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स्पष्ट एवं सर्वविदित है । मण्डल का मुख्य उद्देश्य यही है कि विजिगीषु उन मित्र या शत्रु राज्यों के बीच जिन से कि वह परिवेष्टित है, शक्तिसन्तुलन बनाये रखे । उसे अपनी नीति तथा साधनों में इस प्रकार व्यवस्था करनो चाहिए जिस से उदासीन तथा शत्रु राजा उस को हानि न पहुँचा सके और न उस से अधिक शक्तिशाली हो सके ।
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तोन शक्तियों का सिद्धान्त
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राजा को अपर नियंत्रण रखने के लिए देश की स्वतन्त्रता को सुरक्षित रखने के लिए तथा अपने राज्य के प्रसार के लिए तीन शक्तियों से युक्त होना आवश्यक है। ये शक्तियाँ हैं उत्साहशक्ति, प्रभुशक्ति एवं मन्त्रशक्ति | कौटिल्य के अर्थशास्त्र में भी इन तीन शक्तियों का उल्लेख मिलता है । 3 कामन्दक ने भी इन शक्तियों का वर्णन नीतिसार में किया है। नीतिवाषयाभूत में भी यह वर्णन मिलता है कि विजिगीषु मन्त्रशक्ति, प्रभुशक्ति एवं उत्साहशक्ति से सम्पन्न होकर शत्रु पर विजय प्राप्त कर सकता है, इन के अभाव में नहीं सोमदेव ने इन शक्तियों की व्याख्या भी की है। जिस विजिगीषु के पास विशाल कोश एवं चतुरंगिणी सेना है वह उस की प्रभुशक्ति है ( २९, ३८ ) । विजिगीषु के पराक्रम तथा रण-कौशल को उत्साह शक्ति कहते हैं (२९, ४० ) । उस के ज्ञान बल को मन्त्रशक्ति कहते हैं ( २९, ३६ ) | कोटिल्य ने भी इन शक्तियों की व्याख्या इसी प्रकार की है। उनका कथन है किउत्साहशक्ति से प्रभुशक्ति श्रेष्ठ है, और प्रभुशक्ति से मन्त्रशक्ति । आचार्य सोमदेव का भी यही विचार है । सोमदेव का कथन है कि जो राजा शत्रु की अपेक्षा उक्त तीन प्रकार की शक्तियों से युक्त होता है उस की विजय होती है और जो इन शक्तियों से शून्य है, जघन्य है (२९, ४१) ।
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चार उपाय
उपर्युक्त शक्तियों से सुसज्जित राजा को सर्वप्रथम युद्ध का आश्रय नहीं लेना चाहिए, जैसा कि अन्यत्र कहा जा चुका है । उद्देश्य की प्राप्ति के लिए युद्ध तो अन्तिम साधन बताया गया है। राजशास्त्र प्रणेताओं ने इस सम्बन्ध में अन्य वर्णन किया है, जिन का प्रयोग युद्ध से पहले अवश्य करना चाहिए। भी चार उपायों का वर्णन मिलता है (२९, ७० ) |
तीन उपायों का
नीतिवाक्यामृत मे
१. कामन्दक-ए, २०-४१ ।
२. वही, १९, ३२ ।
२. कौ० ख ०६, २ ।
४. कामन्दक – १५, ३२
५. कौ० अ० ६ २ ६. वहीं, ६, २ ।
अन्तर्राष्ट्रीय सम्बन्ध २१
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