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________________ भरतश्रेष्ठ इस का क्या कारण है, यह मैं यथार्य रूप से सुनना चाहता हूँ। वक्ताओं में श्रेष्ठ पितामह यह सारा रहस्प मुझे यथावत् रूप से बताए । प्रजानाथ, यह सारा जगत् जो एक ही व्यक्ति को देवता के समान मानकर उस के सामने नतमस्तक हो जाता है, इस का कोई स्वल्प कारण नहीं हो सकता। युधिष्ठिर के प्रश्न का उत्तर देते हुए भीष्म कहते है कि पुरुषसिंह आदि सत्ययुग में जिस प्रकार राजा और राज्य की उत्पत्ति हुई वह सारा वृत्तान्त तुम एकास होकर सुनो। "पहले न कोई राजा था न राज्य, न एण्ड पा और न दण्ड देने वाला, समस्त प्रजा धर्म के द्वारा ही एक दूसरे की रक्षा करती थी। सब मनुष्य धर्म के द्वारा परस्पर पालित और पोषित होते थे। कुछ समय के उपरान्त सब लोग पारस्परिक संरक्षण के कार्य में महान् कष्ट का अनुभव करने लगे, फिर उन सब पर मोह छा गया। जब सारे मनुष्य मोह के वशीभूत हो गये तब कर्तव्याकर्तव्य के शान से शून्य होने के कारण उन के धर्म का विनाश हो गया । कर्तव्याकर्तव्य का ज्ञान नष्ट हो जाने पर मोह के मशी. भूत हए सब मनुष्य लोभ के अधीन हो गये। फिर जो वस्तु उन्हें प्राप्त नहीं थी, उसे प्राप्त करने का चे प्रयत्न करने लगे। इतने में ही उन्हें काम नामक अन्य घोष ने घेर लिया। काम के अधीन हुए उन मनुष्यों पर राग नामक शनु ने आक्रमण किया। राग के वशीभूत होकर में कर्तव्याकर्तध्य की बात भी भूल गये। उन्होंने अगम्यागमन, वाच्य-अवाच्य, भक्ष्य-अभक्ष्य तथा दोष-अदोष कुछ भी नहीं छोड़ा। इस प्रकार मनुष्यलोक में धर्म का विनाश हो जाने पर घेदों के स्वाध्याय का भी लोप हो गया। वैदिकज्ञान का लोप होने से यज्ञ आदि कर्मों का भी विनाश हो गया । इस प्रकार जब वेद और धर्म का विनाश होने लगा तब देवताओं के मन में भय उत्पन्न हुआ । वे भयभीत होकर ब्रह्माजी की शरण में गये । लोकपितामह भगवान् ब्रह्मा को प्रसन्न कर के दुःख के बैग से पीड़ित हुए सम्पूर्ण देवता उन से हाथ जोड़कर बोले । भगवन् ! मनुष्यलोक में लोभ, मोह आदि दूषित भावों ने सनातन वैदिकजाम को विलुप्त कर डाला है, इस कारण हमें बड़ा भय हो रहा है। ईश्वर तोनों लोकों के स्वामी परमेश्वर वैदिक ज्ञान का लोप होने से यज्ञ-धर्म नष्ट हो गया है। इस से इम सब देवता मनुष्यों के समान हो गये हैं। मनुष्य यज्ञ आदि में घी की माहति देकर हमारे लिए ऊपर की ओर वर्षा करते थे और हम उन के लिए नीचे की ओर जल-वर्षा करते थे, परन्तु अब उन के यज्ञकर्म का लोप हो जाने से हमारा जीवन सन्देह में पड़ गया है । पितामह अब जिस उपाय से हमारा कल्याण हो सके, वह सोचिए । आपके प्रभाव से हमें जो क्षेत्र स्वभाव प्राप्त हुआ था वह नष्ट हो रहा है। देवताओं को इस १. महा० शान्तिः ५६. ५-१३ । २. वही, १६, ११ । न वै राज्य ग राजसीन च ही न पाकिः । धमणव प्रजाः सर्वा रक्षन्ति स्म परस्परम् । राजा
SR No.090306
Book TitleNitivakyamrut me Rajniti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorM L Sharma
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year
Total Pages255
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size5 MB
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