपि केवलिप्रसाद : धर्मात् नान्यतः कुतश्चिदवाप्यते, परम्परायां च तस्यां क्रमशः क्षपणं राग-द्वेषविषस्य जायते, तत एव चाऽऽत्मसु अपूर्वाऽपूर्वगुणप्राप्तिर्जायते, महान् कालश्चास्य, यतः पञ्चम-षष्ठ-सप्तमगुणस्थानकानासक स्थानं देशोनां पूर्वकोटी यावद् भवति ततस्तत्र विघ्ननाशाय पठ्यते-'रागद्वेषविषपुरममन्त्र' इति । - अत्रेदमवधेयं यदुत तिमिरं हि द्रष्टुरोधं विधाय दृष्टेरुपद्रोति, विषं तु व्यथामप्यन्तरुत्पादयति, यथास्थितां दृष्टिं च प्रतिबध्नाति, तद्वत् मिथ्यात्वमोहनीयोदयस्य तिमिरोपमत्वात् स सदेवगुरुसंत्तत्वगतां दृष्टिमवरुणद्धि । __ अप्रत्याख्यानाऽऽदयस्तु दुःखरूपे दुःखफले दुःखानुबंधे च संसारे सुखाऽऽदिरूपतामाभास्य विषय-कषाय-हिंसा-परिग्रहेषु जीवं तद्रसिकतया प्रवर्तयन्ति, अतो 'विषं विषया' इत्यप्युच्यते, विषयाणां विषत्वं न स्वरूपेण, यतोऽभिसरन्ति हि विषया मतीन्द्रियान् केवलिनोऽपि, तेषां विषत्वं तु राग-द्वेषनिवासत्वेन । अत एवोच्चते- . . . . . . . .. .. ." अशक्यं रूपमद्रष्टुं, चक्षुर्गोचरमागतम् । . .. .. राग-द्वेषौ तु यौ तत्र, तौ बुधः परिवर्जयेत् ॥१॥ इति" (योग. प्र. १ श्लो. ३५) - विषयाणां परिहाराय यदुपदिश्यते परमर्षिभिः तत्राऽपि 'सद्देसु जो गिद्धिमुवेइ तिव्व'. मित्यादिना शब्दाऽऽदीनां परिहारमनभिधाय तद्गतयोर्गुद्धि-द्वेषयोर्विषयोरेवोच्यते परिहारः । ततः सुनिश्चितमिदं यदुत-विषयगतयोः राग-द्वेषयोर्विषेणोपमानं यथार्थमेव । ननु धर्मस्य भवतु महिमाऽनून एषः, केवलिप्रज्ञतत्वविशेषणेन किमिति चेत् ? सत्यं, वचनं हि श्रूयमाणं प्रागेव तत्तावत् स्वप्रामाण्याय वक्तुः स्वरूपमन्वेषयितुमात्मानं प्रवर्तयति, यतो विरला एवं विश्वे वस्तूनां यथार्थतया स्वरूपस्य वेत्तारः, तत्रापि धर्माऽधर्मों तु नाऽतिन्द्रियवेदिनमन्तरा, वेत्तमळ. म्भूष्णुः कोऽपि, ज्ञातमपि वस्तुस्वरूपं स एव यथावद् विभावयितुमलं स्यात् , यः स्याद् राग-द्वेष रहितः। अत एवोच्यते 'आप्तवचनमागमः, अभिधेयं वस्तु यथावस्थितं यो जानीते यथाज्ञातं . चाभिधत्ते स आप्त' इति । तथा च प्राक् तावत् श्रुतस्य प्रामाण्यायैव तद्वक्तुः स्वरूपस्यान्वेषणं, वीतरागः केवली च परमात्मा परम आप्त इति, तत्प्ररूपितस्य धर्मस्य धीमान् प्रामाण्यमध्यवस्यति, अव्यवसिते च तस्मिन तस्याऽऽराधनाय प्रवर्तते प्रधीः, प्रवृत्तश्चाऽऽराधनाय तस्य प्रवीस्तदनन्यया भक्त्या वासितो भवति, तशाभूतश्चेष्टानप्यतादिकालतो विषयान् स्पर्शादीन् दुःखरूपान्, दुःखफलान्, दुःस्वानुबयांचा: Page #102 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (६०) धर्मस्य प्रणेतारः प्रभावका अद्वितीयाऽसाधारणतया धारकाच भगवन्तोर्हन्तः, तांश्च सुरासुरनराः पूजयन्त्येव, यत उच्यते 'आभितर मञ्झ वहिं विमाणजोइसभवणाहिवकयाउ । पागारा तिणि भवे रयणे कणगे य रयए य ॥ ५४९ ॥ मणिरयणहेममयाविय कविसीसा सवश्यणिया दारा । सबरयणामयच्चिय पडागधयतोरणविचित्ता ॥५५०॥ तत्तोम-समंतेणं कालागुरुकुंदुरुक्कमीसेणं । गंधेणं मणहरेणं घूवघडीओ बिउव्वंति ।।५५१॥ उकिंटिं सीहणायं कलयलसदेग सव्वंभी सव्वं । तित्थयरपायमूले करेंति देवा णिवयमाणा ।।५५२।। चेइयदुम पेढछंदय आसण छत्तं च चामराभो य । जं चऽण्णं करणिज्जं करेति तं वाणमंतरिया ॥५५३॥ साहारण ओसरणे' त्यावश्यकनियुक्तयादौ देवानाश्रित्य मनुष्यानाश्रित्य च - 'वित्तीउ सुवण्णस्स वारस अद्धं च सयसहस्साई । तावइयं चेव कोडी पीति दाणं तु चक्किस्स ॥५८०॥ एयं चेव पमाणं णवरं रययं तु केसवा दिति । मंडलियाण सहस्सा वित्ती पीइ सयसहस्सा ॥५८१॥ भत्तिविहवाणुस्वं अण्णेवि य दिति इन्भमाईया। सोऊण जिणागमणं णिउत्तमणिकोइएसुं वा ।।५८२॥ तत्रैव प्रोक्तं । किञ्च-'देवाविं तं नमसंति जस्स धम्मे सया मणो 'त्ति दशवैकालिकवाक्येन, सनत्कुमारेन्द्रादेर्भव्यत्वाद्युत्तरे श्रमणादीनां हितकारित्वादिभावानां हेतुतया दर्शितत्वात् भगवत्याः ; श्रीजीवाभिगमादिपु जम्बूद्वीपस्थश्रमणसङ्घादेहितायैव वेलन्धरादिभिरनुधृतो लवणो नोत्पलावयतीत्याद्यनेकधा पारमर्पवाक्येन धर्मस्य सत्यतमत्वात् केवलिप्रज्ञप्तस्य पूजकाः सुरासुरा इति निर्विवादम् , सर्वेऽपि सुराऽ सुराः स्वजन्मसमये भगवन्तं जिनेश्वरमभ्यचयामासुरेव । यद्यपि सुराऽ-सुर-मनुजेपु न सर्वे सम्यग्दृष्टय इति न सर्वैस्तैरेष पूजितः, परं 'सर्वः सत्यं समीहते' इति न्यायेन धर्मोतिख्यात्यैव वा सर्वेषां संतोपस्य समुत्पत्तेरसत्यं कुर्वाणा अपि सत्यस्य Page #103 -------------------------------------------------------------------------- ________________ केवलिप्रज्ञप्तस्यैव धर्मस्य पूजका इति परमार्थता निश्चीयते, एतयैवापेक्षया भगवन्तमहन्तं महादेवमाश्रित्योच्यते 'यः पूज्यः सर्वदेवानां, यो ध्येयः सर्वयोगिना 'मित्यादि । - यद्वाऽत्र सुराऽसुरमनुजानां सर्वेषामग्रहः, सर्वशब्दरहितत्वात् । विशिष्टाश्च सुरासुरमनुजाः केवलिप्रज्ञप्तं धर्म पूजयन्त्येव, जघन्यतोऽप्यसङ्ख्येयानां सम्यग्दृशां सुरासुरमनुजानां प्राप्यमाणत्वादिति । प्राप्तफलस्याभ्युदयस्यानुद्देश्यत्वादाह-' मोहतिमिरंसुमाली 'ति । यद्यपि भगवद्भिः केवलिभिः प्ररूपितो धर्मः सर्वकर्मकक्षहुताशनप्रभः, परं सर्वकर्मणां मूलमतो मोह इत्यत्र तन्नाशकत्वेन स विशेषितः । · किञ्च-मणिदीपादिभिज्योतिष्कैस्तमो नाश्यते, तिमिरस्याऽन्धकारविशेषस्य नाशकस्तु दिवाकर एव । अत एव च स तिमिराऽरिशब्देन कोशे संशब्द्यते। यथा च जगति तिमिरं न सूर्याऽपरज्योतिष्कनाश्यं तथा मोहतिमिरमपि न केवलिप्रज्ञप्ताऽपरधर्मनाश्यम् ; किन्तु तन्नाश्यमेवेति युक्तमुक्तं-'महतिमिरांशुमाली 'ति, यथा च दिवाकरोऽवश्यं तिमिरं नाशयति तथा धर्मोऽपि केवलिप्रज्ञतोऽवश्यं मोहतिमिरं नाशयत्येव, अत एवोच्यते–'जन्मभिरष्टव्येकैः सिद्धयत्याराधकास्तासा 'मिति ।। — अंशुमाल्युपमानेन ज्ञापयति शास्त्रकार इदं यदुत-" यथा यथा ांशुमालिनोंऽशवो लभन्ते प्रसरं तथा तथा जगति तिमिरं प्रणश्यति, तथाऽत्रापि भगवद्भिः केवलिभिः प्ररूपितस्याऽपि धर्मस्याऽस्य यथा यथा जीवेषु विशिष्टाऽऽराधना तथा तथा विशिष्टो मोहनाशः, यावत् सर्वविशिष्टाऽऽराधनाकारिणामन्तर्मुहूर्तमात्रेणाऽप्यपवर्गस्य प्राप्तिकरो मोहनाश इति । यद्यपि शास्त्रेषु मोहस्य ‘पड-पडिहा-रसि-मज्जे 'तिवचनेन मोहस्य सुरोपमानतोक्ता, सा सम्यग्दर्शन-ज्ञानवतोऽपि चारित्रमोहोदयेन जायमानं विकलत्वमपेक्ष्य, यतो जगति अमत्ताऽवस्थायां विज्ञतमोऽपि तत्तया ख्यातोऽपि नरो यदा मत्ताऽवस्थामुपगतो भवति, तदा निर्विवेकि शेखरो भवति, तथाऽत्रापि शासने क्षायिकसम्यग्दर्शननन्दिषेणाऽऽदिवत् प्रकृष्टश्रुतधारकोऽप्यसुमान् मोहमदिरामत्तो भवति, तदा निर्विवेकिशेखरमिथ्यात्वान्धित्ढक्समचेष्टाको भवति । ___ अत्र तु मोहस्य तिमिरेणोपमा सा दर्शनमोहनीयस्य यथार्थतत्त्वबोधश्रद्धानप्रतिपन्थकत्वमाश्रित्योक्तेति ज्ञेयं, बुद्धो हि केवलिप्रज्ञप्तो धर्मोऽवश्यं मोहतिमिरं विनाशयति, अनन्तशोऽप्यात्तानि चारित्राणि मोक्षफलप्राप्तिं प्रत्यफलान्येव जातानि, भगवतः केवलिनो धर्मस्य बोधरूपस्य लब्धिस्तु न जातु कस्यापि मोघीभवति, यतो यः कोऽप्यसुमान् लभते भगवतः केवलिनो धर्मस्य बोधि, स नियमादन्तरपार्धपुद्गलावर्त्तादनावृत्तिपदं लभेतैव, ततो यथार्थमुक्तं भगवता केवलिना प्रज्ञप्तं धर्ममधिकृत्य मोहतिमिरंसुमाली'ति । लब्धे च धर्मबोधौ जन्तुरवश्यमर्वाक् पल्योपमपृथक्त्वाद्देशाविरतः स्यात् , सङ्ख्यातेषु सागरोपमेषु Page #104 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (६६) कयोथोपदेष्टाऽऽदिजिन एव भवति । जिनत्वं च तेषां यः शुभकर्मासेवनभावित भावों भवेष्यनेकेवि 'तिवचनात् 'बीसाए अण्णयर एहिं' तिवचनाच्च श्रीजिनके वलिप्रज्ञन्ताद् धर्मादेव भवति । न च वाच्यं 'कोऽयं विचित्रो नयो - यद् धर्मो जिनकेवलिभिः प्रज्ञाप्यते, जिनाचं धर्मात् केवलिंप्रज्ञप्तांद् भवन्तीति परस्परांऽऽश्रयाऽवष्टन्धत्वादिति, अनादित्वाद् द्वयोः, यथा हि-दिनपूर्वी रात्रिः रात्रिपूर्वो दिन इत्यत्र न परस्पराश्रयोऽनवस्था वा, तथाऽत्रापि । किञ्च-जिनानामनेकेऽतिशया दुर्भिक्षादिविपत्तिवारकतया कल्याणरूपा भवन्ति, यावत् पश्चसुं "च्यवनादिषु कल्याणकेषु नारकादोनखिलानसुमतो जगति मोदयन्ति । जिनत्वं च केवलिग्रज्ञप्तस्य 'धर्मस्याssधनादेवेति तूक्तमेवेति । विध्वस्ते मोहतिमिरे, निरुद्धे राग-द्वेषविषे, लब्धे च कल्याणव्यूहे न हि सर्वे जीवा अन्तकृतो · भवन्ति, क्षेत्रपल्योपमाऽसङ्ख्यांशसमयमानवाराःमोहतिमिरनाशेन सम्यक्त्वलाभसम्भवात् 'अट्ठ भवा उ चरिते 'ति वचनाश्चारित्रलाभेऽपि चरमशरीरित्वस्याभावात् यावदुपशममुपगतोऽप्यपार्श्वपुद्गलावर्त 'संसारसरणपरत्वादन्यशरीरित्वार्थमाह- कर्मवनविभावसु 'रिति । ‘वनस्पतय एंव वनस्पतिवृद्ध्यर्थमुप्यन्ते, न पृथ्व्यादयः, कर्माण्यप्यत्र कर्मत एव भवन्ति, 'तत "एव' कर्मत 'एव कर्मणः स्वकृतस्ये "ति भाष्यम् । 'किञ्च-वनस्पतय' उता अपि स्वजातिमनुरुध्यैव वृद्धिमायान्ति, नहि दग्धे 'वनस्पती साङ्कुरः स भवति, एवमत्राप्यनादित एव कर्मप्रवाहः । न च क्षीणेऽस्मिन् पुनस्तत्प्रादुर्भावः, अत एव च न "मुक्तानां क्षीण सर्वकर्मणां भवावतारः कर्मप्रपञ्चो वेति । वनस्पतौ हि साधारणं छिन्नमपि पुनरङ्कुरयति- शरीरं, परं दग्धं तु साधारण चा' 'प्रत्येकं यत् किमपि "शरीर 'भवतु, न प्ररोहति तथाऽत्रापि शामितं कर्म पुनरुद्भवति नतु क्षीणमिति । अपुनरुद्भवतया क्षयस्य साधनं समूल नाशः, स च वनस्पतेरग्निनैव सम्पाद्यते, कर्मणां काष्ठरूपाणामपि नाशः केवलिप्रज्ञप्तधर्मरूपाग्नेरेवेति सुष्ठुक्क 'कर्मवनविभावसु रिति । वृद्धिमाविष्टो यथा विभावसुः शुष्केण बनेन सहार्दमपि दहत्येव वनम् एवं केवलिप्रज्ञतो घमौऽपि (र्वकरण-क्षपकश्रेणि-समुद्घात-गुण-श्रेणिभिर्निकाचितान्यनिकाचितैः 'सह नाशयत्येव कर्माणि । यद्दा- ' “विपिनं काननं वन 'मित्युक्तेः कर्मणां काननेन साम्यमाख्येयम् । दावानलो हि “गित्यैवाऽनेकयोजनमानमपि वन (दहति), प्रसिद्धं चैतत् उत्क्षेपज्ञाते । तथा चानादिकालीनं कर्मवर्नर्मिव दुरुच्छेद्यं दुःखलभ्यपारं च तत् काननसमान कर्म एक एवाडलं दग्धुं भगवद्भिः केवलिभिः प्ररूपितो धर्मः, अन्ये हि धर्मा अनि भृगुपाताऽऽदिक मंज्ञानतप उपदिशन्तोऽकामनिर्जरा'मार्गमादिशन्ति 'लम्भयन्ति च ततोऽपर्धिदेवत्वम् परं सर्वकर्मक्षयसमर्थ द्वादशविधमनशनादितपस्तु - Page #105 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (६७) केंवलिंप्रज्ञप्त एव धर्म 'उपदिशति । तत्र सर्वकर्मवनस्य दाहं सकामरूपमपेक्ष्य सुष्ठूक्तं-" कर्मवनविभावसु' रिति । __ ये विशेषगुणोच्छेदरूपां वदन्ति मुक्ति, ये च नैराम्यवादेनेशते शून्यरूपां तां सत्त्वनिवृत्तेः स्नेहनिवृत्तिरिति वावदूकाः सुगतास्तेऽपि स्वधर्मं कर्मवनविभावसुतयाऽऽमनन्त्येवेति केलिप्रज्ञप्तस्य 'अवितथस्यापि विशेषणायाह " साधकः सिद्धिभावस्येति । ___ ननु जैनैरपि कृत्स्नकर्मविप्रयोगो मोक्ष' इति 'आत्यन्तिको वियोगस्तु देहादेमोक्ष इष्यते " इत्यादिभिर्वचोभिः कर्मनाशमात्रस्य मोक्षस्य सम्मतत्वात् कर्मवनविभावसुरित्येतावदस्तु, न पृथक् साधकः सिद्धिभावस्येति विशिष्टतेति चेत् ? शृणु . आत्मनः स्वस्वरूपेऽवस्थानं मुक्तिरिति सत्यपि मोक्षलक्षणे आत्माऽर्थाय कृत्स्नकर्मेत्याद्युच्यते, पुरुषप्रयत्नप्राप्यो हि कृत्स्नकर्मक्षयः, क्षीणेष्वशेषेषु च कर्मसु अभ्रपटलविलयनेन चन्द्रमसश्चन्द्रिका प्रसारवदात्मस्वरूपं तु निराबाधमवतिष्ठत एव, आवार्या(वरणा)भावे निरावरणस्वरूपस्याऽवस्थान नियमात् , आत्मा ह्यरूपिद्रव्यं, न चारूपिद्रव्यस्योत्पादो वा । उच्यते-' नाऽसतो जायते भाको . नाभावो जायते सत' इति । - न चाऽत्मद्रव्यस्य नाशायोपदेशः, न च कोऽपि तत्र यत्नोन च सम्भव इति नात्मनो मुक्तावभावो नाशो वा, ततो योग्यमुक्तं ' साधकः सिद्धिभावस्ये 'ति । तदनन्तरमूर्ध्व गच्छत्यालोकान्ता'. दिस्युक्तेः ' 'तत्थ गंतूण सिज्झई 'त्युक्तेश्चेषत्प्राग्भारशिलाया उपरि लोकाग्रमधिकृत्याऽवस्थानमेव, तन्निर्वर्तकश्च केवलिप्रज्ञप्तो धर्म एव । . ' 'किञ्चऔपमिकाऽऽदिभव्यखाभावाच्चान्यत्र सम्यक्खकेवलज्ञानदर्शनसिद्धत्वेभ्य' (श्री तत्त्वार्थ अ. १. सू. ४) इस्यादिप्रवचनोक्तमेव स्वरूपेण सिद्धत्वं, परं तत् सर्वेषु जीवेंषु स्वस्वरूपेणास्त्येव, न तूत्पाद्यम् । मांविर्भावोऽपि न यत्नसाध्यः, किन्तु प्रतिबन्धकर्मक्षयसाध्य इति “सम्यगेवोक्तं कृत्स्ने 'त्यादि तदनन्तर (श्री तत्वार्थ सू. अ. १. सू. ५)मित्यादि च । । दानाऽऽदिप्रवृत्तिधर्मवत् अनगाराऽगारधर्मवदनुष्ठानधर्मवन्नायं धमों निर्वयः सिंधिभावरूपः, किन्तु सम्यग्दर्शनेत्यादिनोंक्तोऽयमुपादानधर्मः सिद्धिभावः, न च निर्वय॑ते उपादानमिति, उच्यते च ... शास्त्रे-केवलज्ञान-दर्शनाऽनन्तसुख-वीर्याणां साधनत्वं तन्मयश्च सिद्धिभाव इति । स च साध्य केवलिप्रज्ञप्तेन धर्मेणैवेति-'साधक सिद्धिभावस्ये ति। केवलिप्रज्ञप्तो धर्म इति तु विशेष्य, :: न्यौजितं च तत्प्रतिविशेषणम् , न-वरं केवलज्ञानवानत्र केवली ग्राह्यो, नं श्रुताऽऽदिकेवली। ___ किञ्च-सर्वाङ्गोपाङ्गप्रतिपूर्णस्य केवलत्वं केवलकप्पं जंबूदीव 'मित्यादाविष्यते । अत्रापि मज्ञानांशलेशेनाप्यकलङ्कितमत एव च क्षायिकमाव प्राप्तं ज्ञानं केवलमित्युच्यते "समर्थ विशेषणमाकर्षति विशेष्य 'मितिन्यायाद् केवलिशब्देन केवलज्ञानवानत्र वाच्यः । Page #106 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (६८) किञ्च - क्षायिकेषु शुद्धस्वरूपेषु भावेषु निर्दिश्यमानेषु प्राक् तावत् केवलज्ञानमेव ज्ञानशब्देना - ऽऽदिश्यते, तथा च ज्ञानादिक्षायिकभावयुक्तेन पुरुषोत्तमेन प्रज्ञप्तो धर्म इति पर्यवसितम् । ' जावज्जीवं भगवन्तो सरण 'मिति त्रिष्वनुवृत्तमन्यत्र वचनव्यत्ययात्त्यज्यते वाक्यं, तत एव .' जावज्जीवं मे भगवं सरण 'मित्युच्यते । धर्मश्च दुर्गतिवारण-सद्गतिधारणफल अहिंसाऽऽदिभेदः संवर-निर्जर!रूपः सम्यग्दर्शनाऽऽदिमयोऽत्र केवलिप्रज्ञप्ततया ग्राह्यः । एवं हितोपदेशमयः सर्वज्ञक्लृप्तः पूर्वापरार्थ विरोधरहितो मुमुक्षुजनपरिगृहीतो धर्मोऽवश्यं शरणीकर्तुमर्ह इति तदर्थमाह- 'सरण' मिति । एतावता ' जावज्जीवं मे भगवन्तो ' इत्यादिना ' मे भगवं सरण 'मित्यन्तेन ग्रन्येनाऽर्हत्सिद्ध-साधु-धर्माणां अनन्यसाधारणया भक्त्या सेवनार्थं शरणं स्वीकृतं, परं जैने हि शासने गुणानां पूज्याऽऽराध्यत्वं गुणानां चाऽऽराध्यत्वं मुख्यया वृत्या सम्यग्दर्शनस्य शुद्धि-बुद्धि- पराकाष्ठाऽवस्थित्यर्थं क्रियते, परं पर्युपासना तु सावयत्यागाऽनवद्यासेवनाभ्यां क्रियते । भगवता श्रमणेन महावीरेण स्वपर्युपासनामार्गः पुष्पचूलायैष एवाऽऽदिष्टः, अतोऽयमपि भव्यः प्रतिपन्नचतुःशरणः सावयं गर्हणाऽथं 'तावदाह - ' सरणमुत्रगओ' य एएसिं गरिहामि दुक्कड 'मिति । गर्हाप्रवृत्तश्चाऽयं निर्मञ्चबोधः, ( धर्म लिङ्गेषु ' पापजुगुप्साऽथ निर्मलो बोध ' इत्युक्तेः निर्मलबोधयुक्तत्वाच्च) गर्हायास्त्रिधा विभागं करोति - आद्यं लोकोत्तराऽऽराध्यविषयं द्वितीयं लौकिकाऽऽराध्यविषयं तृतीयं च सामान्यविषयम् । iss विभागे तावदाह “ जण्णं अरिहंतेस्रु वा सिद्धेसु वा आयरिएंस वा उवज्झाएसु वा साहूस वा साहुणीसु वा अण्णे वा धम्मट्ठाणे माणणिज्जेसु पूयणिज्जेसु "त्ति । अत्र यदित्यस्याग्रे वक्ष्यमाणेन 'जं किंचि वितहमायरिय 'मित्यादिना ग्रन्थेन सह सम्बन्धः । परत्र स्थितस्य यत्किञ्चिच्छन्दस्य सामान्यं किञ्चिदित्यर्थस्तेन नात्र यच्छदप्रयोगस्य चिन्त्यता यदित्यनेन सामान्यं निर्दिश्य सर्वं दुष्कृतमाह[-- ततश्च न सूक्ष्म - बादराऽऽदिदोषः । णमिति वाक्यालङ्कारे । तथा चास्य तादृक् प्रत्नत्वं यद् यत्र काले वाक्यालङ्काराय लोके णंकारस्य प्रयोगो जायमान आसीत् । किञ्च - नियमोऽयं शास्त्रीयो यदुत निन्दा आत्मसाक्षिकी स्यात्, परं गर्हा तु परसाक्षिक्येव 'परसक्खिया हु गरहे 'ति वचनात् । ततोऽत्र 'णं' कारेण वाक्यालङ्कारार्थेन ज्ञापयति-यत् परोक्षानप्यर्हदादीनात्मना साक्षात्कृत्य तद्विषयकस्य वितथाचरणादे: ' करोमि गर्हा 'मिति । अतः एव. · तथाप्रयोजनाभावात् प्राक्तनेषु वाक्येषु न क्वाऽपि प्रयोगो णंकारस्येति । *M श्चरिहंतेसु'त्ति । यद्यपि 'गुरावेकथे 'त्यनेनैकस्मिन्नप्यर्हति स्यादेव बहुवचनं, परमत्र प्रागेव ' जे ए माइक्खंती 'त्यादिनाऽऽविष्कृतमेवार्हतां बहुत्वमस्ति । Page #107 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - किश्च-कालस्याऽनादित्वात् अतीता अनन्ता, अनन्तत्वाच्चास्यानंन्ता एण्यन्तोऽर्हन्तः, केवलं जैनमेव शासनमर्हदादिस्थानकानां परोपकारप्राधान्येनाऽऽराधनादाऽऽर्हन्त्यमुपाय॑ते इत्युपदिश्यों देवत्वमप्याप्यं सोपायमिति च निवेदयति, नैकेश्वरा जैना यतः इति । ... - अत्र च यद्यपि ' अरहंता-अरिहंता-अरुहंते 'ति पाठा दृश्यन्ते, परं ते सर्वे 'उच्चाहती त्यनेनार्हन्छन्दादेव निष्पन्ना इति । यद्यपि राग-द्वेषाधरीणां नामनात् इन्द्रियविषयादीनामरीणां घातात् सर्वजीवाऽरिभूतकर्माष्टकहननात् वन्दन-पूजन-सिद्रिगतिभ्योऽहत्वात् अर्हन्त इति निरुच्यते, परमहंधातोः पूजार्थत्वात् देवाऽसुरमनुजेभ्योऽशोकायष्टप्रातिहार्यादिपूजाया अर्हत्वादहन्त इति वक्तुं योग्यम् । - यद्यपि 'अगिलाए धम्मदेसणाईहिं 'ति नियुक्तिवाक्यं धर्मदेशनाफलत्वमर्हन्नाम्नः कथयति, तथापि तत्रस्थ आदिशब्दः पूजावाचक इति प्रातिहार्याऽऽदिपूजाया अर्हलमाईन्त्यमिति नाऽयोग्यम् । अत एव च श्रमणो भगवान् महावीरः तीर्थप्रवृत्तिशून्यमप्याद्यसमवसरणमलञ्चकार, तत्पूजाया जीतत्वादिति अर्हन्नामकर्मोदयाद्ह्याईन्त्यं, तच्च प्रत्यवसर्पिण्युत्सर्पिणि चतुर्विशतेरेव जीवानां, चतुर्दशमहास्वप्नसूचितावतारादिमन्तस्ते । - विनार्हनामकर्मोदयं रागद्वेषादिनामनास्तु सामान्यकेवलिनोऽपि। तेच 'केवलिणो परमोही 'तिवचनेन साधुपद एव, केवलिनस्तु प्रत्यवसर्पिण्युत्सर्पिणि असङ्ख्या एव । ततः स्थितमिदं यदुतअष्टमहापातिहार्यपूजायुता अर्हन्तस्तेषु । किञ्च-कर्मप्रकृतिषु जिननामकर्म, तच्च लोकानुभावात् (तृतीये) भवे बध्यते, तत्प्रभावाच्च च्यवनकल्याणकादय आर्हन्त्यनिबन्धना भावा सर्वेऽपि लोकानुभावादेव जायन्ते । अत एव चास्य निक्षेपचतुष्टयं तदुदयवज्जीवसमाश्रितं 'णामजिणा जिणाणामे 'त्यादिना गीयते । . तत्त्वतो नाऽत्र निक्षेपेण व्यवच्छेद्य-व्यवच्छेदकभावः, सिद्धपदादिषु नामसिद्धादीनां व्यवच्छेदेन भावसिद्धादयो गृह्यन्ते, तच्चाऽऽद्यस्य पदस्याऽऽर्हतानामितिरूपं विधाय आर्हतानां सिद्धानां यावदाहतानां साधूनामितिकृत्वा प्रतिपदमार्हतपदस्यानुवृत्तिं विधाय कार्यमिति, न तत्र लोकानुभावकं कर्म भावपदस्य वा न्यूनता गणनीयेति । । सिद्धाश्चात्र 'सिझंती 'त्यादिलक्षणाः 'सिद्धाणं बुद्धाण 'मित्यादिलक्षणा 'असरीरा जीवघणे 'त्यादिलक्षणा वा सिद्धानन्तज्ञानादिचतुष्टया ग्राह्याः। आचार्याश्च सिद्धयजिनार्पितशासनस्वामित्वाः पञ्चाऽऽचारप्रवर्तका, नियमपूर्वकद्वादशाङ्गाध्यापका उपाध्यायाः। . ...: Page #108 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (७०) .. स्वजनाऽऽदिपक्षपातवर्जिततया निर्वाणमार्गसाधकसमुदायसंयमसहायकराश्च . ग्राह्या अन साधवः। यद्यपि साध्वीवर्ग उपलक्षणव्याख्यानेनाऽऽचारप्ररूपणादिषुः गृह्यते, परमपराधक्षामणाय महाप्रवृत्तो भव्यः क्षामणाय ता अपि स्वतन्त्रतयोचिरे, पाक्षिकाऽऽदिषु सकलसङ्घक्षामणा क्रियत एव च । अन्यच्च नेदं नग्नाटीयं, तत्र साध्वीवर्गस्य प्रवृत्तेरेवाभावादिति ज्ञेयम् । न केवलसेत एवाऽईदादयः पूश्या आराध्याश्चेति, परान् तथाविधान् दर्शयन्नाह ___ 'अण्णेसु वा पूयणिज्जेसु माणणिज्जेसु वे 'ति । अहंदाद्यतिरिक्ताश्च सामान्येन धर्माः चार्यादयो ग्राह्याः यतः प्रतिक्रमणारम्भे 'भगवान' ति शब्देन गृह्यन्ते, अत एव धर्माचार्याः पाक तीर्थकृतां चैत्यवन्दनेन वन्दितत्वात्, परमेष्ठिपदगता आचार्याऽऽदयश्च ‘आचार्यह' मित्यादिना गृहीता एवेति । यद्वा-अत्राऽऽम्नायाचार्यादीन् अन्येष्वित्यादिना गृह्णन्तु । श्रमणोपासकास्तु वृद्धश्रमणो पासकादीन् पूज्याऽऽराध्याऽपरपर्यायमाननीय-पूजनीयान् गृह्णीयुः, गुणाधिकानां पूज्याऽऽराध्यत्वात् । अत एव चक्रवर्तिना भरतेनाराद्धाः श्रावकाः, रक्षितकुमारेण च न ढड्ढरश्रावकाय प्रणामादि कृतं, तेनाऽभावितावस्थः श्रावकस्तोसलिपुत्राचार्यमा॑पित इति । . यद्यप्यत्र सम्यग्दर्शनाऽऽदीनां ग्रहणं योग्यं, परं ते गुणरूपा इत्याराध्या, मूर्ती नेति पुज्या न, ततश्च निन्दायां तदतिक्रमस्य विषयो, न गर्हायामिति सम्भाव्यते । एवं लोकोत्तरानाप्तानभिधाय लौकिकान् आप्तान वितथाऽऽचरणादिविषयभूतानाह 'माईसु वा पिईसु वा वंधूसु वा उवयारीसु वे 'ति । ... यथैव लोकोत्तरा आप्ता अभिगमन-वन्दन-नमन-बहुमानाऽऽदिना आराध्यास्तथैव लौकिका अप्याप्ता एते त्रिसन्ध्यनमनक्रियादिनाऽऽराध्या एव ।। .. अत एवाऽऽद्यश्चक्री ननामाऽम्बां मरुदेवां, वासुदेवोऽन्त्यश्च निजजननी देवकी, चतुर्बुद्धिनिधानोऽभयश्च स्वपितरं श्रेणिकराजं नमश्चक्रे इति श्रुतैतिचं, श्रीस्थानाङ्गसूत्रे च भर्तुर्धमोपदेश: वमाता-पित्रोदुष्प्रतीकारता अपि सविस्तरं वर्णिता दृश्यते । 'दुष्पतिकारौ मातापितराविति श्री उमास्वातिवाचका अप्यूचिरे । मात्रादिसम्बन्थ्यौचित्यं धर्मोपदेशमालातो ज्ञातव्यम् । तदतिक्रमण योऽपराधो जातस्तस्य गर्दाऽत्र विधीयते, पूर्वानुपूर्या उपकारमहत्ता, तत एव च क्रमो मात्रादिकः । .. यद्यपि माता पित्रधीना, परं गर्भधारणादिभिर्महोपकारिणी मातैव । अत एवोच्यते " पितृपात. तु शतं माता गौरवादतिरिच्यते " इति । Page #109 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (७१) एवं लोकोत्तरे-तराऽऽसजनेष्वपराधक्षामणं कृत्वा तृतीयं सामान्यविभागमपराधक्षामणायाह'ओहेण वा जीवेसु मग्गटिएमु अमग्गटिएसु मग्गसाहणेसु अमग्गसाहणेसुत्ति । यद्यपि मार्गशब्देन सम्यग्ज्ञानदर्शनचारित्रात्मको व्यवहारः शास्त्रे गृह्यते, परमत्र 'ओघेन वा जीवे 'वितिवचनात् लौकिकव्यवहारमार्गो रोचनीयो राजाऽमात्यादिकः, अतो मार्गस्थिता राजाऽमात्यादिकाः प्रजापालनमार्गस्थाः, अमार्गस्थिताश्च शिल्प-कर्म-क्रय-विक्रयाऽऽदिकारिणो राजकुलव्यवहाराद् बहिर्गताः, तवयव्यतिरिक्तान् जनानाश्रित्याऽऽह-" मार्गसाधनेष्वि "ति।। राजकुलाऽऽश्रितेषु चतुरङ्गसैन्यादिसंश्रितेषु, अमार्गसाधनेषु च शिल्पकर्माद्युपष्टम्भकजनेषु चेति, न चैतच्चतुष्टयव्यतिरिक्त ओघजीवसमूहो यो गर्दाविषयः स्यादिति । . यद्वा-नैतच्चतुष्टयव्यतिरिक्तो जीववर्ग एव नास्तीति, आटव्यादयोऽपि सन्ति, अपराधस्तु तेषामपि क्षम्य एव, परं ते व्यवहाराविषयाः इति न गृहीताः । प्रोक्तचतुष्टयविषये किमित्याह-'जं किंचि वितहमायरियं 'ति । अत्र यद्यपि 'जण्ण 'मित्युपक्रम एव यच्छब्देनोपक्रान्तं तथाप्यत्र यत् यत्किञ्चिदित्युच्यते, तत् यत्किञ्चिदित्यस्याऽखण्डस्य किञ्चिदर्थे सम्भवात् । यद्वा-'जं ण 'मित्यत्र यच्छन्दोऽव्ययं, सप्तम्यन्तं च तत्, ततो ये वर्हदायेषु पूज्याराध्यादिष्विति योजयित्वा व्याख्येयम् । तस्स मिच्छामि दुक्कड 'मिति तु समानमुभयत्र । किं कृतस्य गर्हेत्याह-'यत्किश्चिद् वितथमाचीर्णमिति'। लोकोत्तरेषु अहंदादिष्वाप्तेषु, लौकिकेषु मात्रादिषु, ओधेन मार्गस्थितादिषु च यद्यत् तेषां भूमिकामाश्रित्याचरणीयं तत् नाचीर्ण विपरीतं वाऽऽचीर्णं, तस्य वितयत्वमवबुध्याधुना तत् सर्व गर्दै इति सम्बन्धः । कीदृशं वितथमित्याह-' अनाचरणीय' मिति, यतो वितथमपि । 'उत्पद्यते हि साऽवस्था देशकालामयान् प्रति । यस्यां कार्यमकायं स्यात्, कर्म कार्य च वर्जये 'दितिवचनात् । 'नैकान्तात् कल्पते कल्प्य' मित्यादिवचनादप्याऽऽचरणोयतामापद्यते, न च तत्कार्य प्रतिक्रम्यमित्युक्तमनाचरणीयमिति । आचरणाया अयोग्यं यत् , तथा च अर्शादीनां छेदे आचार्यादीनां पादस्पर्शे च जातस्यापराधस्य क्षामणौचित्येऽपि न तच्छेदनं स्पर्शो वा निन्धः, आचरणौयत्वादेव हेतोरिति । क्षिप्त-चिंताद्यवस्थायामनाचरणीयस्यापि बन्धादेरेष्टव्यत्वादाह-'अनेष्टव्य ' इति । य माचारस्तत्तद्विषये विधातुं कथमपीच्छायोग्यो न भवेत् तद्वितथमाचीर्ण गर्ने इति तत्त्वम् । १० Page #110 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (७२) गर्दाहेतुमाह-'पापं पापानुवन्धी' ति । हिंसाऽऽदीनां गण्यमानानामष्टादशानां पापस्थानानामन्यतमत् पापं पापस्थानमित्यर्थः । . हिंसाऽऽदीनि पापस्थानान्यपि अप्रमत्तानामनारम्भकत्वादेव पापस्थानाऽनुबन्धकानि न भवन्ति, अप्रमत्तानां सत्यप्यारम्भेऽङ्गिनां पापबन्धस्याऽभावादिति पुनराह 'पापानुवन्धी' ति । न प्रशस्तक्रोधादिवत् स्वरूपेणैव पापं, किन्तु प्रमत्तहिंसादिवत् स्वरूपेणानुवन्धेन च यत् पापं तत् वितथमित्यादि। जैनं हि शासनं हिंसितव्यो न कोऽपीत्यादिवदनशीलमिति न तत्र सूक्ष्मस्याऽपि पापस्याऽस्त्यनुज्ञेत्युक्तं-' सूक्ष्मं वा वादरं वेति । एवं च 'जीवो जीवस्य जीवन' मित्याद्युक्त्वा यदन्यशासनेषु हिंसाद्यनुज्ञानं क्रियते, तत् नाऽत्र शासने, अत्र तु शासने प्रशस्तानामपि पापानां प्रतिक्रमणीयता । अत एव जिनार्चाऽर्थस्नानादिजातस्याऽसंयमस्याऽर्चाजन्येन शुभेन शोधनीयतोक्का । तथा च । पूजाऽऽदिपु स्वरूपतोऽपपापस्य भावेऽपि कालाऽन्तराऽवेद्यत्वादेकान्तनिर्जरारूपत्वम् । तत एव च त्रिविध-त्रिविवविरतानामपि सा उपदेशविषयो भवति, धर्मस्य च कपच्छेदतापैः परीक्षायां पापानां सर्वेषां सर्वथैव प्रतिपेधः कषतया गीयते, धर्मश्च जैनस्त्रिभिः कप-च्छेद-तापैः शुद्ध एवेति । तत्र सर्वमपि पापं निन्द्यमेव । ततः सुष्ठ्वेवोक्तं- ' गर्दै सूक्ष्म वा बादरं वे 'ति । ___ पापं च बद्धमेव, ज्ञाननादीनां पापप्रकृतीनामबद्धत्वाभावात् । बन्धश्चाऽऽश्रुतानां कर्मणामेव, नाऽनर्जीऽऽश्रुतानि बध्यन्ते कर्माणि, आश्रवश्च काय-बाङ्-मानस-कर्मैव 'मनोवाकायकर्मयोगः; सं आश्रव' (श्रीतत्त्वार्थसूत्र अ. ६ सू. ८-९) इति वचनात् । योगानां प्राप्तिर्यद्यपि काय-वाङ्-मानसक्रमेण, पर्याप्तीनां तथाक्रमत्वात् , परं यथाक्रमं गुर्वाssश्रवत्वाद्योगानां काय-बाङ्-मनःक्रमेण । अत एव कर्मबन्धेवेकेन्द्रियाऽऽदिभेदेनाऽपि कर्मबन्धस्थित्यादिनां भेद आमतः । अत्रापि तत्क्रममाश्रित्याह-'मनसा वाचा कायेने ' ति । १. अत्र "स्नानादी जातस्येति व्युत्पत्तिरत्र ज्ञेया, न तु स्नानादिना जातस्येति व्युत्पत्तिः । स्नानादेरसंयमस्वरूपत्वादेव जातपदवंयर्यप्रसङ्गात् , यथा विधिकरणीयस्नानादौ अज्ञानाऽनाभोगादिना असंयमस्योत्पत्तिसंभवादन "जात" पदमुपन्यस्तं ।। २. स्वरूपता-अर्थात् यथार्थदृष्ट्या न पापत्वम् , इत्येतद्धि सम्यक् संप्रचार्य मनसि जिनपूजादौ द्रव्यस्तवस्य किमित्पापमयत्यमप्पु प्यतेऽल्पजर्मूढतमैरिति । ३. आश्रयेणागतानामित्यर्थः । ४. आश्रयेण अनागतानि इति । Page #111 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (७३) . । न हि कश्चिदप्यङ्गी व्यतिरिच्य योगत्रयीमाशणोति कर्म बध्नाति वा पापम्, तत एव भगवता सिद्धानां भवाऽवतारस्याऽभावः, तेषां योगाऽभावादाश्रव-बन्ध-वेदनानामभावः ।. पापस्य ह्याश्रवोsशुभयोगादिह जायते, 'अशुभः पापस्ये ' ति (श्री तत्त्वार्थ सूत्र अ. ६ सू. १०.) वचनात् । ततोऽनुक्तमपि प्रकरणात् मनआदीनामशुभत्वं ग्राह्यम् । तथा चाशुभेन मनसा वचसा कायेन च यत्पापं पापानुवन्धीत्यादि ज्ञेयम् । यथा चान्यतीर्थीयाः अव्रतादीनामाश्रवतां नाऽभ्युपगच्छन्ति, तथा केवलं कृतं स्मरन्ति पापं, 'कृतकर्मक्षयो नास्ती ' त्याद्युक्तेः, न तथा जैनाः, किन्तु ते 'योग-कृत-कारिते! त्यादिवचनात् त्रिविधयोगवत् करणान्यपि त्रीणि कृताऽऽदीनि पापहेतुषु अभ्युपगच्छन्तीत्याह 'कृतं वा कारितं वा अनुमोदितं वे 'ति। पापबन्धप्रमाणं च न मनोयोगादिवैषम्येण, किन्तु कृताऽऽदिषु यत्राऽपि सङ्कल्पस्याऽशुभस्य तीव्रता, तत्र तीव्रः पापानुवन्धः । _अतः सङ्कल्पितहिंसस्य तन्दुलीयकाऽऽदेः सप्तमश्वभ्रे पातः, कुशलानुबन्धकर्मकारिणश्च जीवा घोर-रणसभामाऽऽदिषु विषयेषु च प्रसक्ता अपि शर्करामक्षिकावलब्धास्वादा अप्युदयनवत् अपवर्ग साधयितुं समर्था भवन्तीति । ____योगाः करणानि च पापमाशृण्वन्ति, परं तस्य प्रातिकूल्येन ज्ञाननादिरूपेण वेदनं बद्धस्यैव सतो भवति, बन्धश्च कर्मगामाश्रुतानामपि अनभिव्यक्ताऽप्रोति-परपर्यायद्वेषरूपाभ्यां-क्रोध-मानाभ्यां तथाभूतप्रीति-परपर्यायरागरूपाभ्यां (माया-लोभाभ्यां) मोहाऽपरपर्यायस्य मिथ्यात्वस्य साहाय्येनैव बन्धोऽनुबन्धिता चेत्याह-'रागेण वा दोसेण वा मोहेण वे 'ति । __ क्रमेणैतेऽल्पाऽल्पव्याप्तिकाः दुःखोच्छेद्याश्च पश्चानुपूर्येति । तदेवं विषयस्वरूपं कारणं चोक्त्वाथाऽपरमाह । 