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________________ भिन्न कर देना ये कार्य अश्वसेना द्वारा ही सिद्ध होते है, रथादि से नहीं ( २२, ८)। आचार्य शुक्र ने भी अश्वसेना की मुझकण्ठ से प्रशंसा की है । उन का कथन है कि राजा लोग अश्वसेना द्वारा देखने वालों के समक्ष शत्रुओं पर आक्रमण करने, प्रस्थान कर दूरवर्ती शत्रुओं को मार डालते है। नीतिवाक्यामृत में अश्वों को जातियों पर भी प्रकाश डाला गया है तथा जात्य जाति के अश्व को प्रधानता दी गयी है। इस की प्रशंसा करते हुए सोमदेव लिखते हैं कि जो विजिगीषु जात्य अश्व पर बारूद होकर शत्र पर आक्रमण करता है तो उस को विजय निश्चित होती है तथा शत्रु विजिगोषु पर प्रहार नहीं कर सकता ( २२, ९)। अश्वों की जातियाँ--आचार्य कौटिल्य जात्य अश्व के ९ भेद अथवा उत्पत्ति स्थान बताये हैं जो इस प्रकार है-(१) ताजिका, (२) स्वस्थलाण, ( ३ ) संकरोखश, (४) गाज़िगाणा, (५) काण, (६) पुटाहारा, (७) गाह्मारा, (८) सायारा, (९) सिन्धुपारा । आचार्य कौटिल्य ने भी उत्तम, मध्यम एवं साधारण प्रकार के अश्वों का वर्णन किया है।' __ जिस काम को हस्तिसेना एवं रथसेना नहीं कर सकती थी उसे अश्वसेना करने में समर्थ थी । जब आधुनिक युग के आवागमन के साधनों का आविष्कार नहीं हुआ था तो अस प्राचीनकाल में एवं मध्यकाल में अश्व अपनी द्रुतगति एवं भारवहन की क्षमता के कारण आवागमन का एक प्रमुख साधन माना जाता था । मौर्यकाल तक अश्वों की महान् उपयोगिता मानी गयी। अव की पोट र मन न से दुसरे स्थान पर शांत्रता एवं सुविधा से पहुँच सकता था। अश्व को गाड़ियों और स्थादि वाहनों में भी प्रयुक्त किया जाता था। युद्ध में उस का विशेष उपयोग किया जाला था। पसुरंगिणी सेना का एक प्रमुख अंग अश्वारोही सेना होती थी और इस को सहायता से राजागण शत्रु से अपने राज्य की रक्षा करने में समर्थ होते थे एवं अन्य राज्यों पर विजयश्री प्राप्त करते थे। अश्व की इतनी महान् उपयोगिता के कारण ही अश्वपालन विभाग की स्थापना मौर्य सम्राटों में की थी। कौटिल्य के अर्थशास्त्र से प्रकट होता है कि अश्वपालन को विशेष महत्त्व दिया जाता था तथा अश्यों की खाद्य-सामग्री एवं उन को चिकित्सा की ओर विशेष ध्यान दिया जाता था। कौटिल्य ने अश्वपालन विभाग के प्रमुख अधिकारी को अश्वाध्यक्ष के नाम से सम्बोधित किया है। इतिहास इस बात का साक्षी है कि युद्ध में हाथियों की अपेक्षा अश्वसेना ने महान कार्य सम्पन्न किये है तथा राजपूतों की मुसलमानों के विरुद्ध पराजय के कारणों ९. शुभ माना . पृ० ११०। . प्रेक्षतानि शभूणां यत। यान्ति तुरंगमैः । धुपाला यैन निघ्नन्ति श... दुरेऽपि संस्थिता । २. कौ० अ०६, ३० । अश्याध्यक्ष पप्यागारिम...| नीसिवाक्यामृत में राजनीति
SR No.090306
Book TitleNitivakyamrut me Rajniti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorM L Sharma
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year
Total Pages255
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size5 MB
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