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________________ (१,१.२)धर्म को प्राप्ति के साधनों पर भी ग्रन्थकार ने प्रकाश डाला है । अपने समान दूसरे में भी कुशल वृत्ति का चिन्तन करना, शक्ति के अनुसार त्याग व तप करना धर्म की प्राप्ति के साधन है ( १, ३)। सम्पूर्ण प्राणियों में सम माचरण करना सर्वश्रेष्ठ आचरण है । जो व्यक्ति प्राणियों से ट्राह करता है उन की कोई भी शुभ-क्रिया कल्याण कारक नहीं हो सकती । जो व्यक्ति हिंसारहित मन वाले हैं उन का प्रतरहित भी चित्त स्वर्ग प्राप्ति के लिए समर्थ है ( १, ४-६ )। दान और तप के महत्त्व पर भी ग्रन्य में प्रकाश डाला गया है । आचार्य की दृष्टि में प्राणिमात्र की सेवा करना तथा सब से म करना ही महान् धर्म है। जो व्यक्ति प्राणियों से द्रोह करते हैं वे चाहे जितने ही शुभ कर्म करें, किन्तु उन का फल उन्हें प्राप्त नहीं हो सकता । उन की समस्त शुभ क्रियाएँ भी अग्नि में डाले गये घृत के समान व्यर्थ हो होंगी। जन आचार्य होने के कारण उन्होंने अपने मतानुयायियों के अनुरूप ही अहिंसा को परम धर्म बताया है और एस के पालन करने वाले व्यक्ति के लिए किसी भी प्रकार के व्रत की आवश्यय ता नहीं बतायी है । अहिसा को स्वर्ग-प्रामि का साधन बताया है। धर्म के उपरान्त अर्थ पुरुषार्थ को ब्याख्या करते हुए आचार्य सोमदेव ने लिखा है कि जिस से सब प्रयोजनों की सिद्धि हो वह अर्थ है ( २,१) । जो मनुष्य सदैव अर्थशास्त्र के सिद्धान्त के अनुसार अर्थानुबन्ध ( व्यापारिक साधनों से अविद्यमान धन का संचय, संचित की रक्षा और रक्षित को वृद्धि करना) से धन का उपभोग करता है वह उस का पात्र धनाढ्य हो जाता है ( २, २) । नैतिक व्यक्ति को अप्राप्त पन की प्राप्ति, प्राप्त की रक्षा और रक्षित की वृद्धि करने में प्रयत्नशील रहना चाहिए, क्योंकि ऐसा करने वाला व्यक्ति ही भविष्य में सुखी रहता है। धन के सदुपयोग पर नीतिकार ने बहुत बल दिया है । वे लिखते हैं कि जो लोभी पुरुष अपने धन से नीयों ( सत्पात्रों) का आदर नहीं करता, उन को दान नहीं देता उस का धन शहद की मक्खियों के छत्ते के समान अन्य व्यक्ति ही नष्ट कर देते हैं ( २, ४ ) । मनुष्य को अपने सुखों का बलिधान कर के धन संग्रह नहीं करना चाहिए। यह बात नीति के विरुद्ध है । अनेक कष्ट सहन कर धनोपार्जन करना दूसरों का बांझा ढोने के समान है ( ३,५) । धन को वास्तविक सार्थकता तभी है जब उस से मन और इन्द्रियों को पूर्ण तृप्ति हो ( ३, ६)। मानव जीवन के तृतीय पुरुषार्थ काम की भी व्याख्या अन्धकार ने की है। जिस से समस्त इन्द्रियों में बाधारहित प्रोति उत्पन्न होतो है उसे काम कहते है (२,१)। नैतिक व्यक्ति को धर्म, अर्थ और काम इन तीनों पुरुषार्थों का समरूप से सेवन करना चाहिए। यदि इन तीनों पुरुषार्थों में से एक का भी प्रति सेयन किया गया तो इस से स्वयं को पीड़ा होगी तथा वह दूसरों के लिए भी कष्टदायक होगा (३, ४) आचार्य ने इन्द्रिय निग्रह पर विशेष बल दिया है, क्योंकि अजितेन्द्रिय को किसी भी कार्य में सफलता नहीं मिल सकती ( ३,७ ) 1 मानव को इन्द्रियों पर विजय प्राप्त करने के लिए नीतिशास्त्र का अध्ययन करना चाहिए ( ३,९)। नैतिक सोमवसूरि और उन का नीतिवाक्यामृत
SR No.090306
Book TitleNitivakyamrut me Rajniti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorM L Sharma
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year
Total Pages255
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size5 MB
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