'इत्थ वा जम्मे जम्मंतरेसु वेति । अत्र चात्र वा जन्मनीत्यनेनैतस्मिन् भवे आबाल्यावदाचरितं तं गर्हते. पश्चाच्च जन्मान्तरीयाणि दुष्कृतान्यपि 'जन्मान्तरेषु वे ' त्यनेन गर्हते । न च जन्माऽन्तरकृतानां दुष्कृतानां गर्हणमयोग्यमेव, यतः कानिचित्तु दुष्कृतानि तज्जन्यकर्मविपाकपरिभोग-निर्जराभ्यां नामशेषाणि जातानि, नहि श्रेणिकभवे कृतस्य प्राणिवधस्य निकाचितनरकगतिहेतोरप्यंशलेशः पदमनाभभवे भवेदिति वाच्यम् । " इहभवियमण्णभवियं मिच्छत्तपवत्त १. आश्रवप्राप्तानामित्यर्थः । Page #112 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (७४) जमहिगरण "ति चतुःशरणवचनात् " यच्च दुश्चरितं किश्चिदिहाऽन्यत्र च मे भवे" युपमित्युक्तेर्भवान्तरकृतानां वेदितविपाकानामप्यशुभरूपत्वाद् गीत्वे न काचिद् बाधा । ___ तत्त्वतस्तु ' सवाऽवि हु पयजा णियमा जम्मंतरकयाण '-मित्यादिवचनात् भवाऽन्तरगतमपि पापं गाँ-तप-संयमादिभिःछेधमेव, परं प्रायश्चित्तविशेषाणां विवेकाऽऽदीनां प्रवृत्तिरैहभविक एव प्रायश्चित्ते इति विवेकः, अन्यथा गोशालकमख्याणां जन्माऽन्तरकृतमहापाप्मनां प्रवजितत्त्वेऽपि तत्संसर्गे पूर्वभवीयतन्महापापस्याऽनुमतिदोषाऽऽपत्तिरिति । चतुर्णां शरणमुपगतो 'गर्हे दुष्कृत ' मितिपूर्वोक्तोपक्रमसूत्रेण योज्यमिति । ईर्यापथिक्यादिषु प्रतिक्रमणेषु 'तस्स उत्तरीकरणेण' मिति सूत्रेणोत्तरीकरणवदत्रोत्तरीकरणार्थमाह-'गरहिअमेयं दुक्कडमेयं उज्ज्ञियव्चमेयं ति । गर्हाया निष्ठाकालं दर्शयन्नुत्तरकरणमाह-'गर्हितमेतदिति । लोकोत्तराऽऽप्ताऽहंदादिषु यद् इति तथाऽऽचरणादि तत् सर्वं गर्हितं मया, न चैषा द्रव्यगहेंत्याह'दुष्कृतमेतदिति । सर्वस्यैतस्य पापरूपतां ज्ञात्वैव सर्वमेतद् गर्हितम् । तथा च नैषा द्रव्यगर्हा, किन्तु भावगर्हेति । ___केदारमृत्स्नाखण्डघातमारितबलीवर्देन विप्रेण महाजनस्य समक्षं स बधो गर्हितः अभ्युपगतश्च दुष्कृततया, परं तस्मिन्न क्रोधानुबन्धं जहौ तद्वन्नेदमित्याह-उज्झिअमेअंति, कृतस्याऽनुबन्धव्यवच्छेदेन घ्युत्सर्जनं कृतमित्यर्थः। ' सर्वेऽप्यथास्तिक्यवादिनः पापस्य जुगुप्सायामेवामनन्ति श्रेयः परं पापस्य बोध एव न सर्वेषामेषां, तेन स्व-स्वशास्त्रेषु कल्पितानां पापानां परम्परामुद्भाव्य कल्पितमेव, प्रत्युताऽऽमनो दुर्गतिपातकारणमेव स्यात्, कर्तुस्तादृशं निवारणोपायं निर्दिशन्ति, स्वल्पा एव च जीवा यथार्थमास्तिक्यमार्गमागता हिंसादीनां यथास्थितानां पापानां पापतया श्रद्धानमधिश्रयन्ति । अत एव जोवादीनां तत्त्वानां यथार्थतया श्रद्धानस्य सम्यक्त्वगुणाऽऽवहत्ववत् पापस्यापि यथार्थस्य तत्त्वतया श्रद्धानं सम्यक्त्वाssवहं गीयते। किञ्च पापं हि कर्म, कर्म चाऽऽत्मपरिणामानामधमत्वेनाप्यङ्गीकरोति, आत्मनां ज्ञान एव च तेषामघमा दशा, तदुत्पन्नं पापं च यथार्थतया ज्ञायते, तादृशं ज्ञानमतीन्द्रियार्थदर्शिनामेव । ततो यथावस्थितं पापस्य ज्ञानमेव नाऽतीन्द्रियाऽर्थदर्शिनं विना भवति । परेषां तु तद्वाक्यामृतश्रवणेनैवेति सर्वमेतन्मनसिकृत्याह-' विज्ञातमेतन्मया कल्याणमित्रगुरुभगवद्वचनादिति । शास्त्रेषु हि 'सवणे णाणे य विण्णाणे 'त्ति क्रमात् 'सुच्चा जाणइ कल्लाण 'मित्याांच Page #113 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (७५) विज्ञानं श्रवण-ज्ञानपूर्वकमेव भवति । ततो विनयाऽऽचारादिविधिना श्रुतं गृहीतं पश्चात् 'बीए झाणं 'ति वचनात्तदधीतं निश्चितीकृतं कृत्वा सुविनिश्चियं फलपर्यन्तस्यैव सम्यग्ज्ञानत्वमित्यवगतं विज्ञानेन । अत एवोज्झितमित्यादि प्राकू प्रदर्शितं फलं मत्वाऽत्र विज्ञातमित्याह यावदुक्तमुज्झितव्यखाऽऽदितया तत् सर्वं विज्ञातं नात्र मत्कल्पनाया अंशोऽपीति एतदित्याह - ' मये 'त्यनेन साक्षान्मया श्रुत्वा विज्ञातं वक्ष्यमाणस्वरूपाद् गुरोर्न तु पर्षद् उत्थिताया इत्याह कीदृशाद् गुरोर्भगवतो विज्ञातमित्याह - ' कल्याणमित्रगुरु भगवदिति । यद्यपि मातापितेत्यादिना गुरुशब्दो गुरुवर्गं वक्ति, तथाऽप्यत्र तु शास्त्रार्थानामुपदेशकाः 'स्वयं परिहार 'इति न्यायसूत्राच्च हेयानां परिहारं कृत्वा तथोपदेशकाः सुविहिता गुरुतया ग्राह्याः । तत्राप्यऽगीतार्थाः पार्श्वस्थाद्यवस्थाssपन्नाश्च 'पहंमि तेणगे जहे 'ति वचनादकल्याणमित्ररूपा गुरवः, गीतार्थाः संविशाश्च कल्याणमित्राणि, तेभ्य एव सम्यक्त्वाऽऽदिस्वरूपस्य मोक्षमार्गस्याडघिगमादिति योग्यमेवोक्तं- 'कल्याणमित्रगुरु भगवद्वचनाद् 'इति । 'आणोहे गाणं ते 'त्यादिवचनाद् विज्ञातमपि कल्याणमित्रगुरु भगवद्वचनमकिश्चित्करमेव कालेनैतावताऽनधिगमात् सिद्धेरित्याह - ' एवमेयंति रोइयं सद्धाए 'ति । तत् कल्याणमित्रगुरुभगवद्वचनं विज्ञातमात्रं न, किन्तु यथा गुरुभगवन्तो हेयानुपादेयांश्चार्थानादिशन्ति ते तथैव न तत्र सन्देहकणोऽपि । न चैतत् श्रवणगोचरमात्रमेव कर्तुमर्हं गुरुभगवद्वचनं, किन्तु यथायथं प्रवेदिताऽनुसारेण हातुं हेयानामुपादातुमुपादेयानामुपयोगपरं कर्त्तव्यतापदं च परमतदेवेति श्रद्धया रोचितं गुरु भगवद्वचनम् । तत एव सर्व लोकोत्तर - लौकिकाप्त सामान्यजीवगतं च वितथाचारादिकं उज्झितं गर्हितं चेति । गयाः परसाक्षिकनिन्दारूपत्वात् गर्हणीयदोषविषय इति मनसाऽईदायनध्यक्षीकृत्य कृता गर्हा, परं ' अरिहंतसक्खिय 'मित्यादिवचनादर्हतां सिद्धानामपि गर्हायां मुख्यसाक्षिकत्वादाह - 'अरिहंत - सिद्धसमक्खं गरहामि अहमिणं 'ति । जैनत्वसिद्धिहेतुदेवरूपतत्त्वद्वयं साक्षीकृत्य ब्रवीति - अर्हत्सिद्धसमक्षमिदं गर्हेऽहमिति, उपलक्षणत्वाच्च साधु - देवा अपि गर्हायां साक्षिणोऽवगन्तव्याः । ध्मथ गर्हाया उपसंहारं कुर्वन्नाह - ' दुक्कडमेयं उज्झियव्वमेअं 'ति । श्रीमदर्हदादिविषयं यद् तथाssचाराऽऽदि तत् सर्वं दुष्कृतरूपं, न मनागपि दुष्कृतत्वस्वीकारस्याभावस्तत्र । अत एव च सर्वथा उज्झितव्यमेतत् न तत्सर्वत्यागे सन्देहलेशोऽपीति । अथ समग्रं गर्हाऽधिकारमुपसंहारमानयन् राजनीति - लोकव्यवहारादिषु त्रिःकृतस्यैव सम्यक्कृतस्वस्वीकारादाह ‘ त्रिः कृत्वः' इत्थमिच्छामिदुक्कडं ' इति । Page #114 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (७६) ... गर्दास्य कृतायां गायां उज्झिते च तस्मिन् शास्त्रसिद्धे न प्रायश्चित्तपदेनैव शुद्धिरित्युक्तम्मिच्छा मि दुक्कडं 'ति । ... यद्यपि अस्य पदस्य ‘मिति मिउ मदवत्ते' इभ्यादिः निरुक्तोऽस्त्यर्थः, परं. पदार्थस्तु मया यत् कृतं तद् दुरितमिति स्वीकरोमि, तस्य फलं मा मम भूदिति ज्ञापनपुरःसरं वाक्यप्रयोगो 'मिथ्या मे दुष्कृतमिति । प्रतिक्रमणं चेदं, पापानां शोधकं च तत् द्वितीयं निर्जरायां प्रायश्चिताद् मिति, कृतानामधानां क्षयस्याऽभावे तु सर्व तपआदि धर्मकृत्यं वृथा स्यात् , ततः स्वीयपापशुद्धये योग्यमुक्तम्-'मिथ्या दुष्कृत ' मिति । - अनुबन्धाऽव्यवच्छेदार्थमाह-' होउ मे एसा सम्म गरिहा, होउ मे होउ मे अकरणणियमो, बहुमयं ममेयं 'ति । यथा परेपां विषय-सतताभ्यासानुवन्धप्रकाराः तथा शासने जैने हेतु-स्वरूपाऽनुबन्धाः त्रयः प्रकाराः । तत्र गर्हादुष्कृते. योगाद्या हेतब उक्ताः, लोकोत्तराऽऽत्माऽऽदिषु वितथाssदिषु वितथाऽऽचरणाद्युक्त्वा तत् अर्हदादिसमक्षं गर्हितमिति हेतु-स्वरूपयोरुतत्वाद् अनुवन्धाsव्यवच्छेदार्थमेवेदं भवतु ममैषा सम्यग् गर्हेति। - केचनाऽज्ञा गर्हाया अभ्यन्तरतपोरूपतया महानिर्जराङ्गत्वं, गर्हायाः स्वरूपतः अतिमुक्तादिवत् महाफलप्रापकत्वमाविष्कृत्य अप्रायश्चित्तस्य गह्रया अविषयत्वाद् गर्थिमेव गर्दा विषयपापकरणस्य इष्टतात्माचक्षते; कुर्वते ते च तदपेक्षया तत् परं नैतत् सम्यग्, तथाकारिणां हि मृषावादितादोपभाजनत्वमाम्नायते, तत् सर्वं मनसिंकृत्याऽऽह असौ भवतु मे अकरणनियम इति । कृता चैषा न वेष्ट्यादिकल्पा यथोक्तफला, किन्तु स्वपरिणतिक्षालनजनितैवैषा यथोक्तफलेल्युक्तम्-वहुमतं ममैतद् वितथाऽचरणादीनां गर्हणादीति । तदेवं तथाभव्यत्वपरिपाकसाधनेषु भवितुकामेन कर्तव्येषु च त्रिपु वस्तुपु चतुःशरणगमनदुष्कृतगर्दारूपं वस्तुव्यमुक्तं, शेषमथ सुकृतानुमोदनाऽपरपर्यायं सुकृतसेवनावस्तु वक्तुकाम इदमाह- 'इच्छामि अणुसद्धिं 'ति । . . ' ' यथा आत्मादयोऽजीन्द्रियार्थाः केवलमात्रज्ञेयाः तद्वदेव आत्माऽध्यवसायसमुत्था पुण्यादयोऽप्यर्थाः तज्ज्ञानज्ञेया एवेतिकृत्वा ‘सुच्चा जाणइ कल्लाग 'मित्यार्पाच्च अहंदाद्यनुशास्तिमन्तरा सुकृतानामेव ज्ञानाभावादाह-इच्छाम्यनुशास्ति' मिति । . अनेकविधत्वेऽपि अहंदाद्यनुशास्तीनामत्र प्रकरणानुगुण्यार्थं सुकृतसम्बन्धिनीमनुशास्तिमिच्छामीति ज्ञेयम् । Page #115 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (७७), .. यद्यपि 'पुण्यं सत्कर्मपुद्गला' इतिवचनाद् अवध्यायतिशायिनो विदन्त्येवं पुण्यं परमंत्राधिकृतं शुभाऽऽत्माध्यवसायरूपं न विदन्त्येव, अमूर्तव्वात् तेषाम् । ........ किञ्च-गर्हणीयं दुष्कृतं केवलं स्वकृतत्वात् ज्ञेयं सामान्येन स्वभावतः सर्वैः, परमत्राऽधिकृतं तु ' अर्हत्त्वादिरूपमिति गम्यम् । अनुशास्तेवेत्यादौ तामिच्छति 'इच्छामी ' त्यादिना, केषामनुशास्तिमित्याह-' अर्हतां भगवता' मिति । द्वादशाङ्गमपि प्रवचनमर्थाऽपेक्षया तैरेव प्रणयनात् तेषामनुशास्तिमिति । , न च वाच्यमर्थाऽपेक्षया द्वादशाङ्ग्या नित्यत्वाद् कथं तदपेक्षया अर्हर्ता भगवतां प्रणयनेन । कर्तृत्वमिति, लोकसिद्धि-जीवादयो ये वाच्याः पदार्था, ते न केनचित् कृता इति द्वादशाझ्या वाच्यं नित्यमेव, परं तेषां लोकाऽस्तिखादीनामर्थानां प्रणयनं तु भगवन्तोऽर्हन्त एव कुर्वन्ति, ततोऽर्थनिरूपणचण-वचननिरूपणप्रवणतया अर्थप्रणयिनोऽर्हन्त इति । . . . एवमर्थाऽपेक्षया आत्माऽऽगमवतामर्हतामनुशास्तिमिष्ट्वा अधुना अर्थाऽऽगमापेक्षयाऽनन्तरपरम्पराऽऽगमवतां सूत्रापेक्षया चात्मा-नन्तर-परम्पराऽऽगमरूपत्रिविधाऽऽगमवतां भगवतां कल्याणमित्राणां गुरूणानुशास्तिमिच्छन्नाह-' गुरुणं कल्लाणमित्ताणं 'ति । गुरुशब्द-कल्याणमित्रशब्दौ च पूर्ववत् , चकारस्य द्योतकाऽव्ययत्वात् अहरहरित्यादिवदत्राध्याहारः, ततश्च द्वयानामेषामनुशास्तिमिच्छामीति सण्टङ्कः । अनुशास्तिश्च नैकशः संसर्गमात्रेणाऽऽप्येत, आप्तेऽपि च तथाविधज्ञानिसंसर्गतः सा नाऽवतिष्ठते परमार्थज्ञातृमहापुरुषाणां प्रतिदिनं सेवामन्तरेण । अत एवोच्यते-'सुहगुरुजागो तव्वयणसेवणा आभवमखंडे 'ति 'प्रत्यहं धर्मश्रवण 'मित्यादि । ततस्तादृशप्रावचनिकपुरुषाणां प्रतिदिनं संसर्गाथै तत्प्रार्थनामाह-"होउ मे एएहिं संजोगो 'ति । एतदः समीपतराऽर्थवाचकत्वादेतैः-समीपतरमुक्तैरर्हद्भिर्भगवद्भिर्गुरुभिश्च कल्याणमित्रः सर्वकल्याणमूलत्वात् सर्वासु प्रार्थनासु एतैवाऽहंदादिभिः संयोगस्य या प्रार्थना सा सुप्रार्थना । तत आह-'होउ मे एसा सुपत्थणे 'ति । अत्रोपलक्षणात् स्यात् सिद्धानां ग्रहणमर्हद्वदेवाऽन्यूनाऽतिरिक्तदेवस्वरूपकत्वात्तेषां, परमेष्ठिपञ्चके तेषामर्हद्भिः सहोचाराच्च, परं भवाऽतीतत्वेनाऽशरीरत्वात् संयोगस्तैन भवतीति पूज्यानामप्येषां नाऽत्रोपलक्षणतया ग्रहणं, गुरु-कल्याणमित्रशब्देन चाऽऽचार्यो-पाध्याय-साधुरूपं पदत्रयं परमेष्ठिगतं गृह्यत एव । .. यद्यप्युभयावधारणेन सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्र-तपांसि धर्मः प्रतिवन्धककर्माऽपगमप्राप्यमोक्षहेतुतया च सम्यग्र्शन-ज्ञान-चारित्राण्येव मोक्षमार्गः, परं स धमों मार्गश्च नाऽऽधेयमन्तरेण स्वतन्त्र Page #116 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ७८ ) तया मूर्त्तत्वाद्भवतः, अतस्तत्त्वतः परमेष्ठिपञ्चक एव धर्मस्तद्गतत्वाच्च तत्संयोग एव धर्मस्य संयोग इति चेतसिकृत्याऽर्हदादिसंयोगप्रार्थनाया एव सुप्रार्थनात्वमभिमतम् । एवं चात्र सम्यग्दर्शनाऽऽदीनाम् आराध्यत्वं, पूज्यत्वोपेतं तु परमाराध्यत्वमर्हदादीनामेवेति पूज्याऽऽराध्योभयधर्मवतामर्हदादीनां संयोगप्रार्थना, तस्या एव सुप्रार्थनात्वं चेति । यद्यपि अर्हदाद्याः परमेष्ठिनो जगतः समग्रस्यापि कल्याणाssवहाः यथास्थिता जगद्गुरवश्च, यतस्त एवाऽऽष्टादशदेश्यभाषाव्यामिश्रयाऽर्धभागध्या जीवादितत्त्वनिर्देशकाः, येनाssवालगोपालं तखमार्ग प्रतिपद्यन्ते, परंतु कतिचिद्विद्वद्गम्यया संस्कृतया तत्वमाचक्षाणां न जगद्गुरुत्वमार्गेऽपि । परं न ते परमेष्ठि विद्यमानमात्रत्वेन जगतः कल्याणावहाः, किन्तु भक्ति बहुमान पूजाssदिविषयं प्रापिता एव कल्याणाऽवहाः । अत एव च महत्त्वेऽप्यर्हतां तेभ्योऽपि भक्त्या दिरतिशयेन महत्त्वम् । तत एवं परमेष्ठिमन्त्रे ' नमोऽर्हद्भ्य' इत्यादौ नमस्कार्येभ्यो नमस्कारस्य प्राक् पाठः । अत एवं प्राप्याह - ' होउ मे इत्थ बहुमाणो 'ति । चहुमानश्चान्तरः, प्रतिबन्धः, सत्येवाऽस्मिन् सेवा भक्त्यादीनां प्रशस्यता, सति च बहुमाने सेवादेर्भावेऽभावेऽपि अतिशयितस्य फलस्य प्राप्तिः, बहुमानरहितस्य तु सेवादयो जायमाना अपि पालकवद् द्रव्यफलमात्रदानप्रत्यला निष्फला वा भवेयुः, अतो युक्तमेवोक्तं भवतु ममाईदादिपरमेष्ठिषु बहुमान इति । परमेष्ठिप्रभृतीनां नमस्कारादेर्द्रव्य-भावभेदेन वैकल्पिकत्वदर्शनाय तन्निरासायाह - ' होउ मे इओ मोक्खवी 'ति । प्रकृष्टोऽयं बहुमानो द्रव्यतोऽनुष्ठीयमानोऽपि, अत एव ' जाव अरिहंताणं णमुक्कारेणं ण पारेमि ' त्ति तत्पदोच्चारणान्तगामिनी प्रतिज्ञा, 'हिययं अणुम्मुयंतो 'त्यादि च नियुक्तिकाराssदिवचः, अतः प्राणान्त्यभागे तदुच्चारणप्रवृत्तिः । अज्ञानानां तिरश्चामपि तदा तच्छ्रावणं श्रीपार्श्वकुमारचरित्रे चारुदत्तकथानकाssदिषु च फलवत्तया दर्शितं प्रेत्य सत्प्रत्यायातानां (1) तत्पदश्रवणेन जैनदर्शनस्याऽभ्युपगमाऽऽदि च हुण्डिकयक्ष - राजकुमारकथादिषु प्रसिद्धतममेव, परमत्र सर्वपापप्रणाश- सर्वमङ्गलायमङ्गलत्वेन क्रियते बहुमान परमेष्ठिनामिति भाव्येव बीज एष मोक्षस्येति सम्प्रधार्य प्रोक्तं- ' 'भवतु ममेतो मोक्षबीजमिति । परमेतावता ग्रन्थेन 'धन्यास्ते ग्रामनगराद्या ' इत्यादि यत् सिन्धु-सौवीराधीशेनोदायनेन प्राप्यतया प्रार्थितसमागमस्य दर्शितः, परं नहि समदेशादिसंयोगमात्रेणाऽर्थसिद्धिः, किन्त्वन्यथाविधेन विधानेन । ततः ' तं महाफलं खलु ' इत्याद्योपपातिकसूत्र वर्णितचम्पानगर्यभिजनवदभिगमन- नमनादिकायाः सेवायाः प्रार्थनार्थमाह-' पत्ते एएस अहं सेवारिहे सिये 'त्यादि । Page #117 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (७९) - अत एव पूजायां 'काले सुइभूएण' मित्यादि, देवादीनामाराधनायां च 'देवगुणपरिबाना' दित्यादि, काले सद्योग-विघ्नवर्जनतयेत्यादि 'विधिसेवा दानादा' वित्यादि चोपदिश्यते । उपदिष्टं च पुष्पशालाय श्रमणेन भगवता महावीरेण रजोहरणाऽऽदिग्रहणेन स्वसेवाभावादि । . - ततश्च सुनिश्चितमिदं यदुत-प्राप्तानामप्येकदेशाऽऽदिप्रकारेणाऽर्हदादीनां भाग्यवतामेव सेवा- , ईता स्यात् ततश्च प्रार्थनमेतेषां । प्राप्तानामपि सेवाविषयागमे न साफल्यं इति प्राप्तोऽपि योग एषां पूज्याऽऽराध्यांना, ___ लब्धाऽपि सेवा सन्ध्यात्रयाऽऽराधनादिरूपा परमभगवतां तेषां, तदा स्यादू मोक्षानुकूल्यतावती । यत उच्यते "वीतराग ! सपर्यातस्तवाऽऽज्ञाऽऽराधनं परं । आज्ञाऽऽराद्धा विराद्धा च शिवाय च भवाय च ॥१॥ हित्वा प्रसादनादैन्यमेकयैत्र त्वदाज्ञया । सर्वथैव विमुच्यन्ते जन्मिनः कर्मपञ्जरात् ॥१॥ (वीत०) इत्यादि । किञ्च आज्ञाव्यतिरिक्तं अवेयकोत्पातहेतुतया लब्धं चरणमप्यनर्थकमित्याह-'आणारिहे सिअ'त्ति, । उच्यते च--'इच्चेइयं दुबालसंगं गणिपिडगं' यावद् 'आज्ञयाऽऽराध्य संसारमनादिकमनवदग्रं व्यतित्रजिषुः जिविराध्य चानुपरिवर्तितवन्त' इत्यादि 'आणाए तवो आणाइ संजमो' इत्यादि 'धम्मो आणाइ पडिवतो' इत्यादि 'आणाखंडणकारी'त्यादि चाऽपरिमितमागमवचनवृन्दमत्राऽऽज्ञाराधनाफलेऽवतार्यम् । तदेवं दुर्लभ-दुर्लभ(तर)-दुर्लभतमेषु सेवान्तेिषु प्रार्थितेषु. चोल्लकाऽऽदिदृष्टान्तसाध्यचक्रिगृहपुनर्भोजनादिवद् महाभाग्यमतामेव प्राप्येषु विहिता प्रार्थना तत्तत्प्राप्ती, परं लम्भेऽपि दातुरातुरेऽपि ग्रहीतरि नश्येच्चेद् देयं, कैव दशा ह्यातुरस्येति दृष्टान्तमाधाय मनसि पञ्चमकाऽनन्तानां सम्यग्दृशामपि निगोदावस्थोपगमनल्यापकमागमवचनं यथार्थतयाऽऽज्ञाराधनाया निरतिचारपारगतताया अतिशयेन दुर्लभतमत्वमवधार्य प्राह-'पडिवत्तिजुत्ते सिआ णिरइयारपारगे सिमति च । न च वाच्यं सम्यग्दृशां पञ्चमानन्तांशमितानां परिपतितानां भावेऽपि प्राप्तः सिद्धिमष्टमानन्तांs शमिताः सम्यग्दृश इति कथं दुर्लभतमत्वं प्रतिपत्ति-निरतिचारपारगतत्वयोरिति चेत् ? सत्यं, सिद्धा अष्टमाऽनन्तांऽशमिताः प्रचुराश्च परिपतितेभ्यः, परं तेऽष्टमाऽनन्तांऽशमिता ये सिद्धास्ते न सर्वेप्यप्रतिपातिभावेनैवाऽधिगता निर्वृतिम् , अष्टमाऽनन्तांऽशस्यानन्ततमो भाग एवाऽप्रतिपतितानाम् , शेषास्तु सङ्ख्येयाऽऽदिकालपरिपतिता एव सिद्धाः पर्यन्ते इति आजन्माऽखण्डायाः प्रतिपत्तेरेवं निरतिचारपारगतेति द्वयोरैक्यम् , द्वयोरुपन्यासस्तु चरमभवं. यावत् मनुष्यभवास्तत्र चाऽऽज्ञादीनां प्रतिपत्तयः Page #118 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (८०) केषाश्चिदेव, “अट्ठभव उ चारित्तेत्ति शास्त्रोक्ता आकर्षा अष्टाऽपतमानामेव, विराधनायुतानां तु गोशालाऽऽदिषु बहुतमानामपि भवानी दर्शनात् । तथा चैकजन्माऽपेक्षया न विशेषः, परं भवाऽन्तराऽपेक्षयाऽस्ति स इति न सर्वथा पाठद्वयस्य पृथगूरूपस्याऽसाङ्गत्यमिति । पारगतत्वं च प्रतिपत्तेस्तदा जायते यदा विविधोपसर्गप्रसङ्गेऽपि ज्ञानाऽऽदिरूपाऽव्ययपथान प्रध्यवते, न च विविधव्यथाबाधितोऽपि सँस्तत्र शस्तां स्मरत्ननुभूतो मार्तध्यानवशगो भवति, न च भाविविविधसंकल्पैरात्मानं नाट्यति, किन्तु "भाव्येव भावि नाऽभावि"-ति निश्चित्य स्थिरतरमनाः साम्ये रमेत । त्रोण्येतानि प्रतिपत्तिपारगमनसाधनानि इति । एवं भविष्यन्त्यां भाविनां भावानां समायोग प्रणिधानसूत्रे भवनिर्वेदाऽऽदिप्रार्थनावदभिप्राय तत्रैव लोकविरुद्धत्यागाऽऽदिवदत्राप्यग्रतः प्रवृत्ते सुकृताऽनुमोदननाम्नि तृतीये वस्तुन्याह-'संविग्गो जहासत्तीए सेवेमि सुकडं 'ति । धर्मश्रद्धा संवेगश्च परस्परं जनको अनन्तानुबन्धिक्रोधाऽऽदिक्षपको कर्मरोधको कृत्वा मिथ्यात्वस्य विशुद्धेः दर्शनस्याराधनयाश्च जनको, तादृशं च दर्शन तौ विशोधयतः येन शुद्धेन दर्शनेन प्राप्यते चरमशरीरता, तृतीयश्च भवो वाऽतिक्रम्यते, एतादृक् संवेगवान् यथाशक्ति सेवे मुकतम् । अत्रावधेयं इदं यदुत-'सुकृतसेवायाम् अपि शक्तिमनतिक्रम्यैव शस्यते उद्यमकरण तेत एवं च तुलनाभिस्तोलयित्वैवात्मानं प्रवज्या-जिनकल्प-प्रतिमादीना प्रतिपत्तयो हितावहा इति । यद्यप्यत्र सुकृतानामासेवनमनुमोदनरूपतयैवाऽधिकृत प्रोच्यते च ततः सुकृताऽनुमोदनाख्यो विषयस्तृतीयः, तथाप्ति कर्तृ-कारका-ऽनुमोदकानां श्रीवलभद्रमुनि-रथकार-मृगदृष्टान्तेन या समानफलताऽऽम्नायते जेने शासने, सा कर्तृताऽऽदीनां यथोत्तरं शक्तेरभावे ज्ञेया, सदभावे तु शक्तेः अमादाऽऽदिभिरनाचरणे सुकृतानां नैव कारकाऽनुमोदकत्वेन समानफलवत्ता । तत एवाऽत्र यथाशक्ति संविग्नतयाऽप्रक्रान्तमपि सुकृतस्य सेवनमादृतम् । एवं चात्मयोग्यता सम्पाद्याऽनुमोदनीयगुणानामहंदादीनां भगवता परेषामपि च तथाविधाना सुकृतानामनुमोदनार्थमाह-'अणुमोएमि सव्वेसिं-अरिहताणं अणुट्ठाण 'मित्यादि यावत् 'सव्वेसि जीवाणं होउकामाणं कल्लाणासयाणं मग्गसाइणजोगे' इत्यन्तम् । तत्र यद्यपि सिद्धादीनां भगवतां तत्तदवस्थावृत्तितया 'सिद्धभावाऽऽदिकं यथा अनुमोदनीयतापदमानीतं तथा भगवतामहतामहत्त्वमेव 'तत्पदमानेतन्यं भवति, परं यदनुष्ठानमहतां भगवतां तत्सदमानीयते तदिदं ज्ञापनार्थ यदुत-सिद्धत्वप्रभृतीनि स्थानानि एकभवयत्नसम्पाद्यानि, न तथा महत्त्वं, Page #119 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (८१) किन्तुः तदनेकभवयत्नलभ्यम् । अत एव च 'यः शुभकर्माऽऽसेवनभावितभावो भवेष्वनेकेवि'. ति भाष्यं 'तइयभवोसक्कइत्ताण 'मिति च नियुक्तिकाराः। .. 'अनेन भवनैर्गुण्य' मित्यादि यावत् तत्तत्कल्याणयोगेन, कुर्वन् सत्त्वार्थमेव सः। तीर्थकृत्त्वमवाप्नोति, परं सत्त्वार्थसाधन' ॥ मित्यन्तं योगबिन्दुकाराः। 'वरवोहिलामओ सो' इति पञ्चवस्तुकाराः पञ्चाशककाराश्च । 'वरवोधित आरभ्य परार्थोद्यत एव ही 'त्यष्टककारा । 'सयंसवुद्धाण 'मिति प्रणिपातदण्डकः । जिननाम चाऽन्तःकोटीकोटीसागरोपमस्थितिकं बध्यते, तद्वांश्च यत्र यत्रोत्पद्यते तत्र तत्र तत्सद्गत्यादिस्थानापेक्षयोत्तमजात्यादिस्थानवानेव भवति । भगवतोऽर्वाक् तृतीयभवात्तु 'बज्झइ तं तु भगवओ तइयभवोसक्कइत्ताण 'मिति निकाचनाविषयं, सम्बन्धोऽपि तस्मात्ततीयस्माद्भवादारभ्य यावपूर्वकरणगुणस्थानं तावन्नैरन्तर्येण भवति । सर्वमिदमवधार्याऽर्हतां भगवतामनुष्ठानमित्युदितम् । महद्भवेऽपि गज-वृषभादिचर्तुदशस्वप्नदर्शनादि 'एए चउदस सुविणे' इत्यादि कल्पवचो मङ्गला. वसरे चतुःशरणकेऽपि पठितम् । गर्भपालनं, जन्मनि सेन्ट्रैर्देवगणैर्मेरुमूर्धनि स्नात्रकरणं, यावन्निर्वाणममत्र विधाय सर्वसुरासुरेश्वराणां नन्दीश्वरं गत्वा महोत्सवकरणं सर्वमिदमर्हतां भगवतामनुष्ठानमनुमोदनीयम् । * अत्र यावत्पदेनाऽधोलिखितगाथाकदम्बकं ज्ञेयम् , तथाहिः " अनेन भवेनैर्गुण्य, सम्यग् वीक्ष्य महाऽऽशयः। . तभाभव्यत्वयोगेन, विचित्रं चितयत्यसौ ॥१॥ मोहाऽन्धकारगहने संसारे दुःखिता बत । सत्त्वाः परिभ्रमन्त्युच्चैः, सत्यस्मिन् धर्मतेजसि ॥२॥ अहमेतानतः कृच्छ्राद्, यथायोगं. कथंचन । अनेनोत्तारयामीति, वरवोधिसमन्वितः ॥३॥ करुणादिगुणोपेतः, परार्थव्यसनी सदा । - तथैव चेष्ठते धीमान् , वर्धमानमहोदयः ॥ ४ ॥ तत्तत्कल्याणयोगेन, कुर्वन् सत्त्वार्थमेव सः । . तीर्थकृत्त्वमवाप्नोति, परं सत्त्वार्थबाधनम् ॥ ५ ॥ -श्रीयोगबिंदु गा. २८१ त:२८८ Page #120 -------------------------------------------------------------------------- ________________ किञ्च-अर्हता. भगवतां निक्षेपचतुष्टयमपि नाऽपूज्यमार्गान्वितं स्वीकार्यम् । तत एव तत्रं 'णामजिणा जिणणामे 'त्याधुच्यते, एतादृशाऽहत्पदाऽनुवृत्तेश्च सिद्धादिषु पदेषु भावसिद्धाऽऽदिपरिग्रहस्येष्टत्वेऽपि न ताविशेषणप्रयोगः, आर्हतानां सिद्धानामित्यादिव्याख्यानाद् भावसिद्धत्वादेलाभादिति । न च भगवतामहतां वीतराग-द्वेषत्वात् तदनुष्ठानस्यानुमोदने किं फलं ? इति वाच्यम् ! अनादिकालीनमिथ्यात्वाऽऽदिरोगदूषितानामसुमतां सद्गुणप्रशंसाबीजेनैव बोध्यादिफलेन फलयुक्तत्वभावात् । न च विहाय सद्गुणप्रशंसामन्यो धर्मकल्पप्ररोहादिफलो धर्मः, शेपाणामशेषाणां सुकृतानां तत्प्रभावात् तदन्वेव च भावादिति । ननु च भगवतामहदादीनामियता स्वप्नदर्शन-जन्माभिषेक-कल्याणकमहिम-महाप्रातिहार्यनिर्वाणमहप्रभृतिना महिम्ना किं प्रयोजनमिति चेत् ? शृणु, ! धर्मस्य तावदवश्यं द्विविध फलं लौकिक- । लोकोत्तरभेदभिन्नं भाव्यम् । अन्यच्च-न धर्मो धर्मिणमन्तरा, ततो धर्मिजनानां पूजाद्वारैव धर्मस्य पूजाप्रभावस्य दर्शनं स्यात् , अतोऽवश्यमहदादीनां धर्मरत्नरत्नाकराणां पूजाऽऽदीनि भाव्यानि धर्माsभिलाषिभिश्चाऽवश्यमादावेवानुमोदनीयानि । अत एव पञ्चपरमेष्ठिनमस्कारे जिन-वीतरागसर्वज्ञसर्वदीत्यादीनि पदानि न धृतानि, किन्तु अशोकाद्यष्ट-महाप्रातिहार्याऽऽदिपूजासूचकमर्हत्पदमेव स्थापितम् , स्थापितं च सिद्धपदा भिन्न प्राक् चाहत्पदम् इति । एवं चाऽभावितायामपि पर्षदि जीतेन भगवतो वीरस्य क्षणमहत्पदयोग्यपूजाया उपसेवनं शोभते ।। ___यद्यप्यर्हतां भगवतां साध्यफलं तु धर्मदेशनया तीर्थप्रवृत्तिरेव, परं प्राप्यफलमहन्नामकर्मणः पूजाऽतिशय-गणधरप्रव्रज्यादि । तच्च 'धम्मदेसणाइहि 'मित्यत्र निवद्धमादिशब्देन नियुक्तिकारैः, अत एवाऽऽगर्भात् शकस्तवादिभिर्यावनिर्वाणं पूज्यताऽहंतां भगवताम् । ननु ये यत्र क्षेत्रे यत्र च शासने उपकारितयाऽर्हन्तो भवन्ति, तेषामनुष्ठानस्याऽस्त्वनुमोदनम् , शेषाणां तेषां तदनुमोदनं किमर्थं ? येनोच्यते सर्वेषामर्हतामिति चेत् ? सत्यमुक्तं परमयुक्तम् ! यतो गुणिगुणानामनुमोदनस्य श्रेयस्करतया सर्वेषामेव तेषां तस्यानुमोदनं योग्यमेव ।। अत एव प्रतिक्षेत्रमृषभादीनां जिनानां भिन्नत्वेऽपि णमो अरिहंताण-मित्यादिभिः पदैः पञ्चसु परमेष्ठिसु क्षेत्र-कालाद्यनाश्रितानामर्हदादीनां नमस्कारादि । शाश्वतजिनाद्या हि नहि केचित् क्षेत्रकालादिपु नियमिताः, एवं च नवपदमयश्रीसिद्धचक्रस्य सर्वकालीना सर्वक्षेत्रीया चाराधना सिध्यति । पडावश्यकव्याख्याने च स्पष्टतयोच्यते यदुत-वर्तमानचतुर्विंशतिकायाः स्तवमय एव चतुर्विशतिस्तव इति, कर्मभूमीविहायाऽन्यत्र स्थितानां सम्यग्दृशां देशविरतानां च ऋषभ-चन्द्राननादीनां क्षेत्र-कालानाश्रितानामर्हतां भगवतामाराध्यता, तथा सामान्येन जिनसिद्धादीनामाराधना पूज्यता चेति Page #121 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (८३) पूंज्याऽऽराध्योभयधर्मयुक्तानां परमेष्ठिनामाराधना पूज्यता च सार्वत्रिका सम्यग्दर्शनादीनां च गुणागुणरूपत्वादेवाराध्यतेति नवपद्याः शाश्वत्याराधनेति । । अन्यच्च-नह्यत्र जैने मते परमेश्वराणां दानदक्षत्वं, येन स्यात् प्रयत्नस्तत्प्रसत्त्यै, तथा चैकस्यापि जीवस्य परमपदे जायमाने दुग्धगौरिव परमेश्वरस्यैव परमपदहीनत्वम् , जैने तु शास आत्मस्वरूपरूपाणां ज्ञानादीनां परमेश्वराऽऽलम्बनजातध्यानादवाप्तिरुच्यते, पुण्यकारणीभूतसदवसायानामपि स्वतन्त्रता पुण्यकारणता (), सर्वज्ञोक्तशास्त्राणि तत्राऽवलम्बनीभवन्ति त्वनिवार्याणि अत एव स्वर्गापवर्गदानदक्षः परमेश्वरस्तदुपज्ञो धर्मः सति चैतस्मिन् वृत्ते सर्वेषामर्हतामनुष्ठास्यानुमोदनमात्मनां भवितुकामानां परमशुभाध्यवसायाऽऽलम्बनत्वाद्धितकरमेवेति योग्यमुक्तम् - 'अनुमोदयामि सर्वेषामहंतां भगवतामनुष्ठानमिति'। न च वाच्यं भगवतामर्हतां वीतरागत्वात् यदि फलप्राप्तये तत्प्रसत्ते पेक्षा, आशातनाजन्याय संसारवृद्धावपि न तद्वेषापेक्षा, कर्तृणामेव तमालम्बनीकृत्य शुभाध्यववसायानामुत्पादे शुभफलस्येतरे चोत्पादे इतरफलस्य भावात् , अध्यवसायजन्यत्वात् पुण्य-पापानामिति सिद्धान्ते जायमाने कथमुच्यते 'तित्थयरा मे पसीयन्तु ' इत्यादीनि ? यतो वीतरागास्ते न प्रसीदन्ति, परं भक्तानां चेत् प्रसन्न मनस्कता तदुपदेशजनिता भवति, तदा निमित्ततामाश्रित्य तजनिता सोच्यते । एवमेव च स्वर्गाऽपवर धर्माऽऽदिदातृताऽपि भगवतां न्याय्यैव । ननु च यथा सद्गत्यादिनिमित्तत्वाद् भगवतां तत्तद्दातृत्वं कथ्यते, तथा दुर्गत्यादिनिमित्तत्वात्त दातृता किं न कथ्यते ? इति चेत् ? सत्यं ! सूर्यादीनां प्रकाशकरत्वाद् यथा दिनकरत्वादि कथ्यते अवटपातादि तु न तत्कृतमिति गीयते, तथा भगवतामपि शिवादिकारणतया शासनस्य प्रणयनादिन शिवादिदातृत्वं कथ्यते, परं दुष्टाध्यवसायादिजन्याया दुर्गतेस्तु प्रमादादिहेतुत्वात् , तत्र च परमात्मन सर्वथा सर्वदा निषेधकत्वेन प्रतिकूलत्वादशेनापि नास्त्येव कारणता दुर्गत्यादेः । तेन एकान्तहितकर एवार्हन्तो भगवन्त इति तदनुष्ठानस्याऽनुमोदनं भवितुकामानामावश्यकमेवेति कृतं प्रसङ्गेन । भगवतामर्हतामनुष्टानं तदैवाबध्नाति मूलं, यदा संसारसमुद्धारेण सिद्धत्वं साधनन्तकाल स्थितिकाऽऽत्मस्वरूपाऽवस्थानरूपं लभ्यं भवति । तदेव च निर्यामकाणां ध्रुवापि तारिका मार्गप्रवर्त नीयश्रीमदर्हदादीनां मार्गप्रणयनादिमूलकारणं भवति, तत आह-सव्वेसिं सिद्धाणं सिद्धभावं 'ति सर्वेषां सिद्धानां भगवतां सिद्धत्वमनुमोदयामीति । सिद्धभावश्च संक्षेपेण तु . . 'असरीराजीवघणा उवउत्ता दसणे यणाणे य। सागारमणागारं सिद्धाणं लक्खणं एय' मित्यादि सविस्तरमावश्यकनियुक्तिप्रतिपादितमेवावतार्यमिति । Page #122 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तदेवं ग्रन्येनैतावता सिद्धार्गस्य प्रवर्तकानामर्हतां भगवतामनुष्ठानं मार्गफलरूपस्याऽविप्रणाशित्वाऽऽदिस्वरूपाणां भगवतां सिद्धानां सिद्धस्वभावं चानुमोद्य शुभोदेशेन प्रचुरवित्तव्ययेन स्थापितस्यापि चैत्यस्थापनादेः प्रभावकत्वं यथा सारणादिकर्तृणां महापुरुषाणां प्रयत्नेनैव भवति, तथा स्थापितस्याईता भगवता सिद्धिप्राप्तिफलेन सफलस्यापि मार्गस्य जगदुपकारप्रवणत्वं त्वाचार्यादिभिः सारणादिकर्त्तव्यानां शासने विधानादेवेति तेषां भगवतामसाधारणकार्याणामनुमोदतार्थमथ पुरतो ग्रन्थमाइ 'सव्वेसि आयरियाणं आयार 'मित्यादि । ननु भगवताऽर्हतैव तीर्थं प्रवर्तयता दर्शित माचारः सर्वोऽपि शासनस्थापनाऽवसरे चतुर्वर्णश्रीश्रमणसङ्घाय, तत्कथमाचार्याणामाचार ? इति चेत् ?, यद्यपि भगवन्तोऽष्टादशानामज्ञानादीनां दोषाणामन्तकृतस्तत्त्वेन चाऽपवर्गपथहेतुकाऽऽचारवन्त एव, परं केपाश्चिद् व्यवहाराणामभावात् कल्पातीतास्ते उच्यन्ते भगवन्तः, आचार्यादयस्तु शासनप्रवृत्तव्यवहारवन्त एव, एत (अत) एव च ग्रहणाऽऽ-सेवनादिशिक्षाणां स्थविरा एव प्रवर्त्तयितारः जिना अपि च दोक्षयित्वा शिक्षाग्रहणायथ शिष्यान् मेघकुमाऽऽरादीन् स्थविरानेवाऽर्पयामासुः । किञ्च-भगवन्तोऽर्हन्तः स्थापयित्वा शासनं निर्वाणपथप्रवृत्ता आचार्येभ्य एव शासनं ददुः, अत एव 'कइयाऽवि जिणवरिंदा' इत्यादि पठ्यते, तत आचार्याऽऽधीन एवाऽऽचारः । किञ्च-शासनव्यवहारो हि जीताऽन्तैः पञ्चभिराचारैः, न च जिनानामागमादिव्यवहाराधीनतेति योग्यमुच्यते आचार्याणामाचार इति । यद्यप्युपाध्यायाः साधवश्वाचार्यैः समान् एव ज्ञानादिगतानाचारान् पञ्चापि पालयन्ति स्वयं, परास्तेषु प्रवर्तयन्त्युपदिशन्ति च, परं ते सर्वेऽधीना आचार्यस्येति स्वामिन आचार्या एवाऽऽचाराणाम् । अत एव चाचार्येण विहीनानां साधूनां चौरपल्लिवाससमन्वं कैश्चिदुपदिश्यते, उच्यते च .. पर्युषणाकल्पादिषु 'आचार्याः प्रत्यपायान् जानन्ति' इति । शासनस्य प्रवर्तनमर्थदानं चाऽर्हदनुकारेणाऽऽचार्याणां कृत्यं, परं तन्मात्रप्रवृत्यविरोधार्थ सूत्रदानं तु त एवोपाध्यायद्वारा कुर्वन्ति इत्युपाध्यायानां कार्याणां पृथक्त्वात्तदनुमोदनाथमाह-सव्वेसि उवज्झायाणं मुत्तप्पयाण 'मिति । · एवं च शासनस्य प्रवर्तनमर्थदानं चाचार्यकृत्यतया, सूत्रशिक्षण चोपाध्यायकार्यतयाऽनुमोदनेन द्वयमपि शासनरथचक्रस्यानुमोदितम् । यद्यपि गणि-प्रवर्तकादयोऽपि अघीयन्ते सूत्राणि, अध्यापयन्ति च स्वनिश्रास्थितान् साधून् , पर नियमनं यनिम्रन्थानां निम्रन्थीनां च दिग्बन्धन भवति, तदिग्बन्धननियमपूर्वकं सूत्रप्रदानं तूपाध्यायानामेव कार्यम् । Page #123 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मत एव 'आख्यातयुपयोगे' [सिद्धहेम० २।२।७९] इति सूत्रेण "उपेत्याधीयतेऽस्मादिति पश्चम्या व्युत्पाद्यते उपाध्यायशब्द इति । । ... यद्यप्याचार्या उपाध्यायाश्च द्वयेऽपि वर्तयन्ति गच्छं, प्रोच्यते च द्विपरिग्रहा निर्ग्रन्था' इति प्रवचने दिग्बन्धाऽधिकारे, तथापि दीक्षितानां शैक्षादीनां संलिखित-मारणान्तिकीक्रियाऽन्तादीनां यथानवैयावृत्याऽऽदिना संयमसहायेन चोपकारकरणं तु साधूनामेव, अत एव च तेषां पात्रादिविविधोपकरणधृतिः सम्भोगिकव्यवहारश्च, साधूनां नमस्कार्यताऽपि 'असहाए सहायत्तं जे इमे संजमं करेंताण 'मित्यादिना संयमसाधनसहायकरणादेवानुमता । ___ ततश्चाचार्योपाध्यायवदन्यूनातिरिक्तमेव साधूनां प्रवचने स्थानमिति कृत्वा माह 'सन्ते सिं साहूणं साहुकिरिय 'मिति । साघुक्रिया च यथाऽन्येषां संयमसाधने सहायस्य करणं, तथाऽऽत्मनाऽपि संयमयोगेषु निरन्तरमप्रमत्ततया रमणं चेति द्वयरूपैव ।। यद्यप्यशेषा आस्तिकाः स्वान् स्वान् देवान् गुरूंश्चाऽऽराधयन्त्येव, परं जनानां विशेषोऽयमेवाssस्तिकानां यदुत-"यावन्तोऽर्हन्तः सिद्धाश्च तावतः सर्वानेव देवतयाऽभिमन्वते, एकमप्यन्तं सिद्धं च भगवन्तं चेद् देवतया नाभिमन्यते, तर्हि सोऽत्र मिथ्यादृक्तयागण्यते ।" अत एव गोशालाऽऽदय ऋपभाऽऽदीनामभ्युपगन्तारोऽपि श्रमणस्य भगवतोमहावीरस्यैकस्यानङ्गीकारात् मिथ्यादृशोऽभिमता, तद्वदेव चाहतः सिद्धांश्चैव देवतत्त्वाऽऽत्मकतयाऽभ्युपयन्ति, नाऽन्यान् केवलान मिश्रितानपि च । अत एवाभाविताऽवस्थानां जैनमताऽप्रीतिप्रकर्षपराकरणायैव च चारिसञ्जीवनीचारदृष्टान्तेन सर्वदेवाऽर्चनादेरूपदेशो, भावितावस्थायामवश्यमईदादिदेवतांविशेषस्यैव श्रयणं योगविन्दौ श्रीहरिभद्रसरयोऽपि स्पष्टतयैनमर्थमाख्यातवन्तः । यथोभयथाऽवधारणेनाईतां सिद्धानां च देवत्वं तथैवोभयावधारणेनेवाचार्योंपाध्याय-साधूनामेव गुरुत्वं पञ्चानामेव चैषां पूज्यत्वमाराध्यत्वं परमेष्ठितया ध्यातव्यादिक चेत्यवसेयम् । । .. अत्र च यद् ऋषभाऽऽदीनामर्हतां पुण्डरीकाऽऽदीनां सिद्धानां यत् न ग्रहणं तेषां भरतादिक्षेत्राऽऽश्रितत्वेन । अत्र तु शाश्वतजिनानामृषभादीनामिव क्षेत्र-कालानांश्रितानां परमेष्ठिनां महणार्थ सर्वेषामर्हदादीनामनुष्ठानादिकमनुमोदितम् । . यथा चार्हदादीनामनुष्ठानादिकं भवितुकामानामनुमोदनीयं सुकृतरूपत्वात्तस्य, तद्वदेव सर्वविरतत्वाऽभावेन पूज्याऽऽराध्यत्वाभावेऽपि श्रावकादीनां सम्यग्दर्शनादिभिर्युक्तत्वाद् व्यवहारनयेन च Page #124 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (८६) चारित्रेण रहितयोरपि सम्यग्दर्शन-ज्ञानयोर्मोक्षसाधनत्वात्तदनुमोदनार्थमाह सव्वेसि सावगाणं मोक्खसाहणजोगे'त्यादि । यथैव चौपपातिकसूत्रे श्रीवीरदेशनायां निग्रन्थानामनगारधर्मिणामाज्ञया आराधकत्वमाख्यातं तथैव श्राद्धधर्मिणामप्याज्ञयाऽऽराधकत्वमुक्तं, किन्तु श्राद्धानां देशतो हिंसादिभ्यां विरमणरूपं चारित्रमभिमतं च तत्फलतयैव 'जन्मभिरष्टव्येकै 'रिति ‘स सिध्यत्यन्तर्भवाष्टक 'मित्युक्तेरस्ति श्रावकाणां मोक्षसाधनयोगः, तत एव तेषां श्रावकाणां तस्य मोक्षसाधनयोगस्याऽनुमोदनं योग्यमेव । न च वाच्यं श्रावकाणां देशतो हिंसादिभ्यो विरतत्वेऽपि देशतोऽविरत्वेन सावद्याऽऽरम्भकत्वादयोगोलकल्पत्वान्नानुमोदनं योग्यम् , अनुमोदने च तेषां पार्श्वस्थाऽऽदीनां वन्दनादिभिः तद्गतानां प्रमादस्थानानामनुमोदनवत् श्रावककृतानां सावधानामनुमोदनप्रसङ्ग इति । ____ यतो यो हि यत्र यत्र यावान् मोक्षमार्गयोगः, स तत्र तत्राऽनुमोद्य एव, अन्यथा सूत्रस्य चास्य व्यर्थकत्वापत्तेः । कामदेवाऽऽदीनामुपसर्गसहनादिकार्यस्य यावत् सूर्याभादीनां वन्दनादिकार्यस्य भगवता वीतरागेणैवाऽनुमोदनादिति । ___ पार्श्वस्थादयस्त्वारूढगुरुपदा अपि गुरुपदस्यायोग्यानां स्थानानां परिषेवका इति तद्वन्दनादिभिर्गुरुपदाऽयोग्याऽऽचाराणामनुमोदनप्रसङ्गः । न च सद्गुरुवन्दनसूत्रेभ्यो भिन्नानि पार्श्वस्थाऽऽदिवन्दनसूत्राणि, ततश्च गुरुपदाद् दूरवर्त्तिनां गुरुवन्दनसूत्रेण वन्दने स्यादेव तदीयप्रमादस्थानानामनुमोदनम् , यथा सद्गुरुणां वन्दनेन भावुकानां 'तं महाफलं खु' इत्यादिसूत्रवर्णितो महालाभ इति । ___यदि च वन्दनीयानामवगुणैरात्मा लिप्यत एव वन्दनकानां, तर्हि छद्मस्था असर्वज्ञाश्चाचायांदयोऽवन्दनीया भवेयुभवेयुर्वा तदात्मस्थानां मोहादीनां दोषाणामनुमोदनमिति कृतम् । श्रावकाणामनुमोद्य एव मोक्षसाधनयोग इति । न केवलमेतदेवाऽनुमोद्य सम्यग्दर्शननादिगतं मोक्षसाधनत्वम्, किन्तु सततं रतिलीनानां सम्यग्दर्शनमात्रगुणवतां तदन्येषामपि च यो यः कल्याणाशयेन मार्गसाधनयोगः सोऽनुमोद्य इत्याह'सव्वेसिं देवाणं सबसि जीवाणं होउकामाणं कल्लाणासयाणं मग्गसाहणजोगे इति । अनुमोदयामीत्यनुवर्तत एव 'अणुमोएमि सव्वेसि अरिहंताण' मित्यतः । न च वाच्यं मोक्षसाधनगुणानामस्त्वनुमोद्यता, अत्र तु भिन्नस्तस्मान्मार्गसाधनयोगः कथ्यते, ततश्च कथं तस्यानुमोद्यतेति, सत्यम् !, यथा मोक्षसाधनतयाऽनगारागारधर्माणामाराधनोपयोगिनी, तथैव सकृद्वन्धादीनामन्त्यपुद्गलावर्तभाविनां जीवानां शुभाऽध्यवसायप्रवृत्तिरभ्युपगम्याऽनुमोद्या च । अत एव शक्रस्तवे 'धम्मदयाण 'मित्यादिपदेभ्यो 'मग्गदयाण 'मित्यादीनि पदानि भिन्नार्थकानि प्रतिपादितानि, सकृद्वन्धकाऽपुनर्वन्धक-मार्गपतित-मार्गाऽभिमुख-मार्गानुसारिप्रभृती Page #125 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (e) 1 नामपि मोक्षमार्गाऽनुकूलप्रशान्तवाहितारूपाणां गुणानां योगात् । विशेषश्च योगबिन्दुतः सवृत्ति - तोsवसेयः । तत्त्वं त्वत्र भवितुकामाः कल्याणाऽऽशयाश्चैते इति । अत एव च सम्यग्दर्शनस्य प्रशमाऽऽदेर्लक्षणस्य वर्णनेऽपि व्यवहारस्य पूर्वोक्तस्य सकृदबन्धक़ाऽऽदिगतस्य प्रहाय ‘सुस्स धम्मराओ' इत्यादीनि सम्यग्दृष्टेर्लक्षणानि प्रतिपादितानि । तथा च सम्यग्दर्शनेन रहिता मपि जीवाः केचित् सम्यग्दृष्टिवत् प्रवर्तमानाः सम्यग्दृष्टित्वधियाऽऽराध्यमाना अपि नissiघकानां मिध्यात्वं सम्यक्त्वमालिन्यं वा जनयन्ति, भवितुकाम-कल्याणाऽऽशयवज्जीववृत्तिभवितुकामादीनां लिङ्गतया गृहीत्वाऽनुमोदनादिति । एवं तृतीयस्थाने भगवतामईदादीनामनुमोदनरूपं सुकृतं सेवयित्वाऽनुमोच वाऽस्य प्रशस्तप्रणिधानार्थमाह-' होउ मे एसा अणुमोयणेत्यादि । यद्यपि कृतैव प्रागनुमोदना प्राग्प्रन्येन तथाप्यत्र साऽऽशिषा प्रार्थ्यते ' भवत्वित्यनेन । प्रार्थना चाप्राप्ते स्यादिति ज्ञापयत्याशिषा वचनेन यदुतेच्छात्मिका कृता मयाऽनुमोदना, तथा विधतत्फलाप्राप्तेः, सामर्थ्ययोगरूपा तु नैव जातेति सामर्थ्ययोगरूपाऽनुमोदनार्थमेष आशीः प्रयोग इति, तदेव ज्ञापयन्नाह - ' सम्मं विहिपुत्रियेत्यादि । यद्यपि भोजनौषधादीनामिव विधिपूर्वकस्यैव धर्मस्य सफलता, भावधर्मताऽपि सम्यग् विधिपूर्वकस्यैवानुष्ठानस्य नाऽपरस्य, परं सम्यग् विधिपूर्वकताया अशक्यत्वादादौ प्रमत्तभावपूर्वक एवाsप्रमत्तभाव इवाऽविधिपूर्वकस्यैवानुष्ठानस्य भावः प्रारम्भे, परं सोऽविधिर्न बाधको यः परिहारविषयमानेतुं यत्यते । अत एव शक्याऽविधित्यागपूर्वकस्याऽविधियुतानुष्ठानस्यापि भावधर्मता धर्मसङ्ग्रहण्यादावभिमता, परं प्रार्थना तु सम्पूर्णसम्यग् विधिपूर्वकस्येति योग्यमुक्तं " सम्यग् विधिपूर्विकाऽनुमोदना भवत्विति । एवं प्रणिधानविषयमानीयानुमोदनां तस्य सम्यग्विधिपूर्वकतां सुकृतानुमोदनस्य जीवातु कल्पस्य शुद्धाऽऽरायस्य प्रणिधानार्थमाह - ' सम्मं मुद्धासये 'ति । ' विदिततममेतत् विदितजैनमतानां विदुषां यदुत - जैने हि शासने नानुष्ठानस्य तादृग् माहात्म्यं यादृक् शुद्धाशयस्य । अत एवोच्यते, - 'इकोवि णमुकारो' इत्यादि 'विचं महत् सुरूप 'भित्यादि च शुद्धाऽऽशयमाहात्म्यायोच्यते च - 'भावत्थपण पावइ अंतमुहुत्तेण णिव्वाणमि'श्यादि । यच्चानादिस्थावरादायाता मरुदेव्याद्यजिनजननी प्रापाऽन्तकृत्केवलित्वं भरत ची आदर्शभवनगतोऽप्यवाप केवलं, तत्सर्वं शुद्धाशयस्यैव महिमानमाख्याति । किश्व - जैने शासने शुद्धाशयोऽपि द्रव्यप्रतिपत्त्यभिलाषेणान्वित एव शस्यते । अत १२ Page #126 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (८८) एवाऽन्यगृहिलिङ्गस्थिता अपि केवलमापन्ना अन्तर्मुहूर्ताऽधिकाऽऽयुष्का अवश्यं द्रव्यनैर्ग्रन्ध्यं प्रतिपद्यन्ते । अत एवाह-'सम्म पडिवत्तिरूव'त्ति । सम्यक् प्रतिपत्तिश्च सैव बिभर्ति शोभा, या स्यानिरतिचारा, अत एव च सामायिकसूत्र एव 'तस्स भंते' इत्याधुच्यते । प्रथमाऽन्तिमजिनतीर्थयोश्चावश्यं प्रतिक्रमणानां पञ्चकं, शेषजिनतीर्थेषु चानुक्षणं रात्रिक दैवसिकेतिप्रतिक्रमणद्वयस्य करणमाचारतयाऽऽम्नातम् , अभ्यन्तरतपसि *कर्मसानुशतकोटिरूपे प्रथमं प्रायश्चित्तमुक्त्वा निरतिचारत्वस्यैव कृतोऽभिषेकः । अत एव च भगवता महावीरेणाऽऽनन्दश्रावकाय द्वादशानां व्रतानामतिचारजातवर्जनाय दत्त उपदेशः । एवमभिलषणीयं सुकृतानुमोदनाद्याशास्य तद्विषयं प्रणिधानं च प्रणिधाय महार्थतां तस्याऽऽकलय्य महानिधानप्रातिरिवं रोरस्य मत्वा तप्राप्तेरशक्यतमतां 'होउ मम तुहप्पभावओ भयव 'मित्यादिवत् प्रणिधेयप्राप्तये साहाय्यार्थमाह 'परमगुणजुत्तअरिहंताइसामत्थओ। . अचिंतसत्तिजुत्ता हि ते भगवंतो'त्ति । शरणीकृतेष्वर्हदादिषु अर्हन्तो भगवन्तः सिद्धाधेति द्वये एव कृतार्थाः क्षीणराग-द्वेषा अपि सन्तः स्वाऽऽराधनापरानसुमतोऽन्तर्मुहूर्तेनापि कालेनाऽर्पका अपवर्गस्य । किश्व-अर्हत्प्रवचनप्रवृत्तेरभावे न कोऽपि देवत्वस्याऽवातावपि पल्योपमत्रयाऽधिकस्थितिमत्त्वं जीवोऽलभत, प्रवृत्ते एवाऽहत्प्रवचने च त्रयस्त्रिंशत्सागरप्रमाणां महतीं देवस्थितिमवाप्नुयुर्जीवाः, पल्योपमाश्चकस्मिन् सागरोपमे कोटीकोटीदशकमाना इति व्यवहारेण बहुत्वमपेक्ष्योच्यते यदा-यदहन्तो भगवन्त एव वीतराग-द्वेषा अपि स्वर्गस्थितिविधायका इति, तदा नाऽध्यप्रतीतिमद्(?)भवतीति अचिन्त्यसामर्थ्यताऽप्येपा । न च वाच्यं तर्हि नरकगतावप्युत्कृष्टा स्थितिरह प्रवचनकाल एवाऽर्यत इति भगवतामहतो नरकविधायक्रताऽपीतरविधायकतावदापयेतेति, भगवताऽहता प्राप्यतयाऽभ्युदयहेतोः साध्यतयापवर्गहेतोधर्मस्याऽऽदेयतया देशनात्, नरकाऽऽदिगतीनां यद्यपि महाऽऽरम्भादीनि कारणान्यादिष्टानि, परं तानि हेयतयाऽऽदिष्टानीति परमात्मानोऽर्हन्तः स्वर्गाऽपवर्गविधानादचिन्त्यसामर्थ्यगुणत्वाद् वास्तवमेव परमगुणयुक्तत्वं तेषां, विचित्रत्वाद् व्यवहारवानां प्रवृत्तेः। . केचिदत एव परमेश्वरस्य स्वर्ग-नरकाऽऽदिवस्तुनां विधायकत्वं प्रतिपन्नाः केचित् प्रधानाऽनुयायिनां व्यवहाराः प्रधानाचाचार्यादयो भगवन्तः ते चार्हतां भगवतां स्वगांऽपवर्गमार्गदेशकृत्वाऽऽदिकानानित्य गुणान् परकर्तृतामभ्युपगम्य प्रवृत्ता इति, तदनुसारिणः शेपा जना निरुपचारं जगत्कर्तृत्व प्रतिपन्नाः। * कर्मरूपा ये सानवा पर्वताः, तेषु शतकोटि: वज्रं तद्रूपं यत् तस्मिन् । अभ्यन्तरतपसोहि कर्मनिर्जराप्रधानकारणत्वासूचनायैतत् पदम् । Page #127 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (८९) त्रिलोक्यामपि सकले जन्तुजाते परमगुणाः परमेष्ठिन एव पञ्च । तत्राऽपि कृतकृत्यत्वमनुभवन्तो द्वय एव भगवन्तोऽर्हन्तः सिद्धाश्चेति युक्तमुक्तम्, 'अचिन्त्यशक्तियुक्ता हि ते भगवन्त', इति । यद्यपि कृतकृत्यतया भगवन्तोऽर्हन्तः सिद्धाश्च शरण्यं प्रापिताः परं भगवदर्हद्वचनेनैव प्रवृत्तान सिद्धत्वं, शुद्धस्वरूपाश्च सिद्धा भगवन्तो ज्ञापिताः ज्ञात्वा केबलेन भगवद्भिरर्हद्भिरिति भगवतामर्हतां स्वरूपविशेषणांयाह-‘अरागाः सर्वज्ञा' इति । , यद्यप्यर्हत्वं भगवच्चं जिननामोदयनिबन्धनमेव स चोदयो भरतादिषु प्रत्युत्सर्पिण्य-वसर्पिणि चतुर्विंशतेरवस्थितकालवत्सु, महाविदेहेषु च सदैव विंशतेरेव जीवानां भवति, नोनानां चाधिकानाम् । अरागत्वयुक्तं सर्वज्ञत्वं तु असङ्ख्यातानामेव जीवानाम् । अत एव - ' मणनाणी केवलिणो ' इत्यादिना भरागाऽङ्कितसार्वश्यवन्तः साधुपदेऽत्र चतुःशरणाऽऽदिषु च पठ्यन्ते परं परे तीर्थेशा उद्घोषयन्ति ( स्वेषां ) स्वच्छन्दतया तीर्थोऽधिपत्वं परं न ते दौषैरष्टादशभिरज्ञानादिभिर्मुक्ता इति तद्व्यवच्छेदाय, प्राक् तृतीयभवादारन्धबन्धस्यापि जिननाम्नः साध्यफलप्राप्तेरुदयः अराग-सार्वश्ययुते एव सयोगिनि गुणस्थान इत्येतत् ज्ञापनाय च ' अरागाः सर्वज्ञा' इति गुणद्वयमर्हतां मगवतामत्राख्यातमिति, अन्यद्वा कारणं सुधिया स्वयमूह्यमत्रेति । ते च भगवन्तोऽर्हन्तः परमकल्याणाः सत्त्वानां यतः कोऽप्यन्यो न मोक्षमार्गस्य परमार्थेन विज्ञाता, ने च प्रवर्तकः, भवन्ति चाऽन्ये श्रुत्वा केवलिनः, अश्रुत्वा केवलिनः गृहिलिङ्गप्राप्त केवला अन्यलिङ्गप्राप्तकेवलाः, परं भगवतामर्हतामेव जिननाम्नः प्राकू तृतीयभवनिकाचितस्योदयो, येन त एव तीर्थं प्रवर्तयन्ति, प्रवर्तते च पुरतः पुरतस्तदीयमेव तीर्थमिति । - अनेकवेभ्यो जीवानां परमकल्याणकरणप्रवणाशया एवार्हन्तो भगवन्त इति न, किन्तु तीर्थदेशनेन गणभृदादीनां पत्राजनादिकरणेन द्वादशाङ्गीश्रुतस्यात्माऽनन्तर-परम्परभेदेन प्रवर्त्तनेन श्रीचतुर्विधसङ्घमयगणस्यार्पण प्रवर्त्तन-पारम्पर्याऽऽदिना च सत्वानां कल्याणकारिणोऽपि भवन्तीत्याह 4 कल्ला हेऊ सत्ताणं ' इति । तदेवं ' जावज्जीवं मे भगवंतो' 'परमतिलोगणा हे 'त्यादिना भवितुकामै: 'कल्लाणहेऊ सत्ताण 'मित्यन्तेन चतुःशरणगमनाऽऽदीनि तथाभव्यत्वपरिपाक साधनानि आचीर्णानि । अथ निगमयन् शरणगमनाऽऽदीनि, स्वस्वरूपं स्पष्टयन्नाह - ' मूढे अम्हि पावे ' इत्यादि । अवधार्थं चाऽत्रेदमवधारणाप्रधानैर्विज्ञैः यदुत - 'अस्थि मे आया उववाइए 'त्यादेः 'अक्कुव्वं चाह करिस्सं चाह 'मित्यादेः समुद्देशाद् अवश्यं धर्मकामैरात्मज्ञानांदिपूर्वकमेव जैनेऽत्र शासने परानुवृत्तिविचिकित्सनादिना जातायाः प्रवृत्र्त्तेर्निष्फलत्वाभावेऽपि स्वस्वरूपज्ञानपूर्विकाया एव प्रवृत्तेरात्मज्ञैरुपादेयेत्यविहताऽऽज्ञाऽऽमज्ञानपूर्विकायाः प्रवृत्तेः तथाप्रवृत्तेरेव ' तस्स भंते पडिकमामी 'त्याधुच्चारणं. फलमिति । एवमेवाऽऽत्मज्ञानपूर्वकं प्रवृत्तत्वादात्मनामाश्रववत्ता संवरहीनता च परिज्ञाता भवति । तत . Page #128 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१०:) एव च ' से किं तं महन्वयउच्चारणे 'त्यादि ' पढमे भंते महत्वए ' इत्यादि च प्रसिद्धतमं प्रश्नोत्थानं भवतीत्यलं प्रसङ्गेन । अथ प्रकृते भवितुकामेनं यदात्मनः प्रकृतोपयोगि ज्ञातं तदांविष्कुर्वन्नाह - ' मूढेऽम्हि पावे fort मोरु वासिए ' । मुग्घत्वं चाऽत्र यथावत्तत्वाऽज्ञानरूपं, न 'रत्तो दुट्ठो मूंढो ' इत्यादिना बोधस्याऽभाव एवेति प्रतिपादितरूपं श्रोत्रपसदलक्षणरूपम् । यद्यपि जीवोऽयमनादिस्तथापि यथावत्तत्त्वज्ञानशून्यत्वाऽऽदियन्तमनेहसं संसारमटित इति ज्ञात्वोक्तं मूढोऽस्मीति । 'अज्ञानं खलु कष्ट 'मित्यादिवचनादज्ञानमात्रेणं मूढत्वं स्यात्कदाचिद । अथवा 'शुभोदकीय वैकल्य '–मित्यादिवचनात् अशुभप्रतिषेधकारणीभूतमपि स्यान्मूढत्वमिति, तन्निषेधायाह - 'पावे 'ति । यद्यपि सूत्रकृताङ्गीयाऽऽचाराध्ययने 'अस्थि पुण्णं च पावं चे 'त्यादिनैकान्तिको पापवत्ता निषिध्यतेऽसुमतां, परं सा साधूनां देश्य पुरुषाऽपेक्षिका, अत्र तु भवितुकाम आत्मा स्वयमाह - ' पापः ' 'अहमस्मी 'ति शेषोऽत्र । अनादिकालात् मिथ्यात्वाऽऽदिना निविडकर्मबन्धोदय कारणेन युक्तत्वाद्युक्तमेव पापरूपत्वमात्मनः । 4 यद्यपि लब्ध्यपर्याप्तकनिगोदान् विहाय न कोऽप्येकान्तपापभाग् जीवः, न च लब्ध्यपर्याप्त निगोदत्वं नित्यमिति न स्यात् अशुभकर्मपुद्गलरूपपापेन सर्वदा पापमयत्वमित्याह - 'अणाइमोहवासिए 'त्ति । यद्यपि सर्वेषां कर्मणां ज्ञानावरणीयादीनामबाधिताऽवस्थोदयादिगता; न च ज्ञानावरणीयादिषु किञ्चिदपि कर्म सादि, सादि - सान्तं वा, तेषां विकल्पद्वयस्यैवाऽनाद्यनन्तं - सान्तरूपस्यैव भावात्, परमष्टस्वपि तदेवैकं मोहकर्म, यस्योदयः सादिसान्तोऽपि भवेत्, अन्यथोपशमश्रेण्यादेरयोगात्, परमत्र वासितशब्देन सत्तागतत्वं सूच्यते । सत्तापेक्षया तु मोहोऽपि विकल्पद्वयमेवानाद्यनन्त सान्तरूपमेवोपयाति । अक्षीणमोहाः सर्वेऽप्यसुमन्तोऽनादिमोहसत्ताका एव भवन्तीति योग्यमुक्तम्'अनादिमोहवासित' इति । अत्र च पूर्वपूर्वहेतुता यतो मूढस्ततः पापः यतश्च पापः अत एवाऽनादिमोहवासितः । अथाऽनादिमोहवासनातः किं जातमित्याह - 'अणभिण्णे भावओ हियाऽहियाणं 'ति । 1. एकेन्द्रिया अपि जीवस्वभावतया विदन्त्येव सर्वे सुखं हितत्वेन दुःखं चाऽहितत्वेन; विकले - न्द्रियाश्च न सुख-दुःखे हिताऽहिततयां विदन्ति, किन्तु हितानां प्राप्यै, परिहाराय चाहितार्ना स्वेषां शरीराऽऽश्रयसाधनानां यथातथं पालनादि कुर्वन्ति, पञ्चेन्द्रियतिर्यञ्चोऽपि तथैव शरीराद्यर्थ विशेषेण सन्तान-स्वामि-कुटुम्बाऽर्थंमपि यतन्त एवं देवा अपि सहैव नरैः शरीराद्यर्थं यावद् घेन-कीर्ति द्रव्य सुकृताद्यर्थं च यतमानाः सन्त्येव । नरकास्तु 'अव्यवहारा णेरइये 'तिवचनाद् विचार्यन्ते एवं ने, परं सुखदुःख-हिताऽहितप्राप्तिपरिहारार्थितया हिताहितयोरभिज्ञास्तेऽपि सन्त्येव; परं संसारस्य मार्गोऽ Page #129 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (8) . हितो हितस्तु मोक्षमार्ग एवेति तांखिके हिताऽहिते, ते न विदन्येवं संसारशूकरा जीवाः, तयोस्तथाविषयोर्हिताऽहितयोर्यज्ज्ञानं तदेव भावतो हिताहितज्ञानं तच जघन्यतोऽपि भवितुकामानां कल्याणाशयानां मार्गसाधनयोगवतांमेव स्यादिति स्वस्य प्राक् भावतों हिताऽहितयोरनभिज्ञत्वं दर्शितम् । एवं भूतकालीनं स्वस्वरूपं निन्दनाऽमुक्त्वाऽथ प्रार्थनीयं प्रार्थयमानं आह'अभिण्णे सिमा अहिअणिवित्ते सिभा, हिअपवित्ते, सिअ 'त्तिं । एतेन भावतो हिताहितत्वं प्रार्थना । न च जैनं शासनं प्रार्थनामात्रपरायणमिति कृत्वा स्वस्याऽहितेम्यो निर्वृत्तिं प्रवृत्ति च हितेषु प्रार्थयति, अन्स्याssवर्त्तवर्तिनां यथाभद्रक मिथ्यादृशामपि अहित हितयोः निवृत्तिप्रवृत्तिभावादाह'आराहंगे सिअ 'ति । आजन्माऽखण्डतया प्रतिपालनं ह्याराधनेति कृत्वा आह - आराहगे सिया । भवषायें चात्र धीधनैः यदुत - ' आराधको जीवो जघन्यानां ज्ञान-दर्शन- चारित्राऽऽराधनार्ना फलं 'जन्मभिरष्टृत्र्येकै 'रिति वचनाद् भवाष्टकाभ्यन्तरमेव दृणुते सिद्धिवधूमिति योग्यमेवोक्तं-यदाराधकः स्यामिति । ज्ञानादीनां त्रयाणां जघन्य मध्यमोत्कृष्टानामारांघनानां भावादात्मनश्वाधुना पापप्रतिघात - गुणबीजाऽऽघानाभ्यामेव चतुःशरणगमनं कृत्वा, पूर्वकालीनानां पापानां गया विधानात्, अर्हदादीनां भगवतामनुष्ठानानुमोदनेन गुणबहुमानकरणरूपस्य गुणबीजाधानस्य च करणात्, भावतो देशविरत्यादेरंप्रतिपत्तेश्चात्मनो न्यूनतरावस्थां विदन्नपि स्वभूमिकाया औचित्येनं प्रवृत्तः, सर्वेषां च अपुर्नबन्धकादीनां सच्चानां स्त्रभूमिकाया औचित्येन प्रवर्त्तनमेव न्याय्यं, अयथाशक्त्यनुष्ठानस्याऽऽत्मघातित्वेनाऽनुचितखात् इतिकृत्वा चाह-'उचिअपडिवत्तीए सम्बसत्ताणं सहि 'ति । यद्वा-'मिर्त्ति भूएसु कंप्पए 'त्ति वचनात् "मैत्रीमूलो हि धर्मों जैनानाम् ” । अस्मिन् धर्मे 'दुष्टानां शिक्षणं चैवेत्युपदिश्य मंचारोऽपचारस्य क्रियते, पूर्वकृतं - धनपापानामेवासुमतामिहभवे दुष्टत्वाद् दुःखितत्वाच्च यदीदृशः स्यादाऽऽचारो नोडस्थानं त् क्वापि कृपासुन्दरीति । जैने तु शासने' मा कार्षीत् कोऽपि पापानी 'व्यादिरूपाश्वतस्रो भावना एव सम्यक्त्वमूल, भवितुकामय स्वभूमिकौचित्येन परैः कृतानां सुकृतानामनुमोदनेनैव तन्मूलमानीतीति त्रिराह-' इच्छामि सुकर्ड ? इति । 1. Page #130 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १२ ) तथा च परकृतानां सुकृतानामनुमोदनं समापयन् त्रिःप्रणिधानमिदं करोति 'इच्छामि सुकृत' मिति । 1. एवं च ' जावज्जीवं मे भगवन्तो' इत्यादितः 'इच्छामि सुकडे ' इत्यंतं प्रणिधानं भवितुकामेन पठितमनूदितं च सूत्रकारैः परं प्रागेवाऽस्मात् प्रणिधानसूत्रादुपदिष्टं सूत्रकारैर्यदुत " प्रणिधानमिदं सङ्केशे भूयोभूयः पठितव्यमसङ्केशेऽपि त्रिकालमिति । " तत्र भूयोभूयः पठनस्य त्रिकालं पठनस्य वा किं फलमिति तत्र न दर्शितमेतत्, अधुनैतत्प्रणिधानसूत्रस्य पाठाssदौ किं फलमिति पापप्रतिघात - गुण बीजाऽऽघानाऽऽख्यप्रथमसूत्रस्योपसंहाराऽवसरे दर्शयति - एवमेअं सम्मं पढमाणस्स सुणमाणस्स अणुप्पेहमाणस्स । तत्राऽऽधीतेतरसूत्रेण पठिनण्यमसङ्केशे त्रिकालं सङ्क्लेशकाले च भूयोभूयः परं यो न तथाविधः क्षयोपशमवान् न चाघीतै तत्सूत्रस्तेन श्रोतव्यमितिकृत्योभयमाह - एवमेतत् सम्यक् पठतोऽन्यस्य. शृण्वत इति । अनन्योपयोगस्यैव पठनं श्रवणं च श्रेयस्करमित्यनन्योपयोगार्थं 'णिदाविगहापरिवज्जिएहिं 'इत्यादिवचनाच्च निद्रादित्र्याघातपरिवर्जनपूर्वकमेव पठनं श्रवणं च विधेयमितिविधिदर्शनार्थं च सम्यगित्याह । , इदं च पठनं श्रवणं च ' जस्स णं आवस्सए त्ति पदं सिक्खितं ' ' यावत्" " धम्मकहागो अणुप्पेहाए 'त्यनुयोगद्वारवचनादनुप्रेक्षारहितस्य क्रयावश्यकचद् द्रव्यरूपं स्यादिति तस्य पठनस्य श्रवणस्य च भावत्वाऽऽपादनार्थमाह-' अणुप्पेहमाणस्स 'ति । ग्रन्थस्य सह तदर्थेनाऽनुचिन्तनमनुप्रेक्षा । तथा चैतस्य प्रणिधानसूत्रस्यार्थमपि सदैव चिन्तयतोऽनुप्रेक्षायुक्तस्य भवितुकामस्य किं स्यात् फलमित्याह - 'सिढिलीभवंती 'त्यादि । अत्र तावत् सम्यक्त्वपराक्रमाख्ये श्रीमदुत्तराध्ययन सके एकोनत्रिंशत्तमेऽध्ययने 'सज्झाए णं भंते ' इत्यत आरभ्यांष्टादशमाद् द्वाराद् यावद् द्वाविंशतितमे 'अणुप्पेहाए णं भंते ! जीवे किं जणेई 'त्युपक्रम्य यावत् 'संसारकंतारं खिप्पामेव वीइवयई 'तिपर्यन्तं यदुक्तं तत् सर्वमवतारणीयं, स्वाध्यायाssधनुप्रेक्षाऽन्तस्य श्रुतधर्मस्य फलोन्नयनाद् प्रस्तुतमथ प्रस्तूयते । किं प्रस्तुतं ? पठनादेः फलमतस्तदेवाह 'सिढिलीभवन्ति परिहायन्ति विज्जति असुहकम्माणुवंधा' इति । अत्रेदमवधेयं यद्भुत कर्माऽनुबन्धा द्विविधाः शुभा अशुभाश्व, तत्राऽशुभा एव साम्परायिकास्ते चावश्यं क्षेया इति 'सव्वपापणासणी' इत्याद्युव्यते । शुभास्तु न साम्परायिकाः अधिका अपि : चरमभवाऽऽयुष्कादष्टसामयिकसमुद्घातेन क्षप्यन्ते । यद्यपि 'बद्धानां कर्मणां शाटो निर्जरे - Page #131 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (९३) त्यभिधीयते तथापि तद्भेदा येऽनशनादयस्ते साम्परायिकस्य पापस्यैव क्षपकाः । संवरोऽपि पापानामेव प्राणवधादीनामवरोधेन मन्यते इति प्रस्तुते अशुभकर्माऽनुबन्धानां शिथिलीभवनाद्याम्नातं । तत्र प्रदेश-स्थिति-रसादिभिरल्पीभवनं श्लथीभवनं । . . , . जैनप्रवचने कर्म द्वेधा-प्रदेशरूपं रसरुपं च, तत्र प्रदेशकर्म त्ववश्यमेव भोक्तव्यं, तदपेक्षयैवोच्यते'कडाण कम्माण ण मोक्खो अत्थि' इत्यादि, रसकर्म तु तपःस्वाध्यायादिभिः क्षयमप्युपयाति, यदपेक्षयोच्यते 'तवसा झोसइत्ते 'त्यादि । तदत्र रसकर्मणां यः क्षयः स परिहाणिरिति । यदा च प्रदेशै रसैश्चोभयथाप्यशुभकर्माऽनुबन्धा अपयान्ति तदा क्षीयन्ते इत्युच्यन्ते । एवं च प्रस्तुतस्य प्रणिधानसूत्रस्य पाठादेः पाक्षिकं फलमुपपादितं, ये कर्माऽनुबन्धा अनिकाचिता भवन्ति, तद्विषये अपवर्तनाऽऽदीनां करणानां प्रवृत्तेः स्यादुक्तं फलम् , परं ये निकाचिता अशुभकर्माsनुन्धास्तद्विषये अपूर्वकरणाऽतिरिक्तं न किञ्चित् प्रवर्तते, न चाऽपूर्वकरण-द्वयादेकतरमपि पठनाऽऽदिकाले नियतं भवतीति तादृशे निकाचिते अशुभकर्माऽनुबन्धमधिकृत्य प्रस्तुतप्रणिधानसूत्रस्य पठनादीनां फलमाह-'निरनुबन्धे. वे 'त्यादि । .: अनुवन्धशब्दोऽत्र न पूर्ववत् सामान्यबन्धवाचकः किन्तु पारम्पर्यवाचकः तत्राऽनुरर्यहीनः, अत्र तु सातत्याऽर्थत्वेन पारम्पर्यायः । कर्मणां च विशेषेण स्वभावोऽयं यत् पारम्पयमनुबध्नन्ति, तत एव चाऽनाभोगेनापि प्रतिसमयं जीवानां योगेन गृहीतानां कर्मणां सप्तधा बन्धः, तत्रापि अशुभानां विशेषेण निकाचितानामशुभकर्मणां विशेषेण पारम्पर्य भवति । श्रूयते च मरुभूति-कमठाऽऽदीनां वैरानुबन्धपारम्पर्यम् , अत आह प्रणिधानसूत्रस्यैतस्य पठनादेरशुभानि निकाचितानि कर्माणि पारम्पर्येण हीनानीति निरनुबन्धानि स्युरिति ।। .. वर्तमानान्यपि निकाचितान्यशुभकर्माण्याश्रित्याह-'भग्गसामत्थे 'त्ति । ज्ञाननादोनां कर्मण यद्यत् ज्ञानावरोधादिसामर्थ्य तत् सर्वं सामर्थ्य पठनाद्येतस्य भनक्ति । कुतः पुनरेव मित्याह- सुहपरिणामेणं 'ति । : प्राक् तावत् प्रणिधानसूत्रस्यैतस्य पठनादेरशुभकर्मणां शिथिलीभवनायुक्तं, तत्राप्येतदेवैतजन्यः शुभः परिणामः कारणं, तत्राऽर्थगम्य एषः। अत्र तु निकाचितानां सामर्थ्यभनाय विशेषतस्तस्य कारणत्वात् साक्षादुक्तिः । . . सत्सु कर्मसु विबाधनस्वभावेषु कथं स्याद् भग्नसामर्थ्यमिति दृष्टान्तेन तद् दृढयति 'कडगवद्ध विव विसे 'ति । .. यद्यपि विषस्य लेशोऽपि प्राणवियोजनस्वभावः, सहस्रवेधिनस्तु तस्य किं हि वाच्यं, परं तादृशमपि विषं प्रतियोगेन. मन्त्रेण वा तथा प्रतिहतसामयं भवति, यथा यत्र तत्र सङ्क्रान्तपूर्व तत्रैव Page #132 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तिष्ठति, न तु प्रसरमादधाति, तद्वदत्राऽऽदिप्रणिधानसूत्रस्यतस्य पठनादेरुत्पनेन शुभपरिणामेन निकाचितान्य यशुभकर्माणि निरनुबन्धानि कृत्वा भग्नसामानि क्रियन्ते । तत एवाह-'अप्पफले सिआ सुहावणिज्जे सिआ अपुणभावे सियति । तदेतनिकाचितमशुभं कर्म निरनुबन्धं भग्नसामध्यं च जातं, ततस्तदल्पफलं सुखाऽपनेयमपुनर्भावि च स्यादिति । तदेवं अशुभकर्माण्याश्रित्य प्रस्तुतप्रणिधानसूत्रपाठादेः फलं प्रदर्याऽथ शुभकर्माऽऽश्रित्य तदाह"तहा आसगलिज्जति परिपोसिज्जति णिम्मविज्जति सुहकम्माणुबंधा, साणुबंधं च सुहकम्म पगिढ़ पगिट्ठभावजिअं णियमफलयं । ___ मुप्पउत्ते वि अ महागए सुइफले सिया ! मुहपवत्तगे सिया ! परमसुइसाहगे सिआ!' इति । __ यद्यपि 'कृत्स्नकर्मक्षयो मोक्ष' इत्यादिवचनाद् भवितुकामानामसुमतामशुभकर्माऽनुबन्धा इव शुभकर्माऽनुबन्धा हेया एव, परं अव्यवहारराशेनिर्गमादारभ्य यावदयोगिगुणस्थानं प्राप्यते, तावत् त्रसत्वादिसम्पादनद्वारा मुक्तिगामुकानां तदेव सहायकर, तत एषां या हेयता साऽयोगिमान्ये नार्वाक 'ताणि ठाणाणि गच्छन्तीत्यादि 'देवे वा वि महिड्डिए' इत्यादि ‘से दसंगेऽभिजायई'त्यादि चाऽऽगमोक्तमवधारयन् कोऽप्युत्कों भवति वक्तुं यदुत-प्राक् समुद्घातात् अयोगऽभावाद्वा पुण्यानां क्षेयता, शुभकर्मणां मोक्षसाधने सहकारिभावेऽसाधारण एव, न झेतावति अतीतेकाले कोऽपि बादर-त्रसत्वाद्याप्तिमन्तरोपेतो मोक्षमिति । एवं प्रागुक्तयुक्तेः शुभकर्मणां सङ्ग्राह्यत्वात् प्रस्तुतस्य प्रणिधानसूत्रपाठादेः शुभकर्मानुबन्धमाश्रित्याह-'आसगलिजंति 'त्यादि। तत्र चयो-पचय-बन्धा आसकलनानि, सङ्क्रमणोद्वर्तनाsदिभिः परिपोषणं, अल्पप्रदेशाऽऽदीनां बहुपदेशादिकरणं निर्माणं । तथा चैतत्प्रणिधानसूत्र- . पाठादिभिः सकलीकरणादीनि त्रीण्यपि शुभकर्माऽनुबन्धानां भवन्तीति ।। एवमभिनवं शुभानुबन्धमधिकृत्य प्रणिधानसूत्रपाठादुक्वा फलं शुभकर्माऽनुबन्धं जातमधिकृत्य तस्य तदाह-'साणुबंधं च सुहकम्मं ति । यः कश्चित् प्रणिधानसूत्रस्य पाठादिकं करोति शुभकमांनुबन्धवांश्च प्राक्तनैः कैश्चिद् हेतुभिः प्रागेव भवति च तस्य तत् शुभानुबन्धं कर्म सानुबन्धं पारम्पर्येण पुण्यानुबन्धयुतं जायते, तथा च 'दया भूतेषु वैराग्य मित्यादिवद् अनेन पाठादिना पुण्यानुबन्धिपुण्यं स समुपार्जयति, न केवलं पुण्यानुनन्धिपुण्यमनेनाऽर्जयति, किन्त्वर्जितमपि केनचिद् दयाऽऽदिना हेतुना, तच्चेत् प्रागेवात्मसाद् भवेत्तदा तत् प्रकृष्ट पुष्टं करोति, पुण्याऽनुबन्धिपुण्यस्य समुपार्जनं प्रकृष्टभवाऽर्जितं करोति । तथा ज Page #133 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (९५) च कल्पेष्विन्द्रत्वादिस्थानप्राप्तिपारम्पर्ययुक्तं यादृशं तद्भवति तादृशमनेन पाठादिना करोति पुण्यानु.बन्धि पुण्यमिति । अत्र चावधेयमिदं घीधनैः यदुत - जैने शासने शुभमशुभं वा कर्म यथैव बद्धं तथैव भोक्तव्यं न तु किश्चिद् भवत्यपर्वतनादि करणमिति न नियतं केषाश्चिदशुभानां कर्मणां निन्दाभिर्विनाशभावात् । अन्यथा निर्जरातत्वस्यैवाऽकिञ्चित्करत्वात् तद्भव विहितक्रूरतंरपापकर्मणां दृढप्रहारिप्रभृतीनामुद्धाराsभावाद् । यथैव चाऽशुभानुबन्धानामपवर्तनादिकरण विषयतास्ति तथैव शुभानामपि कर्मणामस्त्येवापवर्त्तनादि । श्रूयते च कुवलयमभाऽऽचार्येण वद्धमपि जिननाम विशकलितम् । करणविषयत्वादेव च . शुभकर्मणामनुमोदनादिना पोषणोपदेशो युक्तियुक्तो भवति । तथा च प्रस्तुतप्रणिधान सूत्रपाठादेरपि फलं दिशन्तः ग्रन्थकाराः शुभकर्मणां नियतफलतां दर्शयन्त आहु: 'नियमफळयं सुप्पउत्ते बिव महागए 'ति । सुनिश्चितमिदं यदुत–मणि–मन्त्राऽऽदीनामिवाऽगदान्यचिन्त्यप्रभावाणि भवन्ति । श्रूयते च श्रमणस्य, भगवतो महावीरस्य शिष्याऽपसदेन गोशालकेन मुक्तया तेजोलेश्यया जाता लोहितवचोंबाघा षण्मास्याऽपि प्राक् अगदेन शान्ता । भिषक्पुत्र केशवप्रभृतिश्च तथाविधेनौषधेनैव मुनिः पटुः कृतः । चारिसञ्जीवनीचारप्रभावोऽपि औषधानामेवाचिन्त्यमहिमानं व्यनक्ति । तत्रापि महागदं मूलतः स्यात्, वैद्याऽऽतुरयोश्च कुशलतमत्वाद्यदि तत् सुप्रयुक्तं स्यात्, तदा तस्याऽगदस्य नियमेनारोग्यं फलं भवति, तद्वदिदमपि प्रणिधानस्य पठनादि नियमफलदमेवास्तीत्यवश्यं विधेयं भन्यैस्तदिति । सम्प्रति सूत्रकारः प्रस्तुतं पापप्रतिघात - गुणबीजाऽऽघानरूपं सूत्रमुपसंहरन्नाह सुहफले इत्यादि । तत्र शुभफलः सुखफलो वा श्रीशान्तिनाथाऽऽदीनामिव, सुखप्रवर्तकः शुभप्रवर्तको वा भगवतः श्रीऋषभदेवाऽऽदेखि, परमसुखसाधकः परमशुभसाघको वा श्रीशालिभद्राऽऽदीनामिव प्रस्तुतसूत्रस्य पठनादिप्रयतो नरो भवतीति वाक्येन सूत्रकाराः फलमुपसंहारावसरे ज्ञापयन्ति । अथ शासने ज्ञानादीन्यभिमानादिभिर्दानादीनि कीर्तनादिभिः प्रतिबन्धैः सहितानि सन्ति, तत्फलमभिहन्यते च तैः, एतच्चाऽशकटं पित्राद्याख्यानकेषु प्रसिद्धमेव, यच्चैकं वैयावृत्त्यं 'वेयावच्चं किळ अपडिवाई 'ति वचनादप्रतिपातितया तदपि तज्जन्यस्य सातवेदनीयफलस्यैवाऽप्रतिपातितया, न तु स्वरूपे(ण) । परमिदं प्रणिधानसूत्रपठनादि तु स्वरूपेणैवाऽप्रतिपातीति दर्शयन्तः प्रस्तुतस्य प्रणिधान - सूत्रस्य पठनादेरुपदेशायाऽऽहुः - ' अपडिबंधमेयं 'ति । नात्र किश्चिदपि तादृशं विद्यते जगति, सुप्रणिधानमेतत् प्रतिबध्नीयात् तथा चाऽप्रतिहतसामर्थ्यमेतत् प्रणिधानसूत्रपाठादेरुद्भूतं सुप्रणिधानमिति । १३ Page #134 -------------------------------------------------------------------------- ________________ किञ्च यद्यपि जैने शासने पुण्यस्य-पापस्य च स्वतन्त्रतया सत्तेष्यते, तेन पुण्येन पापमितरद्वेतरेण प्रतिहन्यते इति नाऽभिमन्यते । दृश्यते चान्धनृपपुत्राऽऽदिषूभयमपि वेद्यते इति । पर अशुभभावाः शुभभावेनाऽवश्यं निरुध्यन्ते, आश्रवबन्धाऽध्यवसायानां संवरनिर्जराऽध्यवसायनिरोधस्याऽऽगमसिद्धस्वादत आहुः 'असुहभावणिरोहेणं सुहभाववी ति सुप्पणिहाणं सम्मं पढियव्वं (सम्म) सोयच्वं स(सम्म) अणुप्पेहियव्वं 'ति । 'शुभोदर्काय वैकल्यमपि पापेषु कर्मसु' इत्यादिवचनात् चौर्यायध्यवसायानामप्रतिहतानामपि निद्रादिभिः प्रतिघातस्य दर्शनात् नाऽत्रैवम् , अत्र तु प्रस्तुतप्रणिधानसूत्रपाठादिगतेनाऽथ्यवसायेन विषयाऽऽदिगताऽशुभाऽध्यवसायानां निरोधो भवति । तथैव गताऽऽश्रवाणामेव संवरप्रवृत्तिवद् गताऽशुभाऽध्यवसायानामेतत्पठनादि विदधाति निरोधं, तेनैव चैतत् शुभभाववीजं नियमेनेति स्पष्टयन्ति । एवमुपदर्य सर्व स्पष्टमादेशयन्ति सूत्रकाराः-'पठितव्य 'मित्यादि । 'इरियासमिए सया जए' इत्यादिवद् विधानाय विधीनामुपदेशः "णियहिज जयं गई'. स्यादिवच्च हेयानां हानायोपदेशः शास्त्रकृतां सदा प्रवर्तत इति कृत्वाऽऽज्ञाभियोगाऽऽद्याशङ्का कार्या प्रत्यपाये शास्त्रकर्ता न शिक्षायै तोषाय वा [य ता] यतन्ते भाविनां प्रत्यपायानामपि अवश्यफलतयैव दर्शनान् स्वयं तद्विधातोद्यता नेति आज्ञावलाभियोगशङ्काऽपि नाऽपैति । किमाज्ञापयन्ति सूत्रकाराः! इति चेत् , प्रणिधानसूत्रमेतत् ! सुप्रणिधानमेवेति हेतोः पठितव्यं श्रोतव्यमनुप्रेक्षयितव्यं चेति । एवं चाऽर्यदेशकत्वं यदाचार्याणां शासने गीयते तदेतदाज्ञादानसूत्रेण सत्यापितमाचारिति । पठनादयश्च प्राग विवृता एवेति न वित्रियन्ते । अत्र च प्रणिधानसूत्रं समाप्यते इति दर्शनाय सूत्रकारैः इतिशब्दोऽन्ते धृत इति । एवं भवितुकामानां पाठ्यं प्रणिधानसूत्रं समाप्य स्वयमारब्धेषु पञ्चसु सूत्रेषु सूत्रस्याद्यस्य 'णमो वीयरागाण 'मित्यत आरब्धस्य नामज्ञापनपुरस्सरमुपसंहारमाहुः सूत्रकाराः 'णमो णमिअणमिआणं परमगुरुवीधरागाणं ! णमो सेसणमुकारारिहाणं ! जयउ सवण्णुसासणं !!! 'देवा वि तं णमंसंति जस्स धम्मे सया मणो'त्तिवच नाद सर्वेऽपि धर्मपरायणा देवैर्नम्यन्ते । किन-श्रीव्याख्याप्रज्ञप्त्युक्तसनत्कुमाराऽदीन्द्रादीनां सर्वदाऽस्त्येव श्रमणानां निर्ग्रन्थानां समाराधना, ततश्च देवादिभिर्नम्या ये गणधरादयो निर्ग्रन्थास्तै ताः . परमवीतरागा इति तेषामर्हता नतनतत्वम् । किञ्च-'तस्मादहति पूजामईन्नेवोतमोत्तमो लोके । देवर्पिनरेन्द्रेभ्यः पूज्येभ्योऽप्यन्यसत्त्वानां ॥ Page #135 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (९७) इति तत्त्वार्थ भाष्यकारोक्तोत्तमोत्तमकोटी पुरुषत्वादप्यर्हन्तो भगवन्तो नतनता इति तेभ्यो नम इति । यद्यपि वीतरागशब्देन बन्धो-दय- सत्तागतस्याऽभावः ख्याप्यते, तथापि भगवतामर्हतामेव तथाभूतानां ग्रहणमिति परमवीतरागेभ्य इत्याहुः । एवं चाऽर्हतो नमस्कृत्य शेषनमस्कार्यनमस्कारार्थमाहुः णमो सेसणमुकारारिहाणं' ति । अनेन च पदेन सर्वेऽपि सिद्धाचार्योपाध्याय - मुनिरूपा नमस्कार्या अखिलशासनस्य, ते व्याक्षिप्ताः । नहि जैने शासने कश्चिदपि परमेष्ठी नमस्कारानर्ह इति योग्यमुक्तं - ' नमः शेषनमस्काराभ्य' इति । एवं पूज्याऽऽराध्यानशेषान्नमस्कारेणाराध्याऽऽशंस्यमाहुः - 'जयउ सव्वण्णु सासणं 'ति । मत्रावधेयमिदं यदुत-नवपयां सिद्धचक्रयन्त्रे च यानि नव पदानि ख्यातानि, आद्यानि तेषु पञ्चाऽऽराध्य-पूज्यतोभयपदोपेतानि, परं सम्यग्दर्शनादीनि तु चत्वारि गुणरूपत्वादाराध्यान्येव । अत एव पूज्याऽऽराध्योभयधर्मोपेतत्वात् पञ्चपरमेष्टि- नमस्काराssदि (१) परं यानि सम्यग्दर्शनादीनि चत्वार्याराध्यानि पदानि, तान्येव जैनशासनं । उभयाऽवधारणं चात्रापि - " यद् नाऽन्यत् सम्यग्दर्शनादिभ्यो जैनं सर्वज्ञोद्भावितं शासनं न च तादृशं शासनं व्यतिरिच्य सम्यग्दर्शनादीनि " । ततः सुष्ठुक्तं “जयतु सर्वज्ञशासन 'मिति 'धम्मो वड्ढउ सासओ विजयओ' इत्यादिवत् जयाssशीर्वादस्य प्रशस्यताssवश्यकता चेति । असम्भव्यपि यथा जिनेश्वरैर्वरबोधित आरभ्य परार्थोद्यतत्वादशेषजगदुद्धारकरणमभिधार्यते । अभावेऽपि तस्याऽभिप्रेतस्य जगदुद्धारफलस्य तदभिधारणे तेन तु तीर्थंकरत्वं समर्ज्यते निकाच्यते चेति, प्रस्तुतसूत्रकारा अपि प्रस्तुतोपयोग्येवाऽभिप्रेतमाहुः - ' परमसंबोहीए सुहिणो भवंतु जीवा, सुहिणो भवंतु जीवा, सुहिणो भवंतु जीवा' इति । . परमसम्बोधिश्व प्रागुक्तवरबोधिलाभरूपोऽन्यो वा ज्ञेयः, सुखभावस्योभयत्राप्यव्याहतत्वात् । भवन्त्विति आशंसाप्रयोगश्च स्वेषां तथाविधवरलाभशून्यत्वाद् अन्यतो वाऽऽगमबोधबोध्या कारणादिति । एवमुक्त्वा निगमयन्ति प्रस्तुतं -' इति पावपडिधायगुणबीजाहाणसुत्तं समत्तं ' इति । Page #136 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (९८) अध्येतृणां प्रस्तुतसूत्रस्य सिद्धपूर्वमेव यदुत-अत्र सूत्रे गह!करणेन पापानां प्रतिघातः, भगवतामहदादीनां गुणानामनुमोदनेन च गुणवीजाऽऽधानमिति यथावत्तया साधितमेवाऽस्तीति योग्यैवाऽभिभा सूत्रस्येति । इत्येवं सुचिरन्तनाऽऽगमधराचार्योद्भुतं शुद्धये, पापानां गुणमूलकवृद्धिविधये चात्मोद्धराणां विदे। यत् पापप्रतिघातसंयुतगुणसन्दोहसम्भूतये, तस्येदं सुकुमारबुद्धिसुगम दृब्धं मया वार्तिकम् ॥१॥ हब्धा यस्य च वृत्तिज्ञानमणितिपोद्भूतवोधैः किल, सूरीशैईरिभद्रनामसुभगैजैनागमैकोद्धरैः । सा विज्ञावलिवेद्यतत्त्वसुभगायेदंयुगीनजनैस्तादृग्बुद्धिवियोगतोऽवगमितुं नैव क्षमा संविदे ॥१॥ ५ ०० २ बाणशून्ययुगलाङ्कितवर्षे, मार्गशीर्षसितपक्षगतायां । विक्रमभूपकृते विहितैषाऽऽनन्देनाद्यतिथी गुणदृद्धये ॥१॥ इति श्री आगमोद्धारक-आचार्यप्रवरश्री-आनंदसागरसूरिपुरन्दरैः संदृब्धं .. पञ्चसूत्र(आधस्त्र)वार्तिकम् समाप्तम् । . . जिनवचनमहत्ता एकमपि तु जिनवचनाद्यस्मान्निर्वाहकं पदं भवति । श्रूयन्ते चाऽनन्ताः, सामायिकमात्रपदसिद्धाः ॥ . तस्मात्तत्प्रामाण्यात् , समासतो व्यासतंश्च जिनवचनम् । श्रेय इति निर्विचार ग्राह्यं ' धार्य च वाच्यं च ॥ -दशपूर्वधराचार्योमास्वातिरचितश्रीतत्त्वार्थसूत्रभाष्य संबंधकारिका गा. २७-२८ Page #137 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॐ नमो जिनाय आगमोद्धारक - आचार्यप्रवर - श्री आनन्दसागरसूरिवरनिर्मितः पञ्चसूत्रतर्कावतारः 2 अथ *शेषचतुःसूत्र्यामैदंयुगीन जनोचितस्तर्कावतारः । 44 जाया धम्म - गुणपडिवत्तिसद्धाए " 'जाताया 'मिति 'संविग्गो गुरुमूंले सुयधम्मो इत्तरं व इयरं वे 'तिवचनात् 'सुहगुरुजोगो व्वयण सेवणे 'तिवचनाच्च तथाविधप्रवृत्तेर्गुरुजनेभ्यः सकाशादुत्पन्नायां. किञ्च - भवितुकामानामपि लघुवयो लब्धप्रव्रज्यादीनां तादृशोऽपि विद्यत एव वर्गों यो देशविरतिमप्रतिपद्यैव सिद्धः । पठ्यते च शास्त्रेषु – “सिद्धाऽसङ्ख्ये यांऽशोऽप्रतिपन्न देशविरतिक " इति केषाञ्चिन्न नायतेऽपि अन्तरा देशविरतेः प्रतिपत्तौ श्रद्धेति, येषां सा जायते तेऽत्राधिक्रियन्ते इति दर्शनार्थमुत्पत्ति- प्रदर्शको जातशब्द इति । न च वाच्यं पञ्चाशके तोलयित्वा मानं देशविरल्या दुःषमकाले तु वर्णाऽऽश्रमवद् विशेषेण 'देशविरतिं पालयित्वा सर्वविरतेरुक्ता प्रतिपत्तिः, धर्मविन्दावपि दुःस्वप्न कथनादि - मातापितृनिर्वाहसाधनकरणस्य सर्वविरतिप्रतिपत्तेरादौ प्रतिपादनात् देशविरतिमूलैव सर्वविरति प्रतिपत्तिः स्यादिति । ܐ यतः आवश्यकादिषु क्वाऽपि भवे अस्पृष्टदेशविरतीनामपि सिद्धत्वस्य प्रतिपादनात्, श्री निशीथचूर्ण्यादिषु गर्भाऽष्टमादीनामपि सर्वविरतेः प्रतिपादनाद्, भगवद्भिः श्रीहरिभद्रसूरिभिरेव श्री श्रीपञ्चवस्तुप्रभृतिषु सप्ताधिकवर्षवयस्कानां सर्वविरतेरर्हत्वस्वीकाराच । - तत्त्वतस्तु प्रतिपन्नगार्हस्थ्यानां पञ्चाशकाऽऽदिशास्त्रोक्तः क्रमो दुष्षमाऽरके आनुकूल्यताभागिति पञ्चाशकाऽऽदिषु तथा प्रतिपादितमिति, ततश्च न सार्वत्रिक एष पञ्चाशकाऽऽदिप्रोक्को नियमो न वा तदविधाने विधिविरोध इति । स्थूलप्राणाऽतिपातविरमणाऽऽदिको धर्मः, श्री औपपातिकाऽऽदिषु स्पष्टतया तस्यांडगारधर्मतयाऽऽख्यानात्, गुणाश्चात्र तत्प्रतिपत्तेरनन्तरं तत्पालनं यतनाऽऽद्याः पापमित्रसङ्गवर्जनाऽऽद्याश्च । "* प्रथमसूत्रस्य "पंचसूत्रवार्तिक" नाम्नां विवृतत्त्वात्तस्येह नाधिकारः, अतः - :- शेषपदेन द्वितीयादीनां चतुर्णा परिग्रहोsवबोध्यः । Page #138 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २ ) यद्वाऽणुव्रतानि धर्मतया, दिग्विरत्यादयो गुणा गुणवतादिरूपाः स्थूलपरिग्रहविरमणोक्तेरनु 'इच्चाईत्ति' वचनात्तेषां गुणव्रताऽऽदीनां ग्रहणमपि नानुचितं, साक्षात् पञ्चानामनुव्रतानामुक्तिस्तु तत्मतिप्रत्तिरेव विरतिरूपतामादधातीति ज्ञापनार्थं । तथा चाऽविरतानामपि वासुदेवाऽऽदीनामष्टमपौषधिकत्वादिभिर्न विरोधः, यावज्जीबिकस्य स्थूलप्राणवधादिविरमणस्याऽप्रतिपत्तेर्वासुदेवाऽऽदीनामविरतत्वं, यावज्जीविका प्रतिपत्तिश्चाऽणुवतानामितरेषां त्वितरथापि । किञ्च प्रतिपन्नानामनुव्रतानां गुणायैवैतानि दिग्विरत्यादिरूपाणि व्रतानि, तत एव च शास्त्रे दिपरिमाणादीनां सप्तानामपि गुणत्रतत्वं शिक्षात्रतत्वं चोच्यते । श्रद्धाशब्दश्चात्र प्रतिपत्ति-रुच्यर्थः नतु प्रतीत्यर्थः, प्रतीतेस्तु सम्यक्त्वावसरे एव जातत्त्वात् । अष्टादशानां वधादीनां पापस्थानकत्वस्य तद्देशविरमणस्य तत्सर्वविरमणस्य च क्रमेण सम्यक्त्व - देशविरत - सर्व विरतत्वेनाधिगमात् । अत एव यतिधर्मस्या सामर्थ्ये देशविरतिरूपः श्रावकधर्मः, तस्याप्यसहिष्णुत्वे केवलं सम्यक्त्वं, तदभित्रीतेरप्यभावे च ' चउहिँ ठाणेहिं जीवा णेरड्याउत्ताए' इत्यादिदेशनाऽनुवादात् मांसप्रभृतिभ्यो विरतिश्व क्रमेण कार्यतयोक्ता देशकानामिति, अन्यथादेशनायां प्रायश्चित्तस्य प्रतिपादनात्, . तदेनं समीक्ष्य विद्वान् वचनं न कदापि वक्ति यद् - विना देशविरतिं न स्याम्न देया ग्राह्या वा सर्वविरतिः ॥ किश्च - देशविरतिरपि तेषामेव भवति, ये गृहस्थत्वं देशविरतिरतिरूपं तप्तायः कटाहपदन्यासतुल्यं गणयन्ति । ततश्चाऽपवादपदं देशविरतिः, सर्वविरतिस्त्वौत्सर्गिकीति । भगवता वीरेण देशनायामपि प्रागनगारधर्म एवाख्यात इति । प्रतिपत्तिश्च गुरोः सकाशाच्चैत्यवन्दनादिविधिना, ग्रहणं गुरूमुळे श्रुतधर्मेण इत्वरं यावत्कथिकं वा व्रतानां स्वीकारस्य भानात् । " भाविज्जा एएसिं सरूवं पयइसुंदरतं । " 'भावयेदेतेषां प्रकृतिसुन्दरत्वमिति । यद्यपि भूधातोः सत्तारूपोऽर्थस्तथापि ' धातूपसर्गनिपाता अनेकार्थी ' इति नियमात् ' धातवोऽनेकार्था' इति न्यायात् 'तक्षःस्वार्थे वे 'त्यादि - सूत्राच्च धातूनामनेकार्थत्वात् 'भावना वासना संस्कार' इति कोशाच्च वासनार्थोऽत्र भूधातुः । भू-कृपोचिन्तनेऽपिति मताऽन्तरेण भूश्चिन्तनार्थो भ्वादिगण्यते, तत्र तु न न्यायानुसरणं, परमेष विशेषो यदुत - ण्यागम एव वासनाऽर्थः नाऽन्यथेति । भावनं च न शास्त्रोक्तीरनुसृत्यैव, किन्त्वौत्पत्तिक्यादिबुद्धिप्रयोगेण समीपतरवर्ति चैतदो रूपमितिन्यायोक्तेः पुरतो वक्ष्यमाणानि स्थूलप्राणातिपात विरमणाऽऽदिनि पापमित्रवर्जनाऽऽदीनि ब्राऽत्रैतच्छ्देन ग्राह्याणि सन्ति चोभयान्यपि बहूनीति घहुवचनं । ' Page #139 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकृत्या सुन्दरसमिति-भक्तिकृतं सहकारादि स्नेहजमौचित्योत्पादितं चेत्यायनेकधी सुन्दरत्वमाभासते लोकानां, वर्णयन्ति लोकानां पुरतो यावत् कविताप्रयोगात् काव्यादिष्वपि कुमारसम्भवाऽऽदिष्विव, परं तथैषामणुव्रतादीनां न तद्भावनं सूत्रकारैरादिश्यते, किन्तु स्वभावेनैवैतानि स्थूलप्राणवधविरमणादीनि सुन्दराणि । यतः प्राक् तावत् विहायाऽऽर्हतान् न कोऽप्यन्यः दर्शनाश्रितः पृथिव्याऽऽदीन् षट्कायानेव जीवंतया जानाति । अन्ये तु लोकोक्तिप्रधानास्त्रसंकायमेव जीवं वदन्ति, वदन्ति च तत एव चलमानां जीवा इति । ततश्चाऽनन्ताः पृथ्यादय एकेन्द्रियास्तैख़ता एव न, कुतस्तर्हि तेषामुपदेशनं ? भत एवोच्यते आवश्यकादावणुव्रताद्यधिकार उपक्रम एव 'इत्थ उ समणोवासगधम्मे' इत्यादि उच्यते च 'णियमेण उ छक्काये' इत्यादि । _ ततस्ततत्त्वतस्तदेव जैनं शासन, यतः पृथ्व्यादीनां षण्णां जीवकायानां श्रद्धानमिति । एतदेव चादावुत्कृष्टत्वं जैनशासनस्य यत्-पण्णां जीवनिकायानां ज्ञानं श्रद्धानं प्ररूपणं स्वीकारो यथायथं पालनं च। अत एव च कषशुद्धमिदमेव शासनं, षण्णामपि पृथ्यादीनां कायानां हिंसादिपापस्य वर्जनायोपदेशदानोद्यतत्वात् । तथा च षड्जीवनिकायानां दयायाः सम्भवः पालना उपाय इत्यादयोऽप्याहत एव दर्शने, अन्यत्र तथाविधाया हिंसाया दयायाश्च सम्भवाद्यभावात् सुख-दुःखाधतिशयादि-तत्फलदर्शकदृष्टान्ताऽभावाच्च । - किञ्च-अपरे हि सृष्टिवांदकुहेवाके मग्नतया करिमेकरूपं नित्यमभ्युपगच्छन्तः प्रतिपदमनभूयमानमपि पदार्थानां नित्याऽनित्य-सदसत्-सामान्य-विशेषाऽऽदिविविधधर्मवत्तया स्यादवादमुद्राऽतितत्वं नाऽभ्युपगच्छन्ति । ततश्च परतीर्थ्याः सर्वेऽपि तापशुध्ध्या धर्म शुद्धमाख्यातमलं न भवन्तीति । त्रिकोटिशुद्धं जैन शासनमिति, तदुक्तस्यैव श्रमणोपासकधर्मस्य प्रकृत्यैव सुन्दरत्वं स्यात् । अन्यच्च परे हि धर्मा · वीतरागेभ्य आदधतोऽसूयां वीतरागगुणमेवाऽप्रसन्नात् कथं फलं. .. प्राप्यमित्याद्यक्त्वा. दोषतयोगिरन्ति, स्वयं क्रोधाद्याध्मातास्तिष्ठन्ति । तत एव वैरमुद्वहन्त्यप्रीतेषु प्रतीकारं च तेषां कुर्वन्तस्तदेव न्याय्यमित्युद्घोषयन्ति, तत एव चाऽऽम्नायन्ति “दुष्टानां शिक्षणं. चैवें 'त्यादि । जैनानां तु शासनं 'मा कार्षीत् कोऽपि पापानी 'त्यादिना मैत्र्यादिभावनाचतुष्कं सम्यक कृत्वाऽनुगततया मैत्री-प्रमोदेत्यादितत्त्वार्थाऽऽद्युक्तेराविर्भावयति, द्विसन्ध्यं क्रियमाणे आवश्यक Page #140 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 'मित्ती मे सब एसु, वेरं मझं ण केणई 'त्यादि 'सव्यस्त जीवरासिस्से 'त्यादि प्रतिपादयित्वा क्षमा ग्राहयति। ततश्च भवति तेषां षण्णां जीवनिकायानां दयायाः करणीयताविषये प्रज्ञापनं चाहत्येव तदिति, जैनशासनोक्तानि स्थूलप्राणवधविरमणादीनि प्रकृतिसुन्दराण्येवेति । ___अवधेयं तावदिदमत्र यदुत-श्रमणोपासकधर्ममभ्युपयन् श्राद्धः 'तत्त्वाऽर्थश्रद्धानं सम्यग्दर्शन मिति 'जीवाज्जीवाऽऽश्रवावन्धसंवरनिर्जरामोक्षास्तत्व 'मित्याद्यवधारयन् पृथिव्यादीनां षण्णामपि जीवनिकायानां श्रद्धायुक्त एव भवति । अत एवोच्यते 'सत्येव (सम्यक्त्वे) न्याय्यमणुव्रतादीनां ग्रहण 'मित्यादि । . . युक्तं चेदमेव, यतो यः श्रद्धत्ते जीवान् त्रसतया स्थावरतया च, स एव क्षित्याऽऽदीनां स्थावराणां वधस्य वर्जनमशक्यं मत्वा तं परिजिहीर्घः सन् त्रसकायस्य वधं वर्जयन् स्थूलां प्राणातिपाताद् विरतिं करोति । यस्य तु सम्यक्त्वेन शून्यस्य त्रस-स्थावरभेदेन श्रद्धानमेव जीवानां नास्ति, स कथं तां तथाविधां कुर्यात् , तदभावे च शेषाणामपि तद्वृतिप्रायत्वादभाव एव तत्त्वतः स्यात् , ततो युक्तमुक्त 'सत्येव सम्यक्त्वे न्याय्यमणुव्रतादीनां ग्रहणं'। किञ्च-श्रमणोपासको लोकव्यवहारार्थमावेणिकान् आचारान् कुर्वाणोऽपि न तत्करणं धर्मत्वेन मन्यते । अतएव च “निरर्थिकां न कुर्वीत, जीवेषु स्थावरेष्वपि । . हिंसामहिंसाधर्मज्ञैः” इत्याद्युपपद्यते । ..... ततश्च सर्वप्राणिवधवर्जनरूपां सर्वविरतिमभीप्सन् स्थूलप्राणवधविरतिरूपां देशविरतिं कुर्वन्नपि . श्रमणोपासकः अणुव्रतादीनां प्रकृति सुन्दरत्वमाम्नाति श्रद्धाति च । न च वाच्यमनन्तानां वनस्पत्यादीनां स्थावराणां वधस्य न वर्जनं कृतं तर्हि परिमितानामितरेषां वधादेवर्जनेन किं हि व्रतत्वमिति ? यतस्त्रसवधो वर्जितुं शक्यः, त्रसतयैव चैषां जीवानां वधोऽतिसंङ्क्लेशकरः, सिद्धान्तश्चैप यदुत-हिंस्यकर्मविपाकेनापि जायमानायां हिंसायां हिंसकानां सलिष्टत्वानिमित्तभावादविरतेश्च भवत्यघन्दस्य वन्धः । अभावे तु सक्लेशादीनां 'जय भुंजतो भासंतो पावं कम्मं ण बंधई 'त्यादि वचनानाऽस्त्येव बन्धलेशोऽप्यघन्दस्य । मत एव चाऽप्रमत्तानां हिंसाया अभावाऽभावेऽपि अनाऽऽत्माऽऽरम्भकत्वाऽऽदि गीतमागमे इति । Page #141 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ... किञ्च-स्थूलवधविरत्यादीनामेव प्रकृतिसुन्दरत्वात् कश्चिदज्ञः प्रत्यनीको वा विहायाऽन्नाद्याहार मांसाद्याहारतया नियमयति, यावत् षष्ठे त्यक्त्वा च दिनभोजनं निशाभोजनं नियमयति, तदा शासनरसिकः प्रत्याख्यापकस्तं तथा विदधतं निषेधति, न च तथा व्रतयति कथमपि, तथाप्रत्याख्यानस्य प्रकृत्यैवाऽसुन्दरत्वात् । एवं स्थूला-ऽणुमृषावादविरमणाऽऽदिष्वपि स्थूलमृषावादाऽऽदिविरमणाऽऽदीनामेव प्रकृतिसुन्दरत्वं ज्ञेयमिति । - ननु स्थूलप्राणवधविरमणमित्यत्र कस्य स्थूलत्वं ? यतो विरमणं वधश्च क्रियारुपो; क्रियायाश्च द्रव्या- ... श्रितत्वान्न स्थूलत्वं न चाणुत्वं, यदि च प्राणानां स्थूलत्वमाम्नायते, तदपि न योग्यं, यतो यथाभूता एव . . हि सूक्ष्मशब्दवाच्यानां स्थावराणां स्पर्शनादयः प्राणास्तथाभूता एव च स्थूलशब्दचाच्यानांत्रसानामपि । यतो नाऽत्र स्थूलशब्देन बादरकर्मोदयनिष्पाद्यशरीरवत्वं विवक्षितं, तदितरत्र च सूक्ष्मनामकर्मोदयनिष्पन्नत्वं, किन्तु स्थूलशब्देन स्थूलमतिधारिभिरपि जीवतया प्रतीयमानत्वात् त्रसा एवं वक्तुमिष्टाः । . एवमेव च श्रीजैनशासनलब्धसूममतीनामेव जीवतया ग्राह्यत्वात् सूक्ष्मशब्देनाऽत्र पृथ्व्यादय एकेन्द्रिया वक्तुमिष्टा इति । प्राणानां स्थूलत्वं वा सूक्ष्मत्वं वा नाऽत्र वक्तुमिष्टं, प्राणास्त्विन्द्रियादयः. शरीरमानाधीनाः, शरीरमानेन च: यावन् महत्वं वनस्पतीनामेकेन्द्रियाणां तावन्न .. कस्याप्यन्यस्य, 'जोयणसहस्समहिअं णवरं पत्तेभरुक्खाण'तिवचनात् । . .. ... . यद्यपि पञ्चेन्द्रियाणां वैक्रियं साधिक(लक्ष)योजनं भवति, परं न तत् स्वाभाविकमुत्तरवैक्रियं हिं तत्, स्वाभाविकं तु तत् संप्तहस्तमानमेवोत्कृष्टं एवं · भवति नाऽधिकं देवानपेक्ष्य, : नारकाणामपि स्वाभाविकं वैक्रियं पञ्च(शत)धनुर्मानमेव भवतीति । न द्वीन्द्रियादीनां शरीरप्राणादिमहत्त्वं, येन ते उच्यन्ते स्थूला इति । जीवास्तु एकेन्द्रियादय संसारिणः सिद्धाश्च: संसारमुक्ताः सर्वेऽप्यमूर्ता इति । जीवाऽपेक्षया स्थूलत्वमणुत्वञ्च : नैव सम्भवति, तत् कथं स्थूलप्राणवधविरमणं, किं स्थूलत्वं चापेक्ष्येति चेत् ? सत्यं ! . .. . ... . - यद्यपि सूक्ष्मबुद्धय एव जैना एकेन्द्रियाऽऽदीन्ः पृथ्व्यादीन् जीवतयाऽवगच्छन्ति, परं न ते सूदमबुद्धयः केवलानेकेन्द्रियान् अवगम्य जीवतया द्वीन्द्रियादीन् त्रसान् नावगच्छन्ति जीवतया, तथाच : जिनेन्द्रोपदेशाप्तसूक्ष्मबुद्धयो जैना, द्विविधानपि तान् : जीवतया अवगच्छन्त्येव । तत्वतस्तु स्थूलत्वम् अत्र (विशिष्टं) विवक्षितं ज्ञेयं । · यद्यप्यत्राणुव्रते त्रसेभ्य एव तद्वधनिषेधाद् विरमणं, परं तत्र त्रसानां वधाद् विरमणं सङ्कल्पात, न त्वारम्भजात्, पचनाद्यर्थमग्न्यादीनां समारम्भे अग्न्यादीनां सर्वकायशस्त्रत्वात् त्रसानामपि विराधनाया अनिवार्यत्वात, ततश्च क्लिष्टतमाऽभिसन्धिजन्यस्य वधस्य दुस्तरविपाकत्वात् तत्कारण त्रसवधं वायति । . . . . . . . . . . . . . . . . Page #142 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तत्राऽपि यः प्रत्यनीकादीनं सापेक्षतया सङ्कल्पेनाभिनन् नातिचरति व्रतंमिति निरपराधनसविषय सङ्कल्पज व वर्जयति, तत्र ये व्याघ्रादयो हिंसां कर्तुमुघताः, व्रतधारिणस्तान् अद्याप्यंकृतापराधत्वानिरंपराधानपि सापेक्षतया नन् ने विराधको भवति व्रतस्य ।। तथाच स्थूलत्वमापेक्षिकममनुमत्यापि सङ्कल्पाऽऽदिजनितस्यैव संवधस्य वर्जनात् स्थूलत्वमनिवार्य, तद्वदेव च गृहस्थानां त्रसानां प्राणिनां कुटुम्बाऽऽदिगतप्रतिबन्धयुक्तत्वात्तैः सम्वन्ध्यादिभिः संसर्गात् तत्कृतानामपि प्राणवधादीनामपलाप-रक्षणादिप्रसङ्गात् केवलात् स्वं योगकरणमात्राद् विरमणाच । न स्यादेवं त्रिविध-त्रिविधेन विरतिः, विहाय च कांश्चिदेकादशी प्रतिमां प्रतिपन्नान् , सर्वेषामपि श्राद्धानां द्विविधंत्रिविधादिमिर्भङ्गेरेव वसवधादपि विवक्षितरुपाद् विरतेः सम्भवात्तेषां या विरतिः, सा स्थूलप्राणवंधविरमणमित्याख्याय स्थूलत्वमुद्गीर्यते इति । . .. ननु जीवा मुहुमा थूलत्ति 'तस-वायर पज्जत्ता 'तिशास्त्रवचनात्तीर्थान्तरीयैश्च स्थूलदृष्टिभिरपि . जीवतया ज्ञायमानत्वाद् वा कथञ्चिज्जीवेषु स्थूलत्वं प्रोक्तंयुक्त्या वा प्राणवधविरमणस्यं विवक्षितं स्थूलत्वं । सभिरभिमन्तव्यं स्यात् , परमंत्र जीवशब्दस्तत्पर्यायो वा प्राण्यादिशब्दो नं स्थूलत्वेनाऽऽदिष्टः, अत्र तुं स्थूलप्राणवधविरमणमित्यादिष्टं, शास्त्रेष्वपि च सर्वस्मात्. प्राणातिपाताद्विरमणमिति । लक्षणेऽपि हिंसायाः 'प्रमत्तयोगात् प्राणव्यपरोपण 'मिति । प्राणाश्च वनस्पत्यादीनां महान्त इति प्रागुक्तमेव । न चात्र रुढिरनुसतव्याऽस्ति, रुढितस्तु विकलेन्द्रियाः प्राणा इत्युच्यन्ते ? अत्र सामान्येन यावत् त्रस वर्षस्य वर्जनमस्तीति चेत् ? सत्यं !" प्रथम तावत् जीवानां स्वरुपतः स्थूलत्वं सूक्ष्मत्वं चामूर्ततत्वान्नास्ति, प्राणा अपि न सानामेव । स्थूलों इति । स्थूलप्राणवेधविरमणमिति किं वायमिति स्यात् सन्देहः । कोशकारास्तु 'जीवेऽसु- . जीवित-माणा' इतिवाक्येन प्राणशब्द आयुर्मात्रवाचक इत्याहुस्तदत्राऽवश्यं विचार्य तत्वं । ___ क्षेत्र हि स्थूलप्राणिप्राणवंधविरमणमिति वाच्ये मध्यगतं प्राणिशब्दं विलोप्य स्थूलप्राणवधविरमणमित्युक्त । प्राणपर्यंन्तानुधावनं च प्रथमं तावजीवानां स्वरुपतोऽजरामरत्वान्न वधो मरणं वाऽस्ति । ति एव चोच्यते 'पञ्चेन्द्रियाणि त्रिविधं वलं च, उच्छ्वासनिःश्वासमथान्यदायुः। प्राणा दशैते भगवद्भिरुक्तास्तेषां वियोजीकरणं तु हिंसा' ॥१॥ इति 'एएहिं विप्पओगो जीवाणं भण्णए मरण 'मित्यादि च; ततश्च प्राणाऽतिपतिविरमणमित्यादि सर्व प्राणशब्देनोपलक्षितमुक्तं । किश्चाऽणुव्रतानां यत् प्रकृतिसुन्दरत्वमुद्गीर्यते, तदशुभाऽऽश्रवनिरोधात्, अशुभाऽऽश्रवांश्च नं Page #143 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (७) प्राणसङ्ख्यामनुसरन्ति, न दशप्राणवर पञ्चेन्द्रियविनाशेन सममे के न्द्रियादिदशप्राणविनाशनं, किन्तु प्राणसामर्थ्यानुसारेण प्राणविनाशजन्य आश्रवोऽभिमन्यते । प्राणानां सामर्थ्यं चैकेन्द्रियाणामनन्तानामपि यत्स्पर्शनेन्द्रिकायबलादिगतं सामर्थ्यं ततोऽनन्तगुणविशुद्धं क्रमशो द्वीन्द्रियादीनां तत एव च पचेन्द्रियवधादिभिर्नरकायुष आश्रवः । किश्च ऋषिइत्याकारकाणां यन्महावैरत्वं श्रीभगवत्यादिषु 'चेइयदव्वविणासे इसिघाए ' इत्यादिना दुर्लभबोधित्वं च प्रन्येषु यदुक्तं, तत्क्षयोपशमादिजन्यस्य जीवगुणसमुदायरूपभावप्राणस्य सामर्थ्यमपेक्ष्य । एवं च प्राणिप्राणरक्षाविषये ओघनिर्युक्त्यादिशास्त्रेषु प्रतिपादितावुत्सर्गापवादावपि सुखोन्नेयौ भविष्यतः । स्पष्टीभविष्यत्येतस्मादधिकारात् सचित्तानामप्यन्नानां भक्ष्यत्वं मांसादीनामभक्ष्यत्वं च कथमार्यैः कृतमित्यस्य तत्वमिति । अनादिकः क्रमः एष रूढितः स्थूलप्राणवघ विरमणाऽऽदिकोऽणुव्रतादिषु, परमेष विशेषः यदुतद्वाविंशतिमध्यमजिनतीर्थसाधूनां महाविदेहसाधूनां च महात्रतेषु चतुर्थे महाव्रते ' वहिद्धादाणाओ विरमण 'मित्येवं प्रत्याख्यानेन चतुर्महात्रतत्वं भवति, परं श्रावकाणां तु सर्वेष्वपि शासनेषु पंचैवाऽणुव्रतानि । तत एव ज्ञातधर्मकथादिषु श्रीनेमिजिनशासनादिगतानामपि सम्यक्त्वमूलानां द्वादशानां व्रतानामुक्तः स्वीकारः श्राद्धानां सङ्गच्छते इति । यद्यपि चाऽऽगमधुरन्धराः “जो देउवायपक्खंमि हेउओ आगमे य आगमिओ "त्ति धृत्वा प्रतीकं सम्यग्दर्शनादिभि, साध्या मोक्षाचा हेतुवादरुपाः, भव्यत्व - जीवत्वादयश्च साध्या न केनापि इति ते आगमिका इति व्याख्याय आगमिकेष्वर्थेषु युक्तीनामुपन्यासमेव निषेधयन्ति केचित् । केचिच्च 'आण गिज्झो अत्थ आणाए चैव सो कहेयव्वो । दिहंतिम दिहंता सिद्धंतविराहणा इहरे' - स्युक्वा सर्वेषामर्थानामाज्ञाप्राह्यत्वमादौ व्यवस्थापयन्तु पश्चाच्च यत्राऽर्थसाधने दृष्टान्तशब्दोपलक्ष्याण्यनुमानादीनीतराणि मानानि स्युस्तत्र तान्यप्यवश्यं प्रयोक्तव्यान्येव । तथा च श्रद्धानुसारिणां जीवानामनयैवागमोक्तपदार्थानां श्रद्धानेऽपि तर्कानुसारिणामपि सिद्धान्तोक्तानां पदार्थानां श्रद्धानं सुकरं भवतीति व्याख्यानयन्तीति । द्वितीयपक्षमाश्रित्य युक्तिलेशोऽत्र दर्श्यते, अष्टादशसु पापस्थानेषु आश्रवस्थानेऽवतेषु चादावेव पठ्यते प्राणवषः, अतस्तत्सर्व- देशविरतिरुपेषु महात्रता- ऽणुत्रतेषु युक्तमेवादौ तस्य पठनं । किश्व-प्राणानां Page #144 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (८) जातो घातो न हिंसकेन न च हिंस्येन प्रतिकतुं शक्यः; आभवमुपार्जितानां तद्भवजानां सकलानां शकीनामक्षायिकाणां, नाशो जायतें, न चैवमन्यपापस्थानकविपाकः ।.. . . . - विदुषामविदुषां व्यवहारिणामव्यवहारिणां यथा वघोऽप्रियो, न तथाऽनृतादीति, सर्वे प्रवादाश्चात्मघातापातभियाऽपि वधवर्जनस्याऽऽवश्यकतामभिदधति, वैराऽनुबन्धिवैरकारणं च प्राणवध एव, नारकंस्याऽऽयुषो बन्धोऽपि प्राणवधाऽऽदिभयेन मांसाहार-पञ्चेन्द्रियवधाऽऽदिनेत्यादिभियुक्तिभिर्युक्तमेव ' प्राणवधस्य पापस्थानादिषु तद्विरमणस्य महावतादिषु चादौ स्थापनमिति । तत एव चैंकस्यापि जीवस्य सम्यक्त्वादिगुणानां प्रापणे सति चतुर्दशसु रज्जूष्वमायुद्घोषणं जातमिति प्रतिपाद्यते इति । । । : तदनन्तरं भाषयैव व्यवहाराणां मूलस्य बन्धनात्, विसंवादे तथाविधे वादे च यावज्जीवमपि वैर-क्लेशादोनां वृद्वेरवलोकनात्कुत्रचिच्च तथाविधेऽस्मिन् एकस्य सकुटुम्बस्य. घातस्य दर्शनात् विसंवादरुपो मृषावादः । . ... . किञ्च-सर्वेषामपि कुपथपवादानामुत्पत्तौ स्थितौ वृद्धौ प्रभावनायां च मृषावाद एव समेधते । जैनेऽपि शासने न किञ्चिदन्यत् पापस्थानं तथाविधमनर्थ सूत्रयति यादृशं मृषावादः, : यतः एकभवेनाऽपि-'उस्सुत्तभासगाणं वोहिणासो अणंत संसारो 'त्तिवचनात् उत्सूत्ररुपेण मृषावादेनैकेन भवोऽनन्त उपाय॑ते, न तादृशाऽनन्तभवोपार्जनमन्येन वधाद्विनेति, द्वितीयत्वं युक्तमेवमस्येति । ::. न च वाच्यं नास्त्येवोत्सूत्रभाषकाणांमनन्तसंसारभ्रमणनियमः, कुवलयप्रभादीनामप्येतावत्संसारम्रमाऽभावादिति । यतः सूत्रकाराः-प्रज्ञापयितारश्चोपदिशेयुः प्रज्ञापन्या भाषया, तथा च यथा मिथ्यात्ववमनानन्तरमनन्तसंसारभ्रमणनियमस्याऽभावेऽपि मिथ्यात्वाऽविनाभूतान् कषायान् : अनन्तजन्मानुबन्धस्वभावत्वादन्तानुबन्धिन इति कथयन्ति । प्राणवधादिप्रवृत्ता अपि प्रदेश्यादयः स्वर्गभाजो जातास्तथापि प्राणवधादीनि नरकमूलानीत्येव वर्णयेयुरिति । किञ्च-सच्चपइण्णा हु ववहार 'त्ति वचनाद् व्यवहारिणां सर्वे व्यवहाराः सत्याऽधिष्ठिताः । ... लोकोत्तरेऽपि मार्गे : सत्यस्य महार्हत्वादेव. धर्मविशेषतया "पंचमहव्ययजुत्तस्से "-त्युक्तावपि "सच्चाहिटियस्से "त्युक्तं, श्रूयते चैतस्मिन् मृषावादेऽत्यक्ते शेषपापस्थानानां त्यागोऽप्यकिञ्चित्करः, सर्वेषामपि .पापानां कृताया अपि प्रतिज्ञाया मृपावादेनापलापप्रसङ्गादिति । ... ननु 'अनन्तान्यनुवन्धन्ति, यतो जन्मानि भूतये । . : ... : .... :: ....... • अतोऽनन्तानुवन्धीति, संज्ञाऽऽधेपु निवेशिता' ॥.१... इतिवचनात्-. : .. Page #145 -------------------------------------------------------------------------- ________________ .. अनन्तानुबन्धिनोऽनन्त-संसारवर्धकाः। उत्सूत्रभाषकाणां च - “पयमक्खरं च.एकंपीतिवचनानियमान्मिथ्यात्वं, मिथ्यात्वं च न कदाचिदपि मिथ्यात्वोदयेन विना भवतीति । यथा: समिथ्यात्वानामनन्ताप्रबन्धिप्रभावादनन्तो जायते संसार इति प्ररुप्यते तथोत्सूत्रभाषिणामन्यथा. वेति ?। ये उत्सूत्रभाषका अपि सन्तः स्वमतपोषणमात्रतत्परास्ते तथाविधं तीर्थं नापि द्विषन्ति । यथा मरीचिः पारिवाज्यप्रवर्तकोऽपि न प्रभोरादिनाथस्य शासनाय द्रुह्यति । केचित् गोशालाऽऽदिवदन्यथाप्ररुपकाः प्रवर्तकाश्च तीर्थाय द्रोहिणो भवन्ति, तेषु येऽन्त्यास्तेषां बोधेदौलभ्यं विशेषेण भवति । ततश्च संसारमनन्तमटन्तोऽपि बोध्युत्पादनसामग्रीमेव न ते आप्नुवन्तीति, एतादृशानाश्रित्योच्यते च 'ण हुलब्भा तारिसे . . दट्टुं 'ति । अदृष्टकल्याणकरत्वमेव तथाविधोत्सूत्रभाषकाणां ज्ञेयमिति । अथ यथाहि व्यवहार्यव्यवहारिणां सर्वेषामप्रियतया वधस्याऽऽदौ स्थूलप्राणवधविरमणं, तदनन्तरं च लौकिक-लोकोत्तरमार्गाऽनुगामिनामप्रियतया मृषावादस्य प्रतिभासात्तच्च स्थापितं । अथ सपौरजानपदानां सर्वव्यवहाराणां फलतया व्यापृतिहेतुतया मूलतया प्राणादिभ्योऽपि कथञ्चिदधिकतया धनस्य ग्राह्यतया तदपहारे च सकुटुम्बस्यापि विनाशस्य सम्भवाच्च धनस्याऽऽदेयताऽस्ति, तत एवं च परतीर्थिकैर्जनचित्तानुवृत्तये धर्म-मोक्षयोश्च पुरुषार्थस्य प्रख्यापिता, धनस्येत्थं लोकानां उपयोगितमत्वादन्यायतस्तदपहारस्याऽनिष्टत्वाच्च जानपदीमेव-वृत्तिमाश्रित्याऽदत्ताऽऽदानविरमणस्योपन्यासो नाऽयुक्तः। अत एव चात्र परराज्यातिकमादेर्महाऽदत्तादानत्वेन वर्णितेऽपि प्रश्नव्याकरणाऽऽदौ सूत्रे 'उचियं मोत्तूण कल 'मित्यादि 'तेणाहडप्पओगे' इत्यादि चाऽतिचारतया देशभङ्गरुपेणाऽsख्यायते, जानपद्या कृत्यां हि तथाप्रकारस्यैव तस्य व्यवहारात्, प्राक्कनयोर्द्वयोरविशेषतयाऽऽल्यानं चक्रवादीनां रणसङ्ग्रामादेर्निन्दनात् , अस्य तृतीयस्य जानपदी वृत्तिमाश्रित्योपन्यासात् योग्यमेव द्वाभ्यां ताभ्यामानन्तर्यमिति । ननु यद्येवं परमण्डलाक्रमणस्याऽदत्ताऽऽदानरूपत्वं तदा कथं श्रीजम्बूद्वीपप्रज्ञप्त्याऽऽवश्यकाऽऽदिषु चक्रवादीनां परमण्डलाक्रमणादेः प्राशस्त्येन वर्णनं कृतमिति ? चेत् । · शृणु, प्राणातिपात-मृषावादौ हि पापादुदयमागच्छतो घोरं च पापमनुबन्धयतः, न च तो केनाऽपि प्रकारेण प्रशस्ती, परं परमण्डलाक्रमणेन परेषां नृपाणां पराजयाज्जायमानस्य धनाऽऽदिलाभस्यान्तरायक्षयोपशमजन्यत्वेन परिणामदारुणस्यापि पुण्यरुपतया पुण्यफलतया वाऽभिप्रेतत्वात् तथा तथा तत्र तत्र क्रियमाणं वर्णनं नृपाणामस्ति । । शास्त्रकृद्भिराक्षेपिण्यादिषु धर्मकथास्वपि देवर्द्धिवर्णनमित्याद्युक्त्वा कामभोग-परिग्रहरुपत्वेऽपि देवादीनां वर्णनमनुमतं । धर्मस्य साध्ये मोक्षफले सत्यपि यावद्भवस्थित्यपरिपाकादेन (स्तन्न) Page #146 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भवति, तावन्तं कालमावश्यकस्य प्राप्यस्याऽभ्युदयफलस्यं न स्यादेव कथनं, तथा चाऽचरमशरीरिणां नं स्यादेव धर्मे आश्वासः। - शास्त्रवचनं चाऽपि प्रोक्तमेवानुवदति-'पुब्धि तवसंजमेणं भंते देवलोएसु उववजंति'. त्ति व्याख्याप्रज्ञप्त्याऽऽदिषु, 'सरागसंयम-संयमाऽसंयमे ' त्यादि । तत्त्वार्थे, 'अणुव्वयमहव्यएहि ये' त्यादि कर्मग्रन्थेषु च प्रतिपादितं, इत्यादिषु बहुषु शास्त्रेषु स्पष्टतयोक्तमेव प्राप्यमपि धर्मफलमिति । __यद्यपि 'उचियं मोत्तण कल.' मित्यादिना स्तेनाऽऽहतप्रयोगाऽऽदिना य जायमानस्याऽर्थलाभस्य लाभाऽन्तरायाऽऽदिक्षयोपशमोद्भूतताऽस्ति, परं स लाभ इहलोकेऽपि परिणामविरस इति तस्याऽतिचारत्वेनोपन्यासः; परलोकाऽपायनिबन्धनानामनिष्टत्वेऽपीहलोकाऽपायनिबन्धनानां विशेषेणाऽनिष्टत्वेनाभिधानात् । अत एव धयॆ ध्याने अपायचिन्तनस्य विपाकचिन्तनस्य च भेदेनोपन्यासो युक्तो भवति, ' अन्यथैहन्लौकिका अप्ययायां विपाकरुपा विपाकभवाश्चेति न स्याद् भेदेनोपन्यासः । तदेवं जानपदी वृत्तिमाश्रित्य स्थूलमदत्तादानं तत्सम्बद्धं तद्विरंमणं चाऽभिधाय सपौर-जानपदानां कुलीनानां सर्वस्वनाशेनाऽपि स्वीयकलत्राणां रक्षणमुपलभ्य चतुर्थे स्थाने स्थूलमैथुनविरमणरूपं स्वस्त्रीसन्तोपरूपं वाऽऽहुः सूत्रकारा अणुव्रतं । . दृश्यन्ते च सर्वत्र सपौर-जानपदे कुलीनाः स्व-स्वदारान् स्वाः स्वाः कुलवधूः सर्वप्रयत्नेन रक्षयन्तः शीलरक्षणद्वारा, श्रूयन्ते रामाऽऽदयः सीतारूपस्ववनिताऽपहारमहाव्यथिता जाताः, महान् रणश्च तदर्थमेवाऽऽदृतः । यथा च व्यवस्थापिते सत्य एव मृषावादत्वनिर्णयः, सिद्ध एव च स्व-स्वाभित्वाऽऽदिसम्बन्धे अदत्तादानस्य:तत्वेन निर्णयः, तथैवाऽत्र सिद्ध एव परिणयनविधौ स्व-परदार निर्णयः, युग्मिनांतु यद्यपि परकलत्रेऽप्यभिगमनस्याऽसम्भवः, परं परिणयनविधेरेवाऽभावान स्व-परकलत्रव्यवहार इति । . ननु तिर्यस्वपि देशविरतेः सत्त्वेनास्त्येव तत्र परदारेभ्यो विरतिर्न च तत्र कश्चित् परिणयनविधिरिति चेत् ? सत्यं, नाऽस्त्येव तिर्यक्षु परिणयनविधिः, परमस्ति परिग्रहणविधिस्तेषां यदपेक्ष्योच्यते तियचोऽपि स्त्रीपराभवं न सहन्त इति । ननु स्वदाराणां परदाराणां चाभिगमने कः प्रतिविशेषो ? येन तुर्येऽणुव्रते परदारगमन प्रतिवध्यते, स्वदारसन्तोपशब्देन स्वकलत्राऽभिगमनं च नियम्यते, उभयत्राऽपि नवलक्षपञ्चेन्द्रियगर्भनाs सझ्यसम्मूछेनजमनुष्यविराधनाया भावादिति चेत् ? ... . . सत्यं ! नास्युभयत्रापि तादात्विकविराधनायामविशेषः, परं जैने हि शासने न केवला हिंसैव दव्यतो जायमाना कर्मतारतम्यहेतुः, किन्त्वव्यवसायस्थानानि, तानि च परदाराऽभिगमनरतस्य Page #147 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ११ ) तादृशान्य-धमाऽधमानि भवन्ति, येन श्रीमहानिशीथाssदिसूत्रेषु परदाराऽभिगमकारिणां अधमाधमपुरुषतया गणना कृता, क्लिष्टतर कर्मबन्धकारकतया च स तत्र वर्णितः । किश्वाऽन्यत्राऽपि - 'भक्खणे देवदव्वस्स, परइत्थीणं तु संगमे । सत्तमं णरयं जंति, सत्तवारा उ गोयमा ? ॥ १ ॥ इति स्पष्टतयाऽऽख्यायते । संयतिचतुर्थभङ्गे तु बोधिलाभस्यैव मूलेऽग्निदानं जातमित्याख्यायते । किश्च परदाराऽभिगमरतो हि तेषां रक्षणपरायणानां तदाश्रितानां तत्सम्बद्धानां च घातमन्विच्छन् कथंकारं स क्लिष्टतराध्यतसायवान्न स्यात् ? अन्यच्च अपत्योत्पादनफलो हि कुलीनानां विवाहः, स च परदाराभिगमने समूलकाशं निकष्येत । न च वाच्यं परिणयनविधिर्व्यावहारिकस्ततस्तमाश्रित्य स्व-परदारव्यवहारः, तमाश्रित्य पापबन्धस्य क्लिष्टतराऽऽदिव्यवहारः कथं स्यादिति ? यतः निर्णीततरमेतद्विदुषां यदुत-कर्मणां बन्धे प्रधानतरं कारणमध्यवसायाः, बद्धे च व्यवहारे तस्मिन् प्रागङ्गीकृते च पश्चात्तद्विलोपने भवन्त्येव क्लिष्टतराध्यवसायाः क्लिष्टतरश्च स्यादत्र पापबन्धस्तत्र न किमप्याश्रये । ; किञ्च–सत्यवादाऽऽदिष्वपि व्यवहार एव निबन्धनं तदतिक्रमादेव च तत्राऽपि मृषावादाऽऽदंयो दोष अभिमता इति । ब नन्वेवं चतुर्थेऽणुव्रते स्वदारगमनस्य नियमनात् तुर्याऽणुव्रतस्य चागारधर्मत्वात् विधिना स्वदारेष्वभिगमो धर्मतामापद्यमानः कथं निवारणीयः ? इति चेत् ? सत्यं ! तुर्यम् अणुव्रत मगारधर्मः परं तत्र नाऽभिगमनस्याऽणुव्रतत्वं येन तथाविधमपि मैथुनं धर्मतामपद्येत, किन्तु तुर्ये'हि अणुत्रते स्वदारैः सन्तोषः क्रियते, तथा च तत्सन्तोषस्य परकलत्रपरिग्रहविरमणस्य धर्मत्वमणुत्रतेऽत्रेति । परतीर्थिकानां देवाः सस्त्रीका इति ते स्वदोषाच्छादनाय ऋतुगमनाऽऽदिनाम्ना स्वदारगतस्य मैथुनस्य 'ऋतुकाले विधानेने 'त्याख्याय निर्दोषतामाचख्युः । स्मृतिकारास्तु पशुप्रायाः केचिदिति स्व-परदारविभागमप्युपेक्ष्य 'न मांसभक्षणे दोषो, न मद्ये न च मैथुने' इत्याचख्युः । श्रूयन्ते चानेकेषां परतीर्थीयानां मान्यानां महर्षीणां तथाविधा गौतमाऽहल्यादिदृष्टान्तेषु विडम्बनोदन्ताः !. 1.5 Page #148 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१२) भगवन्तो जिनेश्वरा एव हि क्षपकश्रेणिलाभमहिम्ना मथितमोहमाहात्म्यतया वीतरागाः, तेषां वीतरागता च तच्चरित्राऽऽगम-मूर्ति-परम्परावलोकनतो निश्चीयते । . . . परतीथिका हि तथा कामासक्ता यथा विरहय्य स्त्रियं क्षणमासितुं न शक्ताः। अत एव च ते सस्त्रीकाः सन्तोऽपि परमकुलीनजनानामनुचितं स्वस्य प्रतिबिम्बमपि स्त्रीयुक्तमेव व्यधुरित्यलं प्रस्तुताऽप्रस्तुतेनेति । ननु कामभोगमयस्य मैथुनस्य पुण्योदयलभ्यत्वं न वा ? । आधे कथं निन्द्यता तस्य ? तस्माद्विरमणस्य वा महाफलत्वं ? । अन्त्ये, पुरुषवेदस्य पुण्यत्वेन कथमुल्लेखस्तत्त्वार्थाऽऽदिष्विति चेत् । । सत्यं ! न हि पुण्योदयलभ्यानि सर्वाणि प्रशस्यानीति नियमः, शास्त्रेषु पापाऽनुबन्धवतामपि पुण्यानामुक्तेः अमेध्योत्करस्य देवलोकादीष्टफलप्राप्तेः सनिदानधर्माऽऽचरणस्य सम्भूत्यादिवच्चक्रवर्तिपदपर्यन्तप्राप्तेश्च सिद्धान्ते तत्र तत्र प्रसिद्धत्वात् । या चाऽत्र मैथुनस्य निन्द्यता सा तत् अधर्मस्यैतन्मूलं सर्वसङ्गप्रवर्धकं सर्वान्यपापप्रवृत्तिहेतुकमेतदिति कृत्वा । ___ शास्त्रे च पुण्यानां पापानां वोदयेन जातमिति न विचार्यते, किन्तु यद्यत् पापरुपं दुःखफलं दुःखानुबन्धं च भवति तन्निवार्यते, मैथुनं चैवं रुपमेवेति तन्निवृत्तिः शस्यते शास्त्रे इति । ननु किमिति मैथुनस्य सर्वेष्वपि जिनानां तीर्थेषु पापस्थानत्वेऽपि चतुर्थे तस्मिन् स्वदारसन्तोषाऽऽदेरभ्युपगमेऽपि महादानेषु मध्यमजिनादीनां तीर्थेषु व्यवस्था भिन्ना कृता? येन तत्र .. वहिद्धा-ऽऽदानाद्विरमणमितिरूपं चतुर्थ-पञ्चममहाव्रतयुग्मरुपं महादानं गीतमिति चेत् ? सत्यं ? यद्यप्यत्र शास्त्रेषु कालविशेषेण जीवविशेषा एवाचाराणां भेदे कारणतया गीयन्ते, नच तदसम्भवि, नच तत्र वाच्यं किञ्चित् , परमेके एवं कल्पयन्ति यदुत-परे तीथिका आरामवादं पुरस्कृत्य मैथुन परिहरन्तोऽपरिहरन्तो वा त्यक्तं मैथुनमिति उद्धृष्य. सस्त्रीका वानप्रस्थाऽवस्थामनुयान्ति, न चैतज्जैनशासनाऽऽश्रयिणां शोभत.इति मूलत. एव स्त्रीपरिग्रहस्यैव निषेधः कृतः। ततश्च वहिद्धा-दानाद्विरमणमित्याख्यातं महाव्रतमिति । न चैतदयुक्तमामातीति । नववधेयमिदं यत्-प्राणातिपाताऽऽदीनि पापस्थानानि साऽपवादानि, केवलं मैथुनं निरपवादं, यतं उच्यते - तम्हा सव्वाणुण्णा सव्वणिसेहो य पवयणे णत्थि । मोत्तुं मेहुणभावं ण तं विणा रागदोसेहिं ॥१॥ ति, अत एव द्रव्यभावः प्राणातिपातादिषु दर्श्यते भेदः स्त्रीवर्जयित्वा, नाऽत्र चतुर्थे महाव्रते द्रव्यभावभङ्गः । एवं तिरश्चां परेपां च मैथुने स्वजातीयनवलक्षगर्भजपञ्चेन्द्रिया-ऽसंख्यसंमुर्छिममनुष्यविषयताया अभावेऽपि राग-द्वेषवेगपूर्णत्वाद्वर्ण्यमेव मैथुन, तत एव पापस्थानं च सर्वे घामप्येतदिति । . Page #149 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१३) ___ एवमणुव्रतानां चतुष्टयं यत् प्रतिपादितं, तत् भगवद्भिस्तीर्थप्रवृत्तिकाले, परं स . तीर्थप्रवृत्ति कालो न समग्रोत्सपिण्यवसर्पिणीरुपः, किन्तु दशकोटीकोटीसागरोपमप्रमाणायां तस्यामेक एव साधिककोटीकोटीसागरमानः, शेषस्तु सर्वोऽपि हीन एव तीर्थप्रवृत्त्या, यस्मिंश्च काले तीर्थस्य प्रवर्तनं भवति, तत्र सर्वस्मिन् क्रय-विक्रयाऽऽदिव्यवहारस्याऽवश्यं प्रवृत्तिर्भवति, स क्रय-विक्रयाऽऽदिव्यवहारश्च विविधजातीयसङ्ग्रहाऽऽधीन' इत्यावश्यकता तत्कालीनानामर्थसङ्ग्रहे, इच्छा च तद्विषयिणी 'इच्छा हु आगाससमा अणंतिये 'ति जनानामपरिमिता स्यादेवाऽतस्तस्याऽर्थजातस्येच्छानिरोधेन परिमाणकरणं तीर्थकालीनानामावश्यकमिति तद्रूपं पञ्चममणुव्रतमथ आहुः सूत्रकाराः। . . . दृश्यते जगति परिग्रहप्रभव एव सर्वोऽपि व्यवहारस्तद्विषयिण्या इच्छायाश्च 'दोमासकए कज्जं कोडिए व ण णिट्ठियं' तिवचनादपरिमितत्वं ततस्तत्परिमाणकृतेरौचित्यात्तन्मयं पञ्चममणुवसमिति । अत्राऽयं विशेषः- यथा प्रतिपन्नाऽवधयो न देशविरतेः प्रतिपद्यमानाः स्युः, आनन्दाऽऽदिवत् । पूर्वप्रतिपन्नास्त्ववधेरधिगमवन्तो भवन्ति, यद्यपि ते सर्वविरतेः स्युरेव प्रतिपद्यमानकाः पूर्वप्रतिपन्नाश्चो. भयेऽपि । तदा मण्डलाधिपा राजानोऽपि शासने जाता बहवः सर्वविरतेः प्रतिपद्यमानकाः, परं तेषामाऽऽकाश-पातालं स्वमण्डलस्य स्वामित्वात्तत्र स्थितस्यापि यस्य कस्यचिदर्थजातस्याऽज्ञातस्याऽपि स्वामित्वाद् तद्विषयकगणनाया अभावाच न परिमितेच्छापरिमाणकरणरुपमणुव्रतं पञ्चमं । - अत एव भगवतो महावीरस्य शासनेऽपि राज्ञामनेकेषां प्रवजितत्वेऽपि राज्ञः श्रेणिकस्य परमभक्तत्वेऽपि श्रमणोपासकपर्षद्गणनाऽवसरे शङ्ख-शतकाऽऽदय एवोपात्ताः, तेषां सद्गृहस्थानामेवेच्छापरिमाणकरणरुपस्य पञ्चमस्याऽणुव्रतस्य सम्भवादिति । किञ्च-आदृतानामपि अणुव्रतानां पूर्वोदितानां यावन्न स्यान्महेच्छत्वं महाऽर्थभराऽऽक्रान्तत्वं च तावदेव रक्षणं, । यतो जगति प्राप्तयेऽर्थसञ्चयस्य प्राप्तस्याऽस्य वा रक्षणे हिंसादीनामाधिरूपं जायमानं दृश्यते, कथ्यते च 'परिग्रहमहत्त्वाद्धि, मज्जत्यङ्गी भवाम्बुधावि 'ति परिमाणकरणमर्थस्योचितमिति । न च वाच्यं प्राप्तानामर्थानां सन्तोषेण नूतनस्याऽर्थस्योपादानेच्छा परिहियते, तदा दानेन सन्तोषस्योत्पादादधिकाऽर्थग्रहणस्य निवृत्तेश्च स्यादस्याणुव्रतस्य प्रकृतिसुन्दरता, परं निःस्वोऽपि स्वल्पवित्तोऽपि सन् कल्पनागतं परिग्रहं मुत्कलय्य शेषात् परिग्रहान्निवृत्ति कुर्वन् विदधाति परिग्रहपरिमाणकरणरुपमणुव्रतं पञ्चमं तेन कि फलमिति ? इच्छायाः प्रोक्तनीत्या आकाशसमत्वेनाऽऽनन्त्यान् (१) वर्तमानकालीनकल्पनानुसारेणाऽपीच्छाया नियतत्वकरणेन परिग्रहपरिमाणकरणमपि तदधिकेच्छाया निवृत्तेः फलप्रदमेव । Page #150 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१४) किञ्च-दृश्यन्ते श्रूयन्ते च शास्त्रे पूर्वाऽवस्थायामाभीरादीनां राज्यप्राप्त्यवसाना अपि भावाः । ततोऽधिकेच्छानिवृत्तिकरणेनापि पञ्चमस्याऽनुव्रतस्य स्वीकारः प्रकृतिसुन्दर एवेति । ननु 'थूलाओ परिग्गहाओ वेरमण 'मित्यत्राऽणुव्रते परिग्रहशब्देन पर्युपसर्गविशिष्टेन किं ?, यतो ग्रह एवं शब्दः कार्य इति चेत् ? प्राक् तावत् ग्रहणमात्रस्य नाऽऽश्रवत्वं, न च तन्निरोधाय प्रत्याख्यानं, सम्यग्दर्शन-देव-जीवादीनां ग्रहणस्योपादेयत्वात्तस्य मोक्षोपायरुपत्वात् । किच्च-प्राह्येषु बाह्येष्वपि न ग्रहणमात्रस्य परिग्रहत्वं, संयमाऽऽदिसाधनानां तत्त्वापातेन त्यागप्रसङ्गात् । किञ्च-आद्य-न्तिमजिनतीर्थयोस्तु स्त्रियाः सत्त्वे परिग्रहत्वे तत्र न तदाऽवतारोऽभिमतः, किन्तु भिन्नाऽऽश्रवतया प्रत्याख्येयता च । अपि च ग्रह एव पञ्चमाश्रवतयाऽभिमन्यते तदा तृतीयस्याऽदत्तादानस्य वैयर्थ्य, आदानाsपरपर्यायस्य ग्रहस्यैव ग्रहणात् । एतत् सर्वमाशाम्बरेणान्तरेण चेतसा चिन्त्य, यतस्ते सङ्गमात्रस्य परिग्रहत्वमुदीर्य संयमसाधनानि रजोहरणान्याश्रवतयाऽभिमानयन्ति, जिनतीर्थमाश्रितानां तु रजोहरणाऽऽदीषु धर्मसाधनत्वबुद्धेः सद्भावान्ममत्वाऽभावः, तस्मात्तेषां सत्यपि ग्रहे परिग्रहत्वं नेति योग्यमवधारयन्ति संयमसाधनानां धारणं साधूनामिति । किञ्च-परिग्रहशब्देन सामान्येन ममत्वस्यैवोद्देशात् 'मूर्छा परिग्रह'त्युक्तं । अन्यच्च मूर्छाया ग्रहणादेव ग्राद्रिव्यैः सह धार्याणामपि द्रव्यपरिग्रहतया गणनं कृतमस्तीति । एवं च ' यश्वेह जिनवरमते' इत्युपक्रम्य श्रीप्रशमरतिपकरणकारैः 'संलेखनां च काले योगेनाऽऽराध्य मुविशुद्धा 'मित्यन्त्येन ग्रन्थेन यत् प्रकृतिसुन्दरत्वं दर्शितं तत्सर्वमप्यनूदितमवसेयं, परं केचित् लौकिकसुन्दरव्यवहारवत् व्यवहाराः प्रकृतिसुन्दरा अपि ऐहलौकिकफलपर्यवसाना भवन्ति तद्वन्नैतान्यनुवतानि, किन्तु हित-सुख-क्षेमत्वकारकाण्यपि सन्ति, तानि पारलौकिकफलसम्पादनेऽपि प्रत्यलत्वादानुगामुकानि प्रेत्य सन्तीति दर्शनावाहुः-'आणुगाभियत्तं 'ति, अनुवतानामनुगामुकत्वादेव श्रीपशमरतिकारैः । प्राप्तः स कल्पेष्विन्द्रत्वं वा सामानिकत्वमन्यद्वा । स्थानमुदारं तत्रानुभूय च सुखं तदनुरुपम् ।। ३०७ ।। : नरलोकमेत्य सर्वगुणसम्पदं दुर्लभां पुर्नलब्ध्वा । . : :शुद्धः स सिद्धिमेष्यति भवाष्टकाभ्यन्तरे नियमात् ॥ ३०८ ॥ इति । तथा श्रीयोगशास्त्रकारैः श्रीहेमचन्द्रसूरिभिः श्रीयोगशास्त्रे 'प्राप्तः स कल्पेविन्द्रत्वमन्यद्वा स्थानमुत्तम 'मित्युक्त्वा 'शुद्धात्मा(सिध्यत्य)न्तर्भवा Page #151 -------------------------------------------------------------------------- ________________ टक 'मित्युक्तं, पवित्रतमे उदयने राजर्षी अत्यन्तवैरोऽप्यभीचिर्यदेवत्वमाप तदनुवतमाहात्म्यादेवेति । • यथैव हि आश्रवनिरोधरुपत्वाद् देशविरतिरुपाण्यणुव्रतानि देशविरतात्मनां नव्यकर्माऽऽगमरोधेन हितकारकत्वात् प्रकृतिसुन्दराणि, तथैव · परेषामपि तदीयजीवनेच्छापरिपूर्णताद्यैरुपकारकाणीत्युक्तं मीति 'परोपकारित्व 'मिति । ___ न च वाच्यं तावजीवानां वैधाद् विरमणं व्रतोत्सुकः स्वाऽऽश्रवरोधाय कुर्याधत्तत्तु वरं, परं परेषां हिंसास्थानमापद्यमानानां जीवानां त्वविरतत्वान्न तज्जीवनादीच्छा वतिनां श्रेयस्करी, तद्भावे च (न) प्रथमस्यापि व्रतस्य परोपकारित्वमिति । यतः प्राक् तावत् ___ 'सव्वे जीवा वि इच्छंति जीविउं ण मरिजिउ । तम्हा पाणवहं घोरं णिग्गंथा वज्जयंति णं' ॥१॥ -तिपारमर्षवचनान् मृषैवैतद्वचो, यदुत-परेषां जीवन-रक्षणाऽपेक्षया नाऽणुव्रताऽऽदीति । . किञ्चोपकरणेषु संसक्किजातादीनां कीटादीनामपि पारमर्षे 'णो णं संघायमावज्जेज्जे 'ति 'एगंतमवक्कमेजे 'त्यादि चोक्तं । ___अन्यच्च प्राणिनां प्राणानां रक्षणायैव हि संसर्गमार्गगमनप्रसङ्गे पारमर्षेऽमिहितं :उद्धटु पाए रीएज्जे 'ति । अन्यच्च प्राणिनां रक्षणमेव नैष्टव्यं चेत्, त्रस-स्थावरविराधनाप्रसङ्गे उत्सर्गाऽपवादपपथविचारणं श्रीओघनियुक्त्यादौ किं कृतमिति ? किञ्च-'भूत-व्रत्यऽनुकम्पे 'त्यादिना तत्त्वार्थसूत्रेण पाणाणुकंपयाए 'इत्यादिना व्याख्यामज्ञप्तिसूत्रेण प्राणाद्यनुकम्पनस्यैव सातवेदनीयस्याऽऽश्रवादिषु कारणोक्का । न च विरतिरुपा साऽनुकम्पेति, विरतेः अणुव्वये 'त्यादिना स्वर्गहेतुत्वाद्युक्तेः । अनुकम्पायास्तु 'साणुकोसयाए' इत्यादिना . मनुष्याऽऽयुःकारणताया उक्तेः, श्रीमेधकुमारेण च मनुष्याऽऽयुः शशाऽनुकम्पयैव लब्धमिति ज्ञातधर्मकथासु प्रसिद्धं, अलब्धसम्यक्त्वाच्च तस्य, विरतिरुपत्वं न तस्याः लेशतोऽपीति युक्तमाघस्य व्रतस्व परोपकारित्वमिति । किञ्च-जगतो दुःखनाशायैव वरबोधेर्विचारः, तत एव जिननामकर्मबन्धः, न च समग्रं जगत् विरतिधारकं । अन्यच्च जिननामकर्म सम्यक्त्वमूलकं, तदुदये च येऽतिशयाः जायन्ते, तेभ्यो दुर्भिक्षे-ति-मूषक-शलभाऽतिवृष्टयो ये उपद्रवाः शाम्यन्ति, ते किं न प्रेक्ष्यन्ते ? तथा चाऽविरतादीनामपि सर्वेषां मरणादि निवारणं नाऽनिष्टं । यदि चाऽविरततया पापाsनुमतिः स्यात्तर्हि तु हिंसात्यागोपदेश एव न कर्तव्यः, तनिषेधात् जीवनस्य पापाऽनुमतेश्च स्वयं सिद्धत्वभावाद् इत्यलं निर्विचारेण सह विचारेण । Page #152 --------------------------------------------------------------------------  Page #153 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विधिना कृतकालस्याऽभीचेर्विहाय नियतां सम्यग्दृशामपि भाविनी वैमानिकतां भवनपतिष्वेवोत्पत्तिरिति योग्यमुक्तं लघुतराणामप्यणुव्रतादीनां भङ्गे दारुणत्वमिति । ... जैने हि शासने स्तोकाया अपि प्रतिज्ञाया विराधने दारुणत्वं सम्मतं, तेन मूहुर्तमात्रप्रमाणेऽपि नमस्कारसहिते प्रत्याख्याने पञ्चोच्छ्वासमात्रेऽपि कायोत्सर्गे साकारतोदिता, कारणं तु तत्राऽल्पाया अपि प्रतिज्ञाया निराबाधपालनस्यैव गुणकरत्वमेव । - . एवं च सत्यणुव्रतादीनां भङ्गे निर्विवादमेव दारुणत्वं, तत एव च जातायां धर्मगुणप्रतिपत्तिश्रद्धायां तेषामणुव्रतादीनां प्रतिपत्तेः प्रागेव भङ्गस्य दारुणताचिन्तनं योग्यमेव । : . ननु प्रतिपन्नानामणुव्रतादीनां भङ्गे कथं दारुणत्वं ? किं भङ्गजन्य तदन्यथा वेति ?। आये, ननु राजाभियोगाऽऽदायो भङ्गरुपा आदित एव सम्यक्त्वादिपु, अनाभोगादयश्च नमस्कारसहितादिषु, उच्छ्वसितादयश्च कायोत्सर्गादिषु व्रतादिग्रहणकाले एवाऽनिवार्यतयाऽवस्थाप्यन्ते एवेति, अणुव्रतादीनां तु प्रकृति सुन्दरत्वाऽऽदिना पालितानां महालाभहेतुतैव स्यादिति-कथं भङ्गेऽणुव्रतादीनां दारुणतामिति आशङ्क्याहुः 'महामोहजणगत्त' इति, - मत्र भङ्गे' इति पदं पूर्वसूत्रादनुवर्तनीयमिति । .. तथा च न स्वरुपतो भङ्गस्य दारुणत्वं, स्वयमेवाऽऽकारादीनां क्रियमाणानां दारुणताप्रसङ्गात् , न च प्राक्पालितानामणुव्रतादीनां पश्चाद् दारुणत्वं जायते, प्रकृतिसुन्दरत्वाऽऽदिधमैंरुपेतत्वात्तषां, परं विश्ववैचित्र्यमेतत् स्वभावो जगत एष यदुत धर्म प्रतिपद्य विशुद्धतमया रीत्या पालयित्वाऽपि तं प्रतिपतन्तस्तस्मात्तथा दुष्टतमाऽध्यवसाया जायन्ते, यथा दारुणत्वमवश्यं तेषां जायते । को हेतुरिति ?, स उक्त एव, महामोहजनकत्वं । -: अत एवोच्यते 'धर्मभ्रष्टो निविंशः श्वपाकादतिरिच्यते' इति, आंज्ञप्तं च शास्त्रे यदुत-- पंतितश्रामण्यपरिणामः कण्डरीकः पालितदीर्घकालीनसंयमोऽपि स्वल्पेनैव कालेन सडिक्लष्टतमती गतोऽधः सप्तमावनीमापेति, मणिकारो नन्दश्च तथाप्रकारविशद्धाणुव्रतो जातो वाप्यां स्वकीयायां दर्दरतयेति..योग्य वोक्तं भने महामोहजनकत्वमिति । यथा हि श्रीसमवायाङ्गाऽऽवश्यकाऽऽ धुक्तानि त्रिंशन् महामोहनीयबन्धस्थानानि सन्ति, तथेदमप्यणुव्रतादीनां भङ्गरुपं महामोहनीयस्थानमित्युक्तं महामोह जनकत्वं । सामान्येन मोहजनकानि तु साम्परायिकाणां सर्वाण्यध्यवसायस्थानानि सन्ति, परमिदमणुव्रतादीनां भङ्गाज्जायमानमध्यवसायस्थानं तीव-रसस्थित्यादिमन्मोहजनकमिति महा-, . मोहजनकं भङ्गे दारुगत्वमुक्तमिति । .. महामोहबन्धनकारणानि विदधतोऽपि केचित् चिलातिपुत्र-दृढप्रहारिप्रभृतयो लघु श्रूयन्ते Page #154 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१६) • तत्वतः प्राणाऽतिपातविरतिः परेषामप्युपकारिण्येव, मुख्यत्वेनाऽहिंसालक्षणस्य केवलिप्रज्ञप्तस्य धर्मस्यैष एव डिडिमो यदुत-"जीव ! जीवय !! जीवनसाधनानि मा नाशयेति !!!"। .. परेषां पापानामनुमतिस्तु तान् साक्षात् पापेषु प्रवर्तनेन, अन्यथा आचार्यादीनामन्नादिभिः प्रतिलम्भनेन तेषां व्याध्यादीनामपगमादिना साराकरणेन नीरोगीकृतानां प्रमादादिसम्भवेन आहत्य च पातादिसम्भवेन दायकानां वैयावृत्यकराणां च महापापाऽऽगमसम्भवात् , सरागपरभेष्टिनां नमस्कारादिनाऽपि रागादीनामनुमोदनसम्भवात्तेषामपि वर्जनप्रसङ्ग इत्यलं । . ___यदि चाऽविरतानां जीवनमनिष्टं स्यान्नैव सर्वस्मान् प्राणवधान् निवृत्तेः करणेनाऽऽद्यस्य महाव्रतस्येष्टत्वं स्यात् , हिंसानिवृत्तेरापत्या जीवनरक्षण-परत्वात् । अपि च-परेषां पापानामनुमोदनं परेषां पापक्रियासु प्रवर्तनादिनैव । अत एव नाऽसंयता. तास्वे(?)त्यादिकथनस्यैव निषेधः । किञ्च–श्रीआचाराङ्गाऽऽदौ परतीथिकैः सह भोजनग्रहणाऽऽदिव्यवहारः श्रीस्थानाङ्गाऽऽदौ च तेषां भयादिवारणायैवं मुनिपदस्थानामप्यन्तःपुराऽऽदिषु गमनं कल्प्यतया निर्दिष्टं । एवं नाऽसंयतानां जीवनेन असंयतपापपोपः । एवं च जिनानां वार्षिकदानं तु न स्यादेव सम्यक्त्वप्राप्यजिनपदमहिमरुपं, किन्तु परमपापहेतुकं । तत्र दानमप्रतिपतितमत्यादिज्ञानवन्तः निर्मलतरसम्यक्त्वाश्च जिनाः निजपदमहत्त्वार्थ दानस्य 'माहात्म्यख्यापनद्वारा शासनप्रभावनाथ ददते, भगवजिनानां केवल्यवस्थायां समवसरणावसरे शासनस्य प्रभावनाथ सत्त्वानुकम्पार्थं च चक्रादयो द्वादशकोट्यादिसौवर्णिकादिदानं ददते, न च तीर्थपतयस्तेपु कश्चिदपि स्वनिमित्तेन तथाकरणस्य सत्त्वेऽपि निषेधयन्ति तदनेन भीखममताऽनुगानां दाननिषेधकानां पापिष्ठतमत्वमुद्भावितमिति । , - किञ्च-मृपावादाऽदत्ताऽऽदान-मैथुनानि यद्यपि वर्जनीयानि कर्माऽऽगमहेतुतया, परं तेभ्यः कर्माऽऽगमो यः स परेषां जीवानां विवाधकतयैव, परिहारश्च तेषां परजीवानां विबाधाऽऽदिवर्जनद्वारा कर्माऽऽगमरोधादेवं हेतोः ततश्च विरताऽविरतानां सर्वेषां विवाधावर्णनं यथाऽऽवश्यक, तथैव स्वप्रतिज्ञानां रक्षणपूर्वकं, तेषां रक्षणमप्यावश्यकमेवेति पश्चाप्यनुव्रतानि यथा प्रकृतिसुन्दराण्यानुगामुकानि च तहदेव :परोपकारकाण्यपीति । '. तथा तेषां भावनमत्र प्रतिपादितमिति, एतद्वचनमपि परेषामुपकारिताया आवश्यकता सूचयति । यथैवैषामणुव्रतादीनां प्रकृतिसुन्दरत्वाऽऽदि भावयेत्, तथैवाऽन्यूनाऽतिरिक्ततौर्षा परमार्थसाधकत्वं भावयेदित्याहुः 'परमत्थसाहगत्तं' इति । .: तथा च साध्वाचार-गृहिव्रतयोर्मेरु-सर्षपयोरिवान्तरं श्रुत्वा नोद्विजितव्यं, यतो यथा मुनिधर्माद् गृहिधर्मस्य न्यूनता, तयैव मिथ्याग्भ्यो गृहिवतवतो मेरुपमयोत्तमत्वश्रवणादिति । Page #155 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १७ ) fara - गृहस्था यद्यपि देशविरता एव तथापि कायपातिनो न चित्तपातिनः । अतएव चं श्रीसूत्रकृताङ्गे विरताऽविरतानामपि तेषां स्वरुपतो धार्मिकाऽधार्मिका ख्य मिश्रपक्षत्वेऽपि पर्यन्ते धार्मिकपक्षतया तेऽभिमताः । अपि च- परेषां बोधिसत्वा जगत्युत्तमतयाऽभिमतास्तथाऽत्र शासने वरबोधि समेततया बोधिसत्त्वा अपि गृहस्थत्वेऽपि भवन्ति । अपि च- यथा श्रीवीरस्य भगवतो देशनायामनगारघर्मस्य मोक्षसाधनतयाऽऽख्यानं कृतं तथैवाऽगारधर्मस्याऽपि तत्फलस्यैवाऽऽख्यानं कृतमस्ति । श्रीप्रशमरति - योगशास्त्राऽऽदिष्वप्यगारधर्माऽऽराधनस्य फलमन्तर्भवाऽष्टकस्य सिद्धिप्राप्तिरुपं स्पष्टतया - ऽऽख्यातं । किञ्च - आनन्दाऽऽद्याः श्रावका अगारधर्मवन्तोऽप्येकावतारिण इत्युपासकदशाऽऽदिषु स्पष्टं दृश्यन्ते । न च वाच्यमष्टादशस्वपि पापस्थानेषु प्रवृत्तिपरस्य कथं परमार्थसाधकत्वमणुव्रतधरस्येति ? । यतः प्राक् तावत् स एव देशविरतो भण्यते, योऽष्टादशभ्योऽपि पापस्थानकेभ्यो विरतिं कर्तुमभिलषति । अत एवोच्यने ' यतिधर्माडरक्तानां देशतः स्यादगारिणा ' मिति । किञ्च–साधुभिः कृतामष्टादशपापस्थानविरतिं सर्वविरतिरुपां श्रद्दधानोऽपि यदा कर्तुं न शक्नोति, तदैव देशविरतिस्तदभिलाषी सन् भवति, अतो देशविरतिः तप्ताऽयः कटाहपद्न्यासतुच्योच्यते, श्रीस्थानाङ्गे चाडत एव मनोरथा देशविरतानामुच्यन्ते इति परमार्थसाधकत्वभावननंसमावश्यकतममेव, अन्यथा परमार्थसाधकत्वदृष्टिमन्तराऽनन्तशः सर्वविरतीनामिव देश विरतीनामपि प्राप्तिर्जात पूर्वा, न च ताभिः काचित् कार्यसिद्धिरिति । अत्रेदमवधेयं यदुत–परमार्थसाधकत्वदृष्ट्या गृहीता देशविस्तयो या अष्टामिः (जन्ममिः) सिद्धिपदं दद्युः, ताः परमार्थसाधकत्वदृष्टिमन्तराऽनन्तशो गृहीताः पालिता अपि सुरलोकाऽऽदिसुखप्राप्तिपर्यवसाना भवन्ति, नाऽन्यथा । ततो देशविरतेरपि परमार्थसाधकत्वभावनमावश्यकतममिति । अत्र यत् कैश्चिदुच्यते यदुत - सर्वा अपि सम्यक्त्वस्य देशविरतेः सर्वविरतेश्च क्रिया अभव्येभैव्यैश्च जीवैरनन्तशो विहिता, न च कोऽप्यर्थस्ताभिर्निष्पन्नस्ततो व्यर्थमेव तत् क्रिया करणमिति । तैः प्राक् तावदेतावद् विचार्यै यदुत - सम्यक्त्वाऽऽदिक्रियाणामानन्त्यापेक्षया संसारे सर्वैः प्राणिभि:सह सर्वैः जीवैः सर्वै माता- पित्रादिसम्बन्धा अनन्तगुणा अनन्तशो लब्धा इति ते कथं न व्यज्यन्ते ? । किश्च - द्रव्यतोऽपि कृतायाः सम्यक्त्वाऽऽदिगताः क्रियास्ताभिरवश्यं सुरलोकादि तु दत्तमेच, सांसारिकक्रियाभिश्चाऽनन्तशो नरक - तिर्यगूगत्यादिषु महूा वेदना : अनुभूता इति प्रागनुभूत ३ Page #156 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (२०) शिवपदगामितया, पर नैतेऽणुनचादिभञ्ज तया महामोहबन्धकाः । अणुव्रतादिभञ्जकानां तु न केवलो महामोहस्य बन्धः, किन्तु प्रेत्याऽपि सम्यक्त्व-विरत्यादीनां दुर्लभत्वमेवेत्याहु: 'भूओ दुल्लहत्तं ' ति, । यद्यपि मरुदेव्यादिवत् केचिज्जीवा मनादिस्थावरात् प्रथममायाता एवं प्राप्नुयुः शिवपदानां साधनानि शिवं च, परं अणुव्रतादिभञ्जकानां तु पुनर्मूकप्रतिबोधितादिवद् भूयो धर्मस्यैव प्राप्तेदुर्लभताऽस्त्रि, ततो योग्यमुक्तं भङ्गे भूयो दुर्लभत्वमिति । - एतेन 'जायाए' इत्यादिना 'दुल्लहत्त' मित्यन्त्येन ग्रन्थेनाऽनुव्रतानां ग्रहणाय योग्या भूमिः सृष्टा । . अथ कथं तान्यनुव्रतानि ग्राह्याणत्याहुः पृथक् प्रकरणमिदं, तेन एवमित्युक्त्वाऽऽरब्धं, सम्बन्धश्चास्यैवमित्यव्ययस्य प्रतिपद्यतेत्यनेन, न तु पूर्वग्रन्येन, पूर्वाऽधिकारस्य स्वायत्तत्वात् । एवमित्यादिकस्य समग्रस्य वाक्यस्य तु 'थूलापाणाइवाये' त्यादिना 'इच्चाई'त्यन्तैन सम्बन्धः । किञ्च वाक्यं चेदं प्रतिपत्स्यमानेष्वणुव्रतेपु शक्तेरगृहनमनतिक्रमणं यथा भवति तथा यथाशक्ति स्वीकार इत्यादेर्दर्शनेन विधिमार्गस्य दर्शनाय । तथा च यदि स्यात् वीर्यस्य प्रकर्पस्तदा तु सर्वविरतिर्याऽष्टादशभ्यः पापस्थानेभ्यो विरमण-विवेक-त्यागरुपा सैव प्रतिपत्तव्या, तस्या एव मोक्षसाघनस्य मुख्यमार्गत्वात् , परं गृह-दाराऽर्थ-विषयादीनामासक्तिर्गता न भवेत् , ततश्च भवेदशक्तिगुहादीनां त्यागे, तदैव प्रतिपत्तव्यैषा । तत्रापि सर्वदा यथाशक्ति कार्यैव वृद्धिविरतेः । ततो युक्तं विजयाऽऽदीनां सर्वथा ब्रह्मधरणं, जिनदासाऽऽदीनां चतुष्पदपरिग्रहत्यागो योग्य एवेति । . एवं च “निरभिष्वङ्गस्य तु यतिधर्मः श्रेयानिति द्रव्यस्तवे निरभिष्वङ्गत्वेन यतिधर्ममनाश्रितानामावश्यकप्रवृत्तैर्दर्शनाय कथितस्य प्रकरणस्य तथा वित्तीवोच्छेयंमि ये' त्यादिकस्य द्रव्यस्तवमात्रस्य प्राधान्यं कृत्वा शेषव्यापाराणां निरपेक्षत्वं करणीयमेतदेव अर्थ-पुरुपार्थाद् धर्मपुरुषार्थस्य प्राधान्यमभिमन्वानः कार्य"-मिति वावदूकानां समाधानायाऽसर्वविरतेन भावस्तवाऽथ करणीयस्पापि द्रव्यस्तवस्य धर्मत्वेन प्राधान्येऽपि अकालगार्हस्थ्यव्युच्छेदेनाऽऽपित्तेः सम्भवात् तन्निवारणार्थं वृत्तिक्रियामनुरुध्य द्रव्यस्तवः कार्य इति । शुद्धमार्गदर्शनार्थमुक्तं तात्पर्ययुक्तमविज्ञाय अर्थ-कामयोरावश्यकतां च दर्शयन्ति गृहस्थानां ते निरस्ताः । , यतः निरभिष्वङ्गत्वं नायाति, आसक्तिरादिपु अशक्तिश्च तत्यागे सावद्यस्य च भवति, स Page #157 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (२१) एव यावती शक्तिः स्वस्य स्यात्तां समालोच्य विद्यमानायाः स्वशक्तेरगूहनेनानतिक्रमेण चाणुव्रतानि प्रतिपद्येताऽवश्यमिति च दर्शितं । अन्यच्च यथाशक्तीतिवचनेनाऽनुव्रतानां सहभावस्याऽनियमो दर्शितः । यथा हि महाव्रतानामष्टादशानां शीलाङ्गसहस्राणां परस्परमविनाभावो, नाऽत्र तथेति । अत एव निर्युक्तौ — पण चउक्कं च तिगं दुर्गं च एगं च गिण्हइ वयाई 'ति, अनुव्रतानां ग्रहणेषु *विकल्पा १६८०९ व्रतग्रहणभङ्गाः दर्शिताः परमत्र.. विकल्पो गृहीतः प्रथमतया स प्रायेण देशविरतानां पञ्चाणुव्रतान्यावश्यकानीति ज्ञापनार्थं । पञ्चकस्य " अन्यच्च 'अहवा वि उत्तरगुणे' त्तिवचनात् दिक्परिमाणाऽऽदीन्नामुत्तरगुणत्वमाविष्कृतं । उभ्यते पार्थक्येन “पंचाणुवइयं सत्तसि कखावइयं सम्मत्तमूलं गिहत्थधम्मं " न वृत्तिकारा अपि देश-सर्वोत्तरगुणानभिग्रहतयैव व्याख्यान्ति । तथाच मूळव्याख्यापेक्षयाऽनुव्रतानां पञ्चानां पाश्चात्यव्याख्यापेक्षया तु द्वादशानामपि व्रतानां विकल्पेन ग्रहणं भवति । किञ्च पञ्चानामनुव्रतानां यावज्जीवतया ग्रहो भवतीति 'पंच अणुव्वयाई जावकहियाणी' त्युक्तं । ततश्च यत्किञ्चित्कालं यावत्तेषां ग्रहणे देशमूलोत्तरगुणानां च ग्रहणेऽपि नाऽभिमता देशविरतिमत्ता, अतो मौनैकादश्या दिवस देवो दैशिकपौषधादिवतविधायका अपि श्रीकृष्णादयः केवलसम्यग्दर्शनधरतयां निर्दिष्टा आवश्यकवृत्त्यादिषु । तत्त्वतः पञ्चानामणुव्रतानां यावत्कथिकतया ग्रहणं देश विरतानामावश्यकं परं पञ्चानां द्वादशांनां च ग्रहणं श्रावकाणां वैकल्पिकमिति योग्यमुक्तं यथाशक्ति इति । यथाशक्ति व्रतानां ग्रहणमप्युचितविधानेन, नतु यथाकथञ्चित्, यतः सर्वविरतिं प्रतिपित्सोंर्निग्रथभावमभ्युपजिगमिषोरपि व्रतस्य प्रतिपत्तावादौ श्रीवीतरागाणां यथाविभवं पूजनं साधूनां सत्कार - करणं च विधेयमस्ति । यत रक्तं श्रीपञ्चवस्तुप्रकरणे श्रीहरिभद्रसूरिभिः सर्वविरतिग्रहण विधौ 4 'अह सो करिऊण पूअं जहविभवं वीयरागाण । साहुणं च उवउत्तो' त्ति, यदि सर्वग्रन्थत्यागमयीं सर्वविरतिं प्रतिपित्सुर्यथाविभवं वीतरागाणां पूजादि कुर्यात्तर्हि गृह * आवश्यकवृत्तावप्युक्तमस्तियत् " सोलह चेव सहस्सा अहेव सया हवंति अहिया । एसो उवासयाणं, वयगहणविहा समासेणं ॥ " Page #158 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (२२) दाराऽर्थमग्नतया देशविरतिं प्रतिपित्सुना त्ववश्यमेव तद् वीतरागपूजादि कार्यमेव । विधिश्चायमत्रोचितः, न केवलं वीतरागसाधूनां, “वीतरागसाधवः क्षेत्राणी-तिवचनात् भगवदहच्चैत्य-मूर्ति-साधुसाध्वीरुपाणि सत्कार्याणि, किन्त्यन्यानि (अपि) यत आहुः धर्मविन्दुकाराः___ “देव-गुरु-साधर्मिक स्वजन-दीनाऽनाथाऽऽदीनामुपचाराहींणां यो यस्य योग्य उपचारः धूप-पुष्प-वस्त्र-विलेपनाऽऽसनदानादिगौरवात्मकः कार्यः स विधिरिति । किञ्च-श्रूयते प्रव्रजन्तो नृपादयो दीनाऽनाथाऽऽदीनां महादानं दत्त्वैव प्रव्रजन्ति, भगवन्तोउहँन्तः सर्वेऽपि यादृच्छिकं महादानं परःकोटीशतमानं दत्त्वैव प्रव्रजन्ति, ततोऽत्रोंचितविधाने यथाऽहंदानादिकरणमप्यावश्यकमेव । - एषा हि अणुव्रतानां प्रतिपत्तेरवसरे उपचारार्हाणां उचित उपचार विधिः । व्रतानां विषयस्तू. चितोः विधिरयं--- प्रथमं तावदनुत्रतानि ग्रहीतुमुद्यताऽऽत्मना मनोवाक्काययोगानां व्रतोधारणविषयशोधनं कार्य, ततश्च मनसाऽनुव्रतविषयं सुप्रणिधानं कार्य, वचसा सद्गुणप्रशंसादि, कायेन च यथार्ह तद्वतामादरसन्मानादि कार्यमत्र, एवं च योगानां शुद्धिः कृता भवति । जाते चैतस्मिन् द्वये बाह्यानां शङ्खशब्दाऽऽकर्णनादीनां निमित्तानामान्तराणां चात्मोत्साह-प्रतिपालन-प्रतिदिनवर्धन-सर्वविरत्यध्वाऽनु सरणाऽऽदीनां शुद्धिः व्रतोच्चारकाले पश्चाच्चाऽवश्यं कार्या । - 'एवं च कृत्वा यानि प्रतिपद्यन्तेऽनुव्रतानि तान्यपि लघूनि तथापि यथावत् पालितानि सर्वविरतिवद्देवाऽपवर्गसिद्धिं शीघ्र समानयन्ति, परं तानि निरतिचाराणि शुद्धानि च प्रतिपाल्यानि भवन्ति । तथापालनं च स्तोकत राया मपि विरतेः पालना गुणकरी, भङ्गस्तु तस्या लघ्या अपि दारुण इत्युक्तंप्राय समालोच्याऽऽकाराणां राजाऽभियोगाऽऽदीनां शुद्धिः कार्या, अर्थात् एते मम नाऽऽचरितुं योग्याः, परं कदाचित् तथाप्रसङ्गः स्यात्तदा व्रतभङ्गा मा भूदित्याकारान् करोति, न त्वाचरणबुद्धया, यद्वा तेषां आवश्यकत्वमवधायेंत्येषाकारशुद्धिः । __ यद्यप्येतासां शुद्धोनामिव दिशां शुद्धिरावश्यकी, परं पूर्वकाले श्रीजिनवराणां परेपां च समवसरणानि पूर्वोत्तरस्यां (पूर्वस्यां, उत्तरस्यां वा इति भावः) जायमानान्याप्सन्निति पूर्वस्यां उत्तरस्यां वाऽभिमुखमवस्थानं व्रत प्रतिपित्सूनामवश्यं भवति, लोवे ऽपि च पूर्वस्या उत्तरस्याश्च पूज्यत्वमाश्रितं, ततो दिशः शुद्धौ स्थिरतया पूर्वस्यां उत्तरस्यान्चेति द्वयोर्दिशोहणं, परं यदा पुर-नगरनादीमभ्यन्तरे बहिर्वा जिनचैत्यानि अन्यो वा कोऽमि पूज्यवर्गा भवेदासीनस्तदा तां दिशमाश्रित्य सर्वेपां धर्मा Page #159 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (२३) नुष्ठानानां विधेयस्वमस्ति क्वचिदः स्तासां चरदिक्त्वेनाऽपि व्यवहारो, “विशेपावश्यकादिष्वपि 'जाई जिणचेइयाई वे' त्यादि दिशमधिकृत्य, क्षेत्रमधिकृत्य 'जिणहरे वे'त्युक्तं, ततो यदि यथाईमनुनतप्रतिपित्सुभिरवश्यं प्रशस्ता दिशोऽप्यानयितव्या इति । ...... . तत्र दिक्शुद्धिरप्युचितविधितयैवावधार्येति । : :: विहिवहमाणी धण्णा, विहिपक्खाराहगा सया धण्णा। जम्हा विहिअप्पओसो वा, होइ दूरभव्वऽभव्वाणं ॥१॥ -तिपञ्चाशकवचनं, *."जह भोयणमविहिकय"-मित्यादिप्रकरणान्तरगतं च वचनमनुस्मरतां मध्यानामुचित विधानेनैवानुव्रतानां प्रतिपत्तिः कर्तव्येत्येवं विधाने न कदाचनापि भाविन्युपेक्षेति ।.. ... ___ एवमात्मनः शक्तिमनतिक्रम्य तामनिगृह्य च यथोचितविधानेनाऽनुव्रतानां प्रतिपत्तिर्विधेयतया योऽभिहिता सा भावसारमेव कार्या, यतो हि जीवक्षेत्रे उप्तं धर्मबीजं यत् फलमर्पयति तद् भावानुसारेणैव क्रियायाः शुभाऽभ्यास-संस्काराऽऽदिद्वाराऽऽवश्यकत्वेपि धर्मस्य फलं प्राप्यते । यतः सर्व मप्यनुष्ठानं तीर्थस्य प्रवृत्त्यादौ जीवानां धर्मस्य प्राप्त्यादौ चाऽत्यन्तमुपयोग्यपि सत् इच्छा-शास्त्र योगयुग्मपर्यन्तमनुधावति, परं भावस्तु तत्र सर्वत्र प्रवृत्त्यादौ व्याप्यापि सामर्थ्ययोगमनुरुणद्धि। . किञ्च-श्रूयते भगवतो नेमिनाथस्य श्रीकृष्णवासुदेवप्रेरितेन पालकेन पूर्वमेव प्रातर्वन्दनं कृतं, परं तत्र भावशून्यत्वादश्वप्राप्तिरुपं लौकिकं फलमपि नाऽऽप्तं, शाम्बेन च भावतो गृहेऽवस्थायाऽपि कृतस्य वन्दनस्य फलं लौकिकमश्वरुपं प्राप्तं, भगवता च तस्यैव वन्दनमुपबंहितं ।।। किञ्च-'उक्कोसं दव्यथयं, आराहिय जाइ अच्चुयं सड्ढो। . . : ....... भावथएणं पावइ, अंतमुहुत्तेण णिव्याण ॥१॥ .. .. __-मितिगाथयाऽपि भावस्यैव सारतमत्वमाख्यातं. ___इको वि णमुक्कारो, जिणवरवसहरस बंद्धमाणस्स। संसारसागराओ, तारेइ गरं व णारिं वा' ॥१॥.. —इत्यपि सिद्धस्तवोक्तं माहात्म्यं भावस्यैव सारतमत्वमभिव्यक्ति Page #160 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कचाऽऽरभ्य सम्यग्दर्शनात् शैलेशीमपवर्ग च यावत् याश्चाऽऽत्मगुणानामाप्तयस्ताः सर्वा मपि तथाविधभावप्रभवा एव । किञ्च-वैचित्र्याद् भावस्य सर्वज्ञानामप्यप्राप्यः सिद्धेर्योग्यत्वमापादयन् सामर्थ्ययोगस्थ पर्यन्तः शास्त्रकृद्भिर्योऽभिमतः सोऽपि भावसारतापक्षमेव पोषयति, ततो युक्तमुक्तं 'भावसार 'मिति । यच्चाऽत्राऽत्यन्तमिति भावसारस्यापि विशेषणं तत् अनुवतानां दीर्घविचारपूर्वकं ग्रहण ज्ञापयति । अत एव सर्वविरतेः प्रतिपत्तिकालः समयमागमेऽभिप्रेतः, परं देशविरतेस्त्वान्तमाहूर्तिक एव कालो व्याख्यातः । युक्तिश्चात्र सर्वविरतानां सर्वथा निरभिप्वङ्गत्वं, तेन च समनसावद्यत्यागः, स च न तथाविधं विचारमपेक्षते, यादृशो गृहस्थानां परिणामतो निरभिष्वङ्गाणां हेतु-स्वरुपाभ्यां साभिष्वङ्गाणां त्यागो निरभिष्वङ्गेतरद्वयमाश्रित्य तस्य प्रवृत्तत्वात् । अत उक्तमणुव्रतप्रतिपत्त्यधिकारे 'अत्यन्तं भावसार'मिति । अत्र 'पडिवज्जेज्जे ति यदुक्तं, तत् प्रतिपत्त्यहाणां विधाय प्रतिपत्तिमेव ग्रहणं कार्यमणुव्रतानामिति सूचनाय, यथा हि शास्त्रेषु दानार्थस्य समानत्वेऽपि सामान्येन दीनाऽनाथ-कार्पटिकानां दानाऽवसरे 'दलेमाणे' इत्याधुच्यते, परं प्रतिपत्तेरहेभ्यो यदा सत्कारपूर्वकं सभक्तिकं दानं दातव्यं भवति, तदा 'पडिलामेमाणे' इत्यादयः शब्दाः प्रयुज्यन्ते । अत एव च श्रीभगवत्यां यदसंयतेभ्यो दाने एकान्त गपं फलमुक्तं तत् सङ्गच्छते । तत्र प्रासुकादिविशेषणं यस्मात् संयतानामुचितं दाने तदुक्तं, तथा 'पडिलामेमाणे' इत्यादि चोक्तं तथा च नाऽनुकम्पादिदानानां व्युच्छेदप्रसङ्ग एकान्तपापानुबन्धिता वा। __ततश्च भगवद्भिरर्हद्भिः क्षायिकादिसम्यक्त्वलभ्यजिननामकर्मण उदयात् यत् प्रवर्तितं सांवसरिकं दानं तस्य शासनप्रभावकताऽनुकम्पाहेतुता च न विरुध्यते इति । आगमेष्वपि च परिव्रज्याप्रतिपत्यादिषु 'पडिवज्जइ'त्ति 'पडिवज्जेऊणे' त्यायेवोच्यते । किश्चाऽत्र पञ्चानामानुव्रतानां द्वादशानां वा व्रतानामुद्देशाभावात् ' तंजहे 'ति तद्यथेत्यर्थकमखण्डमव्ययमन्यत्र प्रेक्तक्रमोपदर्शकतया पाठयमानमप्यत्र तद्यथेत्यखण्डमव्ययं प्रतिपत्तिरीतेः प्रदर्शनार्थमवसेयं. तथा चानुव्रतानां वक्ष्यमाणरीत्या प्रतिपत्ति; कार्या, तथा च स्थूलप्राणातिपातविरमणादीनां यथाक्रमत्वं ज्ञापितं । Page #161 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अंत एव पञ्चानामनुव्रतानां द्वादशानां व्रतानां वा भङ्गकसङ्ख्यायां न क्रमोत्क्रमजनिता ङ्गाः, प्रथमादित्वं चैवमेव स्थूलप्राणातिपातविरमणादीनां तत एव सादित्वं मन्तव्यं । . किञ्च-'थूलगपाणाइवायविरमण' मित्यत्र स्थूलानां त्रसानां प्राणातिपाताद्विरमणे सत्यपि । त् कप्रत्ययं समानीय स्थूलकमित्युच्यते, तत् स्थूलप्राणातिपातविरमणस्याऽप्यल्पार्थत्वबोधनाय । यतस्त्रसानां वधाद्विरमणमपि सङ्कल्पादिजनितात् कृतं, नाऽऽरम्भादिजनितात् , न च त्रिविधविधादिभिर्भङ्गैरपि, किन्तु त्रिविध-त्रिविधादिना तद्विरमणं विधायानुमतिस्तु नैव प्रत्याख्याता, न च नद्विरमणमिष्टं गृहस्थावासान्मतमिति स्वल्पार्थे कप्रत्ययः समानीतः । किञ्च-स्थूलप्रागिनोऽत्र स्थूलपाणशब्देन वाच्याः, यतः न प्राणिनां तारतम्येन हिंसकानानघस्य तारतम्यं, न च प्राणानां सङ्ख्यायास्तारतम्येनापि, किन्तु प्राणानां माहात्म्यानुसारेणैव नापानां तारतम्यं, तत एव नाऽनभोजननिवृत्तिमाधाय मांसभोजनकरणमुचितं, न च ऋषीणामाबाधामुपेक्ष्य समस्तस्यापि जगत आवाधायाः परिहरणं लाभायेति । तत्राऽल्पत्वं सङ्कल्पादिजस्य वधस्य करणात् विरमणस्याऽल्पत्वं, त्रिविध-त्रिविधत्वेनाsकरणात् । अत एवाऽत्र सर्वस्मात् प्राणातिपाताद्विरमणमितिवन्नाऽसमासः, किन्तु सर्वत्राऽल्पत्वस्य विवक्षणात् स्थूलकप्राणातिपातविरमणमिति समस्तनिर्देशः । । ननु श्रमणोपासकानां केषाश्चिदेकादशीप्रतिमां प्रतिपन्नानां प्राणातिपातात् त्रिविध-त्रिविधेनापि विरतिर्भवतीति नियुक्तिकारादिवचनात् किं तादृशानां तेषां सर्वस्मात् प्राणातिपाताद् विरमणं भवतीति ? चेत् । सत्यं । नियुक्तिकारादिवचनात् तेषां तादृशानां केषाञ्चिद्भवतु त्रिविध-त्रिविधेन प्राणातिपातानिवृत्तिः, परं सर्वस्मात् प्राणातिपाताद्विरमणस्य प्रत्याख्यानं तु अगारान्निष्कग्याऽनगारितां प्रतिपन्नानामेव भवति, देशविरतिहि अगत्याख्यानकषायक्षयोपशमजन्या, सर्वविरतिस्तु प्रत्याख्यानावरणक्ष: योपशमादिजन्या । अत एव समुत्पन्नकेवला असम्भाव्यमानपापबन्धा अपि न प्रतिपन्नाश्चेत्सर्वविरतिं प्राग्, पश्चादपि प्रतिपद्यन्ते चिरायुष्काः स्वलिङ्गसिद्धा एव भवन्तीति । तथाच सावधप्रत्याख्यानाय करोमि भदन्त ! सामायिक-मित्यादेउच्चारणाऽभावेऽपि करणं, गृह्यादिलिङ्गत्यागेन स्वलिङ्गस्य स्वीकरणं न राग-द्वेपस्वरूपं, नवा राग-द्वेषयोः कार्य तत् , निरभिष्वङ्गरूपत्वात् । __एवमेव यावजीवं देव-गुरु-धर्मेषु दृढ आन्तरः प्रतिवन्धो न, कषायरुपस्तेन तस्य यावज्जीवमवस्थानेऽपि नाऽनन्तानुवन्धित्वमिति । अन्यथा हि वीतरागाणां सर्वज्ञानां मोक्षमार्गस्योपदेशोऽन्येपां Page #162 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (२६) तत्स्वीकारणं नैव युक्तं स्यात् , न च तीर्थस्थापनादि स्यात् , तत्वतो विषयसुखसाधनानामेव राग-द्वेप-मोहकार्यत्वमिति ध्येयमिति । ननु श्रमणोपासकाः स्वशक्तिमनतिक्रम्याऽनिगृह्य य यथाशक्ती तिवचनानुसारेण प्रतिपद्यरन् अनुव्रतानि, परं प्रतिपत्तिशब्देन तेषामनुव्रतानां प्रतिपत्तिस्तु गुरोः समीप एव कर्तव्या । कथ्यते च 'गुरुमूले सुयधम्मो पडिवज्जेज्जा इत्तरं इयरं चे-ति, परं गुरवः कथं तेषां तानि तथाविधतया प्रत्याख्यापयन्ति ? यतो गुग्वो हि त्रिविध त्रिविधेन.. प्राणातिपाताऽऽदिभ्यो निवृत्ताः, तथानिवृत्तानां च तेषां प्राणवधादीनामनुमतेः स्पष्टतयाऽस्ति निषेधः, अनुमतिश्च सहवासाऽनिषेध-प्रशंसेति त्रिविधतया गीयते, तथा मुत्कलय्यानुमति श्रावकाणां प्रत्याख्यापयितृणां गुरुणां कथं नाऽनुमतिदोषदुष्टत्वमिति चेत् ? सत्यं ! परं गुरूणामेप एव धर्मो यदुत-प्राक् सर्वपापस्थानेभ्यस्त्रिविध-त्रिविधनिवृत्तिरूपां सर्वविरति-.. मेव देशयन्ति, परं श्रोतारो यदि तां प्रतिपत्तुमसहा अनुद्यताश्च, तर्हि ते श्रोतारः सर्वथा पापस्थाननिवृत्तिरहिता भा भूवन्निति देशविरतिं पश्चात् कथयन्ति, तथा च गृहिपुत्रमोक्षज्ञातेन त्रिविधाऽऽदिना पापस्थानान्यमुंचतां श्रावकाणां द्विविध-त्रिविधादिनापि प्रत्याख्यापयन्तीति । साधूनां तथा प्रत्याख्यापयतां तथाविधं प्रवृत्तत्वात् न कणिकापि दोषस्य । . यद्यप्यनुत्रतानां प्रतिपत्तिर्हि विध-त्रिविधादिना श्रावकाणां भवति, परं मिथ्यात्वस्य तु त्रिविध-त्रिविधेनाऽपि भवति प्रत्याख्यानं परं तत् प्रत्याख्यानं मिथ्यात्विसहवासनिपेधाऽऽदिना न भवति, नगरादिनिवासिनां नृपादीनां मिथ्याक्त्वस्याभावस्य नियमाऽभावात् । ___ अत एव सम्यक्त्वे राजाऽभियोगाद्या आकाराः पडभिधीयन्ते, परं श्रद्धारूपस्य सम्यक्त्वस्य स्वीकाराद् विपरीतश्रद्धारूपं मिथ्यात्वं विवक्ष्य तस्य त्रिविध-त्रिविधेनाऽपि स्यादेव प्रत्याख्यानं, राजाभियोगादयस्त्वाकारा 'णो मे कप्पइ अज्जप्पभिई अण्ण्उत्थिये त्यादिरूपतया स्वीकृतस्य तथाविध- . श्रद्धापूर्वकस्याऽन्यतीर्थीयदानादि क्रियानिपेधरूपस्य सम्यक्त्वस्य । अत एव राजांभियोगाद्याकारप्रसङ्गे तथाक्रिया विपया एव दृष्टान्ता आवश्यकवृत्त्यादिषु... कथ्यन्ते इति । ननु 'मूलं द्वारं प्रतिष्ठान-माधारी भाजनं निधिः । . द्विपट्कस्यास्य धर्मस्य, सम्यक्त्वमिदमुच्यते ' ॥१॥.. . Page #163 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (२७) इति वचनात् 'सम्मत्तमूलं पंचाणुव्यझ्य' मित्यादिवचनाच्च श्रमणोपासकैरादौ सम्यक्त्वमेव स्वीकार्य भवति, अत्र तु कथं तत्प्रतिपत्तिनोंक्तेति ? प्रथमेन पापप्रतिघात-गुणवीजाधानसूत्रेणैव सम्यक्त्वस्याऽर्थतो महता प्रबन्धेनोक्तत्वादत्र नोक्तमिति, परं सम्यक्त्वस्य स्वीकारोऽनुव्रतानामादावावश्यक एव। . अत एवोच्यते-'इत्थ उ समणोवासगधम्मे' इत्यत्राऽत्र शब्देनार्हतधर्मे इत्येव कथ्यते, युक्तमेव च तत् , यतः स्थूलजीववधाद्विरतिं कुर्ववद्भिरवश्यं पृथ्व्यादीनां सूक्ष्माणां जीवतया स्वीकारः कार्य, स च जैनशासनश्रद्धानरूपे सम्यक्त्व एव, अत एवोच्यते 'सत्येव सम्यक्त्वे न्याय्यमणु बतादीनांग्रहण ' मिति । प्राणातिपातेत्यत्र अतिपातशब्देन ज्ञाप्यते इदं यदुत-हिंस्यैयद्यपि तथाविधमायुष्कमसातं च प्राकृतं, यस्योदयेन तथाविधमसातं स आसाद्य वियोज्यते प्राणेभ्यः, परं हिंसकानां तुपाणात्यये येत् प्रेरणं निमित्तभावः सङ्कलेशश्च तेषां वर्जनीयतास्ति, ततो जायमानस्य प्राणवियोगस्य व्यापारजमतिपातनं तस्य प्रचुरपापबन्धहेतुत्वाद् वर्जनमत्र । - श्रीतत्वार्थादावपि 'प्रमत्तयोगात् प्राणव्यपरोपण' मित्युक्त्वा गिजंत एव प्रयोग उपन्यस्तः । तथा च हिंस्यानां तथाविधकर्मोदयादेव जायते हिंसनं, तत्र के वयमित्यधार्मिकाणां प्रलापों न श्रोतुमपि योग्य इति । ननु प्रतिपन्नाणुव्रतानां मांसभक्षणं कल्पते न वा ? यतो मांसार्थ प्राणिनां वधं वन्ये कुर्वन्ति. न च मांसे मृतानां जीवानां अंशोपि विद्यते, निरंशतया तदा श्रुतानां प्रेत्य गतेतित्वात् , दृष्टे श्रुते सल्पिते च मांसोत्पादने दोपो भवतु, परमदृष्टादिविशिष्टस्य तस्य भक्षणं कथं दुष्टमिति चेत् । श्रुणु ! प्राक् तावत् नरकस्यावन्ध्यं कारणं मांसभक्षणं, यतः श्रीआपपातिकश्रीस्थानाङ्ग-भगवत्यादिषु नारकायुर्वन्धकारकेपु चतुर्पु कारणेषु 'कुणिमाहारेणं ति वचनेन स्पष्टतया मांसस्य यादृशताशस्यापि नारकायुष्कहेतुतया निर्दिष्टं । किच-सर्वविरत्यादिप्रतिपत्तेरसहिष्णोर्यावत् सम्यक्त्वमप्यनङ्गीकुर्वतामपि जनानां मांसभक्षणादेवश्यपरिहारो देशनीयतयोक्तः । किञ्चाऽकृतादिविशेषणस्यापि परिभोगे तदुत्थदोषस्यापातः, अत एवाऽकृतादिविशिष्टस्याप्याधाकर्म गो भोगे साधूनामष्टकर्मबन्धादिदोषः स्पष्टतया शास्त्रे उक्तः, तस्मात् अप्रतिपन्नसम्यक्त्वादिभिरपि नरकभीरूभिर्वज्यं चेन्मांस, तर्हि प्रतिन्नानुव्रतानां तु स्वप्नान्तरेऽपि तद्भक्षणस्य स्यादयोग्यत्वमिति । Page #164 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (२८) आद्यत्वं च स्थूलप्राणातिपातविरमणस्य महावतेषु सर्वस्मात् प्राणातिपाताद्विरमणस्याद्यत्वात् , तस्य तत्राद्यत्वं पृच्यादिपडूजीवनि कायानामहद्भिरेव तदयार्थ प्ररुपणात् , तत्त्वतः पट्कायश्रद्धानस्यैव जैनमतस्वरूपत्वात् , 'अहिंसालकखणस्से' तिवचनाद् धर्मस्यैवाऽऽर्हतस्याऽहिंसालक्षणत्वात् । अत एव "अहिंसैपा मता मुख्या, स्वर्गमोक्षप्रसाधनी। एतत्संरक्षणार्थ च, न्याय्यं सत्यादिपालनं ॥