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________________ करने के उपरान्त वे इस निष्कर्ष पर पहुँचे कि असुर इसलिए विजयो हो रहे हैं कि उनके पास नेतृत्व करने के लिए एक राजा है । अतः उन्होंने भी सर्व सम्मति से राजा को नियुक्त करने का निश्चय किया। इस प्रकार ऐतरेय ब्राह्मण के वर्णन से स्पष्ट है कि देवों के पास पहले कोई राजा नहीं था । उन के शत्रु बनायों के पास राजा था जो युद्ध में उन का नेतृत्व करता था । अतः आर्यों ने मो अपने में से एक व्यक्ति को राजा निर्वाचित करने का संकल्प किया जो युद्ध में उन का नेतृत्व कर सके। इस से यह भी परिलक्षित होता है कि आर्यों ने अपने प्रथम राजा का निर्वाचन किया था । २. सामाजिक अनुबन्ध का सिद्धान्त-- राजा की उत्पत्ति का दूसरा सिद्धान्त सामाजिक अनुबन्ध का सिद्धान्त है। इस सिद्धान्त के अनुसार समाज की सहमति अथवा अनुबन्ध से राजा की उत्पत्ति हुई। यह सिद्धान्त हमें महाभारत बौद्धग्रन्थों तथा कौटिल्य के अर्थशास्त्र में मिलता है । दोघनिकाय में विश्व की उत्पत्ति का वर्णन किया गया है। इसलिए उस में राजा की उत्पत्ति का भी वर्णन मिलता है । उस में कहा गया है कि "पूर्वकाल में स्वर्णयुग था । उस में दिव्य और प्रकाशवान् शरीर वाले मनुष्य धर्म से आनन्द पूर्वक रहते थे। वे पूर्णतया विशुद्ध एवं निर्दोष थे। परन्तु यह आदर्श दशा बहुत समय तक न रह सको क्रमशः उस अवस्था का अधःपतन हुआ। इस के परिणाम स्वरूप मध्यवस्था तथा अराजकता का प्रसार हुआ। इस अराजकता से मुक्ति पाने के लिए लोग एकत्रित हुए और उन्होंने एक ऐसे योग्य वार्मिक व्यक्ति को निर्वाचित किया जो समाज में व्याप्त अशान्ति और अव्यवस्था को दूर कर सके तथा दुष्ट व्यक्तियों को दण्ड दे सके । इस दिव्य पुरुष का नाम महाजनसम्मत था । यही सब का स्वामी, क्षत्रिय तथा धर्मानुसार प्रजा का रंजन करने वाला राजा कहलाया । इस की सेवाओं के उपलक्ष में मनुष्यों ने उसे अपने घन का एक अंश देना स्वीकार किया। इस प्रकार समाज के व्यक्तियों द्वारा किये गये अनुबन्ध के परिणाम स्वरूप राजा की उत्पत्ति हुई। घन के अंश के बदले में जनता द्वारा निर्वाचित राजा ने प्रजा को रक्षा करने तथा अव्यवस्था को दूर करने का उत्तरदायित्व वहन किया ।" महाभारत में सामाजिक अनुबन्ध के सिद्धान्त का उल्लेख शान्तिपर्व के ६७ वें अध्याय में प्राप्त होता है। उस में लिखा है कि "राजा की उत्पत्ति से पहले समाज में मारस्यन्याय था । जिस प्रकार जल में बड़ी मछलियाँ छोटी मछलियों का भक्षण कर जाती है उसी प्रकार समाज में बलवान् निर्बलों को नष्ट कर देते हैं। लोग एक-दूसरे के प्राणों के ग्राहक थे। जिस की लाठी उसकी भैंस वाला सिद्धान्त प्रचलित था । उस समय मनुष्य का जीवन नारकीय, अल्प तथा यातनामम था। इस असमय अवस्था से छुटकारा पाने के लिए वे ब्रह्मा के पास गये और उन से प्रार्थना की कि वह किसी व्यक्ति १. दीघनिकाय-भाग ३,०८४६६ राजा ५७
SR No.090306
Book TitleNitivakyamrut me Rajniti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorM L Sharma
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year
Total Pages255
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size5 MB
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