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________________ भस्म को साधारण व्यक्ति भी पैरों से ठुकरा देते हैं उसी प्रकार पराक्रमविहीन राजा के विरुद्ध साधारण व्यक्ति भी विद्रोह कर देते हैं ( ६,३८ ) । त्रयीविद्या के ज्ञाता राजा के राज्य में चातुर्वर्ण के लोग अपने-अपने धर्म का पालन स्वतन्त्रतापूर्वक रूप से करते हैं । और दोनों को ही धर्म, अर्थ और काम पुरुषार्थों की प्राप्ति होती है ( ७२ ) । वार्ता के विषय में आचार्य लिखते हैं कि जिस राजा के राज्य में वार्ता - कृषि, पशुपालन और व्यापार आदि से प्रजा के जीविकोपयोगी साधनों को उन्मति होती है, वहाँ पर उसे समस्त विभूतियाँ प्राप्त होती है ( ८२ ) । दण्डनीति में कुशल राजा से होने वाले लाभ की व्याया करते हुए आचार्य सोमदेव लिखते हैं कि राजा को यमराज के समान कठोर होकर अपराधियों को ति करते रहना चाहिए। ऐसा करने से प्रजावर्ग अपनी-अपनी मर्यादाओं का उल्लंघन नहीं करते अर्थात् अपने-अपने वर्णाश्रम धर्म पर आरुढ़ होकर दुष्कुस्यों में प्रवृत्ति नहीं करते। अतः उसे धर्म, अर्थ और काम इन तीनों पुरुषार्थों को उत्पन्न करने वाली विभूतिया प्राप्त होती हैं । ५,६० ) । राजा को निरन्तर इन राजविद्याओं का अभ्यास करते रहना चाहिए। जो राजा इन का अध्ययन नहीं करता और न विद्वानों की संगति ही करता है वह अवश्य ही उन्मार्गगामी होकर निरंकुश हाथी के समान नाश को प्राप्त होता है ( ५,६५ ) । राजा के न्यायी होने का विधान नीतिवाक्यामृत मे किया गया है। आचार्य लिखते हैं कि जब राजा न्यायपूर्वक प्रजा पालन करता है तब सभी दिशाएं प्रजा को अभिलषित फल देने वाली होती हैं ( १७, ४५ ) । न्यायी राजा के प्रभाव से यथायोग्य जलवृष्टि होती है और प्रजा के सभी उपद्रव शास्त होते हैं तथा समस्त लोकपाल राजा का अनुकरण करते हैं ( १७, ४६ ) । राजा के लिए साम, दाम, दण्ड, भेद आदि नीतियों का ज्ञाता होना भी आवश्यक है। इस सम्बन्ध में सोमदेव लिखते हैं कि जो पुरुष शत्रुओं द्वारा की जानेवाली वैर-विरोध की परम्परा को साम, दाम, दण्ड व भेद आदि नैतिक उपायों से नष्ट नहीं करता उस को वंश वृद्धि नहीं हो सकती (२६,१६ ) । राजा के दोष सोमदेवसूरि ने अपने ग्रन्थ नीतिवाक्यामृत में राजा के दोषों पर भी प्रकाश डाला है। अन्य राजनीतिज्ञों ने भी राजा के दोषों को ओर संकेत किया है। इस मिथ्याभाषण, विषय में महाभारत के समापर्व में नारदजी कहते हैं कि "नास्तिकता, कोष, प्रसाद ( कर्तव्य का आचरण और कर्तव्य का त्याग ), दीर्घसूत्रता, ज्ञानियों का संसर्ग न करना, आलस्य, इन्द्रिय परायणता, अकेले ही राज्य की समस्याओं पर विचार करना, अनभिज्ञ लोगों के साथ मन्त्रणा करना, मन्त्रणा में निश्चित कार्यों का आरम्भ न करमा, मन्त्रणा को गुप्त न रखना, मांगलिक कार्यों का प्रयोग न करना और एक साथ ही बहुत से शत्रुओं का विरोध करना ये राजाओं के दोष है। अतः राजा को नीतिवाक्यामृत में राजनीति
SR No.090306
Book TitleNitivakyamrut me Rajniti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorM L Sharma
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year
Total Pages255
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size5 MB
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