SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 176
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ नहीं रखनी चाहिए । सैन्य-शक्ति ही विजिगीषु का बल है। राजा का यह कर्तव्य है कि वह उस को सक्षम तथा सशक्त बनाये रखे। इस की शक्ति को क्षीण न होने दे। सेना की शक्ति क्षीण होने से राजा की शक्ति भी क्षीण हो जाती हैं। सोमदेव ने ऐसे राजा को उपमा जंगल से निकले हुए उस शेर से दी है जो गीदड़ के समान शक्तिहीन हो जाता है ( ३०, ३६ )। युद्ध के भेद प्रायः सभी आचार्यों ने युद्ध के दो भेद बतलाये है-(१) धर्मयुद्ध तथा (२) कूटयुद्ध। आचार्य कौटिल्य ने तीन प्रकार के युद्धों का उल्लेख किया है, जो इस प्रकार है-~-( १ ) प्रकाशयुद्ध, फूटयुद्ध और ( ३ ) तूष्णोयुद्ध । आचार्य सोमदेवसूरि ने केवल दो प्रकार के युद्धों का वर्णन किया है ( ३०, ९१)। उन्होंने कूट युद्ध की व्याख्या करते हुए लिखा है कि एक शत्रु पर आक्रमण प्रकट कर के वहाँ से अपनी सेना लौटाकर युद्ध द्वारा जो अन्य शत्रु का पात किया जाता है उसे फूटयुद्ध कहते है (३०, ९०) । तूष्णीयुद्ध यह युद्ध है जिस में विष देने वाला घातक पुरुषों को भेजा जाता है अथवा एकान्त में चुपचाप स्वयं शत्रु के पास जाकर एवं भेदनीति के उपायों द्वारा शत्रु का घास किया जाता है (३०, ९१) । धर्मयुद्ध प्राचीन काल में धर्मयुख को बहुत महत्त्व दिया जाता था। इस युद्ध के निर्धारित नियम थे और इन्हीं के अनुसार युद्ध किया जाता था। धर्मयुद्ध के नियम मानवोधित दयादि गुण से युक्त होते थे । इस का उद्देश्य शत्रु का विनाश नहीं होता, अपितु उस को पराजित कर के अपनी अधीनता स्वीकार कराना ही इस का उद्देश्य था । इस में विपैले बाणों आदि का प्रयोग तथा अग्निबाणों का प्रयोग वजित था। इस के साय हो यह युद्ध समान शक्ति वालों के साथ होता था, जिस में पैदल सेना पैदल से तथा हस्ति सेना हस्ति सेना से और रथारूढ़ रथारूढ़ों से युद्ध करते थे। यदि युद्ध में किसी का रथ टूट जाता था अथवा कोई घायल हो जाता था तो उस पर आक्रमण करना धर्म युद्ध के नियमों के विरुद्ध माना जाता था। धर्मयुद्ध का उद्देश्य तो धर्म की स्थापना करना एवं अधर्म का नाश करना था। परन्तु सार्वभौम बनने की सस्कृष्ट अभिलाषा के कारण अश्वमेधादि यज्ञों द्वारा पराक्रम प्रकट करने के लिए भी युद्ध किया जाता था। अब शत्रु पर धर्मयुद्ध द्वारा विजय प्राप्त करना असम्भव दिखाई देता था तो ऐसी स्थिति में कूटयुद्ध का भी प्रश्रय लिया जाता था। १. कौ० अ०७है। विक्रमस्य प्रकाशगुन' कुटयुव तुष्णीवमिति सम्धिविक्रमौ। अन्तर्राष्ट्रीय सम्मान २२
SR No.090306
Book TitleNitivakyamrut me Rajniti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorM L Sharma
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year
Total Pages255
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size5 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy