SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 129
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ भारी कर लगा दिये जायेंगे तो राज्य को केवल एक बार ही अधिक धन प्राप्त हो सकेगा। भविष्य में उसे धन की प्राप्ति नहीं हो सकेगी, क्योंकि भारी करों को एक बार अदा कर के जनता ग़रीब हो जायेगी और फिर वह कर देने योग्य न रहेगी। अत: राजा को कभी लोभ अथवा तृष्णा के वशीभूत होकर प्रजा पर भारी कर नहीं लगामा पाहिए। महाभारत में बछड़े का उदाहरण देकर यह बताया गया है कि जिस प्रकार बछड़े का पोषण भली-भांति करने से वह भारी बोझा कोने में समर्थ होता है, उसी प्रकार जनता पर अल्प कर लगाकर उस को समृद्ध बनाने से वह भी महान कार्यों के करने में समर्थ होती है। यदि प्रारम्भ में ही उस पर अधिक कर लगा दिया जायेगा तो वह महान् कार्यों के करने में असमर्थ होगी। उस से राजा को भी अर्थ की प्राप्ति नहीं हो सकेगी। अतः राजा को प्रणा पर अधिक कर नहीं लगाने चाहिए। कर का तीसरा सिद्धान्त यह था कि राजकर ऐसा होना चाहिए जो प्रजा को भारी मालूम न हो। म काकार है कि प्रयासको भय माना में कर पाहण करे जिस से जनता कर को भारस्वरूप न समझे । राजा को प्रजा के साथ कर के सम्बन्ध में जलोंक, बछड़ा तथा भ्रमर फा-सा व्यवहार करना चाहिए। महाभारत में कहा गया है कि जिस प्रकार मधु-मक्खी पुष्पों एवं पत्तियों को हानि पहुँचाये दिना पुष्पों से मधु महण करती है उसी प्रकार राजा को प्रज्ञा से कोई हानि पहुँचाये बिना ही कर प्राप्त करना चाहिए। इन समस्त उदाहरणों का तात्पर्य यही है कि प्रना पर उतना ही कर लगाना चाहिए, जिसे वह सरलता पूर्वक दे सके। आचार्य सोमदेव भी इसी सिद्धान्त में विश्वास रखते हैं। कर के सम्बन्ध में चोथा सिद्धान्त यह था कि कर देश काल के अनुरूप ही लिया जाये। यदि इस नियम का उल्लंघन किया जायेगा तो प्रजा राजा के विरुद्ध हो जायेगी । आचार्य सोमदेव का कथन है कि राजा प्रजा से अपने देशानुकूल ही कर ग्रहण करे ( २६, ४१) । अन्यथा उत्तम फसल आदि न होने के कारण प्रजा राजा से विद्रोह करने को कटिबद्ध हो जाती है । भागे आचार्य लिखते है कि जिन व्यक्तियों को राजा ने पहले करमुक्त कर दिया है, उन से उसे पुनः कर ग्रहण नहीं करना चाहिए, क्योंकि ऐसा आचरण करने में उस की प्रतिष्ठा एवं कीर्ति में वृद्धि होगी (१९, १८)। सोमदेव का यह भी कथन है कि मर्यादा का अतिक्रमण करने से उर्वरा भूमि भी अरण्य तुल्य हो जाती है ( ११, १९)। इसी प्रकार के अन्यत्र लिखते हैं कि अन्याय से त्रगशलाका का ग्रहण करना भी प्रजा को कष्टदायक होता है ( १६, २३ )। इस प्रकार प्राचीन काल में कर के सिद्धान्त निश्चित थे। जिन का उल्लेख १. महा० शान्द्रि०८७, २०-२१ । २. मनु०७, १२६ । ३. महा० उद्योगः ३५, १-१८ । नीतियाक्यामृत में राजनीति
SR No.090306
Book TitleNitivakyamrut me Rajniti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorM L Sharma
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year
Total Pages255
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size5 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy