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________________ २. उपजाप - विविध उपायों द्वारा शत्रु के अमात्य आदि अधिकारियों में भेद डालकर उन्हें शत्रु के प्रतिद्वन्द्वी बनाना ! ३. चिनिबन्ध - शत्रु के दुर्ग पर सैनिकों को चिरकाल तक घेरा डालना । ४. अवस्कन्द-प्रचुर सम्पत्ति और मान देकर वश में करना । ५. तीक्ष्णपुरुषप्रयोग - घातक गुप्तचरों को शत्रु राजा के पास भेजना ! उपर्युक्त पाँच उपाय आचार्य सोमदेवसूरि ने शत्रदुर्ग पर अधिकार करने में सहायक बतलायै हैं ( २०, ६) । शुक्र ने भी कहा है कि विजिगीषु शत्रुदुर्ग को केवल युद्ध द्वारा हो नष्ट नहीं कर सकता । अतः उसे शत्रु के अधिकारियों में भेद और उपायों का प्रयोग करना चाहिए। आचार्य सोमदेव ने दुर्गप्रवेश के सम्बन्ध में भी उपयोगो विचार व्यक्त किये है। उनका कथन है कि राजा ( विजिगीषु ) ऐसे व्यक्ति को अपने दुर्ग में कभी प्रविष्ट न होने दे जिस के हाथ में राजमुद्रा नहीं दी गयी है तथा जिस को पूर्णरूपेण परीक्षा न कर ली गयी हो । किसी ऐसे व्यक्ति को दुर्ग से बाहर जाने की भी आज्ञा नहीं देनी चाहिए ( २०, ७) । इस विषय में उन्होंने कुछ ऐतिहासिक प्रमाण प्रस्तुत किये हैं । उनका कथन है कि इतिहास के अध्ययन से ज्ञात होता है कि हूण देश के नरेश ने अपने सैनिकों को विक्रय योग्य वस्तुओं का धारण करने वाले व्यापारियों के वेश में दुर्ग में प्रविष्ट कराया और उन के द्वारा दुर्ग के स्वामी को मरवा कर चित्रकूट देश पर अपनो अधिकार कर लिया। आगे आचार्य लिखते हैं कि किसी शत्रु राजा ने कांचो नरेश की सेवा के बहाने से भेजे हुए शिकार खेलने में प्रवीण खड्गधारण में अभ्यस्त सैनिकों को उसके देश में भेजा जिन्होंने दुर्ग में प्रविष्ट होकर भद्र नाम के राजा को मारकर अपने स्वामी को कांची देश का अधिपति बना दिया (२०, ८-९ ) । उपर्युक्त समस्त वर्णन से स्पष्ट होता है कि प्राचीन काल में दुर्ग का बहुत महत्वपूर्ण स्थान था । इस के महत्त्व के कारण हो राजनीतिज्ञों ने दुर्ग की इतनी महिमा बतायी है । जिस प्रकार मनुष्य पर आक्रमण होने पर सर्वप्रथम उस के हाथ हो आक्रमण को रोकते हैं उसी प्रकार शत्रु के आक्रमण का सामना सर्वप्रथम दुर्ग ही करता है । प्रागैतिहासिक काल से ही भारत में दुर्गं रचना का विधान रहा है । ऋग्वेद में आयसिपुर: ऐसा वर्णन आता है, जिस का अभिप्राय लोहनिर्मित पुर से है जिसे दुर्गगत् हो समझना चाहिए । इन्द्रप्रस्थ में पाण्डवों का दुर्ग आज भी उस काल की . दुर्गों का बहुत महत्व था । इसी दुर्गों का उल्लेख अर्थशास्त्र में दुर्गप्रियता का परिचय दे रहा है। कारण कौटिल्य ने दुर्ग-रचना एवं किया है । मौर्यकाल में भी विविध प्रकार के १, शुक्र नीतिना० पृ० २०० प्रशार कथंचन । मुक्ता वा पायांश्व तत्मात्तान् विनियोजयेत् । दुर्ग ३३५
SR No.090306
Book TitleNitivakyamrut me Rajniti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorM L Sharma
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year
Total Pages255
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size5 MB
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