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________________ रक्षा के सम्बन्ध में सोमदेव लिखते हैं कि जो पुरुष ( राजा ) शत्रुओं पर पराक्रम नहीं दिखाता वह जो चित ही मृतक के समान है। आचार्य अन्यत्र लिखते हैं कि जिस राजा का गुणगान शत्रुओं की सभा में विशेष रूप से नहीं किया जाता उस की उन्नति व बिजय कदापि नहीं हो सकती ( २६, ३६ )। राजा को प्रजा-कार्यों, प्रजा-पालन व तुष्ट निग्रह आदि का स्वयं ही निरीक्षण करना चाहिए । इन कार्यों को राजकर्मचारियों के ऊपर कभी नहीं छोड़ना चाहिए (१७, ३२)। प्रजा की रक्षा न करने वाले राजा को आचार्य सोमदेव ने निन्दनीय बताया है (७, २१) 1 प्रजा की रक्षा करना ही राजा का सब से महान् धर्म है, अन्य व्रतों को चर्या तो उस के लिए गौण है । प्रजापोड़क दुष्टों पर भी क्षमा धारण करने का विधान साध-पुरुषों के लिए ही है, राजा के लिए नहीं । राजा का धर्म ती दृशों का दमन करना हो है। जो राजा पापियों का निग्रह करता है उस से उसे उत्कृष्ट धर्म को प्राप्ति होती है। उन का वध करने अथवा उन्हें दण्डित करने से राजा को पाप नहीं लगता। राजा के द्वारा सुरक्षित प्रजा अपने अभिलषित पुरुषार्थों को प्राम करती है । इस के विपरीत अन्यायों का निग्रह न होने से उस राज्य की प्रजा सदैव दुःखी रहेगी और उस का उत्तरदायित्व राजा पर ही होगा। इसी कारण आचार्य लिखते हैं कि जो राजा दुष्टों का निग्रह नहीं करता उस का राज्य उसे नरक ले जाता है (६, ४४)। उसे सर्वदा प्रजा की रक्षा का चिन्तन करना चाहिए। इस विषय में सोमदेव लिखते हैं कि राजा को ध्यानावस्थित होकर इस मन्त्र का जाप करना चाहिए-"मैं इस पृथ्वी रूपी गाय की रक्षा करता हूँ जिस के चार समुद्र हो यन है, धर्म (शिष्ट पालन, दुष्ट निग्रह ) ही विस का बछड़ा है, उत्साह रूम पंछ वाले वर्णाश्रम ही जिस के तुर है। जो काम और अर्थ रूप यनों वाली है। वप व प्रताप हो जिस के सींग है एवं जो न्याय रूप.मुख से युक्त है। इस प्रकार की मेरी पृथ्वी कपी गाय का जो अपराध करेगा, उसे मैं मन से भी सहम नहीं करूंगा (२५, ९६) । सभी प्रकार के अन्यायों से प्रना की रक्षा करना राजा का परम कर्तव्य है । प्रजा-पीड़ा एवं अन्याय की वृद्धि से राज्य व कोष नष्ट हो जाता है (११, १७)। केवल प्रजा की रक्षा करना ही राजा का कर्तव्य नहीं, अपितु रक्षा के साथ हो साथ प्रजा का सर्वांगीण विकास करना भी उस का कर्तव्य है। राजा को प्रजा का पालन अपने कुटुम्ब के समान ही करना चाहिए। उसे पूज्यजनों का सम्मान भी करना चाहिए। २. सामाजिक व्यवस्था की स्थापना-समाज को समुचित व्यवस्था करना भी राजा का कर्तव्य है। जिस समाज के व्यक्ति अपने-अपने धर्म का पालन नहीं करते वह समाज नष्ट हो जाता है । अत: राजा को वर्णाश्रम धर्म की व्यवस्था करनी चाहिए। स्रोमदेवसूरि गयापि जैन आचार्य थे किन्तु फिर भी उन्होंने कौटिल्य द्वारा प्रतिपादित वैदिक वर्णाश्रम व्यवस्था को ही अपनाया है। वे लिखते हैं कि राजा को यमराज के समान कठोर होकर अपराधियों को दण्ड देते रहना चाहिए । इस से नीतिघाक्यामृत में राजनीति
SR No.090306
Book TitleNitivakyamrut me Rajniti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorM L Sharma
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year
Total Pages255
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size5 MB
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