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________________ महाभारत में लिखा है कि जब दण्डनोति निर्जीव हो जाती है तब वेदत्रयी डूब जाते है और वृद्धिप्राप्त अन्य धर्म भी नष्ट हो जाते हैं। प्राचीन राजधर्म अथवा दण्डनीति का जब त्याग कर दिया जाता है तब सम्पूर्ण धर्म और आश्रम मिट जाते है । राजधर्म में ही समस्त स्याग देखे जाते हैं और सब दीक्षाएं राजधर्म में ही मिली हुई हैं, सब विधाएँ राजधर्म में ही कही गयो है और सब लोक राजधर्भ में ही केन्द्राभूत है। इस प्रकार दण्डनीति अथवा राजधर्म की बड़ी महिमा है। इस के महत्त्व के कारण ही शुक्राचार्य ने दण्डनीति को ही एकमात्र विद्या बतलाया है तथा अन्य विद्याओं को इसी के अन्तर्गत रखा है। राज्यांगोंका विशव विवेचन प्रस्तुत पन्ध में राज्य के सप्तांग सिद्धान्त का प्रतिपादन किया गया है । स्वामो, अमात्य, जनपद, दुर्ग, कोश, बल, मित्र आदि का विशद विवेचन हुआ है । राजधर्म की बड़े विस्तार के साथ व्याख्या की गयी है। राजा के गुण-दोष, कर्तव्य, राजरक्षा आदि विषयों पर पूर्ण प्रकाश डाला गया है। राज्य का लक्षण बताते हुए आचार्य सोमदेव लिखते हैं कि राजा का पृथ्वी की रक्षा के योग्य कर्म राज्य है ( ५,४ ) । वर्ण-ब्राह्मण सत्रिय, वैश्य, शूद्र और आश्रम- ब्रह्मचर्य, गृहस्थ, वानप्रस्थ, और यति से युक्त तथा धान्य, सुवर्ण, पशु और तांबा, लोहा आदि धातुओं को प्रचुर मात्रा में देने वाली पृथ्वी को राज्य कहते हैं ( ५, ५)। परन्तु जिस में ये बातें न पायी जायें वह राज्य नहीं है। राज्य के साथ ही राजा की भी परिभाषा इस ग्रन्थ में को गयो है-"जो अनुकूल चलने वालों ( राजकीय आशा मानने वालों ) की इन्द्र के समान रक्षा करता है तथा प्रतिकूल चलने वालों ( आज्ञा भंग करने वालों ) को यम के समान दण्ड देता हे उसे राजा कहते है (५,१)।" राज्य का मल क्रम और विक्रम है ( ५,२७) । इस को रक्षा करना राजा का परम कर्तव्य है। इस विषय की चर्या करते हुए आचार्य लिखते है कि राजा का कर्तव्य है कि वह अपने राज्य, चाहे वह वंश परम्परा से प्रास हा हो अथवा अपने पुरुषार्थ से, को सुरक्षित, बुद्धिगत और स्थायी बनाने के लिए क्रमसदाचार लक्ष्मी से अलंकृत होकर अपने कोश और शक्ति का संचम कर, अन्यथा दुरापारी और संन्याहीन होने से राज्य नष्ट हो जाता है ( ५, ३०)। १. महा० शान्ति, ६३, २५-२६ । सर्वे घर्मा राजधर्मप्रघाताः, सबै वर्गाः पास्यमाना भवन्ति । सर्वस्त्यागी राजधर्मघु राजस्थ्यागं धर्म पारध्य पुराणम् ॥ मज्जेत् त्रयी दण्डनीतौ हतायां सर्वे धमः प्रक्षयेयुर्वियुद्धाः । सबै धर्मापचाश्रमाण इताः स्युः क्षात्र व्यक्ते राजधर्म पुराणे । 'शर्षे त्यागा राजधर्मेघु दृष्टाः सी दीक्षा राजधर्मेषु चोक्ताः । सर्वा विद्या राजधर्मघु युक्ताः सर्वे होका राजधः प्रविष्टाः ॥ २. कौ० अर्थ ०१.२ दण्डनीक्षिरेका विद्यमोशनसाः । नीतिवाक्यामृत में राजनीति
SR No.090306
Book TitleNitivakyamrut me Rajniti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorM L Sharma
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year
Total Pages255
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size5 MB
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