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________________ में विजित राज्य की संस्थाएँ एवं शासन ज्यों का त्यों बना रहता है किन्तु तृतीय प्रकार की विजय में उनका अस्तित्व ही समाप्त हो जाता है और विजयी शासक के राज्य के ये अंग बन जाते हैं। भारतीय परम्परा के अनुसार अन्तिम प्रकार की विजय निकृष्ट समझी जाती थी और प्रथम प्रकार की सर्वोत्तम । अतः जिन राजाओं को परा जिस कर के उन के द्वारा पराधीनता स्वीकार कर लेने पर उन्हें स्वतन्त्र छोड़ दिया जाता था बहुधा से केन्द्रीय शक्ति के शिथिल होते हो अवसर पाकर स्वतन्त्र हो जाते थे और स्वयं अपने राज्य का विस्तार करने लगते थे । विभिन्न राज्यों के पारस्परिक सम्बन्ध किस प्रकार विनियमित होते थे इस सम्बन्ध में भारतीय विचारकों ने विस्तृत रूप से उल्लेख किया है। नीतिवाक्यामृत में मी हम को इस विषय पर पर्याप्त सामग्री उपलब्ध होती है । अन्तर्राष्ट्रीय सम्बन्ध का विषय दो भागों में विभाजित किया जा सकता है - १. शान्ति काल में अन्तर्राष्ट्रीय सम्बन्ध 1 २. युद्ध काल में अन्तर्राष्ट्रीय सम्बन्ध । सर्वप्रथम हम शान्ति काल में स्वतन्त्र राज्यों के मध्य सम्बन्धों पर विचार करेंगे । स्वतन्त्र राज्यों के बीच सम्बन्धों के संचालन में राजनय महत्त्वपूर्ण साधन था। परन्तु वर्तमान काल में राजनय का जो हम अर्थ समझते हैं वह प्राचीन काल में नहीं था। राज्यों में स्थायी रूप से राजनैतिक प्रतिनिधियों अथवा राजदूतों की नियुक्ति करने की पद्धति अत्यन्त आधुनिक है। मध्य युग में युप में भी राजदूतों की स्थायी रूप से राजधानियों में नियुक्त करने की प्रणाली नहीं थी । इसी प्रकार भारत में भो दूत स्थायी रूप से नियुक्त नहीं किये जाते थे। टूत शब्द का संस्कृत में अर्थ सन्देश वाहक है। इस से यह स्पष्ट है कि किसी विशेष कार्य के सम्पादन के लिए ही दूत भेजे जाते थे । परन्तु उन के कार्य वही थे जो आधुनिक काल के राजदूतों के होते हैं। कौटिल्य अर्थशास्त्र के अधिकरण १ अध्याय १६ से स्पष्ट है कि बिभिन्न राज्यों के मध्य दूवों का नियमित रूप से आवागमन था। नीतिवाक्यामृत के द्रुत समुद्देश में हमें सभी दूवों का उल्लेख मिलता है जिन का वर्णन अर्थशास्त्र में हुआ है ( दूत समुद्देश, पू० १७० - १७१ ) । व्रत की परिभाषा आचार्य सोमदेव ने दूत की परिभाषा इस प्रकार की है, "जो अधिकारी दूरवर्ती राजकीय कार्यों-- सन्धिविग्रह आदि का साधक होता है उसे दूत कहते हैं (१३, १) । अन्तर्राष्ट्रीय सम्बन्ध २० १५३
SR No.090306
Book TitleNitivakyamrut me Rajniti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorM L Sharma
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year
Total Pages255
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size5 MB
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