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________________ राष्ट्र प्राचीन राषशास्त्र प्रणेताओं ने राज्यांगों में राष्ट्र को भी एक महत्त्वपूर्ण अंग माना है। शुक्रनीतिसार में राज्यांगों की तुलना मानन्त्र शरीर के अवयवों से करते हुए राष्ट्र को उपमा पैरों से दी है। इसका तात्पर्य यह है कि जिस प्रकार मानव शरीर परों पर ही याश्रित रहता है उसी प्रकार राज्यरूपी शरीर की आधारशिला राष्ट्र ही है । वैदिक साहित्य में राष्ट्र शब्द का उल्लेख अनेक स्थलों पर हुआ है और उस का प्रयोग राज्य के अर्थ में किया गया है। ऋग्वेद में इस शब्द का उल्लेख कई स्थानों पर हुआ है । उस में एक स्थान पर ऐसा वर्णन आता है कि राजा ही राष्ट्रों का विकास करने के हेतु राष्ट्रों को रूप देने वाला कहा जाता है। अतः उस के पास श्रेष्ठ क्षात्रतेज होना आवश्यक है। इस के अभाव में बढ़ सम्पर्ण राष्ट्र की सुरक्षा करने में असमर्थ होगा। राज्याभिषेक के समय भी उस को यह स्मरण कराया जाता था कि राजन्, तुम्हें राष्ट्रपति बनाया गया है । अब तुम इस देश के प्रभु हो । अटल, अबिबल और स्थिर रहो। प्रजा तुम्हें स्नेह करे । तुम्हारा राष्ट्र नष्ट न होने पाये। आर्यों को यही कामना थी कि यण राष्ट्र को अविचल करें, बृहस्पति राष्ट्र को स्थिर करें, इन्द्र राष्ट्र को सुदढ़ करें और अग्निदेव राष्ट्र को निश्चल रूप से धारण करें। आर्य यह भी अभिलाषा करते थे कि हमारे राष्ट्र में क्षत्रिय बोर, धनुर्धर, लक्ष्यवेधी और महारथी हों। इस प्रकार राष्ट्र के प्रति मार्यों की महान् था एवं ममत्व था। वे राष्ट्र रक्षा को राजा का सर्वप्रमुख संव्य समझते थे । उन में राष्ट्र प्रेम की उत्कट भावना थी। पाश्चात्त्य विद्वानों की यह धारणा कि प्राचीन भारत में राष्ट्रीयता की भावना का १. शुक० १.६२। दृगयास्था सुदन्छोत्रं मुख कोशो बलं मनः। । हस्ती पादौ गराष्ट्री राज्याकानि स्मृप्तानि हि। २. बेद ७, ३१, ११ । राजा राष्ट्रान शो न दीनाममुत्तमस्मै भत्रं विश्वासः । ३. वही। ४. वेद १०, १७३, ५। धनते राजा वरुप्पो वं वेबो वृहस्पतिः । भुर्य ते इन्द्रश्चाग्निच राष्ट्रघारयता धनम् ॥
SR No.090306
Book TitleNitivakyamrut me Rajniti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorM L Sharma
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year
Total Pages255
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size5 MB
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