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________________ सभ्यों की योग्यता एवं नियुक्ति नीतिवाक्यामृत में सभा के सदस्यों ( सम्बों ) की योग्यता के सम्बन्ध में कुछ प्रकाश डाला गया है । सभा के सदस्य सूर्य के समान प्रकाश करने वाली प्रतिभा से युक्त होने चाहिए (२८, ३)। जिस प्रकार सूर्य अन्धकार को दूर कर के प्रकाश का संचार करता है, उसो प्रकार सभ्यों को निष्पक्ष भाव से अपराधी के दोषों पर विचार कर के उसे राजा के समक्ष प्रकाशित करना चाहिए । इस के अतिरिक्त सम्यों को धर्मज्ञ (कानुन का शाता), शास्त्रज्ञ , ध्यवहार का ज्ञाता तथा अपने उत्तरदायित्वों का पालन करने वाला होना चाहिए । आचार्य सोमदेव ने लिखा है कि जिन सम्यों ने स्मृति प्रतिपादित व्यवहार का न तो अध्ययन द्वारा ज्ञान हो प्राप्त किया है और न धर्मज्ञ ( कानून के ज्ञाता) पुरुषों के सत्संग से उन व्यवहारों का श्रवण ही किया है और जो राजा से ईया एवं वाद-विवाद करते हैं वे राजा के शत्रु हैं, सभ्य नहीं ( २८, ४)। आगे आचार्य यह भी लिखते है कि जिस राजा की सभा में लोभ और पक्षपात के कारण अयथार्थ महान लाते सभादः ()ोग, मिरवरा हो भारत (राजा) को तत्काल मान व अर्थ की हानि करेंगे (२८, ५) । अत: सम्यों को कानून का पूर्ण ज्ञाता, निष्पक्ष एवं निर्लोभ होना चाहिए। आचार्य का कथन है कि ऐसी सभा में विवाद को प्रस्तुत नहीं करना चाहिए जो स्वयं सभापति प्रतिबादी हो। सभ्य और सभापति के असामंजस्य से विजय नहीं हो सकती । जिस प्रकार बलिष्ठ कुत्ता भी अनेक बकरों द्वारा परास्त कर दिया जाता है उसी प्रकार प्रभावशाली वादी विरोधी राजादि द्वारा परास्त कर दिया जाता है (२८, ६)। न्यायकार्य अत्यन्त उत्तरदायित्वपूर्ण होता है। अतः राजा इस कार्य को तथा अन्य प्रजा कार्यों को स्वयं ही देखें, उन्हें किसी मन्त्री अथवा अमात्य पर न छोड़े। प्रकार्य स्वमेघ पश्येत् । -नोतिवा० १७, ३६ इस के अतिरिक्त आचार्य का यह भी कथन है कि राजा को अपनी प्रजा के साथ निष्पक्ष रूप से तथा समदृष्टि से व्यवहार करना चाहिए । उस के गुण-दोषों का निर्णय तुला को भांति तौलकर ही करना चाहिए (२८, १)। अपराध को परीक्षा किये बिना दण्ड देने का निषेध न्यायालय द्वारा उचित परीक्षा के बिना किसी भी व्यक्ति को दण्ड नहीं देना चाहिए । न्याय के हित में यह आवश्यक है कि पहले अभियुक्त को अपराध सिद्ध हो, लम्ब से दण्डित किया जाये। अपने क्रोध को शान्त करने अपना बदला लेने की भावना मे किसी भी व्यक्ति को दण्ड देना राजा के लिए सर्वथा अनुचित है (९, ४)। न्याय व्यवस्था १५५
SR No.090306
Book TitleNitivakyamrut me Rajniti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorM L Sharma
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year
Total Pages255
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size5 MB
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