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________________ राजशास्त्र सम्बन्धी अन्य बातों का विवेचन } राज्य के सप्तोग सिद्धान्त के अतिरिक्त राज्य शास्त्र से सम्बन्धित अन्य महत्त्व - पूर्ण विषयों की भी चर्चा प्रस्तुत ग्रन्थ में की गयी है । म्यायव्यवस्था, युद्धविधान, सैन्यसंचालन, करप्रणाली पर व्यवस्था एवं परराष्ट्रनीति आदि समस्त विषयों पर सोमदेव ने पर्याप्त प्रकाश डाला है। दण्डविधान की उपयोगिता का वर्णन करते हुए माचार्य सोमदेव ने लिखा है कि जिस प्रकार अग्नि के प्रयोग से टेढ़े बाँसों को सीधा कर लिया जाता है, उसी प्रकार दुर्जन पुरुष भी दण्ड से सीधा हो जाता है ( २८, २५ ) । दण्ड सभी के लिए अपराधानुसार होना चाहिए। राजा को अपने पुत्र को भी उचित दण्ड देना चाहिए। विवाद के विषयों में विभिन्न वर्णों से शपथ लेने की प्रणाली, लेख को प्रमाणिकता आदि बातों पर भी प्रकाश डाला गया है। इस विषय में आचार्य सोमदेव लिखते हैं कि लेख व वचन में से लेख की हो विशेष प्रतिष्ठा है और उसी की अधिक प्रामाणिकता होतो है ( २६, ४२ ) । वनों की आाहे वे बृहस्पति द्वारा ही क्यों न कहे गये हों, प्रतिष्ठा नहीं होती ( २७, ६२ ) । ( आचार-सम्बन्धी नियमों का विश्लेषण 1 "आचारः प्रथमो धर्मः " के आधार पर नीतिवाक्यामृत में आचार धर्म को प्रमुखता दी गयी है | सदाचारों का पालन करने वाला व्यक्ति संसार में यशस्वी होता है । जो सदाचार का पालन नहीं करता ह रोक में जाता है । सोमदेव का कथन है कि लोकजिन्दा का पात्र बृहस्पति के समान उच्च व्यक्ति भी पराजित हो जाता है ( २६, १ ) | अतः सदाचार का पालन राजा एवं साधारण पुरुषों के लिए परमाव श्यक है इसकी आवश्यकता का अनुभव करते हुए आचार्य ने अपने ग्रन्थ नीतिवाक्यामृत में सदाचार समुद्देश की रचना की है । वर्णाश्रम व्यवस्था यह भी एक आश्चर्य की बात है कि आचार्य सोमदेव ने जैनधर्म के अनुयायी होते हुए भी कौटिल्य द्वारा प्रतिपादित वैदिक वर्णाश्रमभ्यवस्था को स्वीकार किया है । उन्होंने नोतिवाक्यामृत में वर्ण और आश्रमों का उल्लेख किया है ( ५, ६-७ ) | आचार्य ने प्रत्येक वर्ण के कार्यों पर भी प्रकाश डाला है ( ७, ७-१० ) । सोमदेव वर्णव्यवस्था के पोषक तो हैं, किन्तु इस क्षेत्र में उन के विचार बहुत उदार है। ये प्रगतिशील विचारों के आचार्य थे । अतः उन्होंने वर्णव्यवस्था के उपयोगी स्वरूप को ही स्वीकार किया है । ज्ञान प्रसार के क्षेत्र में उन का दृष्टिकोण बहुत विशाल था । उन्होंने इस पक्ष की पुष्टि की है कि ज्ञान प्राप्ति का सभी को समान अधिकार है। इस क्षेत्र में वर्णव्यवस्था का प्रतिबन्ध उन्हें अमान्य था । उन का मत है कि ज्ञान एक महान् तीर्थ के समान है, जिस में अवगाहन कर अधम से अधम प्राणी भी महान् बन सकता है। ज्ञानार्जन में सम्प्रदाय, ३२ नीतिवाक्यामृत में राजनीति
SR No.090306
Book TitleNitivakyamrut me Rajniti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorM L Sharma
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year
Total Pages255
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size5 MB
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