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________________ आय के स्रोत 7 प्राचीन काल में राज्य की आय के दो प्रमुख स्रोत थे - ( १ ) भूमि कर तथा ( २ ) अन्य वस्तुओं पर लगने वाला कर राजा की आय का प्रमुख साधन भूमि कर ही या जो प्रायः उपज का छठा अंश ही था। परन्तु यह नियम सर्वत्र समान नहीं था । इस का कारण यह था कि कहीं भूमि अधिक उपजाऊ थी और कहीं कम । भूमि की उर्वर शक्ति तथा उस की सिचाई आदि की व्यवस्था के आधार पर ही नोविकारों ने भूमि कर की दर निश्चित की थी। गौतम तथा मनू का कथन है कि राजा साधारण स्थिति में प्रजा से उपज का छठा भाग भूमि कर के रूप में ग्रहण करे। किन्तु विषय स्थिति में इस से अधिक भी कर दिया जा सकता था । मनु तथा कौटिल्य विषम स्थिति में राजा को प्रज्ञा से अधिक कर देने की अनुमति प्रदान करते हैं । उन का कथन है कि राजा आपद्-कालीन स्थिति में कृषकों से उपज का तीसरा भाग अथवा चतुर्थांश भूमि कर के रूप में ग्रहण कर सकता है । वे यह भी लिखते हैं कि इस प्रकार का अधिक कर प्रजा से प्रार्थना पूर्वक ही प्रहण किया जाये न कि शक्ति का भय दिखा कर | आचार्य सोमदेव ने इस सम्बन्ध में कुछ नहीं लिखा है कि भूमि कर की दर क्या हो । किन्तु नीतिवाक्यामृत के कुछ सूत्रों के आधार पर यह कहा जा सकता है कि सोमदेव भी भूमि कर के सम्बन्ध में उसी प्राचीन परम्परा को मानते थे । त्रयीसमुद्देश के चौबीसवें सूत्र से ज्ञात होता है कि नीतिवाक्यामृत में भी छठे भाग का अनुमोदन किया गया है (७, २४ ) | २ कृषक वर्ग के प्रति उदारता आचार्य सोमदेव के मतानुसार कृषकों के साथ राजा का व्यवहार उदारतापूर्वक ही होना चाहिए और अनावृष्टि आदि के कारण यदि फ़सल अच्छी नहीं हो तो उन को लगान में छूट देनी चाहिए या कृषकों को लगान से पूर्णरूपेण मुक्त कर देना चाहिए । कर ग्रहण करने में भी उन के साथ कठोरता का व्यवहार नहीं करना चाहिए । जो राजा लगान न देने के कारण कृषकों की गेहूँ, चावल आदि की अधपकी फसल कटवा - कर उसे हस्तगत कर लेता है वह उन्हें देश-त्याग के लिए बाध्य करता है। जिस के कारण राजा और प्रजा दोनों को ही आर्थिक संकट का सामना करना पड़ता है। ( १९, १५ ) । अत: राजा को कृषकों के साथ इस प्रकार का अन्याय करना सर्वथा अनुचित है । आगे आचार्य लिखते हैं कि जो समय अपने राष्ट्र के खेतों में से हाथी, घोड़े देश अकाल पीड़ित हो जाता है ( १९, १६ ) । राजा पकी हुई धान्य की फ़सल काटते आदि की सेना को निकालता है उस का इस का कारण यह है कि हाथी, घोड़ों के द्वारा फ़सल नष्ट हो जाती हैं और उस से अन का अभाव हो जाता है तथा अन्ना भाव के कारण देश में दुर्भिक्ष पड़ जाता है । १. गोम० १० २४ मा मनु ७ १३० । २. मनु० १०८ ० ० २ । १२४ नीतिवाक्यामृत में राजनीति
SR No.090306
Book TitleNitivakyamrut me Rajniti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorM L Sharma
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year
Total Pages255
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size5 MB
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