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नीतिवाक्यामृत में राजनीति
डॉ. एम. एल. शर्मा एम. ए.. पी-एच. डी.
भारतीय ज्ञानपीठ प्रकाशन
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प्राक्कथन
— न्याय एवं विधि के अध्ययन की भांति भारत में राजनीतिशास्त्र के अध्ययन को परम्परा अठारहवीं शतागी तम, अण्ण माहित होती रही । अामार्य सोमदेवसूरि का 'नीतिधाषयांमूल' भी इसी परम्परा में विरचित राजशास्त्र का एक महत्वपूर्ण ग्रन्थ है। आचार्य सोमदेव का द्वितीय महत्त्वपूर्ण ग्रन्थ 'यशस्तिलक चम्पू है । इन दोनों ग्रन्थों में राजनीतिक आदर्शों एवं संस्थाओं का विस्तारपूर्वक प्रतिपादन किया गया है। राजनीतिक दृष्टि से 'यशस्तिलक' का तृतीय आश्वास अचलोकनीय है । ये दोनों अन्य एक-दूसरे के पूरक है और ये सोमदेव के सूक्ष्म अध्ययन, महान् अनुभव, मद्वितीय विद्वत्ता तथा बहुमुखी प्रतिभा के परिचायक हैं ।
प्रस्तुत पुस्तक लखनऊ विश्वविद्यालय द्वारा पी. एच-डी. के लिए स्वीकृत लेखक के शोध-प्रबन्ध 'नीतिवाक्यामृत में राजनीतिक आदर्श एवं संस्थाएं' का संशोधित रूप है। इस में नौतिवाक्यामत में प्रतिपादित राजनीतिक आदर्श एवं संस्थाओं का वैज्ञानिक और तुलनात्मक दृष्टि से अध्ययन किया गया है । राजशास्त्र का यह महत्वपूर्ण प्रन्थ अभी तक उपेक्षित ही था । इस ग्रन्थ के उचरण कुछ राजनीति-प्रधान ग्रन्थों में उपलब्ध होते है तथा पत्र-पत्रिकाओं में भी इस के कतिपय विषयों पर लेख प्रकाशित हुए हैं। किन्तु सांगोपांग रूप से इस सम्पूर्ण ग्रन्थ के आधार पर कोई अन्य प्रकाशित नहीं हुआ है। वैज्ञानिक ढंग से इस अन्य के विवेचन का यह सर्वप्रथम प्रयास है । इस के विवेचन को मौलिकता को सुरक्षित रखने के लिए लेखक ने सोमदेव के मूल ग्रन्थों---'नौविवाक्यामृत' एवं 'यशस्तिलक चम्पू का हो आश्रय लिया है।
प्रस्तुत शोध-प्रबन्ध के निदेशक एवं प्रेरक डॉ. रामकुमारजी दीक्षित-भूतपूर्व डोन, फैकल्टी ऑफ़ आर्ट स तथा अध्यक्ष, प्राचीन भारतीय इतिहास एवं पुरातत्व विभाग, लखनऊ विश्वविद्यालय, लखनऊ-का लेखक हृदय से आभारी है, जिन्होंने अत्यन्त स्नेहपूर्वक इस शोध-प्रबन्ध का निदेशन किया। पोध-प्रबन्ध को ग्रन्थ-रूप देते समय पूज्य विद्वन्मूर्धन्य डॉ. आदिनाथ नेमिनाथ उपाध्येजो ने बहुमूल्य- सुमाव दिये, जिन के सुझावों से मह रचना और भी उपयोगी हो गयी है। परिशिष्ट में 'नोतिबाक्यामृत' के सम्पूर्ण समुद्देशों का समावेश उन्हीं के परामर्श पर किया गया है। दोनों विद्वानों के चरणों में लेखक अपने श्रद्धा-सुमन अर्पित करता है । भारतीय ज्ञानपीठ को परामर्शदात्री
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समिति, उस के मन्त्री श्री लक्ष्मीचन्द्रजी जैन तथा डॉ. गोकुलचन्द्रजी जैन का लेखक आभारी है, जिन्होंने इस शोध-प्रबन्ध को प्रकाशनार्थ स्वीकार किया और अत्यन्त आगरूकतापूर्वक इस के प्रकाशन का कष्ट वहन किया।
___अन्त में लेखक उन समस्त विद्वानों क. प्रति अपना सार प्रमह र आवश्यक समझता है, जिन के ग्रन्थों से इस शोध-प्रबन्ध के प्रणयन में उसे सहायता प्राप्त हुई।
दिगम्बर जैन फॉलेज, पौर ( मेरर }
-डा. एम. एल. शर्मा
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भारत में राजनीतिशास्त्र के अध्ययन की परम्परा
अनुक्रम
राज्य
सोमदेवसूरि और उन का नीतिवाक्यामृत
मधिगम्यभूत का
शाल १४ गीतिया महत्त्व २४, त्रिवर्ग प्राप्ति का अमोघ साधन राज्य २५, दण्डनोति का महत्त्व : २८, राज्यांगों का विशद विवेचन : ३०, राजशास्त्र सम्बन्धी अन्य बातों का विवेचन : ३२, बाचार सम्बन्धी नियमों का विश्लेषण : ३२. वर्णाश्रम व्यवस्था : ३२, कौटुम्बिक जीवन की झलक ३४, नारी चरित्र का मनोवैज्ञानिक विश्लेषण ३४ वैश्याओं की प्रकृति तथा चन से साबधान रहने के निर्देश: ३४ स्वास्थ्य सम्बन्धी नियमों का उल्लेख : ३५, ऐतिहासिक एवं पौराणिक ३५. जीवनोपयोगी सूफियों का सागर : ३६, सोमदेवसूरि की बहुकता ३७ ।
तथ्यों का समावेश :
राजा
प्राचीन राजवास्त्र प्रणेता और सोमदेवसूरि ३ अर्थशास्त्र: ५, अर्थशास्त्र का रचनाकाल : ७ नीतिसार ८, नीतिवाक्यामृत : १० ।
राज्य के तस्व ४३,
राज्य को प्रकृति ४१, ४४, राज्य के अंग : ४५, राज्य के कार्य : ४९,
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५० 1
१३-४०
१-१२
४१-५२
राज्य की उत्पत्ति :
राज्य का उद्देश्य :
५३-८६
राजा की उत्पत्ति—१. वैदिक सिखान्त: ५६, २. सामाजिक अनुबन्ध का सिद्धान्त: ५७, सामाजिक अनुबन्ध के सिद्धान्त का द्वितीय स्वरूप : ५८, ३. देवी उत्पति का सिद्धान्त ६१, राजा की योग्यता: ६६, राजा की योग्यता के विषय में अन्य माचायों के विश्वार: ६७,
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सोमदेव के अनुसार राजा की योग्यताओं अथवा गुणों का विवेचन : ६८, राजा के दोष ७०, सोमदेव के अनुसार राजा के दोषों का विवेचन : ७१, राजा के कर्तव्य - १. प्रजा को रक्षा एवं पालनपोषण: ७३, २. सामाजिक व्यवस्था की स्थापना ७४, ३ आर्थिक कर्तव्य : ७५, ४. प्रशासकीय कर्तव्य ७५, ५ न्याय सम्बन्धी कर्तव्य : ७७, राज- रक्षा: ७७ राजा का उत्तराधिकारी ८०, राजस्व के उच्च आदर्श ८३ ।
मन्त्रिपरिषद्
दुर्म
८७-१०९
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राजशासन में मन्त्रिपरिषद् का महत्व ८७, मन्त्रिपरिषद् की रचना : ८९, मन्त्रियों की नियुक्ति ९०, मन्त्रिपरिषद् के सदस्यों की योग्यता१. द्विजाति का विधान ९१, २. कुलीनता : ११, ३. स्वदेश वासी : ९२, ४. चारित्रवान् ९२, ५ निर्व्यसनता : ९३, ६ राजभक्ति : ९१५ नोव या विशारद : ९३, ९. निष्कपटता ९४, मन्त्रिपरिषद् के सदस्यों की संख्या : ९४ मन्त्र का प्रधान प्रयोजन ९६, मन्त्र के अंग- १. कार्य प्रारम्भ करने के उपाय : ९७, २. पुरुष और द्रव्य सम्पत्ति ९७, ३. देश और काल : ९७, ४ विनिपात - प्रतिकार : ९७ ५. कार्यसिद्धि: ९७, मन्त्रणा के अयोग्य व्यक्ति ९७ मन्त्र के लिए उपयुक्त स्थान: १९, गुल मन्त्रणा प्रकाशित हो जाने के कारण ९९, मन्त्रणा के समय मन्त्रियों के कर्तव्य : १०१, मन्त्रिपरिषद् के कार्य : १०२ राजा और मन्त्रिपरिषद् १०४, अमात्यों के दोष -- १. अत्यन्त क्रोधी : १०६, २. बलिष्ठ पक्ष वाला १०६, ३. अपवित्र १०६ ४ व्यसनी : १०६, ५ अकुलीन : १०६, ६. हठी : १०६, ८. कृपण, १०६, अधिकारी बनाने योग्य व्यक्ति सहपाठी को अधिकारी बनाने का निषेध : १०७, दोष १०८, राज्याधिकारियों के धनवान् होने का निषेध : १०९, राज्याधिकारियों की स्थायी नियुक्ति का निषेध : १०९ ।
७. विदेशी : १०६, १०७, कुटुम्बी और अमात्यों के अन्य
११०-११६
राजधानी : १११, दुर्ग का महत्य : ११२, दुर्ग के भेद : ११२ - प्रोदक, पर्वतदुर्ग, धन्यदुर्ग, वनदुर्ग : ११३, दुर्ग के गुण अधिकार करने के उपाय : ११४- १. अभिगमन ३. चिरनिबन्ध, ४ अवस्कन्द, ५. तीक्ष्णपुरुषप्रयोग ११५ ।
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११४, शत्रुदुर्ग पर
११४, २. उपजाप,
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कोष
११७-१३० कोष की परिभाषा : ११७, कोप का महत्त्व : ११७, उत्तम कोष : ११८, कोषविहीन राजा : १११, रिक्त राजकोष की पूर्ति के उपाय : १२०, आय-व्यय : १२०, राज-कर के सिद्धान्त : १२१, राष-कर साधन था न कि साध्य : १२३, राज-कर राजा का वेतन था: १२३, आय के स्रोत : १२४, कृषक वर्ग के प्रति उदारता : १२४, अन्य प्रकार के कर : १२५, आयात और निर्यात कर : १२५, शुल्क स्थानों की सुरक्षा : १२५, राज्य की आय के अन्य साधन : १२६, उत्कोच लेने वाले राज्याधिकारियों से धन प्राप्त करने के उपाय१. नित्य परीक्षण : १२६, २. कर्मविपर्यय : १२६, ३. प्रलिपत्रदान : १२७, राजस्व विभाग के अधिकारी : १२७, आय-व्यय लेखा : १२८, व्यापारी वर्ग पर राजकीय नियन्त्रण : १२८ ।
सेना अथवा बल
१६-८ हाथियों के गुण : ५३२, अशिक्षित हापी : १३२, हाथियों के कार्य : १३२, अश्वों की जालिया : १३४, रथसेना : १३५, सेनाध्यक्ष : १३६,
औत्साहिक सैन्य के प्रति राजा का कर्तव्य : १३७, सेना के राजा के विरुद्ध होने के कारण : १३७, सेवकों का वेतन तथा उन के कर्तव्य : १३८, कृपण राजा को हानि : १३८ ।
राष्ट्र
१३९-१५१ भारतीय साहित्य में जनपद शब्द का प्रयोग : १४४, अनपद के गुण : १४८, देश के दोष : १४९, देश को जनसंख्या के विषय में विचार :
१५०, जनपद का संगठन : १५०, ग्राम संगठन : १५० । ' अन्तर्राष्ट्रीय सम्बन्ध
१५२-१७२ दूत को परिभाषा : १५३, दूत के गुण : १५४, दूतों के भेद : १५४, दूत के कार्य : १५४, घर : १५५, घरों की नियुक्ति : १५५, चरों के भेद : १५६, सामन्त शासकों के साथ सम्बन्ध : १५६, युट काल में अन्तर्राष्ट्रीय सम्बन्ध : १५७, मण्डल सिद्धान्त : १५८१. उदासीन : १५८, २. मध्यस्थ : १५८, ३. विजिगीषु : १५८, ४. शत्रु : १५९, ५. मित्र : १५९-१. नित्य मित्र : १५९, २. सहम मित्र : १५९, ३. कृत्रिम मित्र : १५९, ६. पाणिग्राह : १६०, ७. पाकन्द : १६०, ८. आसार : १६०, ९. अन्तधि : १६०, सोन
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शक्तियों का सिद्धान्त १६१, चार उपाय १६१, सामनीति : १६२ - १. गुण संकीर्तन, २. सम्बन्धोमास्यान, २ परोपकार दर्शन, ४. आयत प्रदर्शन, ५. आत्मोपसन्धान १६२, दामनीति: १६२, भेदनीति: १६३, दण्डनीति: १६३, षाड्गुण्य मन्त्र : १६३ - १. सन्धि १६४ २. विग्रह १६५, ३. यान १६५, ४. आसन : १६५, ५. संभय १६६, ६. घोभाग १६६, युद्ध : १६७, युद्ध के सम्बन्ध में विजिगीषु के लिए कुछ निर्देश : १६७, सैन्य संगठन १६८, युद्ध के भेद : १६९, धर्मयुद्ध १६९, युद्ध के लिए प्रस्थान १७०, न्यूह और उस का महत्व: १७० युद्ध के नियम १७१, विजय के उपरान्त विजिगीषु का कर्तव्य : १७१, युद्ध में मारे गये सैनिकों की सन्तति के प्रति राजा का कर्तव्य : १७२ ।
न्याय-व्यवस्था
१७३-१८२
न्यायालय १७३, सभ्यों की योग्यता एवं नियुक्ति १७५, अपराध की परीक्षा किये बिना दण्ड देने का निषेध १७५, कार्यविधि : १७६, बाद के चरण १७६, प्रतिज्ञा १७७, प्रमाण १७७, शपथ : १७७, विभिन्न वर्णों से भिन्न-भिन्न प्रकार की शपन का विधान : १७८, क्रिया १७८, निर्णय १७९, विधान १७५, दण्ड का प्रयोजन : १८०, भय कथवा आतंक स्थापित करने का सिद्धान्त : १८० निरोधक सिद्धान्त : १८०, सुधारवादी सिद्धान्त : १८०, उचित दण्ड पर बल : १८१, पुनर्विचार तथा पुनरावेदन : १८२ ।
निष्कर्ष
नीतिवाक्यामृत का मूल सूत्रपाठ
१८३-१९०
१९१-२४८
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भारत में राजनीतिशास्त्र के अध्ययन की परम्परा
पाश्चात्य विद्वानों की यह धारणा, कि राजशास्त्र का विकास ग्रोस अथवा यूनान में हुआ, नितान्त भ्रमपूर्ण है। प्लेटो और अरस्तु से बहत पूर्व भारत में राजनीति शास्त्र का विधिवत् अध्ययन प्रारम्भ हो गया था । भारतीय परम्परा तो राजनीतिशास्त्र की सत्ता सृष्टि के प्रारम्भ से ही मानती है। महाभारत के शान्तिपर्व के ५९३ अध्याय में लिखा है कि समाज को व्यवस्था को ठीक रखने के लिए प्रजापति ने एक लाख अध्याय वाले नीतिशास्त्र की रचना की। इसमें धर्म, अर्थ, काम त्रिवर्ग वथा चातुर्वर्ग मोक्ष और उसके त्रिवर्ग सरव, रज और तम का विवेचन किया था । इसके साथ ही उन्होंने दण्डज त्रिवर्ग-स्थान,
काय तथा नशिप:--सि, श, काल, उपाय, कार्य और सहाय के अतिरिक्त आन्वीक्षिकी, वयो, वार्ता और दण्डनीति इन चारों राजविद्याओं और इनसे सम्बन्धित विषयोंका वर्णन किया था। वात्स्यायनके कामसूत्रमें भी यही बात कही गयी है कि प्रजापति ब्रह्मा ने त्रिवर्गशासन-धर्म, अर्थ और काम-विषयक महाशास्त्र की रचना की, जिस में एक लाख अध्याय थे। यह ग्रन्थ अत्यन्त विशाल था। अतः उस को सरल और सुबोध बमाने के उद्देश्य से विशालाक्षा ने दस हजार अध्यायों में उस को संक्षिप्त किया। विशालाक्ष महादेवजी का ही दूसरा नाम है, मयोंकि वे त्रिकालदर्शी थे। विशालाक्ष के पश्चात् उस नीतिशास्त्र की रचना इन्द्र ने पांच हजार अध्यायों में को, इस के उपरान्त बृहस्पति ने उस को संक्षिप्त कर के तीन हजार अध्यायों में लिखा। मीतिप्रकाशिका में भी प्राचीन राजशास्त्र प्रणेताबों के नामों का उल्लेख मिलता है। उस में लिखा है कि ब्रह्मा, महेश्वर, स्कन्द, हन्द्र, प्राचेतसमनु, बृहस्पति, शुक्र, भारद्वाज, वेदव्यास, गौरशिरा आदि राज१. महा० शान्ति १६. २६, ३१ । तघ्यायसहवाण शतं 'बके स्वबुद्विजम् । यत्र धर्मस्तवार्थः कामश्चैवामिवर्णितः । विमर्ग इति पिल्यातो गण एप स्वयम्भुवा । चट्टी मास इत्येव पृथगः पृथा गुणः । मोक्षस्वास्ति त्रिवर्गोऽन्यः प्रोक्तः सरवं रजस्तमः । स्थान वृद्धिः सयश्चैव निवर्गश्चैव दण्जः ॥ २. बारस्यायन कामसूत्र, १०१। प्रगतिहि प्रजाः सृष्ट्वा तास स्थितिनिबन्धन निर्गस्थ साधनमध्यायानो शप्तमहणाने प्रोवाच । ३. महा० शान्सि०५६.८१, ८५ । मारत में राजनीतिशास्त्र के अध्ययन की परम्परा
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शास्त्र प्रणेता माने जाते हैं। ब्रह्मा ने एक लाख अध्यायों में राजशास्त्र की रचना को थी, जिस को उपर्युक्त आचार्यों ने क्रमशः संक्षिप्त किया। गौरशिरा ने इस नीतिशास्त्र की रचना पांच सौ अध्यायों में की तथा व्यास ने उस को तीन सौ अध्यायों में संक्षिप्त कर दिया।
इस प्रकार मनुष्यों के कल्याणार्थ विभिन्न देवताओं ने दण्डनीति पर ग्रन्थ रचना की। महाभारत के वर्णन से राजशास्त्र अथवा दण्डनीति की प्राचीनता प्रकट होती है। भारत में इस शास्त्र का उद्भव कब हुआ, इस की ऐतिहासिक तिषि बताना अत्यन्त कठिन है । परन्तु इस में कोई सन्देह नहीं कि इस शास्त्र का अध्ययन भारत में बहुत प्राचीन काल से हो रहा था। महाभारत के शान्तिपर्व में राजशास्त्र के प्राचीन आचार्यों का उल्लेख प्राप्त होता है। इन आचार्यों ने राजनीतिशास्त्र पर विशाल ग्रन्थों की रचना की थी। इन प्राचार्यों के नाम इस प्रकार है-विशालाक्ष, बृहस्पति, मनुप्राचेतस, भारद्वाज, गौरशिरा आदि । कौटिल्य ने भी अपने अर्थशास्त्र में उपर्युक्त अधिकांश आचार्यों का उल्लेख किया है। अर्थशास्त्र में विभिन्न स्थलों पर इन आचार्यों के मत उद्धृत किये गये हैं। उस में वर्णित आचार्यों के नाम इस प्रकार है---भारद्वाज, विशालाक्ष, पाराशर, पिशुन, कोणपन्त, वातव्याधि, बाहृदन्तीपुत्र । कौटिल्य के अर्थशास्त्र में राजनीति के पांच प्रसिद्ध सम्प्रदायों का भी उल्लेख मिलता है, जिन के मत कौटिल्य ने उदषत किये हैं। इन सम्प्रदायों के नाम है-मानवा, बार्हस्पत्या, औशनसाः, '1. सब रह और मीनाः। नदिने उपक आचायों के प्रति अपना आभार प्रदर्शित किया है तथा उन की रचनामों को अपने ग्रन्थ का आधार बनाया है। इस से सिद्ध होता कि कौटिल्य से पूर्व ही भारत में राजशास्त्र का विधिवत् अध्ययन प्रारम्भ हो चुका था तथा इस विषय पर अनेक प्रसिद्ध ग्रन्थों को रचना उपर्युक्त आचार्यों द्वारा की जा चुकी थी। पांच-पांच सम्प्रदायों की गुरु-शिष्य परम्परा एवं उन के द्वारा राजशास्त्र पर अनेक ग्रन्थों की रचना करने में पर्याप्त समय लगा होगा । इन समस्त बातों को दृष्टि में रखते हुए डॉ. भण्डारकर ने यह मत प्रकट किया है कि भारतमें इस शास्त्र का विधिवत् अध्ययन ईसा से सातवीं शताब्दी पूर्व से कम नहीं हो सकता ।' यह सम्भव है कि इस शास्त्र का प्रारम्भ और भी पहले हो चुका हो । भारतीय परम्परा द्वारा भी इस शास्त्र की प्राचीमता की पुष्टि होती है।
नीतिवाक्यामृत में भी उस के अज्ञात टोकाकार ने बहुत से प्रसिद्ध और अप्रसिद्ध राजशास्त्र के आचार्यों के मतों का उल्लेख सोमदेव के मतों के समर्थन में प्रस्तुत किया है। इस में नारद, अत्रि, अंगिरा, ऋषिपुत्रक, काणिक, राजपुष, कौशिक, गर्ग,
१. नीतिप्रकाशिका-१, २१-२२ । २. महा० :न्तिा .१-३। ३. कौ० अर्थ, १,८। ४.नही, १. Prof. D. R. Bhandarkix-Some Aspects of Ancient Hindu Polity. PP. 23,
नीतिवाक्यामृत में राजनीति
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गौतम, जैमिनी, देवल, याज्ञवल्क्य, भागुरि, बशिष्ठ, हारीत, बादरायण, विदुर, चारायण, रम्प, बल्लभदेव, शौनक, कामन्दक, राजगुरु वर्ग आदि आचार्यों के नामों का उल्लेख मिलता है। इन समस्त आचार्यों के श्लोक टीकाकार ने नीतिवाक्यामृत में उद्धृत किये है । इस में जिन प्राचीन ग्रन्थों के उद्धरण प्रस्तुत किये गये हैं उन की संख्या पचास से कम नहीं है । इस में उद्धृत अधिकांश श्लोक ऐसे हैं जो वर्तमान काल में उपलब्ध मनु, नारद, याज्ञवल्क्य आदि स्मृतियों एवं शुक्रनीतिसार में नहीं मिलते। ऐसा प्रतीत होता है कि मामव और औशनप्त सम्प्रदायों के अन्य भी बहुत से अन्य प्राचीन काल में उपलब्ध होंगे, जो अब काल के कराल गर्त में विलीन हो गये है।
बृहत् पराशर तथा अम्मि, गरुड, मत्स्य, विष्णु, मार्कण्डेय आदि पुराणों में भी राजनीतिशास्त्र से सम्बन्धित सामग्री उपलब्ध होती है। मध्यकाल में भी राजनीति साहित्य को धारा अनवरत रूप से प्रवाहित होती रही । मध्यकाल के प्रमुख राजनीति प्रधान प्रन्थों में लक्ष्मीधर का राजनीतिकल्पतरु, देवल भट्ट का राजनीतिकाण्ड, चण्डेश्वर का राजनीतिरत्नाकर, नीलकण्ठका नीतिमयूख, भोज का युक्तिकल्पतरु, मित्रमित्र का राजनीतिप्रकाश, चन्द्रशेखर का राजनीतिरत्नाकर तथा अनन्तदेव का राजधर्म उल्लेखनीय है। इन ग्रन्थों को प्राचीन नीति साहित्य का संग्रह अन्य ही कहा जा सकता है। इन को हम मौलिक रषना नहीं कह सकते। इन विद्वानों ने उसी प्राचीन परम्परा का अनुकरण किया है।
प्राचीन राजशास्त्र प्रणेता और सोमदेव सुरि
भारत में राजनीतिशास्त्र के अध्ययन की परम्परा बहुत प्राचीन रही है। यह देश राजनीति के क्षेत्र में पाश्चात्त्य देशों से बहुत आगे था । आचार्य कौटिल्म तथा सोमदेव से बहुत पूर्व यहाँ अनेक महान राजनीतिज्ञ हो चुके थे, जिन के मतों का उल्लेख महाभारत, कौटिलीय अर्थशाहल, कामन्दक के नीतिसार एवं नीतिवाक्यामृत की संस्कृत टीका में प्राप्त होता है। अर्थशास्त्र में अनेक स्थलों पर विशालाक्ष, इन्द्र (बहुदन्त), बृहस्पति, शुक्र, मनु, भारद्वाज आदि प्राचीन राजशास्त्र प्रणेताओं के मत सद्धत है। कौटिल्य के उपर्युक्त विद्वानों के मतों का उल्लेख करने के उपरान्त अपना मत व्यक्त किया है । दुर्भाग्य से आज यह समस्त राजनीति प्रधान साहित्य उपलब्ध नहीं है, किन्तु उस के उपयोगी अंश महामारत, कौटिलीय अर्थशास्त्र, कामन्दक के नीतिसार तथा सोमदेव के नीतिवाक्यामृत में प्रास होते हैं, जिन से. यह सिद्ध होता है कि भारत में इस शास्त्र को रचना महाभारत से पूर्व ही हो चुकी थी। वर्तमान उपलब्ध राजनीतिक साहित्य में मनुस्मृति, शुक्रनीतिसार, अर्थशास्त्र, कामन्दक का नीतिसार एवं सोमदेव का नीतिवाश्यामृत ही प्रमुख ग्रन्थ है । यह बात भी उल्लेखनीय है कि वर्तमान उपलब्ध मनुस्मृति, शुक्रनीतिसार, याज्ञवल्क्य स्मृति आदि ग्रन्थ बहुत दाद की रचनाएँ है, जैसा कि उन में प्राप्त सामग्री से सिद्ध होता है । जिस प्रकार मनुस्मृति का संकलन भृगु
भारत में राजनीतिशास्त्र के अध्ययन की परम्परा
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ने किया, उसी प्रकार उशनस् सम्प्रदाय के किसी अन्य विद्वान् ने वर्तमान शुक्रनीतिसार का संकलन कर उस में अनेक स्वरचित श्लोक सम्मिलित कर के उस को नवीन स्वरूप प्रदान किया। यही बात याज्ञवल्क्य स्मृति के सम्बन्ध में भी कही जा सकती है । यहो कारण है कि कौटिल्य के अर्थशास्त्र में उद्धृत मनू, शुक्र तथा याज्ञवस्मय के बहुत से श्लोक इन वर्तमान प्रन्थों में नहीं मिलते। कौटिल्य ने उपर्युक्त विद्वानों के जिन श्लोकों को उद्धृत किया है वे उन मूल ग्रन्थों में ही होंगे और कौटिल्म के समय में सम्भवतः यह समस्त राजनीतिक साहित्य किसी न किसी रूप में अवश्य ही उपलब्ध होगा । यही बात नीतिवाक्यामृत की टीका में भी मिलती है। टीकाकार ने आचार्य सोमदेव के मतों की पुष्टि के लिए मनु, शुक्र, याज्ञवल्लय आदि के जो अनेक इलोक उद्धृत किये हैं वे भी वर्तमान काल में उपलब्ध मनुस्मृति शुक्रनीतिसार तथा याज्ञवल्क्य स्मृति में प्राप्त नहीं होते । अतः यह स्पष्ट है कि कौटिल्य एवं नीतिवाक्यामृत के टीकाकार द्वारा उद्धृत मनु, शुक्र, याज्ञवल्क्य आदि के श्लोक इन विद्वानों के मूल ग्रन्थों के ही होंगे । इस सम्बन्ध में डॉ० श्यामशास्त्री का मत उल्लेखनीय है जो कि उन्होंने कौटिलीय अर्थशास्त्र की भूमिका में व्यक्त किया है। वे लिखते हैं- "इस से ज्ञात होता है कि चाणक्य के समय का याज्ञवल्क्ष्य धर्मशास्त्र वर्तमान याज्ञवल्क्य स्मृति से पृथक् ही था। इसी प्रकार कौटिल्य ने अपने अर्थशास्त्र में स्थान-स्थान पर बार्हस्पत्य और ओशनस नादि से जो अपने भिन्न विचार व्यक्त किये हैं वे मत वर्तमान काल में उपलब्ध इन धर्मशास्त्रों में दृष्टिगोचर नहीं होते । अतः यह भली-भाँति सिद्ध होता है कि कौटिल्य ने जिन शास्त्रों का उल्लेख किया है वे अन्य ही ग्रन्थ थे | डॉ० श्यामशास्त्री महोदय के उपर्युक्त विचारों से हम पूर्णतया सहमत हैं ।
वर्तमान उपलब्ध विशुद्ध राजनीति प्रधान ग्रन्थों में राजनीतिज्ञों को आश्चर्यचकित कर देने वाला कौटिल्य का अथशास्त्र, राजशास्त्र की विशद व्याख्या करने वाला सोमदेव का नीतिवाक्यामृत तथा कोटिल्य के अर्थशास्त्र के आधार पर विरचित एवं उस के सूत्रों की स्पष्ट व्याख्या करने वाला कामन्दक का नीतिसार ही है । यद्यपि स्मृतियों तथा महाभारतमें भी राजनीति की पर्याप्त चर्चा की गयी है, किन्तु इन ग्रन्थों में राजनीति का वर्णन गौण रूप से ही हुआ है। स्मृतियों धर्मप्रधान ग्रन्थ हैं और उन में धर्म, आचार एवं सामाजिक नियमों का वर्णन प्रधान रूप से हुआ है। अतः स्मृतियों एवं महाभारत का हम शुद्ध राजनीति प्रदान ग्रन्थों की श्रेणी में नहीं रख सकते | केवल कौटिल्य का अर्थशास्त्र हो समस्त प्राचीन नीति साहित्य का प्रतिनिधित्व करने वाला एक मात्र ग्रन्थ है। अतः नीतिवाक्यामृत की तुलना में हम कौटिल्य के अर्थशास्त्र तथा कामन्दक के नीतिसार को ही सम्मिलित करते हैं ।
१. ० श्यामशास्त्री की टिव्य अर्थशास्त्र की भूमिका ।
अतरच चाणक्यकालिकं धर्मशास्त्रमधुनातनःद्याज्ञवश्यधर्मशास्त्रादन्यदेवासीति । एवमेव मे पुनर्मानवबाईस्पत्यौशनला भिन्नाभिप्रायास्तत्र क्षेत्र कौटिक्मेन परामृष्टाः न तेनोपलभ्यमानेषु चर्मशास्त्रेषु हरयन्त इति कौटिल्य परामृशनि तानि शास्त्राश्यन्यान्येवेति बारं सुवचम् |
नीतिवाक्यामृत में राजनीति
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अर्थशास्त्र
___अर्थशास्त्र के रचयिता आचार्य कौटिल्य महान राजनीतिज्ञ थे। कौटिल्य से पूर्व अनेक प्राचीन आचार्यों ने अर्थशास्त्रों को रचना की थी। उन समस्व अर्थशास्त्रों में कोटिलीय अर्थशास्त्र का अद्वितीय स्थान है। उन्होंने अपने अर्थशास्त्र में स्पष्ट लिखा है कि प्राचीन आचार्यों ने जिन अर्थशात्रों की रचना की थी उन सब का सार लेकर कोटिल्य ने इस अर्थशास्त्र की रचना की है। इस कथन का यह अर्थ कदापि नहीं है कि कौटिल्य का अर्थशास्त्र केवल संकलन मात्र है और उस में कोई मौलिकता नहीं है। वास्तव में कोटिल्य का अर्थशास्त्र अनेक दृष्टियों से एक मौलिक ग्रन्थ है । परन्तु इस विषय पर रचना करने वाले वे प्रथम आचार्य नहीं थे। अपने ग्रन्थ में उन्होंने अपने पूर्ववर्ती आचार्यों के विचारों को अनेक स्थलों पर आलोचना की है और उन से भिन्न विचार व्यक्त किये हैं। कई स्थानों पर उन्होंने परम्परागत विचारधारा को छोड़ कर नये सिद्धान्तों का प्रतिपादन किया है। इस के अतिरिक्त व्यापकता तथा विशालता में इस विषम पर लिखित कोई अन्य ग्रन्थ इस की तुलना में नहीं ठहर सकता । कौटिल्य के अर्थशास्त्र की रचना के पश्चात् किसी भी आचार्य ने इस विषय पर ग्रन्थ लिखने का साहस नहीं ii irt सभोगे क.
प्र म में स्वीका : है। शुक्रनीति तथा नीतिवान्यामत के अतिरिक्त जो भी ग्रन्थ अर्थशास्त्र के पश्चात् लिखे गये दे या तो अर्थशास्त्र के मुख्य मुख्य उद्धरणों का संकलन मात्र है अथवा उस के प्रतिपाद्य विषय का संक्षिप्त रूप से वर्णन करते हैं । अतः लगभग एक सहा वर्ष तक कोटिलोय अर्थशास्त्र की प्रधानता बनी रही और आज भी बनी हुई है। यह उस की उत्कृष्टता का प्रत्यक्ष प्रमाण है।
अर्थशास्त्र का प्रतिपाद विषय राज्य तथा उस के अन्तर्गत निवास करने वाली जनता का कल्याण है। राज्य की वृद्धि और संरक्षण तथा उस में निवास करने वालों की सुरक्षा तथा कल्याण किस प्रकार से हो सकता है, इन्हीं उपायों का वर्णन अर्थशास्त्र में प्रमुख रूप से किया गया है। अर्थशब्द का प्रयोग अर्थशास्त्र में एक विशिष्ट अर्थ में किया गया है। कौटिल्य के अनुसार मनुष्यों से युक्त भमि का ही नाम अर्थ है । इस भूमि को प्राप्त करने और रक्षा करने के उपायों का निरूपण करने वाला शास्त्र अर्थशास्त्र कहलाता है। अतः कौटिल्य ने अर्थशास्त्र शब्द का प्रयोग उसी अर्थ में किया है जिस पर्थ में प्राचीन आचार्यों ने दण्डनीति शब्द का प्रयोग किया। इस प्रकार दण्डनीति और अर्थशास्त्र में कोई भेद नहीं है । दोनों ही शास्त्र राज्य तथा उस को शासन
१. को अर्थ ० १.१।
पृथिव्या लाभ पालने च पायर्थशास्त्राणि पूर्वाचाय: प्रस्तावितान मशतानि संकमियमर्थ
शास्त्रं कृतम् । २. कौ० अ०१५.१५
मनुष्याणां त्तिरर्थः। मन यो भूमिरित्यर्थः । तस्याः पृथिव्या लाभपालनोपायः शास्त्रमार्थशारत्रमिति।
भारत में राजनीतिशास्त्र के अध्ययन की परम्परा
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व्यवस्था से सम्बन्ध रखते हैं। कौटिल्य ने एक स्थान पर लिखा है कि दण्डनीति अथवा अर्थशास्त्र अप्राप्य वस्तुओं को प्राप्त कराने, प्राप्त वस्तुओं की रक्षा करने तथा रक्षित वस्तु की वृद्धि कराने और वृद्धिगत वस्तु को सत्पात्रों में व्यय कराने में समर्थ है इसी विद्या के ऊपर संसार की उन्नति निर्भर है । दूसरे शब्दों में अर्थशास्त्र अथवा दीति उन उपायों का वर्णन करने वाला शास्त्र है जिन से समाज तथा विश्व का कल्याण हो सके ।
मन्त्रि-परिषद् का उन्होंने जनता के
अर्थशास्त्र का प्रमुख उद्देश्य शासन - कार्य में राजा का पथ-प्रदर्शन करना तथा शासन की मूल समस्याओं का समाधान करना हो है । युद्ध एवं शान्ति काल में शासन यन्त्र का क्या स्वरूप होना चाहिए, इस विषय का जैसा सांगोपांग वर्णन अर्थशास्त्र में होता है देया है। राजतन्त्र के पोषक होते हुए भी आचार्य कौटिल्य राजा की स्वच्छन्दता का समर्थन नहीं करते। वे राजा को निर्माण करने तथा उस के परामर्श से कार्य करने का आदेश देते हैं। पक्ष का सर्वत्र समर्थन किया है। उन की स्पष्ट घोषणा है कि प्रजा के सुखी रहने पर ही राजा सुखी रहता है और प्रजा का हित होने पर ही राजा का हित हो सकता है । जो राजा को प्रिय हो, वह राजा का हित नहीं है, अपितु प्रजा को जो प्रिय हो वही राजा का हित होता है । इस प्रकार कौटिल्य ने लोकहितकारी राज्य की पुष्टि की है । उन के अनुसार यह लोक कल्याण राजा के बिना सम्भव नहीं है । अतः राजा का होना अनिवार्य है । एक राजा कैसा होना चाहिए, उस में कौन-कौन से गुण अपेक्षित हैं, उस को किस प्रकार जितेन्द्रिय होकर शासन करना चाहिए इन सब बातों का विशद वर्णन अर्थशास्त्र में मिलता है। ग्राम के संगठन से लेकर स्थानीय, प्रान्तीय एवं केन्द्रीय शासन व्यवस्था का विस्तृत वर्णन इस ग्रन्थ में किया गया है। राजा को किन राज्यों से मित्रता, किन से उदासीनता तथा किन से शत्रुता करनी चाहिए, इस का भी उल्लेख अर्थशास्त्र में मिलता है। राज्य विस्तार तथा उस के संरक्षण के लिए युद्ध का होना भी सम्भव है । अत: इस विषय पर भी विस्तारपूर्वक प्रकाश डाला गया है। युद्ध कब किया जाये, किस प्रकार किया जाये, सेना और उस का संगठन, उस के प्रयोग के लिए सामग्री का निर्माण, विभिन्न प्रकार के दुर्गों का निर्माण, व्यूह रचना तथा युद्ध एवं कूटनीति सम्बन्धी नियमों का वर्णन विस्तारपूर्वक इस ग्रन्थ में किया गया है । इस प्रकार अर्थशास्त्र में अत्यन्त उच्चकोटि की शासन व्यवस्था का वर्णन मिलता है । इस में राजनीति से सम्बन्ध रखने वाली प्रायः सभी बातों पर प्रकाश डाला गया है । समस्त विश्व में अभी तक कोई एक ग्रन्थ ऐसा उपलब्ध नहीं हुआ है जिस में राज
९. वहीं १.४ ।
२. कौ० अर्थ १, ७ १.९५ ।
३. वही १.१६ ॥
प्रजाः सुखं राज्ञः प्रजानां च हिते हितम् । नारमप्रियं हितं राज्ञः प्रजानां तु प्रियं हितम् ॥
जीविका में राजनीति
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शास्त्र सम्बन्धी समस्त विषयों का इतना विशद एवं सारगर्भित विवेचन हुआ हो । कोटिल्य जैसा महान् राजनीतिक एवं कूटनीतिज्ञ अभी तक संसार में उत्पन्न हो नहीं हुआ ।
कौटिल्म राजनीतिके ज्ञाता ही नहीं राजनीति के एक प्रमुख सम्प्रदाय के संस्थापक भी थे। वे इस बात से भली-भांति परिचित थे कि लोक कल्याण के लिए केवल उत्तम शासन व्यवस्था ही पर्याप्त नहीं वरन् उस के लिए आर्थिक तथा सामाजिक व्यवस्था भी उतनी ही आवश्यक है। सुगठित सामाजिक तथा आर्थिक व्यवस्था स्थायी एवं सुदृढ़ राज्य की आधार शिला है। अतः जहाँ कौटिल्य ने आर्थिक नीति सम्बन्धी विषय का प्रतिपादन किया है वहाँ उन्होंने उन नियमों का भी उल्लेख किया है जिन से एक आदर्श तथा सुव्यवस्थित समाज की स्थापना सम्भव हो सकती है। समाज के दुर्गुण, असन्तोष तथा उस की शिथिलता सम्पूर्ण राज्य के लिए घातक सिद्ध हो सकती है । इसलिए कौटिल्य ने उन नियमों का भी प्रतिपादन किया है जिन से एक विशुद्ध एवं सुन्दर समाज की स्थापना हो सके और उस में निवास करने वाले व्यक्तियों की नैतिक तथा भौतिक उन्नति हो सके । उत्तम राजनीतिक संगठन तथा सामाजिक संगठन दोनों ही लोक कल्याण के लिए बहुमूल्य साधन हैं ।
अर्थशास्त्र का रचना काल
I
कौटिल्य के अर्थशास्त्र की तिथि के सम्बन्ध में विद्वानों में मतभेद है । भारतीय मन्त्री विष्णुगुप्त ने इस की रचना की थी। प्रयुक्त हुआ हूँ । * अन्य स्रोतों से यह भी (१३, १४) । अर्थशास्त्र के अन्तः साक्ष्य
3
थे
रचयिता मौर्य सम्राट् चन्द्रगुप्त मौर्यकाल में ही रचा गया ।
के
परम्परा के अनुसार मौर्य सम्राट् चन्द्रगुप्त के अर्थशास्त्र में उन के लिए कौटिल्य नाम भी ज्ञात होता है कि उन को चाणक्य भी कहते तथा बहिःसाक्ष्यै दोनों से ही यह सिद्ध होता है कि इस के गुरु एवं प्रधान मन्त्री कौटिल्म ही थे और यह ग्रन्थ चन्द्रगुप्त मौर्य का शासनकाल ३२१ अथवा ३२३ ई० पूर्व प्रारम्भ होता है । मतः अर्थशास्त्र का रचनाकाल भी इसी तिथि के समीप मानना न्यायसंगत होगा । अर्थशास्त्र के १५वें अधिकरण में लिखा है कि जिस ने शास्त्र, शस्त्र और नन्द राजाओं से भूमि का उद्धार किया, उसी विष्णुगुप्त ने यह अर्थशास्त्र बनाया है । अन्य प्राचीन ग्रन्थों से भी इस बात की पुष्टि होती है कि कौटिल्य नध्दवंश का अन्त करने वाला तथा चन्द्रगुप्त मौर्य को मगध के सिंहासन पर आसीन कराने वाला व्यक्ति था और उसी ने अर्थशास्त्र की
I
. काँ० अर्थ ० २.१ ।
१.
शास्त्राण्यनुकाय प्रयोगमुपलभ्य ।
कौटियेन नरेन्दार्थं शासनस्य विधिः कृतः ।
२. कौ० अ० १५.१ ।
३. कामन्दक नीतिकार १, ६
४. कौ० अर्थ ० १५० १
भारत में राजनीतिशास्त्र के अध्ययन की परम्परा
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।
रचना की थी। इन ग्रन्थों में अर्थशास्त्र के उद्धरण भी मिलते हैं। अर्थशास्त्र का रचना काल ई० पू० ३०० निर्णीत हुआ है।
डॉ. जॉली, विन्टरनिस्स सथा कीथ अर्थशास्त्र को मौर्य सम्राट चन्द्रगुप्त के प्रधानमन्त्री कौटिल्य की कृति नहीं मानते। डॉ. जायसवाल ने डॉ० जॉली तथा उन सभी, विद्वानों के लकों का अत्यन्त पाण्डित्यपूर्ण उत्तर दिया है और यह सिद्ध किया है कि इस प्रन्थ की रचना ३०० ६० पू० में हुई थी और कौटिल्य अथवा विष्णुगुप्त मौर्य सम्राट चन्द्रगुप्त के मन्त्री थे। डॉ० श्यामशास्त्री, गणपतिशास्त्री, डी० आर० भण्डारफर आदि विद्वानों ने सप्रमाण सिद्ध किया है कि अर्थशास्त्र मौर्यकालीन रचना है। श्री पी० पी० काणे ने भी अर्थशास्त्र का रचना काल ई० पू० ३०० ही माना है। उन्होंने यह भी लिखा है कि अभी तक कोई ऐसा प्रमाण उपस्थित नहीं हुआ है जिस के आधार पर अर्थशास्त्र की तिथि इस के पश्चात् निर्धारित की जाय । अतः किसी नवीन सर्क भयधा पर्याप्त प्रमाण की अनुपस्थिति में उक्त विद्वानों के मतानुसार अर्थशास्त्र का रचना काल ३०० ई० पू० मानना सर्वथा उचित है। नीतिसार
कौटिल्य के पश्चात कामन्दक ने अपने ग्रन्थ नीतिसार की रचना की 1 कामन्दक का नीतिसार शुद्ध राजनीति प्रधान ग्रन्थ है। यद्यपि इस ग्रन्थ की रचना कौटिलीय अर्थशास्त्र के आधार पर ही की गयी है, किन्तु फिर भी राजनीति के क्षेत्र में इस का अपूर्व महत्त्व है। अर्थशास्त्र के आधार पर इस की रचना होने के कारण ही कुछ विद्वान् इसे अर्थशास्त्र का संक्षिस रूप भी कहते हैं। इस ग्रन्थ का रचना काल छठी शताब्दी माना जाता है । अर्थशास्त्र को समझने में नीतिसार से बहुत सहायता मिलती है। इस ग्रन्थ में बहुत से पारिभाषिक शब्दों, जिन का प्रयोग कोटिलीय अर्थशास्त्र में हुवा है, को सरल एवं सारभित व्याख्या की गयी है। कौटिल्य का अर्थशास्त्र प्रायः गद्य में है और उस की रचना में सूत्र पद्धति का प्रयोग किया गया है, किन्तु नोतिसार श्लोकबद्ध है। कामन्दक ने अपने गुरु विष्णुगुप्त का ऋण स्वीकार किया है और कई श्लोकों में उन की प्रशंसा की है । वे लिखते हैं कि जिस ने दान न लेने वाले उत्तम कुल में जन्म लिया और जो ऋषियों की तरह इस भूमण्डल में प्रसिद्ध हुआ, जो अग्नि के समान तेजस्वी था और जिस ने एक वेद के समान चारों वदों का अध्ययन किया १. विष्णु पुराण ४, २४, २६-२८ । २.डॉ० जोली-इन्ट्रोडक्शन टु अर्थशास्त्र, __ काँथ-हिस्ट्री ऑफ़ संस्कृत लिटरेचर, पृन ४५८ । ३. डॉ० के० पी० जायसवाल-हिन्दू पॉलिटी, परिशिष्ट 'सो'। १. पीय बी० करणे-हिस्ट्री ऑफ़ धर्मशास्त्र, मान्यूम १, पृ. १०४ । ५. डॉ० श्यामशास्त्री-अर्थशास्त्र की भूमिका ।। सच यशोधरमहाराजामकालेन-तदपि कामन्दकीयमिव कौटिलीय शास्त्रात्र संघिय हतमिति
नीतिवाक्यामृत में राजनीति
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था। वज' के समान प्रज्वलित तेजवाले जिस के अभिषार बन से श्रीमान् सुन्दर पर्व वाला मन्दवंश रूपो पर्वत समूल नष्ट हो गया । जो कार्तिकेय के समान पराक्रमशोल था और जिस ने अकेले ही अपनी मन्त्रशक्ति के द्वारा नृपचन्द्र चन्द्रगुप्त के लिए पृथ्यो का आहरण किया। जिस ने अर्थशास्त्रस्पी महोदधि से नीतिशास्त्ररूपी अमृत का उधार किला, स ब्रह्मस्व विगुल वे लिए RTEर है।'
इस प्रकार कामन्दक ने विष्णुगुप्त के प्रति अपना आभार प्रदर्शित किया है । कामन्दक का अध्ययन विशाल था। उन्होंने अपने ग्रन्थ में विशालाक्ष, पुलोमा, यम आदि राजशास्त्र प्रणेताओं के मतों का उल्लेख किया है । उन के ग्रन्थ में राजनीति का विशद विवेचन हा है। कामन्दक राज्य के सप्तांग सिदान्त में विश्वास रखते हैं। उन के अनुसार स्वामी, अमात्य, राष्ट्र, दुर्ग, कोश, बल तथा सुहृद् राज्य के अंग है । ये अंग एक दूसरे के सहायक है। उन्होंने राज्यांगों में राष्ट्र को बहुत महत्त्व प्रदान किया है । इस विषय में वे लिखते हैं कि राज्य के सम्पूर्ण अंगों का उद्भव राष्ट्र से ही हुआ है, अतः राजा सभी प्रयत्नों से राष्ट्र का उत्थान करे। जिस प्रकार यज्ञ में ऋषियों द्वारा की गयी हिंसा हिंसा नहीं मानी जाती, उसी प्रकार राजा द्वारा दुष्टों का निग्रह करने से उने पाप नहीं लगता, अपितु महान धर्म की प्रासि होती है। धर्म की सुरक्षा के लिए राजा अर्थ की वृद्धि करे। इस कार्य में प्रजा के जो व्यक्ति बाधक हों उन्हें दण्डित करें। वेद और शास्त्रों के विद्वान् जिस कार्य को प्रशंसा करें वह धर्म है और वे जिस की निन्दा करें वह अधर्म है। धर्म और अधर्म का ज्ञान प्राप्त करता हुआ राजा सज्जनों के प्रति स्नेह प्रदर्शित करे, उन को रक्षा करे तथा शत्रुओं का बध कर डाले। राज्य की प्रकृत्तियों के विषय में भी कामन्दक ने प्रकाश डाला है ! उन का कथन है कि राजशास्त्र के ज्ञासाओं ने अमात्य, राष्ट्र, दुर्ग, कोश और द०६ को विजिमाषु की प्रकृति बतलाया है। उन्होंने राजा को न्यायपूर्वक व्यवहार करने का आदेश दिया है। उन का कथन है कि यदि राजा न्याय के पथ का अनुसरण करता है तो उस को एवं उस की प्रजा को धर्म, अर्थ और काम की प्राप्ति होती है और मदि वह इस के विपरीत आचरण करता है तो इन का विनाश होता है।
१. कामन्दक नीतिसार १, २-६। २. कामन्दक गीतिसार ४,१स्वाम्पमाल्यश्च राष्टं च दुर्ग कोशौ मल मुहत । परस्परोपकारी सप्ताम' राज्यमुच्यते । ३. वही ६,३। ५. कही -८। १.कामन्दक-गीतिसार ८,४अनाधिराएगात शो दण्डश्च पञ्चमः ।
एता प्रकृतलरतज विजिगोषोरुराहताः । ॥ ६. वही १, ११1
मारत में राजनीतिशास्त्र के अध्ययन की परम्परा
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कामन्दक ने अन्तर्राष्ट्रीय सम्बन्धों के विषय में भी विस्तार पूर्वक प्रमाणा गाला है। उन्होंने दूत एवं चरों का भी वर्णन किया है । वन के अनुसार दूर तीन प्रकार के होते है, निस्वार्थ, परिमिताथं अपवा मितार्थ और शासनहारक।' परों के विषम में वे लिखते हैं कि पार ( चर ) रानामों के नेत्र के समान होते है । राजा को उन्हीं के द्वारा देखना चाहिए । जो उन की आँखों से नहीं देखता वह समतल भूमि पर भी ठोकर खाता है क्योंकि चारों के बिना वह अन्धा है। जिस प्रकार मात्विक सूत्रों के अनुसार कार्य करता रहता है उसी प्रकार राजा को भी चारों के परामर्श से ही राजकार्य करना चाहिए। कामन्दक ने मण्डल सिद्धान्त की ज्यास्या बड़े विस्तार के साथ की है और उन्होंने भी कौटिल्य की भांति १२ राज्यों का माल माना है। कामन्दक तीन शक्तियों के सिद्धान्त में भी विश्वास रखते है। उन्होंने मी उत्साक्ति, प्रभुशक्ति एवं मन्त्रशक्ति का उल्लेख किया है। कामन्दक ने कौटिस्य को भौति ही अनेक प्रकार की सन्धियों का खल्लेख नीतिसार के ९३ सर्ग में किया है।
इस प्रकार हम देखते हैं कि नीतिसार भी राजनीति का एक महत्वपूर्ण अन्य है । मौलिक रचना न होते हुए भी वह अपने लंग का भपूर्व एवं प्रामाणिक प्रय है। नौतिवाक्यामृत
कामन्दक के पश्चात आचार्य सोमदेव ने ही शब राजनीति प्रषाम अभ्य का सृजन किया । सोमदेव का नीतिवाक्यामृत अर्थशास्त्र की कोटि का ही प्राय है, जिस में राजशास्त्र के समस्त अंगों पर पूर्ण प्रकाश डाला गया है। यद्यपि यह अन्य कलेवर में कौटिलीय अर्थशास्त्र की अपेक्षा लघु है, किन्तु रचनाशली में यह उस की अपेक्षा सुन्दर है। इस के अध्ययन में मधुर कास्य के समान आमन्द प्राप्त होता है। सोमवेष को सुन्दर वर्णनशैली के कारण ही उन के अन्य में राजनीति की शुष्कता महीं आने पायी है । गम्भीर एवं विस्तृत वर्णन को सोमदेव ने सरल एवं पोधे शब्दों में ही व्यक्त कर दिया है।
____ आचार्य सोमदेव एक व्यावहारिक राजनीतिश । जम्होंने युद्ध एवं शान्तिकाल में राजा के सम्मुख उपस्थित होने वाली समस्याओं और उन के समाधान का विशद विवेचन किया है। उन्होंने समाजशास्त्र एवं रामशास्त्र दोनों का हो विवेचन नीतिवाक्यामृत में किया है। उन्होंने ऐसे सिद्धान्त्र निर्धारित किये हैं जिम से समाज एवं
१. कामन्दक नीतिसार १३, ३।। २. नहीं-१६, ३१, तथा ३१ । वार चक्षुनरेन्द्रस्तु रांपतेत तेन भयमा । अनेनासंपतच मावि पदत्यन्धः समेऽपि हि । चरेण प्रचरेवाज्ञः सूत्रवि गिलावरे । दूते संधानगारान्त परे चर्चा प्रतिष्टिता । 3. कामन्दक नीतिसार ८,२०-११ । ४, वही-१,३२।
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मीतिचापयामृत में राजनीति
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राज्य दोनों की ही उन्नति एवं विकास सम्भव हो सके नीतिवाक्यात में अन्तर्राष्ट्रीय सम्बन्धों पर भी विशद विवेवम हुआ है। षाड्गुण्यतीति का चित्रण अर्थशास्त्र के समान ही किया गया है । सोमदेव के यशस्तिलक चम्पू महाकाव्य के तृतीय आश्वास में भी राजनीति का विशद वर्णन प्राप्त होता है। नीतिवाक्यामृत तथा यशस्तिलक के अध्ययन से सोमदेव की महान् राजनीतिज्ञता प्रकट होती है ।
डॉ० श्यामशास्त्री नीतिवाक्यामृत को नीतिसार के समान ही कौटिलीय अर्थशास्त्र का संक्षिप्त रूप मानते है। उन के इस कथन का आधार नीतिवाक्यामृत के सूत्र, वाक्यविन्यास एवं रचनाशैली है । अतः वे इस ग्रन्थ को एक मौलिक रचना स्वीकार नहीं करते । डाँ० श्यामशास्त्री के इस कथन से हम सहमत नहीं हैं । कामन्दक के नीतिसार की भाँति नीतिवाक्यामृत को भी कौटिलीय अर्थशास्त्र का संक्षिप्त रूप मानना सोमदेव के महान् आचार्यत्व एवं उन को बहुमुखी प्रतिभा की उपेक्षा करना ही होगा । यद्यपि दोनों ही ग्रन्थों में कुछ स्थलों पर समानता दृष्टिगोचर होती है, किन्तु इस आधार पर नीतिवाक्यामृत को अर्थशास्त्र का संक्षिप्त रूप नहीं माना जा सकता । कौटिल्य ने जिस प्रकार प्राचीन आचार्यों द्वारा विरचित अर्थशास्त्रों का संग्रह कर के अपने अर्थशास्त्र की रचना की थी उसी प्रकार सोमदेव ने भी लगभग उन्हीं ग्रन्थों के आधार पर नीतिवाक्यामृत की रचना की और उन ग्रन्थों के साथ ही अर्थशास्त्र को भी नीतिवाक्यामृत की रचना का आधार बनाया। जब वोनों ग्रन्थों की रचना पूर्वाचार्यों के ग्रन्थों के आधार पर की गयी है तो उन में कुछ साम्य दृष्टिगोचर होने पर कोई आश्चर्य को बात नहीं। इस अपार पर पन्थको का संदेश रूप नहीं
माना जा सकता ।
प्राचीन साहित्य का प्रभाव सभी लेखकों पर पड़ता है । जो विचार पूर्वाचार्यो द्वारा प्रतिपादित कर दिये जाते हैं उन को स्वीकार करना उन आचायों के गौरव को बढ़ाना है । इसी सिद्धान्त के आधार पर कौटिल्य एवं सोमदेव ने पूर्ववर्ती साहित्य के सार को ग्रहण किया है और उस के साथ ही अपने मौलिक विचारों एवं नवोन अनुभव का समावेश भी किया है। जिस प्रकार आचार्य कौटिल्य ने 'इत्याचार्या" कहकर 'इतिकौटिल्या' के द्वारा अपना स्वतन्त्र मत व्यक्त किया है उसी प्रकार आचार्य सोमदेव ने भी अपने मौलिक विचार प्रकट किये हैं । तोतिवाक्यामृत में लेखक की स्वतन्त्र प्रतिमा एवं मौलिकता के दर्शन सर्वत्र होते हैं। सोमदेव ने अपने समय में उपलब्ध प्राचीन नोति साहित्य का गम्भीर अध्ययन किया था और उन्होंने उस का प्रयोग अपने ग्रन्थ की रचना में किया। जिस प्रकार पूर्वाचार्यों का परिष्कृत स्वरूप कोटिल्य के अर्थशास्त्र में प्रकट
१. डॉ० रामशास्त्री, कौटिलीय अर्थशास्त्र की भूमिका
मन्ध यशोधर महाराज समकालेन सोमदेवसूरिया नीतिवाक्यामृतं नाम नीतिशास्त्र वित कामन्दकी कोटिलो मार्थशास्त्रादेव सक्षिप्य संगृहीतमिति तद वाक्यशैली परीक्षायां निस्संशयं ज्ञायते ।
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हुआ है उसी प्रकार नीतिवाक्यामृत में भो अपने पूर्ववर्ती समस्त आचार्यो का परि भाजित रूप प्रतिलक्षित होता है। कौटिलीय अर्थशास्त्र की भाँति नीतिवाक्यामृत मी एक मौलिक ग्रन्थ है । >
उपर्युक्त समीक्षा के माषार पर प्राचीन राजशास्त्र प्रणेताओं में सर्वप्रथम स्थान आचार्य कौटिल्य को तथा द्वितीय स्थान आचार्य सोमदेव सूरि को प्रदान किया जा सकता है । सोमदेव से पूर्ववर्ती होने पर भी नीतिशास्त्र की रचना के क्षेत्र में आचार्य कामन्दक का स्थान तृतीय सिद्ध होता है' ।
1
९. की० अर्थ, १.१ -
पृथिव्याला भे पालने च सावन्यर्थशास्त्राणि पूर्वाचार्यः प्रस्तावितानि प्रास्तानि मर्थशास्त्रं कृतम् ॥
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सोमदेवमूरि और उन का नीतिवाक्यामृत
राजशास्त्र के प्रसिद्ध ग्रन्थ नोतिवाक्यामत के रचयिता श्रीमत्सोमदेवसरि दिसम्बर सम्प्रदाय में प्रसिद्ध देवसंघ के आचार्य थे । आचार्य प्रवर के प्रमुख ग्रन्छ यशस्तिलक तथा नीतिवाक्यामृल के अध्ययन से उन को गुरु-परम्परा एवं समय के विषय में यशस्तिलकचम्पू, लेमुलवाड दानपत्र तथा राष्ट्रकूट नरेश कृष्ण तृतीय के ताम्रपत्र से पर्याप्त जानकारी मिलती है । ययास्तिलक की प्रशस्ति के अनुसार सोमदेव के गुरु का नाम नेमिदेव तथा नेभिदेव के गुरु का नाम यशोदेव या। सोमदेव के गुरु नेमिदेव महान् दार्शनिक थे और उन्होंने शास्त्रार्थ में तिरानबे महावादियों को पराजित किया था। नीतिवाक्यामृत को प्रशस्ति के अनुसार सोमदेव थोमहेन्द्रदेव भट्टारक के कनिष्ठ म्राता थे और उन्हें अनेक गोरवसूचक उपाधियाँ प्राप्त थी, जिन में स्यावादकालसिंह, ताकिक चक्रवर्ती, वादीमपंचानम, वानकल्लोलपयोनिथि आदि प्रमुख है। सोमदेव के माता महेन्द्रदेव भट्ठारक भी उद्भट विद्वान् थे, जैसा कि उन की उपाधि वादीलकालानल से प्रकट होता है।
लमूलवाडदानपत्र से भी सोमदेव के सबन्ध में कुछ ज्ञान प्राप्त होता है। इस दानपत्र में आचार्यप्रवर के विषय में यह वर्णन मिलता है-श्री गोड़संघ में यशोदेव नामक आचार्य हुए जो मुनिमान्य थे और जिन्हें उग्रतप के प्रभाव से जैन शासन के देवताओं का साक्षात्कार था । इन महान धुचि के धारक महानुभाव के शिष्य नेमिदेव हुए जो स्याद्वादसमुद्र के पारदर्शी थे और परवादियों के दर्परूपी वृक्षों के उम्छेदन के लिए कुठार के समान थे। जिस प्रकार खान में से अनेक रत्म निकलते है उसी प्रकार
१. यशाया० २.० ४१८...
श्रीमानस्ति स दे पसंघतिनको वेनी यशःपूर्वकः शिष्यस्तस्य बभूव सद्गुणनिधिः श्रीनेमिनाजः। तस्याश्चर्मतपः स्थिरो स्थनवतेतुम हमादि शिम्योऽदिह शामदेव इति परस्मैप काम्पकमः ॥ मोतिवाकनामत को प्रशस्त में गजित महावानियों को संख्या पचपन है..-पञ्चपञ्चाशन्महावादि
विजयोपाजितकीर्तिमन्दाकिनीपविभिनत्रिभुवनस्य. परमलपश्चरणरत्नहन्मतः श्रीमन्नेमिदेवभगवतः २. नोतित्रानामृत को प्रशस्ति. पृ१०, ३. वहीं-वादन्द्रकालानल श्रीमन्महेन्ददेव भट्टारकान्जेन४. यह दानपत्र हैदराबाद स्थित परभण: नामक स्थान से प्राप्त हुआ है और भारत इतिहास संशोधक पत्रका १३/३ में प्रकाशित हुआ है। इस की भाषा संस्कृत है।
सोमदेवसूरि और उन का नीसिवाक्यामृत
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उन तपोलक्ष्मीपति के बहुत से शिष्य हुए। उन में संकड़ों से छोटे श्रीसोमदेव पण्डित हुए जो तप, शास्त्र और यश के स्थान थे । ये भगवान् सोमदेव समस्त विद्याओं के दर्पण, यशोधरचरित के रचयिता, स्याद्वादोपनिषत् के कर्ता तथा अन्य सुभाषितों के भी रचयिता है। समस्त महासामन्तों के मस्तकों की पुष्पमालाबों से जिन के चरण सुगन्धित हैं, जिन का यशकमल सम्पूर्ण विद्वज्जनों के कानों का आभूषण है और सभी राजाओं के मस्तक जिन के चरणकमलों से सुशोभित होते हैं।
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उपर्युक्त दानपत्र के वर्णन से स्पष्ट है कि सोमदेव के गुरु नेमिदेव थे, जो महान् दार्शनिक थे, उन के अनेक शिष्यों में से सोमदेव भी एक थे, जो महान् पण्डित और निविध शास्त्रों के ज्ञाता थे। उन की अपूर्व प्रतिभा से सम्राट् तथा सामन्त सभी प्रभादिन से और उन के भरथे
मुलवादानपत्र में सोमदेव के दादागुरु यशोदेव को गोड़संघ का आचार्य बसलाया गया है, किन्तु यशस्तिलक की प्रशस्त्रि के अनुसार वे देवसंघतिलक या देवसंघ के आचार्य थे । इस प्रकार मुलवादानपत्र एवं यशस्तिलक को प्रशस्ति के वर्णनों में कुछ भेद दृष्टिगोचर होता है। इस सन्देह का निवारण करते हुए श्री नाथूराम प्रेमी लिखते हैं कि गोड़संघ अभी तक बिलकुल ही अश्रुतपूर्व है। जिस प्रकार आदिपुराण के कर्ता जिनसेन का सेनसंध या सेनान्वय पंचस्तूपान्वय भी कहलाता था, शायद उसी तरह खोमदेव का देवसंघ भी गौड़संघ कहलाता हो । सम्भवतः यह नाम देश के कारण पड़ा हो । जैसे द्रविड़ देश का द्रविड़संघ, पुन्नाट देश का पुन्नाटसंघ, मथुरा का माथुरसंघ उसी प्रकार गौड़ देश का यह गौसंघ होगा : गौड़ बंगाल का पुराना नाम हूँ | जस गौड़ से तो शायद इस संघ का कोई सम्बन्ध न हो, परन्तु दक्षिण में हो गोल, गोल्ल या गौड़ देश रहा है, जिस का उल्लेख श्रवणबेल गोल के अनेक लेखों ( १२४, १३०, १३८, ४९१ ) में मिलता है । गोल्लाचार्य नाम के एक माचार्य भी हुए हैं जो वीरनन्दि के शिष्य थे और पहले गोल्ल देश के राजा थे नहीं होता इसलिए गोल और गौड़ को एक मानने में कोई आपत्ति नहीं
।
है ।
र लन्ड में भेद
५
सोमदेव को शिष्य परम्परा के सम्बन्ध में भी कुछ ज्ञात नहीं है । यशस्तिलक
3
के टीकाकार श्रुतसागर सूरि ने वादिराज और वादीभ सिंह को सोमदेव का शिष्य बतलाया है । किन्तु टीकाकार ने यह स्पष्ट नहीं किया कि सोमदेव ने किस ग्रन्थ में वादिराज और वादीभसिह को अपना शिष्य बलाया हूं। उपर्युक्त विद्वानों को सोमदेव का शिष्य मानना युक्तिसंगत प्रतीत नहीं होता, क्योंकि यशस्तिलक एवं नीतिवाक्यामृत
१४
१. मुलमादानपत्र, लोक १५-१८ ।
२. पं० नाथूराम प्रेमी जैन साहित्य और इतिहास पृ०
३. यशस्तिलल को टीका
२, पृ० २६
समादिराजोऽपि श्राचार्यस्य शिष्यः ॥ वादीभ सोऽपि मदीयशिष्यः, श्रीवादिराजोऽषि मदीशिभ्यः इत्युक्तत्वाच्च ।
नीतिवाक्यामृत में राजनीति
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में कहीं भी इस प्रकार का वर्णन उपलम्प नहीं होता। इस के अतिरिक्त यशस्तिलक का रचना काल शकसंवत् ८८१ है और वादिराज के अन्य पार्श्वनाथ चरित का रचना काल शकसंवत् १४७ है। इस प्रकार दोनों ग्रन्थों के रचना काल में ६६ वर्ष का अन्तर है । ऐसी स्थिति में उन का गुरु-शिष्य का सम्बन्ध किसी भी प्रकार से सम्भव नहीं माना जा सकसा । वाविराज ने पार्श्वनाथचरित में अपने गुरु का नाम मतिसागर लिखा है। मतिसागर द्रविडसंघ के आचार्य थे । वादीसिंह ने भी अपने ग्रन्थ गद्यचिन्तामणि में अपने गुरु का नाम पुष्पर्षण लिखा है और पुष्पर्षण को अकलमदेव का गुरुभाई माना जाता है। अतः उन का समय सोमदेव से बहत पूर्व बैठता है। इस प्रकार वादिराज एवं वादीभसिंह को सोमदेव का शिष्य स्वीकार नहीं किया जा सकता ।
.
नोसिवाक्यामृत का रचनाकाल
नीतिवाक्यामृत की गद्यप्रशस्ति से इस बात का कोई आभास नहीं मिलता कि इस ग्रन्ध की रचना कब और कहां हई। किन्तु यशस्तिलक को पचप्रशस्ति में इस महाकाव्य की रचना के स्थान एवं समय का स्पष्ट वर्णन मिलता है, जो कि नीतिवाक्यामृत के रचनाकाल एवं स्थान का ज्ञान कराने में महोपयोगी है। प्रशस्तिलक की प्रशस्ति का आशय इस प्रकार है-'शकसंवत् ८८१ (वि० संबत् १०१६ ) में पाट्य, सिंहल, चोल तथा चर आदि देशों के रामानों पर विजय प्राप्त करने वाले महाराजाबिमाज श्रीकुरु माग में मामाज्या संभाल रहे थे तब उन के चरणकमलोपजीवी सामन्त अदिग, जो कि चालुक्य नरेश अहिकेशरी के प्रथम पुत्र थे, गंगाघारा में राज्य कर रहे थे, तब यह यशस्तिलक चम्पमहाकाव्य सिद्धार्थ नामक संवत्सर में चैत्रमास की मदनत्रयोदशी के दिन सम्पूर्ण हमा। सोमदेव के इस कथन की पुष्टि करहद्ध ताम्रपत्र से भी होती है, जिसे महान राष्ट्रकुट सम्राट् कृष्ण तृतीय ने ९ मार्च, सन् ९५९ ६० को प्रसारित किया था ।" यह आशा-पत्र यशस्तिलक की समाप्ति से कुछ समाह पूर्व प्रसारित किया गया था। इस ताम्र-पत्र में एक शैव सन्यासी को प्राम-दान का उल्लेख है। उस समय राष्ट्रकूट सम्राट् कृष्ण तृतीय का निवास मेलपाटी में हो था और वहीं पर उन्होंने ताम्र-पत्र में उल्लिखित ग्रामदान की आज्ञा प्रसारित की थी।
१. ५० नाथूराम प्रेमो-नीतिवाक्यामृत की भूमिका, पृ०६। २. वही। ६. यश, बा .भा०२. ४१ । "शकनृपकालातीतपिरसरशते-जनस्वकाशीत्यधिकेषु गतेषु अतः ( ८८१) सिक्षार्थ मल्सरा'तर्गत प्रमाममदनत्रयोदश्यां पाइप-सिंहल-चोल-चेरमप्रभृतीन्महीपतीन्प्रसाध्य भेलपाटी प्रबंधमान राज्यभावे वीकृष्णाराजदेवे सति तत्पादपमोपजीविनः समधिगत रकमहाशब्दमहासामन्त धपतेचालुमाकुलजन्मनः सामन्तचुमानगे' श्रीमदरकेसारगः, प्रथमपुत्रस्य श्रीमद्प्प गराजरयन प्रवर्णमानवमुधारामा हाभागमा विनिर्मापितमिदं काञ्चमिति।" 8. Epigraphia larica, l'ol. IV, Parts V1 & VU, T, 278.
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सोमदेवर्षि और उन का भौतिवाक्यामृत
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यशस्तिलक में सोमदेव ने भी चैत्रशुदी त्रयोदशी शकसंवत् ८८१ को कृष्णराज तृतीय का निवास मेलपाटी में ही व्यक्त किया है। इस से यह सिद्ध होता है कि मेलपाटी राष्ट्रकूट सम्राट् कृष्ण तृतीय का कुछ समय तक सैनिक शिविर अवश्य रहा था ।
कृष्ण तृतीय के मेलपाटी शिविर का वर्णन पुष्पदन्त के महापुराण में भी मिलता है । इस ग्रन्थको रचना ९५९ ६० में प्रारम्भ हुई तथा १६५ ई० में यह प्रन्थ समाप्त हुआ । पुष्पदन्त के पाटी वर्णन एवं कृष्ण तृतीय के दक्षिणी राज्यों की विजयों के उल्लेख से भी सोमदेव के कथम की पुष्टि होती है ।
ન
२
मुलवाडदानपत्र में भी कृष्ण तृतीय का उल्लेख महान् सम्राट् के रूप में किया गया है और चालुश्य राजाओं को उन का महासामन्त बतलाया गया है । ऐतिहासिक विवरण से भी उपर्युक्त दानपत्र के वर्णन को पुष्टि होती है। दक्षिण के इतिहास के अवलोकन से ज्ञात होता है कि कृष्णराजदेव राष्ट्रकूट वंश के सम्राट् थे और यह अमोघवर्ष तृतीय के पुत्र थे । कृष्णराज तृतीय का सिंहसनारोहण काल ९३९६० माना गया है। इन की राजधानी मान्यखेट थी । कृष्णराज तृतीय की राजधानी एवं राज्यकाल की पुष्टि हिस्ट्री ऑफ़ कनारी लिटरेचर के लेखक के इस वर्णन से भी होती है - पोश कवि को उभयभाषाविचक्रवर्ती को उपाधि से विभूषित करने वाले राष्ट्रकूट सम्राट् कृष्णराजदेव ने मान्यखेट में ९३९ ई० से ९६८ ई० तक राज्य किया। स्व० पं० नाथूराम प्रेमी ने लिखा था कि मान्मखेट का ही प्राचीन नाम मेलपाटी होगा,
जिसे सोमदेव ने
राजदेव की राजधानी बतलाया है। अब जो तथ्य सामने आये हैं उन से निश्चित हो चुका है कि ये दोनों स्थान भिन्न-भिन्न है, एक ही स्थान के दो नाम नहीं हैं 1 मान्यखेट राष्ट्रकूट सम्राट् कृष्णराजदेव की राजधानी यो तथा मेलपाटी वह स्थान है जहाँ पर कृष्णराजदेव ने अपने सैनिक अभियान के समय अपनी विजयी सेवाओं के साथ कुछ समय के लिए अपना सैनिक शिविर स्थापित किया था। करहृद ताम्रपत्र में उल्लि खित शेव संन्यासी को दिये गये ग्रामदान की आज्ञा का प्रसारण मेलपाटी में हो किया गया था। मेलपाटी ( मेलपाडी ) उत्तरी अरकाट जिले में स्थित है" जब कि मान्यखेट भूतपूर्व निजाम रियासत में वर्तमान मालखेड का हो प्राचीन नाम है ।
अतः यह कथन उपयुक्त नहीं कि मान्यखेट का ही प्राचीन नाम मेलपाटी होगा सोमदेव राष्ट्रकूट सम्राट् कृष्णर राजदेव के समकालीन थे। उन्होंने यशस्तिलक को
१. K. K. Handirgule - Yasastilaka and Indian Culture, Ch. I, P. 3. २. लैपुलानपत्र -
स्वस्तस्य कालवर्ष देवीपुथिवीवल्लभमहाराजाधिराजपरमेश्वर परम भट्टार कभी मदमोघवर्ष देशपादानृध्यात - मानविजयश्री कृष्ण राजदेवरादयोपजीविनर |
नाथुराम प्रेमी नोतित्राभ्यामृत की भूमिका, पृष्ठ १६ ।
४. मड़ी।
k. Epigraphia Indica, Val, 1V, Parts VI and VII, P, 28!,
६. डॉ० रमाशंकर त्रिपाठी, प्राचीन भारत का इतिहास ६० ३०५ ॥
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क्यामृत में राजनीति
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C.
रचना राष्ट्रकूट सम्राट् की राजधानी मान्यलेट में नहीं को, अपितु उन के अधीनस्थ महा सामन्त बद्दिग की राजधानी गंगाधारा में की थी । चालुक्यवंश के राजा अरिकेसरी की वंशावली का उल्लेख कन्नड़ भाषा के प्रसिद्ध कवि पम्प ने अपने ग्रन्थ भारत ( विक्रमार्जुन विजय ) में किया है। पम्प अरिकेसरी का समकालीन था और उसे बालुवयमरेश का संरक्षण प्राप्त था । पम्प की रचनाओं से प्रभावित होकर बरिकेसरी ने धर्मपुर नामक ग्राम उस को दानस्वरूप दिया था । पम्प ने अरिषेसरी की वंशावली का उल्लेख इस प्रकार किया है— युद्धमल्ल, अरिकेसरी, नारसिंह, युद्धमल्ल, बद्दिग, युद्धमल्ल, नारसिंह, अरिकेसरी ।
उक्त ग्रन्थ शकसंवत् ८६३ ( विक्रम संवत् ९९८ ) में समाप्त हुआ, अर्थात् यह यशस्तिलक से कोई १८ वर्ष पूर्व रचा जा का था। इस की रचना के समय अरिंकेसरी राज्य करता था, तब उस के १८ वर्ष पश्चात् यशस्तिलक की रचना के समय उसका पुत्र राज्य करता होगा, यह सर्वथा ठीक जंचता है, ऐसा श्री नाथूराम प्रेमी का विचार है ।
२
हैदराबाद स्थित परभणी नामक स्थान से प्राप्त ताम्रपत्र में भी राष्ट्रकूट सम्राटों के अधीनस्थ चालुक्य वंशीय सामन्त राजाओं की वंशावली का उल्लेख मिलता है। यह ताम्रपत्र ९६६ ६० का है । इस में दी हुई चालुक्य वंशावली पम्प के भारत में वर्णित वंशावली से बहुत कुछ मिलती है जो इस प्रकार है
युद्धमल्ल प्रथम — अरिकेसरी प्रथम - नरसिंह प्रथम ( + मद्रदेव ) - पुद्धमल्ल - द्वितीय-गि प्रथम (जिस ने भीम को परास्त किया तथा बन्दी बनाया ) - युद्ध - मल्ल तृतीय - नरसिंह द्वितीय-अरिकेसरी द्वितीय ( जिस का विवाह लोकाभित्रका नाम की राष्ट्रकूट वंश की राजकुमारी से हुआ था ) भद्रदेव अरिकेसरी तृतीय- चद्दिग और अरिकेसरी चतुर्थ |
परभणी दान-पत्र से प्रकट होता है कि अरिकेसरिन द्वितीय के पश्चात् उस का पुत्र भद्रदेव ( बद्दिग द्वितीय ) सिंहासनारूत हुआ । इस में यह भी उल्लेख मिळता हैं कि अरिकेसरी तृतीय के पिता का नाम बगि था । यदास्तिक चम्पू को पद्यप्रदास्ति में सोमदेव ने स्वयं लिखा है कि उन्होंने अपने चम्मू महाकाव्य की रचना अरिकेसरिन द्वितीय के ज्येष्ठ पुत्र वद्यगराज ( बद्दिग ) की राजधानी गंगाधारा में की।
3. KA. Nilkanta Sastri - A History of South India, P. 333.
२. पं० नानुराम प्रेमी नीतिवामृत की भूमिका, ५०२०३
३. हु ताम्रपत्र मुलानपत्र के नाम से प्रकाशित हुआ है।
४. श्री के. के हुन्छी की कार
ही है।
३. मुलान२-१४
का ही संस्कृत रूपान्तर है। उन का यह कथन
अस्त्वाविध्यभावर्शश्चाक्यस्य यः मकासर नैशाल्पो (१)मास्यस्याशंगाभ्यन्तरसिद्धिसर्व्वगमस्यस्तोदकधारन्दत्तः ॥
सोमदेवसूरि और उन का नीतिवाक्यामृत
३
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परभणी दान-पत्र को चालुक्य वंशावलि में बद्दिग नामक सामन्त का उल्लेख मिलता है । अरिकेसरी द्वितीय के वैमुलवाड ( लैमुलवाड ) स्तम्भ लेख में बढ़ेग नामक व्यक्ति का नामोल्लेख किया गया हैं ।
आधुनिक खोजों से यह बात सिद्ध हो चुकी है कि चालुक्यवंश के सामन्त बरा बाद के करीमनगर जिले के क्षेत्र में शासन करते थे। ये राष्ट्रकूटों के अधीनस्थ सामन्त ये और इन्हीं के राज्याश्रम में आचार्य सोमदेव ने यशस्तिलक चम्पू तथा नीतिवाक्यामृत की रचना की थो
करीमनगर जिले से प्राप्त पार्श्वनाथ की प्रतिमा के मूर्ति लेख से विदित होता हैं कि बद्दिग ने अपने गुरु सोमदेव के लिए एक जैनमन्दिर का निर्माण कराया था । इस बात की पुष्टि परभणी दानपत्र से भी होती है, जिसे बद्दिग के पुत्र अरिकेसरी तृतीय ने ९६६ ई० में प्रसारित किया था। इस दान-पत्र में लिखा है कि अरिकेसरिन तृतीय ने निकटुपूल ( वैमुलवाड ) नामक ग्राम शुभघाम जिनालय की म स्मत एवं व्यय के लिए सोमदेव को दान में दिया था। fear दद्दिगने मुलमाड ( मुलवाड ) में कराया था ।
इस मन्दिर का निर्माण उस के
चालुक्य वंशावली का उल्लेख पम्प के भारत तथा लैमुलवाड दानपत्र दोनों में ही उपलब्ध होता है, किन्तु पम्प के भारत में चालुक्य पंधावलो का पूर्ण विवरण नहीं मिलता । उस के अरिकेसरी द्वितीय तक के राजाओं का ही उल्लेख है । लैमुलवाड दानपत्र में चालुक्य वंशावली का पूर्ण वर्णन उपलब्ध होता है। इस वर्णन के आधार पर बहिग द्वितीय अरिकेसरी द्वितीय का पुत्र निश्चित होता है । पम्प के भारत में अरिकेसरी द्वितीय के पुत्र का नाम नहीं मिलता।
२
मुलवाट दानपत्र के वर्णन से स्पष्ट है कि इस के उत्कीर्ण होने के समय अर्थात् माक संवत् ८८८ (९६६ ई० ) में सोमदेव शुभषाम जिनालय के अध्यक्ष थे और उनको अरकेसरी तृतीय का राज्याश्रम प्राप्त था। अरिकेसरी तृतीय नद्दिग द्वितीय का पुत्र था, जिस की राजधानी गंगाधारा में सोमदेव ने यशस्तिलक की रचना समाप्त की । इस प्रकार लेमुलवाड दानपत्र यशस्तिलक की रचना के सात वर्ष पश्चात् उत्कीर्ण हुआ था । इस से पूर्व आचार्य सोमदेव को अरिकेसरी द्वितीय का राज्याश्रम भी प्राप्त हो चुका था । इस बात की पुष्टि श्री नीलकण्ठ शास्त्री के इस कथन से होती है "महान् जैन लेखक सोमदेव ( ९५० ई० ) को राष्ट्रकूट सम्राट् कृष्ण तृतीय के करद वैभुलवाद के पालुक्य राजा अरिकेसरी द्वितीय का राज्याश्रय प्राप्त था और वहीं कन्नड़ भाषा का प्रसिद्ध कवि-पम्य भी रहता था।"३
Madh
3
इस प्रकार सोमदेव अरिकेसरी द्वितीय बद्दिग द्वितीय तथा अरिकेसरी तृतीय
Venkattumanayya--The Chalukyas of L(V)etrualvada,
4. Rao op. Cit., P. 216; Venkatramanayya op. Cit., P. 45, 9. KA. Nilkanra Sastri - A History of South India, P, 333,
ተረ
नीतिवाक्यामृत में राजनीति
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इन तीनों ही चालुक्य नरेशों के राज्याश्रय में रहे और उन का सम्बन्ध इन चालुक्य राजाओं से घनिष्ठ रहा । सोमदेव ने अपने महाकाव्य यशस्तिलक चम्पू की रचना अरिकेसरी द्वितीय के पुत्र बहिन द्वितीय के राज्याश्रम में की और उस के पश्चात् उन्हें अरिकेसरी तृतीय का संरक्षण प्राप्त हुआ, जैसा कि लैमुलवाड दानपत्र से स्पष्ट है । यह बात भी निश्चित है कि नीतिवाक्यामृत यशस्तिलक के बाद की रचना है जैसा कि उसकी ( नीतिवाक्यामृत को ) प्रशस्ति से स्पष्ट है । अतः ऐसा मानने में कोई आपत्ति नहीं है कि नीतिवाक्यामृत की रचना भी चालुक्यों के ही संरक्षण में हुई। इस ग्रन्थ की रचना या तो बद्दिग द्वितीय के ही राज्यकाल में हुई अथवा उस के पुत्र अरिकेसरी तृतीय के राज्य काल में हुई ।
tata की टीका में ग्रन्थ रचना के उद्देश्य एवं समय के विषय में कुछ उल्लेख मिलता है। टीकाकार के कथन का आशय इस प्रकार है - " कान्यकुब्ज के राजा महेन्द्रदेव ने पूर्वाचार्यकृत अर्थशास्त्र की दुर्बोधता से खिन्न होकर ग्रन्थकर्ता को इस सुबोध, सुन्दर एवं लघु नीतिवाक्यामृत की रचना के लिए प्रेरित किया
श्रीयुत् गोविन्दराय जैन ने भी यह मत प्रकट किया है कि सोमदेव ने कन्नौज के राजा महेन्द्रपालदेव के आग्रह पर हो नोतिवाषयामृत को रचना की । नीतिवाक्यामृत में अपने माश्रयदाता के नामोल्लेख न करने का कारण बतलाते हुए आप लिखते है कि " सोमदेव अपने ग्रन्थ में अपने आश्रयदाता एवं अन्य रचना की प्रेरणा देनेवाले महाराज महेन्द्रपालदेव का नामोल्लेख कर के उन के पुत्र एवं प्रजा को दुःखी नहीं करना चाहते थे । इसी हेतु सोमदेव ने अपने आश्रयदाता का उल्लेख नीतिवाक्यामृत में नहीं किया।" विद्वान् लेखक का यह भी विचार है कि "भशस्तिलक का परिमार्जन तथा आगे के पांच वासों की रचना भी कन्नौज नरेश के राज्याश्रय में ही हुई । अन्त में श्रीगोविन्दराय जी लिखते हैं कि नीतिवाक्यामृत की रचना महेन्द्रपालदेव के लिए की गयो, किन्तु उनका स्वर्गवास हो जाने के कारण उस की समाप्ति महीपाल के राज्यकाल में हुई। इस प्रकार यशस्तिलक के अन्तिम पाँच माश्वास तथा नीतिवाक्यामृत उत्तरभारत में ही लिखे गये । यह समय महेन्द्रपाल प्रथम और उन के पुत्र महोपाल के शासन का था । सम्भवतः इस समय आचार्य को आयु ५० वर्ष के लगभग हो । " २
atraaraama के टीकाकार तथा श्री गोविन्दराम जैन के मत से हम सहमत नहीं है । यशस्तिलक का रचना काल वि० सं० २०१६ ( ९५९ ई० ) निर्णीत है और नीतिवाक्यामृत की रचना उस के पश्चात् हुई है। ऐसी दशा में नीतिवाक्यामृत का रचना काल महेन्द्रपालदेव से जिन का समय अधिकांश इतिहासकारों ने २. नीतिवाक्यामृत की टीका, पृ०२०
ॠ
अखिलभूपालमो लिलालिचरणयुगलेन राजवंशावस्था पिपराक्रन पालितकस्य राजश्रीमन्महेन्द्रदेवेन पूर्वाचार्य कृतार्थ शास्त्रदुरनबोधग्रन्थगौरव खिन्नमानसेन या मृत रचनञ्च प्रवर्तित
२. श्रीगोविन्दराजेन - जैन सिद्धान्त भास्कर, भाग १४, किरण २, पृ० १४-२६ ।
सोमदेवसूरि और उनका नीतिवाक्यामृत
कर्ण कुब्जेन महाललितनोति
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वि० सं० ९६४ माना है, कम से कम ५२ वर्ष पश्चात् का है । अतः सोमदेव को महेन्द्रपाल का समकालीन मानना तथा उन के आग्रह पर नौतिवाक्यामृत की रचना का होना युक्तिसंगत प्रतीत नहीं होता । यदि महेन्द्रपाल के आग्रह पर नीतिवाक्यामृत को रचना की गयी होती तो उस में कहीं-म-कहीं उन का उल्लेख लेखक अवश्य करता जैसा कि यशस्तिलक की प्रशस्ति में किया है। टीकाकार ने नोतिबाझ्यामत के कर्ता का नाम मुनिचन्द्र तथा उन के गुरु का नाम सोमदेव लिखा है । ठीक इसी प्रकार उन्होंने किसी जनर परीनीशिवायमा दमिता को पवेन्द्रदेव का समकालीन तथा उन के आग्रह पर नीतिवाक्यामृत की रचना की बात लिख दी है।
डॉ . राघवन् नीतिवाक्यामृत को यशस्तिलक के बाद की रचना स्वीकार नहीं करते । इस के अतिरिक्त वे नीतिवाक्यामृत के टीकाकार के कथन की पुष्टि करते हुए लिखते हैं कि टीकाकार ने जिन कान्यकुब्जनरेश महेन्द्र देव के लिए सोमदेव को नीसिवाक्यामृत की रचना के आग्रह का उल्लेख किया है वे उस नाम के महेन्द्रपाल द्वितीय होंगे, जिन का उल्लेख डॉ. त्रिपाठी ने अपने अन्य हिस्ट्री ऑफ़ कन्नौज में किया है । बालकवि रूप में राजेश्वर को महेन्द्रपाल प्रथम ( ८८५-९१० ई.) का संरक्षण प्राप्त था । अन्त में डॉ० राघवन ने लिखा है कि सोमदेव गौड़ देश के गौड़संघ के आचार्य थे और सम्भवतः उन का सम्मान बोध गया के एक राष्ट्रकूट नरेश ने किया था। राष्ट्रकूट करद चालुक्य अरिकेसरी और उस के उत्तराधिकारियों के समय में वे लमलवाड की ओर विहार करने गये थे और कन्नौज को जाते हए वे 'दि और राष्ट्रकूट दरबारों में पहुंचे अथवा लंमुलबार में रहते हुए ही जब कभी उन्हें समय मिलता था ये उपर्युक्त राजदरबारों में भ्रमण कर आते थे । ऐसी अवस्था में यह अनहोनी नहीं कहो जा सकती कि उन्होंने कन्नौज के नरेश महेन्द्रपाल के आग्रह पर नोतिवाक्यामृत को रचना की हो ।'
प्रो० जी० बी० देवस्थली का कथन है कि “दिगम्बर जैन सोमदेव का आविर्भाव दसवीं शताब्दी के मध्य में हुआ। और उन्होंने राष्ट्रकूट सम्राट् कृष्ण तृतीय के राज्य काल में यशस्तिलक चम्पू की रचना शकसंवत् ८८१ ( ९५९६० ) में की। यशस्तिलक की प्रशस्ति के आधार पर सोमदेव को देवसंघ का आचार्य कहा जाता है, किन्तु लैमुलप्राड के दानपत्र में उन के दादागुरु को गोड़संघ का आचार्य बताया गया है। इस के
f. The History and Culture of ludian People, Vol. IV, P.33; .
H.C. Ray... Imynastic History of Northern India, Pul, I, P.572. मियदोनी के शिलालेख में महेन्द्रपालदेव के राध्यकाल की तिथियाँ १०३-४ ई० तथा Es-ई० निर्दिष्ट है । डॉ० आर० एस० त्रिपाठी या डॉ. वीर एन० पुरो महेन्द्रपाल की मृत्यु की तिथि १० ६. मानते हैं। इस प्रकार वे नहपाल का राज्यकाल १०ई० तक निश्चित करते हैं; Dr. K, S, 'Trilithi-History of K:10allj, P. 253;
Dr. Is N. Puri-Tha History of the Gurjurti-Pritilhares. २. डो० वे राधनन्, जैन सिद्धान्त भास्कर, भाग १०, किरण २, पृ० १०२.१०४ ।
नीतिबाक्यामृत में राजनीति
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अतिरिक्त यशस्तिलक चम्पू में सोमदेव यशोधर महाराज की दो बार धर्मावलोक कहकर सम्बोधित करते हैं । यह उपाधि राष्ट्रकूटों की बोधगया को शाखा लुंगराजाओं की थी । इस से स्पष्ट है कि सोमदेव प्रारम्भ में गौड़देशीय गोड़संघ के शिष्य थे और सम्भवतः उन को नोधगया के राष्ट्रकूटों का राज्याश्रय प्राप्त था। वहां से वे लैमुलवाड में आये और वहाँ उन को राष्ट्रकटों के अधीनस्थ सामन्त मरिकेसरी तथा उस के उत्तराधिकारी का राज्याश्रय प्राप्त हुआ । राष्ट्र कूटों का चेधि तथा कन्नौज के गुर्जर प्रतिहारों से धनिष्ठ सम्बन्ध था। अत: यह कोई अनहोनी नहीं कि सोमदेव कन्नौज के महाराज महेन्द्रपाल द्विसीय के सम्पर्क में आये और उन के आग्रह पर उन्होंने नीतिवाक्यामृत की रचना की, जैसा कि नीतिवाक्यामृत के अज्ञात टोकाकार ने व्यक्त किया है।
हम हॉ० ० राघवन् तथा प्रो० जी० बी० देवस्थलो के उपर्युक्त विचारों से सहमत नहीं हैं। डॉ० राधयन् नीतिवाक्यामृत को प्रशस्तिलक के बाद की रचना नहीं मानते जो कि युक्तिसंगत नहीं । नीतिवाक्यामृत की प्रशस्ति में सोमदेव को यशोवरचरित आदि का रचयिता बताया गया है । अतः नोतिवाक्यामृत को यशस्तिलक के बाद की रचना स्वीकार करने में कोई आपत्ति नहीं होनी चाहिए । श्री के. के. हण्डोको भी नोतिवाक्यामृत को यशस्तिलक के बाद की हो रचना मानते हैं और वे सोमदेव को कृष्ण ततीय तथा बगि का समकालीन स्वीकार करते हैं।
डॉ राघवन् नीतिबाक्यामृत के टीकाकार के इस कथन को सत्य मानते हैं कि "सामदेव ने कन्यकुब्ज के महाराज महेन्द्रदेव के आग्रह पर नीति वाक्यामृत को रचना की।" उन का कथन है कि व महेन्द्रपाल द्वितोय होंगे। हम डॉ० राघवन् के इस कथन से भी सहमत नहीं, क्योंकि महेन्द्रपाल, द्वितीय का समय ९४६ ई. माना गया है और यवास्तिलक की रचना ९५९ ई० मानी जाती है। नोतिवाक्यामुत उस के बाद की रचना है। अतः महेन्द्रपाल द्वितीय, जिन के राज्यकाल की तिथि ९४६ ई० है, के आग्रह पर नीतिवाक्यामृत की रचना की बात नितान्त असंगत प्रतीत होती है।
डॉ. श्यामशास्त्री का विचार है कि नीतिवाक्यामृत के रचयिता सोमदेव यचोघर महाराज के समकालीन थे। शास्त्रीजी का यह कथन आश्चर्यजनक प्रतीत होता है, क्योंकि यशोधर जैनियों के पौराणिक महापुरुष हैं । सोमदेव से कई शताब्दी पूर्व यशोधरचरित के विषय में पुष्पदन्त तथा बच्चराय आदि कवि रचना कर चुके थे । पुष्पदन्त का समय शकसंवत् ९०६ माना जाता है। अतः सोमदेव को यशोधर महाराज का समकालीन कभी नहीं माना जा सकता ।
8. The History 0:1 Culture o: t! Ini 11 Pole, Vol. IV, V, 18. 7. KK. I landinu--"'** istilik an Indian Culture, CW, 1, 1, 1, ३. Tlc History ail Oiliyenitli It lineral, Vol IV, I.31. ४. डो यामदासनी. - होम अशास्त्र की दुनिफा-.. ___ शांधर महामाजसमनसेन स नोकरिमा दीशिवायामृत नाम नीतिशार विचिन...। १.५० माधुराम प्रेनी, नीतित्रापारा ओ भूमिका, पृ०६, टिप्पणी।
सोमदेवसूरि और उन का नीसिवाक्यामृत
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शो के० के० हण्डीको सोमदेव का आश्रयदाता किसी भी राजा को महीं मानते । उन का कथन है कि "सोमदेव जैन आचार्य थे, इसी कारण उन्होंने अपने अन्य के प्रारम्भ में आदर के साथ अपने गुरु को बन्दना की है 1 धर्माचार्य होने के साथ ही वे एक महान राजनीतिज्ञ भी थे इसी कारण उन्होंने अपने ग्रन्थ में धर्म, अर्थ, काम के प्रदान करने वाले राज्य को नमस्कार किया है। आगे हण्डोको महोदय लिखते हैं कि, यह बात भी निश्चित रूप से कही जा सकती है कि सोमदेव दरबारी जीवन से भलीभौति परिचित थे तथा उन्होंने राष्ट्रकूटों से कार में कुछ बनर अप मासीक विमा होगा । यशस्तिलक के तृतीय आवास में राजदरबार का जैसा चमत्कारपूर्ण वर्णन हुआ है उस के आधार पर यह कहा जा सकता है कि यह वर्णन गंगाधारा जैसी छोटी राजधानी के सम्बन्ध में कबापि नहीं हो सकता । यह वर्णन तो एक ऐसे राजदरबार का द्योतक है जो सार्वभौम हो, जिसे युद्ध और सन्धि का सर्वाधिकार हो तथा जिस के अधिकार में समस्त देश की सेना हो ।'
श्री के. के. हण्डोकी के इस विचार से तो हम सहमत है कि यशस्तिलक के तुतीय अश्वास में जो वर्णन हुआ है वह किसी महान् परबार का द्योतक है। यह सम्भव है कि सोमदेव राष्ट्रकूट सम्राट् कृष्ण तृतीय के राजदरबार में कुछ समय तक रहे हों। कृष्ण तृतीय विद्वानों का आश्रयदाता था और उस ने कन्नड़ भाषा के प्रसिद्ध कवि पोन को उभयभाषाकविश्चक्रवर्ती की उपाधि से विभूषित किया था। सोमदेव महान् विद्वान् श्रे और वे कृष्ण तृतीय के समकालीन भी थे। इस में कोई आश्चर्य की बात नहीं कि राष्ट्रकूट सम्राट् कृष्ण तृतीय ने सोमदेव को अपने दरबार में आमन्त्रित किया हो। वहाँ रहकर उन्होंने दरवारी जीवन का अध्ययन कर के चालुक्य वंश के राजा रिकेसरो द्वितीय के पुत्र, सामन्त बदिग की राजधानी गंगाधारा में यशस्तिलक के तृतीय आश्बास में दरबारी जीवन के अनुभवों को व्यक्त किया। ऐसा मानने में कोई अनौचित्य मही। श्री हण्डोकी महोदय के इस विचार से हम सहमत नहीं कि सोमदेव का आश्रयदाता कोई नहीं था। मशस्तिलक की पद्यप्रशस्ति एवं लेमुलवाई दानपत्र से यह स्पष्ट है कि सोमदेव का सम्बन्ध चालुक्य नरेशों से बहुत घनिष्ठ था और उन्हीं का राज्याथय उन्हें प्राप्त था। अतः यह बात किस प्रकार स्वीकार की जा सकती है कि सोमदेव को किसी भी राजा का राज्याश्रय प्राप्त नहीं था।
उपर्युक्त सम्पूर्ण विवरण के आधार पर हम यह बात निश्चयपूर्वक कह सकते है कि मीसिवाक्यामृत को रचना कप्नौज के राजा महेन्द्रपाल प्रथम महीपाल अथवा महेन्द्रपाल द्वितीय किसी भी राजा के आग्रह मथश राज्याधय में नहीं हुई। उपर्युक्त राजाओं के राज्यकाल की ज्ञात तिथियों { महेन्द्रपाल प्रथम वि० सं० ९६४, महीपाल ९७४ ई० तथा महेन्द्रपाल द्वितीय १००३ ) से सोमदेव के यशस्तिलक को रचना को
3, K.K. Hanidiqur. Yxlaslilaka.ud (ndian Culture, Cn. 1, PP. 5-6,
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तिथि (वि० सं० १०६४) का मेल नहीं खाता। इस के अतिरिक्त राजशेखर महेन्द्रपाल प्रथम के समकालीन थे और उन को कन्नौज नरेश का राज्याथम प्रास था। राजशेखर नेसन बायो ग ई: EI बाध्य साया है। यशस्तिलक ( ९५९ ई० ), तिलकमंजरी ( १००० ई.) और व्यक्तिविवेक { ११५० ) आदि ग्रन्थों में राजशेखर का उल्लेख मिलता है। इस प्रकार राजशेखर का समय दसवीं शताब्दी का प्रथम चरण निश्चित होता है। यशस्सिलक में सोमदेव ने एक स्थान पर महाकवियों के नामों का उल्लेख किया है। उन में अन्तिम नाम राजशेखर का है। इस से स्पष्ट है कि सोमदेव के समय में राजशेखर का नाम प्रसिद्ध था। इस प्रकार राजशेखर का आविर्भाव सोमदेव से बर्द्ध शताब्दी पूर्व अवश्य हुआ होगा। राजशेखर महेन्द्रपाल के उपाध्याय और उन के समकालीन माने जाते हैं।'
अतः सोमदेव का सम्बन्ध कान्यकुब्ज नरेश महेन्द्रपाल से जोड़ना युक्ति-संगत नहीं। यह बात भी नीतिवाक्यामृत को प्रशस्ति से निश्चित है कि यह अन्य यशस्तिलक के बाद रचा गया। प्रशस्तिलक का रचनाकाल वि० सं० १०६४ है। अतः नीतिवाक्यामृत की तिथि उस के पश्चात् ही होनी चाहिए। महेन्द्रपाल के शासनकाल और नौतिवाश्यामृत के रचनाकाल में कम से कम ५५ वर्ष का अन्तर दृष्टिगोचर होता है। इस कारण नीतिवाक्यामृत की रचना को महेन्द्रपाल के आग्रह पर बताना नितान्त
संगत है । इस के अतिरिक्त देवसंघ दक्षिणमारत में है और कन्नौज उत्तर भारत में । इस प्रकार यह भी आश्चर्यजनक प्रतीत होता है कि सोमदेव ने दक्षिण भारत के चालुक्य नरेशों एवं महान् राष्ट्रकुट सम्राट् कृष्ण तृतीय का राज्याश्रय प्राप्त न कर उत्तर भारत में आकर कम्नौज के महाराज महेन्द्रपाल को संरक्षता प्राप्त की। यह बात नीतिवाक्यामृत के टीकाकार ने किसी अनश्रुति के आधार पर ही लिखी है और उस का अनुकरण अन्य विद्वानों ने भी किया है। किन्तु वास्तव में इस ग्रन्थ का आग्रहकर्ता चालुषयवंशी अरिकेसरी तृतीय का पुत्र सामन्त बहिग अथवा बहिग का पुत्र अरिकेसरी चतुर्थ ही होगा। श्री नोलकण्ठ शास्त्री के वर्णन तथा लैमुलबाढ दानपत्र से सामदेव का चालुक्यों के सम्पर्क में आना प्रमाणित होता है। जब सोमदेव ने अपने चम्पूमहाकाव्य यशस्तिलक की रचना चालुक्य नरेश दहिग की संरक्षक्षा में की तो उन के द्वितीय ग्रन्थ की रचना को पालुष्यों के आग्रह पर स्वीकार वारना युक्तिसंगत प्रतीत होता है। लैमुलवाड दानपत्र के उत्कीर्ण किये जाने के समय सोमक्षेत्र की आयु सम्भवतः शत वर्ष की हो और वे शुभधाम जिनालय में अपना विरक्त जीवन व्यतीत कर रहे हो, ऐसा मानने में कोई आपत्ति नहीं होनी चाहिए 1 हमारे विचार से नीतिवाक्यामृत यशास्तिलक १. IDr. R.S. Tripathi-JIistory of Kanauti, 3'. 2GE. २. स्वर्ग:440 वाशेखर पाडेय, संस्कृत साहित्य की रूपरेखा, पृ०४०४.१० ३. यश, आ०४, पृ० १११
तपाः बभावि, भवभूति-भर्तृहरिः-जोखाधनहाकविका नौ3. [.R.S. Tripathi...History of Kananj, P. 253.
