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________________ सोमदेव द्वारा वर्णित गुणों से विभूषित जनपद ही प्रगति कर सकता है और वहीं पर जनता को समस्त सुखों की उपलब्धि हो सकती है । I आचार्य कौटिल्य ने भी उत्तम जनपद के गुणों का विशद विवेचन अर्थशास्त्र में किया है । वे लिखते हैं कि जनपद के मध्य में अथवा किनारे पर दुर्ग हो और स्वदेशवासियों तथा विदेश से आये हुए लोगों के खान-पान के लिए जहाँ अन्नादि का भरपूर भण्डार हो । जनपद ऐसे स्थान पर होना चाहिए जहाँ कोई विपत्ति आने पर पर्वत, वन या दुर्ग में जाकर बजा जा सके। जहाँ थोड़े हो परिश्रम से अन्न आदि उत्पन्न होने के कारण जोविका सुलभ हो । जहाँ अपने राजा के शत्रुओं के द्वेष को बचाने के लिए योग्य पुरुष रहते हों। जहाँ सामन्तों का दमन करने के साधन उपलब्ध हो जहाँ पंक ( दलदल ), पाषाण, ऊसर, विषम स्थान, घोर आदि कष्टक, राजा के विरोधियों का समुदाय, व्याघ्र आदि हिंसक जन्तु एवं वन्यप्रवेश न हों। जहाँ नदी, तड़ाग आदि के कारण भरपूर सौन्दर्य हो, जहाँ गाय, भैंस आदि पशुओं के चरने की सुविधा हो । जो मानव जाति के लिए हितकर स्थान हो । जहाँ चोर डाकुओं को अपना काम करते की सुविधा न हो । जहाँ गाय-भैंसों आदि को अधिकता हो । जहाँ अन्नोत्पादन के लिए केवल वर्षां का सहारा न होकर नदी, बाँध आदि का प्रबन्ध हो । जहाँ जल-पथ और स्थल-यथ दोनों की सुविधा हो । जहाँ बहुत प्रकार के मूल्यवान् और विविध व्यापारिक सामान मिलते ही स्थान (म) तपः राजकर क सकता हो । जहाँ के कृषक कर्मठ हों, जहाँ के स्वामी मूर्ख न हों । जहाँ निम्न वर्ग के लोग अधिक संख्या में निवास करते हों । कौटिल्य ने जनपद के इन गुणों को जनपद सम्पदा के नाम से सम्बोधित किया है । देश के दोष आचार्य सोमदेव ने जनपद के गुणों के साथ हो देश के दोषों का भी वर्णन किया है । उनके अनुसार देश के दोष इस प्रकार हैं- जिस के घास-जल रोगजनक होने से विष के समान हानिकारक हों, जहाँ की भूमि कसर हो, जहाँ की भूमि विशेष पथरीली, अधिक कंटकाकीर्ण तथा बहुत पर्वत, गर्ल एवं गुफाओं से युक्त हों. जहाँ पर अधिक जलवृष्टि पर जनता का जीवन आधारित हो, जहाँ पर बहुलता से सर्प, मील और म्लेच्छों का निवास हो, जिस में थोड़ी सी धान्य उत्पन्न होती हो, जहाँ के लोग धान्य की उपज कम होने के कारण वृक्षों के फल खा कर अपना जीवन निर्वाह करते हों (१९, ९) । जिस देश में मेघों के जल द्वारा धान्य उत्पन्न होता है और कृषि कर्षण-क्रिया के बिना होती है अर्थात् जहाँ कछवारी को पथरीली भूमि में बिना हल ये ही बीज बिखेर दिये जाते हैं वहाँ सर्वत्र अकाल रहता है क्योंकि मेघों द्वारा जलवृष्टि का यथासमय व उचित परिमाण में होना अनिश्चित हो रहता है (१९, १७) । ९. कौ० अर्थ० ६.१ । राष्ट्र ફર્મ
SR No.090306
Book TitleNitivakyamrut me Rajniti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorM L Sharma
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year
Total Pages255
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size5 MB
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