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________________ इस का अभिप्राय यही है कि ऐसा होने पर ही राजा वास्तविक रीति से साम, दाम आदि चारों नीतियों का प्रयोग कर के शत्रु को पराजित करने के लिए सम्यक् इच्छुक होने के योग्य होता है। ४. शत्रु-जो अपने निकट सम्बन्धियों का अपराध करता हा कभी भी दुष्टता करने से बाज नहीं आता उसे शत्रु अथवा अरि कहते हैं (२१,२४) । शत्रु राजा का लक्षण बताते हुए आचार्य सोमदेव लिखते हैं कि दूरवर्ती (सीमाधिपति आदि) शत्रु व निकटवर्ती मित्र होता है यह शत्रु-मित्र का सर्वथा लक्षण नहीं माना जा सकता क्योंकि शत्रुता और मित्रता के अन्य ही कारण हुमा करते हैं । दूरवर्ती अथवा निकटवर्ती नहीं, मयोंकि दूरवर्ती सीमाधिपति भी कार्यवश निकटवर्ती के समान शत्रु व मित्र हो सकता है (२९, ३५)। सोमदेव ने तीन प्रकार के शत्रु राजाओं का उल्लेख किया है-१ सहज शत्रु, २ कृत्रिम शत्रु तथा ३ अन्वर शत्रु ( सीमा पर स्थित राज्य का स्वामी ) । आचार्य ने इन शत्रु राजाओं को व्याख्या मी की है। वे लिखते हैं कि अपने हो कुल का व्यक्ति राजा सहज शत्रु होता है (२९, ३३) । क्योंकि वह ईष्यविश उस को समृद्धि सहन नहीं करता और सर्वदा उस के विनाश का चिन्तन करता है । जिस के साथ पूर्व में विजिगीषु द्वारा वैर-विरोध उत्पन्न किया गया है तथा जो स्वयं आफर उस से वर-विरोध करता है, ये दोनों उस के कृत्रिम शत्रु है (२९, ३४) । जो राजा विजिगीषु की सीमा पर शासन करता है वह अन्तर शत्रु है (२९, ३५)। आचार्य कौटिल्य ने भी तोन प्रकार के शत्रु राजाओं का उल्लेख किया है। वे सीमावर्ती राज्य को प्रकृति, मरिराज्य तथा उस के राजा को प्रकृति शत्रु कहते है। ५. मित्र--आचार्य सोमदेव ने मित्र का लक्षण बताते हुए लिखा है कि जो पुरुष सम्पत्तिकाल की तरह विपत्ति में भी स्नेह करता है, उसे मित्र कहते हैं (२३,१)। शत्रु राज्य की दूसरी ओर उस की सीमा से सम्बद्ध सीमा वाले राज्य को मनु एवं कौटिल्य मिश्र राज्य कहते हैं। आचार्य सोमदेव ने मित्र के भी तीन भेद बताये है जो निम्नलिखित है-- (१) नित्य मित्र-वे दोनों व्यक्ति नित्य मित्र हो सकते हैं जो शत्रुकृत पीड़ा आदि आपत्तिकाल में परस्पर एक-दूसरे के द्वारा बचाये जाते है (२३, २) । (२) सहजमिन-वंश परम्परा के सम्बन्ध से युक्त भाई आदि सहन मित्र होते हैं (२३, ३)। (३) कृत्रिम मित्र-जो व्यक्ति अपना उदर पूति और प्राण रक्षा के लिए अपने स्वामी से वेसनादि लेकर स्नेह करता है वह कृत्रिम मित्र है (२३, ४) । आचार्य १, कौत अप०६२। २. मनु०७, १८ कौटिका २,६७ ॥ अन्तर्राष्ट्रीय सम्बन्ध १५९
SR No.090306
Book TitleNitivakyamrut me Rajniti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorM L Sharma
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year
Total Pages255
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size5 MB
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