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के अनन्तर की गयी रचना है, जैसा कि अन्य विद्वानों ने भी स्वीकार किया है। इस प्रकार नीतिवाक्यामृत का रचनाकल विक्रम की ग्यारहवीं शताब्दी का तृतीय चरण सिद्ध होता है। निश्चित रूप से इस ग्रन्थ का प्रणयन चालुक्यों के राज्याश्रय में ही हुआ।
नीतिवाक्यभूत का महत्व
नीतिवाक्यमृत संस्कृत वशमय का अमूल्य राजनीति प्रधान ग्रन्थ है। यह भारतीय साहित्य का भूषण है । यद्यपि कोटिल्य के अर्थशास्त्र की अपेक्षा इस का कलेवर न्यून है, तथापि रचना-सौन्दर्य में यह उस से उत्कृष्ट है । यथा नाम तथा गुण वाली कहावत इस ग्रन्थ पर पूर्णरूपेण चरितार्थ होती है । मह अन्य वास्तव में नीति का क्षीरसागर है, जिस में लगभग सभी पूर्वाचार्यों द्वारा प्रतिपादित राजनीतिक सिद्धान्तों का सुमधुर सूत्रों में समावेश है। यह अन्य गद्य में विरचित है और इस के लेखक ने इस की रचना के लिए पति को अपनाया है । (सोमदेव का संस्कृत भाषा पर जैसा अधिकार था वैसा ही रचना शैली पर भी था। बड़ी से बड़ी बात को सूत्र रूप में कहने की कला में सोमदेव बहुत वक्ष थे, और इसी कारण उन्होंने नीतिवाक्यामृत के अध्यायों का नाम समुद्देश रखा है । समस्य ग्रन्थ में बत्तीस समुद्देश एवं पन्द्रह सौ पचास सूत्र है। प्रत्येक समुद्देश में उस के नाम के अनुकूल ही विषय का प्रतिपादन किया गया है।
Catharanामृत की शैली बहुत ही सुबोध, संगत, सुगठित एवं हृदयस्पर्शी हूँ । राजनीति जैसे शुष्क विषय का भी इस ग्रन्थ में काव्य जैसी भाषा में वर्णन किया गया है । इस का प्रत्येक सूत्र हृदयग्राही है । नीतिवाक्यामृत के अज्ञात टीकाकार ने इस के सूत्रों की शुद्ध एवं स्पष्ट व्याख्या की है। प्रत्येक सूत्र में गम्भीर विचार भरे हुए हैं जो हमारे सामने किसी भी विचार का एक पूर्ण चित्र उपस्थित करते हैं ।
प्रस्तुत ग्रन्थ का प्रधान विषय है राजनीति राज्य एवं शासन व्यवस्था से सम्बन्ध रखने वाली प्रायः सभी आवश्यक बातों का इस ग्रन्थ में विवेचन किया गया है। राज्य के सप्तांग स्वामी, अमात्य, जनपद, दुर्ग, कोश, बल एवं मित्र के लक्षणों पर पूर्ण प्रकाश डाला गया है। साथ ही राजधर्म की बड़े विस्तार के साथ व्याख्या की गयो है । इस राजनीति प्रधान ग्रन्थ में मानव के जीवन स्तर को समुझत बनाने वाली धर्मनीति, अर्थनीति एवं समाजनीति का भी विशद विवेचन मिलता है | यह ग्रन्थ मानव जीवन का विज्ञान और दर्शन है। यह वास्तव में प्राचीन नोति साहित्य का सारभूत अमृत है। मनुष्यमात्र को अपनी-अपनी मर्यादा में स्थिर रखने वाले राज्यप्रशासन एवं उसे पल्लवित संबंधित एवं सुरक्षित रखने वाले राजनीतिक तत्त्वों का इस में वैज्ञानिक दृष्टिकोण से विश्लेषण किया गया है ।
आचार्य सोमदेव ने नीति के दोनों अंगों - राज्य एवं समाज से सम्बन्ध रखने बाली विविध समस्याओं पर पूर्ण प्रकाश डाला है। राज्य और समाज एक दूसरे के
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अन्योन्याश्रित है । अत: दोनों की ही समस्याओं का समाधाम आवश्यक है, जो कि इस अन्य में उपलब्ध होता है। यदि सोमदेव अपने ग्रन्य में राजनीति से सम्बन्ध रखने वाले विषयों पर ही प्रकाश शलते तो उन का वर्णन एकांगी होता। अतः उन्होंने नोति के दोनों ही अंगों को व्याख्या की है।
समाज की उन्नति में राज्य की जन्मति है और एक शक्तिशाली एवं हीविसम्मत राज्य में ही व्यक्ति त्रिवर्ग के फल का निर्वाध रूप से उपभोग कर सकता है एवं अपनी सर्वांगीण चम्मति करने में समर्थ हो सकता है। इसी बात को दृष्टि में रख कर सोमदेव ने न के साथ समाजिया अपनी रिचा गित : नीतिवाक्यामृत में दिवसानुष्ठान, सदाचार, व्यवहार, विवाह एवं प्रकीर्ण आदि समुद्देशों की रचना इसी उद्देश्य की पूर्ति के लिए की गयी है।
___नोतिवाक्यामृत के टीकाकार ने नोति की दो प्रकार से व्याख्या की है जो इस प्रकार हैं--(१) चारों वर्ण तथा चारों आश्रमों में वर्तमान जनता जिसके द्वारा अपनेअपने सदाचारों में प्रवृत्त की जाती है, उसे मीति कहते है। (२) विजयलक्ष्मी के इच्छुक राजा को जो धर्म, अर्थ, और काम आदि पुरुषार्थी से संयोग करावे उसे नीति कहते है । इस ग्रन्थ को टोकाकार के मतानुसार नीतिवाश्यामृत नामकरण का यह कारण दिया गया है कि इस ग्रन्थ के अमृत तुल्य वाश्यसमह विजयलक्ष्मी के इच्छुक राजा को अनेक राजनीतिक विषयों, सन्धि, विग्रह, यान, आसन आदि में उत्पन्न हुई सन्देह रूप महामूर्छा का विनाश करने वाले हैं, इसलिए इस का नाम नीतिवाक्यामृत रस्ता गया है।
लेखक ने नीति के इन दोनों ही अर्थों को दृष्टि में रखकर इस ग्रन्थ को रचना की है। अपने वर्ण्यविषय पर पूर्णप्रकाश सालने वाला ग्रन्थ ही अपने क्षेत्र में महत्त्वपूर्ण माना जाता है । राजनीति तथा समाज के प्रमुख अंगों का जो विशद वर्णन नोतिषापामृत में हुवा है उस का सारांश निम्नलिखित हैत्रिवर्ग प्राप्ति का अमोध साधन राज्य
भारतीय धर्मशास्त्र के अनुसार मनुष्यमात्र को धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष इस चातुर्वर्ग की प्राप्ति के लिए प्रयत्नशील रहना चाहिए । महर्षि व्यास का कथन है कि धर्म से अर्थ और काम की प्राप्ति होती है। यदि सूक्ष्म दृष्टि से देखा जाये तो यह
१.तिवाक्यामृत की टोका, पृ०२
नं विजय घोस्त्रिर्गेण संयोजन नीतिः, नीयते व्यवस्थाप्यते स्वेषु र अनु रादाबारेघु चतुर्वर्णाश्रमनमणोलीको यस्यां वा सा नीतिः...।
जाकिलानि बचनरचनाविशेषास्तान्मेवामृतमिवामृत श्रोतृश्रोत्रविबरानबरतामसुन्दरमुखभदोहदाय
तात. राज्ञा मानेकार्थ समुत्पन्नसंमोहमहामु चपिरिहारिवार, नीलामृतमहं व वे-) ३. महाभारत -
धर्मादरच कामश्च स धर्मः किं न सेव्यते । सोमदेवसूरि और उन का नीतिवाक्यामृत
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स्पष्ट है कि निष्काम धर्म से मोक्ष को भी प्राप्ति होती है। इसलिए यदि धर्म को ही चातुर्वर्ग का मूल कहें तो कोई अत्युक्ति नहीं होगी। वैशेषिक दर्शन के रचयिता महर्षि कणाद का कथन है कि जिस से अभ्युदय एवं लौकिक उन्नति और निःश्रेयस तथा पारलौकिक मोक्ष की प्राप्ति हो वह धर्म है ।'
प्राचीनकाल में धर्म का प्रयोग चातुर्वर्ग के लिए होता था और उस का विभाजन दो भागों में कर दिया गया था कि प्रथम भाग के अन्तगंत धर्म, अर्थ और काम का समावेश था और द्वितीय में मोक्ष का लौकिक धर्म का हो दूसरा नाम पुरुषार्थ और पारलौकिक अर्थात् मोक्ष का नाम परमपुरुषार्थ था । इस कारण धर्म, अर्थ और काम को मानव पुरुषार्थी के नाम से ही पुकारा जाता था । सोमदेवसूरि ने भी अपने अन्य नीतिवाक्यामृत में मानव पुरुषार्थों का वर्णन किया है । ये राजनीति को त्रिपथगामिनी कहते हैं, क्योंकि इस के द्वारा धर्म, अर्थ और काम पुरुषार्थी की प्राप्ति होती है। इसी कारण उन्होंने सर्वप्रथम धर्म, अर्थ और काम रूप फलों के प्रदान करने वाले राज्य को नमस्कार किया है । नोतिज्ञ थे, छतः उन्होंने अपने ग्रन्थ में किसो राजा आदि का को नमस्कार किया । शुक्राचार्य ने भी राज्य को धर्म, अर्थ साधन बतलाया है। उन्होंने अपनी दण्डनीति के प्रारम्भ में ही उस राज्यरूपी वृक्ष को नमस्कार किया है जिस को शाखाएँ षाड्गुण्य ( संवि, विग्रह, यान, आसन, संवय और द्वेषीभाव ) है और जिस के पुष्प साम, दाम, भेद और दण्ड ) हैं तथा फल त्रिवर्ग
3
( धर्म, अर्थ, और काम ) हैं |
में
सोमदेव ने धर्म, अर्थ और काम तीनों ही पुरुषार्थी के सेवन का उपदेश दिया है। उन का यह भी आदेश है कि त्रिवर्ग का समरूप से ही सेवन करना चाहिए ( ३, ३ ) । अर्थ को धर्म के समकक्ष स्थान प्रदान कर के आचार्य ने प्राचीन परम्परा एक महान् सुधार किया है। काम को भी धर्म के समकक्ष मानकर उन्होंने व्यायहारिक राजनीतिज्ञता का परिचय दिया है। जैन संन्यासी होते हुए भी उन्होंने अर्थ के महत्त्व का भली-भाँति अनुभव किया है। शत उन की दूरदर्शिता की परिचायक हैं । नीतिवाक्यामृत में धर्म, अर्थ और काम की विशव व्याख्या की गयी है । धर्म की परिभाषा करते हुए आचार्य सोमदेव लिखते हैं कि जिस से इस लोक में अभ्युदय और परलोक में मोक्ष की प्राप्ति हो वह धर्म है । इस के विपरीत फल वाला अधर्म है
यह
१. कणाद दर्शन
मतोऽभ्युदयनिःश्रेयसरिद्धिः स धर्मः । २०७ ।
अथ धर्मार्थकामफलत्य राज्याय नमः । प्रक, नीतिवाक्यामृत पृ०७।
नमोस्तु राज्याय षण्यास प्रशाखिने । सामाविचारपुष्पा
त्रिवर्ग फलदायिने ।
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܆
सोमदेव एक महान् राजयशोगान न कर के राज्य
और काम की प्राप्ति का
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(१,१.२)धर्म को प्राप्ति के साधनों पर भी ग्रन्थकार ने प्रकाश डाला है । अपने समान दूसरे में भी कुशल वृत्ति का चिन्तन करना, शक्ति के अनुसार त्याग व तप करना धर्म की प्राप्ति के साधन है ( १, ३)। सम्पूर्ण प्राणियों में सम माचरण करना सर्वश्रेष्ठ आचरण है । जो व्यक्ति प्राणियों से ट्राह करता है उन की कोई भी शुभ-क्रिया कल्याण कारक नहीं हो सकती । जो व्यक्ति हिंसारहित मन वाले हैं उन का प्रतरहित भी चित्त स्वर्ग प्राप्ति के लिए समर्थ है ( १, ४-६ )। दान और तप के महत्त्व पर भी ग्रन्य में प्रकाश डाला गया है । आचार्य की दृष्टि में प्राणिमात्र की सेवा करना तथा सब से
म करना ही महान् धर्म है। जो व्यक्ति प्राणियों से द्रोह करते हैं वे चाहे जितने ही शुभ कर्म करें, किन्तु उन का फल उन्हें प्राप्त नहीं हो सकता । उन की समस्त शुभ क्रियाएँ भी अग्नि में डाले गये घृत के समान व्यर्थ हो होंगी। जन आचार्य होने के कारण उन्होंने अपने मतानुयायियों के अनुरूप ही अहिंसा को परम धर्म बताया है और एस के पालन करने वाले व्यक्ति के लिए किसी भी प्रकार के व्रत की आवश्यय ता नहीं बतायी है । अहिसा को स्वर्ग-प्रामि का साधन बताया है।
धर्म के उपरान्त अर्थ पुरुषार्थ को ब्याख्या करते हुए आचार्य सोमदेव ने लिखा है कि जिस से सब प्रयोजनों की सिद्धि हो वह अर्थ है ( २,१) । जो मनुष्य सदैव अर्थशास्त्र के सिद्धान्त के अनुसार अर्थानुबन्ध ( व्यापारिक साधनों से अविद्यमान धन का संचय, संचित की रक्षा और रक्षित को वृद्धि करना) से धन का उपभोग करता है वह उस का पात्र धनाढ्य हो जाता है ( २, २) । नैतिक व्यक्ति को अप्राप्त पन की प्राप्ति, प्राप्त की रक्षा और रक्षित की वृद्धि करने में प्रयत्नशील रहना चाहिए, क्योंकि ऐसा करने वाला व्यक्ति ही भविष्य में सुखी रहता है। धन के सदुपयोग पर नीतिकार ने बहुत बल दिया है । वे लिखते हैं कि जो लोभी पुरुष अपने धन से नीयों ( सत्पात्रों) का आदर नहीं करता, उन को दान नहीं देता उस का धन शहद की मक्खियों के छत्ते के समान अन्य व्यक्ति ही नष्ट कर देते हैं ( २, ४ ) । मनुष्य को अपने सुखों का बलिधान कर के धन संग्रह नहीं करना चाहिए। यह बात नीति के विरुद्ध है । अनेक कष्ट सहन कर धनोपार्जन करना दूसरों का बांझा ढोने के समान है ( ३,५) । धन को वास्तविक सार्थकता तभी है जब उस से मन और इन्द्रियों को पूर्ण तृप्ति हो ( ३, ६)।
मानव जीवन के तृतीय पुरुषार्थ काम की भी व्याख्या अन्धकार ने की है। जिस से समस्त इन्द्रियों में बाधारहित प्रोति उत्पन्न होतो है उसे काम कहते है (२,१)। नैतिक व्यक्ति को धर्म, अर्थ और काम इन तीनों पुरुषार्थों का समरूप से सेवन करना चाहिए। यदि इन तीनों पुरुषार्थों में से एक का भी प्रति सेयन किया गया तो इस से स्वयं को पीड़ा होगी तथा वह दूसरों के लिए भी कष्टदायक होगा (३, ४) आचार्य ने इन्द्रिय निग्रह पर विशेष बल दिया है, क्योंकि अजितेन्द्रिय को किसी भी कार्य में सफलता नहीं मिल सकती ( ३,७ ) 1 मानव को इन्द्रियों पर विजय प्राप्त करने के लिए नीतिशास्त्र का अध्ययन करना चाहिए ( ३,९)। नैतिक
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व्यक्ति को विषय रूपी भयानक वन में दौड़ने वाले इन्द्रिय रूपी गजों को, जो कि मन को विक्षुब्ध करने वाले है, सम्पज्ञान रूपी अंकुश से वश में करना चाहिए । मुख्य रूप से मनाप्रित इन्द्रियाँ विषयों में प्रवृत्त हुआ करती हैं। इस कारण मन पर विजय प्रास करना ही जितेन्द्रियता है। जो व्यक्ति विषयों में आसक्त है वह महा विपत्ति के गर्त में पड़ता है । आचार्य राजा को भी काम से सचेत करने के लिए आदेश देते हैं। वे कहते है कि जो व्यक्ति ( राजा) काम से पराजित हो जाता है वह राज्य के अंगों (स्वामी, अमात्य, राष्ट्र, दुर्ग, कोष, मित्र और सेना प्राधि ) से शक्तिशाली शत्रुओं पर किस प्रकार विजय प्रास कर सकता है ( ३, ११)। अतः विजयलक्ष्मी के इच्छुक राजा को कभी काम के वशीभूत नहीं होना चाहिए ।
काम से होने वाली हानियों की बोर भी आपार्य सौमदेव ने संकेत किया है। वे लिखते है कि कामी पुरुष का सम्मांग पर लाने के लिए लोक में कोई औषधि नहीं है 1.३.१२)1 स्त्रियों में अरयन्त आसक्ति करने वाले पुरुष का सब, धर्म और शरीर नष्ट हो जाता है (३, १३)। धर्माचार्यों का कथन है कि विवेकी पुरुष को सर्व प्रथम धर्म पुरुषार्थ का पालन करना चाहिए। उसे विषयों की लालसा, भय, लोभ और जोवरक्षा के लोम से कदापि धर्म का त्याग नहीं करना चाहिए । परन्तु सोमदेवसूरि के अनुसार आर्थिक संकट में फंसा हुमा व्यक्ति पहले अर्थ, जीविकोपयोगी व्यापार आदि करे, तत्पश्चात् उसे धर्म और काम पुरुषार्थों का अनुष्ठान करना चाहिए, क्योंकि लोक की धर्म रक्षा, प्राण-यात्रा और लौकिक सुख आदि सब धन से ही सम्पन्न होते हैं। धर्म, अर्थ और काम पुरुषायों में पूर्व का पुरुषार्थ ही श्रेष्ठ है ( ३, १५) आचार्य के अनुसार सब पुरुषार्थों में अर्थ हो प्रमुख है और अन्य दो पुरुषार्थ-धर्म और काम इस के अभाव में कदापि प्राप्त नहीं हो सकते । नीतिशास्त्र के लगभग सभी आचार्यों ने मानव पुरुषाधों में अर्थ को ही प्रधानता दी है जो कि सर्वथा उचित है। संसार के समस्त प्रयोजनों की सिद्धि अर्थ से ही सम्भव है (२,१)। इस के अभाव में कोई भी पुरुषार्थ पूर्ण नहीं हो सकता। अत: मानव पुरुषार्थों में अर्थ का ही प्रमुख स्थान है। दण्डनीति का महत्त्व
मनुष्य मात्र का परम कल्याण त्रिवर्ग के विधिवत् पालन करने में ही है । त्रिवर्ग से तात्पर्य धर्म, अर्थ और काम से है । त्रिवर्ग की साधना तभी हो सकती है जबकि प्रजा का पालन करने वाला राजा हो और वह दण्डनीति का ज्ञाता हो । दण्ड के द्वारा ही राजा अपने धर्म (राजधर्म) का पालन करता है । इसी हेतु राजा के साथ ही सृष्टिकर्ता ने दण्ड की भी सृष्टि की । अपराधी को उस के अपराध के अनुकूल दण्ड देना दण्ड१. मनु०५७, १४ तस्याचे सर्वभूताना गोप्तार धर्ममात्मजम् । वसतेजोमयं दामसृजाणूर्व मौस्वरः ।,
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नीति है ( ९२ ) । दण्डनीति का सभी आचार्यों ने बहुत महत्व कथन है कि दण्ड ही शासक है और दण्ड हो प्रजा है। जब सब जागता है । दण्ड का उचित प्रयोग ही समाज में व्यवस्था रख सकता है और मात्स्यन्याय का अन्त कर सकता है । दण्ड का उचित प्रयोग वही कर सकता है जिस ने दण्डनीति का अध्ययन किया हो । यदि अपराधियों का उन के अपराध के अनुकूल दण्ड नहीं दिया जायेगा तो प्रजा में मात्स्यन्याय उत्पन्न हो जायेगा । दण्डनीति का प्रयोजन राष्ट्र को प्रजा कण्टकों से सुरक्षित रखना, प्रजा को धर्म, अर्थ और काम पुरुषार्थो का बाबारहित पालन करना, उसे कर्तव्यों में प्रवृत्त करना तथा अकर्तव्य से निवृत्त करना, विशाल सैनिक संगठन द्वारा महाशय की प्रति की रक्षा, रक्षित की वृद्धि करमा है । दण्ड की अपूर्व शक्ति का वर्णन करते हुए आचार्य कौटिल्य लिखते हैं कि जब राजा पक्षपात रहित दोष के अनुकूल अपने पुत्र और शत्रु को दण्ड देता है तब वह दण्ड इस लोक और परलोक दोनों की ही रक्षा करता है आन्वीक्षिकी, त्रयो और वार्ता की प्रगति और सुरक्षा का साधक दण्ड हो है । भली-भांति सोच-विचार कर जब दण्ड दिया जाता है तब वह प्रजा को धार्मिक बनाता है और उसे अर्थ तथा काम पुरुषार्थो की प्राप्ति में लगाता है । परन्तु जब अविवेकपूर्ण ढंग से दण्ड का प्रयोग किया जाता है तो उस से संन्यासियों में भी क्रोध उत्पन्न हो जाता है फिर गृहस्थियों का तो कहना ही क्या । किन्तु फिर भी दण्ड का प्रयोग परम आवश्यक है । यदि इस का प्रयोग नहीं किया जाता तो बलवान निलों को नष्ट कर देते है ।
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अन्यायपूर्ण ढंग से दिये गये दण्ड से होने वाली हानि को ओर संकेत करते हुए आचार्य सोमदेव ने लिखा है कि जो राजा अज्ञानतापूर्वक और क्रोध के वशीभूत होकर दण्डनीति शास्त्र की मर्यादा का उल्लंघन कर के अनुचित ढंग से दण्ड देता है, उस से समस्त प्रजा के लोग द्वेष करने लगते हैं (९, ६) । न्यायी राजा को अपराध के अनुरूप न्याययुक्त दण्ड देकर प्रजा को श्रीवृद्धि करना चाहिए ।
बतलाया है। मनु का सोते है तब दण्ड ह्री
उपर्युक्त विवरण का आशय यही है कि समाज में शान्ति एवं व्यवस्था रखने के लिए दण्ड की परम आवश्यकता है। इस के अभाव में मारस्यन्याय उत्पन्न हो जाता है। राजा को दण्डनीति का ज्ञाता होना चाहिए तथा इस का प्रयोग न्यायपूर्वक करना चाहिए। ऐसा करने से ही प्रजा को धर्म, अर्थ और काम पुरुषार्थों की प्राप्ति हो सकती हूँ । आन्वीक्षिकी, श्रयी और वार्ता की उम्मति और कुशलता का साधक दण्ड ही है ।
१. मनु०७, १०
एवाभिरक्षति ।
०४ शास्ति प्रजाः सर्वा दण्डः सुप्तेषु जागतिं दण्डं धर्म विदुधाः । २. को अर्थ ० १.४ ।
३. नही
विज्ञाप्रणीत हि वः प्रजा धर्मार्थकामै योजयति दुष्प्रणीत कामकोधाभ्यामज्ञानप्रस्थपरं राजकानपि को किमन पुनर्गृहस्थाइ ।
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महाभारत में लिखा है कि जब दण्डनोति निर्जीव हो जाती है तब वेदत्रयी डूब जाते है और वृद्धिप्राप्त अन्य धर्म भी नष्ट हो जाते हैं। प्राचीन राजधर्म अथवा दण्डनीति का जब त्याग कर दिया जाता है तब सम्पूर्ण धर्म और आश्रम मिट जाते है । राजधर्म में ही समस्त स्याग देखे जाते हैं और सब दीक्षाएं राजधर्म में ही मिली हुई हैं, सब विधाएँ राजधर्म में ही कही गयो है और सब लोक राजधर्भ में ही केन्द्राभूत है। इस प्रकार दण्डनीति अथवा राजधर्म की बड़ी महिमा है। इस के महत्त्व के कारण ही शुक्राचार्य ने दण्डनीति को ही एकमात्र विद्या बतलाया है तथा अन्य विद्याओं को इसी के अन्तर्गत रखा है। राज्यांगोंका विशव विवेचन
प्रस्तुत पन्ध में राज्य के सप्तांग सिद्धान्त का प्रतिपादन किया गया है । स्वामो, अमात्य, जनपद, दुर्ग, कोश, बल, मित्र आदि का विशद विवेचन हुआ है । राजधर्म की बड़े विस्तार के साथ व्याख्या की गयी है। राजा के गुण-दोष, कर्तव्य, राजरक्षा आदि विषयों पर पूर्ण प्रकाश डाला गया है। राज्य का लक्षण बताते हुए आचार्य सोमदेव लिखते हैं कि राजा का पृथ्वी की रक्षा के योग्य कर्म राज्य है ( ५,४ ) । वर्ण-ब्राह्मण सत्रिय, वैश्य, शूद्र और आश्रम- ब्रह्मचर्य, गृहस्थ, वानप्रस्थ, और यति से युक्त तथा धान्य, सुवर्ण, पशु और तांबा, लोहा आदि धातुओं को प्रचुर मात्रा में देने वाली पृथ्वी को राज्य कहते हैं ( ५, ५)। परन्तु जिस में ये बातें न पायी जायें वह राज्य नहीं है। राज्य के साथ ही राजा की भी परिभाषा इस ग्रन्थ में को गयो है-"जो अनुकूल चलने वालों ( राजकीय आशा मानने वालों ) की इन्द्र के समान रक्षा करता है तथा प्रतिकूल चलने वालों ( आज्ञा भंग करने वालों ) को यम के समान दण्ड देता हे उसे राजा कहते है (५,१)।" राज्य का मल क्रम और विक्रम है ( ५,२७) । इस को रक्षा करना राजा का परम कर्तव्य है। इस विषय की चर्या करते हुए आचार्य लिखते है कि राजा का कर्तव्य है कि वह अपने राज्य, चाहे वह वंश परम्परा से प्रास हा हो अथवा अपने पुरुषार्थ से, को सुरक्षित, बुद्धिगत और स्थायी बनाने के लिए क्रमसदाचार लक्ष्मी से अलंकृत होकर अपने कोश और शक्ति का संचम कर, अन्यथा दुरापारी और संन्याहीन होने से राज्य नष्ट हो जाता है ( ५, ३०)।
१. महा० शान्ति, ६३, २५-२६ । सर्वे घर्मा राजधर्मप्रघाताः, सबै वर्गाः पास्यमाना भवन्ति । सर्वस्त्यागी राजधर्मघु राजस्थ्यागं धर्म पारध्य पुराणम् ॥ मज्जेत् त्रयी दण्डनीतौ हतायां सर्वे धमः प्रक्षयेयुर्वियुद्धाः । सबै धर्मापचाश्रमाण इताः स्युः क्षात्र व्यक्ते राजधर्म पुराणे । 'शर्षे त्यागा राजधर्मेघु दृष्टाः सी दीक्षा राजधर्मेषु चोक्ताः । सर्वा विद्या राजधर्मघु युक्ताः सर्वे होका राजधः प्रविष्टाः ॥ २. कौ० अर्थ ०१.२ दण्डनीक्षिरेका विद्यमोशनसाः ।
नीतिवाक्यामृत में राजनीति
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इस ग्रन्थ में राज्य की उत्पत्ति के विषय में देवी सिद्धान्त का प्रतिपादन किया गया है । सोमदेव लिखते हैं कि राजा ब्रह्मा, विष्णु और महेश की मूर्ति है। अतः इस से अन्य कोई प्रत्यक्ष देवता नहीं है ( २९, १६ ) । राजा की योग्यताओं के विषय में भी ग्रन्थ में उल्लेख मिलता है। इस विषय में उन का मत है कि जिस पुरुष में राजनीतिज्ञ विद्वान् पुरुषों के द्वारा नीति, आचार, सम्पत्ति और शूरता आदि प्रजापालन में उपयोगी सद्गुण स्थिर हो गये हैं वह पुरुष राजा बनने योग्य है ( ५, ४२ ) । इसी प्रसंग में आगे कहा गया है कि जब राजा दव्य प्रकृति राज्य के योग्य राजनीतिक शान और बाचार, सम्पत्ति यदि सद्गुणों को त्याग कर अद्रव्यप्रकृति मूर्खता, अनाचार और कायरता आदि दोषों को प्राप्त हो जाता है तब वह पागल हाथी की तरह राजपद के योग्य नहीं रहता ( ५, ४३ ) ।
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सन्धि विग्रह, मान, आसन, आश्रय और द्वैधीभाष, प्रभुति राजनीति शास्त्र के तक छह गुणों का भी विवेचन इस ग्रन्थ में हुआ है ( २९, ४३-५० ) | सोमदेव लिखते हैं कि इन गुणों से विभूषित राजा ही अपने पद पर स्थायी रह सकता है । साम, दान, दण्ड, भेद आदि नीतियों का उल्लेख भी ग्रन्थ में हुआ है ( २९, ७० ) । राजा को किस अवसर पर किस नीति का प्रयोग करना चाहिए इस का भी विवरण नीतिवाक्यामृत में उपलब्ध होता है ।
अपराधियों को दण्ड देना और सज्जन पुरुषों की रक्षा करना राजा का धर्म बताया गया है ( ५, २ ) । सिर मुड़ाना और जटाओं का धारण करना मुनियों का धर्म है, राजा का नहीं (५, ३) । राष्ट्र कण्टकों को नष्ट करना तथा न्यायपूर्वक प्रजा का पालन करना राजा का परम धर्म है । जब राजा इस रोति से अपने कर्तव्यों का पालन करता है तो समस्त दिशाएँ प्रजा को अभिलषित फल प्रदान करने वाली होती है ( १७.४५ ) । राजकर्तव्यों के साथ ही राजरक्षा पर भी पर्याप्त प्रकाश डाला गया है ( राजरक्षा समु० ) । राजा को कौन-कौन सी बातों से सचेत रहना चाहिए इस विषय में भी ग्रन्थ में पर्याप्त विवेचन हुआ है। आचार्य सोमदेव लिखते हैं कि राजा को अपरीक्षित मार्ग पर कदापि गमन नहीं करना चाहिए । राजा को मन्त्री, वैद्य तथा ज्योतिपी के दिना मी अन्यत्र प्रस्थान नहीं करना चाहिए। राजा अथवा विवेकी पुरुष का कर्तव्य है कि वह अपनी भोजन सामग्री को भक्षण करने से पूर्व उसे अग्नि में डालकर परोक्षा कर ले | इसी प्रकार वस्त्रादि को भी परीक्षा अपने आप्त पुरुषों से कराते रहना चाहिए । उपहार में प्राप्त हुई किसी भी वस्तु को राजा स्वयं न स्पर्श करे अपने विश्वास पात्रों से उन वस्तुओं को परीक्षा कराने के उपरान्त ही उन का स्पर्श करे । राजा को अपने भवन में किसी भी ऐसी वस्तु को प्रविष्ट होने को आज्ञा नहीं देनी चाहिए जो उस के विश्वास पात्रों द्वारा परीक्षित और निर्दोष सिद्ध न कर दी गयी हो ।
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इस प्रकार राज्य तथा राजा के लक्षण, राजा के गुण-दोष एवं राज्य रक्षा आदि विपयों पर ग्रन्थकार ने पर्याप्त प्रकाश डाला है जो राजनीतिक दृष्टि से बहुत महत्वपूर्ण है।
सोमसूर और उनका नीशिवायास
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राजशास्त्र सम्बन्धी अन्य बातों का विवेचन
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राज्य के सप्तोग सिद्धान्त के अतिरिक्त राज्य शास्त्र से सम्बन्धित अन्य महत्त्व - पूर्ण विषयों की भी चर्चा प्रस्तुत ग्रन्थ में की गयी है । म्यायव्यवस्था, युद्धविधान, सैन्यसंचालन, करप्रणाली पर व्यवस्था एवं परराष्ट्रनीति आदि समस्त विषयों पर सोमदेव ने पर्याप्त प्रकाश डाला है। दण्डविधान की उपयोगिता का वर्णन करते हुए माचार्य सोमदेव ने लिखा है कि जिस प्रकार अग्नि के प्रयोग से टेढ़े बाँसों को सीधा कर लिया जाता है, उसी प्रकार दुर्जन पुरुष भी दण्ड से सीधा हो जाता है ( २८, २५ ) । दण्ड सभी के लिए अपराधानुसार होना चाहिए। राजा को अपने पुत्र को भी उचित दण्ड देना चाहिए। विवाद के विषयों में विभिन्न वर्णों से शपथ लेने की प्रणाली, लेख को प्रमाणिकता आदि बातों पर भी प्रकाश डाला गया है। इस विषय में आचार्य सोमदेव लिखते हैं कि लेख व वचन में से लेख की हो विशेष प्रतिष्ठा है और उसी की अधिक प्रामाणिकता होतो है ( २६, ४२ ) । वनों की आाहे वे बृहस्पति द्वारा ही क्यों न कहे गये हों, प्रतिष्ठा नहीं होती ( २७, ६२ ) ।
( आचार-सम्बन्धी नियमों का विश्लेषण
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"आचारः प्रथमो धर्मः " के आधार पर नीतिवाक्यामृत में आचार धर्म को प्रमुखता दी गयी है | सदाचारों का पालन करने वाला व्यक्ति संसार में यशस्वी होता है । जो सदाचार का पालन नहीं करता ह रोक में जाता है । सोमदेव का कथन है कि लोकजिन्दा का पात्र बृहस्पति के समान उच्च व्यक्ति भी पराजित हो जाता है ( २६, १ ) | अतः सदाचार का पालन राजा एवं साधारण पुरुषों के लिए परमाव श्यक है इसकी आवश्यकता का अनुभव करते हुए आचार्य ने अपने ग्रन्थ नीतिवाक्यामृत में सदाचार समुद्देश की रचना की है ।
वर्णाश्रम व्यवस्था
यह भी एक आश्चर्य की बात है कि आचार्य सोमदेव ने जैनधर्म के अनुयायी होते हुए भी कौटिल्य द्वारा प्रतिपादित वैदिक वर्णाश्रमभ्यवस्था को स्वीकार किया है । उन्होंने नोतिवाक्यामृत में वर्ण और आश्रमों का उल्लेख किया है ( ५, ६-७ ) | आचार्य ने प्रत्येक वर्ण के कार्यों पर भी प्रकाश डाला है ( ७, ७-१० ) । सोमदेव वर्णव्यवस्था के पोषक तो हैं, किन्तु इस क्षेत्र में उन के विचार बहुत उदार है। ये प्रगतिशील विचारों के आचार्य थे । अतः उन्होंने वर्णव्यवस्था के उपयोगी स्वरूप को ही स्वीकार किया है । ज्ञान प्रसार के क्षेत्र में उन का दृष्टिकोण बहुत विशाल था । उन्होंने इस पक्ष की पुष्टि की है कि ज्ञान प्राप्ति का सभी को समान अधिकार है। इस क्षेत्र में वर्णव्यवस्था का प्रतिबन्ध उन्हें अमान्य था । उन का मत है कि ज्ञान एक महान् तीर्थ के समान है, जिस में अवगाहन कर अधम से अधम प्राणी भी महान् बन सकता है। ज्ञानार्जन में सम्प्रदाय,
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धर्म अथवा जाति का विचार घातक है, क्योंकि इन के फेर में पड़कर मनुष्य ज्ञान का फल प्राप्त नहीं कर सकता।
___प्राचार्य का स्पष्ट विचार था कि समाज में सभी वर्गों को यथायोग्य स्थान दिया जाये । इस के साथ ही प्राचार्य सोमदेव महान् राष्ट्रवादी भी थे। इसी कारण उन्होंने राजा को यह आदेश दिया कि जहां तक सम्भव हो वह जम्मष पदों पर अपने देश के व्यक्तियों की ही नियुक्ति करे (१०,६)। इस का कारण यही है कि स्वदेशवासो ही राष्ट्रभक्त हो सकता है और विदेशी अधिकारी समय आने पर धोखा भी दे सकता है। सोमदेव आचार की पवित्रता पर बहुत बल देते हैं और उच्च बंश में जन्म लेने मात्र को श्रेष्ठता अथवा पवित्रता का मापदण्ड नहीं मानते। उन का कथन है कि जिस का आचार शुद्ध है, जिस के घर के पात्र निर्मल हैं और जो शरीर की शुद्धि रखने वाला है वह शूद्र मी देव, द्विज और तपस्वियों को सेवा का अधिकारी है ( ७,१२)। इस के साथ ही उन्होंने यह भी सपा नर दिया है. १६.च: के नियमों का पालन करना समो का समान धर्म है ( ७,१३ )। आगे वे कहते है कि सूर्य के दर्शन के समान धर्म सदाचरण हैं परन्तु विशेष अनुछान में विशेष नियम है ( ७,१४ ) अपने आगम में बताया हुआ अनुष्ठान अपना धर्म है ( ७,१५)। इस का तात्पर्य यही है कि साधारण धर्म के नियम, असे श्रुति, क्षमा, दया, अस्तेय, शौच, इन्द्रियनिग्रह आदि सभी वर्गों के लिए समान है, किन्तु विशिष्ट धर्म के लिए विशिष्ट नियम है । उन्हें वे हो वरण कर सकते है जो उस के अधिकारी है । प्रत्येक वर्ण की अपने-अपने धर्म का पालन करना चाहिए । आचार्य कौटिल्य का भी यही मत है। वे लिखते हैं कि प्रत्येक वर्ण को स्वधर्म का पालन करना चाहिए। यदि व्यक्ति अपना धर्म छोड़कर दूसरे के धर्म के अनुरूप कार्य करने लगेंगे तो इस से वर्णसंकरता उत्पन्न होकर विश्व में अव्यवस्था फैल जायेगी। इस के लिए वे राजा को भी आदेश देते हैं कि राजा देश में कभी वर्णसंकरता का प्रचार न होने दे। वर्णाश्रमधर्म की व्यवस्था के अनुसार यदि संसार कार्य करेगा तो वह कभी खिन्न नहीं होगा, अपितु सर्वदा प्रसन्न रहेगा। आचार्य सोमदेव निर्भीक लेखक श्रे, इसी कारण उन्होंने स्पष्ट रूप से प्रत्येक वर्ण के स्वभाव एवं दोषों पर भी पूर्ण प्रकाश डाला है।
१. अश, आ० १,२०॥ २ को अर्थ१.३।
धर्म: स्माभिनकाय च । झ्यातिकमे लोकः सकरावित। ३. वहो । तुलारस्वधर्मभान राजा न सभिशा येत। रूधर्म संघानी दिपल चेह च नन्दसि । उन रिश्वशायमः कृतवश्रिमस्थितिः । च्या हि रक्षित' लोकः प्रसीदति न सीदति ।।
सोमदेवसूरि और उन का नीतिघाश्यामृत
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कौटुबिक मीटर की मरम
स्मृति तथा अर्थशास्त्र दोनों में ही कुटुम्ब को समाज की इकाई बताया गया है । व्यक्ति ही समस्त कार्यों का कर्ता है और गृहस्थ जीवन पर ही समाज का सम्पूर्ण ढांचा आधारित है । अर्थशास्त्र तथा धर्मशास्त्र दोनों ही वैवाहिक सम्बन्धों को श्रेष्ठ मानते है । मानव जीवन के समस्त संस्कारों में पाणिग्रहण संस्कार को बहुत महत्त्व दिया गया है । आषार्य कौटिल्य का कथन है कि संसार के सारे व्यवहारों का आरम्भ विवाह के अन्तर्गत होता है। आचार्य सोमदेव ने विवाह योग्य कन्या को आयु १२ वर्ष तथा वर की आयु १६ वर्ष बतलायी है ( ३१,१) । अन्य शास्त्रकारों का भी इस सम्बन्ध में यही विचार है। आचार्य सोमदेव विवाह की परिभाषा इस प्रकार करते हैं-युक्तिपूर्वक वरणविधान से अग्नि, शिज, देवताओं की साक्षो के साथ पाणिग्रहण करना विवाह है ( ३१,३ )। आचार्य ने आठ प्रकार के ब्राह्म, आर्ष, प्राजापत्य, देव, आसुर, गान्धर्व, राक्षस तथा पैशाच-विवाहों का उल्लेख किया है (३१,४-१२)। प्रथम चार प्रकार के विवाह धर्मसम्मत तथा अन्तिम चार प्रकार के विवाह धर्मविषद्ध माने जाते थे ( ३१,१३ )। आचार्य ने कन्या के गुण-दोषों पर भी प्रकाश डाला है ( ३१,१७ )। नारी चरित्र का मनोवैज्ञानिक विश्लेषण
नारी चरित्र बड़ा गूढ़ है । उसे समझने में बुद्धिमान पुरुषों की मति भी विचलित हो जाती है । नारी चरित्र के गूछ रहस्यों पर लेखक ने अपूर्व प्रकाश डाला है । इस प्रसंग में आचार्य के प्रमुख सूत्र इस प्रकार है
१. स्त्रियों में विश्वास मरणान्तक होता है । ६,४७)।
२. स्त्री के वश में पड़ा हुआ पुरुष नदी के वेग में पड़े हुए वृक्ष के समान चिरकाल तक प्रसन्न नहीं रहता ( २४,४१)
३. कलत्र को मनुष्य के लिए निमा बेड़ियों के भी बन्धन कहा गया है (२७,१)।
४. जो स्त्री अंगों का आपण करती है तथा धन के कारण प्रणय करती है वह कुरिसत भार्या है ( २५,७)1
५. वह सुखी है जिस के एक स्त्री है ( २७,३९) वेश्याओं को प्रकृति तथा उन से सावधान रहले के निर्देश
प्रत्येक लेखक की रचना पर देश और काल की परिस्थितियों का प्रभाव अवश्य पड़ता है। अन्धकार के समय में इस देश में मणिकाओं का भी समाज में एक १. को० अर्थ, ३.२।
विवाहपृषों म्यवहारः । २. वही, ३८ ।
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विशिष्ट स्थान या । देश्या सेवन के दोषों से तथा उन के प्रति व्यवहार सम्बन्धित वृत्त पर लेखक ने अच्छा प्रकाश डाला है। इस सम्बन्ध में नीतिवाययामत के निम्नलिखित वाक्य उधुत किये जा सकते है
१. वेश्या का स्त्री के रूप में रहना, भाड़ का सेवक होना, शुल्क प्रण करना तथा नियोगी मित्र ये चार वस्तुएं अस्थिर हैं ( २८, ३९ )।
२. बेश्याएं धन का अनुभव करतो हैं व्यक्ति का नहीं ( २४, ४५ )। ३. वैश्याओं की आसक्ति प्राय: बन को नष्ट करने वाली होती है ( २४,
४. धनहीन कामदेव में भी वेश्याएं प्रीति नहीं मानती ( २४, ४८।
५. वह पशुओं का भी पशु है जो अपने धन से वेश्याओं को धनवती बनाता है ( २४, ५०)।
६. चित्त विश्रान्ति पर्यन्त वेश्यागमन उचित है सर्वदा नहीं ( २४, ५२)।
७. सुरक्षित वेश्या भी अपगो प्रकृति को नहीं छोडतो ( २४, ५२ ) । स्वास्थ्य सम्बन्धी नियमों का उल्लेख
नीतिवाक्यामृत में स्वास्थ्य सम्बन्धी नियमों का भी वर्णन किया गया है । इस प्रसंग के कुछ उपयोगी सूत्रों का आश्रय निम्नलिखित है
१. नित्य दन्तघायन न करने वाले को मुखशुद्धि नहीं है ( २५,७)।
२. वेग, व्यायाम, शयन, स्नान, भोजन और स्वच्छन्दवृत्ति ( विहार ) को काल से अतिक्रमित न करें ( २५, १०)।
३. श्रम, स्वेद, आलस्य का दूर होना स्नान का फल है ( २५, २५)। ४. भूखा और प्यासा व्यक्ति कभी तेलमर्दन न करे ( २५, २७ )
५. धूप से सन्तप्त पुरुष को जल में स्नान करना दृष्टि की मन्दता और शिरोव्यथा को उत्पन्न करना है ( २५, २८)।
६. भूख का समय ही भोजन का समय है ( २५, २१)। ७. भूख के समय के अतिक्रम से अन्त में अरुचि और देह को क्षोणता हो जाती
८. मिताहारी ही बहुत खाता है ( २५, ३८)।
९. निरन्तर सेवन की हुई दो ही वस्तुएं सुखदाई होती है-रारस सुन्दर आलाप और ताम्बूल ( २५, ६० )।
१०. अत्यन्त खेद करने से पुरुष अकाल में ही वृद्ध हो जाता है ( २५, ६३ }।') ऐतिहासिक एवं पौराणिक तथ्यों का समावेश
ऐतिहासिक दृष्टान्तों एवं पौराणिक आख्यानों का भी अन्य में यत्र-तत्र उल्लेख हुआ है । जैसे यवनदेश ( यूनान ) में मणिकुण्डला रानी ने अपने पुत्र के राज्य के लिए सोमदेवसूरि और उन का नीतिवाक्यामृत
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विष दूषित शराब के कुरले से अजगजा को, सूरसेम ( मथुरा ) में वसन्तमसि ने विष के आलेप से रंगे हुए अबरों से सुरतविलास नामक राजा को, शार्ण में वृकोदरी ने विलिप्त करधनी से मदनार्णव राजा को, मराठा देश में मदिराक्षी ने तीखे दर्पण से मन्मय विनोद को, पाण्डए देश में बण्डरसा रानी ने केशविन्यास में छिपी हुई कृपाण से मुण्डीर नामक राजा को मार डाला ( २५, ३५-३६) । यशस्तिलक में बहुत से पौराणिक माख्यानों का वर्णन मिलता है। इन प्रसंगों से सोमदेव के विस्तृत एवं व्यापक ज्ञान को को मिलती है ।' नीतिवाक्यामृत में प्राचीन राजाओं के नामों का उल्लेख मिलता है। किन्तु उन को ऐतिहासिकता सिद्ध करने का हमारे पास कोई 'साधन नहीं है। जीवनोपयोगी सूक्तियों का सागर
/ जिस प्रकार अमृत का एक-एक बिन्दु मानव को जीवित रखने में समर्ध है उसी प्रकार नीतिवाक्यामृत का भी प्रत्येक सब जीवन के लिए महोपयोगी है। यह उन्ध नीतिप्रद सकियों का आगार है। ग्रन्थ के कुछ अवीव उपयोगी सत्र यहां उद्धृत किये जाते है
१. मजितेन्द्रिय को किसी भी सिद्धि मारें होती ३, ५॥ २. उस अमृत को त्याग हो जहाँ विष का संसर्ग हो ( ५, ७२)।
३. जिस पाप के करने पर महान् धर्म को प्राप्ति हो वह पाप भी पाप नहीं है ( ६, ४३ )।
४. प्रिय बोलने वाला मयूर के समान शत्रु रूप सौ को नष्ट कर देता है
५. असत्यवादी के समस्त गुण नष्ट हो जाते हैं ( १७, ६)। ६. क्षणिक चित्त वाला कुछ भी सिद्ध नहीं करता ( १०, १४२)। ७, पुरुष, पुरुष का दास नहीं अपितु घन का दास है ( १७, ५४ ) ।
इस प्रकार के अनेक नीतिप्रद वाक्य इस अन्य में व्याप्त है, जो मानव जीवन को सफल एवं समुन्नत बनाने के लिए बहुत उपयोगी सथा अमृततुल्य हैं। )
(उपर्युक्त विवरण से नीतिवाक्यामृत का महत्त्व स्पष्ट हो जाता है । इस ग्रन्थ के महत्व को शब्दों में वर्णन करना कठिन है। इस की जितनी भी प्रशंसा को जाये वह थोड़ी है। ग्रन्थ के अवलोकन से पाठक को राजनीति शास्त्र से सम्बन्धित प्रत्येक बात का पूर्ण एवं सारगभित ज्ञान प्राप्त हो जाता है । मानव समाज को मर्यादित रखने वाले राज्यशासन एवं उसे पल्लवित, संवचित एवं सुरक्षित रखनेवाले राजनीतिक तत्त्वों का प्रस्तुत ग्रन्थ में मनोवैज्ञानिक रूप से विश्लेषण हुआ है। मानव जीवन को समुन्नत बमाने वाले एवं उस का पथ प्रदर्शन करने वाले समस्त विषयों की पर्था इस महत्वपूर्ण
१. यश० आ०४, १० १३८-३E |
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ग्रन्थ में की गयी है । विजिगीषु जिज्ञासु के लिए इस में विस्तृत ज्ञान का भण्डार है। इस के अध्ययन से कोई भी राजनीति का जिज्ञासु पूर्ण प्रकाश प्राप्त कर सकता है । यह ग्रन्थ वास्तव में राजनीति के संचित ज्ञान की अपूर्व निधि है । कोई भी राजा इस निधि को प्राप्त कर के अपने को तपस्य कर सकता है। राजनीति के क्षेत्र में वस्तुतः नीतिवाझ्यामुस का महत्वपूर्ण स्थान है) सोमवेवसूरि को बहुजता
सोमदेवसरि की विद्वत्ता में किसी को भी सन्देह नहीं हो सकता। वास्तव में वे उद्भट विद्वान् थे और उन का ज्ञान बहमुखी था। ये विविध विषयों के ज्ञाता थे। आचार्य सोमदेव बहुज्ञ धर्मशास्त्री, महाकवि, दार्शनिक, तर्कशास्त्री एवं अपूर्व राजनीतिज्ञ ३: अस्सिम
1 2. जनकन से उन के विशाल अध्ययन एवं विविध शास्त्रों के ज्ञाता होने के प्रमाण मिलते हैं । उन की अलौकिक प्रतिमा पाठकों को चमत्कृत कर देती है। सोमदेव सुरि कृत साहित्य के अध्ययन से इन का धर्माचार्य होना निश्चित होता है । जैन धर्म में स्वामी समन्तभद्र का 'रत्नकर' नावकों का एक श्रेष्ठ आचार शास्त्र है। उस के पश्चात् सोमदेवमूरि ने हो स्वाधीनता, मामिकता और उत्तमसा के साथ प्रशस्तिलक के अन्तिम दो बाश्वासों में श्रावकों के आधार का निरूपण किया है । ऐसा विस्तृत विवेचन अभी तक किसी भी अन्य जैन भाचार्य ने नहीं किया है । इस सम्बन्ध में यस्तिलक का उपासकाध्ययम अवलोकनीय है। उस से बिदित होता है कि धर्मशास्त्रों में भी गलिकता और प्रतिभा के लिए विस्तृत क्षेत्र है । सोमदेव को ‘अवलंफदेव', 'हंस सिद्धान्त देव', और पूज्यपाद जैनेन्द्र व्याकरण के रचयिता देवनन्दो के समान ही प्रतिष्ठित माना गया है।
धर्मावार्य होने के कारण उन में उदारता का महान गुण भी दृष्टिगोचर होता है। वे धार्मिक, लौकिक, दार्शनिक सभी प्रकार के साहित्य के अध्ययन के लिए सम को समाम अधिकारी मानते है। उन के विचार में गंगा आदि तीर्थों के मार्ग पर जिस प्रकार ब्राह्मण से लेकर चाण्डाल तक सभी चल सकते हैं उसी प्रकार शास्त्रों के अध्ययन में भी सब का समान अधिकार है । जैनेतर विद्वानों का भी वे आदर करते है । यह सत्य है कि अन की स्वतः जैन सिद्धान्तों में अवल आस्था है और इसी कारण उन्होंने मशस्तिलक में अन्य सिद्धान्तों का खण्डन और जन सिद्धान्तों का मण्डन किया है। फिर भी
१.नासित्र:०, प्रशस्ति पृ०६ । सकन शमयत नाकलकोऽसि वादी, न भषसि सपोक्ती सारवान्देकः । न च वचनविना पूर यादोरा तय वसि कथमिवामी सोमदेवेना २. यश०१,२० लोको जिः कानान्दोकाररा: स्यागाः । मर्व रावरगाः महिभस्तीर्थगा इव स्मृताः ।
खोमदेवपूरि और उन का मोतियाक्यामृत
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वं ज्ञानमार्ग को संकीर्ण नहीं बनाते उन की तो स्पष्ट घोषणा है कि जिस का वचन मुक्तिसंगत है उसी को स्वीकार करना चाहिए ।
सोमदेव का महाकवित्व उन के ग्रन्थ यशस्तिलक चम्पू में प्रकट हुआ है । चम्पू काव्य गद्य-पद्यमय होता है। गद्यकाव्य कवियों की कसौटी है । गद्य रचना में कालित्य और माधुर्य लाने के लिए महान् कौशल अपेक्षित है । चमत्कृत गद्य लिखना कुशल एवं महान् विद्वानों का ही कार्य है । चम्पू महाकाव्य की रचना वही सिद्ध कवि कर सकते हैं जिन का गद्य तथा पद्य रचना में समान अधिकार हुँ । यशस्तिलक चम्पू महाकाव्य सोमदेवसूरि के महाकवि होने का प्रत्यक्ष प्रमाण है। यह महाकाव्य संस्कृत वाङ्मय की अद्भुत रचना है । कवित्व के साथ उस में ज्ञान की भी अपूर्ण भण्डार है । जहाँ इस काव्य में उकि वैचित्र्य से पूर्ण सुभाषितों का आगार हूँ वहाँ वाण और दण्डी रचित दशकुमारचरित की कोटि का गद्य भी है। इस ग्रन्थ की प्रशंसा में यत्र-तत्र भाषार्य सोमदेव ने कुछ श्लोक भी लिखे हैं जिन में उन्होंने अपने काव्य की विशेषता एवं अपूर्वता पर प्रकाश डाला है। उन्होंने अपने चम्पू महाकाव्य की तीन विशेषताएं बतायी है-(१) मौलिकता, (२) अनुपमेयता एवं (३) हृदयमण्डन । आगे वे लिखते है कि लोकव्यवहार एवं कवित्व में दक्षता प्राप्त करने के लिए राज्जनों को सोमदेव कषि को सूक्तियों का अभ्यास करना चाहिए। इन उक्तियों से सोमदेव की कवित्व शक्ति का ज्ञान प्राप्त होता है तथा उन के महाकाव्य यशस्तिलक के महत्व का भी पता चलता है । यशस्तिलक शब्दरूपी रत्नों का विज्ञानकोष है। और इस काव्य के पढ़ने के उपरान्त फिर कोई संस्कृत साहित्य का शब्द शेष नहीं रह जाता। इस के अतिरिक्त इस महाकाव्य में व्यवहार कुशलता का भी महत्वपूर्ण सामग्री उपलब्ध होती है। महाकवि सोमदेव के उत्तम कविता से प्रभावित होकर विद्वज्जन इन को 'वाक्कल्लोल-पयोनिधि' 'कविराजकुंजर' और 'गद्य-पद्य विद्याषर चक्रवर्ती' आदि नामों से सम्बोधित करते हैं । सोमदेवसूरि तर्कशास्त्र के भी पारंगत यशस्तिलक चम्पू में उन का अपने प्रसंग में एक स्पर्धा करता है उस के गर्वरूपी पर्वत को विध्वंस घश्चन कालस्वरूप हो जाते हैं'। आधार्य की यह प्रौढोक्ति उन के पाण्डित्य के अनुरूप
विद्वान् थे । उन के महाकाव्य वाक्य इस प्रकार है- "जो मुझ से करने के लिए वज्र के समान मेरे
१. ० १ १४ ।
असहायमनादर्श रत्न रत्नाकरः दिव
मतः काव्यमिदं जस्तो हृदयमण्डनम् । २. व्ही ३.६१३ ।
लोकत्रिस्वे कवित्वे वा यदि चातुर्यचद्मत्रः । सोमदेवकः सूक्तोः समभ्यस्यन्तु साधत्रः १ ३. वही प्रशस्ति
यः स्पर्धेत तथापि दत्ता गा तस्याथ तानिपतद्विकृतान्तार्यते ।
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हो है । इस के अतिरिक्त उन के प्रखर तर्कशास्त्र के पाण्डित्य को प्रकट करने वाले अन्य श्लोक भी हैं। आत्माभिमान को प्रकट करने वाला एक श्लोक है जिस में वे स्वयं को दर्पान् गजों के लिए सिंह के समान नाव करने ललकारने वाला और वादिगजों के दलित करने वाला मानते हैं। सोमदेवसूरि के शास्त्रार्थ करते समय वागीश्वर या वाचस्पति बृहस्पति भी नहीं ठहर सकते ।
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सोमदेव केवल एक शुष्क तार्किक ही नहीं थे, अपितु साहित्य ममंश सहृदय हृदयाह्लादक रसविशेषज्ञ भी थे। तक का विषय शुष्क व काव्य का विषय सरस होता है, फिर भी काव्य के रचयिता होने पर भी इन के जीवन का बहुत कुछ समय तर्कशास्त्र के स्वाध्याय और मनन में ही व्यतीत हुआ । तर्कशास्त्र के उद्भट वैदुष्य के कारण हो उन्हें स्याद्वादाचलसिंह, वादोभपंचानन और तार्किकषक्रवतीं आदि विशेषणां से अलंकृत किया गया है। सोमदेव व्याकरण, काव्य, धर्मशास्त्र और नोतिशास्त्र के भी पारंगत विद्वान् थे । इस प्रकार हम सोमदेवसूरि को महाकवि, धर्माचार्य, तार्किक तथा राजनीतिज्ञ के रूप में देखते हैं ।
( नीतिवाक्यामृत के निर्माता सोमदेवसूरि का अध्ययन बहुत विशाल था । दे साहित्य, न्याय, व्याकरण, काव्यशास्त्र, दर्शनशास्त्र आदि सभी विषयों के प्रकाण्ड पण्डित थे । जैन साहित्य के पूर्ण परिचय के साथ से जैनेतर साहित्य से भी पूर्णतया परिचित थे। प्राचीन काल के सभी महाकवियों में उन्होंने जैनधर्म के सिद्धान्तों की झलक देखो और उन महाकवियों के काव्यों में नवक्षपणक और दिगम्बर राधुओं का उल्लेख पाया । ऐसा प्रतीत होता है कि वे इन सभी कवियों के साहित्य ये पूर्णतया परिचित थे । इस प्रकार साहित्य के क्षेत्र में उन का विस्मयजनक, विस्तृत एवं विशाल अध्ययन था । व्याकरण के विषय में भी उन्होंने पाणिनि व्याकरण के अतिरिक्त ऐन्द्रव्याकरण, चान्द्रव्याकरण, जैनेन्द्रव्याकरण और मापिथलव्याकरण का भी अध्ययन किया था।
५
नीतिशास्त्र प्रणेताओं में बृहस्पति, शुक्राचार्य, विशालक्ष, परीक्षित, पराशर, भीम, भीष्म और भारद्वाज आदि का कई स्थानों पर स्मरण करते हैं। कौटिलीय अर्थशास्त्र से तो वे पूर्णतया परिचित ये ही ( ३,९,१०, ४, १३, १४ ) । गजविद्या, अश्वविद्या, रत्नपरीक्षा, कामशास्त्र आदि विद्याओं तथा उन के आचार्यों का भी उन्होंन
९. म० प्रशस्ति
दोष सिन्धु सहनादे पा श्री सोमदेवमुनि वचनाराले
बार्गीश्वरोऽपि पुरतस्ताकाले ।
२. श आ० १ ० ६५ । ३. नही, आ० २, पृ० २३
मसूर और उनका नीतिवाक्यामृत
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कई स्थानों पर उल्लेख किया है। दर्शनशास्त्र के क्षेत्र में उन्होंने सैद्धान्त पैशेषिक, ताकिकवैशेषिक, पाशुपत, कुलाचार्य, सांस्य, वशघलशासन, जैमिनीय, बार्हस्पत्य, चेदान्तबादि, काणाद, तथागत, कापिल, ब्रह्माद्वैतवादि आदि दार्शनिक सिद्धान्तों का अध्ययन किया था। इन के अतिरिक्त सोमदेष के साहित्य में मसंग, भृगु, भर्ग, भरत, गौतम, गर्ग, पिंगल, पुलह, पुलोम, पुलस्ति, पराशर, मरीचि, विरोचन, धूमध्वज, नीलपट, अहिल आदि प्रसिद्ध एवं अप्रसिद्ध आचार्यों के नामों का उल्लेख मिलता है। उन के ऐतिहासिक दृष्टान्त बड़े सजीव है और इस के साथ ही पौराणिक आख्यानों का भी यत्र-तत्र उल्लेख मिलता है।
इन सब पर विचार करने के उगाह पर गहुँनते हैं कि आचार्य सोमदेव का ज्ञान विशाल स्वाध्याय के आधार पर अत्यन्त विस्तृत था । राजनीति के क्षेत्र में भी उन का अपूर्व स्थान है। वे केवल लक्ष्य अन्य के रचयिता ही नहीं थे, अपितु उन्होंने अपनी राजनीति का एक प्रयोगात्मक ग्रन्थ भी लिखा है । नीतिवाक्यामृत यदि नीति का लक्ष्य मन्थ है तो यशस्तिलक उन की राजनीति के प्रयोग का ध्याघहारिक अन्य है। यशोधर महाराज के चरित्र-चित्रण में राजनीति का प्रयोगात्मक विस्तृत विवेचन सोमदेवसूरि को राजनीति के आचार्यत्व को प्रतिष्ठा प्राप्त कराने में पूर्ण समर्थ है इस विषय में सदा स्लिलक का तृतीय आश्वास अवलोकनीय है ।
१. यश०, पा०४, पृ० २३६-३७ । २. वही, पृ० २६९-७० । ३. वही. आ०१. पृ८ २५.२.२१५ ए
।
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राज्य
राज्य की प्रथा
कौटिल्य के अर्थशास्त्र तथा कामन्दक के नीतिसार में राज्य को परिभाषा उपलब्ध नहीं होती। इन में राज्य के अंगों अथवा प्रकृतियों का वर्णन तो है, किन्तु राज्य की परिभाषा नहीं है। प्राचार्य सोमदेवसूरि ने राज्यांगों के वर्णन के साथ ही राज्य की परिभाषा भी दी है। एक स्थान पर वह लिखते हैं कि राजा का पृटी की रक्षा के योग्य कर्म राज्य है (५, ४) । इसी प्रकार आगे उन्होंने लिखा है कि ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य, शूद और पाश्रमों ( ब्रह्मचर्य, गृहस्थ, पानप्रस्थ, संन्यास अथवा यति ) से युक्त तमा धान्य, सुवर्ण, पशु, तांबा, लोहा आदि धातुओं को प्रचुर मात्रा में प्रदान करने वाली पृथ्वी को राज्य कहते हैं ( ५, ५)।
आचार्य सोमदेव ने उपर्युन परिभाषाओं में सूक्ष्म रूप से राज्य के विशाल स्वरूप का समावेश किमा है । इन के विश्लेषण से उस स्वरूप का परिज्ञान होगा।
प्रथम' परिभाषा में मुख्य रूप से राज्य के तीन तत्त्व दृष्टिगोचर होते हैं(2) राजा, (२) पृथ्वी तथा ( ३ ) पृथ्वी की रक्षा के योग्य कर्म । उम के अनुसार राज्य का मल तत्व पृथ्वी है। परन्तु यह पृथ्वी ऐशो होनी चाहिए जो उपजाऊ हो, धनधान्य से पूर्ण हो और जिस में ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य, वाद्र और पति आदि नियाम करते हों। ऊसर तथा मनुष्य विहीन पृथ्वो को राज्य नहीं कहा जा सकता । द्वितीय परिभाषा में राज्य के दो प्रमुख तत्त्य विद्यमान है। एक पृथ्वी अथवा भूभाग और दुसग उस पर निवास करने वाली जनता ।
इस परिभाषा के सामने आते ही यह प्रश्न उपस्थित होता है कि पृथ्वी की रक्षा के योग्य कोन से कर्म हैं और उन्हें कौन कर सकता है । यह निर्विवाद है कि पृथ्ती की रक्षा सैन्य और कोष की शक्ति पर ही निर्भर है । अतः पृथ्वी की रक्षा के हेतु शर-वीर एवं देशभक्त सैनिकों का संगठन करना राजा का परम कर्तव्य है। सेना को वेतन आदि से सन्तुष्ट रखने और उसे अस्त्र-शस्त्रादि से सुसज्जित करने के लिए कोश की आवश्यकता होती है। सेना ही नहीं, अपितु समग्र शासन यन्त्र का संचालन पूर्णतया कोश पर ही निर्भर है । इस कारण देश की रक्षा और समृद्धि के लिए कोश की आवश्यकता होती है । अतः राजा का यह कर्तव्य हो जाता है कि वह उत्तम कृषि-वार्ता तथा अन्य उचित उपायों द्वारा समृद्धिशाली कोश का निर्माण करे । आचार्य सोमदेव
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ने कोश की परिभाषा इन वादों में को-को सोना, पानी, होरे, जवाहरात तथा अन्य बहुमूल्य रनों से परिपूर्ण हो और राज्य पर आने वाले किसी भी संकट का दोघकाल तक सामना करने में समर्थ हो वह कोश है (२१,१)" आगे आचार्य लिखते है कि कोश, दण्ड और बल ( सेना ) राजा की शक्ति है ( २९, ३८) 1 अतः पृथ्वी की रक्षार्थ इन की उचित व्यवस्था करना भी राजा का परम कर्तव्य है । राजा अकेला इन कार्यों का सम्पादन नहीं कर सकता । इसलिए वह अपनी सहायतार्थ अमात्यों एवं अन्य राजकर्मचारियों की नियुक्ति करता है। सुयोग्य मन्त्रियों एवं कर्मचारियों की नियुक्ति करना भी राजा का एक कर्तव्य है। राज्य की सुरक्षा के लिए उस के चारों ओर सुदृढ़ दुर्गों का निर्माण कराना भी राजा का कर्तव्य है । इन कार्यों के अतिरिक्त राजा द्वारा पाइगुण्य के यथोचित प्रयोग से भी राज्य की रक्षा होती है। पाइगुण्य ( सन्धि, विग्रह. यान, आसन, संश्रय और दूधीभाव ) द्वारा वह शत्रराज्यों का हनन तथा अन्य राज्यों से मंत्रीपूर्ण सम्बन्ध स्थापित करता है, जिस से राज्य की सुरक्षा सुदृढ़ होती है। यह सम्पूर्ण कार्य ऐसे राजा द्वारा ही सम्पन्न हो सकते हैं जो स्वतन्त्र हो और अपने राज्य में संप्रभु हो तथा जिस की याज्ञा का पालन उस राज्य में निवास करने वाले व्यक्ति पूर्णरूपेण करते हों। ऐसा राजा ही स्वतन्त्र राज्यों से मंत्री स्थापित करने में सफल हो सकता है।
राज्य को द्वितीय परिभाषा में आचार्य सोमदेव ने लिखा है कि वश्रिम, धान्य, सुवर्ण, पश, तांबा, लोहा आदि धातुओं से युक्त पृथ्वी को राज्य कहते हैं ( ५,५)। आचार्य द्वारा दी गयी राज्य की यह परिभाषा भी बड़ी सारभित है। इस में राज्य के मल तस्व जनता ( जनसंख्या ) पर विशेष बल दिया गया है। राज्य के लिए जनसंख्या का होना नितान्त आवश्यक है। पशु अथवा पक्षियों के समूह से किसी राज्य की स्थापना नहीं हो सकती । उस के लिए मनुष्यों के सुसंगठित समुदाय का होना आवश्यक है। राज्य में बितनी जनसंख्या होनी चाहिए, इस विषय में विद्वानों में मतभेद है। किन्तु यह बात निश्चित है कि राज्य की जनसंख्या जितनो अधिक होगी और उस में जितने अधिक प्राकृतिक साधन होंगे वह राज्य उतना हो शाक्तिशाली होगा।
___ आचार्य सोमदेवसरि ने राज्य की जनसंख्या कितनी होनी चाहिए इस और कोई संकेत नहीं किया है। किन्तु उन्होंने राज्य के लिए जनता का होना परम आवश्यक बतलाया है। उन्होंने उस जनसमुदाय को वर्णाश्रम से मुक्त होने की आवश्यकता पर बल दिया है । इस · प्रकार सोमदेव ने कर्तव्यनिष्ठ समाज की ओर संकेत किया है।
इस के अतिरिक्त उन्होंने राज्य के लिए प्राकृतिक साधनों का उपलब्ध होना भी आवश्यक बतलाया है। इन साधनों के अभाव में कोई भी राज्य स्थायी नहीं हो सकता। स्थायित्व का होना राज्य का प्रमुख लक्षण है, किन्तु धान्य-सुवर्ण एवं अन्य
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धातुओं के अभाव में लोगों का जीवन सुरक्षित नहीं रह सकता । इस के साथ ही राज्य का संचालन भी असम्भव ही होगा। कोश ही राज्य का प्राण है और उस के अभाव में कोई भी राज्य अपने कर्तव्यों का पालन नहीं कर सकता । प्राकृतिक साधनों तथा जनता पर लगाये गये कर से ही कोश संचित होता है ।
इस प्रकार आचार्य सोमदेव द्वारा प्रस्तुत राज्य की द्वितीय परिभाषा भी बड़ी वैज्ञानिक एवं उपयोगी है ।
इस प्रकार माचार्य सोमदेवसूरि द्वारा वर्णित राज्य की परिभाषाओं में उन सब तत्वों का समावेश है जो प्राचीन परम्परा द्वारा सर्वमान्य हैं। भूमि, जनसंख्या, राजा, मनुष्यों द्वारा बसी हुई पृथ्वी ( जनपद ) तथा उस को रक्षा के लिए किये जाने वाले कार्य --अमात्य, कोश, बल ( सेना ), दुर्ग तथा मित्र आदि की व्यवस्था ।
राज्य के तत्त्व
१
आधुनिक राज्यशास्त्रवेताओं ने राज्य के बार मूळ तत्त्व बतलाये है । टेल के अनुसार जनसंख्या, भूभाग, सरकार अथवा शासन और सार्वभौमिकता राज्य के प्रमुख तत्त्व है। राज्य का निर्माण तभी हो सकता है जब ये सभी तत्व विद्यमान हों। इनमें से किसी एक तत्त्व के अभाव में राज्य का निर्माण नहीं हो सकता । गार्नर की परिभाषा में भी उपर्युक्त चार तत्व परिलक्षित होते हैं । किन्तु प्राचीन राज्यशास्त्र प्रणेताओं ने एकमत से राज्य को सात प्रकृतियाँ अथवा मंग माने हैं। इन्हीं तत्वों से मिल कर राजा का स्वनिर्मित होता है। से स्वामी, अमात्य, पुर, राष्ट्र, कोश, दण्ड और सुहृद् है | आचार्य सोमदेव द्वारा प्रस्तुत राज्य की परिभाषा में इन समस्त तत्त्वों का पूर्ण समावेश है। आधुनिक विचारकों द्वारा प्रतिपादित राज्य के चारों तत्वों का भारतीय विचारकों द्वारा वर्णित राज्य के अंगों में पूर्ण समावेश हो जाता है । वास्तव में भारतीय राज्यशास्त्रियों द्वारा दी गयी राज्य की परिभाषा अधिक स्पष्ट एवं पूर्ण है। आधुनिक विद्वानों द्वारा वर्णित तक्ष्यों में से जनसंख्या तथा भूभाग का समादेश जनपद शब्द में हो जाता है। जनपद शब्द न केवल भूभाग को प्रकट करता है वरन उस पर निवास करने वाली जनसंख्या को भी ( १९,५ ) | अतः एक निश्चित भूभाग पर बसी हुई जनसंख्या को भी जनपद कहते हैं | स्वामी अथवा राजा के अन्तर्गत सार्वभौमिकता का समावेश है, क्योंकि जिस भूभाग का वह स्वामी हूँ वह उस में सार्वभौम है । बाह्य अथवा आन्तरिक नियन्त्रण से वह परे हैं। गेटेल को परिभाषा के
९. R. G. Gettell – Political Scienco, P. 20.
A state, therefore, may be defined as a community of persons, permanently occupying a definite territory, legally independent of external control, and possessing an organized Government which creates and administers law over all persons and groups within its jurisdiction,
3.F. W. Garner-Introduction to Political Science, P. 41.
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अनुसार शासन अथवा सरकार राज्य का चौथा अंग है, जिस का समावेश स्वामी एवं अमात्य में हो जाता है। सरकार से ऐसे संगठन का बोध होता है जिस में कुछ लोग शासन करते है और अन्य उन की आज्ञाओं का पालन करते है। यह विचार भारतीय परिभाषा में सुस्पष्ट है । राजा और अमात्य सरकार का निर्माण करते हैं और जनपद चन की आज्ञा का पालन करता है। राज्य की परिभाषा में शासन शम्द केवल शासक और शासित में भेद ही नहीं बतलाता अपितु उन साधनों की ओर भी संकेत करता है जिन के द्वार लसद शाह 'पअपना 'पाधिपत्य रखता है। शासन द्वारा शासक और शासितों में भेद बतलाना ही पर्याप्त नहीं है अपितु सन उपायों का भी उल्लेख करना आवश्यक है, जिन के द्वारा राज्य अपनो इच्छा को कार्यान्वित करता है । वे उपाय है-कोश, दुर्ग, और बल । यदि किसी कारण से जनता राजा की माझा का उल्लंघन करती है तो वह उक्त साधनों द्वारा अपनी आज्ञा को पूर्ण करा सकता है। अत: दुर्ग, सेना और कोश राजा की इच्छा को कार्यान्वित करने के साधन है और वे राज्य के आवश्यक अंग है । भारतीय परिभाषा के अनुसार राज्य का अन्तिम अंग मित्र अथवा सुहृद् है। भारतीय मनीषियों ने मित्र को राज्य का आवषयक अंग इसलिए माचा है कि उपयुक्त मित्रों की सहायता पर ही राज्य का अस्तित्व निर्भर है। प्राचीन काल में प्रत्येक राज्य की सुरक्षा शकिसतुलन से ही सम्भब थी। शक्तिसंतुलन से तात्पर्य यह है कि राज्य इस प्रकार अपने मैत्रीपूर्ण सम्बन्ध स्थापित करे कि शक्तिशाली राज्य को उस पर आक्रमण करने का साहस ही न हो। अत: राज्य की सुरक्षा के हित में मित्र की अत्यन्त आवश्यकता थी। इसलिए आचार्यों ने उस को भी राज्य का एक आवश्यक अंग माना है।
भारतीय विचारकों और विशेषकर सोमदेवसूरि द्वारा राज्य को जी परिभाषा दी गयी है, उस से राज्य का स्वरूप भली-भाँति प्रकट हो जाता है । गेटेल तथा अन्य आधुनिक विद्वानों ने राज्य की जो परिभाषाएँ दी है के अपूर्ण है, क्योंकि उन्होंने राज्य के जो चार तत्त्व बतलाये है, उन में जनसंख्या और भूभाग तो राज्य के तस्व कहे जा सकते है किन्तु सार्वभौमिकता और शासन को उस के तत्त्वों में सम्मिलित नहीं किया जा सकता । क्योंकि वे राज्य की विशेषताएँ है न कि तत्त्व । वे राज्य की परिभाषा के लिए भले ही उपयुक्त हों, परन्तु वे उस के स्वभाव एवं गठन को यथोचित रूप से प्रकट नहीं करते । आवार्य सोमदेव द्वारा दी गयो राज्य की परिभाषा सुस्पष्ट एवं पूर्ण है। राज्य की उत्पत्ति
राजनीतिशास्त्र के पाश्चात्य विद्वानों ने राज्य को उत्पत्ति के चार प्रमुख सिद्धान्तों का उल्लेख किया है (१) देवी सिद्धान्त, (२) शक्ति सिद्धान्त, ( ३ ) सामाजिक अनुबन्ध का सिद्धान्त तथा ( ४ ) ऐतिहासिक अथवा विकासबादी सिद्धान्त ।
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इन में से प्रथम तीन सिवान्तों को भ्रामक और मिथ्या माना जाता है तथा चौथा सिद्धान्त राज्य को उत्पत्ति का वास्तविक सिद्धान्त कहा जाता है। भारतीय विचारकों ने राज्य को उत्पत्ति के विषय में विवेचन नहीं किया है, अपितु वे राजा को उत्पत्ति के विषय में ही वर्णन करते हैं । इस का कारण यह है कि राज्य की उत्पत्ति तभी होती है जब शासक और शासित दो वर्ग बन जाते हैं । अतः प्राचीन भारतीय राजशास्त्र प्रणेताओं ने राजा की उत्पत्ति के विषय में वर्णन किया है।
प्राचीन काल में न कोई राजा था और न राज्य । प्राकृतिक युग की धार्मिक स्थिति कालान्तर में अराजक दशा में परिणत हो गयी जिस का अम्त करने के लिए राजा की सुष्टिान्तीय ग्रन्थों में सामान्यत: पीके श्रीन सिद्धान्त प्रतिपादित किये गये हैं। प्रथम देवी सिद्धान्त, जिस के अनुसार राजा की सृष्टि ईश्वर द्वारा बतायी जाती है । महाभारत तथा अन्य स्मृति ग्रन्थों में यह सिद्धान्त पाया जाता है । द्वितीय, सामाजिक अनुबन्ध का सिद्धान्त है जिस का वर्णन बौद्ध ग्रन्थों तथा अर्थशास्त्र में मिलता है । जिस के अनुसार राजा की उत्पत्ति प्रजा के पारस्परिक समझौते के परिणाम स्वरूप बतलायी जाती है । तृतीय सिद्धान्त वैदिक सिद्धान्त है जो यह मानता है कि राजा की उत्पत्ति युद्ध में नेता को आवश्यकता के परिणाम स्वरूप हुई। इन सिद्धान्तों का वर्णन अगले अध्याय में किया जायेगा । राज्य के अंग
समस्त प्राचीन राजशास्त्र प्रणेशाओं ने यह स्वीकार किया है कि राज्य सात तत्वों ( अगों ) से मिलकर बना है। इसी कारण प्राचीन राजनीति प्रधान ग्रन्थों में उसे सप्तांगराज्य के नाम से सम्बोधित किया गया है। यद्यपि नीतिवाक्यामुल में राज्य के इन सातों हो अंगों का विशद विवेचन हुआ है किन्तु उस में सरोग शब्द का उल्लेख कहीं नहीं मिलता। राज्य के सात अंग-स्वामी, अमात्य, जनपद (राष्ट्र), दुर्ग (पुर), कोश, दण्ड (बल) तथा मित्र (मूहद) है। समस्त धर्मशास्यों एवं अर्थशास्त्रों में राज्य के इन्हीं सात अंगों का वर्णन मिलता है । महाभारत के शान्तिपर्व में राज्य के सप्तांस स्वरूप को इस प्रकार व्यक्त किया गया है-आत्मा, अमात्य, कोश, दण्ड, मित्र, जनपद तथा पुर समांग राज्य के अंग है। इस में राजा को राज्य की आत्मा माना गया है और इसो कारण राजा के लिए आत्मा शब्द का प्रयोग किया गया है। मनुस्मृति में भो सप्तांग राज्य का वर्णन मिलता है। उस के अनुसार स्वामी, अमात्य, पुर राष्ट्र,
१. महा० शास्ति०५६.१४ । २. नहीं.. १०-११०। ३. दीघनिकाय, भा०३, पृ० ८५-६६ । ४, कौ० अर्थ० १, १२। १.ऐ० प्रा० १.१४। १. मदः शान्ति०५६.६४-६५ ।
१५
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कोश, दण्ड तथा वन राज्य के सात अंग है। आचार्य कौटिल्य तथा विष्णुधर्मसूत्र में राज्य के अंगों के लिए प्रकृति शब्द का प्रयोग किया गया है। कौटिल्य के अनुसार स्वामी, अमात्य, जनपद, दुर्ग, कोश, दण्ड और मित्र राज्य की प्रकृतियाँ हैं । विष्णुधर्मसूत्र में जनपद के स्थान पर राष्ट्र शब्द आया है । याज्ञवल्क्य में भी कौटिल्य के समान हो सात मंग बताये गये हैं । * वारद स्मृति में कहा गया है कि राज्य के सात अंग होते हैं, किन्तु इन का पृथक-पृथक उल्लेख नहीं मिलता । शुक्रनीतिसार में राज्योगों का विशद विवेचन है। राज्य को सप्तांग राज्य के नाम से सम्बोधित करते
ऐसी स्थिति में
आचार्य शुक्र लिखते हैं कि स्वामी अमात्य, दण्ड, कोश दुर्ग, राष्ट्र और बल राज्य के सात अंग है।' वे राज्य के उपर्युक्त सात अंगों की तुलना मानव शरीर के अवयवों कोश से करते हैं । राजा राज्य रूपी शरीर का मस्तक हूं और मन्त्री नेत्र, मित्र कान, मुख, बल मन, दुर्ग हाथ, पैर राष्ट्र है। राष्ट्र को उपमा पैरों से इसलिए दी गयी है कि वह राज्य का मूलाधार है । उसी के सहारे राज्य रूपी शरीर स्थिर रहता है । बल को मन के समान बतलाया गया है । शरीर में इन्द्रियों का स्वामी मन है और वही उन्हें किसी कार्य में प्रवृत अथवा निवृत्त करता है। राज्य में यदि बल अथवा सेना न हो तो वह पूर्णतया अरक्षित रहता है और कोई भी कार्य नहीं कर सकता। वह अपने अंगों तक से अपनी आज्ञा का पालन नहीं करा सकता। इसी कारण बल की उपमा मन से दी गयी है। कोश की तुलना मुख से की है। जिस प्रकार मुख द्वारा किया गया भोजन शरीर के समस्त अंगों को शक्ति प्रदान कर उन्हें पुष्ट बनाता है उसी प्रकार राजकोश में धन संचित होने से सभी अंगों की पुष्टि होती है । मन्त्री की उपमा नेत्रों से इसलिए दी गयी है कि राज्य का प्रायः समस्त व्यवहार मन्त्रियों के परामर्श से ही चलता है | मनुष्य पर आक्रमण होने पर सब से पहले उस का हाथ ही प्रहार को रोकने के लिए आगे बढ़ता है। उसी प्रकार राज्य पर जब आक्रमण होता है तो प्रथम प्रहार दुर्ग को ही सहन करना पड़ता है। इसी कारण दुर्ग की तुलना हाथों से की गयी है । कामन्दक भी राज्य के सात अंग मानते हैं । उन के अनुसार स्वामी, अमात्य, राष्ट्र, दुर्ग, कोश, बल और सुहृद् राज्य के सात अंग हैं।
१. मनु० ६ २६४
स्वाम्यमात्य पर राष्ट्र' कोशदण्डी मुद्वत्तथा ।
प्रकृतया ताः सप्ताङ्ग राज्यमुच्यते ।
२. कौ० अर्थ ६, ९ ॥
む
स्वाम्यमा जनपद दुर्ग कोशदण्ड भित्राणि प्रकृतयः।
प्र. विष्णु धर्मसूत्र ३, २३ ।
मदुर्ग कोशद४२ष्ट्रमित्राणि प्रकृतयः ।
४. या३० ९.१५३ ।
४. नारद० प्रकीर्णक ४
६. ६० ९.६६ ।
७. वही १, ६१-६२ ।
कारक ९, ९६ ।
१४६
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आचार्य सोमदेव ने भी इस परम्परागत राज्य के सप्तांग सिद्धान्त का नोतिवाक्यामृत में पूर्ण समर्थन किया है । प्रत्येक अंग के गुण-दोषों पर भी उन्होंने प्रकाश डाला है। विभिन्न समुद्देशों में आचार्य ने इन राज्यांगों पर अपने विचार व्यक्त किये है।
___ इस प्रकार समस्त प्राचीन राजशास्त्र प्रणेताओं ने राज्य के सात अंगों का उल्लेख किया है । नाम अथवा वर्णन क्रम में भले ही कहीं अन्तर हो, किन्तु इस बात को सभी आचार्य स्वीकार करते है कि राज्य सात अंगों से निर्मित हुआ है। राण्यांगों के क्रम के विषय में मनु ने लिखा है कि राज्यांगों का क्रम उन के महत्त्व के अनुसार रखा गया है । इस का अभिप्राय यही है कि जिस अंग का सब से अधिक महत्त्व है उसे प्रथम स्थान पर प्रस्तुत किया गया है, उस से कम महत्त्व के अंग को द्वितीय स्थान पर और इपी प्रकार अन्य अंगों का कम है। इसी प्रकाट कौटिल्य ने भी राज्यांगों के क्रम एवं महत्त्व के सम्बन्ध में आचार्यों के विचारों का उल्लेख करते हुए लिखा है कि आचार्यों का मत है कि स्वामी ( राजा ), अमात्य, जनपद, खुर्ग, कोश, सेना और मित्र इन पर विपत्ति आने पर अग्निम की अपेक्षा पूर्व की विपत्ति का माना अत्यात कष्टदायक है। अर्थात् राजा और अमात्य इन दोनों पर आपत्ति आने पर राजा की आपत्ति अधिक भयावह है, इसी प्रकार अन्य प्रकृतियों के सम्बन्ध में भी है। आचार्य सोमदेव ने भी कहा है कि राजा की रक्षा होने से समस्त राष्ट्र सुरक्षित रहता है 1४ आचार्य कौटिल्य तो यहाँ तक कहते हैं कि राजा हो राज्य है। राजनीतिप्रकाशिका एवं मत्स्यपुराण में भी राज्य के सप्तांगों में राजा को हो सर्वश्रेष्ट स्थान प्रदान किया गया है।
राज्यांगों के महत्त्व के विषय में मनु के विचार उल्लेखनीय है ! उन के अनुसार विषम स्थिति में कुछ अंगों ( स्वामी, अमात्यादि ) का महत्त्व अवश्य है, किन्तु साधारण स्थिति में सभी अंग राज्य रूपी शरीर के लिए आवश्यक है और अपने-अपने स्थान पर सभी का महत्त्व है । एक अंग के अभाव की पूर्ति दूसरा नहीं कर सकता। राज्य का अस्तित्व तभी स्थायो हो सकता है जब उस के समस्त अंग परस्पर मिलकर और समविचार से कार्य करें। कामन्दक का भी इस विषय में यही विचार है। मनु
१. मनु०६, २६१।
सप्तानो प्रकृतीनां तु राज्यस्था यथाक्रमम् । पुन पुत्र गुरुतर जानीयाद्यसन महृत् ॥ २. कौ० अर्थ ५१। ३. बही।
रखाम्बमात्य जनपददृर्गकोशदमित्रज्यसताना पुर्व पूर्व गरीय त्याचार्याः । ४. नीतिका० २४,१। १. कोपर्धन, ६, राजनीति मलाशिकः, पृ० १२३ । ७, मनु०६, २६७1 ८. कापन्दक ४,१.
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के अनुसार राज्य के सातों अंग एक दूसरे से सम्बद्ध है और ये राज्य को एक सजीव इकाई बनाते हैं। रमले मासी के निशाना साइरण देकर यह बताया है कि जिस प्रकार त्रिदण्ड के तीनों दण्डों का महत्त्व एक समान होता है उसी प्रकार राज्य के सातों अंगों में कोई किसी से बड़ा नहीं है। उन में प्रत्येक का अपने स्थान पर महत्व है। जिस प्रकार शरीर के अंग अपना महत्त्व रखते है उसी प्रकार राज्य के सातों बंग अपने-अपने स्थान पर महत्त्वपूर्ण है। यदि एक अंग भी विकारग्रस्त हो जाता है प्रो सम्पूर्ण राज्य रूपी शरीर का स्वास्थ्य असन्तोषजनक हो जाता है। अतः राज्य को सदस्य, शाक्तिशाली एवं घोह स्थिति में रखने के लिए उस के सभी अंगों का स्वस्थ होना परम पावश्यक है । यह हो सकता है कि किसी अंग के विकृत होने से समस्त राज्य रूपी शरीर पर उतना प्रभाव न पड़े, परन्तु उस को कार्यक्षमता अवश्य प्रभावित होगी । राज्य रूपी प्राणो के सुचारु रूप से संचालन के लिए यह आवश्यक है कि उस के समी अंग स्वस्थ हों। रुग्ण अंगों से कोई भी प्राणी भली-भांति अपने कार्यों का सम्पादन नहीं कर सकता । राज्य को भी ठीक ऐसी ही स्थिति है । उस के प्रत्येक अंग के कार्य पृथक् अवश्य है, किन्तु वे सभी राज्प रूपी प्राणी के सुख-समृद्धि के लिए कार्य करते है। कामन्दक ने ठीक ही लिखा है कि राज्य के ये अंग एक दूसरे के पुरफ है। यदि राज्य रूपी शरीर का कोई भी अंग विकृत हो जाये तो राज्य का संचालन असम्भव हो जाता है। अत: राज्य रूपी शरीर के भली-भांति संचालन के लिए विकृत अंग का सुधार शीघ्रातिशीन करना चाहिए। राज्यांगों की श्रेष्ठता पर ही राज्य की समृद्धि निर्भर है।
उपर्युक्त विवरण से स्पष्ट है कि प्राचीन राजशास्त्र वेत्ताओं ने राज्य के सात अंग बताये है और उन की तुलना मानष शरीर के अंगों से की है। अतः ये विचारक राज्य के सावयव स्वरूप के सिद्धान्त में विश्वास रखते थे । पाश्चात्य देशों में उन्नीसवां शताब्दी में राज्य के सापया स्वरूप के जिस सिद्धान्त का विकास' हा उस के दर्शन भारत में महाभारत काल में ही होते हैं। प्राचीन भारत के लगभग सभी राजशास्त्र वेत्ताओं में राज्य का सप्तांग स्वरूप स्थिर किया है। अंग शब्द तथा आचार्य शक के राज्यांगों के रूपक से राज्य के सावयव स्वरूप के सिद्धान्त की पुष्टि पूर्ण रूप से हो आती है। प्रो भण्डारकर, डॉ० के० पी. जायसवाल, प्रो. बी. के. सरकार' आदि विद्वानों का विचार है कि प्राचीन राजनीतिज्ञों द्वारा राज्य का सात अंगों में विश्लेषण यह प्रकट करता है कि राज्य के सावयव स्वरूप का विचार अथवा राज्य का सावयघ
१. मनु०६. २९६ । २. कामन्दक: ४,२। ३. Bhandarkar-Skime Aspects of Ancient Indian Polity, PP.GG,GB, 7. K. P, Jayaswal - Hindu Polity, l'art ]I, P.9. १.B. K. Sarkar-Fasitive luck ground of Hindu Soriology, Part II, TP.34-39,
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सिद्धान्त भारतीय राजनीतिज्ञों को विदित था। सप्तांग राज्य का सिद्धान्त लश्ली तथा अन्य पाश्चात्त्य विद्वानों द्वारा दी गयो राज्य की परिभाषा को सन्तोषजनक पति करता है। इन सब बातों से यही सिद्ध होता है, कि भारतीय राजनीतिज्ञों के मस्तिष्क में राज्य के सावयव स्वरूप के सिद्धान्त का विचार बङ्गत प्राचीन काल में ही विद्यमान था। और वे राज्य को सजीव प्राणी के अनुरूप ही मानते थे।
राज्य के कार्य
आचार्य सोमदेवसूरि ने राज्य के कार्यों का भी विवेचन नीतिवाक्यामृत में किया है। आधुनिक विद्वान् राज्य के कार्यों का विभाजन दो भागों में करते है
१. आवश्यक कार्य तथा २. ऐमिछक कार्य । आवश्यक कार्यों के अन्तर्गत वे कार्य आते है जिन का करना प्रत्येक राज्य के लिए आवश्यक होता है। यदि राज्य उन कार्यों को पति नहीं करता वो उस का अस्तिष हो नष्ट : नाता है। अन्य राज्यों के साथ सम्बन्ध स्थापित करना, प्रजा को बाह्य आक्रमणों तथा आन्तरिक राष्ट्र कण्टकों से रक्षा करना एवं देश में पूर्ण शान्ति तथा व्यवस्था बनाये रखना राज्य के आवश्यक कार्य है। इन कार्यों के करने के लिए उसे सुसंगठित सेना की स्थापना, पुलिस की व्यवस्था, राज्य कर्मचारियों की नियुक्ति तथा न्यायालयों की व्यवस्था करनी पड़ती है। इम समस्त कार्यों की पूर्ति के लिए राजा प्रजा से कर ग्रहण करता है।
वैकल्पिक अथवा ऐच्छिक कार्यों में वे कार्य सम्मिलित है जिन का करना राज्य को इच्छा पर निर्भर है। इन कार्यों के अन्तर्गत शिक्षा की व्यवस्था, जनता के स्वास्थ्य की रक्षा, कृषि एवं व्यापार की उन्नति करना, यातायात के साधनों को विकसित करना तथा आर्थिक सुरक्षा आदि है।
आचार्य सोमदेवसूरि ने राज्य के दोनों प्रकार के कार्यों का उल्लेख नोतिवाक्यामत में किया है। उन के अनुसार शिष्ट पुरुषों की रक्षा तथा दुष्टों का निग्रह राज्य का प्रमुख कर्तव्य है ( ५.२)। बाह्य आक्रमणों से प्रजा को रक्षा करना भी राज्य का कार्य है । आचार्य लिखते हैं कि जो राजा शत्रुओं में पराक्रम नहीं करता वह निन्ध है (६,३१)। न्याय को उचित व्यवस्था करना तथा अपराष के अनुकूल भगराधियों को दण्ड देना भी राज्य का कार्य है। आचार्य सोमदेव के अनुसार दण्ड के अभाव में माल्यन्याय का सृजन हो जाता है ( ९, ७)। उन का कथन है कि दुष्टों को दण्ड देने से महान् धर्म को प्राप्ति होती है। क्योंकि दण्ई के भय से प्रशा अपनी-अपनी मर्यादाओं का पालन करती है ( ५, ५९)। एक स्थान पर आचार्य सोमदेव लिखते हैं कि राजा का पृथ्वी की रक्षा के योग्य कर्म राज्य है । ५,४)। इस का अभि गय यही है कि राज्य सुरक्षा तथा शान्ति को स्थापना के लिए उचित प्रबन्ध करे, अर्थात् वह सुयोग्य राजकर्मचारियों की नियुक्ति, सुसंगठित सेना की स्थापना एवं कोष की व्यवस्था करे । इन्हीं साधनों से राजा पृथ्वी का पालन कर सकता है।
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इन आवश्यक कार्यों के साथ ही सोमदेवसूरि ऐच्छिक कार्यों को भी अधिक महस्व देते हैं, क्योंकि उन के अभाव में प्रजा का सर्वतोमुखी विकास असम्भव है । राज्य की नीति लोककल्याण पर आधारित होनी चाहिए। इस बात में आचार्य को आस्था है। इसी कारण वे राज्य को ऐसे कार्य करने का आदेश देते है जो प्रजा के कल्याण में सहायक हों । वार्ता - कृषि, व्यापार आदि की उन्नति करना वे राज्य का कर्तव्य बतलाते हैं (८, २ ) । आचार्य की दृष्टि में राज्य का कार्य केवल अपनी प्रजा की भौतिक उन्नति करता हो नहीं है, का भी है। आचार्य प्रथम समुद्देश में सर्वप्रथम धर्म, अर्थ और काम पुरुषार्थों की प्राप्ति कराने वाले राज्य को नमस्कार करते हैं। इस का अभिप्राय यही है कि प्रजा को धर्म, अर्थ और काम पुरुषायों को प्राप्ति कराना राज्य का ही कार्य है ।
इस समस्त विवरण से यह स्पष्ट है कि राज्य का कार्य केवल रक्षात्मक ही नहीं है, अपितु उन सभी कार्यों का सम्पादन करना है जिस से प्रजा का सब प्रकार से कल्याण हो । आधुनिक विद्वानों ने लोक कल्याणकारी राज्यों का जो वर्णन किया है उस का दिग्दर्शन हम को सोमदेवसूरि द्वारा प्रतिपादित राज्य व्यवस्था में पूर्ण रूप से होता है । आचार्य सोमदेवसूरि ने जिस प्रकार के राज्य का वर्णन किया है वह लोक कल्याणकारी राज्यों की श्रेणी में प्रथम स्थान पर रखा जा सकता है ।
राज्य का उद्देश्य
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आचार्य सोमदेवसूरि अपने ग्रन्थ को प्रारम्भ करने से पूर्व ऐसे राज्य को नमस्कार करते हैं, जो प्रजा को धर्म, अर्थ और काम इन तीन पुरुषार्थी को प्रदान करने में समर्थ है। इस से स्पष्ट है कि अन्य आचायों की भांति सोमदेव भी इस बात का समर्थन करते हैं कि राज्य का उद्देश्य प्रजा को धर्म, अर्थ और काम को प्राप्ति कराके मोक्ष के लिए तैयार करना है। भारतीय दर्शन की भाँति राजधर्म का भी अन्तिम ध्येय मोक्ष प्राप्ति ही था । परन्तु मोक्ष की प्राप्ति तो व्यक्तिगत साधना तथा तपस्या पर निर्भर करती है और इस की प्राप्ति कोई बिरला ही व्यक्ति कर सकता हैं। प्राचीन राजनीतिज्ञों ने राज्य का यह कर्तव्य निर्धारित किया था कि वह ऐसे अपने वातावरण को उत्पन्न करे जिस से समस्त प्राणी सुख और शान्ति से रह सकें, निर्धारित व्यवसाय को करने में समर्थ हो सकें, बिना किसी के हस्तक्षेप किये अपने श्रम द्वारा प्राप्त फल को भोग सकें और अपनी सम्पत्ति का उपभोग कर सकें तथा स्वधर्म का पालन कर सकें । यह प्रयोजन प्रजा को धर्म, अर्थ ही सम्भव था । अतः समस्त प्राचीन विचारकों ने राज्य का पुरुषार्थी - धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष की प्राप्ति बताया है । बार्हस्पत्य सूत्र में लिखा है कि राजधर्म का उद्देश्य धर्म, अर्थ और काम की प्राप्ति है ।
और काम की प्राप्ति से
उद्देश्य प्रजा को चारों
१. बार्हस्पत्य सूत्र - २४३ - ४१४ ॥
नीतेः फर्ल धर्मार्थकामावाप्तिः । धर्मेलार्थकामौ प
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कामन्दक सप्तांग राज्य का विवेचन करने के उपरान्त लिखते हैं कि राज्य का स्थायित्व कोश तथा नल पर आधारित है और अब राज्य का संचालन बुद्धिमान् मन्त्रियों के परामर्श से किया जाता है तो उस का फल तोन पुरुषार्थों-धर्म, अर्थ और काम की प्रासि होता है। इसलिए राज्य का तात्कालिक उद्देश्य प्रणा को धर्म, अर्थ और काम की प्राप्ति कराना ही है।
आचार्य सोमदेवसूरि ने अपने अन्य में इन पुरुषार्थों की व्याख्या भी की है । उन के अनुसार धर्म यह है जिस से इस लोक में अभ्युदय और परलोक में मोक्ष की प्राप्ति हो (१,१)। अर्थ समुद्देश में आचार्य ने अर्थ की व्याख्या की है। जिस से मनुष्यों के सभी प्रयोजन, लौकिक तथा पारलौकिक, की सिद्धि होती है वह अर्थ है ( २,१) । अतः राज्य का यह कर्तश्य है कि यह ऐसा वातावरण उत्पन्न करे जिस से व्यक्ति व्यापार, कृषि तथा अन्य उद्योग-धन्धों में संलग्न होकर धनार्जन कर सके । घन से हो । प्रजा को लौकिक सुख की प्राप्ति होती है और पारलौकिक सुख का भी वह अत्यन्त महत्वपूर्ण साधन है । धर्म और काम पुरुषार्थ का मूल कारण अर्थ है । अर्थात् बिना अर्थ के धर्म और काम पुरुषायों की प्राप्ति नहीं हो सकती। अतः उत्तम साधनों द्वारा बनार्जन मनुष्य के लिए परम आवश्यक है। राजा का यह कर्तव्य है कि यह प्रजा को धनार्जन करने की पूर्ण सुविधा प्रदान करे। आचार्य स्रोमदेव का मत है कि सम्पत्ति शास्त्र के सिद्धारतों के अनुसार व्यापार आदि साधनों से मनुष्यों को अविद्यमान धन का संचय करना, संचित धन को रक्षा करना और रक्षित धन की वृद्धि करने में प्रयत्नशील रहना चाहिए ( २,३ )
अर्थ अथवा धन भौतिक सुख प्राप्ति में महत्त्वपूर्ण साधन होने के कारण प्रथम स्थान रखता है। इस बात की पुष्टि में टीकाकार ने हारोत का मत उद्धव किया है । जिस के पास कार्य की उत्तम सिद्धि करने वाला पन विद्यमान है उसे इस लोक में कोई भी वस्तु अप्राप्त नहीं है । उसे सभी इच्छित वस्तुओं की प्राप्ति हो सकती है । इसलिए मनुष्य को साम, दाम, दण्ड और भेद आदि उपायों से धने अर्जन करना चाहिए । आचार्य कौटिल्य ने भी धर्म, अर्थ, काम आदि पुरुषार्थों में अर्थ को ही प्रधानता दी है और इसे सब का मूल बताया है। आचार्य सोमदेव यह निर्देश देते है कि प्राप्त थन को दान, धर्म, परोपकार आदि श्रेष्ठ कार्यों में व्यय करते रहना चाहिए, जिस से लौकिक सुख के साथ-साप पारलौकिक सुख को भी प्राप्ति हो सके ( ३, २)।
तृतीय पुरुषार्थ काम की प्राप्ति कराना भी राज्य का उद्देश्य है । राज्य को
१.कामन्दक । २. हारीत, नीतित्रा० पृ० २ । असाध्य नाम्हि लोकेऽत्र सत्यार्थसाध परम् । सामादिभिरुपायैश्च तस्मादर्थमुपाजयेत् ॥ ३. कौ० अर्थ१,७।
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शान्ति और व्यवस्था स्थापित कर के ऐसी परिस्थिति उत्पन्न करमी राहिए जिस से व्यक्ति निर्वाध रूप से अपनी इच्छानुसार जीवन-यापन कर सके और अपने सुख एवं सुविधा के लिए ललित कलाओं की सृष्टि कर के अपने जीवन को सौन्दर्यमय बना सकें। इस प्रकार राज्य का उद्देश्य न केवल समाज की नैतिक एवं भौतिक उन्नति करना है, अपितु उस के जीवन को सौन्दर्यात्मक तथा सुरुचिपूर्ण बनाता भी है । इस दृष्टि से नृत्यकला, वाद्य, चित्रकला, शिल्पकला आदि के विकास को प्रोत्साहित कर के उन का समाज के जीवन के पूर्ण विकास में सहायक होना भी राज्य का कर्तव्य हो जाता है। काम को परिभाषा देते हुए आचार्य सोमदेव लिखते है कि जिस से समस्त इन्द्रियों में बाधा रहित प्रीति उत्पन्न हो वह काम है (३, ९)। इस में सन्देह नहीं कि उक्त ललित कलाएं मनुष्य के सुख का साधन हैं और उस के माध्यम से निःसन्देह समस्त इन्द्रियों में प्रोति उत्पन्न होता है । परन्तु आचार्य सोमदेव का मत है कि मनुष्य को संयमी और इन्द्रियों पर नियन्त्रण रखने वाला होना चाहिए। अन्यथा वह एक ही पुरुषार्थ की प्राप्ति में रख हो जायेगा, विशेषकर काम पुरुषार्थ ऐसा है जिस की और मनुष्य का आकर्षण स्वामादिषः इ. से अधिक होता है : मोलेन्द्रिों पर विजय प्राप्त करने के लिए नोतिशास्त्र का अध्ययन आवश्यक बतलाया है ( ३, ९)। टीकाकार ने सोमदेव के इस कथन की पुष्टि में आचार्य वर्ग का मत प्रस्तुत किया है। जिस प्रकार लगाम के खींचने आदि की क्रिया से घोड़े वश में कर लिये जाते है, उसी प्रकार नीतिशास्त्र के अध्ययन से मनुष्य की चंचल इन्द्रियो वश में हो जाती हैं। सोमदेव का कथन है कि जिस की इन्द्रियाँ वश में नहीं हैं उसे किसी भी कार्य में सफलता नहीं मिल सकती (३,७)। राजा के लिए भी उन का निर्देश है कि जो व्यक्ति ( राजा) काम के वशीभूत है, वह राज्यांगों ( स्वामी, अमात्य, राष्ट्र, दुर्ग, कोश, बल और मित्र ) आदि से युक्त शक्तिशाली शत्रुओं पर किस प्रकार विजय प्राप्त कर सकता है (३,१०)। इस सम्बन्ध में नीतिकार भागुरि का मत सल्लेखनीय है, चाम के वशीभूत राजाओं के अंग ( स्वामो और अमात्यादि ) निर्बल या विशेष करने वाले होते है, इसलिए उन्हें और उन की दुर्बल सेनाओं को बलिष्ठ अंगों वाले राजा मार डालते है। विजय-लक्ष्मी के इच्छुक पुरुष को कदापि काम के वशीभूत नहीं होना चाहिए। आचार्य सोमदेव का कथन है कि नैतिक व्यक्ति को चाहिए कि वह धर्म, अर्थ और काम इन पुरुषार्थों का सम रूप से सेवन करें। एक का भी अति सेवन करने से व्यक्ति पतन के गर्त में चला जायेगा ( ३, ३-४ )।
१, वर्ग-नीतियार, Fu। नीतिशास्त्रामधीते महतस्य पनि स्वान्यपि | वक्षणानि शनैर्वान्दि शाघात हया यथा । २. भार-नीतिब10, पृ०३६ ।
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. समाज में शान्ति एवं व्यवस्था की स्थापना के लिए, उत्तोड़न की इतिश्री के लिए, वर्णसंकरता को रोकने के लिए तथा लोकमर्यादा की रक्षा के लिए राजा की परम
आवश्यकता है। सभी राजशास्त्र वैताओं ने राजा की आवश्यकता एवं महत्त्व को स्वीकार किया है और इसी कारण देवांशों से उस को सृष्टि का विधान निश्चित किया है । राजा शब्द के अर्थ से उस की आवश्यकता प्रतिबिम्बित होती है । राग शब्द का अर्थ प्रजा का रंजन करने वाला, धर्म की मूर्ति तथा कोप्तिमान है और यही उस का सर्व प्रधान लक्षण एवं कर्तव्य है। महाभारत में युधिष्ठिर द्वारा राजा शब्द को व्याख्या करने का आग्रह किये जाने पर भीष्म उन के प्रश्न का उत्तर देते हुए कहते है कि समस्त प्रजा को प्रसन्न करने के कारण उस राजा कहते है।
महाकवि कालिदास ने रघुवंश में रघु का वर्णन करते हुए लिखा है कि जिस प्रकार सभी का आवाहन कर चन्द्रमा ने अपना नाम सार्थफ किया और सब को लपाकर सूर्य ने अपना नाम सार्थक किया, उसी प्रकार रघु ने भी प्रजा का रंजन कर के अपना राजा नाम सार्थक कर दिया । अतः प्रजा का रंजन करने के कारण ही उसे राजा कहा जाता है।
राजा के कारण हो प्रमा समाज में शान्तिपूर्वक निर्वाधरूप से निवास करती है तथा धर्म, अर्थ एवं काम रूप विघर्ग के फल की प्राप्ति करती है। आचार्य सोमदेव ने भी राजा के महत्व को उस के महान् कर्तव्यों के वर्णन द्वारा व्यक्त किया है। वह अपने प्रन्थ के भारम्भ में हो धर्म, अर्थ, काम रूप त्रिवर्ग फल के दावा, राज्य को नमस्कार करते हैं (पृ०७)। इस का. अभिप्राय यही है कि समस्त सुखों की प्राप्ति राज्य के द्वारा हो प्रजा को होती है। सोमदेव ने दुष्टों का निग्रह करना तथा सज्जन पुरुषों का पालन करना राजा का परम धर्म बतलाया है ( ५, २):
राजा की आवश्यकता एवं महत्व का वर्णन महाभारत के शान्तिपर्व में प्राप्त हाला है । कोशल नरेश सुमना द्वारा प्रश्न किये जाने पर कि राज्य में रहने वाले प्राणियों की वृद्धि भैसे होती है, उन का लास कैसे होता है, किस देवता की पूजा करने वाले व्यक्तियों को अक्षय सुख को शप्ति होती है ? आचार्य बृहस्पति कौशल नरेश के १. महा० शान्तिः ५६. १२५ । २, रघुवंश १, १२ ।
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प्रश्न का उत्तर देते हुए कहते हैं कि लोक में जो धर्म देखा जाता है, उस का मूल कारण राजा ही है। राजा के भय से ही प्रजा एक-दूसरे का भक्षण नहीं करती। राजा ही मर्यादा का उल्लंघन करने वाले तथा अनुचित भोगों में आसक्त रहने वाले सम्पूर्ण जगत् के लोगों को धर्मानुकूल शासन द्वारा प्रसन्न रखता है और स्वयं भी प्रसन्नतापूर्वक रह कर अपने तेज से प्रकाशित होता है। जैसे सूर्य और चन्द्रमा का उदय न होने पर समस्त प्राणी घोर अन्धकार में खूब जाते हैं और एक-दूसरे को देख नहीं पाते हैं, जैसे अल्प जल वाले सरोवर में मत्स्यगण तथा रक्षक रहित उपवन में पक्षियों के झुण्ड परस्पर एक-दूसरे पर निरन्तर आवात करते हुए स्वच्छापूर्वक विचरण करते हैं, वे कभी तो अपने प्रहार से दूसरों को कुचलते और मन्थन करते हुए आगे बढ़ जाते हैं और कभी दूसरों की पोट खाकर ब्याकुल हो उठते हैं। इस प्रकार आपस में लड़ते हए वे थोड़े ही दिनों में नष्ट-भ्रष्ट हो जाते है, इस में सन्देह नहीं है। इसी प्रकार राजा के अभाव में ये सारी प्रजाएं आपस में लड़-सगड़कर बात की बात में नष्ट हो जायेगी और बिना चरवाहे के पशुओं की भांति दु:ख के घोर अन्धकार में डूब जायेंगी।
___ यदि राजा प्रजा को रक्षा न करे तो शक्तिशाली पुरुष दुर्वल मनुष्यों की स्त्रियों तथा पुत्रियों का अपहरण कर लें और अपने घर की रक्षा में प्रयत्नशील मनुष्यों का अन्त कर दें। यदि राजा रक्षा न करे तो इस जगत् में स्त्रो, पुत्र, घम अथवा परिवार कोई भी ऐसा संग्रह सम्भव नहीं हो सकता जिस के लिए कोई कह सके कि यह मेरा है, सब ओर सब की सम्पूर्ण सम्पति का लोप हो जाये । यदि राजा प्रजा का पालन न करे तो पापाचारी लुटेरे सहसा आक्रमण कर के वाहन, वस्त्र, आभूषण और विषिष प्रकार के रल लूट ले जायें। यदि राजा रक्षा न करे तो धर्मात्मा पुरुषों पर बारम्बार माना प्रकार के अस्त्र-शस्त्रों को मार पड़े और विवश होकर लोगों को अधर्म का मार्ग ग्रहण करना पड़े । यदि राजा प्रजा का पालन न करे सो दुराचारी मनुष्य माता, पिता, बृद्ध, आचार्य, अतिथि मोर गुरु को क्लेश पहुँचवें अथवा मार डालें। यदि राजा रक्षा न करे तो धनवानों को प्रतिदिन बध या बन्धन का फ्लेश उठाना पड़े और किसी भी वस्त को वे अपना न कह सकें । यदि राजा प्रजा का पालन न करे तो अकाल में ही लोगों की मृत्यु होने लगे, यह समस्त जगत् छाकुओं के अधीन हो जाये, और पाप के कारण घोर नरक में गिर जाये। यदि राजा पालन न करे तो व्यभिचार से किसी को धणा न हो, कृषि नष्ट हो जाये, धर्म ठूब जाये, व्यापार चौपट हो जाये और तीमों वेदों का कहीं पता न चले।
यदि राजा जगत् की रक्षा न करे तो विधिवत् पर्याप्त दक्षिणाओं से युक्त यज्ञों का अनुयन बन्द हो जाये, विवाह म हों और सामाजिक कार्य रुक जायें। यदि राजा पशुओं का पालन न करे सो दूध दही से भरे हुए घड़े कभी मथे न जायें और गौशालाएं नष्ट हो जायें । यदि राजा रक्षा न करे तो सारा जगत् भयभीत, अग्निचित हाहाकारपरायण तथा अमेत्र हो क्षणभर में नष्ट हो जाये । यदि राजा पालन न करे तो उन में
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विपिपूर्वक शिलाभों पुनः अपिल गझ निमित रूप से न हो सकें। यदि राजा पालन न करे तो विद्या पढ़कर स्नातक हर ब्रह्मचर्यव्रत का पालन करने वाले और तपस्वी तथा ब्राह्मण लोग चारों वेदों का अध्ययन छोड़ दें। यदि राजा प्रजा का पालन न करे ती मनुष्य हताहत होकर धर्म का सम्पर्क छोड़ दें और चोर घर का माल लेकर अपने शरीर और इन्द्रियों पर चोट आये बिना ही सकुशल लौट जायें । रवि राजा प्रजा का पालन न करे तो चोर और लुटेरे हस्तगत वस्तु को भी छीन लें, सारो मर्यादाएँ भंग हो जायें और सब लोग भय से पीड़ित हो चारों ओर भागते फिरें। यदि राजा पालन न करें तो सर्वत्र अन्याय एवं अत्याचार फैल जाये, वर्णसंकर सन्तान उत्पन्न होने लगें और समस्त देश में दुभिक्ष फैल जाये ।
राजा से रक्षित हुए प्राणी सब ओर से निर्भय हो जाते हैं और अपनी इच्छानुसार घर के द्वार खोलकर सोते है। यदि धर्मात्मा राजा भली-भौति पृथ्वी की रक्षा न करे तो कोई भी मनुष्य अपशब्द अथवा हाथ से पीटे जाने का अपमान कैसे सहन करे । यदि पृथ्वी का पालन करने वाला राजा अपने राज्य की रक्षा करता है तो समस्त आभूषणों से विभूषित हुई सुन्दरी स्त्रियां किसी पुरुष को साथ लिये बिना ही निर्भय होकर मार्ग से आती जाती हैं। जब राजा रक्षा करता है तो सब लोग धर्म का ही पालन करते है, कोई किसी की हिंसा नहीं करता और सभी एक-दूसरे पर अनुग्रह करते है । जब राजा रक्षा करता है तब तीनों वर्गों (ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य) के लोग बड़े-बड़े यज्ञों का अनुष्ठान करते है और मनोयोग पूर्वक विद्याध्ययन में रत रहते है। खेती आदि समुषिप्त जीविका की व्यवस्था हो इस जगत् के जीवन का मूल है तथा घष्टि आदि के हेतुभूत यो विद्या से ही सर्वदा जगत् का पालन होता है। जब राजा प्रजा की रक्षा करता है तभी सब कुछ ठीक प्रकार से चलता है। जब राजा विशाल सैनिक शक्ति के सहयोग से मारी भार वहन कर के प्रजा को रक्षा का भार अपने ऊपर लेता है तब यह सम्पूर्ण जगत् प्रसन्न हो जाता है । जिस के न रहने पर सब ओर से समस्त प्राणियों का अभाव होने लगता है और जिस के रहने पर सर्वदा सब का अस्तित्व बना रहता है, उस राजा का पूजन कौन नहीं करेगा? जो उस राजा के प्रिय हितसाधन में संलग्न रहकर उस के सर्व लोक भयंकर शासन भार को वहन करता है वह इस लोक और परलोक में विजय पाता है।'
बसुममा मौर बृहस्पति के उपर्युक्त संवाद से राजा की आवश्यकता एवं उसका महत्त्व भलो-भांति स्पष्ट हो जाता है। राजा के अभाव में कौन-कौन सी हानियाँ होती है तथा उस के होने से प्रजा को क्या-क्या लाभ होता है इन समस्त बातों पर प्रकाश डालने वाला यह संवाद बहुत ही महत्वपूर्ण है।
राजा की आवश्यकता के विषय में अन्य अन्यों में भी उल्लेख मिलता है। ऐतरेय ब्राह्मण में इस प्रकार का वर्णन प्राप्त होता है.-"देवताओं ने राक्षसों द्वारा १. महा० शान्तिः ६८, ८-३८ ।
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अपनी निरन्तर मामा के गानों पर विचार किया, तो वे इस निष्कर्ष पर पहुँचे कि उन की पराजय इसलिए होती है कि उन का कोई राजा नहीं है । अतः उन्होंने सर्व सम्मति से राजा का निर्वाचन किया ।" 'इस से प्रकट होता है कि युद्ध की आवश्यकताओं के परिणामस्वरूप राज्यसत्ता का प्रादुर्भाव हुआ। मनु और शुक्र ने भी राजा की आवश्यकता के विषय में लिखा है। यह वर्णन इस प्रकार है. "जब विश्व में कोई राजा नहीं था और उस के अभाव में समस्त जनता भम से असित होकर नष्ट-भ्रष्ट होने लगी, तो ब्रह्मा ने संसार की रक्षा के लिए राजा का सृजन किया।" 'कौटिल्य ने भी इसी प्रकार लिखा है कि 'जब दण्डवर के अभाव में मात्स्यन्याय को उत्पत्ति हो गयी और बलवान् दुर्बलों को नष्ट करने लगे तो प्रजा ने वैवस्वत मनु को राजा बनाया । कामन्दक ने भी इसी प्रकार के विचार व्यक्त किये हैं। इस प्रकार समस्त राजशास्त्र प्रणेताओं ने राजा का होना परम आवश्यक बतलाया है तथा उस के न होने से विश्व की महान् पति होने की बात कही है।
___ आचार्य सोमदेव भो राजा. के महत्त्व का अनुभव करते हैं और राजा को ही समस्त प्रकृति वर्ग की उन्नति का आधार मानते हैं। राजा के कारण ही प्रकृतिवर्ग के समस्त प्रयोजन सिद्ध होते हैं। स्वामों के अभाव में उन को अभिलषित फल की प्राप्ति नहीं हो सकती ( १७, ३ ) । स्वामी रहित प्रकृतिवर्ग समृद्ध भो तर नहीं सकते ( १७, ४)। आचार्य सोमदेव ने एक सुन्दर उदाहरण द्वारा राजा के अभाव में होनेबाली हानि का उल्लेख करते हुए लिखा है कि जिन वृक्षों की जड़ें उखड़ चुकी हैं उन से पुष्प-फलादि की प्राप्ति के लिए किया गया प्रयत्न सफल नहीं हो सकता ( १७, ५ )। ठीक उसी प्रकार राजा के नष्ट हो जाने पर प्रकृति वर्ग द्वारा अपने अधिकार प्राप्ति के लिए किये गये प्रयत्न मी निष्फल होते हैं।
राजा को उत्पत्ति
राजा की उत्पत्ति किस प्रकार हुई इस सम्बन्ध में भारतीय विचारकों ने कई सिद्धान्तों का प्रतिपादन किया है, जो निम्नलिखित है।
१. वैदिक सिद्धान्त-राजा की उत्पत्ति का सब से प्राचीन और सब प्रथम सिद्धान्त वैदिक सिद्धान्त है। इस के अनुसार राजा की उत्पत्ति युद्ध में नेता की आवश्यकता के परिणामस्वरूप हुई। इस सिद्धान्त का वर्णन ऐतरेय ब्राह्मण में मिलता है। देवताओं और असुरों के मध्य होने वाले युद्धों में जब निरन्तर देवताओं ( आर्यों ) की पराजय होती रही तो देवों ने अपनी पराजय के कारणों पर विचार किया। विचार १.२० वा०१, १४ २. मनु०७, ३, शुक्र० ६.७१। ३. कौ० अथ०१. १३ ४. कामादक २.४०1 ६. ऐ० बाय १, १४। .
