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________________ इन में से प्रथम तीन सिवान्तों को भ्रामक और मिथ्या माना जाता है तथा चौथा सिद्धान्त राज्य को उत्पत्ति का वास्तविक सिद्धान्त कहा जाता है। भारतीय विचारकों ने राज्य को उत्पत्ति के विषय में विवेचन नहीं किया है, अपितु वे राजा को उत्पत्ति के विषय में ही वर्णन करते हैं । इस का कारण यह है कि राज्य की उत्पत्ति तभी होती है जब शासक और शासित दो वर्ग बन जाते हैं । अतः प्राचीन भारतीय राजशास्त्र प्रणेताओं ने राजा की उत्पत्ति के विषय में वर्णन किया है। प्राचीन काल में न कोई राजा था और न राज्य । प्राकृतिक युग की धार्मिक स्थिति कालान्तर में अराजक दशा में परिणत हो गयी जिस का अम्त करने के लिए राजा की सुष्टिान्तीय ग्रन्थों में सामान्यत: पीके श्रीन सिद्धान्त प्रतिपादित किये गये हैं। प्रथम देवी सिद्धान्त, जिस के अनुसार राजा की सृष्टि ईश्वर द्वारा बतायी जाती है । महाभारत तथा अन्य स्मृति ग्रन्थों में यह सिद्धान्त पाया जाता है । द्वितीय, सामाजिक अनुबन्ध का सिद्धान्त है जिस का वर्णन बौद्ध ग्रन्थों तथा अर्थशास्त्र में मिलता है । जिस के अनुसार राजा की उत्पत्ति प्रजा के पारस्परिक समझौते के परिणाम स्वरूप बतलायी जाती है । तृतीय सिद्धान्त वैदिक सिद्धान्त है जो यह मानता है कि राजा की उत्पत्ति युद्ध में नेता को आवश्यकता के परिणाम स्वरूप हुई। इन सिद्धान्तों का वर्णन अगले अध्याय में किया जायेगा । राज्य के अंग समस्त प्राचीन राजशास्त्र प्रणेशाओं ने यह स्वीकार किया है कि राज्य सात तत्वों ( अगों ) से मिलकर बना है। इसी कारण प्राचीन राजनीति प्रधान ग्रन्थों में उसे सप्तांगराज्य के नाम से सम्बोधित किया गया है। यद्यपि नीतिवाक्यामुल में राज्य के इन सातों हो अंगों का विशद विवेचन हुआ है किन्तु उस में सरोग शब्द का उल्लेख कहीं नहीं मिलता। राज्य के सात अंग-स्वामी, अमात्य, जनपद (राष्ट्र), दुर्ग (पुर), कोश, दण्ड (बल) तथा मित्र (मूहद) है। समस्त धर्मशास्यों एवं अर्थशास्त्रों में राज्य के इन्हीं सात अंगों का वर्णन मिलता है । महाभारत के शान्तिपर्व में राज्य के सप्तांस स्वरूप को इस प्रकार व्यक्त किया गया है-आत्मा, अमात्य, कोश, दण्ड, मित्र, जनपद तथा पुर समांग राज्य के अंग है। इस में राजा को राज्य की आत्मा माना गया है और इसो कारण राजा के लिए आत्मा शब्द का प्रयोग किया गया है। मनुस्मृति में भो सप्तांग राज्य का वर्णन मिलता है। उस के अनुसार स्वामी, अमात्य, पुर राष्ट्र, १. महा० शास्ति०५६.१४ । २. नहीं.. १०-११०। ३. दीघनिकाय, भा०३, पृ० ८५-६६ । ४, कौ० अर्थ० १, १२। १.ऐ० प्रा० १.१४। १. मदः शान्ति०५६.६४-६५ । १५
SR No.090306
Book TitleNitivakyamrut me Rajniti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorM L Sharma
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year
Total Pages255
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size5 MB
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