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________________ होता अपितु वह पृथ्वी की रक्षा में संलग्न रहने तथा अपने कर्तव्यों के पालन करने के लिए ही होता है। प्राचीन आचार्यों ने राजा को पितृवत्' शासन करने का आदेश दिया है। याज्ञवल्क्य का कथन है कि राजा को अपनी प्रजा तथा सेवकों के साथ पिता के समान आचरण करना चाहिए। रामायण में भी ऐसा वर्णन माता है कि राम ने अपनी प्रजा के साथ पितृपत् व्यवहार किया। सम्राट अशोक ने राजा के पितृत्व के आदर्श को चर्मोत्कर्ष पर पहुंचा दिया। द्वितीय कलिंग लेख से विधित होता है कि उस ने अपने शासन में पितृस्व के सिद्धान्त को किस सीमा तक व्यवहृत किया। वह कहता है कि सारे मनुष्य मेरी सन्तान हैं । जिस प्रकार में अपनी सन्तति को चाहता हूँ कि वह सब प्रकार को समृद्धि और सुख इस लोक और परलोक में भोगे ठीक उसी प्रकार में अपनी प्रजा के सुख एवं समृद्धि को भी कामना करता है। प्त पितवमलनाभित्र केवल राजा तक ही सीमित नहीं था, अपितु अशोक ने अपने राजकर्मचारियों को भी यह आदेश दे रखा था कि वे प्रजा की भलाई का पूर्ण ध्यान रखें और उस से पुत्रवत् ही व्यवहार करें। चतुर्थ स्तम्भ लेख में वह कहता है, जिस प्रकार कोई मनुष्य अपने पुत्र को एक कुशल पाय के हाथ में सौंपकर निश्चिन्त हो जाता है और सोचता है कि यह घाम मेरे पुत्र को सुख पहुंचाने की भरसक घेष्टा करेगी, उसी प्रकार लोगों के हिल तथा उन्हें सुख पहुँचाने के लिए मैं ने रज्जुफ नाम के कर्मचारी नियुक्त किये है।" इस प्रकार अपने उत्तरदायित्वों को समझने वाला राजा वास्तविक रूप में वर्तमान प्रजातन्त्र के उत्तरदायी भवनों एवं राजकर्मचारियों से कहीं अधिक उत्तरदायी है और प्रजा का वास्तविक प्रतिनिधि है । वास्तव में राजा और प्रजा वैधानिक एकता के आवश्यक अंग है । आचार्य स्रोमदेवसुरि द्वारा राज्य की परिभाषा में भी प्रजा. पालन का आदर्श निहित है। वे कहते हैं कि राजा का पृथ्वीपालनोचित फर्म राज्य है ( ५, ४) । इसी प्रकार वे राज्य का अन्तिम लक्ष्य भी प्रजा को धर्म, अर्थ और काम की प्राप्ति बतलाते हैं (पृ०७)। इस प्रकार सोमदेव प्रजा को सर्वतोमुखी उन्नति करना राज्य का उद्देश्य बतलाते है 1 राजा को प्रजा के सम्मुख उच्च आदर्श उपस्थित करना चाहिए, जिस से प्रजा का नैतिक उत्थान हो सके। राजा के विकृत एवं अपार्मिक हो जाने पर प्रजा भी विकारग्रस्त तथा अधार्मिक हो जाती है। १७, २८-२९ । आचार्य सोमदेव का आदेश है कि राजा को सर्वदा मर्यादा का पालन करना चाहिए १. मार्कण्डेय० १३०. ३३-३८ । राशः दारीरहण न भोगाय महीपतेः । क्लेशाय महते पृथ्वीवधर्म परिपालने ॥ २.याइ०१, ३६४ ३.रामायण- २, ३६ राजा
SR No.090306
Book TitleNitivakyamrut me Rajniti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorM L Sharma
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year
Total Pages255
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size5 MB
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