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करने के उपरान्त वे इस निष्कर्ष पर पहुँचे कि असुर इसलिए विजयो हो रहे हैं कि उनके पास नेतृत्व करने के लिए एक राजा है । अतः उन्होंने भी सर्व सम्मति से राजा को नियुक्त करने का निश्चय किया। इस प्रकार ऐतरेय ब्राह्मण के वर्णन से स्पष्ट है कि देवों के पास पहले कोई राजा नहीं था । उन के शत्रु बनायों के पास राजा था जो युद्ध में उन का नेतृत्व करता था । अतः आर्यों ने मो अपने में से एक व्यक्ति को राजा निर्वाचित करने का संकल्प किया जो युद्ध में उन का नेतृत्व कर सके। इस से यह भी परिलक्षित होता है कि आर्यों ने अपने प्रथम राजा का निर्वाचन किया था ।
२. सामाजिक अनुबन्ध का सिद्धान्त-- राजा की उत्पत्ति का दूसरा सिद्धान्त सामाजिक अनुबन्ध का सिद्धान्त है। इस सिद्धान्त के अनुसार समाज की सहमति अथवा अनुबन्ध से राजा की उत्पत्ति हुई। यह सिद्धान्त हमें महाभारत बौद्धग्रन्थों तथा कौटिल्य के अर्थशास्त्र में मिलता है ।
दोघनिकाय में विश्व की उत्पत्ति का वर्णन किया गया है। इसलिए उस में राजा की उत्पत्ति का भी वर्णन मिलता है । उस में कहा गया है कि "पूर्वकाल में स्वर्णयुग था । उस में दिव्य और प्रकाशवान् शरीर वाले मनुष्य धर्म से आनन्द पूर्वक रहते थे। वे पूर्णतया विशुद्ध एवं निर्दोष थे। परन्तु यह आदर्श दशा बहुत समय तक न रह सको क्रमशः उस अवस्था का अधःपतन हुआ। इस के परिणाम स्वरूप मध्यवस्था तथा अराजकता का प्रसार हुआ। इस अराजकता से मुक्ति पाने के लिए लोग एकत्रित हुए और उन्होंने एक ऐसे योग्य वार्मिक व्यक्ति को निर्वाचित किया जो समाज में व्याप्त अशान्ति और अव्यवस्था को दूर कर सके तथा दुष्ट व्यक्तियों को दण्ड दे सके । इस दिव्य पुरुष का नाम महाजनसम्मत था । यही सब का स्वामी, क्षत्रिय तथा धर्मानुसार प्रजा का रंजन करने वाला राजा कहलाया । इस की सेवाओं के उपलक्ष में मनुष्यों ने उसे अपने घन का एक अंश देना स्वीकार किया। इस प्रकार समाज के व्यक्तियों द्वारा किये गये अनुबन्ध के परिणाम स्वरूप राजा की उत्पत्ति हुई। घन के अंश के बदले में जनता द्वारा निर्वाचित राजा ने प्रजा को रक्षा करने तथा अव्यवस्था को दूर करने का उत्तरदायित्व वहन किया ।"
महाभारत में सामाजिक अनुबन्ध के सिद्धान्त का उल्लेख शान्तिपर्व के ६७ वें अध्याय में प्राप्त होता है। उस में लिखा है कि "राजा की उत्पत्ति से पहले समाज में मारस्यन्याय था । जिस प्रकार जल में बड़ी मछलियाँ छोटी मछलियों का भक्षण कर जाती है उसी प्रकार समाज में बलवान् निर्बलों को नष्ट कर देते हैं। लोग एक-दूसरे के प्राणों के ग्राहक थे। जिस की लाठी उसकी भैंस वाला सिद्धान्त प्रचलित था । उस समय मनुष्य का जीवन नारकीय, अल्प तथा यातनामम था। इस असमय अवस्था से छुटकारा पाने के लिए वे ब्रह्मा के पास गये और उन से प्रार्थना की कि वह किसी व्यक्ति
१. दीघनिकाय-भाग ३,०८४६६
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को उन का राजा नियुक्त करें। क्योंकि राजा के अभाव में बे विनाश को प्राप्त हो रहे हैं । उन्होंने कहा हम लोग उस को पूजा करेंगे और वह पालन करेगा। मनुष्यों की प्रार्थना पर ब्रह्मा ने मनु को उन के समक्ष प्रस्तुत किया, परन्तु मनु इस प्रस्ताव से सहमत नहीं हुए। उन्होंने कहा कि राजा बनने पर बहुत से पाप कर्म करने पड़ते है राजा को लोगों को दण्ड देना पड़ता है। शासन करना बड़ा कठिन कार्य है, विशेषकर उस राज्य में जहाँ मनुष्य मिथ्याचार तथा छल-कपट में संलग्न हो । परन्तु इस पर मनुष्यों ने मनु से कहा कि बाप भयभीत न हों, जो पाप करेगा वह उसी का पाप होगा। हम लोग पशु और स्वर्ण का पचासको भाग तथा धाम्य का सबो भाग राजकोश की वृद्धि के लिए देंगे । आप से सुरक्षित होकर प्रजा जिस धर्म का आचरण करेगी उस धर्म का चतुर्थाश आप को मिला। इस समन् ! सलमहान् सारे रनिट. शाली होकर हमारी आप उसी प्रकार रक्षा करें जिस प्रकार इन्द्र देवताओं की रक्षा करते हैं । इस प्रकार की प्रार्थना किये जाने पर मनु ने राजपद स्वीकार कर लिया ।"
इस सिद्धान्त में राज्य की स्थापना से पूर्व प्राकृतिक अवस्था का सिद्धान्त हॉस द्वारा वर्णित प्राकृतिक दशा से मिलता है। मात्स्यन्याय से तंग आकर लोग बह्मा के पास जाते हैं तथा शान्ति एवं व्यवस्था स्थापित करने की प्रार्थना उन से करते है । परन्तु ब्रह्मा के कहने से मनु राजपद स्वीकार करने से मना कर देते हैं। प्रजा वर्ग के लोग उन से वार्तालाप कर के उन के सन्देह को दूर करते है और उन के द्वारा संरक्षण एवं सुव्यवस्था स्थापित करने के उपलक्ष्य में उन को स्वर्ण का पचासा भाग तथा धान्य का इसी भाग देने के लिए प्रस्तुत हो जाते हैं। जब मनुष्यों और मनु के मध्य इस प्रकार का अनुबन्ध हो जाता है तो वह राजपद स्वीकार करते हैं। राजा मन का आविर्भाव इस सामाजिक अनुबन्य के परिणाम स्वरूप होता है 1
सामाजिक अनुबन्ध के सिद्धान्त का द्वितीय स्वरूप--महाभारत के शान्तिपर्व में राज्यसंस्था के प्रादुर्भाव पर बड़े विस्तार के साथ विचार किया गया है। युधिष्ठिर भीष्म से प्रश्न करते हैं कि लोक में जो यह राजा सम्द प्रचलित है, इसकी उत्पत्ति कैसे हुई ? जिसे हम राजा कहते हैं वह सभी गुणों में दूसरों के समान ही है। उसके हाय, भुजा और ग्रीवा भी औरों के समान ही है। बुद्धि और इन्द्रियाँ भी दूसरे लोगों के ही समान है, उस के मन में भी दूसरे मनुष्यों के समान ही सुख-दुःख का अनुभव होता है। अकेला होने पर भी वह शूरवीर एवं सत्पुरुषों से परिपूर्ण इस समस्त पच्ची का फैसे पालन करता है और कैसे सम्पूर्ण जगत् को प्रसन्नता चाहता है। यह निश्चित रूप से देखा जाता है कि एकमात्र राजा की प्रसन्नता से ही सम्पूर्ण जगत प्रसन्न होता है और उस एक के ही व्याकुल होने पर सब लोग ब्याकुल हो जाते हैं ।
१.महा शास्तिक१८, १०-३८ ।
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भरतश्रेष्ठ इस का क्या कारण है, यह मैं यथार्य रूप से सुनना चाहता हूँ। वक्ताओं में श्रेष्ठ पितामह यह सारा रहस्प मुझे यथावत् रूप से बताए । प्रजानाथ, यह सारा जगत् जो एक ही व्यक्ति को देवता के समान मानकर उस के सामने नतमस्तक हो जाता है, इस का कोई स्वल्प कारण नहीं हो सकता। युधिष्ठिर के प्रश्न का उत्तर देते हुए भीष्म कहते है कि पुरुषसिंह आदि सत्ययुग में जिस प्रकार राजा और राज्य की उत्पत्ति हुई वह सारा वृत्तान्त तुम एकास होकर सुनो।
"पहले न कोई राजा था न राज्य, न एण्ड पा और न दण्ड देने वाला, समस्त प्रजा धर्म के द्वारा ही एक दूसरे की रक्षा करती थी। सब मनुष्य धर्म के द्वारा परस्पर पालित और पोषित होते थे। कुछ समय के उपरान्त सब लोग पारस्परिक संरक्षण के कार्य में महान् कष्ट का अनुभव करने लगे, फिर उन सब पर मोह छा गया। जब सारे मनुष्य मोह के वशीभूत हो गये तब कर्तव्याकर्तव्य के शान से शून्य होने के कारण उन के धर्म का विनाश हो गया । कर्तव्याकर्तव्य का ज्ञान नष्ट हो जाने पर मोह के मशी. भूत हए सब मनुष्य लोभ के अधीन हो गये। फिर जो वस्तु उन्हें प्राप्त नहीं थी, उसे प्राप्त करने का चे प्रयत्न करने लगे। इतने में ही उन्हें काम नामक अन्य घोष ने घेर लिया। काम के अधीन हुए उन मनुष्यों पर राग नामक शनु ने आक्रमण किया। राग के वशीभूत होकर में कर्तव्याकर्तध्य की बात भी भूल गये। उन्होंने अगम्यागमन, वाच्य-अवाच्य, भक्ष्य-अभक्ष्य तथा दोष-अदोष कुछ भी नहीं छोड़ा।
इस प्रकार मनुष्यलोक में धर्म का विनाश हो जाने पर घेदों के स्वाध्याय का भी लोप हो गया। वैदिकज्ञान का लोप होने से यज्ञ आदि कर्मों का भी विनाश हो गया । इस प्रकार जब वेद और धर्म का विनाश होने लगा तब देवताओं के मन में भय उत्पन्न हुआ । वे भयभीत होकर ब्रह्माजी की शरण में गये । लोकपितामह भगवान् ब्रह्मा को प्रसन्न कर के दुःख के बैग से पीड़ित हुए सम्पूर्ण देवता उन से हाथ जोड़कर बोले । भगवन् ! मनुष्यलोक में लोभ, मोह आदि दूषित भावों ने सनातन वैदिकजाम को विलुप्त कर डाला है, इस कारण हमें बड़ा भय हो रहा है। ईश्वर तोनों लोकों के स्वामी परमेश्वर वैदिक ज्ञान का लोप होने से यज्ञ-धर्म नष्ट हो गया है। इस से इम सब देवता मनुष्यों के समान हो गये हैं। मनुष्य यज्ञ आदि में घी की माहति देकर हमारे लिए ऊपर की ओर वर्षा करते थे और हम उन के लिए नीचे की ओर जल-वर्षा करते थे, परन्तु अब उन के यज्ञकर्म का लोप हो जाने से हमारा जीवन सन्देह में पड़ गया है । पितामह अब जिस उपाय से हमारा कल्याण हो सके, वह सोचिए । आपके प्रभाव से हमें जो क्षेत्र स्वभाव प्राप्त हुआ था वह नष्ट हो रहा है। देवताओं को इस
१. महा० शान्तिः ५६. ५-१३ । २. वही, १६, ११ । न वै राज्य ग राजसीन च ही न पाकिः । धमणव प्रजाः सर्वा रक्षन्ति स्म परस्परम् ।
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प्रकार की प्रार्थना को सुनकर ब्रह्मा ने उम से कहा- "सुर श्रेष्ठगण, तुम्हारा भय दूर हो जाना चाहिए। मैं तुम्हारे कल्याण का उपाय सोचूँमा । तदनन्तर ब्रह्माजी ने अपनी बुद्धि से एक लाख अध्यायों के एक ऐसे नीतिशास्त्र की रचना की जिस में धर्म, अर्थ और काम का विस्तारपूर्वक वर्णन है । जिस में इन दगौ का वर्णन हुआ है, वह प्रकरण त्रिवर्ग नाम से विख्यात हैं।
तदनन्तर देवताओं ने भगवान् विष्णु के पास जाकर कहा--भगवन् ! मनुष्यों में जो एक पुरुप सर्वश्रेष्ठ पद प्राप्त करने का अधिकारी हो, जस का नाम बताइए । तब प्रभावशाली भगवान नारायण ने भली-भांति विचार कर के एक मानसपुत्र की सृष्टि की, जो विरजा के नाम से विख्यात हुमा । महाभाग बिरजा ने पृथ्वी पर राजा होने की अनिच्छा प्रकट की। उन्होंने संन्यास लेने का निश्चय किया। विरजा के कीर्तिमान नामका एक पुत्र उत्पन्न हुआ। वह भी पांचों विषयों से ऊपर उठकर मोक्ष मार्ग का ही अबलम्बन करने लगा । फोलि मान के कर्दम नामक पुत्र डा। वह भी तपस्या में रत हो गया । प्रजापति कर्दम के पुत्र का नाम अनंग था, जो कालक्रम से प्रजा का संरक्षण करने में समर्थ तथा दण्डनीतिविद्या में निपुण था । अनंग के अतिबल नामक पुत्र हुआ। वह भी नोतिशास्त्र का ज्ञाता था। उस ने विशाल राज्य प्रास किया । राज्य प्राप्त कर के वाह इन्द्रियों का वास बन गया । मृत्यु को एक मानसिक कन्या पी, जिस का नाम था सुनीमा, जो अपने रूप और गुण के लिए तीनों लोकों में विख्यात थी। उसी ने वन को जन्म दिया।
बेन राग-द्वेष के वशीभूत हो प्रजाओं पर अत्याचार करने लगा । तब बेदवादी ऋषियों ने मन्त्रपूत कुशों द्वारा उसे मार डाला। फिर वे ही कृषि मन्त्रोच्चारणापूर्वक वैन की दाहिनी जंघा का मन्थन करने लगे। उस से इस पुथ्वी पर एक नाटे कद का मनुष्य उत्पन्न हुआ, जिस की आकृति बेडौल थी । इस के पश्चात् फिर महषियों ने धेन की दाहिनी भुजा वा मन्थन बिमा । उस से देवराज इन्द्र के समान पुरुप उत्पन्न हुआ। यह कवच धारण किये, कमर में तलवार बांधे और बाण लिये प्रकट हुआ। उसे वेदों और वेदान्तों का पूर्ण ज्ञान था। उसे धनुर्वेद का मो पूर्ण ज्ञान था। नरश्रेष्ठ वेगकुमार को समस्त दण्डनीति का स्वतः ही शान हो गया। उस ने हाथ जोड़कर उन महपियों से कहा कि धर्म और अर्थ का दर्शन कराने वाली अत्यन्त सूक्ष्म बुद्धि मुझे स्वतः ही प्राप्त हो गयो है। मुझे इस बुद्धि के द्वारा आप लोगों की कौन-सी सेवा करनी चाहिए, यह मुझे यथार्थ रूप से बताइए । तब वहाँ देवताओं और उन महर्षियों में उस से कहा-देनादन जिस कार्य में नियमपूर्वक धर्म की सिद्धि होती हो, उसे निर्भय होकर करो। प्रिय और अप्रिय का विचार लोड़कर काम, क्रोध, लोभ और मान को दर हटाकर समस्त प्राणियो के प्रति समभाव रखो। लोक में जो कोई भी मनुष्य
य
१. महा० शान्तिा
६. १५-२६ ।
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धर्म से विचलित हो, उसे सनातन धर्म पर दृष्टि रखते हुए अपने बाहुबल से परास्त कर के दण्ड दो। साथ ही यह प्रतिज्ञा कर कि मैं मन, पाणी और क्रिया द्वारा भूतलवर्ती ब्रह्म ( वेद ) का निरन्तर पालन करूंगा। वेद और दण्डनीति से सम्बन्ध रखने वाला जो नित्य धर्म बताया गया है, उस का मैं नि:शंक होकर पालन करूंगा और कभी स्वच्छन्द महीं होऊंगा। परमतप प्रभो, साथ ही यह प्रतिज्ञा करो कि ब्राह्मण मेरे लिए अदण्डनीय होने तक में सम्पूर्ण जगत् की वर्णाता और धर्मसंकरता बचाऊंगा। तब वेनकुमार ने उन देवताओं तथा जन अग्नवर्ती कषियों से कहा-नरश्रेष्ठ महात्माओ, महाभाग ब्राह्मण मेरे लिए सर्वदा वन्दनीय होंगे। उन से ऐसा कहने पर उन बेदवादी महपियों ने उन से इस प्रकार कहा- एवमस्तु । फिर शुक्राचार्य उन के पुरोहित बनाये गये, जो वैदिक ज्ञान के भण्डार है 1 भगवान् विष्णु, देवताओं सहित इन्द्र, ऋषिसमहू, प्रजापतिगण तथा ब्राह्मणों ने पृथु का (वनबुमार का ) राजा के पद पर अभिषेक किया।
इस प्रकार महाभारस में सामाजिक अनुबन्ध के सिद्धान्त का बड़े विस्तार के साथ वर्णन आ है।
कौटिल्य के अर्थशास्त्र में महाभारत तथा दीघनिकाय के समान ही सामाजिक अनुबन्ध के सिद्धान्त का वर्णन मिलता है । कौटिल्य ने भी प्रारम्भ में राजा की नियुक्ति का उल्लेख किया है 1 अर्थशास्त्र में यह वर्णन इस प्रकार मिलता है-"अब प्रजा मात्स्यन्याय से पीड़ित हुई तो उस ने मनु को अपना राजा बनाया। राजा की सेवाओं के उपलक्ष्य में सुवर्ण आदि का दसवां भाग और धन-धान्य का छठा भाग कर के रूप में देने का वचन दिया। इस के उपलक्ष्य में मनु ने प्रजा के कल्याण, रक्षा का उत्तरदायित्व अपने ऊपर लिया 17२ महाभारत आदि में ब्रह्मा द्वारा राजा की नियुक्ति का वर्णन है, किन्तु कौटिल्य के अर्थ, स्त्रि में रानी की नियुक्ति ब्रह्मा अथवा विष्णु के द्वारा नहीं बतायी गयी है, अपितु उस में इस प्रकार का वर्णन मिलता है कि प्रजा ने स्वयं ही अपने राजा का निर्वाचन किया।
३. दैवी उत्पत्ति का सिद्धान्त-इस सिद्धान्त के अनुसार राजा की उत्पत्ति ईदवर द्वारा बतलायो गयी है । यह सिद्धान्त हम को महाभारत, धर्मशास्त्र एवं पुराणों में मिलता है। महाभारत में देवो सिद्धान्त का वर्णन इस प्रकार मिलता है-"देव और नरदेव ( राजा ) दोनों समान हो है ।" अन्यत्र ऐसा उल्लेख मिलता है कि "राजा
१. महार शान्ति ५६, ८७-१९६ । २. कौ० अ० १.१३ मारस्यन्मात्रामिभूताः प्रजा मन वैवस्वत राजान पनि.रे। घायमापण्यपशभाग हिरण्यं चास्य
भागधे प्रतिपंपयामामुः। ३. वत्री, १, १३ ४. महा0 शामिन ५६, १४४
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को देवताओं द्वारा स्थापित हुआ मानकर कोई भी उस की आशा का उल्लंघन नहीं करता । यह समस्त विश्व उस एक ही व्यक्ति ( राजा) के वश में स्थित रहता है, उस के ऊपर मह जगत् अपना शासन नहीं चला सकता।'' उस में यह भी कहा गया है कि राजा पृथु की तपस्या से प्रसन्न हो भगवान् विष्णु ने स्वयं उन के अन्तर में प्रवेश किया था। समस्त नरेशों में से राजा पृथु को ही यह सारा जगत् देवता के समान मस्तक झुकाता था। इस प्रकार महाभारत में राजा और देवता में कोई अन्तर नहीं माना गया है। जिस प्रकार संसार के मनुष्य देवसानों को प्रणाम करते है, उन की उपासना करते हैं, उसी प्रकार राजा को भी देवता का साक्षात् स्वरूप मानकर उस की पूजा करते हैं तथा उस के सम्मुख अपना मस्तक झुकाते हैं।
युधिष्ठिर भीष्म से प्रश्न करते हैं कि मानवों के स्वामी राजा को ब्राह्मण लोग देवता के समान क्यों मानते हैं ? इस प्रश्न के समाशन के लिए आचार्य भीष्म राजा नमाना तथा बृहस्पनि के गाय नए संनाद को स्तन पर हैं। उस संवाद में ऐसा वर्णन आता है कि "यह भी एक मनुष्य है ऐसा समझकर कभी भी पृथ्वी का पालन करने वाले राजा की अवहेलना नहीं करनी चाहिए, क्योंकि राजा मनुष्य रूप में एक महान् देवता है । 'राजा ही सर्वदा समयानुसार पांच रूप धारण करता है। वह कभी अग्नि, कभी सूर्य, कभी मृत्यु, कभी कुबेर और कभी यम का स्वरूप धारण कर लेता है। जब पापी मनुष्य राजा के साथ मिथ्या व्यवहार कर के उसे उगते हैं, तब वह अग्नि रूप हो जाता है और अपने उग्र तेज से समीप आये हुए उन पापियों को जलाकर भस्म कर देता है। जब राजा गुप्तचरों द्वारा समस्त प्रजाओं का निरीक्षण करता है मोर उन सब की रक्षा करता हुआ चलता है, तब वह सूर्य रूप होता है। जब कुपित होकर अशुद्ध आचरण करने वाले सैकड़ों मनुष्यों का उन के पुत्र, पौत्र और मन्त्रियों सहित संहार कर डालता है, तब वह मृत्यु रूप होता है। जब यह कठोर दण्ड के द्वारा समस्त अधार्मिक पुरुषों पर नियन्त्रण कर के उन्हें सन्मार्ग पर लाता है और पार्मिक पुरुषों पर अनुग्रह करता है उस समय वह यमराज माना जाता है। जब राजा उपकारी पुरुषों को धन रूपी जल की धाराओं से तुप्त करता है और अपकार करने वाले दुष्टों के विविध प्रकार के रत्नों को छीन लेता है । किसो राज्य हितैषी को धन देता है तो किसी राज्य विद्रोही के धन का अपहरण करता है, तो उस समय वह पृथ्वीपालक नरेश इस संसार में कुबेर समझा जाता है।"
१. महान शान्सि० १६, १३५ । २. वही, ५६, १२८ । बिही६१.२८
सनल गुरु चेन राजानं योऽव मन्यते ।
न सस्य दत्त न हुतं न श्राद्ध फलते स्थचित । ४. वही, ६, ४०-४७ ।
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धर्मशास्त्रों में भी इस बात का उल्लेख है कि विभिन्न देवताओं के अंशों से राजा की रचना हुई। मनुस्मृति में लिखा है कि "ईश्वर ने समस्त संसार की रक्षा के लिए इन्द्र, वायु, यम, सूर्य, अग्नि, वरुण, चन्द्र और कुबेर के सारभूत अंशों से राजा का सृजन किया ।"" मनुस्मृति में इस प्रकार का उपदेश है कि "यदि राजा बालक मी हो तो भी उस का अपमान नहीं करना चाहिए, क्योंकि वह मनुष्य रूप में एक महान् देवता है।*
3
इसी प्रकार आचार्य शुक्र भी राजा की देवी उत्पत्ति में विश्वास रखते थे । पुराणों में भी हम को इस सिद्धान्त का स्पष्ट वर्णन मिलता है। मत्स्यपुराण में लिखा है कि संसार के प्राणियों की रक्षा के लिए ब्रह्मा ने विविध देवताओं के अंशों से राजा की सृष्टि की। विष्णुपुराण में राजा के के मुख से प्रस्फुटित हुए हैं- "ब्रह्मा, विष्णु, महेश, इन्द्र, वायु, यम, सूर्य, वरुण, वाता, पूषा, पृथ्वी और चन्द्र तथा इनके अतिरिक्त और भी जितने देवता शाप देते हैं और अनुकम्पा करते हैं। वे सभी राजा के शरीर में निवास करते हैं । इस प्रकार राजा सर्वदेवमय है।
प्रकार
इस सिद्धान्व का दूसरा स्वरूप यह है कि राजा की तुलना विभिन्न देवताओं से इस कारण की जाती है कि उस के कार्य तथा गुण देवताओं के ही समान हैं। दोनों ही स्वरूप बहुधा एक ग्रन्थ में उपलब्ध हो जाते हैं और कभी-कभी वे पृथक् भी पाये जाते हैं। मनु राजा को देवताओं के अंश से उत्पन्न हुआ बतलाते हैं मौर उस को उन्हीं देवताओं के समान कार्य करने का आदेश भी देते हैं, जिन के अंशों से उसकी उत्पत्ति हुई है। इसका अभिप्राय यह है कि राजा के आवरण में देवत्व परिलक्षित होना चाहिए | मनु के अनुसार जब राजा में देवत्व है तो उसे अपने देवस्व के अनुसार ही कार्य करना चाहिए इस प्रकार मनु ने राजा को देवत्व प्रदान कर के उस के उत्तरदायित्वों तथा उस के कर्तव्यों को एक निश्चित मार्ग प्रदान कर दिया है।
4
१. मनु० ७ ४.५१
इन्द्रानिलनमा मवनेश्च वरुणस्य च ।
शियोश्चैव मात्रा निर्द्धल शाश्वतीः | यस्मादेव शुरेन्द्राणां मात्राभ्यो निर्मि] नृपः । तस्मादभिभवत्यैष सर्वभूतानि तेजसा । २. नहीं, ७-८
चालोऽपि नावमन्थ्यो मनुष्य इति भूमिपः । महतो केसा होगा नररूपेण तिष्ठति ॥
३. शु० ९, ११-७२ ॥
४. भ० २२६, १
५. विष्णु० १. ११, २९ ६. मानु० ६. ३०३-२०१
स्वामी समरस वरुणस्थ च ॥ चन्द्रस्याने पृथिव्याश्च तेजोवृतं नृपश्चरेत् । वार्षिकाश्चतुरो ट्रान्यथेोऽभिप्रवर्षति । तथा राष्ट्र कामैरिन्द्रदत' चरन् ॥
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नारदस्मृति में बताया गया है कि राजा अग्नि, इन्द्र, सोम, यम और कुबेर इन पाँच देवताओं के कार्यों का सम्पादन करता है। यह वर्णन इस प्रकार है---" राजा के कारण अथवा किसी कारण से क्रोधित होने पर क्रोध से दूसरे को तापित करने अर्थात् उत्पीड़ित करने के कारण वह अग्नि के समान होता है । अपनी शक्ति के ऊपर निर्भर होता हुआ जब वह शस्त्र धारण कर के शत्रुओं पर विजय प्राप्त करने की इच्छा से आक्रमण करता है तो वह इन्द्र का स्वरूप धारण करता है। जब राजा तेज से लोगों को उत्पीड़ित करने वाले स्वरूप को हटाकर सौम्य भाव से जनता के सम्मुख उपस्थित होता है तब वह सोम का स्वरूप ग्रहण करता है। अपने न्याय के आसन पर बैठकर न्याय करते समय वह यम का स्वरूप धारण करता हूँ। जब वह सम्मानित व्यक्तियों अथवा अभावग्रस्त व्यक्तियों को उपहार प्रदान करता है तो वह कुबेर का रूप धारण करता है ।"" इस का अभिप्राय यही है कि जब राजा जिस देवता के समान आचरण करता है तब वह उसी देवता के स्वरूप को ग्रहण करता है। जब राजा के कर्मों में विभिन्न लोकों के गुणों का सामंजस्य दृष्टिगोचर होने लगता है तब उसे इम लोकपालों का अंशभूत कहा जाता है और इस प्रकार राजा सब से बड़ा लोकपाल कहा जाता है ( १७, ५२)। इसी प्रकार पुराणों में भी विविध स्थलों पर राजा की तुलना विभिष देवताओं से को गयी है। मार्कण्डेयपुराण में नारदस्मृति की भांति ही पाँचों देवताओं से राजा की तुलना की गयी है। अग्निपुराण में भी राजा को सूर्य, चन्द्र, वायु, यम, वरुण, अग्नि, कुबेर, पृथ्वी तथा विष्णु आदि देवताओं का स्वरूप माना है, क्योंकि वह उन के समान ही आचरण करता है । शुक्रनीति में भी इस प्रकार के विचार उपलब्ध होते हैं ।" भागवत पुराण के अनुसार विष्णु, ब्रह्मा, शिव, इन्द्र, वायु, वरुण आदि देवता राजा के शरीर में निवास करते हैं और राजा सभी देवताओं के अंशों से परिपूर्ण होता है । वायुपुराण में चक्रवर्ती राजा को विष्णु का
उ
"
अमासाश्वादित्यस्य हर िरश्मिभिः । तथा हरेक राष्ट्रान्नित्यमर्कतं हि तत् ॥ प्रजिरय सर्वभूतानि सभापति मारुतः । तथा चारैः प्रवेष्टव्यं तमारुतम् । प्रथमः प्रियद्वेष्य प्राप्ते काले नियच्छति । तथा राज्ञा नियताः प्रजास्ततम् । वरुणेन यथा शोर्म एवाभिदश्यते। तथा
गृहीबाबत वारुणम् ॥
परिपूर्ण यथा चन्द्र दृष्ट्वा दुष्यन्ति मानवाः ३
तथा प्रकृतयस्मिद् सन्नतिको नृपः ।
१. नारदस्मृति - जॉली द्वारा अनुदित पृ० ११३-१४ क २६-३२. १
२. मार्कण्डेय० २७, २१-२६
३. अग्नि० २२६, ९७-२० ॥ ४. शुक्र०, १, ७३-७£1 ५.१४, २६-२०
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अंश माना गया है। रामायण में भी इसी प्रकार राजा को देवता बतलाया गया है और अनेक देवताओं से उस की तुलना को गयी है।
___ राजा के देषो स्वरूप के वर्णन में दो सिद्धान्त प्रतिलक्षित होते है। प्रथम तो यह कि राजा पृथ्वी पर मनुष्य रूप में महान् देवता है और द्वितीय यह कि राजा का देवत्व उस के कार्यों में निहित है। विविध देवताओं के समान कार्य करने पर ही उस को उन देवताओं का स्वरूप प्रदान किया गया है। जब राजा जिस देवता के समान आचरण करता है तब वह उस को प्रतिमूर्ति होता है। मनु उपर्युक्त दोनों सिद्धान्तों को मानते है, किन्तु नारद द्वितीय सिद्धान्त को हो स्वीकार करते है अर्थात् वे राजा को देवतामों के समान कार्य करने के कारण ही उसे देवता मानते हैं।
उपर्युक्त वर्णम से यह स्पष्ट है कि राजा के देवीस्वरूप का सिद्धान्त अति प्राचीन है और यह सिद्धान्त गुप्त काल तक प्रचलित रहा । सभी प्राचीन राज्यशास्त्र बेत्ताओं एवं आचार्यों ने राजा को देवांशों से निर्मित बताया है तथा उस को उन्हीं देवों के समान आचरण करने का आदेश दिया है जिन के अंशों से उस का सूजन हुआ है । राजा को देवताओं के स्वरूप में तभी तक देखा जाता है जब तक वह जन के समान माचरण करता था। प्राचार्य सोमदेवसूरि भी इस परम्परागत विचार धारा में आस्था रखते थे। अत: उन्होंने इस विषय की विशद व्याख्या न कर के अपने विचार संक्षेप में ही व्यक्त किये हैं। उन का कथन है कि राजा ब्रह्मा, विष्णु, महेश की मूर्ति है अत: इस से दूसरा कोई प्रत्यक्ष देवता नहीं है (२९, १५)। उन्होंने राजा को उक्त देवताओं से इस प्रकार तुलना की है-जिस ने प्रथम धाश्रम (ब्रह्मचर्य) को स्वीकार किया है, जिस की बुद्धि परम ब्रह्म ईश्वर या (ब्रह्म वर्यव्रत) आसक्त है, गुरुकुल को जपासना करने वाला एवं समस्त राज विद्याओं (आन्वीक्षिकी, त्रयो, वार्ता और वण्डनीति) का वेता विद्वान् तथा युवराजपद से अलंकृत ऐसा क्षत्रिय का पुत्र राजा ब्रह्मा के समान माना गया है। लक्ष्मी की दीक्षा से अभिपित्त अपने शिष्ट पालन व दुष्ट निग
आदि सदगुणों के कारण प्रजा में अपने प्रति अनुराग उत्पन्न करने वाले राजा को नीतिकारों ने विष्णु के समान बतलाया है। जिस की बड़ी हुई प्रताप रूपी तृतीय नेत्र की अग्नि परम ऐश्वर्य को प्राप्त होने वाले राष्ट्रकंटक शत्रुरूप दानों के संहार में प्रयत्नशील है. ऐसा विजिगीषु राजा महेश के समान बतलाया गया है ( २९, १७-१९) । इस प्रकार राजा के तीनों देवों के समान आचरण करने को बात नौसिवाक्यामृत में उपलब्ध होती है । इस ग्रन्थ में भी देवताओं के समान आचरण करने के कारण हो राजा को देवी स्वरूप प्रदान किया गया है।
१.बायु, ५७, ७२ । २. रामायण, ३, ६, १८-१६ ।
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राजा की योग्यता
प्राचीन राजशास्त्र प्रणेताओं ने राजा के लिए कुछ विशिष्ट गुणों का होना भावश्यक बतलाया है। माना बह पमित हो सकमा ए जिस में शास्त्रों द्वारा निर्धारित योग्यताएं होती थीं । राजा में साधारण व्यक्ति को अपेक्षा महान् गुण होने आवश्यक है, क्योंकि वह जनता का स्वामी होता है। आचार्य सोमदेवसूरि ने राजा की पोग्यताओं का बड़े विस्तार के साथ वर्णन किया है। आचार्य द्वारा राजा के लिए निर्धारित योग्यताओं को हम दो भागों में विभक्त कर सकते हैं। प्रथम कोटि में राजा की राजनीतिक योग्यताएँ आती है, जो उस के राजा होने के लिए परम आयश्यक है। उन्हीं के होने से राज्य की स्थिरता एवं समृद्धि सम्भव है ! द्वितीय कोटि में उस की सामान्य योग्यताएँ आती है, जोकि उस में तथा साधारण व्यक्ति दोनों में ही होनी चाहिए। ये योग्यताएं राजा की सामाजिक स्थिति से सम्बन्ध रखने वाली है। इसलिए इन को सामान्य योग्यताओं की श्रेणी में रखा गया है। आचार्य सोमदेव ने ये योग्यताएँ राजा तथा साधारण व्यक्तियों, दोनों के लिए आवश्यक बतलायी है। राजा की इन योग्यताओं के कारण ही उस के राज्य में देश की सामाजिक उन्नति सम्भव हो सकती है 1 जिस राजा में इम गुणों का अभाव होगा उस राज्य की सामाजिक स्थिति अन्नप्त नहीं हो सकती । राजा भी समाज का ही अंग है और यही उस का कर्णधार है। समाज को उमति उसी के व्यक्तित्व पर निर्भर है। इसी उद्देश्य से आचार्य सोमदेव ने राजा को उन्नति में सहायक उन योग्यताओं का भी उल्लेख किया है जिन का सम्बन्ध समाज से है और जिन गुणों पर देश की सामाजिक उन्नति निर्भर है।
राजा की योग्यताओं का उल्लेख नोतिवाक्यामृत में एक स्थान पर ही नहीं हुआ है अपितु स्थान-स्थान पर इन योग्यताओं अथवा गुणों का उल्लेख मिलसा है। राणा की इन योग्यताओं का वर्णन संक्षेप में इस प्रकार किया जा सकता है-"राजा को जितेन्द्रिय, महान् पराक्रमी, नीतिशास्त्र का ज्ञाता, आन्वीक्षिकी, अयो, वार्ता और दण्डनीति आदि गनविद्याओं में पारंगत, त्रयो (तीनों वेदों) का ज्ञाता, नास्तिकदर्शन का जामने वाला, उत्साही, धर्मारमा, स्वाभिमानी, शारीरिकमनोज्ञ माकृति से युक्त, विनम्र, न्यायी, प्रजापालक, साम, दाम, दण्ड और भेद आदि नीतियों में प्रवीण तथा पागुभ्य ( सन्धि, विग्रह, याम, आसन, संश्रय, एवं घोभाव ) के प्रयोग में यक्ष होना चाहिए।"
राजा की सामान्य योग्यताओं का वर्णन भी अनेक स्थलों पर हुआ है। उन सब का वर्णन इस प्रकार किया जा सकता है-"राजा को जितेन्द्रिय, काम, क्रोध, लोभ, हर्ष, मान, मद इस अरिषड्वर्ग का विजेता, सदाचारी, बिनयी, निरभिमानी. अनोध, कुलीन, क्षमाशील, गुणग्राही, दानी, गुरुजनों का सम्मान करने वाला होना चाहिए।" . राजा को उपर्युक्त योग्यताओं अथवा गुणों के साथ ही नीतिवाक्यामृत में राजा
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के दोषों पर भी प्रकाश डाला गया है। उन दोषी के कारण होने वाली हानियों का ओर मी संकेत किया गया है। राजा के अवगुणों में कामुकता, क्रोध, दुराचारिता, दुष्टता, सैन्यहीनता, अभिमान, शास्त्रज्ञानशून्यता, मूर्खता, अनाचार, कापरता, दुराअहवा, व्यसम, स्वेच्छाचारिता, लोभ, आलस्य, अविश्वास, सेवकों को आश्रय न देना भादि सम्मिलित हैं। राजा की योग्यताओं के विषय में अन्य आचार्यों के विचार
राजा की योग्यताओं के विषय में स्मृतिकारों तथा अर्थशास्त्र के रचयिताओं एवं नीतिशास्त्र के प्रणेताओं ने पूर्ण प्रकाश डाला है । याज्ञवल्पय ने राजा को राजनीति प्रधान एवं सामान्य योग्यताओं पर पर्याप्त प्रकाश डाला है। उन्होंने राजधर्म के प्रकरण का प्रारम्भ हो राजा की योग्यताओं के वर्णन से किया है। प्रथम कोदि में आने वाली योग्यताओं के विषय में वे इस प्रकार लिखते है-"राजा को अति वत्साही, पण्डित, शूरवीर, रहस्यों का ज्ञाता ( वैधों का ज्ञाता), राज्य की शिथिलता को गुप्त रखने वाला, राजनीति में निपुण, वेदत्रयी का ज्ञाता एवं वार्ता और दण्डनीति में कुशल होना चाहिए । इस के साथ ही उसे पाडगुण्य मन्त्र का भी ज्ञाता होना चाहिए ।''
वित्तीय कोटि में आने वाली योग्यताओं के सम्बन्ध में याज्ञवल्क्य लिखते हैं कि "वह ( राजा ) आन्वीक्षिकी { आत्मविद्या, तर्कशास्त्र) में निपुण, विनीत, स्मृतिमान, सत्यवादी, वृद्धजनों का सम्मान करने वाला, अश्लील और कठोर वाणी से रहित, धार्मिक, व्यावहारिक बस्तुओं जैसे कृषि कर्म, कोश बृद्धि आदि कार्यो का शाता एवं जितेन्द्रिय होना चाहिए।"
नारद ने राजा की योग्यताओं के विषय में केवल इतना ही लिखा है कि "राजा अपने विनय और सदाचार से ही प्रजा पर प्रभुत्व प्राप्त करता है।"3 अग्निपुराण में भगवान राम के मुख से राजा के लक्षणों का वर्णन कराया गया है जो इस प्रकार है-'राजकुल में उत्पन्न, शील, अवस्था, सत्य (), दाक्षिण्य, शिप्रकारिता, षड्भक्तित्व, अविसंवादिता ( सत्यप्रतिज्ञता), कृतज्ञता, देवसम्पन्नता (भाग्यशीलता), अक्षुद्र पारिवारिकता, दीर्घवर्शिता, पवित्रता, स्यूल लक्ष्यता ( दानशीलता), धार्मिकता, वृद्धसेवा, सत्य और उत्साह आदि गुणों से सम्पन्न ही व्यक्ति राजा बनने योग्य है।"
आचार्य शुक्र का कहना है कि पूर्व जन्म के तप के कारण ही व्यक्ति राजा होता है। पूर्व जन्म में वह जैसी तपस्या कर चुका होता है उसी के अनुरूप वह सात्त्विक, राजसी या तामसी होता है। जो राजा सात्त्विक तप किया होता है वह १. वाश०१.३१०-११ । २. वही, १, ३०६-११। इ. नारदस्मृति अ० १७(१) लोक २५, जोलो द्वारा अनूदित । १. अग्नि० २३६, २६ ।
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धर्मनिष्ठ, प्रजापालक, यज्ञों का अनुष्ठान करने वाला, शत्रु - विजेता, दानी, क्षमाशील, शूरवीर, निर्लोभी तथा शिव सौर व्यसनों से विरक्त होता है और वह सात्त्विक राजा अम्त समय में मोक्ष को प्राप्त करता है ।
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आचार्य कौटिल्य ने अपने अर्थशास्त्र में 'मण्डल योनि' नामक छठे अधिकरण में अत्यन्त विस्तार के साथ इस विषय पर विचार किया है। उनका कथन है कि "राजा के १६ अभिगामिक, ८ प्रज्ञा के ४ उत्साह के तथा ३० आत्मसम्पत् के गुण हैं, जिन में महाकुलीन, भाग्यशाली, मेधावी, धैर्यशाली, दूरदर्शी, धार्मिक, सत्यवादी, समीपवर्ती सत्यप्रतिश, कृतज्ञ, महादानी, महान् उत्साहो, शिकारी, दृढ़ निश्चय, राजाओं को जीतने में समर्थ, उक्षर परिवार वाला और शास्त्र मर्यादाओं को चाहने वाला - ये राजा के १६ अभिगामिक गुण है
शुश्रूषा श्रवण, ग्रहण, धारण, विज्ञान, ऊहापोह, तत्त्व तथा अभिनिवेश-ये ८ प्रज्ञा के गुण हैं। शौर्य, अमर्ष, शीघ्रता तथा दक्षता ये ४ उत्साह के गुण है । इसी प्रकार आरमसम्पत् के विषय में कौटिल्य कहते हैं कि बाग्मी ( अर्थपूर्ण भाषण करने में समर्थ }, प्रगल्भ ( सभा में बोलते समय कम्परहित ), स्मृति, मति तथा बल से युक्त, उन्नत चित्त, संयमी, हाथी, घोड़े आदि के चलाने में निपुण, शत्रु की विपत्ति में आक्रमण करने वाला, किसी के द्वारा उपकार या अपकार किये जाने पर उस का प्रतिकार करने वाला, लज्जागील, दुर्भिक्ष और सुभिक्ष आदि में अन्नादि का ठीक-ठीक विनियोग करने वाला, सन्धि के प्रयोग को समझने वाला, प्रकाशमुद्ध में चतुर, सुपात्र को दान देने वाला, प्रजा को कष्ट न पहुँचाकर ही गुप्त रूप से कोष की वृद्धि करने वाला, शत्रु के अन्दर मृगया द्यूत आदि व्यसनों को देखकर उस पर तीक्ष्ण रस आदि प्रयोग करने में समर्थ, अपने मन्त्र को गुप्त रखने वाला, काम, क्रोध, मोह, लोभ, चपलता, उपताप और पंशुन्य से सदा अलग रहने वाला, प्रिय बोलने वाला, हंसमुख तथा उदार भाषण करने वाला और वृद्धों के उपदेश तथा आचार का मानने वाला राजा होना चाहिए। ये ही राजा की आत्मसम्पत् है । महाभारत में भी राजा के ये लक्षण कुछ संक्षेप में और कुछ विस्तार के साथ कहे गये हैं ।
रु
सोमदेव के अनुसार राजा की योग्यताओं अथवा गुणों का विवेचन
राजा के लिए पराक्रम, सदाचार तथा राजनीतिक ज्ञान तीनों ही बातें राज्य को स्थायी बनाने के लिए परर्म आवश्यक हैं ( ५, ४१ ) । यदि इन में से एक का भी अभाव होगा सो राज्य नष्ट हो जायेगा । क्षाचार्य सोमदेव ने यह मो बताया कि राजनीतिक ज्ञान तथा पराक्रम का धारण करने वाला कौन राजा हो सकता है। इस
१. शुक्र० १ २० २६-११1
म० अ० ६. ९ । ३. बो, ६, १ ।
४. महा० शा०ि,४६, ९६.५७, १३-१४ ।
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attaertain में राजनीति
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सम्बन्ध में सोमदेव लिखते हैं कि यही राणा राजनीति बार पराक्रम का समान हो सकता है जो स्वयं राजनीतिक ज्ञानवान हो अयवा जो अमात्य आदि के द्वारा निर्दिष्ट राजनीति के सिद्धान्तों का पालन करने वाला है (५,३०)। राजा के लिए बुद्धिमान् एवं नीतिशास्त्र का भी ज्ञाता होना परम आवश्यक है क्योंकि बुद्धिमान एवं नीतिशास्त्र ब्रा ज्ञाता पुरुष ही शासन कार्य को सुचारू रूप से चला सकता है (५,३१)। शासन एक कला है और उसे बही व्यक्ति संचालित कर सकते हैं, जिन्होंने इस कला की शिक्षा प्राप्त की है। इस कला का शान राजा को नीतिशास्त्रों के अध्ययन से ही होता है। आचार्य सोमदेव बुद्धिमान् राजा का लक्षण बतलाते हुए कहते हैं कि "जिस ने नीतिशास्त्र के अध्ययन से राजनीतिक ज्ञान और नम्रता प्रास की है, उसे बुद्धिमान् कहते है। शास्त्रज्ञान के लाभ का उल्लेख करते हुए कहा गया है कि पदार्थ या प्रयोजन नेत्रों से प्रतीत नहीं होता उरा को प्रकाश में लाने के लिए शास्त्र पुरुषों का तृतीय नेत्र है (५, ३४) । शास्त्रज्ञान से दोन पुरुष अन्धे के समान संसार में भटकता फिरता है। शास्त्रज्ञान से शून्य मूर्ख व्यक्ति को धर्म और अधर्म, कर्तव्य और अकर्तव्यं का ज्ञान नहीं हो सकता। जिस व्यक्ति को इन बातों का ही ज्ञान नहीं वह राजपद के सर्वथा अयोग्य है । इसी उद्देश्य से आचार्य ने राजा के लिए शास्त्रज्ञान की मावश्यकता पर बल दिया है (५, ३५)।
शास्त्रज्ञान के साथ ही साथ राजाओं को आन्वीक्षिकी, त्रयो, वार्ता एवं दण्डनीति आदि राजविद्याओं का भी ज्ञाता होना आवश्यक है। ये विद्याएं राज्य की थोवृद्धि के लिए आवश्यक है। इन चारों विद्याओं के जान से होने वाले लाभ का वर्णन करते हुए बाचार्य ने बड़े विस्तार के साथ इन.को व्याख्या को है। मान्धीक्षिकी विद्या के विषय में सोमदेव लिखते हैं कि जो राजा अध्यात्म विद्या ( आन्वीक्षिकी विद्या ) का विद्वान् होता है वह सहज ( कषाय और अन्याय से होने वाले राजसिक
और तामसिक दुःख ) तथा शारीरिक दुःख ( ज्वर आदि से होने वाली पीड़ा ), मानसिक एवं मागन्तुक दुःखों ( भविष्य में होने वाले अतिवृष्टि, अनावृष्टि और शत्रुक्त अपकार आदि ) के कारणों से पीड़ित नहीं होता है ( ६,२)। जो राजा नास्तिक दर्शन को भली-भांति जानता है वह अवश्य ही राष्ट्रकंटकों (प्रजा को पीड़ित करने धाले जार–घोर आदि दुष्टों ) को जड़मूक से नष्ट कर देता है ( ६,३ ) 1 अपराधियों को क्षमादान देना साधु पुरुषों का भूषण है न कि राजाओं का । राजाओं का भूषण तो अपराधियों को उन के अपराधानुसार दण्ड देना है (६,३७ )।
राजा के लिए पराक्रमी होना भी परम आवश्यक है, क्योंकि बिना पराक्रम के प्रा राजा की आज्ञाओं का पालन नहीं करती, शत्रु भयभीत नहीं होते और उस के राज्य पर आक्रमण कर के उस को अपने अघोन बना लेते है । अत: विजिगीषु राजा को अपनो राज्यवृद्धि के लिए पराक्रमो-सैन्य एवं कोष-शक्ति से पूर्णतया सम्पन्न होना चाहिए। इस विषय में आचार्यश्री का कथन है कि "जिस प्रकार अग्निरहित केवल
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भस्म को साधारण व्यक्ति भी पैरों से ठुकरा देते हैं उसी प्रकार पराक्रमविहीन राजा के विरुद्ध साधारण व्यक्ति भी विद्रोह कर देते हैं ( ६,३८ ) ।
त्रयीविद्या के ज्ञाता राजा के राज्य में चातुर्वर्ण के लोग अपने-अपने धर्म का पालन स्वतन्त्रतापूर्वक रूप से करते हैं । और दोनों को ही धर्म, अर्थ और काम पुरुषार्थों की प्राप्ति होती है ( ७२ ) । वार्ता के विषय में आचार्य लिखते हैं कि जिस राजा के राज्य में वार्ता - कृषि, पशुपालन और व्यापार आदि से प्रजा के जीविकोपयोगी साधनों को उन्मति होती है, वहाँ पर उसे समस्त विभूतियाँ प्राप्त होती है ( ८२ ) । दण्डनीति में कुशल राजा से होने वाले लाभ की व्याया करते हुए आचार्य सोमदेव लिखते हैं कि राजा को यमराज के समान कठोर होकर अपराधियों को ति करते रहना चाहिए। ऐसा करने से प्रजावर्ग अपनी-अपनी मर्यादाओं का उल्लंघन नहीं करते अर्थात् अपने-अपने वर्णाश्रम धर्म पर आरुढ़ होकर दुष्कुस्यों में प्रवृत्ति नहीं करते। अतः उसे धर्म, अर्थ और काम इन तीनों पुरुषार्थों को उत्पन्न करने वाली विभूतिया प्राप्त होती हैं । ५,६० ) । राजा को निरन्तर इन राजविद्याओं का अभ्यास करते रहना चाहिए। जो राजा इन का अध्ययन नहीं करता और न विद्वानों की संगति ही करता है वह अवश्य ही उन्मार्गगामी होकर निरंकुश हाथी के समान नाश को प्राप्त होता है ( ५,६५ ) ।
राजा के न्यायी होने का विधान नीतिवाक्यामृत मे किया गया है। आचार्य लिखते हैं कि जब राजा न्यायपूर्वक प्रजा पालन करता है तब सभी दिशाएं प्रजा को अभिलषित फल देने वाली होती हैं ( १७, ४५ ) । न्यायी राजा के प्रभाव से यथायोग्य जलवृष्टि होती है और प्रजा के सभी उपद्रव शास्त होते हैं तथा समस्त लोकपाल राजा का अनुकरण करते हैं ( १७, ४६ ) । राजा के लिए साम, दाम, दण्ड, भेद आदि नीतियों का ज्ञाता होना भी आवश्यक है। इस सम्बन्ध में सोमदेव लिखते हैं कि जो पुरुष शत्रुओं द्वारा की जानेवाली वैर-विरोध की परम्परा को साम, दाम, दण्ड व भेद आदि नैतिक उपायों से नष्ट नहीं करता उस को वंश वृद्धि नहीं हो सकती (२६,१६ ) ।
राजा के दोष
सोमदेवसूरि ने अपने ग्रन्थ नीतिवाक्यामृत में राजा के दोषों पर भी प्रकाश डाला है। अन्य राजनीतिज्ञों ने भी राजा के दोषों को ओर संकेत किया है। इस मिथ्याभाषण, विषय में महाभारत के समापर्व में नारदजी कहते हैं कि "नास्तिकता, कोष, प्रसाद ( कर्तव्य का आचरण और कर्तव्य का त्याग ), दीर्घसूत्रता, ज्ञानियों का संसर्ग न करना, आलस्य, इन्द्रिय परायणता, अकेले ही राज्य की समस्याओं पर विचार करना, अनभिज्ञ लोगों के साथ मन्त्रणा करना, मन्त्रणा में निश्चित कार्यों का आरम्भ न करमा, मन्त्रणा को गुप्त न रखना, मांगलिक कार्यों का प्रयोग न करना और एक साथ ही बहुत से शत्रुओं का विरोध करना ये राजाओं के दोष है।
अतः राजा को
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परीक्षापूर्वक हन चौदह दोषों से बचना चाहिए ।""
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रामायण में भी राजा के उपरोक्त दोषों का वर्णन मिलता है । रामायण एवं महाभारत दोनों ही महाकाव्य इस बात पर बल देते हैं कि राजा को उपर्युक्त दोषों से सर्वथा मुक्त होना चाहिए |
सोमदेव के अनुसार राजा के दोषों का विवेचन
क्रोध को सभी शास्त्रकारों ने मनुष्य का महान् शत्रु बतलाया है। आचार्यों का कथन है कि क्रोष व्रत, तप, नियम और उपवास बादि से उत्पन्न हुई प्रचुर पुण्यराशि को नष्ट कर देता है। इसलिए जो महापुरुष इस के वशीभूत नहीं होता उस का पुण्य बढ़ता रहता है । किन्तु राजा के लिए ऐसा नहीं है। उस के लिए न्याययुक्त कोष करने का विधान है। यदि राजा सर्वधा क्रोध का त्याग कर देगा तो राज्य में अराजकता फैल जायेंगी, क्योंकि सौम्य प्रकृति के राजा से दुष्ट प्रकृति के लोग भयभीत नहीं होंगे गोर वे मात्स्यन्याय का सृजन करेंगे। इस से राज्य में अराजकता फैल जायेगी । दण्ड के भय से ही प्रजा राजा की आज्ञाओं करती है। कोषका परिए है । जब लोग यह समझने लगे कि हमारा राजा तो सन्त है यह किसी पर भी क्रोष नहीं करता तो वे अपने को अदण्डय समझकर मनमानी करने लगेंगे । अतः राजा के लिए क्रोष के सर्वथा त्याग का विधान नहीं है। यह विधान तो गृहस्थ लोगों के लिए अथवा वानप्रस्थी तथा संन्यासियों के लिए ही हैं, किन्तु इतना अवश्य है कि राजा को अपनी शक्ति के अनुकूल ही क्रोध करना चाहिए। यदि वह इस के विपरीत क्रोध करेगा तो स्वयं नष्ट हो जायेगा । इस सम्बन्ध में नाचार्य लिखते हैं कि "को व्यक्ति अपनी और वायु की शक्ति को न जानकर क्रोष करता है यह कोष उस के विनाश का कारण होता है (४,३) ।” अभिमान भी राजा का दुर्गुण है (५, २९) । जो राजा अभिमान के कारण अपने अमात्य, गुरुजन एवं बन्धुओं की उपेक्षा करता है वह रावण को तरह नष्ट हो जाता है । अतः नैतिक पुरुष को कभी अभिमान नहीं करना चाहिए । शास्त्रज्ञान से रहित राजा भी राजपद के अयोग्य है, क्योंकि इस के अभाव में वह शासन कार्यों को ठीक प्रकार से सम्पन्न नहीं कर सकता। इस की हानि का उल्लेख करते हुए सोमदेव ने लिखा है कि जो राजा राजनीतिशास्त्र के ज्ञान से शून्य है और केवल शूरवीरता ही दिखाता है उस का सिंह की भाँति फिरकाल तक कल्याण नहीं होता (५, ३३) । दुष्टता भी राजा का महान् अवगुण हैं । दुष्ट राजा का लक्षण बताते हुए आचार्य ने लिखा है कि जो योग्य और अयोग्य पदार्थों के सम्बन्ध में ज्ञानशून्य है अर्थात् जो योग्य व्यक्तियों का अपमान और अयोग्य व्यक्तियों को दान और सम्मान आदि से प्रसन्न करता है तथा विपरीत बुद्धि से युक्त है अर्थात् शिष्ट पुरुषों के सदाचार
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९. महा० सभा०५, १०-६०१ ।
२. रामायण - २, १००, ६५-६७ ।
राजय
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की अवहेलना कर के पापकर्मों में प्रवृत्ति करता है उसे दुष्ट कहते हैं (५, ४१) । दुष्ट राजा से प्रजा का विनाश ही होता है। उसे छोड़कर दूसरा कोई उपद्रव नहीं हो सकता (५,४० ) । इस के साथ ही मूर्खता, अनाचार और कायरता भी राजा के भीषण दोषों के अन्तर्गत आते हैं । इस सम्बन्ध में आचार्य सोमदेव दिखते हैं कि "जो पुरुष उक्त दोषों से युक्त है वह पागल हाथी की भाँति राजपद के सर्वथा अयोग्य है अर्थात् जिस प्रकार पागल हाथो जनसाधारण के लिए भयंकर होता है उसी प्रकार जब मनुष्य में राजनीतिक ज्ञान, आचार सम्पति, शूरयोरता आदि गुण नष्ट होकर उन के स्थान पर मूर्खता, अनाचार और कायरता आदि दोष घर कर लेते हैं तब वह पागल हाथी की तरह भयंकर हो जाने से राजपद के योग्य नहीं रहता (५, ४३) । मूर्ख राजा की भो समस्त राजशास्त्र बेताओं ने निन्दा की है। आचार्य सोमदेव तो यहाँ तक कहते हूँ कि राज्य में राजा का न होना श्रेष्ठ है किन्तु उस में मूर्ख राजा का किसी भी प्रकार से होना ठोक नहीं है (५.३८) । मूर्खता के साथ ही दुराग्रह भी राजा का दूषण है । मूर्ख और दुराग्रही राजा से राष्ट्र को हानि होती है, क्योंकि वह हितैषी पुरुषों की परम हितकारक बात की भी अवहेलना करता है जिस से राष्ट्र की श्रीवृद्धि नहीं हो पाती (५, ७५ ) । व्यसनी राजा से भी राष्ट्र का अहित होता है । इस सम्बन्ध में आचार्य का कथन है कि जो राजा १८ प्रकार के व्यसनों में से किसी एक व्यसन में भी ग्रस्त है वह चतुरंगसेना ( हाथी, घोड़े, रथ, पदाति ) से युक्त हुआ भी नष्ट हो जाता है । स्वेच्छाचारिता मी राजा का महान् अवगुण है। जो राजा किसी को बात न मानकर मनमाने ढंग से शासन करता है वह चिरकाल तक सुखो तथा सुरक्षित नहीं रहता । आचार्य इस सम्बन्ध में लिखते हैं कि स्वेच्छाचारी आत्मीयजनों अथवा शत्रुओं द्वारा नष्ट कर दिया जाता है ( १०, ५८ ) । विजयलक्ष्मी के इच्छुक पुरुष को कदापि काम के वशीभूत नहीं होना चाहिए। काम, क्रोध, लोभ, मद, मान, हर्ष ये राजाओं के ६ अन्तरंग वात्रु है । जो राजा जितेन्द्रिय और नीतिमार्ग का अनुसरण करने वाला है ( सदाचारी है) उस को लक्ष्मी प्रकाशवान् और कीर्ति आकाश को स्पर्श करने वाली होती है | सदाचार वंश परम्परा या पुरुषार्थ से प्राप्त हुई राजलक्ष्मी के चिरस्थायी बनाने में कारण हूँ । नीति विरुद्ध असत् प्रवृत्ति, दुराचार से राज्य नष्ट होता है । अतः जो राजा अपने राज्य को चिरस्थायी बनाने का इच्छुक है उसे सदाचारी होना चाहिए (५,२८) । निरभिमानता तथा अभिमान से होने वाले परिणाम की व्याख्या करते हुए सोमदेव लिखते हैं कि निरभिमानता से ही पराक्रम की शोभा बढ़ती है ( ५,२९ ) । जो राजा अभिमान के कारण अपने अमात्य, गुरुजन और बन्धुओं की उपेक्षा करता है वह रावण की तरह नष्ट हो जाता है ।
इस प्रकार सोमदेवसूरि ने राजा के गुण-दोषों का बड़े विस्तार के साथ वर्णन किया है । राजा के उपर्युक्त गुणों के कारण राष्ट्र तथा राजा को क्या लाभ होते हैं और १. गुरु- नीतिवा० ५० ५३ ।
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उस में दोषी के कारण क्या हानि होती है, इस विषय पर बहुत सुन्दर ढंग से प्रकामा डाला गया है जो कि नीतिशास्त्र के अध्येताओं एवं शासक वर्ग के लिए परम उपयोगी है । यदि शासक इन गुणों को अपने चरित्र में आत्मसात् करेंगे और दोषों का परिहार करेंगे तो इस से राष्ट्र का परम कल्याण होगा । साधारण व्यक्तियों के लिए भी इन गुणों का ग्रहण करना तथा दोषों का निवारण बहुत आवश्यक है। वे भो इस उपदेशात्मक वर्णन से जीवन को सफल बना सकते हैं।
यद्यपि प्राचीन आवायों ने राजा में देवत्व का आरोप कर के उस को देवताओं के अंश से निर्मित बताया है, किन्तु फिर भी उस के लिए सपर्युक्त योग्यताओं का भी विधान है । राषा इन्हीं गुणों अथवा योग्यताओं के द्वारा विभिन्न देवों के समान कार्य करने में समर्थ हो सकता है। राजा के देवत्व का इन योग्यताओं से यहुत अनिष्ट सम्बन्ध प्रतीत होता है और ये एक-दूसरे के पूरक कहे जा सकते हैं। ज्यायी राजा का अनुकरण समस्त लोकपाल करते हैं। इसी कारण आचार्यों ने राजा को मध्यम लोकपाल —होने पर भी उत्तम लोकपाल-स्वर्गलोक का रक्षक कहा है (१७, ४७) । इस प्रकार का वर्णन नीतिवाक्यामृत में प्राप्त होता है । इस से स्पष्ट है कि राजा अपने विशिष्ट गुणों के कारण हो देवत्व प्राप्त करता था । राजा के कर्तव्य ___राजा का जन्म समाज में अराजकता को दूर करने के लिए इशा था। राजा अपने राजस्व के कारण ही समाज में शान्ति स्थापित करने के लिए उत्तरदायी था। घेदों में राजा को राष्ट्रों का सौन्दर्य और राष्ट्र की शोभा बताया गया है । राजा के महत्व और उम्र के विशिष्ट कर्तव्यों के कारण ही उस के लिए इतना उच्च पद प्रदान किया गया था। अराजकता को नष्ट करने, प्रजापालन, देश में शान्ति और व्यवस्था स्थापित करने के लिए ही रामा को आवश्यकता प्रवीश हुई। यही राणा के कर्तव्य है। राजा धर्म के लिए होता है न कि अपनो कामनाओं की पूर्ति के लिए। महाभारत के शान्ति. पर्व में इन्द्र मान्धाता से कहते है कि राजा धर्म का रक्षक होता है। जो राजा धर्मपूर्वक राज्य करता है वह देवता माना जाता है और जो राजा मधर्मावारी होता है वह मरकगामी होता है। जिस में धर्म रहता है उसी को राजा कहते है।
___ आचार्य सोमदेव सूरि ने नीतिवाश्यामृत के विभिन्न समुद्देशों में राजा के कर्तव्यों को और संकेत किया है जिन का वर्णन हम निम्नलिखित उपशीर्षकों द्वारा कर सकते है
१. प्रजा की रक्षा एवं पालन-पोषण - बाह्य शत्रुओं एवं आन्तरिक राष्ट्रकण्टकों से प्रजा की रक्षा करना राजा का सर्व प्रमुख कर्तव्य है 1 शत्रुओं से प्रत्रा की १. महान शान्तिक १७३।
चार राजा भवति न कामकरणाच तुः मार्कण्डेय १३५, ३३-१४ । १ महा० शान्ति १०४.५ ।
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रक्षा के सम्बन्ध में सोमदेव लिखते हैं कि जो पुरुष ( राजा ) शत्रुओं पर पराक्रम नहीं दिखाता वह जो चित ही मृतक के समान है। आचार्य अन्यत्र लिखते हैं कि जिस राजा का गुणगान शत्रुओं की सभा में विशेष रूप से नहीं किया जाता उस की उन्नति व बिजय कदापि नहीं हो सकती ( २६, ३६ )। राजा को प्रजा-कार्यों, प्रजा-पालन व तुष्ट निग्रह आदि का स्वयं ही निरीक्षण करना चाहिए । इन कार्यों को राजकर्मचारियों के ऊपर कभी नहीं छोड़ना चाहिए (१७, ३२)। प्रजा की रक्षा न करने वाले राजा को आचार्य सोमदेव ने निन्दनीय बताया है (७, २१) 1 प्रजा की रक्षा करना ही राजा का सब से महान् धर्म है, अन्य व्रतों को चर्या तो उस के लिए गौण है । प्रजापोड़क दुष्टों पर भी क्षमा धारण करने का विधान साध-पुरुषों के लिए ही है, राजा के लिए नहीं । राजा का धर्म ती दृशों का दमन करना हो है। जो राजा पापियों का निग्रह करता है उस से उसे उत्कृष्ट धर्म को प्राप्ति होती है। उन का वध करने अथवा उन्हें दण्डित करने से राजा को पाप नहीं लगता। राजा के द्वारा सुरक्षित प्रजा अपने अभिलषित पुरुषार्थों को प्राम करती है । इस के विपरीत अन्यायों का निग्रह न होने से उस राज्य की प्रजा सदैव दुःखी रहेगी और उस का उत्तरदायित्व राजा पर ही होगा। इसी कारण आचार्य लिखते हैं कि जो राजा दुष्टों का निग्रह नहीं करता उस का राज्य उसे नरक ले जाता है (६, ४४)। उसे सर्वदा प्रजा की रक्षा का चिन्तन करना चाहिए। इस विषय में सोमदेव लिखते हैं कि राजा को ध्यानावस्थित होकर इस मन्त्र का जाप करना चाहिए-"मैं इस पृथ्वी रूपी गाय की रक्षा करता हूँ जिस के चार समुद्र हो यन है, धर्म (शिष्ट पालन, दुष्ट निग्रह ) ही विस का बछड़ा है, उत्साह रूम पंछ वाले वर्णाश्रम ही जिस के तुर है। जो काम और अर्थ रूप यनों वाली है। वप व प्रताप हो जिस के सींग है एवं जो न्याय रूप.मुख से युक्त है। इस प्रकार की मेरी पृथ्वी कपी गाय का जो अपराध करेगा, उसे मैं मन से भी सहम नहीं करूंगा (२५, ९६) । सभी प्रकार के अन्यायों से प्रना की रक्षा करना राजा का परम कर्तव्य है । प्रजा-पीड़ा एवं अन्याय की वृद्धि से राज्य व कोष नष्ट हो जाता है (११, १७)।
केवल प्रजा की रक्षा करना ही राजा का कर्तव्य नहीं, अपितु रक्षा के साथ हो साथ प्रजा का सर्वांगीण विकास करना भी उस का कर्तव्य है। राजा को प्रजा का पालन अपने कुटुम्ब के समान ही करना चाहिए। उसे पूज्यजनों का सम्मान भी करना चाहिए।
२. सामाजिक व्यवस्था की स्थापना-समाज को समुचित व्यवस्था करना भी राजा का कर्तव्य है। जिस समाज के व्यक्ति अपने-अपने धर्म का पालन नहीं करते वह समाज नष्ट हो जाता है । अत: राजा को वर्णाश्रम धर्म की व्यवस्था करनी चाहिए। स्रोमदेवसूरि गयापि जैन आचार्य थे किन्तु फिर भी उन्होंने कौटिल्य द्वारा प्रतिपादित वैदिक वर्णाश्रम व्यवस्था को ही अपनाया है। वे लिखते हैं कि राजा को यमराज के समान कठोर होकर अपराधियों को दण्ड देते रहना चाहिए । इस से
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प्रया के लोग अपनी-अपनी मर्यादाबों का उल्लंघन नहीं कर सकते । इस से राजा का धर्म, अर्थ और काम इन तीन पुरुषार्थों को प्रासि होती है (५,६०)।
३. आर्थिक कर्तव्य- आर्थिक दृष्टि से प्रजा को सम्पन्न बनाना भी राजा का कर्तव्य है। जीवन को सुखमय बनाने के लिए अर्थ की परम आवश्यकता है। क्योंकि सब प्रयोजनों की सिद्धि अर्थ से ही होता है। २:३॥ की ऐसी व्यस्था करनी चाहिए, जिस से प्रत्येक व्यक्ति को जीविकोपार्जन के साधन उपलब्ध हो सकें। इस के लिए सोमदेव ने राजा को वार्ता की उन्नति करने का आदेश दिया है। और इस को समृद्धि में ही समस्त समृद्धियां निहित बतलायी है (८, २)। लोक में कृषि आदि की समचित ध्यवस्था करने वाला राजा प्रजा को सुखी बनाता है तथा स्वयं भी अभिलषित सुखों को प्राप्त करता है। आचार्य सोमदेव प्रजा को स्वावलम्बी बनाने पर अधिक बल देते है। वे कृषि कर्म, पशु-पालन, एवं कृषि के साधनों की उन्नति को समस्त सुखों को आधारशिला मानते हैं। उन का कथन है कि वह गृहस्थ निश्चय पूर्वक सुखी है जो कृषिकर्म, गोपालन में प्रवृत्त हैं तथा शाक आदि उत्पन्न करता है और जिस का स्वयं का कुआं
प्रजा को आर्थिक स्थिति को ठीक रखने के लिए राजा को प्रजा पर अधिक कर नहीं लगाने चाहिए और न उस से अन्याय पूर्वक धन ही लेना चाहिए (१६,२३)। यदि राजा अनुचित रीति से प्रजा से धन लेता है तो ऐसा करने से उस का राज्य नष्ट हो जाता है। व्यापार एवं घाणिज्य के विकास के लिए उसे समुचित नियमों की व्यवस्था करनी चाहिए और व्यापारियों की सुरक्षा का भी प्रबन्ध करना चाहिए। सोमदेव का कथन है कि जिस देश में तुला और मान की उचित व्यवस्था नहीं होती और व्यापारियों के माल पर अधिक कर लगाया जाता है वहां पर व्यापारी अपना माल देखने नहीं आते (८, ११ तथा १३)। इसी प्रकार के अन्य व्यापार सम्बन्धो नियमों को और भी सोमदेव ने संकेत किया है। एक स्थान पर वे लिखते हैं कि यदि राजा प्रयोजनार्थियों का प्रयोजन सिद्ध न कर सके तो उसे उन की भेंट स्वीकार नहीं. करनी चाहिए, अपितु उसे वापस लौटा देना चाहिए, क्योंकि प्रत्युपकार न किये जाने वाले की भेंट स्वीकार करने से लोक में निन्दा और इसी के अतिरिक्त कोई लाभ नहीं , होता (१७, ५३)।
४. प्रशासकीय कर्तव्य-देश को शासन व्यवस्था को सुचारू रूप से पलाने के लिए राजा को सुयोग्य सजकर्मचारियों की नियुक्ति करनी चाहिए, अकेला राजा शासम के भार को संभालने में सर्वथा असमर्थ है इसलिए उसे राजनीतिशास्त्र के शाता एवं व्यवहार कुशल मन्त्रियों की नियुक्ति करनी चाहिए तथा उन के सत्परामर्श को मानना चाहिए । मूर्ख और दुराग्रहो राजा से राष्ट्र की हानि होती है। क्योंकि आस (हितैषी) पुरुषों की परम हितकारक बात की भी अबहेलना करता है जिस के कारण राष्ट्र की श्रीवृद्धि में बाधा पड़ती है। राज्य में शान्ति एवं व्यवस्था की स्थापना के
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लिए राजा को सुसंगठित सेना को भी स्थापना करनी चाहिए तथा विशिष्ट सैनिक गुणों से सम्पन्न व्यक्ति को सेनाध्यक्ष के पद पर नियुक्त करना चाहिए । आचार्य सोमदेव मन्त्रियों, सेनापति एवं अन्य उच्च राजकर्मचारियों के गुणों के साथ ही उन के स्वदेशवासी होने पर विशेष बल देते हैं ! उन का कथन है कि मन्त्री आदि राजकर्मचारी स्वदेशवासीही होमे चाहिए, क्योंकि समस्त पक्षपातों में स्वदेश का पक्षपान श्रेष्ठतम होता है (१०, ६)। राजा के उपाध्याय भी विशिष्ट गुणों से युक्त होने चाहिए (५, ६५)। अन्तर्राष्ट्रीय सम्बन्धों को ठीक प्रकार से बनाये रखने के लिए राजा विनियमों से विभूषित विविध प्रकार के चर एवं पूतों की नियुक्ति करे। सुयोग्य चर एवं दूतों से ही अन्तर्राष्ट्रीय क्षेत्र में राज्य की प्रतिष्ठा स्थापित होती है। तथा राज्य बाह्य आक्रमणों से सुरक्षित रहता है। इस प्रकार विभिन्न राजकर्मचारियों को नियुक्ति कर के राजा अपने प्रशासन को श्रेष्ठ बनाने का प्रयत्न करे, और अपने महान् कर्तव्म का पालन करे।
सैन्य व्यवस्था भी प्रशासन का ही अंग है क्योंकि बल से राज्य में शान्ति एवं व्यवस्था स्थापित होती है। आचार्य सोमदेव ने राज्य का मूल क्रम और विक्रम को बताया है (५, २७) । विक्रम अर्थात् शक्ति के अभाव में क्रमागत राज्य भी नष्ट हो जाता है। अतः राजा को अपनी सैनिक शक्ति सुदृढ बमानी चाहिए। सोमदेव ने चतुरंगिणी सेना का संगठन करने तथा उस के प्रशिक्षण की उचित व्यवस्था की ओर संबत किया है। सैन्य-शक्ति को प्रसंशा करते हुए सोमदेव लिखते हैं कि जिस प्रकार घटे हुए मुणतन्तुओं से दिग्गज भी बशीभूत कर लिया जाता है उसी प्रकार राजा भी सैन्य-शक्ति से शक्तिशाली शत्रु को भी परास्त कर देता है {३०, ३८)। हीन सैनिक शक्ति वाले राजा के सम्बन्ध में वे इस प्रकार लिखते हैं कि जिस प्रकार जंगल से निकला हुआ सिंह गीदड़ के समान शक्तिहीन हो जाता है उसी प्रकार संन्य एवं स्थान भ्रष्ट राजा मी क्षीण शक्ति वाला हो जाता है (३, १६)। अतः राजा का यह कर्तश्य है कि वह सर्वदा अपनी सन्ध-शक्ति को सुदृढ़ बनाये रखे। सोमदेव ने यह लिखा है कि राजा को सैनिक पाक्सि की वृद्धि प्रजा में अपराधों का अन्वेषण करने के अभिप्राय से नहीं करनी चाहिए। क्योंकि ऐसा करने से प्रजा उस से असन्तुर होकर शत्रुता करने लगती है और इस के परिणामस्वरूप उस का राज्य नष्ट हो जाता है (९, ४) 1
इस का अभिप्राय यह कदापि नहीं है कि राजा बल का प्रयोग करे हो नहीं। राजा का उल्लंघन करने वालों के लिए दण्ड का सर्वत्र विधान है। सोमदेव लिखते है कि राजा आजा भंग करने वाले पुत्र पर भी क्षमा न करे ( १७, २३ ) । अन्यत्र आचार्य लिखते है कि जिस की आज्ञा प्रजाजनों द्वारा उल्लंघन की जाती है, उस में और चित्र के राजा में क्या अन्तर है । राज्य की रक्षा के लिए कुशल विदेश नीति का निर्धारण भी परम आवश्यक
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है । इस के लिए राजा को पाङ्गुष्य नीति का पूर्ण ज्ञाता एवं साम, दाम, भेद तथा दण्ड आदि उपायों का समुचित प्रयोक्ता होना परम आवश्यक है। राजा को इस घागुण्य नीति तथा इन चार उपायों का प्रयोग किस प्रकार करना चाहिए । इस का विशद विवेचन नोतिवाक्यामृत के षाड्गुण्य समुद्देवा एवं युद्ध समुद्देश में किया गया है । राजा को अपने से शक्तिशाली शत्रु से कमी युद्ध नहीं करना चाहिए। राजनीतिशासन सत्यायों में घिमिलेगा जो सामासि, प्राप्त की रक्षा और रक्षित की वृद्धि करने के लिए तथा प्रजा-पीडक राष्ट्र कण्टकों एवं शत्रओं पर विजय प्राप्त करने के लिए न्याययुक्त अपनी और शत्रु की शक्ति को विचार कर तदनुकूल क्रोध करने का विधान किया है तथा अन्याय युक्त का निषेध अपने राज्य की सुरक्षा के लिए राजा को राज्यमण्डल की भी स्थापना करनी चाहिए और उन राज्यों में दूत एवं चरों की भी नियुक्ति करनी चाहिए। इस सम्बन्ध में भी मीतिवाक्याभूत में पर्याप्त प्रकाश डाला गया है ( समु० १३ और १४)।
५. न्याय सम्बन्धी फतव्य-राजा का यह भी एक परम कर्तव्य बताया गया है कि यह पक्षरावरहित न्याय करे ( २६, ४१ )। इस के लिए उसे दण्डनीति का ज्ञाता होना आवश्यक है । सोमदेव लिखते है कि अपराधी को अपराधानुकूल बण्ड देना ही दण्डनीति है. { ९, २)। आचार्य आगे लिखसे हैं कि राजा के द्वारा प्रजा की रक्षा के लिए अपरावियों को दण्ड दिया जाता है, धन के लिए नहीं ( ९, ३ । अन्यत्र सोमदेव लिखते हैं कि यदि राजा प्रजा के साथ अन्याय करता है तो इस का अर्थ समुद्र का मर्यावा उल्लंघन करना ही है ( १७, ४९ ) । जब राजा न्यायपूर्वक प्रजा का पालन करता है तो सभी दिशाएँ प्रजा को अभिलषित फल देने वाली होती है । न्यायी राजा के प्रभाव से मेषों से यथासमय दृष्टि होती है और प्रजा के सभी उपद्रव शान्त होले है ( १७, ४६ )। जो राजा साधारण अपराध के लिए प्रजा जमों में दोषों का अन्वेषण कर भीषण दण्ड देता है वह प्रजा का शत्रु है । इस का अभिप्राय यही है कि राजा अपराधियों को उन के अपराधानुकूल हो दण्ड की व्यवस्था करे। किन्तु अपराधियों को खण्ड अवश्य मिलना चाहिए क्योंकि दण्ड के अभाव में प्रजा में मात्स्यन्याय की उत्पत्ति हो जाती है (९.७)। राजरक्षा
राजा इतने महत्वपूर्ण कर्तव्य करता था इसलिए उस की प्रधानता थो । अतः उस की रक्षा के लिए प्राचीन आचार्यों ने कुछ विशिष्ट नियमों अथवा उपायों का उल्लेख किया है। राजरक्षा के विषय में आचार्य सोमदेव ने भी इसी प्रकार के नियमों का प्रतिपादन अपने ग्रन्थ में किया है। सोमदेव लिखते है कि राजा की रक्षा होने से हो समस्त राष्ट्र सुरक्षित रहता है। इसलिए उसे अपने 'कुटुम्बियों तथा शत्रुओं से अपनो रक्षा करनी चाहिए { २४, १)। सजशास्त्र के विद्वानों का कथन है कि राजा
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अपनी रक्षा में ऐसे व्यक्ति को नियुक्त करें जो उस के वंश का ( माई आदि ) हा अथवा वैवाहिक सम्बन्धों से बँधा हुआ हो और जो नीतिशास्त्र का ज्ञाता हो, राजा से स्नेह रखने वाला हो तथा राजकीय कर्तव्यों में निपुण हो ( २४, २) । राजा विदेशी पुरुष को जिसे धन व मान देकर सम्मानित नहीं किया हो और पहले दण्ड पाये हुए स्वदेशवासी व्यक्ति को जो बाद में अधिकारी बनाया गया हो अपनी रक्षा के कार्यों में नियुक्त न करें, क्योंकि असम्मानित विदेशी तथा दण्डित स्वदेशवासी द्वेषयुक्त होकर उस से बदला लेने की कुचेष्टा करेगा ( २४, ३ )। जिस प्रकार जीवन रक्षा में बायु मुख्य है उसी प्रकार राष्ट्र के सात अंगों में राजा की प्रधानता है। अतः राजा को सर्वप्रथम अपनी रक्षा करनी चाहिए ( २०, ६) । राजा को सर्वप्रथम रानियों से, उस के बाद फ्रुटुम्बियों से और तत्पश्चात् पुत्रों से अपनी रक्षा करनी चाहिए ( २४, ७) । राजा को वेश्या सेवन कभी नहीं करना चाहिए। उसे स्त्रियों के घर में कभी प्रविष्ट नहीं होना चाहिए । इस का कारण यह है कि वेश्याओं के यहाँ सभी प्रकार के व्यक्ति आते हैं, इसलिए वे शत्रुपक्ष से मिलकर राजा को मार डालती हैं ( २४, २९ ) । जिस प्रकार सर्प की बामी में प्रविष्ट हुआ मेक नष्ट हो जाता है उसी प्रकार जो राजा लोग स्त्रियों के घर में प्रवेश करते हैं वे अपने प्राणों को नष्ट कर देते हैं, क्योंकि स्त्रियों चंचल प्रकृति के वशीभूत होकर उसे मार डालती हैं अथवा किसी अन्य व्यक्ति से उसका वध करा देता हूँ ( २४, ३१ ) ।
राजा का यह भी कर्तव्य है कि यह स्त्रियों के घर से आयी हुई किसी भी वस्तु का भक्षण न करें ( २४, ३२ ) । उसे भोजनादि के कार्य में स्त्रियों की नियुक्ति नहीं करनी चाहिए, क्योंकि स्त्रियों चंचलतावश अनर्थ कर सकती हैं ( २४, ३३ ) । राजा को स्त्रियों पर कभी विश्वास नहीं करना चाहिए, क्योंकि वशीकरण, उच्चाटन और स्वच्छन्दता चाहने वाली स्त्रियों सभी प्रकार का अनर्थ कर सकती है ( २४, ३४ ) । आचार्य सोमदेव ने अपने मत की पुष्टि के लिए कुछ ऐतिहासिक प्रमाण प्रस्तुत किये हैं । वे लिखते हैं कि इतिहास के अवलोकन से जात होता हूं कि यवन देश में स्वच्छन्द वृत्ति चाहने वाली मणिकुण्डला नाम की पटरानी ने अपने पुत्र के राज्यार्थ अपने पति अंगराज को विषदूषित मदिरा से मार डाला । इसी प्रकार सूरसेन की वस्न्तमति नाम की स्त्री ने विष से रंगे हुए अधरों से, सुरतविलास नामक राजा को, वृकोदरी ने दशा ( भेलसा ) में विषलिप्त करघनी से, मदनार्णव राजा को मदिराक्षी ने मगध देश में बी दर्पण से, मन्मथविनोद को और पाण्ड्य देश में चण्डरसा नामक रानी ने केशपाश में छिपी हुई कटारी से पुण्डरीक नामक राजा को मार डाला ( २४, ३५-३६ ) 1 आचार्य के कथन का अभिप्राय यही है कि राजा को स्त्रियों पर कमी विश्वास नहीं करना चाहिए और न उन में अधिक आसक्ति ही रखनी चाहिए तथा उन के घर में कभी प्रवेश नहीं करना चाहिए।
कुटुम्बीजनों का संरक्षण भी राजा के विनाश का कारण होता है। इस विषय
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में सोमदेव लिखते हैं कि जब राजा अपने निकटवर्ती कटम्बोजनों को उच्च पदों पर नियुक्त कर के जीवन पर्यन्त प्रचुर धन आदि देकर उन का संरक्षण करता है, तब अभिमान वश वे राज्यलोभ से राजा के घातक बन जाते हैं (२४, ५८)। राजा द्वारा जब सजातीय कुटुम्चियों के लिए सैन्य व कोश बढ़ाने वाली जीविका प्रदान कर दो जाती है तब वे अभिमानी हो जाते हैं। जिस का परिणाम भयंकर होता है। वे शस्तिशाली होफर व राज्यलोभ से राजा के बघ की सोचने लगते हैं (२४, ५९) । अतः उन्हें इस प्रकार की जीविका कदापि नहीं देनी चाहिए ।।
राजा को अपने ऊपर श्रद्धा रखने वाले, भक्ति के बहाने से कभी विरुद्ध न होने वाले, नम्र, विश्वसनीय एवं आज्ञाकारी सजातीय कुटुम्बी तथा पुत्रों का संरक्षण करते हुए उन्हें उपव पदों पर नियुक्त करना चाहिए (२४, ६१-६२) ।
राजा को असंशोधित मार्ग में कभी गमन नहीं करना चाहिए (२५, ८४) । उस को मन्त्री, वैद्य तथा ज्योतिषी के बिना कभी किसी अन्य स्थान को प्रस्थान नहीं करना चाहिए ( २५, ८७)। राजा को चाहिए कि वह अपनी भोजन सामग्री को भधाण करने से पूर्व अग्नि में डालकर उस की परीक्षा कर ले और यह देख ले कि कहीं अग्नि से नीली लपटें तो नहीं निकल रही है। यदि ऐसा हो तो समझ लेना चाहिए कि वह सामगो विषय है! )! वस्त्रादि की भी परीक्षा अपने आप पुरुषों से कराते रहना चाहिए । ऐसा करने से राजा का जीवन सदैव विघ्नबाधाओं से सुरक्षित रहता है ( २५, ८९) । राजा को अपने महलों में कोई ऐसी वस्तु प्रविष्ट नहीं होने देनी चाहिए और न वहाँ से बाहर ही जाने देनी चाहिए जिस की परीक्षा प्रमाणित पुरुषों द्वारा न कर ली गयो हो एवं परीक्षा द्वारा निर्दोष सिद्ध न कर दो गयी हो ( २५, ११३ )। अधिक लोभ, आलस्य और विश्वास भी राजा के लिए घातक है। आचार्य सोमदेव का कथन है कि बृहस्पति के समान बुद्धिमान् पुरुष भी अधिक लोभ, भालस्य और विश्वास करने से मृत्यु को प्राप्त होता है अथवा टगा जाता है ( २६, १)। राजा अभिमानी सेवकों को कभी नियुक्त न करे और स्वामिभक्त सेवकों का कभी परित्याग न करे ( २१, ३९-४०)।
शत्रओं से राजा को किस प्रकार अपनी रक्षा करनी चाहिए इस सम्बन्ध में भी सोमदेव ने कुछ निर्देश दिये हैं। वे लिखते है कि बलिष्ठ शत्र द्वारा आक्रमण किये जाने पर राजा को या तो अन्यत्र चले जाना चाहिए अथवा उस से सन्धि कर लेनी चाहिए । अन्यथा उस की रक्षा का कोई उपाय नहीं है ( २६, २)। जो पुरुष शत्रुओं द्वारा की आने वाली पैर-विरोध की परम्परा को साम, दाम, दण्ड, भेद आदि नैतिक उपायों से नष्ट नहीं करता उस की वंशवृद्धि कदापि नहीं हो सकती ( २६, १)। जिस प्रकार बिना नौका के केबल भुजाओं से समुद्र पार करने वाला व्यक्ति शीघ्र मृत्यु को प्राप्त होता है उसी प्रकार दुर्बल राजा बलिष्ठ के साथ युद्ध करने से शीघ्र नष्ट हो जाता है (२७६६)। अत: निर्बल को सबल शत्र के साथ कभी युद्ध नहीं करना चाहिए ।
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आचार्य सोमदेव राजा को उसी समय युद्ध करने का परामर्श देते हैं जब अन्य सभी अपाय असफल हो गये हो । ३०, २५)।
आचार्य कौटिल्य ने भी राजा की रक्षा के सम्बन्ध में बड़े विस्तार के साथ अपने ग्रन्थ अर्थशास्त्र में महत्त्वपूर्ण उपायों का वर्णन किया है। उन्होंने उन सभी बातों पर प्रकाश डाला है जिन से राजा को सचेत रहने की आवश्यकता है तथा जिन की उपेक्षा करने से उस के प्राण संकट में पड़ सकते है ।
___ मनु ने भो राजरदा के विषय में महत्त्वपूर्ण निर्देश दिये हैं। राजा को चाहिए कि वह सम्पूर्ण भोज्य पदार्थों में विष-नाशक औषधि नियोजित करे। इस के अतिरिक्त विष-नाश करने वाले रस्नों का भी सर्वधा धारण करें। मनु ने राजा के आत्मरक्षा के सिद्धान्त को बहुत महत्त्व दिया है। वे लिखते हैं कि संकटकाल के निवारणार्थ राजा को कोश की रक्षा करनी चाहिए। अपनो स्त्री की रक्षा धन की हानि सहकर भी करनी चाहिए, परन्तु अपनी रक्षा धन और स्त्री का बलिदान कर के भी करनी चाहिए। अपनी रक्षा के लिए यदि अपनी भूमि का भी त्याग करना पड़े तो वह भी करना पाहिए, चाहे वह भूमि उपना और हर भी सवालों हो
इस प्रकार सभी आचार्यों ने राजा की रक्षा को बहुत महत्त्व प्रदान किया है क्योंकि राजा को रक्षा में ही सघ की रक्षा है, जैसा कि आचार्य सोमदेव का मन है (२४, १)। राजा का उस राधिकारी
आचार्य सोमदेव ने इस बात को ओर भी संकेत किया है कि राजा का उत्तराधिकारी किम-किन गुणों से विभूषित होना चाहिए। इस सम्बन्ध में वे लिखते है कि जो राजपुत्र कुलीन होने पर भी संस्कारों, नीतिशास्त्रों का अध्येता और सदाचार आदि गुणों से रहित है उसे राजनीति के विद्वान माण पर न चढ़े हुए रत्त के समान युवराजपद पर आरूढ़ होने के योग्य नहीं मानते (५, ३९)। इस का अभिप्राय यही है कि राजपूत्र को राजनीतिक ज्ञान और सदाचार रूप संस्कारों से सुसंस्कृत होना चाहिए, जिस से वह युवराजपद पर आरू होने के योग्य हो सके 1 शारीरिक मनोज्ञाकृति, पराक्रम, राजनीतिकज्ञान, प्रभाव (सैन्य ब कोश शक्ति से युक्त) और विनम्रता राजकुमारों में विरामान घे सद्गुण उन्हें भविष्य में प्राप्त होने वाली राज्यश्री के सूचक चिह्न है (१५, ९)।
सोमदेव ने राजकुमारों की शिक्षा पर विशेष बल दिया है। राजकुमार को पहले सार्वजनिक सभाओं के योग्य भाषणकला में कुशल बनाये, तत्पश्चात् समस्त भाषाओं को शिक्षा, गणित,साहित्य, न्याय, ध्याकरण, नीतिशास्त्र, रत्नपरीक्षा, शस्त्रविद्या, हस्ती और अश्वादि वाहन विद्या में अच्छी प्रकार दक्ष बनाये ( ११, ४)। जिन राजकुमारों १. कौल अर्थः १. २०-२१ । २. मनु०७, २१५-२० ।
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को शिष्ट पुरुषों द्वारा विनय, सदाचार आदि की शिक्षा दी गयी है उन का वंश वृद्धिगत होता है तथा राज्य दूषित नहीं होता (२४,७३)। जिस प्रकार घुम से खायी हुई सकड़ी नष्ट हो जाती है उसी प्रकार दुराचारी व उद्दण्ड व्यक्ति को राजपद पर नियुक्त करने से राज्य नष्ट हो आता है (२४,७४)। जो राजकुमार वंशपरम्परा से चले आये निजी विद्वानों द्वारा विनय व सदाचार आदि की नैतिक शिक्षा से सुशिक्षित व सुसंस्कृत किये जाकर द्धिगत किये गये है एवं जिन का लालन-पाला तुबपुर्वक हमा है ये कभी अपने माता-पिता से द्रोह नहीं करते (२४, ७५)। उत्तम माता-पिता का मिलना भी राजकुमारों के पोष्ट भाग्य का द्योतक है (२४,७६)। अर्थात् यदि उन्होंने पूर्वजन्म में पुण्य संचय किया है तो वे माता-पिता द्वारा राज्यश्री प्राप्त करते है और उन को श्रेष्ठ माता-पिता को उपलब्धि होती है। माता-पिता का पुत्रों के प्रति महान् उपकार होता है, इसलिए सुखाभिलाषी पुत्रों को अपने माता-पिता का मन से भी तिरस्कार नहीं करना चाहिए फिर प्रकृति रूप से तिरस्कार करना तो महा अनर्थ है (२४, ७८)। पुन को किसी भी कार्य में पिता की आज्ञा का उल्लंघन नहीं करना चाहिए। सोमदेव का कथन है कि वे राजपुत्र निश्चयपूर्वक सुखी माने गये है जिन के पिता राज्य की बागडोर संभाले हुए है, क्योंकि वे राजपुत्र राज्य के भार को सँभालने से निश्चिन्त रहते है (२४,८४)।
प्राचार्य सोमदेव ने उत्तराधिकार के नियमों को ओर भी कुछ संकेत किया है। वे लिखते हैं कि राजपुत्र, राजा का भाई, पटरानी के अतिरिक्त दूसरी रानी का पुत्र, राजकुमारी का पुत्र, बाहर से भाकर राजा के पास रहने वाला दत्तकपुत्र प्रादि इन सात प्रकार के राज्याधिकारियों में से सबसे पहले राजकुमार को और उस के न रहने पर भाई आदि को यथाक्रम राज्याधिकार प्राप्त होना चाहिए (२४,८८)। शुक्र का भी उत्तराधिकार के सम्बन्ध में यही मत है। सोमदेव का कथन है कि अपनी जाति के योग्य गर्भाधान आदि संस्कारों से हीन पुरुष को राजप्राप्ति एवं दीक्षा धारण करने का अधिकार नहीं है (२४,७१)। आगे वे लिखते है कि राजा की मृत्यु हो जाने पर उस का अंगहीन पुत्र भी उस समय तक राज्याधिकार प्राप्त कर सकता है अबतक कि उस अंगहीन पुत्र की दूसरी कोई योग्य सन्तान न हो जाये (२४, ७२)।
इस प्रकार सोमदेव अंगहीन पुत्र को भी उस समय तक राज्य का अधिकार देने के पक्ष में है जबतक कि उस को कोई योग्य सन्तान राज्यभार संभालने के योग्य न हो जाये । यह बात आचार्य को प्रगतिशीलता एवं व्यावहारिक राजनीतिज्ञता की द्योतक है । अन्य आचार्य शारीरिक दोष वाले राजकुमार को राज्याधिकार प्रदान करने के पक्ष में नहीं है । मनु का कथाम है कि यदि ज्येष्ठ पुत्र किसो शारीरिक अथवा मानसिक दोष
१. शुक्र-नीतिबा०, २४ ।
सुतः सोदरसापानपिशव्या गोत्रिणस्तथा । पौहित्रागन्तुका योग्य पदे राझो यथाक्रमम् ।
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से ग्रसित है तो उस को वाधिकार मिला हि, तुमसे प्रासा को राज्य सिंहासन पर आसीन कर देना चाहिए। महाभारत के आदिपर्व में इस प्रकार का वर्णन माता है कि धृतराष्ट्र के अन्षा होने के कारण ही उन्हें राज्य सिंहासन प्रास नहीं हुमा और उन के स्थान पर उन के छोटे भाई पाण्डु को राजा बनाया गया। शुक्रनीति में इस प्रकार का वर्णन उपलब्ध होता है कि यदि ज्येष्ठ राजकुमार पहरा, अश्वा, गंगा तथा नपुंसक हो तो ऐसी स्थिति में वह राज्याधिकार के सर्वथा अयोग्य है और उस के कनिष्ठ भ्राता अथवा पुत्र को उस के स्थान पर सिंहासनासीन करना चाहिए।
साधारणतया राजतन्त्र वंशानुगत ही था। शतपथनाहाण में दस पीढ़ियों के वंशानुगत राज्याधिकार का वर्णन उपलब्ध होता है । यद्यपि उत्तराधिकार वंशपरम्परागत था किन्तु ज्येष्ठता का नियम प्रधान माना जाता था अर्थात राजा की मृत्यु अथवा उस के द्वारा राज्य का त्याग करने के उपरान्त उस का ज्येष्ठ पुत्र ही राज्य का अधिकारी होता था । अनुग्वेद में भी ज्येता के सिद्धान्त का वर्णन मिलता है। रामायण के अयोध्याकाण्ड में पशिष्ट राम से कहते हैं कि इक्ष्वाकुओं में यही परम्परा रही है कि राजा की मृत्यु के पश्चात् अथवा राज्यत्याग के उपरान्त उस का ज्येष्ठ पुत्र हो राज्य का अधिकारी होता है। कौटिल्य तथा मन भी ज्येष्ठता के सिद्धान्त को मान्यता प्रदान करते है।
___ज्येष्ठ पुत्र उसी समय राज्याधिकार से वंचित किया जाता था जबकि वह किसो शारीरिक अथवा मानसिक व्याधि से ग्रसित होता था। कभी-कभी राजा अपने कनिष्ठ पुत्र को भी उस को योग्यता से प्रभावित होकर तथा ज्येष्ठ पुत्र के दुराचरण से तंग आकर राज्याधिकारी मनोनीत कर देते थे। इस बात के कई ऐतिहासिक उदाहरण उपलब्ध होते हैं जबकि राजाओं ने अपने ज्येष्ठ पुत्र की उपस्थिति में ही छोटे पुत्र को अपने जीवन-काल में ही उत्तराधिकारी घोषित कर दिया था। समुद्रगुप्त मद्यपि चन्द्र गुप्त प्रथम का छोटा पुत्र था, किन्तु उस की योग्यताओं से प्रभावित होकर हो चन्द्रगुप्त प्रथम ने उसी को अपना उत्तराधिकारी नियुक्त किया। इसी प्रकार समुद्रगुप्त ने भी अपने छोटे पुत्र चन्द्रगुप्त द्वितीय अथवा चन्द्रगुप्त विक्रमादित्य को अपना उत्तराधिकारी घोषित किया। १. मनु०६.२०१। २. महाकवादिई १०६, २५ । ३. शुक्राय १, ३४३.४।। ४. शतपथजाल । १. प्राग्वेद । ६.रामायण-अयोध्याकाण्ड ७३, २२ । ७. को अर्थ० १, १७ तथा मनृ०५, १८५। E.Gupta Irscriptions, P.GAllallaharl Pillar Inscription. Verset है. llbird.
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यद्यपि इस प्रकार के कुछ उदाहरण इतिहास में मिल जाते हैं किन्तु फिर मो प्राचीन भारत में ज्येष्ठता के सिद्धान्त की प्रधानता थी। राज्य का अधिकारी राजा का ज्येष्ठ पुत्र ही होता था ।
राजत्व के उच्च आदर्श
१
प्राचीन राजशास्त्र प्रणेताओं ने राजा के आदर्शो की भी व्याख्या की है । प्राचीन काल में राजा और प्रजा का सम्बन्ध पिता और पुत्र के समान था, क्योंकि प्राचीन आचार्यों ने राजत्व के इसी उच्च आदर्श का समर्थन किया था। आचार्य कौटिल्य का कथन है कि प्रजा के सुख में ही राजा का सुख है तथा प्रजा के हित में हो राजा का हित है। स्वयं को प्रिय लगने वाले कार्यों का करमा राजा का हित नहीं, अपितु प्रजा के प्रिय कार्यों का करना हो राजा का सब से बड़ा हित है । इस प्रकार आचार्य कौटिल्य प्रजा हित को ही सब से अधिक महत्व प्रदान करते हैं और उसी में राजा का हित बताते हैं । महाभारत के शान्तिपर्व में बृहस्पति के दो लोक उद्भूत किये गये हैं, जिन में से प्रथम का आश्रम इस प्रकार है- सम्पूर्ण कर्तव्यों को पूर्ण कर के पृथ्वी का भलीभाँति पालन तथा नगर एवं राष्ट्र की प्रजा का संरक्षण करने से राजा परलोक में सुख प्राप्त करता है। द्वितीय श्लोक का अर्थ इस प्रकार है - जिस राजा ने अपनी प्रजा का अच्छी तरह पालन किया है, उसे तपस्या से क्या लेना है ? उसे यज्ञों का भी अनुष्ठान करने को क्या आवश्यकता है ? वह तो स्वयं ही सम्पूर्ण धर्मो का ज्ञाता
'
से
हैं । इन श्लोकों में भी प्रजाहित को राजा का सब महान् एवं कल्याणकारी कर्तव्य बताया गया है । भाचार्य सोमदेवसूरि भी राजस्व के प्राचीन आदर्शों में आस्था रखते है । उन का कथन है कि प्रजा पालन ही राजा का यज्ञ है, प्राणियों का वध करना नहीं ( २६, ६८ ) । वे प्रजारंजन के पक्ष को सब से अधिक महत्त्व देते हैं । राजा का प्रत्येक कार्य जनहित पर आधारित होना चाहिए और वह सदैव प्रजा के सुख एवं समृद्धि के लिए प्रयत्नशील रहे ऐसा बाचार्य का मत है। दुष्टनिग्रह तथा शिष्ट पुरुषों का पालन करना ही राजा का धर्म है ( ५,२ ) । आगे आचार्य लिखते हैं कि जो राजा प्रजा की रक्षा नहीं करता वह राजा नहीं ( ७, २१ ) । राजा के लिए दानादि अन्य धर्म तो गोण हैं उस के लिए किसी व्रत की चर्या धर्म नहीं है । अन्यत्र सोमदेव लिखते हैं कि राजा वृद्ध, बालक, व्याधित और रोगो पशुओं का बान्धवों के समान पोषण करे ( ८, ९ ) । इस प्रकार आचार्य की करुणा केवल मानवमात्र तक ही सीमित नहीं है, अपितु पशुओं के प्रति भी उन की सहानुभूति है। राजा प्रजाकार्यों को स्वयं ही देखे, उन्हें राजकर्मचारियों पर कभी न छोड़े ( १७, ३२) । यदि राजकर्मचारियों पर प्रजाकार्य
१. कौ० अर्थ
०१. १६ ।
प्रजामुखे सुखं राज्ञः प्रजानां च हिते हितस्
नमप्रियहितं राज्ञः प्रजानां तु प्रियं हितम् ।
२. मा० शान्ति० ६१, ७२-७३ ॥
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छोड़ दिया जायेगा तो प्रजा का हित न हो
को अपना कुटुम्ब समझे ( १७, ४९ ) । जिस प्रकार व्यक्ति अपने कुटुम्ब के सुख-दुःख, हानिलाभ की चिन्ता में निरत रहता है, उसी प्रकार राजा को भी भूमण्डल के प्राणियों की रक्षा, पालन-पोषण अपने कुटुम्ब के समान हो करना चाहिए। आचार्य सोमदेव का यह भी कथन है कि राजा देव, गुरु एवं धर्म-कार्यों को भी स्वयं ही देखे ( २५, ६५ ) । इस प्रकार आचार्य सोमदेव प्रजा की हर प्रकार से रक्षा करने तथा उस का संवर्धन करने पर विशेष बल देते हैं और इसी को राजा का सब से बड़ा धर्म बताते है । वे पितृव के सिद्धान्त में भी विश्वास रखते हैं और राजा को आदेश देते हैं कि उसे प्रजा का पालन अपने कुटुम्ब के समान ही करना चाहिए। राजकार्य में जिन व्यक्तियों क प्राणान्त हो गया हो उन के परिवार के पालन-पोषण का भार भी सोमदेव राजा पर ही छोड़ते हैं तथा ऐसा न करने वाले राजा का वे उन मूलकों के ऋण का भाजन बताते है ( ३०, ९३ ) ।
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मस्त प्राचीन धर्मशास्त्रों एवं अर्थशास्त्रों में राजा का जन्म हो प्रजा की सेवा एवं उस का हर प्रकार से हिल चिन्तन करने के लिए बतलाया गया है। महाभारत में ऐसा उल्लेख मिलता है कि राजा का प्रजा के साथ गर्भिणी स्त्री का सा व्यवहार होना चाहिए।' जैसे गर्भवती स्त्री अपने मम को अच्छे लगने वाले पदार्थों बाद का परित्याग कर के केवल गर्भस्थ बालक के हित का ध्यान रखती है, उसी प्रकार धर्मात्मा राजा को भी प्रजा के साथ उसी प्रकार का व्यवहार करना चाहिए। कुरुश्रेष्ठ, राजा अपने को प्रिय लगने वाले विषय का परित्याग कर के जिस में सब लोगों का हित हो वही कार्य करे। महाभारत में ही अन्यत्र ऐसा वर्णन उपलब्ध होता है कि राजा धर्म का पालन और प्रचार करने के लिए ही होता है, विषय सुखों का उपभोग करने के लिए नहीं । मान्धाता तुम्हें यह जानना चाहिए कि राजा सम्पूर्ण जगत् का रक्षक है और यदि वह धर्माचरण करता है तो देयता बन जाता है और यदि अधर्म करता है तो नरकगामी होता है । सम्पूर्ण प्राणी धर्म के आधार पर स्थित है और धर्म राजा के ऊपर प्रतिष्ठित है । जो राजा भली-भाँति धर्म का पालन और उस के अनुकूल शासन करता है वही दीर्घकाल तक इस पृथ्वी का स्वामी बना रहता है। इस प्रकार महाभारत में राजा को सम्पूर्ण जगत् का रक्षक तथा धर्म का धारण करने वाला बतलाया गया है। मार्कण्डेयपुराण में राजा मरुत की दादी उस को राजधर्म का उपदेश देती हुई कहती हैं कि राजा का शरीर सुखों का उपभोग करने के लिए नहीं
१. महा० शान्ति, ४४ ॥
भवितव्यं सदा राज्ञा गर्भिणीसहथ मिला।
1
२. बी. ५६. ४५-४६ ।
३. यही १०.३५ ।
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होता अपितु वह पृथ्वी की रक्षा में संलग्न रहने तथा अपने कर्तव्यों के पालन करने के लिए ही होता है।
प्राचीन आचार्यों ने राजा को पितृवत्' शासन करने का आदेश दिया है। याज्ञवल्क्य का कथन है कि राजा को अपनी प्रजा तथा सेवकों के साथ पिता के समान आचरण करना चाहिए। रामायण में भी ऐसा वर्णन माता है कि राम ने अपनी प्रजा के साथ पितृपत् व्यवहार किया। सम्राट अशोक ने राजा के पितृत्व के आदर्श को चर्मोत्कर्ष पर पहुंचा दिया। द्वितीय कलिंग लेख से विधित होता है कि उस ने अपने शासन में पितृस्व के सिद्धान्त को किस सीमा तक व्यवहृत किया। वह कहता है कि सारे मनुष्य मेरी सन्तान हैं । जिस प्रकार में अपनी सन्तति को चाहता हूँ कि वह सब प्रकार को समृद्धि और सुख इस लोक और परलोक में भोगे ठीक उसी प्रकार में अपनी प्रजा के सुख एवं समृद्धि को भी कामना करता है। प्त पितवमलनाभित्र केवल राजा तक ही सीमित नहीं था, अपितु अशोक ने अपने राजकर्मचारियों को भी यह आदेश दे रखा था कि वे प्रजा की भलाई का पूर्ण ध्यान रखें और उस से पुत्रवत् ही व्यवहार करें। चतुर्थ स्तम्भ लेख में वह कहता है, जिस प्रकार कोई मनुष्य अपने पुत्र को एक कुशल पाय के हाथ में सौंपकर निश्चिन्त हो जाता है और सोचता है कि यह घाम मेरे पुत्र को सुख पहुंचाने की भरसक घेष्टा करेगी, उसी प्रकार लोगों के हिल तथा उन्हें सुख पहुँचाने के लिए मैं ने रज्जुफ नाम के कर्मचारी नियुक्त किये है।"
इस प्रकार अपने उत्तरदायित्वों को समझने वाला राजा वास्तविक रूप में वर्तमान प्रजातन्त्र के उत्तरदायी भवनों एवं राजकर्मचारियों से कहीं अधिक उत्तरदायी है और प्रजा का वास्तविक प्रतिनिधि है । वास्तव में राजा और प्रजा वैधानिक एकता के आवश्यक अंग है । आचार्य स्रोमदेवसुरि द्वारा राज्य की परिभाषा में भी प्रजा. पालन का आदर्श निहित है। वे कहते हैं कि राजा का पृथ्वीपालनोचित फर्म राज्य है ( ५, ४) । इसी प्रकार वे राज्य का अन्तिम लक्ष्य भी प्रजा को धर्म, अर्थ और काम की प्राप्ति बतलाते हैं (पृ०७)। इस प्रकार सोमदेव प्रजा को सर्वतोमुखी उन्नति करना राज्य का उद्देश्य बतलाते है 1 राजा को प्रजा के सम्मुख उच्च आदर्श उपस्थित करना चाहिए, जिस से प्रजा का नैतिक उत्थान हो सके। राजा के विकृत एवं अपार्मिक हो जाने पर प्रजा भी विकारग्रस्त तथा अधार्मिक हो जाती है। १७, २८-२९ । आचार्य सोमदेव का आदेश है कि राजा को सर्वदा मर्यादा का पालन करना चाहिए
१. मार्कण्डेय० १३०. ३३-३८ ।
राशः दारीरहण न भोगाय महीपतेः । क्लेशाय महते पृथ्वीवधर्म परिपालने ॥ २.याइ०१, ३६४ ३.रामायण- २, ३६
राजा
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क्योंकि मर्यादा का अतिक्रमण करने से फलवती भूमि भी अरण्यतुल्य हो जाती है ( १९, १९)। इस के विपरीत न्यायपूर्वक प्रजा का पास्ता गरे प्रषा को अभिलाषित' फलों की प्राप्ति होती है, मेव समय पर वर्षा करते है तथा सम्पूर्ण व्याधियां शान्त हो जाती है ( १७, ४५-४६ ) 1 आचार्य का यह भी कथन है कि राजा समय के परिवर्तन का कारण होता है ( १७, ५०)। सारे लोकपाल राजा का ही अनुकरण करते हैं इसी कारण राजा मध्यम लोकपाल होते हुए भी उत्तम लोकपाल कहलाता है ( १७,४७)। सोमदेन का कथन है कि यदि समुद्र ही अपनी मर्यादा का उल्लंघन करने लगे और सूर्य अपना प्रकाशधर्म त्याग कर अन्धकार का प्रसार करने लगे तथा माता भी अपने बच्चे का पालनरूप धर्म छोड़कर उस का भक्षण करने लगे, तो उन्हें कोन रोक सकता है ( १७, ४४ )। इसी प्रकार राजा भी यदि अपना धर्म ( शिष्ट-पालन तथा दुष्ट-निग्रह ) छोड़कर प्रजा के साथ अन्याय करने लगे तो उसे दण्ड देने वाला कोन हो सकता है, अर्थात् कोई नहीं ! अतः राजा को प्रजा के साथ काभी अन्याय नहीं करना चाहिए । यदि राजा हो दुष्टों की सहायता करने लगे तो फिर प्रजा का कल्याण किस प्रकार हो सकता है । १७, ४६ )।
इस प्रकार आचार्य सोमदेव ने राजस्व के उच्च आदर्श अपने अन्य में व्यक्त किये हैं। वे राजा को धर्म का आचरण करने, मर्यादा का पालन करने तथा प्रजा को हर प्रकार से रक्षा करने और उस का पालन-पोषण अपने कुटुम्ब के समान करने का आदेश देते है।
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मन्त्रिपरिषद्
राजशासन में मन्त्रिपरिषद् का महत्त्व
राज्य की प्रकृतियों में राजा के पश्चात् द्वितीय स्थान मन्त्रियों को प्रदान किया गया है । मन्त्रियों के सत्परामर्श पर ही राज्य का विकास, उन्नति एवं स्थायित्व निभेर है । भारतीय मनीषियों ने मन्त्रियों को बहुत महत्व दिया है। उन की उपयोगिता के कारण ही समस्त आचार्यों ने राजा को मन्त्रियों को नियुक्ति करने का आदेश दिया है । साधारण कार्यों में भी एक व्यक्ति की अपेक्षा दो व्यक्तियों का उस पर विचार करना श्रेष्ठ बताया जाता है फिर राजकार्य तो बहुत जटिल होते हैं तब उन्हें अकेला राजा किस प्रकार कर सकता है। आचार्य सोमदेव ने भी मन्त्रियों एवं अमात्यों को राज्यशासन में बहुत महत्त्वपूर्ण स्थान प्रदान किया है तथा उन के लिए प्रकृति शन्द का प्रमोग किया है (१०, १६७)। सोमदेव के कथनानुसार जो राजा मन्त्री, पुरोहित और सेनापति द्वारा निर्धारित किये हुए धार्मिक और आर्थिक सिद्धान्तों का पालन करता है वह आहार्मबुद्धि वाला है। १०,१)। गुरु का कथन है कि जो राजा मन्त्री, पुरोहित तथा सेनापति के हितकारी वचनों को नहीं मानता वह दुर्योधन राजा की तरह नष्ट हो जाता है। मन्त्री और पुरोहित को राजा का हितैषी होने के कारण सोमदेव ने उन्हें राजा के माता-पिता के समान बतलाया है ( ११, २)। मूर्ख और असहाय राजा मी सुयोग्य मन्त्रियों के परामर्श एवं अनुकूलता से शत्रुओं द्वारा अजेय हो जाता है (१०,३)। सोमदेव ने अपने कथन की पुष्टि में एक ऐतिहासिक प्रमाण प्रस्तुत किया है। वे कहते है कि इतिहास के अध्ययन से ज्ञात होता है कि चन्द्रगुप्त मौर्य ने स्वयं राज्य का अधिकारी न होते हुए विष्णुगुप्त के अनुग्रह से राजपद प्राप्त कर लिया ( १०, ४)1 जो राजा मन्त्रियों के हितकारक वचनों की अवहेलना करता है वह निश्चय ही नष्ट हो जाता है ( १०, ५८)। अन्यत्र आचार्य लिखते हैं कि जो राजा मन्त्रियों की नियुक्ति नहीं करता और स्वच्छन्द रूप से शासन करता है वह अपने राज्य को नष्ट कर देता है (१०, १४३) । सोमदेव का कथन है कि युक्तियुक्त वचन तो बालक से भी ग्रहण
१. गुरु-नीतिया पृ० १०६ । बोराजा मन्त्रिपुर्वाणा न कशि हित मचः । स शीर्ष नाशमायः यथा तुर्योधना नृतः ।
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कर लेने चाहिए ( १०, १५५ ) | बहुत सहायकों वाले राजा के सम्पूर्ण कार्य सिद्ध हो जाते हैं तथा उस की अभिवृद्धि होती है ( ४०, ८१
अमात्यों का महत्त्व प्रदर्शित करते हुए सोमदेव लिखते हैं कि राजा चतुरंग बल से युक्त होकर भी अमात्यों के बिना राजा नहीं रह सकता ( १८, १) । जिस प्रकार रथ का एक चक्र दूसरे चक्र की सहायता के बिना नहीं घूम सकता उसी प्रकार अकेला राजा भी अमात्यों की सहायता के बिना राज्य रूपी रथ का संचालन नहीं कर सकता ( १८, ३ ) | आचार्य कौटिल्य ने भी ठीक इसी प्रकार के विचार व्यक्त किये हैं । आगे सोमदेव लिखते हैं जिस प्रकार अग्नि ईंधन युक्त होने पर भी हवा की सहायता के बिना प्रज्वलित नहीं हो सकती उसी प्रकार बलिष्ठ व सुयोग्य राजा भी बिना सहायकों राज्य संचालन में सफलता प्राप्त नहीं कर सकता ( १८, ४) ।
उक्त बातों का तात्पर्य यही है कि राजा को अकेले कोई भी कार्य नहीं करना चाहिए। उसे सुयोग्य मन्त्रियों एवं अमारयों को नियुक्ति करनी चाहिए तथा प्रत्येक राज- कार्य में उन का परामर्श मानना चाहिए। स्वच्छन्द प्रकृति से राज्य नष्ट हो जाता है ।
3
परोक्ष
अन्य राज्यशास्त्र प्रणेताओं ने भी मन्त्रियों की नियुक्ति एवं उनके परामर्श से शासन का संचालन करने पर विशेष बल दिया है। मनु का कथन है कि जो राजा समस्त कार्यों को अकेला ही करने का प्रयत्न करता है वह मूर्ख है । मनु का यह विधान है कि राजा को मन्त्रियों को नियुक्ति अवश्य करनी चाहिए तथा राज्य के साधारण एवं असाधारण कार्यों पर उन्हों के साथ मिलकर विचार-विमर्श करना चाहिए। समस्त राज्य के कार्यों का तो कहना ही क्या, एक साधारण कार्य भी राजा को अकेले नहीं करना चाहिए। आचार्य विशालाक्ष का मत है कि अकेले किसी भी मनुष्य के विचार करने से मन्त्र-सिद्धी नहीं होती, क्योंकि राज्यकार्य प्रत्यक्ष, और अनुमान प्रमाण के आधार पर चलता है। तात्पर्य यह है कि राजकार्य सहायनिश्चित साध्य होता है। अज्ञात बात का ज्ञान प्राप्त करना, शात का निश्चय करना, बात को दृढ़ बनाना, मतभेद के समय उपस्थित सन्देह को निवृत्त करना, किसी विषय के अंश का ज्ञान प्राप्त हो जाने पर शेष अंश का अनुमान करना, यह सब कार्य मन्त्रियों की सहायता से ही सिद्ध हो सकते हैं। अतः बुद्धिमान् मन्त्रियों के साथ बैठकर ही राजा को मन्त्रणा करनी चाहिए । शुक्र का मत है कि सुयोग्य राजा मी समस्त बातें नहीं समझ सकता, पुरुष पुरुष में बुद्धिवैभव पृथक-पृथक् होता है, अतः राज्य की उन्नति
१. कौ० अ० ७,१५ ।
२.
० ७ ३०-११ ।
१. बी. ७ १४ ५७ ॥
४. दही, ७, ३०, ३१ ए ७५
. कौ० अर्थ १,१५
k.
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चाहने वाला राजा सुयोग्य मन्त्रियों का निर्वाचन करे अन्यथा राज्य का पतन अवश्यम्भावी है ।' कात्यायन का तो कयन यहाँ तक है कि राजा को अकेले बैठ कर किसी अभियोग का निर्णय नहीं करना चाहिए और अमात्यों एवं सम्यों गादि के साथ बैठ कर हो मुझदमों अथवा अभियोगों का निर्णय करना चाहिए । प्राचार्य कौटिल्य का कथन है कि जब कोई कठिन समस्या उपस्थित हो जाये अथवा प्राणों तक का भय हो तो जन्नियों एवं मापदलो : रामः उ सब कुछ कहें और उन का परामर्श ले । उन में से अधिक मन्त्री जिस बात को कहें, अथवा जिस उपाय का शोघ्र ही कार्य की सिद्धि वाला बतायें, राजा को चाहिए कि उसो उपाय का अनुष्ठान करे। मन्त्रिपरिषद् का महत्त्व प्रदर्शित करते हए कौटिल्य ने लिखा है कि इन्द्र को मन्त्रिपरिषद में एक हजार ऋषि थे। वे ही कार्यों के द्रष्टा होने के कारण इन्द्र के चक्षु के समान थे। इसलिए इस दो नेत्र वाले इन्द्र को भी सहस्राक्ष कहा जाता है । इसी प्रकार प्रत्येक राजा को अपनी मन्त्रिपरिषद् में सामानुसार अनेक मन्त्रियों की नियुक्ति करनी चाहिए । इस प्रकार राजवन्त्र का महान् समर्थक कौटिल्य भी राजा को यही आदेश देता है कि उस को मन्त्रियों की नियुक्ति करनी चाहिए तथा प्रत्येक प्रश्न पर परिषद् से विचार-विमर्श करने के उपरान्त बहमत के आधार पर कार्य करना चाहिए । मन्त्रिपरिषद् की रचना
नीतिवाक्यामृत में मन्त्रिपरिषद् के सम्बन्ध में मन्त्री एवं अमात्य शब्दों का प्रयोग हमा है। अन्य राज्यशास्त्र प्रणेताओं ने अमात्य का उल्लेख राज्य को प्रकृति के रूप में किया है और समांग राज्य में अमात्य को भी राज्य की एक प्रकृति माना है । परन्तु आचार्य सोमदेव ने अमात्य और मन्त्री में कुछ भेद प्रवशित किया है। इसी उद्देश्य से उन्होंने मन्त्री एवं अमात्य दो पृथक् समद्देशों की रचना की है। मन्त्री पुरोहित और सेनापति की वर्षा मन्त्री समुद्देश में की है तथा अमात्य की अमात्य समद्देश में । सम्भवतः सोमदेव ने मन्त्री शब्द का प्रयोग प्रधानमन्त्री एवं अन्तरंग परिषद् के मन्त्रियों के लिए किया है तथा अमात्य शब्द का प्रयोग मन्त्रिपरिषद् के अन्य सदस्यों एवं उच्य राज्याधिकारियों के लिए किया है। अमात्य की परिभाषा देते हुए आचार्य लिखते हैं कि जो राजा द्वारा प्रदत्त दान-सम्मान प्राप्त कर कर्तव्य पालन में उत्कर्ष व अपकर्ष करने से क्रमश: राजा के गुख-दुःख में भागी होते हैं उन्हें अमात्य कहते हैं (१८, १५)। अव: राजकार्यों में सहायता प्रदान करने वाले अधिकारी को सोमदेव ने अमात्य कहा है। कामन्दक तथा अग्निपुराण में भी अमात्य की परिभाषा
१. शुक्र. २,८१। २. बौरमित्रोदा-पृ०१४। ३. को अयं०१,१। ४. वहीं, इन्द्रस्य हि मन्त्रिपरिषद्-ऋषीणा सहरूम् । स तत्त्वाः । तस्मादिम अर्थ महलाक्षमाहूः। यथासापर्यमिति कौरव्यः । घस्य स्वपई परम्सं च चिराधैमुः ।
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इसी प्रकार की गयी है । सोमदेव के अनुसार आयव्यय, स्वामिरक्षा, तन्त्र पोषण तथा सेना की उचित व्यवस्था करना अमात्य का अधिकार बतलाया है (१८, ६) ।
आचार्य कौटिल्य ने मन्त्री एवं अमात्य का भेद अर्थशास्त्र में स्पष्ट कर दिया है । कोटिल्य अमात्य आदि के सम्बन्ध में अन्य आचार्यों के मत उद्धृत करने के उपरान्त अन्त में लिखते हैं कि भारद्वाज के सिद्धान्त से लगाकर अभी तक जो कुछ अमात्य के सम्बन्ध में कहा गया है वह सब ठीक है, पयोंकि पुरुष के सामर्थ्य की व्यवस्था, उनके कार्यों के सफल होने पर तथा उन की विद्याबुद्धि के बल पर ही की जा सकती है। इस लिए राजा सहाध्यायी आदि का भी सर्वथा परित्याग न करे, किन्तु इन सब को ही उन को कार्यक्षमता के अनुसार उन को बुद्धि आदि गुण, देश, काल तथा कार्यों का अच्छी तरह विवेचन कर के अमात्य पद पर नियुक्त करे, परन्तु इन को अपना मन्त्री कदापि न बनाये |
इस वर्णन से स्पष्ट है कि अमात्य मन्त्रिपरिषद् के सदस्य होते थे, किन्तु उन को मन्त्रणा का अधिकार प्राप्त नहीं था । मन्त्रणा केवल सर्वगुणसम्पन्न, पूर्णरूपेण परीक्षित एवं विश्वसनीय मन्त्रियों से ही की जाती थी। परीक्षोपरान्त अमात्यों में से ही मन्त्री नियुक्त किये जाते थे । इस प्रकार मन्त्रिपरिषद् के सदस्यों की संख्या तो "अधिक होती थी, किन्तु अन्तरंग परिषद् में केवल तीन या चार मन्त्रो होते थे और उन्हीं के साथ राजा गूढ़ विषयों पर मना करता था। हनी की पुष्टि होती है ।
बात
3
मन्त्रियों की नियुक्ति
जिस प्रकार राजा का पद वंशानुगत था उसी प्रकार मन्त्रियों की नियुक्ति भी इसी सिद्धान्त के आधार पर होती थी। राजा के अन्य कर्तव्यों के साथ मन्त्रियों की नियुक्ति करना भी उस का एक महत्त्वपूर्ण कर्तव्य समझा जाता था । राजा अपनी इच्छानुसार मन्त्रियों की नियुक्ति नहीं कर सकता था, अपितु उन की नियुक्ति करते समय धर्मशास्त्रों एवं अर्थशास्त्रों में उन के सम्बन्ध में निर्धारित नियमों को ध्यान में रखना परम आवश्यक था ।
मन्त्रिपरिषद् के सदस्यों की योग्यता
मन्त्रियों की योग्यता अथवा गुणों के सम्बन्ध में अन्य भाषायों की भाँति सोमदेव ने भी पर्याप्त प्रकाश डाला है। प्रधानमन्त्री के गुणों का उल्लेख करते हुए वे लिखते हैं कि राजा का प्रधानमन्त्री द्विज, स्वदेशवासो, सदाचारी, कुलीन, व्यसनों से रहित,
१. कामन्दक १३, २३-९४ तथा अग्निपुराण २४२, १६-१८ |
२. कौ० अ०१८ ।
३. महा० शान्ति० ८३, ४७
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स्वामिभक्त, नीतिज्ञ, मुद्ध-विद्याविशारद और निष्कपट होना चाहिए (१०, ५)। इन . गुणों से विभूषित प्रधानमन्त्री के सहयोग से ही राज्य को श्रीवृद्धि हो सकती है, ऐसा आचार्य का विचार था। आचार्य कौटिल्य ने भी प्रधानमन्त्री के गुणों का वर्णन इसी प्रकार किया है। कौटिल्य लिखते हैं कि प्रधानमन्त्री में निम्नलिखित गुण होने चाहिए... "राजा के हो देश में उत्पन्न, उत्तमकुल में जायमान, जो अपने को तथा और को बुराई से दूर रख सके, शिल्य तथा संगीत आदि में पारंगत, अर्थशास्त्र रूपी सूक्ष्म दृष्टि से सम्पन्न, प्रायः बाला, लायी। पकाने की सास , शीघ्र कार्य पूर्ण करने में समर्थ, वाक्पटु, किसी भी विषय को भली-भांति व्यक्त करने के साहस से सम्पन्न, युक्तियों तथा तों द्वारा अपनी बात समझाने में समर्थ, उत्साही, ' प्रभावशाली, कष्टसहिष्णु, पवित्र आचरण वाला, स्नेही, राजा अथवा स्वामी के प्रति भक्ति रखने वाला, शीलवान, बलवान, आरोग्यवान, धैर्यवान् , गवरहित, चपलवाशुन्य, सौम्याकृति वाला और शत्रुत्व भाव से रहित पुरुष ही प्रधान मन्त्री बनने के योग्य होता है। जिन में उपर्युक्त गुणों का एक चतुर्थाश कम हो वे मध्यम श्रेणी के और जिन में आधे गुण हों बे निम्न श्रेणी के मन्त्री माने जाते है ।'' मनु, कामन्दक, शुक्र तथा याज्ञवल्क्य आदि ने भी मन्त्रियों को योग्यताओं के विषय में पर्याप्त प्रकाश डाला है।
१. द्विजाति का विधान-सोमदेवसूरि ने प्राचीन आचार्यों की भांति ही द्विजवर्ण के पुरुषों को ही मन्त्री पद पर नियुक्त करने का उल्लेख किया है (१०.५)। श्राह्मण, क्षत्रिय तथा वैश्य ही इस पद पर नियुक्त किया जा सकता था । किन्तु शूद उपर्युक्त गुणों से सम्पन्न होने पर भी इस पद का अनधिकारी था। इस का कारण यह था कि द्विज वर्ण के लोगों में उच्च संस्कारों के कारण उक्त गुणों का सूजन स्वाभाविक रूप से होता है । यद्यपि सोमदेव का दृष्टिकोण बहुत विशाल था, किन्तु उन्होंने शूद्र को इस पद पर नियुक्त करने का निषेध इसी कारण किया है कि वे वैदिक वर्णाश्रम व्यवस्था में आस्थावान् थे, जिस के अनुसार शूद्र का धर्म द्विजाति को सेवा करना ही था।
२. कुलीनता-उच्चकुल में उत्पन्न हुए व्यक्ति को ही इस पद पर नियुक्त किया जाता था। अपच कुल में जन्म लेने वाले व्यक्ति से उत्तम आचरण की सम्भावना अधिक होती है। सोमदेव लिखते है कि नीषकुल वाला मन्त्री राजा से द्रोह कर के भो मोह के कारण किसी से भी लज्जा नहीं करता ( १०, ८)। इस में वर्क यही है कि कुलीन व्यक्ति से यदि अज्ञानतावश कोई अपराध हो भी जाता है तो वह अवश्य हो लज्जित होता है, परन्तु नीच कुल वाला व्यक्ति निर्लज्ज होता है । इसलिए
१. कौ० अर्थ०१६। २. मनु०७,५४, कामन्दक ४, २५-३०, शु० २,८-६. याज्ञ२ १, ३१२-३१३ ।
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वह कभी राजा का अनर्थ भी कर सकता है। नौवकुल वाले राजमन्त्री आदि कालान्तर में राजा पर आपत्ति आने पर पागल कुत्ते के विष की भांति विरुद्ध हो जाते हैं। ( १०, १६ ) । कुलीन व्यक्ति की प्रशंसा करते हुए सोमदेव लिखते हैं कि जिस प्रकार अमृत विष नहीं हो सकता, उसी प्रकार उच्चकुल वाला मत्री कभी विश्वासघात नहीं कर सकता (१०, १७ ) । शुक्र ने भी कुलीनता के सिद्धान्त पर विशेष बल दिया है । वे लिखते हैं कि मन्त्रिपरिषद् के सदस्य उच्चकुल के होने चाहिए। रामायण तथा महाभारत में भी कुलीनता के सिद्धान्त का प्रतिपादन हुआ है। मनु तथा याज्ञवल्क्य भी कुलीनता पर बल देते हैं ।" इस प्रकार प्राचीन भारत में उन्हीं व्यक्तियों को मन्त्री पद पर नियुक्त किया जाता था जो अन्य गुणों के साथ ही उच्चवंश से सम्बन्धित
५
होते थे ।
܀
३. स्वदेश वासी मन्त्री के लिए स्वदेशज की शर्त भी आवश्यक यो मह सिद्धान्त आधुनिक युग में भी माना जाता है । सोमदेव का कथन है कि समस्त पक्षपातों में अपने देश का पक्ष महान होता है ( १०, ६ ) । इस का यही अभिप्राय है कि मन्त्री अपने ही देश का होना चाहिए। विदेशी को यदि मन्त्री आदि उच्चपद पर नियुक्त कर दिया जायेगा तो प्रत्येक बात ने ही देश का गलेगा इस प्रकृति से वह जिस राज्य में मन्त्री पद पर आसीन है उस का अहित भी कर सकता है । अतः मन्त्री के लिए स्वदेशवासी होने का प्रतिबन्न सभी आचायों ने लगाया है। महाभारत में इस प्रकार का उल्लेख मिलता है कि विदेशी चाहे विभिन्न गुणों से विभूषित हो क्यों न हो, किन्तु उसे मन्त्र सुनने का अधिकार नहीं है। आगे यह भी लिखा है कि मन्त्रियों को स्वदेशवासी हो होना चाहिए। आचार्य कौटिल्य भी इस सिद्धान्त में विश्वास रखते है ।
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१२
४. चारित्रवान् — उपर्युक्त गुणों के साथ ही मन्त्री के लिए सदाचारी होना भो परम आवश्यक था। व्यक्तित्व का प्रभाव जनता पर पड़ता है। व्यक्तित्व का निर्माण तथा उस का प्रभावशाली होना व्यक्ति के चरित्र पर ही निर्भर है। इसी हेतु मन्त्रियों के लिए चारित्रवान् होना भी एक आवश्यक योग्यता मानी गयी थी । आचार्य सोमदेव का कथन है कि राजा सदाचारी होना चाहिए, अन्यथा उस के दुराचारी होने से राजवृक्ष का मूल ( राजनीतिकज्ञान) और सैनिक संगठन आदि सद्गुणों के अभाव में राज्य की क्षति अवश्यम्भावी है ( १०, ७ ] ।
स्मृतिकारों ने भी यह बात स्पष्ट रूप से लिखी है कि मन्त्रिपरिषद् के सदस्य
९. शुक्र० २८ ।
२. गाण अवोध्या काण्ड १०० १५ । महा० शान्०ि ८३, १६ ।
३. मनु०, ७५४ ० १ ३१२ तथा ७-कौ० अर्ध० ८.६ । ४. महा० शान्ति० ८३, ३८ ॥
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सुपरीक्षित एवं चारित्रवान् व्यक्ति होने चाहिए। महाभारत में भी मन्त्रियों को योग्यता के विषय में यह उल्लेख मिलता है कि सचिव ऐसे होने चाहिए जो काम, क्रोध, लोभ और भय आदि विकारों से ग्रसित होने पर भी धर्म का त्याग न करें।
५. निर्व्यसनता-मन्त्री के लिए यह भी आवश्यक था कि वह सर्वथा नियंसन हो। यसनग्रस्त मन्त्री किसी भी कार्य को ठीक प्रकार से नहीं कर सकता। उस से राज्य का हित कभी नहीं हो सकता, क्योंकि यह व्यसनों का दास हो जाता है। व्यसनी व्यक्ति को उचित और अनुचित का भी जान नहीं रहता। आचार्य सोमदेव का कथन है कि जिस राजा का मन्त्री श्रुतकीड़ा, मद्यपान और परकला सेवन आदि व्यसनों से अनुरक्त है वह राजा पागल हाथो पर आरूक व्यक्ति की तरह शीन ही नष्ट हो जाता है। इस कथन का प्राशय यहो है कि व्यसनो मन्त्री राजा को उचित परामर्श नहीं दे सकता तथा वह शत्रुपक्ष से भी मिल सकता है। ऐसे मन्त्री के परामर्श से राजा पथभ्रष्ट होकर विनाश को प्राप्त हो जाता है । अतः मन्त्री को सब प्रकार के व्यसनों से मुक्त होना चाहिए।
६. राजभक्ति-राजभक्ति भी मन्त्री के लिए मावश्यक गुण माना गया है। अपने स्वामी से द्रोह करने वाले मन्त्री एवं सेवकों की नियुक्ति करना निरर्थक है (१०, १०) । आचार्य शुक्र का कथन है जो विपत्ति पड़ने पर स्वामी से प्रोह करता है उस मन्त्री से राजा को क्या लाभ है चाहे ऐसा व्यक्ति ( मन्त्री ) सर्वगुणसम्पन्न ही क्यों न हो ।' सोमदेव का कथन है कि सुख के समय पर सभी सहायक हो जाते है किन्तु विपत्ति काल में कोई सहायक नहीं होता। अत: विपत्ति में सहायता करने वाला पुरुष ही राजमन्त्री पद के योग्य है अन्य नहीं ( १०, ११ ) । आचार्य कौटिल्य भी अमात्यों के लिए राजभक्ति के गुण को आवश्यक मानते हैं।'
७. नीतिज्ञता-राज्य को उन्नति एवं विकास कुशल नीति पर ही अवलम्बित है। इसी करण आचार्य सोमदेव ने मन्त्री के लिए नोसिश होना भी परम आवश्यक बतलाया है (१०,५)। नोतिकुशल मन्त्री ही राज्य का कल्याण कर सकता है, आचार्य का कथन है कि राजा हित साधन और अहित प्रतिकार के उपायों को नहीं जानता किन्तु केवल उस की भक्ति मात्र करता है उसे मन्त्री बनाने से राज्य की अभिवृद्धि नहीं हो सकती [ १०,१२)। अतः सजा का यह कर्तव्य है कि वह राजनीतिविशारद एवं कर्तव्य परायण व्यक्ति को ही अपना मन्त्री समाये ।
८. युद्धविद्या विशारद-मन्त्री के लिए विविष अस्त्र-शस्त्रों के प्रयोग में निपुण, निर्भीक एवं उत्साही होना भी आवश्यक है । शस्त्र विद्या का शाता होने पर भी
--...
१. मनु०७,५८६०। २. महान शान्ति० ८३, २६। ३. शुक्र-नोतिबा० ० ११० । १. कौ० अर्थ ०.१.
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यदि वह भीक है तो उस के शस्त्रज्ञान का कोई लाभ नहीं। भीरु मन्त्री शस्त्रों के प्रयोग का ज्ञाता होते हुए भी आक्रमण होने पर अपनी रक्षा भी नहीं कर सकता । इस विषय में सोमदेव लिखते है कि जिस का शस्त्र, खड्ग और धनुष अपनी रक्षा करने में भी समर्थ नहीं हैं ऐसे शस्त्र विद्याविशारद व्यक्ति से राज्य का कोई भी लाभ नहीं हो सकता । १०, १३ । जिस प्रकार बछड़े को भारी बोझा होने के कार्य में लगाने से कोई लाभ नहीं, उसी प्रकार कायर पुरुष को गुरु के लिए नोहारकामले लिए प्रेरित करने से कोई लाभ नहीं हो सकता ( १०, २१)। कायर और मूर्ख पुरुष मन्त्रीपद के अयोग्य है । जिस वीर पुरुष का शास्त्र शत्रुओं के बाक्रमण को निर्मूल नहीं बनाता उस का शस्त्र धारण करना उस को पराजय का हेतु है। इसी प्रकार जिस प्रकार विज्ञान का शास्त्र ज्ञानवादियों के बढ़ते हुए वेग को नहीं रोकता उस का शास्त्रज्ञान भी उस की पराजय का कारण होता है ( १०, २०)।
१. निष्कपटता--निष्कपटता भी मन्त्री के लिए आवश्यक है। मन्त्रो को राजा से किसी भी स्थिति में कपटपूर्ण व्यवहार नहीं करना चाहिए । कपटो मन्त्री राजा का विमाश करता है।
उपर्युक्त गुण केवल प्रधान मन्त्री के लिए ही नहीं, अपितु अन्य मन्त्रियों के लिए भी इन गुणों की परम आवश्यकता थो! जिस मन्त्रो में जैसी योग्यता होती थी उसे वैसे हो कार्य में लगाया जाता था ( १८, ६०)। लालचो व्यक्ति को मन्त्री पद पर नियुक्त करने का भी सभी आचार्यों ने निषेध किया है। सोमदेव लिखते है कि जिस के मन्त्री की बुद्धि धन प्रण करने में आसक्त होती है उस राजा का न तो कोई कार्य ही सिद्ध होता है और न उस के पास धन ही रहता है। इस बात की पुटि के लिए सोमदेव ने एक सुन्दर उदाहरण प्रस्तुत किया है जो इस प्रकार है- यदि पाली ही भोजन को स्वयं भक्षण कर जाये तो भोजन करने वाले को भोजन कहाँ मिल सकता है। इस का अभिप्राय यही है कि यदि मन्त्री राजव्य को स्वयं ही हड़पने लगे तो फिर राजकोष किस प्रकार सम्पन्न हो सकता है । मन्त्रिपरिषद के सवस्यों की संख्या
मन्त्रिपरिषद् का सर्वप्रथम कर्तव्य राजा को शासन कार्यों में परामर्श देना एवं उन को सम्पन्न करना था। राजकीय महत्त्व के विषयों पर उचित परामर्श के लिए एक या दो व्यक्तियों की अपेक्षा अधिक व्यक्तियों का परामर्श उपयोगी माना गया है । आचार्य सोमदेव का कथन है कि जिस राजा के बहुत से सहायक होते है उसे समस्त अभिलषित पदार्थों की प्राप्ति होती है। अक्रेला व्यक्ति ( मन्त्री ) अपने को किन-किन कार्यों में लगायेगा ( १०,८०-८१ )। इस का अभिप्राय यही है कि राज्य के विभिन्न कार्य होते है, उन्हें अकेला मन्त्री नहीं कर सकता। अत: विभिन्न कार्यों के लिए अधिक मन्त्रियों की आवश्यकता है। इस के लिए प्राचार्य सोमदेव बहुत सुन्दर उदाहरण प्रस्तुत
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करते है, "श्या केवल एक शाखा वाले वक्ष से अधिक छाया हो सकती है ? नहीं हो सकती, उसी प्रकार अकेले मन्त्रो से राज्य के महान कार्य सित नहीं हो सकते ( १०, ८२)।"
एक ओर जहाँ मन्त्रियों की संख्या अधिक होने का विचार है तो दूसरी ओर मन्त्र को गुप्त रखने का प्रपन भी महत्वपूर्ण है। अधिक मस्त्रियों के होने से मन्त्र का गुप्त रखना असम्भव हो जाता है। अतः अधिक मन्त्रियों वाली परिषद् से लाभ के स्थान पर हानि भी सम्भव है। सोमदेव इस प्रश्न का समाधान करते हुए लिखते हैं कि यदि मन्त्री पूर्वोक्त गुणों से युक्त हो तो एक या दो मन्त्री रम्नने से भी राजा की हानि नहीं हो सकती (१०,७७)। मन्त्रिपरिषद् की संख्या के विषय में सोमदेव का विचार है कि राजामों को तीन, पांच या सात मन्त्रियों की नियुक्ति करनी चाहिए । वे विषम संख्या वाली मन्त्रिपरिषद् पर अधिक बल देते हैं। इस का कारण यही है कि विषम संख्या वाले मन्त्रिमण्डल का एकमत होना कठिन होता है ( १०,७१-७२)। अतः वे राज्य के विरुद्ध कोई गड्यन्त्र नहीं कर सकते । सोमदेव एक या दो मन्त्रियों को नियुक्ति के विरोधी हैं । उन का कथन है कि राजा को केवल एक मन्त्रों की नियुकि नहीं करनी चाहिए, क्योंकि अकेका व्यक्ति स्वच्छन्द हो सकता है (१०, ६६.६७)। प्राचार्य आगे लिखते है कि दो व्यक्तियों को भी मन्त्री न बनावे, क्योंकि वोनों मन्त्री मिलकर राज्य को नष्ट कर डालते हैं ( १०, ६८-६९) । मधिक मन्त्रियों की नियुक्ति से होने वाली हानि की ओर संकेत करते हुए वे लिखते है कि परस्पर ईया करने वाले बहुत से मन्त्रो राजा के समक्ष अपनी-अपनी बुद्धि का चमत्कार प्रकट कर के अपना मल पुष्ट करते हैं इस से राजकार्य में हानि होती है ( १०, ७३ ) । परस्पर ईO रखने वाले तथा स्थेमछाचारी मन्त्रियों की नियुक्ति से राजा को सर्बदा हानि उठानी पड़ती है । अत: उसे ऐसे व्यक्तियों को मन्त्रीपद पर कभी नियुक्त नहीं करना चाहिए ।
आचार्य सोमदेव सूरि ने मन्त्रिपरिषद् के लिए काई निश्चित संस्था निर्धारित नहीं की है। वे एक सन्तुलित एवं विषम संख्या वाली परिषद् के पक्ष में है, जिस में मन्त्रियों की संख्या तोन, पाच अथवा सात हो। सम्भवतः छ भो प्राचार्य कौटिल्य की भाति आवश्यकतानुसार मन्त्रियों की नियुक्ति के पक्ष में थे। किन्तु कौटिल्य ने विषम संस्था की ओर सकेत नहीं किया है। मन्त्रिपरिषद् को संख्या के विषय में प्राचीन आचार्यों में पर्याप्त भिन्नता दृष्टिगोचर होती है। आचार्य कोटिल्य ने इस सम्बन्ध में अर्थशास्म में विभिन्न आचार्यों के मत उद्धत किये है जो इस प्रकार है-मानव सम्प्रदाय ( मनु आदि) का विचार है कि मन्त्रिपरिषद् में मन्त्रियों की संख्या बारह होनी चाहिए, बार्हस्पत्य सम्प्रदाय के अनुसार मन्त्रियों की संख्या सोलह तथा औशमस् (शुक्र ) सम्प्रदाय के मत से बीस होनी चाहिए । इस प्रकार विभिन्न आचार्यों के मतों का उहालेख करने के उपरान्त कौटिल्य लिखते हैं कि जितनी आवश्यकता हो उसी के
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अनुसार मन्त्रियों को नियुक्ति करनी चाहिए। महाभारत में संतोस मन्त्रियों को परिषद् का उल्लेख मिलता है।
कौटिल्य ने मानव सम्प्रदाय के मतानुसार बारह मन्त्रियों की नियुक्ति का उल्लेख किया है, किन्तु वर्तमान उपलब्ध मनुस्मृति में यह उल्लेख मिलता है कि मन्त्रिपरिषद् में सात मा आठ मन्त्रियों की नियुक्ति करनी चाहिए। मनुस्मृति में अन्यत्र ऐसा भी विवरण मिलता है कि राजा अन्य मन्त्रियों की भी नियुक्ति करे। सम्भवतः कौटिल्य ने दोनों स्थानों के वर्णन के आधार पर सामान्य रूप से मानव सम्प्रदाय के मतानुसार मन्त्रिपरिषद् के सदस्यों की संख्या चारह व्यक्त की है। मन्त्र का प्रधान प्रयोजन
परस्पर दर-विरोष न करने वाले प्रेम और सहानभूति रखने वाले, यक्ति व अनुभव शून्य बात न करने वाले मन्त्रियों के द्वारा जो मन्त्रणा की जाती है, उस से थोड़े से उपाय से महान कार्य की सिद्धि होती है और यही मन्त्र का फल या माहात्म्य है ( १०, ५०)। सारांश यह है कि थोड़े परिश्रम से महान कार्य सिद्ध होना मन्त्रशक्ति का फल है। जिस प्रकार पृथ्वी में गढ़ी हुई विशाल पत्थर की चट्टान तिरछी लकड़ी के मन्त्रविशेष से शीघ्र ही थोड़े परिश्रम से उठायी जा सकती है, ठीक उसी प्रकार मन्त्रशक्ति से महान् काम भी घोड़े परिश्रम से सिद्ध हो जाते है ( १०, ५१)। आचार्य सोमदेव का कथन है कि किसी बात का विचार करते हो उसे शीघ्र ही कार्यरूप में परिणत कर देना चाहिए । मन्त्र में विलम्ब करने से उस के प्रकट होने का भय रहता है {१०, ४२)। अतः उसे शीघ्र ही कार्य रूप में परिणत करे, आचार्य शुक्र का भी यही विचार है कि जो मनुष्य विनार निश्चित कर के उसी समय उस पर आचरण नहीं करता उसे मन्त्र का फल प्राप्त नहीं होता। जो विजिगीषु निश्चित विचार के अनुसार कार्य नहीं करता वह हानि उठाता है। विजिगीषु ( राजा) यदि मन्त्रणा के अनुकूल कर्तव्य में प्रवृत्त नहीं होता तो उस की मन्त्रणा व्यर्थ है (१०, ४३)। शुक्र ने भी कहा है कि जो विजिगीषु मन्त्र का निश्चय कर के उस के अनुकूल कार्य महीं करता वह मन्त्र आलसी विद्यार्थी के मन्त्र की भांति व्यथं हो जाता है।' जिस प्रकार औषधि के ज्ञान हो जाने पर भी उस के भक्षण किये बिना व्याधि नष्ट नहीं होती उसी प्रकार मन्त्र के कार्य रूप में परिणत किये बिना केवल विचार मात्र से कार्य सिद्ध नहीं होता ( १०, ४४ )।
१. कौ० अर्ब० १,१६। २. महार शान्ति०५.-८ । ३. मन्नु० ७.५४। ४. वहीं. ५, ६४ ५. शुक्र० भातिवा० पृ० १२० । ६. वही, पृ० १२० ।
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मन्त्र के अंग
आचार्य सोमदेव मे भी कौटिल्य की भौति मन्त्र के पास अंग बतलाये है-१. कार्य के आरम्म करने का उपाय, २. पुरुष और द्रव्य सम्पत्ति, ३. देश और काल का विभाग, ४. विभिपात ( प्रतिकार ) और ५. कार्यसिद्धि ।'
१. कार्य प्रारम्भ करने के उपाय - जैसे, अपने राष्ट्र को शत्रुओं से सुरक्षित रखने के लिए उस में स्वाई, परकोट और दुर्ग आदि का निर्माण करने के साधनों पर विचार करना और दूसरे देश में शत्रुभूत राजा के यहाँ सन्धि ब विग्रह आदि के उद्देश्य से गुप्तचर व दूत भेजना आदि कार्यों के साधनों पर विचार करना मन्त्र का प्रथम अंग है।
२. पुरुष का द्रव्य सम्पत्ति-भह नुरुष अमुक काय करने में निपुण है, यह जानकर उसे उस कार्य में नियुक्त करमा तथा दश्य सम्पत्ति, इतने धन से अमुक कार्य सिद्ध होगा। यह क्रमशः पुरुषसम्पत्' और द्रव्यसम्पत् नाम का दूसरा मन्त्र का अंग है । अथवा स्वदेश-परवेश की अपेक्षा से प्रत्येक के दो भेद हो जाते हैं।
३. देश और काल-अमुक कार्य करने में अमुक देश या अमुक काल अनुकूल एवं अमुक देश और काल प्रतिकूल है इस का विचार करना मन्त्र का तीसरा अंग है। अथवा अपने देश ( दुर्ग आदि के निर्माण के लिए जनपद के बीच का देश ) और काल ( भिक्ष, दुर्भिक्ष तथा वर्षा एवं दूसरे देश में सन्धि आदि करने पर कोई उपजाऊ प्रदेश और काल ) आक्रमण करने या न करने का समय कहलाता है | इन का विभाग करना यह देश-कालरिभाग नाम का तीसरा अंग कहलाता है।
४. विनिपात-प्रतिकार-आयी हई विपत्ति के विनाश का उपाय-चिन्तन करना, जैसे अपने दुर्ग वादि पर आने वाले अथवा आये हुए विघ्नों का प्रतिकार करना यह मन्त्र का विमिपाव-प्रतिकार नामक चौथा अंग है।
५. कार्यसिद्धि-उन्नति, अवनति और समवस्था यह तीन प्रकार को कार्यसिद्धि है । जिन सामादि उपायों से विजिगीषु राजा अपनी उन्नति, शत्रु की अवनति या दोनों की समवस्था प्राप्त हो यह कार्यसिद्धि नामक पाच अंग है। विजिगोषु राजा को समस्त मन्त्रिमण्डल से अबदा एक या दो मन्त्रियों से उक्त पंचांगमन्त्र का विचार कर तदनुकूल कार्य करना चाहिए । मन्त्रणा के अयोग्य व्यक्ति
मन्त्रणा प्रत्येक घ्यक्ति से नहीं की जा सकती। इस सम्बन्ध में प्राचार्य सोमदेव लिखते हैं कि जो बपक्ति धार्मिक कर्मकाण्ड का विज्ञान नहीं है उस को जिस प्रकार
१. लौ० अ० १,१५ तथा नीतिया०, १०. २५ । २. कौ० अर्थ १, १४
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श्राद्ध आदि क्रिया कराने का अधिकार नहीं है उसी प्रकार राजनीतिज्ञान से शून्य मूर्ख मन्त्री को भी मन्त्रणा का अधिकार महीं है ( १०,८९)। मूर्ख मन्त्री अन्धे के समान मन्त्र का निश्चय नहीं कर सकता ( १०,९.)। जो राजा मूर्ख मन्त्रो पर राज्यभार सौंप देता है वह स्वयं ही अपने विनाश के बीज होता है (१०,८७)। आगे आचार्य लिखते हैं कि शस्त्र संचालन करने वाले क्षत्रिय लोग मन्त्रणा के पात्र नहीं है, क्षत्रियों को रोकने पर भी केवल कलह करना सूमता है। अतः उन्हें मन्त्री नहीं बनाना चाहिए । शस्त्रों से जीविका अर्जन करने वाले क्षत्रियों को युद्ध किये बिना प्राप्त किया
या भोजन भी नहीं पचता (१०, १०३) । मन्त्रीपद की प्राप्ति, राजा की प्रसन्नता व शस्त्रों से जीविका प्राप्त करना, इन में से प्राप्त हुई एक भी वस्तु मनुष्य को उम्मत बना देती है, फिर उक्त तीनों यातुओं : इनुवार अवश्य ही जरी पत गन देगा । धनलम्पट व्यक्ति भी मन्त्रणा के अयोग्य है । प्राचार्य सोमदेव का कथन है कि जिस राजा के मन्त्री की बुद्धि धन ग्रहण करने में खासक है उस राजा का न तो कोई कार्य ही सिद्ध होता है और न उस के पास धन ही रहता है (१०, १०४)।
राजा को चतुर व्यक्तियों के साथ ही परामर्श करना चाहिए । सोमदेव लिखते है कि जिस प्रकार नेत्र की सूक्ष्म दृष्टि उस की प्रशंसा का कारण होती है उसी प्रकार राजमन्त्री की भी यथार्थ वृष्टि (सन्धि, विग्रह आदि कार्यसाधक मन्त्र का यथार्थ ज्ञान) उस का राजा द्वारा गौरव प्राम करने में कारण होती है (१०, १००)। राजा को अपराधी व अपराध कराने वालों के साथ भी मन्त्रणा नहीं करनी चाहिए (१०, १६९) । दण्डित व अपराधी पुरुष घर में प्रविष्ट हए सर्प की भांति समस्त आपत्तियों के थाने का कारण होता है (१०, १००)। राजा ने जिन के बन्धु आदि कुटुम्बियों का वष-बम्धनादि अनिष्ट किया है उन विरोधियों के साथ भी मन्त्रणा नहीं करनी चाहिए (१०, ३१)। उन के साथ मन्त्रणा करने से मन्त्र के प्रकट हो जाने का भय रहता है।
मन्त्रवेला में केवल वही व्यक्ति प्रविष्ट हों जिन्हें राजा ने आमन्त्रित किया है। बिना बुलाया हुआ व्यक्ति वहाँ न ठहरे (१०, ३२)। अमात्य और सेनाध्यक्ष आदि राज्याधिकारियों से राजदोष (क्रोष व ईर्ष्या आदि) और स्वयं किये हुए अपराधों के कारण जिन की जीविका नष्ट कर दी गयी है के क्रोधी, लोभो, भोत और तिरस्कृत होते है उन्हें कुत्या के समान महा भयंकर समझना चाहिए (१०, १६५)1 नारद का कथन है कि जिन का पराभव और जिन्होंने पराभव किया है, उन्नति के आकांक्षी को उन के साथ मन्त्रणा नहीं करनी चाहिए।' शुक्र का कथन है कि जिस प्रकार घर में निवास करने वाले सर्प से सदैव भय बना रहता है उसी प्रकार घर में बाये हुए दोषियों से भी भय रहता है। इस के साथ ही राजा को यह बात भो ध्यान में रखनी चाहिए कि वह कभी बाहर से आये हुए दूत के सामने मन्त्रणा न करे । चतुर
१. नारद-नीशिवा। २. शुक्रनीतिवा०. पृ० १३८ ।
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व्यक्ति मन्त्रणा करने वाले के मुख के विकार और हस्तादि के संचालन से तथा प्रतिध्वनिरूप शब्द से मन में रहने वाले गुप्त अभिप्राय को जान लेते हैं। अतः राजा को दूत के समक्ष मन्त्रणा आदि कार्य नहीं करने चाहिए (१०, २७)। मन्त्र के लिए उपयुक्त स्थान
यह भी एक महत्त्वपूर्ण बात है कि मन्त्र या मन्त्रणा किस स्थान पर की जाये। मन्त्रणा में स्थान का भी बहुत महत्व है। आचार्य सोमदेव ने इस विषय में भी राजा को सचेत किया है कि वह किन किन स्थानों पर मन्त्रणा न करे । इस' सम्बन्ध में आचार्य के विचार इस प्रकार है-जो स्मात मागे राहामा डसा हो ऐसे स्थान पर तथा पर्वत या गुफा आदि स्थानों में जहां पर प्रतिध्वनि निकलती है वहाँ पर राजा और मन्त्री को मन्त्रणा नहीं करनी चाहिए (१०,२६)। अत: गुप्त मन्त्रणा का स्थान चारों ओर से दबा हुआ और प्रतिध्वनि से रहित होना चाहिए। गुरु विद्वान ने भी लिखा है कि मन्त्र सिद्धि चाहने वाले राजा को खुले हुए स्थान में मन्त्रणा नहीं करनी चाहिए, अपितु जिस स्थान में मन्त्रणा का शब्द टकराकर प्रतिध्वनित नहीं होता है ऐसे स्थान में बैठ कर मन्त्रणा करनी चाहिए।' आचार्य सोमदेव का मत है कि मन्त्र स्थान में पशु-पक्षियों को भी नहीं रहने देना चाहिए । पशुपक्षी मी राजा की गुप्त मन्त्र मा को प्रकाशित कर देते है जैसे शुक-सारिकाओं की कहानियों से ज्ञात होता है (१०, ३३)।
__ अपरीक्षित स्थान पर भी कभी मन्त्रणा नहीं करनी चाहिए (१०, २९) । इसके सम्बन्ध में आचार्य सोमदेव ऐतिहासिक उदाहरण प्रस्तुत करते है--वृद्ध पुरुषों के मुख से सुना जाता है कि एक समय पिशाब लोग हिरण्य गुप्त सम्बन्धी वृत्तान्त की गुस मन्त्रणा कर रहे थे। उसे रात्रि में बट वृक्ष के नीचे छिपे हुए वररुषि नामक राजमन्धी ने सुन लिया था । अतः लस ने हिरण्यगुप्त के द्वारा कषित श्लोक के प्रत्येक पाद सम्बम्पी एक-एक असर से अर्थात् चारों पदों के चारों अक्षरों से पूर्ण लोक की रचना कर लो थो (१०, ३०) । अतः अपरीक्षित स्थान पर कभी मन्त्रणा न करे । बृहस्पति का विचार यह है कि मैदान में और जहाँ शब्द को प्रतिध्वनि होती हो, वहाँ सिद्धि का पाइने वाला राजा मन्त्रणा न करे। महाभारत में बताया गया है कि जहाँ मन्त्रणा हो तो वहाँ बोने, कुबड़े, अन्धे, लंगड़े, हिजड़े, तिर्यग्योनि वाले जीव न रहने पावें। यदि इन के समक्ष मन्त्रणा की जायेगी तो वह अवश्य ही प्रकट हो जायेगी। गुप्त मन्त्रणा प्रकाशित हो जाने के कारण
मन्त्र को गुप्त रखना बहुत आवश्यक पा, क्योंकि मन्त्रणा के प्रकाशित हो जाने से महान् अपकार होता था। इसी हेतु मन्त्रणा को गुप्त रखने के लिए बड़ी सावषामो
१. गुरु-नातिया। २. हस्पति-नीतिवा०, पृष्ठ ११७ । ३. महाभारत-८३, ५५ ।
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से काम लिया जाता था। मन्त्रभेद किन कारणों से हो जाता है इस विषय में भी प्राचीन राजशास्त्र प्रणेताओं ने गम्भीर दृष्टि से विचार किया है, क्योंकि यह एक महत्त्वपूर्ण विषम था । आचार्य सोमदेव के अनुसार गुप्त मन्त्र का भेद पाँच कारणों से होता है-{१) इंगित, (२) शरीर की सौम्य-रौद्र आकृति, (३) मदिरापान, (४) प्रमाद' तथा (५) निद्रा । इन पांच बातों के कारण मन्त्रणा प्रकाशित हो जाती है (१०, ३५) । इन बातों की व्याख्या भी आचार्य सोमदेव ने की है जो इस प्रकार है-जब राजा मन्त्रणा करते समय अपनी मुखादि को विजातीय (मुस अभिप्राय को प्रकट करने वाली) वेध बनाते हैं तो इस से गुप्तचर उन के अभिप्राय को जान लेते हैं। इसी प्रकार क्रोध से उत्पन्न होने वाली भयंकर प्राकृति और शान्ति से होने वाली सौम्य आकृति को हाल कर पचर यह जान लेते हैं कि राजा की भयंकर आकृति युद्ध को और सौम्य भाकृति सन्धि को प्रकट कर रही है। इसी प्रकार मदिरापान आदि प्रमाद तथा निद्रा भो गुप्त रहस्य को प्रकाशित कर देते हैं । अतः राजा को इन का सर्वथा त्याग कर देमा पाहिए { १०, ३६.४१)। धशिष्ठ ने कहा है कि राजा को मन्त्रणा के समय अपने मुख की आकृति शुभ और शरीर को सोम्य रखना चाहिए तथा निद्रा, मद और आलस्म को त्याग देना चाहिए ।
उपर्युक्त बातों के साथ ही मन्त्र को गुप्त रखने के लिए राजा को अन्य बातों को भी ध्यान में रखना चाहिए। राजा मन्त्र को गुस रखने के लिए किस प्रकार मन्त्रणा करे इस विषय पर विभिन्न आचार्यों ने अपने विचार व्यक्त किये हैं । आचार्य कौटिल्य ने अपने ग्रन्थ अर्थशास्त्र में भारद्वाज का यह मत उद्धृत किया है कि गुह्म विषयों पर राजा अकेला स्वयं ही विचार करे क्योंकि यदि उन विषयों पर मन्त्रियों से परामर्श किया जायेगा तो मन्त्र कभी गुप्त नहीं रह सकता। मन्त्रियों के भी उपमन्त्री होते है तथा उन के भी अन्य परामर्शदाता होते है। मन्त्रियों को इस परम्परा के कारण मन्त्र गत नहीं रह सकता । अतः राजा कार्य के प्रारम्भ होने अथवा उस के पूर्ण होने से पूर्व किसी भी व्यक्ति को यह आभास न होने दे कि वह क्या करने जा रहा है। किन्तु विशालाक्ष ने इस मत का विरोध किया है। उनके अनुसार यदि राजा किसी विषय पर अकेला हो विचार करेगा तो उसे मन्त्र सिद्धि नहीं होगी। इस का कारण यह है कि राजा को प्रत्येक विषय का पूर्ण ज्ञान होना असम्भव है। मन्त्री ही उस को सब विषयों का ज्ञान प्राप्त कराते हैं। आचार्य पराशर का कथन है कि राजा को मन्त्रियों के साथ परामर्श करने से मन्त्र का ज्ञान तो हो सकता है, किन्तु इस पद्धति से उप्स को रक्षा सम्भव नहीं है। इसलिए राजा जो करना चाहता है उस से विपरीत बात मन्त्रियों से पूछ। यह कार्य है, यह कार्य ऐसा था, यदि कार्य ऐसा हो तो क्या करना
१. वशिष्ठ-नौतिवा. पृ. ११६ मन्त्रविका महीपेन कर्दन्यं शुभाति । आफारश्च शुभ कार्यस्त्याख्या निद्रामदालसाः ।
१०.
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पाहिए-इस प्रकार के प्रश्न पूछ कर मन्त्रिगण जैसी मन्त्रणा दें उसी के अनुसार राजा कार्य करे। ऐसा करने से उस को मन्त्र का ज्ञान भी हो आयेगा तथा मन्त्र भी प्रकाशित न हो सकेगा। परन्तु पिशुन इस बात से सहमत नहीं है। उन फा कपन है कि जब मन्त्रियों से किसी अनिश्चित विषय पर परामर्श लिया जाता है तो वे उपेक्षापूर्ण हो उस का उत्तर देते हैं और उस से अन्य व्यक्तियों के सामने प्रकाशित भी कर देते है । अत: जो मन्त्री जिस विषय से सम्बन्ध रखता हो उस विषय पर केवल उसी से परामर्श लिया जाये । ऐसा करने से दोनों कार्यों की सिद्धि हो जायेगी। अर्थात् मन्त्र का भी ज्ञाम हो जायेगा तथा बह गुम भी रह सकेगा।।
इन समस्त आवायों के विचार उद्धत करने के उपरान्त आचार्य कौटिल्य सबसे असहमति प्रकट करते हुए लिखते हैं कि राजा तीन या चार मन्त्रियों से मन्त्रणा करे । उन का कथन है कि यदि एक ही मन्त्री से मन्त्रणा की जायेगी, तो बह् मन्त्री निरंकुश हुया स्वच्छन्दता ! चारण लोमा : हाले प्रतिक्षित गम्भीर विषयों पर अकेले मन्त्री के लिए विचार करना बहुत कठिन कार्य है। आचार्य कौटिल्य को मन्त्रियों से भी मन्त्रणा के विरोध में है, क्योंकि दोनों मन्त्रियों के मिल जाने से राजा उन के सम्मुख असहाय हो जायेगा और उन के एक-दूसरे के विरोधी होने से मन्त्र प्रकट हो जायेगा। परन्तु तीन या चार मन्त्रियों से परामर्श करने से उपर्युक्त दोषों का परिहार हो जायेगा तथा राजकार्य भी सुचारु रूप से चल सकेगा।' आचार्य सोमवेय भी कौटिल्य के विचारों से बहुत कुछ सहमत है किन्तु वे विषम संख्या वाले मन्त्रिमण्डल के पक्ष में हैं 1 गुप्त मन्त्रणा के प्रकाशित हो जाने से राजा के सम्मुख जो संकट वसस्थित हो जाता है वह कठिनाई से भी दूर नहीं किया जा सकता। इसलिए राजा को अपने मन्त्र की रक्षा में सदैव सावधान रहना चाहिए, क्योंकि मन्त्र-भेद का कष्ट वुनिवार होता है। आचार्य सोमदेय लिखते हैं कि मनुष्य को प्राणों से भी अधिक अपने गुप्त रहस्य की रक्षा करनी चाहिए ( १०, १४७)।
भन्म के गृह्य रखने के इतने महान महत्व के कारण ही प्राचीन बापायों ने मन्त्र के प्रकाशित हो जाने के कारणों तथा उस को गुप्त रखने के उपायों का विरोध विवेचन किया है । वास्तव में यह बहुत हो महत्वपूर्ण विषय है, क्योंकि मन्त्रसिद्धि पर राज्य की समृद्धि एवं सुरक्षा सम्भव है और उस के प्रकट हो जाने पर राजा महान् विपत्तियों में फंस जाता है। मन्त्रणा के समय मन्त्रियों के कर्तव्य
मन्त्रियों को मन्त्रणा के समय परस्पर कलह कर के वाद-विवाघ और स्वच्छन्द वार्तालाप नहीं करना चाहिए। सारांश यह है कि कलह करने से वैर-विरोष और अनुभवशून्म वार्तालार से अनादर होता है। अतः मन्त्रियों को मन्त्रवेला में उक्त बाते १. कौ० अर्ध०, १, १६ । मन्त्रिपरिषद्
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सदापि नहीं करनी चाहिए। गुरु का कथन है कि जो मन्त्री मन्त्रवेला में वैर-विरोष के उत्पादक वाद-विवाद और हंसी आदि करने है उन का मन्त्र सिद्ध नहीं होता । मन्त्रिपरिषद के कार्य
__ मन्त्रियों के कर्तव्यों का उल्लेख करते हुए आचार्य सोमदेव लिखते हैं कि बिना प्रारम्भ किये कार्यों को प्रारम्भ करना, प्रारम्भ किये हुए कार्यों को पूर्ण करना और जो पूर्ण हो चुके हैं उन में कुछ विशेषता उत्पन्न करना तथा अपने अधिकार को उचित स्थान में प्रभाव दिखाना ये मन्त्रियों के प्रमुख कार्य हैं ( १०,२४ ) । आचार्य कौटिल्य ने भी लिखा है कि कार्य के प्रारम्भ करने के उपाय, मनुष्यों और धन का कार्यों के लिए बिनियोग, कार्यों के करने के लिए कौन-सा प्रदेश व कौन-सा समय प्रयुक्त किया जाये, कार्यसिवि के मार्ग में आने वाली बिपत्तियों का निवारण और कार्य की सिद्धि, ये मन्त्र { राजकीय परामर्श ) के पाच अंग होते है। इन्हीं कार्यो के लिए मन्त्रिपरिषद् की आवश्यकता होतो है। इस प्रकार आचार्य कौटिल्य ने भो मन्त्रिपरिषद् के पाँच कार्य बतलाये हैं।
राजकार्यों में राजा को सत्परामर्श देना मन्त्रियों का प्रधान कसंध्य या । मनु ने लिखा है कि इन सचिषों के साथ राजा को राज्य को विभिन्न विकट परिस्थितियों में सपा सामान्य, सन्धि, विग्रह, राष्ट्ररक्षा तथा सत्पात्रों आदि को धन देने के कार्य में नित्य परामर्श करना चाहिए। इस प्रकार प्रत्येक कार्य मन्त्रियों के परामर्श से करने में हो राज्य का कल्याण है। यद्यपि राजा के लिए प्रत्येक कार्य मन्त्रिपरिषद् के परामर्श से करने का विधान था, किन्तु राजा इन मस्त्रियों के परामर्श को मानने के लिए बाध्य नहीं था। मन्त्रियों से परामर्श करने के उपरान्त उस को अपना व्यक्तिगत निर्णय देने का मो अधिकार स्मृतिकारों ने राजा को प्रदान किया है। किन्तु राजा इम मन्त्रियों के परामर्श का उल्लंबन उसी समय कर सकता था जब कि उन के परामर्श में एकमपता न हो और वह राष्ट्र के हित के लिए अपना निर्णय अधिक उपयोगी समझता हो।
इस का अभिप्राय यह नहीं है कि मन्त्रिपरिषद् का राजा के समक्ष कोई अस्तित्व ही नहीं था। राजा सैद्धान्तिक दृष्टि से तो यह अधिकार रखता था कि मन्त्रिपरिषद् के परामर्श को वह माने या न माने, परन्तु मन्त्रिपरिषद् में विभिन्न विभागों के विशेषज्ञ मन्त्रियों के होने के कारण वह उन के निर्णय को महत्त्व देता था और साधारणतः उस के अनुसार ही कार्य करता था। प्राचार्य सोमदेव ने लिखा है कि राजाओं को अपने समस्त कार्यों का प्रारम्भ सुयोग्य मन्त्रियों को मन्त्रणा से हो करना चाहिए (१०, २२)।
-. ..-- १. गुरु०-नोसिवा० । ३. कौ० अर्थ० १, १३ । ३. मनु०७.१८३ ४. बहीण,७६७।
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वह आगे लिखते हैं कि विजिगीषु राजा को अप्राप्त राज्य की प्राप्ति और सुरक्षा आदि के लिए अत्यन्त बुद्धिमान् और राजनीति के धुरन्धर विद्वान् तथा अनुभवी मन्त्रियों के साथ बैठ कर मन्त्र का विचार करना अत्यन्त आवश्यक है (१०, २३)। इन बातों से स्पष्ट है कि मन्त्रियों के परामर्श का बहुत महत्त्व था और व्यवहार में राजा प्रत्येक कार्य इन मषियों के रामर्श से करता था।
मन्त्रियों के परामर्श के अनुसार कार्य न करने से होने वाली हानि की ओर संकेत करते हुए आचार्य सोमदेष लिखते हैं कि प्रो राजा मन्त्रियों के परामर्श की अवहेलना करता है और उन की बात नहीं सुनता और न उम की बात पर आचरण ही करता है वह राजा नहीं रह सकता, अति उस का राज्य नष्ट हो जाता है (१०,५८)। इस वर्णन से स्पष्ट है कि प्राचीन काल में मन्त्रियों के परामर्श को बहुत महत्व दिया जाता था और प्रत्येक कार्य में उन का परामर्श अत्यन्त आवश्यक पा। इस से मन्त्रिपरिषद् के अधिकारों का अनुमान लगाना बहुत सरल है। धर्मशास्त्रों के प्रणेताबों का निर्देश था कि यघि मन्त्री लोग विरोध करें तो राजा को यह अधिकार नहीं है कि वह किसी को धन दान में दे सके । यहाँ तक कि वह ब्राह्मणों को भी इस प्रकार का दान नहीं दे सकता पा 1 यह विधान आपस्तम्ब के समय तक प्रचलित रहा।' बोडकालोन भारत में भी मन्त्रिपरिषद् का महत्त्वपूर्ण स्थान था । मन्त्रिमण समय-समय पर सम्राट् की उस आज्ञा का उल्लंघन करते थे जिस से राष्ट्र की हानि होने की सम्भावना होती थी। बौद्ध प्रन्यों के अवलोकन से मन्त्रियों के अधिकारों के विषय में स्पष्ट शान प्राप्त होता है। सम्राट अशोक के आज्ञा देने पर भी मन्त्रिपरिषद् और प्रधान मन्त्री राधागुप्त ने बोस भिक्षुकों को अधिक धन दान देने का विरोध किया था और इस से विवश होकर भारत के महान् सम्राट अशोक को दान को अनुमति प्राप्त नहीं हई । २ अशोक के शिलालेखों से भी मन्त्रिपरिषद् के अधिकारों पर प्रकाश पड़ता है। अशोक ने अपने प्रधान शिलालेखों की छठी धारा में कहा है कि यदि मैं किसी दान अथवा षोषणा के सम्बन्ध में कोई आज्ञा हूँ और मन्त्रिपरिषद् में उस के सम्बन्ध में किसी प्रकार का विवाद उत्पन्न हो तो मुझे उस को सूचना तुरन्त मिलनी चाहिए । यषि परिषद् में मेरे सम्बन्ध में, मेरे प्रस्ताव के सम्बन्ध में मतभेद हो अथवा वह प्रस्ताव पूर्णतया अस्वीकृत कर दिया गया हो तो उस की मुझे तुरन्त सूचना मिलनी चाहिए। इसी प्रकार जब रुद्रदामन ने सुदर्शन झील के जीर्णोद्वार की आज्ञा दी तो उसे मन्त्रियों ने अपनी स्वीकृति प्रदान नहीं की । सुदर्शन झोल के जीर्णोद्धार के सम्बन्ध में मन्त्रिगण राजा के प्रस्ताव से सहमत नहीं थे। उन्होंने उस योजना के लिए धन को स्वीकृति नहीं दी और
१. आपस्तम्ब-२, १०,२६,१। २. दिव्यावदान पृ १३० तथा बागे। ३. ईण्डियन एण्टीक्वेरी-१९१३. पृ० २४२ ।
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१.1
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राणा को अपने निजी कोश से ही उम्र का सम्पूर्ण व्यय वहन करना पड़ा।' अतः स्पष्ट है कि राजा को प्रत्येक कार्य करने से पूर्व मन्त्रिपरिषद् की स्वीकृति प्राप्त करना परम आवश्यक था। जो राजा मन्त्रियों को हितकारी बात को न मानकर अपनों स्वेच्छा से कार्य करता था उस का परिणाम भयंकर होता था। वेन, नहुष तथा यवनराज सुदास इस के प्रत्यक्ष उदाहरण हैं, जिन्होंने मन्त्रिपरिषद् की उपेक्षा कर के अबिनयी होकर स्वेच्छाचारी शासन का प्रयत्न किया और इसी कारण उन्हें राज्य से हाथ धोना पड़ा तथा वे स्वयं भी मष्ट हो गये।
___ प्राचार्य सोमदेव ने राजा को मन्त्रियों के परामर्श के अनुसार कार्य करने का आदेश दिया है, किन्तु इस के साथ ही वह मन्त्रियों का भी यह कर्तव्य बतलाते हैं कि मन्त्री राजा को सदैव सत्पराम ही हैं और उसे कामो कार्य का उपदेदा न दें। इस सम्बन्ध में उन का कथन है कि मन्त्री को राजा के लिए दुःख देना उत्तम है अर्थात् यदि वह भविष्य में हितकारक किन्तु तत्काल अप्रिय लगने वाले ऐसे कठोर बचन बोल कर राजा को दुःखी करता है तो उत्सम है, परन्तु अकर्तव्य का उपदेश देकर राजा का विनाश करना अच्छा नहीं (१०, ५३)। जो मनुष्य इस प्रकार का कार्य करता है वह राजा का शत्रु है। मन्त्रियों का तो यह कर्तव्य है कि यदि राजा अपने कर्तव्य से हट कर कुमार्ग का अनुसरण करे तो उसे कठोर वचन बोल कर भी सन्मार्ग पर लाना चाहिए । इस सम्बन्ध में आचार्य सोमदेव सूरि ने बड़ा हो सुन्दर उदाहरण प्रस्तुत किया है जो इस प्रकार है--"जिस प्रकार माता अपने शिशु को दुग्धपान कराने के उद्देश्य से उस को ताड़ित करती है, उसी प्रकार कुमार्ग पर चलने वाले राजा को कटोर वचन द्वारा मन्त्री सन्मार्ग पर लाने का प्रयत्न करें (१०, ५४)।" इस के साथ हो सोमदेव मन्त्रियों को यह भी आदेश देते हैं कि वे राजा के अतिरिक्त अन्य किसी के साथ स्नेह आदि सम्बन्ध न रखें (१०, ५५)। राजा की सुख-सम्पत्ति हो मन्त्रियों को सुख-सम्पत्ति है और राजा के कष्ट मी मन्त्रो के कष्ट समझे जाते है। राजा जिस पुरुप पर निग्रह और अनुग्रह करते हैं वह मन्त्रियों द्वारा किया हुआ ही समझना चाहिए (१०, ५६) । इस का अभिप्राय यही है कि मन्त्रियों को पृथक् रूप से उस पुरुष पर निग्रह अथवा अनुग्रह नहीं करना चाहिए और सदैव राज्य के कल्याण का ही चिन्तन करते रहना चाहिए । आचार्य कौटिल्य भी मन्त्रियों के कार्यों का वर्णन इसी प्रकार करते हैं। राजा और मन्त्रिपरिषद
उपर्युक्त वर्णन से यह बात स्पष्ट है कि राजा और मन्त्रिपरिषद् का बहुत कनिष्ठ सम्बन्ध था। राज्य का समस्त कार्य मन्त्रियों के परामर्या से ही होता था। राज्यांगों में १, एपिप्राफिया इण्ठिका--२, ४५ ( शिलालेख को पंकिसा १४, १७ ।। २. मनु० ७, ४१ । ३. को अर्थ ० ६.१।
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भी राजा के पश्चात द्वितीय स्थान अमात्य अथवा मन्त्री का ही था। राजा को अपनी प्रकृति ( मन्त्री एवं सेनापति आदि ) से कैसा व्यवहार करना चाहिए तथा उनके अपराधी सिव होने पर क्या दण्ड देवे इस विषय में भी सोमदेव ने प्रकाश डाला है। वे लिखते हैं कि नीतिज्ञ रागा का कर्तव्य है कि वह अपराध के कारण पृथक् किये गये अधिकारियों को नीति द्वारा वश में करे । नोभी और लोभी राज्याधिकारियों को सेवा से मुक्त करे, क्योंकि उन्हें पुनः नियुक्त करने से उस की तथा राज्य की क्षति होने की सम्भावना रहती है । जीविका के बिना भयभीत हुए कर्मचारियों को पुनः उन के पदों पर नियुक्त कर देना चाहिए। ऐसा करने से वे कृतज्ञता के कारण विद्रोह नहीं कर सकते । स्वाभिमानी व्यक्तियों का सम्मान करना चाहिए (१०, १६३)।
__रामा का यह कर्तव्य है कि जिन कार्यों से उस की प्रकृति, मन्त्री, सेनापति आदि कर्तव्यच्युत होते है, उन्हें न करें एवं लोभ के कारणो से पराङ्मुख होकर उदारता से काम ले (१०, १६५)। वशिष्ठ ने कहा है कि राजा को अमात्य आदि प्रकृति के नष्ट और विरक्त होने के साधनों का संग्रह तपा लोभ फरमा उचित नहीं है, क्योंकि प्रकृति के दु-नष्ट और विरक्त होने से राज्य की वृद्धि नहीं हो सकती। शत्रु माथि से होने वाले समस्त क्रोधों की अपेक्षा मन्त्री व सेनापति आदि प्रकृति वर्ग का कोष रामा के लिए विशेष कष्टदायक होता है ( १०, १६७ )। इस का तात्पर्य यही है कि राज्यरूपी वृक्ष का मूल अमात्य आदि प्रकृति ही होती है। इस के विरुद्ध होने से राज्य नष्ट हो जाता है । अतः राजा को उसे सन्तुष्ट रखने में प्रयतशील रहना पाहिए । राजा का यह भी कर्तव्य है कि जिन को कौटुम्धिक सम्बन्ध आदि के कारण कठोर दण्ड नहीं दिया जा सकता, ऐसे राजद्रोही अपराधियों को तालाब सषा खाई खुदवाना, पुल बनवाना आदि कार्यों में नियुक्त कर क्लेशित करे (१०, १६८)। अमात्यों के दोष
___आचार्य सोमदेव ने जिस प्रकार मन्त्री आदि के गुण-दोषों का विवेचन नीतिवाक्यामृत में किया है उसी प्रकार अमात्यादि के कर्तव्यों, गुणों तथा उन फे घोषों पर भी पूर्ण प्रकाश डाला है। उन्होंने स्पष्ट रूप से यह बतलाया है कि किन व्यक्तियों को राज्य के उच्च पदों पर नियुक्त करना चाहिए । अमात्यों के दोषों का वर्णन करते हुए सोमदेव लिखते है कि राजा निम्नलिखित व्यक्तियों को अमात्यपद पर कभी नियुक्त न करे-- अत्यन्त क्रोधी, सुदढ़ पक्ष वाला, बाह्य एवं आभ्यन्तर मलिनता से दूषित, श्यसनी, अकुलीन, हठी, आय से अधिक व्यय करने वाला, विदेशी तथा कृपण । सोमदेव ने अमात्यपद के अयोग्य व्यक्तियों को स्पष्ट रूप से व्याख्या भी की है जिस का वर्णन निम्नलिखित है
१. वशिष्ठ-नीतियार पृ० १५५ ।
क्षयो सोभा निरागी च पीना न शरयते । यतस्तासांप्रदेण राज्यतिः प्रजायते।
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१. अत्यन्त क्रोधी-कोष मनुष्य का सन्तुलन खो देता है और उसे उचितअनुचिप्त के ज्ञान से पथभ्रष्ट कर देता है। यदि क्रोधी व्यक्ति को अमात्य बना दिया जाये और किसी अपराध के कारण उसे दण्ड दिया जाये तो वह क्रोध के कारण या तो स्वयं नष्ट हो जाता है अथवा अपने स्वामी को नष्ट कर देता है ( १८, १४)।
२. बलि पक्ष वाला-ऐसा व्यक्ति भी अमात्यपद पर नियुक्त किये जाने में सर्थया अयोग्य है जिस का पक्ष ( माता-पिता आदि ) बलिष्ठ होता है। वह अपने पक्ष की सहायता से राजा को नष्ट कर देता है ( १८,१५)।
३. अपवित्र-उसी व्यक्ति को अमात्य बनाना चाहिए जो श्रेष्ठ चरित्र वाला हो। ऐसे व्यक्ति का प्रभाष ही जनता पर अच्छा पड़ सकता है 1 अपवित्र व्यक्ति प्रभावहीम होता है । यह राजा को अपने स्पर्श से दूषित करता है ( १८, १३ )।
४. व्यसनी-यदि अमात्य किसी भी व्यसन का दास है तो वह राजा को विनाश की ओर ले जायेगा। आचार्य सोमवेद के अनुसार व्यक्ति में यदि एक भी व्यसन है तो वह विनाश का कारण है ( १६, ३३)। व्यसनी को कर्तव्य अकर्तव्य का कोई भी ज्ञान नहीं रहता।
५. अकुलीन-समस्त आचार्यों ने कुलीन व्यक्तियों को ही अमात्य बनाने का निर्देश दिया है। आचार्य सोमदेव लिखते हैं कि नीच कुल वाला व्यक्ति थोड़ा-सा भी चल पास कर के मदोन्मत्त हो जाता है और राज्य को हानि करता है (१८, १३)।
६.हठी-हठी व्यक्ति दुराग्रह के कारण किसी को भी बात नहीं मानता और अपनी मनमानी करता है। किसी कार्य से चाहे राज्य की कितनी भी हानि क्यों न हो किन्तु वह अपनी ही हठ करता है ( ५, ७६ )।
७. विदेशी-किसी भी विदेशी को अर्थ-सचिव या उच्च सेना का अधिकारी नहीं बनाना चाहिए । इस सम्बन्ध में आचार्य सोमदेव लिखते हैं कि राजा विदेशी पुरुष को धन के आय-व्यय का अधिकार एवं प्राणरक्षा का अधिकार न देवे ( १८, १८ ) । अर्थात् उन्हें अपने सचिव एवं सेना-सचिव के उत्तरदायित्वपूर्ण पदों पर नियुक्त न करे क्योंकि विदेशी उस के राज्य में कुछ समय ठहर कर के अपने देश को प्रस्थान कर जाते है और अवसर पाकर राजद्रोह करने लगते हैं तथा राज्य का धन भी अपने साथ ले जाते हैं। अतः अर्थ-सचिव व सेना-सचिव अपने देवा का योग्य व्यक्ति होना चाहिए क्योंकि अपने देशवासी से उस के द्वारा एकत्रित किया हुआ धन कालान्तर में भी प्राप्त किया जा सकता है किन्तु विदेशी से वह धन नहीं मिल सकता क्योंकि वह तो उस धन को लेकर अपने देश को भाग जाता है ( १८, ११)।
८. कृपण-कृपण व्यक्ति को भी कभी अमात्य नहीं बनाना चाहिए । कृपण जा राजकीय धन ग्रहण कर लेता है तो उस से पुन: धन वापस मिलना पाषाण से बल्कलालने के समान असम्भव होता है ( १८, २०)। अतः कृपण मनुष्य को भी कभी अर्थ-सचिव नहीं बनाना चाहिए ।
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अधिकारी बनाने योग्य व्यक्ति
आचार्य सोमदेव लिखते हैं कि यही व्यक्ति, अधिकारी बनाने योग्य है जो अपराम करने पर राजा द्वारा सरलता पूर्वक दण्डत किये जा सकें ( १८, २१)। ब्राह्मण, क्षत्रिय एवं सम्बन्धी को कभी अर्थ-सचिव मादि पदों पर नियुक्त नहीं करना चाहिए ( १८, २२)। आचार्य सोमदेव ने इन को अधिकारी न बनाने के कारणों पर भी प्रकाश डाला है। वे लिखते है कि ब्राह्मण अधिकारी होने पर अपने जातिगत स्वभाव के कारण ग्रहण किया हुआ धन बड़ी कठिनता से देता है अथवा नहीं भी देता (१८, २३ ) । क्षत्रिय के विरोध में अपना मत प्रकट करते हुए आचार्य लिखते हैं कि क्षत्रिय अधिकारी विरुद्ध हुआ तलबार दिखाता है ( १८, २४ )। इस का अभिप्राय यह है कि क्षत्रिय अधिकारी द्वारा ग्रहण किया हुआ धम शस्त्र प्रहार के बिना नहीं प्राप्त हो सकता। कुटुम्बी और सहपाठी को अधिकारी बनाने का निषेध
अपने कुटम्बी अथवा सहपाठो को भी राजा कभी किसी जसवपद पर नियुक्त न करे (१८, २५)। जब राजा द्वारा अपना कुटुम्बी या सहपाठी बन्धु आदि अधिकारी बना दिया जाता है तो बह-में राजा का बन्धु है अथवा सहपाठी हूँ-इस गर्व से दूसरे अधिकारियों को तुच्छ समझ कर स्वयं समस्त राजकीय धन हड़प लेता है । वह सब अधिकारियों को तिरस्कृत कर के स्वयं अत्यन्त शक्तिशाली हो जाता है। राजा किसी ऐसे व्यक्ति को भी उच्च अधिकारी न बनावे जिसे अपराध के कारण दण्ड देने पर पश्चात्ताप करना पड़े। किसी पूज्य व्यक्ति को भी अधिकारी नहीं बनाना चाहिए, क्योंकि वह स्वयं को राजा द्वारा पूज्य समझ कर निर्भीक व उम्खल होला हुमा राजा की आज्ञा का उल्लंघन करता है तथा राजकीय पन का अपहरण आदि मनमानी प्रवृत्ति करता है (१८, ३२)। उस के इस व्यवहार से राजकीय धन की क्षति होती है। राजा किसी पुराने सेवक को भी अधिकारी न बनाये ( १८, ३३)। क्योंकि वह उस से परिचय के कारण चोरी आदि अपराध कर लेने पर भी निडर रहता है । राजा किसी उपकारी को भी अपना अधिकारी न बनाये ( १८, ३४)। क्योंकि उपकारी पुरुष पूर्वकृत उपकार राणा के समक्ष प्रकट कर के समस्त राजकीय पन हड़प कर जाता है। किसी बाल्यकाल के मित्र को भी अधिकारी नहीं बनाना चाहिए । विस के निषेध का कारण यह है कि वह अतिपरिचय के कारण अभिमानबश स्वयं को राजा के समान ही समझता है ( १८, ३५ ) । क्रूर व्यक्ति को भी राजा कभी अधिकारी न बनाये क्योंकि कर हृदय वाला व्यक्ति अधिकारी बनकर समस्त अनर्थ उत्पन्न करता है ( १८, ३६ ) । राजद्वेषी फर हृदय वाले पुरुष को अधिकारी बनाने से जो हानि होती है उस का उदाहरण शकुनि तथा शकटार से मिल सकता है, जिन्होंने मन्त्री प्राप्त कर के अपने स्वामियों से द्वेष कर के राज्य में अनेक अनर्थ उत्पन्न किये जिस के फल
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स्वरूप राज्य की महान क्षति हुई 1 मित्र को अमात्यादि अधिकारी बनाने से राजकीय धन व मित्रता की हानि होती है, अर्थात् मित्र अधिकारी राजा को अपना मित्र समक्ष कर निर्भीकतापूर्वक उच्छुखल होकर उस का धन ले लेता है जिस से राजा उस का बध कर डालता है। इस प्रकार मित्र को अधिकारी बनाने से राजकीय धन व मित्रता दोनों का ही विनाश होता है ( १८, ३७ ) । मूर्ख व्यक्ति को भी अमात्मादि बनाने का निषेध किया है । मूर्ख को अमात्यादि अधिकार देने से स्वामी को धर्म, धन तथा पश की प्राप्ति कटिमाई से होती है अथवा अनिश्चित होती है। क्योंकि मूर्ख अधिकारी से स्वामी को धर्म का निश्चय नहीं होता और न धन प्राप्ति ही होती है और न ही मिलता है, परन्तु दो बातें निश्चित होती है- १) स्वामी का आपत्तिग्रसित हो जाना था ( २) नरक की प्राप्ति (१८, ४०)। मूर्ख अधिकारी ऐसे दुष्कृत्य कर बैठता है जिस से उस का स्वामी आपद्ग्रस्त हो जाता है तथा ऐसे कार्य करता है जिस से प्रजा पीड़ित होती है। इन कार्यों के परिणामस्वरूप स्वामी मरकमामी होता है। आलती व्यक्ति की नियुक्ति से भी राजा को कोई लाभ नहीं हो सकता, क्योंकि भालसी अधिकारी कोई भी राज्य-कार्य ठीक प्रकार से नई कार तार से स्थिति में समस्त कार्य राजा को ही करने पड़ते हैं ( १५, १४४ ) । किन्तु अकेला राजा समस्त कार्यों को ठीक प्रकार से नहीं कर सकता। इसी कारण विद्वानों ने आलसी को नियुक्त करने का निषेध किया है। राज्याधिकारी कर्म होने चाहिए जिस स राज्य के समस्त कार्य सुचारू रूप से चल सके। इस विषय में आचार्य सोमदेव लिखते है कि राजा को उन मन्त्री आदि अधिकारियों से कोई लाभ नहीं जिन के होने पर भी उसे स्वयं कष्ट उठाकर अपने आप ही राज्य कार्य करने पड़ें अथवा स्वयं कर्तव्य पूर्ण कर के सुख प्राप्त करना पड़े (१८, ४१)। क्षुद्र प्रकृति वाले अमात्यादि अपने-अपने अधिकारों में नियुक्त हुए सैन्धव जाति के घोहे के समान विकृत हो जाते है ( १८, ४३ ) । इस का अभिप्राय यह है कि जिस प्रकार सैन्धव जाति के घोड़े के दमन करने पर वह उन्मत्त होकर सवार को भूमि पर गिरा देता है उसी प्रकार अधिकारीगण भी क्षुद्र प्रकृतिकश गर्ययुन होकर राज्य को हानि करने के लिए तत्पर रहते हैं । अतः राजा को सदैव उन की परीक्षा करते रहना चाहिए । अमात्यों के अन्य दोष
आचार्य सोमदेव ने अमात्यों के कुछ अन्य दोषों को और भी संकेत किया है। अह लिखते है कि जिस अमात्य में निम्नलिखित दोष पाये जायें उसे अमात्यपर्व पर नियुक्त नहीं करना चाहिए । उन के अनुसार अमात्यों के दोष इस प्रकार है- (१) भक्षणः-राजकीय धन खाने वाला, (२) उपेक्षण-राजकीय सम्पत्ति नष्ट करने वाला, . ( ३ ) प्रज्ञाहीनत्व---जिस की बुद्धि नष्ट हो गयी हो या जो राजनीतिक ज्ञान से शून्य हो, ( ४ ) अपरोच्य-प्रभावहीन, (५) प्राप्तार्थी प्रदेश-जो कर आदि उपायों द्वारा
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प्राप्त हुए धन को राजकोष में जमा नहीं करता, ( 4 ) द्रव्यविनिमम-जो राजकीय बहुमूल्य द्रव्य अन्य मुल्य में निकाल लेता है अर्थात् जो बहुमल्य मुद्राओं को स्वयं ग्रहण कर के और उन के बदले में अल्प भूल्य वाली मुद्राएं राज्य कोष में जमा कर देता है । सारांश यह है कि जो राजा उक्त दोषों से युक्त व्यक्ति को अमात्य बनाता है उस का राज्य नष्ट हो जाता है ( १८, ४७ )1
राज्याधिकारियों के धनवान् होने का निषेध
राजा का यह भी कर्तव्य है कि वह अपने अधिकारियों को अधिक धनवान् न होने देवे। अमात्मादि अधिकारियों से राज-कोष की रक्षा के लिए उन का कमी विश्वास नहीं करना चाहिए तथा समय-समय पर उन की परीक्षा करते रहना चाहिए (१८,४४) । नारद ने भी कहा है कि पृथ्वी पर कुलीन पुरुष भी धनवान् होने पर गर्व करने लगते हैं। सभी अधिकारी अत्यन्त धनाढ्य होने पर भविष्य में स्वामी के वशवर्ती नहीं होते अथवा कठिनाई से वश में होते हैं अथवा उस के पद की प्राप्ति के अभिलाषी हो जाते हैं (१८.४६ राज्याधिकारियों की स्थायी नियुक्ति का निषेध
राजा अपने अधिकारियों की नियुक्ति स्थायी रूप से कदापि न करे और न एक स्थान पर ही उन्हें अधिक समय तक रहने दें (१८,४८)। स्थायी नियुक्ति वाले अधि. कारी राजकोष की क्षति करने वाले हो सकते हैं। अतः राजा राउमाधिकारियों की नियुक्ति अस्थायी एवं क्रमानुसार बदलने वाली ही करे । आचार्य सोमदेव का कथन है कि राजा अमात्य आदि अधिकारियों की नियुक्ति स्वदेश या परदेश का विचार न कर अस्थायी रूप से करे, क्योंकि अधिकारियों की स्थायी नियुक्ति का परिणाम भयंकर होता है (१८, ५०) । अर्थात् स्थायी अधिकारी राजकोष की क्षति करने वाले
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भारत का प्राचीन इतिहास अनेक युद्धों से परिपूर्ण है । सीमा विस्तार की भावना इस देश के राज्यों में अति प्राचीन काल से ही देखी गयी है। चक्रवर्ती शासन का परम्परा में इन युद्धों में कुछ कमी अवश्य आयी, किन्तु फिर भी युद्धों की समाप्ति पूर्ण रूप से नहीं हुई। भारतीय जनता एवं आचार्यों ने चक्रवर्ती शासन को मान्यता प्रवाम की। राज्यों को सुदृढ़ता के लिए दुर्ग निर्माण का महत्त्व कम नहीं हुआ। प्राचीन काल में राज्य की सुरक्षा के लिए दुर्ग एक महत्त्वपूर्ण राज्यांग समझा जाता था, इस कारण उ लो पानीति में सरग के गोंपा प्रमुख अंग माना। जिस राज्य में जितने अषिक दुर्ग होते थे वह उतना ही अधिक शक्तिशाली समझा जाता था ! जन-पान की सुरक्षा की दृष्टि से तथा मुद्ध में सहायक होमे के कारण दुर्गों का महत्त्व इस देश में बहुत काल तक रहा। राज्यशास्त्र प्रणेताओं ने अपने ग्रन्थों में उस की महत्ता के कारण ही उस का वर्णन किया है। शुक्राचार्य तथा आचार्य कौटिल्य ने दुर्गरचना की विशिष्ट विधियों एवं श्रेष्ठ दुर्ग के लक्षणों पर विस्तार पूर्वक प्रकाश माला है।' आचार्य सोमदेवसूरि मे भी दुर्ग को राज्यांगों में बहुत महत्व प्रदान किया है इसी कारण उन्होंने नीतिवाक्यामृत में दुर्ग-समुद्देश की भी रचना की है। दुर्ग की ध्याख्या करते हुए सोमदेव लिखते हैं कि जिस के समीप जाने से शत्रु सुख प्राप्त करते है अथवा जहाँ दुष्टों के उद्योग द्वारा उत्पन्न होने वाली विजिगीषु की आपत्तियों ना हो जाती है उसे दुर्ग कहते हैं ( २०, १)। सारांश यह है कि जब विजिगीषु अपने राज्य में शत्रु द्वारा आक्रमण होने के अयोग्य बिकट स्पान-दुर्ग, खाई आदि बनवाता है, तब शत्रु लोग उन विकट स्थानों से दुःखी होते हैं, श्योंकि जन के आक्रमण वहाँ सफल नहीं हो पाते । शुक्राचार्य दुर्ग की परिभाषा करते हुए लिखते है कि जिस को प्राप्त करने में शत्रुओं को भीषण कष्ट सहन करने पड़ें और जो संकट काल में अपने स्वामी की रक्षा करता है, उसे दुर्ग कहते है।
१. शुक०४,६ को अर्घ २,३-५ । २. एक०. नी विचा, पृ० १६८ | यस्य दुर्गस्य संप्रातः शत्रवो तुःखमानुयुः । लामिन रक्षयस्यैव व्यसने दुर्गमेव तत ।
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राजधानी
जहाँ राज्य-व्यवस्था से सम्बन्ध रखने वाले राजा तथा अन्य राजकर्मचारी निवास करते हैं उसे राजधानी अथवा पुर कहते हैं। यह शासन का केन्द्र होता है और यहीं से समस्त शासन नीति का प्रसारण होता है। अन्य नगरों की अपेक्षा इस स्थान को विशेष महत्त्व प्रदान किया जाता है और इस को विशिष्ट प्रकार के साधनों से सम्पन्न बनाया जाता है । कहीं इस स्थान की रचना दुर्गवत् होती है और कहीं नगरवत् । यषि इस की रचना नगरवत् होती है तो उस के अन्दर दुर्ग होसा है और यदि दुर्गवत् होती है तो दुर्ग के अन्दर नगर होता है। इसी कारण प्राचीन आचार्यों ने पुर और दुर्ग का प्रयोग पर्यायवाची शब्दों के रूपों में किया है। प्राचीन काल में अधिकसर नगरों की रचना दुर्गाकार रूप में ही की जाती थी । नग्वेद में भी 'आयसीपुरः' अर्थात् लोहनिर्मित पुर का वर्णन मिलता है।
पुर को किस प्रकार से बसाया जाये अथवा उस का निर्माण किस प्रकार किया जाये इस विषय पर नीति ग्रन्थों में विस्तार पूर्वक विचार किया गया है। जनपद की सीमाओं पर सामरिक स्थानों का निर्माण किस प्रकार किया जाये इस विषय में भी विद्वानों ने विचार किया है। माचार्य कौटिल्य ने दुर्ग विधान के प्रकरण में लिखा है कि राजा को चाहिए कि अपने देश के चारों ओर मुखोपयोगी एवं देवनिर्मित पर्वतादि विकट स्थानों को हो दुर्ग रूप में परिणत कर दे। जल से पूर्ण किसी स्वाभाविक द्वीप अथया गहरो खुदी हुई खाई स परिवटित स्थान ये दो प्रकार के ओदक ( जलीय) दुर्ग माने जाते हैं । बड़े-बड़े पत्थरों से तथा कन्दराओं से घिरा दुर्ग पर्वतदुर्ग कहलाता है । जल तथा घास आदि से हीन और ऊसर प्रदेश में बना हुआ दुर्ग धान्वन ( मरुस्थलीय ) दुर्ग माना जाता है। चारों ओर दलदल से घिरा तथा कांटेदार शादियों से परिवेष्टित दुर्ग वनदुर्ग कहा जाता है। इन में से नदीदुर्ग तथा पर्यसदुर्ग अपने देश को रक्षा करते है। धान्वन्दुर्ग तथा वनदुर्ग जंगलों में बनाये जाते हैं। आपत्तिकाल में राजा इन दुर्गों में आत्मरक्षा करता है।'
जनपद के मध्य में राजा आर सो ग्रामों के बोष बनने वाला स्थानीय नाम का एक नगरविशेष बसाये । वह नगर राजा का समुदयस्थान { राजकोष में रखने योग्य धनराशि जुटाने का स्थान-तहसोल ) कहा जाता है। वास्तुशास्त्र के विज्ञजन किसी निर्दिष्ट स्थान, किसी नदी के संगमस्थल पर, सदा जिस में जल रहता हो ऐसे किसी सरोवर के तट पर अथवा कमलयुक्त किसी तड़ाग के बीच में इस स्थानीय नगर का निर्माण कराये । वास्तु की स्थितिवश वह नगर गोलाकार, लम्बा सफा चौकोर रस्ना जा सकता है। नगर के चारों ओर जलप्रवाह युक्त खाई अवश्य होनी चाहिए। व नगर एक प्रकार का पत्तन कहलायेगा, जिस में उस के चारों ओर उत्पन्न होने वाली
१, को अप१, २
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वस्तुओं के संग्रह तथा क्रय-विक्रय केन्द्र रहेगा बार वह स्थान जलपथ तथा स्थलपथ से सम्बद्ध होगा। इस स्थानीय नगर के चारों ओर राजा पार हाप के अन्तर पर तीन नाइयां खुदबाये । वे तीनों ही क्रमशः चौदह दण्ड ( ९६ हाथ ), बारह दण्ड ( ४८ हाथ ) तथा दस दण्ड ( ४० हाथ ) चौड़ी होनी चाहिए। उन की गहराई चौड़ाई से एक चतुर्थांश कम अथवा आधी रहे। अपवा चौड़ाई का एक तृतीयांश उस को गहराई रखे, उन बाइयों का तलप्रदेश मौकोर और पत्थर बना होना चाहिए। उस की दीवार पत्थर या इंटों की बनी हुई हो और खुदाई इतनी गहरी की जाये कि धरती के भीतर से पानी निकल आये । अथवा नदी आदि के आगन्तुक जल से उन्हें भरा जा सके । उन में से जल निकलने का भी मार्ग बना होना चाहिए । उन में कमल तथा नक आदि जलजन्तु भी. रहें।
कौटिल्य ने दुर्ग विधान के प्रकरण में उपर्युक्त वर्णन के अतिरिक्त भी बड़े विस्तार के साथ जनपद की रचना के विषय में प्रकाश डाला है। दुर्गका महत्त्व
प्राचीन आचार्यों ने दुर्ग के महत्त्व पर भी पूर्ण रूप से अपने विचार व्यक्त किये है । इस विषय में सोमदेव लिखते है कि जिस देश में दुर्ग नहीं है वह पराजय का स्थान है। जिस प्रकार समुद्र के मध्य नौका से पुपक होने वाले पक्षी का कोई रक्षक नहीं होता, उसी प्रकार संकट काल में दुर्ग विहीन राजा की भी रक्षा करने वाला कोई नहीं ( २०, ४-५) । कौटिल्य ने दुर्ग के महत्व का वर्णन करते हुए लिखा है कि यदि दुर्ग न हो तो कोष पर शत्रु सुगमता से अधिकार कर लेगा और युद्ध के अवसर पर शत्रु की पराजय के लिए दुर्ग का ही पाश्रय लेना हितकर होगा। सैन्यशक्ति का प्रयोग बहीं से भली-भांति हो सकता है। जिन राजाओं का दुग सुद्ध होता है उन्हें परास्त करना सुगम नहीं होता है। दुर्ग के महत्त्व के सम्बन्ध में मनु का कपन है कि दुर्ग में सूरक्षित एक धनुर्धारी सो योद्धाओं से तथा सो घर्षारी दस सहल योद्धाओं से युद्ध करने, में समर्थ हो सकते है अत: राजा को अपनी सुरक्षा के लिए दुर्ग का निर्माण करना चाहिए । याज्ञवल्क्य का कथन है कि दुर्ग राजा, जनता तथा कोष की सुरक्षा के . लिए परम आवश्यक है।
दुर्ग के भेद-आचार्य सोमदेव ने स्वाभाविक एवं आहार्य दो प्रकार के दुर्गों का उल्लेख किया है ( २०, २)। टोकाकार ने स्वाभाविक दुर्ग के पार भेव बतलाप हैं.-१. बोदक, २. पर्वत दुर्ग, ३, धन्वहदुर्ग तथा ४. वनदुर्ग । १. कौ० बर्थ०१.३। २. नहीं.२.३-४। ३. अही,,१। १. मनु०७,७४। १. याज्ञ०१,३२१ ।
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१. औदक-चारों और नदियों से वेष्टित व मध्य में टापू के समान विकट स्थान अथवा बड़े-बड़े सरोवरों से वेष्टित मध्य स्थान को औदकदुर्ग कहते है।
२. पर्वतदुर्ग-बड़े-बड़े प्रस्तरों अथवा विशाल चट्टानों से वेष्टित अथवा स्वयं गुफामों के माकार के बने हुए विकट स्थान पर्वतदुर्ग कहलाते हैं ।
३. धन्बदुर्ग-जल, घास शून्म भूमि या ऊसर भूमि में बने हुए विकट स्थान को धन्यदुर्ग कहते हैं।
४. वनदुर्ग-चारों ओर धनी कीचड़ से युस्त. अपवा कोटेदार माड़ियों से वेष्टित स्थान को वनदुर्ग कहते हैं ।
जलदुर्ग और पर्वतदुर्ग देश की रक्षा के लिए तथा धन्यदुर्ग एवं वनदुर्ग आटविकों की रक्षा के लिए होते है। राजा भो शत्रुकृत आक्रमणों से उत्पन्न आपति के समय भागकर इन दुर्गों में आश्रय ले सकता है। मनु ने छह प्रकार के दुर्गा का वर्णन किया है। उनके अनुसार धन्वदुर्ग, महीदुर्ग, जलदुर्ग, वृक्ष दुर्ग, मदुर्ग तथा गिरिदुर्ग
आदि युगों के भेद है । इम दुर्गों की व्याख्या भी मनु ने की है। उन्होंने गिरिदुर्ग को विशेष महत्व दिया है। शुक्रनीतिसार में सात प्रकार के दुर्गों का वर्णन मिलता है। शुक्र के अनुसार एरिणदुर्ग, पारिखदुर्ग, वनदुर्ग, पन्चदुर्ग, जलदुर्ग, गिरिदुर्ग तथा सैन्यदुर्ग आदि दुर्गा के भेद है। उन्होंने इन सात प्रकार के दुर्गा की व्याख्या भी की है जो इस प्रकार है-जो दुर्ग झाड़ी, कोटे, पत्थर, कसरभूमि तथा गुप्तमार्गयुक्त हों उसे एरिणदुर्ग कहते हैं । जिस दुर्ग का परकोटा ईट, पत्थर, मिट्टी आदि की दीवार से बना हो उसे पारिखदुर्ग कहते है। जो विशाल चने वृक्षों और काँटों से घिरा हो उसे वनदुर्ग कहते हैं। जिस दुर्ग के चारों ओर जल का प्रवाह हो उसे धन्बदुर्ग कहते हैं और जो दुर्ग जल से घिरा हो उसे जलदुर्ग कहते हैं। जो बड़े ऊँचे स्थान पर निर्जन स्थान में बनाया जाये उसे गिरिदुर्ग कहते हैं। जिस दुर्ग में सैनिक शिक्षा के विशेषज्ञ शूरवीर हों और जो अजेय हो उसे सैन्यदुर्ग कहते है। जिस में शूरवीरों के अनुकूल बन्धुजन रहते हों वह सहायदुर्ग कहलाता है। पारिख से एरिण, एरिण से पारिस और पारिख से वनदुर्ग श्रेष्ठ है। सहायदुर्ग और सैन्यदुर्ग सम्पर्ण दुर्गों के साधन है। इन के अभाव में समस्त दुर्ग व्यर्थ है। समस्त दुर्गों में आचार्यों ने सैन्यदुर्ग को ही महत्त्व दिया है।
आचार्य कौटिल्य ने भी दुर्गों के भेदों पर प्रकाश डाला है। उन के अनुसार
१. मनु०७, ७०-७१। धनुर्वर्ग महीदुर्गमदुर्ग वामेत्र वा।
गर्ग Firरितु वा समाश्रित्य सरपुर । सर्वेग तु प्रयत्नेन गिरिदुर्ग रामाश्रया। एपा हि बहुगुण्येन गिरिदु विशिष्यते ।
३. बही।
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औदकदुर्ग, पार्वत, सातनदुर्ग दवा मग शादि गौ के चार प्रकार हैं। महाभारत में छह प्रकार के दुर्गों का उल्लेख मिलता है--{१) पनवदुर्ग, (२) महीदुर्ग, ( ३) गिरिदुर्ग, ( ४ ) मनुष्यदुर्ग, (५) मृत्तिकादुर्ग, ( ६ ) वनदुर्ग । पुराणों में भी दुर्गों का वर्णन मिलता है। ऋषि वाल्मीकि ने भी लंका वर्णन में लंकानगरी को अनेक प्रकार के दुर्गों से सुरक्षित बतलाया है। दुर्ग के गुण
माचार्य सोमदेवसूरि ने दुर्ग की विशेषताओं का भी उल्लेख किया है । धुर्ग को जिन विभूतियों के कारण विजिगीषु शत्रुकृत उपद्रवों से अपने राष्ट्र को सुरक्षित कर विजय प्राप्त कर सकता है उन का वर्णन आचार्य ने इस प्रकार किया है-दुर्ग की भूमि पर्वत आदि के कारण विषम, ऊंची-नीची तथा विस्तीर्ण होनी चाहिए। जहां पर अपने स्वामी के लिए ही घास, ईषन और जल बहुतायत से प्रास हो सके, परन्तु आक्रमण करने वाले शत्रुओं को समाप्त हो, जहां गेहूँ, चावल आदि अन्न तथा नमक, तेल, घी आदि रसों का संग्रह प्रचुरमात्रा में हो, जिस के प्रथम द्वार से प्रचुर धान्य और रसों का प्रवेश एवं दूसरे से निष्कासन होता हो तथा जहाँ पर वीर सैनिकों का पहरा हो ये दुर्ग को सम्पत्ति है। जहां पर उपर्युक्त सामग्री का अभाव हो वह दुर्ग कारागार के समान अपने स्वामी के लिए घातक होता है ( २०, ३)।
दुर्ग की सम्पत्ति के विषय में मनु, कामन्दक तथा शुक्र ने भी प्रकाश डाला है। मनु का कथन है कि धुगं शस्त्र, धन-धान्य से युक्त, वाहनों, विद्वानों, कलों को जानने वालों, कलो, जल और धन से युक्त होना चाहिए । शत्रुदुर्ग पर अधिकार करने के उपाय
राजा किस प्रकार अपने शत्रु के दुर्ग पर अधिकार प्राप्त कर सकता है, इस विषय में भी सोमदेव ने प्रकाश डाला है। उन के अनुसार शत्रुदुर्ग पर अधिकार करने के निम्नलिखित उपाय है
१. अभिगमन-सामादि उपाय द्वारा शत्रुदुर्ग पर शस्त्रादि से सुसज्जित सैन्य प्रविष्ट करना ।
१.कौ० अर्थ, २, ३। २. महास, शान्ति.०८४, ५।
धन्त्र महीदुर्ग गिरिनु तथैव च ।
मनुष्यानुग मृदुर्ग अनर्ग'च हानि पट् । ३. वायु०८, १०८; मत्स्या २१७, ६-७; अग्निा , २२२, ४-५ । ४. रामायण. युद्धमाट-३, २० ।
लता पुनिराजम्मा देवसूर्गा भयावहा ।
दादेयं गात चान्य कृत्रिम न चतुर्दिधम् । ६. मनु०, ५,७५कामन्दक, ५, ६५ दाङ्गा०, १, २९२-२१६ । ६. मनु, ७,७६ ।
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२. उपजाप - विविध उपायों द्वारा शत्रु के अमात्य आदि अधिकारियों में भेद डालकर उन्हें शत्रु के प्रतिद्वन्द्वी बनाना !
३. चिनिबन्ध - शत्रु के दुर्ग पर सैनिकों को चिरकाल तक घेरा डालना । ४. अवस्कन्द-प्रचुर सम्पत्ति और मान देकर वश में करना । ५. तीक्ष्णपुरुषप्रयोग - घातक गुप्तचरों को शत्रु राजा के पास भेजना ! उपर्युक्त पाँच उपाय आचार्य सोमदेवसूरि ने शत्रदुर्ग पर अधिकार करने में सहायक बतलायै हैं ( २०, ६) । शुक्र ने भी कहा है कि विजिगीषु शत्रुदुर्ग को केवल युद्ध द्वारा हो नष्ट नहीं कर सकता । अतः उसे शत्रु के अधिकारियों में भेद और उपायों का प्रयोग करना चाहिए।
आचार्य सोमदेव ने दुर्गप्रवेश के सम्बन्ध में भी उपयोगो विचार व्यक्त किये है। उनका कथन है कि राजा ( विजिगीषु ) ऐसे व्यक्ति को अपने दुर्ग में कभी प्रविष्ट न होने दे जिस के हाथ में राजमुद्रा नहीं दी गयी है तथा जिस को पूर्णरूपेण परीक्षा न कर ली गयी हो । किसी ऐसे व्यक्ति को दुर्ग से बाहर जाने की भी आज्ञा नहीं देनी चाहिए ( २०, ७) । इस विषय में उन्होंने कुछ ऐतिहासिक प्रमाण प्रस्तुत किये हैं । उनका कथन है कि इतिहास के अध्ययन से ज्ञात होता है कि हूण देश के नरेश ने अपने सैनिकों को विक्रय योग्य वस्तुओं का धारण करने वाले व्यापारियों के वेश में दुर्ग में प्रविष्ट कराया और उन के द्वारा दुर्ग के स्वामी को मरवा कर चित्रकूट देश पर अपनो अधिकार कर लिया। आगे आचार्य लिखते हैं कि किसी शत्रु राजा ने कांचो नरेश की सेवा के बहाने से भेजे हुए शिकार खेलने में प्रवीण खड्गधारण में अभ्यस्त सैनिकों को उसके देश में भेजा जिन्होंने दुर्ग में प्रविष्ट होकर भद्र नाम के राजा को मारकर अपने स्वामी को कांची देश का अधिपति बना दिया (२०, ८-९ ) ।
उपर्युक्त समस्त वर्णन से स्पष्ट होता है कि प्राचीन काल में दुर्ग का बहुत महत्वपूर्ण स्थान था । इस के महत्त्व के कारण हो राजनीतिज्ञों ने दुर्ग की इतनी महिमा बतायी है । जिस प्रकार मनुष्य पर आक्रमण होने पर सर्वप्रथम उस के हाथ हो आक्रमण को रोकते हैं उसी प्रकार शत्रु के आक्रमण का सामना सर्वप्रथम दुर्ग ही करता है । प्रागैतिहासिक काल से ही भारत में दुर्गं रचना का विधान रहा है । ऋग्वेद में आयसिपुर: ऐसा वर्णन आता है, जिस का अभिप्राय लोहनिर्मित पुर से है जिसे दुर्गगत् हो समझना चाहिए । इन्द्रप्रस्थ में पाण्डवों का दुर्ग आज भी उस काल की
.
दुर्गों का बहुत महत्व था । इसी दुर्गों का उल्लेख अर्थशास्त्र में
दुर्गप्रियता का परिचय दे रहा है। कारण कौटिल्य ने दुर्ग-रचना एवं किया है ।
मौर्यकाल में भी विविध प्रकार के
१, शुक्र नीतिना० पृ० २०० प्रशार
कथंचन ।
मुक्ता वा पायांश्व तत्मात्तान् विनियोजयेत् ।
दुर्ग
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.. राजपूतकाल में भी दुर्गों का महत्त्व कम नहीं हुआ। राजस्थान अपने पर्वतीय दुर्गों के लिए प्रसिद्ध है। आगरा तथा दिल्ली के दुर्ग इस बात के प्रत्यक्ष प्रमाण है कि मुगलकाल में भी दुर्गों का महत्त्व बना रहा। ग्वालियर का दुर्ग आज भी उस काल के पर्वतीय 'दुर्गों की स्मृति दिलाता है। राजस्थान में पर्वतीय दुर्गों का जाल सा बिछा हुआ था। किन्तु आज उन दुर्गों के ध्वंसावशेष ही दृष्टिगोचर होते हैं। महाराष्ट्र देश भी दुर्गो' का देश रहा है। महाराजा शिवाजी इन्हीं दुर्गों पर अधिकार करने के उपरान्त अपनी राजनीति में सफल हुए । सिंहगढ़, रोहिन्दा, चकन, तोणं, पुरन्दर, सूपा, बारामनी, जावली, कल्याण तथा भिनन्दी आदि प्रसिद्ध दक्षिण भारत के दुर्गो पर आक्रमण कर के तथा अपनी नोसिकुशलता से सब को अपने अधिकार में कर लिया। इन दुगो पर अधिकार हो जाने के कारण हो शिवाजी ने अपने शत्रुओं को पराजित किया और अंगरेजों के दांत खट्टे कर दिये । इस के अतिरिक्त महाराष्ट्र प्रदेश जो कि एक पहाड़ी प्रदेश है, उस की पहाड़ियों पर मराठों ने अनेक दुर्गों का निर्माण किया ६ जिन र अधिकार का नया
भारत में अंगरेजों के आगमन से दुर्गरचना का पराभव होने लगा, क्योंकि अब इन दुर्गों का महत्त्व नवीन अस्त्र-शस्त्रों के निर्माण के कारण उवना न रहा जितना कि धनुष, भाला, तलवार थाथि शस्त्रों के युग में था। इन नवीन अस्त्र-शस्त्रों ने सीमा की सुरक्षा एवं देश-रक्षा का दायित्व धारण कर लिया और देश की सोमाओं पर इन अस्त्रों को स्थापित कर के सारे देश को ही दुर्ग के रूप में परिणत करने को नवीन प्रणाली का सूत्रपात हुमा ।।
किन्तु आधुनिक युग में दुर्ग विषयक भावना वर्तमान राजनीतिज्ञों के मस्तिष्क से पूर्णरूपेण बिलुप्त नहीं हुई है। समस्त राष्ट्र को दुर्ग के रूप में परिणत करने की नबीन भावना यत्र-तत्र दृष्टियोचर होती है। यह माना कि स्थल के आक्रमणों से सुरक्षा के लिए दुर्गों की उतनी आवश्यकता अब नहीं रह गयी है जितनी कि प्राचीन काल में थी। किन्तु आकाश में वायुयानों द्वारा आक्रमण से रक्षा के लिए प्रमुख देशों में योजनाबद्ध भूगह-रचना की योजना विस्तार पर है। देश-काल के अनुसार विधि और ध्यवस्था में परिवर्तन अवश्य हो गया है, किन्तु फिर भी मानव के मस्तिष्क में दुर्ग की भावना अभी तक पूर्ववत् ही निहित है। दुर्ग का महत्त्व युद्ध-काल में ही अधिक होता है । रक्षात्मक युद्ध इन दुर्गों के द्वारा बड़ी सुगमता से संचालित किया जा सकता है क्योंकि दुर्ग की अल्पशक्ति ही महान् बाह्य शक्ति का सामना करने में समर्थ होती है जैसा कि मनु का विचार है।
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' कोप
राजशास्त्र के प्रणेताओं ने राज्योगों में कोष को बहुत महत्त्व दिया है। प्राचार्य सोमदेव लिखते हैं कि कोष हो राजाओं का प्राण है (२१, ५)। संचित कोष संकटकाल में राष्ट्र की करता है। वहीं राजा राष्ट्र की सुरक्षित रख सकता है जिस के पास विशाल कोष है । संचित कोष बाला राना ही ग्रुद्ध को दीर्घकाल तक चलाने में समर्थ हो सकता है । दुर्ग में स्थित होकर प्रतिरोधात्मक युद्ध को चलाने के लिए भो सुदृाह कोष को आवश्यकता होती है । इसलिए कोष को क्षीण होने से बचाने तथा संचित कोष को वृद्धि करने के लिए प्राचीन आचार्यों ने अनेक उपाय बताये हैं। राजनीति के अन्धों में अपने महत्त्व के कारण ही कोष एक स्वतन्त्र विषय रहा है । बाचार्य सोमदेव ने भी अन्य आचार्यों की भांति इस विषय पर भी प्रकाश डाला है । नीतिवाक्यामृत में कोष' समुहमा कोष सम्बन्धी बातों का दिग्दर्शन कराता है। कोष की परिभाषा
आचार्य सोमदेव ने कोष समुद्देश के प्रारम्भ में ही कोष की परिभाषा दी है। उन के अनुसार जो विपत्ति और सम्पत्ति के समय राजा के तन्त्र की वृद्धि करता है और उस को सुसंगठित करने के लिए धन की वृद्धि करता है वह कोष है (२१,१)। धनाढय पुरुष अथवा राजा को धर्म और धन की रक्षा के लिए तथा सेवकों के पालनपोषण के लिए कोष की रक्षा करनी चाहिए । कोष को उत्पत्ति राम के साथ ही हुई है। जैसा कि महाभारत के इस वर्णन.से प्रकट होता है। प्रजा ने मन के कोप के लिए पशु और हिरण्य का पचासर्वा भाग तथा धान्य का दसवाँ भाग देना स्वीकार किया। कोष का महत्त्व
समस्त श्राधामों ने कोष का महत्त्व स्वीकार किया है। आचार्य सोमदेव का पूर्वोक्त कथन-कोष ही राजाओं का प्राण है-इस के महान् महत्व का घोतक है।
आचार्य सोमदेव आगे लिखते हैं कि जो राजा कौड़ी-कौड़ी कर के अपने कोष की वृद्धि नहीं करता उस का भविष्य में कल्याण नहीं होता (२१, ४) ।
१. महा० शान्ति.६७, २३-२४ ।
कोष
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माचार्य कौटिल्य कोष' का महत्त्व बतलाते हुए लिखते हैं कि सम का मूल' कोष ही है अतः राजा को सर्वप्रथम कोष को सुरक्षा के लिए प्रयत्नशील रहना चाहिए।' महाभारत में भी ऐसा वर्णन आता है कि राजा को कोप को सुरक्षा का पूर्ण ध्यान रखना चाहिए । क्योंकि राजा लोग कोष के ही अधीन हैं तथा राज्य की उन्नति भी कोष पर हो आधारित है।' कामन्दक ने कहा है कि प्रत्येक व्यक्ति से मही सुना जाता है कि राजा कोष के आश्रित है । कोष के इस महत्व के कारण हो मनु ने लिखा है कि सरकार तथा कोप का निरीक्षण राजा स्वयं ही करे, क्योंकि इन का सम्बन्ध रागा दी है। याज्ञवल्कर राजा को यह आदेश देते है कि उसे प्रतिदिन राज्य की आय-व्यय का स्वयं निरीक्षण करना चाहिए तथा इस विभाग के कर्मचारियों द्वारा संगृहीत स्वर्ण एवं धनराशि को कोष में जमा करना चाहिए ।'
आचार्य सोमदेव का कथन है कि राज्य की जन्मति कोष से होती है न कि राजा के शरीर से (२१, ७)। भागे वे लिखते हैं कि जिस के पास कोष है वही युद्ध में विजयो होला है (२१, ८)। इस प्रकार आचार्य कोष को राज्य की सर्वांगीण उन्नति एवं उस की सुरक्षा का अमोध साधन मानते हैं। कोप पाले राजा को सेवक और सैन्य सब कुछ सुलम हो सकते है, परन्तु कोष विहीन राजा को कोई भी वस्तु सुलभ नहीं होती । कोषहीन राजा नाममात्र का हो राजा है । क्षीण कोष वाला राजा अपनी प्रजा पर धन-संग्रह के लिए अनेक प्रकार के अत्याचार करता है, जिस के परिणामस्वरूप प्रजा दुःखी होती है और वह उस के अत्याचार से तंग आकर उस देश को छोड़कर अन्यत्र चली जाती है। इस से राजा जनशक्ति विहीन हो आता है. (२१, ६)। उत्तम कोष
इस बात से सभी विद्वान सहमत हैं कि राज्य की प्रतिष्ठा, रक्षा एवं विकास के लिए कोष की परम आवश्यकता है। इस के साथ ही आपार्यों ने इस बात पर भी प्रकाश डाला है कि कौन-सा कोष उत्तम है। आचार्य सोमदेव उत्तम कोष का वर्णन करते हुए लिखते है कि जिस में स्वर्ण, रजत का प्राबल्य हो और व्यावहारिक नाणकों ( प्रचलित मुद्राओं) की अधिकता हो तथा जो आपत्काल में बहुत व्यय करने में समर्थ हो वह उत्तम कोष है (२१, २)।
१, कौ० अर्थ०२, ८ ।
कोशमूलाः कोशपूर्वः सबारम्भाः । तस्मान कोशमक्षेत। २. महा० शान्ति० ११६, १६।। ३. कामन्दक-१३.३३।
कोशमुलो हि राजेति प्रसाद साधलौकिकः। ५. मनु० ७,६५। • माज्ञः १, ३१७-२८ ।
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आचार्य सोमदेव ने कोष के गुणों की जो व्याख्या की है वह आर्थिक दृष्टि से बहुत महत्त्वपूर्ण है । आपत्ति-काल में धान्य और पशुओं के विक्रय से पर्याप्त धन प्राप्त नहीं हो सकता । अतः जिन वस्तुओं का विक्रय तुरन्त हो सके और अल्प वस्तु अधिक मूल्य में बिक सके ऐसी ही वस्तुओं का अधिक मात्रा में राजकोष में संग्रह होना आवश्यक है | इसी उद्देश्य से सोमदेव ऐसी वस्तुओं का संग्रह करने के लिए राजा को परामर्श देते है | नाणक की भी कोष में बड़ी आवश्यकता रहती है, क्योंकि सेना कोर अन्य राजकर्मचारियों को वेतन में नाणक ( प्रचलित मुद्रा ) ही देना पड़ता है। इस मुद्रा से व्यक्ति अपनी आवश्यकता की वस्तुओं का सरलता पूर्वक क्रय कर सकता है । स्वर्ण एवं रजत की अधिक मात्रा होने से नाणक तैयार किये जा सकते हैं। इसलिए उत्तम कोष बही है जिस में सोना एवं रजत अधिक मात्रा में हो। इस के अतिरिक्त यदि कोई शत्रु राजा के देश पर आक्रमण कर दे और उस के पास युद्ध करने के लिए पर्याप्त सेना न हो अथवा पराजय की आशंका हो तो राजा साम-दामाद से शत्रु को लौटा सकता है । शत्रु को तभी धन से सन्तुष्ट किया जा सकता है जब कि राजा का कोश स्वर्ण एवं रजत से परिपूर्ण हो ।
कोषविहीन राजा
आचार्य सोमदेवसूरि ने धनहीन राजा को निन्दा की है, क्योंकि उन की दृष्टि में राज्य की प्रतिष्ठा एवं सुरक्षा की आधारशिला कोश ही है। आचार्य का कथन है कि धनहीन व्यक्ति को तो उस की स्त्री भी त्याग देती है फिर अन्य पुरुषों का तो कहना ही
( २१, ९ ) । इस का अभिप्राय यह है कि घनहीन राजा को उस के सेवक तथा जिस से वह असहाय कथन है कि धनहीन
पदाधिकारी त्याग कर अन्य राजा की सेवा में चले जाते हैं। अवस्था को प्राप्त होकर नष्ट हो जाता है। आचार्य का यह भो व्यक्ति ( राजा ) चाहे कितना ही कुलीन एवं सदाचारी क्यों न हो, सेवकगण उस की सेवा करने को प्रस्तुत नहीं होते, क्योंकि वहाँ से उन्हें जीविका के लिए धन प्राप्ति की कोई आशा नहीं होती ( २१, १०) उसके विपरीत नीच कुल में उत्पन्न हुए एवं चरित्रभ्रष्ट व्यक्ति से धनाढ्य होने के कारण उसे श्रन का स्रोत समझ कर सभी लोग उस की सेवा के लिए प्रस्तुत रहते हैं । उक्त विवेचन का अभिप्राय यही है कि कुलीन और सदाचारी होने पर राजा को राजतन्त्र के नियमित तथा व्यवस्थित रूप से चलाने के लिए न्यायोचित उपायों द्वारा कोष की वृद्धि करनी चाहिए । "आचार्य सोमदेव ने आगे लिखा है कि उस तालाब के विस्तीर्ण होने से क्या लाभ है जिस में पर्याप्त जल नहीं है ( २१, ११) । परन्तु जल से परिपूर्ण छोटा तालाब भी इस से कहीं अधिक प्रशंसनाय है । सारांश यह है कि मनुष्य कुलीनता आदि से बड़ा होने पर यदि दरिद्र है तो उस का बड़प्पन व्यर्थ है, क्योंकि उस से कोई મૈં भी कार्य सिद्ध नहीं हो सकता । अतः नैतिक उपायों द्वारा धन का संग्रह करना महत्त्वपूर्ण बतलाया हूँ ।
कोष
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रिक्त राजकोष की पूर्ति के उपाय आचार्य सोमदेवसूरि ने रिक्त डाला है । उन के अनुसार राजकोष की
राजकोष की पूर्ति के उपायों पर भी प्रकाश पूर्ति के निम्नलिखित उपाय हैं
१. ब्राह्मण और व्यापारियों से उन के द्वारा संचित किये हुए धन में से क्रमश: धर्मानुष्ठान, यज्ञानुष्ठान और कौटुम्बिक पालन के अतिरिक्त जो धनराशि शेष बचे उसे लेकर राजा को अपनी कोष वृद्धि करनी चाहिए ।
२. धनाढ्य पुरुष सन्तान विहीन, धनी व्यक्ति, विधवाओं का समूह और कापालिक - पाखण्डी लोगों के धन पर कर लगाकर उनकी सम्पत्ति का कुछ अंश लेकर अपने कोष की वृद्धि करे ।
३. सम्पत्तिशाली देशवासियों की प्रचुर धनराशि का विभाजन भो-भाँति निर्वाह मोग्म धनराशि छोड़कर उन से आर्थना पूर्वक धन कोष की वृद्धि करनी चाहिए ।
४. अचल सम्पत्तिशाली मन्त्री, पुरोहित और अधीनस्थ सामन्तों से अनुनय और विनय कर के उन के घर जाकर उन से धन याचना करनी चाहिए। और उस धन से अपने कोष की वृद्धि करनी चाहिए ( २१, १४ ) ।
इस प्रकार उक्त चार साधनों से राजा की अपने रिक्त राजकोष की वृद्धि करने का प्रयत्न करना चाहिए। राजा को सर्वदा इस कार्य में प्रयत्नशील रहना चाहिए। उसे अपना राजकोष कभी रिक्त नहीं रहने देना चाहिए। कोष ही राज्य की प्राणशक्ति है और उस के अभाव में वह नष्ट हो जाता है।
आय व्यय
कर के उन के ग्रहण कर के
सम्पत्ति उत्पन्न करने वाले न्यायोचित साधन अथवा उपाय, कृषि, व्यापारादि एवं राजा द्वारा उचित कर लगाना आदि को आय कहा गया है। स्वामी की आज्ञानुसार धन खर्च करना व्यय है। आचार्य सोमदेव का कथन है कि राजा अपनी आय के अनुकूल हो व्यय करे, क्योंकि जो राजा आय का विचार न कर के अधिक व्यय करता है वह कुबेर के समान असंख्य धन का स्वामी आचरण करने वाला हो जाता है ( १६, १८) । एक अन्य नित्य धन के व्यय से सुमेरु भी क्षीण हो जाता है (८, ५) आय व्यय वाला कार्य आनन्ददायक है । शुक्र का कथन है आय का षद्-भाग सेना पर व्यय करें, बारह भाग दान में, मन्त्रियों पर अन्य राजकर्मचारियों पर तथा अपने व्यक्तिगत कार्यों पर व्यय करे। इन समस्त बातों का अभिप्राय यही है कि राजा को अधिक व्यय नहीं करना चाहिए ।
होकर भी भिक्षुक के समान स्थान पर वे लिखते हैं कि आचार्य के विचार से समान कि राजा अपनी वार्षिक
१. ० १.३१५-१७ |
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राज-कर के सिद्धान्त
प्राचीन काल में कर के कुछ निश्चित सिद्धान्त ये जिन का उल्लेख धर्मशास्त्रों में विशेषरूप से हुआ है। राजा प्रजा पर कर लगाने में स्वतन्त्र नहीं था, अपितु वह उन्हीं करों को प्रजा पर लगा सकता था जिन का प्रतिपादन स्मृतिग्रन्थों द्वारा किया गया है। स्मृतियों द्वारा निर्धारित कर के सिद्धान्तों का पूर्णरूप से पालन किया जाता था। धर्मशास्त्रों एवं स्मृतियों द्वारा प्रतिपादित कर के सिद्धान्त निम्नलिखित है
(१) राजकीय कर का निर्धारण स्वेच्छा से न किया जाये अपितु धर्म शास्त्रों में निर्धारित कर ही प्रजा से प्रण किया जाये । सोमदेव का भी यही मत है। उन का कथन है कि अन्याय से अणशलाका का लेना भी प्रजा को महान् कष्टदायक होता है और इस से प्रजा राजा के विरुद्ध हो जाती है ( १६, २३ ) । अन्यत्र वे लिखते हैं कि अन्याय प्रवृत्ति चिरकाल तक सम्पत्तिदायक नहीं होती ( १७, २०)। जो राजा भारी कर लगाकर प्रजा को पीड़ित करता है वह स्वयं नष्ट हो जाता है। आचार्य सोमदेव का कम्पन है कि जो राजा अपनी प्रजा को समस्त प्रकार के कष्ट देता है उस का कोष नष्ट हो जाता है ( १२, १७) । अतः कर प्रजा को कष्टदायक नहीं होना चाहिए ।
(२) कर का दूसरा सिद्धान्त यह था कि राजकीय कर मुलोच्छेद करने वाला नहीं होना चाहिए । अधिक कर लगाने से कर देने वालों की जड़ का सच्छेदन हो जाता है और इस से राजा का भी मूलीच्छेद हो जाता है। आचार्य सोमदेव ने लिखा है कि कर में अधिक वृद्धि करने से सम्पूर्ण राष्ट्र दरिद्र होकर नष्ट हो जाता है। अतः न्यायी राजा को अपने प्रजा से उचित कर ही लेना चाहिए जिस से राष्ट्र की श्रोद्धि होती रहे ( १६, २५ ) । अन्यत्र वे लिखते हैं कि प्रजा का वैभव ही स्वामी का वैभव है इसलिए युक्ति से जनता के वैभव का उपभोग करना चाहिए ( १६, २७ ) । इस का अभिप्राय यही है कि राजा को प्रषा से उतना ही कर ग्रहण करना चाहिए जितनी उस की सामर्थ्य हो। यदि जनता पर अधिक कर लगा दिया जायेगा लो कर के मार से दबी हुई जनता दरिद्र हो जायेगी और ऐसी स्थिति में राजा और प्रजा दोनों को ही हानि होगो । दरिद्र जनता से राजा को धन प्राप्त नहीं हो सकेगा। ऐसा भी सम्भव हो सकता है कि अत्याचारों के भय से जनता राजा का देश छोड़कर अन्यत्र जा बसे । अतः राजा का यह कर्तव्य है कि उचित करों के निर्धारण से जनता को वैभवशाली बनाये, क्योंकि इसी में राजा का हित है। यदि राजा केवल अपनो आर्थिक स्थिति को ही सुधारता है और जनता की आर्थिक दशा की ओर कोई ध्यान नहीं देता तो प्रजा उसे त्याग देती है । जनता के अन्यत्र चले जाने से राज्य का प्रमुख तत्त्व ( जनता ) ही नष्ट हो जाता है और इस प्रकार राज्य का अस्तित्व भी असम्भव हो जाता है।
आचार्य सोमदेव का मत है कि अधिक कर लगाकर जनता का मूलोच्छेद करना सर्वथा अनुषित है। जिस प्रकार वृक्ष के काटने से केवल एक बार ही फल प्राप्त हो सकते हैं भविष्य में नहीं ( १६, २६ )। इसी प्रकार यदि जनता पर प्रारम्भ में ही कोष
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भारी कर लगा दिये जायेंगे तो राज्य को केवल एक बार ही अधिक धन प्राप्त हो सकेगा। भविष्य में उसे धन की प्राप्ति नहीं हो सकेगी, क्योंकि भारी करों को एक बार अदा कर के जनता ग़रीब हो जायेगी और फिर वह कर देने योग्य न रहेगी। अत: राजा को कभी लोभ अथवा तृष्णा के वशीभूत होकर प्रजा पर भारी कर नहीं लगामा पाहिए।
महाभारत में बछड़े का उदाहरण देकर यह बताया गया है कि जिस प्रकार बछड़े का पोषण भली-भांति करने से वह भारी बोझा कोने में समर्थ होता है, उसी प्रकार जनता पर अल्प कर लगाकर उस को समृद्ध बनाने से वह भी महान कार्यों के करने में समर्थ होती है। यदि प्रारम्भ में ही उस पर अधिक कर लगा दिया जायेगा तो वह महान् कार्यों के करने में असमर्थ होगी। उस से राजा को भी अर्थ की प्राप्ति नहीं हो सकेगी। अतः राजा को प्रणा पर अधिक कर नहीं लगाने चाहिए।
कर का तीसरा सिद्धान्त यह था कि राजकर ऐसा होना चाहिए जो प्रजा को भारी मालूम न हो। म काकार है कि प्रयासको भय माना में कर पाहण करे जिस से जनता कर को भारस्वरूप न समझे । राजा को प्रजा के साथ कर के सम्बन्ध में जलोंक, बछड़ा तथा भ्रमर फा-सा व्यवहार करना चाहिए। महाभारत में कहा गया है कि जिस प्रकार मधु-मक्खी पुष्पों एवं पत्तियों को हानि पहुँचाये दिना पुष्पों से मधु महण करती है उसी प्रकार राजा को प्रज्ञा से कोई हानि पहुँचाये बिना ही कर प्राप्त करना चाहिए। इन समस्त उदाहरणों का तात्पर्य यही है कि प्रना पर उतना ही कर लगाना चाहिए, जिसे वह सरलता पूर्वक दे सके। आचार्य सोमदेव भी इसी सिद्धान्त में विश्वास रखते हैं।
कर के सम्बन्ध में चोथा सिद्धान्त यह था कि कर देश काल के अनुरूप ही लिया जाये। यदि इस नियम का उल्लंघन किया जायेगा तो प्रजा राजा के विरुद्ध हो जायेगी । आचार्य सोमदेव का कथन है कि राजा प्रजा से अपने देशानुकूल ही कर ग्रहण करे ( २६, ४१) । अन्यथा उत्तम फसल आदि न होने के कारण प्रजा राजा से विद्रोह करने को कटिबद्ध हो जाती है । भागे आचार्य लिखते है कि जिन व्यक्तियों को राजा ने पहले करमुक्त कर दिया है, उन से उसे पुनः कर ग्रहण नहीं करना चाहिए, क्योंकि ऐसा आचरण करने में उस की प्रतिष्ठा एवं कीर्ति में वृद्धि होगी (१९, १८)। सोमदेव का यह भी कथन है कि मर्यादा का अतिक्रमण करने से उर्वरा भूमि भी अरण्य तुल्य हो जाती है ( ११, १९)। इसी प्रकार के अन्यत्र लिखते हैं कि अन्याय से त्रगशलाका का ग्रहण करना भी प्रजा को कष्टदायक होता है ( १६, २३ )।
इस प्रकार प्राचीन काल में कर के सिद्धान्त निश्चित थे। जिन का उल्लेख
१. महा० शान्द्रि०८७, २०-२१ । २. मनु०७, १२६ । ३. महा० उद्योगः ३५, १-१८ ।
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धर्मशास्त्रों एवं अर्थशास्त्रों में मिलता है। यदि राजा इन नियमों को उपेक्षा करने का साहस करता था तो प्रजा उस के विरुद्ध हो जाती थी। इसी भय से सामान्यतः प्राचीन भारत में कर के उपर्युक्त सिद्धान्तों का पूर्णरूपेण पालन किया जाता था ! राजकर साधन था न कि साध्य
___ आचार्य सोमदेव ने कोप वृद्धि में केवल धार्मिक और न्यायिक साधनों का प्रयोग करने की अनुमति दी है। अधार्मिक साधनों द्वारा कोष वृद्धि का उन्होंने सर्वत्र विरोध गया है। जिला है कि मान कोरलीन राणा काय पूर्वक प्रजा से धन ग्रहण करता है तो प्रजा उस का देश छोड़कर अन्यत्र चली जाती है और इस प्रकार राष्ट्र जनशून्य हो जाता है ( २१, ६)। बिना प्रजा के राज्य का अस्तित्व भी नहीं रहता। अन्यत्र माचार्य लिखते हैं कि यदि राजा प्रयोजनाथियों से इष्ट प्रयोजन न कर सके तो उसे उन की भेंट स्वीकार नहीं करनी चाहिए, क्योंकि ऐसा करने से लोक में उस की हँसो और निन्दा होती है ( १७, ५०)। राजा को अपराधियों के जुर्माने से आये हुए, जुआ में जीते हुए, युद्ध में मारे गये, नदी, तालाब और मार्गों आदि में मनुष्यों के द्वारा भूले हुए धन का तथा चोरी के धन का, पति, पुत्रादि कुटुम्बियों से विहीन अनाथ स्त्री का अथवा रक्षकहीन कन्या का धन एवं विप्लव आधि के कारण जनता द्वारा छोड़े हुए धन का स्वयं उपभोग कदापि नहीं करना चाहिए ( ९, ५)। इस प्रकार के धन का उपयोग प्रजा की भलाई के कार्यों में न तो किया जा सकता था, कितु उस का उपभोग राजा के लिए निषिद्ध था।
राजकर राजा का वेतन था
धर्म ग्रन्थों में कर को राजा का वेतन बताया गया है। महाभारत में जनता से प्राप्त धन को राजा का वेतन ही कहा गया है।' कौटिल्य ने भी घान्य के छठे भाग और पण्य के दसवें भाग को राजा का भागदेय बतलाया है। अन्य नोतिग्रन्थों में भी राजा को स्वामी रूप में मानकर भी प्रजा-पालन के लिए स्वभागरूपी वृत्ति के प्राप्त करने से उसे ( राजा को ) प्रजा का दास ही बताया गया है । प्रजापालन करने के उपलक्ष्य में ही राजा को कर के रूप में धन प्राप्त होता था । नीतिवाक्यामृल में ऐसा उल्लेख आता है कि पालन करने वाला राजा सब के धर्म के छठे अंश को प्राप्त करता है (७, २३) । आगे यह भी कहा गया है कि उस राजा को यह छठा भाग होवे जो हमारी रक्षा करता है (७, २५) । इन सूत्रों से महो ध्वनि निकलती है कि प्रजा राना को उस की सेवाओं के उपलक्ष्य में ही धन कर स्वरूप देती थी।
१. महा० शान्ति.९१, १० । २. कौ० अ०१०१३। ३. शुक्र० १. १८८।
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आय के स्रोत
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प्राचीन काल में राज्य की आय के दो प्रमुख स्रोत थे - ( १ ) भूमि कर तथा ( २ ) अन्य वस्तुओं पर लगने वाला कर राजा की आय का प्रमुख साधन भूमि कर ही या जो प्रायः उपज का छठा अंश ही था। परन्तु यह नियम सर्वत्र समान नहीं था । इस का कारण यह था कि कहीं भूमि अधिक उपजाऊ थी और कहीं कम । भूमि की उर्वर शक्ति तथा उस की सिचाई आदि की व्यवस्था के आधार पर ही नोविकारों ने भूमि कर की दर निश्चित की थी। गौतम तथा मनू का कथन है कि राजा साधारण स्थिति में प्रजा से उपज का छठा भाग भूमि कर के रूप में ग्रहण करे। किन्तु विषय स्थिति में इस से अधिक भी कर दिया जा सकता था । मनु तथा कौटिल्य विषम स्थिति में राजा को प्रज्ञा से अधिक कर देने की अनुमति प्रदान करते हैं । उन का कथन है कि राजा आपद्-कालीन स्थिति में कृषकों से उपज का तीसरा भाग अथवा चतुर्थांश भूमि कर के रूप में ग्रहण कर सकता है । वे यह भी लिखते हैं कि इस प्रकार का अधिक कर प्रजा से प्रार्थना पूर्वक ही प्रहण किया जाये न कि शक्ति का भय दिखा कर | आचार्य सोमदेव ने इस सम्बन्ध में कुछ नहीं लिखा है कि भूमि कर की दर क्या हो । किन्तु नीतिवाक्यामृत के कुछ सूत्रों के आधार पर यह कहा जा सकता है कि सोमदेव भी भूमि कर के सम्बन्ध में उसी प्राचीन परम्परा को मानते थे । त्रयीसमुद्देश के चौबीसवें सूत्र से ज्ञात होता है कि नीतिवाक्यामृत में भी छठे भाग का अनुमोदन किया गया है (७, २४ ) |
२
कृषक वर्ग के प्रति उदारता
आचार्य सोमदेव के मतानुसार कृषकों के साथ राजा का व्यवहार उदारतापूर्वक ही होना चाहिए और अनावृष्टि आदि के कारण यदि फ़सल अच्छी नहीं हो तो उन को लगान में छूट देनी चाहिए या कृषकों को लगान से पूर्णरूपेण मुक्त कर देना चाहिए । कर ग्रहण करने में भी उन के साथ कठोरता का व्यवहार नहीं करना चाहिए । जो राजा लगान न देने के कारण कृषकों की गेहूँ, चावल आदि की अधपकी फसल कटवा - कर उसे हस्तगत कर लेता है वह उन्हें देश-त्याग के लिए बाध्य करता है। जिस के कारण राजा और प्रजा दोनों को ही आर्थिक संकट का सामना करना पड़ता है। ( १९, १५ ) । अत: राजा को कृषकों के साथ इस प्रकार का अन्याय करना सर्वथा
अनुचित है । आगे आचार्य लिखते हैं कि जो समय अपने राष्ट्र के खेतों में से हाथी, घोड़े देश अकाल पीड़ित हो जाता है ( १९, १६ ) ।
राजा पकी हुई धान्य की फ़सल काटते आदि की सेना को निकालता है उस का इस का कारण यह है कि हाथी, घोड़ों
के द्वारा फ़सल नष्ट हो जाती हैं और उस से अन का अभाव हो जाता है तथा अन्ना
भाव के कारण देश में दुर्भिक्ष पड़ जाता है ।
१. गोम० १० २४ मा मनु ७ १३० ।
२. मनु० १०८
० ० २ ।
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इस समस्त विवरण का तात्पर्य यह है कि राजा को कृषकों के साथ अन्याय - पूर्ण व्यवहार कदापि नहीं करना चाहिए और उन की फ़सल को किसी प्रकार को हानि नहीं पहुँचानी चाहिए । कृषकों के साथ उदारता का पवहार करने तथा उन को हर प्रकार की सुविधाएं प्रदान करने से देश में कृषि कर्म एवं वाणिज्य की वृद्धि होती है, ओ कि राज्य की आर्थिक समृद्धि का मूल है। आचार्य सोमदेव का यही विचार है कि वार्ता की समृद्धि में हो राजा को समस्त समृद्धियां निहित है (८, २ ) ।
अन्य प्रकार के कर
भूमि कर के अतिरिक्त अन्य वस्तुओं पर लगने वाले कर भी राज्य की आय के साधन थे । शुल्क से राज्य को पर्यास धन प्राप्त होता था। विक्रेता और क्रेता से राजा को जो भाग प्राप्त होता है वह शुल्क कहलाता है। शुल्क प्राप्ति के स्थान हट्टमार्ग ( चुंगी-स्थान ) बादि है । इन स्थानों का सुरक्षित होना परम आवश्यक है। इस के साथ ही यह भी आवश्यक है कि वहाँ पर न्यायांचित कर ही प्रण किया जाये। यदि वहाँ पर किसी भी प्रकार का अन्याय होगा होला लगाय कर देंगे और इस से राजकीय आय को क्षति पहुँचेगी । आचार्य सोमदेव लिखते हैं कि आय के स्थानों में व्यापारियों से थोड़ा-सा भी अन्याय का धन ग्रहण करने से राजा को महान् आर्थिक हानि होती है, क्योंकि व्यापारियों के क्रय-विक्रय के माल पर अधिक कर लगाने से वे लोग भारी कर के भय से व्यापार बन्द कर देते हैं या छल-कपट का व्यवहार करते हैं जिस के फलस्वरूप राज्य को आर्थिक हानि होती है (१४, १४) । आयात और निर्यात कर
नीतिवाक्यामृत में आयात और निर्यात कर का भी उल्लेख मिलता है । दख सम्बन्ध में भी आचार्य ने कुछ निर्देश दिये हैं। उन का कथन है कि जिस राज्य में अन्य देश की वस्तुओं पर अधिक कर लगाया जाता है तथा जहाँ के राजकर्मचारी बलपूर्वक अल्प मूल्य देकर व्यापारियों से बहुमूल्य वस्तुएं छीन लेते हैं उस राज्य में अच्य देशों से माल आना बन्द हो जाता है (८, ११-१२ ) । इस से राज्य की आय का प्रमुख स्रोत समान हो जाता है। अतः बाहर के माल पर अधिक कर नहीं लगाना चाहिए । अल्प कर लगाने से विदेशी व्यापारियों को देश में माल लाने की प्रेरणा मिलती हैं जोर ये बहुत सा सामान लाते हैं। अधिक मामात होने से उस पर लगने वाले शुल्क से राज्य की आय में पर्याप्त वृद्धि होती है ।
शुल्क
स्थानों की सुरक्षा
किसी देश में बाहर के व्यापारी तभी आ सकते हैं जब कि उन की सुरक्षा की उचित व्यवस्था हो । यदि शुल्क स्थानों पर अथवा मार्ग में उन को चोर आदि लूट लें या वहाँ के अधिकारी अल्प मूल्य देकर उन को बहुमूल्य वस्तुएँ हस्तगत कर लें अथवा
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उन से उत्तोष आदि लेने का प्रयत्न करें तो वहाँ पर विदेशी श्यापारियों का आना बन्द हो जाता है। इसी कारण आचार्य सोमवेव शुल्क स्थानों की पूर्ण सुरक्षा को अत्यन्त आवश्यक समझते हैं। उन का कथन है कि राष्ट्र के शुल्क स्थान जो कि न्याय से सुरक्षित होते हैं अर्थात् जहाँ अधिक कर ग्रहण न कर के न्यायोपित कर लिया जाता है तथा चोरों आदि द्वारा चुरायी गयो प्रजा की धनादि वस्तु पुनः लौटा दी जाती है वहीं पर ध्यापारियों को क्रय और विक्रय योग्य वस्तुओं को अधिक संख्या में दुकानें होने के कारण वे स्थान राजा को मारमोन के समान अभिलाि वरपटान करने वाले होते हैं ( १९, २१)। राज्य की आय के अन्य साधन
पूर्वोक्त रिक्त राजकोष की पूर्ति के उपाय भी राज्य की आय के प्रमुख साधन हैं। इन में सम्पत्ति कर प्रमुख पा । अकस्मात मिला हुआ धन तथा घनाथ पुरुषों को मृत्यु के उपरान्त उन के निःसन्तान होने को स्थिति में उस सम्पत्ति का अधिकारी राना ही होता था ( २१, १४)। इस के अतिरिक अधिक लाभ लेने वाले व्यापारियों के लाभ में से भी राजा को धन को प्राप्ति होती थी (८, १९ )।
उत्कोच लेने वाले राज्याधिकारियों से धन प्राप्त करने के उपाय - भाचार्य सोमदेव ने सत्कोच लेने वाले राज्याधिकारियों की घोर निन्दा की है और उन से राजा को सावधान रहने का परामर्श दिया है। आचार्य का मत है कि राजा को उन लोगों पर कठोर नियन्त्रण रखना चाहिए तथा उन के साथ कभी नहीं मिलना चाहिए। यदि राजा भी उन में धन के लोभ से साझीदार हो जायेगा तो इस से महान् अनर्थ होगा (८, २०)। उस का राष्ट्र एवं कोष सभी कुछ नष्ट हो जायेगा । इस के साथ हो सोमदेव ने उन उपायों का भी उल्लेख किया है जिन के द्वारा उन राज्याधिकारियों से उत्कोच का घन पुनः प्राप्त हो सकता है। इस का सर्वप्रमुख उपाय यही है कि राजकर्मचारियों पर पूर्ण नियन्त्रण रखा जाये, जिस से कि बै प्रजा से उत्कोच लेने का साहस ही न कर सकें। यदि नियन्त्रण रखने पर भी उन्होंने इस अनुषित रीति से धन संग्रह कर लिया है तो उस धन को राजा निम्नलिखित उपायों से ग्रहण करे
१. नित्य परीक्षण-राजा का मह कर्तव्य है कि वह सदैव इन अधिकारियों का निरीक्षण गुप्तचरों की सहायता से करता रहे । यदि इस ढंग से उसे कोई अधिकारी दोषी मिले तो उसे कठोर दण्ड देना चाहिए ।
२. कर्मविपर्यय-उन्हें उच्च पदों से पृथक् कर के साधारण पदों पर नियुक्त करना चाहिए जिस से कि वे भयभीत होकर उत्कोच द्वारा संचित धन को प्रकट करने के लिए विवश हो जायें।
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३. प्रतिपत्रदान--अधिकारियों के लिए छत्र, चेंबर आधि पढ़मूल्य बस्तुएँ भेंटस्वरूप प्रदान करना चाहिए जिससे कि वे अपने स्वामी से प्रसन्न होकर उत्कोच द्वारा संचित किये हुए धन को राजा को सौंप दें।
इस प्रकार आचार्य सोमदेव ने उपर्युक्त तीन जपाय राज्याधिकारियों से उस्कोच आदि का धन अहण करने के सम्बन्ध में बताये है ( १८, ५५ )।
अधिकारी लोग दुष्टन्त्रण के समान बिना कठोर दण्ड दिये घर में उत्कोच द्वारा संचित किया हुआ धन आसानी से देने को प्रस्तुत नहीं होते ( १८, ५६ ) । उन्हें बारबार उच्च पदों से साधारण पदों पर नियुक्त करके भयभीत करना चाहिए। अपनी अवनति से घबड़ाकर चे उत्कोच का धन स्वामी को देने के लिए प्रस्तुत हो जाते हैं ( १८,५७)। जिस प्रकार वस्तु को बारम्बार प्रस्तर पर पटकने से साफ किया जाता है उसी प्रकार अधिकारियों को उन के अपराधी सिद्ध होने पर बारम्बार दण्डित करने से उत्कोच का धन राजा को सौंप देते है ( १८,५८) । अधिकारीवर्ग में आपसी फूट होने से भी राजाओं को कोष की वृद्धि होती है ( १८, ६४ )। इस का तात्पर्य यह है कि अधिकारीवर्ग आपसी फूट के कारण एक-दूसरे का अपराध राजा के सम्मुख प्रकट कर देते है, जिस के कारण सस्कोच आदि से संचित किया हुआ धन अधिकारीवर्ग से राजा को सरलतापूर्वक प्राप्त हो जाता है । इस प्रकार इन समस्त साधनों से राजकोष की वृद्धि को जातो थी । आचार्य सोमदेव ने अधिकारियों को सम्पत्ति को राजाओं का द्वितीय कोष बतलाया है जो कि यथार्थ ही है ( १८, ६५)। भापत्तिकाल में राजा अधिकारियों से प्रार्थनापूर्वक धन प्राप्त कर सकता है ऐसा आचार्य का मत है (२१,१४)। इसी कारण अधिकारियों को सम्पत्ति को राजाओं का वितोय कोष बतलाया गया है। राजस्व विभाग के अधिकारी
नीतिवाक्यामृत में राजस्व विभाग के पांच अधिकारियों का उल्लेख मिलता है ( १८, ५१ ) । इन अधिकारियों के नाम आदायक, निबन्धक, प्रतिबन्धक, नीवी ग्राहक तथा राजाध्यक्ष है।
आदायक का कार्य शुल्क ग्रहण करना तथा व्यापारियों एवं कृषकों से अन्य प्रकार के कर ग्रहण करना था। इस अधिकारी का यह कर्तव्य था कि राजस्व तथा अन्य कर वसुल कर के राजकोष में जमा कर दें। इस प्रकार इस के दो कार्य थे, एक तो कर ग्रहण करना तथा दूसरा, उस संग्रहीत धनराशि को राजकोष में जमा करना । निबन्धक आदायक वा सहायक कर्मचारी था जो कि राजस्व का समस्त विवरण लिखता धा। एक प्रकार से यह आदायक का सम्परीक्षक था। यह संग्रहीत राजस्वकोष का हिसाब देखता था और यह भी देखता था कि जितनी धनराशि राजस्व में प्राप्त हुई है वह राजकोष में जमा हुई है अथवा नहीं । इस प्रकार का निरीक्षण कर के यह उस की
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सूचना राबा को देता था । प्रतिवन्धक का कार्य आदायक द्वारा राजकोष में जमा किये गये राजस्व एवं अन्य करों के विवरण पत्रों पर राममुद्रा अंकित करना था। नोचोग्राहक राजकोष का उच्चाधिकारी होता था। यह वर्तमान कोषाधिकारी के समान धा। यह राजकीय माय-व्यय का लेखा रखता था। उपर्युक्त चारों अधिकारी राजाध्यक्ष के अघोन थे और इसी की अध्यक्षता में कार्य करते थे।
आय-व्यय-लेखा
शासन को भूचारु रूप से चलाने के लिए पाक्षिक प्राशा का लेखा तैयार करना परम आवश्यक है। यदि राजा को इस बात का ही ज्ञान नहीं कि उस की वार्षिक आय क्या है तथा वर्ष में कितना व्यय होगा तो वह अपने राज्य को अधिक समय तक नहीं चला सकेगा। इस का कारण यह है कि आय से अधिक व्यय होने से राष्ट्र में आर्थिक संकट उत्पन्न हो जायेगा और इस के परिणामस्वरूप राज्य मष्ट हो जायेगा । आचार्य सोमदेव ने वार्षिक आय-व्यय का लेखा तैयार कराने का भी निर्देश दिया है। उन का कथन है कि राजा नोवीग्राहक ( कोषाध्यक्ष ) से
राजकीय आय-व्यय की लेखा-बही को लेकर स्वयं उस का निरीक्षण करे तथा उस को विशुद्ध करे ( १८, ५३)। आचार्य का विचार है कि अर्थदूषण से धन-कुबेर भी भिक्षा का पात्र बन जाता है ( १६, १८)। उन्होंने श्राय से अधिक व्यय को अर्थ का दूपण बतलाया हूँ ( १६, ११)। उन का यह भी विचार है कि जन्म आय-व्यय का लेना रखने वाले अधिकारियों में कोई विवाद उपस्थित हो, राज्य की आय कम हो गयी हो तथा संकटकाल में अधिक व्यय की आवश्यकता हो तो ऐसे अवसर पर राजा का यह कर्तव्य है कि वह सदाचारी एवं कुशल राजनीतिज्ञ शिष्ट पुरुर्षों का एक आयोग नियुक्त कर के उस गम्भीर विषय पर विचार-विमर्श करे ( १८,५४)। यदि यह आयोग उस व्यय के पक्ष में हो और उस से अधिक लाभ की सम्भावना है तो उसी के अनुसार कार्य करना चाहिए। इस प्रकार आचार्य सोमदेव आर्थिक विषयों में उच्चापिकारियों से परामर्श करना तथा उस के अनुकूल कार्य करने का निर्देश देते हैं। सन की दृष्टि में समान आय-व्यय वाला कार्य आनन्ददायक है ( १७, ११९)। उन का कथन है कि नित्य घम के व्यय से सुमेरु भी क्षीण हो जाता है ( ८,५)। मत: आम के अनुरूप ही व्यय करना चाहिए।
व्यापारी वर्ग पर राजकीय नियन्त्रण
राज्य का अन्तिम लक्ष्य अनला का कल्याण एवं उस की सर्वतोमुखी उन्नति करना है । व्यापारी वर्ग जन-कल्याण के मार्ग में बाधक बन सकता है। अतः उस पर कठोर नियन्त्रण रखने का आचार्य सोमदेव ने राजा को आदेश दिया है। व्यापार एवं वाणिज्य पर राजकीय नियन्त्रण न होने से व्यापारी वर्ग मनमानी करने लगता है।
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पदार्थों में मिश्रण, तौल में न्यूनता तथा हार्गों भूण्य में गहिराला पर्गको स्वाभाविक मनोवृत्ति होती है। दणिक्जनों को नाप-तौल में अनियमितता करने तथा मिथ्या व्यवहार के कारण सोमदेव ने उन्हें पश्यतो हर बतलाया है (८, १७)। पश्यतो हर शब्द स्वर्णकार के लिए है किन्तु उक्त दूषित प्रवृत्तियों के कारण ही आचार्य सोमदेव ने पणिजन को भी पश्यतो हर कहा है। व्यापारी-वर्ग को अधिक लाभ लेने से रोकने तथा वस्तुओं का मूल्य निर्धारित करने की ओर भी उन्होंने संकेत किया है (८, १५)। व्यापारी-वर्ग मूल्य में वृद्धि करने के उद्देश्य से संचित धान्य भण्डारों का विक्रय रोक देते हैं इस से राज्य की आर्थिक स्थिति बहुत गम्भीर हो जाती है और जनता को अनेक कष्टों का सामना करना पड़ता है। अतः आर्थिक व्यवस्था को ठोक रखने के लिए राजा का यह कर्तव्य है कि वह व्यापार में नाप-तौल की सच्चाई की रक्षा करे । इस के साथ ही राज्य में आर्थिक सुव्यवस्था एवं उस के सम्मान की रक्षा के लिए व्यापारी-वर्ग में सत्य निष्ठा उत्पन्न करे ( १८, १६)।
जहाँ व्यापारी लेन-देन में झूठ का व्यवहार करते हैं, जहां की तुला अविश्वसनीय है उस देश का व्यापारिक स्तर अन्य देशों की दृष्टि में हीन और अविश्वसनीय हो जाता है (१८, १३ ) 1 इस के परिणामस्वरूप राज्य के व्यापार को महान् क्षति पहुँचती है । इस कारण व्यापार में सत्यता का पालन परम आवश्यक है। जहाँ पर व्यापारी लोग मनमामा मूल्य बढ़ाकर वस्तुओं को बेचते है और कम से कम मूल्य में खरीदते हैं वहीं को जनता दरिद्र हो जाती है (८, १४)। अतः गजा को वहां को ठीक व्यवस्था करनी चाहिए । अन्न, वस्त्र और स्वर्ण आदि पदार्थों का मूल्य देश, काल और पदार्थों के ज्ञान की अपेक्षा से होना चाहिए (८,१५)। जो राजा यह जानता है कि मेरे राज्य में या अमुक देश में अमुक वस्तु उत्पन्न हुई है अथवा नहीं उसे देशापेक्षा कहते है। इस समय अन्य देश से हमारे देश में अमुक वस्तु का प्रवेश हो सकला है अथवा नहीं इसे कालापेक्षा कहते है। राजा का कर्तव्य है कि वह उक्त, देश-कालादि को उपेक्षा का ज्ञान कर के समस्त वस्तुओं का मूल्य निर्धारित करे जिस से व्यापारी लोग मूल्य बढ़ाकर प्रजा को निर्धन न बना सकें।
इस के साथ ही राजा को उन व्यापारियों की परीक्षा भी करते रहना चाहिए जो बहुमूल्य वस्तुओं में मिलावट करते है, दो प्रकार को तुला रखते हों तथा नापने, तौल ने के बाटों आदि में कामो-बेशी करते हों ( ८, १६ ) । यदि व्यापारी लोग परस्पर को ईष्या के कारण वस्तुओं का मूल्य बढ़ा देखें तो ऐसी स्थिति में राजा का यह कर्तव्य हो जाता है कि यह बढ़ाये हुए मूल्य को व्यापारी-वर्ग से छीन ले और उन्हें केवल "उचित मूल्य हो 2 (८,१८)। यदि किसी व्यापारी ने किसी की बहुमूल्य वस्तु को चोखा देकर अल्प मूल्य में क्रय कर लिया है तो राजा विक्रेता की बहमूल्य वस्तु पर अपना अधिकार कर ले एवं विक्रेता को सतना मूल्य दे, जितना कि उस ने क्रेता को दिया था {८,१९) । अन-संग्रह करने वालों को आचार्य सोमदेव ने राष्ट्र-कण्टकों की सूची में
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रखा है और उन पर पूर्ण नियन्त्रण रखने का राजा को आदेश दिया है।८, २१)। राजा को उन की उपेक्षा कभी नहीं करनी चाहिए और उन को कठोर दण्ड देना चाहिए, क्योंकि वे लोग अल संग्रह कर के मूल्यों में वृद्धि कर देते है जिस से जनता को अनेक प्रकार के कष्टों का सामना करना पड़ता है । ये लोग अन्न-संकट के उत्पन्न करने वाले हैं अत: राजा को सदैव इन से सावधान रहना चाहिए। आचार्य सोमदेव का कथन है कि जो राजा मोर गागों को प्रोत्रा करता है उसका नाता है (८,२७)। इस के अतिरिक्त आचार्य सोमदेव ने दुभिक्ष तथा संकट काल का सामना करने के सम्बन्ध में भी राजा को बहुत सुन्दर परामर्श दिया है। आचार्य का कथन है कि राजा को घान्य एवं लवण का संग्रह करना चाहिए, क्योंकि यही दो बस्तुएं संकटकाल में प्रजा और सेना को जीवित रखती हैं ( ८, ६६ तथा ७१ ) । उन का कथन है कि अन्न संग्रह सब संग्रहों में उत्तम है ( १८, ६६)। इस का कारण यही है कि अन्न के द्वारा प्रजा और सेना की जीवन-यात्रा चलती है। इस के माहत्त्व को आचार्य उदाहरणों से भी व्यक्त करते है। वे कहते है कि मुख में डाला हुआ स्वर्ण भी प्राण को रक्षा नहीं करता, अन्न ही प्राणों का रक्षक है ( १८, ६८)। धान्य-संग्रह न करने से होने वाली हानि की ओर भी संकेत किया है। इस सम्बन्ध में आचार्य ने लिखा है कि जो राजा अपने देश में धान्य-संग्रह नहीं करता और अधिक व्यय करता है तो उस के राज्य में सदैव दुभिक्ष रहा करता है ( ८, ६)। अतः राजा को शरद् भोर ग्रीष्म ऋतु में दोनों फसलों के समय धान्य-संग्रह कर लेना चाहिए। यह धान्य दुभिक्ष के समय प्रजा को भी उचित मूल्य पर दिया जा सकता है । इस प्रकार जनता संकटकाल का सामना आसानी से कर लेती है।
इस प्रकार नोति शश्यामृत में राज्य की आर्थिक स्थिति को सृवृद्ध बनाने, कोषवृद्धि करने, व्यापार एवं वाणिज्य पर नियन्त्रण रखने एवं वस्तुओं का मूल्य निर्धारित करने के सम्बन्ध में बहुत उपयोगी विचार व्यक्त किये गये है। सोमदेव ने कृषि, घ्यापार एवं पशुधन को राज्य को आर्थिक समृद्धि की आधारशिला बतलाया है । आचार्य के उपर्युक्त आर्थिक सिद्धान्त आधुनिक युग के लिए भी महीपयोगी है ।
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सेना अथवा बल
सेना अथवा बल का प्रयोजन परराष्ट्र एवं शत्रु से अनुकूल व्यवहार कराने के लिए होता है । सभी आचार्यों ने बल अथवा दण्ड को सप्तांग राज्य की प्रकृतियों में प्रमुख स्थान प्रदान किया है । दण्ड का तात्पर्य सैन्यबल से है। सैन्यबल पर विषार प्रकट करते हुए आचार्य कौटिल्य ने अपना मत इस प्रकार व्यक्त किया है--राजा पर बाह्य एवं आन्तरिक दो प्रकार के कोप पाते हैं। अमात्यादि का कोप आन्तरिक कोप कहलाता है तथा बाह्य कोप शत्रु के आक्रमण से उत्पन्न कोप होता है। इन दोनों कोपों में आन्तरिक कोप अधिक कष्टदायक होता है। इन दोनों कोपों से अपनी रक्षा करने के हेतु राजा को दण्ड एवं कोष को अपने अघोन रखना चाहिए । ' इस वर्णन से स्पष्ट है कि सेना अथवा बल की आवश्यकता देश में व्यवस्था बनाये रखने एवं उस को बाह्य शत्रुओं के आक्रमणों से सुरक्षित रखने के लिए बहुत अधिक है। आचार्य सोमदेव ने लिखा है कि जिस प्रकार जड़ सहित वृक्ष शाखा, पुष्प और फलादि से बुद्धि को प्रास होता है उसी प्रकार राज्य भी सदाचार तथा पराक्रम से वृद्धिगत होला है ( ५, २७)। बाह्य आक्रमणों से रक्षा करना राज्य का पावन कर्तव्य माना गया है। सोमदेव लिखते हैं कि जो मनुष्य ( राजा ) शत्रुओं में पराक्रम नहीं करता-उन का निग्रह नहीं करता-वह जीवित ही मृतक के समान है (६, ४१)। राजा शत्रुओं का दमन तभी कर सकता है जब उस के पास एक शक्तिशाली एवं सुसंगठित सेना हो।
सैनिक संगठन का उद्देश्य प्रजा का दमन करना नहीं है, अपितु देश-रक्षा तथा राष्ट्र-कण्टकों का विनाश करना है। इस सम्बन्ध में सोमदेव लिखते हैं कि रामा को सैनिक-यक्ति का संगठन प्रजा में अपराषों का अन्वेषण करने के अभिप्राय से नहीं करना चाहिए, क्योंकि ऐसा करने से प्रजा उस से असन्तुष्ट होकर शत्रुता करने लगती है और इस के परिणामस्वरूप उस का राज्य नष्ट हो जाता है (९, ४) ।।
घल की व्याख्या नीतिवाक्यामृत में इस प्रकार की गयी है-जो शत्रुओं का निवारण कर के घन, दान व मधुर भाषणों द्वारा अपने स्वामी के समस्त प्रयोजन सिद्ध कर के उस का कल्याण करता है उसे बल कहते है (२२, १)। समस्त आचार्यों ने बल के चार अंग माने है और उसे चतुरंग बल के नाम से सम्बोधित किया है। हाथी,
१. डी. बर्य ० ६.२।
सेना अथवा बल
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घोड़े, रथ और पैदल ये बल के पार अंग बताये गये है। चतुरंगबल में दृस्ति सेना को प्रमुखता दी गयी है (२२, २)। इन विषय में पामार्य सोमदेव लिखते हैं कि राजाओं की विजय के प्रधान कारण हाथी हो होते हैं, क्योंकि युद्ध-भूमि में वे शत्रुकृत सहस्रों प्रहारों से ताजित किये जाने पर भी व्यथित न होकर अकेला ही सहस्रों सैनिकों से युद्ध करता रहता है (२८, ३)।
हाथियों के गुण-किस प्रकार के हाथो युद्धोपयोगी होसे हैं इस विषय में भी नीतिवान्गामृत में र्याप काश डाला गया है ! हाथी जाति, कुल, वन एवं प्रचार के कारण ही प्रमान नहीं माने जाते अपितु वे चार गुणों से प्रमुख माने गये है-(१) उन का शरीर हष्ट-पुष्ट व शक्तिशाली होना चाहिए, क्योंकि यदि वे बलिष्ट नहीं है और उन में अन्य मन्द व मूग आदि जाति, ऐरावत आदि कुल, प्राध्य आदि वन, पर्वत व नदो आदि प्रचार के पाये जाने पर भी ये युद्धभूमि में विजयी नहीं हो सकते, (२) शौर्य-पराक्रम हाथियों का विशिष्ट गुण है क्योंकि इस के अभाव में बालसी हाथी अपने ऊपर मारूक महावत के साथ-साथ युद्ध भूमि में शत्रुओं द्वारा मार डाले जाते है, (३) उन में शुद्धोपयोगी शिक्षा का होना भी अनिवार्य है, क्योंकि प्रशिक्षित हाथी युद्ध में विजयी होते है इसके विपरीत अशिक्षित हायी अपने साथ-साथ महावत को मी नष्ट कर देता है और बिगड़ माने पर उलटकर अपने स्वामी की सेना को भी कुबल डालता है, ( ४ ) हाथियों में युद्धोपयोगी कम्पशोलता आदि ( कठिन स्थानों में गमन करना, शत्रु-सेना का उन्मूलन करना आदि ) का होना भी आवश्यक है, क्योंकि इस के अभाव में वे विजय प्राप्त करने में असमर्थ होते हैं (२२, ४)।
अशिक्षित हाथी-युद्धोपयोगी शिक्षा शून्य हाथी केवल अपने स्वामी का धन व महावत आदि के प्राण नष्ट कर देते हैं, क्योंकि उन के द्वारा विजय-लाभ रूप प्रयोजन सिद्ध नहीं होते। इस वे निरर्थक घास व अन्न आदि भक्षण द्वारा अपने स्वामी की आर्थिक क्षति कर के अपने ऊपर आरूढ़ महावत को भी नष्ट कर देते हैं एवं बिगड़ जाने पर उलटकर अपने स्वामी को सेना को भी रौंद डालते
हाथियों के कार्य-आचार्य सोमदेवसूरि ने हाथियों के कार्यों पर भी प्रकाश बाला है । वे लिखते है कि हाथियों के निम्नलिखित कार्य है-(१) कठिन मार्ग को सरलतापूर्वक पार कर बाना, ( २ ) शत्रुकृत प्रहारों से अपनी तथा महावत की रक्षा करना, (३)शत्रुनगर का कोट व प्रवेश द्वारा भंग कर उस में प्रविष्ट होकर उसे मष्ट-भ्रष्ट करना, ( ४ ) यात्रु के सैन्य-समूह को कुचल कर नष्ट करना, (५) नदी के जल में एक साथ कतारबद्ध खड़े होकर पुल बांधना तथा ( ६ ) केवल बन्धवालाभ के अतिरिक्त अपने स्वामी के लिए सभी प्रकार के आनन्द उत्पन्न करना आदि (२२, ६)। आचार्य कौटिल्य ने भी हाथियों के कार्यों को महत्त्व प्रदान किया है और हस्तिसेना को १३२
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राजा की विजय का कारण बतलाया है।' अर्थशास्त्र में हस्तिपालन, हाथियों के भेद तथा जन के कार्य, हस्तिविभाग के कर्मचारियों एवं उन के कार्यों पर पूर्ण प्रकाश डाला गया है। इस विभाग के अधिकारी को कौटिल्य ने हस्त्यध्यक्ष कहा है।' हस्तियुद्ध का वर्णन करते हुए कौटिल्य लिखते हैं कि हाथियों का कार्य सेना के आगे चलना, पहले से न बने हुए वासस्थान, मार्ग, नदी आदि के घाट बनाना, अपनी सेना के पास खड़े होकर शत्रु सेना को हटाना, नदी की गहराई जानने के लिए उस में प्रवेश करना, वायुसेना का आक्रमण होने पर पंक्तिबद खड़े हो जाना और प्रस्थान करना, ऊँचे स्थान से नीचे उतरना, घने जंगल और शत्रुसेना पर पिल पड़ना, शत्रु के पड़ाव में आग लगाना और अपने पड़ाव में लगी हुई आग को बुझाना, रण जीतना, बिखरी सेना को एकत्रित करना, शत्र की एकमात्र सेना को तितर-बितर करना, संकट में रक्षा करना, शत्रु-सेना को भयभीत करना और कुचल डालना, मद आदि की अवस्था द्वारा शत्रु के हाथियों को विचलित करना, अपनी सेना का महत्त्व प्रकट करना, शत्रु के सैनिकों को पकड़ना और वायु द्वारा बन्दी बनाये गये अपने सैनिकों को मुक्त कराना, शत्रु के परकोटे, सिंहद्वार और अट्टालिकों को गिराना तथा शत्रु के कोष, वाहन आदि को भगा ले जाना, युद्ध में प्रकोण करना, सब चालों के एक साथ प्रयोग को छोड़ सेना के विखरें हुए चारों अंगों का हनन करना, पक्ष, कक्ष तथा उरस्य में खड़ो सेना का मर्दन करना, कहीं से शत्रु पक्ष को निर्बल देख उस पर प्रहार करना और साते हए शत्रु को मार डालना जादि हाथियों के प्रमुख कार्य अथवा हस्तिमुख है।
हाभियों के इतने उपयोगी कायों के कारण ही प्राचीन राजनीतिज्ञों ने हस्तिसेना को प्रधानता दो है । उस की प्रधानता उस के कार्यों के कारण हो है। यह सेना ___ का प्रधान अंग गाया जाता था और अन्य तीन अंग इस के सामने गौण स्थान रखते थे।
हस्तिसेना के पश्चात् द्वितीय स्थान अश्वसेना का था। अश्वों की उपयोगिता भी युद्ध में हाधियों से किसी प्रकार कम नहीं थी। अश्वसेना के सम्बन्ध में सोमदेव ने लिखा है कि अश्वसेना 'चतुरंग सेना का चलता-फिरता भेद है, क्योंकि अश्व अत्यन्त चपलता एवं वेग से गमन करने वाले होते हैं ( २२, ७)। अपवसेना की प्रशंसा करते हुए वे लिखते हैं कि जिस राजा के पास अश्वसेना की प्रधानता है उस पर युद्धरूपी गेंद से क्रीड़ा करने वाली लक्ष्मी विजमश्री प्रसन्न होती है, जिस के फलस्वरूप उसे प्रचुर सम्पति मिलती है । दूरवर्ती शत्रु लोग भी निकटवर्ती हो जाते है । इस के द्वारा विजिगीष बापत्तिकाल में अभिलषित पदार्थ प्राप्त करता है। शत्रुओं के सामने जाना और अवसर पाकर वहां से भाग जाना, छल से उन पर आक्रमण करना व शत्रुसेना को छिन्न
१. की० अर्थ ० १, २ । २.ह . ३१। हस्यमसे हबिनासो म्याम साताना हस्टिहस्तिनीमलभाना...... |
सेना मथवा बक
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भिन्न कर देना ये कार्य अश्वसेना द्वारा ही सिद्ध होते है, रथादि से नहीं ( २२, ८)। आचार्य शुक्र ने भी अश्वसेना की मुझकण्ठ से प्रशंसा की है । उन का कथन है कि राजा लोग अश्वसेना द्वारा देखने वालों के समक्ष शत्रुओं पर आक्रमण करने, प्रस्थान कर दूरवर्ती शत्रुओं को मार डालते है।
नीतिवाक्यामृत में अश्वों को जातियों पर भी प्रकाश डाला गया है तथा जात्य जाति के अश्व को प्रधानता दी गयी है। इस की प्रशंसा करते हुए सोमदेव लिखते हैं कि जो विजिगीषु जात्य अश्व पर बारूद होकर शत्र पर आक्रमण करता है तो उस को विजय निश्चित होती है तथा शत्रु विजिगोषु पर प्रहार नहीं कर सकता ( २२, ९)।
अश्वों की जातियाँ--आचार्य कौटिल्य जात्य अश्व के ९ भेद अथवा उत्पत्ति स्थान बताये हैं जो इस प्रकार है-(१) ताजिका, (२) स्वस्थलाण, ( ३ ) संकरोखश, (४) गाज़िगाणा, (५) काण, (६) पुटाहारा, (७) गाह्मारा, (८) सायारा, (९) सिन्धुपारा । आचार्य कौटिल्य ने भी उत्तम, मध्यम एवं साधारण प्रकार के अश्वों का वर्णन किया है।'
__ जिस काम को हस्तिसेना एवं रथसेना नहीं कर सकती थी उसे अश्वसेना करने में समर्थ थी । जब आधुनिक युग के आवागमन के साधनों का आविष्कार नहीं हुआ था तो अस प्राचीनकाल में एवं मध्यकाल में अश्व अपनी द्रुतगति एवं भारवहन की क्षमता के कारण आवागमन का एक प्रमुख साधन माना जाता था । मौर्यकाल तक अश्वों की महान् उपयोगिता मानी गयी। अव की पोट र मन न से दुसरे स्थान पर शांत्रता एवं सुविधा से पहुँच सकता था। अश्व को गाड़ियों और स्थादि वाहनों में भी प्रयुक्त किया जाता था। युद्ध में उस का विशेष उपयोग किया जाला था। पसुरंगिणी सेना का एक प्रमुख अंग अश्वारोही सेना होती थी और इस को सहायता से राजागण शत्रु से अपने राज्य की रक्षा करने में समर्थ होते थे एवं अन्य राज्यों पर विजयश्री प्राप्त करते थे। अश्व की इतनी महान् उपयोगिता के कारण ही अश्वपालन विभाग की स्थापना मौर्य सम्राटों में की थी। कौटिल्य के अर्थशास्त्र से प्रकट होता है कि अश्वपालन को विशेष महत्त्व दिया जाता था तथा अश्यों की खाद्य-सामग्री एवं उन को चिकित्सा की ओर विशेष ध्यान दिया जाता था। कौटिल्य ने अश्वपालन विभाग के प्रमुख अधिकारी को अश्वाध्यक्ष के नाम से सम्बोधित किया है।
इतिहास इस बात का साक्षी है कि युद्ध में हाथियों की अपेक्षा अश्वसेना ने महान कार्य सम्पन्न किये है तथा राजपूतों की मुसलमानों के विरुद्ध पराजय के कारणों
९. शुभ माना . पृ० ११०। . प्रेक्षतानि शभूणां यत। यान्ति तुरंगमैः ।
धुपाला यैन निघ्नन्ति श... दुरेऽपि संस्थिता । २. कौ० अ०६, ३० ।
अश्याध्यक्ष पप्यागारिम...|
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में उन की हस्तिसेना भी एक प्रमुख कारण था। मुसलमान अपनो वएक्सेना के कारण ही विजयी हुए और इस देश के स्वामी बन गये। जयपाल के पुत्र मानन्दपाल ने सिन्धुनदी के तट पर महमूद गजनको को सेना से मोर्चा लिया था। राजपूतों की विजय होने ही वाली थी कि आनन्दपाल के हाथी के सहसा मागने से राजपूत सेना ज्याकुल हो गयी और इस के परिणामस्वरूप महमद विजयी हआ। पुरु की पराजय भी उस के हाथ। के बगल जाने के कारण हो हुई। ।
रथसेना--यह चतुरंगिणी सेना का तृतीय उपयोगी अंग था। रथ समतल भूमि में ही अधिक उपयोगी थे, जिन में धनुर्धारी योद्धा आरूढ़ होकर शत्रु को पराजित करने में समर्थ होते थे। रथसेना में सारथो का बहुत महत्त्वपूर्ण स्थान था, क्योंकि सारपी की कुशलता पर हो युद्ध में बहुत कुछ अंश में विजय आश्रित थो। महाभारत के युद्ध में अर्जुन के रथ का संचालन भगवान् कृष्ण कर रहे थे । इसी कारण इस युद्ध । में अर्जुन को विजय प्रास हुई। रथ-सैन्य के महत्त्व का वर्णन करते हुए सोमदेव लिखते हैं कि जब धनुविद्या मे प्रवीण धनुर्धारी मोद्धा रथारूक होकर समतल युद्ध-भूमि में शत्रुओं पर प्रहार करते हैं तब विजिगीषु राजाओं को कोई भी वस्तु असाध्य नहीं होतो { २२, ११)1 सारांश यह है कि समतल भूमि एवं प्रवीण योद्धाओं के कारण हो रथारूत योद्धाओं के द्वारा युद्ध में विजिगीषु को विजय प्राप्त होती है । इस के विपरीरा ऊबड़-खाबड़ भूमि अकुशल योद्धाओं के कारण स्थ-संचालन व युद्धादि भली-भांति ने होने से युद्ध में निश्चित ही पराजय होती है ।
आचार्य सोमदेव' का कथन है कि युद्ध में सर्वप्रथम सारभूत सेना को हो मागे रखना चाहिए । इसी से विजय सम्भव होती है। वे लिखते है कि विजिगीषु के रथों द्वारा नष्ट-भ्रष्ट हुई शत्रु सेना आसानो से जीती जाती है, परन्तु उसे मौस ( वंश परम्परा से चली आती हई प्रामाणिक विश्वासपात्र एवं युद्ध-विधा विशारद पैदल सेना ), अधिकारी सेना, सामान्य सेवक श्रेणी सेना, मित्र सेना, आटविक सेना इन छह प्रकार की सनाओं में से सर्वप्रथम सारभूत सेना को युद्ध में सुसज्जित करने का प्रयल करना चाहिए, क्योंकि फल्गुसन्य ( दुर्बल, अविश्वसनीय एवं युद्ध-विद्या में अकुशल सारहीन सेना) द्वारा पराजय निश्चित होती है (२२, १२)।
आचार्य कौटिल्य का कथन है कि वंश परम्परा से चली आने वाली नित्य वश में रहने वाली, प्रामाणिक व विश्वासपात्र पैदल सेना को सारवल कहते हैं और गुण. निष्पन्न हाथियों व घोड़ों की सेना भी सारभूत सैन्य है अर्थात् कुल, जाति, धोखा, काय करने योग्य आयु, शारीरिक बल, आवश्यक ऊँचाई, चौड़ाई आदि, वेग, पराक्रम, युद्धोपयोगी शिक्षा, स्थिरता, सदा पर मुंह उठाकर रहना, सवार की आज्ञा में रहना व अन्य शुभ लक्षण और शुभ घेष्टा इत्यादि गुण युक्त हाथो व घोड़ों का रान्य भी सारवल है । अब विजिगीषु उक्त सारभूत सन्म द्वारा शत्रुओं को सुख पूर्वक परास्त कर सेना अथवा बल
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सकता है ।
नारद ने भी सारभूत सेना को युद्ध में विजय प्रास करने का कारण बताया है। 'उफ छह प्रकार की सेना के अतिरिक्त सातवी प्रकार की सेना भी होती थी जिसे उत्साही सेना कहते थे । जब विजिगीषु शत्रु को जीतने के लिए उस पर चतुरंग सेना द्वारा प्रबल आक्रमण करता है वायर ट्रको १ करने तथा धन लूटने के लिए इस की सेना में मिल जाती है। इस में क्षाव तेज युक्त शस्त्र-विद्या प्रवीण व इस में अनुराग युक्त अत्रिय और पुरुष सनिक होते थे (२२, १३)। सेनाध्यक्ष
नीतिवाक्यामृत में इस बात पर भी प्रकाश डाला गया है कि राजा को किस व्यक्ति को सेनाध्यक्ष के पद पर नियुक्त करना चाहिए। प्राचीन युग में वही पक्ति इस पद पर नियुक्त किया जाता था जो विशिष्ट सैन्य गुणों से विभूषित होता था । यह पद बहुत ही महत्त्वपूर्ण था । अतः इस पद के लिए प्रत्येक व्यक्ति उपर्युक्त नहीं समझा जाता मा अपितु विशिष्ट गुण वाला पुरुष ही सेनाध्यक्ष बनाया जाता था, क्योंकि उसी पर राज्य की विजय और पराजय निर्भर होती थी। आचार्य सोमदेव ने लिखा है कि राजा उसी व्यक्ति को सेनाध्यक्ष के पद पर नियुक्त करे जिस में निम्नलिखित गुण हों।
कुलीन, आचार-व्यवहार सम्पन्न, राजविद्या प्रवीण ( विद्वान ) स्वामी सेवकों से अनुरक्त, पवित्र हृदर वाला, बहु परिवारयुक्त, समस्त नैतिक उपाय ( साम, दामादि ) के प्रयोग में निपुण, अग्नि व जल स्तम्भन प्रभृति में कुशल, जिस में समस्त हाथी, घोड़े मादि वाहन खङ्गादि शस्त्र-संचालन, युद्ध और मित्र देशवर्ती भाषाओं का ज्ञान प्राप्त किया हो, आत्मज्ञानी, समस्त सेना व आमत्य प्रति प्रधान रामसेवकों का प्रेमपात्र, जिस का शरीर योसाओं स तोश लेने की शक्ति सम्पन्न और मनोज्ञ ( युद्ध करने में उत्साही ) हो, स्वामी की आज्ञा पालने में रत रहने वाला, युद्ध में विजय प्राप्ति व राष्ट्र के लिए चिन्तन में विकल्प रहित, जिसे स्वामी ने अपने समान समझ कर सम्मानित व धन देकर प्रतिष्ठित किया हो, छत्रचामरादि राज्य चिह्नों से युक्त
और समस्त प्रकार के कष्ट व दु:खों को सहन करने में समर्थ (१२, १) । उक्त गुणों से विभूषित वोर पुरुष को सेनाध्याक्ष के पद पर आसीन करने से हो विजिगीषु को विजयलक्ष्मी प्राप्त होती है। यदि इन गुणों से शून्य व्यक्ति को इस महत्त्वपूर्ण पद पर नियुक्त कर दिया जायेगा तो राजा की अवश्य ही पराजय होगी।
__नोतिवाक्यामृत में सेनाध्यक्ष के दोषों पर भी प्रकाश डाला गया है। सोमदेव के अनुसार सेनाध्यक्ष के दोष इस प्रकार है-"जिस को प्रकृति आत्मीयजनों तया
१. कौ० अर्ध० १०.५। २. नार६० नीतित्र: पृ०२११
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अन्य शत्रुओं से पराजित हो सके, तेजशून्य, अजितेन्द्रिय, अभिमानी, व्यसनासक, मर्यादा से अधिक धन व्यय करने वाला चिरकाल पर्यन्त परदेशवासी, दरिद्र, संन्यापराधि सम के साथ वैर-विरोध करने वाला, अनुचित बात को जानने वाला, अपनी बाय को अकेला खाने वाला, स्वच्छन्द प्रकृति वाला, स्वामी के कार्य व आपत्तियों का उपेक्षक, युद्ध महायोद्धाओं का कार्य विघातक और राजहित चिन्ताओं से ईर्ष्यालु (१२, २) " इन दोषों से युक्त पुरुष को राजा सेनाध्यक्ष के पद पर कदापि नियुक्त न करे । ऐसा करने से राज्य की महान् क्षति होती है ।
औत्साहिक सैन्य के प्रति राजा का कर्तव्य
सेना तथा अन्य राजकर्मचारियों के प्रति राजा का व्यवहार अच्छा होना चाहिए अन्यथा वे व्यक्ति उस का हृदय से साथ नहीं देते। राजा अपने मोलसैन्य का अपमान न कर के उसे धन-मानादि द्वारा अनुरक्त कर के प्रसन्न रखे। इस के साथ ही उत्साहो सैन्य शत्रु पर आक्रमणार्थं अपनी ओर प्रविष्ट हुई अन्य राजकीय सेना को भी घन व मान देकर प्रसन्न रखे (२२, १४) |
मौल सेना की महत्ता के कारण हो उस के साथ राजा के लिए अच्छा व्यवहार करने का आदेश दिया गया है। आचार्य सोमदेव लिखते हैं कि विजिगीषु का मौल सैन्य आपत्ति काल में भी उस का साथ देता है और दण्डित किये जाने पर भी द्रोह नहीं करता एवं शत्रुओं द्वारा अपने पक्ष में नहीं मिलाया जा सकता । अतः विजिगीषु उसे धन मानादि देकर सदा सन्तुष्ट रखे (२२, १५) ।
सैनिक लोग धन को अपेक्षा सम्मान को अधिक श्रेष्ठ समझते हैं। यदि राजा अपनी सेना का मान करता है तथा उस के श्रेष्ठ कार्यों की प्रशंसा करता है वो बह बड़े उत्साह के साथ देश की रक्षा करने को तत्पर रहती है। यह सम्मान जन में राजभक्ति तथा देशभक्ति की भावना को जन्म देता है । सोमदेव का कथन है कि जिस प्रकार राजा द्वारा दिया गया सम्मान सैनिकों की युद्ध के लिए प्रेरित करता है उस प्रकार दिया गया धन प्रेरित नहीं करता (२२, १६) । अर्थात् सैनिकों के लिए बन देने की अपेक्षा सम्मान देना कहीं अधिक श्रेष्ठकर है ।
सेना के राजा के विरुद्ध होने के कारण
सेना हो राजा का बल है और उसी को सहायता से वह अपने कर्तव्यों का पालन करने में समर्थ होता है। उस के लिए सेना की अनुकूलता बहूत आवश्यक है। कभी-कभी राजा की असावधानी तथा उस की भूलों के कारण सेना राजा के विरुख भी हो जाती है। ऐसी स्थिति में राजा का अस्तित्व ही अतः बुद्धिमान् राजा कभी ऐसी स्थिति को आने नहीं दे । सोमदेव ने इस बात पर भी प्रकाश डाला है कि किन कारणों से सेना राजा के विरुद्ध हो जाती है । इस में ये
समाप्त हो जाता है ।
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सेना अथवा थल
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लिखते हैं कि स्वयं अपनी सेना का निरीक्षण न करना, उन के देने योग्य वेतन में से कुछ भाग हड़प लेना, भाजीविका के योग्य वेतन को यथा समय न देकर विलम्ब से देना, उन्हें विपत्ति ग्रस्त देखकर भी सहायता म देना और विशेष अवसरों (पुत्रोत्पत्ति, विवाह व त्योहार आदि खुशी के अवसरों पर उन्हें घनादि से सम्मानित न करना आदि सेना के राजा के विरुद्ध होने के कारण है (२२, १५)। राजा को समस्त प्रयत्नों से अपनी सेना को सन्तुष्ट रखना चाहिए । जो राजा आलस्य वश स्वयं अपनो सेना की देख-रेख न कर के इस कार्य को अन्य व्यक्तियों से कराता है वह निःसन्देह धन और सैन्य से रहित हो जाता है (२२, १८)।
नैतिक व्यक्ति को कौन-कौन से कार्य स्वयं करने चाहिए इस बात पर भो सोमदेव ने प्रकाश डाला है। ये लिखते हैं कि नैतिक व्यक्ति को निश्चय पूर्वक सेवकों का पालन-पोषण, स्वामी को सेवा, धार्मिक कार्यों का अनुष्ठान और पुत्रोत्पति ये चार कार्य अन्य पुरुष से न करा कर स्वयं ही करने चाहिए (२२, १९)। सेवकों का वेतन तथा उन के कर्तव्य
स्वामी को अपने आश्रित सेवकों को इतना घन अवश्य देना चाहिए जिस से वे सन्तुष्ट रह सकें (२२, २०)। यदि राजा सेवकों को आर्थिक कष्ट पहुँचासा है तो निश्चय रूप से उस की हानि होती है। राजा के इस कर्तव्य के साथ ही आचार्य ने सेवकों के कर्तव्य को ओर भी संकेत किया है। वे लिखते है कि यदि उन को अपने स्थामी से पर्याम धन प्राप्त न मी हो तो भी उन्हें स्वामी से कभी द्रोह नहीं करना पाहिए (२२, २१)। कृपण राजा की हानि
जो राजा कृपण होता है तथा उचित-अनुचित का विचार नहीं करता उस को हमेशा कष्ट भोगना पड़ता है। जो स्वामी आवश्यकता पड़ने पर अपने सेवकों को सहायता नहीं करता तथा जो सेवकों के गुण-दोषों को भली-भांति परख नहीं करता
और सब के साथ एक सा ही व्यवहार करता है, ऐसे कृषण एवं विवेकहीन राजा के लिए कोई भी सैनिक अथवा सेवक युद्धभूमि में अपने प्राणों की बलि देने को तैयार नहीं हो सकता (२२, २४५५)। अतः राजा को संकट काल में उदारतापूर्वक अपने सेवकों की सहायता धनादि देकर करनी चाहिए। इस के साथ ही अपने सेवकों के गुण-दोषों को भी बुद्धिमत्तापूर्वक परखना चाहिए । जो गुणी है तथा राजा के शुभचिन्तक है उनको सम्मान प्रदान कर के उत्साहित करना चाहिए तथा जो दोषी हैं और उस के शुभचिन्तक नहीं हैं, उन्हें दण्डित करना चाहिए। ऐसा करने से स्वामिभक सेवकों का निर्माण होगा जो कि संकट काल में अपना सर्वस्व अर्पण कर के भी राजा की रक्षा में तत्पर रहेंगे।
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राष्ट्र
प्राचीन राषशास्त्र प्रणेताओं ने राज्यांगों में राष्ट्र को भी एक महत्त्वपूर्ण अंग माना है। शुक्रनीतिसार में राज्यांगों की तुलना मानन्त्र शरीर के अवयवों से करते हुए राष्ट्र को उपमा पैरों से दी है। इसका तात्पर्य यह है कि जिस प्रकार मानव शरीर परों पर ही याश्रित रहता है उसी प्रकार राज्यरूपी शरीर की आधारशिला राष्ट्र ही है । वैदिक साहित्य में राष्ट्र शब्द का उल्लेख अनेक स्थलों पर हुआ है और उस का प्रयोग राज्य के अर्थ में किया गया है। ऋग्वेद में इस शब्द का उल्लेख कई स्थानों पर हुआ है । उस में एक स्थान पर ऐसा वर्णन आता है कि राजा ही राष्ट्रों का विकास करने के हेतु राष्ट्रों को रूप देने वाला कहा जाता है। अतः उस के पास श्रेष्ठ क्षात्रतेज होना आवश्यक है। इस के अभाव में बढ़ सम्पर्ण राष्ट्र की सुरक्षा करने में असमर्थ होगा। राज्याभिषेक के समय भी उस को यह स्मरण कराया जाता था कि राजन्, तुम्हें राष्ट्रपति बनाया गया है । अब तुम इस देश के प्रभु हो । अटल, अबिबल और स्थिर रहो। प्रजा तुम्हें स्नेह करे । तुम्हारा राष्ट्र नष्ट न होने पाये। आर्यों को यही कामना थी कि यण राष्ट्र को अविचल करें, बृहस्पति राष्ट्र को स्थिर करें, इन्द्र राष्ट्र को सुदढ़ करें और अग्निदेव राष्ट्र को निश्चल रूप से धारण करें। आर्य यह भी अभिलाषा करते थे कि हमारे राष्ट्र में क्षत्रिय बोर, धनुर्धर, लक्ष्यवेधी और महारथी हों।
इस प्रकार राष्ट्र के प्रति मार्यों की महान् था एवं ममत्व था। वे राष्ट्र रक्षा को राजा का सर्वप्रमुख संव्य समझते थे । उन में राष्ट्र प्रेम की उत्कट भावना थी। पाश्चात्त्य विद्वानों की यह धारणा कि प्राचीन भारत में राष्ट्रीयता की भावना का
१. शुक० १.६२। दृगयास्था सुदन्छोत्रं मुख कोशो बलं मनः। । हस्ती पादौ गराष्ट्री राज्याकानि स्मृप्तानि हि। २. बेद ७, ३१, ११ ।
राजा राष्ट्रान शो न दीनाममुत्तमस्मै भत्रं विश्वासः । ३. वही। ४. वेद १०, १७३, ५। धनते राजा वरुप्पो वं वेबो वृहस्पतिः । भुर्य ते इन्द्रश्चाग्निच राष्ट्रघारयता धनम् ॥
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'सर्वथा अभाव था, अत्यन्त भ्रमपूर्ण है। वैदिक साहित्य के अध्ययन से यह बात स्पष्ट है कि भारतीयों में प्राचीन काल से ही राष्ट्रीयता की भावना विद्यमान थी । वैदिक ग्रन्थों में 'राष्ट्र' शब्द के अनेक बार उल्लेख से आयों के राष्ट्र प्रेम में कोई सन्देह नहीं रह जाता । यजुर्वेद तथा अथर्ववेद की संहिताओं के अवलोकन से यह स्पष्ट है कि भारतीयों में राष्ट्रीयता का भाव पूर्णरूपेण निहित था । यजुर्वेद में इस प्रकार का वर्णन प्राप्त होता है --- अपने राष्ट्र में नेता बनकर हम जागरणशील रहें। अथर्ववेद के मन्त्रों में भी राष्ट्रीयता की भावना प्रतिलक्षित होती है। उस में इस प्रकार का वर्णन मिलता है-- "मैं अपनी भूमि के किए और उसके विनी दिए सब प्रकार के कष्ट सहन करने को प्रस्तुत है । वे कष्ट जिस ओर से आयें, चाहे जिस समय आयें, मुझे चिन्ता नहीं ।" दूसरे मन्त्र में इस प्रकार का वर्णन उपलब्ध होता है
។
"
२
"अपनी मातृभूमि के सम्बन्ध में जो चाहता हूँ, वह उस की सहायता के लिए हैं। मैं ज्योतिपूर्ण वर्चस्वशाली और बुद्धिमान् होकर मातृभूमि का दोहन करने वाले शत्रुओं का विनाश करता हूँ।"" अथर्ववेद की ही एक सूक्ति का भाव इस प्रकार है- " मेरी माता भूमि है और में उस का पुत्र हैं।"
उपर्युक्त वर्णन से स्पष्ट है कि भारत में प्राचीन काल से ही राष्ट्रीयता की प्रवण भावना विद्यमान थी । पाश्चास्य विद्वान् तथा उन का अनुकरण करने वाले भारतीय विद्वानों के इस कथन में कि भारत में राष्ट्रीयता को भावना कभी रही हो नहीं, आंशिक सत्यता भी नहीं है। भारतीय देश को रक्षा के लिए अपनी बलि चढ़ाने के लिए सर्वदा प्रस्तुत रहते थे तथा मातृभूमि की रक्षा करना अपना पुनीत कर्तव्य समझते थे । वैदिक साहित्य में वर्णित देशसेवा के पावन विचार क्या विश्व के अन्य किसी देश के साहित्य में उपलब्ध हो सकते है ? "पृथ्वी मेरी माता है और में उस कर पुत्र हैं", देशप्रेम तथा मातृभूमि के लिए बलिदान को इतनो अनन्य भक्ति एवं कर्त्तव्य भावना अन्यत्र दृष्टिगोचर नहीं होतो । यही देशप्रेम की उत्कट भावना राष्ट्रीयता की जननी है। इसी पुनीत भावना से किसी देश के नागरिकों में सभी राष्ट्रीयता का प्रादुर्भाव होता है। हमारे देश में राष्ट्रीयता के समस्त तत्त्व परिलक्षित होते हैं । किन्तु यह बात निश्चित है कि भारत में राष्ट्रीयता का स्वरूप अन्य देशों से भिन्न रहा हूँ ।
६. वेद १२३
राष्ट्र जागृगाम पुरोहितः २. अथर्ववेद १२, १५४
अहमस्मि सहमान उत्तरी नाम म्याम् । मोषस्मि त्राषाडाशामा
विषासहि ॥
३. अथर्ववेद १२..
दामि मधुम सह विपीनानामपूतिमानत्रान्यान् हन्मि दोहतः ॥
४ अर्व १२, ११२ । माता भूमिः पुत्रों यह पृथिव्याः ।
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मियोक्षेसह वनन्ति मा ।
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इस का मूल कारण यह है कि भारतीयों ने समस्त भूमंडल को एक कुटुम्ब के रूप में माना है। हमारी संस्कृति में देदा प्रधान अभिमान या अन्ध राष्ट्रीयता की प्रधानता नहीं रही है । इस का कारण यह है कि इस भावना के कारण अन्य आदशौ को दबाना पड़ता है । इतना ही नहीं, उस से अनेक जातियों के ईया-द्वेष, दुराग्रह और दुराचरण राज्य को नष्ट कर देते हैं । अतः मारत को राष्ट्रीयता संकुचित अथवा अन्ध राष्ट्रीयता न होकर मानवतावादी राष्ट्रीयता है । वैदिक ब्राषि जनता के सच्चे कल्याण का हो ध्येय अपने सम्मुख रखते थे। अथर्ववेद में लिखा है कि समस्त जनता का कल्याण करने की इच्छा रखने वाले आत्मज्ञानी ऋषियों ने प्रारम्भ में दीक्षा लेकर तप किया। इस से राष्ट्र, बल और ओज का निर्माण हुआ। अतः सब विबुध इस राष्ट्र की भक्ति
करें।
बपियों की तपस्या से राष्ट्रभाव को उत्पत्ति हुई है, राष्ट्र भावना से राष्ट्रीयबल बढ़ता है और त्रुहत् शक्ति प्राप्त होती है। राष्ट्रीयता, बल, ओज इन तीनों में घनिष्ठ सम्बन्ध है। जिन का राष्ट्र है, उन में बल और ओज होंगे, जो शताब्दियों परतन्त्र रहे होंगे उन में राष्ट्रीय भावना नहीं होगी, सांधिक बल भी नहीं होगा और ओज भी नहीं रहेगा ।
राष्ट्र राज्य का मूलाधार है, क्योंकि राज्यांगों में सर्वप्रथम राष्ट्र की हो उत्पत्ति हुई । इस के पश्चात् बल और फिर ओज की सृष्टि हुई।' वैदिक साहित्य से ले कर स्मृति, रामायण, महाभारत, पुराण एवं नीतिग्रन्यों में राष्ट्र के महत्व पर प्रकाश डाला गया है । मनु का कथन है कि जिस प्रकार प्राणधारियों के आहार को बन्द कर देने से शारीर झोपण के कारण प्राण क्षीण होत है, उसी प्रकार राजाओं के भी राष्ट्र पीड़न से प्राण नष्ट हो जाते है। अतः अपने शरीर के समान राजा को राष्ट्र की रक्षा करनी चाहिए । कामन्दक का कथन है कि राज्य के सम्पूर्ण अंगों की उत्पत्ति राष्ट्र से ही हुई है । इस लिए.राजा सभी प्रयत्नों से राष्ट्र का उत्थान करे। अग्निपुराण में भी इस प्रकार का वर्णन उपलब्ध होता है कि राज्यांगों में राष्ट्र का सर्वाधिक महत्व है।
जिस प्रकार राष्ट्र राज्य का मूलाधार है उसी प्रकार जनता राष्ट्र की आधारशिला है। यदि यह कहें कि जनता ही राष्ट्र है तो इस में कोई अनौचित्य नहीं।
१. अथर्ववेर १६१५.१ । भभिमन्त कन्याम्बनिहरापं। सापसेरयं । तत' राष्ट्र वनमाजश्च जात' तदरम क्षेवा असं नमन । २. हो, १६, ४१.१। ३. मनुव ७, ११२
शरीरकर्षगाप्राणाः सीयन्ते प्राणिनां यथा ।
ल्या राक्षामगि प्राणाः क्षोयन्ते राष्ट्रका | ४. कामन्द६.३। १. अग्नि- २३६,२॥
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१
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ऐतरेय ब्राह्मण में कहा गया है कि प्रजाएं ही राष्ट्र का निर्माण करने वाली है।' इस प्रकार प्रजा को चैदिक साहित्य में जनतन्त्र की भांति बहुत महत्त्व प्रदान किया गया है। पथपि वैदिक काल में राजतन्त्र को ही प्रधानता थी, किन्तु उस राजतन्त्र में जमतन्त्र की आत्मा निहित थी। वेदमन्त्रों में जनसन्त्र की भावना और जनता के पक्ष का समर्थन यत्र-तत्र मिलता है। यजुर्वेद में कहा गया है कि राजा की स्थिति प्रजा पर ही निर्भर है।' अथर्ववेद में ऐसा उल्लेख मिलता है-हे राजन, प्रजाओं द्वारा तुम राज्य के लिए निर्वाचित किये जाओ। उसी में अन्यत्र यह भी कहा गया है कि "हे राजन्, तुम्हारे लिए यह आवश्यक है कि सम्पूर्ण प्रजा तुम्हें चाहें।"
इस प्रकार विक साहित्य में प्रजा को बहुत महत्त्व प्रदान किया गया है और उसी के द्वारा राजा के निर्याचन का उल्लेख है। इस के साथ ही वेदमन्त्रों में सभी अंगों की प्रगति और मंगलकामना का उल्लेख मिलता है। सब अंगों के समुचित विकास और सुख-समृद्धि पर ही राष्ट्र को समृद्धि एवं उन्नति निर्भर है।
राष्ट्र' शब्द का उल्लेख हा महाभारत में भी मिलता है। इसमें सटही रक्षा तथा वृद्धि के उपायों पर विस्तारपूर्वक प्रकाश डाला गया है। युधिष्ठिर के प्रश्न का उत्तर देते हुए भीष्म कहते है कि "हे राजन्, अब मैं बड़े हर्ष के साथ राष्ट्र की रक्षा तथा वृद्धि का रहस्य बता रहा हूँ। तुम एकाग्र चित्त हो कर सुनो।" महाभारत के ६७वें अध्याय में राष्ट्र को रक्षा और उन्नति के लिए राजा की आवश्यकता का प्रतिपादन किया गया है। राष्ट्र का सर्चप्रमुख कर्तव्य है कि वह किसी योग्य राजा का अभिषेक करे, क्योंकि बिना राजा का राष्ट्र दुर्बल होता है। उसे वाकू और लुटेरे लूटते तथा सताते हैं। भीष्म का यह भी कथन है कि जिन देशों में कोई राजा नहीं होता वहाँ धर्म की स्थिति नहीं रहती, अतः वहां के व्यक्ति एक दूसरे को प्रसने लगते हैं । जहाँ अराजकता हो उस देश को सर्वथा धिक्कार है।
मनु तथा शुक्र ने राष्ट्र को राज्य का प्रमुख अंग माना है। कौटिल्य ने राज्य की प्रकृतियों में राष्ट्र के स्थान पर जनपद शब्द का प्रयोग किया है। महाभारत
६. ऐत. प्रा०८,२६।
राष्ट्राणि वै विशः। २. यजुर्वेद २० । ३. अथर्ववेद .४,२। ४. वही. ४.८,४।
विक्षस्वा सर्वा वौतु । १. यजु०२२, २२ । ६, महा शान्ति , २। ७. वही. ६०,२॥ ६ मही.६७३। है. मनु०६४ २४ तथा पाक १ १०. को अर्थ०६,१।
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में भी जनपद शब्द का ही प्रयोग राष्ट्र के स्थान पर किया गया है। आचार्य सोमदेव मूरि ने भी जनपःमोती राज्य का अंग मान । नसरी कारण उन्होंने अपने ग्रन्थ मीतिबाक्यामृत में जनपवसमुद्देश की रचना एक पृथक् समुद्देश के रूप में की है । यद्यपि आचार्य सोमदेव ने राष्ट्र को परिभाषा दी है किन्तु उस का वर्णन राज्य के अंग के रूप में नहीं किया है । आचार्य सोमदेव ने जनपदस मुद्देश में देश के विभिन्न उपविभागों के लिए व्यवहार में आने वाले विभिन्न संज्ञा शब्दों की व्याकरण सम्मत व्युत्पत्ति द्वारा व्याख्या की है। उन्होंने राष्ट्र, देश, विषय, मंडल, जनपद, दारक, निर्गम आदि शब्दों की सार्थक ब्याख्या की है। इस व्याख्या में देश की सीमाओं को निर्धारित करने वाला कोई क्रम विवक्षित नहीं रहा है । इस समुद्देश में केवल इन शब्दों की परिभाषा करमा ही आचार्य का प्रधान लक्ष्य दृष्टिगोचर होता है। सर्वप्रथम उन्होंने राष्ट्र की परिभाषा को है। पशु, धान्य, हिरण्य ( स्वर्ण ) सम्पत्तियां वहाँ सुशोभित होती है वह राष्ट्र कहलाता है (१९, १)। स्वामी को दण्ड और कोश की वृद्धि में सहायता देने वाला देश' होता है (१५, १)। विविध वस्तुओं को प्रदान कर स्वामी के घर में (राजधानी में) हाथी और घोड़ों को जो प्राप्त कराता है यह विषय है (१९,३) । समस्त कार्यों के दोहन करने से स्वामी के हृदय को जो भूषित करता है वह मंडल है (१९, ४)। वर्णाश्रम से युक्त स्थान अथवा घन के उत्पत्ति स्थान को जनपद कहते हैं ( १९, ५)। अपने स्वामी की उत्कर्षजनक स्थिति होने से शत्रु के हृदय को भेदन करने वाला दारक है ((१९, ६)। अपनी समृद्धि से स्वामी को जो समस्त व्यसनों से युक्त करे वह निगम है ( १९, ७)।
इस प्रकार आचार्य सोमदेवसूरि ने देश के विभिन्न क्षेत्रों के लिए व्यवहार में आने वाले विभिन्न शब्दों को सार्थक व्याख्या की है । अमरकोश के अनुसार देश, राष्ट्र, विषय और जनपद आदि पर्यायवाची शब्द है अर्थात इन का प्रयोग देश के अर्थ में ही होता है। किन्तु अभिलेखों तथा दानपत्रों में इन शब्दों का प्रयोग देश अथवा राज्य के उपविभागों के रूप में ही प्राप्त होता है। इन विभागों के नामों में भी सर्वत्र साम्य दृष्टिगोचर नहीं होता। एक ही शब्द विभिन्न राजाओं के राज्यकाल में भिन्न अयों में प्रयुक्त हुआ है । राष्ट्र का भारतीय साहित्य में साधारणत: राज्य के अर्थ में प्रयोग हुआ है किन्तु इसी शब्द का प्रयोग राष्ट्रकूटों के शासन काल में कमिश्नरी के अर्थ में प्राप्त होता है। दक्षिण के अन्य राज्यों में इस का अर्थ तहसील या इस से बड़े विभाग जिले के अर्थ में पाया जाता है। अतः इन प्रशासकीय क्षेत्रों के नामों से कोई निश्चित अर्थ नहीं समझना चाहिए, क्योंकि एक ही शब्द का विभिन्न राज्य कालों में अथवा
१. गहा० शान्ति २, राष्ट्रकूटों का इतिहास, पृ. १७६ । ३. एपिइंडि०१५ पृ० २७१, १६ पृ० २७१ इण्डि० रेटिक पृ०१७)
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एक ही राजा के शासन काल में भिन्न-भिन्न अर्थो में प्रयोग हुआ है । किन्तु साधारणतः राष्ट्र से अभिप्राय राज्य का ही था। राष्ट्र के उपरान्त देश का उल्लेख नीतिवाक्यामृत में हुआ है । देश से अभिप्राय आधुनिक प्रदेश से था । विषय माधुनिक जिले के समान था । कहीं विषय को देश का उपविभाग बताया गया है। कहीं विषय का उल्लेख राष्ट्र से विशाल क्षेत्र ते उपविभाग के लिए तुम है । छोटा विभाग था । कहीं मंडल को देश का उपविभाग बताया गया है ।
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मण्डल विषय से
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भारतीय साहित्य में जनपद शब्द का प्रयोग
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प्राचीन भारतीय साहित्य में जनपद शब्द का भी प्रयोग अधिक हुआ है । राजनीतिक दृष्टि से संगठित जन समुदाय के लिए जनपद शब्द का प्रयोग किया जाता या । बौद्ध साहित्य में सोलह महाजनपदों का उल्लेख मिलता है। इसके अतिरिक्त 'भारत में अन्य जनपद भी थे । ये जनपद छोटे-छोटे राज्य थे। जिस प्रकार प्राचीन यूनान में नगर राज्यों की स्थापना हुई श्री उसी प्रकार भारत में भी इन जनपदों की स्थापना हुई। पाणिनी की अष्टाध्यायी में भी जनपद शब्द का प्रयोग किया गया है । काशिका में जनपद का लक्षण बताते हुए लिखा है कि जनपद ग्रामों के समूह को कहते हैं । इस के उदाहरण भी वहीं प्रस्तुत किये हैं यथा, जहाँ पांचालों का निवास हो वह पांचाल जनपद है, इसी प्रकार कुम, मत्स्य, अंग, बंग, मंगल, पुण्ड्र आदि जनपद इन नामों के जनों के निवास के कारण ही इन नामों से सम्बोधित किये जाते है ।
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कौटिल्य के अर्थशास्त्र में भी जनपद का प्रयोग प्राप्त होता है । अर्थशास्त्र में जनपद के विषय में विस्तार के साथ लिखा है। जनपद का निर्माण अथवा उस की स्थापना किस प्रकार की जाय इस विषय में कौटिल्य ने बहुत उपयोगी बिचार व्यक्त किये हैं | आचार्य कौटिल्य लिखते हैं कि पूर्व से स्थित एवं नवीन बस्ती बसाते समय राजा परदेश से जन-समुदाय लाकर अथवा अपने ही देश के जिस भूभाग में अधिक जनसंख्या हो, उस के कुछ अंश को यहाँ से हटा कर ले आये। राजा नवीन ग्रामों को इस ढंग से बसाये कि उस में अधिकांश शुद्र जाति के किसान ही बसें । जिस में कम से कम सौ और अधिक से अधिक पाँच सौ परिवार रहें, उन ग्रामों की सीमा एक या दो कोस के अनन्तर रहे।
I
क्योंकि ऐसा रहने से आवश्यकता पड़ने पर अन्यान्य ग्राम पर
९. टिटि ८.५७ २० ।
=
२. ए० इण्डि० पृ० ३॥ ३. बहो ७, पृ० २६ ।
४. अंगुत्तरनिकाय १.२१३ ४२४२२५६२६०
५. काशिका ४. २.८९ ।
" जनादे "" ग्रामसमुदायो जनपद पंचानानां निवासो जननदः पंचालाः कुरवः मत्स्याः, अंगा,
गाः, मगध, पुण्ड्राः ।
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स्पर एक-दूसरे की रक्षा कर सकेंगे।' आगे आचार्य कौटिल्य लिखते हैं कि नदी, पर्वत, बम, गुष्टि ( ओषधिवृक्ष ), दरी ( कन्दरा), बलाशय, सेमावृक्ष, शमोवृक्ष तथा क्षीरवृक्ष { वटवृक्ष ) लगाकर उन्हीं के द्वारा ग्राम को सोमा का निर्धारण करें । उपर्युक्त रीति से बसे हुए आठ सौ ग्रामों के मध्य में स्थानीय नामक ( आगे चलकर निगम नाम से सम्बोधित किया जाने वाला स्थान ) नगर अथवा महाग्राम बसाये। चार सी ग्रामों के मध्य द्रोणमुख नामक उपनगर निवेश, वो सौ ग्रामों के बीच खाटिक नगर विशेष' एवं दस ग्रामों को मिलाकर संग्रहण नाम ना जनपद के मीमान्त एवं जनपद में प्रविष्ट होने और बाहर निकलने के द्वार स्वरूप धन्तपाल का दुर्ग स्थापित करे। उन अन्तपाल दुर्गों का एक अध्यक्ष रहेगा जिस का नाम होगा अन्तपाल ।
जनपद की रक्षा के सम्बन्ध में भी कौटिल्य ने उपयोगी विचार प्रस्तुत किये है। उन के अनुसार प्रत्येक ग्राम को अपनी रक्षा करने में समर्थ तथा साथ हो अन्य ग्रामों की रक्षा में सहायक होना चाहिए । जनपद की सीमाओं पर अन्तपाल दुर्ग स्थापित करने चाहिए। विविध दुगों के मध्य के सीमा प्रदेशों में बागुरिक ( बहलिये ), वायर, ( भौल ), पुलिन्द ( म्लेच्छ ), चण्डाल तथा अन्यान्य बनचर जाति के लोग उन अन्तपाल-दुर्ग समूहों की मध्यतिनी भूमि की रक्षा करें। तात्पर्य यह है कि राजा और उस का प्रतिनिधि अन्तपाल में दोनों उस प्रदेवा की निवासिनी उपर्युक्त जाति के लोगों द्वारा हो उस प्रदेश की रक्षा करेंगे। जनपद बसाते समय राजा ऋत्विक, प्राचार्य, पुरोहित और श्रोत्रिय ( वेदपाठी ) प्राह्मणों को सब प्रकार के करों से मुक्त कर के उन के पुत्र, पौत्रादि उसराधिकारी तक को उस सुविधा का अधिकारी बनाकर ब्रह्मदेव नामक भूदान करे । अन्तपाल दुर्ग के अध्यक्ष, संख्यायक ( गणनाकार्य तथा हिसाब-किताब रखने वाले ), दशग्रामी आदि के अधिकारी मोप, जनपद तथा नगर के चतुर्थाश के अधिकारी स्थानिक, हापियों को शिक्षा देने में निपुण पुरुष, अनोक्रस्थ, चिकित्सक, घोड़ों को प्रशिक्षण देने वाले और जंघालक (पैदल दौड़कर दूर देश में सन्देश पहुँचाने वाले ) इन सभी लोगों को दण्ड तथा कर से मुक्त कर के माफ़ी भूमि यो जाये । किन्तु यह भदान प्राप्त करने वाले व्यक्ति उस भमि को न बेच सकेंगे और म बन्धक रख सकेंगे। ये केवल उस का उपभोग करने के अधिकारी होंगे । जो लोग भमि का राज कर देते हों, उन्हें राजाकृत क्षेत्र माने । अर्थात् जिस क्षेत्र को फसल उत्पादन के योग्य बमाया जा चुका है, उसे केवल एक पीक्षा के लिए पट्टे पर दे । किन्तु जो क्षेत्र अकृत हैं, उसे किसान अपने पौरुष से उत्पादक बनायेगा । उस को राजा
१. कौ० अर्य, २.१। मृतपूर्वमभूतपूर्व वा जनपद परवेशापवाहन स्वदेवाभिष्मन्दवमनेन मा निवेशयेत् ।
शुदकर्षकप्राय कुशलतामर पञ्चशतकुलपर प्राम कोशनिको सीमानमन्यान्यारा निवेशामैत् । २. वहौ, २,१॥
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बेदखल न करेगा और पीढ़ी दर पीढ़ी उस पर किसान का हो अधिकार रहेगा।'
इस प्रकार आचार्य कौटिल्य ने जनपद की स्थापना तथा उस की रक्षा के मम्बन्ध में बहुत सुक्ष्म सृष्टि से प्रकाश डाला है। उपर्युक्त वर्णन के अतिरिक्त इस विषय पर आचार्य ने और भी बहुत कुछ लिखा है जो राजनीतिक दृष्टि से बहुत महत्वपूर्ण है।
__ महाभारत में भी राष्ट्र की रक्षा तथा वृद्धि के उपायों के सम्बन्ध में वर्णन करते हुए भीम ने जनपद के अन्तर्गत ग्रामों के विविध समूहों तथा उन को व्यवस्था पर पूर्ण प्रकाश डाला है। भीम का कथन है कि एक ग्राम का, दस ग्रामों का, बीस ग्रामों का, सौ ग्रामों का तथा हजार ग्रामों का पृथक पथक एक-एक अधिपति वनाना चाहिए। ग्राम के स्वामी का यह कर्तव्य है कि वह ग्रामवासियों के विषयों का तथा ग्राम में जो-जो अपराध होते हों, उन सब का दही रहकर पता लगावे और उन का पूर्ण विवरण दस ग्रामों के अधिपति के पास भेजे। इसी प्रकार इस ग्रामों वाला बीस मामों वाले के पास और बीस ग्रामों वाला अधिपति अपने अधीनस्थ जनपद के लोगों का सम्पूर्ण विवरण : मानों के अधिकारी भो कि सोनम का अधिकारी हजार ग्रामों के अधिपत्ति को अपने अधिकृत क्षेत्रों की सूचना भेजे । इस के पश्चात हुशार ग्रामों का अधिपति स्वयं राजा के पास आकर अपने यहाँ आये हुए सभी विद्यगों को उस के सम्मुख प्रस्तुत करे।
ग्रामों में जो थाय अपवा उपज हो वह सब ग्राम का अधिपति अपने पास ही रखें तथा उस में से नियत अंश का वेतन के रूप में उपयोग करें। उसो में से नियत वेतन देकर उसे दस ग्रामों के अधिपति का भी भरण-पोषण करना चाहिए । इसी प्रकार दस ग्रामों के अधिपति को भी बोस ग्रामों के अधिकारी का भरण-पोषण करना पाहिए । जो सत्कार प्राप्त व्यक्ति सौ ग्रामों का अध्यक्षा हो, वह एक ग्राम की आय को उपमोग में ला सकता है। भरतश्रेष्ठ वह ग्राम बहुत विशाल बस्ती पाला, मनुष्यों से परिपूर्ण और धनधान्य से सम्पन्न हो। उप्त का प्रबन्ध राजा के अधीनस्थ अनेक अधिपतियों के अधिकार में रहना चाहिए। हमार ग्राम का श्रेष्ठ अधिपति एक शाखानगर ( कस्वे ) की आय पाने का अधिकारी है। उस कस्बे में जो अन्न और सुवर्ण की आय हो, उस के द्वारा वह इच्छानुसार उपभोग कर सकता है । उसे राष्ट्रवासियों के साथ मिलकर रहना चाहिए। १. को य०२, १। सेषामन्तरागि नागरिकशारनिन्दचावासारण्यत्ररा रक्षेषुः । कागाचार्य पुरोहितश्रोधियो मलदेयान्यदण्डकारण्याभिरूपकानि नहेव । अध्यक्ष न्यायका दिभ्यो गोपशानीकानोचिकिरसकामकर्जधाल केभ्यश्च विक्रमाधानवजम् करदेभ्यः कृतक्षेत्राग्यैकपुरपाणि प्रयत्तसेच । अकृतानि
फत भ्यो नारेयान । २. महा. शान्ति: ८०, ३-५ । ३. वही, ८०,६८॥
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इन अधिपतियों के अधिकार में ओ मुख-सम्बन्धी तथा ग्रामों के प्रवन्ध सम्बन्धी कार्य सपि गये हों, उन की देखभाल कोई आलस्परहित धर्म मन्त्री करे। अथवा प्रत्येक नगर में एक ऐसा अधिकारी होना चाहिए जो सभी कार्यों का चिन्तन और निरीक्षण कर सके । जैसे कोई भरकर प्रह आकाश में नक्षत्रों के ऊपर स्थित होकर परिभ्रमण करता है, उसी प्रकार वह अधिकारी उच्चतम स्थान पर प्रतिक्षित होकर उन सभी सभासद आदि के निकट परिभ्रमण करे और सन के कार्यों को परीक्षा करे । उस मिरीक्षक का कोई गुप्तचर राष्ट्र में घूमता रहे और सभासद आदि के कार्य एवं मनोभाव को जानकर उन के पास समस्त समाचार पहुंचाता रहे । रक्षा के कार्य में नियुक्त हुए अधिकारी लोग प्रायः हिंसक स्वभाव के हो जाते हैं। दूसरों की बुराई चाहने लगते है और शठतापूर्वक पराये धन का अपहरण कर लेते हैं। ऐसे लोगों से वह सर्वार्थचिन्तक अधिकारी इस सम्पूर्ण प्रजा की रक्षा करें।
इस प्रकार महाभारत में बहत सुसंगठित शासन-प्रणाली एवं राष्ट्र की रक्षा के उपायों पर बहुत सुन्दर रूप से प्रकाश डाला गया है। इस रोति से कोई भी सरकारी कर्मचारी स्वच्छन्द आचरण न कर सकेगा तथा षष्ठ अन-कल्याण में निरत रहेगा । राजा भी इस अधिकारी वर्ग पर पूर्ण नियन्त्रण रख सकेगा और राष्ट्र-रक्षा के अपने पुनीत कर्तव्य का पालन करने में सर्वथा सफल होगा ।
मनु ने भी इस सम्बन्ध में पर्याप्त प्रकाश डाला है। ये लिखते हैं कि राजा राज्य की रक्षा के लिए दो-दो, तीन-तीन या पांच-पांच ग्रामों के समूह का एक-एक रक्षक नियुक्त करे । राजा एक-एक, दस-दस, सौ-सौ तथा हजार-हजार ग्रामों का एक-एक रक्षक नियुक्त करे।
उपर्युक बो, तीन या पांच ग्राम के रक्षक को नियुक्ति बर्तमान पाने का, सौ ग्रामों के प्रधान रक्षक को नियुकि तहसील या जिला का स्वरूप है और हजार ग्रामों के रक्षक को नियुक्ति कमिश्नरी का घोतक है।
___मनु ने इस विषय पर भी प्रकाश डाला है कि राजा अपनी राजधानी किस स्थान पर बनाये। इस सम्बन्ध में बे लिखते हैं कि राजा जांगल { जहाँ अधिक पानी ने बरसता हो और बार आधि न भासी हों, खुली हवा हो, सूर्य का प्रकाश पर्याप्त रहता हो तथा धान्य आदि अधिक मात्रा में उत्पन्न होता हो ), धान्य और अधिक धर्मात्माओं से युक, भाकुलतारहित, फल-फूलता वृक्षादि से रमणीय, जहां आस-पास के निवासो मन हों ऐसे, अपनी आजीविका मुलभम्यापार, कृषि आदि वाले देश में निवास करे ।'
१. महा० शान्ति० ८७.६.१३ । २. मनु०.७, २१५-१६ । ३. बड़ी, ७,६।
मामलं सस्यसंपन्नमार्यप्रायमनास्तिम । रम्यमानस्सामम्त स्नाजीथ्यं पेशमावसेत् ॥
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उक्त गुणों से युक्त देश में यदि राजा निवास करेगा तो उसे समस्त त्रिमूर्तियां प्राप्त होंगी और वह निष्कण्टक रहेगा । यदि उस पर कोई बाह्य या आन्तरिक संकट आता है तो वह उस का सामना करने में सर्वथा समर्थ होगा ।
कामन्दक ने भी इस विषय में कुछ प्रकाश डाला है। उन का कथन है कि राष्ट्र को समृद्धि उस की भूमि के गुणों पर आधारित है। राष्ट्र की समृद्धि में ही राजा की समृद्धि निहित है, अतः राजा को अपनी समृद्धि के लिए उत्तम गुणों से युक्त भूमि का चयन करना चाहिए। वह भूमि विविध फ़सलों एवं खनिज पदार्थों से विभूषित होनी चाहिए। जहाँ व्यापारिक वस्तुओं की बहुलता हो, खानें हों, द्रव्य हो, जो स्थान चरागाहों के लिए उपयुक्त हों, जहाँ पानी को अधिकता हो, जहाँ आदर्श चरित्र वाले व्यक्ति निवास करते हों, जो स्थान आकर्षक हों, जहाँ सुन्दर वन हों, हाथी हों, जल-थल के आवागमन के साधनों को सुविधा हो और जो वर्षा के जल पर निर्भर न हो । जो भूमि कंकरोली एवं पथरीली हो, जंगलों से युक्त तथा चोरों से भरपूर हो, जहाँ जल का अभाव हो, जो स्थान कांटेदार झाड़ियों तथा सप मुक्त ही वह स्थान राष्ट्र के लिए उपयुक्त नहीं है ।
जनपद के गुण
आचार्य सोमदेवसूरि ने जनपद के गुणों का विस्तृत विवेचन किया है जो बहुत हो महत्त्वपूर्ण है । वे लिखते हैं कि वही जनपद उसम है जो परस्पर रक्षा करने वाला हो अर्थात् जहाँ राजा देश की तथा देश राजा की रक्षा करता हो। जो स्वर्ण, रजत, ताम्र, लोह आदि धातुओं एवं गन्धक, नमक यादि खनिज द्रव्यों को खानों से तथा जो द्रव्य एवं हाथियों से मुक्त हो, जिस के ग्रामों की जनसंख्या न बहुत अधिक हो और न बहुत कम, जहां पर बहुत से उत्तम पदार्थ, विविध भौति के अन्न, स्वर्ण और व्यापारियों के क्रय-विक्रय योग्य वस्तुएँ प्राप्त होतो हों, जो मेघजल की अपेक्षा से रहित हो तथा जो मनुष्य एवं पशुओं को सुख देनेवाला हो (१९, ८ ) ।
जिस जनपद में व्यक्तियों की विविध आवश्यकताओं की पूर्ति आसानी से हो सके, जहाँ लोगों का जीवन और सम्पत्ति हर प्रकार से सुरक्षित हो वहीं जनता निवास करती है । किन्तु जिस जनपद में उपर्युक्त गुण नहीं होते वह राज्जा और प्रजा दोनों के किए कष्टदायक होता है। जिस देश में जनता के जोवकोपार्जन के सरल साधन उपलब्ध नहीं होते उस देश को त्यागकर जनता अन्यत्र चली जाती है। आचार्य सोमदेव का कथन है कि वह देश निन्द्य है जहाँ पर मनुष्य के लिए जीवन निर्वाह के साधन (कृषि तथा व्यापार आदि) नहीं हैं, अतः विवेकी पुरुष को जीविका योग्य देश में निवास करना चाहिए (२७, ८ ) ।
१- कामन्दक ४, ५०-६६ ।
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सोमदेव द्वारा वर्णित गुणों से विभूषित जनपद ही प्रगति कर सकता है और वहीं पर जनता को समस्त सुखों की उपलब्धि हो सकती है ।
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आचार्य कौटिल्य ने भी उत्तम जनपद के गुणों का विशद विवेचन अर्थशास्त्र में किया है । वे लिखते हैं कि जनपद के मध्य में अथवा किनारे पर दुर्ग हो और स्वदेशवासियों तथा विदेश से आये हुए लोगों के खान-पान के लिए जहाँ अन्नादि का भरपूर भण्डार हो । जनपद ऐसे स्थान पर होना चाहिए जहाँ कोई विपत्ति आने पर पर्वत, वन या दुर्ग में जाकर बजा जा सके। जहाँ थोड़े हो परिश्रम से अन्न आदि उत्पन्न होने के कारण जोविका सुलभ हो । जहाँ अपने राजा के शत्रुओं के द्वेष को बचाने के लिए योग्य पुरुष रहते हों। जहाँ सामन्तों का दमन करने के साधन उपलब्ध हो जहाँ पंक ( दलदल ), पाषाण, ऊसर, विषम स्थान, घोर आदि कष्टक, राजा के विरोधियों का समुदाय, व्याघ्र आदि हिंसक जन्तु एवं वन्यप्रवेश न हों। जहाँ नदी, तड़ाग आदि के कारण भरपूर सौन्दर्य हो, जहाँ गाय, भैंस आदि पशुओं के चरने की सुविधा हो । जो मानव जाति के लिए हितकर स्थान हो । जहाँ चोर डाकुओं को अपना काम करते की सुविधा न हो । जहाँ गाय-भैंसों आदि को अधिकता हो । जहाँ अन्नोत्पादन के लिए केवल वर्षां का सहारा न होकर नदी, बाँध आदि का प्रबन्ध हो । जहाँ जल-पथ और स्थल-यथ दोनों की सुविधा हो । जहाँ बहुत प्रकार के मूल्यवान् और विविध व्यापारिक सामान मिलते ही स्थान (म) तपः राजकर क सकता हो । जहाँ के कृषक कर्मठ हों, जहाँ के स्वामी मूर्ख न हों । जहाँ निम्न वर्ग के लोग अधिक संख्या में निवास करते हों । कौटिल्य ने जनपद के इन गुणों को जनपद सम्पदा के नाम से सम्बोधित किया है ।
देश के दोष
आचार्य सोमदेव ने जनपद के गुणों के साथ हो देश के दोषों का भी वर्णन किया है । उनके अनुसार देश के दोष इस प्रकार हैं- जिस के घास-जल रोगजनक होने से विष के समान हानिकारक हों, जहाँ की भूमि कसर हो, जहाँ की भूमि विशेष पथरीली, अधिक कंटकाकीर्ण तथा बहुत पर्वत, गर्ल एवं गुफाओं से युक्त हों. जहाँ पर अधिक जलवृष्टि पर जनता का जीवन आधारित हो, जहाँ पर बहुलता से सर्प, मील और म्लेच्छों का निवास हो, जिस में थोड़ी सी धान्य उत्पन्न होती हो, जहाँ के लोग धान्य की उपज कम होने के कारण वृक्षों के फल खा कर अपना जीवन निर्वाह करते हों (१९, ९) । जिस देश में मेघों के जल द्वारा धान्य उत्पन्न होता है और कृषि कर्षण-क्रिया के बिना होती है अर्थात् जहाँ कछवारी को पथरीली भूमि में बिना हल ये ही बीज बिखेर दिये जाते हैं वहाँ सर्वत्र अकाल रहता है क्योंकि मेघों द्वारा जलवृष्टि का यथासमय व उचित परिमाण में होना अनिश्चित हो रहता है (१९, १७) ।
९.
