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________________ उस में दोषी के कारण क्या हानि होती है, इस विषय पर बहुत सुन्दर ढंग से प्रकामा डाला गया है जो कि नीतिशास्त्र के अध्येताओं एवं शासक वर्ग के लिए परम उपयोगी है । यदि शासक इन गुणों को अपने चरित्र में आत्मसात् करेंगे और दोषों का परिहार करेंगे तो इस से राष्ट्र का परम कल्याण होगा । साधारण व्यक्तियों के लिए भी इन गुणों का ग्रहण करना तथा दोषों का निवारण बहुत आवश्यक है। वे भो इस उपदेशात्मक वर्णन से जीवन को सफल बना सकते हैं। यद्यपि प्राचीन आवायों ने राजा में देवत्व का आरोप कर के उस को देवताओं के अंश से निर्मित बताया है, किन्तु फिर भी उस के लिए सपर्युक्त योग्यताओं का भी विधान है । राषा इन्हीं गुणों अथवा योग्यताओं के द्वारा विभिन्न देवों के समान कार्य करने में समर्थ हो सकता है। राजा के देवत्व का इन योग्यताओं से यहुत अनिष्ट सम्बन्ध प्रतीत होता है और ये एक-दूसरे के पूरक कहे जा सकते हैं। ज्यायी राजा का अनुकरण समस्त लोकपाल करते हैं। इसी कारण आचार्यों ने राजा को मध्यम लोकपाल —होने पर भी उत्तम लोकपाल-स्वर्गलोक का रक्षक कहा है (१७, ४७) । इस प्रकार का वर्णन नीतिवाक्यामृत में प्राप्त होता है । इस से स्पष्ट है कि राजा अपने विशिष्ट गुणों के कारण हो देवत्व प्राप्त करता था । राजा के कर्तव्य ___राजा का जन्म समाज में अराजकता को दूर करने के लिए इशा था। राजा अपने राजस्व के कारण ही समाज में शान्ति स्थापित करने के लिए उत्तरदायी था। घेदों में राजा को राष्ट्रों का सौन्दर्य और राष्ट्र की शोभा बताया गया है । राजा के महत्व और उम्र के विशिष्ट कर्तव्यों के कारण ही उस के लिए इतना उच्च पद प्रदान किया गया था। अराजकता को नष्ट करने, प्रजापालन, देश में शान्ति और व्यवस्था स्थापित करने के लिए ही रामा को आवश्यकता प्रवीश हुई। यही राणा के कर्तव्य है। राजा धर्म के लिए होता है न कि अपनो कामनाओं की पूर्ति के लिए। महाभारत के शान्ति. पर्व में इन्द्र मान्धाता से कहते है कि राजा धर्म का रक्षक होता है। जो राजा धर्मपूर्वक राज्य करता है वह देवता माना जाता है और जो राजा मधर्मावारी होता है वह मरकगामी होता है। जिस में धर्म रहता है उसी को राजा कहते है। ___ आचार्य सोमदेव सूरि ने नीतिवाश्यामृत के विभिन्न समुद्देशों में राजा के कर्तव्यों को और संकेत किया है जिन का वर्णन हम निम्नलिखित उपशीर्षकों द्वारा कर सकते है १. प्रजा की रक्षा एवं पालन-पोषण - बाह्य शत्रुओं एवं आन्तरिक राष्ट्रकण्टकों से प्रजा की रक्षा करना राजा का सर्व प्रमुख कर्तव्य है 1 शत्रुओं से प्रत्रा की १. महान शान्तिक १७३। चार राजा भवति न कामकरणाच तुः मार्कण्डेय १३५, ३३-१४ । १ महा० शान्ति १०४.५ ।
SR No.090306
Book TitleNitivakyamrut me Rajniti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorM L Sharma
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year
Total Pages255
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size5 MB
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