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________________ इस ग्रन्थ में राज्य की उत्पत्ति के विषय में देवी सिद्धान्त का प्रतिपादन किया गया है । सोमदेव लिखते हैं कि राजा ब्रह्मा, विष्णु और महेश की मूर्ति है। अतः इस से अन्य कोई प्रत्यक्ष देवता नहीं है ( २९, १६ ) । राजा की योग्यताओं के विषय में भी ग्रन्थ में उल्लेख मिलता है। इस विषय में उन का मत है कि जिस पुरुष में राजनीतिज्ञ विद्वान् पुरुषों के द्वारा नीति, आचार, सम्पत्ति और शूरता आदि प्रजापालन में उपयोगी सद्गुण स्थिर हो गये हैं वह पुरुष राजा बनने योग्य है ( ५, ४२ ) । इसी प्रसंग में आगे कहा गया है कि जब राजा दव्य प्रकृति राज्य के योग्य राजनीतिक शान और बाचार, सम्पत्ति यदि सद्गुणों को त्याग कर अद्रव्यप्रकृति मूर्खता, अनाचार और कायरता आदि दोषों को प्राप्त हो जाता है तब वह पागल हाथी की तरह राजपद के योग्य नहीं रहता ( ५, ४३ ) । P सन्धि विग्रह, मान, आसन, आश्रय और द्वैधीभाष, प्रभुति राजनीति शास्त्र के तक छह गुणों का भी विवेचन इस ग्रन्थ में हुआ है ( २९, ४३-५० ) | सोमदेव लिखते हैं कि इन गुणों से विभूषित राजा ही अपने पद पर स्थायी रह सकता है । साम, दान, दण्ड, भेद आदि नीतियों का उल्लेख भी ग्रन्थ में हुआ है ( २९, ७० ) । राजा को किस अवसर पर किस नीति का प्रयोग करना चाहिए इस का भी विवरण नीतिवाक्यामृत में उपलब्ध होता है । अपराधियों को दण्ड देना और सज्जन पुरुषों की रक्षा करना राजा का धर्म बताया गया है ( ५, २ ) । सिर मुड़ाना और जटाओं का धारण करना मुनियों का धर्म है, राजा का नहीं (५, ३) । राष्ट्र कण्टकों को नष्ट करना तथा न्यायपूर्वक प्रजा का पालन करना राजा का परम धर्म है । जब राजा इस रोति से अपने कर्तव्यों का पालन करता है तो समस्त दिशाएँ प्रजा को अभिलषित फल प्रदान करने वाली होती है ( १७.४५ ) । राजकर्तव्यों के साथ ही राजरक्षा पर भी पर्याप्त प्रकाश डाला गया है ( राजरक्षा समु० ) । राजा को कौन-कौन सी बातों से सचेत रहना चाहिए इस विषय में भी ग्रन्थ में पर्याप्त विवेचन हुआ है। आचार्य सोमदेव लिखते हैं कि राजा को अपरीक्षित मार्ग पर कदापि गमन नहीं करना चाहिए । राजा को मन्त्री, वैद्य तथा ज्योतिपी के दिना मी अन्यत्र प्रस्थान नहीं करना चाहिए। राजा अथवा विवेकी पुरुष का कर्तव्य है कि वह अपनी भोजन सामग्री को भक्षण करने से पूर्व उसे अग्नि में डालकर परोक्षा कर ले | इसी प्रकार वस्त्रादि को भी परीक्षा अपने आप्त पुरुषों से कराते रहना चाहिए । उपहार में प्राप्त हुई किसी भी वस्तु को राजा स्वयं न स्पर्श करे अपने विश्वास पात्रों से उन वस्तुओं को परीक्षा कराने के उपरान्त ही उन का स्पर्श करे । राजा को अपने भवन में किसी भी ऐसी वस्तु को प्रविष्ट होने को आज्ञा नहीं देनी चाहिए जो उस के विश्वास पात्रों द्वारा परीक्षित और निर्दोष सिद्ध न कर दी गयी हो । I 1 इस प्रकार राज्य तथा राजा के लक्षण, राजा के गुण-दोष एवं राज्य रक्षा आदि विपयों पर ग्रन्थकार ने पर्याप्त प्रकाश डाला है जो राजनीतिक दृष्टि से बहुत महत्वपूर्ण है। सोमसूर और उनका नीशिवायास ३१
SR No.090306
Book TitleNitivakyamrut me Rajniti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorM L Sharma
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year
Total Pages255
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size5 MB
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