कौ० अर्थ० ६.१ ।
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कर्षणक्रिया की अपेक्षा शून्य पथरीली भूमि भी ऊसर भूमि के समान उपज-शून्य अथवा बहुत कम उपजाऊ होती है । अतः ऐसे देश में सर्वधा दुर्भिक्ष निश्चित रूप से रहता है। देश की जनसंख्या के विषय में विचार
देश की जनसंख्या के विषय में विद्वानों में मतभेद है। मतभेद वर्गों के सम्बन्ध में है । मनु का कथन है कि राजधानी में अधिकांश जनसंख्या आर्यों को होनी चाहिए। अन्य स्थान पर मनु लिखते हैं कि जिस राज्य में शूद्रों एवं नास्तिकों की संख्या अधिक होगी तथा ब्राह्मणों को कम । वह राष्ट्र मुभि एवं व्याभिचों से पीड़ित होकर भट हो जायेगा। इस के विपरीत विष्णुधर्मसूत्र में लिखा है कि राष्ट्र में अधिक जनसंख्या वैश्य एवं शुद्रों को होनी चाहिए। आचार्य कौटिल्य मे जनपद के संगठन के विषय में विचार व्यक्त करते हुए लिखा है कि राजा नये सामों को इस ढंग से बसाये कि उन में अधिकांश जनसंख्या शूद्रों की ही हो। जनपद का संगठन
___ जनपद के बसाने के विषय में भी आचार्य सोमदेव ने छपने प्रसिद्ध ग्रन्थ नोतिवाक्यामृत में कुछ उल्लेख किया है । आचार्य लिखते हैं, कि राजा का यह कर्तव्य है कि परदेश में चले जाने वाले अपने देशवासियों को, जिन से कर ग्रहण किया हो उन्हें दानसम्मान द्वारा वश में कर के और उन्हें अपने देश के प्रति अनुयायो बनाकर उन्हें वहाँ से बुलाकर अपने देश में बसाये (११, ३)। सारांश यह है कि अपने देशवासी शिष्ट व उद्योगशील व्यक्तियों को परदेश से लाकर अपने देश में बसाने से राष्ट्र की जनसंख्या में वृद्धि होती है तथा व्यापारिक उन्नति, राजकोश को वृद्धि होती है एवं गुप्त रहस्य संरक्षण आदि अनेक लाभ होते है । जिस के परिणामस्वरूप राष्ट्र की अभिवृद्धि होती है। प्राम संगठन
प्रत्येक राष्ट्र में ग्राम हो शासन की सबसे छोटी इकाई होता है। अतः ग्रामों के बसाने में भी बड़ी कुशलता से समस्त जातियों के अनुपात को दृष्टि में रखकर आवास त्र्यवस्था करनी चाहिए । जो राष्ट्र इस सन्तुलन को स्लो देते हैं तथा एक जाति की प्रधानता वाले ग्रामों को बसाते हैं, वहां सदा आपसी मतभेद बना रहता है और उपद्रव होते रहते हैं। यह बात अनुभवसिद्ध है कि जिस ग्राम में क्षत्रिय शूरवीर अधिक संख्या में निवास करते हैं वहां वे लोग थोड़े से कशे ( आपसी तिरस्कार आदि से होने वाले कष्टों ) के होने पर आपस में ही लड़ मरते है (१९. ११) ।
१. मनु०७६६ । २. वही.८.२३ । ३. वि० धर्मसूत्र । ४. कौ० अ० २.१।
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राष्ट्र को सभी जातियों से धन का आदान करना होता है। धन को देने के विषय में सभी जातियों में कुछ स्वभावगत विभेद होता है। ब्राह्मण जाति के स्वभाव की विशेषता का परिचय देते हुए सोमदेव ने लिखा है कि ब्राह्मण लोग अधिक कृषण होने के कारण राजा के लिए देने योग्य कर आदि का धन प्राण जाने पर भी बिना दण्ड के शान्ति से नहीं देते (१९, १२)।
__आचार्य सोमदेव का यह मो कपन है कि राजा को ऐसे ग्राम किसी को भी नहीं देने चाहिए जिन में धान्य की उपज बढ़त होवो हो। ऐसे ग्राम राजा को चतुरंगिणी सेना का पोषण करते हैं (१४, २२) । यदि राजा अन्न की उपज बाले ग्राम किमी को दान आदि मे दे देगा तो उस की सेना को रसद न मिल सकेगा और रसद के अभाव में राजा एक विशाल स्थायो सना न रख सकेगा 1 सेना के अभाव में वह अपने राष्ट्र को रक्षा करने में सर्वथा असमर्थ होगा। राज्य की आर्थिक समृद्धि की आधारशिला के सम्बन्ध में भी सोमदेव ने प्रकाश डाला है। उन का कयन है कि बहुत सा ग मण्डल, स्वर्ण और शुल्क एवं भूमिकर आदि राज्य की आर्थिक सुबता की आधारमिला है (१९, ३)।
आचार्य सोमदेव का यह भी कथन है कि राजा को ब्राह्मणों एवं विद्वानों का अधिक भूमि दान में नहीं देनी चाहिए । थोड़ो भूमि दान में देने से धाता तथा भूदान प्राप्त करने वाला दोनों हो सुखी रहते हैं (१९, २४) । इस का कारण यह है कि पोड़ी
कि दान में दे दात: मोहार मई झन पासासमा दान लेने वाले को भी यह मय नहीं रहता है कि कोई सरकारी कर्मचारी मेरो भूमि पर अधिकार कर लेगा। इस के अतिरिक्त थोड़ो भूमि में अधिक परिश्रम भी नहीं करना पड़ता।
गष्ट्र
१५.
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अन्तर्राष्ट्रीय सम्बन्ध
भारत में ऐसा समय कम ही रहा है जब कि सम्पूर्ण देश का शासन एक ही राजा के अधीन दीर्घकाल तक रहा हो । यद्यपि अशोक, कनिष्क तथा समुद्रगुप्त जैसे महान् पराक्रमी शासक हुए, परन्तु उन का साम्राज्य स्थायी रूप धारण नहीं कर सका। इस का कारण प्रधानतः यातायात की असुविधाएं ही थीं। उन असुविधामों के कारण सुदूर प्रान्तों पर वे यथोचित नियत्रण नहीं रख सकते थे: मनः यों ही दोन नाही का 'लास होता था, वे सुदूरवर्ती प्रान्त केन्द्रीय नियन्त्रण से स्वतन्य हो जाते थे और एक स्वतन्त्र राज्य का रूप धारण कर लेते थे। केन्द्रीय सत्ता की शिथिलता का दूसरा कारण विजेताओं की परम्परागस नीति भी थी।
प्राचीन काल से ही शक्तिशाली एवं महत्त्वाकांक्षी राजाओं का आदर्श चक्रवर्ती राजा बनने का रहा है। चक्रवर्ती अथवा सार्वभौम शासक वह होता है जो समस्त देश पर शासन करता है । आचाय कौटिल्य ने चक्रवर्ती राजा की परिभाषा देते हुए लिखा है कि चक्रवर्ती वह है जिस को सोमा का विस्तार उत्तर में हिमालय पर्वत से लेकर समुद्र पर्यन्त हो।' इस आदर्श का परिणाम यह होता था कि देश में निरन्तर युद्ध होता रहता था, क्योंकि प्रत्येक शासक इस आदर्श (चक्रवती बनने ) तक पहुँचने का प्रयास करता रहता था।
सोमदेव ने तीन प्रकार के विजेताओं का वर्णन किया है-१ धर्म विजयी २ लोभ विजयी, ३ असुर विजयो। उन के अनुसार धर्म विजयो शासक वह है जो किसी राजा पर विजय प्राप्त कर के उस के अस्तित्व को नष्ट महीं करता है। अपितु अपने आधिपत्य में उस की स्वायत सत्ता स्थापित रहने देता है। और उस पर नियत किये हुए करों से ही सन्तुष्ट रहता है (३०, ७०) । लोभ विजयी वह होता है जिस को घन और भूमि का लोभ होता है। उस को प्राप्त करने के उपरान्त वह उस को पराधीन नहीं बनाता अपितु उसे अपने आन्तरिक विषयों में पूर्ण स्वतन्त्रता प्रदान करता है (३०, ७१)1 असुर विजयी शासक यह होता है जो केवल धन और पृथ्वी से ही सन्तुष्ट नहीं होता, अपितु यह विजित शासक का वध कर देता है और उस की स्त्री तथा शिशुओं का भी अपहरण कर लेता है. ( ३०, ७२) । प्रथम दो प्रकार की बिजयों
१. की अर्थ०६, १।
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में विजित राज्य की संस्थाएँ एवं शासन ज्यों का त्यों बना रहता है किन्तु तृतीय प्रकार की विजय में उनका अस्तित्व ही समाप्त हो जाता है और विजयी शासक के राज्य के ये अंग बन जाते हैं। भारतीय परम्परा के अनुसार अन्तिम प्रकार की विजय निकृष्ट समझी जाती थी और प्रथम प्रकार की सर्वोत्तम । अतः जिन राजाओं को परा जिस कर के उन के द्वारा पराधीनता स्वीकार कर लेने पर उन्हें स्वतन्त्र छोड़ दिया जाता था बहुधा से केन्द्रीय शक्ति के शिथिल होते हो अवसर पाकर स्वतन्त्र हो जाते थे और स्वयं अपने राज्य का विस्तार करने लगते थे ।
विभिन्न राज्यों के पारस्परिक सम्बन्ध किस प्रकार विनियमित होते थे इस सम्बन्ध में भारतीय विचारकों ने विस्तृत रूप से उल्लेख किया है। नीतिवाक्यामृत में मी हम को इस विषय पर पर्याप्त सामग्री उपलब्ध होती है । अन्तर्राष्ट्रीय सम्बन्ध का विषय दो भागों में विभाजित किया जा सकता है -
१. शान्ति काल में अन्तर्राष्ट्रीय सम्बन्ध 1
२. युद्ध काल में अन्तर्राष्ट्रीय सम्बन्ध ।
सर्वप्रथम हम शान्ति काल में स्वतन्त्र राज्यों के मध्य सम्बन्धों पर विचार करेंगे ।
स्वतन्त्र राज्यों के बीच सम्बन्धों के संचालन में राजनय महत्त्वपूर्ण साधन था। परन्तु वर्तमान काल में राजनय का जो हम अर्थ समझते हैं वह प्राचीन काल में नहीं था। राज्यों में स्थायी रूप से राजनैतिक प्रतिनिधियों अथवा राजदूतों की नियुक्ति करने की पद्धति अत्यन्त आधुनिक है। मध्य युग में युप में भी राजदूतों की स्थायी रूप से राजधानियों में नियुक्त करने की प्रणाली नहीं थी । इसी प्रकार भारत में भो दूत स्थायी रूप से नियुक्त नहीं किये जाते थे। टूत शब्द का संस्कृत में अर्थ सन्देश वाहक है। इस से यह स्पष्ट है कि किसी विशेष कार्य के सम्पादन के लिए ही दूत भेजे जाते थे । परन्तु उन के कार्य वही थे जो आधुनिक काल के राजदूतों के होते हैं। कौटिल्य अर्थशास्त्र के अधिकरण १ अध्याय १६ से स्पष्ट है कि बिभिन्न राज्यों के मध्य दूवों का नियमित रूप से आवागमन था। नीतिवाक्यामृत के द्रुत समुद्देश में हमें सभी दूवों का उल्लेख मिलता है जिन का वर्णन अर्थशास्त्र में हुआ है ( दूत समुद्देश, पू० १७० - १७१ ) ।
व्रत की परिभाषा
आचार्य सोमदेव ने दूत की परिभाषा इस प्रकार की है, "जो अधिकारी दूरवर्ती राजकीय कार्यों-- सन्धिविग्रह आदि का साधक होता है उसे दूत कहते हैं (१३, १) ।
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बूत के गुण
आचाव में दू: : या है जो इस प्रकार हैस्वामी भक्त, तक्रीटा, मद्यपान आदि व्यसनों से अनासक्त, अतुर, पवित्र, निलोभी, विद्वान्, उदार, बुद्धिमान्, सहिष्णु, शत्रु का ज्ञाता तथा कुलीन होना चाहिए (१३,२) ।
जो राजा इन गुणों से युक्त दूतों को अन्य राज्यों में नियुक्त करते थे उन के समस्त कार्य सिद्ध होते थे। दूतों के भेद
आचार्य सोमदेवसरि ने तीन प्रकार के दूतों का उल्लेख किया है१ नि:सृथार्थ दूत, २ परिमितार्थ दूत, ३ शास नहर दूस्त (१३, ३)।।
१. निःसृष्टाथै दूत-वह दूव था जिस के द्वारा निश्चित किये हुए सन्धिविग्रह को उस का स्वामी प्रमाण मानता था जिस को अपने राज्य के कार्य-सिद्धि के हित में बातचीत करने का पूर्ण अधिकार प्राप्त था (१३, ४)।
२. परिमितार्थ दूत-राजा द्वारा निर्धारित सीमा के भीतर दूसरे राजा से वार्तालाप करने का इसे अधिकार होता था। इस दूत को राजा द्वारा भेजे हुए सन्देश को ही शत्रु राजा के सामने कहने का अधिकार था।
३. शासनाहर दूत-यह दूत अपने राजा के शासन ( लेख ) को दूसरे राजा के पास ले जाने का अधिकार रखता था। इस के अधिकार इस कार्य तक ही सीमित थे। दूत के कार्य
आचार्य सोमदेव ने दूत के कार्यों पर भी प्रकाश डाला है। उन के अनुसार दूत के निम्नलिखित कार्य है
१. नैतिक उपाय द्वारा यात्रु के सैनिक संगठन को नष्ट करना ।
२. राजनीतिक उपायों द्वारा शत्रु को दुर्बल बनाना तथा शत्रु विरोधी पुरुषों को साम-दामादि उपायों द्वारा वश में करना ।
३. शत्रु के पुत्र, कुटुम्बी व कारागार में बन्दो मनुष्यों मे द्रव्य-दान द्वारा भेद ।। उत्पन्न करना।
४. पात्रु द्वारा अपने देश में भेजे हुए गुप्त पुरुषों का ज्ञान प्राप्त करना। ५. सीमाधिपति, आटविक, कोश, देश, सैन्य और मित्रों की परीक्षा करना ।
६, शत्रु राजा के यहां विद्यमान कन्या रस्न तथा हाथी, घोड़े आदि वाहनों को अपने स्वामी को प्राप्त कराना।
७. शत्रु के मन्त्री तथा सेनाध्यक्ष आदि में गुमचरों के प्रयोग द्वारा क्षोम उत्पन्न करना ये दूत के कार्य हैं (१३, ८)।
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इस के अतिरिक्त दूत का यह भी कर्तव्य था कि वह यात्रु के मन्त्री, पुरोहित और सेनापति के समीपवर्ती पुरुषों को धन आदि देकर अपने पक्ष में कर के चम से शत्रु हृदय की गुप्त बात ( युद्धादि ) एवं उस के कोश, सैन्य के प्रमाण का निश्चय कर के उस की सूचना अपने स्वामी को दे (१३, ९)।
वर्तमान काल की भांति प्राचीन काल में भी दूतों का बघ करना वजित था। सोमदेव ने लिखा है कि दूत द्वारा महान् अपराध किये जाने पर भी उस का बध नहीं करना चाहिए (१३. यदि नाण्यान भी दून जाकर आया हो तो भी राजा को अपना कार्य सिद्ध करने के लिए उस का बध नहीं करना चाहिए ( १३, २०-२१)। दूत सत्य, असत्य, प्रिय, अप्रिय सभी प्रकार के वचन बोलता है। अतः राजा को उस के कठोर वचन सुनने चाहिए | कोई भी बुद्धिमान् राजा दूत के वचनों से क्रोधित अथवा उत्तेजित नहीं होता अपितु उस का कर्तव्य है कि वह ईर्ष्या का त्याग कर के उस के द्वारा कहे हुए प्रिम अथवा अप्रिम सभी प्रकार के वचनों को सुने । जब दूत शत्रु के मुख से अपने स्वामी की निन्दा सुने तो उसे यान्त नहीं रहना चाहिए अपितु उस का यथायोग्य प्रतिकार करना चाहिए । १३, ११)।
सैनिकों द्वारा शस्त्र संचालित किये जाने पर भी दूत को अपना कार्य सम्पादित करना चाहिए और शत्रु राजा को अपना सन्देश सुना देना चाहिए । आचार्य सोमदेव का कथन है कि सभी राजा अपने दूत के मुख से बोलते है ( १३, १८) । अतः उसे भयंकर युद्ध के समय भी दूत का बध नहीं करना चाहिए (१३, १९)। क्योंकि उन के द्वारा ही बे अपनी कार्य-सिद्धि ( सन्धि-विग्रहादि ) सम्पन्न कराते हैं।
घर
पड़ोसी राज्यों में समय-समय पर दूसों का बादान-प्रदान होने पर भी चर चदेव कार्य करते रहते थे और उपर्युक्त सूचना को प्राप्त कर के राजा के पास भेजते रहते थे। नीतिवाक्यामृत में एक पृथक् समुद्देश ( चार समुद्देश ) चरों के सम्बन्ध में है। इस में घरों के प्रकार तथा कर्तव्यों का उल्लेख है। चरों को नियुक्ति
किसी भी राजा के लिए घरों को नियुक्ति तथा प्रयोग आवश्यक था ! सोमदेव ने कहा कि जिस राजा के यह गुप्तचर नहीं होते उस पर आन्तरिक तथा बाह्य शत्रुओं द्वारा आक्रमण किया जाता है ( १४, ६) । इसलिए विनिगी का अपने देश में तथा पड़ोसी देशों में गुप्तचर भेजने चाहिए। वास्तव में गुप्तपर अपने देश व परदेश के सम्बन्ध में जान कराने के लिए राजाओं के नेत्र हाते हैं { १४,१)। अपने देश और
१. महा सभाग-२६। २. मोतिवाक्यामृत १३.१३ ।
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पड़ोसी राज्यों की गतिविधियों का ज्ञान गुप्तचरों द्वारा ही होता है। अतः राजाओं की सुरक्षा तथा कल्याण के लिए उन का उपयोग आवश्यक माना जाता था 1 गुमचरों . के गुणों के सम्बन्ध में आचार्य सोमदेव लिखते हैं कि सन्तोष, आलस्य का न होना, उत्साह, निरोगता, सत्यभाषण और विचारशक्ति का होना ये गुप्तचरों के गुण हैं (१४, २) विमल मा; के
जनक प्रकार का कार्य लिया जाता था।
घरों के भेव
आचार्य सोमदेव ने निम्न प्रकार के गुप्तचरों का वर्णन किया है-कापाटिक, उदास्थित, गृहपति, वैदेहिक, तापस, किरात, यमपट्टिक, अहितुष्टिक, शौण्डिक, शौषिक, पाटचर, बिट, विदूषक, पीरमर्दक, भिपग, ऐन्द्रजालिक, वैभित्तक, सूद, आरालिक, जवाहक, तीक्ष्ण, कर, रसद, जद, मूक, बधिर, अन्ध ( १४,८)। इस प्रकार राज्य में विभिन्न प्रकार के चरों का जाल-सा बिछा रहता था। इन चरों में कुछ ऐसे होते थे जो शत्र राजा के निकट से निकट पहुँचने का प्रयास करते थे। वहाँ पर किसी प्रकार की नौकरी पर नियुक्त हो जाते थे जिस से कि शासन के आन्तरिक क्षेत्र में जो कुछ भी हो रहा हो उस को सूचना वे अपने राजा के पास भेज सकें । सामन्त शासकों के साथ सम्बन्ध
प्राचीन काल में भारत में अनेक सामन्त. जा थे। दिग्विजय की नीति के . कारण एक विजेता विजित राजा के राज्य को अपने राज्य में नहीं मिलाता श्रा, अपितु उस के द्वारा अधीनता स्वीकार कर लेने पर उसे उस के राज्य में आन्तरिक स्वतन्त्रता प्रदान कर देता था। वह पूर्ववत् दिग्विजयो शासक के अन्तर्गत अपने प्रदेश पर शासन करता रहता था । इस प्रकार उस काल में अनेक सामन्त शासक थे । इन सामन्त शासकों के अधीन भी अन्य सामन्त शासक होते थे। सार्वभौम शासक को अपने सामन्त शासकों के साथ सम्बन्ध उन की शक्ति तथा स्थिति के अनुसार भिन्न प्रकार का होला था। परन्तु सम्भवतः सम्राट् के आदेशों का पालन करना, वाषिक कर देना, युद्ध काल में सैन्य सहायता प्रदान करना, राज दरबार में औपचारिक अवसरों पर ही नहीं, अपितु समय-समय पर उपस्थित होना उन के लिए आवश्यक समझा जाता था । अपने दान-पत्रों और शासनों में सम्राट् का नाम सर्वत्र रखना उन के लिए आवश्यक था । सामन्तों के दरबार में सम्राट के हितों की रक्षा के लिए तथा सामन्तों के निमन्त्रण के लिए सम्राट की ओर से प्रतिनिधि भो रहा करते थे। ये प्रतिनिधि गुप्तचरों के द्वारा सम्राट् को उन की गतिविधियों के सम्बन्धों में सूचना देते रहते थे । नीतिवाक्यामत में सामन्तों के विषय में कोई विस्तृत वर्णन तो नहीं मिलता किन्तु सामन्तों के होने का प्रमाण अत्रश्य मिलता है। उस में विजिगोषु राजा का वर्णन आया है
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(२९, २०) । विभिगोपु वही होता पा जिस की अधीनता में अनेक माण्डलिक अथवा सामन्त राजा होते थे।
युद्धकाल में अन्तर्राष्ट्रीय सम्बन्ध
सभी भारतीय विचारक इस बात पर सहमत हैं कि अन्य उपाय विफल हो जाने पर ही किसी राजा से युद्ध प्रारम्भ करना चाहिए । अन्य उपाय है..-साम, दाम और भेद । इन उपायों के प्रयोग द्वारा यदि कोई उसम परिणाम नहीं मिलता है तो रामा को दण्ड का प्रयोग करना चाहिए । मनु ने कहा है कि प्रथम तीन उपायों द्वारा यदि शत्रु नहीं रोका जा सकता है तो फिर उसे दण्ड द्वारा ही परास्त करना चाहिए। लगभग सभी बिचारकों ने महत्त्वाकांक्षी राजाओं को यथासम्भव युद्ध से दूर रहने और शान्तिमय उपायों ( सामादि में ) से ही अभीष्ट सिद्ध करने के प्रयास का उपदेश दिया है। सोमदेव ने भी इस बात को पुष्टि की है। उन्होंने कहा है कि जब विजिगीषु बुद्धियुद्ध ( साम आदि उपायों ) के प्रयोग द्वारा शत्रु पर विजयश्री प्राप्त करने में असमर्थ हो जामें सभी उसे शस्त्र-युद्ध करना चाहिए (३०,४)। अन्यत्र उन्होंने कहा है कि बुद्धिमान् सचिव का यह कर्तव्य है कि वह अपने स्वामी को पहले सन्धि के लिए प्रेरित की। इस में कहा हो पर मह
यु एसेरित करे । उन का कप्पन है कि वह मन्त्री एवं मित्र दोनों निन्ध शत्रु के समान है जो शत्रु सारा आक्रमण किये जाने पर अपने स्वामी को भविष्य में कल्याणकारक अन्य सन्धि आदि उपाय न बताकर पहले ही युद्ध करने में प्रयत्नशील होने का या भूमि परित्याग कर दूसरे स्थान पर भाग जाने का परामर्श देकर उस को महा अनर्थ में डाल देते हैं ( ३०,१)। युद्ध के परिणामों को ध्यान में रखकर इस उपाय का प्रयोग अन्तिम रूप से ही करने का आदेश था।
परन्तु भारतीय विचारक यह भी जानते थे कि सदैव के लिए युद्ध को नहीं रोका जा सकता है। अत: उस की सम्भावना को यथासम्भव कम करने के लिए उन्होंने विविध राज्यों के मण्डल बनाकर उन में शक्ति सन्तुलन बनाये रखने की व्यवस्था की थी। विविध राज्यों को मरने चारों और स्थित राज्यों से इस प्रकार मित्रता तथा सन्धि कर के शशि-मन्तुन स्थापित करना चाहिए कि उन को शान्ति और सुरक्षा बनी रहे और किसी भी शक्तिसाली राज्य को उस पर आक्रमण करने का साहस न हो सके।
प्राचीन भारतीय राजनीतिक साहित्य में मण्डल सिवान पर अयन्त बल दिया गया है । लगभग सभी राजनीतिप्रधान ग्रन्थों में इस विषय को विस्तृत पाया की गयी है। मनु. कामन्दक, तथा कौटिल्य आदि विषारकों ने इस विषय को बहुत महत्वपूर्ण माना है और राजा के लिए यह निर्देश दिया है कि उस को अपनी नीति का
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संचालन इस प्रकार करना चाहिए कि राजमण्डल में, जिस से वह घिरा हुआ है, शक्ति. सन्तुलन बना रहे। मण्डल सिद्धान्त
आचार्य सोमदेव ने भी नीतिवाक्यामृत के षाड्गुण्य समुद्देश में इस सिद्धान्त की विशद विवेचना की है। इस सिद्धान्त का उल्लेख विजिगीषु राजा के सम्बन्ध में किया गया है। इस मण्डल में सामान्यत: १२ राजा होते थे। प्रथम विजिगोषु होता है जिस का तात्पर्य है एक महत्त्वाकांक्षी तथा विजेता शासक हमारे सभी ग्रन्थ राजा के समक्ष विग्विजय तथा साम्राज्य विस्तार का मादर्श उपस्थित करते हैं। अतः उन राजाओं को अपनी शासन-नीति मण्डल सिद्धान्त के अनुसार संचालित करनी चाहिए ।।
कौटिल्य के अर्थशास्त्र तथा सोमदेवसूरि के नीतिवाण्यामृत में मण्डल के राजाओं की गणना में कुछ अन्तर है । परन्तु सिद्धान्त मूलतः एक ही है । सोमदेवमूरि ने मण्डल का निर्माण निम्नलिखित सत्त्वों (राज्यों) से बताया है
१. उदासीन-आचार्य सोमदेव ने उदासीन राज्य को व्याख्या इस प्रकार की है। जो राजा विजिगीषु, उस के शत्रु तथा मध्यम के आगे-पीछे या पाश्र्व भाग में स्थित हो और जो युद्ध करने वालों को विग्रह करने में और उन्हें युद्ध से रोकने में सामर्थ्यवान् होने पर भी किसी कारण से दूसरे विजिगीषु राजा के विषय में जो उपेक्षा करता है, उस से युद्ध नहीं करता, उसे उदासीन कहते है (२९, २१) । आचार्य कौटिल्य ने भी उदासीन राजा का उल्लेख अपने अर्थशास्त्र में किया है और उस की परिभाषा इस प्रकार थी है-विजयाभिलाषी और मध्यम राजाओं से परे अपनी बलिष्ठ सप्त प्रकृतियों से सम्पन्न बलवान् राजा शत्रु, विजयाभिलाषी और मध्यम राजाओं को पृथक्-पृथक् अथवा सब को एक साथ सहायता देने अथवा उन का विग्रह करने में समर्थ हो ऐसा राजा उदासीन राजा कहलाता है।
२. मध्यस्थ-जो प्रबल सैन्य से शक्तिशाली होने पर भी किसी कारणवश विजय कामना करने वाले दोनों राजाओं के विषय में मध्यस्थ बना रहता है। उन से युद्ध नहीं करता वह मध्यस्थ कहा गया है (२९, २२) । इस मध्यस्थ राजा की एक विशेषता यह भी होती है कि विजयाभिलाषी राज्य और उस के शत्रु राज्य दोनों के राज्यों की सीमा पर यह रिपत होता है (२९, २३)।
३. विजिगीषु-जो राज्याभिषेक से अभिषिक्त हो चुका हो और भाग्यशाली, कोश, अमारप आदि प्रकृति युक्त हो एवं राजनीति में निपुण शूरवीर हो उसे विजिगीषु कहते हैं। आचार्य कौटिल्य ने भी विजिगीषु की परिभाषा दी है जो इस प्रकार है(आत्मगुण सम्पन्न अमात्यादि पंचद्रव्य प्रकृति गुणसम्पन्न एवं सन्धि विग्रह आदि के भली-भाति प्रयोग बनित नय के आश्रय में रहने वाले राजा को बिनिगोषु कहते हैं।' १. ममु०५, १६४-५६; कामन्दक सर्ग , कौटिषय ६.३। २. मह । २।
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इस का अभिप्राय यही है कि ऐसा होने पर ही राजा वास्तविक रीति से साम, दाम आदि चारों नीतियों का प्रयोग कर के शत्रु को पराजित करने के लिए सम्यक् इच्छुक होने के योग्य होता है।
४. शत्रु-जो अपने निकट सम्बन्धियों का अपराध करता हा कभी भी दुष्टता करने से बाज नहीं आता उसे शत्रु अथवा अरि कहते हैं (२१,२४) । शत्रु राजा का लक्षण बताते हुए आचार्य सोमदेव लिखते हैं कि दूरवर्ती (सीमाधिपति आदि) शत्रु व निकटवर्ती मित्र होता है यह शत्रु-मित्र का सर्वथा लक्षण नहीं माना जा सकता क्योंकि शत्रुता और मित्रता के अन्य ही कारण हुमा करते हैं । दूरवर्ती अथवा निकटवर्ती नहीं, मयोंकि दूरवर्ती सीमाधिपति भी कार्यवश निकटवर्ती के समान शत्रु व मित्र हो सकता है (२९, ३५)।
सोमदेव ने तीन प्रकार के शत्रु राजाओं का उल्लेख किया है-१ सहज शत्रु, २ कृत्रिम शत्रु तथा ३ अन्वर शत्रु ( सीमा पर स्थित राज्य का स्वामी ) । आचार्य ने इन शत्रु राजाओं को व्याख्या मी की है। वे लिखते हैं कि अपने हो कुल का व्यक्ति राजा सहज शत्रु होता है (२९, ३३) । क्योंकि वह ईष्यविश उस को समृद्धि सहन नहीं करता और सर्वदा उस के विनाश का चिन्तन करता है । जिस के साथ पूर्व में विजिगीषु द्वारा वैर-विरोध उत्पन्न किया गया है तथा जो स्वयं आफर उस से वर-विरोध करता है, ये दोनों उस के कृत्रिम शत्रु है (२९, ३४) । जो राजा विजिगीषु की सीमा पर शासन करता है वह अन्तर शत्रु है (२९, ३५)। आचार्य कौटिल्य ने भी तोन प्रकार के शत्रु राजाओं का उल्लेख किया है। वे सीमावर्ती राज्य को प्रकृति, मरिराज्य तथा उस के राजा को प्रकृति शत्रु कहते है।
५. मित्र--आचार्य सोमदेव ने मित्र का लक्षण बताते हुए लिखा है कि जो पुरुष सम्पत्तिकाल की तरह विपत्ति में भी स्नेह करता है, उसे मित्र कहते हैं (२३,१)। शत्रु राज्य की दूसरी ओर उस की सीमा से सम्बद्ध सीमा वाले राज्य को मनु एवं कौटिल्य मिश्र राज्य कहते हैं। आचार्य सोमदेव ने मित्र के भी तीन भेद बताये है जो निम्नलिखित है--
(१) नित्य मित्र-वे दोनों व्यक्ति नित्य मित्र हो सकते हैं जो शत्रुकृत पीड़ा आदि आपत्तिकाल में परस्पर एक-दूसरे के द्वारा बचाये जाते है (२३, २) ।
(२) सहजमिन-वंश परम्परा के सम्बन्ध से युक्त भाई आदि सहन मित्र होते हैं (२३, ३)।
(३) कृत्रिम मित्र-जो व्यक्ति अपना उदर पूति और प्राण रक्षा के लिए अपने स्वामी से वेसनादि लेकर स्नेह करता है वह कृत्रिम मित्र है (२३, ४) । आचार्य
१, कौत अप०६२। २. मनु०७, १८ कौटिका २,६७ ॥
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. कौटिल्य ने भी मित्र के यही भेद बतलाये हैं।'
६. पाणिग्राह-विजिगीषु के शत्रु के साथ युद्ध के लिए प्रस्थान करने पर बाद में जो क्रुद्ध होकर उस के देश को नष्ट-भ्रष्ट कर टालता है उसे सोमदेव ने पारिणग्राह कहा है (२९, २६)।
७. आक्रन्द-जो पाणिग्राह से बिलकुल विपरीत आचरण करहा है अर्थात विजिगीषु को विजय यात्रा में जो हर प्रकार से सहायता पहुँचाता है उसे आक्रद कहते
८. आसार जो पाणिग्राह का विरोधी और आनन्द से मित्रता रखता है यह आसार है (२९, २८)। कौटिल्य ने इसे आक्रन्दासार कहा है।
९. अन्तर्धि-शत्रु राजा तथा विजिगीषु राजा इन दोनों के देश में जिस की जीविका है तथा जो पर्वत एवं अटवी में रहता है उसे सोमदेव ने अन्तधि बताया है (२९, २९) । शत्रु राज्य, मध्यम राज्य एवं उदासीन राज्य को राज्य मण्डल का घटक कहा जाता है ।
कारण से ८ कि संस- ९ का मण्डल बताया है । कौटिल्य के मण्डल में १२ राज्यों का उल्लेख मिलता है- विजिगीषु, २ अरि, ३ मित्र, ४ अरिमित्र, ५ मित्र-मित्र, ६ अरिमित्र-मित्र, ७ पाठिणग्राह, ८ आनन्द, ९ पाणिग्राह सार, १० आक्रन्दासार, ११ मध्यम तथा १२ उदासीन 1 मनु के अनुसार विजिगीषु शत्रु, मध्यम, अरि, उदासीन, ये मण्डल सिद्धान्त के मूल अथवा आधार है।
यधपि सोमदेव ने मण्डल के ९ राज्यों के नामों का ही उल्लेख किया है जो कि कौटिल्य के द्वारा वर्णित मण्डल के राज्यों से साम्य रखते है। किन्तु जिस प्रकार कौटिल्य ने अरि-मित्र, मित्र-मित्र, एवं अरि मित्र-मित्र को इस राज्य मण्डल में सम्मिलित कर लिया है। उसी प्रकार सोमदेव द्वारा प्रतिपादित मण्डल के १ राज्यों में इम तीन राज्यों को सम्मिलित कर लेने पर 'सन के राज्य मण्डल में भी १२ राज्य हो जाते हैं 1 आचार्य सोमदेव इन वा पृथक् नामोल्लेख करना उचित नहीं समझा। इसी कारण उन्होंने राज्य मण्डल में प्रमुख ९ २१व्यों का ही वन किया है।
कुछ विद्वानों ने मण्डल के तत्वों के साथ राज्य की प्रकृति के विभिन्न स्वरूपों का भी उल्लेख किया है। जिस के बाधार पर मण्डल में १२, २६, ५४, ७२, १०८ प्रकृतियों का उल्लेख मिलता है । इस सम्बाध में कामन्दक का कथन सर्वथा उचित हो है कि मण्डल के तत्त्वों के सम्बन्ध में विभिन्न मत है किन्तु १२ राज्यों का मण्डल १. कौ० वर्थ ० २, २७.२८ । २. वही, ६,२। ३. वहो। ४. मनु०७, १९५५-५६ ।
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स्पष्ट एवं सर्वविदित है । मण्डल का मुख्य उद्देश्य यही है कि विजिगीषु उन मित्र या शत्रु राज्यों के बीच जिन से कि वह परिवेष्टित है, शक्तिसन्तुलन बनाये रखे । उसे अपनी नीति तथा साधनों में इस प्रकार व्यवस्था करनो चाहिए जिस से उदासीन तथा शत्रु राजा उस को हानि न पहुँचा सके और न उस से अधिक शक्तिशाली हो सके ।
२
तोन शक्तियों का सिद्धान्त
४
राजा को अपर नियंत्रण रखने के लिए देश की स्वतन्त्रता को सुरक्षित रखने के लिए तथा अपने राज्य के प्रसार के लिए तीन शक्तियों से युक्त होना आवश्यक है। ये शक्तियाँ हैं उत्साहशक्ति, प्रभुशक्ति एवं मन्त्रशक्ति | कौटिल्य के अर्थशास्त्र में भी इन तीन शक्तियों का उल्लेख मिलता है । 3 कामन्दक ने भी इन शक्तियों का वर्णन नीतिसार में किया है। नीतिवाषयाभूत में भी यह वर्णन मिलता है कि विजिगीषु मन्त्रशक्ति, प्रभुशक्ति एवं उत्साहशक्ति से सम्पन्न होकर शत्रु पर विजय प्राप्त कर सकता है, इन के अभाव में नहीं सोमदेव ने इन शक्तियों की व्याख्या भी की है। जिस विजिगीषु के पास विशाल कोश एवं चतुरंगिणी सेना है वह उस की प्रभुशक्ति है ( २९, ३८ ) । विजिगीषु के पराक्रम तथा रण-कौशल को उत्साह शक्ति कहते हैं (२९, ४० ) । उस के ज्ञान बल को मन्त्रशक्ति कहते हैं ( २९, ३६ ) | कोटिल्य ने भी इन शक्तियों की व्याख्या इसी प्रकार की है। उनका कथन है किउत्साहशक्ति से प्रभुशक्ति श्रेष्ठ है, और प्रभुशक्ति से मन्त्रशक्ति । आचार्य सोमदेव का भी यही विचार है । सोमदेव का कथन है कि जो राजा शत्रु की अपेक्षा उक्त तीन प्रकार की शक्तियों से युक्त होता है उस की विजय होती है और जो इन शक्तियों से शून्य है, जघन्य है (२९, ४१) ।
५
५
चार उपाय
उपर्युक्त शक्तियों से सुसज्जित राजा को सर्वप्रथम युद्ध का आश्रय नहीं लेना चाहिए, जैसा कि अन्यत्र कहा जा चुका है । उद्देश्य की प्राप्ति के लिए युद्ध तो अन्तिम साधन बताया गया है। राजशास्त्र प्रणेताओं ने इस सम्बन्ध में अन्य वर्णन किया है, जिन का प्रयोग युद्ध से पहले अवश्य करना चाहिए। भी चार उपायों का वर्णन मिलता है (२९, ७० ) |
तीन उपायों का
नीतिवाक्यामृत मे
१. कामन्दक-ए, २०-४१ ।
२. वही, १९, ३२ ।
२. कौ० ख ०६, २ ।
४. कामन्दक – १५, ३२
५. कौ० अ० ६ २ ६. वहीं, ६, २ ।
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शत्र राजा व प्रतिकूल व्यक्ति को वश में करने के चार उपाय साम, दाम, भेद व दण्ड है । इन के प्रयोग से शत्रु व प्रतिकुल व्यक्ति को वश में किया जा सकता है । आचार्य सोमदेव ने इन चार उपायों को व्याख्या भी की है जो इस प्रकार हैसामनोति
___ यह प्रथम उपाय बताया गया है। यदि किसी राज्य में कोई भयानक शत्रुता न होकर किसी साधारण बात पर आपस में वैमनस्य उत्पन्न हो गया हो तो उसे समझाबुझाकर आपसी वैमनस्य दूर कर लेना चाहिए। यह नहीं कि उस पर सीधा आक्रमण हो कर दिया जाये । आचार्य सोमदेव ने साममीति के पांच भेद बतलाये है
१.गुण संकीतन-प्रतिकूल व्यक्ति को अपने अनुकूल करने के लिए उस के गुणों की उस के सामने प्रशंसा करना ।
२. सम्बन्धोपाख्यान-जिस उपाय से प्रतिकूल व्यक्ति को मित्रता दृढ़ होती है उसे उस के प्रति कहना । |
३. परोपकार दर्शन-विरुद्ध व्यक्ति को भलाई करना !
४. आयति प्रदर्शन हम लोगों की मैत्री का परिणाम भविष्य के जीवन को एखी बनाना है, इस प्रकार की बात को प्रतिकल व्यक्ति से प्रकट करना ।
५. आत्मोपसन्धान-रा घन आप अपने कार्य में प्रयोग कर सकते हैं। इस प्रकार दूसरे को अपने अनुकूल बनाने के लिए व्यक्त करना (२९, ७०) । ग्यास का कथन है कि जिस प्रकार वचनों द्वारा सज्जनों के चित्त विकृत नहीं होते उनी प्रकार सामनीति से प्रयोजनार्थों का कार्य विकृत न होकर सिख ही होता है और जिस प्रकार शक्कर द्वारा शान्त होने वाले पित्त में पटोल ( औषधि-विशेष) का प्रयोग व्यर्थ है उसी प्रकार सामनीति मे सिद्ध होने वाले कार्य में दण्डनीति का प्रयोग भी ध्यर्थ है। दामनीति
जहाँ पर विजिगीषु शत्रु से अपनी प्रचुर सम्पत्ति के संरक्षणार्थ उसे थोड़ा-सा धन देकर प्रसन्न कर लेता है उसे दामनोति कहते है ( २९,७३ ) । शुक्र ने भो रान से प्रचुर धन के रक्षार्थ तसे थोड़ा धन देकर प्रसन्न करने को उपप्रदान [ दाम ) कहा है। इस नीति का प्रयोग ऐसी परिस्थिति में करना चाहिए, जब प्रथम नीति से काम न बने और यह निश्चय हो कि युद्ध से दोनों राज्यों की हो हानि होगी तथा दूसरा राज्य अपने से अधिक शक्तिशालो है जिस को आक्रमण कर के नहीं दबाया जा सकता। ऐसी स्थिति में शत्रु राज्य को थोड़ा धन आदि भेंट स्वरूप देकर उसे अपने पक्ष कर लेना ही हितकारक है ।
१, ज्यास-नीतिका पृ० ३२१ ।
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भेजनीति
तीसरा उपाय भेव है। सोमदेव ने इस की परिभाषा करते हुए लिखा है कि विजिगीषु अपने सेनानायक, तीक्ष्ण व अन्य गुप्तचर तथा दोनों ओर से वेतन पाने वाले गुप्तचरों द्वारा शत्रु की सेना में परस्पर एक-दूसरे के प्रति सन्देह वा तिरस्कार उत्पन्न करा के भेद झालने को भेदनीति कहते हैं । २९,७४) । दण्डनीति
शत्रु का वध करना, उसे पीड़ित करना, उस के धन का अपहरण करना आदि दण्डनीति के अन्तर्गत आता है ( २९, ७५ }। विजिगीषु को अपने मनोरथ को सिद्धि के लिए अन्य चारों उपायों का प्रयोग यथा-अवसर करना चाहिए। जिस समय जैसी नीति की आवश्यकता हो वैसी ही नोति का प्रयोग करना चाहिए । इन नीतियों के सचित प्रयोग से विजय निश्चित हो जाती है।
किस पात्रु से युद्ध किया जाये इस सम्बन्ध में भी आचार्य सोमदेव में उपयोगी विचार व्यक्त किये है-जी इस प्रकार है-"जो जार से उत्पन्न हो अथवा जिस को देश का कोई भी शान ही न हो, लोभी, दुष्ट-हृदय, भुक्त, जिस से प्रजा कब गयो हो, अन्यायी, कुमार्गगामी, द्युत एवं मदिरापान अादि व्यसनों में फंसा हुआ मित्र, अमात्य, सामन्त व सेनापति बादि राजकीय कर्मचारो जिस के विरुद्ध हो" इस प्रकार के शत्रुभूत राजा पर विजिगीषु को आक्रमण करना चाहिए ( २९, ३०)।
विजिगीषु को आश्रयहीन व दुर्बल आश्रय वाले शत्रु से युद्ध कर के उसे नष्ट कर देना चाहिए। यदि कारणवश शय से सन्धि हो जाये वो भी विजिगीषु भविष्य के लिए अपना मार्ग निष्कण्टक बनाने के लिए उम्र का समस्त घन छीन ले या उसे इस प्रकार दलित व दुर्वल बना दे जिस से वह भविष्य में उस का विरोध करने का साहस हो न कर सके (२९, ३१-३२)। जिस के साथ पहले धनी विजिगीषु धारा बैर-विरोध उत्पन्न किया गया है सथा जो स्वयं आकर विजिगीषु से वैर-विरोष करता है । ये दोनों उस के कृत्रिम शत्रु हैं । यदि वे शक्तिहीन है तो इन के साथ विजिगीषु को युद्ध करना पाहिए अन्यथा शक्तिशाली होने की स्थिति में उन्हें सामनीति से ही अपने अनुकुल बनाने का प्रयत्न करना चाहिए ( २९, ३४)।
पाडगुण्य मन्त्र
अन्तर्राष्ट्रीय सम्बन्ध को विनियमित करने वाला यह एक महत्त्वपूर्ण सिद्धान्त है। मण्डल के अन्तर्गत विजिगीषु को अपने सामर्थ्य और शक्ति के अनुसार इन छह गुणों अथवा नीतियों का प्रयोग करना चाहिए ! इन के प्रयोग से राज्यों के पारस्परिक सम्बन्ध निश्चित होते हैं। सोमदेव के अनुसार ये छह गुण इस प्रकार है-१. सन्धि, २. निग्रह, ३. यान, ४. आसन, ५. संथय तथा ६. दुधीभाव ( २९, ४३ : कौटिल्य
अन्तर्राष्ट्रीय सम्बन्ध
॥३
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तथा अन्य प्राचीन आचार्यों ने भी पाड्गुण्य मन्त्र के यही छह गुण बतलाये है। सोमदेव ने इन छह गुणों का विस्तृत विवेचन नीलिवाक्यात में किया है। आचार्य ने इस के लिए एक पृथक् समुद्देश (पागुण्य समुद्देश ) को रचना की है। सोमदेव के अनुसार इन छह गुणों का विवेचन निम्नलिखित हे..
१. सन्धि-जब विजिगीष अग्नी दुर्बलता के कारण शक्तिशाली राज्य से धनादि देकर उस से मैत्री करता है, उसे सन्धि कहते है (२९, ४४) । आचार्य कौटिल्य ने सन्धि की परिभाषा करते हुए लिखा है कि दो राजाओं के बीच भूमि, कोश तथा दण्ड (सेना आदि) प्रदान करने की शर्त पर किये गये प्रणबन्धन को सन्धि कहते हैं।
आचार्य सामदेव ने उन परिस्थितियों का भी उल्लेख किया है जिन में अस्थि गुण का आश्रय लेना चाहिए । जब विजिगीषु शक्तिशाली हो तो उसे शत्रु राजा से आर्थिक दण्ड देकर सन्धि कर लेनी चाहिए (२१, ५१)। यदि विजिगीषु शत्रु द्वारा भविष्य में अपनी कुशलता का निश्चय करे कि न वह विजिगीषु को नष्ट करेगा और न विजिगीषु शत्रु को, तब उस के साथ विग्रह न कर मित्रता ही करनी चाहिए (२९,५३)। जब कोई सीमाधिपति शक्तिशाली हो और वह विजिगीषु की भूमि पर अधिकार करना चाहता हो तो उसे भूमि से उत्पन्न होने वाली घान्य देकर सन्धि कर लेनी चाहिए। उसे भूमि साह देनी साहिए।२:,६५) सामान भूमि से उत्पन्न होने वाली धान्य विनश्वर होने के कारण शत्रु के पुत्र-पौत्रादि द्वारा भोगी नहीं जा सकती, किन्तु भूमि एक बार हाथ से निकल जाने पर पुनः प्राप्त नहीं होती (२९,६६) । इस के अतिरिक्त विजिगोषु द्वारा दी गयी भूमि को प्राप्त करने वाला सीमाधिपति शक्तिशाली होकर फिर उसे नहीं छोड़ता । शक्तिशाली बीमाधिपति का दुर्बल राजा पहले ही धन आदि देकर अपना मित्र बना ले, अन्नथा उस के द्वारा विजिगीषु का सम्पूर्ण धन नष्ट कर दिया जाता है और उस के राष्ट्र का विनाश हो जाता है। जब विजिगीषु स्वर्य दुर्बल हो और शत्रु विशेष पराक्रमो १ महान् शक्तिशाली हो तो उस से सन्धि कर लेनी चाहिए । प्रबल सैनिकों वाले शत्रु के साथ युस न कर सरित्र ही करना उचित है। समान शक्ति वाले राष्ट्रों को भी आपस में कभी युद्ध नहीं करना चाहिए। यदि दा समान शक्ति वाले राज्यों में युद्ध मिल जाता है तो वे दोनों ही नष्ट हो जाते हैं। इसी प्रकार हीन शक्ति वाला विजिगीषु भी प्रबल दाक्ति वाले शत्रु स युद्ध कर के विनाश को प्राप्त होता है (३०, ६८-६५)। कौटिल्य का भी यही विचार है कि उपर्युक्त परि. स्थितियों में सन्धि के अतिरिक्त और कोई उपाय है ही नहीं। कौटिल्य ने अनेक प्रकार की सन्धियों का उल्लेख अर्थशास्त्र में किया है।' १. कौ० अर्थ०७१। २. वही, ७,१।
सत्र पणबन्धसलियः । १.वही,७१। ४. वही, ७,३।
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५
२
२. विग्रह - युद्ध करने को विग्रह कहते हैं। कौटिल्य के अनुसार पात्र के प्रति किये गये द्रोह तथा अपकार को विग्रह कहा जाता है । क्षम के अनुसार इस गुण का प्रयोग तभी करना चाहिए जब विजिगीषु शक्तिशाली हो 1 सोमदेव ने उन परिस्थितियों का भी वर्णन किया है जिन में विग्रहगण विजिगीषु के लिए हितकारक हो सकता है । यदि उन परिस्थितियों के विरुद्ध इस गुण का प्रयोग किया जाता है तो विजिगीषु का विनाश निश्चय रूप से होता है। इन परिस्थितियों का वर्णन सोमदेव ने इस प्रकार क्रिया है- यदि विजिगीषु शत्रु राजा से सैनिक व कोा शक्ति में अधिक है और उस की सेना में क्षोभ नहीं है तब उसे शत्रु राजा से युद्ध छेड़ देना चाहिए ( २९,५२ ) । विजिगीषु यदि सर्वगुण सम्पन्न ( प्रचुर सैन्य व कोश युक्त ) है और उस का राज्य निष्कण्टक है, तो उसे शत्रु के साथ युद्ध करना चाहिए (२९,५४) । इस का अभिप्राय यही कि विजिगीषु को इस बात का ध्यान रखना चाहिए कि युद्ध करने से उस के राज्य में तो किसी प्रकार की हानि नहीं होगी । शक्तिशाली को दोन शक्ति वाले के साथ युद्ध करना चाहिए। सोमदेव का यह भी कथन है कि एक बार जिस शत्रु को पूर्ण रूप से परास्त कर दिया जाये उस पर आक्रमण नहीं करना चाहिए, अन्यथा पीड़ित किया गया शत्रु अपने विनाश की शंका से पुनः पराक्रम शक्ति का प्रयोग करता है (३०,६६) । शत्रु के मधुर वचनों पर कभी ध्यान नहीं देना चाहिए, क्योंकि वह कपटपूर्ण व्यवहार द्वारा विजिगीषु से मुक्ति प्राप्त कर के फिर अवसर पाकर उसे नष्ट कर देता हूँ ( १०, १४१) ।
३. यान — सोमदेव के अनुसार विजिगीषु द्वारा शत्रु पर आक्रमण किये जाने को यान कहते हैं । अथवा शत्रु को अपने से अधिक शक्तिशाली समझकर अन्यत्र प्रस्थान को भी यान कहते हैं ( २९, ४६ ) । जब विजयाभिलाषी राजा ऐसा समझ लेता है कि शत्रु के कार्यों का विध्वंश उस पर आक्रमण कर के हो सम्भव है और उस ने स्वयं अपने राज्य की रक्षा का प्रबन्ध कर लिया है तो ऐसी परिस्थिति में उस राजा को यानगुण का आश्रय लेना होगा । सोमदेव ने यह बात भी स्पष्ट कर दी है कि विजिगीषु को दान देश पर अभियान तभी करना चाहिए जब कि अपना देश पूर्णरूपेण सुरक्षित हो। यदि अपने देश में सुरक्षा एवं व्यवस्था का अभाव है तो उसे शत्रु पर कदापि आक्रमण करने के लिए प्रस्थान नहीं करना चाहिए। अन्यथा उस के गमन करते ही उस के देश में अव्यवस्था फैल जायेंगी, अथदा उम्र के राज्य पर अन्य कोई शत्रु आक्रमण कर देगा । जिस का सामना करना बहुत कठिन हो जायेगा ।
४. आसन - सोमदेव ने आसन गुण का अर्थ इस प्रकार किया है - " सबल शत्रु को आक्रमण करने के लिए तत्पर देखकर उस की उपेक्षा करना ( उस स्थान
१. कौ० अ० ७.१ ५ अपकारी विग्रहः २, वहीं. ७, ३ ।
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को छोड़कर अन्यत्र चले षाना ) आसान है ।" कौटिल्य के अनुसार सन्धि आदि गुणों की उपेक्षा का नाम आसन है।'
५. संश्नय-बलिष्ठ शत्रु द्वारा आक्रमण किये जाने पर किसी दूसरे शक्तिशाली राजा के यहाँ मात्रय प्राप्त करने को संश्रय कहते हैं (२९, ४८)। कौटिल्य के अनुसार किसी अन्य शक्तिशाली राजा के पास स्वयं को, अपनी स्त्री तथा पत्र एवं घना घान्य मादि के समपंप कर देने को संश्रय कहते हैं । झाक ने इस को माथय कहा है। इस का अभिप्राय यह है कि जब राजा अपनी हीन दशा देखे और शत्रु दाक्तिशाली हो तथा पराजय की अधिक सम्भावना हो तो उस स्थिति में राजा को अन्य शक्तिशाली राजा का आश्रय प्राप्त कर अपनी रक्षा का प्रयत्न करना चाहिए । शुक्र के अनुसार जिन राजाओं का आश्रय प्राप्त कर के दुर्बल राजा भी शक्तिशाली बन जायें, उन का प्रश्रय प्राप्त करना आश्रय कहलाता है।
निर्बल राजा को कौन से राजा का आश्रय प्राप्त करना चाहिए इस सम्बन्ध म याचार्य सोमदेव लिखसे है कि शक्तिहीन विजिगोषु शक्तिशाली का ही आक्षय प्राप्त करे। दुर्बल का नहीं, क्योंकि जो विजिगीषु शक्तिशाली शत्रु के आक्रमण के भय से होन राजा का आश्रय प्राप्त करता है उस की हानि उसी प्रकार होती है जिस प्रकार कि हाथी द्वारा होने वाले उपद्रव के भय से भरण्ड पर चढ़ने वाले व्यक्ति को तत्काल हानि होती है (२९,५७)।
६. द्वैधीभाव-सोमदेव के अनुसार बलिष्ठ राजा के साथ सन्धि तथा दुर्बल के साथ युद्ध को द्वैधीभाव कहते हैं (२९, ४९)। जब विजिगी त्रु को यह ज्ञात हो जाये कि आक्रान्ता शत्रु उस के साथ युद्ध करने को तत्पर है तो उस घीभाव का आषय लेना चाहिए । गोमदेव ने बुद्धि-श्राथित द्वैधीभाव का भी उल्लेख किया है जो इस प्रकार है--जब विजिगीषु अपने से बलिष्ठ शत्रु के साथ पहले मैत्री कर लेता है और फिर कुछ समय उपरान्त शत्रु का पराभव हो जाने पर उसी से युद्ध छेड़ देता है तो उसे
द्धि-आश्रित वैषीभाव कहते है ( २९,५०)। क्योंकि इस से विजिगीषु की विजय निश्चित होती है।
___ कुछ ग्रन्थों में द्वैधीभाष का अर्थ अन्य प्रकार से ही व्यक्त किया गया है। विष्णुपुराण में सेना को दो भागों में विभाजित करने को द्वैषीभाव कहा गया है। शुक्र के अनुसार अपनी सेना को पृथक्-पृथक् गुल्मों में विभाजित करना द्वैधीभाव है ।
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१. कौ० अर्ध०५, १ ।
उपेक्षगमासनम्। २. वही, ७,१। ३. शुक्र० ४.१०६६। ४, विष्णु०२, १५०:३५ । ५. शुन .१०७०।
धीमात्रः संन्यानो स्थापय गुतमगुरमतः ।
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इस प्रकार साम-दामादि चार उपाय एवं सन्धिविग्रहादि षाड्गुण्य राजशास्त्र के महत्त्वपूर्ण सिद्धान्त हैं । इन के समुचित प्रयोग से राज्य को स्थिति सुदृढ़ बनी रह सकती है। जिस प्रकार प्रजा में सन्तोष के लिए एवं राज्य में सुख और समृद्धि के लिए सुशासन आवश्यक है, उसी प्रकार किसकी कूरा लिए अपने राज्य की सुरक्षा के लिए इन नीतियों का प्रयोग बहुत आवश्यक समझा गया है । इस में भूल होने का परिणाम राज्य के लिए घातक होता है । अतः इस सम्बन्ध में पूर्णरूपेण सतर्क रहने का आदेश धर्मशास्त्र तथा अर्थशास्त्र दोनों में ही दिया गया है ।
युद्ध
शान्तिपूर्ण
आचार्य सोमदेवरि का मत है कि जहाँतक सम्भव हो बुद्धि से उपायों द्वारा राजा को अपने पारस्परिक झगड़ों का निबटारा करना चाहिए (३०, २) । बुद्धिबल सर्वश्रेष्ठ होता है। जो कार्य शस्त्रबल से सिद्ध नहीं होते ने बुद्धिबल से सिद्ध हो जाते है ( ३०, ५-६ ) । साम, वाम, भेद आदि उपायों में बुद्धि का ही प्रयोग होता है | अतः जहाँ तक सम्भव हो इन उपायों द्वारा राजा को अपने उद्देश्य की पूर्ति करनी चाहिए। परन्तु जब वह इन उपायों द्वारा असफल हो जाये तभी शस्त्र युद्ध
करने का विचार करना चाहिए ( ३०, ४) ।
१
कभी-कभी युद्ध अनिवार्य भी हो जाता है । अतः ऐसे अवसर पर पूर्ण तैयारी के साथ युद्ध करना तथा दुष्टों का दलन करना राजा का परम धर्म है। उस के लिए रणक्षेत्र में मृत्यु प्राप्त करना प्राचीन आचार्यों की दृष्टि में परम आदर्श है | मनु का निर्देश है कि प्रजा की रक्षा करते हुए राजा को मुख-क्षेत्र से भागना नहीं चाहिए और जो इस पुनीत कार्य को करते हुए मृत्यु को प्राप्त होते हैं उन्हें स्वर्ग मिलता है । महाभारत में भीष्म कहते हैं कि क्षत्रिय के लिए घर में मृत्यु प्राप्त करना पाप है । उस के लिए तो प्राचीन परम्परा यही है कि युद्ध करते-करते युद्ध क्षेत्र में उस की मृत्यु होनी चाहिए । आचार्य सोमदेव ने भी इन्हीं भावों को नोतिवाक्यामृत में व्यक्त किया है। उनका कथन है कि शत्रु के आक्रमण से भयभीत होकर अपनी मातृभूमि को छोड़कर विजिगीषु को कहीं भागना नहीं चाहिए, अपितु राष्ट्र की रक्षा करते हुए अपने प्राणों का बलिदान कर देना चाहिए ( २०, १२ ) ।
युद्ध के सम्बन्ध में विजिगीषु के लिए कुछ निर्देश
आचार्य सोमदेव का कथन है कि युद्ध का निर्णय बहुत सोच-विचार कर फरमा चाहिए। क्रोध के आवेश में नहीं। कभी-कभी वह क्रोष के आवेश में आकर बलिष्ठ
१. धनु०७
२ महा० भीम० ११ ११ ।
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शत्रु से भी युद्ध को तत्पर हो जाता है। ऐसी स्थिति में उस का विनाश अवश्यम्भावी हो जाता है (३०, ११) । अपने विनाश के निश्चित हो जाने पर भी राजा को युद्ध क्षेत्र से भागना नहीं चाहिए पनि युद्ध में कह पाए क्योंकि भागने वाले की मृत्यु निश्चित ही रहती है ( ३०, १२ ) । परन्तु युद्ध में यह बात निश्चय पूर्वक नहीं कही जा सकती कि युद्ध करने वाले की अवश्य ही मृत्यु हो जायेगी । यदि यह दीर्घ आयु है तो उस की सफलता अवश्य ही होती | विजय और पराजय तथा जीवन और मृत्यु विधि के अधीन है ( ३०, १५ ) । सोमदेव का मत है कि यदि शत्रु अपने से अधिक शक्तिशाली हो तो उस से युद्ध कभी नहीं करना चाहिए, अपितु सन्धि ही कर लेनी चाहिए । जिस प्रकार पदाति सेनिक हस्ति आरूढ़ सैनिक से युद्ध करने पर नष्ट हो जाता है उसी प्रकार हीन शक्ति वाला राजा भी अपने से अधिक शक्तिशाली राजा के साथ युद्ध करने से नष्ट हो जाता है ( ३०, ६९ ) । युद्ध के समय विपक्ष से आये हुए किसी भी अपरीक्षित व्यक्ति को अपने पक्ष में नहीं मिलाना चाहिए । यदि उसे अपने पक्ष में मिलाना आवश्यक हो तो भली-भाँति परीक्षा करने के उपरान्त हो उसे अपने पक्ष में मिलाना चाहिए। उसे यहाँ ठहरने नहीं देना चाहिए ( ३०, ५० ) । शत्रु के कुटुम्बो, जो कि उस से अप्रसन्न होकर वहाँ से चले आये हों उन्हें परीक्षोपरान्त अपने पक्ष में मिलाना चाहिए, क्योंकि शत्रु सेना को नष्ट करने का प्रमुख मन्त्र यही है ( ३०, ५० तथा ५१ ) ।
इसके साथ ही विजिगीषु जिस शत्रु पर आक्रमण करे उस के कुटुम्बियों को साम, दाम बादि उपायों द्वारा अपने पक्ष में मिलाकर उन्हें शत्रु से युद्ध करने के लिए प्रेरित करना चाहिए ( ३०, ५४-५६ ) । विजिगीषु का कर्तव्य है कि शत्रु ने उस की जितनी हानि की है उस की उस से अधिक हानि कर के उस के साथ सन्धि कर लेनी चाहिए। दोनों शत्रु कुपित होने पर हो सन्धि के सूत्र में बंध सकते हैं, उस से पूर्व नहीं ( ३०, ५७ ) । समान शक्ति वालों का परस्पर युद्ध होने से दोनों का मरण निश्चित होता है और विजय प्राप्ति सन्दिग्ध रहती है। जिस प्रकार कच्चे घड़े परस्पर एक दूसरे से साड़ित किये जायें तो दोनों नष्ट हो जाते हैं । उसी प्रकार समान शक्ति वाले शत्रुओं का युद्ध होने से दोनों ही मष्ट हो जाते हैं ( ३०, ६८ ) ।
संन्ध-संगठन
किसी भी राजा की विजय सुशिक्षित सेना पर ही निर्भर है। अतः राजा का यह कर्तव्य है कि वह एक सुशिक्षित तथा शक्तिशाली सेना का संगठन करे। आचार्य सोमदेव का कथन हैं कि शक्तिहीन तथा कर्तव्य विमुख अधिक सेना की अपेक्षा शक्तिशाली एवं कर्तव्यपरायण अल्प सेना उत्तम है ( ३०, १६ ) । जब शत्रु द्वारा उपद्रव किये जाने पर विजिगीषु की सारहीन सेना मष्ट हो जाती है, तो उस की शक्तिशाली सेना भी अधीर हो जाती है (३०, १७ ) । अतः विजिगीषु को दुर्बल सेना कभी
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नहीं रखनी चाहिए । सैन्य-शक्ति ही विजिगीषु का बल है। राजा का यह कर्तव्य है कि वह उस को सक्षम तथा सशक्त बनाये रखे। इस की शक्ति को क्षीण न होने दे। सेना की शक्ति क्षीण होने से राजा की शक्ति भी क्षीण हो जाती हैं। सोमदेव ने ऐसे राजा को उपमा जंगल से निकले हुए उस शेर से दी है जो गीदड़ के समान शक्तिहीन हो जाता है ( ३०, ३६ )। युद्ध के भेद
प्रायः सभी आचार्यों ने युद्ध के दो भेद बतलाये है-(१) धर्मयुद्ध तथा (२) कूटयुद्ध। आचार्य कौटिल्य ने तीन प्रकार के युद्धों का उल्लेख किया है, जो इस प्रकार है-~-( १ ) प्रकाशयुद्ध, फूटयुद्ध और ( ३ ) तूष्णोयुद्ध । आचार्य सोमदेवसूरि ने केवल दो प्रकार के युद्धों का वर्णन किया है ( ३०, ९१)। उन्होंने कूट युद्ध की व्याख्या करते हुए लिखा है कि एक शत्रु पर आक्रमण प्रकट कर के वहाँ से अपनी सेना लौटाकर युद्ध द्वारा जो अन्य शत्रु का पात किया जाता है उसे फूटयुद्ध कहते है (३०, ९०) । तूष्णीयुद्ध यह युद्ध है जिस में विष देने वाला घातक पुरुषों को भेजा जाता है अथवा एकान्त में चुपचाप स्वयं शत्रु के पास जाकर एवं भेदनीति के उपायों द्वारा शत्रु का घास किया जाता है (३०, ९१) ।
धर्मयुद्ध
प्राचीन काल में धर्मयुख को बहुत महत्त्व दिया जाता था। इस युद्ध के निर्धारित नियम थे और इन्हीं के अनुसार युद्ध किया जाता था। धर्मयुद्ध के नियम मानवोधित दयादि गुण से युक्त होते थे । इस का उद्देश्य शत्रु का विनाश नहीं होता, अपितु उस को पराजित कर के अपनी अधीनता स्वीकार कराना ही इस का उद्देश्य था । इस में विपैले बाणों आदि का प्रयोग तथा अग्निबाणों का प्रयोग वजित था। इस के साय हो यह युद्ध समान शक्ति वालों के साथ होता था, जिस में पैदल सेना पैदल से तथा हस्ति सेना हस्ति सेना से और रथारूढ़ रथारूढ़ों से युद्ध करते थे। यदि युद्ध में किसी का रथ टूट जाता था अथवा कोई घायल हो जाता था तो उस पर आक्रमण करना धर्म युद्ध के नियमों के विरुद्ध माना जाता था। धर्मयुद्ध का उद्देश्य तो धर्म की स्थापना करना एवं अधर्म का नाश करना था। परन्तु सार्वभौम बनने की सस्कृष्ट अभिलाषा के कारण अश्वमेधादि यज्ञों द्वारा पराक्रम प्रकट करने के लिए भी युद्ध किया जाता था। अब शत्रु पर धर्मयुद्ध द्वारा विजय प्राप्त करना असम्भव दिखाई देता था तो ऐसी स्थिति में कूटयुद्ध का भी प्रश्रय लिया जाता था।
१. कौ० अ०७है। विक्रमस्य प्रकाशगुन' कुटयुव तुष्णीवमिति सम्धिविक्रमौ।
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युद्ध के लिए प्रस्थान
जब विजिगीषु शत्रुयुद्ध करने के लिए प्रस्थान करे तो उस के सेनाध्यान का यह कर्तव्य है कि वह आधी सेना को शस्त्रादि से सुसज्जित कर के रक्षित रखे, तदुपरास्त विजिगीषु को शत्रु पर आक्रमण करने के लिए प्रस्थान करना चाहिए। जब बह शत्रु सैन्य की ओर प्रस्थान करने में प्रयत्नशील हो, तब उस के समीप चारों ओर सेना का पहरा रहना चाहिए तथा उस के पीछे शिविर में भी सेना विद्यमान रहनी चाहिए (३०, ९६) । इस का कारण यह है कि विजिगीषु कितना ही शक्तिशाली क्यों न हो, परन्तु वह यान के समय व्याकुल हो जाता है और शूरवीर लोग उस पर प्रहार कर देते हैं । जब विजिगीषु दूरवर्ती हो और शत्रु को सेना उस की ओर जा रही हो तो ऐसे अवसर पर वन में रहने वाले उस के मुप्तचरों को चाहिए कि वे धुआं करने, आग जलाने, धूल उड़ाने अथवा भैसे का सींग फंकने का याद करने का बहाना कर के उसे शत्रु की सेना के आने का समाचार दें, ताकि उन का स्वामी सावधान हो जाये (३०,९६)। विजिगीषु शत्रु के देश में पहुंचकर अपनी सेना का पड़ाव ऐसे स्थान पर स्थापित करें जो मनुष्य की ऊँचाई के बराबर ऊंचा हो, जिस में थोड़े व्यक्तियों का प्रवेश, भ्रमण तथा निकास हो, जिस के आगे विगाल ममा सरल के लिए पर्याप्त स्थान हो, उस के मध्य में स्वयं ठहर कर उस में अपनी सेना को टहरावे । सर्व-साधारण के आने-जाने योग्य स्थान में सैन्य का पड़ाव डालने एवं स्वयं ठहरने से विजिगीषु अपनी प्राण रक्षा नहीं कर सकता है (३०, ९८-९९) । विजिगीषु पैदल, पालको अथवा घोड़े पर चढ़ा हुवा शत्रु भूमि में प्रविष्ट न होवे, क्योंकि ऐसा करने से अचानक शत्रु द्वारा उपद्रव किये जाने पर वह उन से अपनी रक्षा नहीं कर सकेगा ( ३०, १००)। अब विजिगीषु हाथों अथवा वाहन-विशेष पर आरूढ़ हुआ शत्रु-भूमि में प्रविष्ट होता है तो उसे शत्रु के उपद्रवों का भय नहीं रहता (३०,१०१)।
नगर का घेरा किस अवसर पर डालना उचित होगा, इस सम्बन्ध में आचार्य सोमदेव लिखते हैं कि जब शत्रु महापान आदि व्यसनों व आलस्य में प्रसित हो तथा विजिगीषु को उत्तम सैन्य उस के नगर में भेजकर शत्रु-नगर का घेरा डालना चाहिए १३०, ८९)। प्यूह और उस का महत्त्व
युद्धक्षेत्र में संग्राम करने के लिए सेना को जो व्यवस्था की जाती है उसे न्यूह कहते हैं। व्यूह-रचना भी मुख को दृष्टि से महान् कौशल है। कभी-कभी इसी म्यूहरचना-कोपाल के कारण अल्पसंख्यक सेना बहुसंख्यक सेना पर विजय प्राप्त कर लेती है। कुरुक्षेत्र में पाण्डवों की व्यूह रचना इस का प्रत्यक्ष प्रमाण है। पाण्डव नित्य नये दंग का व्यूह बनाया करते थे, इसी कारण उन को. अपेक्षाकृत अस्प सेना कोरबों की विशाल सेना पर विजयी हुई। व्यूह-रवना दो प्रकार से की जाती है, एक तो वह
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जिस समय सेना युद्ध में प्रविष्ट होती है और दूसरी बह जब प्रमुख सेना शत्रु की दृष्टि से परे रखी जाती है और छोटी-सी सेना समाफर उस के समक्ष उपस्थित कर दी जाती है।
पान तथा कौटिल्य ने व्यूहरचना के सम्बन्ध में बड़े विस्तार के साथ विवन किया है। कौटिल्य के अनुसार मकर न्यूह, शकटमूह, भय म्यूह, भव्यूह, शूधिब्यूह, दण्डव्यूह, भोगव्यूह, मण्डलन्यूह, संहतम्यूह आदि व्यूहों के प्रकार है। आचार्य सोमदेव का कथन है कि अच्छी प्रकार से रचा हुआ सैन्य-व्यूह उस समय तक ठोक व स्थिर रहता है, जबतक कि उस के द्वारा शव सैन्य दृष्टिगोचर नहीं होता (३०,८७) । इस का अभिप्राय यह है कि शत्रु सेना दिखाई पड़ने पर विजिगीषु के वीर सैनिक अपना व्यूह छोड़कर शत्रु सैन्य में प्रविष्ट होकर उस से भयंकर युद्ध करने लगते हैं । इस प्रकार रखा हुआ ब्यूह अस्थिर हो जाता है । आचार्य सोमदेव का यह भी निर्देश है कि विजिगीषु के वीर सैनिकों को युद्धकला की शिक्षानुसार युद्ध करना चाहिए, अपितु उन्हें हाल द्वारा किये जाने वाले महानी नो यार में लमही युद्ध करना चाहिए । (३०, ८८)। युद्ध के नियम
प्राचीन काल में युद्ध के भो कतिपय नियम थे। इन्हीं नियमों के अनुसार युद्ध किया जाता था और उन का अतिक्रमण करना बहुत बुरा समझा जाता था । शुक्रनीति की भांति नीतिवाक्यामृत में इस विषय का विस्तारपूर्वक विवेचन नहीं हुआ है किन्तु फिर भी उस में कतिपय नियमों का उल्लेख मिलता है । सम्भवतः सोमदेव भी युद्ध के परम्परागत नियों को ही मानते थे । इसी कारण उन्होंने इस विषय का विशद विवेचन अपने ग्रन्थ में नहीं किया है। वे लिखते हैं कि संग्राम-भूमि में पैरों पर पड़े हुए भयभीत, कास्त्रहीन दाशु की हत्या करने में ब्रह्महत्या का पाप लगता है (३०, ७५)। युद्ध में जो शत्रु बन्दी बना लिये गये ही उन्हें वस्त्रादि देकर मुक्त कर देना चाहिए (३०, ७६) । विजय के उपरान्त विजिगीषु का कर्तव्य
विजेता का विजित देश के शत्रु के प्रति क्या कर्तव्य होना चाहिए, आचार्य सोमदेव ने इस सम्बन्ध में कोई प्रकाश नहीं साला है। परन्तु रामायण, महाभारत, अग्निपुराण, कौटिलीय अर्थशास्त्र आदि ग्रन्थों में इस विषय की चर्चा की गयो है। सम्भवत: सोमदेव भी इस से सहमत थे । याज्ञवल्क्य स्मृति में कहा गया है कि विजेता का यह कर्तव्य है कि वह अपने देश की भांति ही विजित प्रदेश को भी रक्षा करें और यहाँ की प्रथाओं, परम्पराओं एवं पद्धतियों को मान्यता प्रदान करे। इसी प्रकार
१०,४।
१. दुक०४, १९०४ तथा की व २. कौ० अर्थ० १०, २। ३. याज्ञ०१, ३४२-४३॥
अन्तर्राष्ट्रीय सम्बन्ध
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कौटिल्य ने भी कहा है कि विजेता को विजित रामा की मूर्ति, धन, पुत्र तथा पत्नी आदि पर अधिकार नहीं करना चाहिए । अन्यपा उस से मण्डल के राजा अप्रसन्न हो जायेंगे और मृतक राजा के पुत्र या उस के वंशज को राजसिंहासन पर आसीन कर देंगे।' राजनीतिप्रकाश का कथन है कि विजित राजा भले ही दोपो हो किन्तु विजेता को उस के दोष के कारण उस के देश को नष्ट नहीं करना चाहिए, क्योंकि उस ने कभी जनता से परामर्श लेकर तो दोषपूर्ण व्यवहार प्रारम्भ नहीं किया था। शुक्र के मत में इस सम्बन्ध में थोड़ा अन्तर है। ये लिखते हैं कि शत्रुओं को जीतकर राजा को उन से कर ग्रहण करना चाहिए अथवा राज्य का अंश अथवा समस्त राज्य को हस्तगत कर लेना चाहिए और प्रजा को आनन्दित करना चाहिए । मृतराजा के योग्य पुत्र अथवा वंशज को उस के राजसिंहासन पर आसीन कर देना चाहिए तथा उस के विजित प्रदेश का बत्तीसर्वा भाग उस के निर्वाह के लिए देने की व्यवस्था कर देनी चाहिए।
भारतीय इतिहास के अबलोकन से विदित होता है कि प्राचीन सम्राट् तथा विजेता प्रायः इन नियमों के अनुसार ही व्यवहार करते थे। युद्ध में मारे गये सैनिकों की सन्तति के प्रति राजा का कर्तव्य
आचार्य सोमदेव ने युद्ध में मारे गये सैनिकों की सन्तति का पालन-पोषण करना राजा का पुनीत कर्तव्य बत्ताया है। यदि वह ऐसा नहीं करता है तो वह सदैव उन का ऋणी रहता है। आचार्य ने इसे अनर्थ कहा है और इस का परिणाम राजा के लिए हानिकारक बतलाया है (२०, ९) । वास्तव में युद्धस्थल में मृत्यु को प्राप्त हए सैनिकों को सन्तति का उचित ढंग से पालन-पोषण करने का उत्तरदायित विजिगीपु का होमा सर्वथा उचित ही है।
१. कौ० अर्य, १६। कर्मणि मृतस्य पूर्व राज्य स्थापयेत् । एवमय इण्टोपनताः पुत्रपौत्राननुवतन्ते । यस्ट्रमातान्हवा वध्या नाविन्यपुत्रदारानभिमन्यत सस्मोहिग्न मण्डलमभानायोपतिते । २. राजनीतिप्रकाश-पृष्ठ ११ । ३. शुक्र०४, १२६१-१९६२ तथा १२१०-१२१८ ।
नीविषाक्यामृत में राजनोसि
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न्याय-व्यवस्था
या मुझे का दमन करना राजाका प्रमुख
कर्तव्य
|
२
3
४
निष्पक्ष न्याय करना वह न्याय का स्रोत था । मनु का कथन है कि जो राजा अदण्डनीय को दण्ड देता है और दण्डनीय को दण्ड नहीं देता वह नरकगामी होता है । आचार्य शुक्र ने राजा के आठ कर्तव्यों में दुष्टनिग्रह को भी प्रधान कर्तव्य माना है । महाभारत के अनुसार न्याय व्यवस्था का मंदि उचित प्रवन्ध न हो तो राजा को स्वर्ग तथा यश की प्राप्ति नहीं हो सकती । याज्ञवल्क्य का कथन है कि न्याय के निष्पक्ष प्रशासन से राजा को बहो फल प्राप्त होता है जो यज्ञ आदि के करने से प्राप्त होता है । अतः निष्पक्ष न्याय राजा को यश एवं स्वर्ग को प्रदान करने वाला तथा प्रजा को सुख एवं शान्ति प्रदान करने वाला होता 1 आचार्य सोमदेव भी इसी प्राचीन परम्परा के अनुयायी थे । उन का कथन है कि जब राजा यम के समान कठोर होकर अपराधियों को दण्ड देता है तो प्रजा अपनी मर्यादा में स्थिर रहती है तथा राजा को धर्म, अर्थ और काम आदि पुरुषार्थी की प्राप्ति होती है (५, ६० ) । अन्यत्र आचार्य ने लिखा है कि जब राजा न्यायपूर्वक प्रजा का पालन करता है तब सम्पूर्ण दिशाएं प्रजा को अभिलषित फल प्रदान करने वाली होती हैं ( १७, ४५) ।
प्रशासन में न्याय के महत्व का वर्णन करने के साथ हो आचार्य सोमदेव का यह भी कथन है कि जो राजा न्यायपूर्वक शासन नहीं करता वह प्रजापीड़न तथा असन्तोष का दोषी होता है और इस के परिणामस्वरूप वह नष्ट हो जाता है (८, २० ) । अतः न्याय व्यवस्था शासन के स्थायित्व का मूलाधार है ।
न्यायालय
राज्य में शान्ति और व्यवस्था की स्थापना के लिए न्याय व्यवस्था आवश्यक है । निष्पक्ष न्यायालय नागरिकों में राजभक्ति एवं विश्वास उत्पन्न करते हैं और उन
१. शुक्र० १. ९४ था नारद० प्रकीर्णक २३ |
२. कौ० अ० ९.९१ ०
२. मनु०८,१२८
४. ०] १. १२३ ॥
दुष्टनियन दानं प्रजायाः परिपालनम्।
राजने राजसूयाः कोशानो न्यायतोऽर्जनम् ॥
५. महान शान्ति०६६ ३२ ॥
१३५६०६०
न्याय-व्यवस्था
1+1
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के अधिकारों की रक्षा करते है । यद्यपि सोमदेव ने निष्पक्ष न्याय की आवश्यकता एवं महत्व पर बहुत बल दिया है, किन्तु न्यायालयों के संगठन एवं न्यायाधीशों की योग्यता भादि के सम्बन्ध में नीतिवाश्यामृत में अधिक सामग्री उपलब्ध नहीं होती। इस के अध्ययन से यह ज्ञात होता है कि नगरों तथा ग्रामीण क्षेत्रों में न्यायालयों को उचित व्यवस्था थी (२८, २२) । प्रत्येक न्यायालय में कितने न्यायाधीश होते थे तथा उन का क्या क्षेत्राधिकार था इस सम्बन्ध में उन के ग्रन्थ में कोई वर्णन नहीं मिलता । अर्थशास्त्र में दिवानी तथा फौजदारो के न्यायालयों का स्पष्ट उल्लेख है ।' किन्तु नीतिवाक्यामृत में ऐसा कोई उस्लेख नहीं ।
न्याय-प्रणाली के शिखर पर राजा का न्यायालय था जो राजधानी में स्थापित था (२८, २७) । इस न्यायालय को सोमदेव ने सभा तथा इस के सदस्यों को सम्म कहा है (२८, ३ तथा ७)। इस सभा का सभापति स्वयं राजा होता था जो इन सभ्यों को सहायता से न्याय करता था {२८, ५)। सभा में कितने सभासद होते थे इस विषय में आचार्य ने कुछ नहीं लिखा है। प्राचीन नीलिशास्त्र के अन्थों में भी न्यायालय के लिए सभा तथा उस के सदस्यों के लिए सभ्य शब्द का प्रयोग किया गया है। और सोमदेव ने भी इन्हीं शब्दों को अपनाया है। इस प्रकार आचार्य सोमदेव प्राचीन न्याय-व्यवस्था के ही समर्थक प्रतीत होते हैं ।
___नीतिवाक्यामृत के अध्ययन से ज्ञात होता है कि उपर्युक्त न्यायालय के दो प्रकार के क्षेत्राधिकार थे । प्रथम, तो राजधानी की सीमा में होने वाले समस्त विवादों का निर्णय करने का मौलिक अधिकार इसे प्रास था और द्वितीय, अन्य नगरों एवं ग्रामीण क्षेत्रों में होने वाले निर्णयों की अपील सुनने का अधिकार भी इसे प्राप्त था (२८, २२)। निम्नस्तर के न्यायालयों के निर्णय के विरुद्ध अपील सुनने की उचित व्यवस्था था। यह अपील राजा के म्यायालय में की जाती थी। राजा का न्यायालय सर्वोच्च न्यायालय था और उस के निर्णय के विरुद्ध कोई अपील नहीं हो सकती थी। इस का निर्णय अन्तिम था। सोमदेव लिखते हैं कि राजा द्वारा दिया गया निर्णय मिर्दोष होता है। अत: जो वादी अथवा प्रतिवादी राजकीम आशा अथवा मर्यादा का उल्लंघन कर उसे मृत्यु दण्ड दिया बाम (२८, २३)। आचार्य ने राजकीय आज्ञा को बहुत महत्त्व दिया है। उन का कथन है कि राजकीय माज्ञा किसी के द्वारा भी उल्लंघन नही की जा सकती ( १७, २५)। आगे वे लिखते है कि जिस की आज्ञा प्रजाजनों द्वारा उल्लेधन की जाती है, उस में और चित्र के राजा में क्या अन्तर है (१७, २४ )।
१, की अर्थ०१. १ तथा ३, ६ एवं ४.१ । २. मनु०,८,१२ । धर्मो सिद्धाश्यधर्मेश सभा सत्रोपतिष्ठते । शय चास्य न मृन्तरित विबास्तव सभासदः ।
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सभ्यों की योग्यता एवं नियुक्ति
नीतिवाक्यामृत में सभा के सदस्यों ( सम्बों ) की योग्यता के सम्बन्ध में कुछ प्रकाश डाला गया है । सभा के सदस्य सूर्य के समान प्रकाश करने वाली प्रतिभा से युक्त होने चाहिए (२८, ३)। जिस प्रकार सूर्य अन्धकार को दूर कर के प्रकाश का संचार करता है, उसो प्रकार सभ्यों को निष्पक्ष भाव से अपराधी के दोषों पर विचार कर के उसे राजा के समक्ष प्रकाशित करना चाहिए । इस के अतिरिक्त सम्यों को धर्मज्ञ (कानुन का शाता), शास्त्रज्ञ , ध्यवहार का ज्ञाता तथा अपने उत्तरदायित्वों का पालन करने वाला होना चाहिए । आचार्य सोमदेव ने लिखा है कि जिन सम्यों ने स्मृति प्रतिपादित व्यवहार का न तो अध्ययन द्वारा ज्ञान हो प्राप्त किया है और न धर्मज्ञ ( कानून के ज्ञाता) पुरुषों के सत्संग से उन व्यवहारों का श्रवण ही किया है और जो राजा से ईया एवं वाद-विवाद करते हैं वे राजा के शत्रु हैं, सभ्य नहीं ( २८, ४)। आगे आचार्य यह भी लिखते है कि जिस राजा की सभा में लोभ और पक्षपात के कारण अयथार्थ महान लाते सभादः ()ोग, मिरवरा हो भारत (राजा) को तत्काल मान व अर्थ की हानि करेंगे (२८, ५) । अत: सम्यों को कानून का पूर्ण ज्ञाता, निष्पक्ष एवं निर्लोभ होना चाहिए। आचार्य का कथन है कि ऐसी सभा में विवाद को प्रस्तुत नहीं करना चाहिए जो स्वयं सभापति प्रतिबादी हो। सभ्य और सभापति के असामंजस्य से विजय नहीं हो सकती । जिस प्रकार बलिष्ठ कुत्ता भी अनेक बकरों द्वारा परास्त कर दिया जाता है उसी प्रकार प्रभावशाली वादी विरोधी राजादि द्वारा परास्त कर दिया जाता है (२८, ६)।
न्यायकार्य अत्यन्त उत्तरदायित्वपूर्ण होता है। अतः राजा इस कार्य को तथा अन्य प्रजा कार्यों को स्वयं ही देखें, उन्हें किसी मन्त्री अथवा अमात्य पर न छोड़े।
प्रकार्य स्वमेघ पश्येत् ।
-नोतिवा० १७, ३६ इस के अतिरिक्त आचार्य का यह भी कथन है कि राजा को अपनी प्रजा के साथ निष्पक्ष रूप से तथा समदृष्टि से व्यवहार करना चाहिए । उस के गुण-दोषों का निर्णय तुला को भांति तौलकर ही करना चाहिए (२८, १)।
अपराध को परीक्षा किये बिना दण्ड देने का निषेध
न्यायालय द्वारा उचित परीक्षा के बिना किसी भी व्यक्ति को दण्ड नहीं देना चाहिए । न्याय के हित में यह आवश्यक है कि पहले अभियुक्त को अपराध सिद्ध हो, लम्ब से दण्डित किया जाये। अपने क्रोध को शान्त करने अपना बदला लेने की भावना मे किसी भी व्यक्ति को दण्ड देना राजा के लिए सर्वथा अनुचित है (९, ४)।
न्याय व्यवस्था
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२
३
कार्य विधि - कोटिल्य अर्थशास्त्र, धर्मशास्त्र तथा अन्य नीतिशास्त्र के ग्रन्थों में कानून के चार प्रमुख बाधार बताये गये हैं--१, धर्म, २. व्यवहार, ३ चरित्र तथा ४. राजशासन इन्हीं आधारों के अनुसार न्याय किया जाता था । राजसंस्था के और अधिक विकसित हो जाने पर न्याय ( न्यायाधीशों के विचार ) और मीमांसा ( कानूनों की व्याख्या) को भी कानून का आधार माना जाने लगा । इसी लिए याज्ञवल्क्य ने श्रुति, स्मृति, शिष्टाचरण, व्यवहार न्याम, मीसांसा और राजकोय आशाओं को कानून का आधार माना है । याज्ञवल्क्य स्मृति भारतीय राज्य संस्थाओं के उस स्वरूप को प्रकट करती है जबकि कानून का रूप भली-भांति विकसित हो चुका था। शुक्र ने देश, जाति, जनपद, कुल य श्रेणी के कानूनों के अनुसार न्याय करने का आदेश दिया है । इस के विरुद्ध आचरण करने से प्रजा में क्षोभ उत्पन्न हो जाता है । मनु तथा अन्य धर्मशास्त्रों के रचयिताओं ने इस सिद्धान्त को आवश्यक बतलाया है कि विवादों का निर्णय जनपद, जाति, श्रेणी तथा कुल के परम्परागत घर्मो के अनुसार होना चाहिए। सोमदेव ने इस सम्बन्ध में कुछ नहीं लिखा है । सम्भवतः वे प्रायोन परम्परा को ही मानते थे, इसी कारण उन्होंने इस सम्बन्ध में अपने विचार व्यक्त करना आवश्यक नहीं समझा। इसी प्रकार न्यायालयों की कार्य-विधि के सम्बन्ध में भी उस के ग्रन्थ में कोई स्पष्ट निर्देश नहीं मिलता। इस का कारण यही है कि न्यायालयों की कार्य-प्रणाली इतनी सरल व सुनिश्चित थी कि प्रत्येक व्यक्ति इस से भलो - भाँति परिचित था । अतः उन साधारण बातों का वर्णन करना सोमदेव ने आवश्यक नहीं समझा ।
८
न्यायालय में वादों ( मुकदमों ) पर विचार खुले रूप से किया जाता था । कोई भी व्यक्ति वहाँ की कार्यवाही को देख-सुन सकता था। भारत में गुप्त रूप से न्याय करने की प्रणाली को दोषयुक्त समझा जाता था । यद्यपि नीतिवाक्यामृत में न्यायालयों की कार्यविधि के सम्बन्ध में कोई विशेष वर्णन नहीं मिलता, किन्तु फिर भी उसमे जो न्याय व्यवस्था के सम्बन्ध में प्रकाश डाला गया है उस के आधार पर हम यह कह सकते हैं कि भारत में उस समय भो वही प्रणाली प्रचलित थी जिस का उल्लेख धर्मशास्त्रों तथा नीतिशास्त्रों में हुआ है ।
याद के चरण - किसी भी बाद के चार चरण होते थे । १. प्रतिज्ञा, २. उत्तर, २. क्रिया और ४. निर्णय
९. ० अर्थ ०३१ ।
D
५
२. याज्ञ० २,२
३. शुक्र० ४ १६२ ।
४. मनु० ८.४१ ।
जातियाम्यमदान्धर्मान्धर्माधर्मवि समय कुलधमं प्रतिपादयेत् ।
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प्रतिज्ञा-न्याय प्रक्रिया में प्रथम महत्त्वपूर्ण चरण प्रतिज्ञा होती है । इस में . अभियुक्त अथवा वादी अपने अभियोग को न्यायालय के समक्ष या तो स्वयं अथवा किसी अन्य के द्वारा प्रस्तुते करता था। तत्पश्चात प्रतिवादी को न्यायालय के समक्ष बुलाया जाता था। प्रतिवादी का यह कर्तव्य या कि न्यायालय द्वारा बुलाये जाने पर वन्न उपस्थित हो और वादो की प्रतिज्ञा का उत्तर दे। तत्पश्चात' वादो को एक बार और प्रतिबादी के उत्तर का प्रत्युत्तर देने का अवसर मिलता था। यदि अमियोग सरल होता था तो उसी समय उस का निर्णय सुना दिया जाता था और यदि उस में तथ्य अथवा कानून की कोई जटिलता होती थी तो दोनों को अपने-अपने वादों में तैयारी - करने का समय दे दिया जाता था। यदि प्रतिवादी ने वादो के पावे अथवा उस पर लगाये गये अभियोग को अस्वीकार कर दिया तो वादी को उस दावे अथवा अपराध गौर करना पड़ता
प्रमाण-सोमदेव ने लिखा है कि यथार्थ अनुभव, सच्चे साक्षियों एवं सच्चे लेख इस प्रमाणों से विवाद में सत्य का निर्णय होता है, (२८, ९)। किसो मी याद ( मुकदमे ) की सत्यता का निर्णय करने के लिए प्रमाणों को आवश्यकता होती है। साक्षी अथवा साक्ष्म वचनों और लेख में सोमदेव लेस को ही अधिक प्रामाणिकता प्रदान करते हैं (२७, ६३) । सोमदेव के अनुसार प्रत्येक लिखित प्रमाण को उस समय तक स्वीकार करना उचित नहीं है जबतक कि वह साक्ष्य अथवा अन्य प्रकार से सत्य प्रमाणित न हो जायें| लेख पर भी विश्वास उसी समय किया जाता था जब अन्य प्रमाणों से भी वह सच्चा सिद्ध हो जाता था । आचार्य ने अप्रत्यक्ष प्रमाण से प्रत्यक्ष प्रमाण को अधिक महत्व दिया है। वे साक्षी के उस साक्ष्य ( गवाही ) को प्रमाण नहीं मानते जो राजकीय शक्ति के प्रभाव से साक्ष्य देने के लिए बुलाये गये हों (२७, ६४) । इसी के साथ वे वैश्याओं एवं जुआरियों की साक्ष्य को तभी ठीक मानते है जब कि वह अनुभव व बन्य साक्ष्य द्वारा प्रमाणित हो गयी हो (२८, १२)।
आचार्य सोमदेव यह भी अनुभव करते थे कि कभी-कभी वादी झूठे दावे दायर कर देते है, अतः उन्होंने सम्यों को ऐसे व्यक्तियों तथा उन के प्रमाणों से सतर्क रहने का आदेश दिया है और विचारपूर्वक निर्णय देने का निर्देश दिया है (२८, २०)।
शपथ-साक्षियों को न्यायालय के समक्ष सत्य बोलने की शपथ भी लेनी पड़ती थी। यदि वे असत्य बोलते थे तो उन को दण्डित किया जाता था। सोमदेव ने सस्म का पता लगाने के लिए प्रमाण प्रस्तुत करने के अतिरिक्त अन्य उपायों की ओर भो संकेत किया है। इस के लिए उन्होंने शपथ और दिव्य का उल्लेख किया है (२८, १४ तथा १६)। आचार्य का विचार है कि साक्ष्य द्वारा विवाद सम्बन्धी सत्यता का निर्णय हो जाने के उपरान्त शपथ क्रिया निरर्थक हो जाती है अर्थात् उस के पश्चात् शपथ क्रिया की आवश्यकता नहीं रहती है। १. वृहस्पति स्मृति-व्यवहारकाण्ड ३, १४ ।
ग्याय-व्यवस्था
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विभिन्न वर्गों से भिन्न-भिन्न प्रकार की शपथ का विधान-धर्मभास्त्री एवं अर्थशास्त्रों में सभी वर्गों के व्यक्तियों से एक-सा व्यवहार, समान दण्ड तथा समान वापथ क्रिया का निषेध किया है। आचार्य सोमदेव भी विभिन्न वर्गों के क्ष्यक्तियों से पृथक्-पृथक् शपथ लेने का विधान मरिचत कर है। उनका कथन है कि विवाद के निर्णयार्थ ब्राह्मणों से स्वर्ण व यज्ञोपवीत स्पर्श करने को; क्षत्रियों से शस्त्र, रत्न, पृथ्वी, हायो, घोड़े आदि वाहन और पालकी का स्पर्श करने वी; बेश्यों से कण, शिशु, कौड़ो, रूपया तथा स्वर्ण स्पर्श करने की; शूदों से दूध, बोज, सर्प को धमई स्पर्श • करने की तथा धोबो एवं चर्मकार आदि से उन के जीवनोपयोगी उपकरणों के स्पर्श मरने की शपथ करानी चाहिए। इसी प्रकार व्रतो एवं अन्य पुरुषों को शुद्धि उन के इष्ट देवता के चरणस्पर्श से तथा प्रदक्षिणा करने से होती है। व्याष से धनुष लांघने की तथा धर्मकार व घाण्डाल आदि से गीले चमड़े पर चलने की शपथ लेनी चाहिए ( २८, ३०-३७ )।
जीविकोपयोगी उपकरणों का शपथ को प्रक्रिया आचार्य सोमदेव की बुद्धिमता एवं मनोवैज्ञानिकता का प्रमाण है ( २८, ३४)। यह स्पष्ट है कि जोत्रिकोपयोगी उपकरणों की शपथ सामान्यतः झूठी नहीं हो सकतो, क्योंकि लोगों को अपनी जीविका से बहुत स्नेह होता है। कुछ व्यक्तियों के सम्बन्ध में सोमदेव ने शपय क्रिया को ध्यर्थ बतलाया है। उन का कथन है कि संन्यासो के वेष में रहने वाले नास्तिक, चरित्रभ्रष्ट तथा जाति से वहिष्कृत व्यक्ति शपथ के अयोग्य है (२८, १८) ।
सत्य का पता लगाने के लिए सोमदेव ने दूसरा उपाय दिव्य बतलाया है। दिव्य का अर्थ उन साधनों से है जिन के द्वारा विवाद का निर्णय शोघ्न हो जाता है और जो निर्णय अम्प मानवी साधनों द्वारा सम्भव नहीं है। अग्नि, जल, विष, कोश आदि को कठिन परीक्षाओं को दिव्य कहते हैं । आचार्य सोमदेव का कथन है कि यदि साक्षी का अभाव हो और शपथ क्रिया निरर्थक हो गया हो तो दिव्य क्रिया का प्रयोग करना चाहिए (२८, १६)।
किया-बाद का तीसरा पाच वादी प्रतिवादी द्वारा तर्क उपस्थित करना था। यदि वादी मन्त्रमा प्रतिवादी अपनी बात प्रस्तुत करने में असमर्थ होते थे तो वे अन्य कानून के ज्ञाताओं के द्वारा अपने पक्ष का समर्थन करा सकते थे। जब न्यायाधीया दोनों पक्षों द्वारा उपस्थित तर्कों को सुन रहा हो तो ययार्थ निर्णय पर पहुँचने के लिए पांच हेतु बतलाये गये है-(१) दृष्टदोष, जिस के अपराध को देख लिया गया हो। ऐसी स्थिति में न्यायाधीश के लिए उस व्यक्ति को अपराधी सिद्ध करना कठिन नहीं होगा। (२) स्वयं वाद, जो व्यक्ति स्वयं अपने अपराध को स्वीकार कर लेता है। ऐसी दशा में भी न्यायाधीश के लिए किसी व्यक्ति को बासयों घोषित कर देना कठिन नहीं होता।
१. दिसतस्त -पृ०२६।
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(३) सरलतापूर्वक न्यायोचित तर्क सा करना, कामों कहा क. देना सथा (५) शपथ ।
उपर्युक्त पांच हेतु अपराधी के अपराध का निर्णय करने के लिए आवश्यक सावन बतलाये गये है। यदि इन पांच हेतुओं द्वारा निर्णय सम्भव न हो सके तो गुप्तचरों का प्रयोग करना चाहिए और उन की सहायता मे अपराधी के अपराध का पता लगाना चाहिए।'
निर्णय-बहस अथवा क्रिया के पश्चात् निर्णय दिया जाता था। निर्णय निष्पक्ष तथा अभियोग से सम्बन्धित समस्त परिस्थितियों पर विचार कर के दिया जाता था। न्यायालय द्वारा परीक्षण ये बिना किसी को भी दण्ड देना अनुचित समझा जाता था। आचार्य सोमदेव भी इसी विष पोषक है। स्मृति ग्रन्थों के अनुसार निर्णय लिखित रूप में दिया जाता था । जिस लेख में यह निर्णय लिखा जाता था उसे जयपत्र कहते थे। उस की एक प्रति बिजेता पक्ष को दी जाती थी। नीतिवाक्यामृत में इस का कोई उल्लेख नहीं मिलता।
दण्ड विधान-न्यायालय द्वारा दण्ड की क्या व्यवस्था थी इस सम्बन्ध में नीतिवाक्यामृत में अल्प सामग्री ही उपलब्ध होतो है। परन्तु उस के अध्ययन से यह स्पष्ट है कि दण्ड अपराधानुकूल ही दिया जाता था। अन्यायपूर्ण दण्ट से प्रजा में क्षोभ उत्पन्न हो जाता है।
सम्पत्ति विषयक वादों में अर्थदण्ड की व्यवस्था थी, और सम्पत्ति उस के उचित अधिकारी को ही प्राप्त होती थी। अनुबन्धों को रद्द करने का अधिकार न्यायालयों को या अथवा नहीं, इस का कोई उल्लेख नीतिवाक्यामृत में नहीं मिलता। हाँ, फौजदारी के मुकदमों में अर्थदण्ड, कारावास का दण्ड तथा मृत्युदण्ड का विधान उम में अवश्य है (१६, ३२, २८, १७) । उस में क्लेशदण्ड एवं निष्कासनवण्ड का वर्णन नहीं मिलता। अर्थशास्त्र के अध्ययन से ज्ञात होता है कि स्त्रियों को पुरुषों की अपेक्षा उसी अपराध के लिए आधा दण्ड दिया जाता था। सोमदेव ने इस सम्बन्ध में कोई निर्देश नहीं दिया है। उन का सामान्य सिद्धान्त यह था कि अपराष के अनुकूल हो दण्ड देना चाहिए। जिस व्यक्ति ने जैसा अपरान किया है उस को उसी के अनुकूल दण्ड देना दण्डनीति हैयथादोषं दण्यप्रणयनं दण्डनीतिः
-नीतिबा० १,२
१. फो० अ०३,१। २. वृहस्पति स्मृति-व्यवहारकान ६, २५-२६ । ३. कौ० अर्य०४.८। स्त्रियाहवर्धकर्म त्रामानुयोगो का।
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आचार्य ने यहां तक लिखा है कि यदि राजपुत्र ने भी अपराध किया हो तो उसे भी अपराधानुकूल दण्ड मिलना चाहिए--- ___ अपराधानुरूपो दर: पुनेऽपि प्रणेतव्यः ।
-नीतिया० २६, ४१
दण्ड का प्रयोजन
स्मृतियों में दण्ड के चार उद्देश्यों अथवा सिद्धान्तों का वर्णन मिलता है। दण्ड का प्रथम सिद्धान्त अथवा उद्देश्य प्रतिशोधारमक भावना से दण्ड देना था। जिस व्यक्ति को हानि पहुँचती है उस के मन में स्वभावत: बदले की भावना जागृत होती है। यह भी अपराधी को उसो प्रकार की हानि अथवा चोट पहुँचाने की चेष्टा करता है । जिस प्रकार की हानि में पहुँचायी गयी है उसी प्रकार की हानि वह भी उसे पहुँचाने का प्रयत्न करता है। किन्तु सभ्य समाज में प्रत्येक व्यक्ति को इस प्रकार का अधिकार नहीं दिया जा सकता । इस से समाज को शान्ति भंग होने को आशंका होती है । अतः .. राजा का यह पुनीत कर्तव्य है कि वह अपराधी को उचित दण्ड देकर जिस की हानि हुई है, उस की प्रतिशोध की भावना को शान्त करे ।
भय अथवा आतंक स्थापित करने का सिद्धान्त-दण्ड का द्वितीय उद्देश्य अपराधी के हृदय में भय उत्पन्न करना है। अपराधी को ऐसा दण्ड दिया जाये जो दूसरों के लिए उदाहरणस्वरूप हो, जिस से कि वह अपराधी तथा समाज के अन्य व्यक्ति फिर अपराध करने का साहस न कर सके । कठोर दण्ड के भय से व्यक्ति अपराध करने का साहस नहीं कर सकते । क्लेश दण्ड, अंग-भंग का दण्ड, मृत्यु दण्ड आदि का उद्देश्य यही होता है। इस प्रकार इस सिद्धान्त का प्रयोजन समाज को दुओं से सुरक्षित रखना और उस को सुग्घ एवं समृद्ध बनाना हो है।
निरोधक सिद्धान्त-दण्ड का तुतीय सिद्धान्त अथवा चद्देश्य अपराधी को अपराध करने से रोकना है। उदाहरणार्थ यदि अपराधी को किसी अपराध के कारण कारागार में बन्द कर दिया जाये तो उस को कुछ समय के लिए अपराध करने से रोक दिया जाता है अथवा उस अपराष को पुनरावृत्ति को समाप्त कर दिया जाता है। यदि वह निष्कासित कर दिया जाता है या उस को मुत्यु दण्ड दे दिया जाता है तो वह 'सदैव के लिए अपराध करने से रोक दिया जाता है।
सुधारवादी सिद्धान्त-दण्ड का चतुर्थ सिद्धान्त अपराधी में सुधार करना है। दण्ड एक प्रकार का प्रायश्चित्त समझा जाता है जो कि अभियुक्त को विशुद्ध कर के उस के चरित्र में सुधार करता है। इस प्रकार सुधार हो जाने पर वह फिर कभी अपराब करने की ओर अग्रसर नहीं होता।
नीतिवाक्यामृत में उपर्युक्त सिद्धान्तों का कोई स्पष्ट उल्लेख तो नहीं मिलता, किन्तु उस की विकीर्ण सामग्री के आधार पर यह बात निश्चित रूप से कही जा सकता
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है कि सोमदेव दण्ड के उपर्युक्त सिद्धान्तों में विश्वास रखते थे। इन्हीं सिखान्त्रों के आधार पर उन्होंने नीतिवाक्यामृत में दण्ड का बिषान किया है। वे लिखते है कि अपराधी दुष्टों को वश में करने के लिए दण्डनीति के अतिरिक्त अन्य कोई उपाय है ही नहीं, जिस प्रकार टेड़ा बांस अग्मि पर सेकने से ही सीधा होता है उसी प्रकार दुष्ट लोग दण्ड से ही सीधे होते हैन हि पखादन्यास्ति विनियोगापायो संयोग पुष घळं काष्ठं सरकयति ।
-नौतिवा० २८, २५ इस प्रकार सोमदेव दण्ड के प्रथम सिद्धान्त के समर्थक प्रतीत होते है। अन्यत्र वे लिखते है कि राजा के द्वारा प्रजा की रक्षा करने के लिए अपराधियों को दण्ड दिया जाता है, धन प्राप्ति के लिए नहीं (९, ३)। इस का अभिप्राम यही है कि राजा धन प्राति के लोभ से व्यक्तियों को दण्ड न दे, अपितु अपराधों का उन्मूलन करने की भावना से दण्ड का प्रयोग करे । इण्ड को उचित व्यवस्था से ही राष्ट्र सुरक्षित रहता है। यही दण्ड का निरोधक सिद्धान्त है जिस का उद्देश्य अपराधी को अपराध करने से रोकना है। सोमदेव ने राज्याज्ञा का उल्लंघन भीषण अपराध बताया है। इस सम्बन्ध में वे लिखते हैं कि राजा आज्ञा भंग करने वाले पुत्र को भी दामा न करे
____ भाज्ञाभंगकारिणं सुतमपि न सहेत ।-नीतिबा० १७, २३
राजाज्ञा का ना करने हालौं : ए महान दा के विधान किया है (२८, २३) । ऐसे कठोर दण्ड का विधान आचार्य ने इस कारण किया है जिस से कि व्यक्ति राजाज्ञा का उल्लंघन न कर सकें। प्रजा दण्ड के भय से ही अपने-अपने कर्तव्यों में प्रवृत्त रहती है तथा अकृत्यों को नहीं करती (२८, २५)। इस प्रकार आचार्य ने भयावह सिद्धान्त का प्रतिपादन किया है।
आपार्य सोमदेव दण्ड के सुधारवादो सिद्धान्त में भी विश्वास रखते है। दाह का प्रधान हेतु बतलाते हुए उन्होंने लिखा है कि जिस प्रकार चिकित्सा से व्यक्ति रोगमुक्त हो जाता है उसी प्रकार अपराधियों को दण्ड देने से उन के समस्त अपराध विशुस हो जाते है।
चिकित्सागम इव दोपषिशुद्धिहेतु दंगठः । -मीतिवा० ९, १
यहाँ पर आचार्य स्पष्ट रूप से दण्ड के बदला लेने तथा सुधारवादी दृष्टिकोण में भेद बतलाते हैं। प्रायश्चित्त तथा दण्ड दोनों ही अपराधों को विशुद्ध करने के उपाय बताये गये है। अतः अपराधों को विशुद्ध करने के उद्देश्य से दण्ड दिया जाता है। ऐसा करने से अपराधी का नैतिक स्तर उच्च होता है तथा यह अपराध से विमुख हो जाता है। उचित दण्ड पर बल
___आचार्य सोमदेव ने जहाँ राजाज्ञा का उल्लंघन करने वालों के लिए मृत्यु दण्ड की व्यवस्था की है, वहां उन्होंने राजा के न्याय कर्तव्य पर भी विशेष बल दिया
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है। पुनरुक्ति के घोष की उपेक्षा कर के अनेक स्थलों पर उन्होंने राजा को अनुचित दण्ड देने से सावधान किया है । दण्ड देने से ओ हानि होती है उस की ओर भी आचार्य ने संकेत किया है। ये लिखते हैं कि जो राजा अज्ञानता के कारण तथा क्रोध के वशी. भूत होकर दण्डनीति की मर्यादा का उल्लंघन कर के अनुचित ढम से दंड देता है उस से समस्त प्रजा के लोग द्वेष करने लगते है
दुष्प्रणीसो हि दण्डः कामक्रोधाभ्याम ज्ञानाद्वा सर्वविद्वेषं करोति ।
इस लिए विधेको राजा को काम, झोध और अज्ञान के वशीभूत होकर कभी दार नहीं देना चाहिए । राजा के लिए दण्ड का त्याग भी उचित नहीं है । यदि अपराधियों को दण्ड न दिया जायेगा तो समाज में अव्यवस्था फैल जायगो । अत: न्यायो रामा को अपराध के अनुकूल दण्ड देकर प्रजा को श्रीवृद्धि करनी चाहिए । गुरु का कथन है कि जो राजा पापयुक्त दण्ड देता है, परन्तु दण्डनीय दुष्टों को दण्ड नहीं देता उस के राज्य की प्रजा में मात्स्यन्याय का प्रचार हो जाता है । इस से सर्वत्र अराजकता का सृजन होता है। अतः इस अराजकता को रोकने तथा समाज में शान्ति एवं व्यवस्था की स्थापना के लिए राजा के लिए उचित दण्ड का प्रयोग परम भावश्यक है। पुविचार तथा पुनरावेदन
धर्मशास्त्रों में पुनर्विचार का भी उल्लेख मिलता है । यदि बादी को किसी न्यायालय के निर्णय से सन्तोष नहीं होता था अथवा बह यह समझता था कि उस का निर्णय उचित रूप से नहीं हुआ है अथवा उचित अधिकारियों द्वारा नहीं दिया गया है तो बह अर्थ दण्ड देकर न्यायालय द्वारा उस निर्णय पर पुनर्विचार कराने का अधिकारी था 1 नोतिवाश्यामृत में इस प्रकार की व्यवस्था का कोई उल्लेख महीं मिलता। किन्तु उस में यह वर्णन अबश्य प्राप्त होता है कि ग्राम अथवा नगर के न्यायालयों के निर्णयों के विरुद्ध राजा के न्यायालय में अपील हो सकती थी ( २८, २२ ) । इस प्रकार मोतिवाक्यामृत में पुनरावेदन अथवा अपील की व्यवस्था का उल्लेख मिलता है । इस के साथ ही सस में यह बात भी स्पष्ट रूप से लिखी है कि राजा का निर्णय अन्तिम होता था और उस निर्णय के विरुख कोई अपील नहीं हो सकती थी, क्योंकि राजा का न्यायालय सर्वोच्च न्यायालय पा 1 जस निर्णय के विरुद्ध यदि कोई व्यक्ति किसी प्रकार का असंतोष प्रकट करता था अथवा उस की अवज्ञा करने का साहस करता था तो ससके लिए मृत्युदण्ड का विधान था ( २८, २३)।
गुरुनौतिवा०, पृ०१०।।
बण्स्यं दण्डति नो यः पापदण्डसमन्वितः। • तस्य राष्ट्र न संवेहो मारस्यो म्यायः प्रकीतिराः ।।
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निष्कर्ष
आचार्य सोमदेवसूरि का प्रादुर्भाव ऐसे काल में हुआ जब हिन्दू राज्य का । सूर्य अस्तोन्मुख था। हर्षवर्धन के अनन्तर' कोई भी ऐसा हिन्दू राजा नहीं हुआ जो समस्त देश अथवा उस के अधिकांश भाग को एक केन्द्रीय सत्ता के अन्तर्गत कर सके।
सो कारण हर्ष का भारत का अन्तिम साम्राज्य निर्माता कहा जाता है । उस के परचात भारत के राजनीतिक गगन मण्डल पर एक बार पुनः अन्धकार छा गया । हर्ष के बाद हिन्दू राज्य की सत्ता तो रही, किन्तु सुदृढ़ केन्द्रीय शक्ति का नितान्त अभाव हो गया। देश सैकड़ों छोटे-छोटे राज्यों में विभक्त हो गया। वे भारतीय नरेश सीमाविस्तार के लिए अपनी दाक्लि का दुरुपयोग करने लगे। इस राजनीतिक अव्यवस्था से लाभ उठाकर यवनों ने भारत की पावन भूमि पर अधिकार कर लिया।
इसी राजनीतिक अव्यवस्था के युग में सोमदेवसूरि का आविर्भाव हुआ। उस काल में भारतीय नरेशों का पथप्रदर्शन करने वाला कोई राजनीति का उद्भट विद्वान् नहीं था। इस अभाव की पति आचार्य सोमदेव ने की। उन्होंने विभ्रान्त भारतीय नरेषणों के पथप्रदर्शनार्थ राजशास्त्र के अमर ग्रन्थ नीतिवाक्यामृत की रचना की। अाचार्य कौटिल्य द्वारा प्रवाहित राजदर्शन की पुनीत धारा कामन्दक के पश्चात् अवरुश हो गयी थी। आषार्य सोमदेव ने राजवान की इस अवरुद्ध धारा को पुन: प्रवाहित किया। उन्होंने समस्त नीतिशास्त्रों एवं अर्थशास्त्रों का गहन अध्ययन कर के अपनी विलक्षण प्रतिभा से उस नीतिसागर का मंथन कर अनर्म तस्व रत्नों के सहित नीतिवचनामृत को उपलब्ध किया। यह अमृत की पावन धारा नीतिवाक्यामृत के रूप में प्रवाहित हुई। इस बारा में अवगाहन कर तत्कालीन राजाओं ने अपने कर्तव्यों एवं आदशों का ज्ञान प्राप्त किया तथा राष्ट्रोत्थान का पुनीत संकल्प ग्रहण किया।
आचार्य सोमदेव ने प्राचीन शास्त्रोक्त राजनीतिक सिद्धान्तों को एक नवीन स्वरूप प्रदान किया। उन्होंने राजनीति के व्यावहारिक पक्ष पर अधिक बल दिया तथा राज्य और समाज दोनों की उन्नति में सहायक सिद्धान्तों का निरूपण किया । आचार्य ने क्रम और विक्रम को राज्य का मूल बताया है तथा इन में भी बिक्रम पर अधिक बल दिया है। ५, २७)। उन का कथन है कि क्रमागत राज्य भी विक्रम ( शौर्य) के अभाव में नष्ट हो जाता है। अतः राजा को पराक्रमो होना चाहिए। उन को स्पष्ट घोषणा है कि भूमि पर कुलागत अधिकार किसी का नहीं है, किन्तु निष्कर्ष
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वसुन्धरा वीरों की है ( २९, ६८) अर्थात् पृथ्वी पर दीर पुरुषों का ही अधिकार होता है। वीरता के साथ राजा को विविध शास्त्रों तथा राजदर्शन का ज्ञाता होना भी परम आवश्यक है ( ५, ३१)1 इस प्रकार सोमदेव ने राजनीति के व्यावहारिक सिवान्तों पर विशेष बल दिया है।
राजतन्त्र के प्रबल पोषक होते हुए भी आचार्य ने राजा को निरंकुश नहीं बनाया है। उन के राजतन्त्र में प्रजातन्त्र की आत्मा पूर्णरूपेण परिलक्षित होती है । उन का बादेश है कि राजा प्रत्येक कार्य मन्त्रियों के परामर्श से ही करे और कभी दुरापहन करे (१०,५८)। वे राजा को सुयोग्य मन्त्रियों, सेनापति, पुरोहित एवं अन्य राजकर्मचारियों को नियुक्त करने का परामर्श देते हैं। प्राचार्य सोमदेव स्वदेशवासियों को ही उच्चपदों पर नियुक्त करने के पक्ष में है (१०, ६) । मन्त्रियों के परामर्श से राजकार्य करने से लाभ तथा उन की अवहेलना करने से होने वालो हानियों को और भी उन्होंने संकेत किया है । उन का विचार है कि सुयोग्य मन्त्रियों के सम्पर्क से गुणरहित राजा भी सफलता प्राप्त कर सकता है ( १०, २-३)। आचार्य ने मन्त्री और पुरोहित को राजा के माता-पिता के समान बतलाया है ( ११.२)। जिस प्रकार माता-पिता अपने पुत्र के हितचिन्तन में सर्वदा प्रयत्नशील रहते हैं, उसी प्रकार मन्त्री और पुरोहित भी राजा का सर्वदा हितचिन्तन करने में तत्पर रहते हैं। इसी कारण सोमदेव ने उन्हें राजा के माता-पिता के समान बतलाया है। इस प्रकार सोमदेव वैधानिक राजतन्त्र के समर्थक है।
आचार्य ने लोकहितकारी राज्य के सिद्धान्त का पर्णरूप से समर्थन किया है। उन्होंने राज्य को धर्म, अर्थ, काम रूप विवर्य फल का दाता बतलाया है ( पु०७)। आचार्य की दृष्टि में प्रजा का सर्वाङ्गीण विकास करना राजा का परम कर्तव्य है । इस के साथ ही वे राजा को मर्यादा का पालन करने का भी आदेश देते हैं । मर्यादा का अतिक्रमण करने से फलदायक भूमि भी अरण्य के समान हो जाती है ( १९, १९) तथा मर्यादा का पालन करने से प्रजा को अभिलषित फलों को प्राप्ति होती है ( १७, ४५ )। वे कहते हैं कि राजा को प्रजा के समक्ष उच्च आदर्श उपस्थित करने चाहिए, क्योंकि प्रजा राजा का अनुकरण करती है। राजा के अधार्मिक हो आने पर प्रजा भी अधामिक हो जाती है ( १७, २९)।
राजा को अपनी प्रजा का पालन पुत्रवत् करना चाहिए । न्याय के पथ का अनुसरण करने का भी आचार्य ने आदेश दिया है। उन का कथन है कि राजा को प्रजा के साथ कभी अन्याय नहीं करमा चाहिए और उस के अपराधानुकूल ही दण्ड देना चाहिए ( ९, २)। अपराध के अनुकूल दण्ड अप ने पुत्र को भी देना चाहिए ऐसा आचार्य का विचार है ( २६, ४१ )। वे राजा के देवत्व के सिद्धान्त में भी विश्वास रखते हैं ( २९, १६-१९)। इस के साथ हो सोमदेव प्रजा की रक्षा न करने वाले राजा को निकृष्ट बतलाते है तथा उसे मरक का अधिकारी समझते है { ७, २१ तथा १५३
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६, ४२ ) । पापियों का निवारण करने में राजा पाप का भागी नहीं होता, अपितु उसे राष्ट्र संकटों के विनाश से महान् धर्म की प्राप्ति होती है ( ६, ४१ ) | आचार्य ने राजधर्म की दिशा में राजा के लिए बहुत उच्च आदर्श निर्धारित किये हैं । राजधर्म में धर्मपद से सोमदेवसूरि का यह स्पष्ट अभिप्राय है कि राजा के जिस आचरण से युदय और मोक्ष की सिद्धि होती हैं वह धर्म है ( १, १ ) | आचार्य के सामने मोक्ष साधना का सर्वाधिक महत्व है। उन्होंने इस धर्म साधना के लिए शक्ति के अनुसार तप और त्याग के आचरण को धर्म के अधिगमन का उपाय बतलाया है ( १,३ ) । सोमदेव ने समस्त प्राणियों में समता ( निरता ) के आचरण को परम आचरण बतलाया है ( १, ४) । वे भूतद्रोह को सर्वोपरि दोष मानते हैं ( १, ५) आचार्य के मत में प्रतिदिन कुछ न कुछ तप और दान का आचरण करते रहना चाहिए, क्योंकि दान और तप करने वाले पुरुष को उत्तम लोकों की प्राप्ति होती है ( १,२७ ) ।
/
इस प्रकार आचार्य सोमदेव ने जीवन में अधर्म का त्याग कर धर्म की साधना से शुभगति प्राप्त कर लेना राजधर्म में राजा के लिए निर्धारित किया है। परन्तु वे राजा को एकांगो मुमुक्षु भी नहीं बना देते । जिस वर्मसाधना में काम और अर्थ का परित्याग हो ऐसी सन्यास प्रधान धर्मसाधना को वे त्याज्य मानते हैं ( ३, ४ ) । इस प्रकार उन्होंने राज धर्म को मोक्ष का भी अमोष साधन बना दिया है। जिस प्रकार गीता का कर्मयोग केवल कर्म न रहकर लोक्ष साधक योग बन जाता है, यहाँ क्षत्रिय का युद्धाचरण भी जिस प्रकार निःश्रेयस साधक है, उसी प्रकार आचार्य सोमदेव ने भी राजधर्म को मोक्ष सापक मान कर उस का निरूपण किया है।
आचार्य सोमदेव द्वारा वर्णित राज्य की परिभाषा में भी उच्च आदर्शों का समावेश है । राजा के पृथ्वी पालतोषित कर्म को वे राज्य कहते हैं ( ५, ४ ) । वह पृथ्वी वर्णाश्रम से युक्त तथा धान्य, स्वर्णादि से विभूषित होनी चाहिए तभी वह राज्य कही जा सकती है ( ५, ५) । यदि उस में यह विशेषताएँ नहीं हैं तो वह राज्य का अंग नहीं बन सकती । इस प्रकार राज्य की यह परिभाषा राजशास्त्र के क्षेत्र में अहितोय है। इस में प्राचीन एवं आधुनिक विद्वानों द्वारा बताये गये राज्य के तत्त्वों का पूर्ण समावेश है | सोमदेव से पूर्व किसी भी राजशास्त्र प्रणेता ने राज्य को इस प्रकार वैज्ञानिक रूप से परिभाषित नहीं किया । अतः यह परिभाषा राज्य शास्त्र के क्षेत्र में सर्वोच्च स्थान रखती है और इसे बाचार्य सोमदेव की महान् येन कही जा सकती है । आचार्य सोमदेव ने धर्म और राजनीति का अपूर्व समन्वय किया है। सम्पूर्ण नीतिवाक्यामृत में धर्म साधना एवं नैतिक तत्त्वों को प्रमुखता देकर राजनीति को धर्मनीति से पृथक नहीं किया है। नीतिवाक्यामृत राजनीति का आदर्श अन्य है । आचार्य सोमदेव प्रत्येक क्षेत्र में माष्यात्मिक दृष्टिकोण व्यावश्यक समझते हैं। राजा के लिए भी अध्यात्म विद्या के ज्ञान का आदेश देते हैं ( ६, २) । राजनीति जैसे ऐहिक
निष्कर्ष
२४
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कलुषित विषय को सौम्य एवं सात्त्विक रूप देकर आचार्य सोमदेव ने राजदर्शन के क्षेत्र में अपूर्व योगदान दिया है।
सोमदेव ने युद्ध क्षेत्र में भी धार्मिक नियमों की उपेक्षा नहीं की है। वे कूटयुद्ध को अपेक्षा धर्मयुद्ध को ही श्रेष्ठ बतलाते हैं और धर्मविजयो राजा की प्रशंसा करते हैं (३०, ७०)। उन्होंने षाड्गुण्य नीति तथा साम, दाम, दण्ड, भेद आदि उपायों का भी सारगर्भित वर्णन किया है (पागुण्य समु.)। वे युद्ध को तभी आवश्यक समझसे हैं जब अन्य उपायों से कोई परिणाम न निकले (३०, ४ तथा २५)। आचार्य शक्तिशाली राष्ट्र से युद्ध न कर सन्धि करने का ही आदेश देते है और दुबल का शकिशाली के साथ युद्ध करना मनुष्य का पर्वत से टकराने के समान बतलाते है (३०,२४)। युद्ध में मारे गये सैनिकों के परिवार का टर प्रकार से पालन-पोषण करना राजा का पर्म बसलाते है (३०, ९३) । युद्ध एवं अन्तर्राष्ट्रीय सम्बन्धों के विषय में आचार्य सोमदेव के विचार बहुत ही उपयोगी एवं राजनीतिक दृष्टि से बड़े महत्त्वपूर्ण हैं।
आचार्य सोमदेव ने एक समृद्ध राष्ट्र की कल्पना को अपनी दृष्टि का आदर्श बनाया है। 'राष्ट्र' शब्द की व्याख्या करते हुए वे लिखते है कि जो पशु, धान्य, हिरण्य सम्पति से सुशोभित हो वह राष्ट्र है ( १२, १)। राष्ट्र की सम्पन्नता के विविध उपायों एवं साधनों पर उन्होंने पूर्ण प्रकाश डाला है। वार्ता की उन्नति में ही राजा की समस्त उन्नति निहित है ऐसा उन का विचार है ( ८,२)। वार्ता के अन्तर्गत कृषि, पशुपालन एवं व्यापार तथा वाणिज्य आते हैं। इन क्षेत्रों में किस प्रकार विकास हो सकता है इस विषय पर उन्होंने उपयोगी विचार व्यक्त किये है (८, ११-१५, १७, २०)। जैनाचार्य होते हुए भी उन्होंने अर्थ . के महत्व को अपनी दृष्टि से भोझल नहीं होने दिया है। उन्होंने धर्म, अर्थ और काम तीनों पुरुषार्यों का हो समरूप से सेवन करने का मादेश दिया है (३,३)। आचार्य तीनों पुरुषार्थों में अर्थ को सब से अधिक महत्त्व देते हैं, क्योंकि यही अन्य पुरुषार्थों का आधार है (३, १६) । उन्होंने काम पुरुषार्थ को भी धर्म से कम महत्व नहीं दिया है। इस प्रकार के विचार व्यक्त कर के सोमदेव ने महान् दूरदर्शिता एवं व्यावहारिक राजनीतिज्ञता का परिचय दिया है। उन के द्वारा बणित अर्थ की परिभाषा बड़ो महत्वपूर्ण एवं सारगर्मित है। वे लिखते है कि जिस से सब प्रयोजनों की सिद्धि हो सके वह अर्थ है { २, १) । वास्तव में उन का कथन सत्य हो है, क्योंकि विश्व में ऐसा कोई भो कार्य नहीं है जो पन से पूर्ण न हो सके। अर्थ व्यक्ति की समस्त कामनाओं को पूर्ण करने में समर्थ है। सोमदेव का कथन है कि बुद्धिमान व्यक्ति एवं राजा का यह कर्तव्य है कि वह अप्राप्त धन की प्राप्ति, प्राप्त की रक्षा तथा रक्षित की वृद्धि कर (२, ३)। उस को अपनी आय के अनुकूल ही व्यय करना चाहिए (२६, ४४)। जो इस नियम का पालन नहीं करता वह धन कुबेर भो दरिद्र हो जाता है (१६, १८)। आचार्य कोश को ही राज्य का प्राण कहते है (२१, ७)। जैसा कि पूर्वाचार्यों ने मो कहा है।
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आचार्य ने कोश वृद्धि के विविध उपायों का भी वर्णन किया है और श्रेष्ठ कोश के गुणों की भी व्याख्या की है ( कोश समु० ) ।
यद्यपि सोमदेव को को बहुत महत्त्व देते हैं, किन्तु उस की वृद्धि में न्यायोचित साधनों का ही प्रयोग करने का आदेश देते है । उन का स्पष्ट विचार है कि जो राजा अथवा वैद्य अर्थ के लोभ से प्रजावर्ग में दोष खोजता है यह कुत्सित है (९, ४) । अन्यत्र वे लिखते हैं कि अन्याय से त्रणशलाका का ग्रहण करना भी प्रजा को भेदित करता है (१६, २५) प्रजा की पीड़ा से कोश पीड़ित होता है, क्योंकि पीड़ित प्रजा राजा के देश का त्याग कर के अन्यत्र बस जाती हैं । इस के परिणामराजा को देश और
स्वरूप राजकोश में अर्थ का प्रवेश नहीं होता (१९, १७) । अतः काल के अनुरूप ही प्रजा से कर ग्रहण करना चाहिए (२६. ४२ ) ने अर्धशुचिता पर विशेष बल दिया है ।
I
। आचार्य सोमदेव
सोमदेव ने राजनीति और लोकनीति का भी समन्वय किया है । वे समाज की उन्नति में ही राष्ट्र को उन्नति मानते हैं जो कि वास्तव में सत्य है । मानव जीवन को सफल एवं समुन्नत बनाने के लिए जिन बातों की अपेक्षा होती है वे सभी इस लघु ग्रन्थ में उपलब्ध होती हैं । यह ग्रन्थ केवल राजनीति की दृष्टि से ही उपयोगी नहीं है, अपितु लोक व्यवहार की दृष्टि से भी इस का विशेष महत्व है। इस राजनीति प्रधान अन्य में सोमदेव ने समाजव्यवस्था के अंगों पर भी प्रकाश डाला है। आचार्य कौटिल्य की भाँति से भी वर्णाश्रम व्यवस्था में पूर्ण आस्था रखते हैं, किन्तु इस क्षेत्र में प्राचीन आषायों की अपेक्षा वे उदार एवं प्रगतिशील हैं। उन्होंने इस व्यवस्था के उपयोगो अंगों को ही स्वीकार किया है और रूढ़िवादिता का सर्वत्र खण्डन किया हूँ । सोमदेव शूद्र को भी समाज में महत्त्वपूर्ण स्थान प्रदान करते हैं तथा ज्ञान का मार्ग सूर्य-दर्शन के समान सब के लिए खुला रखने का आदेश देते हैं (७, १४) ।
नीतिवाक्यामृत में लोकोपयोगी व्यवहार पक्ष पर भी प्रकाश डाला गया है । संसार के लौकिक व्यवहार में भ्रान्त, आतं प्राणियों के लिए इस ग्रन्थ में सत्परामर्श प्राप्त होता है । इस ग्रन्थ के लोकोपयोगी सूत्र मानव के लिए उत्तम पथ-प्रदर्शन करने वाले है | आचार्य सोमदेव ने लोकजीवन में सहायक होने वाले महोपयोगी सूत्रों की रचना की है । उन के कुछ सूत्र उदाहरणस्वरूप यहाँ उद्धृत किये जा रहे है--- १. सर्वदा याचना करने वाले से कौन नहीं घबराता ( १, १९) ।
निष्कर्ष
२. समय से संचय किया गया परमाणु भी सुमेरु बन जाता है ( १, २८ ) । ३. उद्यमहीन के मनोरथ स्वप्न में प्राप्त हुए राज्य के समान होते हैं (१, ३२) । ४. अग्नि के समान दुर्जन अपने आश्रय को ही नष्ट कर देता है (१, ४० ) ।
५. जिस की स्त्रियों में अधिक आसक्ति है उस को धन, धर्म और शरीर कुछ भी नहीं (२, १२) |
६. जिस ने शास्त्र न पढ़े यह व्यक्ति नेत्रों के होते हुए भी अन्धा है (५, ३५) १
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+: . रा १ को पवित्र करता है वह पुत्र है (५, ११)। ८. अपराधियों के प्रति क्षमा धारण करना साधुओं का भूषण है, राजाओं का ___ का नहीं (६, ३७) । ९. सुगन्धिरहित भी षागा क्या सुमनों के संयोग से देवता के शीश पर नहीं
चढ़ता (१०,२)। १०. महापुरुषों से प्रतिष्ठित परथर भी देवता बन जाता है, फिर मनुष्य का
तो कहना ही क्या (१०, ३)। ११. विष भक्षण के समान दुराचरण समस्त गुणों को नष्ट कर देता है (१०,७)। १२. वह महान् है जो विपत्ति में धैर्य धारण करता है (१०,१३३)। १३. किसी भी अपने अनुकूल को प्रतिकूल न बनाये (१०, १४६) । १४. घाणी की कटुता शस्त्रपात से भी बढ़ कर है (१६,२७) । १५. बिमा विचारे कोई भी कार्य नहीं करना चाहिए (१५, १)। १६. कौन धनहीन लघु नहीं हो जाता (१७, ५५) । १७. शत्रु के भी घर आने पर आदर करना चाहिए, महापुरुष के आने पर ___सो कहना ही क्या (२७, २६)। १८. वही तीर्थ हैं जिन में अधर्म का आचरण नहीं होता है ( २७, ५२)। १९. उस पुरुष को धिक्कार है जिस में मात्मशक्ति के अनुसार कोप और .
