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________________ राज-कर के सिद्धान्त प्राचीन काल में कर के कुछ निश्चित सिद्धान्त ये जिन का उल्लेख धर्मशास्त्रों में विशेषरूप से हुआ है। राजा प्रजा पर कर लगाने में स्वतन्त्र नहीं था, अपितु वह उन्हीं करों को प्रजा पर लगा सकता था जिन का प्रतिपादन स्मृतिग्रन्थों द्वारा किया गया है। स्मृतियों द्वारा निर्धारित कर के सिद्धान्तों का पूर्णरूप से पालन किया जाता था। धर्मशास्त्रों एवं स्मृतियों द्वारा प्रतिपादित कर के सिद्धान्त निम्नलिखित है (१) राजकीय कर का निर्धारण स्वेच्छा से न किया जाये अपितु धर्म शास्त्रों में निर्धारित कर ही प्रजा से प्रण किया जाये । सोमदेव का भी यही मत है। उन का कथन है कि अन्याय से अणशलाका का लेना भी प्रजा को महान् कष्टदायक होता है और इस से प्रजा राजा के विरुद्ध हो जाती है ( १६, २३ ) । अन्यत्र वे लिखते हैं कि अन्याय प्रवृत्ति चिरकाल तक सम्पत्तिदायक नहीं होती ( १७, २०)। जो राजा भारी कर लगाकर प्रजा को पीड़ित करता है वह स्वयं नष्ट हो जाता है। आचार्य सोमदेव का कम्पन है कि जो राजा अपनी प्रजा को समस्त प्रकार के कष्ट देता है उस का कोष नष्ट हो जाता है ( १२, १७) । अतः कर प्रजा को कष्टदायक नहीं होना चाहिए । (२) कर का दूसरा सिद्धान्त यह था कि राजकीय कर मुलोच्छेद करने वाला नहीं होना चाहिए । अधिक कर लगाने से कर देने वालों की जड़ का सच्छेदन हो जाता है और इस से राजा का भी मूलीच्छेद हो जाता है। आचार्य सोमदेव ने लिखा है कि कर में अधिक वृद्धि करने से सम्पूर्ण राष्ट्र दरिद्र होकर नष्ट हो जाता है। अतः न्यायी राजा को अपने प्रजा से उचित कर ही लेना चाहिए जिस से राष्ट्र की श्रोद्धि होती रहे ( १६, २५ ) । अन्यत्र वे लिखते हैं कि प्रजा का वैभव ही स्वामी का वैभव है इसलिए युक्ति से जनता के वैभव का उपभोग करना चाहिए ( १६, २७ ) । इस का अभिप्राय यही है कि राजा को प्रषा से उतना ही कर ग्रहण करना चाहिए जितनी उस की सामर्थ्य हो। यदि जनता पर अधिक कर लगा दिया जायेगा लो कर के मार से दबी हुई जनता दरिद्र हो जायेगी और ऐसी स्थिति में राजा और प्रजा दोनों को ही हानि होगो । दरिद्र जनता से राजा को धन प्राप्त नहीं हो सकेगा। ऐसा भी सम्भव हो सकता है कि अत्याचारों के भय से जनता राजा का देश छोड़कर अन्यत्र जा बसे । अतः राजा का यह कर्तव्य है कि उचित करों के निर्धारण से जनता को वैभवशाली बनाये, क्योंकि इसी में राजा का हित है। यदि राजा केवल अपनो आर्थिक स्थिति को ही सुधारता है और जनता की आर्थिक दशा की ओर कोई ध्यान नहीं देता तो प्रजा उसे त्याग देती है । जनता के अन्यत्र चले जाने से राज्य का प्रमुख तत्त्व ( जनता ) ही नष्ट हो जाता है और इस प्रकार राज्य का अस्तित्व भी असम्भव हो जाता है। आचार्य सोमदेव का मत है कि अधिक कर लगाकर जनता का मूलोच्छेद करना सर्वथा अनुषित है। जिस प्रकार वृक्ष के काटने से केवल एक बार ही फल प्राप्त हो सकते हैं भविष्य में नहीं ( १६, २६ )। इसी प्रकार यदि जनता पर प्रारम्भ में ही कोष १२१
SR No.090306
Book TitleNitivakyamrut me Rajniti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorM L Sharma
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year
Total Pages255
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size5 MB
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