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________________ आचार्य ने कोश वृद्धि के विविध उपायों का भी वर्णन किया है और श्रेष्ठ कोश के गुणों की भी व्याख्या की है ( कोश समु० ) । यद्यपि सोमदेव को को बहुत महत्त्व देते हैं, किन्तु उस की वृद्धि में न्यायोचित साधनों का ही प्रयोग करने का आदेश देते है । उन का स्पष्ट विचार है कि जो राजा अथवा वैद्य अर्थ के लोभ से प्रजावर्ग में दोष खोजता है यह कुत्सित है (९, ४) । अन्यत्र वे लिखते हैं कि अन्याय से त्रणशलाका का ग्रहण करना भी प्रजा को भेदित करता है (१६, २५) प्रजा की पीड़ा से कोश पीड़ित होता है, क्योंकि पीड़ित प्रजा राजा के देश का त्याग कर के अन्यत्र बस जाती हैं । इस के परिणामराजा को देश और स्वरूप राजकोश में अर्थ का प्रवेश नहीं होता (१९, १७) । अतः काल के अनुरूप ही प्रजा से कर ग्रहण करना चाहिए (२६. ४२ ) ने अर्धशुचिता पर विशेष बल दिया है । I । आचार्य सोमदेव सोमदेव ने राजनीति और लोकनीति का भी समन्वय किया है । वे समाज की उन्नति में ही राष्ट्र को उन्नति मानते हैं जो कि वास्तव में सत्य है । मानव जीवन को सफल एवं समुन्नत बनाने के लिए जिन बातों की अपेक्षा होती है वे सभी इस लघु ग्रन्थ में उपलब्ध होती हैं । यह ग्रन्थ केवल राजनीति की दृष्टि से ही उपयोगी नहीं है, अपितु लोक व्यवहार की दृष्टि से भी इस का विशेष महत्व है। इस राजनीति प्रधान अन्य में सोमदेव ने समाजव्यवस्था के अंगों पर भी प्रकाश डाला है। आचार्य कौटिल्य की भाँति से भी वर्णाश्रम व्यवस्था में पूर्ण आस्था रखते हैं, किन्तु इस क्षेत्र में प्राचीन आषायों की अपेक्षा वे उदार एवं प्रगतिशील हैं। उन्होंने इस व्यवस्था के उपयोगो अंगों को ही स्वीकार किया है और रूढ़िवादिता का सर्वत्र खण्डन किया हूँ । सोमदेव शूद्र को भी समाज में महत्त्वपूर्ण स्थान प्रदान करते हैं तथा ज्ञान का मार्ग सूर्य-दर्शन के समान सब के लिए खुला रखने का आदेश देते हैं (७, १४) । नीतिवाक्यामृत में लोकोपयोगी व्यवहार पक्ष पर भी प्रकाश डाला गया है । संसार के लौकिक व्यवहार में भ्रान्त, आतं प्राणियों के लिए इस ग्रन्थ में सत्परामर्श प्राप्त होता है । इस ग्रन्थ के लोकोपयोगी सूत्र मानव के लिए उत्तम पथ-प्रदर्शन करने वाले है | आचार्य सोमदेव ने लोकजीवन में सहायक होने वाले महोपयोगी सूत्रों की रचना की है । उन के कुछ सूत्र उदाहरणस्वरूप यहाँ उद्धृत किये जा रहे है--- १. सर्वदा याचना करने वाले से कौन नहीं घबराता ( १, १९) । निष्कर्ष २. समय से संचय किया गया परमाणु भी सुमेरु बन जाता है ( १, २८ ) । ३. उद्यमहीन के मनोरथ स्वप्न में प्राप्त हुए राज्य के समान होते हैं (१, ३२) । ४. अग्नि के समान दुर्जन अपने आश्रय को ही नष्ट कर देता है (१, ४० ) । ५. जिस की स्त्रियों में अधिक आसक्ति है उस को धन, धर्म और शरीर कुछ भी नहीं (२, १२) | ६. जिस ने शास्त्र न पढ़े यह व्यक्ति नेत्रों के होते हुए भी अन्धा है (५, ३५) १ १८७
SR No.090306
Book TitleNitivakyamrut me Rajniti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorM L Sharma
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year
Total Pages255
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size5 MB
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