प्रसन्नता नहीं (६, ३८)। २०. खल की मैत्री अन्त में विपत्तिदायक होती है (६, ४४) । २१. अप्रिय औषधि भी पो ली जाती है (८, २५)। २२. सर्प से काटी हुई अपनी अंगुली भी काट दी जाती है (८, २६) । २३. वह पुत्र क्या कुलीन है जो माता-पिता पर शूरता प्रकट करता है
(११, २१)। २४. पिता के समान गुरु की सेवा करनी चाहिए (११, २४) । २५. मनुष्यों का वैभव वह है जो दूसरों का उपभोग्य होता है (११, ५२)। २६. उपकार कर के प्रकट करना वैर करने के समान है (११, ४७)। २७. वह मनुष्य विचारज्ञ है जो प्रत्यक्ष से उपलब्ध को भी अच्छी तरह परीक्षा
कर के अनुष्ठान करता है (१५, ६)। २८. कुशल बुद्धिवाले पुरुषों को प्राणों के कंठगत आ जाने पर भी अशुभ कर्म
नहीं करना चाहिए (१८, ३७)। २९. माता-पिता का मन से भी अपमान करने से अभिमुख लक्ष्मी भी विमुख
हो जाती है (२४, ७६)। ३०. बल के अतिक्रम से व्यायाम किस आपत्ति को उत्पन्न नहीं करता (२५, १८)।
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३१. अव्यायामशीलों में पानि , उत्साह और गोरा नहों से 1
सकता है (२५, १९)। ३२. बिना भूख के खाया हुदा अमृत भी विष हो जाता है (२५, ३०)। ३३, आत सभी धर्म बुद्धि वाले हो जाते है (२६, ५)। ३४. वह मनुष्य नीरोग है जो स्वयं धर्म के लिए चेष्टा करता है (२६, ६)। ३५. भय स्थानों पर विषाद करना उचित नहीं अपितु पर्य का अवलम्बन
अपेक्षित है (२६, १०)। ३६. उस को लक्ष्मी अभिमुखी नहीं होती जो प्राप्त हुए धन से सन्तुष्ट हो जाता
३७. वह सर्वदा दुःखी रहता है जो मूलधन को वृद्धि न कर के व्यय करता है
३८. सर्वत्र सन्देह करने वाले को कार्य सिद्धि नहीं होती (२६, ५१)। ३९. वह जाति से अन्धा है जो परलोक की चिन्ता नहीं करता (२६, ५६) । ४०. स्वयं गुणरहित वस्तु पक्षपात से गुण वाली नहीं हो जाती (२८, ४७) । ४१. नायकहीन अथवा बहुत नामकों वाली सभा में कभी प्रवेश न करे
(२९, १०)। ४२. विश्वासघात से बढ़कर कोई पाप नहीं है (३०, ८३) 1 ४३, गृहणी को घर कहते है, दीवार और चटाइयों के समूह को नहीं
४४. तृण से भी व्यक्ति का प्रयोजन सिद्ध होता है, फिर मनुष्य का तो कहना
हो क्या (३२, २८)। ४५. अतिपरिचय किसी को अवज्ञा नहीं करता (३२, ४३)। ४६. अप्रास अर्थ में सभी त्यागी हो जाते हैं (३२, ७१)। ४७. पुण्यशील पुरुष को कहीं भो आपत्ति नहीं (३२, ३८)। ४८, देव के अनुकूल होने पर भी उधमरहित व्यक्ति का भद्र नहीं (२९,९)। ४९. वही तीर्थयात्रा है जिस में अकृत्य से निवृत्ति हो (२७, ५३) । ५०. दरिद्रता से बढ़कर मनुष्य के लिए कोई अन्य लांछन नहीं है जिस के
साथ समस्त गुण निष्फल हो जाते हैं (२७, ४५)। ५१. वह बुरा देश है जहाँ अपनी वृत्ति नहीं (२७, ८)। ५२. वह कुत्सित बन्धु है जो संकट में सहायता नहीं करता (२७, ९)। ५३. तीन पाप तत्काल फल देते है-स्वामी द्रोह, स्त्रोवध और बालयध
(२७, ६५)।
५४. अपात्रों में धन का व्यय राख में हवन के समान है (१, ११)। निश्कर्ष
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५५. नित्य धन के व्यय से सुमेरु भी क्षीण हो जाता है (८, ५) । ५६. अविवेक से बढ़कर प्राणियों का अन्य शत्रु नहीं ( १०, ४५ ) । ५७. वह विद्या विद्वानों के लिए कामधेनु के समान है जिस से सम्पूर्ण जगत् की स्थिति का ज्ञान होता है ( १७, ५९ ) ।
५८. धातुओं का सम रहना विष को भी पथ्य बना देता है (२५, ५१ ) ५९. आत्म रक्षा में कमी भी प्रमाद न करे (२५, ७२) । ६०. आशा किस पुरुष को क्लेश में नहीं डालती (२६, ६१) । इस प्रकार के अनेक उपयोगी सूत्रों से नीतिवाक्यामृत का प्रत्येक समुद्देश परिपूर्ण है । उस के ये उपयोगी सूत्र मानव जीवन को सफल एवं समुन्नत बनाने के लिए बहुत उपयोगी हैं ।
मीतिवाक्यामृत में केवल राजनीति का ही वर्णन नहीं मिलता, अपितु, समाजशास्त्र, अर्थशास्त्र, धर्मशास्त्र, मनोविज्ञान एवं दर्शनशास्त्र का भी उपयोगी वर्णन इस में उपलब्ध होता है। एक ही प्रन्थ में विविध शास्त्रों के उपयोगी अंशों की व्याख्या आचार्य सोमदेव की महान् विद्वत्ता एवं व्यावहारिक राजनीतिज्ञता की द्योतक है। आज के युग में राष्ट्रीय चरित्र के उत्थान में भी इस ग्रन्थ से बड़ी सहायता मिल सकती है । संसार में वैज्ञानिक प्रगति के नाम पर भौतिक जड़वाद की प्रधानता है । मतः अर्थलोलुप भोगप्रधान समाज की रचना इस वैज्ञानिक युग का को इस भौतिक जड़वाद से मुक्ति दिलाने के लिए बाध्यात्मिक दृष्टिकोण को विकसित करना आज के युग की प्रमुख आवश्यकता है । सोमदेव का नीतिवाक्यामृत वर्तमान युग की इस आवश्यकता की पूर्ति के लिए अपूर्व ग्रन्थ है। व्यक्ति और समाज में आध्यात्मिक दृष्टिकोण का उन्मेष कर के ही देश में स्थायी शान्ति स्थापित को जा सकती है । हमारे राष्ट्र के प्रयत्न हमारी मौतिक समृद्धि के लिए उत्तरोत्तर वृद्धि पर रहें, किन्तु हमारा आध्यात्मिक लक्ष्य विलुप्त नहीं होना चाहिए। आध्यामिकता ही भारतीय संस्कृति का प्राण है। समाज के आध्यात्मिक पक्ष को ग्रहण कर लोक साधना प्रतिपादक ग्रन्थ अमर साहित्य में समादृत होते हैं । नीतिवाक्यामृत भी राजनीति के क्षेत्र में आध्यात्मिक लक्ष्य की जागृति के कारण भारतीय राजनीति प्रधान साहित्य की अमर कृति है ।
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आचार्य सोमदेव सूरि कृत नीतिवाक्यामृत का मूल सूत्र-पाठ
१. धर्मसमुद्देशः
मंगलाचरणम्
सोमं सोमसमाकार सोमाभं सोमसंभवम् । सोमदेवं मुनि नत्वा नीतिवाक्यामृतं ब्रुवे ॥१॥
धर्मार्थकामफकाय राण्याय नमः ।
यतोऽभ्युदयनिःश्रेयससिद्धिः स धर्मः ॥१॥ अधर्मः पुनरेतद्विपरीतफलः ॥२॥ आत्मवत्परत्र कुशलवृत्तिचिन्तनं शक्तितस्त्यागतपसी च धर्माधिगमोपायाः॥३॥ सर्वसत्त्वेषु हि समता सर्वाचरणानां परमं चरणम् ।।४।। न खलु भूतद् हां कापि क्रिया प्रसूते श्रेयांसि ॥५॥ परत्राजिघांसुमनसां व्रतरिक्तमपि चित्तं स्वर्गाय जायते ॥६॥ स खलु त्यागो देशत्यागाय यस्मिन् कृते भवत्यात्मनो दो:स्थित्यम् ॥७॥ स खल्वर्थी परिपन्थी यः परस्य दो:स्थित्यं जानन्तप्यभिलपत्यर्थस् । तयतमाचरितव्यं यत्र न संशयतुलामारोहतः शरीरमनसी ॥२॥ ऐहिकामुनिकफलार्थमर्थव्ययस्त्यागः ॥१७|| भस्मनि हतमिवापाश्रेष्वर्थव्ययः ।।११| पात्रं च निविध धर्मपात्रं कार्यपात्रं कामपात्रं घेति ॥१२॥ एवं कोतिपात्रमपीति केचित् ॥१३॥ कि तया कीर्त्या या आश्रितान्न बिति प्रतिरुणद्धि वाधर्म भागीरथी-श्रीपर्वतवद्भावानामन्यदेव प्रसिद्धः कारणं न पुनस्त्यागः यतो न खलु गृहीतारो व्यापिनः सनातनाश्च ॥१४||
मीतिवाक्यामृत का मूल स्त्र-पास
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स खलु कस्यापि माभूदर्थो यत्रासंविभागः शरणागतानाम् ॥१५॥ अर्थिषु संविभागः स्वयमुपभोगश्चार्थस्य हि द्वे फले, नास्त्यौचित्यमेकान्तलुब्धस्य ॥१६॥ दानप्रियवचनाभ्यामन्यस्य हि संतोषोत्पादनमौचित्यम् ॥१७॥ स खलु लुब्धो यः सत्सु विनियोगादात्मना सह जन्मान्तरेषु नयत्यर्थम् ।।१८॥ अदातुः प्रियालापोऽन्यस्य लाभस्यान्तरायः ।।१९।। सदैव दुःस्थितानां को नाम बन्धुः ॥२०॥ नित्यमर्थयमानात् को नाम नोद्विजते ।।२१।। इन्द्रियमनसो नियमानुष्ठानं तपः ॥२२॥ विहिताचरणं निषिद्धपरिवर्जनं च नियमः ॥२३॥ विधिनिषेधातिवायत्ती ॥२४|| तत्खलु सद्धिः श्रद्धेयमैतिां यत्र न प्रमाणवाधा पूर्वापरविरोधो वा ॥२५॥ हस्तिस्नानमिव सर्वमनुष्ठानमनियमितेन्द्रियमनोवृत्तीनाम् ॥२६॥ दुर्भगाभरणमिव देहखेदावहमेव ज्ञानं स्वयमनाचरतः ।।२७॥ सुलभः खलु कथक इव परस्य धर्मोपदेशे लोकः ॥२८॥ प्रत्यहं किमपि नियमेन प्रयच्छतस्तपस्यतो वा भवन्त्यवश्यं महीयांसः परे लोकाः ॥२९॥ कालेन संचीयमानः परमाणुरपि जायते मेरुः ॥३०॥ धर्मश्रुतधनानां प्रतिदिनं लवोऽपि संगृह्यमाणो भवति समुद्रादयधिकः ॥३१॥ धर्माय नित्यमनाश्रयमाणानामात्मवन्ननं भवति ॥३२॥ कस्य नामैकदैव संपद्यते पुण्यराशिः ॥३३॥ अनाचरतो मनोरथाः स्वप्नराज्यसभाः ॥३४॥ धर्मफलमनुभवतोऽप्यधर्मानुष्ठानमनात्मज्ञस्य ॥३५॥ क: सुधी भेषजमिवात्महितं धर्म परोपरोधादनुतिष्ठति ॥३६॥ धर्मानुष्ठाने भवत्यमाथितमपि प्रातिलोम्यं लोकस्य ।।३७|| अधर्मकर्मणि को नाम नोपाध्यायः पुरश्चारी वा ।।३८) कण्ठगतैरपि प्राण गभं कर्म समाचरणीयं कुशलमतिभिः ॥३९|| स्वव्यसनतपंणाय धूर्तदुरीहितवृत्तयः क्रियन्ते श्रीमन्तः ॥४०॥ खलसंगेन कि नाम न भवत्यनिष्टम् ।।४१॥ अग्निरिब स्वाश्रयमेव दन्ति दुर्जनाः ॥४॥ वनगज इन तदात्मसुखलुब्धः को नाम न भवत्यास्पदमापदाम् ॥४३॥ धर्मातिक्रमादन परेऽनुभवन्ति स्वयं तु परं पापस्य भाजन सिंह इव सिन्धुरवधात् ॥४४॥
बीजभोजिनः कुटुम्बिन इव नास्त्यधार्मिकस्यायत्या किमपि शुभम् ॥४५॥ १११
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यः कामार्थावुपहत्य धर्ममेवोपास्ते स पक्वक्षेत्रं परित्यज्यारण्यं कृषति ॥४६|| स खलु सुधीर्योऽमुत्र सुखाविरोधेन सुखमनुभवति ।।४।। इदमिह परमाश्चर्य यदन्यायसुखलवादिहाभुत्र चानवधिदुःस्वानुबन्धः ॥४८॥ सुखदुःखादिभिः प्राणिनामुत्कर्षापकर्षों धर्माधर्मयोलिङ्गम् ॥४९|| किमपि हि तद्वस्तु नास्ति यत्र नश्वयंमदृष्टाधिष्ठातुः ।।५।।
२. अर्थसमुद्देशः
यतः सर्वप्रयोजनसिद्धिः सोऽर्थः ॥१॥ सोऽर्थस्य भाजनं योऽर्थानुबन्धेनार्थमनुभवति ।।शा अलब्धलाभो लब्धपरिरक्षणं रक्षितपरिवर्द्धनं चार्थानुबन्धः ॥३॥ तीर्थमर्थनासंभावयन् मधुच्छत्रमिव सर्वात्मना विनश्यति ॥४॥ धर्मसमवायिनः कार्यसमवायिनश्च पुरुषास्तीर्थम् ॥५॥ तादास्तिक-गलहर-कदर्येषु नासलभ: प्रत्यवायः ॥६॥ यः किमप्यसंचिन्त्योत्पन्नमर्थ व्ययति स तादात्विकः ॥७॥ यः पितपैतामहमर्थमन्यायेन भक्षयति स मूलहरः ॥८॥ यो भृत्यात्मपीडाभ्यामर्थं संचिनोति स कदर्यः ॥९॥ तादात्विकमूलहरयोरायत्यां नास्ति कल्याणम् ॥१०॥ कादर्यस्यार्थसंग्रहो राजदायादत्तस्कराणामन्यतमस्य निधिः ॥११॥
३, कामसमुद्देशः
आभिमानिक रसानुविद्धा यतः सर्वेन्द्रियप्रीतिः स कामः ॥१॥ धर्मार्थाविरोधेन कामं सेवेत ततः सुखी स्यात् ॥२॥ समं वा त्रिवर्ग सेवेत ॥३॥ एको प्रत्यासेवित्तो धर्मार्थकामानामात्मानमितरौ च पोडयति ॥४॥ परार्थभारवाहिन इवात्मसुखं निरुन्धानस्य धनोपार्जनम् :1५।। इन्द्रियमनःप्रसादनफला हि विभूतयः ॥६॥ नाजितेन्द्रियाणां कापि कार्यसिद्धिरस्ति ॥७॥ इष्टेऽर्थऽनासक्तिविरुद्ध चाप्रवृत्तिरिन्द्रियजयः ||८|| अर्थशास्त्राध्ययनं वा ॥२॥ कारणे कार्योपचारात् ॥१०॥ योऽनङ्गेनापि जोयते स कथं पुष्टाङ्गानरातोन् जयेत ॥११॥ कामासक्तस्य नास्ति चिकित्सितम् ॥१२॥
मोतिवाक्यामृप्त का मूक सूत्र-पाठ
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न तस्य धनं धर्मः शरीरं वा यस्यास्ति स्त्रीष्वत्यासक्तिः ॥१३॥ विरुद्धकामवृत्तिः समृद्धोऽपि न चिरं नन्दति ॥१४॥ धर्मार्थकामानां युगपत् समवाये पूर्व पूर्बो गरीयान् ।।१५।। कालासह्त्वे पुनरर्थ एवं ॥१६॥ धर्मकामयोरर्थमूलत्वात् ॥१५॥
४. अथ अरिषड्वर्ग-समुद्देशः
अयुक्तितः प्रणीताः काम-क्रोध लोभ-मद-मान-हर्षाः क्षितीशानामन्तरङ्गोऽरिषड्वर्गाः ॥शा परपरिगृहीतास्वानूढासु च स्त्रीषु दुरभिसन्धिः कामः ॥२॥ अविचार्य परस्यात्मनो वापायहेतुः क्रोधः ॥३॥ दानाहँष स्वधनाप्रदान परधनग्रहणं वा लोभः ॥४॥ दरभिनिवेशामोक्षी यथोक्तांग्रहणं वा मानः ।।५।। कुलबलेश्वर्यरूपविद्यादिभिरात्माहंकारकरण परप्रकर्षनिवन्धनं वा मदः ॥६॥ निनिमित्तमन्यस्य दुःखोत्पादनेन स्वस्यार्थसंचयेन वा मनःप्रतिरजनो हर्षः॥७॥
५. अथ विद्यावृद्धसमुद्देशः
थोऽनुकूलप्रतिकूलयोरिन्द्रियमस्थानं स राजा ॥१॥ राज्ञो हि दुष्टनिग्रहः शिष्टपरिपालनं च धर्म: ॥२॥ न पुनः शिरोमुण्डने जटाधारणादिकम् ॥३|| राजा पृथ्वीपालनोचितं कर्म राज्यम् ।।४।। वर्णाश्रमबती धान्यहिरण्यपशुकुप्यबृष्टिप्रदानफला च पृथ्वी ॥५॥ ब्राह्मणक्षत्रियवेश्यशूद्राश्च वर्णाः ।। ब्रह्मचारी गृही वानप्रस्थो यतिरित्याश्रमाः ॥७॥ स उपकुर्वाणको ब्रह्मचारी यो बेदमधीत्य स्नायात् ।।८।। स्नानं विवाहदीक्षाभिषेकः ॥२॥ स नैष्ठिको ब्रह्मचारी यस्य प्राणान्तिकमदारकर्म ॥१०॥ य उत्पन्नः पुनीते बंशं स पुत्रः ॥११॥ कृतोद्वाहा ऋतुप्रदाता कृतुपदः ॥१२॥ अपुत्रः ब्रह्मचारी पितृणामणभाजनम् ॥१३॥ अनध्ययनो ब्रह्मणः ॥१४॥
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अयजनो देवानाम् ॥१५॥ अहन्सकरो मनुष्याणाम् ॥१६॥ आत्मा वै पुत्रो नैष्ठिकस्य ।।१७।। अयमात्मानमात्मनि संदधानः परां पूततां संपद्यते ॥१८॥ नित्यनैरिटमा नुनको मस्यः । ब्रह्मदेवपित्रतिथिभूतयज्ञा हि नित्यमनुष्ठानम् ॥२०॥ दशंपौर्णमास्याद्याश्रयं नैमित्तिकम् ॥२१॥ वैवाहिकः शालीनो जायाबरोऽघोरो गृहस्थाः ॥२२॥ यः खलु यथाविधि जानपदमाहारं संसारव्यवहारं च परित्यज्य सकलत्रोऽकलनो वा बने प्रतिष्ठते स वानप्रस्थः ।।२३॥ बालखिल्य-औदम्बरी-वैश्वानराः सद्यः प्रक्षल्यकश्चेति वानप्रस्थाः ॥२४॥ यो देहमानारामः सम्यग्विद्यानोलामेन तृष्णासरित्तरणाय योगाय यतते यतिः ॥२५॥ कुटीचरवह्वोदकहंसपरमहंसा यतयः॥६॥ राज्यस्य मूलं क्रमो विक्रमश्च ॥२७॥ आचारसंपत्तिः क्रमसंपत्ति करोति ॥२८॥ अनुसेकः खलु विक्रमस्यालंकारः ॥२२।। क्रमविक्रमयोरन्यतरपरिग्रहेण राज्यस्थ दुष्करः परिणामः ॥३० क्रमविक्रमयोरधिष्ठानं बुद्धिमानाहायबुद्धिर्वा ॥३॥ यो विद्याविनीतमतिः स बुद्धिमान ॥३२॥ सिंहस्येव केवलं पौरुषावलम्बिनो न चिरं कुशलम् ॥३३॥ अशस्त्रः शूर इवाशास्त्रः प्रज्ञावानपि भवति विद्विषां वशः॥३४॥ अलोचनमोचरे ह्यर्थ शास्त्रं तृतीयं लोचनं पुरुषाणाम् ।।३५| अनधीतशास्त्रश्चक्षुष्मानपि पुमानन्ध एव ॥३६॥ न ह्यज्ञानादपरः पशुरस्ति ॥३७॥ वरमराजकं भुवनं न तु मूखों राजा ||३८|| असंस्कार रत्नमिव सुजातमपि राजपुत्रं न नायकपदायामनन्ति साधवः ॥३९॥ न दुर्विनोताद्राज्ञः प्रजानां विनाशादपरोऽस्त्युत्पातः ॥४०॥ यो युक्तायुक्तयोरविवेकी विपर्यस्तमतिर्वा स दुर्विनोत्तः ॥४१॥ यत्र सद्भिराधोयमाना गुणा संक्रान्ति तद्रव्यम् ॥४२॥ यतो द्रव्याद्रव्यप्रकृतिरपि कश्चित् पुरुषः संकीर्णगजवत् ।।४३॥ द्रव्यं हि क्रियां विनर्यात नाद्रव्यम् ॥४४|| शुश्रूषा-श्रवण-ग्रहण-धारणाविज्ञानोहापोह-तत्वाभिनिवेशा-बुद्धिगुणाः ॥४५॥
श्रोतुमिच्छा शुश्रूषा ॥४६॥ नीतिवाक्यामृत का मूक सूत्र-पाठ
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श्रवणमाकर्णनम् ॥४७॥ ग्रहणं शास्त्रार्थोपादानं ।।४८॥ धारणमविस्मरणम् ॥४॥ मोहसंदेहविपर्यासन्युदासेन ज्ञान विज्ञानम् ॥५०॥ विज्ञातमर्थमवलम्ब्यान्येषु व्याप्त्या तथाविवितर्कणमूहः ।।५।। उक्तियुक्तिभ्यां विरुद्धादर्थात् प्रत्यवायसंभावनया व्यावर्तनमपोहः ।।५२सा अथवा ज्ञानसामान्यमूहो ज्ञानविशेषोऽपोहः ।।५३|| विज्ञानोहापोहानुगविशुद्धमिदमित्यमेवेति निश्चयस्तत्त्वाभिनिवेशः ।।१४।। याः समधिगम्यात्मनो हितमवत्यहितं चापोहति ता विद्याः ।।५।। आन्वीक्षिकी अयो वार्ता दण्डनीतिरिति चतस्रो राजविद्याः ।।५।। अधीयानो ह्यान्वीक्षिकों कार्याकार्याणां बलाबलं हेतुभिर्विचारयति व्यसनेषु न विषोदति नाभ्युदयेन विकार्यते समधिगच्छति प्रज्ञावाक्यवैशारद्यम् ॥१७॥ त्रयों पठन् वर्णाश्रमाचारेवतोब प्रगल्भते जानाति च समस्तामपि धर्माधर्मस्थितिम् ।।५८॥ युक्तितः प्रवर्तयन् वार्ता सर्वमपि जीवलोकमभिनन्दयति लभते च स्वयं सर्वानपि कामान् ।।५।। यम इवापराधिषु दण्डप्रणयनेन विद्यमाने राशि न प्रजाः स्वमर्यादामतिकामन्ति प्रसीदन्ति च त्रिवर्गफला: विभूतयः ।।६०| सांस्य योगो लोकायतिकं चान्वीक्षिकी बौद्धाहतोः श्रुतेः प्रतिपक्षत्वात् (नान्वीक्षिकीत्वम् ) इति नेत्यानि मतानि ॥६१॥ प्रकृतिपुरुषज्ञो हि राजा सत्त्वमवलम्बते रजःफलं चापलं च परिहरति तमोभिर्नाभिभूयते ॥६॥ आन्वीक्षिक्यध्यात्मविषये, यो वेदयज्ञादिषु, वार्ता कृषिकर्मादिका, दण्डनीतिः शिष्टपालनदुष्टनिग्रहः ।।६३॥ चेतयते च विद्यावृद्धसेवायाम् ॥६४॥ अजातविद्यावृद्धसंयोगो हि राजा निरङ्कुशो गज इव सद्यो विनश्यति ।।६।। अनधीयानोऽपि विशिष्टजनसंसर्मात् परां व्युत्पत्तिमवाप्नोति ।।६।। अन्यैव काचित् खलु छायोपजलतरूणाम् ।।६७॥ वंशवृत्तविद्याभिजनविशुद्धा हि राज्ञामुपाध्यायाः ।।६।। शिष्टानां नोचैराचरन्तरपतिरिह लोके स्वर्ग च महीयते ॥१९॥ राजा हि परमं देवतं नासी कस्मेचित् प्रणमत्यन्यन्त्र गुरुजनेभ्यः ॥७॥ वरमज्ञानं नाशिष्टजनसेवया विद्या ॥१॥ अलं तेनामृतेन यत्रास्ति विषसंसर्गः ॥७२।। गुरुजनशीलमनुसरन्ति प्रायेण शिष्याः ।।७३ ।।
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नवेषु मृद्भाजने लग्नः संस्कारी ब्रह्मणाप्यन्यथा कतु न शक्यते ॥७४॥ अन्ध इवं वरं परप्रणेयो राजा न ज्ञानलवदुर्विदग्धः ॥ ७५ ॥ नीली रक्ते वस्त्र इव को नाम दुर्विदग्धे राज्ञि रागान्तरमाधते ॥७६॥ यथार्थवाद विदुषां श्रेयस्करो यदि न राजा गुणद्वेषी ॥७७॥ ॥ वरमात्मनो मरणं नाहितोपदेश: स्वामिषु ॥७८॥
६. अथ आन्वीक्षिकीसमुद्देशः
आत्ममनोमरुत्तत्त्वसमतायोगलक्षणो ह्यध्यात्मयोगः ॥ १ ॥ अध्यात्मज्ञो हि राजा सहजशारीरमानसागन्तुभिर्दोषनं वाध्यते ||२|| इन्द्रियाणि मनोविषयाज्ञानं भोगायतन मित्यात्मा रामः ॥३॥ यत्राहमित्यनुपचरितप्रत्ययः समात्मा ||४|| असत्यात्मनः प्रेत्यभावे विदुषां विफलं खलु सर्वमनुष्ठानम् ||५|| यतः स्मृतिः प्रत्यवमर्षंणमूहापोहनं शिक्षालाप क्रियाग्रहणं च भवति तन्मनः ॥६॥
आत्मनो विषयानुभवनद्वाराणीन्द्रियाणि ॥७॥ शब्दस्पर्श रस रूपगन्धा हि विषयाः ||८|| समाधीन्द्रियद्वारेण विप्रकृष्टसंनिकृष्टावबोधो ज्ञानम् ॥९॥ सुखं प्रीतिः ||१०||
तत्सुखमप्यसुखं यत्र नास्ति मनोनिवृत्तिः ॥ ११ ॥ अभ्यासाभिमान संप्रत्ययविषयाः सुखस्य कारणानि ॥ १२ ॥ | क्रियातिशयविपाक हेतुरभ्यासः ॥१३॥ प्रश्रयसत्कारादिलाभेनात्मनो यदुत्कृष्टत्वसंभावनमभिमानः ||१४|| असद्गुणे वस्तुनि तदगुणत्वेनाभिनिवेशः संप्रत्ययः ॥ १५ ॥ इन्द्रियमनस्तर्पणो भावो विषयः ||१६||
दुःखमप्रीतिः ॥१७॥
तद्दुःखमपि न दुःखं यत्र न संक्लिश्यते मनः ||१८|| दुःखं चतुविधं सहजं दोषजमागन्तुकमन्तरङ्ग' चेति ॥ १२॥ सहजं क्षत्तृषामनोभूभवं चेति ॥ २०॥
दोषजं वातपित्तकफवैषम्य संभूतम् ॥२१॥
आगन्तुकं वर्षातपादिजनितम् ॥२२॥ यच्चिन्त्यते दरिद्रन्यवकारजम् ||२३||
न्यक्कारायच्छविघासादिसमुत्यमन्तरङ्गजम् ॥ २४ ॥ न तस्यैहिकामुष्मिकं च फलमस्ति यः क्लशायसाभ्यां भवति
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विप्लवप्रकृतिः ॥२५॥ स किंपुरुषो यस्थ महाभियोग सुबंशधनुष इव नाधिकं जायते बलम् ॥२६।। आगामिक्रियाहेतुरभिलापो वेच्छा ।।२७|| आत्मनः प्रत्यवायेभ्यः प्रत्यावर्तनहेतुर्द्वषोऽनभिलाषो वा ॥२८॥ हिताहितग्राप्तिपरिहारहेतुरुत्साहः ॥२९|| प्रयत्नः परनिमित्तको भावः ॥३०॥ सातिशयलाभः संस्कारः ॥३शा अनेककर्माभ्यासबासनावशात् सद्योजातादीनां स्तन्यपिपासादिक येन क्रियत इति संस्कारः ।।३।। भोगायतनं शरीरम् ॥३३॥ ऐहिकव्यवहारप्रसाधनपर लोकायतिकम् ॥३४॥ लोकायलतो दिसा राम फाटकानुनदति ॥३५॥ न खल्वेकान्ततो यतीनामप्यनबद्यास्ति क्रिया ॥३६॥ एकान्तेन कारुण्यपर: करतलगतमप्यर्थं रक्षितुन क्षमः ३७| प्रशमंकचित्तं को नाम न परिभवन्ति ॥३८॥ अपराधकारिषु प्रशमो यतीनां भूषणं न महीपतीनाम् ॥३९।। धिक् तं पुरुषं यस्यात्मशक्त्या न स्तः कोपप्रसादौ ॥४०॥ स जीवन्नपि मत एव यो न विक्रामति प्रतिकूलेषु ॥४१॥ भस्मनीव निस्तेजसि को नाम निःशङ्कः पदं न कुर्यात् ।।४२॥ तत् पापमपि न पापं यत्र महान धर्मानुबन्धः ॥४३॥ अन्यथा पुनर्नरकाय राज्यम् ।।४४|| बन्धनान्ता नियोगः ॥४५॥ विपदन्ता खलमैत्री ॥४६॥ मरणान्तः स्त्री विश्वासः ॥४७॥
७. योस मुद्देशः
चत्वारो वेदाः शिक्षा कल्पो व्याकरणं निरुक्तं छन्दो ज्योतिरिति षडङ्गानोतिहासपुराणमीमांसान्यायधर्मशास्त्रमिति चतुर्दश विद्यास्थानानि त्यो ॥१॥ त्रयीतः खलु वर्णाश्रमाणां धर्माधर्मव्यवस्था ॥२॥ स्वपक्षानुरागप्रवृत्त्या सर्वे समधायिनो लोकव्यवहारेष्वधिनियन्ते ॥३॥ धर्मशास्त्राणि स्मृतयो वेदार्थसंग्रहाद्वेदा एव ॥४॥ अध्ययनं यजनं दानं च विप्रक्षत्रियवैश्यानां समानो धर्मः ।।५।। त्रयो वर्णाः द्विजातयः ॥६॥
१९८
नासिवाक्यामृप्त में राजनीति
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अध्यापन याजनं प्रतिग्रहो ब्राह्मणानामेव ॥७॥ भृतसंरक्षणं शस्त्राजीवनं सत्पुरुषोपकारो दीनोद्धरणं रणेऽपलायनं चेति क्षत्रियाणा ॥८॥ वार्ता जीवनमावेशिकपूजनं सत्रप्रपापुण्यारामदयादानादिनिर्मापणं च विशाम् ॥९॥ त्रिवर्णोपजीवनं कारुकुशीलवकर्म पुण्यपुटवाहनं च शूद्राणाम् ॥१०॥ सकृत् परिणयनव्यवहाराः सच्छूद्राः ॥११॥ आचाराननवद्यत्वं शुचिरूस्कार: शारीरी च विशुद्धिः करोति शूद्रमपि देवद्विजतपस्विपरिकर्मसु योग्यम् ॥१२॥ आनृशंस्यममृषाभाषित्वं परस्वनिवृत्तिरिच्छानियमः प्रतिलोमाविवाहोनिषिद्धासु च स्त्रीषु ब्रह्मचर्यमिति सर्वेषां समानो धर्मः ॥१३॥ आदित्यावलोकनवत् धर्मः खलु सर्वसाधारणो विशेषानुष्ठाने तु नियमः ॥१४।। निजागमोक्तमनुष्ठानं यतीनां स्वो धर्मः ॥१५॥ स्वधर्मध्यतिक्रमेण यतीनां स्वागमोक्तं प्रायश्चित्तम् ॥१६॥ यो यस्य देवस्य भवेच्छ्रद्धावान् स तं देवं प्रतिष्ठापयेत् ॥१७॥ अभक्त्या पूजोपचार: सद्यः शापाय ॥१८॥ वर्णाश्रमाणां स्वाचारप्रच्यवने त्रयोतो विशुद्धिः ॥१९॥ स्वधर्मासंकरः प्रजानां राजानं त्रिवर्गणोपसंधत्ते ॥२०॥ स किराजा यो न रक्षति प्रजाः ।।२१।। स्वधर्ममतिकामतां सर्वेषां पार्थिवो गुरुः ॥२२॥ परिपालको हि राजा सर्वेषां धर्मषष्ठांशमवाप्नोति ॥२३॥ उञ्छषड्भागप्रदानेन बनस्था अपि तपस्विनो राजानं संभावयन्ति ।।२४|| तस्यैव तद्भूयात् यस्तान् गोपायति इति ||२५|| सदमङ्गलमपि नामङ्गले यत्रास्यात्मनो भक्तिः ॥२६॥ संन्यस्ताग्निपरिग्रहानुपासीत् ॥२७॥ स्नाना प्राग्देवोपासनान्न कंचन स्पृशेत् ॥२६॥ देवागारे गतः सर्वान् यतीनात्मसंबन्धिनीजरती: पश्येत् । २२॥ देवाकारोपेतः पाषाणोऽपि नावमन्येत तक्कि पुनर्मनुष्यः राजशासनस्य मृत्तिकायामिव लिङ्गिषु को नाम विचारो यतः स्वयं मलिनो खलः प्रवर्धयत्येव क्षीरं धेनूनां न खलु परेषामाचार: स्वस्य पुण्यमारभते कि तु मनोविशुद्धिः॥३०॥ दानादिप्रकृतिः प्रायेण ब्राह्मणानाम् ॥३१॥ बलाकारस्वभावः क्षत्रियाणाम् ॥३२॥ निसर्गतः शाठय किरातानाम् ||३३३॥
नीतिवाक्यामूस का मूल सूत्र-पाठ
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ऋजनक्रशीलता सहजा कृषीबलानाम् ।।३४॥ दानावसानः कोपो ब्राह्मणानाम् ॥३५।। प्रणामाबसानः कोपो गुरूणाम् ॥३६॥ प्राणावसानः कोपः क्षत्रियाणाम् ॥३७|| प्रियवचनावसानः कोपो वणिग्जनानाम ||३८|| वैश्यानां समुद्धारकप्रदानेन कोपोपशमः ॥३९॥ निश्चल: परिचितेश्च सह व्यवहारो वणिज निधिः ।।४०॥ दण्ड भयोपधिभिर्वसीकरणं नीचजात्यानाम् ॥४।।
८. वार्तासमुद्देशः
कृषि: पशुपालनं वणिज्या च वार्ता वेश्यानाम् ॥१॥ वातासमतो सर्वाः सम यो राज्ञः ॥२॥ तस्य खल संसारसुखं यस्य कृषिर्धेनवः शाकवाटः समन्यदपानं च ॥३॥ विसाध्यराज्ञस्तन्त्रपोषणे नियोगिनामुत्सबो महान् कोशक्षयः ||४it नित्यं हिरण्यव्ययेन मेररपि क्षीयते ।।५।। तत्र सदैव दुर्भिक्षं यत्र राजा विसाधयति ॥६॥ समुद्रस्य पिपासायां कुतो जगति जलानि का स्वयं जीवधनमपश्यतो महत्तो हानिमनस्तापश्च क्षुत्पिपासाप्रतिकारात् पापं च ॥८॥ वृद्धबाल-व्याधितक्षीणान् पशून बान्धवानिव पोषयेत् ।।५।। अतिभारो महान् मार्गश्च पश नामकाले मरणकारणम् ॥१०॥ शुल्कवृद्धिर्बला पण्यग्रहणं च देशान्तरभाण्डानामप्रवेशे हेतुः ।।१।। काष्ठपात्र्यामेकदेव पदार्थो रक्ष्यते ॥१२॥ तुलामानयोरव्यवस्था व्यवहारं दूषयति ॥१३॥ वणिरजनकृत्तोऽर्थः स्थितानागन्तुकांश्च पोडयति ॥१४|| देशकालभाण्डापेक्षया बा सर्वार्थो भवेत् ।।१।। पण्यतुलामानवृद्धो राजा स्वयं जागृयात् ॥१६|| न वणिग्भ्य: सन्ति परे पश्यतोहराः ।।१७।। स्पर्द्धया मूलवृद्धिर्भाण्डेषु राशो यथोचित मूल्यं विक्रेतुः ॥१८॥ अल्पद्रव्येण महाभाण्डं ग़लतो मूल्याविनाशेन तद्भाण्डं राज्ञः ||१९|| अन्यायोपेक्षा सर्वं विनाशयति ।।२०।। चौरचरटमन्नपधमनराजवल्लभाविकतलाराक्षशालिकनियोगिग्रामफूटवा षिका हि राष्ट्रस्य कण्टकाः ॥१॥
नोसिवाक्यामृत में राजनीति
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प्रतापवति राज्ञि निष्ठुरे सति न भवन्ति राष्ट्रकण्टकाः ॥२२|| अन्यायवृद्धितो वार्द्धषिकास्तन्त्रं देशं च नाशयन्ति ॥२३॥ कार्याकार्ययोनास्ति दाक्षिण्ये वाषिकानाम् ॥२४॥ अप्रियमप्यौषधं पीयते ॥२५॥ अहिदष्टा स्वागुलिरपि छिद्यते ||२६||
दण्जनीतिसमुद्देशः चिकित्सागम इव दोषविशुद्धिहेतुर्दण्ड: ||१|| यथादोषं दण्डप्रणयनं दण्डनीतिः ॥शा प्रजापालनाय राज्ञा दण्डः प्रणीयते न धनार्थम् ॥३।। स किं राजा वैद्यो वा यः स्वजीवनाय प्रजासु दोषमन्वेषयति ॥४t] दण्ड चूत मृत विस्मृत चोर पारदारिक प्रजाविप्लवजानि द्रव्याणि न राजा स्वयमुपपुरूजोत ॥५॥ दुष्प्रणोतो हि दण्डः कामक्रोधाभ्यामज्ञानाद्वा सर्वविद्वेषं करोति ।।६।। अप्रणीतो हि दण्डो मात्स्यन्यायमुत्पादयति, बलायानबलं असति इति मात्स्यन्यायः ॥७॥
१०. मन्त्रिसमुद्देशः
मन्त्रिपुरोहितसेनापतीनां यो युक्तमुक्तं करोति स आहार्यबुद्धिः ।।१।। असुगन्धमपि सूत्रं कुसुमसंयोगात् किनारोहति देवशिरसि ।।२।। महद्भिः पुरुषः प्रतिष्ठितोऽश्मापि भवति देवः किं पुनर्मनुष्यः ॥३॥ तथा चानुश्रूयते विष्णुगुप्तानुग्रहादनधिकृतोऽपि किल चन्द्रगुप्तः साम्राज्यपदमवापेति ॥४॥ ब्राह्मणक्षत्रियविशामेकतम स्वदेशजमाचाराभिजनविशुद्धमव्यसनिनमव्यभिचारिणमधीताखिलव्यवहारतन्त्रमस्त्रज्ञमशेषोपाधिविशुद्धं च मन्त्रिणं कुर्वीत ॥५॥ समस्तपक्षपातेषु स्वदेशपक्षपातो महान् ।।६।। विनिषेक इव दुराचारः सर्वान् गुणान् दुषयति ।।७।। दुष्परिजनो मोहेन कुतोऽप्यपकृत्य न जुगुप्सते 1॥८ सव्यसनसचिवो राजारूढब्यालगज इव नासुलभोऽपायः ॥५॥ कि तेन केनापि यो विपदि नोपतिष्ठते ॥१॥
भौतिवाक्यामृत का मूल सूत्र-पास
२०१
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५
भोज्येऽसंमतोऽपि हि सुलभो लोकः ॥११॥
किं तस्य भक्त्या यो न वेत्ति स्वामिनो हितोपायमहितप्रतीकारं बा ||१२|| किं तेन सहायेनास्त्रज्ञेन मन्त्रिणा यस्यात्मरक्षणेऽप्यस्त्रं न प्रभवति ||१३|| धर्मार्थं कामभयेषु व्याजेन परचित्तपरीक्षणमुपधा ॥१४॥ अकुलीनेषु नास्त्यपवादाद्भयम् ||१५|| अर्कविषयत् कालं प्राप्य विकुर्वते विजातयः || १६॥ तद सस्य विषत्वं यः कुलीनेषु दोषसंभवः ||१७| घटप्रदीपवत्तज्ज्ञानं मन्त्रिणो यत्र न परप्रतिबोधः ||१८|| तेषां शस्त्रमिव शास्त्रमपि निष्फलं येषां प्रतिपक्षदर्शनाद्भयमन्त्रयन्ति
चेतांसि || १९||
तच्छस्त्रं शास्त्रं वात्मपरिभवाय यश हन्ति परेषां प्रसरम् ॥२०॥ न हि गली बलीवर्दो भारकर्मणि केनापि युज्यते ॥ २१ ॥ मन्त्रपूर्वः सर्वोऽप्यारम्भः क्षितिपतीनाम् ||२२||
अनुपलब्धस्य ज्ञानसुपलचिने चिनिय बलाधानमर्थस्य द्वैस्य संयच्छेदनमेकदेशलब्धस्याशेषोपलब्धिरिति मन्त्रसाध्यमेतत् ॥ २३॥ अकृतारम्भमारब्धस्याप्यनुष्ठानमनुष्ठितविशेषं विनियोगसंपदं च ये कुर्युस्ते
मन्त्रिणः ||२४||
कर्मणामारम्भोपायः पुरुषद्रव्यसंपद्देशकालविभागो विनिपास प्रतीकार: कार्यसिद्धिश्चेति पञ्चाङ्गो मन्त्रः ||२५||
आकाशे प्रतिशब्दवति चाश्रये मन्त्रं न कुर्यात् || २६ज्ञा मुखविकारकराभिनयाभ्यां प्रतिध्वानेन वा मनः स्थमप्यर्थमभ्यूह्यन्शि विचक्षणाः ||२७||
፡
आ कार्यंसिद्धे रक्षितव्यो मन्त्रः ||२८||
faar aai aviक्ष्य मन्त्रयमाणस्याभिमत: प्रच्छन्नो वा भिनत्ति मन्त्रम् ||२२||
श्रूयते किल रजन्यां वटवृक्षे प्रच्छतो वररुचि-र-प्र-शि-खेति पिशाचेभ्यो वृत्तान्तमुपश्रुत्य चतुरक्षरार्थः पादैः श्लोकमेकं चकारेति ||३०|| न तैः सह मन्त्रं कुर्यात् येषां पक्षीयेष्वपकुर्यात् ॥३१॥ अनायुक्तो मन्त्रकाले न तिष्ठेत् ||३२||
तथा च श्रूयते शुकसारिकाभ्यामन्यंश्च तिर्यग्भिर्मन्त्रभेदः कृतः ॥३३॥ मन्त्रभेदादुत्पन्नं व्यसनं दुष्प्रतिविधेयं स्यात् ॥ ३४॥
इङ्गिताकारी मदः प्रमादो निद्रा च मन्त्रभेदकारणानि ||३५|| इङ्गितमन्यथावृत्तिः ||३६||
कोपप्रसादजनिता शारीरी विकृतिराकारः ॥३७॥
Rot
नीतिवाक्यामृत में राजनीति
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पानस्त्रीसंगादिजनितो हर्षो मदः ॥३८॥ प्रमादो गोत्रस्खलनादिहेतुः ॥३९।। अन्यथा चिकीर्षतोऽन्यथावृत्ति प्रमादः ॥४०|| निद्रान्तरितो [ निद्रितः ॥४१॥ उद्धृतमन्त्रो न दीर्घसूत्रः स्यात् ॥४२।। अननुष्ठाने छात्रवत् कि मन्त्रेण ॥४३॥ न शोषधिपरिज्ञानादेव व्याधिप्रशमः ॥४४॥ नास्त्यविवेकात् परः प्राणिनां शत्रुः ।।४।। आत्मसाध्यमन्येन कारयन्नौषधमूल्यादिव व्याधि चिकित्सति ॥४६॥ यो यत्प्रतिबद्धः स तेन सहोदयव्ययी ॥४७॥ स्वामिनाधिष्ठितो मेषोऽपि सिंहायते ॥४८॥ मन्त्रकाले विगृह्य विवादः स्वैरालापश्च न कर्तव्यः ।।४९!! अविरुद्धरस्वरैविहितो मन्यो लघुनोपायेन महतः कार्यस्य सिद्धिर्मन्त्रफलम् ॥५०॥ न खलु तथा हस्तेनोत्थाप्यते गावा यथा दारुणा !!५१:! स मन्त्री शत्रुर्यो नृपेच्छ्याकार्यमपि कार्यरूपतयानुशास्ति ।।५२॥ वर स्वामिनो दुःखं न पुनरकार्योपदेशेन तद्विनाशः ॥५३॥ पीयूषमपिबतो बालस्य किं न क्रियते कपोलहननम् ।।५४३ मन्त्रिणो राजद्वितीयहृदयत्वान्न केनचित् सह संसर्ग कुयुः ॥५५॥ राज्ञोऽनुग्रहविग्रहावेव मन्त्रिणामनुग्रहविग्रहो ॥५६|| स देवस्यापराधो न मन्त्रिणां यत् सुघटितमपि कार्य न घटते ।।१७।। स खलु नो राजा यो मन्त्रिणोऽतिक्रम्य वर्तत ॥५॥ सुविवेचितान्मन्त्राद्भवत्येव कार्यसिद्धिर्यदि स्वामिनो न दुराग्रहः स्यात् ।।५९॥ अविक्रमतो राज्य वणिकखड्गयष्टिरिव ।।६०॥ नीतियथावस्थितमर्थमुपलम्मयति ।।६।। हिताहितप्राप्तिपरिहारौ पुरुषकारायत्तौ ॥६२|| अकालसहं कार्यमद्यस्वीनं न कुर्यात् ।।६३।। कालातिक्रमानखच्छेद्यमपि कार्य भवति कुठारच्छेद्यम् ॥६॥ को नाम सचेतनः सुखसाध्यं कार्य कृच्छसाध्यमसाध्यं वा कुर्यात् ॥६५॥ एको मन्त्री न कर्तव्यः ।।६।। एको हि मन्त्री निरवग्रहश्चरति मुह्यति च कार्येषु कृलनेषु ।।७।। द्वावपि मन्त्रिणो न कार्यों ।।६८।। द्वौ मन्त्रिणो संहतो राज्यं विनाशयतः ॥६९||
मौतिवारपाभूत का मूल सूत्र-पाठ
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निगृहीती होत विशयन. 1७० त्रयः पञ्च सप्त वा मन्त्रिणस्तैः कार्याः ।।७।। विषम पुरुषसमूहे दुर्लभमैकमत्यम् ॥७२॥ बहबो मन्त्रिणः परस्परं स्वमतीरुत्कर्षयन्ति ॥७३॥ स्वच्छन्दाश्च न विज़म्भन्ते ।।७४|| यद् बहुगुणमनपायबहुलं भवति तत्कार्यमनुष्ठेयम् ।।७।। तदेव भुज्यते यदेव परिणमति ॥७६।।। यथोक्तगुणसमवायिन्येकस्मिन् युगले वा मन्त्रिणि न कोऽपि दोषः ॥७७।। न हि महानप्यन्धसमुदायो रूपमुपलभेत ॥७८ अवायवीयॊ धुयौँ किन्न महति भारे नियुज्यते ।।७।। बहसहाये राज प्रसीदन्ति सर्व एव मनोरथाः ।।८) एको हि पुरुषः केषु नाम कार्यध्वात्मानं विभजते ।।८।। किमेकशाखस्य शाखिनो महती भवति छाया ॥८२॥ कार्यकाले दुर्लभः पुरुषसमुदायः ।।८३॥ दीप्ते गृहे कीदृशं षखननम् ॥८॥ न धनं पुरुषसंग्रहाद् बहु मन्तव्यम् ।।८५|| सत्क्षेत्रे चीजमिव पुरुषेषप्तं काय शतशः फलति १८६।। बद्धावथं युद्धे च य सहायास्ते कार्यपुरुषाः ॥८७।। स्वादनवारायां को नाम न सहायः ।।८८ श्राद्ध इवाथोत्रियस्थ न मन्त्रे मूर्खस्याधिकारोऽस्ति ॥८॥ किं नामान्धः पश्येत् ॥२०॥ किमन्धेनाकृष्यमाणोऽन्यः समं पन्थानं प्रतिपद्यते ॥९१|| तदन्धवर्तकीयं काकतालीयं वा यन्मूर्खमन्यात कार्यसिद्धिः ॥२२॥ स घुणाक्षरन्यायो यन्मूचेपु मन्त्रपरिज्ञानम् ।।१३।। अनालोकं लोचनमित्राशास्त्रं मनः कियत् पश्येत् ॥१४॥ स्वामिप्रसादः संपदं जनयति पुनराभिजात्यं पाण्डित्यं वा ।।९५।। . हरकण्ठलग्नाऽपि कालकूटः काल एव ।९६|| . स्वबधाय कृत्योत्थापनमिव मूर्खए राज्यभारारोपणम् १९७|| अकार्यवेदिनः किंबहुना शास्त्रेण |९८॥ गुणहोनं धनुः पिजनादपि कष्टम् ।।९९।। चक्षुष इव मन्त्रिणोऽपि यथार्थदर्शनमेवात्मगौरवहेतुः ।।१०।। शस्त्राधिकारिणो न मन्त्राधिकारिणः स्युः ॥१०॥ क्षत्रियस्य परिहरलोऽप्यायात्युपरि भण्डनम् ।।१०।।
शस्त्रोपजीविनां कलहमन्तरेण भक्तमपि भुक्तं न जीयंति ॥१०३।। १०४
नीतियाण्यामृत में राजनीति
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मन्त्राधिकारः स्वामिप्रसादः शस्त्रोपजीवनं चेत्ये कैकमपि पुरुषमुत्सेकयति । कि पतन साएदाय: ०४!! नालम्पटोऽधियारी॥१०५|| मन्त्रिणोऽर्थग्रहणलालसायां मती न राज्ञः कार्यमर्यो वा ॥१०६॥ बरणार्थ प्रेषित इव यदि कन्यां परिणयति तदा वरयितुस्तप एव शरणम् १०७|| स्थाल्येब भक्तं चेत् स्वयमश्नाति कुतो भोक्तुर्भुक्तिः ॥१०८।। सावत् सर्वोऽपि शुचिनि:स्पृहो यावन परव रस्त्रीदर्शनमर्थागमो वा ।।१०।। अदुष्टस्य हि दूषणं सुप्तव्यालप्रबोधनमिव ॥११०॥ येन सह चित्तविनाशोऽभूत्, स सन्निहितो न कर्तव्यः ॥१११॥ सकृद्विधटितं चेतः स्फटिकवलमिव क; संधातूमीश्वरः ॥११॥ न महतायुपकारेण चित्तस्य तथानुरागा यथा विरागो भवत्यल्पेनाप्यपकारेण ।१११३॥ सूचीमुखसपंवन्नानपकृत्य विरमन्त्यपराद्धाः ॥११४॥ अतिवृद्धः कामस्तन्नास्ति यन्न करोति ॥१४॥ श्रूयते हि किल कामपरवशः प्रजापतिरात्मदुहितार हरिगोपवधूष, हरः शान्तनुकलत्रेषु, सुरपति गौतमभार्यायां, चन्द्रश्च बृहस्पतिपल्या मनश्चकारेति ॥११६|| अषूपभोग हतास्तरवोऽपि साभिलाषा: किं पुनर्मनुष्याः ॥११७|| कस्य न धनलाभाल्लोभः प्रवर्तते ॥११८॥ स खलु प्रत्यक्ष देवं यस्य परस्त्रेष्विव परस्त्रीषु निःस्पूह चेतः ॥११॥ समायव्ययः कार्यारम्भो रामसिकानाम् ॥१२०॥ बहुक्लेशेनाल्पफलः कार्यारम्भो महामूर्खाणाम् ।।१२१|| दोषभयान कार्यारम्म: कापुरुषाणाम् ॥१२॥ मगाः सन्तीति कि कृषिर्न क्रियते ॥१२३॥ अजीणभयात् कि भोजनं परित्यज्यते ॥१२४॥ स खलु काऽपोहाभूदस्ति भविष्यति वा यस्य कार्यारम्भेषु प्रत्यवाया न भवन्ति ।।१२५|| आत्मसंशयेन कार्यारम्भो न्वालहृदयानाम् ।१६।। दुर्भीरुत्वमासन्नशूरत्वं रिषी प्रति महापुरुषाणाम् ॥१२७॥ जलबन्मादेवापेतः पृथूनपि भूभृतो भिनत्ति ॥१२८॥ प्रियंवदः शिखीव सदानपि द्विषत्सनुत्सादयति ॥१२९।। नाविज्ञाय परेषामर्थमनर्थ या स्वहृदयं प्रकाशयन्ति महानुभावाः ।।१३०॥
क्षो रवृक्षवत् फलसंपादनमेव महतामालापः ॥१३॥ नीतिवाक्यामृत का मूल सूत्र-पाठ
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दुरारोहपादप इव दण्डाभियोगेन फलप्रदो भवति नोच प्रकृतिः १३२ ॥
महान यो विपत्सु धैर्यंमवलम्बते ||१३३||
उत्तापकत्व हि सर्वकार्येषु सिद्धीनां प्रथमोऽन्तरायः || १३४||
शरदुधना इव न खलु वृथालापा गलगजितं कुर्वन्ति सत्कुलजाताः ॥ १३५॥ न स्वभावेन किमपि वस्तु सुन्दरमसुन्दरं वा किन्तु यदेव यस्य प्रकृतितो भाति तदेव तस्य सुन्दरम् ॥१३६॥ |
न तथा कर्पूररेणुना प्रीतिः केतकोनां वायथामेध्येन ॥ १३७॥ अतिक्रोधनस्य प्रभुत्वमग्नौ पतितं लवणमिव शतधा विशीर्यते ॥ १३८ ॥ सर्वान् गुणान् निहन्त्यनुचितज्ञः || १३५९ ॥ परस्परं मर्मकथनात्मविक्रम एव ॥ १४० ॥ तदजाकृपाणीयं यः परेषु विश्वासः || १४१ ॥ क्षणिक चित्तः किंचिदपि न साधयति || १४२२ स्वतन्त्रः सहसाकारित्वात् सर्व विनाशयति ॥१४३॥ अलसः सर्वकर्मणामनधिकारी ||१४४|| प्रमादवान् भवत्यवश्यं विद्विषां वशः || १४५ ॥ कमप्यात्मनोऽनुकूलं प्रतिकूलं न कुर्यात् ॥ १४६ ॥ प्राणादपि प्रत्यवायो रक्षितव्यः ॥ १४७ ॥
आत्मशकिमजानतो विग्रहः क्षयकाले कीटिकानां पक्षोत्थानमिव ॥१४८॥ कालमलभमानोऽपकर्तरि साधु वर्तत ॥ १४९ ॥
किन्नु खलु लोको न वहति मूर्ध्ना दग्धुमिन्धनम् || १५०॥ नदीरयस्तरूणामंहीन क्षालयन प्युन्मूलयति ॥१५१॥ उत्सेको हस्तगतमपि कार्य विनाशयति ॥ १५२॥ नापं महद्वापक्षेपोपायज्ञस्य ॥ १५३ ॥
नदीपूरः सममेबोन्मूलयति [ तोरजतॄणां हिमान् ] ॥ १९४॥ युक्तमुक्तं वचो बालादपि गृह्णीयात् ॥ १५५॥
रविषये किं न दीपः प्रकाशयति ॥१५६॥
अल्पमपि वातायनविवरं बहुनुपलम्भयति || १५७॥
पतिंवरा इव परार्थाः खलु वाचस्ताश्च निरर्थकं प्रकाश्यमानाः
शपयन्त्यवश्यं जनयितारम् ||१५८ ॥
तत्र युक्तमप्युक्तसमं यो न विशेषज्ञः ॥ १५९ ॥
स खलु पिशाचकी बातकी वा यः परेऽनर्थनि वाचमुद्दीरयति ॥ १६० ॥ विध्यायतः प्रदीपस्येव नयहीनस्य वृद्धिः || १६१ ॥ जीवोत्सर्गः स्वामिपदमभिलषतामेत्र ॥ १६२ ॥ बहुदोषेषु क्षणदुःखप्रदोऽपायोऽनुग्रह एव ॥ १६३ ॥
२०६
नीतिवाक्यामृत में राजनीति
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स्वामिदोषस्वदोषाभ्यामुपहतवृत्तयः क्रुद्ध-लुब्ध भीतावमानिताः
कृत्याः || १६४||
अनुवृत्तिरभयं त्यागः सत्कृतिश्च कृत्यानां वशोपायाः ॥ १६५॥ | क्षयलोभविरागकारणानि प्रकृतीनां न कुर्यात् ॥१६६॥ सर्व कोपेभ्यः प्रकृतिकोपो गरीयान् ॥१६७॥
अचिकित्स्यदोषदुष्टान् खनिदुर्गसेतुबन्धा करकर्मान्तरेषु क्लेशयेत् || १६८ || अपराध्येरपराधकैश्च सह गोष्ठीं न कुर्यात् || १६९ ॥ ते हि गृहविष्टसर्पवत् सर्वव्यसनानामागमनद्वारम् ॥ १७० ॥ न कस्यापि क्रुद्धस्य पुरतस्तिष्ठेत् ॥ १७१ ॥
कुद्धो हि सर्व इयमेवाग्रे पश्यति तत्रैव रोषवियमुत्सृजति ॥ १७२ ॥ अप्रतिविधातुरागमनाद्वरमनागमनम् ॥१७३॥
११. पुरोहितसमुद्देशः
पुरोहितमुदितोदितकुलशीलं षडङ्गवेदे देवे निमित्तं दण्डनीत्यामभिविनोतमापदां देवानां मानुषीणां च प्रतिकारं कुर्वीत ॥१॥ राशो हि मन्त्रिपुरोहितो मातापितरो अतस्ती न केषुचितेषु विसूरयेद् दुःखयेद दुविनयेद्वा || २ || अमानुष्योऽग्निरवर्ष' मरको दुर्भिक्षं सस्योपधातो जन्तुत्सर्गो व्याधिः, भूत पिशाच शाकिनी - सर्प व्याल- मूषक क्षोभवचेत्यापदः ||३|| शिक्षाला पक्रियाक्षमो राजपुत्रः सर्वासु लिपिषु प्रसंख्याने पदप्रमाणप्रयोगकर्मणि नोत्यागमेषु रत्नपरीक्षायां संभागप्रहरणोपवाह्यविद्यासु साधु विनेतव्यः ॥४॥
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अस्वातन्त्र्यमुक्तकारित्वं नियमो विनीतता च गुरूपासनकारणानि ॥५॥ व्रतविद्यावयोऽधिकेषु नीचैराचरणं विनयः ॥ ६ ॥
पुण्यावाप्तिः शास्त्र रहस्यपरिज्ञानं सत्पुरुषाधिगम्यत्वं च विनयफलम् ||७|| अभ्यासः कर्मसु कौवालमुत्पादयत्येव यद्यस्ति तज्ज्ञेभ्यः संप्रदायः ||८|| गुरुवचनमनुल्लंघनीयमन्यत्राधर्मानुचिताचारात्म प्रत्यवायेभ्यः ॥१९॥ युक्तमयुक्तं वा गुरुरेव जानाति यदि न शिष्यः प्रत्यर्थवादी ॥ १० ॥ गुरुजनरोषेऽनुत्तरदानमभ्युपपत्तिश्चौषधम् ॥ ११ ॥
शत्रूणामभिमुखः पुरुषः श्लाध्पो न पुनर्गुरुणाम् ॥ १२॥ आराध्यं न प्रकोपयेद्यद्यसावाश्रितेषु कल्याणशंसो ॥११३॥ गुरुभिरुक्तं नातिक्रमितव्यं यदि नेहिकामुत्रि कफलविलोपः ॥ १४ ॥ सन्दिहानो गुरुमको पापृच्छेत् ॥ १५॥
मीतिवाक्यामृत का मूक सूत्र-पाठ
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गुरूणां पुरतो न यथेष्टमासितव्यम् ॥१६॥ नानभिवाद्योपाध्यायाद्विद्यामाददीत् ।।१७] अध्ययन काले व्यासङ्गं पारिप्लवमन्यमनस्कतां च न भजेत् ॥१८॥ सहाध्यायिषु बुद्ध्यतिशयेन नाभिभूयेत ॥१९॥ प्रशयातिशयानो न गुममवज्ञायेत् ।।२०।। स किमभिजातो मातरि यः पुरुषः शूरो वा पितरि ॥२१॥ अननुज्ञातो न ववचिद् बजेत् ।।२२।। मार्गमचल जलाशयं च नेकोऽवगाहयेत् ॥२३॥ पितरमिव मुरुमुपचरेत् ॥२४॥ गुरुपत्नी जननीमिव पश्येत् ।।२५।। गुरुमिब गुरुपत्रं पश्येत् ।।२६।। सब्रह्मचारिणि बान्धव इत्र स्निह्येत् ॥२७॥ ब्रह्मचर्यमाणोत्तो बानताका चार !! समविद्यः सहाधीतं सर्वदाभ्यस्पेत् ॥२९॥ गृहदौःस्थित्यमागन्तुकानां पुरतो न प्रकाशयेत् ॥३०॥ परगृहे सर्वोऽपि विक्रमादित्यायते ॥३१॥ स खलु महान् यः स्वकार्येष्विव परकार्येषत्सहते ॥३॥ परकार्येषु को नाम न शीतलः॥३३॥ राजासनः को नाम न साधः ॥३४॥ अर्थपरेष्वनुनयः केवलं दैन्याय ॥३५॥ को नामार्थार्थी प्रणामेन तुष्यति ॥३६॥ आश्रितेषु कार्यतो विशेषकारणेऽपि दर्शनप्रियालापनाभ्यां सर्वत्र समवृत्तिस्तन्त्रं वर्धयति अनुरञ्जयति च ॥३७॥ तनुधनादर्थग्रहणं मतमारणमिव ॥३८॥
अप्रतिविधातरि कार्ये निवेदनमरण्यरुदितभिव ।।३।। .: दुराग्रहस्य हितोपदेशो बधिरस्याग्रतो गानमिव ॥४०॥
अकार्यज्ञस्य शिक्षणमन्धस्य पुरती नर्तनमिव ॥४॥ अविचारकस्य यक्तिकथन तुषकण्डनमिव ॥४२॥ नीचेषपकृतमदके विशीर्ण लवणमिव ॥४॥ अविशेषज्ञे प्रयासः शुष्कनदीतरणमिव ॥४४॥ परोक्षे किलोपकृतं सूत वाहममिव ॥४५॥ अकाले विज्ञप्तमषरे कृष्टमिव ।।४६|| उपकृत्योद्घाटनं वैरकरणमिव १४७|| अफलवतः प्रसादः कामकुमुमस्येब' ||४८॥
नीतिवाक्यामृत में राजनीति
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. गुणदोषावनिश्चित्यानुग्रहनिग्रहविधानं ग्रहाभिनिवेश इव ॥४९॥
उपकारापकारासमर्थस्य तोषरोषकरणमात्मविडम्बनमिव ॥५०॥ ग्राम्यस्त्रीविद्रावणकारि गलगजितं नामशूराणाम् ॥२१॥ अ विभवो गमागमा दरोगगरसो न तुप: स्वस्येवोपभोग्यो व्याधिरिव ॥५२॥ स किं गुरुः पिता सुहृद्वा योऽभ्यसूययाऽभ बहुदोषं बहुषु वा दोष प्रकाशयति न शिक्षयति च ॥५३॥ स कि प्रभुर्यश्चिरसेवकेष्वेकमप्यपराधं न सहते ॥५४॥
१२. सेनापतिसमुद्देशः
अभिजनाचारप्राज्ञानुरागशौचशौर्यसंपन्नः प्रभाववान् बहुबान्धवपरिवारो निखिलनयोपायप्रयोगनिपुणः समभ्यस्तसमस्तवाहनायुधयुद्धलिपिभाषात्मपरिज्ञानस्थितिः सकलतन्त्रसामन्ताभिमतः सांग्रामिकाभिरामिकाकारशरीरो भर्तरादेशाभ्युदयहितवृत्तिषु निविकल्पः स्वामिनात्मवन्मानार्थप्रतिपत्तिः राजचिह्नः संभावितः सर्वक्लेशायाससह इति सेनापति गुणाः ॥१॥ स्वैः परैश्च प्रधृष्यप्रकृतिरप्रभाववान् स्त्रीजितत्वमौद्धत्यं व्यसनिताक्षयव्ययप्रवासोपहतत्वं तन्त्राप्रतीकारः सर्वैः सह विरोधः परपरीवादः परुषभाषित्वमनुचित्तज्ञतासंविभागित्वं स्वातन्त्र्यात्मसंभावनोपहतत्वं स्वामिकार्यव्यसनोपेक्षः सहकारिकृतकार्यविनाशो राजहितवृत्तिषु चालुत्वमिति सेनापतिदोषाः ।।२।। सचिरंजीवति राजपुरुषो यो नगरनापित इवानुवृत्तिपरः सर्वासु प्रकृतिषु ।।३।।
१३. दूतसमुद्देशः
अनासम्नेष्वर्थेषु दूतो मन्त्री |शा स्वामिभक्तिरव्यसनिता दाक्ष्यं शुचित्वममूर्षता प्रागल्भ्यं प्रतिभानवत्वं । क्षान्तिः परमर्मवेदित्वं जातिश्च प्रथमे दूतगुणाः ॥२॥ स त्रिविधो निसृष्टार्थः परिमितार्थः शासनहरश्चेति ।।३।। यत्कृतौ स्वामिनः सन्धिविग्रही प्रमाणं स निसृष्टार्थः यथा कृष्णः पाण्डवानाम् ॥४॥ अविज्ञातो दुतः परस्थानं न प्रविशेन्निगच्छेदा ।।५।।
मत्स्वामिनासंधातुकामो रिपुर्मा विलम्बयितुमिच्छतीत्यननुज्ञासोऽपि मोतिवाक्यामृत का मूल सूत्र-पाठ
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दूतोऽपसरेद् गूढपुरुषान्वावसर्पयेत् ॥६॥ परंणाशु प्रेषितो दूतः कारणं विमृशेत् ॥७॥ कृत्योपग्रहोऽकृत्योत्थापनं सुतदायादावरुद्धोपजापः स्वमण्डलप्रविष्टगूढपुरुषपरिज्ञानमन्तपालाटविककोश देशतन्त्रमिश्रावबोधः कन्यारत्नवाहन विनि
श्रावणं स्वाभीष्टपुरुषप्रयोगात् प्रकृतिक्षोभकरणं दूतकर्म ॥८॥ मन्त्रिपुरोहितसेनापतिप्रतिबद्धपूजनोपचारविस्रम्भाभ्यां शत्रोरिति कर्तव्यतामन्तःसारतां च विद्यात् ||१९||
स्वयमशक्तः परेणोक्तमनिष्टं सहेत ॥ १०॥ गुरुषु स्वामिषु वा परिवादे नास्ति क्षान्तिः ॥ ११ ॥ स्थित्वापि यियासतोऽवस्थानं केवलमुपक्षयहेतुः ॥ १२ ॥ वीरपुरुषपरिवारितः शरपुरुषान्तरितात् तान् पश्येत् ||१३|| श्रूयते हि किल चाणक्यस्तीक्ष्णदूत प्रयोगेणैकं नन्दं जघान ॥ १४ ॥ शत्रुप्रहितं शासनमुपायनं च स्वैरपरीक्षितं नोपाददीत ॥ १५ ॥ श्रूयते हि किल स्पर्शविषवासिताद्भुतवस्त्रोपायनेन करहाटपतिः कैटभो वगुणागतं वा १
आशीविषविष रोपेतरत्नकरण्डकप्राभृतेन च करवालः करालं जघानेति ।। १७ ।। महत्यपराचेऽपि न दूतमुपहन्यात् ॥ १८॥
उद्धृतेष्वपि शस्त्रेषु दूतमुखा वै राजानः ॥ १९ ॥ तेषामन्तायसायिनोऽप्यवध्याः ||२०|| कि पुनर्ब्राह्मणः ||२१||
अवध्यभावो दूतः सर्वमेव जल्पति ||२२||
कः सुधोदूंतवचनात् परोत्कर्षं स्वापकर्षं च मन्येत ॥२३॥
स्वयं रहस्यज्ञानार्थं परदूतो नपाद्यैः स्त्रीभिरुभयवेतनेस्तद्गुणा चारशीलानुवृतिभिर्वा चंचनीयः ||२४||
चत्वारि वेष्टनानि खड्गमुद्रा च प्रतिपक्षलेखानाम् ॥२५॥
१४. चारसमुद्देशः
स्वपरमण्डलकार्याकार्यावलोकने चाराः खल चक्षूंषि क्षितिपतीनाम् ॥ १॥ अलौल्यममान्द्यममुषाभाषित्वमम्यूहकत्वं चारगुणाः ॥२॥
तुष्टिदानमेव चाराणां वेतनम् ||३||
ते हि तल्लोभात् स्वामिकार्येषु त्वरन्ते ||४|| असति संकेते त्रयाणामेकवाक्ये संप्रत्ययः ॥ ५॥ अनबसप हि राजा स्वैः परैश्वातिसंधीयते ॥६॥
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किमस्त्ययामिकस्य निशि कुशलम् ||७||
छात्रकापटिकोदास्थित गृहपतिवैदेहिकतापस किरातयमपट्टिकाहितुण्डिकशीण्डिकशीभिकपाटच्चर विविदूषक पीठमर्दन तक गायनवादकवाग्जीवनगणकशाकुनिकभिषगेन्द्रजालिकनेमित्तिकसूदास ठिकसंवादकतीक्ष्णरसदक रजडमूकबधिरान्धछभावस्थायियायिभेदेनावसर्पवर्गः ॥ ८ ॥
परममज्ञः प्रगल्भ छात्रः ॥९॥
यं कमपि समयमास्थाय प्रतिपन्न छात्रवेषकः कापटिकः ॥१०॥ प्रभूतान्तेवासी प्रज्ञातिशययुक्तो राज्ञा परिकल्पितवृत्तिरुदास्थितः ||११|| गृहपतिवैदेहिको ग्रामकूटश्रेष्ठिनी ॥ १२ ॥
बाह्यविद्याभ्यां लोकदम्भहेतुस्तापसः ॥१३॥
अल्पाखिलशरीरावयवः किरातः ||१४||
यमपट्टिको गोटिकः प्रतिगृहं चित्रपटदर्शी वा ॥ १५॥ महितुण्डिकः सर्वक्रीडाप्रसरः || १६||
शौण्डिकः कल्पपालः ॥ १७॥ !
शोभिकः क्षपाय पटावरणेन रूपदर्शी ||१८|| पाटच्चरश्चौरो बन्दीकारो वा ॥ १९ ॥ व्यसनिनां प्रेषणानुजीवो विटः ||२०|| सर्वेषां प्रहसनपात्रं विदूषकः ||२१|| कामशास्त्राचार्यः पीठमर्दः ||२२||
गीताङ्गपटप्रावरणेन नृत्यवृत्त्याजीवी नको नाटकाभिनयरजन को
वा ॥२३॥ रूपाजीवावृत्युपदेष्टा गायकः ||२४||
गौतप्रबन्ध गतिविशेष वादकचतुर्विधातोद्यप्रचारकुशलो वादकः ||२५|| वाग्जीवी बेसालिकः सुतो वा ||२६|| गुणक: संख्याविद्देवज्ञो वा ॥ २७॥ शाकुनिकः शकुनवता ||२८|| भिषायुर्वेदविद्वेद्यः शस्त्रकर्मविच्च ||२९||
ऐन्द्रजालिकतन्त्र युक्त्या मनोविस्मयकरो मायावी वा ||३०|| नैमित्तिको लक्ष्यवेधी देवज्ञो वा ॥ ३१ ॥
महान सिकः सूदः ||३२|
विचित्र भक्ष्यप्रणेता आरालिकः ॥३३॥
अङ्गमदं नकलाकुशली भारवाहको वा संवाहकः ॥ ३४॥ द्रव्यहेतोः कृच्छ्र ेण कर्मणा यो जीवितविक्रयी स तीक्ष्णोऽसनो वा ||३५||
बन्घुस्नेहरहिताः क्रूराः ||३६||
जीवामृत का सूळ सूत्र- पाठ
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अलसाश्च रसदाः ॥३७॥ जडमूकबधिरान्धाः प्रसिद्धाः ॥३८॥
१५. विचारसमुद्देशः
नाविचार्य कार्य किमपि कुर्यात् ॥१॥ प्रत्यक्षानुमानागमैर्यथावस्थितवस्तुव्यवस्थापनहेर्विचारः ॥२॥ स्वयं दृष्ट प्रत्यक्षम् ॥३॥ न ज्ञानमात्रत्वात् प्रेक्षावतां प्रवृत्तिनिवृत्तिर्वा ॥४॥ स्वयं दृष्टेऽपि मतिबिमुह्यति संशेते विपर्यस्यति वा कि पुनर्न परोपदिष्टे वस्तुनि ॥५॥ स खलु विचारतो यः प्रत्यक्षेणोपलब्धमपि साधु परीक्ष्यानुतिष्ठति ॥६॥ अतिरभसात् कृतानि कार्याणि किं नामान न जनयन्ति ॥७॥ अविचार्य कृते कर्मणि यत् पश्चात् प्रतिबिधान गतोदके सेतुबन्धनमिव ।।८।। आकारः शौर्यमायतिविनयश्च राजपुत्राणां भाविनो राज्यस्य लिङ्गानि ॥९॥ कर्मसु कृतेनाकृतावेक्षणमनुमानम् ॥१०॥ संभावितैकदेशो नियुक्तं विद्यात् ।।१।। प्रकृतेविकृतिदर्शनं हि प्राणिनां भविष्यतः शुभाशुभस्य चापि लिङ्गम् ।।१२।। य एकस्मिन् कर्मणि दृष्टबुद्धि: पुरुषकारः स कथं कर्मान्तरेषु न समर्थः ।।१३॥ आसपुरुषोपदेश आगमः ॥१४॥ यथानुभूतानुमितश्रुतार्थाविसंवादिवचनः पुमानाप्तः ॥१५॥ सा वागुक्ताप्यनुक्समा, यत्र नास्ति सद्युक्तिः ॥१६॥ वक्तुर्गुणगौरवाद् वचनगौरवम् ॥१७॥ कि मितंपचेषु धनेन चाण्डालसरसि वा जलेन यत्र सत्तामनुपभोगः ॥१८॥ लोको गतानुगतिको यतः सदुपदेशिनीमपि कुटिनों तथा न प्रमाणयति यथा गोनमपि ब्राह्मणम् ॥१९॥
१६. व्यसनसमुद्देशः
व्यस्यति पुरुषं श्रेयसः इति व्यसनम् ॥१॥ व्यसन द्विविधं सहजमाहार्य च ॥२॥ सहज व्यसन धर्माभ्युदयहेतुभिरधर्मजनितमहाप्रत्यवायप्रतिपादनस्पाख्यान । ोगपुरुषश्च प्रशमं नयेत् ||३|| परिचित्तानुकूल्येन तदभिलषितेपूपायेन विरतिजननहेतवो योगपुरुषाः ॥४॥
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शिष्टजनसंसगंदुजेनासंसर्गाभ्यां पुरातनमहापुरुषचरितोस्थिताभिः कथाभि• राहाय व्यसनं प्रतिबध्नीयात् ।।५।। स्त्रियमतिशयेन भजमानो भवत्यवश्यं तृतीया प्रकृतिः ॥६॥ सौम्यधातुक्षयेण सर्वधातुक्षयः |७|| पानशौण्डश्चित्तविभ्रमात् मातरमपि गच्छति ॥८॥ मृगयासक्तिः स्तेनव्यालद्विषद्दायादानामामिषं पुरुषं करोति ।।९।। द्यूतासक्तस्य किमप्यकृत्यं नास्ति ॥१०॥ मातर्यपि हि मृतायां दोव्यत्येव हि कितवः ॥११॥ पिशुनः सर्वेषामविश्वास जनयति ॥१२॥ दिवास्वापः गुप्तव्याधिव्यालानामुत्थापनदण्डः सकलकार्यान्तरायश्च ॥१३॥ व परपरीवादात् परं सर्वविद्वेषणभेषजमस्ति ||१४|| तौयंत्रयासक्तिः प्राणार्थमानेवियोजयति ॥१५॥ वृथाट्या नाविधाय कमप्यनर्थ विरमति ।।१६।। अतीवेाल स्त्रियो घ्नन्ति त्यजन्ति वा पुरुषम् ॥१७॥ परपरिग्रहाभिगमः कन्यादूषण वा साहसः ॥१८॥ यत् साहसं दशमुखदण्डिकाविनाशहेतु: सुप्तसिद्धमेव ।।१९।। यत्र नामस्मीत्यध्यवसायस्तत् साहसम् ॥२०॥ अर्थदूषकः कुबेरोऽपि भवति भिक्षाभाजनम् ॥२१॥ अतिव्ययोऽपात्रव्ययश्चार्थदूषणम् ॥२२॥ हर्षामर्षाभ्यामकारणं तृणाङ्कुरमपि नोपहन्यारिकपुनर्मत्यंम् ॥रशा भूयते किल निष्कारणभूतावमानिनो वातापिरिल्वलश्च द्वावसुरावगस्त्याशनाद्विनेशतुरिति ॥२४॥ यथादोषं कोटिपि गृहीता न दुःखायते । अन्यायेन पुनस्तृणशलाकापि गृहीता प्रजाः खेदयति ॥२५॥ तरच्छेदेन फलोपभोगः सकृदेव ॥२६॥ प्रजाविभवो हि स्वामिनोऽद्वितीयो भाण्डागारोऽतो युक्तितस्तमुपभुञ्जीत२७॥ राजपरिगृहीतं तृणमपि काञ्चनीभवति [ जायते पूर्वसंचितस्याप्यर्थस्यापहाराय ]" ॥२८॥ वाक्पारुष्यं शस्त्रपातादपि विशिष्यते ॥२९॥ जातिवयोवृत्तविद्यादोषाणामनुचितं वचो वाक्पारुष्यम् ॥३०॥ स्त्रियमपत्यं मृत्यं च तथोक्त्या विनयं ग्राहयेद्यथा हृदयप्रविष्टाचछल्यादिव न ते दुर्मनायन्ते ॥३१॥
१.येन हृदयसैतागो जायते तद्यतन वापारयम् । इत्यपि पाठः।
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श्रधः परिक्लेशोऽथं हरणमक्रमेण दण्डपारुष्यम् ||३२||
एकेनापि व्यसनेनोपहतश्चतुरोऽपि राजा विनश्यति किं पुनर्नाष्टादशभिः ||३३||
१७. स्वामिसमुद्देशः
धार्मिकः कुलाचाराभिजनविशुद्धः प्रतापवान्नयानुगतवृत्तिश्च स्वामी ||१|| कोपप्रसादयोः स्वतन्त्रः ||२||
आत्मातिशयं धनं वा यस्यास्ति स स्वामी ||३||
स्वाभिमूलाः सर्वाः प्रकृतयोऽभिप्रेतार्थ योजनाय भवन्ति नास्वामिकाः ॥४॥ा उच्छमूलेषु तरुषु किं कुर्यात् पुरुषप्रयत्नः ||५| असत्यवादिनो नश्यन्ति सर्वे गुणाः ||६||
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वक्चकेषु न परिजनो नापि चिरायुः ||७|| सप्रियो लोकानां योऽर्थं ददाति ||८||
स दाता महान् यस्य नास्ति प्रत्याशोपहतं चेतः ॥९॥ प्रत्युपकर्तुरुपकारः सवृद्धिकोऽर्थंन्यास इव तज्जन्मान्तरेषु च न केामूर्ण येषामप्रत्युपकारमनुभवनम् ||१०||
किं तया गया या न क्षरति क्षीरं न गर्भिणी वा ॥ ११ ॥ किं तेन स्वामिप्रसादेन यो न पूरयत्याशाम् ||१२|| क्षुद्रपरिषत्कः सर्पाश्रय इव न कस्यापि सेव्यः ॥ १३॥ अकृतज्ञस्य व्यसनेषु न सहन्ते सहायाः ||१४|| अविशेषज्ञो विशिष्टेनश्रीयते ॥१५॥ आत्मंभरिः परित्यज्यते कलत्रेणापि ||१६|| अनुत्साहः सर्वव्यसनानामागमनद्वारम् ||१७|| शौर्यममर्षः शीघ्रकारिता सत्कर्मप्रवणत्वमुत्साहगुणाः ||१८|| अन्यायप्रवृत्तस्य न चिरं संपदो भवन्ति || १२ || किचनकारी स्वैः परैर्वाभिहन्यते ॥२०॥ आज्ञाफलमैश्वर्यम् ॥ २१ ॥ राजाज्ञा हि सर्वेषामङ्घ्यः प्राकारः ||२२|| आज्ञा भङ्गकारिणं पुत्रमपि न सहेत ||२३|| कस्तस्य चित्रगतस्य च विशेषो यस्याज्ञा नास्ति ||२४|| राजाज्ञाविरुद्धस्य तदाज्ञां न भजेत् ||२५|| परममकार्यमश्रद्धेयं च न भाषेत ||२६|| वेषमाचारं वानभिज्ञातं न भजेत् ||२७||
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विकारिणि प्रभो को नाम न विरज्यते ||२८|| अधर्मपरे राशि को नाम नाधर्मपरः || २९॥ राज्ञावज्ञातो यः स सर्वैरवज्ञायते ||३|| पूजितं पूजयन्ति लोकाः ||३१|| प्रजाकार्यं स्वयमेव पश्येत् ॥ ३२ ॥ | यथावसरमुदारं कारयेत्॥२३॥
दुर्दर्शो हि राजा कार्याकार्यं विपर्यासमासन्नैः कार्यं द्विषतामतिसंधातीयश्च भवति ||३४||
वैद्येषु श्रीमतां व्याधिवर्धनादिव नियोगिषु भर्तृव्यसनादपरो नास्ति जीवनोपायः ||३५||
कार्यार्थिनः पुरुषान् लञ्चलुञ्चानिशाचराणां भूतवलीन कुर्यात् ||३६|| ञ्चलुञ्चा हि सर्वपातकानामागमनद्वारम् ||३७| मातुः स्तनमपि लुञ्चन्ति सञ्चोपजीविनः ||३८|| येन कार्यकारिभिरुद्धः स्वामी विक्रीयते ॥ ३९॥ प्रासादध्वंसनेन लोकीलकलाभ हव लञ्चेन राज्ञोऽर्थलाभः ||४०|| राशो लञ्चेन कार्यकरणे कस्य नाम कल्याणम् ॥४१॥ देवतापि यदि चौरेषु मिलति कुतः प्रजानां कुशलम् ॥४२ || लुञ्चेनार्थोपायं दर्शयन् देश कोशं मित्रं तन्त्रं च भक्षयति ||४३|| राज्ञान्यायकरणं समुद्रस्य मर्यादालङ्घनमादित्यस्य तमः पोषणमिव मातुश्चापत्य भक्षणमिव कलिकालविजृम्भितानि ॥४४॥
न्यायतः परिपालके राशि प्रजानां कामदुघा भवन्ति सर्वा दिशः ॥४५॥ काले वर्षति मघवान्, सर्वाश्चेितयः प्रशाम्यन्ति राजानमनुवर्तन्ते सर्वेऽपि लोकपालाः ||४६||
सेन मध्यममप्युत्तमं लोकपालं राजानमाहुः ॥४७॥
अव्यसनेन क्षीणघनान् मूलधनप्रदानेन संभावयेत् ॥१४८॥
राज्ञो हि समुद्रावधिमंही कुटुम्बं कलत्राणि च वंशवर्धनक्षेत्राणि ॥४१॥ नामुपायनमप्रतिकुर्वाणो न गृह्णीयात् ॥५०॥
आगन्तुके रसहनेश्च सह नर्म न कुर्यात् ॥ ५१ ॥
पूज्यैः सह नाधिकं वदेत् ॥५२॥
भर्तुमशक्यप्रयोजनं च जनं नाशया परिक्लेशयेत् ॥१५३॥
पुरुषस्य पुरुषो न दासः किंतु धनस्य ॥५४॥
को नाम धनहीनो न भवेल्लघुः ॥५५॥
सर्वधनेषु विद्यैव धनं प्रधानमहार्यत्वात् सहानुयायिस्वाच्च ॥५६॥ सरित्समुद्रमिव नीचोपगतापि विद्या दुर्दर्शमपि राजानं संगमयति ॥५७॥
नीतिवाक्यामृत का मूळ सूत्र-पाठ
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परंतु भाग्यानां व्यापारः ॥५८।। सा खलु विद्या विदुषां कामधेनुर्यतो भवति समस्तजगत्स्थितिज्ञानम् ॥१९॥ लोकव्यवहारज्ञो हि सर्वज्ञोऽन्यस्तु प्राज्ञोऽप्यवज्ञायक एव ॥३०॥ ते खलु प्रज्ञापारमिताः पुरुषा ये कुर्वन्ति परेषां प्रतिबोधनम् ॥६१॥ अनुपयोगिना महतापि कि जलधिजलेन ॥६२।।
१८. अमात्यसमुद्देशः
चतुरङ्गेऽस्ति द्यूते नानमात्योऽपि राजा किं पुनरत्यः ॥१॥ नकस्य कार्यसिद्धिरस्ति ॥२॥ नोकं चक्रं परिभ्रमति ॥३॥ किमवातः सेन्धनोऽपि वह्निज्वलति ॥४॥ स्वकर्मोत्कर्षापकर्षयोनिमानाभ्यां सहोत्पत्तिविपत्ती येषां तेऽमात्याः ॥५॥ आयो ध्ययः स्वामिरक्षा तन्त्रपोषणं चामात्यानामधिकारः ॥६॥ आयव्ययमुखयोमुनिकमण्डलुनिदर्शनम् ॥७॥ आयो द्रव्यस्योत्पत्तिमुखम् ॥८॥ यथास्वामिशासनमर्थस्य विनियोगो व्ययः ।।९।। आयमनालोच्य व्ययमानो वैश्रवणोऽप्यवश्यं श्रमणायते ॥१०॥ राज्ञः शरीरं धर्मः कल अपत्यानि च स्वामिशब्दार्थः ॥११॥ तन्त्रं चतुरङ्गबलम् ॥१२॥ तीक्ष्णं बलवत्पक्षमशुचि व्यसनिनमशुद्धाभिजनमशक्यप्रत्यावर्तनमत्तिव्ययशीलमन्यदेशायातमतिचिक्कणं चामात्यं न कुर्दीत ॥१३॥ तीक्ष्णोऽभियुक्तो नियते मारयति वा स्वामिनम् ॥१४॥ बलवत्पक्षो नियोगाभियुक्तः कल्लोल इव समूलं नृपानिपमुन्मूलयति ॥१५॥ अल्पायतिमहान्ययो भक्षयति राजार्थम् ॥१६॥ अल्पायमुखो जनपदपरिग्रही पीडयति ॥१७॥ नागन्तुकेष्वर्थाधिकारः प्राणाऽधिकारो वास्ति यतस्ते स्थित्वापि गन्तारोऽपकर्तारो वा ॥१८॥ स्वदेशजेष्वर्थ: कूपपतित इव कालान्तरादपि लब्धुं शक्यते ॥१९॥ चिक्कणादर्थलाभः पाषाणाद्वल्कलोत्पाटनमिव ॥२०॥ सोऽधिकारी यः स्वामिना सति दोषे सुखेन निगृहीतुं शक्यते ॥२१॥ अाह्मण-क्षत्रिय-संबन्धिनो न कुर्यादधिकारिणः ।।२२।। ब्राह्मणो जातिदशात्सिद्धमप्यर्थ कृच्छेण प्रयच्छति, न प्रयच्छति वा ॥२३॥ क्षत्रियोऽभियुक्त: खड्गं दर्शयति ॥२४॥
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संबन्धी ज्ञातिभावेनाक्रम्य सामवायिकान् सर्वमप्यर्थ ग्रसते ॥२५॥ संबन्धस्त्रिविषः श्रीतो मौस्यो यौलश्च ।।२६।। सहदीक्षितः सहाध्यायी वा श्रोतः ॥२७॥ मुखेन परिज्ञातो मौख्यः ॥२८॥ यौनेर्जातो यौनः ॥२९॥ वाचिकसंबन्धे नास्ति संबन्धान्तरानुवृत्तिः ॥३०॥ न ते कमप्यधिकुर्यात् सत्यपराधे यमुपहत्यानुशयीत ॥३१॥ मान्योऽधिकारी राजाज्ञामबजाय निरवग्रहश्चति ॥३२॥ चिरसेबको नियोगी नापराधेष्वाशङ्कते ॥३३॥ उपकर्ताधिकारस्य उपकारमेव ध्वीकृत्य सर्वमवलुम्पति ॥३४॥ . सहपाशुक्रीडितोऽमात्योऽतिपरिचयात् स्वयमेव राजायते ॥३५॥ अन्तर्दुष्टो नियुक्तः सर्वमनर्थमुत्पादयति ॥३६॥ शकुनि-शकटालावत्र दृष्टान्तो ॥३७॥ सुहृदि नियोगिन्यवश्यं भवति धनमित्रनाशः ॥३८॥ मूर्खस्य नियोगे भर्तुधार्थयशसां संदेहो निश्चितो चानर्थनरकपाती ॥३९।। सोऽधिकारी चिरं नन्दति स्वामिप्रसादो नोत्सेकयति ।।४।। कि तेन परिच्छदेन यत्रात्मक्लेशेन कार्य सुखं वा स्वामिनः ॥४१|| का नाम निवृत्तिः स्वयमूढतृणभोजिनो गजस्य ।।४।। अश्वसधर्माणः पुरुषाः कर्मसु नियुक्ता विकुर्वते तस्मादहन्यहनि तान् परीक्षेत् ॥४३॥ मार्जारेषु दुग्धरक्षणमिव नियोगिषु विश्वासकरणम् ||४|| ऋद्धिश्चित्तविकारिणी नियोगिनामिति सिद्धानामादेशः ॥४५॥ सर्वोऽप्यतिसमृद्धोऽधिकारी भवत्यायत्यामसाध्यकृच्छ्रसाध्यः स्वामिपदाभिलाषी वा ॥४६॥ भक्षणमुपेक्षणं प्रज्ञाहीनत्वमुपरोधः प्राप्ताप्रिवेशो द्रव्यविनिमयश्चेत्यमाश्यदोषाः 11४ा बहुमुख्यमनित्यं च करणं स्थापयेत् ।।४।। स्त्रीष्वर्थेषु च मनागप्यधिकारे न जातिसंबन्धः ।।४९|| स्वपरदेशजावनपेक्ष्यानित्यश्चाधिकारः ॥५॥ आदायफनिबन्धकप्रतिबन्धकनीबीग्राहकराजाध्यक्षाः करणानि ॥५१॥ आयव्ययविशुद्ध द्रव्यं नीवो ॥५२॥ नीवीनिबन्धकपुस्तकग्रहणपूर्वकमायव्य यो विशोधयेत् ॥५३॥ आयव्ययविप्रतिपत्तो कुशलकरणकार्यपुरुषेभ्यस्तहिनिश्चयः ॥५४॥' नित्यपरीक्षण कर्मविपर्ययः प्रतिपत्तिदानं नियोगिष्वर्थोपायाः १५५।। दीसिवाक्यामृत का मूल सून-पाठ
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नापीडिता नियोगिनो दुष्टवणा इवान्तःसारमुद्रमन्ति ॥५६॥ पुनः पुनरभियोगें नियोगिषु भूपतीनां वसुधाराः १५७॥ सन्निष्पीडितं हि स्नानवस्त्रं किं जहाति स्निग्धताम् ॥१८॥ देशमपोडयन् बुद्धिपुरुषकाराभ्यां पूर्वनिबन्धधिकं कुर्वन्नर्थमानो लभते ।।५९॥ यो यत्र कर्मणि कुशलस्तं तत्र विनियोजयेत् ॥६०|| न खलु स्वामिप्रसादः सेवकेषु कार्यसिद्धिनिबन्धनं किं तु बुद्धिपुरुषकारावेव ।।६१॥ शास्त्रविदप्यदृष्टकर्मा कर्मसु विषादं गच्छेत् ।।६।। अनिवेद्यभर्तन किचिदारम्भं कुर्यादन्यत्रापत्प्रतीकारेभ्यः ॥६॥ सहसोपचितार्थो मूलधनमात्रेणावशेषयितव्यः ।।६४॥ मूलधनाद् द्विगुणाधिको लाभो भाण्डोत्यो यो भवति स राज्ञः ॥६५॥ परस्परकलहो नियोगिषु भूभुजां निधिः ॥६॥ नियोगिषु लक्ष्मीः क्षितीश्वराणां द्वितीयः कोशः ॥६७६ सर्बसंग्रहेषु धान्यसंग्रहो महान्, यतस्तनिबन्धनं जीवितं सकलनयासश्च ॥६८॥ न खल मखे प्रक्षिप्तः खरोऽपि दम्भः प्राणप्राणाय यथा धान्यम् ।।६९|| सर्वधान्येषु चिरजोविनः कोद्रवाः ।।७०॥ अनबं नवेन वर्द्धयितव्यं व्ययितव्यं च ७१।। लवणसंग्रहः सर्वरसानामुत्तमः ।।७२।। सर्वरसमयमप्यन्नमलवणं गोमयायते ॥७३॥
१९. जनपदसमुद्देशः
पशुधान्यहिरण्यसंपदा राजते इति राष्ट्रम् ॥१॥ भर्तुर्दण्डकोशवृद्धि दिशतीति देशः ॥२॥ विविधवस्तुप्रदानेन स्वामिनः सनि गजान् वाजिनश्च विषिणोति बघ्ना-- तोति विषयः ॥३॥ सर्वकामधुक्त्वेन नरपतिहृदयं मण्डयति भूषयतोति मण्डलम् ॥४॥ जनस्य वर्णाश्रमलक्षणस्य द्रव्योत्पत्तेर्वा पदं स्थानमिति जनपदः ॥५॥ निजपतेरुत्कर्षजनकत्वेन शत्रुहृदयानि दारयति भिनत्तीति दारकम् ।।६।। आत्मसमृद्ध्या स्वामिनं सर्वव्यसनेभ्यो निर्गमयतीति निर्गमः ।
नोतियाफ्यामृत में राजनीति
२१८
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अन्योऽन्यरक्षकः खन्याकरद्रव्यना धनवान् नातिवृद्धना तिहीनग्रामो बहुसारविचित्रधान्यहिरण्यपण्योत्पत्ति र देवमातृकः पशुमनुष्यहितः श्रेणिशूद्रकर्षकप्राय इति जय गुषाः क्षी विषतृणोदकोषरपाषाणकण्टक गिरिगसँग रप्रायभूमिभूविर्षा जीवनो व्याललुब्ध कम्लेच्छबहुलः स्वल्प सस्योत्पत्तिस्तरुफलाधार इति देशदोषाः ॥९॥ तत्र सदा दुर्भिक्षमेव यत्र जलदजलेन सस्योत्पत्तिरकृष्टभूमिश्चारम्भः ||१०|| क्षत्रियप्राया हि ग्रामाः स्वल्पास्वपि बाधासु प्रतियुद्ध्यन्ते ॥ ११॥ म्रियमाणोऽपि द्विजलोको न खलु सान्त्वेन सिद्धमप्यर्थं प्रयच्छति ||१२| स्वभूमिकं भुक्तपूर्वमभुक्तं वा जनपदं स्वदेशाभिमुखं दानमानाभ्यां परदेशा - दावहेतु वासयेच्च ॥१३॥
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स्वल्पोऽप्यादायेषु प्रजोपद्रवो महान्तमर्थं नाशयति ॥ १४॥ क्षीरिषु कणिशेषु सिद्धादायो जनपदमुडासयति ||१५| लवनकाले सेनाप्रचारो दुर्भिक्षमावहति ||१६|| सर्वबाधा प्रजानां काशं पीडयति ॥ १७॥
दत्तू परिहारमनुगृह्णीयात् ||१८|| मर्यादातिक्रमेण फलवत्यपि भूमिर्भवत्यरण्यानी ॥ १९ ॥
क्षीणजन संभावनं तृणशलाकाया अपि स्वयमग्रहः कदाचित्किचिदुपजीवनमिति परमः प्रजानां वर्धनोपायः ||२०||
न्यायेन रक्षिता पण्यपुटमेदिनो पिण्डा राज्ञां कामधेनुः ॥२१॥ राज्ञां चतुरङ्गबलाभिवृद्धये भूयांसो भक्तग्रामाः ॥२२॥ सुमहच्च गोमण्डलं हिरण्याय युक्तं शुल्कं कोशवृद्धिहेतुः ||२३|| देवद्विजप्रदेया गांहृतप्रमाणा भूमितुरादातुश्च सुखनिर्वाहा ||२४|| क्षेत्रवप्रखण्डधर्मायतनानामुत्तरः पूर्व बाधते न पुनरुत्तरं पूर्वः ॥२५॥
२०. दुर्गसमुद्देशः
यस्याभियोगात्परे दुःखं गच्छन्ति दुर्जनोद्योगविषया वा स्वस्यापदो गमयतीति दुर्गम् ||१||
तद्विविधं स्वाभाविकमाहार्य च ॥२॥
वैषम्यं पर्याप्तान्रकाशो यवसेन्धनोदक भूयस्त्वं स्वस्य परेषामभावो बहुधान्यरससंग्रहः प्रवेशापसारौ वीरपुरुषा इति दुर्गसंपत् अन्यह्नन्दिशालावत् ||३|| अदुर्गो देशः कस्य नाम न परिभवास्पदम् ||४||
अदुर्गस्य राज्ञः पयोधिमध्ये पोतच्युतपक्षिवदापदि नास्त्याश्रयः ॥१५॥
नीतिवाक्यामृत का मूल सूध-पाठ
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उपायतोऽधिगमनमुपजापश्चिरानुबन्धोऽयस्कन्दतीक्ष्णपुरुषोपयोगश्चेति परदुर्गलम्भोपायाः॥६॥ नामुद्रहस्तोऽशोधितो वा दुर्गमध्ये कश्चित् प्रविशेन्निर्गच्छेद्वा ।।७।। श्रूयते किल हूणाधिपतिः पण्यपुटवाहिभिः सुभटैः चित्रकूट जग्राह ॥८॥ खेटखड्गधरैः सेवार्थ शत्रुणां भद्राख्यं काञ्चीपसिमिति ।।९॥
२१. कोशसमुद्देशः
यो विपदि संपदि च स्वामिनस्तन्त्राभ्युदयं कोशयतोति कोशः ॥१क्षा सातिशयहिरण्यरजतप्रायो व्यावहारिकनाणकबहुलो महापदि व्ययसहश्चेनि कोशगुणाः ।।।। कोशं वर्धयन्नुत्पन्नमर्थमुपयुजीत ॥३॥ कुतस्तस्यायत्यां श्रेयांसि यः प्रत्यहं काकिरायापि कोशं न वर्धयति ॥४॥ कोशो हि भूपतीनां जीवनं न प्राणाः ॥५॥ क्षोणकोशो हि राजा पोरजनपदानन्यायेन ग्रसते ततो राष्ट्रशून्यता स्यात् ।।६।। कोशो राजेत्युच्यते न भूपतीनां शरीरम् ॥७॥ यस्थ हस्ते द्रव्यं स जयति धनहीनः कलत्रेणापि परित्यज्यते किं पुनर्नान्यः ।।५।। न खलु कुलाचाराभ्यां पुरुषः सर्वोऽपि सेव्यतामेति किन्तु वित्तेनेव ॥१०॥ स खलु महान कुलोनश्च यस्यास्ति धनमनूनम् ॥१९॥ किं तया कुलोनतया महत्तया वाया न संतर्पयति परान् ॥१२॥ तस्य कि सरसो महत्त्वेन यत्र न जलानि ॥१३॥ देवद्विजवणिजां धर्माध्वरपरिजनानुपयोगिद्रव्यभागेरादयविधवानियोगिग्रामकूटगणिकासंधपाखर्डािवभवप्रत्यादानः समुद्धपौरजानपद्रविणसंविभागप्रार्थनेरनुपक्षयनोकामन्त्रिपुरोहितस्त्रमन्तभूपालानुनयमहागमनाभ्यां क्षीणकोशः कोशं कुर्यात् ।।१४।।
२२. बलसमुद्देशः
द्रविणदानप्रियभाषणाभ्यामरातिनिवारणेन यति हितं स्वामिनं सर्वावस्थासु बलते संवृणोतीति बलम् ॥१॥ बलेषु हस्तिनः प्रधानमङ्ग स्वैरवयबैरष्टायुधा हस्तिनो भवति ।।२।। हस्तिप्रधानो विजयो राज्ञां यदेकोऽपि हस्ती सहस्र योधयति न सोदति प्रहारसहस्रणापि ॥३॥
नीतियाक्यामृत में राजनीति
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जातिः कुलं वनं प्रचारश्च वनहस्तिनां प्रधानं किं तु शरीरं बलं शौर्य शिक्षा च तदुचिता च सामग्री संपत्तिः ॥४॥ अशिक्षिता हस्तिनः केवलमर्थप्राणहराः ।।५।। सुखेन यानमात्मरक्षा परपुरावमदनमरिव्यूहविघातो जलेषु सेतुबन्धो वचनादन्यत्र सर्वविनोदहेतवश्चेति हस्तिगुणाः ॥६|| अश्वबलं सैन्यस्य जंगमं प्रकारः ।।७।। अश्वबलप्रधानस्य हि राज्ञः कदनकन्दुकक्रीडाः प्रसोदन्ति श्रियः, भवन्ति दूरस्था अपि शत्रवः करस्थाः । आपत्सु सर्वमनोरथसिद्धिस्तुरंगे एव, सरणमपसरणमवस्कन्दः परानोकभेदनं च तुरङ्गमसाध्यमेतत् ॥4॥ जात्यारूढो विजिगोषु: शत्रोभवति तत्तस्य गमनं नारातिर्ददाति ॥२॥ जिका, ( स्व) स्थलाणा करोखरा गाजिगाणा केकाणा पुष्टाहारा गव्हारा सादुयारा सिन्धुपारी जात्याश्वानां नवोत्पत्तिस्थानानि ॥१०॥ समा भूमिधनुर्वेदविदो रथारूढाः प्रहर्तारो यदा तदा किमसाध्यं नाम नृपाणाम् ॥११॥ स्थैरवमदितं परबलं सुखेन जोगते पोल भृत्यम्भूत्यशेगोमिन विकेट पूर्व पूर्व बलं यतेत् ॥१२॥ अथान्यत्सप्तममोत्साहिक बलं यद्विजिगोषोविजययात्राकाले परराष्ट्रविलोहनार्थमेव मिलति क्षत्रसारत्वं शस्त्रज्ञत्वं शौर्यसारत्वमनुरक्तत्वं चेत्यौत्साहिकस्य गुणाः ॥१३॥ मौलबलाविरोधेनान्यबलमर्थमानाभ्यामनुगृह्णीयात् ॥१४॥ मौलाख्यमापद्यनुगच्छति दण्डितमपि न द्रुह्यति भवति चापरेषाममेद्यम् ॥१५॥ न तथार्थः पुरुषान् योधयति यथा स्वामिसमानः ॥१६॥ स्वयमनवेक्षणं देयांशहरणं कालयापना व्यसनाप्रतोकारो विशेषविद्यावसंभावनं च तन्त्रस्य विरक्तिकारणानि ।।१७।। स्वयमवेक्षणीयसैन्य परैरवेक्षयन्नर्थतन्त्राभ्यां परिहीयते ॥१८॥ आश्रितभरणे स्वामिसेवार्या धर्मानुष्ठाने पुत्रोत्पादने च खलु न सन्ति प्रतिहस्ताः ॥१२॥ तावदेयं यावदाश्रिताः संपूर्णतामाप्नुवन्ति ॥२०॥ न हि स्वं द्रव्यमव्ययमानों राजा दण्डनीयः ॥२२॥ को नाम सचेताः स्वगडं चौर्यारखादेत ॥२२॥ कि तेन जलदेन यः काले न वर्षेति ॥२॥ स कि स्वामो य आश्रितेषु व्यसने न प्रविधत्ते ॥२४॥
अविशेषज्ञे राजि को नाम तस्यार्थे प्राणव्यये नोत्सहेत ॥२५।। मोतिवाक्यामृत का भूल सूत्र-पाठ
२.
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२३. मित्रसमुद्देशः
यः संपदीय विपद्यपि मेद्यति तस्मित्रम् ॥१॥ यः कारणमन्तरेण रक्ष्यो रक्षको वा भवति तन्नित्यं मित्रम् ।।२।। तत्सहज मित्रं यत्पूर्वपुरुषपरम्परायातः संबन्धः ।।३।। यवृत्तिजीवितहेतोराश्चितं तकृत्रिम मित्रम् ॥४॥ व्यसनेषुपस्थानमर्थष्वधिकल्पः स्त्रीषु परमं शौचं कोपप्रसादविषये बाप्रतिपक्षत्वमिति मित्रगुणाः 113 दानेन प्रणयः स्वार्थपरत्वं विपापेक्षणमहितसंप्रयोगो विप्रलम्भनगर्भप्रश्रयश्चेति मित्रदोषाः ॥६॥ स्त्रीसंगतिविवादोऽभोक्षणयाचनमप्रदानमर्थ संबन्धः परोक्षदोषग्रहणं पैशुन्याकर्णनं च मंत्रो भेदकारणानि ॥७॥ न क्षीरात् परं महृदस्ति यत्संगतिमात्रेण करोति नोरमात्मसमम् ।।८।। न नोरात्परं महदस्ति यन्मिलितमेव संवर्धयति रक्षति च स्वक्षयेण क्षीरम् ॥९॥ येन बनायुपकारेण तियंञ्चोsपि प्रत्युपकारिणोऽन्यभिचारिणश्च न पुन: प्रायेण मनुष्याः 1800 तथा चोपाख्यानक-अटव्यां किलान्धकूपे पतितेषु कपिससिहाक्षशालिकसौणिकेषु कृतोपकारः केकायननामा कश्चित्पान्थो विशालायां पुरि तस्मादक्षशालि कायापादनमवाप नाडीजंधश्च गोतमादिति ॥१२॥
२४, राजरक्षासमुद्देशः
राज्ञि रक्षिते सर्व रक्षितं भवत्यतः स्वेभ्यः परेभ्यश्च नित्यं राजा रभितन्यः ॥१॥ अत एवोक्तं भयविद्भिः--पितृपैतामहं महासंबन्धानुबद्धं शिक्षितमनुरक्तं कृतकर्मणां च जनम् आसन्नं कुर्वीत !.२॥ अन्यदेशोयमकृतार्थमानं स्वदेशीयं चापकृत्योपगृहीतमासन्नं न. कुर्वीत || चित्तविकृते स्थविषयः किन्न भवति मातापि राक्षसी ॥४|| अस्वामिकाः प्रकृतयः समृद्धा अपि निस्तरीतु न शक्नुवन्ति ।।५।। देहिनि गतायुषि सकलाने किं करोति धन्वन्तरिरपि वेद्यः ॥६॥ राज्ञस्तावदासन्ना स्त्रिय आसन्नतरा दायादा आसन्नतमाश्च पुत्रास्ततो राज्ञः प्रथमं स्त्रीभ्यो रक्षणं ततो दायादेभ्यस्ततः पुत्रेभ्यः ॥७॥ आवण्टादाचक्रवतिनः सर्वोऽपि स्त्रीसुखाय क्लिश्यति ।।८।। निवृत्तस्त्रीसंगस्य धनपरिग्रही मृतमण्डनमिव ।।९।।
नीसिवाक्यामृप्त में राजनीति
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सर्वाः स्त्रियः क्षीरोदवेला इव विषामृतस्थानम् ।।१०।। मकरदंष्ट्रा इव स्त्रियः स्वभावादेव वक्रशीलाः ॥११॥ स्त्रीणां वशोपायो देवानामपि दुलंभः ॥१२॥ कलयं रूपबत्सुभगमनवद्याचारमपरिक्ष महतः युगल कामदेवोत्संगस्थापि स्त्रो पुरुषान्तरमभिलषति च ॥१४॥ न मोहो लज्जा भयं स्त्रीणां रक्षणं किन्तु परपुरुषादर्शनं संभोगः सर्वसाधारणता च ।।१५।। दानदर्शनाभ्यां समवृत्तौ हि पुसि नापराध्यन्ते स्त्रियः ।।१६|| परिगृहीतासु स्त्रीषु प्रियाप्रियत्वं न मन्येत ॥१७|| कारणवशानिम्बोऽप्यनुभूयते एव ॥१८॥ चतुर्थ दिवसस्नाता स्त्री तीर्थम, तीर्थोपराधो महानधर्मानुबन्धः ॥१९॥ ऋसावपि स्त्रियमुपेक्षमाणाः पितृणामृणभाजनम् ॥२०॥ अवरुद्धाः स्त्रियः स्वयं नश्यन्ति स्वामिनं वा नाशयन्ति ॥२१॥ न स्त्रीणामकर्तव्ये मर्यादास्ति वरमविवाहो नोटोपेक्षणम् ।।२२॥ अकृतरक्षस्य कि कलनेणाकृषत: कि क्षेत्रेण ॥२३॥ सपत्नीविधानं पत्युरसमञ्जसं च विमाननमपत्याभावश्च चिरविरहश्च स्त्रीणां विरक्तकारणानि ||२४|| न स्त्रीणां सहजो गुणो दोषो वास्ति किं तु नद्यः समुमिव यादृशं पतिमाग्नुवन्ति तादृश्यो भवन्ति स्त्रियः ॥२५॥ स्त्रीणां दौत्यं स्त्रिय एवं कुर्युस्तैरश्चोऽपि पुयोगः स्त्रियं दूपयति कि पुनर्मानुष्यः ॥२६॥ वंशविशुद्ध्यर्थमनर्थपरिहारार्थ स्त्रियो रक्ष्यन्ते न भोगार्थम् ॥२७॥ भोजनवत्सर्वसमानाः पण्याङ्गनाः कस्तासु हर्षामर्षयोरवसरः ॥२८॥ यथाकामं कामिनीनां संग्रहः परमनीविानकल्याणावहः प्रक्रमोऽदौवारिके द्वारि को नाम न प्रविशति ॥२९॥ मातृव्य जनविशुद्धा राजवसत्युपरिस्थायिन्यः स्त्रियः संभक्तव्याः ॥३०॥ ददुरस्य सर्पगृहप्रवेश इव स्त्रीगृहप्रवेशो राज्ञः ॥३१।। न हि स्त्री गृहादायातं किंचित्स्वयमनुभवनीयम् ॥३२।। नापि स्वयमनुभवनीयेषु स्त्रियो नियोकव्याः ॥३३॥ संवननं स्वातन्त्र्यं चाभिलषन्त्यः स्त्रिय: किं नाम न कुर्वन्ति ॥३४॥ श्रूयते हि किल आत्मनः स्वच्छन्दवृत्तिमिच्छन्ती विबिपितगण्डूषेण मणिकृण्डला महादेवी पवनेषु निजतनुजराज्यार्थ जघान राजानमङ्गराजम।।३५॥ विषालक्तकदिग्धेनाधरेण वसन्तमतिः शरसेमेषु सुरतविलास, विषोपलिप्तेन
मेखलामणिना वृकोदरी दशार्गेषु मदनार्णवम्, निशितनेमिना मुकुरेण नीतिवाक्यामृत का मूळ सून-पाठ
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मदिराक्षी मगधेषु मन्मथविनोदं, कवरीनिगूढ़ेनासिपत्रेण चन्द्ररसा पाण्डयेषु पुण्डरीकमिति ॥३६॥ अमृतरसवाप्य इव श्रीजसुखोपकरणं स्त्रियः ।।३।। कस्तासां कार्याकार्यविलोकनेऽधिकारः ||३८t अपत्यपोषणे गृहकर्मणि शरीरसंस्कारे शयनावसरे स्त्रीणां स्वातन्त्र्य नान्यत्र ॥३९|| अतिप्रसक्तेः स्त्रोषु स्वातन्त्र्यं करपत्रमिव पत्यु विदार्य हृदयं विश्राम्यति ॥४०॥ स्त्रीवशपुरुषो नदीप्रवाहपतितपादप इव न चिरं नन्दति ।।४।। पुरुषमुष्टिस्था स्त्रो खड्मयष्टिरिव कमुत्सवं न जनयति ||४२|| नालीव स्त्रियो व्युत्पादनोयाः स्वभावसुभगोऽपि शास्त्रोपदेशः स्त्रीषु, शस्त्रीषु पयोलव इव विषमता प्रतिपद्यते ॥४३॥ अध्रवेणाधिनायथेन वश्यामनुभवन्पुरुषो न चिरमनुभवति सुखम् ॥४४॥ विसर्जनाकारणाभ्यां तदनुभवे महाननर्थः ॥४५॥ वेश्यासक्तिः प्राणार्थहानि कस्य न करोति ।।४६॥ घनमनुभवन्ति वेश्या न पुरुषम् ॥४७॥ धनहीने कामदेवेऽपि न प्रीति बध्नन्ति वेश्याः ॥४८॥ स पुमान् न भवति सुखी, यस्यातिशयं वेश्यासु दानम् ॥४९॥ स पशोरपि पशुः यः स्वधनेन परेषामर्थवन्तों करोति वेश्याम् ॥५०॥ आचित्तविश्रान्ते वेश्यापरिग्रहः श्रेयान् ॥५१॥ सुरक्षितापि वेश्या न स्वां प्रकृति परपुरुषसेबनलक्षणां त्यजति ॥५२॥ या यस्य प्रकृतिःसा तस्य देवेनापि नापनेतु शक्येत् ॥५३॥ सुभोजितोऽपि श्वा किमशचोन्यस्थोनि परिहरति ॥५४॥ न खलु कपिः शिक्षाशतेनापि चापल्यं परिहरति ।।५५|| इक्षुरसेनापि सिक्तो निम्बः कटुरेव ॥५६।। क्षीराश्रितशर्करापानभोजितश्चाहिन कदाचित् परित्यजति विषम् ।।५७॥ सन्मानदिवसादायुः कुल्यानामपग्रहहेतुः ।।५८) तन्त्रकोशवधिनी वृत्तियादान् विकारयति ।।५।। तारुण्यमधिवात्य संस्कारसाराहितोपयोगाच्च शरीरस्य रमणीयत्वं न पुनः स्वभावः ।।६०|| भक्तिविश्रम्भादव्यभिचारिणं कुल्यं पुत्रं वा संवर्धयेत् ॥६१।। विनियुञ्जीत उचितेषु कर्मसु ||६२।। भर्तरादेशं न विकल्पयेत् ॥६॥ अन्यत्र प्राणबाधाबहुजनविरोधपातकेभ्यः ॥६४।।
नीसिवाक्यामृत में राजनीति
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बलवत्पक्षपरिग्रहेषु दायिष्याप्तपुरुषपुरःसरो विश्वासो वशीकरणं गृहपुरुषनिक्षेपः प्रणिधिर्वा ॥६५॥ दुर्बोधे सुते दायादे वा सम्यग्युक्तिभिरभिनिवेशमवतारयेत् ॥६६॥ सानुषपचर्यमाणेषु विकृतिभजनं स्वहस्ताङ्गाराकर्षणमिव ।।६७॥ क्षेत्रबोजयोवैकृत्यमपत्यानि विकारयति ॥६॥ कुलविशुद्धिरुभयतः प्रीतिर्मनःप्रसादोऽनुपहतकालसमयश्च श्रीसरस्वत्यावाहनमन्त्रपूतपरमानोपयोगश्च' गर्भाधाने पुरुषोत्तममवतारयति ॥६९|| गर्भशमंजन्मकर्मापत्येषु देहलाभात्मलाभयोः कारणं परमम् ॥१७॥ स्वजातियोग्यसंस्कारहीनानां राज्ये प्रव्रज्यायां च नास्त्यधिकारः ॥७॥ असति योग्येऽन्यस्मिन्नङ्गविहीनोऽपि पितृपदमहत्यापुत्रोत्पत्तः ॥७२॥ साधुसंपादितो हि राजपुत्राणां विनयोऽन्वयमभ्युदयं न च दूषयति ॥७३।। घुणजग्धं काष्ठमिवाविनीतं राजपुत्र राजकुलमभियुक्तमात्रं भज्येत् ।।७४।। आप्तविद्यावृद्धोपरुद्धाः सुखोपरुद्धाश्च राजपुत्राः पितरं नाभिद्रुह्यन्ति ।।७।। मातृपितरौ राजपुत्राणां परमं देवम् ।।७६।। यत्प्रसादादात्मलाभो राज्यलाभश्च ।।७७॥ मातृपितृभ्यां मनसाप्यपमानेष्वभिमुखा अपि श्रियो विमुखा भवन्ति ।१७८|| किं तेन राज्येन यत्र दुरपवादोपहतं जन्म ।।७।। क्वचिदपि कर्मणि पितुराज्ञां नो लक्षयेत् ।।८।। किन्नु खलु रामः प्रमेण विक्रमेण वा होनो यः पितुराज्ञया बनमाविवेश ||८शा यः खल पूत्रो मनसिलपरम्परया लभ्यते स कथमपकर्तव्यः ।।८।। कर्तव्यमेवाशुभं कर्म यदि हन्यमानस्य विपद्विधानमात्मनो न भवेत् ।।८३) ते खल राजपूत्राः सुखिनो येषां पितरि राजभारः ।।४। अलं तया धिया या किमपि सुखं जनयन्ती व्यासङ्गपरम्पराभिः शतशो दुःखमनुभावति ॥८५॥ निष्फलो ह्यारम्भः कस्य नामोदकण सुखावहः ॥८६॥ परक्षेत्रं स्वयं कृषतः कर्षापयतो वा फलं पुनस्तस्येव यस्य तरक्षेत्रम् ॥८॥ सुतसोदरसपत्नपितृव्यकुल्यदोहित्रागन्तुकेषु पूर्वपूर्वाभावे भवत्युत्तरस्य राज्यपदावाप्तिः ।।८८ शुष्कश्याममुखता वास्तम्भः स्वेदो विज़म्भणमतिमा वेपथुः प्रस्खलनमास्यप्रेक्षणमावेगः कर्मणि भूमो वानवस्थानमिति दुष्कृतं कृतः करिष्यतो वा लिङ्गानि ॥८९
नोतिनाक्यामृत का सूप इन-पाठ
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२५. दिवसानुष्ठानसपुतः बाझे मुहूर्व उत्थायेति कर्तव्यतायां समाधिमुपेयात् ॥१॥ सुखनिद्राप्रसन्ने हि मनसि प्रतिफलन्ति यथार्थवाहिकाबुद्धयः ।।२।। उदयास्तमनशायिषु धर्मकालातिक्रमः ।।३।। आत्मवक्त्रमाज्ये दर्पणो वा निरीक्षेत् ॥४॥ न प्रातपंधरं विकलाङ्ग वा पश्येत् ॥५॥ सन्ध्यासु पौतमुखं जप्त्वा देवोऽनुगृह्णाति ॥६॥ नित्यमदन्तधावनस्य नास्ति मुखशुद्धिः ।।७।। न कार्यव्यासङ्गेन शारीरं कर्मोपहन्यात् ॥८॥ न खलु युगैरपि तरङ्गविगमात् सागरे स्नानम् ।।९।। वेगव्यायामस्वापरनानभोजनस्वच्छन्दवृत्ति कालान्नोपरुन्ध्यात् ।१०।। शुक्रमलमूत्रमरुद्वेगसंरोधोऽश्मरीभगन्दर-गुल्माशंसां हेतुः ।।११।। गन्धलेपावसानं शौचमाचरेत् ॥१२॥ बहिरागतो नानाचाम्य गृहं प्रविशेत् ॥१३॥ गोसर्गे व्यायामो रसायनमन्यत्र क्षीणाजीर्णवृद्धवातकिरूक्षभोजिभ्यः ।।१४।। शरीरायासजननी क्रिया व्यायामः ||१५|| शस्त्रवाहनाभ्यासेन व्यायाम सफलयेत् ।।१६|| आदेहस्वेदं व्यायामकालमुशन्त्याचार्याः ।।१७॥ बलातिक्रमेण व्यायामः का नाम नापदं जनयति ।।१८।। अव्यायामशोलेषु कुतोऽग्निदीपनमुत्साहो देहदाढयं च ॥१९|| इन्द्रियात्ममनोमरुतां सूक्ष्मावस्था स्वापः ।।२०॥ यथास्वात्म्यं स्वपादभुक्तान्नपाको भवति प्रसीदन्ति चेन्द्रियाणि ॥२१॥ सुघटितमपि हितं च भाजनं साधयत्यन्नानि ॥२२॥ नित्यस्नानं द्वितीयमुत्सादनं तृतीयकमायुष्यं चतुर्थक प्रत्यायुष्यमित्यहीन सेवेत् ।।२३।। धर्मार्थकामशुद्धिदुर्जनस्पर्शाः स्नानस्य कारणानि ॥२४॥ श्रमस्वेदालस्यविगमः स्नानस्य फलम् ।।२५॥ जलचरस्येव तत्स्नानं यत्र न सन्ति देवगुरुधर्मोपासनानि ॥२६॥ प्रादुर्भवत्क्षुत्पिपासोऽभ्यङ्गस्नानं कुर्यात् ॥२७॥ आतपसंतप्तस्य जलादगाहो दरमान्य शिरोव्यथां च करोति ॥२८॥ बुभुक्षाकालो भोजनकालः ||२|| अक्षुधितेनामृतमप्युपभुक्तं च भवति विषम् ॥३०॥ जठराग्नि वनाग्नि कुर्वन्नाहारादो सदैव वनकं बलयेत् ॥३१॥ निरन्नस्य सर्व द्रवद्रव्यमग्निं नाशयति ।.३२||
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अतिश्रमपिपासोपशान्ती पेयायाः परं कारणमस्ति ॥३३॥ घृताधरोत्तरभुजानोऽग्नि दृष्टिं च लभते ॥३४|| सकृद्भरिनीरोपयोगो बन्हिमवसादयति ।।३५।। क्षुत्कालातिक्रमादन्नद्वेषो देहसादश्च भवति ॥३६॥ विष्याते वही कि मानन्धान पुर्यात् ।।३७।। यो मितं भुङ्क्ते स बहु भुङ्क्ते ॥३८॥ अप्रमितसुखं विरुद्धमपरीक्षितमसाधुपाकमतीतरसमकालं चान्नं नानुभवेत् ॥३९॥ फल्गुभुजमननुकूलं क्षुधितमतिरं च न भुक्तिसमये सन्निधापयेत् ॥४०॥ गृहीतग्नासेषु सहभोजिष्वात्मनः परिवेषयेत् ॥४१॥ तथा भुजोत यथासायमन्येाश्च न विपद्यते वन्हिः ॥४२॥ न भुक्तिपरिमाणे सिद्धान्तोऽस्ति ।।४।। चन्ह्यभिलाषायत्तं हि भोजनम् ।।४४।। अतिमात्रभोजी देहमग्निं च विधुरर्यात ॥४५|| दोप्तो दन्हिलघुभोजनाबलं अपयति ॥४६॥ अत्यशितुर्दःखेनानपरिणामः ॥४७॥ श्रमातस्य पानं भोजनं च ज्वराय छर्दये वा ॥४८॥ न जिहत्सुनं प्रस्त्रोतुमिच्छनसिमज्जसमनाश्च नानपनीय पिपासोद्रेकमश्नी. यात् ॥४९॥ भुक्त्वा व्यायामव्यवायो सद्यो व्यापत्तिकारणम् ।।५।। आजन्मसात्म्यं विषमपि पथ्यम् ॥५॥ असात्म्यमपि पथ्य सेवेतन पुनः सात्म्यमप्यपथ्यम् ।।५२॥ सर्वं बलयतः पथ्यमिति न कालकूट सेवेत् ।।५३।। सुशिक्षितोऽपि विषतन्त्रज्ञो म्रियत एव कदाचिद्विषात् ॥१४॥ संविभज्यातिथिष्वाश्रितेषु च स्वयमाहरेत् ॥५५॥ देवान् गुरून धर्म चोपचरन्न व्याकुलमतिः स्यात् ।।५६॥ ध्याक्षेपभूमनोनिरोधो मन्दयति सर्वाण्यपीन्द्रियाणि ॥५७|| स्वच्छन्दवृत्तिः पुरुषाणां परमं रसायनम् ।।५।। यथाकामसमीहानाः किल काननेषु करिणो न भवन्त्यास्पदं व्याधीनाम् ।।१९।। सततं सेश्यमाने द्वे एव वस्तुनो सुखाय, सरसः स्वेरालापः ताम्बूलभक्षणं चेति ॥६॥ चिरायोर्ध्वजानुजयति रसवाहिनीसाः ।।६१॥ सततमुपविष्टो जठरमाध्मापयति प्रतिपद्यते च तुन्दिलता वाचि मनसि
शरीरे च ॥६॥ नीतिवाक्यास्त का मूळ सूत्र-पाठ
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अतिमानं खेदः पुरुषमकालेऽपि जरया योजयति ।।६३१ नादेवं देहप्रासाद कुर्यात् ॥६४) देवगुरुघमरहिते पुंसि नास्ति संप्रत्ययः ॥६५।। क्लेशकर्मविपाकाशयरपरामृष्टः पुरुषविशेषो देवः ।।६।। तस्यैवेतानि खल विशेषनामान्यहनजोऽनन्तः शम्भूबंद्धस्तमोऽन्तक इति ॥६॥ आत्मसुखानवरोधेन कार्याय नक्कमहश्च विभजेत् ॥६८॥ कालानियमेन कार्यानुष्ठान हि मरणसमम् ॥६९।। आत्यन्तिके कार्य नास्त्यवसरः ॥७०] अवगं को कालरापा आत्मरक्षायां कदाचिदपि न प्रमाद्येत् ।।७२।। सवत्सां धेनू प्रदक्षिणीकृत्य धमसिन यायात् ॥७३॥ अनधिकृतोऽनभिमतश्च न राजसभा प्रविशेत् ।।७४। आराध्यमुत्थायाभिवादयेत् ।।७५॥ देवगुरुधर्मकार्याणि स्वयं पश्येत् ।।७६॥ कुहकाभिचारकर्मकारिभिः सह न संगच्छेत् ॥७७॥ प्राण्युपघातेन कामक्रीडां न प्रवर्तयेत् ॥७८|| जनन्यापि परस्त्रिया सह रहसि न तिष्ठेत् ॥७९|| नातिक्रुद्धोऽपि मान्यमतिकामेदवमन्येत् वा ।।८०|| नाप्ताशोधितपरस्थानमुपेयात् ॥८॥ माप्तजनरनारूलं वाहनमध्यासीत् ।।८।। न स्वैरपरीक्षितं तीर्थ सार्थ तपस्विनं वाभिगच्छेत् ॥८३|| न याष्टिक रविविक्त मार्ग भजेत् ॥४४॥ न विषापहारोषधिमणोन क्षणमप्युपासीत् ।।८५॥ सदेव जाङ्गलिकी विद्यां कण्ठेन धारयेत् ॥८६॥ मन्त्रिभिषग्नमित्तिकरहितः कदाचिदपि न प्रतिष्ठेत् ।।७।। वह्नावन्यचक्षुषि च भोज्यमुपभोग्यं च परीक्षेत् ।।८८॥ अमते मरुति प्रविशति सर्वदा चेष्टेत् ।।८९॥ मकिसुरतसमरार्थी दक्षिणे मरुति स्यात् ॥१०॥ परमात्मना समीकुर्वन न कस्यापि भवति द्वेष्यः ॥११॥ मनः परिजनशकुनपवनानुलोम्यं भविष्यतः कार्यस्य सिद्धेलिङ्गम् ।।१२।। नकोनक्तं दिवं वा हिण्डेत् ।।९३॥ नियमितमनोवाक्कायः प्रतिष्ठेत् ।।९।। अहनि संध्यामुपासीतानक्षम्रदर्शनात् ।।१५।।
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चतुः पयोधिपयोधरां धर्मवत्सवतोमुत्साहबालधि वर्णाश्रमखु कामार्थ श्रवणां नयप्रतापविषाणां सत्यशौचचक्षुषे स्थायमुखीमिमां गां गोपयामि, अतस्तमहं मनसापि न सहे योऽपराध्येत्तस्यं इतीमं मन्त्रं समाधिस्थ जपेत् ॥ ९६ ॥ कोकचद्दिवाकामो निशि स्निग्धं भुञ्जीत ॥९७॥
नक्काम दिवा च ९८
पारावतकामो वृष्यान्नयोगान् चरेत् ||१९||
aoraणीनां सुरभोणां पयःसिद्धं माषदलपरमान्नं परो योगः स्मरसंवर्द्धने ॥ १०० ॥
नावृषस्यन्तीं स्त्रीमभियायात् || १०१ ||
उत्तरः प्रवर्धवान् देशः परमरहस्यमनुरागे प्रथम प्रकृतीनाम् ॥१०२॥ द्वितीयप्रकृतिः सशाद्वलमृदूपवनप्रदेशः ॥ १०३॥
तृतीयप्रकृतिः सुरतोत्सवाय स्यात् ॥ १०४॥
धर्मार्थस्थाने लिङ्गोत्सर्वं लभते ॥ १०५ ॥ स्त्रो' सयोनं समसमायोगात्परं वशीकरणमस्ति ||१०६ ॥ प्रकृतिरुपदेश: स्वाभाविकं च प्रयोगवैदग्ध्यमिति समसभायोगकारणानि ॥ १०७॥
क्षुत्तर्षपुरीषाभिष्यन्दातंस्याभिगमो नापत्यमनवद्यं करोति ॥ १०८ ॥ न सन्ध्यासु न दिवा नाप्सु न देवायतने मैथुनं कुर्वीत ॥ १०९ ॥ पर्वणि पर्वणि संधौ उपहते बाह्नि कुलस्त्रियं न गच्छेत् ॥ ११० ॥ न तद्गृहाभिगमने कामपि स्त्रियमधिशयीत ॥ १११॥ वंशवयोवृत्तविद्याविभवानुरूपो वेषः समाचारो वा कं न विडम्बयति ॥ ११२ ॥ अपरीक्षितमशोधितंत्र राजकुले न किंचित्प्रवेशयेन्निष्कासयेद्वा ॥ ११३ ॥ श्रूयते हि स्त्रीवेषधारी कुन्तलनरेन्द्रप्रयुक्तो गूढपुरुषः कर्णनिहितेनासिपत्रेण पल्हवनरेन्द्रं हृयपतिश्च मेषविषाणनिहितेन विषेण कुशस्थलेश्वरं जघा - नेति ॥ १९४॥
सर्वाविश्वासे नास्ति काचित्क्रिया ॥ ११५ ॥
२६. सदाचारसमुद्देशः
लोभप्रमादविश्वासैर्बृहस्पतिरपि पुरुषो वध्यते वञ्चयते वा ॥१॥ बलवताधिष्ठितस्य गमनं तदनुप्रवेशो वा श्रेयानन्यथा नास्ति क्षेमोपायः ||२|| विदेशवासोपहतस्य पुरुषकारः विदेशको नाम येनाविज्ञातस्वरूपः पुमान् स तस्य महानपि लघुरेव ||३||
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अलब्धप्रतिष्ठस्य निजान्वयेनाहङ्कारः कस्य न लाघवं करोति ॥४॥ आत: सर्वोऽपि भवति धर्मबुद्धिः ।।५।। स नीरोगो यः स्वयं धर्माय समोहते ॥६॥ व्याधिनस्तस्य ऋते धैर्यान्न परमोषधमस्ति ।।। स महाभागो यस्य न दुरपवादोपहत जन्म ||८|| पराधीनेष्वर्थेषु स्वोत्कर्षसंभावनं मन्दमतीनाम् ॥९॥ न भयेषु विषादः प्रतीकारः किंतु धैर्यावलम्बनम् ।।१०॥ स कि धन्वी तपस्वी वा यो रणे मरणे शरसन्धाने मनःसमाधाने च मुह्यति ॥११॥ कृते प्रतिकृतमकुर्वतो नैहिकफलमस्ति नामुन्त्रिकं च ॥१२।। शत्रणापि सूक्तमुक्तं न दूषयितव्यम् ।।१३।। कलहजननमप्रीत्युत्पादनं च दुर्जनानां धर्मः न सज्जनानाम् ॥१४॥ श्रीन तस्याभिमुखी यो लब्धार्थमात्रेण संतुष्टः ॥१५॥ तस्य कुतो बंशवृद्धियों न प्रशमयति बेरानुबन्धम् ॥१६॥ भीतेष्वभयदानात्परं न दानमस्ति ॥१७।। स्वस्यासंपत्तो न चिन्ता किचित्काक्षितमर्थ प्रसूते] दुग्धे किन्तुत्साहः ॥१८॥ स खलु स्वस्येवापुण्योदयोऽपराधो वा सर्वेषु कल्पफलप्रदोऽपि स्वामो भव. त्यात्मनि बन्ध्यः ।।१९।। स सदेव दुःखितो यो मूलधनसंवर्धयन्ननुभवति ॥२०॥ मूर्खदुर्जनचाण्डालपतितैः सह संगति न कुर्यात् ॥२१॥ किं तेन तुष्टेन यस्य हरिद्वाराग इव चित्तानुरागः ॥२२॥ स्वात्मानमविज्ञाय पराक्रमः कस्य न परिभवं करोति ॥२३॥ नाकान्तिः पराभियोगस्योत्तरं किंतु युक्तरुपन्यासः ॥२४॥ राज्ञोऽस्थाने कुपितस्य कुतः परिजनः ॥२५॥ न मतेषु रोदितव्यमश्रुपातसमा हि किल पतन्ति तेषां हृदयेष्वङ्गाराः ॥२६॥ अतीते च वस्तुनि शोकः श्रेयानेव यद्यस्ति तत्समागमः ॥२७॥ शोकमात्मनि चिरमनुवासयंस्त्रिवर्गमनुशोषयति ॥२८॥
स किं पुरुषो योऽकिंचनः सन् करोति विषयाभिलाषम् ॥२९|| .० अपूर्वेषु प्रियपूर्व संभाषणं स्वर्गच्युतानां लिङ्गम् ।।३०||
न ते मृता येषामिहास्ति शाश्वती कोतिः ॥३१॥ स केवलं भूभाराय जातो येन न यशोभिधवलितानि भुवनानि ॥३२॥ परोपकारो योगिनां महान् भवति श्रेयोबन्ध इति ॥३३॥ का नाम शरणागतानां परीक्षा ॥३४॥ अभिभवनमन्त्रैण परोपकारो महापातकिनां न महासत्वानाम् ॥३५॥
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तस्य भूपतेः कुतोऽभ्युदयो जयो वा यस्य द्विषत्सभासु नास्ति गुणग्रहणाप्रागल्भ्यम् ॥३६॥
तस्य गृहे कुटुम्बं धरणीयं यत्र न भवति परेषामिषम् ॥३७॥
परस्त्रीद्रव्यरक्षणेन नात्मनः किमपि फलं विप्लवेन महाननर्थसंबन्धः ||३८|| आत्मानुरक्तं कथमपि न त्यजेत् यद्यस्ति तदन्ते तस्य संतोषः ॥ ३९ ॥ आत्मसंभावितः परेषां भृत्यानामसहमानश्च भृत्यो हि बहुपरिजनमपि करोत्येक स्वामिन
अपराधानुरूपो दण्डः पुत्रेऽपि प्रणेत्तव्यः ॥ ४१ ॥
देशानुरूपः करो ग्राह्यः ॥४२॥ प्रतिपाद्यानुरूपं वचनमुदाहर्तव्यम् ॥ ४३ ॥ आयानुरूपी व्ययः कार्यः ॥४४॥
ऐश्वर्यानुरूप विलासो विधातव्यः ॥४५॥ वनश्रद्धानुरूपस्त्यागोऽनुसर्तव्य: ॥ ४६ ॥ | सहायानुरूपं कर्म आरब्धव्यम् ||४७ || ● स पुमान् सुखी यस्यास्ति संतोषः ॥ ४८ ॥
रजस्वलाभिगामीचाण्डालादप्यधमः ॥४९॥
सलज्जं निर्लज्जं न कुर्यात् ॥५०॥
सपुमान् पटावृतोऽपि नग्न एव यस्य नास्ति सच्चारित्रमावरणम् ॥५१॥ सनग्नोऽप्यनग्न एव यो भूषितः सच्चरित्रेण ॥ ५२॥ सर्वत्र संशयानेषु नास्ति कार्यसिद्धिः ||५३ || न क्षीरघृताभ्यामन्यत् परं रसायनमस्ति ||१४|| परोपघातेन वृत्तिर्निर्भाग्यानाम् ॥ १५५ ॥ वरमुपवासो, न पुनः पराधीनं भोजनम् ||५६ || स देशोऽनुसर्तव्यो यत्र नास्ति वर्णसंकरः ||१७|| स जात्यन्धो यः परलोकं न पश्यति ॥५८॥
व्रतं विद्या सत्यमानृशंस्यमलौल्यता च ब्राह्मण्यं न पुनर्जातिमात्रम् ॥ ५९॥ निःस्पृहानां का नाम परापेक्षा ॥ ६०॥
कं पुरुषमाशा न क्लेशयति ॥ ६१ ॥ ॥
संयमी गृहाश्रमो वा यस्याविद्यातृष्णाभ्यामनुपहतं चेतः ॥ ६२ ॥ शीलमलङ्कारः पुरुषाणां न देहखेदावहो बहिराकल्पः ||६३ ॥ कस्य नाम नृपतिमित्रं ॥ ६४ ॥
अप्रियकर्तुर्नु प्रियकरणात्परममाचरणम् ॥ ६५॥ अप्रयच्छन्नथिनो न परुषं ब्रूयात् ॥ ६६ ॥
स स्वामी मरुभूमिर्यत्रार्थिनो न भवन्तीष्टकामाश्च ॥ ६७॥
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प्रजापालनं हि राज्ञो यज्ञो न पुनर्भूतानामालम्भः ॥ ६८ ॥
प्रभूतमपि नानपराधसत्वव्यापत्तये नृपाणां बलं धनुर्वा किंतु शरणागत
रक्षणाय ||३९||
२७. व्यवहारसमुद्देशः
कलत्रं नाम नराणामनिगडमपि दृतं धनमान ॥१॥ श्रीप्यवश्यं भर्तव्यानि माता कलत्रमप्राप्तव्यवहाराणि चापत्यानि ॥२॥ दानं तपः प्रायोपवेशनं तीर्थोपासनफलम् ॥३॥
तीर्थोपवासिषु देवस्वापरिहरणं क्रव्यादेषु कारुण्यमिव स्वाचारच्युतेषु पापभीरुत्वमिव प्राहुरधार्मिकत्वमतिनिष्ठुरत्वं वञ्चकत्वं प्रायेण तीर्थवासिनां प्रकृतिः ॥१४॥
स किं प्रभुर्यः कार्यकाले एव न संभावयति भृत्यान् ||५||
स किं भृत्यः सखा वा यः कार्यमुद्दिश्यार्थं याचते ||५| यार्थेन प्रणयिनी करोति चाङ्गादृष्टि सा किं भार्या ||७|| स किं देशो यत्र नास्त्यात्मनो वृत्तिः ॥८॥
स किं बन्धुर्ये व्यसनेषु नोपतिष्ठते ॥२॥
तत्किं मित्रं यत्र नास्ति विश्वासः ||१०|| स कि गृहस्थो यस्य नास्ति सरकलत्रसंपत्तिः ॥ ११॥ तल्कि दानं यत्र नास्ति सत्कारः ॥ १२ ॥ तत्कि भुक्तं यत्र नास्त्य तिथिसंविभागः ॥ १३ ॥ कि प्रेम यत्र कार्यवशात् प्रत्यावृतिः ||१४|| तत्किमाचरणं यत्र वाच्यता मायाव्यवहारो वा ॥१५॥ तत्किमपत्यं यत्र नाध्ययनं विनयो वा ॥ १६॥३ तत्किं ज्ञानं यत्र मदेनान्धता चित्तस्य ॥१७॥ तत्कि सौजन्यं यत्र परोक्षे पिशुन भावः ॥ १८ ॥
सा कि श्रीया न संतोषः सत्पुरुषाणाम् ॥ १९॥
टिंक कृत्यं यत्रोतिरूपकृतस्य ॥२०॥
तयोः को नाम निर्वाहो यो द्वावपि प्रभूतमानिनो पण्डितो लुब्धो मूर्खो
घासन वा ॥२१॥
स्ववान्त इव स्वदत्तं नाभिलाषं कुर्यात् ||२२|| उपकृत्य मूकभावोऽभिजातीनाम् ||२३|| परदोषश्रवणे वधिरभावः सत्पुरुषाणाम् ||२४|| परकलदर्शनेऽन्धभावो महाभाग्यानाम् ||२५||
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शत्रावपि गृहायाते संभ्रमः कर्तव्यः किं पुनर्न महति ॥२६॥ अन्तःसारधनमिव स्वधर्मो न प्रकाशनीयः ॥२७॥ मदप्रमादजेर्दोषैर्गुरुपु निवेदनमनुशयः प्रायश्चित्तं प्रतीकारः ॥२८॥ श्रीमतोऽर्थाजने कायक्लेशो धन्यो यो देवद्विजान् प्रोणाति ।।२।। चणका इव नीचा उदरस्थापिता अपि नाविकर्वाणास्तिष्ठन्ति ॥३०॥ स पुमान वन्द्यचरितो यः प्रत्युपकारमनपेक्ष्य परोपकारं करोति ।।३।। अज्ञानस्य वैराग्यं भिद्घविटत्वमधनस्य विलासो वेश्यारतस्य शीचमविदितवेदितव्यस्य तत्त्वाग्रह इति पञ्च न कस्य मस्तकशूलानि ॥३२॥ स हि पञ्चमहापातको योऽशस्त्रमशास्त्र वा पुरुषमभियुञ्जीत ॥३शा उपाश्रुति श्रोतुमिव कार्यवशालोचमपि स्वयमुपसर्पेत् ॥३४।। अर्थी दोषं न पश्यति ॥३५॥ गृहदास्यभिगमो गृहं गृहिणी गृहपति च प्रत्यवसादयति ।।३६॥ वेश्यासंग्रहो देवद्विजगृहिणीबन्धूनामुच्चाटनमन्त्रः ।।३७|| अहो लोकस्य पापं, यन्निजा स्त्री रतिरपि भवति निम्बसमा, परग्रहीता शुन्यपि भवति रम्भासमा ॥३८॥ स सुखी यस्य एक एव दारपरिग्रहः ॥३९॥ व्यसनिनो यथा सुखमभिसारिकासु न तथार्थवतीषु ॥४०॥ महान् धनव्ययस्तदिच्छानुवर्तनं दैन्यं चार्थवतीषु ।।४।। अस्तरणं कम्बलो जीवधन गर्दभः परिग्रहो वोढा सर्वकर्माणश्च भृत्या इति कस्य नाम न सुखावहानि ॥४२॥ लोभवति भवन्ति विफलाः सर्व गणाः ॥४३॥ प्रार्थना के नाम न लघयति ॥४४॥ न दारिद्यात्परं पुरुषस्य लाञ्छनमस्ति यत्संगेन सर्वे गुणा निष्फलतां यान्ति ।४५|| अलब्धार्थोऽपि लोको धनिनो भाण्डो भवति ॥४६॥ धनिनो यतयोऽपि चाटुकाराः॥४७|| न रत्नहिरण्यपूताज्जलात्परं पावनमस्ति ॥४८॥ स्वयं मेध्या आपो वह्नितप्ता विशेषतः ।।४९|| स एवोत्सवो पत्र वन्दिमोक्षो दीनोद्धरणं च ॥५०॥ तानि पर्वाणि येष्वतिथिपरिजनयोः प्रकामं संतर्पणम् ॥५१॥ तास्तिथयो यासु नाधर्माचरणम् ॥५२॥ सा तीर्थयात्रा यस्यामकृत्यनिवृत्तिः ।।५३।। तत्पाण्डित्यं यत्र क्योविद्योचितमनुष्ठानम् ॥५४॥ तच्चातुर्य यत्परप्रीत्या स्वकार्यसाधनम् ॥५५।।
नीक्षिवाक्यामृप्त का मूल सूत्र-पाठ
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तल्लोको चितत्वं यत्सर्वजनादेयत्वम् ॥५६॥ तत्सोजन्यं यत्र नास्ति परोद्वेगः ॥५७॥ तद्धीरत्वं यत्र यौवनेनानपवादः ॥ ५८|| तत्सोभाग्यं यत्रादानेन वशीकरणम् ||५१२१ ॥ सा सभारण्यानी यस्यां न सन्ति विद्वांसः ॥६०॥
किं तेनात्मनः प्रियेण यस्य न भवति स्वयं प्रियः ||६१ ||
स किं प्रभुर्यो न सहते परिजनसंबाधम् ॥६२॥
न लेखाद्वचनं प्रमाणम् ॥१६३ ॥
अनभिज्ञाते लेखेऽपि नास्ति संप्रत्ययः ||६४ ||
श्रीणि पातकानि सद्यः फलन्ति स्वामिद्रोहः स्त्रीवधो बालयधश्चेति ॥ ६५॥ अप्लवस्य समुद्रावगाहनमिवाबलस्य बलवता सह विग्रहाय टिरिटिल्लितम् ॥ ६६ ॥
बलवन्तमाश्रित्य विकृतिभञ्जनं सद्यो मरणकारणम् ॥ ६७ ॥ प्रवास: चक्रवर्तिनमपि संतापयति किं पुनर्नान्यम् ॥६८॥ बहुपाथेयं मनोनुकूलः परिजनः सुविहितश्चोपस्कर: प्रवासे दुःखोत्तरणतरण्डको वर्गः ॥ ६९ ॥
२८. विवादसमुद्देशः
गुणदोषस्तुलादण्डसमो राजा स्वगुणदोषाभ्यां जन्तुषु गौरवलाघवे ||१|| राजा त्वपराधालिङ्गितानां समवर्ती तत्फलमनुभावयति ॥ २॥ आदित्यवद्यथावस्थितार्थं प्रकाशनप्रतिभाः सभ्याः ॥३॥
अदृष्टश्रुतव्यवहाराः परिपन्थिनः सामिषां न सभ्याः ॥४॥ लोभपक्षपाताभ्यामयथार्थवादिनः सभ्याः सभापतेः सद्योमानार्थ हानि लभेरन् ॥५॥
तालं विवादेन यत्र स्वयमेव सभापतिः प्रत्यर्थी सभ्य सभापत्योरसामञ्जस्पेन कुतो जय. किंबहुभिश्छगलेः श्वा न क्रियते ॥६॥ विवादमास्थाय यः सभायां नोपतिष्ठेत, समाहूतोऽपसरति, पूर्वोक्तमुत्तरोक्तेन बाघले, निरुत्तरः पूर्वोक्तेषु युक्तेषु युक्तमुक्तं न प्रतिपद्यते स्वदोषमनुवृत्य परदोषमुपालभते, यथार्थवादेऽपि द्वेष्टि सभामिति पराजित - लिङ्गानि ॥७॥
छलनाप्रतिभासेन वचनाकौशलेन चार्थहानिः ॥८॥ भुक्तिः साक्षी शासनं प्रमाणम् ॥९॥
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भुक्तिः सापवादा, साक्रोशाः साक्षिणः शासनं च कूटलिखित मिति न विवाद समापयन्ति ॥१०॥ बलोत्कृतमन्यायकृतं राजोपधिकृतं च न प्रमाणम् ॥११॥ वेश्याकितवयोरुतं ग्रहणानुसारिसमा प्रमाणयितव्यम् ॥१२॥ असत्यकारे व्यवहारे नास्ति विवादः ॥१३॥ नीवीविनाशेष विवादः पुरुषप्रामाण्यात् सत्यापयितव्यो दिव्यक्रियया वा ॥१४॥ यादृशे तादृशे वा साक्षिणि नास्ति देवो क्रिया किं पुनरुभयसंमते मनुष्ये नीचेऽपि ॥१५॥ यः परदव्यमभियुजोताभिलुम्पते वा तस्य शपथः क्रोशो दिव्यं वा ॥१६|| अभिचारयोमविशुद्धस्याभियुक्तार्थसंभावनायां प्राणावशेषोऽर्थापहारः ॥१७॥ लिङ्गिनास्तिकस्वाचारच्युतपतितानां देवी क्रिया नास्ति ॥१८॥ तेषां युक्तितोऽर्थसिद्धिरसिद्धिर्वा ॥१९॥ संदिग्धे पत्रे साक्षे वा विचार्य परिच्छिन्द्यात् ॥२०॥ परस्परविवादे न युगैरपि विवादपरिसमाप्तिरानन्त्याद्विपरीतप्रत्युक्तीना॥२१॥ ग्रामे पुरे चा वृतो व्यवहारस्तस्य विवादे तथा राजानमुपेयात् ॥२२॥ राज्ञा दृष्टे व्यवहारे नास्त्यनुबन्धः ॥२३॥ राजाज्ञा मर्यादां वातिक्रामन् सद्यः फलेन दण्डेनोपहन्तव्यः ।।२४॥ न हि दुर्वत्तानां दण्डादन्योऽस्ति विनयोपायोऽग्निसंयोग एब' वर्क काष्ठं सरलयति ॥२५॥ ऋजु सर्वेऽपि परिभवन्ति न हि तथा वक्रतक्षश्छिद्यते यथा सरलः ।।२६।। स्वोपलम्मपरिहारेण परमुपालभेत स्वामिनमुत्कर्षयन् गोष्ठोमवतारयेत्॥२॥ न हि भर्तुरभियोगात् परं सत्यमसत्यं वा वदन्तमवगृह्णीयात् ॥२८॥ अर्थसंबन्धः सहवासश्च नाकलहः संभवति ।।२९|| निधिराकस्मिको वार्थलाभः प्राणैः सह संचितमप्यर्थमपहारयति ।।३०|| ब्राह्मणानां हिरण्ययज्ञोपवीतस्पर्शनं च शपथः ॥३१॥ शस्त्ररत्नभूमिवाहनपल्याणानां तु क्षत्रियाणाम् ।।३२।। श्रवणपोतस्पर्शनात् काकिणीहिरण्ययोर्वा वेश्यानाम् ।।३३।। शूद्राणां क्षीरबीजयोल्मीकस्य वा ॥३४॥ कारूणां यो येन कर्मणा जीवति तस्य तत्कर्मोपकारणानाम् ॥३५॥ प्रतिमामन्येषां चेष्टदेवतापादस्पर्शनात् प्रदक्षिणादिष्यकोशात्तन्दुलतुलारोहविशुद्धिः ॥३६॥ व्याधानां तु धनुर्लङ्घनम् ॥३७॥ अन्त्यवर्णावसायिनामाद्रचर्मावरोहणम् ॥३८॥
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नीतियाक्यामृत का मूल सूत्र-पाठ
३६५
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बेश्या महिला, भूत्यो भण्ड, क्रीणिनियोगो, नियोगिमित्रं चत्वार्यशाश्वतानि ||३९||
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कीतेष्वाहा रेष्विव पण्यस्त्रीषु क आस्वादः ||४०
यस्य यावानेव परिग्रहस्तस्य तावानेव संतापः ॥४१॥ गजे गर्दभे च राजरजकयोः सम एवं चिन्ताभारः ॥४२॥ मूर्खस्याग्रहो नापायमनवाप्य निवर्तते ||४३|| कर्पासाग्नेरिव मूर्खस्य शान्तायुपेक्षण मौषधम् ॥ ४४ ॥ मूर्खस्याभ्युपपत्तिकरण मुद्दोपनपिण्डः ॥ ४५ ॥ कोपाग्निप्रज्वलितेषु मूर्खेषु तत्क्षणप्रशमनं घृताहुतिनिक्षेप द्रव ॥४६॥ अनस्तितः॥४॥
स्वयमगुणं वस्तु न खलु पक्षपाताद्गुणवद्भवति न गोपालसीहादुक्षा क्षति क्षीरम् ||४८||
२०. षाड्गुण्यसमुद्देशः
शमव्यायाम योगक्षेमयोर्योनिः ॥१॥
कर्मफलोपभोगानां क्षेमसाधनः शमः कर्मणां योगाराधनो व्यायामः ॥ २ ॥
देवं धर्माधर्मौ ॥३॥ 'मानुषं नयानयां ॥४॥
दैवं मानुषं च कर्म लोकं यापयति ॥५॥ तच्चिन्त्यमचिन्त्यं वा देवम् ॥६॥
अचिन्तितोपस्थितोऽर्थं संबन्धो दैवायत्तः ॥ ७॥
बुद्धिपूर्वहिता हितप्राप्तिपरिहारसंबन्धों मानुषायत्तः ॥ ॥ सत्यपि देवेऽनुकूले न निष्कर्मणो भद्रमस्ति || २ ||
न खलु दैवमोहमानस्य कृतमप्यन्नं मुखे स्वयं प्रविशति ||१०|| न हि देवमवलम्बमानस्य धनुः स्वयमेव शरान् संवते ||११|| पौरुषमवलम्बमानस्यार्थानर्थयोः संदेहः ||१२||
निश्चित एवानर्थो देवपरस्य ||१३|| आयुरोषधयोरिव देवपुरुषकारयोः परस्परसंयोगः समीहितमर्थं साध
यति ||१४||
अनुष्ठीयमानः स्वफलमनुभावयन कश्चिद्वषोऽयमनुबध्नाति ॥ १५ ॥ त्रिमूर्तित्वाश भूभूजः प्रत्यक्षं देवमस्ति ॥१६॥
प्रतिपक्ष प्रथमाश्रमः परे ब्रह्मणि निष्णातमतिरुपासितगुरुकुल: सम्यग्विद्यायामधोती कौमारवयाऽलंकुर्वन् क्षत्रपुत्रो भवति ब्रह्मा ॥ १७ ॥
मोतिवाक्यामृत में राजनीति
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१
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संजातराज्यफुलक्ष्मीदीक्षाभिषेकं स्वगुणंः प्रजास्वनुरागं जनयन्तं रामानं नारायणमाहुः ॥१८॥ प्रवृद्धप्रतापतृतीयलोचनानलः परमैश्वर्यमातिष्ठमानो राष्ट्रकण्टकान् द्विषद्दानवान क्षेत्तुं यतते विजिगीषुभूपतिर्भवति पिनाकपाणिः ॥१९॥ उदासीनमध्यमविजिगीषु-अमिमित्रपाणिग्राहाकन्दासारान्तर्पयो यथासंभवगुणगणविभवतारतम्यान्मण्डलानामधिष्ठातारः ।।२०। अग्रतः पृष्ठतः कोणे वा संनिकृष्टे वा मण्डले स्थितो मध्यमादीनां विग्रहोतानां निग्रहे संहितानामनुग्रहे समर्थोऽपि केन जितकागोनालिन अपतो निलिगीषुमाणो य उदास्ते स उदासीनः ॥२१॥ उदासीनवदनियतमण्डलोऽपरभूपापेक्षया समधिकबलोऽपि कुतश्चित् कारणादन्यस्मिन नृपती विजिगीषुमाणे यो मध्यस्थभावमवलम्बते स मध्यस्थः।।२२।। राजात्मदेवद्रध्यप्रकृतिसंपन्नो नयविक्रमयोरधिष्ठानं विजिगीषः ॥२३॥ य एवं स्वस्याहितानुष्ठानेन प्रतिकूल्यमियति स एवारिः ॥२४॥ मित्रलक्षणमुक्कमेव पुरस्तात् ।।२५।। यो विजिगीषौ प्रस्थितेऽपि प्रतिष्ठमाने वा पश्चात् कोपं जनयति स पाक्षिणग्राहः ॥२६॥ पाणिग्राहाद्य: पश्चिमः स आक्रन्दः ॥२७॥ पाणिग्राहामित्रमासार आक्रान्दमित्रं च ॥२८॥ परिविजिगोषोर्मण्डलान्तविहितवृत्तिरुभयवेतनः पर्वताटवी कृताश्रयश्चातद्धिः ॥२९॥ अराजबीजो लुब्धः क्षुद्रो विरक्तप्रकृत्तिरन्यायपरो व्यसनी विप्रतिपन्नमित्रामात्यसामन्तसेनापतिः शत्रभियोक्तव्यः ॥३०॥ अनाश्रयो दुर्बलाश्रयो वा शत्रुरुच्छेदनीयः ॥३१॥ विपर्ययो निष्पोडनीयः कर्षयेद्वा ॥३२॥ समाभिजनः सहजशत्रुः ।।३३।। विरोधो विरोधयिता वा कृत्रिमः शत्रुः ॥३४॥ अनन्तरः शत्रुरेकान्तरं मित्रमिति नैषः एकान्तः कार्य हि मित्रत्वामित्रत्वयोः कारणं न पुनर्विप्रकर्षसनिकषों ॥३५॥ ज्ञानबलं मन्त्रशक्तिः ॥३६॥ बुद्धिशक्तिरात्मशक्तेरपि गरीयसी ॥३७।। शशकेनेव सिंहव्यापादनमत्र दृष्टान्तः ॥३८॥ कोशदण्डबलं प्रभुशक्तिः ।।३९॥ शूद्रकशक्तिकुमारौ दृष्टान्तौ ।।४०॥ विक्रमो बलं चोत्साहशक्तिस्तत्र शमो दृष्टान्तः ॥४१॥ नीतिवाक्यामृत का मूल सूत्रपाठ
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शक्तित्रयोपचितो ज्यायान शक्तित्रयापचितो होनः समानशक्तित्रयः
समः ॥ ४२ ॥
संधिविग्रह्यानासनसंश्रयद्वैधीभावाः षाड्गुण्यम् ॥४३॥
पणबन्धः संधिः ॥४४॥
अपराधो विग्रहः ॥४५॥
अभ्युदयो यानम् ||४६||
उपेक्षणमासनम् ||४७||
परस्यात्मार्पणं संश्रयः ॥४८॥
एकेन सह संधायान्येन सह विग्रहकरणमेकत्र वा शत्र संधानपूर्व विग्रहो द्वैधीभावः ॥ ४५९॥
प्रथमपक्षे संघीयमानो विगृह्यमाणो विजिगीषुरिति द्वैधीभावो दुध्या
श्रयः ॥ ५० ॥
होयमानः पणबन्धेन संधिमुपेयात् यदि नास्ति परेषां विपणितेऽर्थे मर्यादोल्लङ्घनम् ॥५१॥
अभ्युच्चीयमानः परं विगृह्णीयाद्यदि नास्त्यात्मबलेषु क्षोभः ॥५२॥ न मां परो हन्तुं नाहं परं हन्तुं शक्त इत्यासीत् यद्यायत्यामस्ति कुशलम् ||५३।।
गुणातिशययुक्तो याधाद्यदि न सन्ति राष्ट्रकण्टका मध्ये न भवति पश्चास्क्रोधः || ५४ ||
स्वमण्डलमपरिपालयतः परदेशाभियोगो विवसनस्य शिरोवेष्टनमिव ॥५५॥ रज्जुवलनमिव शक्तिहीनः संश्रयं कुर्याद्यदि न भवति परेषामामिषम् ॥५६॥ बलवद्भयादबलवदाश्रयणं हस्तिभयादेरण्डाश्रयणमित्र ॥५७॥ स्वयमस्थिरेणास्थिराश्रयणं नद्यां वमानेन बमानस्याश्रयणमिव ||१८|| वरं मानिना मरणं न परेच्छानुवर्तनादात्मविक्रमः ॥५९॥ आयतिकल्याणे सति कस्मिंश्चित्संबन्धे परसंश्रयः श्रेयान् ||६|| निधानादिवच राजकार्येषु कालनियमोऽस्ति ||११|| मेघदुत्थानं राजकार्याणामन्यत्र च शत्रोः संधिविग्रहाभ्याम् ||६२|| द्वेषीभावं गच्छेद् यदन्योऽवश्यमात्मना सहोत्सहते ॥ ६३ ॥
बलद्वयमध्पस्थितः शत्रुरुभयसिंहमध्यस्थितः करीव भवति सुखसाधवः ||६४|| भूम्यथिनं भूफलप्रदानेन संदध्यात् ॥ ६५ ॥
भूफलदानमनित्यं परेषु भूमिगता गतैव ||६६ ||
अवज्ञयापि भूमावारोपितस्तरुर्भवति बद्धलः ||६७|१ उपायोपपन्नविक्रमोऽनुरक्तप्रकृति रल्पदेशोऽपि भूपतिर्भवति सार्वभौमः ॥ ६८ ॥ न हि कुलागता कस्यापि भूमिः किंतु वीरभोग्या वसुन्धरा ॥ ६९ ॥
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नीतिवाक्यामृत में राजनांवि
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सामोपप्रदानभेददण्डा उपायाः ।।७।। तत्र पञ्चविध साम, गुणसंकीर्तन संबन्धोपाख्यानं परोपकारदर्शनमायतिप्रदशनमात्नोपसंधानमिति ॥७१।। यन्मम द्रव्यं तद्भवता स्वकृत्येषु प्रयुज्यतामित्यात्मोपसंधानम् ॥७२॥ बह्वर्थसंरक्षणायाल्पार्थप्रदानेन परप्रसादनमुपप्रदानम् ।।७३|| योगतोषणगढ पुरुषोभयवेतनः परबलस्य परस्परशंकाजननं निर्भत्सन वा भेदः ||७४॥ वधः परिक्लेशोऽर्थहरणं च दण्ड: 11७५॥ शरोरागतं साधु परोक्ष्य कल्याणबुद्धिमनुगृह्णीयात् ॥७६।। किमरण्यजमौषधं न भवति क्षेमाय ॥७७|| गृहप्रविष्टकपोत इव स्वल्पोऽपि शत्रुसंबन्धी लोकस्तन्त्रमुद्वासयति ।।८।। मिहिरण्यभूमिलाभानामुत्तरोत्तरलाभः श्रेयान् ॥७९॥ हिरण्यं भूमिलाभाद्भवति मित्रं च हिरण्यलाभादिति ॥८॥ शत्रोमित्रत्वकारणं विमश्य तथाचरेद्यथा न वञ्च्यते ॥८॥ गूढोपायेन सिद्धकार्यस्यासंवित्तिकरणं सर्वा शंकां दुरपवादं च करोति' ८२॥ गृहीतपुत्रदारानुभगतेसमान कुर्यात !!४३|| शत्रुमपकृत्य भूदानेन तद्दायादानात्मनः सफलयेत् क्लेशयेद्वा ॥४॥ परविश्वासजनने सत्यं शपथः प्रतिभूः प्रधानपुरुषपरिग्रहो वा हेतुः ।।८५॥ सहस्त्र कोयः पुरस्ताल्लाभ; शतकीयः पश्चात्कोप इति न यायात् ।।८६।। सूचीमुखा ह्यनर्था भवन्त्यल्पेनापि सूचीमुखेन महान दोरकः प्रविशति ।।८७|| न पूण्यपुरुषापचयः क्षयो हिरण्यस्य धान्यापचयो व्ययः शरीरस्यात्मनो लाभविच्छेछन साभिषक्रव्याद् इव न परैरवरुध्यते ।।८८ शक्तल्यापराधिषु या क्षमा सा तस्यात्मनस्तिरस्कारः ||८ । अतिक्रम्यवतिषु निग्नहं कर्तुः सादिव दष्टप्रत्यवायः सर्वोऽपि बिभेति जनः ॥२०॥ अनायकां बहुनायकां वा सभां न प्रविशेत् ॥११॥ गणपूरश्वारिणः सिद्ध कार्ये स्वस्य न किंचिद्भवत्यसिद्धे पुनः ध्रुवमपवादः ॥२२॥ सा गोष्ठी न प्रस्तोतव्या यत्र परेषामपायः ॥२३॥ गृहागतमर्थ केनापि कारणेन नावधीरयेद्यदैवार्थागमस्तदैव सर्वातिथिनक्षत्रग्रहबलम् ॥२४॥ गजेन गजबन्धनमिवार्थनार्थोपार्जनम् ॥९५| न केवलाभ्यां बुद्धिपौरुषाभ्यां महतो जनस्य संभूयोस्थाने संघातविघातेन
दण्ड प्रणयेच्छतमवध्यं सहस्रमदण्डधम् ॥९॥ नीप्तिवाक्यामृत का मूल सूत्र-पाठ
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सा राजन्वती भूमिर्यस्यां नासुरवृत्ती राजा॥९७।। परप्रणेया राजापरीक्षितार्थमानप्राणहरोऽसुरवृत्तिः ।।८।। परकोपप्रसादानुवृत्तिः परप्रणेयः ।।१९।। तत्स्वामिच्छन्दोऽनुवर्तनं श्रेयो यन्न भवत्यायत्यामहिताय ।।१०।। निरनुबन्धमर्थानुबन्धं चार्थमनुगृलीयात् ।।१०१।। भाताबर्थो धमाय यायस्यां महानर्थानुबन्धः ।।१०२।। लाभस्त्रिविधो नवो भूतपूर्वः पैश्यश्च ॥१०॥
३०. युद्धसमुद्देशः
स किं मन्त्री मित्रं वा यः प्रथममेव युद्धोद्योगं भूमित्याग चोपदिशति स्वामिनः संपादयति च महन्तमनर्थसंशयम् ॥शा संग्रामे को नामात्मवानादादेव स्वामिनं प्राणसंदेहतूलायामारोपयति ॥२॥ भूम्यर्थ नृपाणां नयो विक्रमश्च न भूमित्यागाय ॥३|| बुद्धिपुढेन परं जेतुमशक्तः शस्त्रयुद्धमुपक्रमेत् ।।४|| न तथेषवः प्रभवन्ति यथा प्रज्ञावतां प्रज्ञा: ॥५॥ दृष्टेऽप्यर्थे संभवन्त्यपराषवो धनुष्मतोऽदृष्टमर्थ साधु साधयति प्रज्ञावान् ॥६॥ श्रूयते हि किल दूरस्थोऽपि माधवपिता कामन्दकीयप्रयोगेण माधवाय मालती साधयामास ||७|| प्रज्ञा ह्यमोघं शस्त्रं कुशलबुद्धीनाम् ॥८॥ प्रज्ञाहताः कुलिशहता इव न प्रादुर्भवन्ति भूमिभृतः ॥९॥ परैः स्वस्याभियोगमपश्यतो भयं नदीमपश्यत उपानपरित्यजनमिव ।।१०॥ अतितीक्ष्णो बलवानपि शरभ इव न चिरं नन्दति ॥११॥ प्रहरतोऽपसरतो वा रामे विनाशे वरं प्रहारो यत्र नैकान्तिको विनाशः ॥१२|| कुटिला हि गतिर्देवस्य मुमूर्षुमपि जीवयति जिजीविषु मारयति ।।१३।। दीपशिखायां पतंगबदेकान्तिके विनाशेऽविचारमपसरेत् ॥१४॥ जीवितसंभवे देवो देयात्कालबलम् ॥१५॥ वरमल्पमपि सारं बलं न भूयसी मुण्डमण्डली ॥१६॥ असारबलभङ्गः सारबलभङ्गं करोति ।।१७। नाप्रतिग्रहो युद्धमुपेयात् ॥१८॥ राजव्यजनं पुरस्कृत्य पश्चात्स्वाम्यधिष्ठितस्य सारवलस्य निवेशनं प्रतिग्रहः ।।१९॥ सप्रतिग्रहं बलं साधुयुद्धायोत्सहते ॥२०॥
नीतिवाक्यामृत में राजनीति
२४०
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पृष्ठतः सदुर्गजला भूमिर्वलक्ष्य महानाश्रयः ॥२१॥ नद्या नीयमानस्य तटस्थपुरुषदर्शनमपि जीवितहेतुः ||२२|| निरन्नमपि सप्राणमेव बलं यदि जलं लभेत ||२३|| आत्मशक्तिमविज्ञायोत्साहः शिरसा पर्वतभेदनमिव || २४|| सामसाध्यं युद्धसाध्यं न कुर्यात् ॥२५॥ गुडादभिप्रेतसिद्धी को नाम विषं भुञ्जीत ॥ २६ ॥ अल्पब्ययभयात् सर्वनाशं करोति मूर्खः ||२७|| का नाम कृतघोः शुल्कभयाद्भाण्डं परित्यजति ॥ २८ ॥ स कि व्ययो यो महान्तमर्थ रक्षति ||२९||
पूर्ण सरःसलिलस्य हि न परवाहादपरोऽस्ति रक्षणोपायः ||३०|| अप्रयच्छतो बलवान् प्राणैः सहार्थं गृह्णाति ॥ ३१॥
बलवति सोमाविषेऽयं प्रयच्छन् विवाहोत्सवगृहगमनादिभिषेण प्रयच्छेत् ॥ ३२॥
आमिषमर्थम प्रयच्छतोऽनवधिः स्यान्निबन्धः शासनम् ||३३|| कृतसंघातविधातोऽरिभिविशीर्णयूथो गज इव कस्य न भवति साध्यः ||३४|| विनिःस्रावितजले सरसि विषमोऽपि ग्राहो जलत्र्यालवत् ॥३५॥
वनविनिर्गतः सिंहोऽपि शृगालायते ॥ ३६ ॥
नास्ति संघातस्य निःसारता किं न स्वलयति मत्तमपि वारणं कुधिततृण
संघातः ||३७||
संहतै बिसतन्तुभिदिग्गजोऽपि नियम्यते ||३८||
दण्डमध्ये रिवाबुपायान्तरमग्नावाहुतिप्रदानमिव ||३९|| यन्त्रशस्त्राग्निक्षारप्रतीकारे व्याधी कि नामान्यौषधं कुर्यात् ||४०|| उत्पाटितदंष्ट्री भुजङ्गो रज्जुरिव ॥ ४१||
प्रतिहत प्रतापोऽङ्गारः संपतितोऽपि किं कुर्यात् ॥ ४२॥ विद्विषां चाटुकारं न बहुमन्येत ॥ ४३ ॥ | जिह्वया लिनु खड्गो मारयत्येव ॥४४॥
तन्त्रावापी नीतिशास्त्रम् ॥४५॥
. स्वमण्डलपालनाभियोगस्तन्त्रम् ||४६ ॥ परमण्डलावाप्त्यभियोगोऽवापः ॥४७॥
बहूनेको न गृह्णीयात् सदर्पोऽपि सर्पो व्यापाद्यत एव पिपीलिकाभिः ॥४८|| अशोधितायां परभूमौ न प्रविशेन्निर्गच्छेद्वा ॥ ४९ ॥
विग्रहकाले परस्मादागतं कमपि न संगृह्णीयात् गृहीत्वा न संवासयेदत्यत्र तद्दायादेभ्यः श्रूयते हि निजस्वामिना कूटकलहं विधायावाप्तविश्वासः कृकलासो नामानोकपतिरात्मविपक्षं विरूपाक्षं जघानेति ॥५०॥
जोतिवाक्यामृत का मूल सूत्र-पाठ
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बलमपोडयन् परानभिषेणयेत् ॥५१॥ दीर्घप्रयाणोपहतं बलं न कुर्यात् स तथाविधमनायासेन भवति परेषा साध्यम् ।।५२॥ न दायादादपरः परबलस्याकर्षणमन्त्रोऽस्ति ॥५॥ यस्याभिमुखं गच्छेत्तस्यावश्य दायादानुत्थापयेत् ॥५४॥ कण्टकेन कण्टकमिव परेण परमुखरेत् ॥५५॥ विल्वेन हि विल्वं हन्यमानमुभयथाप्यात्मनो लाभाय ॥५६॥ यावत्परेणापकृतं तावतोऽधिकमपकृत्य संधि कुर्यात् ।।५७॥ नातप्तं लोहं लोहेन संघत्ते ।।५८) तेजो हि सन्धाकारणं नापराधस्य शान्तिरुपेक्षा वा ॥५९॥ उपचीयमानघटेनेवाश्मा हीनेन विग्रहं कुर्यात् ॥६॥ दैवानुलोम्यं पुण्यपुरुषोपचयोऽप्रतिपक्षता च विजिगोषोरुदयः ॥६॥ पराक्रमककंशः प्रवीरानोकश्चेद्धीनः सन्धाय साधूपचरितव्यः ॥६२॥ दुःखामर्ष तेजो विक्रमयति ॥६३।। स्वजीविते हि निराशस्याचार्यो भवसि वीर्यवेगः ॥४॥ लधुरपि सिंहशावो हन्त्येव दन्तिनम् ।।६५।। न चातिभग्नं पीड़येत् ॥६६॥ शौर्येकधनस्योपचारो मनसि तच्छागस्येव पूजा ।।६७।। समस्य समेन सह विनहे निश्चितं मरणं जये च सन्देहः, आम हि पात्रमामेनाभिहतमुभयत्तः क्षयं करोति ।।६८॥ ज्यायसा सह विग्रहो हस्तिना पदातियुद्धमिव ॥६९।। स धर्मविजयी राजा यो विधेयमात्रेणेव संतुष्टः प्राणार्थमानेषु न व्यभिचरति ॥७॥ स लोभविजयी राजा यो द्रव्येण कृतप्रोतिः प्राणाभिमानेषु न व्यभिचरति ॥७॥ सोऽसुरविजयो यः प्राणार्थमानोषधातेन महीममिलषति ॥७२॥ असुरविजयिनः संश्रयः सूनागारे मृगप्रवेश इव १७३१] यादृशस्तादृशो वा यायिनः स्थायी बछवान् यदि साधुचरः संचार ॥१४॥ चरणेषु पतितं भोतमशस्त्रं च हिंसन् ब्रह्महा भवति ॥७५।। संग्रामघृतेषु यायिषु सत्कृत्य विसर्गः ॥६॥ स्थायिषु संसर्गः सेनापत्यायत्तः ।।७। . मतिनदोयं नाम सर्वेषां प्राणिनामुभयतो वहति पापाय धर्माय च, तवाद्य स्रोतोऽतोव सुलभं दुर्लभं तद् द्वित्तीयमिति ।।७८|| सत्येनापि शप्तव्यं महत्तामभयप्रदानवचनमेव शपथः ॥७९॥
नोविवारपामत में राजनीति
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सतामसतां च वचनायत्ताः खलु सर्वे व्यवहाराः स एव सर्वलोकमहनीयो यस्य वचनमन्यमनस्कतयाप्यायात्तं भवति शासनम् ||८०|| नयोदिता वाग्वदति सरया ह्येषा सरस्वती ॥८१॥ व्यभिचारिवचनेषु हिकी पारलौकिको वा क्रियास्ति ॥ ८२ ॥ न विश्वासघातात् परं पातकमस्ति ||८३|| विश्वासघातकः सर्वेषामविश्वासं करोति ॥८४॥ असत्यसंधिषु कोशपानं जातान् हन्ति ||८५||
बल बुद्धिभूमिहानुलोम्यं परोद्योगश्च प्रत्येकं बहुविकल्पं दण्डमण्डला भोगा संहतव्यूह रचनाया हेतवः ।। ८६ ।।
साघुरचितोऽपि व्यूहस्तावत्तिष्ठति यावन्न परबलदर्शनम् ॥ ८७॥ न हि शास्त्रशिक्षकमेण यो
किन्तु मित्रग व्यसनेषु प्रमादेषु वा परपुरे सैन्यप्रेष्य (ष) णमवस्कन्दः ।। ८१९|| अन्याभिमुखप्रयाणकमुपकम्यान्योपघातकरणं कूटयुद्धम् ॥ ९०॥ विषविषमपुरुषोपनिषदवाच्यां गोपापैः परोपघातानुष्ठानं तूष्णीदण्डः ||२१|| एकं बलस्याधिकृतं न कुर्यात्, भेदापरावेनैकः समर्थो जनयति महान्तमनम् ||१२||
राजा राजकार्येषु मृतानां संततिमपोषयन्तृण भागो स्यात् साधु तोपचर्यते तुत्रेण ||१३||
स्वामिनः पुरःसरणं युद्धेऽश्वमेधसमम् ॥९४॥
मुधि स्वामिनं परित्यजतो नास्तीहामुत्र च कुशलम् ॥९५॥ बिग्रहायोच्चलितस्यार्द्धं बलं सर्वदा संतमासीत्, सेनापतिः प्रयाणमावासं च कुर्वीत चतुर्दिशमनीकान्यदूरेण संचरेयुतिष्ठेयुश्च ॥९६॥ धूममग्निरंजो विषाणध्वनिव्याजेनाटविकाः प्रणवयः परबलाम्यागच्छन्ति निवेदयेयुः ॥ ९७ ॥
पुरुषप्रमाणोत्सेधमबहूजनविनिवेशनाचरणापसरणयुक्तमग्रतो महामण्डपाव काशं च तदङ्गमध्यास्य सर्वदा स्थानं दद्यात् ॥९८॥ सर्वसाधारणभूमिकं तिष्ठतो नास्ति शरीररक्षा ॥९९९ ॥
भूचरो दोलाचरस्तुरङ्गचरो वा न कदाचित् परभूमी प्रविशेत् ॥ १००॥ करिणं जंपाणं वाप्यध्यासीने न प्रभवन्ति क्षुद्रोपद्रवाः ।। १०१ ।।
३१. विवाहसमुद्देशः
द्वादशवर्षा स्त्रो षोडशवर्षः पुमान् प्राप्तव्यवहारौ भवतः ॥ १ ॥ विवाहपूर्वी व्यवहारश्चातुवयं कुलीनयति ॥ २॥
मोतिवाक्यामृत का मूळ सूम्र-पाठ
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युक्तितो वरणविधानमग्निदेव-द्विजसाक्षिकं च पाणिग्रहणं विवाहः ॥३॥ स बाहुम्यो विवाहो यत्र बरायालंकृत्य कन्या प्रदीयते ॥४॥ स देवो यत्र यज्ञार्थमृत्विजः कन्याप्रदानमेव दक्षिणा ।।५।। गोमिथुनपुरःसरं कन्यादानादार्षः ॥६॥ 'स्वं भवास्य महाभागस्य सहधर्मचारिणोति' विनियोगेन कन्याप्रदानात् प्राजापत्यः ।।।। एते चत्वारो धम्र्या विवाहाः ।।८। मातुः पितुर्बन्धूनां चाप्रामाण्यात् परस्परानुरागेण मिथः समंवायाद्गान्धः पणबन्धेन कन्याप्रदानादासुरः ।।१०।। सुप्तप्रमत्तकन्यादानास्पैशाचः ॥११॥ कन्यायाः प्रसह्यादानाद्राक्षसः ॥१२॥ एते चत्वारोऽधमा अपि नाधा यद्यस्ति वधूवरयोरनपवादं परस्परस्य भाव्यत्वम् ॥१३॥ उन्नतत्वं कनोनिकयोः, लोमशरवं जङ्घयोरमासलत्वमूर्वोरचारुत्वं कटिनाभिजठरकुचयुगलेषु, शिरालुत्वमशुभसंस्थानत्वं च बाह्वोः, कृष्णत्वं तालुजिह्वाधरहरीतकीषु, विरलविषमभावो दशनेषु, कूपत्वं कपोलयोः, पिंगलत्वमक्षणो. लग्नत्वं चिल्लिकयोः, स्थपुटत्वं ललाटे, दुःसंनिवेशत्वं श्रवणयोः, स्थूलकपिलपरुपभावः केशेषु, अतिदीर्धातिलघुन्यूनाधिकता समकटकुब्जवामनकिराताङ्गत्वं जन्मदेहाभ्यां समानताधिकत्वं चेति कन्यादोषाः सहसा तद्गृहे स्वयं इतस्य चागतस्याग्रे अभ्यता व्याधिमती रुदती पसिनी सुप्ता स्तोकायुष्का बहिर्गता कुलटाप्रसमा दु:खिता कलहोद्यता परिजनोद्वासिन्यप्रियदर्शना दुर्भगेति नेतां वृणीत कन्याम् ।।१४।। शिथिले पाणिग्रहणे बरः कन्यया परिभ्यते ॥१५॥ मुखमपश्यसो वरस्थानमोलितलोचना कन्या भवति प्रचण्डा ॥१६॥ सह शयने तुष्णों भवन् पशुचन्मन्येत ॥१७॥ बलादाक्रान्ता जन्मविद्वेष्यो भवति ॥१८॥ धैर्यचातुर्यायत्तं हि कन्याविनम्भणम् ॥११॥ समविभवाभिजनयोरसमगोत्रयोश्च विवाहसंबन्धः ॥२०॥ महतः पितुरैश्वर्यादल्पमवगणयति ॥२॥ अल्पस्य कन्या, पितुर्दोबल्यान् महतावज्ञायते ॥२॥ अल्पस्य महता सह संव्यवहारे महान् व्ययोऽल्पश्चायः ॥२३॥ वरं वेश्यायाः परिग्रहो नाविशुद्धकन्याया परिग्रहः ॥२४॥ बरं जन्मनाशः कन्यायाः नाकुलीनेष्ववक्षेपः ।।२५।।
नीतिवाक्यामृत में राजनीति
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सम्यग्वृत्ता कन्या तावत्सन्देहास्पदं यावच पाणिग्रहः ||२६|| वितप्रत्युद्धापि पुनर्विवाहमहंतोति स्मृतिकाराः ||२७| आनुलोम्येन चतुस्त्रिद्विवर्णाः कन्याभाजनाः ब्राह्मणक्षत्रियविशः ||२८|| देशापेक्षो मातुल पंबन्धः ||२९||
संततिरनुपहता रतिर्गृहवार्ता सुविहितत्व माभिजात्याचारविशुद्धि देवद्विजातिथिबान्धव सत्कारानवद्यत्वं च दारकर्मणः फलम् ||३०|| गृहिणी गृहमुच्यते न पुनः कुडचकटसंघातः ||३१|| गृहकर्मविनियोगः परिमितार्थत्वमस्वातन्त्र्यं सदाचारः मातृव्यञ्जनस्त्रीजनावरोध इति कुलवधूनां रक्षणोपायः ||३२||
रजकशिला कुर्कुरखर्परसमा हि वेश्याः कस्तास्वभिजातोऽभिरज्येत ॥३३॥ दानेदौर्भाग्यं सत्कृतो परोपभोग्यत्वं आसक्ती परिभवो मरणं वा महोपकारेऽप्यनात्मोयत्वं बहुकालसंबन्धेऽपि त्यक्तानां तदेव पुरुषान्तरगामित्वमिति वेश्यानां कुलागतो धर्मः ॥३४॥
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३२. प्रकीर्ण समुद्देशः
समुद्र इव प्रकीर्णकरत्नविन्यासनिबन्धनं प्रकीर्णकम् ||१२|| वर्णपदवाक्य प्रमाणप्रयोगनिष्णातमतिः सुमुखः सुव्यको मधुरगम्भीरध्वनिः प्रगल्भः प्रतिभावान् सम्यगृहापोहावधारणगमकशक्ति संपन्नः संप्रज्ञातसमस्तलिपिभाषावर्णाश्रमसमयस्वपरव्यवहारस्थिति राशुलेखन वाचनसमर्थइति सन्धिविग्रहिगुणाः ॥२॥
कथाव्यवच्छेदो व्याकुलत्वं मुखे वैरस्यमनवेक्षणं स्थानत्यागः साध्वाचरितेऽपि दोषोद्भावन विज्ञप्ते च मौनमक्षमाकालयापनमदर्शनं वृथाभ्युपगमदचेति विरक्तलिङ्गानि ॥३॥
दूरादेवेक्षणं, मुखप्रसादः संप्रश्नेष्वादरः प्रियेषु वस्तुषु स्मरणं, परोक्षे-गुणग्रहणं तत्परिवारस्य सदानुवृत्तिरित्यनुरकलिङ्गानि ॥४॥ श्रुतिसुखत्वमपूर्वाविरुद्धार्थातिशययुक्तत्वमुभयालंकारसंपन्नत्वमन्यूनाधिक वचनत्वमतिव्यक्तान्वयत्वमिति काव्यस्य गुणाः ||५|| अतिपरुषवचनविन्यासत्वमनन्वितगतार्थत्वं दुर्बोधानुपपन्नपदोपन्यासमयथायतिविन्यासत्वमभिधानाभिधेयशून्यत्वमिति काव्यस्य दोषाः ||६||
वचनकविरर्थं कविरुभयकविश्चित्रकविवर्ण कविदुषक रकवि र रोच की सतुषाभ्यवहारी चेत्यष्टी कवयः ||
मनःप्रसादः कलासु कौशलं सुखेन चतुर्वर्गविषयव्युत्पत्तिरासंसारं च यश इति कविसंग्रहस्य फलम् ||८||
मीतिवाक्यामृत का मूळ सूत्र- पाठ
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आलप्तिशुद्धिर्माधुतियायः प्रयोगसौन्दर्यमतीवमसृणतास्थानकम्पितकुहरितादिभावो रागान्तरसंक्रान्तिः परिगृहीतरागनिर्वाहो हृदयमाहिता चेति गोसस्य मूषाः ॥ समत्वं तालानुयायित्वं गेयाभिनेयानुगतत्वं इलक्ष्यत्वं प्रब्यक्तयतिप्रयोगत्वं श्रुतिसुखावहत्वं चेति वाद्यगुणाः ॥१०॥ दृष्टिहस्तपादक्रियासु समसमायोगः संगीतकानुगतत्वं सुश्लिष्टललिताभिनयाङ्गहारप्रयोगभावो रसभाववृत्तिलावण्यभाव इति नृत्यगुणाः ॥११॥ स-महान यः खल्वार्तोऽपि न दुर्वचनं ते ॥१२॥ स कि गृहाश्रमी यत्रागत्यार्थिनो न भवन्ति कृतार्थाः ॥१३॥ सुगनहर वर्मः सुखं का निस्तान तामाविकानां नायतिहित्तवृत्तीनाम् ।।१४ा स्थस्य विद्यमानमथिभ्यो देयं नाविद्यमानम् ।।१५।। ऋणदातुरासन्नं फलं परोपास्तिः कलहः परिभवः प्रस्तावालाभश्च ।।१६।। मदातुस्तावत्स्नेहः सोजन्यं प्रियभाषणं वा साधुता च यावन्नार्यावाप्तिः ।।१७।। तदसत्यमपि नासत्यं यत्र न संभाव्यार्थहानिः ॥१८॥ प्राणवधे नास्ति कश्चिदसत्यवादः ।।१९।। अर्थाथ मातरमपि लोको हिनस्ति किं पुनरसत्यं न भाषते ॥२०॥ सस्कल्पसत्योपासनं हि विवाहकर्म, देवायत्तस्तु वधूवरयोनिवाहः ॥२१॥ तिकाले यन्नास्ति कामाता यन्त ते पुमान् न चेत्तत्प्रमाणम् ॥२२॥ तानसत्रोपुरुषयोः परस्परं प्रीतिर्यावन्न प्रातिलोम्यं कलहो रतिकैतवं च ॥२३॥ वादास्विकालस्य कुतो रणे जयः प्राणार्थः स्त्रोष कल्याणं वा ॥२४॥ साबस्सर्वः सर्वस्थानुत्तिपरो यावन्न भवति कृतार्थः ॥२५॥ अशुभस्य कालहरणमेव प्रतीकारः ॥२६॥ पक्वान्नादिव स्त्रोजनाहाहोपशान्तिरेव प्रयोजन किं तत्र- रागविरागाभ्याम् ॥२॥ तृपेनापि प्रयोजनमस्ति किं पुनर्न पाणिपादवता मनुष्येण ॥२८॥ न कस्यापि लेखमवमन्येत, लेखप्रवाना हि राजानस्तन्मूलत्वात् संधिविग्रहयोः सकलस्य जगद्व्यापारस्य च ॥२९॥ पूष्पयुद्धमपि तोलियेदिलो नेच्छन्ति कि पुनः शस्त्रयुद्धम् ॥३०॥ स प्रभुर्यो बहून् विभति किमर्जुनतरो: फलसंपदा या न भवति परेषामुपभोग्या ॥३॥ मार्गपासप इव स त्यागो यः सहते सर्वेषां संबाधाम् ॥३२॥ पर्वता इव राजानो दूरतः सुन्दरालोकाः ।।३३||
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वार्तारमणीयः सर्वोऽपि देशः ||३४||
अघनस्याबान्धवस्य च जनस्य मनुष्यवत्यपि भूमिर्भवति महाटवी ||३५|| श्रीमतोरण्यान्यपि राजधानी || ३६ ||
सर्वस्याप्यासनविनाशस्य भवति प्रायेण मति विपर्यस्ता ||३७|| पुष्यवतः पुरुषस्य न क्वचिदप्यस्ति दौःस्थ्यम् ||३८|| देवानुकूलः कां संपदं न करोति विघटयति वा विपदम् ||३९|| असूयकः पिशुनः कृतघ्नो दीर्घरोष इति कर्मचाण्डालः ||४०|| औरसः क्षेत्रजो दत्तः कृत्रिम गूढोत्पन्नोऽपविद्ध एते षट्पुत्रा दायादाः पिण्डदाश्च ॥४१॥
देशकाल कुलापत्य स्त्री समापेक्ष दायादविभागोऽन्यत्र यतिराजकुलाम्याम्॥४२॥ अतिपरिचयः कस्यावज्ञां न जनयति ॥४३॥
भृत्यापराधे स्वामिनो दण्डो यदि भृत्यं न मुञ्चति ॥४४॥
अलं महत्तया समुद्रस्य यः लधुं शिरसा वहत्यधस्ताच्च नयति गुरुम् ॥ ४५ ॥ रतिमन्त्राहारकालेषु न कमप्युपसेवेत ॥४६॥
सुपरिचितेष्वपि तिर्यक्षु विश्वासं न गच्छेत् ॥ ४७ मत्तवारणारोहिणी जोवितव्ये संदेहो निश्चितश्चापायः ४ अर्थं विनोदोऽङ्गभङ्गमनावा न तिष्ठति ॥४९॥ 'ऋणमददानो दासकर्मणा निर्हरेत् ||१०||
अन्यत्र यतिब्राह्मणक्षत्रियेभ्यः ॥ ५१ ॥
तस्यात्मदेह एव वेरी यस्य यथालाभमशनं शयनं च न सहते ॥५२॥ तस्य किमसाध्यं नाम यो महाभुनिरिव सर्वान्नीनः सर्वक्लेश सहः सर्वत्र सुखशायी च ॥५३॥
स्त्रीतिरिव कस्य नामेयं स्थिरा लक्ष्मीः ॥ ५४ ॥ परपैशुन्योपायेन राज्ञां वल्लभो लोकः ॥५५॥
नीचो महत्त्वमात्मनो मन्यते परस्य कृतेनापवावेल ॥५६॥ न खलु परमाणोरल्पत्वेन महान् मे किंतु स्वगुणेन ॥ ५७ ॥ न खलु निर्निमित्तं महान्तो भवन्ति कलुषितमनोषाः ३॥५८॥ स वह्नेः प्रभावो यत्प्रकृत्या शीतलमपि जलं भक्त्युष्णम् ॥५१॥ सुचिरस्थायिनं कार्यार्थी वा साधूपचरेत् ॥ ६०॥
● स्थितैः सहार्थोपचारेण व्यवहारं न कुर्यात् ॥ ६१॥
सत्पुरुषपुरश्चारितया शुभमशुभं वा कुर्वतो नास्त्यपवादः प्राणव्यापादो वा ।। ६२॥ सपदि संपदमनुबध्नाति विपञ्च विपदम् ॥ ६३||
गोरिव दुग्बार्थी को नाम कार्यार्थी परस्परं विचारयति ॥ ६४॥ शास्त्रविदः स्त्रियश्चानुभूतगुणाः परमात्मानं रञ्जयन्ति ||६५ ||
मीविषाक्यामृत का मूल सूत्र-पाठ
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________________ चित्रगतमपि राजानं नावमन्येत क्षात्रं हि तेजो महतीसत्पुरुषदेवतास्वरूपेण तिष्ठति / / 66 // कार्यमारभ्य पर्यालोचः शिरो मुण्डयित्वा नक्षत्रप्रश्न इव / / 67 // ऋणशेषाद्रिपुशेषादिवावश्यं भवत्यायत्यां भयम् // 68 // नवसेवकः को नाम न भवति बिनीतः // 69|| यथाप्रतिज्ञं को नामात्र निर्वाहः 70 // अप्राप्तेऽथ भवति सर्वोऽपि त्यागो // 71|| . . अर्थार्थी नोचैराचरणान्नोद्विजेत्, किन्नाधो ब्रजति कपे जलार्थी // 72 // - स्वामिनोपहतस्य तदाराधनमेव नित्तिहेतु जनन्या कृतविप्रियस्य हि बालस्य / अनन्येव भवति जीवितव्याकरणम् // 73 // प्रन्थकारको प्रशस्ति / इति समारमार्किक पक जामणि अम्बित रतस्य, फाशन्महावादिविजयोपाजितकीर्तिमन्दाकिनीपविधितत्रिभुवनस्य, परमतपश्चरणरत्नोदन्वतः श्रीमन्नेमिदेवभगवतः प्रियशिष्येण वादीन्द्रकालानलश्रीमन्महेन्द्रदेवभट्टारकानुजेन, स्यावादाचलसिंह ताकिकचक्रवर्ति-वादीभपञ्चाननवा. कल्लोल-पयोनिधि-कविकुलराजप्रभृतिप्रशस्तिप्रशास्तालंकारेण, षण्णवतिप्रकरणधुक्तिचिन्तामणिस्तव-महेन्द्रमातलिसंजल्प-यशोधरमहाराजचरितमहा. शास्त्रवेधसा श्रीसोमदेवसूरिणा विरचितं ( नीतिवाक्यामृतं) समाप्तमिति / ... अल्पेऽनुग्रहधीः समे सुजनता मान्ये महानादरः, सिद्धान्तोऽयमुदात्तचित्रचरिते श्रीसोमदेवे मयि / यः स्पर्धेत तथापि दर्पदृढताप्रोढिप्रगाढाग्रह स्तस्याखवितगर्वपर्वतपविर्मद्वाककृतान्तायते // 1 // सफलसमयत नाकलकोऽसि वादी, न भवसि समयोको हंससिद्धान्तदेवः।. न च वचनविलासे पूज्यपादोऽसि तत्त्वं, _ वदसि कथमिदानी सोमदेवेन सार्थम् // 2 // [दुर्जनाघ्रिपकठोरकुठार] स्तर्ककर्कशविचारणसारः। सोमदेव इव राजनि सूरिदिमनोरणभूरिः // 3 // दन्धिबोधबुधसिन्धुरसिंहनादे :. . वादिद्धिपोद्दलनदुधरवाग्विवादे। श्रीसोमदेवमुनिपे वचनारसाले __... बागीश्वरोऽपि पुरतोऽस्ति न वादकाले / / 4 / / नीतिवाक्यामृत में राजनीति