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________________ सिद्धान्त भारतीय राजनीतिज्ञों को विदित था। सप्तांग राज्य का सिद्धान्त लश्ली तथा अन्य पाश्चात्त्य विद्वानों द्वारा दी गयो राज्य की परिभाषा को सन्तोषजनक पति करता है। इन सब बातों से यही सिद्ध होता है, कि भारतीय राजनीतिज्ञों के मस्तिष्क में राज्य के सावयव स्वरूप के सिद्धान्त का विचार बङ्गत प्राचीन काल में ही विद्यमान था। और वे राज्य को सजीव प्राणी के अनुरूप ही मानते थे। राज्य के कार्य आचार्य सोमदेवसूरि ने राज्य के कार्यों का भी विवेचन नीतिवाक्यामृत में किया है। आधुनिक विद्वान् राज्य के कार्यों का विभाजन दो भागों में करते है १. आवश्यक कार्य तथा २. ऐमिछक कार्य । आवश्यक कार्यों के अन्तर्गत वे कार्य आते है जिन का करना प्रत्येक राज्य के लिए आवश्यक होता है। यदि राज्य उन कार्यों को पति नहीं करता वो उस का अस्तिष हो नष्ट : नाता है। अन्य राज्यों के साथ सम्बन्ध स्थापित करना, प्रजा को बाह्य आक्रमणों तथा आन्तरिक राष्ट्र कण्टकों से रक्षा करना एवं देश में पूर्ण शान्ति तथा व्यवस्था बनाये रखना राज्य के आवश्यक कार्य है। इन कार्यों के करने के लिए उसे सुसंगठित सेना की स्थापना, पुलिस की व्यवस्था, राज्य कर्मचारियों की नियुक्ति तथा न्यायालयों की व्यवस्था करनी पड़ती है। इम समस्त कार्यों की पूर्ति के लिए राजा प्रजा से कर ग्रहण करता है। वैकल्पिक अथवा ऐच्छिक कार्यों में वे कार्य सम्मिलित है जिन का करना राज्य को इच्छा पर निर्भर है। इन कार्यों के अन्तर्गत शिक्षा की व्यवस्था, जनता के स्वास्थ्य की रक्षा, कृषि एवं व्यापार की उन्नति करना, यातायात के साधनों को विकसित करना तथा आर्थिक सुरक्षा आदि है। आचार्य सोमदेवसूरि ने राज्य के दोनों प्रकार के कार्यों का उल्लेख नोतिवाक्यामत में किया है। उन के अनुसार शिष्ट पुरुषों की रक्षा तथा दुष्टों का निग्रह राज्य का प्रमुख कर्तव्य है ( ५.२)। बाह्य आक्रमणों से प्रजा को रक्षा करना भी राज्य का कार्य है । आचार्य लिखते हैं कि जो राजा शत्रुओं में पराक्रम नहीं करता वह निन्ध है (६,३१)। न्याय को उचित व्यवस्था करना तथा अपराष के अनुकूल भगराधियों को दण्ड देना भी राज्य का कार्य है। आचार्य सोमदेव के अनुसार दण्ड के अभाव में माल्यन्याय का सृजन हो जाता है ( ९, ७)। उन का कथन है कि दुष्टों को दण्ड देने से महान् धर्म को प्राप्ति होती है। क्योंकि दण्ई के भय से प्रशा अपनी-अपनी मर्यादाओं का पालन करती है ( ५, ५९)। एक स्थान पर आचार्य सोमदेव लिखते हैं कि राजा का पृथ्वी की रक्षा के योग्य कर्म राज्य है । ५,४)। इस का अभि गय यही है कि राज्य सुरक्षा तथा शान्ति को स्थापना के लिए उचित प्रबन्ध करे, अर्थात् वह सुयोग्य राजकर्मचारियों की नियुक्ति, सुसंगठित सेना की स्थापना एवं कोष की व्यवस्था करे । इन्हीं साधनों से राजा पृथ्वी का पालन कर सकता है। राज्य
SR No.090306
Book TitleNitivakyamrut me Rajniti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorM L Sharma
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year
Total Pages255
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size5 MB
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