१॥" इत्युक्त्वा सत्यादीनामहिंसारक्षणसाधनत्वमुक्तं । अत एव च धर्मपरीक्षात्रिकोट्यां कष-ग्छेद-तापा जीवदयाविषयतयैव मुख्यत्वेन गदिताः, गादिता च धर्मभेदेषु 'अहिंसा संजमो लवो' इत्यत्राद्यतया सैवेति योग्यमेवास्याऽऽद्यत्वं, न चाऽत्र क्रभो विवक्षाभात्राधीन इति तु प्रागुक्तमेवेति, प्राणाऽतिपातविरमणस्य प्राधान्यादेवेर्यासमित्यादयोऽष्टौ प्रवचनमातृतयाभिधीयन्ते, तास्वेव सकलं प्रवचन मानं प्रवचनस्य समग्रस्य जननात् परिपालना-. च्छोधनाच्चैपांगीयते ईर्यासमित्यादीनां प्रवचनमातृता,वधविरमणध्येयप्रधानाचैता अष्टावपीति स्पष्टं। वधविरमणस्य प्राधान्यादेव तद्विषयकश्रुतस्य प्रामाण्यं प्रचुरं, तद्रक्षणायैव केवलदृष्ट्याऽशुद्धस्यापि पिण्डस्य शुद्धत्वोक्तिः केवलिनोऽपि । किञ्च-अयोगिनं यावद् द्रव्यप्राणातिपातविचारः सयोगिनो यावत् सावद्यता च वधस्य शास्त्रेषु प्रतिपादिता, प्रवचने प्राधान्य प्राणातिपातविरमणस्य, उच्यते चाऽस्य प्राणातिपातविरमणस्य प्राधान्यादेव 'पिंडं असोहयंतो अचरित्ती एत्थ णस्थि संदेहोति । किञ्च–साध्वाचारनिरुपणचणे श्रीआचाराङ्गे प्रथमध्येयतया शास्त्रपरिज्ञाध्ययनमाविष्कृतं श्रीमद्भिर्गणधरैः, श्रीमद्भिः शव्यंभवस रिभिरपि श्रीदशवकालिके प्राणातिपातविरमणस्य प्राधान्यमाश्रित्यैवाऽऽद्याध्यनं द्रुमपुष्पिकाख्यामाख्यातं । ___ किञ्च-प्राक्काले श्रीआचाराङ्गायध्ययनस्याऽधुना श्रीदशवैकालिकश्रुतगतपड्जीवनिकायस्य चाध्ययनानरं पड्जीवनिकायवधकर्मबन्धश्रद्धा-वधपरिहारतत्परीक्षादिसद्भाव एव साधुसाध्वीनामुपस्थापनादि जायते, एवं च सति श्रीजैनशासने प्राणातिपातविरमणस्यासाधारण्येन प्राधान्यमस्ति, तत्र को विवदितुं शक्नोति ? प्राधान्ये च तथाऽऽदावुपन्यासो युक्तियुक्त एवेति । . श्रीजैने शासने यद्यपि सर्वेऽपि हिंसादय आश्रवाः कर्माऽऽगमकारणभूताऽशुभयोगनिरोधायैव प्रतिपादिताः, परं पृथक् पृथक् तेपामवान्तरकारणान्यपि सन्ति । Page #165 -------------------------------------------------------------------------- ________________ __ यथा प्रथमत्रते हिंस्यादीनां रक्षणं प्रधानतया वैरानुबन्धाद्याश्च गौणतया, तथा द्वितीयस्मिन्नपि कर्मागमकारणाशुभयोगनिरोधवत् मृषा वादयितुर्यत् जिह्वानुदादयोऽनर्था नृपादिभ्यो भवन्ति तद्वारणं मुख्यतयाऽस्ति, अत एवाऽनुव्रतस्योच्चारणे स्थूलस्य मृषावादस्य लक्षणमेतदेवोच्यते यो जिह्वाछेदादिकरो मृषावादरतं द्वितीयेऽनुव्रते प्रत्याख्याति श्रमणोपासक इति । अत्रेदमवधेयं यदुत-यथा वधविरतौ जगद्वर्तिनां सर्वेषामसुमतां रक्षणं तद्विषयकाऽशुभकर्मागमनिरोधाय वधस्य निषेधद्वारा रक्षणममिमतं, न च जीवनेच्छायामसंयतानामसंयमविषयाऽनुमोदनीयताऽऽसज्यते, ईर्यासमित्यादीनां तद्रक्षणप्रधानानां प्रवचनमातॄणां पापसाधनापत्तेः ।। तथा द्वितीये त्वणुव्रते स्पष्टमेव मृषा वदतामसंयतानां जिह्वाछेदादिदण्डविषयताया वारणमेव फलं, तथा चाऽसंयतानामपि जिह्वाछेदाधनों मा भूदिति कृत्वैव स्थूलमृषावादाद्विरमणं तदनर्थहेतुतामाविर्भाव्यैव कार्यते । _स्थूलमृषावादाद्विरमणं यथा पापागमनिरोधवत् जिह्वाच्छेदाद्यनर्थहेतुतया वार्यते तथा स्थूलप्राणविषयतया स्थूलप्राणातिपातविरमणवत् मृषावादोऽचित्तद्विपद-चतुष्पद विषयतया निवार्यते इति, अपदविषयःमृषावादोपलक्षणतया द्विपद चतुष्पदकन्या-गो-भूमीनां द्विपद-चतुष्पदानां मृषावादो यो जिह्वाच्छेदादिराजदण्डकारणीभूतः स प्रत्याख्यायते, एवं प्राचीनं मृषावादत्रयमवसेयं, शेषद्वयविचारस्त्वेवं. यद्यपि न्यासापहारो यो मृषावादे स्थूले प्रत्याख्यायमाने प्रत्याख्यायते, स स्थूलदृष्ट्या न्यायस्य परार्पितस्य सौवर्णिकादेरपलपनात् स्तेयरुपतामेवानुधावति, अस्ति च तत्र फलरुपता स्तेयस्य, परं तत्रेदमवधेयं यदुत ____ आदौ तावत् यः कश्चिन्न्यासमर्पयितुमिच्छति स तावत्तत्र नगरादौ यस्मै न्यासमर्पयितुमिच्छति, तस्य प्रामाण्यं यथायोग्यमवश्यमन्वेपयति, अन्वेषयञ्च यथायोग्यं पृच्छति जनान् यथाऽमुकः कीदृशः सत्यवाक् प्रामाणिकश्चति ? तत्र च यदा जनेभ्यः स न्यासार्पकः समाकर्णयति यत् त्वयां पृच्छयमानः स श्रेष्ठ्यादिः प्राणान्तेऽपि नाऽसत्यं वक्ति, न चापद्गतोऽपि मृषा वकतुमेष जानाति, नच कपर्दिदकामात्रायापि परद्रव्याय स्पृहयति, न च कपर्दिकात आरभ्य यावत् कोट्यवधिसौवर्णिकेभ्यः स्पृहा तस्यास्ति, येनाऽप्रामाणिकत्वं स्यात् इत्यादि, - तस्य श्रेष्ठयादेः सत्यवक्तृत्वादि सत्यप्रतिज्ञत्वादि च श्रुत्वैव तस्मै स्वप्राणाधिकमपि न्यासं समर्पयति, समर्पयंश्चापि वारं वारं वक्ति च यथा श्रेष्टिन् ! यदाऽहं मार्गयाम्येनं न्यासं तदा निर्विलम्ब मह्यं समर्पणीयोऽयमिति तदा । प्राक् तु तावत् स श्रेष्ठ्यादिस्तस्य न्यासस्य ग्रहणविषये विधत्त एव निषेधं, पश्चान्न्यासार्पको धनं लगित्वा विज्ञप्तिपारम्पर्य चादृत्य तं तत्स्वीकारं वचसा Page #166 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (३०) स्वीकारयति पश्चाच्चार्पयति तं न्यासं, एकं तावदेवमादौ, द्वितीयं पश्चादागतश्च देशान्तरात्तं श्रेष्ठयादिकमन्विष्य तत्सर्वं न्यासार्पणादिकं स्मारयति, अत्र च न्यासापहर्ता अपलपति तत्सर्वं पूर्व व्यतिकरं तं विगोप्यैव शवयों न्यासापहारः कर्तुं, ततोऽपलापर्वकत्वादपलापप्रधानत्वात् सत्यप्रतिज्ञापूर्वकव्यवहारस्य विलोपायैव भवति न्यासापहार इतिवचनप्राधान्येन न्यासाहपारस्य मृषावादता । किञ्च-न्यासार्पणां स्वीकृत्य तं पश्चादर्पयितुमशक्तस्य न तथाविधो नृपादेर्निग्रहो जनेऽविश्वसनीयता च भवति, यथाऽपलपितुस्तस्मात्तस्य, समावेशोऽत्रेति । कूटसाक्ष्यं च यद्यप्यपदे द्विपद-चतुष्पद-भूमि-कन्या-गवादिविषयमेव भवति, परं तत्र स्वयं निःस्पृहत्वं दर्शयितुं शक्यं । किञ्च-नृपकुलादौ स्वार्थ गवादि विषयेऽलीकवादिनः कथञ्चित् निर्धनत्वादिकारणैः क्षम्यताऽपि भवति, परं कूटसाक्ष्यं कृतवतस्तु नरस्य प्रामाणिकत्वमेव समूलनाशं नश्यति । राजकुले च यादृशोगोभूम्यादिविषये स्वार्थमलीकं वदन्नताप्रीतिं ततोऽनेकगुणं दण्डं प्राप्नोतीति जने च धिक्कारपात्रं जायते । . किञ्च–साक्षित्वमेव तावत् तदातारं सत्यवादप्रतिज्ञापूर्वकमेव कार्यते इति कूटसाक्षिको जनः प्रतिज्ञालोपकत्वेनाऽन्याऽनृतवादिभ्यो दण्डमासादयति । - अन्यच्चाऽनार्यवेदानामुत्पत्तिः प्रचारादि च वसुराजस्य क्टसाक्ष्यमूलमेव जातमस्ति, तद् विदन् को नरः कूटसाक्ष्यं गवालीकादिम्योऽनर्थ करमिति न गणयेत् । ततश्चाऽस्य पृथगुपन्यासो योग्य एवेति । यथा कन्याऽऽदिविषयमलीकं वदतां निग्रहं नृपादयो जिह्वाछेदादिद्वारा दण्डयित्वा कुर्वन्ति, तथैव स्वयं तद्विषयं मृपावादमवदन्नपि परेभ्यस्तत्कन्यादिविषये तथा मृपायुक्तौ मतिं दद्यात् , स यद्यपि वृद्धैःमृषा वादयामीति कारापणस्यैव दोपवत्तयोक्तः, परं राज्यव्यवहारे यथा कन्यादिविषयं महानर्थकरं मृषावादं वदतां दण्डयता तथैव कंन्यादिविषय तथाविवं मृपावादं वादयतामपरेषामपि दण्डाऽस्ति । श्रूयते च तथाविधं वादयतामपि नृपाद्यैः कृता दण्डः, ततस्तथाविधजिह्वाच्छेदादिकारणत्वादेव तथाविधमृपावादवक्तुस्तथाविधसृपावादनोपदेशदातुरपि दुष्टताऽभिमता, तत एव तथाविधमृषावादवदनोपदेशदानमपि स्थूलमृपावादतामानीत अतिचारताख्यानेन प्रत्याख्यापितं चेति । . कूटलेखस्य करणं च यद्यपि न साक्षात् वचनरुपं, नच साक्षान्मृपावादरुपं, परं वचनरुप एव व्यवहारो दानाऽऽदानादिमूलं कालान्तरेऽपि तस्य व्यवहारस्य नियतत्वार्थमविसंवादित्वार्थमपरावर्तमानतया स्थापनार्थ प्राक्तनवचनव्यवहारस्य जगति लेखक्रियायाः करणो व्यवहार इति Page #167 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कूटलेखकियायाः क्रियारुपत्वेऽपि मृषावादस्ततो दण्डोऽपि मृषा वक्तुरिव कूटलेखकारस्य - ज़िला हस्तादिच्छेदादिरूपो भवति, ततस्तस्य मृषावादविरमणस्याऽतिचारता प्रत्याख्येयता चेति । ... ... यद्यपि कूटलेखस्य करणं परस्य गवादीनामपहारायैव स्यात् , स्याच्च तस्मात्तस्याऽदत्ताऽऽ. दानरूपता, परं लेखस्य तत्त्वमेव तत् यदुतवचनविन्यासस्य स्थैर्याद्यर्थं लिपिकरणमिति, वचनविन्यासस्य विपर्ययरुपेण विन्यासात्तस्य कूटलेखकरणस्यापि मृषावादेनुव्रत एवातिचारता प्रत्याख्येयता च । . अत्र च यथाऽऽद्यानुव्रते वध-बन्धादयो न स्थूलप्राणातिपातरूपास्तथाऽपि वध-बन्धादिभ्य एव परेषां प्राणानामपरोपो भवति द्विपक्षादीनामिति, ते वधः बन्धाद्या अतिचारतया तत्रोक्ताः, तथाऽत्रापि स्थूलमृषावादविरमणे सहसाऽभ्याख्यान-रहोऽभ्याख्यान-स्वदारमन्त्रभेदा अपि स्थूलस्यैव मृषावादस्य हेतुतामाश्रयेयुरिति सहसाऽभ्याख्यानादीनामप्याख्याताऽतिचारतेति । यथाऽऽयाणुव्रते हिंस्यानां तदतिपातस्य तद्विरमणस्य च द्वीन्द्रियादित्रसविषयत्वात् सङ्कल्पादिरुपत्वाद् द्विविध-त्रिविधादिभङ्गैरुपेतत्वात् स्थूलता, द्वितीये च तस्मिन् राज-दण्डनायक-पुरश्रेष्ठ्यादिजनाधीशनिवर्तितस्य जिह्वाच्छेदादिरुपस्य दण्डस्य योग्यो यो मृषावादी गोभूम्यादिविषयस्तस्प तथादण्डकारणत्वेन स्थूलत्वं, तथा तृतीयेऽस्मिन् विषयदण्डादीनपेक्ष्यापि पौर-जनपदादिषु चौरंकार: करं यत्तत् स्थूलमदत्तादानं गण्यते, तद्विषयमेव चाऽत्र प्रत्याख्यानं क्रियमाणं तृतीयं स्थूलादत्ता.. दानविरमणमिति गण्यते । अत एवाऽत्र स्तेनाऽऽहृतादयोऽतिचारा, यतो लोके ये स्तेनतया ज्ञाता जनास्तैरानीत योग्येन महताऽल्पेन वाऽपि मूल्येन गृहणतोऽतिचारो गण्यते, स्तेनाऽतिरिक्तेभ्योऽल्पमूल्याऽऽदिना' ग्रहणेऽपि वस्तूनां नाऽतिचारता, राजादयोऽपि मूल्यादेरल्पत्वादिविचाराद्विशेषेण कैः कीदृशैश्चानीतं गृहीतमेतेनेति न्यायावसरे विचारयन्ति, तदनुसारेणैव च दण्डं निर्वर्तयन्ति. ततश्च क्वचित् महतिमलिम्लुचि अल्पव्यवहारकारकोऽपि तेन सह महता दण्डेन दण्डयते, क्वचिच्च कादाचित्केऽल्पे .. चौरे महार्धमपि गृहणानोऽल्पार्धे न तथा दण्ड्यते इति, स्तेनाऽऽदृतं गृहणतोऽतिचारता, स्तेनस्य महत्त्वाल्पत्वमाश्रित्य दण्डस्याऽल्पमहत्तयोर्भावादिति । . स्तेनप्रयोगातिचारेऽपि स्तेनस्य तथाविधां प्रसिद्धिं तथाविधां क्रियां च व्यवहारगतामवः . लोक्य पश्चात् तत्प्रयोगस्य स्वरुपं साभिप्रायेतररुपमल्पमहालोभ-लाभादिरुपं च समाश्रित्य निर्व-र्यते नृपादिभिर्दण्ड इति, तत्कृतेराम्नाताऽतिचारता । . कूटतुला-कूटमानकरणानि च स्पष्टतया व्यवहारिणामंप्रामाणिकत्वविधायकानि नृपत्यादिज्ञानादिषु चावश्यं दण्डहेतवो भवन्तीति तेषामाख्याताऽतिचारता । तत्प्रतिरूपकवस्तुव्यवहारोऽपि ... Page #168 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (३२) कूटतुलादिवत् प्रतीतिनाशको दण्डादिहेतुश्चेति सोऽप्यत्राऽतिचारत्वेनाऽऽख्यायमानो नाऽनुचितीमञ्चति । विरुद्धराज्यातिक्रमस्तु यद्यपि स्तैन्यरुपो व्यावहारिकाणां नास्ति, परं राज्ञामाज्ञासारत्वात्तत्खण्डन-विराधने महतोऽपराधस्य कारणतयाऽभिमते इति तस्यातिक्रमस्याऽतिचारता, बहुधा च तथाविधलोभग्रस्ततया सोऽतिक्रमो भवति, भवति च तत्र बहुधा तथाविधक्रय-विक्रयायेव हेतुरित्यदत्तादानविरमणस्यातिचारता तस्योदितेति । यद्यप्यत्र स्तेनाहताऽऽदानादीनामेवातिचारतोक्ता, परं सर्वाङ्गिरक्षामूलत्वाज्जैनधर्मस्योचितां प्रतिशतं रुप्यकान् रुप्यकपञ्चकादिरुपामधिककलाऽऽदानमपि नोचितं । तथा धान्यादीनां क्षयादौ दुर्भिक्षादिषु च स्वीयानामपि धान्यादीनां मर्यादाधिकद्रव्यादिना विक्रयणमपि एतव्रतवतामनुचिततयैव श्रावकज्ञप्तिवृत्यादावाग्नातं । अत्र चाऽधिककलाग्रहणादिपु नृपत्वादिभिर्यद्यपि दण्ड्यत्वं नास्ति, तथापि आपत्तिपतितेपु परेषु दयाशून्यत्वं निरशूकत्वमवमत्वं चाऽवश्यं सामान्यलोकेनाऽपि गण्यते इति परिहार्यमवश्यं । तृतीयाऽणुव्रतविषयताऽनुचितकलाग्रहणादीनां साक्षाद्धिंसाऽलीकरूपत्वात् चौरादिवत्तथाविधाऽनुचितकलादीनामादाने लोके खितापात्रत्वाच्च । यद्यपि कलादानादिरूपः स्ववस्तूनां यथेच्छं मूल्पादानादिरुपो व्यवहारोऽस्ति व्यापाररुपतया, परं लौकिक गतस्य व्यवहारस्य तत्र तथाविधाऽधमत्वात् चौर्यादिवदयोग्यत्वाम् स्थूलाऽदत्तादानतेति । यद्यप्यत्र चतुर्थेऽणुव्रते स्थूलमैथुनविरमणमित्येवोक्तं, तथापि आदौ तावात् स्थूलमैथुनं द्विधा-एक तावत् विद्यमानपरिणीतदारेभ्यः परेषां सर्वेषां दाराणां वर्जनात् , ययाऽऽनन्दादिमिर्दशभिः श्रावकैरुपासकदशाङ्गवर्णितैः कृतं तत् , अपरं च परदारगमनवर्जनात् । ___ परदारत्वं च यद्यपि शास्त्रेषु परपरिणीत-परिगृहीतानामाम्नायते, ततश्चाऽपरिगृहीतागमनादीनामतिचारता कथ्यते, परं चारित्रादिपु सामान्येन तद्वर्जनमाख्याय वेश्याऽनाथ-परापरिणीतपरिगृहीतानां परदारत्वं मनीषिभिराम्नायते । ' अत्र च विद्यमानः स्वदाराः कालान्तरेऽपि परिणीयाऽऽदत्ता दाराः स्वदारत्वेनाख्याय स्वदारसन्तोष एव परदारगमनविरमणतयाऽऽम्नात इति । यद्यपि श्रावकमज्ञप्त्यादिषु तुर्येऽणुव्रते स्वदारसन्तोपिणोऽतिचारत्रयं अनङ्गक्रीडाऽऽदिरूपं परदारवर्जिनां चाऽतिचारपञ्चकमित्वरगमनाऽऽदिरुपमिति भि: नाऽऽख्यातं, तथापि श्री उपासक Page #169 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दशाङ्गे तु 'सदारसंतोसिए पंच अध्यारे' तिवचनेन स्वदारसन्तोषिणामपि पञ्चकमप्यतिचारा-:णामाम्नातं, ज्ञायते च तेन यत् परिणयनकाले परिणेतृश्रेष्ठ्यादिकन्यानां सख्यो भवन्ति यास्ताभिः । सदृग्वयआदिगुणविशिष्टा यावत् समानभर्तृकत्वादिप्रतिज्ञावत्यः तासां दासत्वादिना परिणयनाद्यभावेऽपि स्यात् गृहिणीतया ग्रहः, तासु चेत्वराऽपरिगृहीतास्वरुपावतिचारौ नाऽसम्भविनाविति । भगवतां श्रीहरिभद्रसूर्यादीनां काले च तथाविव्यवहधारस्याभावात् अतिचाराणां भिन्नाधिकारितया व्याख्या कृतेति । ननु पुरुषाणां स्वदारसन्तोषे भेदद्वयमाख्यायते, आयस्तु तत्र व्रतप्रतिपत्तिकाले याः परिणीताः परिगृहीताश्च ता विमुच्य परेषां दाराणां यावज्जीवं त्यागं विधाय क्रियते । द्वितीयस्तु कालान्तरेऽपि याः परिणीयन्ते परिगृह्यन्ते च ता अपि स्वीयदारत्वात् स्वदारा गण्यन्ते, ततश्चाऽन्येषां दाराणां परिणयनं परिग्रहणं च स्वदारसन्तोषिणामपि मुत्कलं भवति, न च तद्गमने लेशोऽप्यतिचारस्य गण्यते, तर्हि स्त्रीणां परिणीतस्य परिगृहीस्य वा भर्तुमरणे परस्य भर्तुर्वरणं कथं न व्रतमर्यादायामानीयते ? इति चेत् ? सत्यं ।। स्त्रीणामेकश एव परिणयनविधानस्य लौकिक-लोकोत्तरैः शास्त्रैर्लोकव्यवहारेण च सिद्धत्वात् , समग्राणामपि व्रतानां शास्त्र-लोकव्यवहारानुसारेण भावादिति । किञ्च-व्यवहारमाश्रित्यैव शास्त्रेष्वपि व्यवस्था निबध्यते, तेन पानीयाऽऽदीनां पेयत्वं नतु मूत्रादीनां, अन्नादीनां भक्ष्यत्वं न त्वमेध्यादीनां, पश्वादीनां तिरश्चां धातका व्याधादयोऽधमा 'अस्पृश्या अपातेयाश्च गण्यन्ते, तदपेक्षया प्रत्यहं मैथुनोपसेवनपरा नरा ये एकादिन्यूननवलक्षगर्भजा-सङ्ख्यसम्मूर्छिममनुष्यान् ध्नन्नि तैः किं स्याद् व्यवहर्तव्यं ? , परं व्यवहारमपेक्ष्यैव व्यव स्थेयमिति । । किञ्च-जनपदादिमिः सत्यवेनाभिमतानां वचनानां सत्यत्वं श्रीप्रज्ञापनादिषु 'जणवय- । संमये' त्यादिना प्रतिपादितं, तथाविधवचने च न तत्त्वतोऽसत्यत्वेऽप्यसत्यत्वं, न च तथावचने -द्वितीयव्रतस्याऽतिचारोऽपि । ___तृतीये तु स्वत्व-परत्वव्यवहारो लोकसिद्ध एव गृहीतः, तदपेक्षयैवाऽदत्तादानाऽऽदयो दोषाः स्तेनाहृतादिव्यवहाराश्च । विचार्यैतत् सर्वं कल्याणकाभैः स्वीकर्तव्यमेतत् व्यवहारपतितं यत्"पुरुषाः पूर्वेषां कलत्राणां परिणीतानां सद्भावेऽसद्भावे वाऽपरस्त्रीपरिणयनं कर्तुमधिकारिणोन तु स्त्रियः, तासां त्वेकश एव परिणयनं व्यवहारपतितं शास्त्रसिद्धं च । . .. _ किञ्च-स्त्रियो हि वीर्यसङ्क्रमद्वारेण गर्भस्य धारिकाः, तासां चाऽनेकभर्तृकत्वेऽनेकपुरुषवीर्य Page #170 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (३४) सार्येण सङ्करवर्णप्रजोत्पत्याद भवति, कामातुरत्वाच्च पूर्वभर्तुर्मरणमप्याचरेत् , अन्यत्राऽभिस्तु...मनसः कुर्यात् । पूर्वसन्तानादिमारणमपि कुर्यात् कुलपरिगृहीता तु स्त्री विधवावस्थां गता अपि भर्तुः कुलं रक्षेत् ,स्तनपायिनामपि स्वापत्यानां पालनं कुर्यात् , युक्ततमञ्चाऽतः स्त्रियाः पुनर्विवाहस्याऽकरणं । तथा च तासां सकृत् परियणनं, परिणीतं विहाय च सर्वेभ्योऽन्येभ्यः पुरुषेभ्यो विरमणमिति । : 'किश्च-कुलीनानां स्त्रियः पतिवंतिका एवेति, लोक-लोकोत्तरमार्गयोर्यत् प्रशंसापात्रत्वं तदंपि स्त्रीणां पतिव्रतप्रभावजमेव । 'अन्यच्चोपाापि स्वदेशे परदेशेऽप्यनेकविधान् विधाय व्यवसायान् यद् धनमुपाय॑ते तद्गृहे समानीय गृहिण्यै यद्दीयते तत् परिपूर्णविश्वासकार्य, तच्च तदैव यथार्थतया जायते यदा सा-गृह। स्वामिनी. स्यात् , तथात्वं च तस्या एकपतित्रतत्वे एव भवति । अन्यच्च लोकानुभावतोऽपि पतिशय्यामनतिक्रामिणीनां विधवानामपि प्रशस्ततरात्वमस्ति । तत एव श्रीऔपपातिकसूत्रे जीवोपपाताधिकारे तथाविधानां पतिशय्यामलङ्कर्वतीनां स्त्रीणां परःसहस्राणि वर्षाणां देवलोकआयुपि निबन्धनं नियमितं । महतां च स्त्रीशीलरक्षाप्रधानैव कुलीनता मत एव गीयते 'पिता रक्षति कौमार्ये' इत्यादि, श्रूयते च मृगावत्या स्वशीलरक्षायै चण्डशासनश्चतुर्दशभूपतिसेवितपादश्चण्डप्रद्योत: प्रतारितस्तथापि तत्रैव समवसृतेन भगवता महावीरेण विश्वासघातिन्यपि प्रशंसिता, न च लेशतोऽपि मृगावत्याः स-सुराऽसुरेऽपि लोके निन्दा जाता । सर्वमेतत् .स्त्रीणां पतिशय्यालङ्करणफलमिति । न चाऽत्र जैने धर्मेऽपरधर्माणामिव दाराणां धर्मे व्रतेपु नाऽधिकार इति । स्त्रियोऽपि सधवा विधवा' वा सम्यक्त्वमूलस्य पञ्चाऽनुव्रतिकस्य सप्तशिक्षाप्रतिकस्य प्रतिपत्ति विधातुमर्हा एव । सधवा यथा आनन्दादिश्रावकाणां गृहिण्यो द्वादशव्रतधारिण्योऽभूवन् । विधवा अप जयन्त्याद्याः श्राविकाः सम्यक्त्वादिरुपस्य धर्मस्य प्रतिपत्त्यो. जाताः, पूर्वशय्यातरीत्वेन च प्रसिद्धव जयन्तीति । स्वकृतभुक्त्वं हि ने धमें इति पुरुपाणां स्त्रीणां च सुखकामनया समानां समान एव धर्माचरणाधिकारः । तुर्य चानुव्रतमपि तासां विधवानां सर्वथा ब्रह्मचर्येण, सधवानां स्वपंतिव्यतिरिकसर्वपुरुपत्यागेनैव भवति । अत एव सप्तक्षेत्र्यामपि श्राविकायाः श्रावकेभ्योऽन्यूनातिरिक्तभक्तिपात्रता सङ्गीयते इति । येऽपि च नग्नाटाः संयमसाधनस्याऽपि रजोहरणाऽऽदिरुपस्य स्वलिङ्गस्योज्झनात् सर्वविसंवादितया सर्वथा निन्हवा जाताः । स्त्रीणां च तेषां मते योगिन्यादीनां नग्नानां स्वाचारवत्त्वस्य निरीक्षणेऽपि-स्त्रियोऽनुपहतलिङ्गाः, न तासामवस्य वस्त्रैरावेष्टितत्वादित्याबुद्भाव्य चारित्रं सकेवलं तासां Page #171 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (३५) निषेघयामा सुस्तेऽपि सधवानां विधवानां वा तासां श्रमणोपासकधर्मस्य साधनं तु स्वीचकुरेवेति । यश्च निषेधो जिनकल्पादीनां वनितानां क्रियते स तेषां जघन्यतो नवमपूर्वतृतीयवस्तुधारिवे एव भावात् स्त्रीणां च बहुधा तुच्छत्वादिस्वभावत्वाद् दृष्टिवादपाठस्य निषेधेन पूर्वाणामध्ययनस्य निषेधात् । " यथा च नीचजातीयानां गच्छाचारादिमर्यादामाश्रित्य प्रवज्यादानादीनां निषेधेऽपि न केवलत्पत्ति-मोक्षप्राप्त्यादेर्निषेधः, भावप्राप्यत्वात्तस्य तथाऽत्रापि व्यवहारेण स्त्रीणां तथाविधानां श्रुतानां' दानविषये सत्यपि निषेधे भावप्राप्याणां केवलादीनां न प्रतिषेधो युक्तः, विशेषतश्च जैनानां । यतस्ते हि द्रव्यं समवलम्बमाना अपि तस्यानेकान्तिकतां फलमपेक्ष्य स्वीकुर्वन्ति, भावे चैकान्तिकेन फलदानप्रत्यलमिति स्वीकुर्वन्ति । अत एव श्रीतार्थादिषु भावनिर्ग्रन्थत्वं प्रति सिद्धादीनां न भाज्यता, किन्तु द्रव्यनिर्ग्रन्थत्वं प्रत्येवेति प्रोक्तं, जैनशासनानुसारिणां च तत्त्वत्वादपरायणानां युक्तमेव चेदमिति । परदारसेविनां चंडप्रधोतरावणानां वेश्यागामिनां च सत्यक्यादीनां श्रुताऽनर्थपरम्परा कस्य विवेकिनः सर्वथा परदारगमनान्निवृत्ति कारयितुं नोत्साहयेत् । . किञ्च - अनङ्गक्रीडा न स्थूलमैथुनरुपा, न च तेन तथा कश्चिदपि साक्षादस्ति सम्बन्धः, परं यः स्वस्त्रीसेवनेन सन्तोषं न गच्छति, असन्तुष्टकामश्चानङ्गक्रीडाकरणे धत्ते उत्साहं, सोऽवश्यं तथाविधे स्वाभाविके संयोगे कदाचिच्च तस्या अतिप्रसङ्गेनोत्पाद्य तथाविधं संयोगं तज्जन्यकुतूहलादिना वा परदारगमनायोद्यतो भवेदिति तस्या अनङ्गक्रीडाया उक्त्वाऽतिचारतां मूलत एवं तस्या प्रवृत्तिर्विरुद्धा । " किञ्च-यादृशः स्त्रीसेवनया कामप्रादुर्भावादिर्भवति, ततो बहुतरः कामादरोऽनङ्गक्रीडायां जायते, स च कर्मणामाश्रवान्निवर्तितुमनसां न लेशतोऽप्युचितः धात्वादिक्षयश्चानङ्गक्रीडया तादृशो जायतें, येन ये राजयक्ष्मादयो दोषाः स्त्रीसेवनेन नोत्पद्यन्ते, ते तस्या अनङ्गक्रीडायाः सकाशात् जायन्ते । अत एव वैद्यऽपि हस्तकर्मादीनां दुष्टतरत्वं वर्णितं, राज्यव्यवहारेऽपि तादृशानां क्रियाणां दण्डपात्रता साधिता, अत योग्यमेवोक्तमनङ्गक्रीडा या साऽतिचार इति । यद्यपि स्थूलकमैथुनविरमणव्रते परस्त्रीसेवनस्य परिहारः, विवाहश्च न तद्रूप इति कथं तस्यातिचारता ? इति स्यादाशङ्का । परं विषयभोगा- पत्योत्पत्तिफलो हि विवाह इति विवाहयोजनं समालोचयतां तन्निवारणं सुकं । Page #172 -------------------------------------------------------------------------- ________________ न च विवाहकरणस्य कथमतिचारता ? विद्यमानानां भविष्यता वा परिणीत-परिगृहीतदाराणां स्वदारत्वेन अपरविवाहविवाहितपरिगृहीताऽनां तेषां ममनस्याप्यनियन्त्रितत्वादिति । - यतो हि सर्वविरतिं प्रतिपत्तुमना एव श्रमणोपासकः कामासक्त्यत्यागादिकारणेन देशविरति प्रतिपद्यमानः स्वदारसन्तोषव्रतं प्रतिपद्यते । कस्यचिच्च तथाभूतव्रतस्य प्रतिपत्तेरवसरे तथाविध उपयोग एव न भवेत् , विद्यमानानां दाराणां मरणादौ तथाविधे विशिष्टेऽपरस्मिन् परेषां दाराणां परिणयनं परिग्रहो वा कर्तव्यो भविष्यति, इति भाविनियोगेन च तस्य तथाविधः संयोगः समुपस्थितो, यत्र परेषां दाराणां परिणयनं जातमावश्यकं, स च तदा तथा कुर्वन् गृहीतनियमवचनमपेक्ष्य मुत्कलोऽपि मनसा तथाकरणं परितापकरं मन्येत, ततश्च स्यादेवाऽपरविवाहकरणमतिचार इति । अपरे तु सुधियोऽन्यथाप्येनं मिथ्यादृशामपि मार्गप्रवेशाय स्याद् व्रतविवरणं, अभाविता, वस्थो वा श्रावकः कथञ्चिद् व्रतप्रतिपत्तियुतो वा स्यात् , स च कन्याफललिप्सयाऽन्येषां विवाहकर्म कुर्यात् , ततश्च तादृशं परविवाहकरणामत्रातिचारतया सम्मतमिति कथयन्ति । तत्त्वं त्वागमविदो विदन्तीति । पञ्चमश्चाऽत्राऽतिचारः तीवकामाभिनिवेशाख्य इति कथ्यते, तत्रेदं तत्वं- जैनो हि धर्मः - सप्ततत्त्व्याख्यानादिरुपोऽपि सन् प्रवृत्ति-निवृत्तिक्रियापेक्षयाऽऽश्रवनिरोधसंवरादानरुपः । तत्राऽपि संवराणां सिद्धिराश्रवद्वाराणामवरोधेन, आश्रवद्वारेषु च यद्यपीर्यापथस्यास्त्याश्रवः, परं न हातुं शक्यो, न वा तं तथा कर्तुं यत्नलेशोऽपि विदुषां, किन्तु योऽसौ यत्नो यत्यादीनां स सर्वोऽपि साम्परायिकाणामाश्रयाणां निरोधं कर्तुं, साम्परायिकाणां च तेषां मूलं 'सकपायाऽकपाययो' रितिवचनात् कपाया एव मूलं ।। - अत एव वधादीनां समानेऽपि पापस्थानत्वे 'ण तं विणा राग-दोसेहिति वचनान्मैथुनमेकान्तेन त्यजनीयमुच्यते । अत्र च परैः घोण्याऽऽदतेरदुष्टतेति दुर्जनीतिमनुवर्तमानैः 'ऋतौ भार्यामुपेयादि' त्यादिकर्मन्मथप्रयोगप्रधानैर्वा वाक्यैर्लोकान् व्युदग्राहयद्भिः त्वेकान्तेनासक्ति मूलत्वात् वय॑मेव । तथा च विषयाणामासक्तैरेव गृहवासत्यागे गृहमेधिनामशक्तिः । तथाच नाऽसक्तिहीनं मैथुनं, परं स्वदारसन्तोषिणो नोचिताऽत्यन्तासक्तिर्महाकर्मनिबन्धनमहारागरुपत्वादिति तीवाभिनिवेशस्याऽतिचारतोक्तियुक्तैवेति । यद्यपि 'नाऽऽसक्त्या सेवनीया हि, स्वदारा अप्युपासकै' रितिवचनेनाऽभियुक्ताः स्वदाराणामप्युपसेवनं नाऽऽसक्तिभागू भवति श्रमणोपासकानामित्युपदिशन्ति, परं तत्राऽऽसक्ति Page #173 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (३७) शब्दो न रागाऽपरपर्यायाया आसक्तेरिकः, तामासक्तिमन्तरेण मैथुनस्यैवाऽभावात् । अतें एवं : च तन्निरपवादं । न च प्राणातिपातादिवत्तत्र द्रव्य-भावविकल्पभवा पुरुषाणां चतुर्भङ्गी, कथश्च नापि न निर्दोषता । अत एव चाऽत्र कामाभिलाषस्य नातिचारतोक्ता किन्तु तीवकामना भिनिवेशस्य । ... . श्रूयते च महाव्रतानि प्रतिपतुमसमर्था देशविरतिं प्रतिपद्यमानाः स्वेषां कामभोगासक्तत्वं ज्ञापयित्वा तां प्रतिपद्यन्ते इति । ...: "अहणं अहणणे अकयपुण्णे रज्जे जाव अंतेउरे माणुस्सएमु य कामभोगेसु मुच्छिए ... जाव अशोववण्णे णो संचाएभि जाव पव्वइत्तए " त्ति : श्रीज्ञातधर्मकथासु एकोनविंशतितमेऽध्यने श्रीपुण्डरीकनृपवचनं चैतदेव ज्ञापयति। एवं च त्यकतुमशक्तानां गृहवासो नाऽऽसक्तानां देशविरतिमतामितिवचः प्रलापमात्र, अशक्त्यापि विषयासक्तिमूलत्वादेवेति योग्यमेवोक्तं तीवकामाभिनिवेश इति ।। पञ्चमं चाऽनुवतं यद्यप्यत्र स्थूलकपरिग्रहविरमणमित्युक्तं, परं वस्तुवृत्त्या धन-धान्यादीनां परिमाणस्य करणमित्येव पञ्चममनुत्रतं मन्तव्यं, परं यदत्र विरमणशब्देनोच्यते पश्चममणुव्रतं, तत्र प्रथमं तु 'हिंसाऽनृतस्तेयमैथुनपरिग्रहेभ्यो विरतिव्रत'मिति 'देशसर्वतोऽणुमहती' इति तत्त्वार्थ सूत्रं (अ. ७ सू. १-२) 'सव्याओ परिग्गहाओ वेरमण 'मिति पश्चममहावतपाठं (श्रीपाक्षिकसूत्र) चानुकृत्योच्यते, परम अविद्यमानस्याऽप्राप्यस्य गतमानस्यवा वा लोकाऽतिरिकतस्य षट्खण्डाधिकभूमिपतित्वस्याऽदृष्टाऽकल्पितम्य वा निवृत्तिं विधाय मा भूत् पञ्चमाणुव्रतधर इति । अत एवाऽतिचारेषु न परमण्डलभूम्याघतिक्रमाद्या अतिचारा उकताः । यद्यपि समुदायेन परिगृहीतसर्ववस्तुमूल्यं नियतीकृत्य तदधिकऋद्धिविरतिमतां नैतेऽतिचारा भवन्ति पृथक्तया, परं विवेकिनः श्रमणोपासकस्य धनधान्यादिविभागैनैव परिग्रहस्य परिमाणनियमनमुचितं । तथैव चानन्दादिभिः परिग्रहपरिमाणकरणवते विभज्य स्वीकृतं, परैरपि विवेकिभिस्तस्य तथैव स्वीकार्यत्वमिति धन-धान्यादयोऽतिचाराः सामान्यतोऽत्र स्थूलपरिग्रहविरमणतेयोक्तस्याऽ. णुव्रतस्य निबद्धा इप्ति । श्रावकप्रज्ञप्त्यादिषु श्रावकधर्मप्रतिबद्धेषु ग्रन्थेषु तु परिग्रहपरिमाणस्यैवाणुव्रततोक्ताऽस्तीति । यद्यपि पञ्चमेऽणुव्रते धन-धान्यादीनां नवविधानां पृथक् पृथक् परिमाणकरणं सूत्रेष्वादिष्ट, कृतस्य च परिमाणस्यातिक्रमेणाऽतिचारभावादतिचाराणामपि नवविधतैव युक्ता, परं धान्यादीनां केषाश्चित् धनादिभिः सह मेलयित्वा पञ्चैवातिचारा अत्र गणिताः । Page #174 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (३८) - तंत्र केचित् कोंविदा प्रतिव्रतमतिचाराणां पञ्चत्वनियमं कारणतयाऽऽचक्षते, गंदन्ति च यदुताऽत एवं परिंगण्यमानेष्वप्यतिचारेषु श्रीतत्त्वार्थकारैः “व्रत-शीलेषु पञ्च पञ्च ति सूत्र (मः ७ सू. १९) सूचितमिति । केचित्त्वाहुः धन धान्यादीनां नवविधानां पृथक् पृथक् परिमाणकरणं तु पृथक् पृथक् धायग्राह्यत्वात् मंतिचारेषु। धन-धान्यादीनामेकत्रीकरणं यत्तत्रेदं कारणं भूरिपु विषयेषुः मूल्येन धान्यादोनां विक्रयस्य स्थाने परस्परं वस्तूनां विक्रयो, यथाऽधुनापि ग्रामादिपु शाकादीनां धान्येन विक्र: यणं, ततश्च धनस्य धान्यादीनां परस्परं विक्रयभावाद् द्वयोरतिक्रमोऽतिचारतया धन-धान्ययोरुक्तः। एवं क्षेत्रेषु वास्तूनां करणं दयते बहुषु देशेषु, तथा प्रतिक्षेत्रं यथोचितवास्तुकरणस्यावश्यः कत्वात् क्षेत्र-वास्तुपरिमाणातिक्रम एकत्र सुवर्ण-रुप्ययोस्तु परस्परमर्धकरणं स्पष्टमेव, द्विपद-चतुष्पदाना मैकत्रीकरण दांयादिषु संह दानाऽऽदानव्यवहारात् , यद्वा राजकीय नियमानों तथा तथैकत्रीभावेन भावादिति । (अपूर्णमेतद् विवरणमत्र) ॥ इति आगमोद्धारकआचार्यप्रवरश्रीआनन्दसागरसूरिपुङ्गवसंधः पञ्चसूत्रतकवितारः॥ (अपूर्णावस्थायमियन्मात्रमेवोपलब्धम्) Page #175 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिशिष्टम्-१ आत्मशुद्धिप्रधानकारणभूत-विशुद्धाऽध्यवसाय-प्रवलहेतुभूता परमपावना प्रायःपूर्वधराचार्यश्रीग्रथित- . ____श्री पञ्चसूत्रस्य पूज्यपादागमोद्धारकाचार्यानन्दसागरसूरीशग्रथिता संस्कृतच्छायारूपा पद्यरचनारूपा श्रीपञ्चसूत्री पञ्चसूत्री (संस्कृत पद्यमयी छाया) . नमः श्रीवीतरागेभ्यः, सर्वज्ञेभ्यो नमः सदा । देवेन्द्रपूजिताहिभ्यो, वादिभ्यः स्थितवस्तूनाम् ॥१॥ नमस्त्रैलोक्यनायेभ्यो-ऽर्हद्भ्यो भगवद्भय इमे । य आरव्यान्तीह खल्वात्माऽनादिरस्य भवोऽपि च ॥२॥ अनादिकर्मसंयोग-निवृत्तो दुःखरुपभाक् । दुःख फळेऽनुबन्धेऽस्याऽरुपी छमस्थितो यतः ॥३॥ शुद्धधर्मात् छिदा तस्य, पापकर्मलयात्तु सः । तथाभव्यत्वभावादेः, *सेमे तस्य विपाचकाः ॥४॥ चतुर्णा शरणं गच्छेद् , गर्तेत दुष्कृतं निजं । सुकृतं सेवयेदित्थं, नित्यं कार्यं मुमुक्षुभिः ॥५॥ भव्यैः प्रणिधानमिदं, संकलेशे तत् पुनः पुनः । असंङ्कलेशेऽप्यवश्यं त्रिः, दृष्टिः शुद्धा भवेदतः ॥६॥ यावज्जीवं भगवन्तोऽर्हन्तस्त्रिलोकबान्धवाः । श्रेष्ठपुण्यभराः क्षीण- । रागद्वेषमुखारयः ॥७॥ .. अचिन्त्यचिन्तामणयः, पोता इव भवोदधौ । शरण्याः सर्वथा सन्तु, शरणं मम सर्वदा ॥८॥ .. * सा इमे इति संधिच्छेदः, सा=तथाभव्यत्वभावादिः, इमे=अग्रे वक्ष्यमाणाः। Page #176 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (४०) हीनजन्मजरामृत्यु-बाधा गतकर्मपांशुकाः । निष्पीडाः केवलज्ञान-दर्शनाः सिद्धिपूर्णताः ॥९॥ अनन्यसुखसंयुक्ताः, कृतकृत्याश्च सर्वथा । शाश्वताः सन्तु सिद्धा मे, शरण्याः शरणं सदा ॥१०॥ शान्तगम्भीरचेतस्का, विरताः पापतः सदा । माचारपश्चकोद्युक्ता, उपकारे रताः सदा ॥११॥ पद्मादिवत्सुवृत्तान्ता, ध्यानाऽध्ययनसंगताः । विशुद्धयमानसद्भावाः, साधवः शरणं मम ||१२॥ सुराऽसुरनरैः पूज्यो, मोहाऽन्धतिमिरेंऽशुमान् । रागद्वेषविषे मन्त्रः, सर्वकल्याणसाधनम् ॥१३॥ विभावसुः कर्मवने, सिद्धभावस्य साधकः । यः केवलिभिः प्रज्ञप्तो, धर्मोऽस्तु शरणं मम ॥१४॥ . . स्थितः शरण एतेषां, जगत्रितयशासिनाम् । अनन्यशरणाऽर्हाणां, निन्दामि निजदुष्कृतम् ॥१५.। . मान्येपु पूजनीयेपु, धर्मस्थानेषु, केष्वपि । मातृ-पितृ-सखि-बन्धु-धूपकार्येषु वा पुनः ॥१६॥ मार्गस्येपु तथाऽन्येषु, पुस्तकादिपु यत् पुनः । आचीर्ण वितथं किश्चित् , पापं पापानुबन्धि च ॥१७॥ सूक्ष्म वा बादरं चेतो-वाकायैः कारितं कृतं । . शंसितं रागविड्मोहैरत्रामुत्र भवेऽपि वा ॥१८॥ गय दुष्टं प्रोझनीयं, ज्ञातमेतन्मया समं । ' कल्याणमित्रभगव-दुक्तेः श्रद्धाय रोचितम् ॥१९॥ सिद्धाऽर्हत्साक्षिकं गर्ने, प्रोझनीयं च दुष्कृतम् । मिथ्या मे दुष्कृतं भूया-दत्र त्रिधा पुनः पुनः ॥२०॥ भूयाद् गर्दा सर्दैषा मे, सम्यक् तदकृतौ पणः । . वाञ्छाभ्यनुशास्तिमह-महतां भगताजपाम् ॥२१॥ . Page #177 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ४१ ) कल्याणमित्रसाधूना-मेभिर्मेलः सदाऽस्तु मे । बहुमानोऽत्र मे भूयान् मोक्षवीजमितोऽस्तु च ॥ २२॥ प्राप्तेष्वेतेषु सेवार्ह, आज्ञाहः परिचारकः । पारगोऽनतिचारः स्यां, शक्त्या सुकृतमाश्रये ॥ २३ ॥ सर्वेषामतां मन्ये, आर्हन्त्यं सिद्धाभावतां । सिधानांसूरीणां शंसा-म्याचाराणां प्रवर्त्तनम् ॥२४॥ वाचकानां सूत्रदानं साधूनां मोक्षचेष्टितं । मोक्षसाधनयोगं च, श्रावकाणां दिवौकसाम् ॥ २५ ॥ जीवानां मोक्तुकामानां कल्याणाशयिनां सदा । मार्गसाफल्ययोगोऽस्तु, ममैषाऽस्त्वनुमोदना ||२६|| सम्यगू विधियुता शुक्लाSS-शया प्रवृत्तिसंयुता । गुणयुक्ताऽनतिचारा, सामर्थ्यादर्हदादिकान् ॥ २७ ॥ " अचिन्त्यशक्तियुक्तास्ते, भगवन्तो गतद्विषः । सर्वज्ञाः पूर्णकल्याणाः, सत्त्वानां सिद्धिहेतवः । २८ मूढः पापोऽनादिमोह- वासितोऽज्ञो हिताऽहिते । स्यां ज्ञोऽहितान्निवृत्तः सन् प्रवृत्तो हितवर्त्मनि ||२९|| - " उचितप्रतिपत्या स्या- माराधकः समात्मसु । इच्छामि सुकृतं सम्यक् पठतः शृण्वतस्त्विदम् । ३०|| भावयतः श्लथा बन्धा, अशुभा, निर्गतास्ततेः । विषं मन्त्राद्युपहतमिव सामर्थ्य वञ्चिताः ||३१|| अल्पफलाः स्वपनेया, अपुनर्भाविनः पुनः । आक्षिप्यन्ते सत्कृतानि, पोष्यन्ते पूर्त्तिमियति ॥ ३२॥ सानुबन्धानि चाऽतः स्यु-र्वराणि श्रेष्ठभावतः । फलेंन्नियमतः सम्यक्, प्रयुक्तमिव चौषधम् ॥३३॥ पुण्यं शुभफलं च स्या- दत्तो हित्वा निदानकम् । एतत्कार्यं निरोधोऽतः, शुभानां बीजमुत्तमम् ॥ ३४ ॥ Page #178 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (४२) प्रणिधानं सदा पाठ्य, श्रोतव्यं भाव्यमेव च । नमो नतनतेभ्योऽर्हद् वीतरागेभ्य आर्हताः ||३५|| M शेषेभ्यो नमनीयेभ्यो, जीयात् सर्वज्ञशासनं । परबोध्या समे सन्तु, जीवाः सौख्ययुजोऽनिशम् ||३६|| एवं पापप्रतिघातो गुणाधानं च जायते । (समाप्तं प्रथमं सूत्रं) जातायां धर्मसम्पत्तेः श्रद्धायां तद्गुणान् स्मरेत् ||३७| प्रकृत्या सुन्दरः प्रेत्य - फलः परोपकारकः । परमार्थंकरो धर्मो, दुःसेव्ये भङ्गदारुणः ||३८|| महामोहकरो भूयो दुर्लभस्तेन शक्तितः । विधानेनोचितेनाशु, प्रतिपद्येत तं सुधीः ||३९|| निरागसां त्रप्तानां या, निरपेक्ष बुद्धिपूर्विका । हिंसाऽस्या विरर्ति कन्या-धलीकानां वर्जनम् ॥ ४० ॥ चौरंकारकरोऽन्यस्वाऽ---- पहारो लोभतस्त्यजेत् । भवेत् स्वदारसन्तुष्टोऽन्यदारान् वा विवर्जयेत् ॥ ४१ ॥ परिग्रहं मितं कुर्या-देवं सप्तवतीं परां । स्वीकृत्यं पालयेद् यत्नात्, सदाऽऽज्ञाप्राहंको भवेत् ॥४२॥ आज्ञाया भावकस्तस्या, अधीनः सा हि कामधुक् । आज्ञा मोहविषे मन्त्रो रोपादिज्वलने जलम् ॥ ४३ ॥ कर्मव्याधिचिकत्सा, कल्पद्रुः शिवसाधने । त्यजेदधर्मं मित्राणां योगं, ध्यायेद् नवान् गुणान् ॥ ४४|| पापे उदग्रसहकृत्, पापो लोकद्वयापहः । . अनीतौं वर्तनाद्योगो ऽशुभोऽस्मादनुबन्धयुक् ||४५ ॥ त्यजेल्लोकविरुद्धानि, स्याज्जनानां कृपापरः । न जातु निन्दयेद् धर्मं, स्वस्याऽबोधिफलं विदन् ॥ ४६ ॥ परेषां दुर्लभो बोधि-रतोऽन्येषां विबाधनं । इत्थमालोचयेन्नातऽो-ऽपरोऽनर्थो भवोदधौ ॥४७॥ Page #179 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (४३) संसार विपिनेऽन्धवं दुर्वाराऽपायकारणं । दारुणं च स्वरुपेणाऽऽशुभानुबन्धसंयुतम् ॥४८॥ , सेवेत विधिना धर्म-मित्रानन्ध इवेक्षकान् । वैद्यान् रुग्णो निःस्व ईशान् भीतच नायकं यथा ॥ ४९॥ " नाऽतोऽन्यत्सुन्दरतर-मित्यन्तः प्रीतियुगू भवेत् । आज्ञायाः काङ्क्षको ग्राही, अविराद्धा च कारकः ॥ ५०॥ प्रतिपन्नगुणार्हः स्यादाचारे तु गृहोचिते । शुद्धं कुर्यादनुष्ठानं, मनो वचश्च शुद्धिकृत् ॥ ५१ ॥ उपघातकरं नह्याद्, गर्ह्य क्लिष्टमनायतिं । संरम्भं चिन्तयेन्नाऽन्य-पीडां जल्पेन्न दीनताम् ॥५२॥ न स्याद् धृष्टो न सेवेताऽ-भिनिवेशं शुभोदयं । मनः प्रवर्त्तयेन्मिथ्या, न भाषेत न पैशुनम् ॥ ५३ ॥ परुषं नाऽनिवद्ध ं च हितमितवागू वधोज्झितः । न गृहणीयाददत्तं स्वं, नेक्षेत परयोषितः ॥ ५४ ॥ अनर्थदण्डविरतः, शुभकायप्रवर्त्तकः । दाने भोगे परिवारे, निधाने लाभमानतः || ५५ ॥ अबाधकः कुटुम्बस्य, गुणकृत्तस्य शक्तितः । भावेन निर्भमः साईचेद्, धमों ज्ञातिपालने ॥५६॥ सर्वे जीवा पृथक् बन्ध-कारणं ममतांसां । समाचारेषु सर्वेषु, स्यात् स्मृत्या संयतो गृही ॥ ५७॥ अमुकोsहं कुलं मेऽदः, शिष्योऽनुष्याश्रितो वृषं । अमुं विराधना माऽस्या-रम्भोऽस्यामाऽस्तु मे कदा ॥ ५८ ॥ वर्धतामत्र सारोऽयं, धर्म आत्मोपमो मम । धर्मो हितोऽपरं तुच्छं, विशेषणाऽविधिग्रहात् ॥ ५९ ॥ एवमाह त्रिलोकीशः, करुणाकर आप्तराड् । स्वयंसंबुद्धो भगवान् अर्हस्रिलोकबान्धवः ।।६.०॥ Page #180 -------------------------------------------------------------------------- ________________ एवमालोच्य धर्मेणाऽविरुद्धे वर्तते सुधीः । भावमङ्गलमेतद्यनिष्पत्तिः सुकृतावलेः ॥६१॥ जागरेद्धर्मजागर्या, कालोऽस्य क्षमं किमु ? । असारा विषया एते, गन्तुका विरसान्तकाः ॥६२॥ सर्वाऽभावको मृत्युभीषणोऽज्ञातसङ्गमः । भूयोऽनुवन्ध्यवार्योऽयं, धर्म एतस्य भेपजम् ॥६३।। सिद्धश्चिरंजीविताया, दानादार्य (?) निपेवितः । . सर्वसत्वहितोयुक्तोऽनघः सिद्धि सुखावहः ॥६४॥ नमोऽस्त्वस्मै सुधर्माय, तभृद्भ्यश्च नमोनमः । नमस्तत्ख्यापकेन्य-रतत्स्वोकर्तृभ्यो नमो नमः ॥६५॥ इच्छाम्यहममुं धर्म, प्रतिपत्तुं त्रिधा त्रिधा । ममैतदस्तु' कल्याणं, जिनानामनुभावतः ॥६६॥ एवं पुनः पुनायेत् , प्रणिधानं शुभोदयम् । एतद्धर्मजुषा सेवाकृत्स्यान् मोहभिदा ततः ।।६७॥ एवं विशुद्धयभावेन, कर्माऽपगमतो व्रजेत् ।। योग्यतां स्याच संविग्नो-ऽममोऽन्यानुतापकः ॥६॥ विशुद्धः शुध्धमानान्तःकरणो मुनिधर्मधीः । (द्वितीयं सूत्रं समाप्तम्) यथोदितगुणे साधोधर्मेऽस्मिन् परिभाविते ॥६९॥ यतेतैनं ग्रहीतुं द्राक्, सम्यगन्यानुतापकृत् । विघ्नं तत्प्रतिपत्तौ स, नोपायोऽस्यास्तु बाधनम् ।।७।। हितो नाऽकुशलारम्भो, नाग्नेः पङ्कजसम्भवः । मातापिता न बुद्धौ चेद् , बोधयेत्तौ कथञ्चन ॥७१॥ धर्मिणः सत्फलाः प्राणा, लोकद्वयहितोद्भुराः । समुदायकृतं कर्म, समुदायफलं ध्रुवम् ॥७२॥ शिवेऽस्माकं सदा योगो-ऽत्रैऋवृक्षस्थपक्षिवत् । यमश्चण्डोऽनिशं पार्श्वे, दुर्लभो मानुषो भवः ।।७३॥ Page #181 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (४५) सागरे पतितं रत्नं, यथाऽऽतुं दुष्करं तथा । बहवोऽन्ये भवा अस्मात्, बहुदुःखफलाधमाः ॥७४॥ मोहान्धाः पापबन्धाढ्या, अयोग्याः शुद्धसत्कृतौ । योग्यं नृत्वं पोतभूतं, भवाब्धौ योजयेद् हिते ॥ ७५ ॥ छिद्रं संवृणुते ज्ञान कर्णधारं तपः प्लवत् । सर्वकार्योपमातीतः क्षणोऽत्र दुर्लभो यतः ॥७६॥ सिद्धिसाधकसद्धर्म-साधको नरजन्मनः । उपादेयैषाऽसुमतां, सिद्धिर्नास्यां यतो जनुः ॥७७॥ न जरा न मृतिर्नेष्ट वियोगो न क्षुधा तृषा । नान्योऽस्यां कोऽपि दोषोऽस्ति, जीवाऽवस्थानमग्रिमम् ॥७८॥ नाऽशुभा अत्र रागाद्याः, स्थानं शान्तं शिवं सुखं । संसारो विपरीतोऽतो, भावाः सर्वेऽत्र चञ्चलाः ॥७९॥ सुख्यपि स्यान्महादुःखी, सदसत् स्वप्नवत् समं । तदलं प्रतिबन्धेन कुरुत ! मय्यनुग्रहम् ॥ ८० ॥ - उद्यच्कृत समुच्छित्त्यै, भवस्य दुःखरूपिणः । भवतोरनुमत्याऽर्ह, साधयाम्येतदप्यलम् ॥८१॥ निर्विण्णो जन्म-मृत्युभ्यां वाञ्छितं मे समृध्यति । सद्गुरुणां प्रसादेन, शेषानपि च बोधयेत् ॥ ८२॥ सममेभिरततो धर्मं, श्रयेत् कुर्याच्च सर्वदा । निराशंसः करणीयं, योग्यं तन्मुनिशासनम् ॥ ८३॥ एतेष्वबुध्यमानेषु कर्मणामपरिक्षयात् । आयोपायविशुद्धं तदुपकारं सुधीः सृजेत् ॥ ८४ ॥ एषा कृतज्ञता धर्म- जननी करुणा जने । कृत्वैवं तदनुज्ञातः, सम्यग् धर्म प्रसाधयेत् ॥ ८५ ॥ " “तपपवणजवणं” इतिमूलपाठेनाऽत्रैवमर्थसङ्गतिः कार्या यत् - पवनभूतेन तपसा यत् 'लवमानंतरण क्रियान्चिमम् इति । Page #182 -------------------------------------------------------------------------- ________________ । अन्यथाऽनुपधो मायी, स्याद्य धर्मो हितः सदा। तथ्याऽतथ्यैरसौ साध्यो-ऽस्वीकृतौ सर्वथा त्यजेत् ॥८६।। अस्थानग्लानभैषज्या-र्थत्यागज्ञाततो यथा । कश्चिन्ना विपिने माता-पितृयुक्तस्तदाश्रितः ॥८७|| गच्छेत्तयोराशुघाती, नृमात्रासाध्य उद्भवेत् । संभवद्भेषजो रोग-स्तत्र तत्प्रतिबन्धतः ॥८८॥ एवमालोचयेत् कश्चिद् , नूनं (नहि) भेषजमन्तरा । जीविष्यत इमौ प्राप्ते-ऽगदे संशय ईक्ष्यते ॥८९।। एतौ कालसही ज्ञात्वा, संस्थाप्याऽगदहेतवे । वृत्यै स्वस्य त्यजन् साधुस्त्यागश्चाऽत्याग एव च ॥९०॥ अत्यागस्तु भवेत्त्यागः, प्रधानं विदुषां फलं । धीराः फलं विलोकन्ते, सम्भवादगदाऽऽश्रयात् ॥९१॥ जीवयेत्तौ सतामेतदुचितं तद्वदत्र च । माता-पितृयुतः शुक्ल-पाक्षिकः पुरुषोत्तमः ॥९२॥ भवकान्तारपतितो, विहरेत् धर्मसङ्गतः । तयोर्विनाशकस्तत्रा-प्राप्तबीजाद्यसाध्यकः ॥९३।। सम्भवत्प्सम्यकत्वादि-भेषजो मरणादिदः । कर्मरोगः समुद्भवेत् ॥९४॥ धर्मस्य प्रतिबन्धेन, शुक्लपक्षः पुमांस्ततः । एव मालोचयेदेतौ सम्यक्त्वाऽऽद्यगदं विना ॥९५|| . ध्रुवं विनंक्ष्यतः प्राप्तौ, विकल्पः तस्य विद्यते । एतौ कालसही ज्ञात्वा, संस्थाप्यैटिकचिन्तया ॥९६।। सम्यकत्वावगदार्थ, सद्गुर्वादेयोंगभावतः । कृत्य करणेन स्वां वृत्ति, कत्तुं संयममाश्रयन् ॥९७|| स्यजन् सिद्धय भवेत् साधुस्त्यागोऽत्यागश्च तत्त्वतः । मिथ्याभावनयाऽत्यागोऽत्र फलमुत्तमम् ॥९८|| Page #183 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (४७) तत्त्वेनैतद्दशो धोरा, जौवे दृष्टयादियोगतः । आत्यन्तिकं बोजमेतदवन्ध्यं मरणोज्झितौ ॥९९॥.. सद्भावाद्येोग्यमेतन्नु - रप्रतिकारौ जनिः पिता । धर्म एव सतामत्र, ज्ञातं पित्रोस्त्यतजन् शुचम् ॥ १०० ॥ वीरोऽकुशलसम्बद्धां, परोपतापवर्जितः । सर्वथा सुगुरोः पार्श्वेऽभ्यर्च्य भगवज्जिनेश्वरान् ॥ १०१ ॥ साधूश्व यथाविभवं, सन्तोष्य कृपणादिकान् । प्रयुक्ताऽऽवश्यकः शुद्ध- निमित्तो ह्यधवासतः ॥ १०२॥ विशुध्यमानो महंता, प्रमोदेन परिव्रजेत् । उज्झत्वा लौकिकाः संज्ञा, मार्ग लोकोत्तरं श्रयेत् ॥ १०३॥ एतद्रूपं हि दीक्षायाः, कल्याणाऽऽज्ञा जिनेशितुः । न विराध्या बुघेनैषा-ऽनर्थभीतेः शिवेप्सुना ॥१०४॥ विराद्धाऽऽज्ञा भवायैव, स्यादाराद्वा शिवाप्तये । (तृतीयं सूत्र समाप्तम् ) क्रियाफलेन युज्येत, सुविधिर्दीक्षितः स वै ॥ १०५ ॥ सात्विकः शुद्धचरणो, न विपर्ययमेति यत् । न चेद्विपर्ययः सिद्धि-रभिप्रेतस्य निश्चिता ॥ १०६॥ सदुपाये प्रवृत्तत्वान्नानुपायेऽविपर्ययः । उपेयसाघकोऽवश्यं, स्यादुपायप्रवृत्तिमान् ॥१०७॥ तस्य संसारतः क्रान्ति स्तात्त्विकी तस्या वृथा । निश्चयेन मतं ह्येतदन्यथाऽपीतराश्रयात् ॥ १०८ ॥ स लेष्टुस्वर्णयोः शत्रु-मित्रयोः समभावभाक् । अनाग्रहः शमें रक्तः सम्यक् शिक्षां गुरोः श्रयेत् ॥ १०९ ॥ वासी गुरुकुले सूंरौ, प्रतिबद्धः सदर्थदृक् । विनीतो मन्यते नाऽतो, हितमन्यदिति स्थिरः ॥११०॥ शुश्रूषादिगुणैर्युक्तस्तत्रेष्वभिनिवेशवान् । विधौ परः पठेत् सूत्रं; परों मंत्र इति स्मृतेः ॥ १११ ॥ - Page #184 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (४८) वद्धलक्षो ह्यनाशंस, आयंतार्थी लभेत तं । सम्यक् प्रवर्त्तते साधु-र्धीराणां शासनं यदः ॥ ११२ ॥ अनियोगोऽन्यथाऽविधिना गृहीतो यथा । ध्रुवं च तदनारम्भान्, न किञ्चिचेद् विराधना ॥ ११३ ॥ . देशनायामत्र दुःखं, मार्गस्य त्ववधारणा | स्याच्चास्याऽप्रतिपत्तिस्त नाऽधीतं ह्यर्थवर्जितम् ॥ ११४॥ मार्गानुसारिणां नैषा हेतुरर्थस्य विप्लवे । सूत्राऽऽरम्भाद् ध्रुवं मार्ग- देशनेऽभिनिवेशयुक् ॥११५॥ सामान्येन क्रियारम्भः, प्रतिपत्तिस्तदा फलं । लेशेनाऽवगमो बीज-युक्तोऽयं मार्गगामिनः ॥ ११६॥ आपातेऽपाय बहुलो, निरपायः श्रुतोक्तकृत् । समितः पञ्चभिर्गुप्तिस्त्रिभिस्ता अष्टमातरः ॥ ११७ ॥ . प्रवचनस्य तत्त्यागोऽ व्यक्तस्यानर्थकृन्मतः । जनन्या वियुतो बालो, यथाऽनर्थपदं तथा ॥ ११८ ॥ व्यक्तोऽत्र केवली साम्य-फलभूत इति सुधीः । परिज्ञया द्विविधया, सम्यगेतद् विलोकयेत् ॥ ११९ । दीपं द्वीपं च स्पन्दन्त-मस्थिरं प्रोञ्छ्य शक्तितः । यतेताऽस्पन्दनस्थेमार्थ-भ [-भभ्रान्तमनुत्सुकः ॥१२०॥ अतिचारैरसंसक्तं, योगमाराधयेततः । - सिद्धेरुत्तरयोगानां मुच्यते पापकर्मभिः ॥ १२१ ॥ आभव शुध्यमानः सन्नारोहति शुभां कियां । शमसौख्यं लभते द्रागपीडस्तु तपोयमैः॥१२२॥ व्याधिप्रतिक्रियान्याया न व्यथाऽस्य मनः श्रयेत् । परीषहोपसर्गाणां; भवरोगप्रमाथिनी ॥ १२३॥ " महाव्याधियुतः कश्चिद् वेदनाऽऽर्त्तः स्वरुपवित् । निर्विण्णस्तत्त्वतस्तस्मात् सुवैद्यवचनेन तम् ॥ १२४ ॥ Page #185 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७ . (४९) अवगम्य विधानेन, प्रतिपद्येत तत्क्रियां । वृत्ति यादृच्छिक रुद्ध्वा, तुच्छं पथ्यं च स्वादति ॥१२५॥ स व्याधिना मुच्यमानो, निवर्त्य मानवेदनः । वारोग्यं वर्धमान तद्भावो लाभनिर्वृतः ॥ १२६ ॥ बोधाद् व्याधिशमारोग्ये, सिरावेधेऽपि निर्व्यथः । अनाकुलोऽभीष्टसिद्धः, क्रियायामुपयोगभाक् ॥ १२७॥ यमे तपस्यगणयन्. पोडामुपसर्जनेऽव्यथः । वर्तेत शुभलेश्यायां, वैद्यं च बहु मन्यते ॥ १२८ ॥ यथा तथा कर्मव्याधि-युतो जन्मादिवेदनः । ज्ञातं दुःखस्वरुपत्वान्- निर्विण्णस्तत्त्वतस्ततः ॥ १२९ ॥ गुरुक्तक्रियया कर्म-व्याधि बुद्ध्वा विधानतः । प्रपन्नः सत्क्रियां दीक्षां प्रमादाचाररोधकः ॥१३०॥ असारशुद्धभोजी सन्, कर्मव्याधिमुपद्रवन् । ध्यानं हीनं तनूकुर्वं-श्चरणाऽऽरोग्यमाश्रयन् ॥१३१॥ वर्धमानोऽनघे भावे, तल्लाभे जातनिर्वृतिः । सत्क्रिया प्रतिबन्धेन, परीषहोपसर्गयोः ॥१३२॥ " भावेऽपि तत्त्वसंवित्तेः कुशलाऽऽशयवृद्धियुक् । स्थिराशयत्वेन धर्मो-पयोगात् स्तिमितः सदा ॥ १३३॥ वर्धते शुभलेश्यासु, गुरुं च बहु मन्यते । निसर्गभावतोऽसङ्ग-प्रवृत्तेर्महती क्रिया ॥ १३४|| भावसारा विशेषण, भगवद्बहुमानतः । तदाज्ञा मन्यते यो मां, स गुरुं बहु मन्यते ॥ १३५॥ अन्यथा पुंश्चली चेष्टा - वच्चेष्टा गर्हिता विदां । विषाऽन्नतृप्तिफलव-न्न योगोऽस्य फलेन वै । १३६॥ संसारस्तत्फलं दुःखा-नुवन्धी तद्गुरुं श्रयेत् । अबन्ध्यकारणत्वेन, गुरुभक्तिर्महोदया ॥ १३७ ॥ ॥ Page #186 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (५०) अतः परमसंवेगस्ततः सिद्विरसंशया । शुभादेयः प्रकृष्टोऽसावेषा तदनुवन्धिनी ॥१३८॥ चिकित्सैवं भवव्याधेन सुन्दरमितः परं । न विद्यतेऽत्रोपमान-मेवं प्रज्ञा च भावना ॥१३९॥ परिणामेन यस्त्वेवमपातिना विवर्धयन् । मासदिशभिः सर्व-देवलेश्या व्यतिव्रजेत् ।।१४०॥ एवं जिनेश्वराः प्राहुः, सर्वशुक्लयुतस्ततः । कर्मानुबन्धभित् प्रायो, लोकसंज्ञाविनाशकः ॥१४-१॥ प्रतिश्रोतोगमः शश्वत् सुखयोगः स योगिराट् । श्रामण्यस्याऽऽराधकोऽसौ, प्रतिज्ञापूर्वृषोपमः ॥१४२॥ एवं सर्वोपधाशुद्धः, सन्धने शुभभावनां । निर्वाणसाधनी सम्यकू, सुरुपादिरतौ यथा ॥१४३॥ प्रादुष्पत्यविकलत्व-भावाद क्लिष्टरूपतः । भननुतापिभावाच्च, सौन्दर्यमनुबन्धतः ॥१४॥ तत्तत्त्वखण्डनान्नान्या, प्रवज्या पूर्णतान्विता । एतज्ज्ञानमिति प्रोक्तं, शुभोऽस्मिन् योग आश्रितः ॥१४५॥ प्रतिपत्तिप्रधानोऽत्र (सत्तामरुपिणी) योग्यो भावः प्रवर्तकः । प्रायो विघ्नं भवेन्नात्राशुभं यत्रानुबन्धयुक् ॥१४६॥ भावाराधनयाऽऽक्षिप्ता, योगाः सर्वे शिवावहाः । ततः प्रवर्तते सम्यग्रनिप्पादयत्यनाकुलः ॥१४७॥ एकान्तनिष्कलङ्कवं, क्रिया शुद्धार्थसाधनी । उत्तरोत्तरयोगानां, सिद्धया सदनुवन्धिनी ॥१४८॥ परार्थं साधयेत् सोऽत:, परं तत् कुशलस्सदा । . सानुबन्ध प्रकारैस्तैर्वीजबीजादिरोपणात् ॥१४९।। क्रियावीर्यादियुक्तोऽसा-ववन्ध्यसुखचेष्टितः । समन्तभद्रः सद्ध्यान हेतुर्मोहतमोरविः ।।१५०|| Page #187 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (५१) रागरोगाऽगदङ्कारो, द्वेपानलमहोदधिः । संवेगसिद्धिकृच्चिन्ता-मणिकल्पोऽयमिष्टकृत् ॥१५१॥ । परार्थसाधकःस्सैवं, तथा कारुण्यभावतः । प्रभूतेषु भवेषु लाग्, वियुज्यन् पापकर्मतः ॥१५२॥ वर्धमानोऽनेकशुद्ध-भावैराराधनाऽनघा । प्राप्यतेऽनेन चरमे, भवेऽचरमजन्मभूः ।।१५३॥ पूर्णपरार्थनिमित्तं, तत्राऽऽधाय समां कियां । रजो मलं च निधूय, क्षायिकं ज्ञानमाश्रितः ॥१५४॥ सिध्येद् बुध्येत निर्वायात् सर्वक्लेशान्तकृद्भवेत् । एवं दीक्षां प्रपाल्यासो, सिद्धो ब्रह्म परं दधत् । १५५॥ (चतुर्थ सूत्रंसमाप्त) क्षीणजन्मजरामृत्यु-दुःखश्च मङ्गलालयः । क्षीणाऽनुबन्धशक्तिः स, सम्पूर्णात्मस्वरुपभाक् ॥१५६॥ अक्रिय: स्वीयभावस्थो, निराकारो निरञ्जनः । अनन्तज्ञानदृक् शुद्धो, चिदानंदमयः सदा ॥१५७॥ न शब्दो न रसे। गन्धो, न रुपं स्पर्शभाग् न च । सत्त्वा अरुपिणोऽनित्थंस्थ-स्थानाः निष्ठिताः सदा ॥१५८॥ अनन्तशक्तिभाजस्ते, सर्वबाधाविवर्जिताः । सर्वथा निरपेक्षास्ते, प्रशान्ताः स्तिमिता घनाः ॥१५९॥ एषोऽसंयोगिको मोदो, मतोऽतः परमो बुधैः । अप्रमोदः परापेक्षा, संयोगो विरहान्तिमः ॥१६॥ फलमेतस्य न फलं, विनिपातपरं हि तत् । मोहाद् बहुमतं मुग्धैः, सुखं संयोगजं भवे ॥१६१॥ ततोऽनर्था अपर्यन्ता, एतद् भावरिपुः परः । नाऽतो भगवता प्रोक्त, आकाशेनाऽस्य सङ्गमः ॥१६२॥ स्वस्वरुपे स्थितः सिद्धो, नाऽन्यत्राकाशसङगमः । न सत् सदन्तरं यायात्, तत्वं केवलिवेदितम् ॥१६३॥ Page #188 -------------------------------------------------------------------------- ________________ निश्चयेन मतं यस्मात् तत्र योगो वियोगवान् । नैप योग इतो भिन्नलक्षणो नेच्छया युतः ॥१६४॥ स्वभावएव सिद्धाना-मनन्तानन्दसङ्गतः । उपमा विद्यते नाऽत्र, गम्यतेऽनुभवेन तत् ।।१६५।। आज्ञेषा जिनचन्द्राणां, सर्वज्ञानां यथार्थिका । एकान्तेन यतो नैपु, कारणं वितथोदितेः ॥१६६॥ नाऽनिमित्तं च कार्य स्यात्, परं दृष्टान्तमागतः । सर्वशत्रुक्षये कश्चित् , सर्वव्याधिवियोगवान् ।।१६७॥ सर्वाभीष्टाऽर्थसंयोगात् पूर्णेच्छोऽनुभवेत् सुखं । ततोऽनन्तगुणं सिद्धौ, रागादिरिपुनाशतः ॥१६८॥ रागाद्या रिपवो भावादातंकाः कर्मवेदनाः । ज्ञानदृष्ट्यादिकाः स्वेष्टा, कुतीर्थत्वादनीप्सता ॥९६९।। एवं सुखमयाः सिद्धा, न गम्या इतरैर्जनैः । यथा शमसुखं क्रुद्धो, रोगीवाऽऽरोग्यसम्भवम् ।।१७०॥ सुखं न विन्दतेऽचिन्त्यमत एतत् स्वरुपतः । साधनन्तमपेक्ष्यैकं, प्रवाहेऽनाद्यनन्तकम् ॥१७१॥ तथाभव्यव्यत्वभावादे-भगवन्तः सिद्धिमास्थिताः । चित्रं तस्फलभेदेन, नाऽन्यथा सहकृद्भिदा ॥१७२।। तथाभव्यत्वपाको हि, सहकारिण पाश्रितः । इत्यनेकान्तवादोऽसौ, तत्त्ववादश्च खल्वयम् ।।१७३।। मिथ्यात्वं परश्चैकान्तो, व्यवस्था नाऽत्र सम्भवेत् । सिद्धत्वं संसरता यत्तन्नाह कर्मयोगतः ॥१७४॥ अबद्धस्य च का मुक्ति-स्तच्छब्दार्थविनाकृता । अतीतकालवद् वन्धो-ऽनादिमान् स प्रवाहतः ॥१७५॥ भबद्धबन्धनेऽमुक्तिः, सदा बन्धप्रसङ्कतः । नाऽवद्धमुक्तयो-भेंदः, काञ्चनोपलभेदवत् ॥१७६।। Page #189 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (५३) वियोगः कर्मणोऽनादेः, न दिदृक्षेन्द्रियविना। दिदृक्षाऽऽत्मनि नाऽदृष्टे, नत्रौं तां विनिवर्तनम् ॥१७७॥ नाऽनिवृत्तौ शिवप्राप्ति-न तस्यास्ति विपर्ययः । तुल्या भव्यैर्न सद्युक्त्वा, केवलात्ममयो न च ॥१७८॥ भावियोगानपेक्ष्येह, केवलत्वान्न साम्यता। सदा विशेषतोऽसत्यं, तथाभावत्वकल्पनम् ॥१७९॥ कल्पितत्वे च दोषोऽयं, चेदात्मा परिणामवान् । भवेत्तदा भवेद् बन्धो, नयैः सर्वैस्तु सम्मतः १८०॥ नाऽऽरोपो भवभावेन, न कर्माऽऽत्मस्वरुपकं । न ह्येतत्, कल्पितं नैवं, भव-मोक्षादिभिन्नता ॥१८१॥ भवभावमया सिद्धि-न नोच्छेदे च जन्मिता । सामञ्जस्यं न त्व-नादिमत्ताहेतुः फलं च न ॥१८२॥ स्वभावकल्पनाऽयुक्ता-निराधारोऽन्त्रयः कृतः। जीवस्यैव तथाभावे, सर्व युज्येत तत्खलु ॥१८३॥ सूक्ष्ममर्थपदं विज्ञैरेतचित्यं मनीषया । अपर्यन्तं शिवे सौख्य, यततोऽदः परं पदम् ॥१८४॥ सर्वथाऽनुत्सुकत्वेन, नाऽभावः सिद्धिमीयुषां । लोकान्तवासिनः सिद्धा, अनन्ता एकसंस्थितौ ॥१८५।। अकर्मणां गतिः पूर्व-प्रयोगादीषुवत् तथा । कर्मलेपविनाशेनाऽसङ्गादलाबुवत्पुनः ॥१८६॥ नाऽसकृदस्पृशाद्गत्या, गमनं लोकमूर्धनि । साऽप्युत्कर्षविशेषेणो-च्छेदो भव्याङ्गिनां नहि ॥१८७॥. ये सिद्धाः सेत्स्यन्ति तेऽमी, निगोदाऽनन्तभागगाः। असल्या गोलका लोके, गोलेऽसंरव्याऽवगाहनाः ॥१८८॥ एकावगाहनेऽसंरव्या, निगोदा अंशभेदतः । एकैकस्मिन् निगोदेऽत्राऽसवोऽनन्ता जिनैः स्मृताः ॥१८९॥ Page #190 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (६४) भव्यत्वं योग्यतारुपं, योग्याः सर्वे न कार्यगाः । मूर्त्तयोऽखिलदारुणां, न कुम्भाः सर्वसन्मृदाम् ॥ १९० ॥ व्यवहारनयेनेदं, तत्त्वाङ्गोऽप्येष वर्त्तते । विशुद्धेस्तदनेकान्त-सिद्धिर्निश्रयतोऽमलः ॥१९१॥ आषा सर्वतोभद्रा, सर्वज्ञानां तु शासने । आद्यन्तमध्यकल्पाणा, कष - च्छेदाऽऽतपैर्युता ॥ १९२॥ परिशुद्धिः पुनर्वन्धाभावादिभ्योऽस्ति योग्यता । लिङ्गमेतत् प्रियत्वारव्यं, गम्यं योग्यप्रवृत्तितः ॥१९३॥ संवेगसाधकं नित्यं, नैषाऽन्येभ्यो वितीर्यते । विरुद्धलिङ्गतो ज्ञेया - स्ततस्तदनुकम्पया ॥ १९४ ॥ अदानमामकुम्भोद - ज्ञातेन हितकारकं । निन्दया दुर्लभो वोधि-र्मास्त्वेषामित्यनुग्रहः ॥ १९५॥ आज्ञा विशुद्धतैकान्तात् फलं तदविरोधतः । महोदयफला शास्तु-र्बहुमानात् शिवप्रदा ॥ १९६॥ ॥ इति श्रीपञ्चसूयाः भावानुवाद - पद्यानि समाप्तानि ॥ Page #191 -------------------------------------------------------------------------- ________________ फ्र प्रशस्तिः 5 प्रत्नैः पूर्वधरैजिनागमसुधा सिन्धोः समृद्धत्य या, धा सहितावहा सुखकरी सत्पञ्चसूत्री शुभा । व्याख्याता हरिभद्रसूरिचरणैः सद्धेतुवाक्यालया, सा पद्यैरचिताऽऽशु संस्कृतगिरा भव्यन्नजानन्ददा ॥ १॥ मेवाते शुचिमण्डलेऽनघनृपे राज्यं सदा शासति, सद्धर्मेण फतेसिंहनृपतौ श्रीआदिनाथाचके । प्रामे सायरसज्ञितेऽत्र मरुभूनैकट्यभाजि प्रभोः, प्रासादेन पवित्रिते द्विदशमाधीशस्य दूब्धा मुदा ||२|| वह्नि-वस्त्र-ङ्क-चन्द्राव्देष्वतीतेषु च विक्रमात् । सुखबोधाय संदृब्धा, संस्कृते पञ्चसूत्रिका ॥ ३ ॥ पापं हत्वा गुणान् धृत्वा (१) श्रामण्यं परिभाव्य च (२) । गृहीत्वा तत् (३) प्रपाल्याऽलं (४) मोक्षं तत्फलमाश्रयेत् (५) ॥४॥ इत्यस्य पश्वसूत्र्यां भो अधिकारान् निरीक्षतां । आत्मनाऽऽश्रयतां सम्यक्, महाऽऽनन्दं यतोऽश्नुताम् ॥५॥ ॥ इति आगमोद्धारकआचार्य प्रवर श्री आनन्दसागरसूरिपुङ्गवसंदृब्धा संस्कृतपञ्चसूत्री ॥ sacease ॥ आगमपर्यालोचनप्राणः गुरुनिश्रोपजीवी श्रमणः श्रामव्यसार मवाप्नोति ॥ Page #192 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री पंचसूत्र-प्रथम सूत्र संक्षेपार्थगर्भ पू०गच्छाधीश्वरआ०श्रीमाणिक्यसागरसूरीशप्रसादीकृतं श्लोकपंचकम् . चतुरशरणोपगमः आप्तोऽष्टादशदोषशून्यजिनपश्चार्हन् सुदेवो मम, त्यक्तारम्भपरिग्रहः सुविहितो वाचंयमः सद्गुरुः ।। धर्मः केवलिभाषितो वरदयः कल्याणहेतुः पुनः, अर्हत्-सिद्ध-सुसाधु-धर्मशरणं भूयात् त्रिशुद्धयाभवम् ॥१॥. दुष्कृतगर्दा भूताऽनागतवर्तमान समये यद् दुष्प्रयुक्तैर्मनो वाक्कायैः कृतकारितानुमतिभिर्देवादितत्त्वत्रये । संघे प्राणिषु चाप्तवाच्यनुचितं हिंसादि पापास्पदम्, मोहधिन मया कृतं तदधुना गर्हामि निंदाम्यहम् ॥२॥ सुकृतानुमोदना अर्हत्-सिद्ध-गणीन्द्र--पाठक-मुनि-श्राद्धा-व्रतिश्रावकाधर्हत्त्वादिकभावतद्गतगुणान् मार्गानुसारीन् गुणान् । श्रीअर्हद्वचनानुसारिसुकृतानुष्ठानसदर्शना दीननुमोदयामि सुहितैः योगैः प्रशंसाम्यहम् ॥३॥ क्षमापना संसारेऽत्र मया स्वकर्मवशगा जीवा भ्रमन्तोऽखिलाः, क्षाम्यन्ते क्षमिता क्षमन्तु मयि ते केनाऽपिसाई मम । वैरं नास्ति च मैत्रीतानाऽऽस्ति सुखदा जीवेषु सर्वेषु मे, यद् दुश्चितितभाषितं-विहितं मिथ्याऽस्तु मे दुष्कृतम् ॥४॥ सद्भावना तच्चायास्यति मे कदा दिनमहं यत् पालयिष्येऽमलं, चारित्रं जिनशासनस्थितमुनेर्मार्ग चरिप्या यहम् । मुक्तोजन्मजरादिदुःखनिवहात् संवेग निर्वेदता प्तोक्तास्तिक्य दयालुताप्रशमतां धर्त्ता भविष्याम्यहम् ॥५॥ Page #193 -------------------------------------------------------------------------- _