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Aspects of Jainology Vol.7 जैन विद्या के विविध आयाम, खण्ड७
Bhupendranath Jain Felicitation Volume. भूपेन्द्रनाथ जैन अभिनन्दन ग्रन्थ
वाराणसी
पार्श्वनाथ विद्यापीठ वाराणसी
1998
(Gain Eocenion Irde national
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Pārsvanātha Vidyāpitha Series No. 107
Aspects of Jainology Vol. VII (Bhupendra Nath Jain Felicitation Volume)
Editorial Board
Dr. Sagarmal Jain Dr. Shriprakash Pandey Dr. Vijay Kumar Jain
Dr. Sudha Jain
Pārsvanātha Vidyāpītha
Varanasi
1998
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पार्श्वनाथ विद्यापीठ ग्रन्थमाला संख्या १०७
जैन विद्या के आयाम
खण्ड-७ (भूपेन्द्रनाथ जैन अभिनन्दन ग्रन्थ)
सम्पादक मण्डल
डॉ० सागरमल जैन डॉ० श्रीप्रकाश पाण्डेय डॉ. विजय कुमार जैन
डॉ० सुधा जैन
पार्श्वनाथ विद्यापीठ
वाराणसी
१९९८
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Pārsvanāth Vidyāpītha Series No. 107
Aspects of Jainology Vol. VII (Bhupendranath Jain Felicitation Volume)
Publisher : Pārsvanāth Vidyāpītha I.T.I.Road, Karaundi, Varanasi-5
Tel:316521,318046
I. S. B. N. 81-86715-29-0
First Edition : 1998
Price : Rs. 300.00
Type setting at: Sun Computer Softec, Varanasi
Rajesh Computers, Varanasi
Printed at: Ratna Printing Press
पार्श्वनाथ विद्यापीठ ग्रन्थमाला सं० १०७
जैन विद्या के आयाम खण्ड ७ (भूपेन्द्रनाथ जैन अभिनन्दन ग्रंथ)
प्रकाशक
पार्श्वनाथ विद्यापीठ आई. टी. आई. मार्ग, करौंदी, वाराणसी-५
दूरभाष-३१६५२१, ३१८०४६
I. S. B. N. ८१-८६७१५-२९-०
प्रथम संस्करण १९९८ मूल्य - रु. ३००.००
अक्षर सज्जा सन कम्प्यूटर्स साफ्टेक, वाराणसी
राजेश कम्प्यूटर्स, वाराणसी
मुद्रक - रत्ना प्रिटिंग प्रेस, वाराणसी
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सम्पादकीय
पार्श्वनाथ विद्यापीठ ने जैन विद्या से सम्बन्धित विविध विषयों पर लिखे गये महत्त्वपूर्ण लेखों के प्रकाशन हेतु जैन विद्या के आयाम' के नाम से एक प्रकाशन योजना बनायी। इसमें अभी तक हम छ: खण्डों का प्रकाशन कर चुके हैं। इसका प्रथम खण्ड संस्थान के संस्थापक लाला हरजसराय जी की स्मृति में निकाला गया। इसी क्रम में दूसरा खण्ड संस्था के मार्गदर्शक पं० बेचरदास दोसी तथा तृतीय खण्ड पद्मभूषण पं० दलसुखभाई मालवणिया के अभिनन्दन ग्रन्थ के रूप में प्रकाशित किया गया। चतुर्थ खण्ड में पार्श्वनाथ विद्यापीठ की स्वर्ण जयन्ती के अवसर पर आयोजित 'प्राकृत और जैन विद्या परिषद' में पठित लेखों का संग्रह प्रकाशित किया गया। इसी प्रकार पांचवें खण्ड में श्वेताम्बर स्थानकवासी जैनसभा कलकत्ता, के हीरक जयन्ती के अवसर पर पार्श्वनाथ विद्यापीठ के सहयोग से आयोजित संगोष्ठी में पठित लेखों का संग्रह प्रकाशित किया गया। षष्ठ खण्ड डॉ० सागरमल जैन अभिनन्दन ग्रन्थ के रूप में प्रकाशित किया गया है, इसी क्रम में यह सप्तम खण्ड पार्श्वनाथ विद्यापीठ के सचिव श्री भूपेन्द्रनाथ जी जैन के अभिनन्दन ग्रन्थ के रूप में प्रकाशित किया जा रहा है। इस खण्ड में मुख्य रूप से हमने श्रमण में प्रकाशित कुछ शोधपरक प्रतिनिधि-लेखों का संकलन किया है। लेख-संग्रह में हमारी दृष्टि यही रही है कि इसमें उन लेखों का विशेष रूप से संग्रह किया जाय जो जैन विद्या के व्यावहारिक पक्ष से सम्बन्धित हों तथा साथ ही शूधपरक भी हों और एक नई दृष्टि प्रदान करते हों। इस प्रकार यह संग्रह 'श्रमण की पचास वर्ष की यात्रा' का एक प्रतिनिधि संकलन है। यद्यपि एक ही व्यक्ति के अधिक लेख न आ जायें इस दृष्टि से हमें कुछ अच्छे लेखों को छोड़ने के लिये बाध्य होना पड़ा। आज संस्था की हीरक जयन्ती के पावन प्रसंग पर जब मेरे अभिनन्दन ग्रन्थ के प्रकाशन की बात चली तो मैंने उस सम्बन्ध में अपनी सहमति इसी शर्त पर दी कि मेरे साथ-साथ भाई भूपेन्द्रनाथ जी का अभिनन्दन ग्रन्थ भी प्रकाशित हो। यद्यपि इस योजना में वे अन्य-मनस्क ही रहे किन्तु मेरी यह भावना रही कि संस्था के विकास की यात्रा में हम दोनों सहभागी और सहयात्री रहे हैं। अत: मेरे अभिनन्दन ग्रन्थ के साथ उनका अभिनन्दन ग्रन्थ प्रकाशित हो, यह आवश्यक है। यद्यपि भाई भूपेन्द्रनाथ जी यश:कीर्ति की आकांक्षा से दूर निष्काम भाव से संस्था के लिये कार्य करते रहे। इस अभिनन्दन ग्रन्थ के प्रकाशन से चाहे भाई भूपेन्द्रनाथ जी अधिक प्रसन्न न हों किन्तु यदि समाज में सेवा भावना की ज्योति को निरन्तर प्रज्वलित रखना है तो ऐसे मूक सेवकों का अभिनन्दन आवश्यक है। यद्यपि हमने उनकी ही संस्था में उनकी आज्ञा के विरुद्ध यह दुःसाहस किया है किन्तु भविष्य में इससे लोगों को जैन विद्या की सेवा की निरन्तर प्रेरणा मिलती रहेगी, इसे लक्ष्य में रखकर हमने उनकी सहमति के बिना यह कदम उठाया है। भाई साहब हमें क्षमा करेंगे। इस अभिनन्दन ग्रन्थ की योजना हेतु हमें संस्था के संरक्षक भाई नेमिनाथ जी, अध्यक्ष नृपराज जी एवं सहसचिव इन्द्रभूति बरड़ आदि ने हमें सहमति प्रदान की, अत: हम उनके प्रति आभार प्रकट करते हैं। इस ग्रन्थ के प्रकाशन की बेला में हम डॉ० शिव प्रसाद जी, डॉ० असीम कुमार मिश्र एवं श्री ओमप्रकाश सिंह का आभार प्रकट करते हैं उन्होंने लेखों के संकलन और प्रूफ रीडिंग आदि में हमारा सहयोग किया है।
डॉ० सागरमल जैन
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अनुक्रमणिका
लेखक डॉ० सागरमल जैन
पृष्ठ संख्या
आचार्य देवेन्द्र मुनि शास्त्री डॉ० सागरमल जैन डॉ० रतनचन्द जैन डॉ० त्रिवेणी प्रसाद सिंह प्रो० सुदर्शनलाल जैन
I-XIX १-५ ६-१३ १४-२० २१-२४ २५-३३
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क्रम सं० लेख
सम्पादकीय भूपेन्द्रनाथ जैन : एक अभिनन्दनीय व्यक्तित्व अध्यात्मवाद : एक अध्ययन जैनधर्म की आध्यात्मिक जीवनदृष्टि जैन आचार में इन्द्रियदमन की मनोवैज्ञानिकता मानव व्यक्तित्व का वर्गीकरण आध्यात्मिक यज्ञ : एक अनुचिन्तन समयसार के अनुसार आत्मा का कर्तृत्त्व-अकर्तृत्व एवं भोक्तृत्त्व-अभोक्तृत्त्व भगवान महावीर : समता धर्म के प्ररूपक भगवान महावीर की साधना द्वन्द्व और द्वन्द्व निवारण तनाव : कारण और निवारण गुणस्थान: मनोदशाओं का आध्यात्मिक विश्लेषण
वैदिक एवं श्रमण परम्परा में ध्यान १३. आचार्य हरिभद्र और उनका योग
प्राचीन जैन ग्रन्थों में कर्म सिद्धान्त का विकास क्रम जैन धर्म में अनीश्वरवाद स्याद्वाद की अवधारणा : उद्भव एवं विकास जैन. बौद्ध और वैदिक साहित्य : एक तुलनात्मक अध्ययन जैनाचार्यों का आयुर्वेद साहित्य में योगदान आचार्य जिनसेन (द्वितीय) और उनका पार्श्वभ्युदय काव्य' कालिदास की काव्यत्रयी पर जैन टीकायें प्रवरसेन और उनका सेतुबन्ध अनेकान्तवाद और उसकी व्यावहारिकता महावीर का अपरिग्रह सिद्धान्त-सामाजिक न्याय का अमोघ मन्त्र बीकानेर की जैन वास्तुकला का अनूठा त्रैलोक्यदीपक प्रासाद
जैन परम्परा के विकास में स्त्रियों का योगदान २६. जैन साहित्य और शिल्प में वाग्देवी सरस्वती
मानव संस्कृति का विकास २८. युद्ध और युद्ध नीति : जैनाचार्यों की दृष्टि में
श्रमण और श्रावक का पारस्परिक सम्बन्ध आगमों के आलोक में जैनधर्म और वर्णव्यवस्था गुजरात का जैनधर्म ज्ञाताधर्मकथा की सांस्कृतिक विरासत
जैनवास्तुकला- संक्षिप्त विवेचन ३४. जैनकला विषयक साहित्य
तमिल इतिहास लेखन में जैन लेखकों का अवदान ३६. तपागच्छ का इतिहास ३७. तपागच्छ-कमलकलशशाखा का इतिहास ३८. तपागच्छ-कुतुबपुराशाखा का इतिहास
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डॉ० श्रीप्रकाश पाण्डेय पं, दलसुख भाई मालवणिया स्व० उपा० अमरमनि जी प्रो० सुरेन्द्र वर्मा डॉ० सुधा जैन श्री अभय कुमार जैन डॉ० रज्जन कुमार डॉ० कमल जैन डॉ० अशोक कुमार सिंह डॉ० डी. आर. भण्डारी डॉ० सीताराम दुबे आचार्य देवेन्द्रमुनि शास्त्री आचार्य राजकुमार जैन डॉ० श्रीरंजन सूरिदेव डॉ० रविशंकर मिश्र डॉ अजित शुकदेव शर्मा डॉ. विजय कुमार जैन डॉ. कमलचन्द सोगानी श्री हजारीमल बाठियां डॉ. अरुण प्रताप सिंह डॉ० मारुति नन्दन प्रसाद तिवारी श्री कन्हैयालाल सरावगी डॉ० इन्द्रेशचन्द्र सिंह डॉ. सागरमल जैन डॉ० फूलचन्द सिद्धान्त शास्त्री मुनि जिनविजय प्रो० प्रेमसुमन जैन डॉ० शिवकुमार नामदेव स्व० डॉ० ज्योतिप्रसाद जैन डॉ० असीम कुमार मिश्र डॉ. शिवप्रसाद डॉ० शिवप्रसाद डॉ० शिवप्रसाद
३४-३९ ४०-४३ ४४-४७ ४८-५३ ५४-६२ ६३-७२ ७२-७८ ७८-९० ९०-९८ ९९-१०० १०१-१०६ १०७-११७ ११८-१२१ १२१-१२५ १२५-१२८ १२९-१३२ १३२-१४१ १४२-१४३ १४३-१४५ १४५-१४८ १४९-१५० १५४-१५९ १६०-१६४ १६५-१६८ १६९-१७४ १७५-१९२ १९३-१९६ १९७-१९९ २००-२०१ २०२-२०३ २०४-२१७ २१८-२२२ २२३-२२५
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श्रमण संघ हो अविचल मंगल
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आचार्य श्री देवेन्द्र मुनि जी म०
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सम्पर्क सूत्र - आचार्य देवेन्द्र मुनि,
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श्री भूपेन्द्रनाथ जैन : एक रचनात्मक व्यक्तित्व
व्यक्ति विश्व के रंगमंच पर अवतरित होता है और जीवन के कुछ खट्टे-मीठे अनुभवों को लेकर एक दिन इस संसार से विदा हो जाता है । जन्म और मृत्यु ऐसे दो छोर हैं जो प्रत्यके व्यक्ति के जीवन में घटित होते हैं । जन्म के पूर्व और मृत्यु के पश्चात क्या होगा? इसे चाहे हम न जानें किन्तु संसार में अवतरित होकर व्यक्ति ने अपना जीवन कैसे जिया, यह अनेक लोग जानते हैं। जन्म और मृत्यु ये दोनों ही हमारे अधिकार क्षेत्र के बाहर हैं । इसके संबंध में एक उर्दू शायर ने कहा है -
"लायी हयात आ गए कज़ा जे चली चले चले ।
न अपनी खुशी आये न अपनी खुशी गए। किन्तु इन दोनों छोरों के मध्य जो जीवन है वह हमारा अपना है। व्यक्ति की जीवन शैली और उसके कार्यादर्श ही ऐसे तत्त्व हैं जो व्यक्ति की विशेषता का निर्धारण करते हैं । व्यक्ति का व्यक्तित्व कैसा रहा यह उसकी जीवन शैली और कार्यादर्श ही बताते हैं । श्री भूपेन्द्रनाथ जैन के व्यक्तित्व का मूल्यांकन भी उनकी जीवन शैली और जीवन आदर्श से ही किया जा सकता है। उन्होंने अपने जीवन में जिस मूक भाव से, यश लिप्सा से निर्लिप्त होकर पार्श्वनाथ विद्यापीठ के विकास हेतु जैन विद्या के क्षेत्र में जो सेवा दी वह उनके व्यक्तित्व का एक महत्त्वपूर्ण पक्ष है । वस्तुत: अपने लिए तो सभी कोई जीते हैं। घर-परिवार के लिए तथा भोग-उपभोग के साधनों की उपलब्धि के लिए पुरुषार्थ तो सभी कोई करते हैं । भोग-उपभोग के पीछे भागते हुए विपुल धन का संचय कर लेना और उसे या तो अपने भोग-उपभोग में खर्च कर लेना या परिवार के लिए छोड़ जाना, इस सब में व्यक्ति के व्यक्तित्त्व की महत्ता नहीं है । महत्ता इस बात में है कि उसने दूसरों के लिए क्या किया ? देश और समाज को उससे क्या लाभ मिला ? वस्तुत: भूपेन्द्रनाथ जी जैन एक ऐसे मूक सेवक रहे हैं जिन्होंने अपने यश की अपेक्षा किये बिना समाज की सेवा की है।
श्री भूपेन्द्र नाथ जी का जन्म अमृतसर के प्रसिद्ध एवं सम्मानित ओसवाल परिवार में लाला जगन्नाथ जी के पौत्र और लाला हरजसराय जी पुत्र के रूप में दिनांक ८ नवम्बर, १९१८ को हुआ। लाला जगन्नाथ जी का परिवार अपनी समृद्धता और समाजसेवा के लिए अमृतसर में प्रसिद्ध था। लाला जगन्नाथ जी के तीन पुत्र थे- लाला रतनचंद जी, लाला हरजसराय जी और लाला हंसराज जी। लाला रतनचंद जी के पुत्रों में बम्बई के भूतपूर्व शेरीफ श्री शादीलाल जी जैन ज्येष्ठ पुत्र थे। उनके अन्य पुत्रों में लाला सुमतिप्रकाश जी, जगतभूषण जी आदि हैं । लाला हरजसराय जी का विवाह स्यालकोट के प्रसिद्ध हकीम लाला बेलीराम जी की सुपुत्री श्रीमती लाभ देवी से हुआ था । लाला हरजसराय जी एवं श्रीमती लाभदेवी के इस युगल से कुल छह पुत्र और दो पुत्रियों ने जन्म लिया । श्री अमरचंद जी, श्री भूपेन्द्रनाथ जी, श्री सुबुद्धिनाथ जी, श्री विद्याभूषण जी, श्री रमेशचंन्द्र जी और श्री कैलाश चंद्र जी - ये छह पुत्र और श्रीमती सुनन्दा जैन तथा श्रीमती करुणा जैन -ये दो पुत्रियाँ हुईं। लाला हरजसराय जी के प्रथम पुत्र श्री अमरचंद जी एवं श्री सुबुद्धिनाथ जी क्रमश: १९८५ एवं १९५८ में स्वर्गवासी हो गए । शेष चारों पुत्र और दोनों पुत्रियां आज भी अपने पिता के द्वारा रोपित पार्श्वनाथ विद्यापीठ के विकास में रुचिपूर्वक भाग ले रहे हैं । मात्र यही नहीं लाला रतनचंद जी के पौत्र और श्री शादीलाल जी के पुत्र श्री नृपराज जी और उनका परिवार भी विद्यापीठ के विकास में रुचिपूर्वक भाग ले रहे हैं। इसी प्रकार लाला हरजसराय के पौत्र और अमरचंद जी के पुत्र श्री इन्द्रभूति बरड़ ने भी संस्था के विकास में रुचि लेना प्रारम्भ किया है। वस्तुत: पार्श्वनाथ विद्यापीठ के जन्म से लेकर आज तक यह परिवार इस संस्था के विकास हेतु अपनी सेवाएँ समर्पित करता रहा
जिस प्रकार पूर्व में लाला जगन्नाथ जी के परिवार ने लाला हरजसराय जी के पारिवारिक व्यवसाय की चिन्ता से मुक्त होकर इस संस्था के लिए समर्पित होकर कार्य करने की प्रेरणा दी थी उसी प्रकार लाला हरजस राय जी को परिवार ने भी भूपेन्द्र नाथ जी को पारिवारिक दायित्वों से मुक्त करके इस विद्या संस्था की सेवा में समर्पित कर दिया। ये पारिवारिक संस्कार ही ये जिन्होंने श्री भूपेन्द्र नाथ जी जैन को इस संस्था के प्रति समर्पित बनाया ।
वस्तुत: व्यक्ति की जीवन शैली और आदर्शों के विकास में परिवार का महत्त्वपूर्ण योगदान होता है । माता-पिता और परिजन
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ही व्यक्ति की वह प्रथम पाठशाला है जहाँ से उसे संस्कारित जीवन की शिक्षा मिलती है। श्री भूपेन्द्र नाथ जी जैन का यह सौभाग्य रहा कि उन्हें लाला हरजसराय जी जैसा संस्कारवान पिता और श्रीमती लाभदेवी जैसी धर्मनिष्ठ माता का सान्निध्य प्राप्त रहा।
श्री भूपेन्द्र नाथ जी जैन की प्रारम्भिक शिक्षा अमृतसर में ही प्रारम्भ हुई और उन्होंने अपने पूज्य पिताजी के द्वारा स्थापित श्री रामाश्रय हाई स्कूल, अमृतसर से १९३७ में हाई स्कूल की परीक्षा उत्तीर्ण की। श्री रामाश्रय हाईस्कूल भारतीय संस्कारों को विकसित करने के लिए स्वतंत्रता प्रेमी और आध्यात्मिक दृष्टि संपन्न भारतीय संस्कृति के प्रति समर्पित उन व्यक्तियों के द्वारा निर्मित किया गया था जो विद्यार्थियों में राष्ट्रभक्ति, नैतिकता, और देशप्रेम के बीज वपित करना चाहते थे और इन व्यक्तियों में हम श्री भूपेन्द्रनाथ जी के पिता लाला हरजसराय जी को अमृतसर का वह प्रथम व्यक्ति पाते हैं जो राष्ट्रीय शिक्षा के प्रति समर्पित था। ज्ञातव्य है कि लाला हरजसराय जी इस हाईस्कूल की स्थापना से लेकर सन् १९६६ तक, जब कि उनका परिवार स्थायी रूप से आकर फरीदाबाद में बस नहीं गया, इसका संचालन करते रहे । परिवार के साथ-साथ इस श्री रामाश्रय हाईस्कूल के संस्कार भी भूपेन्द्र जी के जीवन पर पड़े। हाईस्कूल के पश्चात् संभावना तो यही थी कि श्री भूपेन्द्रनाथ जी अपने पैतृक व्यवसाय में जुड़ जाते, किन्तु उन्होंने पैतृक व्यवसाय से न जुड़कर शिक्षा के क्षेत्र में जुड़ना ही उचित समझा और इंजीनियरिंग की उच्च शिक्षा के लिए वे बी. एच. यू. आये । उस समय पार्श्वनाथ विद्याश्रम स्थापित हो चुका था । पार्श्वनाथ विद्याश्रम की स्थापना और अपनी उच्चशिक्षा के लिए श्री भूपेन्द्रनाथ जी का वाराणसी आना ये दो ऐसे तथ्य थे जिन्होंने भूपेन्द्रनाथ जी को आजीवन इस संस्था से जोड़ दिया । यद्यपि संयोगवशात् वाराणसी में श्री भूपेन्द्रनाथ जी का स्वास्थ्य अनुकूल नहीं रहा और उन्हें कुछ समय के अन्तराल के पश्चात् यहाँ से वापस जाकर पंजाब विश्वविद्यालय, लाहौर में भर्ती होना पड़ा। उन्होंने पंजाब विश्वविद्यालय, लाहौर से सन् १९४१ में B. Sc. Mechanical Eng. (Hons.) की परीक्षा प्रथम श्रेणी से न केवल उत्तीर्ण की अपितु उसमें प्रथम स्थान पाकर अपने परिवार और जैन समाज को गौरवान्वित किया ।
ज्ञातव्य है कि उस युग में जब जैन समाज शिक्षा के प्रति अपना उपेक्षित दृष्टिकोण बनाए हए था तब एक जैन परिवार के बालक का इंजीनियरिंग की उच्च शिक्षा में प्रथम स्थान प्राप्त करना कम महत्त्वपूर्ण नहीं था। पिता के समान पुत्र का भी यह शिक्षा-प्रेम परवर्ती काल में पार्श्वनाथ विद्याश्रम जैसे शिक्षा संस्थान से जुड़े रहने में सहायक बना है। वह युग था जब जैन समाज में अल्पवय में ही विवाह हो जाया करते थे । फलत: श्री भूपेन्द्रनाथ जी जैन को भी यौवन की देहलीज पर कदम रखते ही विवाह के बन्धन में बंधना पड़ा । विवाह के संदर्भ में श्री भूपेन्द्रनाथ जी जैन के पूज्य पिताजी का यह दृष्टिकोण था कि जीवन में संयम की मर्यादा को विकसित करने के लिए समाज में विवाह की व्यवस्था हुई है । वैवाहिक जीवन पूर्ण संयम तक पहुँचने के लिए रखा गया प्रथम चरण है । यह चारित्रिक पवित्रता का सम्यक् अवसर है और पूर्ण संयम की दिशा में बढ़ा एक कदम । उनकी दृष्टि में व्यक्ति के जीवन को यदि कोई नारकीय बनाता है तो वह है विलासिता, स्वार्थपरता एवं उद्दात काम वासना न कि वैवाहिक एवं पारिवारिक जीवन तो संयम की साधना का एक सुन्दर अवसर है । अपने पिता के इस दृष्टिकोण के अनुरूप ही श्री भूपेन्द्रनाथ जैन ने पारिवारिक दायित्व और मर्यादा को स्वीकार किया।
श्री भूपेन्द्रनाथ जी जैन ने पारिवारिक मर्यादाओं को तो स्वीकार किया, किन्तु वो पर्दा प्रथा जैसी विकृत सामाजिक मानसिकता से सहमत नहीं हो सके। वे अमृतसर के समाज और अपने परिवार में प्रथम व्यक्ति हैं, जिन्होंने परिवार में पर्दा प्रथा को समाप्त किया । परिवार के रुढ़िग्रस्त वरिष्ठ जनों को सम्मान देते हुए भी न केवल अपने विरोध को मुखर किया अपितु उसे यथार्थता प्रदान की। यद्यपि कुछ समय तक परिवार के वरिष्ठ सदस्य उनसे नाराज भी रहे किन्तु बाद में जब उन्हें यथार्थ स्थिति का बोध हुआ तो न केवल उनके इस कदम के समर्थक ही बने अपितु प्रशंसक भी बने।
अपनी इंजीनियरिंग की स्नातक परीक्षा उत्तीर्ण करने के पश्चात् प्रारम्भ में श्री भूपेन्द्रनाथ जी जैन शासकीय सेवा से जुड़े और उन्होंने बम्बई और कलकत्ता में अपनी सेवाएँ दी । उसके कुछ समय पश्चात् वे आर्डिनेन्स फैक्ट्री, अमृतसर में नियुक्त किये गये और यहाँ लगभग ३ वर्ष (१९४२-१९४५) तक कार्य किया। किन्तु भारत की गुलामी के उस युग में नौकरशाही की
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मानसिकता उन्हें रुचिकर नहीं लगी और शासकीय सेवा को छोड़कर १९४७ में वे अपने पारिवारिक व्यवसाय के साथ जुड़े और उस व्यवसाय को एक नया आयाम देने का प्रयत्न किया। उस समय तक उनका परिवार मुख्य रूप से तैयार वस्तुओं को खरीद कर अथवा विदेशों से मंगाकर उन्हें व्यापारियों को बेचा करता था। श्री भूपेन्द्रनाथ जी जैन अपने देश में वस्तुओं का उत्पाद हो इस दृष्टि को लक्ष्य में रखकर अपने ताऊजी के सुपुत्र श्री शादीलाल जी के साथ जुड़कर बरार लायन्स बटन्स प्रा. लि. के नाम से एक फैक्ट्री की स्थापना की और उसके संचालक का दायित्व ग्रहण किया। उसके बाद आपके मार्ग-दर्शन में परिवार ने न्यूकेम प्लास्टिक लि०, न्यूवेयर इण्डिया लि०, फरीदाबाद टेक्सटाइल्स प्रा. लि., आदि उत्पादक इकाईयों की स्थापना की और उनका संचालन किया । न्यूकेम प्लास्टिक लि. के आप प्रारम्भ से लेकर मार्च १९७७ तक मैनेजिंग डाइरेक्टर रहे। आपके द्वारा स्थापित उत्पादक इकाइयों की विशेषता रही कि उन्होंने अपने उत्पादनों की गुणवत्ता और प्रामाणिकता को बराबर बनाए रखा । फलत: कभी-कभी निम्न स्तरीय उत्पादनों से बाजार में प्रतिस्पर्धा में असफल भी होना पड़ा, फिर भी आपने अपने उत्पादन की गुणवत्ता और प्रामाणिकता के साथ कभी समझौता नहीं किया । चाहे आपको इस संबंध में आर्थिक हानि ही क्यों न उठानी पड़े। यह एक ऐसी विशेषता है जो वर्तमान युग में दुर्लभ है । अनेक अवसरों पर परिस्थितियों से समझौता करने में चाहे आप सफल न रहे हो किन्तु अपनी प्रामाणिकता या साख को आपने यथावत् बनाए रखा । चाहे आपकी और आपके परिजनों के निर्देशन में कार्यरत इन इकाईयों ने अधिक लाभ न कमाया आर्थिक लाभ न कमाया तो किन्तु अपनी उत्पाद की मानकता में कोई अन्तर नहीं आने दिया।
लगभग सन् १९८० के पश्चात् आप इन पारिवारिक दायित्वों से मुक्त रह कर मुख्य रूप से समाज सेवा के कायों में ही लगे रहे । व्यवसाय के क्षेत्र में रहते हुए भी आपने अनेक गौरवपूर्ण पद प्राप्त किये। आप Institute of Marketing Management, New Delhi के राष्ट्रीय अध्यक्ष रहे । इसी प्रकार YMCA, Institute of Eng. Faridabad के बोर्ड आफ गवर्नर के सदस्य रहे । इसी प्रकार रोटरी क्लब चेरिटेबल ट्रस्ट स्कूल, फरीदाबाद के प्रोजेक्ट चेयरमैन के रूप में आपकी सेवाओं को सम्मानित भी किया गया था । परमार्थ फन्ड सोसायटी, अमृतसर और पार्श्वनाथ विद्याश्रम (अब पार्श्वनाथ विद्यापीठ) के क्रमश: अध्यक्ष व सचिव हैं। पार्श्वनाथ विद्याश्रम आज पार्श्वनाथ विद्यापीठ के रूप में जिन उँचाइयों तक पहँच पाया है उसके पीछे आपका सहयोग व सेवा-भाव ही प्रमुख है।
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श्री भूपेन्द्रनाथ जैन
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पार्श्वनाथ विद्यापीठ के निर्माता एवं श्री भूपेन्द्रनाथजी जैन के पिताश्री
स्व० श्री हरजसराय जी जैन
जन्म : १३-०६-१८९६
स्वर्गवास : १८-०६-१९
श्री भूपेन्द्रनाथ जैन और उनकी धर्मपत्नी श्रीमती शकुन्तला रानी जैन
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श्री भूपेन्द्रनाथ जैन अपनी ७५वीं साल गिरह पर अपने परिवार के साथ
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श्री भूपेन्द्रनाथ जैन अपनी ७५वीं साल गिरह पर अपनी बहू-बेटे एव पौत्रो के साथ
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श्रीमती शीला दीक्षित, पद्मभूषण पं० दलसुख मालवणिया एवं श्री शांतिभाई बनमाली सेठ
के साथ विचार विमर्श करते हुए
अखिल भारतीय प्राकृत एवं जैन विद्या परिषद् में अतिथियों का स्वागत करते हुए
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संस्थान में आयोजित कान्फ्रेन्स में श्री नृपराज जी जैन के साथ
संस्थान के पूर्व अध्यक्ष श्री दीपचन्द जी गार्डी, श्री अरिदमन जी एवं श्री सुमति प्रकाश जी के साथ विमर्श मुद्रा में
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श्री भूपेन्द्रनाथजी के दादा जी श्री जगन्नाथजी जैन
श्री भूपेन्द्रनाथजी के ताऊजी श्री रतनचन्द्र जी जैन
For Private & Personal
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सेठ श्री शांतिलाल जैन एवं संस्थान के निदेशक डॉ० सागरमल जैन के साथ
बुद्धिस्ट सोसाइटी के सचिव थेर रेवत एवं श्री नृपराज जी जैन के साथ
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आपकाहादिक आभनन्दन
अतिथिगृह के उद्घाटन के अवसर पर डा० माधुरी शाह, अध्यक्ष, विश्वविद्यालय अनुदान आयोग के साथ
श्री बी०एन० जैन : एक प्रखर वक्ता
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अतिथि गृह ( पार्श्वनाथ विद्यापीठ) के शिलान्यास के अवसर पर गणिवर्य श्री महिमाप्रभसागरजी से वासक्षेप ग्रहण करते हुए
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Shri Bhupendra Nath Jain
by- S. L. Jain *
An Introduction :
Shri B.N. Jain was born at Amritsar (Panjab.) on 8th November, 1918. He is the son of Late Shri Harjas Rai Ji Jain, a prominent leader of the Jaina Community (Punjab) and belongs to M/s Rattanchand Harjas Rai Firm Amritsar, well known for their contribution in the service of the Punjab Jaina Samaj. He passed his B.Sc. (Hons.) in Mechanical Engg. 1st Class First from Punjab University in 1941.
Working Experience :
He has served with the following Govt. & Private Institutions in different capacitiy.
1. DGMP Bombay/Calcutta. 2. Ordinance Factory, Amritsar. 3. Family Business. 4. Bararlion Buttons Pvt. Ltd. 5. Nudhem Plastics Ltd. as a Managing Director. 6. Past President, Quality Control, Faridabad Chapter. 7. Past President Faridabad Industries Association. 8. Past National President, Institute of Marketing and Management, New Delhi. 9. Ex-Secretary, Jaina Parmartha Fund Society, Amritsar. 10. Past President of National Association for Blind Branch, Faridabad. 11. Member, Board of Governors YMCA Institute of Engineering, Faridabad. 12. Project Chairman Rotary Club, Faridabad Charitable Trust.
Presently he is the director of the following companies:
1. Vardhaman Spinning & Weaving Mills, Ludhiyana. 2. Nuchem Engg. Ltd. Faridabad. 3. Nuware India Ltd. Faridabad. 4. Nuchem Investment Pvt. Ltd. New Delhi. 5. Delhi Faridabad Textiles Pvt. Ltd. Faridabad.
On 10th Nov.1935, in the memory of Pujya Shri Sohan Lal Ji, Shri Sohan Lal Jain Vidya Prasarak Samiti was formed and in 1936 deputation of 3 founder members Shri Tribhuvan Nath Jain, President, Shri Harjas Rai Jain, Secretary of the Samiti and Prof. Mast Ram Ji had gone to Banaras for seeking advice and
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guidance of Pt. Sukhlal Ji, a renowned scholar of Jainology and on his advice a Institution was started in the name of Parshvanath Vidyashram Shodh Sansthan at Banaras, birth place of 23rd Tirthankara, Lord Parshvanath near Banaras Hindu University in a humble way in a rented premises and scholarships were provided to students who wished to study in Jainology. For the promotion of studies at the Ashram a Library in the name of Satavadhani Ratanchand was established and Boarding and and Lodging was also arranged for the students. As the activities of the Ashram were increasing every year, so it was decided to procure more land for the institution and in 1953 the management succeeded in purchasing about 4 acre land from the Govt. and took possession in 1956 and the construction of Parshvanath Vidyashram Building was started. At present there is vast accomodation having Directors Bunglaow, Library, Big Halls, Hostels, Teachers Quarters, A Museum, Guest house for visitors, Sadhanabhavan for Jain saints. It was all accomplished due to dedication and hard work put by Late Shri Harjas Rai Ji, and presently by Shri Bhupendra Nath ji Jain, Secreatary, Parshvanath Vidyapitha Managing Committee.
On account of hard work and dedication fo Shri Bhupendra Nath Ji Jain, the institute is now under active considertaion of University Grants Commission and ministry of eduaction, Govt. of India for status of Deemed to be University.
It is matter of Plaeasure for me that on the eve of Parsvanatha Vidyapitha's Diamond Jubilee Celebration he is being fecilitated. I pray to God to let him live longer.
56-B, Dilshad Garden, Shahdara, Delhi.
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उत्कृष्ट समाज सेवी : भाई भूपेन्द्रनाथ जी
नेमनाथ जैन* मुझे यह जानकर अपार हर्ष हुआ कि पार्श्वनाथ विद्यापीठ की हीरक जयन्ती के सुअवसर पर आप भाई श्री भूपेन्द्रनाथ जी जैन के सम्मान में अभिनन्दन ग्रंथ प्रकाशित करने जा रहें हैं।
भाई भूपेन्द्रजी को मैं पिछले दो दशक से जानता हूँ और मेरा सौभाग्य है कि वे मेरे चुनिंदा अभिन्न मित्रों में से एक हैं। वे केवल एक मित्र ही नहीं, बल्कि जीवन के पथ प्रदर्शक रहें है- केवल मेरे ही लिए नहीं बल्कि उन सबके लिए जो उनके निकट सम्पर्क में आयें हैं।
श्री बी० एन० जैन साहब का व्यक्तित्व विलक्षण और बहुमुखी है। वे एक सफल उद्यमी उद्योगपति के साथ-साथ उत्कृष्ट समाजसेवी और सुधारक भी हैं और उन्होंने जैन समाज के उत्थान और प्रगति एवं जैन दर्शन व धर्म के प्रचार-प्रसार के लिए निरन्तर बहुमूल्य योगदान दिया है।
वस्तुतः श्री पार्श्वनाथ विद्यापीठं की सफलता और यशकीर्ति की कुंजी प्रारम्भ से ही इनके पिता श्री लाला हरजसराय जी और स्वयं इनके कर्मठ हाथों में रही है। इन्होंने अपने बुजुर्गों द्वारा स्थापित एवं पोषित इस संस्था को न केवल अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर लाकर खड़ा किया, अपितु अपनी बहुमुखी सेवा निष्ठा और लगन से स्वयं ही एक संस्था बन गये हैं।
भाई भूपेन्द्र जी के व्यक्तित्व में गहराई है एक विद्वान की, चतुराई है एक उद्यमी की, सादगी है एक नि:स्वार्थ समाजसेवी की, शालीनता और गंभीरता है, एक विशिष्ट अनुभवी की और संस्कार है एक धर्मनिष्ठ, उत्साही और कर्तव्यपरायण इंसान की।
"
भाई भूपेन्द्र जी के जीवन का लेखा जोखा शब्दों में सदा ही अपर्याप्त रहेगा क्योंकि वह उनकी उपलब्धियों की गहराई तक नहीं पहुँच पाये। वे कभी प्रशंसा के भूखे नहीं रहे, फिर भी यशकीर्ति तो उनके चरण चूमती रही है।
ऐसे अनूठे व्यक्ति को मैं सादर और सस्नेह नमन करता हूँ और मेरी यही कामना है कि वे जैन समाज के पथ प्रदर्शक के रूप में अपनी सेवायें आगे भी उतनी ही ऊर्जा, उत्साह और उमंग से देते रहें जैसे देते आये हैं। उन्होंने सदा जीवन में केवल वर्ष नहीं जोड़े बल्कि उम्र के हर बढ़ते वर्ष में जीवन जोड़ा है ऐसा जीवन जो उमंग भरा हो।
* संरक्षक, पार्श्वनाथ विद्यापीठ, वाराणसी
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बहुमुखी प्रतिभा के धनी श्री भूपेन्द्रनाथजी जैन
नृपराज एस. जैन*
पार्श्वनाथ विद्याश्रम, वाराणसी के मंत्री श्री भूपेन्द्रनाथ जी जैन बहमुखी प्रतिभा के धनी हैं। आपको धार्मिक संस्कार एवं सेवा भावना विरासत में अपने स्वर्गीय पिताश्री हरजसरायजी से प्राप्त हुई है । मधुरवाणी, चेहरे पर सदा मुस्कुराहट लिये स्वर्गीय हरजसरायजी ने अपने औद्योगिक एवं व्यापारिक कार्यों के साथ देशभर की अनेकों शैक्षणिक एवं सामाजिक संस्थाओं में नि:स्वार्थ सेवाएं प्रदान की थी। उन्हीं के पदचिह्नों पर चलते हुए श्री भूपेन्द्रनाथ जी ने शिक्षा एवं सेवा के क्षेत्र में अपना महत्त्वपूर्ण योगदान दिया है और दे रहे हैं।
फरीदाबाद (हरियाणा) की सुप्रसिद्ध कम्पनी "न्यूकेम प्लास्टिक लि." के मैनेजिंग डायरेक्टर रहे श्री जैन हसमुख एवं मिलनसार हैं, आप दीनदुखियों तथा जरूरतमंदों को हरसंभव सहयोग करते हैं । आप फरीदाबाद इंडस्ट्रियल एसोशिएशन के प्रधान भी रहे हैं । इसके अतिरिक्त जैन परमार्थफंड के प्रधान के पद पर रह कर आपने मानव मात्र की नि:स्वार्थ सेवा की है।
आपका सारा परिवार धार्मिक एवं सामाजिक कार्यों में सदा अग्रणी रहता है। आप उत्साही, मिलनसार, उदार, सेवाभावी और कर्मठ व्यक्तित्व के धनी हैं । असाम्प्रदायिक दृष्टिकोण और मानवसेवा आपकी विशेषता है । अनाग्रहपूर्ण चिंतन और व्यवहार में अहिंसा के प्रति जागरूक श्री जैन का परिवार एक आदर्श परिवार है।
विद्यापीठ के हीरक जयंती के अवसर पर श्री भूपेन्द्रनाथ जी की सेवाओं के उपलक्ष्य में गौरव ग्रंथ प्रकाशित कर उनके गुणों का आकलन किया जा रहा है जिसके लिए मुझे प्रसन्नता है । वीर प्रभु से प्रार्थना है कि - श्री जैन स्वस्थ रहें और दीर्घायुष्य को प्राप्त हों ताकि समाज को हर क्षेत्र में अपनी सेवाएं प्रदान करते रहें। इन्हीं शुभकामनाओं सहित ।
*अध्यक्ष, पार्श्वनाथ विद्यापीठ प्रबन्ध समिति।
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मेरे अनन्य भूप जी
अरिदमन जैन*
हम दोनों का जन्म, एक ही परिवार के वृक्ष की दो शाखाओं में बाजार ढोलनदास के समीप गली भावड़या (भाव बड़ेजैनियों को उन दिनों पंजाब में इसी नाम से सम्बोधित किया जाता था), अमृतसर के एक ही मकान में हुआ था ।
भूपेन्द्र नाथ स्वर्गीय लाला हरजसराय जी के द्वितीय पुत्र मेरे से एक साल से कुछ अधिक छोटे हैं। एक ही स्कूल में हमारी शिक्षा हुई। एक ही परिवार, एक ही मकान, एक ही शिक्षा स्थान पर इकट्ठे ही खेलना, दिन भर इतनी निकटता थी।
दसवीं श्रेणी की परीक्षा पास करके मैं अपने स्वर्गीय पूज्य पिता जसवंतराय जी के साथ दुकान पर हो लिया था। भूपेन्द्रनाथ एक साल बाद दसवीं पास करके लाहौर फार्मन क्रिश्चियन कालेज में प्रवेश पा गये थे। वहीं से उन्होंने माध्यमिक परीक्षा पास करके सन् १९३६ में एक साल के लिए काशी हिन्दू विश्वविद्यालय में सन् १९३६ में इन्जीनियरिंग की शिक्षा पाने के लिए प्रवेश लिया, पर स्वास्थ्य ठीक न रहने के कारण एक साल बाद मुगलपुरा लाहौर में आ गए। वहीं से अन्त में उच्च श्रेणी में मैकेनिकल इन्जीनियरिंग की परीक्षा में उत्तीर्ण हुए । १९३७ में जब पार्श्वनाथ विद्याश्रम की ताराणसी में स्थापना हुई, तो वे वाराणसी में ही काशी हिन्दू विश्वविद्यालय में ही थे ।
इसके बाद हमारा सम्पर्क टूट सा गया। आपकी शादी सन् १९४१ फरवरी के अन्त में कसूर में सेठ मोहनलालजी की ज्येष्ठ लड़की स्वर्गीय श्रीमती शकुन्तला रानी से हुई थी। भूपेन्द्रनाथ जी को प्रारम्भ से ही संगीत, कला आदि में रुचि थी। स्कूल में ड्राईंग में या कोई अन्य कलात्मक वस्तुओं की बनावट आदि समझने में विशेष रुचि थी। इसी कारण उनका उद्देश्य व मन इन्जीनियरिंग पढ़ने की ओर विशेष था। स्कूल में बैण्ड या गायन समूह में भाग लेना, हारमोनियम आदि को सीखने की रुचि भी रही। बाद में राग आदि का भी अभ्यास किया और गुरु-शिष्य की परम्परा के अनुसार एक वर्ष तक सीखा भी। गुरु महाराष्ट्रियन
थे ।
स्नेहशील, घृणा, क्रोध व द्वेष से दूर, जैसा ही उनका आचरण रहा। वे सहयोग देने व लेने में विश्वास रखते हैं। अपने पिता की तरह समाज सेवा की उनमें आन्तरिक इच्छा है और ऐसा प्रयास भी रहता है। समाज में "पार्श्वनाथ विद्यापीठ" के संचालक के नाते उनका विशेष आदर है। हमें उनपर पारिवारिक गर्व है। आदर व स्नेह से बड़े-छोटे सभी उनको भूपजी कहकर ही सम्बोधित करते रहे हैं ।
* पूर्व अध्यक्ष, पार्श्वनाथ विद्यापीठ, वाराणसी ।
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निष्काम सेवक : भाई भूपेन्द्रनाथ जी
प्रो० सागरमल जैन*
भाई साहब श्री भूपेन्द्रनाथ जी जैन से मेरा प्रथम परिचय मेरे पार्श्वनाथ विद्याश्रम शोध संस्थान के निदेशक पद पर नियुक्ति के पश्चात् हुआ इसके पूर्व मेरी प्रतिनियुक्ति के सम्बन्ध में जो भी चर्चा हुई, वह पंडित दलसुखभाई मालवणिया, श्री शादीलाल जी जैन और श्री गुलाब चन्द्र जैन से हुई। मेरे वाराणसी आगमन के पश्चात् जब प्रथम बार भाई साहब भूपेन्द्रनाथ जी वाराणसी पधारे, तब ही वे मेरे निकट परिचय में आये। यद्यपि प्रथम बार वे होटल में रुके किन्तु बाद में मेरे आग्रह से परिवार के साथ ही रुकने लगे। क्रमश: हमारे बीच की दूरी समाप्त हो गयी और वे मुझे अपना एक विश्वस्त साथी मानने लगे। यह अभिन्नता इस सीमा तक आगे बढ़ी कि ये मुझे छोटा भाई ही मानने लगे। स्वभाव से भाई भूपेन्द्र नाथ जी किसी पर सहज विश्वास नहीं कर पाते, किन्तु जब वे किसी पर विश्वास कर लेते हैं तो फिर वह पूरी तरह विश्वास कर लेते हैं । मेरे लिये यह सौभाग्य का विषय ही रहा कि १८ वर्षों की इस अवधि में हम दोनों के बीच अविश्वास की कोई रेखा न खिंच पाई और न हमारी अभित्रता में कोई कमी आ पायी। भाई साहब भूपेन्द्रनाथ जी से मुझे जो स्नेह, आत्मीयता और विश्वास मिला, मैं समझता हूँ पार्श्वनाथ विद्यापीठ के हेतु मैं जो कुछ भी कर सका वह उसी का परिणाम है । किसी भी संस्था की सफलता और असफलता का रहस्य उसके कार्यकर्ताओं के बीच पारस्परिक विश्वास, सहयोग की भावना और वैचारिक सामंजस्य ही होता है। परिवार से बहुत दूर वाराणसी में उत्पन्न परिस्थतियों वश अनेक बार मैं वाराणसी में रहने हेतु अन्यमनस्क भी हुआ किन्तु भाई साहब के सहज स्नेह के कारण कभी कुछ कहने का साहस नहीं कर पाया । यह उनका मेरे प्रति अटूट विश्वास ही था कि मैं इतनी लम्बी अवधि तक वाराणसी में रहकर संस्था की विकास-यात्रा में उनका सहभागी बना रहा। भाई भूपेन्द्रनाथ के सोचने और कार्य करने का ढंग एक क्रान्तिकारी जैसा ही है । परिस्थितियों से समझौता करने की अपेक्षा वे सत्य के निकट अडिग भाव से खड़े रहने में ही अधिक विश्वास करते हैं और इसलिए कभीकभी सामाजिक बुराइयों के प्रखर आलोचक के रूप में उनसे कोई समझौता नहीं कर पाते । उनका यह गुण मेरी मनोभूमिका के अतिनिकट होने के कारण हम दोनों में वैचारिक सामंजस्य बना रहा। यद्यपि हमारा यह स्वभाव संस्था की विकास-यात्रा में कहीं-कहीं बाधक प्रतीत हुआ। किन्तु मनोभूमिका का यह नैकट्य हमारी सहयात्रा में साधक ही रहा।
आज वे लगभग अस्सी वर्ष की इस आयु में संस्था के विकास के लिये सजग हैं । संस्था का यह सौभाग्य है कि उसे एक सजग प्रहरी मिला है । भाईसाहब ने संस्था के लिये बहुत कुछ किया, किन्तु श्रेय हमेशा दूसरों को दिया । पद और यशकीर्ति की आकांक्षा से बहुत दूर वे संस्था के निष्काम सेवक के रूप में कार्य करते रहें हैं।
*मानद निदेशक, पार्श्वनाथ विद्यापीठ, वाराणसी।
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लक्ष्मी एवं सरस्वती की प्रतिमूर्ति : आदरणीय श्री भूपेन्द्रनाथ जी जैन
डॉ० सुरेश सिसोदिया *
सम्पन्नता की प्रतिमूर्ति 'लक्ष्मी' एवं विद्या की प्रतिमूर्ति 'सरस्वती' इन दोनों का निवास साथ-साथ भी हो सकता है, इस कथन की सत्यता को वह व्यक्ति सहज ही स्वीकार कर सकता है जो आदरणीय श्री भूपेन्द्रनाथ जी जैन के व्यक्तित्व एवं कृतित्व से परिचित हो ।
मूलत: अमृतसर एवं सम्प्रति फरीदाबाद निवासी श्रीमान भूपेन्द्रनाथ जी जैन से मेरा परिचय विगत दस वर्षों से उस स्थिि में है जब से मैं जैन विद्या के क्षेत्र में अध्ययन अनुसंधान हेतु विद्या-नगरी वाराणसी में आप द्वारा संचालित श्री पार्श्वनाथ विद्यापीठ के निदेशक बहुश्रुत जैन विद्वान् प्रो० सागरमल जैन के सान्निध्य में जाता रहा हूँ ।
भौतिक दृष्टि से देखें तो श्रीमान् भूपेन्द्रनाथ जी जैन सा० के पास प्रचुर सम्पत्ति है तभी आप एवं आपका परिवार विगत कई वर्षों से पार्श्वनाथ शोधपीठ नामक उस संस्थान का संचालन कर रहा है जहाँ आय के स्रोत सर्वथा बन्द हैं केवल व्यय के मार्ग ही खुले हैं। ऐसी संस्थाओं का संचालन एवं संपोषण आप जैसे लक्ष्मीपुत्र ही कर सकते हैं और कर रहे हैं ।
शैक्षिक दृष्टि से देखें तो पार्श्वनाथ विद्यापीठ की असाम्प्रदायिक संस्थान के रूप में जो ख्याति है वह यहाँ के निदेशक एवं शोधकर्ताओं के कारण तो है ही किन्तु इसके मूल में श्री भूपेन्द्रनाथ जी की सम्प्रदाय निरपेक्ष दृष्टि है। समय-समय पर विद्यापीठ में अधिकारी एवं कर्मचारीगण नये-नये आते रहे, बदलते रहे किन्तु यह विद्यापीठ सदैव सम्प्रदाय निरपेक्ष बना रहा, इसका मूलकारण इस विद्यापीठ का सतत संचालन करने वाले सरस्वती पुत्त श्री भूपेन्द्रनाथ जी जैन की साम्प्रदायिक आग्रहों से सर्वथा विमुक्त दृष्टि ही है ।
श्री पार्श्वनाथ विद्यापीठ अपनी इस असाम्प्रदायिक दृष्टि को सदैव बनाए आदरणीय भूपेन्द्र नाथ जी जैन सा० शतायु तथा सस्वस्थ जीवन पर्यन्त इसी लगन, निष्ठा, समर्पण एवं असाम्प्रदायिक दृष्टि से पार्श्वनाथ विद्यापीठ का संचालन करते रहें, यही मंगल कामना है ।
* शोधाधिकारी, आगम अहिंसा, समता एवं प्राकृत संस्थान, उदयपुर ।
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अहिंसावादी सिद्धान्त की प्रतिमूर्ति : श्री भूपेन्द्रनाथ जैन
डॉ० रमेश चन्द्र गुप्त*
वर्ष १९८२ में जब मैंने पार्श्वनाथ विद्यापीठ से शोध छात्र के रूप में कार्य प्रारम्भ किया। उस समय मुझे ज्ञात हुआ कि श्री भूपेन्द्रनाथ जी जैन, प्रबन्ध निदेशक, न्यूकेम लि० फरीदाबाद इस विद्यापीठ के मन्त्री हैं। वर्ष १९८४ में प्रथम बार विद्यापीठ के कार्य हेतु मैं फरीदाबाद उनके निवास पर मिलने गया, तो उन्होंने बहुत ही आत्मीयता एवं मृदुलता के साथ मेरे बारे में तथा विद्यापीठ की गतिविधियों के बारे में सहज ढंग से बात की। तब मुझे विस्मय हुआ कि क्या एक बहुत बड़ी कम्पनी के प्रबन्ध निदेशक इतने सरल एवं विनम्र स्वभाव के व्यक्तित्व भी हो सकते हैं । वास्तव में वे जिन धर्म के अहिंसावादी सिद्धान्त (मन, वचन एवं शरीर से भी किसी प्राणी को द:ख न पहँचे) की प्रतिमूर्ति हैं। इसका प्रत्यक्ष दर्शन मुझे उस समय हुआ जब दोपहर के भोजनोपरान्त जैन साहब मुझे न्यूकेम फैक्टरी दिखाने ले गये। फिर सम्पूर्ण फैक्टरी परिसर में पैदल ही मेरे साथ-साथ रहे । उस समय सभी कर्मचारी बहुत ही आदर के साथ उनका अभिवादन कर रहे थे, यह उनके मनसा, वाचा, कर्मणा व्यवहार का ही प्रतिफल कहा जाये तो कोई अतिशयोक्ति न होगी।
श्री जैन साहब की अध्ययन के प्रति भी प्रगाढ़ रुचि का प्रमाण ही पार्श्वनाथ विद्यापीठ है । वर्ष १९९६ में उनके अथक प्रयास से ही विश्वविद्यालय अनुदान आयोग की एक समिति ने मान्य विश्वविद्यालय के बारे में अपनी आख्या का करोड़ की स्थायी निधि के परन्तुक के साथ की है । मुझे आशा ही नहीं वरन् पूर्ण विश्वास है कि श्री जैन साहब अपने लक्ष्य में अवश्य सफल होंगे।
मैं श्री जैन साहब के बहुमुखी व्यक्तित्व को नमन करते हुए ईश्वर से उनके शतायु होने की मंगल कामना करता हूँ।
*संस्थापक : बाल विद्यापीठ, आँवला (बरेली)।
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एक उदारमना व्यक्तित्य : श्री भूपेन्द्रनाथ जैन
डॉ० अरुण प्रताप सिंह
मैंने जब सन् १९७५ में पार्श्वनाथ विद्याश्रम शोध संस्थान में शोध-छात्र के रूप में पञ्जीकरण कराया था तब उस समय श्रीमान् हरजसराय जी जैन संस्थान के मन्त्री थे । वे अत्यन्त दयालु, धर्मनिष्ठ एवं सामाजिक कार्यों हेतु समर्पित एक सुश्रावक थे। उन्होंने जैन विद्या के विकास के लिये अपना सम्पूर्ण जीवन समर्पित कर दिया ।
श्री हरजसराय जी के दिवंगत होने के पश्चात् उनके सुयोग्य पुत्र श्रीमान् भूपेन्द्रनाथ जी ने मंत्री के रूप में संस्थान की बागडोर सम्भाली और अपने सत्प्रयासों से संस्थान को पार्श्वनाथ विद्यापीठ के रूप में विकसित करके श्रमण विद्या के विभिन्न शाखाओं में शोध के लिये एक नवीन मार्ग प्रशस्त किया है ।
श्री भूपेन्द्रनाथ जी अत्यन्त सरल एवं उदार व्यक्तित्व के धनी हैं । कुल क्रमागत धार्मिक निष्ठा उन्हें विरासत में मिली है और यही कारण है कि वे विद्यापीठ के सतत् विकास हेतु पूर्णतः समर्पित हैं। पार्श्वनाथ विद्यापीठ द्वारा उनके सम्मान में आयोजित समारोह के अवसर पर मैं यह मङ्गलकामना करता हूँ कि उनका विद्यानुराग उत्तरोत्तर वृद्धिगत होता रहे।
*प्रवक्ता, इतिहास विभाग, एस० बी० डिग्री कालेज, बलिया। (उत्तर-प्रदेश)
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एक निरभिमानी व्यक्तित्य : श्री भूपेन्द्रनाथ जी जैन
डॉ० श्रीप्रकाश पाण्डेय*
किसी भी व्यक्ति के व्यक्तित्व का मूल्यांकन अपने आप में एक दुरूह कार्य होता है क्योंकि व्यक्ति का व्यक्तित्व उसके चरित्रपटल पर उभरने वाली आड़ी-तिरछी बहुरंगी रेखाओं का वितान होता है । ऐसा ही इन्द्रधनुषी व्यक्तित्व है श्रद्धेय श्री भूपेन्द्रनाथ जी जैन का, जिनके व्यक्तित्व के सात रंग हैं- सरलता, मृदुता, दूरदर्शिता, विवेकशीलता, निरभिमानता, कार्यकुशलता एवं दृढ़ संकल्प।
आपसे मिलने से पूर्व मैं सोचा करता था कि उस व्यक्ति का व्यक्तित्व कैसा होगा जो इतने बड़े शोध-संस्थान का गुरुतर भार अपने अकेले कन्धों पर वहन कर रहा है। हमारी परिकल्पनाओं को मूर्त रूप तब मिला जब सन् १९९० में आपसे मेरा प्रथम साक्षात्कार हुआ, और तब मैने जाना कि आप सौम्यता एवं सादगी की प्रतिमूर्ति हैं । धन, वैभव का लेशमात्र भी अभिमान आपने में नहीं है । पार्श्वनाथ विद्यापीठ से जुड़ने के बाद, संस्थान के सचिव के रूप में आपका सानिध्य मेरे लिए गर्व की बात है। विवेकशीलता, निर्णय लेने की अप्रतिम क्षमता, सत्य की पक्षधरता एवं कर्मठता आपके व्यक्तित्व के कुछ ऐसे बिन्दु हैं जो किसी को भी अनायास ही अपनी ओर आकर्षित कर लेते हैं।
पार्श्वनाथ विद्यापीठ आज प्रगति के जिन सोपानों पर चढ़ सका है उसमें आपकी सूझ-बूझ एवं कुशल प्रबन्धन का बहुत बडा हाथ है। पार्श्वनाथ विद्याश्रम से पार्श्वनाथ विद्यापीठ तक की साठ वर्षों की विकास यात्रा-मार्ग पर आपके मार्गदश स्पष्टतः देखे जा सकते हैं । संस्थान उत्तरोत्तर विकास करता रहे, यही आपके लिए सबसे बड़ा प्राप्तव्य है। अपने पूर्वजों की धरोहर को अपनी लगन व मेहनत से आपने जो सम्मान और इज्जत बख्शी है, वह निश्चित ही अनुकरणीय है । आपके एक-एक शब्द मेरे लिए प्रेरणा स्रोत हैं।
___ आपके अभिनन्दन के इस पुनीत अवसर पर आपका अभिनन्दन करते हुए ईश्वर से यही प्रार्थना करता हूँ कि आप शतायु हों, दीर्घायु हों।
*प्रवक्ता, जैन विद्या विभाग, पार्श्वनाथ विद्यापीठ ।
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सेवाभावी : भूपेन्द्रनाथ जी
डॉ० बशिष्ठ नारायण सिन्हा*
आदरणीय श्री भूपेन्द्रनाथ जी जैन पार्श्वनाथ विद्यापीठ के द्वितीय मंत्री हैं । इनसे मेरा परिचय काफी पुराना है। जब मैं सन् १९५८ में एम०ए० द्वितीय वर्ष का विद्यार्थी बना, अपने पाठ्यक्रम के वैकल्पिक पत्र के रूप में जैन दर्शन लिया जिसके कारण मुझे इस संस्था से छात्रवृत्ति मिली, साथ ही संस्था में रहने की सुविधा भी। उस समय श्री भूपेन्द्रनाथ जी के पिता श्री स्व० लाला हरजसराय जी जैन संस्थान के मंत्री थे तथा स्व० मुनि कृष्णचन्द्राचार्य जी अधीक्षक । पार्श्वनाथ विद्याश्रम शोध संस्थान तब अपने निजी भवन में नहीं बल्कि करौंदी में ही किराये के मकान में था। स्व०लाला हरजसराय जी संस्था की गतिविधि के निरीक्षण हेतु संस्थान में आया करते थे। वे स्वभावत: सरल और सज्जन थे। वे एक अधिकारी के रूप में आते थे, किन्तु उनके व्यवहार से पारिवारिक अपनत्व का सुख मिलता था। हम विद्यार्थी उनका सम्मान उस तरह करते थे जैसे कोई व्यक्ति अपने अभिभावक को आदर करता
श्रद्धेय लाला हरजसराय जी जैन के स्वर्गारोहण के बाद पार्श्वनाथ शोध संस्थान में एक रिक्तता सी सामने आयी, उसकी पूर्ति तुरन्त ही बन्धुवर श्री भूपेन्द्रनाथ जी जैन द्वारा हो गयी। तब से लेकर आज तक ये पार्श्वनाथ विद्यापीठ के मंत्री पद को सुशोभित कर रहे हैं। मन्त्री बनने से पहले भी श्री जैन अपने पिताश्री के साथ यहाँ आया करते थे और इनसे भेंट हुआ करती थी। ये अपने पिताश्री की तरह ही मृदुभाषी और सहृदय व्यक्ति हैं। संस्थान के अधिकारी होने तथा इससे पूर्व की स्थितियों में होनेवाले इनके व्यवहारों में कोई अन्तर दिखाई नहीं देता है। ये पहले जिस तरह अपने लगते थे आज भी उसी तरह अपने लगते हैं।
श्री भूपेन्द्रनाथ जी जैन पार्श्वनाथ विद्यापीठ के मात्र औपचारिक मंत्री नहीं है बल्कि तन, मन तथा धन से समर्पित होकर ये इस संस्थान के विकास के लिए प्रयत्नशील रहते हैं। इनके मंत्रीत्वकाल में संस्थान का दिन व दिन बहुमुखी विकास होता आ रहा है। भवन निर्माण, ऐतिहासिक पुरातात्त्विक संग्रह, प्रकाशन, पुस्तकालय, संगोष्ठी, सामाजिक कार्य आदि सब में संस्थान को प्रशंसनीय सम्पन्नता प्राप्त है। संभवत: ऐसा इसलिए हो रहा है कि श्री जैन की अनुभूति में शास्त्रों की यह मान्यता बिल्कुल घर कर गई है"पिता द्वारा प्रारम्भ किये गये किसी भी शुभ संकल्प को सम्पूर्ण सफलता तक पहुँचाना पुत्र का परम धर्म होता है।"
मैं आदरणीय श्री भूपेन्द्रनाथ जी जैन का हार्दिक अभिनन्दन करता हूँ, साथ ही इनके स्वस्थ एवं सुखी जीवन की शुभकामना करता हूँ ताकि इनकी छत्रछाया में पार्श्वनाथ विद्यापीठ की उत्तरोत्तर समृद्धि हो और जैन परम्परा ही क्या बल्कि सम्पूर्ण भारतीय परम्परा को समुचित सेवा व सहयोग प्राप्त हो सके।
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मेरे अग्रज भूपेन्द्रनाथ जैन
श्री रोमेश चन्द्र बरड़
श्री भूपेन्द्रनाथ जी मेरे बड़े भाई हैं। मुझे उद्योग सम्बन्धी ज्ञान सब उन्हीं से मिला है। सन् १९५१ से सन् १९७६ तक मैंने उनकी छत्र-छाया में काम किया और १९७७ से उन्होंने काम-काज का भार मुझ पर छोड़ दिया और पिताजी के साथ धार्मिक और सामाजिक कार्यों में रुचि लेने लगे। पिताजी ने ही पार्श्वनाथ विद्यापीठ की जो रूपरेखा अपने मन में बनाई थी, आज भूपेन्द्रनाथ जी उसे लेकर चल रहे हैं। सारा बरड़ परिवार उनकी इस उपलब्धि से गौरव का अनुभव करता है और ईश्वर से उनकी दीर्घ आयु की प्रार्थना करता है।
*प्रबन्ध निर्देशक, न्यूलेम लिमिटेड, फरीदाबाद ।
आदरणीय बाबूजी
श्री अरुण जैन*
आदरणीय बाबूजी श्री भूपेन्द्रनाथ जी जैन को मैं बचपन से जानता हूँ। मेरे पिता स्व० श्री गुलाबचन्द जैन के आज आप मित्र एवं सहयोगी रहे हैं। पिताजी के स्वर्गवास के पश्चात् बाबूजी की प्रेरणा से मेरा सम्पर्क पार्श्वनाथ विद्यापीठ से हुआ। विगत् दस वर्षों से मैं संस्थान की प्रबन्ध समिति की विभिन्न मीटिगों में सक्रिय रूप से भाग लेता रहा हूँ।
आदरणीय श्री भूपेन्द्रनाथ जी जैन ऐसे व्यक्ति हैं जो संस्था की छोटी से छोटी गतिविधि में भी एक कार्यकर्ता की तरह समर्पित हैं। यदि यह कहा जाए कि वे अपने आप में एक संस्था हैं तो कोई अतिशयोक्ति नहीं होगी, क्योंकि किसी भी कार्य को पूर्ण करके संस्था के सम्मानित व्यक्ति को उस कार्य का श्रेय देना उनकी सादगी, महानता और नि:स्वार्थ सेवा भावना का परिचायक है। मेरी प्रभु से प्रार्थना है कि आप वर्षों-वर्षों तक इसी प्रकार कार्य करते हुए युवक साथियों की प्रेरणा के ज्वलन्त उदाहरण बने रहें।
*ईना, कालिन्दी कालोनी, नई दिल्ली-११००६५
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डॉ० भूपेन्द्रनाथ जैन : एक कर्मठ व्यक्तित्व
मोहनलाल खरीवाल* यह जानकर प्रसन्नता हुई कि पार्श्वनाथ विद्यापीठ अपनी हीरक जयन्ती अप्रैल में मना रहा है। श्रीमान् भपेन्द्रनाथ जी जैन अभिनन्दन ग्रंथ इस शुभ अवसर पर प्रकाशित हो रहा है, यह उन सभी लोगों के लिए संतोषप्रद है, जिन्होंने संस्था में रहकर अपना जीवन बनाया है। इस संस्था की स्थापना का इतिहास भी अनोखा एवं अभूतपूर्व है । प्रज्ञाचक्षु पंडित सुखलालजी के नेतृत्व में पंजाब के स्थानकवासी समाज ने एक ऐसी संस्था की स्थापना की, जिसमें सांप्रदायिकता का कहीं भी नामो निशान नहीं है। आज तक निकले ६० पी-एच०डी० इसके उदाहरण हैं । स्वर्गीय पूज्य हरजसरायजी के बाद इसका संचालन श्रीमान् भूपेन्द्रनाथजी ने अपने हाथ में लिया और कशलता पूर्वक इसका संचालन किया । आर्थिक दृष्टि से इसको संपन्न बनाने में इनका महत्त्वपूर्ण योगदान रहा है। जबजब भी संस्था आर्थिक अभाव में आई, उन्होंने अपने परिवार एवं मित्रों के सहयोग से उसको पूर्ण करने का भरसक प्रयत्न किया चूंकि यह संस्था किसी भी संप्रदाय से संबंधित नहीं थी, इसलिए अर्थ संग्रह में उन्हें खूब परिश्रम करना पड़ा। मुझे भी उनके साथ एक-दो बार रहने का मौका मिला और पत्र व्यवहार भी रहा । उनकी हर समय यही चिन्ता रहती है कि संस्था का सभी दृष्टियों से कैसे विकास हो ।
पूज्य पंडित दलसुखभाई मालवणिया एवं पूज्य पंडित शान्तिभाई वनमाली सेठ की मेरे प्रति बहुत सहानुभूति रही परन्तु तकनीकी कारषों से मेरा इस संस्था में प्रवेश मिलना संभव नहीं हुआ। फिर भी बीच का रास्ता का निकालकर मुझे एक कार्यकर्ता के रूप में चार वर्ष रखा और मेरे ऊपर सम्पूर्ण प्रेम और सद्भाव रखा । स्वर्गीय पूज्य हरजसरायजी के कार्य को उनके सुपुत्र ने उसी योग्यता से संभाला और संस्था को इस मोड़ पर लाकर खड़ा कर दिया कि आज यह विश्वविद्यालय बनने की दहलीज पर खड़ी है। यह श्री भूपेन्द्रनाथ जी की ही योग्यता एवं उनके परिश्रम का फल है कि आज हम पार्श्वनाथ विद्यापीठ की हीरक जयंती मना रहे हैं । स्वर्ण जयंती पर आने का भी मुझे शुभ अवसर मिला था।
असाम्प्रदायिक संस्था को इस स्तर पर लाना एक कठिन ही नहीं, बल्कि असंभव है। जिन कार्यकलापों एवं उद्देश्य से संस्था की स्थापना की, संस्था आज भी उन्हीं पर अडिग है फिर चाहे उस पर कैसी भी मुसीबत आ जाए । वह लोहे के स्तंभ की तरह अडिग है।
मैं इस शुभ अवसर पर श्रीमान् भूपेन्द्रनाथ जी की चिरायु की कामना करता हूँ और ईश्वर से यही प्रार्थना करता हूँ कि उन्हें वह शक्ति प्रदान करे जिससे वे संस्था का संचालन सुचारु रूप से कर सकें।
मेरे हृदय में संस्था के प्रति इतनी श्रद्धा, समर्पण एवं आदरभाव है जिसका मैं वर्णन नहीं कर सकता । मैं एवं मेरा परिवार हमेशा इस संस्था के प्रति पूज्य भाव रखेगा । क्योंकि इस संस्था का मेरे पर बहुत उपकार है ।
___मैं तो लेखक हूँ और न ही विद्वान् । सिर्फ एक एकाउन्टेन्ट हूँ फिर भी संस्था से जुड़े रहने से मुझे बहुत लाभ मिला है। मैं चिर ऋणी हूँ संस्था का, संस्था के संस्थापकों एवं उसके संचालकों का ।
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भूपजीके साथ बिताये क्षणों कीमधुर स्मृतियाँ
डॉ० कमल जैन* जिन विशिष्ट व्यक्तियों के संपर्क से जीवन। समृद्ध हआ है, जिनकी महक जीवन को निरंतर सुरभित करती रहती है, उन श्रेष्ठ मानवों की इस विशिष्ट परम्परा में आदरणीय श्री बी० एन० जैन जी भी हैं, जिन्हें हम भूप भाईसाहब कहते हैं। आप सफल उद्योगपति, अनेकानेक संस्थाओं के प्रणेता एवं आश्रयदाता, समाजसेवी, जैनधर्मदर्शन के प्रति गहन आस्था रखने वाले एवं मानवीय भावना से ओत-प्रोत हैं। आदर्शों से संपूरित भाईसाहिब का जीवन जन मानस को नई दिशा देने वाला है।
समाजसेवा, स्नेह, करुणा, सद्भावना आदि मानवीय संस्कारों के बीज इन्हें अपने अग्रजों से उत्तराधिकार में मिले हैं। यह इनके अग्रजों की दूर-दृष्टि ही थी जो उन्होंने विद्या की पुण्यस्थली काशी में जैन विद्यामन्दिर 'पार्श्वनाथ शोध संस्थान' की स्थापना करवाई। अपने पूर्वजों से प्राप्त गौरवमयी थाती को इन्होंने अक्षुण्ण रखा है। आपका दृढ़ विश्वास है कि प्राचीन जैन साहित्य की संपदा की सार संभाल न की गई तो वह काल कवलित हो जायेगी। बहुत से अमूल्य ग्रन्थ रत्न जो विस्मृति की धूल से धूसरित एवं उपेक्षित पड़े हैं, उनका उद्घाटन होना चाहिये । उनके संपादन एवं प्रकाशन हेतु आप सदैव प्रयासरत रहते हैं । जैन धर्म एवं दर्शन के अध्ययन के लिये विद्वानों को सामग्री हिन्दी या अंग्रेजी में उपलब्ध हो सके, इसके लिये विद्यार्थियों एवं शोधकर्ताओं को गवेषणात्मक तथा प्रामाणिक शोधग्रंथ लिखने हेतु प्रोत्साहन देते हैं । उन्हें विभिन्न सुविधायें और आर्थिक संबल प्रदान करते हैं । विचारों के आदानप्रदान को बौद्धिक विकास के लिये आवश्यक मानते हुये समय-समय पर विद्वत्वर्ग की गोष्ठियों को आयोजित करवाना भी आपकी विशेषता है। अपनी पारिवारिक, सामाजिक एवं व्यावसायिक व्यस्तताओं के बावजूद आप इन गोष्ठियों में भाग लेते हैं। जहां आपके प्रगतिशील विचार मुखरित हो उठते हैं । आपका ध्येय ऐसी सृजनात्मक शक्ति को जाग्रत करना होता है जिसके द्वारा समाज में सामाजिक और नैतिक दायित्वों के प्रति सजगता उत्पन्न हो सके । युग की आवश्यकताओं के अनुसार आचार-व्योहार में परिवर्तन होना चाहिये, ऐसी आपकी मान्यता है । काल की कसौटी पर चमकने वाला पुरातन भी आपको मान्य है । पुरातन और आधुनिकता का अद्भुत सामञ्जस्य है, आपके व्यक्तित्व में । आपके कर्मठ, दायित्व बोध से परिपूर्ण एवं प्रबन्ध-पट व्यक्तित्व के कारण ही आज पार्श्वनाथ विद्यापीठ इस उन्नति के शिखर पर पहुंचा है। आपकी योजनाबद्ध कार्यप्रणाली में व्यक्ति की मानसिकता के अनुसार कार्य निर्देशन की दृष्टि एवं योजनाओं को कुशलता से कार्यान्वित करवाने में आपकी विशिष्ट क्षमता है । सच तो यह है कि आपके सर्वतोमुखी व्यक्तित्व के बिना विद्यापीठ की जीवन्तता की कल्पना ही नहीं की जा सकती।
वात्सल्य की शीतलता से युक्त आपका व्यक्तित्व अनायास ही आगन्तुक को अपनी ओर आकर्षित कर लेता है । मुझे और मेरे पतिदेव को जब-जब भाई साहब के सम्पर्क में आने का अवसर मिला है, हम उनके बहुमुखी गरिमा मंडित शालीन व्यक्तित्व से प्रभावित हुये हैं । आपके साथ बिताये हुये भावपूर्ण क्षणों के संस्मरण हमारे हृदय में गहरे उतर गये हैं । १२ दिसम्बर १९९४ में पार्श्वनाथ विद्याश्रम में शंकराचार्य के स्वागत समारोह में आपका आना हुआ, १४ दिसम्बर को मेरे पुत्र का विवाह था, मेरी हार्दिक इच्छा थी कि आप इस समारोह की शोभा बढ़ायें, पर आपके स्वास्थ्य और व्यस्तता को देखते हुये, कुछ असमंजस की स्थिति में थी। पर जब मैने आपको आंमत्रित किया तो अपने सहर्ष स्वीकृति देते हुये कहा कि बहन के घर तो मुझे आना ही है, आपके इन शब्दों में मुझे और मेरे परिवार को कितना प्रफुल्लित किया, उसे शब्दों में नहीं बता सकती। आपका स्नेह और आशीर्वाद मुझे सदैव मिलता रहा है।
निरपेक्ष भाव से अपने स्नेह की सुगन्ध चारों ओर बिखरने वाले इस कर्मयोगी का सहयोग जैन विद्या और पार्श्वनाथ विद्यापीठ से जुड़े हर व्यक्ति को और जैन समाज को मिलता रहे तथा आप स्वस्थ एवं दीर्घायु हों ऐसी, मेरी उस मंगलकारी भगवान से प्रार्थना
*पूर्व प्रवक्ता, पार्श्वनाथ विद्यापीठ, वाराणसी ।
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संस्मरण/मंगल कामना
डॉ. विजय कुमार जैन* यह मैं अपना सौभाग्य समझता हूँ कि मुझे श्री पार्श्वनाथ विद्याश्रम में रहने का सौभाग्य प्राप्त हुआ, जिसके मंत्री श्री भूपेन्द्रनाथ जी जैन उस समय थे और आज भी हैं । आपके कुशल प्रबन्धन का परिणाम है कि पाश्वनार्थ विद्याश्रम (आज विद्यापीठ) एक आदर्श (मंडल) संस्थान बन गया है । इसका जैन विद्या के अध्ययन में एवं शोध संस्थानों के मानक में प्रथम स्थान है । आज, जब देश में शिक्षा-संस्थानों के प्रबन्धक शिक्षा-माफिया के रूप में संस्थानों का दोहन करने में लगे हैं, श्री भूपेन्द्रनाथ जी जैसे प्रबन्धक इस संस्थान को दान देकर कुशल प्रबन्धन से विद्याश्रम रूपी वटवृक्ष का सिंचन कर इसका सर्वतो मुखी विकास कर रहे हैं।
विद्याश्रम में रहने के दौरान श्री भूपेन्द्रनाथ जी से कई बार मिलने का सौभाग्य प्राप्त हुआ। आपका विद्वानों के प्रति सम्मान की भावना एवं छात्रों के प्रति स्नेह देखते बनता है। आधुनिक सुविधाएँ एवं संसाधन जुटाकर आपने विद्याश्रम परिवार को हमेशा ही प्रगति के मार्ग पर प्रशस्त किया । आपके परिवार के ही द्वारा स्थापित यह संस्थान आपके कार्यकाल में भलीभाँति फलफूल रहा है। आगे आने वाली पीढ़ियां इसी तरह सींचती रहेगी, इसी शुभकामना के साथ पुनः कामना करता हूँ कि आप दीर्घायु हों ।
*अध्यक्ष-बौद्धदर्शन विभाग, केन्द्रीय संस्कृत विद्यापीठ, गोमतीनगर, लखनऊ
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हिन्दीखण्ड (श्रमणमें पूर्वप्रकाशितलेखोंकासंग्रह)
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अध्यात्मवाद : एक अध्ययन
आचार्य देवेन्द्र मुनि शास्त्री
भारतवर्ष सदैव अध्यात्म-विद्या की लीला-भूमि रहा है। और व्यापक विचार किया गया है। जैन दर्शन के अनुसार आत्मा प्रतापपूर्ण प्रतिभासम्पन्न विज्ञों ने अध्यात्म-क्षेत्र में जिस चिरन्तन सत्य चैतन्य स्वरूप है, षड द्रव्यों में स्वतंत्र द्रव्य है। नव पदार्थों में प्रथम का साक्षात्कार किया, उसकी प्रभास्वर-रश्मिमाला से विश्व का प्रत्येक पदार्थ है। सप्त तत्त्व में प्रथम तत्त्व है। पंचास्तिकाय में चतुर्थ अस्ति भभाग आलोकित है। भारतीय इतिहास व साहित्य प्रस्तुत कथन का काय है। उपयोग ही उसका मुख्य लक्षण है उपयोग शब्द ज्ञान और ज्वलन्त प्रमाण है कि आध्यात्मिक गवेषणा, अन्वेषणा और उसका दर्शन का संग्राहक हैं। चेतना के बोधरूप व्यापार को उपयोग कहते सम्यक् आचरण ही भारत के सत्यशोधी साधकों के जीवन का हैं। वह दो प्रकार का है: (१) साकार उपयोग, (२) और अनाकार एकमात्र अभिलषित लक्ष्य रहा है। आध्यात्मिक उत्कान्ति के द्वारा ही उपयोग। साकार उपयोग ज्ञान है और अनाकार उपयोग दर्शन है जो भारत ने विश्व का नेतृत्व किया और विश्वगुरु के महत्त्वपूर्ण पद से उपयोग पदार्थों के विशेष धर्म का (जाति, गुण, क्रिया आदि का) अपने को समलंकृत किया।
बोध कराता है वह साकार उपयोग है और जो सामान्य सत्ता का बोध भारतीय संस्कृति की विचारधाराएँ विविध रूपों व रंगों में कराता है वह अनाकार उपयोग है। यों आत्मा में अनन्त गुण पर्याय व्यक्त हुई हैं, जिनकी गणना करना असम्भव न सही कठिन अवश्य हैं किन्तु उन सभी में उपयोग ही प्रमुख और असाधारण है। वह है, तथापि यह निर्विवाद है कि जैन, बौद्ध और वैदिक ये तीनों स्वपर प्रकाशक होने से अपना तथा दूसरे द्रव्य, गुण, पर्यायों का धाराएँ ही उनमें प्रमुख हैं। इन त्रिविध धाराओं में ही प्राय: अन्य सभी ज्ञान करा सकता है। सुख-दुःख का अनुभव करना, अस्ति-नास्ति को धाराएं अन्तर्हित हो जाती हैं। उनमें अध्यात्मविद्या की गरिमा का जो जानना, यह सब उपयोग का ही कार्य है। उपयोग जड़ पदार्थों में नहीं मधुर गान गाया गया है वह भौतिक-भक्ति के युग में पले-पोसे होता क्योंकि उनमें चेतना शक्ति का अभाव है। इन्सान को भी विस्मय से विमुग्ध कर देता है। विमुग्ध ही नहीं, जो
आत्मा को ज्ञानस्वरूप कहा है। इसका अर्थ यह नहीं कि मानव भौतिकता की चकाचौंध में प्रतिपल प्रतिक्षण बहिर्द्रष्टा बनते जा वह ज्ञान के अतिरिक्त अन्य कुछ नहीं है, इसमें दर्शन भी है, आनन्द रहे हैं, जिन्हें अन्तर्दर्शन का अवकाश नहीं है, आत्म-मार्जन की भी है, अनन्तवीर्य भी है, अन्य धर्म भी हैं। वस्तुत: ज्ञान और आत्मा चिन्ता नहीं हैं, अन्तरतम की परिशुद्धि और परिष्कृति का उद्देश्य में गुण-गुणी का तादात्म्य सम्बन्ध है। ज्ञान गुण है, आत्मा गणी जिनके सामने नहीं है, केवल बहिर्दर्शन ही जिनके जीवन का परम (द्रव्य) है। इसी भाव को व्यक्त करने के लिये भगवतीसूत्र में कहा है
और चरम ध्येय है, उन्हें भी प्रस्तुत संगीत एकबार तो आत्म-दर्शन आत्मा ज्ञान भी है, और ज्ञान के अतिरिक्त भी है किन्तु ज्ञान नियम की पवित्र प्रेरणा प्रदान करता ही है।
से आत्म ही है। आत्मा साक्षात् ज्ञान है और ज्ञान ही साक्षात् आत्मा मैं कौन हूँ? कहाँ से आया हूँ? यहाँ से कहाँ आऊँगा? है। जो आत्मा है वही विज्ञाता है, जो विज्ञाता है वही आत्मा है। जो क्या मेरा पुनर्जन्म होगा? मेरा स्वरूप क्या है? क्या मैं देह हूँ? इस तत्त्व को स्वीकार करता है वह आत्मा-वादी है। ज्ञान और आत्मा इन्द्रिय हूँ? मन हूँ? या इन सबसे भिन्न कुछ और हूँ? इन सभी के द्वैत को जैनदर्शन स्वीकार नहीं करता है। आत्मा और ज्ञान में प्रश्नों का सही समाधान भारत के मनीषी मूर्धन्य-मुनियों ने प्रदान तादात्म्य है, वे अलग-अलग तत्त्व नहीं हैं, जैसा कि कणाद आदि किये हैं। भाषा, परिभाषा, प्रतिपादन-पद्धति और परिष्कार में स्वीकार करते हैं। अन्तर होने पर सूक्ष्म व समन्वय दृष्टि से अवलोकन करने पर विस्तार की दृष्टि से आत्मा का लक्षण बतलाते हुए भगवान् सूर्य के प्रकाश की भांति यह स्पष्ट ज्ञात होता है कि वे सभी एक महावीर ने कहा है- ज्ञान, दर्शन, चारित्र, तप, वीर्य, उपयोग ये ही राह के राही हैं।
जीव के लक्षण हैं। अर्थात् आत्मा ज्ञान, दर्शन, चारित्र, तप, (शक्ति)
और उपयोगमय है। जैन दृष्टि :
आत्मा अरूपी है। शब्द, रूप, गन्ध, रस और स्पर्श से भारतीय संस्कृति में जैन संस्कृति का स्वतन्त्र स्थान है, रहित है। वह न लम्बा है. न छोटा है. न टेढा है न गोल. न चोरस स्वतन्त्र विचार धारा है और स्वतन्त्र विरूपण-पद्धति है जैन दर्शन है, न मण्डलाकार है अर्थात् उसकी अपनी कोई आकृति नहीं है। न को जिनदर्शन या आत्म दर्शन भी कह सकते हैं। जैन-दर्शन में हल्का है, न भारी है। क्योंकि लघुता-गुरुता जड़के धर्म हैं। वह न स्त्री आत्मा के लक्षण और स्वरूप के सम्बन्ध में अत्यन्त सूक्ष्म, गम्भीर है, न पुरुष है, क्योंकि ये शरीराश्रित उपाधियाँ हैं। वह अनादि है,
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जैन विद्या के आयाम खण्ड-७
अनिधन है, अविनाशी, अक्षय है, ध्रुव और नित्य है। वह पहले भी इस प्रकार न आत्मा शरीर के एक भाग में रहती है, न शरीर के बाहर था, अब भी है और भविष्य में भी रहेगा; तीनों कालों में भी वह जीव होती है और न सर्वव्यापी है। अलबत्ता केवली समुद्घात के समय रूप में ही विद्यमान रहता है। जीव कभी अजीव नहीं होता, लोक में उसके प्रदेश समस्त लोक में व्याप्त हो जाते हैं, इस अपेक्षा से उसे जीव शाश्वत है। आत्मा ज्ञानमय असंख्य प्रदेशों का पिण्ड है। वह लोकव्यापक कहा जा सकता है। मगर एक समयभावी उस अवस्था अरूप है, एतदर्थ नेत्रों से देखा नहीं जाता। किन्तु चेतना गुणों से की विवक्षा नहीं करके आत्मा शरीर प्रमाण ही मानी जाती है। उसका अस्तित्व जाना जा सकता है। वह वाणी द्वारा प्रतिपाद्य और जैसे दीपक को एक घड़े के नीचे रख दिया जाय तो उसका तर्क द्वारा गम्य नहीं है।
प्रकाश घड़े में समा जाता है। उसी दीपक को यदि किसी विशाल गणधर गौतम के प्रश्न के उत्तर में भगवान् महावीर ने कमरे में रख दें तो वही प्रकाश फैल कर उस कमरे को व्याप्त कर अनेकान्त की भाषा में आत्मा को जहाँ नित्य बताया है, वहाँ अनित्य लेता है और यदि खुले आकाश में रख दें तो और भी अधिक क्षेत्र भी बताया है।
को अवगाहन कर लेता है, उसी तरह आत्म प्रदेशों का संकोच और एक समय की बात है भगवान् महावीर के चरणारविन्दों में विस्तार होता है। यह अनुभव सिद्ध है कि शरीर में जहाँ कहीं चोट गौतम स्वामी आए। वन्दना करके विनम्र भाव से बोले-भगवन! जीव लगती है वहाँ सर्वत्र दु:ख का अनुभव होता है शरीर से बाहर किसी नित्य है या अनित्य?
भी वस्तु को काटने पर दु:ख अनुभव नहीं होता। यदि शरीर से बाहर भगवान् बोले-गौतम! जीव नित्य भी है और अनित्य भी। आत्मा होती तो अवश्य ही दुःख होता, अत: आत्मा सर्वव्यापी न
गौतम-भगवन्! यह किस हेतु से कहा गया कि जीव नित्य होकर देह प्रमाण ही है। भी है और अनित्य भी! भगवान- गौतम! द्रव्य की अपेक्षा से नित्य गौतम ने जिज्ञासा व्यक्त की- भगवन् जीव संख्यात हैं, है और पर्याय की अपेक्षा से अनित्य है।
असंख्यात हैं या अनन्त हैं? भगवान् ने समाधन किया- गौतम! जीव अभिप्राय यह है कि जीवत्व की दृष्टि से जीव शाश्वत है। अनन्त हैं। अपने मूल द्रव्य के रूप में उसकी सत्ता त्रैकालिक है। अतीतकाल जीवों की संख्या कभी न्यूनाधिक होती है या अवस्थित में जीव था, वर्तमान में है और भविष्य में भी रहेगा, क्योंकि सत् रहती है। इस प्रश्न का उत्तर देते हुए भगवान महावीर ने कहापदार्थ कभी असत् नहीं होता। इस प्रकार द्रव्यतः नित्य होने पर गौतम-! जीव कभी कम और कभी अधिक नहीं होते किन्तु अवस्थित भी जीव पर्यायतः अनित्य है, क्योंकि पर्याय की दृष्टि से वह सदा रहते हैं, अर्थात् जीव संख्या की दृष्टि से सदा अनन्त रहते हैं। अनन्त परिवर्तनशील है। जीव विविध गतियों में, विभिन्न अवस्थाओं में होने पर भी सभी आत्माएं चेतन और असंख्यात प्रदेशी हैं, अत: परिणत होता रहता है।
एक हैं। क्षेत्र की दृष्टि से जीव लोकपरिमित हैं जहाँ लोक है वहाँ जीव जैसे सोने के कुण्डल, मुकुट, हार आदि अनेक आभूषण है। जहाँ तक जीव है वहाँ तक लोक है। बनने पर भी नाम और रूप में अन्तर पड़ जाने पर भी सोना-सोना आत्मा अच्छेद्य है, अभेद्य है, उसे अग्नि जला नहीं सकती, ही रहता है, वैसे ही विध योनियों में भ्रमण करते हुए जीव के पर्याय शस्त्र काट नहीं सकता। जीव कदापि विलय को प्राप्त नहीं होता। यह बदलते हैं- रूप और नाम बदलते हैं- मगर जीव द्रव्य वही रहता है। एक परखा हुआ सिद्धान्त है कि अस्तित्व अस्तित्व में परिणमन
जीवन में सुख और दुःख किस कारण से पैदा होते हैं? करता है और नास्तित्व नासितत्व में। द्रव्य से अस्तित्ववान् जीव इस प्रश्न का समाधान करते हुए भगवान् महावीर ने कहा-आत्मा ही भविष्य में नास्तित्व में परिणमन नहीं कर सकता। अपने सुख और दुःख का कर्ता है और भोक्ता है। आत्मा ही अपने जैसे दूध और पानी बहिर्दष्टि से एक प्रतीत होते हैं वैसे कृत कर्मों के अनुसार विविध गतियों में परिभ्रमण करता है और ही संसारी दशा में जीव और शरीर एक लगते हैं, पर वे पृथकअपने ही पुरुषार्थ से कर्म-परम्परा का उच्छेद कर सिद्ध, बुद्ध और पृथक् हैं। मुक्त बनता है।
वादिदेवसूरि ने संक्षेप में सांसारिक आत्मा का स्वरूप इस जैसाकि पहले कहा जा चुका है, आत्मा का कोई आकार प्रकार बताया है- “आत्मा प्रत्यक्षादि प्रमाणों से सिद्ध है। वह चैतन्य नहीं है, किन्तु सकर्मक आत्मा किसी न किसी शरीर के साथ ही स्वरूप हैं, परिणामी है, कर्मों का कर्ता हैं। सुख-दुःख का साक्षात् रहती है, अतएव प्राप्त शरीर का आकर ही उसका आकार हो जाता भोक्ता है, स्वदेहपरिमाण है, प्रत्येक शरीर में भिन्न है, पैगलिक कर्मों है। इस कारण जैन दर्शन में आत्मा को कायपरिमित माना गया हैं। से युक्त है।'' प्रस्तुत परिभाषा में जैन दर्शन-सम्मत आत्मा का आत्मा स्वभावत: असंख्यात प्रदेशी है और उसके प्रदेश संकोच- पूर्णरूप आ गया है। विकासशील होते हैं। अतएव कर्मोदय के अनुसार जो शरीर उसे
आत्मा के स्वतन्त्र अस्तित्व की सिद्धि के लिए श्री जिनभद्र प्राप्त होता है, उसी में उसके समस्त प्रदेशों का समावेश हो जाता है। ने विशेषावश्यक भाष्य में विस्तार से अन्य दार्शनिकों के तर्कों का
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अध्यात्मवाद : एक अध्ययन
खण्डन कर आत्मा की संसिद्धि की है विस्तार भय से वह सारी चर्चा यहाँ नहीं की जा रही है। पाठकों को मूल ग्रन्थ देखना चाहिये।
जैन आगम साहित्य में भी यथा प्रसंग नास्तिक दर्शन का उल्लेख कर उसका निराकरण किया गया है सूत्रकृतान में अन्य मतों का निर्देश करते हुए नास्तिकों के सम्बन्ध में कहा है- कुछ लोग कहते हैं- पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु, आकाश ये पाँच महाभूत हैं। इन पाँच महाभूतों के योग से आत्मा उत्पन्न होती है और इनके विनाश व वियोग से आत्मा भी नष्ट हो जाती है ।
आचार्य शीलाङ्क ने प्रस्तुत गाथाओं की वृत्ति में लिखा हैभूतसमुदाय काठिन्य आदि धर्मों वाले हैं। उनका गुण चैतन्य नहीं है। पृथक्-पृथक् गुण वाले पदार्थों के समुदाय से किसी अपूर्व गुण वाले पदार्थ की निष्पत्ति नहीं होती, वैसे ही चैतन्य गुण वाली आत्मा की जड़त्व धर्म वाले भूतों से उत्पत्ति होना सम्भव नहीं भिन्न गुण वाले पाँच भूतों के संयोग से चेतना गुण की निष्पत्ति नहीं होती। यह प्रत्यक्ष है कि पाँचों इन्द्रियों अपने-अपने विषय का ही परिज्ञान करती हैं। एक इन्द्रिय द्वारा जाने हुए विषय को दूसरी इन्द्रिय नहीं जानती, किन्तु पाँचों इन्द्रियों के जाने हुए विषय को समष्टि रूप से अनुभूति कराने वाला द्रव्य कोई भिन्न ही होना चाहिए और उसे ही आत्मा कहते हैं।
बौद्ध दृष्टि
महात्मा बुद्ध ने सांसारिक विषयासक्ति से दूर रहकर आत्मगवेषणा और आत्म-शान्ति का उपदेश दिया है। उन्होंने कहाआत्म- दीप होकर बिहार करो, आत्म-शरण, अनन्यशरण ही रहो 'अत्तदीपा विहरथ, अत्तसरणा अनञ्ञसरण उनकी दृष्टि से जो । निर्मोही है वही अक्षय आध्यात्मिक आनन्द का अधिकारी है और वह सुख बिना काम सुख त्यागे प्राप्त नहीं हो सकता।
काम-सुख हीन और अनार्य है। जब तक उसका परित्याग नहीं किया जाता, उस पर विजय प्राप्त नहीं की जाती, तब तक आध्यात्मिक आनन्द का अनुभव नहीं होता ।
आध्यात्मिक सुखानुभूति होने के पश्चात् पुनः प्राणी किसी सांसारिक सुख तृष्णा में नहीं पड़ सकता। यह आध्यात्मिक सुख सम्राटों के और देवताओं के सुख से बढ़कर है।
आत्मशरण की प्रबल प्रेरणा देने पर भी बौद्ध दर्शन आत्मा के सम्बन्ध में एक निराली दृष्टि रखता है। वह किसी दृष्टि से आत्मवादी है और किसी दृष्टि से अनात्मवादी भी हैं एक ओर पुण्य पाप, पुनर्जन्म, कर्म, स्वर्ग, नरक, मोक्ष के स्वीकारने के कारण आत्मवादी है, तो दूसरी और आत्मा के अस्तित्व को सत्य नहीं किन्तु काल्पनिक संज्ञा मानने के कारण आनात्मवादी है।
महात्मा बुद्ध का मन्तव्य था कि जन्म, जरा, मरण आदि किसी स्थायी ध्रुव जीव के नहीं होते, किन्तु वे सभी विशिष्ट कारणों से समुत्पन्न होते हैं, अर्थात् जन्म, जरा, मरण इन सबका अस्तित्व तो है, किन्तु उसका स्थायी आधार वे स्वीकार नहीं करते जहाँ उन्हें । चार्वाक का देहात्मबाद स्वीकार नहीं है वहाँ उपनिषद् का शाश्वत आत्म-स्वरूप भी अमान्य है। उनके मन्तव्यानुसार आत्मा शरीर से अत्यन्त भिन्न भी नहीं है और शरीर से अभिन्न ही है। चार्वाक दर्शन एकान्त भौतिकवादी है, उपनिषदों की विचारधारा एकान्त कूटस्थ इस प्रकार आत्मा के सम्बन्ध में जैन दर्शन के मौलिक और आत्मवादी है, किन्तु बुद्ध का मार्ग मध्यम मार्ग हैं जिसे बौद्ध दर्शन स्पष्ट विचार है। में प्रतीत्यसमुत्पाद- अमुक वस्तु की अपेक्षा से अमुक वस्तु उत्पन्न हुई कहा है।
३
महात्मा बुद्ध ने अनात्मवाद का उपदेश दिया है। इसका अर्थ आत्मा जैसे पदार्थ का सर्वथा निषेध नहीं है, किन्तु उपनिषदों में जो शाश्वत, अद्वैत आत्मा का निरूपण किया गया है और उसे संसार का एकमात्र मौलिक तत्त्व माना है, उसका खण्डन है। यद्यपि चार्वाक की तरह बुद्ध भी अनात्मवादी हैं, किन्तु बुद्ध पुद्गल, आत्मा, जीव, चित आदि को एक स्वतन्त्र वस्तु मानते हैं जबकि चार्वाक दर्शन में चैतन्य की उत्पत्ति में चैतन्य के अतिरिक्त भूत ही कारण है, चैतन्य नहीं । सारांश यह है कि भूतों के सदृश विज्ञान भी एक मूल तत्त्व है, जो बुद्ध की दृष्टि से जन्म और अनित्य है किन्तु चार्वाक भूतों के अतिरिक्त विज्ञान को मूल तत्त्व नहीं मानते चैतन्य विज्ञान की संतति-धरा को बुद्ध अनादि मानते हैं किन्तु चार्वाक नहीं।
जब कभी भी महात्मा बुद्ध से आत्मा के सम्बन्ध में किसी जिज्ञासु ने प्रश्न किया तब उसका उत्तर न देकर वे मौन रहे हैं। मौन रहने का कारण पूछने पर उन्होंने कहा- यदि मैं कहूँ कि आत्मा है तो लोग शाश्वतवादी बन जाते हैं और यदि कहूँ कि आत्मा नहीं है तो लोग उच्छेदवादी बन जाते हैं, एतदर्थ उन दोनों के निषेध के लिये मैं मौन रहता हूँ। एक स्थान पर नागार्जुन लिखते हैं- "बुद्ध ने यह भी कहा कि आत्मा है और यह भी कहा कि आत्मा नहीं है । बुद्ध ने आत्मा - अनात्मा किसी का भी उपदेश नहीं दिया । "
आत्मा क्या है? कहाँ से आया है और कहाँ आयेगा ? इन प्रश्नों के उत्तर भगवान् महावीर ने स्पष्टता से प्रदान किये हैं। उनका उत्तर देते समय बुद्ध ने उपेक्षा प्रदर्शित की है और उन्हें अव्याकृत कहकर छोड़ दिया हैं वे मुख्यतः दुःख और दुःखनिरोध, इन दो तत्वों पर प्रकाश डालते हैं। उन्होंने अपने प्रिय शिष्य को कहा - "तीर से व्यथित व्यक्ति के घाव को ठीक करने की बात विचारनी चाहिये। तीर कहाँ से आया है? किसने मारा है? इसे किसने बनाया है? मारने वाले का रंग-रूप कैसा है? आदि-आदि प्रश्न करना निरर्थक है।"
बौद्धदर्शन में आत्म-तत्त्व के लिए पृथक पृथक् स्थलों पर कहीं मुख्य रूप से और कहीं गौण रूप से अनेक शब्द व्यवहत हुए
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जैन विद्या के आयाम खण्ड ७
हैं। जैसे कि पुद्गल, पुरिस, सत्ता, जीव, चित्त, मन, विज्ञान, नामरूप आदि। लौकिक दृष्टि से आत्मा की सत्ता है; जो विज्ञान, वेदना, संज्ञा, संस्कार और रूप- इन पाँच स्कन्धों का संघातमात्र है किन्तु पारमार्थिक रूप से आत्मा नहीं है।
"मिलिन्द्र प्रश्न" में भदन्त नागसेन और राजा मिलिन्द का संवाद है। राजा मिलिन्द के प्रश्न के उत्तर में भदन्त नागसेन ने बताया कि पुगल का अस्तित्व केश, दाँत आदि शरीर के अवयवों तथा रूप, वेदना, संज्ञा, संस्कार, विज्ञान इन सबकी अपेक्षा से है, किन्तु पारमार्थिक तत्त्व नहीं है।
वैदिक दृष्टि उपनिषद् आदि परवर्ती साहित्य में जिस प्रकार आत्मामीमांसा की गई है वैसी मीमांसा वेदों में नहीं है।
कठोपनिषद् में नचिकेता का एक मधुर प्रसंग है। बालक नचिकेता के पिता वाजश्रवस् ऋषि ने भीष्म प्रतिज्ञा ग्रहण की कि "मैं सर्वस्व दान दूंगा।" प्रतिज्ञानुसार सब कुछ दान दे दिया। बालक नचिकेता ने विचार किया- पिता ने अन्य वस्तुएँ तो दान दे दी हैं पर अभी तक मुझे दान में क्यों नहीं दिया? उसने पिता से पूछा- आप मुझे किसको दान दे रहे हैं? पिता मौन रहे। उसने पुन: वही प्रश्न दोहराया, फिर भी पिता का मौन भंग नहीं हुआ। तृतीय बार कहने पर पिता को क्रोध आ गया और उसने झझला कर कहा- जा, तुझे यमराज को दिया। बालक नचिकेता यम के घर पहुँचा। यमराज घर पर नहीं थे। वह भूखा प्यासा ही तीन दिन तक यमराज के द्वार पर बैठ कर उनकी प्रतीक्षा करता रहा। यमराज आये। बालक की भद्रता पर वे मुग्ध हो गये। तीन वर माँगने के लिए कहा। नचिकेता ने तीसरा वर माँगा-मृत्यु के पश्चात् कुछ कहते हैं मानव की आत्मा का अस्तित्व है, कुछ कहते हैं नहीं है, सत्य तथ्य क्या, यह आप मुझे बतायें- यही मेरा तृतीय वर है। यमराज ने अन्य वर माँगने की प्रेरणा दी, पर नचिकेता अपने कथन से तनिक भी विचलित नहीं हुआ। उसने कहा मुझे वही विधि बताइये, जिससे अमरता प्राप्त हो। यमराज ने कहा- तू इस आत्म-विद्या के लिए आग्रह न कर इसका
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ज्ञान होना साधारण बात नहीं है। देवता भी इस विषय में सन्देहशील रहे हैं। पर नचिकेता की तीव्र अभिलाषा से यमराज ने प्रसन्न होकर आत्मसिद्धि का सूक्ष्म रहस्य उसे बताया। आत्मविद्य.....। व योगविधि को पाकर नचिकेता को ब्रह्मानन्द अनुभव हुआ। उसका राग-द्वेष नष्ट हो गया। इसी प्रकार जो आत्म-तत्त्व को पाकर आचरण करेंगे, वे भी अमरता को प्राप्त करेंगे। चरक के अनुसार अग्निवेश के उत्तर में पुनर्वसु ने भी आत्म-तत्त्व का निरूपण किया है।
संक्षेप में यदि कहना चाहें तो बौद्धदर्शन आत्मा को स्थायी नहीं, किन्तु चेतना का प्रवाह मात्र मानता है। दीपशिखा के रूपक से प्रस्तुत कथन का प्रतिपादन किया गया हैं। जैसे, दीपक की ज्योति जगमगा रही है किन्तु जो लौ पूर्व क्षण में है, वह द्वितीय क्षण में नहीं। तेल प्रवाह रूप में जल रहा है, लौ उसके जलने का परिणाम का ज्ञान प्राप्त करने की जिज्ञासा व्यक्त की। है प्रतिपल, प्रतिक्षण वह नई उत्पन्न हो रही है किन्तु उसका बाह्य रूप उसी प्रकार स्थितिशील पदार्थ के रूप में दृष्टिगोचर हो रहा है। बौद्धदर्शन के अनुसार आत्मा के सम्बन्ध में भी ठीक यही स्थिति चरितार्थ होती है। स्पष्ट है कि बौद्ध दर्शनश्रनात्मवादी होते हुए भी आत्मवादी है।
छान्दोग्य उपनिषद् में महर्षि नारद और सनत्कुमार का संवाद हैं। सनत्कुमार के पूछने पर नारद ने कहा-वेद, पुराण, इतिहास आदि सभी विद्याओं का अध्ययन करने पर भी आत्मस्वरूप न पहचानने से मैं शोक ग्रस्त हैं, अतः आत्मज्ञान प्रदान कीजिये, और चिन्ताओं से मुक्त कीजिए।
वृहदारण्यक उपनिषद् में याज्ञवल्क्य से मैत्रेयी ने भी आत्मविया
उपनिषद् के ऋषियों ने कहा है- आत्मा ही दर्शनीय है, श्रवणीय है, मननीय है और ध्यान किये जाने योग्य है । मनुस्मृति के रचयिता आचार्य मनु कहते हैं सब ज्ञानों में आत्म ज्ञान ही श्रेष्ठ है। सभी विद्याओं में वही परा विद्या है, जिससे मानव को अमृत (मोक्ष) प्राप्त होता है।
आत्मा शरीर से विलक्षण है। वह वाणी द्वारा अगम्य है। न वह स्थूल है, न ह्रस्व है, न विराट् है, न अणु है, न अरुण है, न द्रव है, न छाया है, न अन्धकार है, न हवा है, न आकाश है, न संग है, न रस है, न गंध है, न नेत्र है, न कर्ण है, न वाणी है, न मन है, न तेज है, न प्राण है, न मुख है, न माप है, उसमें न अन्तर है, न बाहर है।
उपनिषदों में आत्मा के परिमाण की विभिन्न कल्पनाएँ मिलती हैं।
छान्दोग्योपनिषद् में बताया है- "यह मेरी आत्मा अन्तर्हदय में रहती है। यह चावल से, जौ से, सरसों से, श्यामाक (साँवाँ) नामक धान से भी लघु है।"
बृहदारण्यक में कहा है- "यह पुरुषरूपी आत्मा मनोमय भास्वान तथा सत्यरूपी है और उस अन्तर्हृदय में ऐसी रहती है जैसे चावल या जौ का दाना हो" ।
कठोपनिषद् में कहा है- "आत्मा अंगूठे जितनी बड़ी हैं, अंगूठे जितना वह पुरुष आत्मा के मध्य में रहता है।"
कौषीतकी उपनिषद् में कहा है यह आत्मा शरीर व्यापी हैं तैत्तिरीय उपनिषद ने प्रतिपादित किया है अत्रमय, प्राणमय, मनोमय, विज्ञानमय, आनन्दमय ये सभी आत्माएँ शरीर प्रमाण हैं। मुण्डकोपनिषद् आदि में आत्मा को व्यापक माना गया है:"हृदय कमल के भीतर यह मेरा आत्मा पृथ्वी, अन्तरिक्ष, द्युलोक अथवा इन सब लोकों की अपेक्षा बड़ा है।"
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अध्यात्मवाद : एक अध्ययन
गीता के अनुसार- आत्मा को शस्त्र छेद नहीं सकते, अग्नि है सांख्य दृष्टि से आत्मा कर्ता नहीं, किन्तु फल का भोक्ता है। कर्तृत्व जला नहीं सकती. पानी गीला नहीं कर सकता और हवा सखा नहीं प्रकति में है। सकती है। जैसे मानव जीर्ण-शीर्ण वस्त्र को उतार कर नवीन वस्त्रों को मीमांसा दर्शन के अनुसार आत्मा एक है, किन्तु देहादि की धारण करता है, वैसे ही यह आत्मा भी जीर्ण शरीर का परित्याग विविधता के कारण वह अनेक प्रतीत होता है। मीमांसक कुमारिल ने कर नवीन शरीर को धारण करता है।
आत्मा को नित्य नित्य माना है। इस प्रकार हम देखते हैं, वैदिक वैदिक संस्कृति में ही नैयायिक, वैशेषिक, सांख्य, मीमांसक दार्शनिकों ने भी आत्मा के सम्बन्ध में गहन चिन्तन किया है, किन्त और योग इन दर्शनों का समावेश होता है। ये सभी दर्शन आत्मा को जैन दर्शन जितना गंभीर चिन्तन वे नहीं कर पाये हैं। अनेकान्त दृष्टि स्वीकार करते हैं और आत्मा, मोक्ष आदि की स्वतन्त्र परिभाषाएं से जैन दर्शन ने आत्मा का सर्वाङ्ग विवेचन किया है, वैसा अन्यत्र प्रस्तुत करते हैं। नैयायिक व वैशेषिक दर्शन का मन्तव्य है कि आत्मा दुर्लभ है। एकान्त, नित्य और सर्वव्यापी है। इच्छा, द्वेष, प्रयत्न, सुख-दु:ख उपर्युक्त पंक्तियों में जैन, बौद्ध और वैदिक दर्शन-मान्य आदि के रूप में जो परिर्वतन परिलक्षित होता है, वह आत्मा के आत्मा की एक हल्की सी झाँकी प्रस्तुत की गई है। आधुनिक गुणों में है, स्वयं आत्मा में नहीं। आत्मा के गुण आत्मा से भित्र हैं, वैज्ञानिक भी आत्मा के मौलिक अस्तित्व को स्वीकार करने लगे हैं। इनसे हम आत्मा का अस्तित्व जानते हैं।
प्रोफेसर अलबर्ट आइंस्टीन ने, जो पाश्चात्य देशों के प्रतिभा-सम्पन्न सांख्य दर्शन आत्मा को कूटस्थ नित्य मानता है उसके विद्वान् माने गये हैं, लिखा है- "मैं जानता हूँ कि सारी प्रकृति में अनुसार आत्मा सदा-सर्वदा एकरूप रहता है। उसमें परिवर्तन नहीं चेतना काम कर रही है" इनके अतिरिक्त अन्य अनेक मूर्धन्य होता। संसार और मोक्ष भी आत्मा के नहीं, प्रत्युत प्रकृति के हैं।सुख- वैज्ञानिकों के विचार भी मननीय हैं। पर स्थानाभाव के कारण उन्हें दु:ख और ज्ञान भी प्रकृति के धर्म हैं, आत्मा के नहीं। आत्मा तो यहाँ उद्भत करना सम्भव नहीं हैं। स्थायी, अनादि, अनन्ते, अविकारी, नित्य चित्स्वरूप और निष्क्रिय
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जैन धर्म की आध्यात्मिक जीवनदृष्टि
प्रो० सागरमल जैन
मानव जाति को दुःखों से मुक्त करना ही भगवान् महावीर उपलब्धि ही जीवन का अन्तिम लक्ष्य है। जैन विचारकों की दृष्टि में का प्रमुख लक्ष्य था। उन्होंने इस तथ्य को गहराई से समझने का अध्यात्मवाद का अर्थ है, पदार्थ को परममूल्य न मानकर आत्मा को प्रयत्न किया कि दुःख का मूल किसमें है। इसे स्पष्ट करते हुए परममूल्य मानना। भौतिकवादी दृष्टि मानवीय दुःख और सुख का उत्तराध्ययनसूत्र में कहा गया है कि समस्त भौतिक और मानसिक आधार वस्तु को मानकर चलती है उसके अनुसार सुख और दुःख दुःखों का मूल व्यक्ति की भोगासक्ति में है। यद्यपि भौतिकवाद वस्तुगत तथ्य है। भौतिकवादी सुखों की लालसा में वस्तुओं के पीछे मनुष्य की कामनाओं की पूर्ति के द्वारा दुःखों का निवारण का प्रयत्न दौड़ता है और उनके उपलब्धि हेतु चोरी, शोषण एवं संग्रह जैसी करता है किन्तु वह उस कारण का उच्छेद नहीं कर सकता, जिससे सामाजिक बुराईयों को जन्म देता है। इसके विपरीत जैन अध्यात्मवाद दुःख का यह स्रोत प्रस्फुटित होता है। भौतिकवाद के पास मनुष्य की हमें यह सिखाता है कि सुख और दुःख का केन्द्र वस्तु में न होकर तृष्णा को समाप्त करने का कोई उपाय नहीं है। वह इच्छाओं की पूर्ति आत्मा में है। जैन दर्शन के अनुसार सुख-दुःख आत्मकृत हैं। अत: के द्वारा मानवीय आकांक्षाओं को परितृप्त करना चाहता है, किन्तु यह वास्तविक आनन्द की उपलब्धि पदार्थों से न होकर आत्मा से होती अग्नि में डाले गये घृत के समान उसे परिशान्त करने की अपेक्षा है। उत्तराध्ययनसूत्र में स्पष्टरूप से कहा गया है कि आत्मा ही अपने बढ़ाता ही है। उत्तराध्ययनसूत्र में बहुत ही स्पष्टरूप से कहा गया है सुख-दुःखों का कर्ता और भोक्ता है। वही अपना मित्र है और वही कि चाहे स्वर्ण और रजत के कैलाश के समान असंख्य पर्वत भी अपना शत्रु हैं सुप्रतिष्ठित अर्थात् सद्गुणों में स्थित आत्मा मित्र है और खड़े हो जाये किन्तु वे मनुष्य की तृष्णा को पूरा करने में असमर्थ दुष्पतिष्ठित अर्थात् दुर्गुणों में स्थित आत्मा शत्रु है। आतुरप्रत्याख्यान हैं। न केवल जैनधर्म अपितु सभी आध्यात्मिक धर्मों ने एकमत से नामक जैन ग्रन्थ में अध्यात्म का हार्द स्पष्ट करते हुए कहा गया है इस तथ्य को स्वीकार किया है कि समस्त दुःखों का मूल कारण कि ज्ञान और दर्शन से युक्त शाश्वत आत्मतत्त्व ही मेरा है, शेष सभी आसक्ति, तृष्णा या ममत्व बुद्धि है, किन्तु तृष्णा की समाप्ति का बाह्य पदार्थ संयोग से उपलब्ध हुए है, इसलिए वे मेरे अपने नहीं है। उपाय इच्छाओं और आकांक्षाओं की पूर्ति नहीं है। भौतिकवाद हमें इन संयोगजन्म उपलब्धियों का अपना मान लेने या उन पर ममत्व सुख और सुविधा के साधन तो दे सकता है किन्तु वह मनुष्य की रखने के कारण ही जीव दु:ख परम्परा को प्राप्त होता है, अत: उन आसक्ति या तृष्णा का निराकरण नहीं कर सकता। इस दिशा में सांयोगिक पदार्थों के प्रति ममत्व भाव का सर्वथा विसर्जन कर देना उसका प्रयत्न तो टहनियों को काटकर जड़ को सींचने के समान है। चाहिए। संक्षेप में जैन अध्यात्मवाद के अनुसार देह आदि सभी जैन आगमों में स्पष्टरूप से कहा गया है कि तृष्णा आकाश के समान आत्मेतर पदार्थों के प्रति ममत्व बुद्धि का त्याग ही साधना का मूल अनन्त है, उसकी पूर्ति सम्भव नहीं है। यदि हम मानव जाति को उत्स है। वस्तुतः जहाँ अध्यात्मवाद पदार्थ के स्थान पर आत्मा को स्वार्थ, हिंसा, शोषण, भ्रष्टाचार एवं तज्जनित दुःखों से मुक्त करना अपना साध्य मानता है, वहाँ भौतिकवाद में पदार्थ ही परम मूल्य बन चाहते हैं, तो हमें भौतिकवादी दृष्टि का त्याग करके आध्यात्मिक दृष्टि जाता है। अध्यात्मवाद में आत्मा ही परम मूल्य होती है। जैन का विकास करना होगा।
अध्यात्मवाद आत्मोपलब्धि के लिए पदार्थों के प्रति ममत्व बुद्धि का
त्याग आवश्यक मानता है। उसके अनुसार ममता के विर्सजन से ही आध्यात्मवाद क्या है?
समता का सर्जन होता है। किन्तु यहाँ हमें यह समझ लेना होगा कि अध्यात्मवाद से हमारा तात्पर्य क्या है? अध्यात्म शब्द की व्युत्पति अधि+आत्म से जैन अध्यात्मवाद का लक्ष्य आत्मोपलब्धि है अर्थात् वह आत्मा की श्रेष्ठता या उच्चता का सूचक है। आचारांग जैनधर्म में ममत्व के विसर्जन को ही आत्मोलब्धि का में इसके लिये अज्झप्प या अज्झत्थ शब्द का प्रयोग है जो आन्तरिक एकमात्र उपाय इसलिए माना गया है कि जब तक व्यक्ति में ममत्व पवित्रता या आन्तरिक विशुद्धि का सूचक है। जैन धर्म के अनुसार बुद्धि या आसक्ति भाव रहता है तब तक व्यक्ति की दृष्टि 'स्व' में नहीं अध्यात्मवाद वह दृष्टि है जो यह मानती है कि भौतिक सुख- अपित् 'पर' अर्थात् पदार्थ में केन्द्रित रहती है। वह पर में स्थित सुविधाओं की उपलब्धि ही अन्तिम लक्ष्य नहीं है। दैहिक एवं होता है। यह पदार्थ केन्द्रित दृष्टि ही या पर में स्थित होना ही आर्थिक मूल्यों के परे उच्च मूल्य भी हैं और इन उच्च मूल्यों की भौतिकवाद का मूल आधार है। जैन दार्शनिकों के अनुसार 'पर'
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जैन धर्म की आध्यात्मिक जीवनदृष्टि
अर्थात् आत्मेतर वस्तुओं में अपनत्व का भाव और पदार्थ को कहानी है।" किन्तु यह एक मिथ्या धारणा है। संघर्ष सदैव निराकरण परम मूल्य मानना यही भौतिकवाद या मिथ्यादृष्टि का लक्षण है। का विषय रहा है। कोई भी चेतन सत्ता संघर्षशील दशा में नहीं रहना आत्मवादी या अध्यात्मवादी व्यक्ति की दृष्टि पदार्थ-केन्द्रित न चाहती, वह संघर्ष का निराकरण करना ही चाहती है। यदि संघर्ष होकर आत्म-केन्द्रित होती है। वह आत्मा को ही परम मूल्य निराकरण की वस्तु है तो उसे स्वभाव नहीं कहा जा सकता है। संघर्ष मानता है और अपने स्वस्वरूप या स्वभावदशा की उपलब्धि को मानव इतिहास का एक तथ्य हो सकता है, किन्तु वह मनुष्य के ही अपनी साधना का लक्ष्य बनाता है, इसे ही जैन पारिभाषिक विभाव का इतिहास है, स्वभाव का नहीं। चैतसिक जीवन में तनाव शब्दावली में सम्यग्दृष्टि कहा गया है। भौतिकवाद मिथ्यादृष्टि है या विचलन पाये जाते हैं, किन्तु वे जीवन के स्वभाव नहीं हैं क्योंकि और अध्यात्मवाद सम्यकदृष्टि हैं।
जीवन की प्रक्रिया सदैव ही उन्हें समाप्त करने की दिशा में प्रयासशील
है। चैतसिक जीवन का मूल स्वभाव यही है कि वह बाह्य और आत्मा का स्वरूप एवं साध्य
आन्तरिक उत्तेजनाओं एवं संवेदनाओं से उत्पन्न विक्षोभों को समाप्त यहाँ स्वाभाविकरूप से यह प्रश्न उठ सकता है कि जैनधर्म कर, समत्व को बनाये रखने का प्रयास करता है। अत: जैनधर्म में में आत्मा का स्वरूप क्या है? आचारांगसत्र में आत्मा के स्वरूप- समता को आत्मा या चेतना का स्वभाव कहा गया है और उसे ही लक्षण को स्पष्ट करते हुए कहा गया है कि जो आत्मा है वह विज्ञाता धर्म के रूप में परिभाषित किया गया है। यह सत्य है कि जैनधर्म में है और जो विज्ञाता है वही आत्मा है। इस प्रकार ज्ञाताभाव में स्थित धर्म-साधना का मूलभूत लक्ष्य कामना, आसक्ति, राग-द्वेष और होना ही स्व स्वभाव में स्थित होना है। आधुनिक मनोविज्ञान में वितर्क आदि मानसिक असन्तुलनों और तनावों को समाप्त कर चेतना के तीन पक्ष माने गये है।-ज्ञानात्मक, भावात्मक और संकल्पात्मक, अनासक्त और निराकुल वीतराग चेतना की उपलब्धि माना गया है। उसमें भावात्मक और संकल्पात्मक पक्ष वस्तुतः भोक्ताभाव और आसक्ति या ममत्वबुद्धि राग और द्वेष के भाव उत्पन्न कर व्यक्ति को कर्ताभाव के सूचक हैं। जब तक आत्म कर्ता या भोक्ता होता है तब पदार्थापक्षी बनाती है। आसक्त व्यक्ति अपने को 'पर' में खोजता है। तक वह स्व स्वरूप को उपलब्ध नहीं होता क्योंकि यहाँ चित्त- जबकि अनासक्त या वीतराग दृष्टि व्यक्ति को स्व में केन्द्रित करती है। विकल्प या आकांक्षा बनी रहती है। अत: उसके द्वारा चित्त-समाधि या दूसरे शब्दों में, जैनधर्म में वीतरागता की उपलब्धि को ही जीवन का आत्मोपलब्धि संभव नहीं है। विशुद्ध ज्ञाताभाव या साक्षी भाव ही परम लक्ष्य घोषित किया गया है। क्योंकि वीतराग ही सच्चे अर्थ में ऐसा तथ्य है जो आत्मा को निराकुंल समाधि की अवस्था में स्थित समभाव में अथवा साक्षीभाव में स्थित रह सकता है जो चेतना कर दुःखों से मुक्त कर सकता है।
समभाव या साक्षी भाव में स्थित रह सकती है वही निराकुल दशा को एक अन्य दृष्टि से जैनधर्म में आत्मा का स्वरूप-लक्षण प्राप्त होती है और जो निराकुल दशा को प्राप्त होती है, वहीं शाश्वत समत्व भी बताया गया है। भगवतीसूत्र में गौतम ने महावीर के सुखों का आस्वाद करती है। जैनधर्म में आत्मोपलब्धि या स्वरूपसम्मुख दो प्रश्न उपस्थित किये। आत्मा क्या है और उसका साध्य उपलब्धि को, जो जीवन का लक्ष्य माना गया है, वह वस्तुत: क्या है? महावीर ने इन प्रश्नों के जो उत्तर दिये थे वे जैन धर्म के वीतराग दशा में ही सम्भव है और इसलिए प्रकारान्तर से वीतरागता हार्द को स्पष्ट कर देते हैं। उन्होंने कहा था कि आत्मा समत्व स्वरूप को भी जीवन का लक्ष्य कहा गया है। वीतरागता का ही दूसरा नाम है और समत्व की उपलब्धि कर लेना यही आत्मा का साध्य है। समभाव या साक्षीभाव हैं, यही समभाव हमारा वास्तविक स्वरूप है। आचारांगसूत्र में भी समता को धर्म कहा गया है। वहाँ समता को इस अवस्था को प्राप्त कर लेना ही हमारे जीवन का परम साध्य है। धर्म इसलिए कहा गया है कि वह हमारा स्व स्वभाव है और वस्तु स्वभाव ही धर्म है (वत्थु सहावो धम्मो) यह धर्म की दूसरी परिभाषा साध्य और साधना मार्ग का आत्मा से अभेद है। जैन दार्शनिकों के अनुसार स्वभाव से भिन्न आदर्श की कल्पना जैनधर्म में साधक, साध्य और साधनामार्ग तीनों ही आत्मा अयथार्थ है। जो हमारा मूल स्वभाव और स्वलक्षण है वही हमारा से अभिन्न माने गये हैं। आत्मा ही साधक है, आत्मा ही साध्य है और साध्य हो सकता है। जैन परिभाषा में नित्य और निरपवाद वस्तु धर्म आत्मा ही साधना मार्ग है। अध्यात्मतत्त्वालोक में कहा गया है कि ही स्वभाव है। आत्मा का स्वस्वरूप और आत्मा का साध्य दोनों ही आत्मा ही संसार है और आत्मा ही मोक्ष है, जब तक आत्मा कषाय समता है। यह बात जीववैज्ञानिक दृष्टि से भी सत्य सिद्ध होती है। और इन्द्रियों के वशीभूत है, वह संसार है। किन्तु जब वह इन्हें अपने आधुनिक जीव विज्ञान में भी समत्व के संस्थापन को जीवन का वशीभूत कर लेता है तो मुक्त कहा जाता है"। आचार्य अमृतचन्द्रसूरी लक्षण बताया गया है। यद्यपि द्वन्द्वात्मक भौतिकवाद 'समत्व' के समयसार की टीका में लिखते हैं कि पर द्रव्य का परिहार और शुद्ध स्थान पर 'संघर्ष' को जीवन का स्वभाव बताता है और कहता है कि आत्म तत्त्व की उपलब्धि ही सिद्धि है १२। आचार्य हेमचन्द्र ने भी "संघर्ष ही जीवन का नियम है, मानवीय इतिहास वर्ग संघर्ष की साध्य और साधक में भेद बताते हुए योगशास्त्र में कहा है कि कषाय
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और इन्द्रियों से पराजित आत्मा बद्ध और उनको विजित करनेवाला आत्मा ही प्रबुद्ध पुरूषों द्वारा मुक्त कहा जाता है १३ । वस्तुतः आत्मा की वासनाओं से युक्त अवस्था ही बन्धन है और वासनाओं तथा विकल्पों से रहित शुद्ध आत्मदशा ही मोक्ष है जैन अध्यात्मवाद का कथन है कि साधक का आदर्श उसके बाहर नहीं वरन् उसके अन्दर है । धर्म साधना के द्वारा जो कुछ पाया जाता है वह बाह्य उपलब्धि नहीं अपितु निज गुणों का पूर्ण प्रकटन है। हमारी मूलभूत क्षमतायें साधक अवस्था और सिद्ध अवस्था में समान ही है। साधक और सिद्ध अवस्थाओं में अन्तर क्षमताओं का नहीं वरन् क्षमताओं को योग्यताओं में बदल देने का है। जिस प्रकार बीज वृक्ष के रूप में विकसित होने की क्षमता रखता है और वह वृक्ष रूप में विकसित होकर वह अपनी पूर्णता को प्राप्त कर लेता है वैसे ही आत्मा भी परमात्मदशा प्राप्त करने की क्षमता रखता है और उसे उपलब्ध कर पूर्ण हो जाता है। जैन धर्म के अनुसार अपनी ही बीजरूप क्षमताओं को पूर्ण रूप से प्रकट करना ही मुक्ति है। जैसे साधना 'स्व' के द्वारा 'स्व' को उपलब्ध करना है, निज में प्रसुप्त जिनत्व को अभिव्यक्त करना है। आत्मा को ही परमात्मा के रूप में पूर्ण बनाना है। इस प्रकार आत्मा का साध्य आत्मा ही है।
जैन विद्या के आयाम खण्ड- ७ मान्य किया है।
जैनधर्म का साधना मार्ग भी आत्मा से भिन्न नहीं है। हमारी ही चेतना के ज्ञान, भाव और संकल्प के पक्ष सम्यक् दिशा में नियोजित होकर साधना मार्ग बन जाते हैं। जैन दर्शन में सम्यक्ज्ञान, सम्यक्-दर्शन और सम्यक् चारित्र को, जो मोक्ष मार्ग कहा गया है, उसका मूल हार्द इतना ही है कि चेतना के ज्ञानात्मक, भावात्मक और संकल्पात्मक पक्ष क्रमशः सम्यक् ज्ञान सम्यक् दर्शन और सम्यक् चारित्र के रूप में साधनामार्ग बन जाते हैं।
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इस प्रकार साधनामार्ग भी आत्मा ही है। आचार्य कुन्दकुन्द कहते हैं कि मोक्षकामी को आत्मा को जानना चाहिए, आत्मा पर ही श्रद्धा करना चाहिए और आत्मा की ही अनुभूति ( अनुचरितव्यश्च ) करना चाहिए। सम्यग्ज्ञान सम्यग्दर्शन, प्रत्याख्यान (त्याग), संवर (संयम) और योग सब अपने आपको पाने के साधन हैं। क्योंकि वही जैन दर्शन आत्मा ज्ञान में है, दर्शन में है, चारित्र में है, त्याग में है, संवर में है और योग में है१४। जिन्हें व्यवहारनय से ज्ञान, दर्शन और चारित्र कहा गया है, वे निश्चयनय से तो आत्मा ही हैं।
त्रिविध साधनामार्ग
जैनदर्शन में मोक्ष की प्राप्ति के लिए त्रिविध साधनामार्ग बताया गया है। तत्त्वार्थसूत्र में सम्यक् दर्शन सम्यक् ज्ञान और सम्यक् चारित्र को मोक्षमार्ग कहा गया है१५॥ उत्तराध्ययनसूत्र में सम्यक् ज्ञान, सम्यक् दर्शन, सम्यक् चारित्र और सम्यक् तप ऐसे चतुर्विध मोक्षमार्ग का भी विधान है १६ किन्तु जैन आचायों ने तप का अन्तर्भाव चारित्र में करके इस त्रिविध साधना मार्ग को ही
सम्भवतः यह प्रश्न हो सकता है कि त्रिविध साधनामार्ग का ही विधान क्यों किया गया है? वस्तुतः त्रिविध साधनामार्ग के विधान में जैनाचार्यों की एक गहन मनोवैज्ञानिक सूझ रही है। मनोवैज्ञानिक दृष्टि से मानवीय चेतना के तीन पहलू माने गए है- १. ज्ञान २. भाव और ३. संकल्प । चेतना के इन तीनों पक्षों के सम्यक् विकास के लिए ही त्रिविध साधनामार्ग का विधान किया गया है। चेतना के भावात्मक पक्ष को सही दिशा में नियोजित करने के लिए सम्यक् दर्शन, ज्ञानात्मक पक्ष के सही दिशा में नियोजन के लिए सम्यक् ज्ञान और संकल्पात्मक पक्ष को सही दिशा में नियोजित करने के लिए सम्यक् चारित्र का प्रावधान किया गया है।
जैन-दर्शन के समान ही बौद्ध दर्शन में भी त्रिविध साधनामार्ग का विधान है। बौद्ध दर्शन के इस त्रिविध साधनामार्ग के तीन अंग है- १. शील, २. समाधि और ३. प्रज्ञा १७
हिन्दू धर्म के ज्ञानयोग, कर्मयोग और भक्तियोग भी त्रिविध साधना मार्ग का ही एक रूप हैं। गीता में प्रसांगान्तर से त्रिविध साधनामार्ग के रूप में प्रणिपात, परिप्रश्न और सेवा का भी उल्लेख है। इसमें प्रणिपात श्रद्धा का परिप्रश्न ज्ञान का और सेवा कर्म का प्रतिनिधित्व करते हैं। उपनिषदों में श्रवण, मनन और निदिध्यासन के रूप में भी विविध साधनामार्ग का प्रस्तुतीकरण हुआ है। यदि हम गहराई से देखें तो इनमें श्रवण श्रद्धा के मनन ज्ञान के और निदिध्यासन कर्म के अन्तर्भूत हो सकते हैं।
. पाश्चात्य परम्परा में भी तीन आदेश उपलब्ध होते हैं - १. स्वयं
को जानो (Know Thyself), २. स्वयं को स्वीकार करो (Accept चिन्तन के तीन आदेश ज्ञान, दर्शन और चारित्र के ही समकक्ष हैं। Thyself) और ३. स्वयं ही बन जाओ (Be Thyself) १९ पाश्चात्य आत्मज्ञान में ज्ञान का तत्त्व, आत्मस्वीकृति में श्रद्धा का तत्त्व और आत्म- रमण में चारित्र का तत्त्व उपस्थित है।
प्रज्ञा
सम्यक् ज्ञान सम्यक् दर्शन समाधि सम्यक् चरित्र शील
बौद्ध दर्शन हिन्दू धर्म गीता उपनिषद परिप्रश्न मनन प्रणिपात श्रमण निदिध्यासन Be thvself
ज्ञान भक्ति कर्म
सेवा
पाश्चात्यदर्शन Know Thyself Know Thys
त्रिविध साधनामार्ग और मुक्ति
कुछ भारतीय विचारकों ने इस त्रिविध साधनामार्ग के किसी एक ही पक्ष को मोक्ष की प्राप्ति का साधन मान लिया है। आचार्य शंकर मात्र ज्ञान से और रामानुज मात्र भक्ति से मुक्ति की सम्भावना को स्वीकार करते है। लेकिन जैन दार्शनिक ऐसे किसी एकान्तवादिता में नहीं गिरते हैं। उनके अनुसार तो ज्ञान, कर्म और भक्ति की समवेत साधना ही मोक्ष की प्राप्ति का मार्ग है। इनमें से किसी एक के अभाव में मोक्ष की प्राप्ति सम्भव नहीं है। उत्तराध्ययनसूत्र
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जैन धर्म की आध्यात्मिक जीवनदृष्टि
के
अनुसार दर्शन के बिना ज्ञान नहीं होता और ज्ञान के अभाव में आचरण सम्यक् नहीं होता है और सम्यक् आचरण के अभाव में मुक्ति भी नहीं होती है। इस प्रकार मुक्ति की प्राप्ति के लिए तीनों ही अंगों का होना आवश्यक है।
सम्यक् दर्शन का अर्थ
जैन आगमों में दर्शन शब्द अनेक अर्थों में प्रयुक्त हुआ है और इसके अर्थ के सम्बन्ध में जैन परम्परा में काफी विवाद रहा है। दर्शन शब्द को ज्ञान से अलग करते हुए विचारकों ने दर्शन को अन्तर्बोध या प्रज्ञा और ज्ञान को बौद्धिक ज्ञान कहा है। दर्शन शब्द का दृष्टिकोणपरक अर्थ भी लिया गया है। प्राचीन जैनागमों में दर्शन शब्द के स्थान पर दृष्टि शब्द का प्रयोग उसके दृष्टिकोणपरक अर्थ का द्योतक है। उत्तराध्ययनसूत्र एवं तत्त्वार्थसूत्र में दर्शन शब्द का अर्थ तत्त्वश्रद्धा भी माना गया है २१ । परवर्ती जैन साहित्य में दर्शन शब्द को देव, गुरु और धर्म के प्रति श्रद्धा या भक्ति के अर्थ में भी प्रयुक्त किया गया। इस प्रकार जैन परम्परा में सम्यक् दर्शन-आत्म-साक्षात्कार तत्त्व श्रद्धा, अन्तर्बोध, दृष्टिकोण, श्रद्धा और भक्ति आदि अनेक अर्थों को अपने में समेटे हुए है।
सम्यग्दर्शन' को चाहे यधार्थ दृष्टि कहें या तत्त्वार्थं श्रद्धा उसमें वास्तविकता की दृष्टि से अधिक अन्तर नहीं होता है। अन्तर होता है उनकी उपलब्धि की विधि में एक वैज्ञानिक स्वतः प्रयोग के आधार पर किसी सत्य का उद्घाटन कर वस्तुतत्त्व के यथार्थ स्वरूप को जानता है, किन्तु दूसरा वैज्ञानिक के कथनों पर विश्वास करके भी वस्तुतत्त्व के यथार्थ स्वरूप को जानता है। यद्यपि यहाँ दोनों का ही दृष्टिकोण यथार्थ होगा, फिर भी एक ने स्वानुभूति में पाया है तो दूसरे ने उसे श्रद्धा के माध्यम से श्रद्धा ही सम्यक् दृष्टि हो तो भी वह अर्थ अन्तिम नहीं है, अन्तिम अर्थ स्वानुभूति ही है और यही सम्यग्दर्शन का वास्तविक अर्थ है। ऐसा सम्यग्दर्शन होता है निर्विकार, निराकुल चित्तवृत्ति से। अतः प्रकारान्तर से वह भी सम्यग्दृष्टि कहा जाता है।
सम्यक्दर्शन के पाँच लक्षण
जैनधर्म में सम्यक् दर्शन के निम्न पाँच लक्षण बताये गये हैं:
१. सम् अर्थात् समभाव २. संवेग अर्थात् आत्मा के आनंदमय स्वरूप की अनुभूति अथवा सत्याभीप्सा, ३. निर्वेद अर्थात् अनासक्ति या वैराग्य, ४. अनुकम्पा अर्थात् दूसरे व्यक्ति को पीड़ा को आत्मवत् पीड़ा समझना और उसके प्रति करुणा का भाव रखना और ५. आस्तिक्य अर्थात् पुण्य-पाप, पुनर्जन्म, कर्म सिद्धान्त और आत्मा के अस्तित्व को स्वीकार करना।
सम्यक् दर्शन के छह स्थान
जिस प्रकार बौद्ध साधना के अनुसार दुःख है, दुःख का कारण है, दुःख निवृत्ति हो सकती है और दुःखनिवृत्ति का मार्ग है। इन चार आर्य सत्यों की स्वीकृति सम्यग्दृष्टि है, उसी प्रकार जैनसाधना के अनुसार षट् स्थानकों (छह बातों) की स्वीकृति सम्यक्दर्शन है- (१) आत्मा है, (२) आत्मा नित्य है, (३) आत्मा अपने कर्मों का कर्ता है, (४) आत्मा कृत कर्मों के फल का भोक्ता है, (५) आत्मा मुक्ति प्राप्त कर सकता है और (६) मुक्ति का उपाय (मार्ग) है २२ ।
जैन तत्त्व - विचारणा के अनुसार इन षट्स्थानकों पर दृढ़ प्रतीति सम्यग्दर्शन की साधना का आवश्यक अंग है। दृष्टिकोण की विशुद्धता एवं सदाचार दोनों ही इन पर निर्भर हैं; ये षट्स्थानक जैन साधना के केन्द्र बिन्दु हैं ।
सम्यक्- ज्ञान का अर्थ
दृष्टिकोण की विशुद्धि पर ही ज्ञान की सम्यक्ता निर्भर करती है। अतः जैन साधना का दूसरा चरण हैं सम्यक् ज्ञान। सम्यक्ज्ञान को मुक्ति का साधन स्वीकार किया गया है, लेकिन कौन-सा ज्ञान मुक्ति के लिए आवश्यक है, यह विचारणीय है। जैन दर्शन में सम्यक् ज्ञान के दो रूप पाये जाते हैं। सामान्य दृष्टि से सम्यक् ज्ञान वस्तुतत्त्व का उसके अनन्त पहलुओं से युक्त ज्ञान है और इस रूप में वह विचार शुद्धि का माध्यम है। जैन दर्शन के अनुसार एकांगीज्ञान मिथ्यात्व है, क्योंकि वह सत्य के अनन्त पक्षों का अपलाप करता है। जब तक आग्रह बुद्धि है, तब तक वीतरागता सम्भव ही नहीं है और जब तक वीतराग दृष्टि नहीं है तब तक यथार्थ ज्ञान भी असम्भव है। जैन दर्शन के अनुसार सत्य के अनन्त पहलुओं को जानने के लिए अनेकान्त दृष्टि सम्यक् ज्ञान की अनिवार्य शर्त है। एकान्त दृष्टि या वैचारिक आग्रह अपने में निहित छद्म राग के कारण सत्य को रंगीन कर देता है। अतः एकान्त और आग्रह सत्य के साक्षात्कार में बाधक हैं जैन साधना की दृष्टि से वीतरागता को उपलब्ध करने के लिए वैचारिक आग्रह का परित्याग और अनाग्रही दृष्टि का निर्माण आवश्यक है और इसके माध्यम से प्राप्त ज्ञान की सम्यक् ज्ञान है। सम्यग्ज्ञान का अर्थ है वस्तु को उसके अनन्त पहलुओं से जानना ।
जैनधर्म में एक अन्य दृष्टि से सम्यक् ज्ञान आत्म-अनात्म का विवेक है। यह सही है कि आत्मतत्त्व को ज्ञान का विषय नहीं बनाया जा सकता, बनाया जा सकता, उसे ज्ञाता ज्ञेय के द्वैत के आधार पर नहीं जाना जा सकता क्योंकि वह स्वयं ज्ञान स्वरूप है, ज्ञाता है और ज्ञाता कभी शेय नहीं बन सकता, अतः आत्मज्ञान दुरूह है। लेकिन अनात्म तत्त्व तो ऐसा है जिसे हम ज्ञाता और शेय के द्वैत के आधार पर जान सकते हैं। सामान्य व्यक्ति भी अपने साधारण ज्ञान के द्वारा इतना तो जान ही सकता है कि उसके ज्ञान के विषय क्या है ? और इससे वह यह निष्कर्ष निकाल सकता है कि जो उसके ज्ञान के विषय हैं वे
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जैन विद्या के आयाम खण्ड-७
उसके स्वस्वरूप नहीं है, वे अनात्म हैं। सम्यक् ज्ञान आत्म-ज्ञान है, और ग्यारह प्रतिमाओं का पालन आता है। श्रमणाचार के अन्तर्गत किन्तु आत्मा को अनात्म के माध्यम से ही पहचाना जा सकता है। पंचमहाव्रत, रात्रिभोजन निषेध, पंचसमिति, तीन गुप्ति, दस यतिधर्म, अनात्म के स्वरूप को जानकर अनात्म से आत्म का भेद करना यही बारह अनुप्रेक्षाएं, बाईस परीषह, अट्ठावीस मूलगुण, बावन अनाचार भेद विज्ञान है और यही जैन-दर्शन में सम्यक् ज्ञान का मूल अर्थ है। आदि का विवेचन उपलब्ध है। इसके अतिरिक्त भोजन, वस्त्र, आवास
इस प्रकार जैन-दर्शन में सम्यग्ज्ञान आत्म-अनात्म का सम्बन्धी विधि-निषेध हैं। विवेक है। जैनों की पारिभाषिक शब्दावली में इसे भेद विज्ञान कहा जाता है। आचार्य अमृतचन्द्र सूरि के अनुसार जो कोई सिद्ध है वे इस साधनत्रय का पूर्वापर सम्बन्ध आत्म-अनात्म के विवेक या भेद विज्ञान से ही सिद्ध हुए हैं और जो दर्शन, ज्ञान और चारित्र की पूर्वापरता को लेकर जैन बन्धन में हैं, वे इसके अभाव के कारण ही हैं२३। आचार्य कुन्दकुन्द विचारणा में सामान्यतया कोई विवाद नहीं है। जैन आगमों में दर्शन ने समयसार में इस भेद विज्ञान का अत्यन्त गहन विवेचन किया है की प्राथमिकता बताते हुए कहा गया है कि सम्यक् दर्शन के अभाव किन्तु विस्तार भय से यह समग्र विवेचना यहाँ सम्भव नहीं है।२४ में सम्यक् चारित्र नहीं होता। भक्तपरिज्ञा में कहा गया है कि 'दर्शन से
भ्रष्ट (पतित) ही वास्तविक रूप में भ्रष्ट है, चारित्र से भ्रष्ट, भ्रष्ट नहीं सम्यक् चारित्र का अर्थ
है क्योंकि जो सम्यक् दर्शन से युक्त व्यक्ति संसार में अधिक परिभ्रमण जैन परम्परा में साधना का तीसरा चरण सम्यक् चारित्र है। नहीं करता है, जबकि दर्शन से भ्रष्ट व्यक्ति संसार से मुक्त नहीं इसके दो रूप माने गए हैं १. व्यवहार चारित्र २. निश्चय चारित्र। होता।२५ कदाचित् चारित्र से रहित सिद्ध भी हो जावे लेकिन दर्शन आचरण का बाह्य पक्ष या आचरण के विधि-विधान व्यवहार चारित्र से रहित कभी भी मुक्ति नहीं पाता। वस्तुत: दृष्टिकोण या श्रद्धा ही कहे जाते हैं। जबकि आचरण की अन्तरात्मा निश्चय चारित्र कहीं जाती एक ऐसा तत्त्व है जो व्यक्ति के ज्ञान और आचरण को सही दिशा है। जहां तक नैतिकता के वैयक्तिक दृष्टिकोण का प्रश्न है अथवा निर्देश कर सकता है। आचार्य भद्रबाहु आचारांगनियुक्ति में कहते हैं व्यक्ति के आध्यात्मिक विकास का प्रश्न है, निश्चयात्मक चारित्रं ही कि सम्यक् दृष्टि से ही तप, ज्ञान और सदाचरण सफल होते हैं।२६ मूलभूत आधार है। लेकिन जहां तक सामाजिक जीवन का प्रश्न है, जहां तक ज्ञान और चारित्र का सम्बन्ध है, जैन विचारकों चारित्र का बाह्य पक्ष ही प्रमुख है।
ने चारित्र को ज्ञान के बाद ही स्थान दिया है। उत्तराध्ययनसूत्र में यही निश्चय दृष्टि से चारित्र का सच्चा अर्थ समभाव या समत्व बताया गया है कि सम्यक् ज्ञान के अभाव में सदाचरण नहीं होता है। की उपलब्धि है। मानसिक या चैतसिक जीवन में समत्व की उपलब्धि- इस प्रकार जैन दर्शन में आचरण के पूर्व सम्यक् ज्ञान का होना यही चारित्र का पारमार्थिक या नैश्चयिक पक्ष है। वस्तुतः चारित्र का आवश्यक है, फिर भी वे यह स्वीकार नहीं करते हैं कि अकेला ज्ञान पक्ष आत्म-रमण की स्थिति है। नैश्चयिक चारित्र का प्रादुर्भाव केवल ही मुक्ति का साधन हो सकता है। महावीर ने ज्ञान और आचरण दोनों अप्रमत्त अवस्था में ही होता है। अप्रमत्त चेतना की अवस्था में होने से समन्वित साधना पथ का उपदेश दिया है। सूत्रकृतांग में महावीर वाले सभी कार्य शुद्ध ही माने गए हैं। चेतना में जब राग, द्वेष, कहते हैं कि 'मनुष्य चाहे वह ब्राह्यण हो, भिक्षुक हो अथवा अनेक कषाय और वासनाओं की अग्नि पूरी तरह शांत हो जाती है तभी शास्त्रों का जानकर हो यदि उसका आचरण अच्छा नहीं है तो वह सच्चे नैतिक एवम् धार्मिक जीवन का उद्भव होता है और ऐसा ही अपने कृत्य कर्मों के कारण दुःखी ही होगा'।२७ उत्तराध्ययन सूत्र में सदाचार मोक्ष का कारण होता है। साधक जब जीवन की प्रत्येक कहा गया है कि अनेक भाषाओं एवम् शास्त्रों का ज्ञान आत्मा को क्रिया के सम्पादन में आत्म-जाग्रत होता है, उसका आचरण बाह्य शरणभूत नहीं होता। दुराचरण में अनुरक्त अपने आप को पंडित आवेगों और वासनाओं से चालित नहीं होता है तभी वह सच्चे अर्थों मानने वाले लोग वस्तुत: मूर्ख ही हैं। वे केवल वचनों से ही अपने में श्चय चारित्र का पालन-कर्ता माना जाता है। यही नैश्चयिक चारित्र को आश्वासन देते हैं।२८ आवश्यकनियुक्ति में ज्ञान और आचरण के मुक्ति का सोपान कहा गया है।
पारस्परिक सम्बन्ध का विवेचन अत्यन्त विस्तृत रूप से किया गया
है। आचार्य भद्रबाहु कहते हैं कि 'आचरणविहीन अनेक शास्त्रों के व्यवहार चारित्र
ज्ञाता भी संसार समुद्र से पार नहीं होते'। ज्ञान और क्रिया के व्यवहार चारित्र का सम्बन्ध आचार के नियमों के परिपालन पारस्परिक सम्बन्ध को लोक प्रसिद्ध अंध-पंगु न्याय के आधार पर से है। व्यवहारचारित्र को देशव्रती चारित्र और सर्वव्रती-चारित्र ऐसे स्पष्ट करते हुए आचार्य लिखते हैं कि जिस प्रकार एक चक्र से रथ वर्गों में विभाजित किया गया है। देशव्रतीचारित्र का सम्बन्ध गृहस्थ नहीं चलता है या अकेला अंधा अथवा अकेला पंगु इच्छित साध्य उपासकों से और सर्वव्रतीचारित्र का सम्बन्ध श्रमण वर्ग से है। जैन- को नहीं पहुँचते, वैसे ही मात्र क्रिया या मात्र ज्ञान से मुक्ति नहीं परम्परा में गृहस्थाचार के अन्तर्गत अष्टमूलगुण, षट्कर्म, बारह व्रत होती, अपितु दोनों के सहयोग से ही मुक्ति होती है।२९
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जैन धर्म की आध्यात्मिक जीवनदृष्टि
जैन पर्वो की आध्यात्मिक प्रकृति
न केवल जैन साधना की प्रकृति अध्यात्मवादी है अपितु जैन पर्व भी मूलत: अध्यात्मवादी ही हैं। जैन पर्व आमोद-प्रमोद के लिए न होकर आत्म साधना और तप के लिए होते हैं। उनमें मुख्यतः तप; त्याग, व्रत एवं उपवासों की प्रधानता होती है। जैनों के प्रसिद्ध पर्वों में श्वेताम्बर परम्परा में पर्युषण पर्व और दिगम्बर परम्परा में दशलक्षण पर्व हैं जो भाद्रपद में मनाये जाते हैं। इन दिनों में जिन प्रतिमाओं की पूजा, उपवास आदि व्रत तथा धर्म ग्रन्थों का स्वाध्याय यही साधकों की दिनचर्या के प्रमुख अंग होते हैं। इन पर्वो के दिनों में जहाँ दिगम्बर परम्परा में प्रतिदिन क्षमा, विनम्रता, सरलता पवित्रता, सत्य, संयम, ब्रह्मचर्य आदि दस धर्मों (सद्गुणों) की विशिष्ट साधना की जाती है, वहां श्वेताम्बर परम्परा में इन दिनों में प्रतिक्रमण के रूप में आत्म पर्यावलोचन किया जाता है। श्वेताम्बर परम्परा का अन्तिम दिन संवत्सरी पर्व के नाम से मनाया जाता है और इस दिन समग्र वर्ष के चारित्रिक स्खलन या असदाचरण और वैर-विरोध के लिए आत्म पर्यावलोचन (प्रतिक्रमण ) किया जाता है एवं प्रायश्चित्त प्रहण किया जाता है इस दिन शत्रु मित्र आदि सभी से क्षमा-याचना की जाती है। इस दिन जैन साधक का मुख्य उद्घोष होता है- मैं सब जीवों को क्षमा प्रदान करता हूं और सभी जीव मुझे क्षमा प्रदान करें। मेरी पृधी प्राणीवर्ग से मित्रता है और किसी से कोई वैर-विरोध नहीं है। इन पर्व के दिनों में अहिंसा का पालन करना और करवाना एक प्रमुख कार्य होता है। प्राचीन काल में अनेक जैनाचार्यों ने अपने प्रभाव से शासकों द्वारा इन दिनों को अहिंसक दिनों के रूप में घोषित करवाया था। इस प्रमुख पर्व के अतिरिक्त अष्टाहिका पर्व अतुपंचमी तथा विभिन्न तीर्थकरों के गर्भ प्रवेश, जन्म, दीक्षा, कैवल्य प्राप्ति एवं निर्वाण दिवसों को भी पर्व के रूप में मनाया जाता है। इन दिनों में भी सामान्यतया व्रत रखा जाता है और जिन प्रतिमाओं की विशेष समारोह के साथ पूजा की जाती है। दीपावली का पर्व भी भगवान् महावीर के निर्वाण दिवस के रूप में जैन समुदाय के द्वारा बड़े उत्साह के साथ मनाया जाता है।
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लौट आये। उन्होंने चतुर्विध संघ की स्थापना की तथा जीवन भर उसका मार्ग-दर्शन करते रहे। जैनधर्म सामाजिक कल्याण और सामाजिक सेवा को आवश्यक तो मानता है, किन्तु वह व्यक्ति के सुधार से समाज के सुधार की दिशा में आगे बढ़ता है। व्यक्ति समाज की प्रथम इकाई है, जब तक व्यक्ति नहीं सुधरेगा तब तक समाज नहीं सुधर सकता है। जब तक व्यक्ति के जीवन में नैतिक और आध्यात्मिक चेतना का विकास नहीं होता तब तक सामाजिक जीवन में सुव्यवस्था और शान्ति की स्थापना नहीं हो सकती। जो व्यक्तित्व अपने स्वार्थों और वासनाओं पर नियंत्रण नहीं कर सकता वह कभी सामाजिक हो ही नहीं सकता। लोकसेवक और जन-सेवक अपने व्यक्तिगत स्वार्थों और द्वन्द्वों से दूर रहें यह जैन आचार संहिता का आधारभूत सिद्धान्त है चरित्रहीन व्यक्ति सामाजिक जीवन के लिए घातक ही सिद्ध होगें। व्यक्तिगत स्वार्थों की पूर्ति के निमित्त जो संगठन या समुदाय बनते हैं, वे सामाजिक जीवन के सच्चे प्रतिनिधि नहीं हैं। क्या चोर, डाकू और शोषकों का समाज, समाज कहलाने का अधिकारी है ? महावीर की शिक्षा का सार यही है कि वैयक्तिक जीवन में निवृत्ति ही सामाजिक कल्याण के क्षेत्र में प्रवृत्ति का आधार बन सकती है। प्रश्नव्याकरणसूत्र में कहा गया है कि भगवान का यह सुकथित प्रवचन संसार के सभी प्राणियों के रक्षण एवं करुणा के लिए है। " जैन साधना में अहिंसा, सत्य, ब्रह्मचर्य और अपरिग्रह- ये जो पाँच व्रत माने गये हैं वे केवल वैयक्तिक साधना के लिए नहीं है, वे सामाजिक मंगल के लिए भी हैं। वे आत्म शुद्धि के साथ ही हमारे सामाजिक सम्बन्धों की शुद्धि का प्रयास भी है। जैन दार्शनिकों ने आत्महित की अपेक्षा लोकहित को सदैव ही महत्त्व दिया है। जैनधर्म में तीर्थंकर गणधर और सामान्य केवली के जो आदर्श स्थापित किये गये हैं और उनमें जो तारतम्यता निश्चत की गई उसका आधार विश्व कल्याण वर्ग कल्याण और व्यक्ति कल्याण की भावना ही है। इस त्रिपुटी में विश्व कल्याण के लिए प्रवृत्ति करने के कारण ही तीर्थंकर को सर्वोच्च स्थान प्राप्त है। स्थानांगसूत्र में ग्रामधर्म, नगरधर्म, राष्ट्रधर्म आदि की उपस्थिति इस बार का स्पष्ट प्रमाण है कि जैन साधना केवल आत्महित या वैयक्तिक विकास तक ही सीमित नहीं है वरन् उसमें लोकहित या लोक कल्याण की प्रवृत्ति भी पायी जाती है३१।
जैन अध्यात्मवाद और लोक कल्याण का प्रश्न
यह सत्य है कि जैनधर्म संन्यासमार्गी धर्म है। उसकी साधना में आत्मशुद्धि और आत्मोपलब्धि पर अधिक जोर दिया गया
है, किन्तु इसका अर्थ यह नहीं है कि जैन धर्म में लोक मंगल या लोक क्या जैनधर्म जीवन का निषेध सिखाता है?
कल्याण का कोई स्थान ही नहीं है। जैनधर्म यह तो अवश्य मानता है कि वैयक्तिक साधना की दृष्टि से एकाकी जीवन अधिक उपयुक्त है, किन्तु इसके साथ ही साथ वह भी मानता है कि उस साधना से प्राप्त सिद्धि का उपयोग सम्माजिक कल्याण की दिशा में होना चाहिए। महावीर का जीवन स्वयं इस बात का साक्षी है, कि १२ वर्षों तक एकाकी साधना करने के पश्चात् वे पुनः सामाजिक जीवन में
जैनधर्म में तप त्याग की जो महिमा गायी गई है उसके आधार पर यह भ्रान्ति फैलाई जाती है कि जैनधर्म जीवन का निषेध सिखाता है। अतः यहां इस भ्रान्ति का निराकरण कर देना अप्रासंगिक नहीं होगा कि जैनधर्म के तप त्याग का अर्थ शारीरिक एवं भौतिक जीवन को अस्वीकृति नहीं है। आध्यात्मिक मूल्यों की स्वीकृति का यह तात्पर्य नहीं है कि शरीरिक एवं भौतिक मूल्यों की पूर्णतया
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जैन विद्या के आयाम खण्ड-७ उपेक्षा की जाय। जैनधर्म के अनुसार शारीरिक मूल्य अध्यात्म के परमप्पा' अर्थात् आत्मा ही परमात्मा है। मनुष्य को किसी का कृपाकांक्षी बाधक नहीं, निशीथभाष्य में कहा है कि मोक्ष का साधन ज्ञान है, न बनकर स्वयं ही पुरुषार्थ करके परमात्म-पद को प्राप्त करना है। ज्ञान का साधन शरीर है, शरीर का आधार आहार है,।३२ शरीर (ब) मानव मात्र की समानता का उद्घोष- जैनधर्म शाश्वत् आनंद के कूल पर ले जाने वाली नौका है। इस दृष्टि से की दूसरी विशेषता यह है कि उसने वर्णवाद, जातिवाद आदि उन उसका मूल्य भी है, महत्त्व भी है और उसकी सार-संभाल भी करना सभी अवधारणाओं की जो मनुष्य-मनुष्य में ऊँच-नीच का भेद उत्पन्न है। किन्तु ध्यान रहे, दृष्टि नौका पर नहीं कूल पर होना है, नौका करती थी, अस्वीकार किया। उसके अनुसार सभी मनुष्य समान हैं। साधन है, साध्य नहीं। भौतिक एवं शारीरिक आवश्यकताओं की एक मनुष्यों में श्रेष्ठता और कनिष्ठता का आधार न तो जाति विशेष या साधन के रूप में स्वीकृति जैनधर्म और सम्पूर्ण अध्यात्म विद्या का कुल विशेष में जन्म लेना है और न सत्ता और सम्पत्ति ही। वह वर्ण, हार्द है। यह वह विभाजन रेखा है,जो आध्यात्म और भौतिकवाद में रंग, जाति, सम्पत्ति और सत्ता के स्थान पर आचरण की श्रेष्ठता का अन्तर करती है। भौतिकवाद में उपलब्धियाँ या जैविक मूल्य स्वयमेव प्रतिपादन करता है। उत्तराध्ययनसूत्र के १२ वें एवं २५ वें अध्याय साध्य हैं, अन्तिम हैं, जबकि अध्यात्म में वे किन्हीं उच्च मूल्यों का में वर्णव्यवस्था और ब्राह्मण की श्रेष्ठता की अवधारणा पर करारी साधन हैं। जैनधर्म की भाषा में कहें तो साधक के द्वारा वस्तुओं का चोट करते हुए यह कहा गया है कि जो सर्वथा अनासक्त, मेधावी त्याग और ग्रहण, दोनों ही साधना के लिए है। जैनधर्म की सम्पूर्ण और सदाचारी है वही सच्चा ब्राह्मण है और वही श्रेष्ठ है। न कि साधना का मूल लक्ष्य तो एक ऐसे निराकुल, निर्विकार, निष्काम किसी कुल विशेष में जन्म लेनेवाला व्यक्ति। और वीतराग मानस की अभिव्यक्ति है जो वैयक्तिक एवं सामाजिक (स) यज्ञ आदि बाह्य क्रिया-काण्डों का आध्यात्मिक जीवन के समस्त तनावों एवं संघर्षों को समाप्त कर सके। उसके अर्थ-जैन परम्परा ने यज्ञ, तीर्थ स्थान आदि धर्म के नाम पर किये सामने मूल प्रश्न दैहिक एवं भौतिक मूल्यों की स्वीकृति का नहीं है जानेवाले कर्मकाण्डों की न केवल आलोचना की, अपितु उन्हें एक अपितु वैयक्तिक और सामाजिक जीवन में शान्ति की संस्थापना है। आध्यात्मिक अर्थ भी प्रदान किया। उत्तराध्ययनसूत्र में यज्ञ के आध्यात्मिक अतः जहाँ तक और जिस रूप में दैहिक और भौतिक उपलब्धियाँ स्वरूप का सविस्तार विवेचन है। उसमें कहा गया है कि जीवात्मा उसमें बाधक हो सकती हैं, वहाँ तक वे स्वीकार्य हैं और जहाँ तक अग्निकुण्ड है; मन, वचन, काया की प्रवृत्तियाँ ही कलछी (चम्मच) उसमें बाधक हैं, वहीं तक त्याज्य हैं। भगवान् महावीर ने आचारांग हैं और कर्मों (पापों) का नष्ट करना ही आहुति है, यही यज्ञ एवं उत्तराध्यनसूत्र में इस बात को बहुत ही स्पष्टता के साथ प्रस्तुत शान्तिदायक है और ऋषियों ने ऐसे ही यज्ञ की प्रशंसा की है३५। किया है। वे कहते हैं कि जब इन्द्रियों का अपने विषयों से सम्पर्क तीर्थ-स्नान को भी आध्यात्मिक अर्थ प्रदान करते हुए कहा गया हैहोता है, तब उस सम्पर्क के परिणामस्वरूप सुखद-दुःखद अनुभूति धर्म जलाशय है, ब्रह्मचर्य घाट (तीर्थ) है, उसमें स्नान करने से ही भी होती है और जीवन में यह शक्य नहीं है कि इन्द्रियों का अपने आत्मा निर्मल और शुद्ध हो जाती है३६।। विषयों से सम्पर्क न हो और उसके कारण सुखद या दु:खद अनुभूति
(द) दान, दक्षिणा आदि के स्थान पर संयम की न हो, अत: त्याग इन्द्रियानुभूति का नहीं अपितु उसके प्रति चित्त में श्रेष्ठता-यद्यपि जैन परम्परा ने धर्म के चार अंगों में दान को स्थान उत्पन्न होनेवाले राग-द्वेष का करना है३३ क्योंकि इन्द्रियों के मनोज्ञ दिया है किन्तु वह यह मानती है कि दान की अपेक्षा भी संयम ही या अमनोज्ञ विषय आसक्तचित्त के लिए ही राग-द्वेष (मानसिक श्रेष्ठ है। उत्तराध्ययन में कहा गया है कि प्रतिमास सहस्रों गायों का विक्षोभों) का कारण बनते हैं, अनासक्त यह वीतराग के लिए दान करने की अपेक्षा संयम का पालन अधिक श्रेष्ठ है३७॥ नहीं३४। अत: जैनधर्म की मूल शिक्षा ममत्व के विसर्जन की है, इस प्रकार जैन धर्म बाह्य कर्मकाण्ड के स्थान पर धर्म जीवन के निषेध की नहीं।
साधना में आत्म तत्त्व की प्रतिष्ठा करता है, यही उसका
अध्यात्मवाद हैं। जैन अध्यात्मवाद की विशेषताएँ
. (अ) ईश्वरवाद से मुक्ति-जैन अध्यात्मवाद ने मनुष्य को सन्दर्भ ईश्वरीय दासता से मुक्त कर मानवीय स्वतन्त्रता की प्रतिष्ठा की है। १. उत्तराध्ययनसूत्र, संपा० साध्वी चन्दना, प्रका०- वीरायतन उसने यह उद्घोष किया कि न तो ईश्वर और न तो कोई अन्य शक्ति प्रकाशन, आगरा, १९७२ ३२/९ ही मानव की निर्धारक है। मनुष्य स्वयं ही अपना निर्माता है। जैनधर्म २. वही, ९/४८ ने किसी विश्वनियन्ता ईश्वर को स्वीकार करने के स्थान पर मनुष्य में ३. वही, ९/४८ ईश्वरत्व की प्रतिष्ठा की और यह बताया कि व्यक्ति ही अपनी साधना ४ आचारंग, संपा० मधुकर मुनि, प्रका०- श्रीआगम प्रकाशन के द्वारा परमात्म दशा को प्राप्त कर सकता है उसने कहा 'अप्पा सो समिति, व्यावर ५/३६,४/२७
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जैन धर्म की आध्यात्मिक जीवनदृष्टि
१३ ५. उत्तराध्ययन, (संपा० साध्वी चन्दना, प्रका०- वीरायतन प्रकाशन, २३. समयसार टीका, (प्रका०- मा० वर्णी जै० साहित्य मन्दिर, आगरा, १९७२) २०/३७ (पूर्वाद्ध)
मुज़फ्फर नगर,१९७७) १३२ वही, २०/३७ (उत्तरार्द्ध)
२४. जैन, बौद्ध और गीता का साधनामार्ग, डॉ० सागर मल जैन, ७. आतुरप्रत्याख्यान, २६, २७
प्रका० रा० प्राकृत भारतीय संस्थान, जैयपुर अध्याय ५ ८. आचारांगसूत्र, (संपा०-मधुकरमुनि, प्रका०- श्री आगम प्रकाशन २५. भक्तपरिज्ञा, ६५-६६ समिति, ब्यावर), १९८० ५/१०४
२६. आचारांगनियुक्ति, (संपा०- विजयामृत सूरीश्वर, प्रका०- श्री ९. भगवतीसूत्र, १/९
हर्षपुष्पामृत, जैनग्रंथ- माला, शंतिपुरी, १९८९ २२१ १०. आचारांगसूत्र, (संपा०-मधुकरमुनि, प्रका०- श्री आगम प्रकाशन २७. सूत्रकृतांग, २/१/३ समिति, ब्यावर, १९८०) ८/३१
२८. उत्तराध्ययनसूत्र, (संपा० - साध्वी चन्दना, प्रका०- वीरायतन ११. अध्यामतत्त्वालोक, ४/६
प्रकाशन, आगरा, १९७२) ६/९-११ १२. समयसार टीका, (प्रका०- भा० वर्णी जै० साहित्य मन्दिर, २९. आवश्यकनियुक्ति, (संपा०- विजयामृत सूरीश्वर, प्रका०- श्री मुज़फ्फर नगर, १९७७), ३०५
हर्षपुष्पामृत जैनग्रंथ- माला, शंतिपुरी, १९८९ ९५-९७ १३. योगशास्त्र, ४/५
३०. प्रश्नव्याकरणसूत्र, (संपा०- मधुकरमुनि, प्रका०- श्री आगम १४. समयसार, (प्रका०- भा० वी जै० साहित्य मन्दिर, मुज़फ्फर प्रकाशन समिति, ब्यावर, २/१/२ नगर, १९७७) २७७
३१. स्थानांगसूत्र, (संपा०- मधुकरमुनि, प्रका०- श्री आगम प्रकाशन १५. तत्त्वार्थसूत्र, विवेचक-पु० सुखलाल संघवी प्रका०-वि० ध्ये० समिति, ब्यावर, १९८१) १० संस्थान वाराणसी १९७६, १/१
३२. निशीथभाष्य, ४१५९ १६. उत्तराध्ययनसूत्र, संपा० साध्वी चन्दना, प्रका०- वीरायतन ३३. आचारांगसूत्र, (संपा०-मधुकरमुनि, प्रका०- श्री आगम प्रकाशन प्रकाशन, आगरा, १९७२, २८/२
समिति, ब्यावर, १९८०) २/१५ १७. सुत्तनिपात, २८
३४. उत्तराध्ययनसूत्र, (संपा०- साध्वी चन्दना, प्रका०- वीरायतन १८. गीता, ४/३४
प्रकाशन, आगरा, १९७२), ३२/१०१ १९. Psychology and Morals, P 32
३५. वही, १२/४४ २०. उत्तराध्ययनसूत्र, (संपा० साध्वी चन्दना, प्रका०- वीरायतन ३६. वही, १२/४६ प्रकाशन, आगरा, १९७२) २८/३०
३७. वही, ९/४० २१. उत्तराध्ययन, २८/३५ तत्वार्थसूत्र, १/२ २२. आत्मसिद्धिशास्त्र, पृ० ४३
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जैन आचार में इन्द्रिय-दमन की मनोवैज्ञानिकता
डा० रतनचन्द जैन
प्राय: सभी भारतीय मुक्तिमार्गों में मुक्ति के लिए वीतरागता है। किन्तु विषयराग बना रहने के कारण यह निर्वाह प्राय: दमन के या निष्कामभाव एकमात्र साधन माना गया है, क्योंकि बन्धन और द्वारा किया जाता है। संसार भ्रमण का मूल कारण है-रागद्वेष-मोह से ग्रस्त होना। रागद्वेष दमन के दुष्परिणाम- दमन से निष्कामता या वीतरागता नाना प्रकार की इच्छाओं के रूप में प्रकट होते हैं जिनकी सन्तुष्टि के नहीं आती, अपितु चरित्र में विकृति उत्पन्न होती है। आधुनिक युग लिए व्यक्ति तरह-तरह के शुभाशुभ कर्म करता है और उनसे नवीन के प्रसिद्ध मनोविश्लेषक फ्रायड ने दमन की कटु आलोचना की है। कर्मों का बन्ध कर अनन्तकाल तक संसारचक्र में भटकता रहता है। उसने इसे सभ्य समाज का सबसे बड़ा अभिशाप बतलाया है और 'मोक्षमार्ग प्रकाशक' में पं० टोडरमल जी ने कहा है- “निश्चय से कहा है कि सभ्य संसार की जितनी भी विकृतियाँ हैं, जितनी भी वीतरागभाव ही मोक्षमार्ग है।" वीतरागता का लक्षण है- समस्त मानसिक और शारीरिक बीमारियाँ हैं, जितनी हत्याएँ और आत्महत्याएँ शुभाशुभ इच्छाओं की निवृत्ति। इसी दशा में आत्मा का भाव शुद्ध होती हैं, जितने लोग पागत होते हैं, जितने पाखण्डी बनते हैं, उनमें अर्थात् वीतराग होता है और उससे नवीन कर्मों का आस्रव रुकता अधिकांश का कारण इच्छाओं का कारण है। इच्छाओं के दमन से है तथा पूर्व संचित कर्मों की निर्जरा होती है, जिससे क्रमश: मोक्ष व्यक्तित्व अन्तर्द्वन्द्व से ग्रस्त हो जाता है। प्राकृतिक मन और नैतिक प्रतिफलित होता है। इस इच्छानिवृत्तिरूप वीतरागभाव को ही तप मन में संघर्ष छिड़ जाता है। प्राकृतिक मन भोग की इच्छा उत्पन्न कहा गया है। भगवान् बुद्ध ने भी कहा है, "छेत्त्वा रागञ्च दोहञ्च करता है, नैतिक मन उसे दबाने का प्रयत्न करता है। इस संघर्ष में ततो निब्बानमेहिसि।" तथा "तण्हक्खयो सब्बदुक्खं जिनाति।" इच्छाएँ दब जाती हैं, पर नष्ट नहीं होती। वे गूढ़ (अचेतन) मन की गीता में जब अर्जुन भगवान् कृष्ण से पूछते हैं- "हे वाष्र्णेय, वह गहराइयों में चली जाती हैं और गाँठ बनकर बैठ जाती हैं। ये गाँठे कौनसा तत्त्व है जिससे प्रेरित होकर पुरुष न चाहता हुआ भी पाप में चरित्र में विकृति उत्पन्न करती हैं, मनुष्य को रूग्ण, विक्षिप्त, छद्मी प्रवृत्त होता है?" तब भगवान् उत्तर देते हैं, “रजोगुण से उत्पन्न यह या भ्रष्ट बना देती हैं। इच्छाओं के दमन का परिणाम हर हालत में काम ही वह तत्त्व है जो मनुष्य को पाप में प्रवृत्त करता है। इसे ही विनाशकारी है। इसलिए फ्रायड ने दमन का पूरी तरह निषेध किया तू सबसे बड़ा वैरी समझा६" वे आगे कहते हैं, “गतागतं कामकामा है और उन्मुक्त कामभोग की सलाह दी है। लभन्ते," इच्छाग्रस्त जीव संसार में भ्रमण करते हैं और आत्मरमण फ्रायड के पूर्व पं० टोडरमल- भारतीय मुक्तिमार्गों में भी या वीतरागता निर्वाण का हेतु है।
दमन को निरर्थक और हानिकारक बतलाया गया है। फ्रायड से एक इस प्रकार मुक्ति की सारी साधना इच्छाओं के विसर्जन सौ बीस वर्ष पहले जन्मे जैन विद्वान् पं० टोडरमल जी ने दमन के की साधना है। इच्छाएँ दो प्रकार की होती हैं-इन्द्रिय विषय- दुष्परिणामों का बिल्कुल वैसा ही वर्णन किया है जैसा फ्रायड ने। सम्बन्धी और मानस विषय-सम्बन्धी। ऐन्द्रियक विषय तो प्रसिद्ध 'मोक्षमार्गप्रकाशक' के सप्तम अधिकार में वे कहते हैं, "कितने ही ही हैं। मानसिक विषय हैं-यश, प्रतिष्ठा, प्रभुत्व, ऐश्वर्य आदि। जीव पहले तो बड़ी प्रतिज्ञा धारण कर बैठते हैं, परन्तु अन्तरंग में ये मोह, तृष्णा, अहंकार आदि कषायों से प्रसूत होते हैं। जैन विषय-कषाय-वासना मिटी नहीं है इसलिए जैसे-तैसे प्रतिज्ञा पूरी अध्यात्म में प्रथम को विषयजन्य इच्छाएँ और द्वितीय को कषायजन्य करना चाहते हैं। वहाँ उस प्रतिज्ञा के परिणाम (मनोभाव) दु:खी होते इच्छाएँ कहते हैं।
हैं। जैसे कोई बहुत उपवास कर बैठता है और पश्चात् पीड़ा से दुःखी इच्छाओं का दमन- इच्छाओं से मुक्ति का एकमात्र उपाय हुआ रोगी की भाँति काल गँवाता है।... दु:खी होने में आर्तध्यान हो, वैराग्य है और वैराग्य का हेतु है- ज्ञान या सम्यग्दर्शन। पर प्रायः उसका फल अच्छा कैसे लगेगा?" गृहस्थजीवन में और किसी हद तक संन्यास-जीवन में बलपूर्वक "अथवा उस प्रतिज्ञा का दुःख नहीं सहा जाता तब उसके इच्छाओं का दमन किया जाता है। दोनों ही जीवन-धर्मसाधना के बदले विषय-पोषण के लिए अन्य उपाय करता है। जैसे (प्यास) लगे क्षेत्र हैं और धार्मिक व्रत जब स्वीकार कर लिये जाते हैं तब उन्हें तब पानी तो न पिये और अन्य शीतल उपचार अनेक प्रकार करे, व निभाना अनिवार्य हो जाता है। कुछ धार्मिक आचार कुल और घृत तो छोड़े और अन्य स्निग्ध वस्तु का उपाय करके भक्षण करे।" समाज-परम्परा से आरोपित होते हैं जिनका निर्वाह अपरिहार्य होता "अथवा प्रतिज्ञा में दुःख हो तब परिणाम लगाने के लिए
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कोई आलम्बन विचारता है। जैसे उपवास करके फिर क्रीड़ा करता है, शुद्धि न हो तो केवल शरीर को क्षीण करना व्यर्थ है१५। विषयकितने ही पापी जुआ आदि कुव्यसनों में लग जाते हैं अथवा सो कषायों में चित्त का लिप्त न होना ही वास्तविक संयम है१६।। रहना चाहते हैं। ऐसा जानते हैं कि किसी प्रकार काल पूरा करना।" उन्मुक्त भोग दमन का विकल्प नहीं- किन्तु इच्छा-दमन के
"अथवा कितने ही पापी ऐसे भी हैं कि पहले प्रतिज्ञा करते हानिकारक परिणामों से बचने के लिए फ्रायड ने जो उन्मुक्त भोग का हैं बाद में उससे दुःखी हों तब प्रतिज्ञा छोड़ देते हैं।" उपाय बतलाया है वह भारतीय आचार में अंगीकृत नहीं किया गया,
“तथा जिनके अन्तरंग विरक्तता नहीं हुई और बाह्य प्रतिज्ञा क्योंकि यह तो उस औषधि के समान है जो रोगी को एक साधारण धारण करते हैं वे प्रतिज्ञा के पहले और बाद में जिसकी प्रतिज्ञा करें रोग से बचाने के लिए उससे भी भंयकर रोग से ग्रस्त कर दे। उसमें अति आसक्त होकर लगते हैं। जैसे उपवास के धारणे-पारणे के इच्छाओं का दमन जितना हानिकारक है उससे भी कहीं ज्यादा घातक भोजन में अतिलोभी होकर गरिष्ठादि भोजन करते हैं, शीघ्रता बहुत उन्मुक्त भोग है। इसके लोमहर्षक परिणाम हम अमेरिका जैसे स्वच्छन्द करते हैं। जैसे जल को रोक रखा था, जब वह छूटा तभी प्रवाह भोगी देशों में दिनोंदिन बढ़ती हुई विक्षिप्तता और आत्महत्याओं के चलने लगा। उसी प्रकार प्रतिज्ञा पूर्ण होते ही अत्यन्त विषय प्रवृत्ति रूप में देख रहे हैं। होने लगी। सो प्रतिज्ञा के काल में विषय वासना मिटी नहीं, आगेपीछे उसके बदले अधिक राग किया, सो फल तो रागभाव मिटने से विषय-विराग ही एकमात्र उपाय होगा। इसलिए जितनी विरक्ति हुई हो उतनी ही प्रतिज्ञा करना।” (पृ० भारतीय आचार-पद्धतियों में इच्छाओं से मुक्ति के लिए २३८-२४०)
उनके दमन के बजाय विषय-विराग की आवश्यकता प्रतिपादित की ___ इन शब्दों में पंडित जी ने जैसे-तैसे प्रतिज्ञा पूरी करने के गई है। इच्छाओं का कारण विषयों के प्रति राग है।१७ अत: उनसे दुष्परिणामों का उल्लेख किया है। जैसे-तैसे का अर्थ है अन्तरंग में वैराग्य ही इच्छाओं की समाप्ति का वैज्ञानिक उपाय है। स्वामीकुमार उठती हुई विषयेच्छा का येन केन प्रकारेण दमन करके। और, इसके ने कहा है। दुष्परिणाम उन्होंने प्रमुखत: पाँच बतलाये हैं- (१) आर्तध्यान या जो पुण विसयविरत्तो अप्पाणं सव्वदो विसंवरइ। तनाव उत्पन्न होना (२) प्रकारान्तर से इच्छातृप्ति की चेष्टा करना, मणहरविसएहितो तस्स फुडं संवरो होदि१८।। (३) कष्ट को भुलाने के लिए व्यसनों में चित्त लगाना (४) प्रतिज्ञा से जो मुनि विषयों से विरक्त होकर, मन को हरने वाले च्युत हो जाना (५) आसक्ति का और बढ़ जाना।
इन्द्रिय-विषयों से अपने को सदा दूर रखता है उसी के निश्चय से इन दुष्परिणामों से बचने के लिए उन्होंने कहा है कि फल संवर होता है। तात्पर्य यह कि विषय-विरक्ति से ही आत्मा को इन्द्रिय तो रागभाव मिटने से लगता है, इसलिए जितनी विरक्ति हुई हो विषयों में प्रवृत्त होने की इच्छा दूर हो सकती है। इसलिए पं० उतनी प्रतिज्ञा करनी चाहिए।
टोडरमल जी ने कहा है-जितनी विरक्ति हुई हो उतनी ही प्रतिज्ञा अन्तरंग विरक्ति ही कार्यकारी-जैन आचार में अन्तरग करना। विरक्ति को कार्यकारी कहा है, बाह्य विरक्ति अर्थात् इन्द्रिय निरोधमात्र को निष्फल बतलाया है। इन्द्रिय होने पर भी अन्तरंग विरक्ति के चंचल और दुर्निग्रह मन अभ्यास और वैराग्य से वश में होता है१९॥ अभाव में मनरूपी हाथी विषयवन में क्रीडा करता रहता है
वैराग्य का उपाय ज्ञान- विषयराग अज्ञान या मोहजन्य भावविरदो दु विरदो ण दव्वविरदस्स सुगई होई ।
है। अज्ञान के कारण इन्द्रिय और मन के विषय मनुष्य को सुखद और विसयवणरमणलीलो धरियव्यो तेण मणहत्थी ११।। सार प्रतीत होते हैं। अत: वह उनके प्रति आकृष्ट होता है। इसलिए
गीता में भी कहा गया है कि दमन से इन्द्रियाँ तो विषयों वैराग्य का उपाय ज्ञान या सम्यग्दर्शन है। ज्ञान से विषयों की से निवृत्त हो जाती हैं, किन्तु इन्द्रिय-विषयों के प्रति मन का राग असारता और दुःखदता का बोध हो जाता है। तब उनके प्रति रहने समाप्त नहीं होता। वह उन्ही में डूबा रहता है।
वाला राग स्वयमेव निवृत्त हो जाता है। आचार्य गुणभद्र 'आत्मानुशासन' वहीं आगे कहा गया है
में कहते हैं- "जैसे बीज से मूल और अंकुर उत्पन्न होते हैं वैसे ही कर्मेन्द्रियाणि संयम्य य आस्ते मनसा स्मरन् ।
मोहरूपी बीज से राग और द्वेष पैदा होते हैं। इनका दहन ज्ञानाग्नि से इन्द्रियार्थान् विमूढात्मा मायाचारः स उच्यते१३।।
होता है।२०" भगवान् कुन्दकुन्द ने 'भावप्राभृत' मे कहा है- “विषयरूप जो मूढ़ात्मा इन्द्रियों का दमन कर मन ही मन विषयों का विषपुष्पों से खिली हुई मोहलता को ज्ञानीजन ज्ञानरूपी शस्त्र से चिन्तन करती रहती है उसका यह आचरण मायाचार है। उच्छिन्न करते हैं ।
मन शुद्धि के अभाव में संयम नहीं हो सकता। मन इच्छा के अभाव में दमन का प्रश्न नहीं-भीतर इच्छा
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जैन विद्या के आयाम खण्ड-७ उत्पन्न हो और फिर उसका दमन किया जाय तब हानि की संभावना यहाँ मनोनिरोध का अभिप्राय विषय-राग की निवृत्ति और है। किन्तु इच्छा ही समाप्त हो जाय तो उसके दमन का प्रश्न ही इन्द्रियनिरोध का आशय इन्द्रियों का विषय प्रवृत्ति का निवारण है। कहाँ? और तब तज्जनित हानि के लिए भी अवकाश कहाँ ? फ्रायड मनोनिरोध या मनोविजय का तात्पर्य विषय-राग का दमन नहीं हो शुद्ध भौतिकवादी या देहमनोवादी थे। वे मनुष्य को मूल प्रवृत्तियों सकता, क्योंकि सर्वत्र संयम, संवर निर्जरा आदि के लिए विषयऔर संवेगों का पुतला मात्र मानते थे। मनुष्य के आध्यात्मिक स्वरूप विराग की ही अपेक्षा की गई है। विषय-राग का दमन और विषयकी कल्पना भी उनके मस्तिष्क में नहीं थी। अत: वे यह मान ही नहीं विराग दोनों में महान् अन्तर है। प्रथम में राग सद्भाव है, सिर्फ वह सकते थे कि इच्छाएँ समाप्त भी हो सकती हैं। उनकी मान्यता तो यह दबा हुआ है। द्वितीय में राग की सत्ता ही नहीं है। दूसरी बात रागद्वेष थी कि इच्छाएँ सदा उत्पन्न होती रहेंगी और उनकी तृप्ति भी सदा का कभी दमन नहीं हो सकता उनकी अभिव्यक्ति मात्र का निरोध हो आवश्यक होगी। आदमी के आध्यात्मिक स्वरूप को तो भारतीय सकता है। इच्छाओं के दमन का तात्पर्य बलपूर्वक उनकी तृप्ति अन्तर्दृष्टि ही देखने में समर्थ हुई और उसने पाया है कि आत्मा रोकना मात्र है। इच्छा की अनुभूति को नहीं रोका जा सकता।
और रागद्वेष भिन्न-भिन्न हैं। आत्मा तो ज्ञाता-द्रष्टा-मात्र है। रागद्वेष भगवान् कुन्दकुन्द भी 'सीलपाहुड' में सिद्धों को 'विसयविरत्ता मोहजनित है। अत: मोह की समाप्ति से रागद्वेष को समाप्त किया जिदिंदिया२७' कहकर विषयविरक्तता और जितेन्द्रियता दोनों की जा सकता है और रागद्वेष की समाप्ति से इच्छाओं का मूलाच्छेद आवश्यकता प्रतिपादित करते हैं। धम्मपद के 'कायेन संवरो साधु... हो जाता है। तब न तो उनके दमन की आवश्यकता होती है न मनसा संवरो साधु२८' इस प्रकार धम्मपद में भी इन्द्रिय और मन उन्मुक्त भोग की। यह एक शुद्धि का मार्ग है जिसमें अवांछनीय दोनों के संवर (संयम) का उपदेश दिया गया है। अनात्मतत्त्व का विसर्जन किया जाता है। इस ज्ञानजन्य विषय- पं० टोडरमल जी ने विषयविरक्ति के अभाव में प्रतिज्ञा विराग को 'शम' भी कहा गया है, क्योंकि विषय-विराग से आत्मा धारण करने की कटु आलोचना की है, तथापि विरक्ति होने पर में शान्ति की स्थिति उत्पन्न होती है।
प्रतिज्ञा आवश्यक बतलाई है। इसका अर्थ यही है कि वे भी विरक्ति विषय-विराग के साथ दमन का भी विधान- किन्तु और इन्द्रिय-निग्रह दोनों को आवश्यक समझते हैं२९॥ विषय-विराग के साथ जैन आचार और अन्य भारतीय आचारों में इन्द्रिय दमन का विधान क्यों यहाँ विचारणीय है कि 'दमन' का भी विधान किया गया है। जैन आगमों में जहाँ भी संयम, विषय-विराग के साथ इन्द्रिय-दमन का विधान क्यों किया गया है? संवर, निर्जरा अथवा इच्छानिवृत्तिरूप तप का प्रकरण आया है सर्वत्र क्या दोनो की व्यवस्था अलग-अलग है? विषयेविरक्ति से ही स्वयमेव 'शम' और 'दम' अथवा विषय-विराग और इन्द्रिय-निग्रह की आवश्यकता इन्द्रियनिग्रह नहीं हो जाता? इन्द्रियदमन का औचित्य क्या है? यह प्रतिपादित की गई है। 'शम' से तात्पर्य विषयविराग से है और 'दम' कहाँ तक मनोविज्ञानसंगत है? यह विचार ही इस शोधनिबन्ध का से तात्पर्य दमन यह इन्द्रियनिग्रह से है। संवर के साधन के रूप में लक्ष्य है। इनका पर्यायवाची की तरह प्रयोग किया गया है जैसा कि नीचे के इन्द्रिय दमन की मनोवैज्ञानिकता- उपर्युक्त उद्धरणों में उद्धरणों से स्पष्ट है। पं० दौलतराम जी ने 'छहढाला' में कहा है- ध्यान देने योग्य बात यह है कि दमन का विधान इन्द्रियों के प्रसंग 'शम दम तें जो कर्म न आवे सो संवर आदरिये'२२ और 'कार्तिकेयानुप्रेक्षा में ही किया गया है, मनोगत विषयवासना के प्रसंग में नहीं। की पूर्वोद्धृत गाथा में विषय-विराग और इन्द्रिय-संवृत्ति को संवर हेतु विषयवासना के प्रसंग में शम या विरक्ति को ही आवश्यक बतलाया बतलाया गया है। कहीं-कहीं शम और दम की जगह मनोविजय और गया है। यहीं पर दमन की मनोवैज्ञानिकता निहित है। इन्द्रियविजय अथवा कषायविजय और इन्द्रियविजय शब्द प्रयुक्त हुए सामान्य धारणा यह है कि इन्द्रियों की विषय प्रवृत्ति-सर्वथा हैं। कषाय के अन्तर्गत विषयरति का समावेश हो जाता है २३ और मनोगत विषयवासना पर आश्रित है। मन की विषयासक्ति के कारण सम्पूर्ण कषायों का मन के विषय होने के कारण मन शब्द से ही इच्छाएँ पैदा होती हैं और इन्द्रियाँ अपने-अपने विषयों में प्रवृत्त प्रतिनिधित्व हो जाता है। स्वामिकुमार ने 'मण-इंदियाण-विजई २४' होती हैं। इसलिए मन के विषयविरक्त हो जाने पर इच्छाएँ समाप्त हो और 'इंदिय-कसाय-विजई२५' शब्दों द्वारा निर्जरा के लिए मनोविजय जाती हैं। अत: इन्द्रियों पर अलग से निग्रह आवश्यक नहीं है। और इन्द्रियनिग्रह अथवा कषायविजय और इन्द्रियनिग्रह दोनों की इच्छाओं के दो स्रोत--पर यह धारणा तथ्य के विपरीत आवश्यकता बतलाई है। पञ्चाध्यायीकार ने संयम में मन और इन्द्रिय है। यदि हम सूक्ष्म दृष्टि से देखें तो पायेंगे कि इच्छाओं से मुक्ति के दोनों के निग्रह पर जोर दिया है
लिए विषयों से विरक्ति ही पर्याप्त नहीं है। क्योंकि इच्छाएँ केवल पञ्चानामिन्द्रियाणां मनसश्च निरोधनात् ।।
विषयासक्ति से ही उत्पन्न नहीं होती, इन्द्रियों के व्यसन या भोगाभ्यास स्यादिन्द्रियनिरोधाख्यः संयमः प्रथमो मतः २६।।
से भी उत्पन्न होती हैं। यह एक शुद्ध शारीरिक या स्नायु-तन्त्रीय
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जैन आचार में इन्द्रिय-दमन की मनोवैज्ञानिकता
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प्रक्रिया है। मलरूप से इच्छाएँ विषयराग से ही उत्पन्न होती हैं, किन्तु विषय-विरक्त हो जाने पर भी इन्द्रियों के अभ्यासवश विषयेच्छा तृप्ति के लिए जब इन्द्रियाँ विषयभोग करती हैं तब उनके स्नायुओं उत्पन्न होती रह सकती है। जैसे कि चाय आदि की आदत पड़ जाने में भोग का एक संस्कार पड़ता है। यह संस्कार जब बार-बार आवृत्त पर उनसे विरक्ति होने के बावजूद उनके भोग की इच्छा उत्पन्न होती होता है तब वह एक व्यसन या लत में परिणत हो जाता है। तब रहती है। इस तथ्य को देखते हुए गीता का यह कथन बिलकुल सत्य इन्द्रियों में संबंधित विषय के भोग की इच्छा अपने आप उत्पन्न होने प्रतीत होता है कि 'काम' (इच्छा) का निवास मन, बुद्धि और इन्द्रिय लगती है। जिस समय जिस वस्तु के भोग का अभ्यास इन्द्रियों को हो तीनों में रहता है३१। गया है उस समय उस वस्तु की प्राप्ति के लिए ऐन्द्रिक स्नायुओं में व्यसनजन्य इच्छाएँ अधिक- हम जीवन में देखते हैं उद्दीपन होता है। इससे शरीर और मन में व्याकुलता की अनुभूति कि विषय-राग के कारण जितनी इच्छाएँ पैदा होती हैं उससे अधिक होती है जिससे मुक्त होने के लिए उस वस्तु का भोग आवश्यक हो इन्द्रियों के भोगाभ्यास से पैदा होती हैं। प्राचीन युग में भोग की जाता है। इस उद्दीपन को 'तलब' कहते हैं। उदाहरण के लिए जिन्हें वस्तुएँ सीमित थीं जिससे लोगों को कम वस्तुओं का ही भोगाभ्यास बीड़ी, सिगरेट, तम्बाकू, चाय, शराब आदि की लत पड़ जाती है होता था। अत: उनकी भोगेच्छाएँ सीमित रहती थीं। आज जितनी उनके ऐन्द्रियक तन्तुओं में निर्धारित समय पर इन द्रव्यों के भोग की अधिक भोग्य सामग्री पैदा होती जा रही है मनुष्य की भोगेच्छा भी उत्तेजना पैदा होती है और तब उन्हें बरबस इनका सेवन करना पड़ता उतनी ही बढ़ती जा रही है। है। इसी प्रकार जिन्हें अधिक भोजन करने की या अधिक कामसेवन
भोगाभ्यास सार्वजनिक-भोगाभ्यास प्राय: सभी की इन्द्रियों की आदत पड़ जाती हैं उनकी इन्द्रियाँ उतने ही भोजन और उतने ही को हो जाती है, भले ही उसकी मात्रा न्यूनाधिक हो जन्म से ही कामसेवन की माँग करने लगती हैं। इसे मनोवैज्ञानिक भाषा में इन्द्रियाँ भोग में प्रवृत्त हो जाती हैं। इच्छाओं से मुक्ति का प्रश्न प्रतिबद्धीकरण कहते हैं।
आध्यात्मिक चेतना जाग्रत होने पर उठता है और इसका अवसर इन्द्रियों का एक अलग विधान-भोगाभ्यास हो जाने आते-आते प्राय: आधी से अधिक उम्र बीत जाती है, तब तक पर इन्द्रियों का अपना एक अलग विधान बन जाता है। पहले वे मन भोगाभ्यास दृढ़ हो जाता है और इन्द्रियाँ व्यसनग्रस्त हो जाती हैं। के अनुसार चलती हैं, बाद में मन को अपने अनुसार चलाने लगती व्यसननिवृत्ति अभ्यास से- इच्छाओं के स्रोत दो हैंहैं। और उनकी चालक शक्ति इतनी प्रबल हो जाती है कि न चाहते विषयराग तथा इन्द्रिय व्यसन। विषयराग तो ज्ञान से नष्ट हो जाता हुए भी वे मन को बलपूर्वक अपनी ओर खींच लेती हैं। यह तथ्य तो है, इन्द्रिय-व्यसन की निवृत्ति कैसे हो? इन्द्रियाँ तो जड़ हैं। उनकी सर्वविदित है कि मन ही हमारे समस्त कार्यों का स्रोत है, मन ही व्यवस्था पूर्णत: भौतिक या स्नायुविक है। उनकी अभ्यासजन्य स्नायुविक इन्द्रियों को अपने-अपने विषयों में प्रवृत्त करता है, पर इस तथ्य पर व्यवस्था को ज्ञान से कैसे बदला जा सकता है? स्नायुतन्त्र आध्यात्मिक शायद सबका ध्यान न गया हो कि इन्द्रियाँ भी मन को बलात् अपने सत्य और दार्शनिक तर्कों को कैसे समझे? तर्कों को चेतन तत्त्व ही विषयों की ओर आकृष्ट कर लेती हैं। गीता में यह तथ्य स्पष्ट शब्दों समझ सकता है। जो विकार अज्ञानजन्य हो उसे ही ज्ञान से नष्ट किया में व्यक्त किया गया है
जा सकता है, लेकिन जो विकार अभ्यासजन्य हो उसे ज्ञान से समाप्त यततो ह्यपि कौन्तेय पुरुषस्य विपश्चित:३°।
करना कैसे संभव है?...मन की यदि कोई धारणा गलत हो तो उसे इन्द्रियाणि प्रमाथीनि हरन्ति प्रसभं मनः।।
केवल समझ से बदला जा सकता है, लेकिन तन की यदि कोई यही कारण है कि कई बार लोग बीड़ी, सिगरेट, शराब आदत गलत है तो उसे केवल समझ से कैसे बदला जा सकता है? आदि की हानियों से सचेत होकर जब उन्हें छोड़ने का प्रयत्न करते जिसे भद्दे अक्षर लिखने की आदत पड़ गई है उसके अक्षर क्या हैं तो बार-बार कोशिश करने पर भी नहीं छोड़ पाते। इसीलिए जहाँ केवल यह समझ आ जाने से सुधर सकते हैं कि उसके अक्षर भद्दे हैं, यह सत्य है कि इन्द्रियों के विषय-निवृत्त हो जाने पर भी मन का उसे सुन्दर अक्षर लिखने चाहिए? जो ज्यादा खाने या ज्यादा सोने विषय-विरक्त होना अनिवार्य नहीं है, वहाँ यह भी सत्य है कि मन का आदी हो गया है उसकी इन आदतों में क्या केवल इनकी के विषय-विरक्त हो जाने पर भी इन्द्रियों का विषय-निवृत्त होना हानिकारकता का बोधमात्र हो जाने से परिवर्तन हो सकता है? नहीं, निश्चित नहीं है। यद्यपि यह सुनने में कुछ विचित्र लगेगा, क्योंकि समझ के अतिरिक्त इन आदतों को बदलने के लिए अभ्यास की हमारे मन में यही धारणा है कि मन ही इन्द्रियों की विषय-प्रवृत्ति का जरूरत है। अभ्यास से उत्पन्न व्यवस्था अभ्यास से ही बदली जा एकमात्र हेतु है और उसके विरक्त हो जाने पर इन्द्रियों का भी विषय- सकती है। हाँ, उस व्यवस्था के गलत होने का बोध तथा उसे बदलने निवृत्त हो जाना अनिवार्य है। पर अनुभव ऐसा नहीं कहता। मन के की इच्छा अवश्य पहले मन में उत्पन्न होनी चाहिए। नहीं तो बदलने
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जैन विद्या के आयाम खण्ड-७
के अभ्यास का प्रश्न ही कहाँ उठेगा? पं० टोडरमल जी ने कहा है, इन्द्रियदमन का अर्थ-इन्द्रियों का दमन करने का अर्थ "पहले तत्त्वज्ञान का उपाय करना, पश्चात् कषाय घटाने के लिए बाह्य यह नहीं है कि उन्हें नष्ट कर दिया जाय या एकदम निराहार रखा साधन करना।... जैन धर्म में तो ऐसा उपदेश है कि पहले तो तत्त्व जाय। यह कैसे संभव है? इससे तो धर्म का साधनभूत शरीर ही नष्ट ज्ञानी हो, फिर जिसका त्याग करे उसका दोष पहचाने, त्याग करने हो जायेगा। इन्द्रियों को नष्ट नहीं किया जा सकता, न ही उन्हें में जो गुण हो उसे जाने, फिर अपने परिणामों को ठीक करे, वर्तमान निराहार रखा जा सकता है। शरीर की सारभूत, जीवनधारिणी इच्छाओं परिणामों ही के भरोसे प्रतिज्ञा न कर बैठे, भविष्य में निर्वाह होता को पूर्ण करना होगा। दमन का अर्थ है-व्यसनजन्य उत्तेजना के कारण जाने तो प्रतिज्ञा करें, तथा शरीर की शक्ति व द्रव्य, क्षेत्र, काल, विषयों में होने वाली इन्द्रियों की प्रवृत्ति को दृढ़ संकल्प शक्ति के भावादिक का विचार करें। इस प्रकार विचार करके फिर प्रतिज्ञा द्वारा रोकना। इन्द्रियों की विषय प्रवृत्ति को दृढ़ संकल्प-शक्ति के द्वारा करना।...सम्यग्दृष्टि जो प्रतिज्ञा करते हैं सो तत्त्वज्ञानादिपूर्वक ही करते रोका जा सकता है। अत: इस शुभ कार्य में संकल्प की दृढ़ता या हैं। ३२" योगीन्दुदेव का भी कथन है कि सम्यग्दर्शन की भूमि के परिणामों की दृढ़ता का नाम ही दम या दमन है। बिना व्रत-रूपी वृक्ष उत्पन्न नहीं होते-“दंसणभूमिह बाहिरा जिय दम संकल्प और व्रत-जैन आचार में इसे ही व्रत कहा वयरूक्ख ण हुंति३३।"
गया है। ब्रह्मदेव ने विषयकषायों से निवृत्त होने के परिणाम (भाव) आदत बदलने के अभ्यास की प्रक्रिया-आदत बदलने को व्रत कहा है३५। यह आत्म परिणाम दृढ़ संकल्परूप होता है। के अभ्यास की प्रक्रिया क्या है? आदत के अनुसार होने वाली प्रवृत्ति इससे ही मनुष्य के मन, वचन, काय अशुभ प्रवृत्तियों से विरत होते को दृढ़ संकल्प शक्ति से रोकने की चेष्टा करना ही वह प्रक्रिया है। हैं। जैन साधना में अनशन, अवमौदर्य आदि बाह्य तपों का, अहिंसा, जैसे कोई सिगरेट को हानिकारक समझकर उसे छोड़ना चाहता है तो ब्रह्मचर्य, अपरिग्रह आदि व्रतों का तथा परीषह-जय आदि का विधान यह आवश्यक होगा कि सिगरेट के व्यसन से ग्रस्त स्नायुतन्त्र जब- इन्द्रियों के पूर्व भोगाभ्यास तथा नवीन भोग संस्कार की संभावना को जब उत्तेजित होकर सिगरेट पीने की इच्छा उत्पन्न करे तब-तब व्यक्ति निरस्त करने के लिए ही किया गया है। पूरी शक्ति से इस इच्छा को पूर्ण न करने का प्रयत्न करे। इसके लिए विरक्ति के बाद ही दम की सार्थकता–यहाँ यह दुहरा कोई प्रतिपक्षी उपाय भी अपनाया जा सकता है जैसे सिगरेट के बदले देना आवश्यक है कि विषयविरक्ति के बाद ही व्रत यह दम सार्थक किसी अन्य अहानिकर वस्तु का सेवन किया जाय या चित्त को किसी है, क्योंकि तभी सच्ची निष्कामता फलित होती है, जैसा कि पं० रूचिकर कार्य में व्यस्त कर दिया जाय। पर व्यसनजन्य इच्छा को टोडरमल जी ने कहा है, "फल तो रागभाव मिटने से होगा, इसलिए किसी भी दशा में तृप्त न किया जाय। इस कार्य में आरंभ में कष्ट तो जितनी विरक्ति हुई हो उतनी ही प्रतिज्ञा करना३६" इसके अतिरिक्त बहुत होगा, लेकिन हम पायेंगे कि धीर-धीरे इन्द्रियों की व्यसनजन्य विषयों से विरक्ति के बाद ही इन्द्रियदमन सफल होता है । उत्तेजना तृप्ति की सामग्री न मिलने से क्षीण होती जा रही है और इन्द्रियदमन हानिकारक नहीं-इन्द्रियदमन अर्थात् व्यसनउनके स्नायुओं की व्यवस्था का स्वभाव बदल रहा है। इस प्रकार वह जन्य इच्छाओं का दमन हानिकारक भी नहीं है, इसके विपरीत व्यसन एक दिन पूर्णत: समाप्त हो जायेगा। इसे ही जैन आचार में स्वास्थ्यप्रद तथा शान्तिप्रद है। ये इच्छाएँ प्राकृतिक नहीं अपितु दम या इन्द्रियदमन कहा गया है और इसी कारण इन्द्रियदमन की अप्राकृतिक हैं। प्राकृतिक इच्छाओं का अज्ञानतापूर्ण दमन व्यक्तित्व में आवश्यकता प्रतिपादित की गई है।
विकृति उत्पन्न करता है, अप्राकृतिक इच्छाओं का दमन नहीं। उलटे ___ इन्द्रियदमन अपरिहार्य-फ्रायड के मनोवैज्ञानिक सिद्धान्तों यह तो व्यक्तित्व की अस्वाभाविकता और जटिलत मिटाकर स्वाभाविकता का प्रचार होने के बाद 'दमन' शब्द खतरनाक मालूम होने लगा है, और सरलता उत्पन्न करता है। अप्राकृतिक इच्छाओं को पूर्ण न करना पर उपर्युक्त तथ्य से इसकी मनोवैज्ञानिकता सिद्ध है। रागजन्य इच्छाओं कोई प्रकृति विरूद्ध कार्य नहीं है, बल्कि प्रकृतिसंगत कार्य है। इससे को ज्ञानजन्य वैराग्य से विसर्जित किया जा सकता है किन्तु व्यसनजन्य शारीरिक और मानसिक स्वास्थ्य का घात करनेवाली प्रकृतिविरूद्ध इच्छाओं से मुक्ति पान के लिए उपर्युक्त इन्द्रियदमन या इन्द्रियनिग्रह इच्छाओं को रोककर जीवन में शान्ति और स्वास्थ्य लाने का ही अपरिहार्य है। इसके बिना व्यसनजन्य इच्छाएँ समाप्त नहीं हो सकतीं। प्रयत्न किया जाता है। यह तो कोई प्रकृति संगत कार्य न हआ कि विषय वासना और इन्द्रिय व्यसन दोनों को जीतने से ही निष्कामता इन्द्रियों को खतरनाक लत डाल दी जाय और फिर उसका पोषण आती है। जैसा कि पहले कहा गया है-गीता का मत है कि काम का किया जाता रहे। यह तो शरीर-विध्वंस के अलावा कुछ नहीं है। निवास मन, बुद्धि और इन्द्रिय तीनों में होता है अत: उसके अनुसार आदमी को जितना भोजन चाहिए उससे ज्यादा की आदत डाल ले भी इन तीनों को जीतने वाला ही मुक्त होता है।
__ और फिर ज्यादा ही भोजन करता जाय तो इसका परिणाम क्या
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जैन आचार में इन्द्रिय-दमन की मनोवैज्ञानिकता
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सन्दर्भ
होगा, अनुमान लगाया जा सकता है। अब यदि भोजन पुन: आवश्यक प्रकाश योगेन्दु, परमश्रुत प्रभावक मंडल, बम्बई, १९३७ मात्रा में करने का अभ्यास किया जाय तो इससे हानि होगी या लाभ, ३/६६ आसानी से समझा जा सकता है। इसे ही इन्द्रियदमन यह इन्द्रियानुशासन १५. (क) मनशुद्धयैव शुद्धिः स्याद्देहिनां नात्र संशयः। कहते हैं। व्यसनजन्य इच्छाओं का दमन रागजन्य इच्छाओं के दमन
वृथा तद्वयतिरेकेण कायस्यैव कदर्थनम् ।। के समान नहीं है। रागजन्य इच्छाओं को दबाने से वे नष्ट नहीं होती
ज्ञानार्णवा, २२/१४ अपित् गढ़ मन में जाकर बैठ जाती हैं। किन्तु राग समाप्त होने या मन्द होने के बाद जब व्यसनजन्य इच्छाओं का दमन किया जाता है (ख) रागद्वेषप्रवृतस्य प्रत्याख्यानादिकं वृथा'- योगसार, तब उनके बच रहने का कोई अवकाश नहीं रहता, क्योंकि तब
अमितगति, ९/७१ ऐन्द्रिक स्नायुओं की व्यसनात्मक व्यवस्था ही समाप्त हो जाती है तो १६. (क) जह सलिलेण ण लिप्पइ कमलिणिपत्तं तज्जन्य इच्छाएँ भी स्वयमेव नष्ट हो जाती हैं।
सहावपयडीए। उपर्युक्त तथ्यों के परिप्रेक्ष्य में जैन आचार में प्रतिपादित
ताह भावेण ण लिप्पइ कसायविसएहिं सप्पुरिसो।। इन्द्रियदमन पूर्णत: मनोवैज्ञानिक है।
भावपाहुड़, अष्टप्राभृत, प्रका०- परमश्रुत प्रभावक
मंडल, अगास, १९६९,१५३ मोक्षमार्ग प्रकाशक, पं० टोडरमल, टोडरमल ग्रन्थमाला,
सत्यामक्षार्थसम्बन्धाज्ज्ञानं नासंयमाय यत्। जयपुर, वि.स. २०२३, ७/२५२
तत्र रागादिबुद्धिर्या संयमस्तन्निरोधनम्।। वही, ७/२३०
पञ्चाध्यायी (उत्तरार्ध), संपा० प्र० देवकीनन्दन 'तस्माद्वीर्यसमुद्रेकादिच्छारोधस्तपो विदुः'-मोक्षपञ्चाशत्-४८
शास्त्री, प्रका० गणेश प्रसाद वर्णी जैनग्रंथमाला, 'इच्छानिरोधस्तपः'-मो० मा० प्र०, ७/२३० पर उद्धृत
बनारस, विनि०सं०२४७६,११२१ धम्मपद-चौखम्बा विद्याभवन, वाराणसी, गाथा ३६९ १७. (क) “तीव्र कषायसे जिसके इच्छा बहुत है उसे दुःखी वही, ३५४
कहते हैं। मंद कषाय से जिसके इच्छा थोड़ी है गीता, गीता प्रेस, गोरखपुर ३/३६, ३७
ठसे सुखी कहते है।" -मो० मा० प्र०, ३/७१ वही, ९/२१
(ख) अपि सुतपसामाशावल्लीशिखा तरूणायते। वही, ५/२४
भवति हि मनोमूले यावन्ममत्वजलार्द्रता।। 'इन्द्रिय-मन के विषयों में प्रवृत्ति',- मो० मा० प्र० ७/
आत्मानुशासन, गुणभद्र, प्रका० जैनग्रन्थ रत्नाकर २२६। मन का विषय है-'विकल्प', गो० जी०, ४७९/
कार्यालय, कार्यालय बम्बई, वि० सं० १९८६, ८८५ (जै० सि० को ०भाग, ३ पृ० ५७८)
२५२ "अभ्यन्तरे सुख्यहं दु:ख्यहमिति हर्षविषादकरणं विकल्प
विषयेच्छा भी 'रति' कषाय के अन्तर्गत है-'मनोज्ञेषु इति। अथवा वस्तुवृत्या सङ्कल्प इति कोऽर्थो विकल्प इति
विषयेष परमाप्रीतिरेव रतिः'-नियमसार (ता०७०) तस्यैव पर्याय" द्रव्य संग्रह-टीका-४१ “पुत्रादि मेरे हैं' ऐसा भाव संकल्प कहलाता है। विकल्प संकल्प की पर्याय
रति ही औत्सुक्य (अभिलाषा) की जननी हैहै। (जै० सि० को०, भाग ३ पृ० ५४५)
'यदुदयाद्देशादिष्वौत्सुक्यं स रतिः-ससिक, १०. ऐसे मुनियों को आचार्य कुन्दकुन्द ने द्रव्यलिंगी मुनि कहा
पूज्यपाद, संपा० पं० फूलचंद शास्त्री, प्रका० है और उन्हें काफी सावधान किया है। भावपाहुड-५, ७२,
भारतीय ज्ञानपीठ काशी, १९५५,८/९ ७३, १२१ गाथा।
'प्रीत्यप्रीती रागद्वेषी रागद्वेषी'-पंचास्तिकाय (त०प्र०) ११. मूलाचार, बट्टकेर,माणिकचन्द्रदिग० जैनग्रंथ माला, बम्बई.
१३१ (=इष्टअनिष्ट पदार्थों में प्रीति-अप्रीतिरूप वी०नि० सं० २४४९ गाथा ९९५
परिणाम को रागद्वेष कहते हैं।) १२. गीता, २/५९
राग और इच्छा में अन्तर है। राग तो इष्ट पदार्थों वही, ३/६
में प्रीतिरूप परिणाम है। उन पदार्थों की प्राप्ति १४. 'पर तसु संजम अत्थि णवि जं मणसुद्धि ण तास'- परमात्म
की आशा इच्छा कहलाती है-'चिरमेते ईदृशा
(ग)
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जैन विद्या के आयाम खण्ड-७
१८.
विषया ममोदितोदिता भूयासुरित्याशंसा-भगवती २५. वही, ११४ आराधना, शिवकोट्याचार्य, प्रका०- सखाराम २६. पश्चाध्यायी (उत्तरार्ध), १११८ नेमिचन्द दिगम्बरजैन ग्रन्थमाला, शोलापुर, २७. सीलपाहुड़, गा० ३५ १९३५,१९८१
धम्मपद, गा० ३६०-६१ कार्तिकेयानुप्रेक्षा (गाथा) संपां०ए०एन० उपाध्ये, प्रका० 'इसलिए जितनी विरक्ति हुई हो उतनी ही प्रतिज्ञा करना' रायचन्द्र जैन शास्त्रमाला अगास १९६० १०१
मो० मा० प्र०, ७/२४० गीता, ६/३५
गीता, २/६० २०. मोहबीजादति द्वेषौ बीजान्मूलाङ्कराविव।
वही ३/४० तस्माज्ज्ञानाग्निना दाह्यं तदेतौ निर्दिधिक्षुणा।। आत्मानुशासन,
मो० मा० प्र०, ७/२३८-३९ पृ० १८२.
सावयधम्मदोहा, ५७ (क)मायावेल्लि असेसा मोहमहातरूम्मि आरूढा। ३४. गीता, ३/४०, ५/२८ विसयविसपुप्कफुल्लिय लुणांति मुणि णाणसत्थेहि।। ३५. (क) विषयकषायनिवृत्तिरूपं परिणामं कृत्वा...द्रव्यसंग्रह भावपाहुड़, १५७
टीका, गा० ५७ (ख) महाप्रशमसंग्रामे शिवश्रीसङ्गमात्सुकैः।।
'व्रतं काऽर्थ:? सर्वनिवृत्तिपरिणाम:-' योगिभिर्ज्ञानशस्त्रेण रागमल्लो निपातितः।।
परमात्मप्रकाश-टीका २/५२ ३६. मोक्ष मार्ग ज्ञानार्णव, २३/१२
प्र०, ७/२४० २२. छहढाला, ३/९ २३. 'मनोज्ञेषु विषयेषु परमाप्रीतिरेव रतिः'-नियमसार (ता.वृ०)६ २४. कार्तिकेयानुप्रेक्षा, गा० ११२
My My my my my
(ख)
,
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मानव व्यक्तित्व का वर्गीकरण
डॉ० त्रिवेणी प्रसाद सिंह
जैन दर्शन में मानव व्यक्तित्व के वर्गीकरण के विभिन्न हुआ होता है और नीचे भाग में सुकुचित होता है, उसी प्रकार जिस मानक प्रचलित रहे हैं। इनमें एक मानक शारीरिक संरचना के आधार संस्थान में नाभि के ऊपर का भाग विस्तार वाला हो और नीचे का पर भी है, हालाँकि शारीरिक संरचना के आधार पर भी मानव भाग हीन अवयव वाला हो उसे न्यग्रोधपरिमण्डल संस्थान कहते हैं। व्यक्तित्व के वर्गीकरण करने की विभिन्न शैलियां प्रचलित हैं, यथा- इसकी पुष्टि अकलंकदेव ने भी की है।२ शरीर की बनावट, शरीर का आकार-प्रकार, लिंग आदि। आधुनिक मनोवैज्ञानिकों में क्रेत्समर और शेल्डन ने शारीरिक संरचना (विशेष ३. सादि संस्थान से युक्त व्यक्तित्व के लक्षण:रूप से शरीर के आकार-प्रकार) को ध्यान में रखकर मानव-व्यक्तित्व जिस संस्थान में नाभि से नीचे का भाग पूर्ण और ऊपर का का वर्गीकरण किया और उस शरीर के आकार-प्रकार का मानव भाग हीन हो, उसे सादि संस्थान कहते हैं। स्वभाव के साथ सह सम्बन्ध खोजने का प्रयत्न किया है। जैन आगम सादि समेल (शाल्मली) वृक्ष को कहते हैं। शाल्मली वृक्ष ग्रन्थों में शारीरिक आधारों पर मानव व्यक्तित्व के वर्गीकरण के तीन का धड़ (तना) जैसा पुष्ट होता है वैसा ऊपर का भाग नही होता। प्रारूप प्रचलित रहे हैं। संहनन, संस्थान और लिंग। यद्यपि जैन दार्शनिकों ने एक मनोवैज्ञानिक के रूप में इन शारीरिक संरचनाओं ४. कुब्ज संस्थान से युक्त व्यक्तित्व के लक्षण का स्वभावगत विशेषताओं के साथ सह-सम्बन्ध को स्पष्ट करने का जिस व्यक्ति के छाती, पीठ आदि अवयव टेढ़े हों लेकिन कोई प्रयत्न नहीं किया, फिर भी वे एक दार्शनिक के रूप में इन हाथ, पैर, सिर, गर्दन आदि अवयव ठीक हों, वह कुब्ज संस्थान से शारीरिक संरचनाओं का आध्यात्मिक विकास के साथ सह-संबंध युक्त व्यक्तित्व वाला है। देखने का प्रयास अवश्य करते हैं। ये जैनों के संस्थान-सिद्धान्त मैं राजवार्तिक में पीठ पर पुद्गगल पिण्डोंवाले अर्थात् कुबड़ापन छ: प्रकार के हैं- समचतुरस्र संस्थान, न्यग्रोधपरिमण्डल संस्थान, वाले व्यक्ति को कुंब्ज संस्थान से अभिहित किया गया है।३ सादि संस्थान, कुब्जसंस्थान, वामन संस्थान और हुंडक संस्थान।
५. वामन संस्थान से युक्त व्यक्तित्व के लक्षण १. समचतुरस्त्र संस्थान से युक्त व्यक्तित्व के लक्षण
जिस व्यक्ति के छाती, पीठ, पेट आदि अवयव पूर्ण हों, यह शब्द सम+चतु:+अस्र से बना है। सम का अर्थ है पर हाथ, पैर आदि छोटे हों, उसे वामन संस्थान कहते हैं। समान, चतुः का अर्थ है चार और अस्र का अर्थ है कोणा पालथी. जैन परम्परा में सभी अंग-उपांगों के छोटा होने वाले व्यक्ति मारकर बैठने पर जिस शरीर के चारों कोण समान हों अर्थात् आसन को वामन संस्थान वाला बताया गया है।
और कपाल का अन्तर, दोनों जानुओं का अन्तर, वाम स्कन्ध और वाम जानु का अन्तर समान हो, उसे समचतुरस्र संस्थान से युक्त ६. हुण्ड संस्थान के युक्त व्यक्तित्व के लक्षण व्यक्ति कहते हैं।
. जिस व्यक्ति के शरीर के समस्त अवयव बेढब हों,वह हंक साथ ही जिस शरीर के सम्पूर्ण अवयव ठीक प्रमाण वाले संस्थान वाला व्यक्ति है। राजवार्तिक में जिस व्यक्ति के सभी अंग और हो, इसे समचतुरस्र संस्थान से युक्त व्यक्तित्व कहते हैं
उपांगों की रचना बेतरतीब, या हुंडक की तरह है उसे हंडक संस्थान दूसरे प्रकार से कह सकते हैं कि ऊपर, नीचे और मध्य में वाला व्यक्ति कहा गया है। इस संस्थान से युक्त व्यक्तित्व का कुशल शिल्पी द्वारा बनाये गये समचक्र की तरह समान रूप से शरीर उदाहरण हमें अष्टावक्र ऋषि में देखने को मिलता है। अवयवों की रचना होना। जैन परम्परा में शलाकापुरुषों की शरीर- आधुनिक मनोवैज्ञानिकों द्वारा शारीरिक संरचना के आधार रचना इसी संस्थान से युक्त होती है।
पर किये गये मानव व्यक्तित्व के वर्गीकरण को हम निम्न प्रकार
प्रस्तुत कर रहे हैं:.. २. न्यग्रोधपरिमण्डल संस्थान से युक्त व्यक्तित्व के लक्षण
क्रेत्समर के अनुसार मानव-व्यक्तित्व के चार प्रकार है। न्यग्रोध वट वृक्ष को कहते हैं। जैसे वट वृक्ष ऊपर फैला १. पुष्टकाय (Atheletic)
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२२
२. कृशकाय (Asthenic)
३. तुंदिल (Pyknic)
४. मिश्रकाय (Dysplastic )
१. पुष्टकाय प्रकार का व्यक्तित्व
पुष्टकाय प्रकार के व्यक्तित्व वाले मानव का शारीरिक गठन अच्छा होता है उनमें साहस, निर्भयता एवं सफलता की आकांक्षा प्रधान होती है। इसके साथ ही साथ उनमें क्रियाशीलता अधिक पायी जाती है। ये समाज में आवश्यक समायोजन करने में सफल होते हैं और अपना स्थान भी बना लेते हैं।
जैन विद्या के आयाम खण्ड- ७
३. तुंदिल प्रकार का व्यक्तित्व
तुंदिल प्रकार का व्यक्तित्व वाले व्यक्ति के शरीर में तोंद की प्रधानता होती है। इस प्रकार के व्यक्तित्व वाले मनुष्य मिलनसार एवं मैत्रीयुक्त होते हैं। ये आरामतलबी और बातचीत में बहुत आनन्दलेने वाले होते हैं। इस कारण तुंदिल प्रकार का व्यक्ति लोकप्रिय बन जाता है।
२. कृशकाय प्रकार का व्यक्तित्व
कृशकाय प्रकार का व्यक्तित्व वाला व्यक्ति शारीरिक रूप से लम्बा और कुश होता है वह दूसरों का आलोचक होता है। लेकिन ३. लम्बाकारिता और व्यक्तित्व दूसरों द्वारा उसकी आलोचना करने पर उसे बुरा लगता है।
४. मिश्रकाय प्रकार का व्यक्तित्त्व
मिश्रकाय प्रकार के व्यक्तित्व वाले लोगों में ऊपर वर्णित तीनों प्रकार गुणों का मिश्रण पाया जाता है क्रेत्समर का यह मत है कि अधिकतर मानसिक रोगियों के शरीर की बनावट मिश्रकाय प्रकार की होती है। अतः इस प्रकार के व्यक्तित्व में सामान्यता की सम्भावना पायी जाती है।
शेल्डन ने भी व्यक्ति के शरीर की बनावट के आधार पर व्यक्तित्व का वर्गीकरण किया है। ये निम्न हैं
१. गोलाकार
२. आयताकार
३. लम्बाकार
१. गोलाकारिता और व्यक्तित्व
जिस शरीर की बनावट गोलाकार होती है, उसकी पाचन क्रिया बहुत अच्छी होती है और उसके समस्त व्यवहार में आराम पसन्दगी पायी जाती है। इससे प्रभावित व्यक्तित्व में अच्छे भोजन
करने की रुचि की प्रधानता, गहरी नींद में सोने की इच्छा, मित्रता बढ़ाने की इच्छा, परिवार के प्रति अधिक लगाव दिखायी पड़ते हैं। शेल्डन ने इस तरह के व्यक्तित्व को विसेरोटोनिया शब्द का प्रयोग किया है।
२. आयताकारिता और व्यक्तित्व
शेल्डन ने आयताकार शरीरवाले व्यक्ति के व्यक्तित्व को सोमेटोटोनिया शब्द का प्रयोग किया है। इससे प्रभावित व्यक्ति के व्यवहार में शारीरिक शक्ति एवं गति की प्रधानता होती है। इस तरह के व्यक्तित्व वाले लोग व्यायाम के प्रेमी और साहसी होते हैं। ये व्यक्ति अपने जीवन के लक्ष्य के प्रति निष्ठावान रहते हैं और अपने लक्ष्य को छोड़कर किसी अन्य वस्तु से प्रेम नहीं करते हैं।
शेल्डन ने लम्बाकारिता शरीर वाले व्यक्तित्व के लिए सेरोब्रोटोनिया शब्द का प्रयोग किया है। इस प्रकार के व्यक्तित्व वाले लोग मानसिक कार्यों में अधिक रुचि लेते हैं अर्थात् अन्य लोगों की तुलना में इनकी बौद्धिक क्षमता अधिक होती है। शारीरिक क्षमता की दृष्टि से इस प्रकार के लोग जल्दी थक जाते हैं। इन्हें एकान्त में रहना अधिक प्रिय है। ऐसे लोग मानसिक कार्यों से अधिक लगे रहते हैं। तथा इनमें थकान भी जल्दी आ जाती है।,
उपर्युक्त वर्गीकरण के सम्बन्ध में उल्लेख है कि किसी भी व्यक्ति में शुद्ध रूप से एक ही प्रकार की बनावट नहीं पायी जाती है। बल्कि कुछ ऐसे भी व्यक्ति होते हैं जिनमें तीनों गुण पाये जाते हैं। लेकिन जिस व्यक्ति में जिस प्रकार की बनावट की अधिकता होती हैं उसी आधार पर उसके शरीर की बनावट का निर्धारण किया गया है।
जैन दर्शन में शरीर संरचना के आधार पर समचतुरख, न्यग्रोध, स्वाति (सादि), कुब्ज, वामन और हुंडक ऐसे जो छह विभाग किये गये हैं, उनकी क्रेत्समर द्वारा किये गये व्यक्तित्व के चार प्रकार पुष्टकाय, कृशकाय, तुंदिल और मिश्रकाब से तुलना की जा सकती है।
जैनों का समचतुरस्र शरीर संस्थान, क्रेत्समर के पुष्टकाय प्रकार से तुलनीय है, क्योंकि दोनों के अनुसार यही व्यक्तित्व का ऐसा प्रकार है, जिसमें शरीर को पूर्णतया सुसंगठित और सुडौल माना गया है। जैनों के अनुसार समचतुरस्त्र संस्थान में शरीर के प्रत्येक अंग अपने समुचित आकार-प्रकार में होते हैं। कोई भी अंग न तो मर्यादा से अधिक लम्बा-चौड़ा होता है और न मोटा और दुबला ही क्रेत्सर ने भी पुष्टकाय प्रकार के यही लक्षण बताये है। सुसंगठित और सुडौल शरीर व्यक्तित्व का एक महत्त्वपूर्ण अंग है।
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मानव व्यक्तित्व का वर्गीकरण
२३
इसे जैन दर्शन और आधुनिक मनोविज्ञान दोनों ही स्वीकार करते हैं। किसी सीमा तक न्यग्रोध और स्वाति संस्थान के ही रूप हैं। क्रेत्समर जैनों के अनुसार तीर्थङ्कर, चक्रवती, वासुदेव आदि शलकापुरुष के अनुसार मिश्रकाय प्रकार में पुष्टकाय और कृशकाय प्रकारों के (महापुरुष) समचतुरस्र संस्थान वाले होते हैं। इसका अर्थ यह है कि मिश्रित लक्षण पाये जाते हैं। न्यग्रोध और स्वाति संस्थान में भी शरीर इनके प्रभावशाली व्यक्तित्व का एक कारण इनकी शारीरिक संरचना के आधे भाग को पुष्ट और आधे भाग को हीन मानकर मिश्रित क्रेत्समर ने पष्टकाय प्रकार के व्यक्तित्व में साहस, निर्भयता, सफलता, व्यक्तित्व की कल्पना की गयी है। मात्र यही नहीं जैनों ने स्वाति सामाजिक समायोजन आदि गुणों की जो चर्चा की है वे जैनों के संस्थान और न्यग्रोध संस्थान की जो चर्चा की है वह आनुभविक शलाकापुरुषों में भी पाये जाते हैं, इसलिए वे विशिष्ट व्यक्ति माने आधार पर सत्य प्रतीत होती है। जाते हैं।
जैनों का वामन संस्थान भी किसी सीमा तक क्रेत्समर के इस प्रकार दोनों ही परम्परायें एक दूसरे से भिन्न हैं, किन्तु तुंदिल प्रकार के निकट आता है फिर भी दोनों को पूर्णत: समान नहीं दोनों ने सफल व्यक्तित्व के लिए सुडौल और सुगठित शरीर को कहा जा सकता है। यद्यपि तुंदिल प्रकार और वामन संस्थान दोनों में समानरूप से स्वीकार किया है।
व्यक्तित्व को नाटा माना गया है। वामन संस्थान वाला व्यक्ति नाटा तो जैनों का न्यग्रोध परिमण्डल शरीर संस्थान किसी सीमा होता है किन्तु वह मोटा भी हो, यह आवश्यक नहीं। तक क्रेत्समर के कृशकाय प्रकार से तुलनीय हो सकता है। यद्यपि जैनों ने कुब्जक और हुंडक संस्थानों की जो चर्चा की है दोनों में यहाँ एक महत्त्वपूर्ण अन्तर है, वह यह कि कृशकाय प्रकार वह यद्यपि क्रेत्समर के व्यक्तित्व के प्रकारों की चर्चा के साथ तुलनीय का व्यक्ति लम्बा और छरहरे बदन का होता है जबकि न्यग्रोध संस्थान तो नहीं परन्तु आनुभविक आधार पर सत्य है। आनुभविक आधार वाला व्यक्ति लम्बा होकर भी पूर्णतया छरहरे बदन का नहीं होता है। पर कुब्जक और हुंडक संस्थान वाले अनेक व्यक्ति उपलब्ध होते हैं। जैनों के अनुसार न्यग्रोध परिमण्डल वाले व्यक्ति के शरीर का आधुनिक मनोविज्ञान में यदि इनके स्वभावों के सम्बन्ध में विशेष अधोभाग लम्बा और पतला होता है किन्तु उसके शरीर का ऊपरी अध्ययन किया जाय तो हमें अनेक मनोवैज्ञानिक तथ्य प्राप्त हो भाग अर्थात् वक्षस्थल, मुखमण्डल आदि सुगठित होते हैं। मनोवैज्ञानिकों सकते हैं। ने स्वभाव की दृष्टि से इसे अन्तर्मुखी और दूसरों का आलोचक शेल्डन नामक मनोवैज्ञानिक ने शरीर की बनावट के आधार बताया है। जैन परम्परा में न्यग्रोध परिमण्डल संस्थान वाले व्यक्ति के पर व्यक्तित्व को गोलाकार, आयताकार और लम्बाकार रूप में स्वभाव के सम्बन्ध में कोई विशेष सूचना हमें प्राप्त नहीं होती है। वर्गीकृत किया है। उनके आयताकार व्यक्तित्व के वर्ग की तुलना जैन वैसे जैनों का न्यग्रोध परिमण्डल शरीरसंस्थान क्रेत्समर के मिश्रकाय परम्परा के समचतुरस्र संस्थान से कर सकते हैं उन्होंने इस प्रकार के प्रकार के अधिक निकट है।
शरीर संरचना वाले व्यक्तित्व को उद्यमी और साहसी कहा है साथ ही क्रेत्समर का तुंदिल प्रकार का व्यक्ति जैनों के स्वाति उसे बलवान भी माना है। यही गुण हमें जैन परम्परा के समचत्रस्र संस्थान से तुलनीय है। जैनों के अनुसार स्वाति संस्थान से युक्त संस्थान से युक्त व्यक्तित्व में मिलते हैं। व्यक्ति के शरीर का नाभि से नीचे का भाग मोटा और ऊपर का भाग शेल्डन का गोलाकार व्यक्तित्व जैन परम्परा के स्वाति हीन होता है। 'धवला' में इस संस्थान की तुलना वाल्मीक से की संस्थान से तुलनीय माना जा सकता है, क्योंकि स्वाति संस्थान को गयी है। वाल्मीक नीचे से चौड़ा और ऊपर पतला होता है। क्रेत्समर वाल्मीक के आकार के समान बताया गया है, जो शेल्डन के के दिल प्रकार के व्यक्तित्व में भी हमें यही विशेषता मिलती है। गोलाकार व्यक्तित्व के समान माना जा सकता है। किसी सीमा तक अत: दोनों में बहुत कुछ समानता मानी जा सकती है। इस प्रकार की शारीरिक संरचना वाले व्यक्तित्व को जैनों के वामन
आधुनिक मनोविज्ञान इस प्रकार के व्यक्तित्व को मिलनसार, संस्थान वाले व्यक्तित्व के भी निकट माना जा सकता है। सामाजिक और आरामपसन्द कहता है। जैनों के अनुसार भी हम इस शेल्डन ने लम्बाकार शरीर संरचना की जो चर्चा की है वह प्रकार के व्यक्तित्व को बहिर्मुखी कह सकते हैं। बहिर्मुखी का मुख्य जैनों के न्यग्रोध संस्थान के निकट कही जा सकती है किन्तु दोनों में लक्षण जैनों ने बताया है वह है
अन्तर भी है। क्योंकि इस संस्थान वाले व्यक्ति के नाभि के ऊपर का 'सांसारिक भोगों में आनन्द लेना' । क्रेत्समर ने भी ऐसे भाग पुष्ट होता है। लम्बाकार व्यक्तित्व के समरूप कोई भी व्यक्तित्व व्यक्तित्व के सम्बन्ध में सामाजिकता और आनन्दप्रियता को स्वीकार हमें जैन परम्परा में उपलब्ध नहीं होता है। लम्बाकर व्यक्तित्व में किया है। अत: दोनों में बहुत कुछ समानता है।
__ मुख्यरूप से लम्बा और पतला दोनों बातें आ जाती हैं, जबकि जैनों क्रेत्समर ने जिस मिश्र प्रकार की चर्चा की है वस्तुत: वे में शरीर के वर्गीकरण में ऐसा कोई संस्थान नही हैं, जो लम्बा और
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जैन विद्या के आयाम खण्ड-७ कृश दोनों हो।
सन्दर्भ जैनों के न्यग्रोध परिमण्डल संस्थान में शरीर के अधोभाग १. तत्रोधिोमध्येष समप्रविभागेन शरीरावयवसन्निवेशव्यवस्थापन को कृश और ऊपरी भाग को पुष्ट माना गया है और स्वाति संस्थान कुशलशिल्पिनिर्वतितसमस्थितिचक्रवत अवस्थानकरं समचतुरस्र में भी शरीर के अधोभाग को पुष्ट और ऊपरी भाग को कृश माना
संस्थाननाम राजवार्तिक, संपा० महेन्द्र कुमार जैन, प्रकाशक गया है। अत: दोनों ही शेल्डन के लम्बाकार व्यक्तित्व से भिन्न हैं।
भारतीय ज्ञानपीठ, काशी१९५३, पृ० ५७६। हुंडक और कुब्जक संस्थानों की चर्चा हमें आधुनिक
नाभेरुपरिष्टाद् भूयसो देहसन्निवेशष्याधस्ताच्चाल्पीयसो जनकं मनोवैज्ञानिक शेल्डन द्वारा की गयी वर्गीकरण में नहीं प्राप्त होती है। '
न्यग्रोधपरिमण्डलसंस्थाननाम। वही। इसका कारण यह है कि आधुनिक मनोवैज्ञानिक साधारणतया सामान्य व्यक्तियों को ध्यान में रखकर, उनका अध्ययन तथा वर्गीकरण प्रस्तुत
पृष्ठदेशभाविबहुपुद्गलप्रचयविशेषलक्षणस्य निर्वर्तकं कुब्जसंस्था करते हैं। अगर इन व्यक्तियों के भी स्वभावों का अध्ययन मनोवैज्ञानिक
ननाम् राजवार्तिक, संपा० महेन्द्रकुमार जैन, प्रका०. भारतीय दृष्टि से किया जाय तो बहुत कुछ सत्य प्राप्त हो सकता है।
ज्ञानपीठ काशी १९५३, पृ. ५७७) जहाँ तक 'अष्टावक्र ऋषि' के शारीरिक बनावट और ४. सर्वाङ्गोपाङ्हस्वव्यवस्थाविशेषकारणं वामनसंस्थाननाम वही। बौद्धिक सामर्थ्य का प्रश्न है, उन्हें तो अपवाद ही मानना होगा। ५., सर्वाङ्गोपाङ्गानां हुण्डसंस्थितत्वात्हुण्डसंस्थाननाम। वही। शरीर-संरचना मानव व्यक्तित्व के लिए एक महत्वपूर्ण
६. Kretschmer, Physique and Character, New York तथ्य है। जैन परम्परा के साथ-साथ आधुनिक मनोवैज्ञानिक भी मानते
1925. हैं कि शारीरिक संरचना का प्रभाव व्यक्ति के सामाजिक जीवन पर भी
उद्धत-व्यक्तित्वमनोविज्ञान-सीताराम जायसवाल, उ०प्र० हिन्दी पड़ता है। यद्यपि जैनधर्म में आध्यात्मिक दृष्टि से संस्थान को विशेष
ग्रंथ अकादमी लखनऊ १९७४, पृ०१६४। महत्त्व नहीं दिया गया है, क्योंकि उनके अनुसार छहों संस्थानों के व्यक्ति निर्वाण (मुक्ति) प्राप्त कर सकते हैं। शारीरिक संरचना, व्यक्ति ७. W. H. Sheldon, The Varieties of Human Physique. के आध्यात्मिक विकास में तो बाधक नहीं किन्तु व्यावहारिक जीवन उद्धृत- वही, पृ०१६५। का महत्त्वपूर्ण तथ्य है।
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आत्मिक यज्ञः एक अनुचिन्तन
जैन, बौद्ध एवं ब्राह्मण ग्रन्थों के परिशीलन से ज्ञात होता थे। उनके नाम और कार्य निम्न प्रकार से थेहै कि जिस समय भगवान् महावीर और बुद्ध ने जन्म लिया था उस समय वेदविहित हिंसा प्रधान यज्ञों का प्रचलन धर्म के रूप में इतना व्यापक था कि प्रत्येक आवश्यक कार्यों की सफलता के लिये इन यज्ञों को करना अनिवार्य था। जैसे पुत्रप्राप्ति के लिए धन की प्राप्ति के लिए, युद्ध में विजय प्राप्त करने के लिए आदि। इस युग को कर्मकाण्डी ब्राह्मण युग कहा जाता है जिसमें पौरोहित्यवाद ने जोर पकड़ा तथा पुरोहित (पुजारी) देवों के तुल्य समझे जाने लगे। वेदों के नित्य, अपौरुषेय एवं ईश्वरप्रदत्त मानने की प्रवृत्ति का भी उदय इसी काल में हुआ। परम पुरुष के निःश्वास के रूप में भी इनकी प्रसिद्धि हुई। जो इनका ज्ञाता होता था वही पण्डित कहलाता था तथा समाज में आदर की दृष्टि से देखा जाता था । यज्ञान्न प्राप्त करने का भी अधिकारी वेदविद् ब्राह्मण ही समझा जाता था। ब्राह्मण लोग यज्ञों में निरपराध एवं मूक पशुओं का हनन व हवन यह कह कर किया करते थे कि विहित हिंसा, हिंसा नहीं कहलाती है वैदिकी हिंसा हिंसा न भवति तथा इसके संदर्भ में औषधि, पशु, वृक्ष, तिर्यञ्च और पक्षी यज्ञ में होम की विधासे मृत्यु को प्राप्त होकर स्वर्ग को प्राप्त करते हैं"। पशु आदि को सृष्टि यज्ञ में हवन करने के लिए ही
है। एक तरफ गाय में ३३ करोड़ देवताओं का निवास मानते थे और दूसरी तरफ धर्म के नाम पर यज्ञमण्डप में उसके करुणक्रन्दन करने पर भी हिंसा किया करते थे। ज्ञान-पुञ्जरूप ऋग्वेद में यज्ञ के यथार्थ रूप का दर्शन देवों की आराधना के रूप में होता है परन्तु कालान्तर में ब्राह्मण ग्रन्थों में यज्ञ को एक जादू-टोना का रूप प्राप्त हुआ जो यज्ञ प्रक्रिया की एक अवनति थी तथा वेदविहित धर्म को कलुषित करना था। किस तरह वेदविहित धर्म को इन धूर्त मांस लोलुप वेद के व्याख्याकारों ने अश्वमेध, राजसूय आदि यज्ञों में धर्म
नाम पर अगणित निरपराध प्राणियों की हिंसा द्वारा, कलुषित किया तथा स्वयं पतित होकर दूसरों को भी पतिताचार में प्रवृत्त कराया, इसका वर्णन हम आगे करेंगे। सर्वप्रथम हम यह जान लें कि इन ब्राह्मण ग्रन्थों में, जिनमें यज्ञ योग का ही सविस्तार वर्णन है, किस तरह यज्ञ करने की प्रथा थी तथा यज्ञ में कौन-कौन से उपकरण होते थे ?
यज्ञ के अवसर पर एक यज्ञमण्डप बनवाया जाता था जिसके बीच में यज्ञ वेदिका होती थी जहाँ प्रज्वलित अग्नि में आहुतियाँ दी जाती थीं। इन यज्ञों का सम्पादन चार विशिष्ट व्यक्ति ऋत्विज मिलकर करते थे जो चारों वेदों के विशिष्ट ज्ञाता कहलाते
प्रो० डॉ० सुदर्शनलाल जैन
(१) होता ऋत्विज यह यज्ञ के समय विशिष्ट मंत्रों द्वारा देवता का आह्वान करता था। उन विशिष्ट मंत्रों का संकलन ऋग्वेद में होने से यह ऋग्वेद का पूर्णज्ञाता होता था।
(२) अध्वर्युऋत्विज - यज्ञों का विधिवत् सम्पादन करना इसका कार्य है। इस विषय के ज्ञान के लिए आवश्यक मंत्रों का संकलन यजुर्वेद संहिता में होने से, यह ऋत्विज यजुर्वेद का पूर्णज्ञाता होता था।
(३) उद्गाता ऋत्विज इसका कार्य है कि उच्च एवं मधुरस्वर से ऋचाओं का गान करे। सामवेद में ऐसी ऋचाओं का संकलन है अतः यह ऋत्विज सामवेद का पूर्णज्ञाता होता था।
(४) ब्रह्मा ऋत्विज यह सम्पूर्ण यज्ञ का निरीक्षण करता था जिससे यज्ञ में किसी प्रकार की त्रुटि न रहे । अतः इसे समग्र वेदों का ज्ञान होना जरूरी था। अथर्ववेद का संकलन इसी ऋत्विज के निमित्त है क्योंकि वेद तीन ही हैं 'त्रयी वेदा' १० अतः ऋत्विज मुख्यरूप से अथर्ववेद का ज्ञाता होता था।
'यज्ञ' शब्द 'यज्' पूजार्थक धातु से निष्पन्न होता है अतः 'इज्यते ऽनेनेति यशः' जिसके द्वारा हवन-पूजन किया जाय उसे यज्ञ कहते हैं। इस प्रकार यज्ञ एक प्रकार का कर्म है, कर्म चाहे शुभरूप हो या अशुभरूप हों दोनों ही संसार भ्रमण के कारण हैं तथा संसारभ्रमण दुःख का हेतु है यह सम्पूर्ण संसार चक्र यश की प्रक्रिया से ही प्रचलित है ११ । तथा हमारी जो भी क्रियाएँ हैं वे सभी एक प्रकार की यज्ञ क्रियाएँ ही हैं। परन्तु ब्राह्मण ग्रंथों में प्रचलित 'यज्ञ' शब्द एक विशिष्ट क्रिया का द्योतक है। इन यज्ञों को द्रव्य और भाव के भेद से दो भागों में विभाजित किया जाता है। द्रव्य-यज्ञ के पुनः दो मुख्य भेद हैं: श्रीतद्रव्ययज्ञ और स्मार्तद्रव्ययज्ञ । इनके स्वरूप क्रमशः निम्न प्रकार हैं
"
श्रीतद्रव्ययज्ञः जिनमें जंगम और स्थावर जीवों की बलि दी जाती है उन्हें श्रीतद्रव्य यज्ञ कहते हैं। जैसे अश्वमेध, वाजपेय ज्योतिष्टोम आदि। ये यज्ञ बहुत खर्चीले थे १२ अतः साधारण जनता इन को नहीं कर सकती थी। इनमें अनेक पशुओं की निर्मम हत्याएँ होती थीं। इस तरह धर्म के नाम पर हिंसा का प्रचार देखकर तत्कालीन तत्त्व - मनीषियों ने इसका घोर खण्डन किया । यद्यपि एक सुनिश्चित धर्म-परम्परा के विरुद्ध जाने का किसी का साहस न होता था परन्तु विरुद्ध विचारों को प्रकट करते हुए भी वेद को प्रमाण मानते रहे । वेद को प्रमाण मानने वाले भारतीय दर्शनों में जो परस्पर
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जैन विद्या के आयाम खण्ड-७
विरोध है यह उन मनीषियों की चतुरता है। अत: उपनिषदों में तथा प्रकार की प्रवृत्तियों से सम्पूर्ण याज्ञिक विधान प्रतिष्ठित है।१५ - भगवान् महावीर और बुद्ध ने इस वैदिक कर्मकाण्ड की तीव्र आलोचना इसी तरह औपनिषदिक ऋषियों का भी विश्वास याज्ञिक की। वे इस वैदिक कर्मकाण्ड और वेद प्रामाण्य के प्रबलतम विरोधी विधान में दृष्टिगोचर नहीं होता है। वे यज्ञादि क्रियाओं को यद्यपि थे तथा उनके स्थान पर अहिंसाप्रधान धर्म का प्रचार करने वालों में परमार्थ प्राप्ति में आवश्यक नहीं समझते हैं१६ तथापि अधिकारी श्रेष्ठतम थे। बौद्धों पर याज्ञिक क्रियाकाण्ड की इतनी प्रतिक्रिया हुई भेद से आश्रम-धर्म की व्यवस्था के लिए उनका पूर्ण निराकरण भी कि उन्हें आत्मा शब्द से ही घृणा हो गई। चूँकि आत्मा के निमित्त से नहीं करते हैं। इस तरह उनकी प्रवृत्ति एक तरफ समन्वयात्मक है१७ स्वर्ग की प्राप्ति के लिए लोगों को प्रलोभित किया जाता था अत: उस और दूसरी तरफ निन्दात्मक१८। जैसे कहीं-कहीं पुरोहितों की खानेशाश्वत आत्मतत्त्व को रागद्वेष की अमरबेल मानकर उसका खण्डन पीने की लोलुपता को देखकर उनको एवं उनके याज्ञिक क्रियाही कर दिया१३। जैन और बौद्ध ग्रन्थों में इन यज्ञों के खण्डन में जो कलापों को एक घृणा की वस्तु बतायी गयी है। एक स्थान पर तो तर्कपूर्ण युक्तियाँ प्रदर्शित की गई हैं उन्हें देखकर कोई भी सहृदय उन्हें कुत्तों की एक पाँत में खड़े जैसे भी दिखाया है। वे लोलुपतापूर्वक व्यक्ति पुन: इन यज्ञों की तरफ देखने का साहस न करेगा। स्याद्वादमञ्जरी कहते हैं- 'ओमदा ओम् पिवा, ओम देवों वरुण: आदि (ॐ मुझे में एक कारिका उद्धृत है
खाने दो, ॐ मुझे पीने दो, देव वरुण)१९ इस लेन-देन के व्यापार .. देवोपहारव्याजेन यज्ञव्याजेन ये ऽथवा।
के कारण ही देवों का भी दर्जा बहुत निम्न और लोलुपतापूर्ण घ्रन्ति जन्तून् गतवृणा घोरां ते यान्ति दुर्गतिम।। दिखलाई पड़ता है। गोस्वामी तुलसीदास जी ने इसका अच्छा वर्णन
अर्थात्- जो लोग देव-प्रसादार्थ अथवा यज्ञ के बहाने घृणा किया है जिसमें इन्द्र को 'श्वान' की उपमा दी गई है। इससे वैदिक से रहित होकर प्राणियों की हिंसा करते हैं वे घोर अन्धकार से पूर्ण देवों की प्रतिष्ठा पर धक्का पहँचता है। दुर्गति में जाते हैं।
वेद को प्रमाण मानने वाले सांख्याचार्यों ने इन यज्ञों की वावरि ब्राह्मण का शिष्य पुण्णक भगवान् बुद्ध से निम्न निन्दा करते हुए कहा हैप्रश्न पूछता है- 'भगवन्! किस कारण से ऋषियों, मनुष्यों, क्षत्रियों, यूपं छित्वा पशून् हत्वा कृत्वा रुधिरकर्दमम्। ब्राह्मणों ने इस लोक में देवताओं के लिए पृथक्-पृथक् यज्ञ कल्पित यद्येवं गम्यते स्वर्गे नरके केन गम्यते।। किए हैं? यह पूछता हूँ भगवन! बतावें।'
अर्थ-यूपादि (वृक्षादि) का छेदन करके, पशुओं की हिंसा भगवान् बुद्ध -'जिन किन्हीं ऋषियों, मनुष्यों, क्षत्रियों, करके तथा खून का कीचड़ करके यदि स्वर्ग की प्राप्ति होती है तो ब्राह्मणों ने इस लोक में देवताओं के लिए पृथक्-पृथक् यज्ञ कल्पित वह कौन-सा घोर कर्म है जिसके करने से नरक जाया जाता है। तथा किए हैं, उन्होंने इस जन्म की चाह रखते हुए जरा आदि से अमुक्त सांख्यकारिका के प्रारम्भ में दैहिक, दैविक और भौतिक दुःखों से होकर ही किए।'
आत्यन्तिक निवृत्ति का उपाय व्यावहारिक (औषधादि) साधनों की पुण्णक -'जिन किन्हीं ने यज्ञ कल्पित किए, भगवन्! क्या तरह श्रौतविहित यज्ञप्रक्रिया को नहीं माना हैवे यज्ञ-पथ में अप्रमादी थे? हे मार्ष, क्या वे जन्म-जरा को पार दृ ष्टवदानुश्रविकः सह्यविशुद्धिक्षयातिशययुक्तः। हुए? हे भगवान् आप से यह पूछता हूँ। मुझे बतावें।'
तद्विपरीतः श्रेयान् व्यक्ताव्यक्तज्ञविज्ञानात्।।२।। भगवान बुद्ध -'वे जो आशंसन करते, स्तोम करते, अर्थ-लौकिक (दृष्ट) उपायों की तरह श्रुतिविहित यज्ञ भी अभिजल्प करते, हवन करते हैं सो वह अपने लाभ के लिए या दु:खों से आत्यन्तिक निवृत्ति नहीं कर सकते क्योंकि श्रुतिविहित यज्ञ कामनाओं की पूर्ति के लिए करते हैं। वे यज्ञ के योग से, भव के राग विशुद्धि से रहित, क्षय और अतिशय से युक्त हैं२०। इसके विपरीत से अनुरक्त हो जन्म-जरा को पार नहीं हुए, ऐसा मैं कहता हूँ।' प्रकृति-पुरुष का ज्ञान ही श्रेयकारी है।
पुण्णक -'हे मार्ष! यदि यज्ञ के योग से, यज्ञों के द्वारा वेद को ही प्रमाण स्वीकार करने वाले वेदान्तियों ने भी जन्म-जरा को पार नहीं हुए, तो मार्ष, फिर लोक में कौन देव जन्म- हिंसाप्रधान यज्ञों की निर्ममता देखकर कहा कि जो लोग पशुओं की जरा को पार हुए? भगवान्! उसे बतलावें।'
हिंसा करके यज्ञ करते हैं वे घोर अंधकार में विलीन हो जाते हैं भगवान् बुद्ध - जिसे लोक में कहीं भी तृष्णा नहीं है, जो क्योंकि हिंसा न तो कभी धर्म रही है, न थी और न रहेगी। शान्त, दुश्चरित रहित, रागादि से विरत, आशारहित है, वह जन्म- अन्ये तमसि मज्जामः पशुभिर्ये र्यजामहे। जरा को पार कर गया, ऐसा मैं कहता हूँ।१४
हिंसा नाम भवेद्धों न भूतो न भविष्यति।।२।। इस तरह भगवान् बुद्ध के अनुसार वैदिक कर्मकाण्ड विशुद्धि- इस वरह वेदान्तियों ने हिंसाप्रधान धर्म का त्रैकालिक का साधक नहीं है, वह तो सिर्फ लेन-देनरूपी व्यापार की भावना पर निषेध करके अहिंसा प्रधान धर्म की प्रतिष्ठापना की। प्रतिष्ठित है। अर्थात् 'तुम मुझे यह दो, मैं तुम्हें यह देता हूँ' इस यशस्तिलकचम्पू में एक प्रसंङ्ग आता है जिसमें राजा यशोधर
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आधत्मिक यज्ञ: एक अनुचिन्तन
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आटे का कल्पित मर्गा बनाकर बलि चढ़ाते हैं जिसके फलस्वरूप वे गायें भी हमारी मित्र हैं क्योंकि खेती उनपर निर्भर है। वे अन्न, बल, कई भवों तक संसार में परिभ्रमण करते हैं। इस प्रकार यह बतलाया कान्ति एवं सुख देने वाली हैं। ऐसा सोचकर प्राचीन काल में गायों गया है कि जब कल्पित पशु की बलि इतनी अनिष्टकर हो सकती है की हत्या नहीं करते थे। यहाँ पर हम 'बौद्धदर्शन और अन्य भारतीय तो साक्षात्पशु की बलि चढ़ाने से क्या दुर्गति होगी इसकी कल्पना दर्शन'२१ से एक प्रसङ्ग उद्धृत करते हैंनहीं की जा सकती है। .
'हम भगवान् की उन पूर्व ऋषियों के प्रति आदर वृद्धि का एक अन्य संवाद जैन 'पद्मपुराण' में आता हैं जिसमें नारद प्रकाशन और कर दें जो कि एक अत्यन्त सरल ढंग से यज्ञ करते थे और पर्वत के शैव 'अजैर्यष्टव्यम्' शब्द के अर्थ को लेकर विवाद और जिनके आचरण अत्यन्त पवित्र थे। ये ऋषि संभवत: संहिता उत्पन्न हो जाता है। तब वे से वो सलाह करके उचित निर्णय कराने काल के ही हो सकते हैं, क्योंकि इसी युग में इस प्रकार का सरल के लिए राजा वसु के पास अग्रिम दिन जाते हैं। राजा वसु सत्यवादी यज्ञमय विधान प्रचलित था। कुछ-कुछ इसे हम ब्राह्मण युग का भी था तथा उसके प्रभाव से उनका सिंहासन पृथ्वी से ऊपर उठा रहता परिचायक कह सकते हैं। पुराने ऋषि संयमी और तपस्वी होते थे। था। राजदरबार में पहुँचकर दोनों अपने-अपने पक्षानुसार 'अजैर्यष्टव्यम्' पाँच कामगुणों को छोड़ वे अपना अर्थ (ज्ञान, ध्यान) करते थे। उस का अर्थ बताते हैं- .
समय ब्राह्मणों के पास न पशु थे, न हिरण्य, न अनाज। वे स्वाध्यायरूपी (१) नारद-'अज से यज्ञ करना चाहिए' का अर्थ है- 'उस धन-धान्य वाले थे। ब्रह्मनिधि का पालन करते थे। नाना रंग के वस्त्रों, प्रकार के हात्य (धान) से यज्ञ (हवन) करना जिसमें सहकारी कारण शयन और आवसथों (अतिथि शालाओं) से समृद्ध जनपद-राष्ट्र उन मिलने पर भी अंकर उत्पन्न करने की शक्ति वर्तमान न हो।' ब्राह्मणों को नमस्कार करते थे। ब्राह्मण अबध्य, अजेय, धर्म से रक्षित
(२) पर्वत- 'अज से यज्ञ करना चाहिए' का अर्थ है- थे, कुलद्वारों पर उन्हें कभी कोई नहीं रोकता था। ...... वे तण्दुल, 'बकरे की बलि चढ़ाकर यज्ञ (हवन) करना।
शयन, वस्त्र, घी और तेल को मांगकर धर्म के साथ निकालकर यज्ञ राजा यद्यपि अज' शब्द का अर्थ कई बार धान्यविशेष कर करते थे। यज्ञ-उपस्थिति होने पर वे गाय को नहीं मारते थे।२२ चुके थे परन्तु किसी एक वचनबद्धता के कारण पर्वत के पक्ष में ब्राह्मणत्व की महिमा का कितना सुन्दर प्रख्यापन है, साथ ही वैदिक अपना निर्णय दे देते हैं। फलस्वरूप राजा का सिंहासन पृथ्वी पर गिर युग के निर्व्याज समाज और पशु-हिंसा के अभाव का कितना बड़ा पड़ता है और वे ७वें नरक में जाकर अनन्त कष्टों को झेलते हैं। इस साक्ष्य भी।' प्रसंग में सिर्फ इतना ही बताया है कि 'अज' शब्द का अर्थ बकरा ‘पशु हिंसामयी निकृष्ट तपस्या तो बुद्ध को ही नहीं सभी नहीं है अपितु धान्य विशेष है जिसमें अंकुर उत्पन्न करने की शक्ति भारतीय मनीषियों के लिए घृणा की वस्तु है, किन्तु वास्तविक क्षीण हो चुकी है। 'अज' शब्द का मिथ्या अर्थ करना मात्र दुर्गति का 'द्रव्ययज्ञ' को भगवान् घृणित वस्तु नहीं समझते थे और अधिकतर कारण हो जाता है तब फिर पशु-यज्ञ कैसे धर्म कहे जा सकेंगे। प्रवृत्ति तो उनकी यज्ञादिकों को नैतिक व्याख्या प्रदान करने की थी
पशु-यज्ञ की यह प्रथा अनार्य, मांस-लोलुप, ब्राह्मणों द्वारा जैसी कि उपनिषदों की आध्यात्मिक व्याख्या प्रदान करने की थी'२३। प्रचलित की गई। जैसा कि महाभारत में कहा है
एक आदर्श द्रव्ययज्ञ का वर्णन करते हुए भगवान् कहते 'सुरा मत्स्या मधु-मांसमासवं कृसरौदनम् । है: 'ब्राह्मण! इस यज्ञ में गौएँ नहीं मारी गईं, बकरे, भेंडे, मुर्गे, धूतैः प्रवर्तितं ह्येतन् नैतद् वेदेषु कल्पितम् ।।' सुअर आदि नहीं मारे गए, न नाना प्रकार के प्राणी मारे गए। न यूप
महाभारत, शान्तिपर्व २६५/९।। के लिए वृक्ष काटे गये। जो भी उसके दास, प्रेष्य, कर्मकर थे उन्होंने चूंकि संसारी प्राणी स्वभाव से विषयासक्त होते हैं फिर यदि भी दंड-तर्जित हो, अश्रुमुख रोते हुए सेवा नहीं की। जिन्होंने चाहा उन्हें इस प्रकार का उपदेश मिल जाय तो शीघ्र ही उसे ग्रहण कर उन्होंने किया, जिन्होंने नहीं चाहा उन्होंने नहीं किया। जो चाहा सो लेते हैं। फलस्वरूप पशु-यज्ञों का प्रचलन बढ़ गया। परन्तु जो आर्य किया, जो नही चाहा सो नहीं किया। घी, तेल, मक्खन, दही, मध, ब्राह्मण थे उनमें यह बात नहीं थी। उनका आदर्श ऊँचा था। बौद्ध गुड़ से ही वह यज्ञ समाप्त हुआ।२४" इस तरह हम देखते हैं कि वेद ग्रन्थ सुत्तनिपात के ब्राह्मण धम्मिक सुत्त में जो ब्राह्मणों का आचरण में पशु-हिंसा मौलिक नहीं है किन्तु बाद में अनार्य मांस-लोभी बतलाया है वह बड़ा ही उच्च एवं आदर्शमय है
ब्राह्मणों द्वारा लाई गई है२५। यदि ऐसा न होता तो जो याजक यह 'यथा माता पिता भाता अञ्चे वापि च आतका। कहते हैं कि यज्ञ में जिस पशु का हवन किया जाता है वह स्वर्ग को गावो नो परमामित्ता यासु जायन्ति ओसघा।। जाता है, वे स्वयं को क्यों नहीं हवन कर देते जिस स्वर्ग की प्राप्ति अन्नदा वलदा चेता वण्णदा सुखदा तथा।
के लिए इतना द्राविड-प्राणायाम करते हैं। एतमत्थवसं ञत्वा नास्सु गावो हनिंसु ते।।'
इसी तरह जैन आगमग्रन्थ उत्तराध्ययन सूत्र में भी आदर्श अर्थ- माता, पिता, भाई और अन्य नातेदारों की तरह ब्राह्मण का स्वरूप बतलाया गया है२६ उसे यहाँ प्रस्तुत करना
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जैन विद्या के आयाम खण्ड- ७
आवश्यक है
जो अग्नि की तरह संसार में (पापरहित होने से ) पूजनीय है तथा कुशलों (श्रेष्ठ - महापुरुषों) द्वारा संदिष्ट है उसे हम ब्राह्मण कहते हैं।
जो स्वजनों में आसक्तिरहित है, प्रव्रज्या लेकर शोक करता है तथा आर्यवचनों में रमण करता है, उसे हम ब्राह्मण कहते हैं। जो कालिमा आदि मैलापन से रहित, स्वर्ण की तरह राग, द्वेष, भय आदि दोषों से रहित है उसे हम ब्राह्मण कहते हैं।
जो तपस्वी, कृश, दमितेन्द्रिय सदाचारी, निर्वाण के सम्मुख है उसे हम ब्राह्मण कहते हैं।
जो मन, वचन, काय से त्रस एवं स्थावर प्राणियों की हिंसा किया गया। जैन सम्प्रदाय में भी ऐसे यज्ञ विद्यमान हैं- जैसे पंचकल्याणक, नहीं करता है उसे हम ब्राह्मण कहते हैं। मंदिर वेदी प्रतिष्ठा आदि। परन्तु इनका विधान सिर्फ गृहस्थों के लिए जो क्रोध, हास्य, लोभ अथवा भय से मिथ्या वचन नहीं ही किया गया है जिससे स्पष्ट है कि ये यज्ञ परमार्थसाधक नहीं हैं। बोलता उसे हम ब्राह्मण कहते हैं। इनका उद्देश्य सिर्फ धर्म का प्रचार एवं प्रसार है।
भावयज्ञः
जो सचित्त अथवा अचित्त वस्तु को थोड़ी अथवा अधिक मात्रा में बिना दिए हुए ग्रहण नहीं करता है उसे हम ब्राह्मण कहते हैं। जो मन, वचन, काय से दिव्य लोक सम्बन्धी, मनुष्यलोक सम्बधी एवं तिर्यञच सम्बन्धी मैथुन का सेवन नहीं करता है उसे हम ब्राह्मण कहते हैं।
यही सर्वश्रेष्ठ यज्ञ है ३२ भावों की प्रधानता होने के कारण इसे भावयज्ञ कहते हैं। इस यज्ञ के सम्पादन में बाह्य किसी सामग्री की आवश्यकता नहीं पड़ती है। कोई भी इस यज्ञ को कर सकता है। जो जल में उत्पन्न होकर भी जल से भित्र कमल की तरह विभिन्न ग्रन्थों में इस यज्ञ के विभिन्न नाम है जो अपनी सार्थकता लिए कामभोगों में अलिप्त है उसे हम ब्राह्मण कहते हैं।
जो लोलुपता से रहित, मुधाजीवी (भिक्षान्नजीवी), अनगार, अकिञ्चन वृत्तिवाला गृहस्थों में असंसक्त है उसे हम ब्राह्मण कहते हैं। जो पूर्व संयोग (मातापितादि), ज्ञातिजनों के संयोग तथा बन्धुजनों के संयोग को त्यागकर पुनः भोगों में आसक्त नहीं होता उसे हम ब्राह्मण कहते हैं।
इस विवेचन से ज्ञात होता है कि जो हिंसा, झूठ, चोरी, कुशीन और परिग्रह को त्यागकर अहिंसा, सत्य, अचौर्य, ब्रह्मचर्य और अकिञ्चन भाव को धारण करता है, राग-द्वेष से रहित है, सदाचारी है वही ब्राह्मण है। केवल ओंकार का जाप कर लेने मात्र से कोई ब्राह्मण नहीं कहलाता है अपितु ब्रह्मचर्य को जो धारण करे वही ब्राह्मण है २७ । ऐसा ब्राह्मण सबके द्वारा पूज्य, अबध्य और मुक्ति को प्राप्त करनेवाला होता है जो इन लक्षणों से रहित होकर 'यज्ञ' 'यज्ञ' चिल्लाया करते हैं वे मूढ शुष्क तपश्चर्या करने और वेद के असली रहस्य को जाने बिना सिर्फ अध्ययन करने वाले राख से आवृत्त अंगार की तरह है २८ |
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अतः जो वेद पशुवध का उपदेश देते हैं उन वेदों के वेद मन्त्रों द्वारा दी गई यज्ञ की आहुतियाँ दुःशील वेदपाठी एवं यज्ञकर्ता की रक्षा नहीं करती हैं क्योंकि कर्म बलवान हैं और वे बिना फल दिए दूर नहीं होते हैं२९ ।
इस तरह हम देखते हैं कि प्राचीन काल में ब्राह्मणों का
आचार कितना आदर्शपूर्ण और उच्च था तथा वे जो यज्ञ करते थे थे पशु-हिंसा से रहित और निर्दोष सामग्री से निर्मित होते थे और जैन साधु भी उस यज्ञान्न को खाते थे ३० । परन्तु बाद में यज्ञ पशु-हिंसा से दूषित हो गये जिससे महापुरुषों के द्वारा निन्दनीय हुए।
स्मार्त द्रव्ययज्ञः
,
इनमें हिंसा नहीं होती है अपितु इनका संपादन धृत धान्य आदि से होता है ३१ । इन यज्ञों में याजक की भावना हिंसा करने की नहीं रहती है फिर भी जो स्थावर जीवों की हिंसा इस यज्ञ की व्यवस्था में होती है वह नगण्य है। अतः इन यज्ञों का विरोध नहीं
हुए
हैं। जैसे
-
(१) यमयज्ञ ३३ यम मृत्यु का देवता माना जाता है। संसार में ऐसा कोई भी प्राणी (देवता भी) नहीं है जो मृत्युरूप यम देवता के द्वारा प्रसित न होता हो। अतः जिस यज्ञ में मृत्युरूपी यम देवता का हवन किया जाता है और जिससे संसार का आवागमन छूट जाता है उसे यमयज्ञ कहते हैं।
(२) अहिंसायज्ञ ३४- इस यज्ञ में अहिंसा की प्रधानता होने से इसे अहिंसा यज्ञ कहते हैं अहिंसा सब धर्मों का मूल है। कहा है' अहिंसा परमो धर्मः' जैनधर्म में जो पाँच महाव्रत बताये हैं उनमें अहिंसा महानत ही प्रधान है। इस अहिंसा की रक्षा के लिए ही अन्य सत्य, अचौर्य, ब्रह्मचर्य और अपरिग्रह महाव्रत माने गये हैं। पांचों महाव्रतों का महत्त्व अचिन्त्य है । इनके पालन से ब्रह्म की प्राप्ति होती है३५
इसी प्रकार बौद्ध ग्रन्थों में कई यज्ञों के नाम हैं ३६ । जैसे(१) दानयज्ञ- शीलवान प्रव्रजितों के लिए नित्य दान देना । (२) त्रिशरणयज्ञ - बुद्ध, धर्म और संघ की शरण में जाना । (३) शिक्षापदवज्ञ यम नियमों का ग्रहण करना ।
(४) शीलयज्ञ - पाँच शीलव्रतों का पालन करना । (५) प्रज्ञायज्ञ अज्ञान का विनाश करके ज्ञानार्जन करना। (६) समाधियज्ञ — ध्यान द्वारा चित्तैकाग्र करके चित्तविशुद्धि करना दीघनिकाय के कूटदंत सुल में राजाओं और ब्राह्मणों के
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आधत्मिक यज्ञ: एक अनुचिन्तन
द्वारा करने योग्य यज्ञों का प्रतिपादन है। एक कूटदंत ब्राह्मण ७०० इस अध्यात्म यज्ञ को वैदिक संस्कृति की प्रतीक गीता में गायों, इतने ही बछड़ों व इतने ही अन्यान्य पशुओं द्वारा यज्ञ करना कर्म-योगरूपी श्रेष्ठ यज्ञ कहा है। भगवान् श्रीकृष्ण अर्जुन से कहते हैं चाहता है तब प्रसङ्गवश भगवान् गौतमबुद्ध अहिंसामय आदर्शयज्ञ (अ०३, श्लोक १० से १३)- 'हे अर्जुन! मैं अग्निमुख में आहतियाँ का प्रतिपादन करते हैं। इसी तरह कोसल संयुक्त में कोसल राजा अर्पण करने को यज्ञ की आत्मा नहीं समझता, किन्तु परिश्रमपूर्वक पसेनादि भी ५००बैल, ५००बछिया, ५०० बकरे, ५०० मेढ़े उत्पन्न किए धनधान्यादि तथा अपनी सम्पूर्ण शक्तियों को किसी आदि की बलि चढ़ाने के लिए यूपों से बँधवाते हैं तथा राजा के विशिष्ट प्राणी को उद्दिष्ट करके ही नहीं वरन् संसार में जो कोई उसके सेवक दण्ड के भय से आखों में आँसू भरकर यज्ञ का काम करते हैं क्षेत्र में आ जाय उन सबके हितार्थ भक्तिपूर्वक अर्पण करने को मैंने तब भगवान् इस प्रकार के यज्ञों का निषेध करते हैं। इस प्रकार के जीवन का कर्मयोगरूपी श्रेष्ठयज्ञ माना है। इस प्रकार करते हए जो अहिंसा यज्ञों का सम्पादन महाराजा विजित और अशोक ने किया था। कुछ निर्वाहार्थ मिल सके उसे ही ईश्वर का अनुग्रह समझकर उपयोग अशोक का अहिंसा चक्र तो लोकविख्यात ही है।
करता हूँ इससे आत्मशुद्धि होती है। अत: यही यज्ञ की आत्मा है।३७
इस तरह सभी भारतीय चिन्तकों ने वैदिक कर्मकाण्डी यज्ञ अध्यात्मयज्ञ या ज्ञानयज्ञ
की आध्यात्मपरक व्याख्या की है। यहाँ पर हम उत्तराध्ययनसूत्र के अध्यात्मप्रधान होने से इसे अध्यात्मयज्ञ कहते हैं और ज्ञान २५ वें यज्ञीय अध्ययन से एक प्रसङ्ग उद्धृत करना चाहते हैं जिससे की प्रधानता होने से ज्ञानयज्ञ कहते हैं।
__ यज्ञ सम्बन्धी बहुत सी बातों का स्पष्टीकरण हो जावेगा। यज्ञ की आध्यात्मिक व्याख्या करना तथा उसके द्रव्यमय . जयघोष नामक एक जैन मुनि जब विहार करते हुए अपने स्वरूप को हटाकर 'ज्ञानमय' रूप देने की प्रवृत्ति का उदय ब्राह्मण भाई विजयघोष ब्राह्मण के यज्ञमण्डप में पहुँचते हैं तो वहाँ पर युग में ही हो गया था। शतपथ ब्राह्मण में हम यत्रतत्र आध्यात्मिक उपस्थित ब्राह्मण याजकों से यज्ञान्न की याचना करते हैं। यह सुनकर अर्थों में यज्ञ प्रक्रिया की व्याख्या को देखते हैं। जैसे-ऐषा नु देवता ब्राह्मण लोग कुपित हो जाते हैं और मुनि की निन्दा करते हुए कहते दशौर्णमासयोः सम्पत् अथाध्यात्मम्-यज्ञों वै श्रेष्ठतमं कर्म, एष वै हैं कि इस यज्ञान को सिर्फ वेदविद्, यज्ञकर्ता, ज्योतिषाङ्गविद्, महान्देवो यद्यज्ञः, वैशो वै वृहत्विपश्चित् यज्ञो वै ब्रह्म, संवत्सरो वै धर्मशास्त्रज्ञाता तथा स्वपर का कल्याणकर्ता ब्राह्मण ही प्राप्त कर यज्ञः, आत्मा वै यज्ञः, परुषों वै यज्ञ: आदि। आरण्यकों ने इस दिशा सकता है। तब मुनिराज इसके उत्तर में कहते हैं कि आप लोग न तो में गति प्रदान की और वानप्रस्थ मुनियों के लिए इस अध्यात्मयज्ञ का वेदों के मुख को जानते हो, न यज्ञों के मुख को, न नक्षत्रों के मुख प्रतिपादन करते हुए इसे सर्वश्रेष्ठ यज्ञ कहा। धर्म के १० प्रकार को, न धर्मों के मुख को और न स्वपर के कल्याणकर्ता को। अत: न बतलाते हुए आरण्यक में कहा है
तो आप लोग वेद-विद् हैं, न यज्ञविद् हैं, न ज्योतिषाङ्गविद् हैं, न सत्यं तपश्च संतोषः क्षमा चारित्रमार्जवम् ।
धर्मशास्त्र के ज्ञाता हैं और न स्वपर के कल्याणकर्ता हैं। इस बात को श्रद्धा धृतिरहिंसा च संवरश्च तथा परः।।
सुनकर वे ब्राह्मण मुनिराज से पूछते हैं कि कौन वेदादि के मुख को ___ अर्थ- सत्य, तप, संतोष, क्षमा, चारित्र, ऋजुता (आर्जव), जानता है और वेदादि के मुख क्या है? यह सुनकर मुनिराज गम्भीर श्रद्धा, धृति, अहिंसा तथा संवर- ये १० धर्म के प्रकार हैं। अर्थ से युक्त भाषा में वैदिक और जैन दृष्टि से समन्वित जो उत्तर देते
इसके बाद उपनिषदों में तो इस प्रवृत्ति की गतिशीलता हैं वह निम्न प्रकार हैस्पष्ट और सुदृढ़ हो जाती है जो गीता में परिपूर्णता प्राप्त कर लेती (१) वेदों का मुख-अग्निहोत्र वेदों का मुख है (जिस है। छान्दोग्य उपनिषद् के तृतीय अध्याय में मनुष्य को यज्ञ और वेद में सच्चे अग्निहोत्र का प्रधानता से वर्णन हो वही वेद वेदों का मनुष्य की समस्त क्रिया-कलापों को ही यज्ञ की विभिन्न अवस्थाओं मुख है)। 'अग्निमुखा वै वेदाः' ऐसी श्रुति भी है। वेदों में इसी अग्नि का रूप दिया गया है। इसी तरह बृहदारण्यक, ऐतरेयारण्यक आदि की प्रधानता होने से अग्नि के संस्कार को ही यज्ञ कहा जाता है। उपनिषदों में यज्ञ को 'ज्ञान-यज्ञ' का रूप दिया गया है तथा जीवन वैदिक, दैविक और भौतिक अग्नि में वैदिक अग्नि 'यज' कहलाती की समस्त क्रियाओं को यज्ञरूप बताया है। जैसे-कौषीतकि (२/५) है। इस तरह वेदानुसार अर्थ संगत हो जाता है। परन्तु मुनिराज को मे अग्निहोत्र को प्राणायाम के रूप में, छान्दोग्य में (४/११-१४) यहाँ पर तप रूप अग्नि अभिप्रेत है, जिस तपाग्नि से कर्मरूपी तीनों प्रकार की अग्नियों को आत्मा के रूप में परिवर्तित कर दिया महावन ध्वस्त किया जा सके। कहा भी हैहै। तैत्तरीय (२/५) में ज्ञान को यज्ञ और कर्म दोनों ही कहा है कर्मेन्धनं समाश्रित्य दृढसद्भावनाहुतिः । (विज्ञान यज्ञं तनुते कर्माणि तनुते च)। ऐसे अनेक स्थल उपनिषदों में धर्मध्यानाग्निना कार्या दीक्षितेनाग्निकारिका ।। विद्यमान हैं जिनमें यज्ञ के द्रव्यमय बाह्यस्वरूप के स्थान पर ज्ञानमय अर्थात् धर्मध्यानरूपी अग्नि से कर्मरूपी इन्धन को जलाना आध्यात्मिक यज्ञ की प्रतिष्ठापना है।
चाहिए। इस तरह मैं वेदों का मुख जानने से वेदविद् हूँ, अत: यज्ञान
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पाने का अधिकारी हूँ। यह प्रथम प्रश्न का उत्तर है।
(२) यज्ञों का मुख —- यज्ञार्थी (संयमरूपी यज्ञ करने वाला साधु) है। जिस यज्ञ से कर्मों का क्षय हो वही यज्ञों का मुख है। अथवा जो पापबन्ध में कारण न हो वहीं यज्ञों का मुख है और ऐसा यज्ञ है भावयज्ञ या यमयज्ञ । हिंसा प्रधान वैदिक यज्ञ कर्मक्षय में कारण नहीं है अपितु कर्मबन्ध में ही कारण है३८ । अतः बृहदारण्यक उपनिषद् में पूछा है - 'किमहं तेन कुर्यां येनाहं नामृता स्याम ।' यहाँ पर अग्निहोत्र यज्ञ में जीवरूपी कुंड, तपरूपी वेदिका, कर्मरूपी इन्धन, ध्यानरूपी अग्नि, शुभोपयोगरूपी कडछुली, शरीररूपी होता (यज्ञकर्ता) तथा शुद्धभावनारूपी आहुति बतलाई है। जिन शास्त्रों में ऐसे यज्ञों का विधान है उन्हें वेद कहते हैं और जो ऐसे यज्ञों को करता है वही सर्वोत्तम याजक है। इस उत्तर से मुनि ने अपने को यज्ञकर्ता बतलाया है।
जैन विद्या के आयाम खण्ड-७
(३) नक्षत्रों का मुख - चन्द्रमा नक्षत्रों का मुख है। ज्योतिष शास्त्र का विषय नक्षत्र, चन्द्रमण्डल आदि है अतः नक्षत्रों का मुख ऐसा प्रश्न किया गया है और तदनुसार चन्द्रमा को प्रधानता के कारण मुख कहा गया है अतः मैं ज्योतिषशास्त्र का वेत्ता भी हूँ । इस तरह यह तृतीय प्रश्न का उत्तर है।
(४) धर्मों का मुख - काश्यप धर्मों का मुख है। धर्मशास्त्र का वेत्ता वही हो सकता है जो धर्मों के मुख को पहचाने। अतः ऐसा प्रश्न सार्थक है। यहाँ काश्यप से तात्पर्य काश्यपगोत्रीय भगवान् ऋषभदेवप्रणीत धर्म से है। वेदों में भी भगवान् ऋषभदेव की स्तुति बहुत स्थानों पर की गई है ३९ ।
जैसे चन्द्रमा की नक्षत्र आदि स्तुति करते रहते हैं वैसे ही इन्द्रादिदेव काश्यप (भगवान् ऋषभदेव ) की स्तुति करते रहते हैं ४० । (५) स्वपर का कल्याणकर्ता जो आदर्श ब्राह्मण है जिसके स्वरूप का वर्णन हम पहले कर आये हैं वही स्व और पर का कल्याण करने में समर्थ है। अर्थात् जो अहिंसारूप यमयज्ञ का अनुष्ठान करता है वहीं स्व और पर का कल्याणकर्ता है। पशुओं की हिंसा करने वाला याजक ब्राह्मण, या ब्राह्मणकुल में जन्म लेने मात्र से कोई स्वपर का कल्याणकर्ता नहीं हो सकता है-
'न वि मुण्डिएण समणो न ओंकारेण बम्भणो । न मुणी रण्णवासेणं कुसचीरेण तावसो'।। उत्तराध्ययन २५ / ३१ । । अर्थ- सिर मुण्डन से श्रमण, ओंकार जाप से ब्राह्मण, अरण्यवास से मुनि और कुशतृण के वस्त्र धारण करने से कोई तपस्वी नहीं कहला सकता है। ये चिह्न तो मात्र बाह्य लिङ्ग के परिचायक हैं ४१ । बाह्यवेष को ही अन्तरङ्ग शुद्धि का कारण मान बैठना भूल ४२ । बाह्य पवित्रता की अपेक्षा अन्तरङ्ग की पवित्रता को विद्वान् लोग उत्तम मानते हैं क्योंकि अन्तरङ्ग शुद्धि ही वास्तविक शुद्धि है। शरीर की बीमारी का निवारण आन्तरिक खराबी के दूर
करने से ही होता है। अतः प्रात: और सायंकाल जल का स्पर्श करना, कुश-यूपादि का स्पर्श करना आदि ये सभी बाह्यशुद्धि साधन हैं, इन्हें आन्तरिक शुद्धि के साधन मानना मूढ़ता है। अब प्रश्न उठता है कि यदि ऐसी स्थिति है तो ब्राह्मणादि के आन्तरिक शुद्धि के लक्षण क्या हैं? इसके उत्तर में मुनिराज ने कहा है४३.
समयाए समणो होड़ बम्भचेरेण बम्भणो । नाणेण उ मुणी होइ तवेण होइ तावसो । कम्पुणा बम्भणो होइ कम्पुणा होइ खत्तिओ । वइसो कम्पुणा होइ सुद्दो होई कम्मुणा । । एए पाठकरे बुद्धे जेहिं होइ सिणायओ सव्वकम्मविनिम्मुक्कं तं वयं बूम माहणं ।। एवं गुण समाउता जे भवन्ति दिउत्तमा। ते समत्या उ उद्धतुं परमप्याणमेव च।।
अर्थ- समभाव से श्रमण, ब्रह्मचर्य से ब्राह्मण, मनन (ज्ञान) से मुनि, तप (इच्छानिरोध) से तपस्वी होता है। कर्म से ( आचार से) ब्राह्मण, कर्म से क्षत्रिय, कर्म से वैश्य और कर्म से ही शूद्र होता है । इस प्रकार विस्तार से सब बातें भगवान् ने बतलाई हैं। स्नातक भी उक्त गुणों वाला ही हो सकता है तथा जो समस्त कर्मों से मुक्त होने के लिए प्रयत्नशील है वह ब्राह्मण है और वही उत्तम ब्राह्मण स्व और पर का४४ कल्याण करने में समर्थ है। क्योंकि शीलसंयम से ही पूज्यता आती है। अतः सिद्ध है कि द्रव्ययज्ञ से भाववज्ञ, द्रव्यलिङ्गी मुनि से भावलिङ्गी मुनि, द्रव्यसंयम से भावसंयम, द्रव्यशुद्धि भावशुद्धि से श्रेष्ठ है।
इस तरह पाँचवें प्रश्न का उत्तर दिया गया।
भावयज्ञ करने का अधिकारी :
इस यज्ञ को वही कर सकता है जो हिंसादि पापों से संवृत, शरीर में ममत्त्व और कषायों में प्रवृत्ति से रहित होकर संयत है ४५ । इसमें वैदिक कर्मकाण्डी यज्ञ की तरह जाति का कोई महत्त्व नहीं है। इस यज्ञ को ब्राह्मण, क्षत्रिय और वैश्य की तरह शूद्र भी कर सकते हैं। जैसे चाण्डाल कुलोत्पन्न हरिकेशी मुनि जितेन्द्रिय और प्रधान गुणों से युक्त होकर मोक्ष को प्राप्त करता है४६ चित्त और संभूत के जीव भी पूर्व जन्म में चाण्डाल कुलोत्पन्न होकर इस यज्ञ को करके क्रमशः मोक्ष और चक्रवतींपद को प्राप्त करते हैं ४७। जिस तरह पुरुष इस यज्ञ को करने के अधिकारी हैं उसी प्रकार स्त्रियाँ भी इस यज्ञ को करके परमार्थ (मोक्ष) को प्राप्त कर सकती हैं। जैसे राजीमती ने प्राप्त किया ४८। इस तरह इस यज्ञ को सभी जीव कर सकते हैं जो सदाचार पालन करने का प्रयत्न करे।
भावयज्ञ के उपकरण एवं विधिः
अब हमें यह देखना है कि इस भावयज्ञ को कैसे करना
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आधत्मिक यज्ञः एक अनुचिन्तन
चाहिए। इसके उपकरण कौन-कौन हैं। इस विषय में उत्तराध्ययन में रूपकाश्रित बहुत सुन्दर वर्णन है । जैसे—
वैदिक द्रव्ययज्ञ के उपकरण (१) अग्नि
(२) अग्निकुंड (जहाँ अग्नि प्रज्वलित की जाती है) (३) खुवा (जिससे घृत की आहुति दी जाती है)
(४) करीषाद (जिससे अग्नि प्रज्वलित
की जाती है। जैसे मधु, घृत आदि) (५) समिधा (एधा- शमी पलाशादि की लकड़ियाँ) (६) शान्ति पान ( कष्टों को दूर करने पाङ्ग के लिए)
(७) लबन या होम (जिससे अग्नि प्रसन्न हो)
(८) जलाशय (स्नान के लिए)
(९) शान्ति तीर्थ (सोपान) (१०) जल कैसा हो ? - (जिससे कर्म रज दूर हो।)
(११) निर्मलता
इस तरह इस भावयज्ञ करने वाला याजक तपरूप अग्नि को जीवात्मा रूपी अग्निकुंड में, शरीररूपी करीषाद से प्रज्वलित करके कर्मरूपी ईंधन (समिधा आदि) का तीन योगरूपी खुवा (आहुति देने का पात्र) से हवन करे। संयम व्यापाररूपी शान्ति पाठ को पढ़े तथा शुक्ललेश्या की तरह निर्मल आत्मा रूपी जल से युक्त ब्रह्मचर्यरूपी शान्तितीर्थ में स्नान करे ४९ ।
इस तरह अध्यात्म यज्ञ करने वाला जब अध्यात्म - जलाशय में स्नान करता है तब वह अत्यन्त शीतल और निर्मल होकर कर्मरजरूपी मलों को धो देता है। यह स्नान ऋषियों द्वारा प्रशस्त है। जो इसमें स्नान करता है वह उत्तमगति (मोक्ष) को प्राप्त करता ५१ नन्दमानव पुच्छा (सुत्तनिपात) में भगवान् बुद्ध और नन्द ब्राह्मण का संवाद है जिसमें भगवान् बुद्ध ने बताया है कि जो कोई श्रमण या ब्राह्मण यज्ञ और श्रुत से शुद्धि चाहते हैं वे जन्म-जरा से निवृत्त नहीं होते हैं अपितु तृष्णा के त्याग और अनास्रव से युक्त मनुष्य संसार के जरामरण से तर जाते हैं। अर्थात् प्रज्ञा, शील और समाधि का जो यज्ञानुष्ठान करता है वह संसार के दुःखों से निवृत्त हो जाता है। उन्होंने सुत्तनिपात में कहा है- हे ब्राह्मण! लकड़ी जलाने
भावयज्ञ के उपकरण
(१) तप (ज्योतिरूप) क्योंकि तप में अग्नि की तरह कर्ममल भस्म करने की शक्ति है।
जीवात्मा (तपरूप अग्नि का स्थान )
मन, वचन, कायरूप योग खुवा (चम्मच) है क्योंकि शुभाशुभ कर्मेन्धनों का आगमन इन्हीं के द्वारा होता है (४) शरीर क्योंकि तपरूपाग्नि इसी से प्रदीप्त होती है।
(२)
(३)
(५) शुभाशुभकर्म क्योंकि तप रूप अग्नि में लकड़ी की तरह भस्म हो जाते हैं।
(६) संयम व्यापार क्योंकि इससे सब जीवों को शान्ति मिलती है।
(७)
(८)
(९)
चारित्ररूप भाव यज्ञानुष्ठान- इससे अग्नि को प्रसन्न करते हैं।
अहिंसा धर्मरूप जलाशय
ब्रह्मचर्य और शान्ति
(१०) कलुष भावरहित प्रसन्न लेश्या वाली आत्मा ।
अर्थात् उपरोक्त गुणरूपी तीर्थजल में स्नान करने से कर्मरज दूर जो जाती है।
(११) बाह्य स्नान की तरह अन्तरङ्ग आत्मा निर्मल और ताजी हो जाती है।
३१
को शुद्धि मत समझो क्योंकि यह सिर्फ बाह्य उपचार है। इसे कुशल लोग शुद्धि नहीं मानते हैं अतः तेरा यह अभिमान खरिया का भार (खारिभार) है, क्रोध धूम है, मिथ्या वचन भस्म है, रसना (जिह्वा) खुवा है, और हृदय ज्योति है।' अतः हे ब्राह्मण कुशलों से प्रशंसित, निर्मल धर्म के तालाब में जिसमें शील तीर्थ (घाट) हैं, उसमें नहाने से वेदज्ञ बिना भींगे हुए पार उतर जाते हैं। इस परम स्थानकी प्राप्ति सत्य, धर्म, संयम और ब्रह्मचर्य पर निर्भर है। अत: तू ऐसी हवन क्रियाओं को नमस्कार कर जिसे मैं (भगवान् बुद्ध) पुरुषदम्य सारथी (पुरूषों को विनम्र बनाने में सारथी रूप मानता हूँ। इसी तरह महर्षि ल्यास ऋषि ने भी कहा है-ज्ञानरूपी जादर से ढके हुए, ब्रह्मचर्य और क्षमारूपी जल से पूर्ण, पापरूपी कीचड़ को नष्ट करने वाले अत्यन्त निर्मल तीर्थ में स्नान करके जीवकुंडमें दमरूपी पवन से उद्दीपित, ध्यानरूपी अग्नि में अशुभ कर्मरूपी काष्ठ की आहुति देकर उत्तम अग्निहोत्र यज्ञ को करो काम और अर्थ को नष्ट करने वाले शमरूपी मन्त्रों से दुष्टकषायरूपी पशुओं का यज्ञ करो जो मूढ प्राणी मूक प्राणियों का वध करके धर्म की कामना करते हैं वे लोग काले सर्प की खोल में अमृत की वर्षा चाहते है५२ रा
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३२
इस विवेचन से स्पष्ट है कि सभी भारतीय मनीषियों ने हिंसा-प्रधान यज्ञों का प्रबल विरोध करके अहिंसामूलक यज्ञों की प्रतिष्ठा की गृहस्थी के लिए कुछ घृतादि से सम्पन्न होने वाले द्रव्ययज्ञों का खण्डन न करते हुए भावयज्ञों या यमयज्ञों या अध्यात्मयज्ञों को सर्वश्रेष्ठ यज्ञ बतलाया। इस प्रकार के ही यज्ञ वस्तुतः परम तत्त्व की प्राप्ति में सहायक हैं। इस प्रकार के यज्ञों की पूर्णता सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यग्चरित्र की समष्टि में या प्रज्ञा, शील और समाधि की समष्टि में या भक्तियोग, ज्ञानयोग और कर्मयोग का समष्टि में है, एकत्व में नहीं। अतः कहा है— चारित्र की पूर्णता ज्ञान के बिना संभव नहीं है तथा ज्ञान गुण की पूर्णता चारित्र के अभाव में नहीं है अपितु दोनों की समप्ति में ही पूर्णता है५३ उपनिषदों में जो 'ज्ञानयज्ञ' की चर्चा है सो उसमें चारित्र भी गतार्थ है क्योंकि जिसे सम्यग्ज्ञान हो जावेगा वह कभी मिथ्याचरण कर नहीं सकता है तथा पूर्णज्ञान की प्राप्ति बिना चारित्र के आ नहीं सकती है। चूँकि संसार का मूलकारण अज्ञान है अतः उससे निवृत्ति का कारण भी ज्ञान है। इस दृष्टि से वहाँ पर 'ज्ञानयज्ञ' की चर्चा है अतः भावों की निर्मलता जिसमें प्रधान है ऐसा अहिंसात्मक अन्तरङ्ग शुद्धि को करने वाला यज्ञ ही सर्वश्रेष्ठ है। उसे हम अध्यात्मयज्ञ यमयज्ञ, अहिंसायज्ञ, भावयज्ञ, ज्ञानयज्ञ, ध्यानयज्ञ, शीलयज्ञ कुछ भी कहें उन सबका तात्पर्य एक ही है अन्तरात्मा की शुद्धि और यही मुक्ति है। सन्दर्भ
।
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१. जड़ता विउले जने भोइत्ता समणमाहणे।
दत्ता भोच्चा य जिट्ठा य, तओ गच्छसि खत्तिया ।।
उत्तराध्ययन, संपा० भगवान् विजयजी, प्रका० श्री चन्द्र भट्टाचार्या, कलकत्ता, वि०सं० १९३६ ९/३८ २. बौद्धदर्शन और अन्य भारतीय दर्शन, भरतसिंह अपाध्याय, बंगाल हिन्दी मंडल, कलकत्ता, वि०सं० २०११, पृ० ७३९ तथा शतपथब्राह्मण २/२/२/६, २/४/३/१४ ३. वही
""
४.
८.
९.
जैन विद्या के आयाम खण्ड- ७
""
५.
६.
७. औषधयः पशवो वृक्षास्तिर्यञ्चः पक्षिणस्तथा।
ऋग्वेद १/३७/४ ३/१८/३
शतपथब्राह्मण ११/५/८१, बृहदारण्यक २/४ / २६. उत्तराध्ययन २५ वां यज्ञीय अध्ययन, गाथा १९ से २९ तक। १० एवं परुषसूक्त २७. वही २५/३१,३२ । नहाने से शुद्धि नहीं होती अपितु जो सत्य, धर्म और शुचि से युक्त हैं वे ही ब्राह्मण हैं।
इस विषय में जैन और बौद्ध आगम ग्रन्थों को देखिए । उत्तरा० २५ / ७, ८ एवं १२ / ११
जटिलसुत्त; उदान १/९ तथा जो सत्यव्रती, जितेन्द्रिय, वेदन्तगू और ब्रह्मचारी हैं वे ही यज्ञोपवीत हैं संयुक्तनिकाय ७/१/९ २८. उत्तरा० २५/१८
२९. वही, २५/३०
३०. वही, १२ वां एवं २५वां अध्ययन
३१. वही, १२ / ३४
यज्ञार्थं निधनं प्राप्ताः प्राप्नुवन्त्युच्छ्रितं पुनः । शतपथब्राह्मण श्री चन्द्रधर शर्मा, प्रका० अच्युतग्रंथमालाकार्यालय, काशी वि०सं० १९९४ ।।
यज्ञार्थं पशवः सृष्टाः ।
वैदिक संस्कृति का विकास, लक्ष्मण शास्त्री जोशी, हिन्दी ग्रंथ
रत्नाकर लिमिटेड, बम्बई १९५७ ई० पृ० ४२
1
१०. बौ० दर्शन और अ० भा० दर्शन, भरतसिंह, पृ० ७३९
तथा ऋग्वेद १/३७/४; ३/१८/३
११. यज्ञाद् भवति पर्जन्यो यज्ञः कर्मसमुद्भवः, गीता, श्री हरिकृष्णदा गोयनका, गीता प्रेस गोरखपुर, वि०सं० १९९५ ३-१४। १२. उत्तरा० भगवान विजयजी, १२/१०
१३. प्रमाणवार्तिक संपा० दलसुख मालवणिया, बनारस हिन्दू विश्वविद्यालय, वाराणसी १९५९ १/२१९-२१,२५. सुत्तनिपात (पुण्णक- माणवपुच्छा) अनु० भिक्षु धर्मरत्न, महाबेधि
१४.
सभा, सारनाथ (बनारस), १९५१, ५/३
१५. वाजसनेयिसंहिता ३/५०, शतपथब्राह्मण, संपा०, श्री चन्द्रधर शर्मा, २/५/३/१९ ।
१६.
यज्ञादि से हमें स्वर्ग की प्राप्ति भले ही हो जावे परन्तु उससे परमार्थ की प्राप्ति नहीं होती है देखिये, छान्दोग्य १ / २ / १०: बृहदाण्यक १ / ५ / १६; ६ / २ / १६; प्रश्न १ / ९; मुण्डक १/ २/ १० । अष्टादश उपनिषद संपा० आचार्य वि०प्र० लिमये, वैदिक संशोधनमण्डल, पुण्यप्तन, वि०सं० १८८० १७. कठ १/१७ ३/२ श्वेताश्वतर २ / ६-७ आदि १८. बृहदारण्यक १/४/१० ३/९/६, २१ १९. छान्दोग्य १ / १२ / ४,५१
२०. देखिए सांख्यकारिका पर गौडपादभाष्या
२१. भरतसिंह उपाध्याय, द्वितीय भाग बंगाल हिन्दी मंडल, कलकत्ता, वि.स. २०११. पृ० ७३८, ७४२, ७४३.
२२. सुत्तनिपात (धम्भियसुत्त ब्राह्मण) अनु० भिक्षुधर्मरत्न, महाबोधि सभा, सारनाथ (बनारस), १९५१ तथा अंगुत्तरनिकाय द्रोणसुत २३. देखिए, बौद्ध दृष्टिकोण के लिए दीघनिकाय कूटदंतसुत्त तथा सुचनिपाता।
२४. वही
२५. अट्ठकथा चंकिसुत, बुद्धचर्या, पं० राहुल सांकृत्यायन, प्रका० शिवप्रसाद गुप्त, सेवा उपवन, काशी, वि०सं० १९८८. पृ० २२४ ॥
३२. वही, १२ / ४२
३३. वही, २५/१
३४. वही, १२ एवं २५ वाँ अध्ययन ।
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आधत्मिक यज्ञ: एक अनुचिन्तन
अचौर्य
ब्रह्मचर्य
३५. अहिंसा- यदा न कुरुते पापं सर्वभूतेषु दारुणम्।
धर्मः स्वयमेव चीर्णः केवलज्ञानलम्भाच्च महर्षिणो ये परमेष्ठिनो कर्मणा मनसा वाचा ब्रह्म सम्पद्यते तदा।।
वीतराग: स्नातका निर्ग्रन्था नैष्ठिका तेषां प्रवर्तित आख्यातः सत्य- यदा सर्वानृतं त्यक्तं मिथ्याभाषा विवर्जिता।
प्रणीतश्च त्रेतायामादौ।" अनवद्यं च भाषेत ब्रह्म सम्पद्यते तदा।। ४०. उत्तरा० २५/१७ अश्वमेधसहस्रं च सत्यं च तुलया घृतम्। ४१. बाह्यलिङ्ग के तीन प्रयोजन हैं: (१) संयमनिर्वाह (२) ज्ञानादिग्रहण अश्वमेधसहस्राद्धि सत्यमेव विशिष्यते।।
और (३) लोक में प्रतीति कराना कि यह अमूक है। उत्तरा० परद्रव्यं यदा दृष्टं आकुले ह्यथवा रहे।
२३/३२ धर्मकामो न गृह्णाति ब्रह्म सम्पद्यते तदा।। ४२. उत्तरा० १२/३८, ३९; २०/४३ से ५०; २२/४६ देवमानुषतिर्यक्षु मैथुनं वर्जयेद्यदा।
४३. वही, २५/३२ से ३५ कामरागविरक्तश्च ब्रह्म सम्पद्यते तदा।।
४४. वही, अध्ययन २३ अकिञ्चनभाव- यदा सर्व परित्यज्य निस्संगो निष्परिग्रहः। ४५. वही, १२/४२
निश्चिन्तश्च चरेद् धर्मं ब्रह्म सम्पद्यते तदा।। ४६. वही, १२/१ उत्तराध्ययनटीका, आत्माराम, पृ० ११२१ से ४७. वही, अध्ययन १३ वाँ ११२५
४८. वही अध्ययन २२ वाँ ३६. दीघनिकाय, कूटदंतसुत्त।
४९. वही, १२/४२ से ४५ ३७. गीतामन्थन- किशोरीलाल, सस्ता साहित्य मंडल, दिल्ली ५०. वही, १२/४६ १९३९, पृ० ९७
५१. वही, १२/४७ ३८. उत्तरा० १२/३९; २५/३०
५२. स्याद्वादमञ्जरी-हिन्दी टीका, संपा० डॉ० जगदीश चन्द्र जैन, ३९. आरण्यक में-"ऋषभ एवं भगवान् ब्रह्मा तेन भगवता ब्रह्मणा परमश्रुत प्रमावक मंडल, अगास १९३५, पृ० १३१
स्वयमेव चीर्णाति प्रणीतानि ब्राह्मणानि। यदा च तपसा प्राप्तपदं ५३. चरणकरणप्पहाणा ससमयपरसमयमुक्कवावारा। यद् ब्रह्म केवलं तदां च ब्रह्मर्षिणा प्रणीतानि तानि पुस्तकानि चरणकरणस्ससारं णिच्छयसुद्धं ण माणंति।। ब्राह्मणानि।"
सन्मतितर्क, संपा०, पं० सुखलाल संघवी, गुजरात पुरातत्त्व ब्रह्माण्ड पुराण में भी लिखा है-“इह हि इच्छवाकुवंशोद्भवेन मंदिर, अहमदाबाद वि०स० १९८२, ३/६७ नाभिस्तेन मरुदेव्या नन्दनेन महादेवेन ऋषभेण दशप्रकारो
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'समयसार' के अनुसार आत्मा का कर्तृत्व-अकर्तृत्व एवं भोक्तृत्व-अभोक्तृत्व
डॉ० श्रीप्रकाश पाण्डेय
ईसा की प्रथम शताब्दी के पूर्वार्द्ध में दक्षिण भारत के दिगम्बर आचार्य कुन्दकुन्द ने अपने 'समयसार' में आत्मा का विशद कोण्डकुन्द नामक स्थल पर अवतीर्ण हुए आचार्य कुन्दकुन्द का विवेचन किया है। दिगम्बर जैन परम्परा के आचार्यों में अप्रतिम स्थान है। उनकी महत्ता आत्मा के अस्तित्व के सम्बन्ध में आचार्य कुन्दकुन्द का इसी प्रमाण द्वारा सिद्ध हो जाती है कि दिगम्बर परम्परा के मङ्गलाचरण मत है कि आत्मा स्वत: सिद्ध है। अपने अस्तित्व का ज्ञान प्रत्येक में उनका स्थान गौतम गणधर के तत्काल पश्चात् आता है। दक्षिण जीव को सदैव रहता हैभारत के चार दिगम्बर संघों में से तीन का कुंदकुंदान्वय कहा जाना पाणेहिं चदुहिं जीवदि जीवस्सदि जो हि जीविदो पुव्वं। इसी तथ्य का प्रतिपादक है। कुंदकुंदाचार्य की गणना उन शीर्षस्थ जैन सो जीवो ते पाणा पोग्गल दव्बेहिं णिवन्ता।। आचार्यों में की जाती है जिन्होंने आत्मा को केन्द्र-बिन्दु मानकर जो इन्द्रिय, बल, आयु और श्वासोच्छ्वास इन चार प्राणों अपनी समस्त कृतियों का सृजन किया। उनकी कृतियों में से प्रमुख से जीता था, जीता है और जीएगा, वह जीव द्रव्य है और चारों प्राण तीन पंचास्तिकाय, प्रवचनसार एवं समयसार का जैन आध्यात्मिक पुद्गल द्रव्य से निर्मित हैं। पूज्यपाद ने सर्वार्थसिद्धि में आत्मा के ग्रन्थों में वही स्थान है जो प्रस्थानत्रयी (उपनिषद्, ब्रह्मसूत्र, गीता) का अस्तित्व को सिद्ध करते हुए कहा है कि जिस प्रकार यन्त्र प्रतिमा की वेदान्त दर्शन में है। प्रस्तुत निबन्ध में हमारा अभीष्ट इन तीनों चेष्टायें अपने प्रयोक्ता के अस्तित्व का ज्ञान कराती हैं उसी प्रकार प्राण रचनाओं में से 'समयसार' के अनुसार आत्मा के कर्तृत्व-भोक्तृत्व की आदि कार्य भी क्रियावान आत्मा के साधक हैं। कुन्दकुन्दाचार्य ने विवेचना है।
प्रकारान्तर से आत्मा को 'अहं' प्रतीति द्वारा ग्राह्य कहा है। 'जो चैतन्य समयसार आत्मकेन्द्रित ग्रन्थ है। अमृतचन्द्र स्वामी ने आत्मा है, निश्चय से वह मैं (अहं) हूँ, इस प्रकार प्रज्ञा द्वारा ग्रहण 'समय' का अर्थ 'जीव' किया है- 'टोत्कीर्णचित्स्वभावो जीवो करने योग्य है और अवशेष समस्त भाव मुझसे परे है, ऐसा जानना नाम पदार्थः स समयः। समयत एकत्वे युग पज्जानाति गच्छति चाहिए। इस प्रकार आत्मा स्वत: सिद्ध है। चेति निरुक्ते'२ अर्थात् टङ्कोत्कीर्ण चित्स्वभाववाला जो जीव नाम आत्मस्वरूप का विवेचन समयसार में आचार्य कुंदकुंद ने का पदार्थ है, वह समय कहलाता है। जयसेनाचार्य ने भी 'सम्यग् दो दृष्टियों से किया है: पारमार्थिक दृष्टिकोण एवं व्यावहारिक दृष्टिकोण। अय: बोधो यस्य भवति स समय: आत्मा' अथवा 'समं एकभावेनायनं दृष्टिकोण को जैनदर्शन में नय कहा गया है। आध्यात्मिक दृष्टि से गमनं समय:३ इस व्युत्पत्ति के अनुसार समय का अर्थ आत्मा नय दो प्रकार के होते हैं-(१) निश्चय और (२) व्यवहार नय। किया है। स्वयं आचार्य कुन्दकुन्द ने निर्मल आत्मा को 'समय' पारमार्थिक दृष्टि ही निश्चय नय है। कुंदकुंद ने निश्चय नय को कहा है।-'समयो खलु णिम्मलो अप्पा' अत: समयसार का अर्थ भूतार्थ१०, परमार्थ११, तत्त्व१२ एवं शुद्ध १३ कहा है। निश्चय नय है त्रैकालिक शुद्ध स्वभाव अथवा सिद्धपर्याय आत्मा। दूसरे शब्दों वस्तु के शुद्ध स्वरूप का ग्राहक अर्थात् भेद में अभेद का ग्रहण करने में आत्मा की शुद्धावस्था ही समयसार है एवं इसी शुद्धावस्था का वाला और व्यवहार नय को अभूतार्थ अथवा वस्तु के अशुद्ध स्वरूप विवेचन इस ग्रन्थ का प्रतिपाद्य है।
___ का ग्राहक कहा गया है७। आत्मा के शुद्ध स्वरूप का विवेचन शुद्ध आत्मा की अवधारणा जैनदर्शन में प्रमुख एवं मौलिक है। निश्चय से (अर्थात् जो शुद्ध वस्तु है उसमें कोई भेद न करता हुआ, जैन-दर्शन में आत्मा की सिद्धि प्रत्यक्ष और अनुमानादि सबल एक ही तत्त्व का कथन शुद्ध निश्चय करता है) एवं उसके अशुद्ध अकाट्य प्रमाणों द्वारा की गई है। श्वेवाताम्बर आगम आचारांगादि में स्वरूप का विवेचन व्यवहार नय से (अर्थात् अशुद्ध निश्चय नय की यद्यपि स्वतन्त्र रूप से तर्कमूलक आत्मास्तित्व साधक युक्तियाँ नहीं हैं दृष्टि से कथन करता है)! शुद्ध स्वरूप का विवेचन कुंदकुंद ने फिर भी अनेक ऐसे प्रसंग हैं जिनसे आत्मास्तित्व पर प्रकाश पड़ता भावात्मक और अभावात्मक दोनों दृष्टियों से किया है। भावात्मक है। आचारांग के प्रथमश्रुतस्कन्ध५ में कहा गया है कि 'जो भवान्तर में पद्धति में उन्होंने बताया है कि आत्मा क्या है? और निषेधात्मक दिशा-विदिशा में घूमता रहता है वह "मैं" हूँ। यहाँ "मैं" आत्मा के पद्धति में बताया है कि बौद्ध दर्शन की भाँति पुद्गल उसकी पर्याय लिये आया है। दिगम्बर आम्नाय के षटखण्डागम में आत्मा का तथा द्रव्य आत्मा नहीं हैं। विवेचन है किन्तु आत्मास्तित्व साधक स्वतन्त्र तर्कों का अभाव है। निश्चय तथा व्यवहार नय के माध्यम से आत्मा का विवेचन
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'समयसार' के अनुसार आत्मा का कर्तृत्व अकर्तृत्व एवं भोक्तृत्व .......
करते हुये आचार्य ने कहा कि- 'निश्चय नय के अनुसार आत्मा चैतन्य स्वरूप तथा एक है, वह बंधविहीन, निरपेक्ष, स्वाश्रित, अचल निस्संग, ज्ञायक एवं ज्योतिमात्र है १४ । निश्चय नय की दृष्टि से आत्मा न प्रमत्त है न अप्रमत्त है और न ज्ञानदर्शनचारित्र स्वरूप है९५। वह तो एकमात्र ज्ञायक है । वह अशेष द्रव्यान्तरों से तथा उसके निमित्त से होने वाले पर्यायों से भिन्न शुद्ध द्रव्य है। आत्मा अनन्य शुद्ध एवं उपयोग स्वरूप है। वह रस, रूप और गन्धरहित, अव्यक्त चैतन्यगुण युक्त, शब्दरहित चक्षु इन्द्रिय आदि से अगोचर अलिंग एवं पुद्गलाकार से रहित है। वह शरीर संस्थान, संहनन, राग, द्वेष, मोह, प्रत्यय, कर्म, वर्ग, वर्गणा, अध्यवसाय, अनुभाग, योग, बंध, उदय, मार्गणा, स्थितबंध, संक्लेश स्थान से रहित है१६ आत्मा निर्धन्य वीतराग व निःशल्य है। परमात्मप्रकाश में शुद्ध आत्मा के स्वरूप को बताते हुए कहा गया है कि 'न मैं मार्गणा स्थान हूँ, न गुणस्थान हूँ, न जीवसमास हूँ, न बालक-वृद्ध एवं युवावस्था रूप हूँ१८ | समयसार में आचार्य ने कहा है कि 'निश्चय से मैं एक हूँ, शुद्ध हूँ, दर्शन ज्ञानमय एवं सदाकाल अरूपी हूँ, अन्य परद्रव्य परमाणुमात्र भी मेरा कुछ नहीं है १९ निश्चय नय से यह आत्मा अनादिकाल से अप्रतिबुद्ध हो रहा है, इसी अप्रतिमुद्धता के कारण वह 'स्व' और 'पर' के भेद से अनभिज्ञ है। आत्मा है तो आत्मा में ही परन्तु अज्ञानी उसे शरीरादि पर पदार्थों में खोजकर दुःख का पानी बनता है। नियमसार में भी आचार्य ने कहा है कि निश्चय नय से आत्मा जन्म, जरा-मरण एवं उत्कृष्ट कर्मों से रहित, शुद्ध ज्ञान, दर्शन, सुखवीर्य स्वभाव वाला, नित्य अविचल रूप है। अतः निश्चय नय से आत्मा चैतन्य उपयोग स्वरूप १९, स्वयंभू, ध्रुव, अमूर्तिक, सिद्ध, अनादि, धन, अतीन्द्रिय, निर्विकल्प एवं शब्दातीत है। समस्त षट्कारचक्र की प्रक्रिया भेद दृष्टि या व्यवहार नय से है अभेद दृष्टि में इसका अस्तित्व ही नहीं है।
व्यवहार नय की दृष्टि से आचार्य ने अशुद्ध संसारी आत्मा का विवेचन किया है । इस दृष्टि से अध्यवसाय आदि कर्म से विकृत भावों को आत्मा कहा है। जीव के एकेन्द्रियादि भेद, गुणस्थान, जीव समास एवं कर्म के संयोग से उत्पन्न गोरादि वर्ण तथा जरादि अवस्थाएं और नर-नारी आदि पर्यायें अशुद्ध आत्मा की होती हैं२२ व्यवहार नय दृष्टि से ही ज्ञान, दर्शन और चारित्र आत्मा के कहलाते हैं। आत्मा चैतन्य स्वरूप, प्रभुकर्ता, देहप्रमाण एवं कर्मसंयुक्त है २३ । व्यवहार नय से आत्मा शुभ-अशुभ कर्मों का कर्ता एवं सुख-सुखादि फलों का भोता है। व्यवहार से ही जीव व शरीर को एक समझा जाता है निश्चय नय से जीव व शरीर कभी एक नहीं हो सकते। शरीर के साथ आत्मा का एक क्षेत्रावगाह होने से शरीर को आत्मा कहने का व्यवहार होता है जैसे-चाँदी व सोने को गला देने पर एक पिण्ड हो जाता है पर वस्तुतः दोनों अलग होते हैं, उसी प्रकार आत्मा और शरीर इन दोनों के एक क्षेत्र में अवस्थित होने से दोनों की जो
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अवस्थायें हैं यद्यपि वे भिन्न हैं तथापि उनमें एकपन का व्यवहार होने लगता है। इस प्रकार व्यवहार नय से आत्मा शुभ-अशुभ कर्मों का कर्ता एवं सुखादि फलों का भोक्ता है। आत्मा का कर्तृत्व- अकर्तृत्व :
न्याय-वैशेषिक, मीमांसा व वेदान्त की तरह जैन दार्शनिकों ने भी आत्मा को शुभ-अशुभ, द्रव्यभाव कर्मों का कर्ता व भोक्ता माना है। सांख्य दर्शन एक ऐसा दर्शन है जो आत्मा को कर्ता तो नहीं मानता पर भोक्ता मानता है। अन्य भारतीय दार्शनिकों की अपेक्षा जैन दार्शनिकों की यह विशेषता रही है कि वे अपने मूलभूत सिद्धान्त स्याद्वाद के अनुसार आत्मा को कथंचित् कर्ता व कथंचित् अकर्ता मानते हैं।
जैनदर्शन की परम्परागत मान्यता के अनुरूप आचार्य कुन्दकुन्द भी आत्मा को कर्ता एवं भोक्ता निर्दिष्ट करते हैं। उन्होंने आत्म के कर्तृत्व-भोक्तृत्व पर तीन दृष्टियों से विचार किया है- निश्चय नय, अशुद्धनिश्चय नय एवं व्यवहार नय। इन तीनों दृष्टियों से विचार करने पर आत्मा में कर्तृत्व-अकर्तृत्त्व एवं भोक्तृत्व अभोक्तृव दोनों परिलक्षित होता है। जिसे हम आने वाली पंक्तियों में देखेंगे।
कुन्दकुन्दाचार्य के अनुसार आत्मा को कर्ता कहने का तात्पर्य यह है कि वह परिणमनशील है। 'यः परिणमति सः कर्ता २४ अन्य द्रव्यों की भांति आत्मा में भी स्वभाव व विभाव दो पर्याय माने गये हैं। अनन्त ज्ञान, अनन्त दर्शन, अनन्त सुख तथा अनन्त वीर्य ये आत्मा के स्वभाव गुण पर्याय हैं । पुद्गल या पुद्रलकमों के संयोग के कारण आत्मा में होने वाले पर्याय विभाव पर्याय कहलाते हैं जैसे- मनुष्य, नारकीय, तिर्यञ्च आदि गतियों में आत्मप्रदेशों का एकाकार होना विभाव पर्याय है। चूंकि व्यवहार व अशुद्ध नय की अपेक्षा ही आचार्य कुंदकुंद आत्मा में कर्तृत्व मानते हैं इसलिये उनके अनुसार व्यवहार नय की अपेक्षा आत्मा द्रव्यकर्म, नोकर्म एवं घटपटादि कर्मों का कर्ता है और अशुद्ध निश्चय नय की अपेक्षा से भावकर्मों का कर्ता है । समयसार २५ में आचार्य ने कहा है कि व्यवहार नय से आत्मा घट, पट, रथ आदि कार्यों को करता है, स्पर्शनादि पंचेन्द्रियों को करता है ज्ञानावरणादि द्रव्य कर्मों तथा क्रोधादि भावकर्मों को करता है।' व्यवहार नय से जीव ज्ञानावरणादि कर्मों, औदारिकादि शरीर एवं आहार पर्याप्तियों के योग्य पुद्गल रूप नोकर्मों और बाह्यपदार्थ घटपटादि का कर्ता है किन्तु अशुद्ध निश्चय नय से रागद्वेषादि भावकर्मों का कर्ता है। २६ पंचास्तिकाय की तात्पर्य वृत्ति २७ में भी कहा गया है कि अशुद्ध निश्चय नय की दृष्टि में शुभाशुभ परिणामों का परिणमन होना ही आत्मा का कर्तृत्व है। अतः व्यवहारनय या उपचार से ही आत्मा ज्ञानावरणादि कर्मों का कर्ता है। 'कर्मबन्ध का निमित्त होने के कारण उपचार से कहा जाता है कि जीव ने कर्म किये हैं,
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जैन विद्या के आयाम खण्ड-७
उदाहरणार्थ-सेना युद्ध करती है किन्तु उपचार से कहा जाता है कि आदि कर्म के विपाक को निमित्त पाकर जीव स्वयंमेव रागादि रूप राजा युद्ध करता है, उसी प्रकार आत्मा व्यवहार दृष्टि से ही परिणमन करता है। अत: 'जीव अपने भावों का कर्ता है पद्रल ज्ञानावरणादि कर्मों का कर्ता कहलाता है। २८ प्रवचनसार की टीका कर्मकृत सब भावों का नहीं३४' ज्ञानावरणादि कर्मों का कर्ता पद्गल में कहा गया है कि आत्मा अपने भावकर्मों का कर्ता होने के कारण है। इस प्रकार शुद्ध निश्चय की दृष्टि से वह परभाव का अकर्ता है उपचार से द्रव्य कर्म का कर्ता कहलाता है,२९ जिसप्रकार लोक पर अशुद्ध निश्चय की दृष्टि से वह अपने अशुद्धभाव का कर्ता है। रूढ़ि है कि कुम्भकार घड़े का कर्ता व भोक्ता होता है उसी प्रकार आत्म परिणामों के निमित्त से कर्मों को करने के कारण आत्मा रूढ़िवश आत्मा कर्मों का कर्ता व भोक्ता है।३° पर और आत्मद्रव्य व्यवहार नय से कर्ता कहलाता है३५। के एकत्वाध्यास से आत्मा कर्ता होता है।३१ जीव (आत्मा) और पुद्गल में निमित्त-नैमित्तिक सम्बन्ध है।
सांख्य-सम्मत अकर्तृत्ववाद का खण्डन : किसी भी क्रिया के सम्पादित होने में उपादान-उपादेय भारतीय दर्शनों में सांख्य ही एक ऐसा दर्शन है जो आत्मा एवं निमित्त-नैमित्तिक कारण मुख्य हैं। जो स्वयं कार्यरूप परिणमन को अकर्ता मानते हये भोक्ता मानता है। सांख्यवादियों का मत है कि करता है वह उपादान कहलाता है और जो कार्य होता है वह पुरुष अपरिणामी एवं नित्य है इसलिए वह कर्ता नहीं हो सकता; उपादेय कहलाता है, जैसे-मिट्टी घटाकार में परिणित होती है, पाप-पुण्य, शुभ-अशुभ कर्म प्रकृति के हैं इसलिये प्रकृति ही कर्ता अतः वह घट का उपादान है और घट उसका उपादेय है। यह है३६। अन्य दार्शनिकों की तरह जैन-दार्शनिकों ने भी सांख्यों के इस उपादान-उपादेय भाव सदा एक ही द्रव्य में बनता है क्योंकि एक सिद्धान्त की समीक्षा करते हुए कहा है कि यदि पुरुष अकर्ता है और द्रव्य अन्य द्रव्य रूप परिणमन त्रिकाल में भी नहीं कर सकता।३२' पुरुष प्रकृति द्वारा किये गये कर्मों का भोक्ता है तो ऐसे पुरुष की उपादान को कार्यरूप में परिणित करने वाला या परिणित करने में परिकल्पना ही व्यर्थ है३७। कुन्दकुन्दाचार्य कहते हैं 'यदि पुरुष को जो सहायक है, वह निमित्त कहलाता है, और उस निमित्त से अकर्ता माना जाय और समस्त कार्यों को करने वाली जड़ प्रकृति को उपादान में जो कार्य निष्पन्न हुआ है वह नैमित्तिक कहलाता है- माना जाय तो प्रकृति हिंसा करने वाली होगी तथा वही हिंसक जैसे कुम्भकार तथा उसके दण्ड, चक्र, चीवर आदि उपकरणों से कहलायेगी, जीव असंग व निर्लिप्त है इसलिए जीव हिंसक नहीं मिट्टी में घटाकार परिणमन हुआ तो यह सब निमित्त हुये व घट होगा, ऐसी स्थिति में वह हिंसा के फल का भागी भी नहीं होगा। जैन नैमित्तिक हुआ। यहां निमित्त व नैमित्तिक दोनों पुद्गल द्रव्य के दर्शन की मान्यता के अनुसार प्रत्येक जीव अपने परिणामों से दूसरे अन्दर निष्पन्न हैं और जीव के रागादिभावों का निमित्त पाकर की हिंसा करता है, फलतः वह जीव दूसरे की हिंसा के फल का कर्मवर्गणा रूप पुद्गल द्रव्य में परिणमन हुआ। जब उपादान उपादेयभाव भागी होता है।३७ इस प्रकार सांख्यमत में जड़ प्रकृति कर्ता हो की अपेक्षा विचार होता है तब चूँकि कर्मरूप परिणमन पुद्गल रूप जायेगी तथा सभी आत्मायें अकर्ता हो जायेंगी। जब आत्मा में उपादान में हुआ है, इसलिए इसका कर्ता पुद्गल ही है, जीव नहीं। कर्तृत्त्व नहीं रहेगा तब उसमें कर्मबन्ध का अभाव हो जायेगा। किन्तु जब निमित्त-नैमित्तिक भाव की अपेक्षा विचार होता है तब कर्मबन्ध का अभाव हो जाने से संसार का अभाव हो जायेगा, एवं जीव के रागादिक भावों का निमित्त पाकर पुद्गल में कर्मरूप संसार न होने से आत्मा को सदा मोक्ष होने का प्रसंग आ जायेगा परिणमन हुआ है, कुम्भकार के हस्तव्यापार का निमित्त पाकर घट जो प्रत्यक्ष विरुद्ध है। अत: सांख्य की तरह आचार्य कुन्दकुन्द का निर्माण हुआ है इसलिए इनके निमित्त क्रमश: रागादिक भाव आत्मा को सर्वथा अकर्ता नहीं मानते क्योंकि भेदज्ञान के पूर्व व कम्भकार हैं। इसी प्रकार द्रव्य कर्मों की उदयावस्था का निमित्त अज्ञानदशा में आत्मा रागादिभावों का कर्ता है और भेद ज्ञान के पाकर जीव में रागादिक परिणति हुई है इसलिए इस परिणति का अनन्तर वह एकमात्र ज्ञायक रह जाता है। . उपादान कारण जीव स्वयं है और निमित्त कारण द्रव्य कर्म की उदयावस्था है अर्थात् पुद्गल द्रव्य जीव के रागादिक परिणामों का बौद्धों के क्षणिकवाद का खण्डन:निमित्त पाकर कर्मभाव को प्राप्त होता है, इसी तरह जीव द्रव्य भी आत्मकर्तृत्ववाद के प्रसंग में कुन्दकुन्दाचार्य ने क्षणिकवाद पुद्गलकर्मों के विपाककाल रूप निमित्त को पाकर रागादिभाव रूप का खण्डन किया है। क्षणिकवादी बौद्धों के अनुसार 'यत्सत् क्षणिकम्' परिणमन करता है। ऐसा निमित्त-नैमित्तिक सम्बन्ध होने पर भी इस सिद्धान्त के अनुरूप जो वस्तु जिस क्षण में वर्तमान है, उसी क्षण जीव, द्रव्य कर्म में किसी गुण का उत्पादक नहीं होता अर्थात् उसकी सत्ता है, ऐसा मानने पर वस्तु के क्षणिक होने से, जो कर्ता पद्गल द्रव्य स्वयं ज्ञानावरणादि भाव को प्राप्त होता है। इसी तरह है वही भोक्ता नहीं होगा क्योंकि वह तो उसी क्षण विनष्ट हो गया। कर्म भी जीव में किन्ही गुणों का उत्पादक नहीं अपितु मोहनीय इस प्रकार अन्य ही कर्ता और अन्य ही भोक्ता सिद्ध होगा जो कि
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'समयसार' के अनुसार आत्मा का कर्तृत्व-अकर्तृत्व एवं भोक्तृत्व.....
प्रत्यक्ष विरुद्ध होने से मिथ्या है। कुंदकुंदाचार्य ने द्रव्य की पर्याय रूप आत्मा शुभ-अशुभ कर्मों का कर्ता एवं उन कर्मफलों का भोक्ता है। अवस्थाओं को 'क्षणिक किंवा अनित्य स्वीकार करके भी उन पर्यायों जिसप्रकार व्यावहारिक दृष्टि या व्यवहार नय से आत्मा पुद्गल कर्मों में सर्वदा विद्यमान रहने वाले गुण के कारण द्रव्य की नित्य सत्ता का कर्ता है उसी प्रकार वह पौद्गलिक कर्मजन्य फल सुख-दु:ख एवं स्वीकार की है। यदि ऐसा माना जाय तो पर्यायार्थिक दृष्टि से आत्मा बाह्यपदार्थों का भोक्ता है। आत्मा जब तक प्रकृति के निमित्त से में कर्तृत्व-भोक्तृत्व के समय अन्य पर्याय का कर्तृत्व एवं अन्य पर्याय विभिन्न पर्याय रूप उत्पाद एवं व्यय का परित्याग नहीं करता तबतक का भोक्तृत्व सम्भव है जैसे मनुष्य पर्याय में किये गये शुभकर्मों का वह मिथ्यादृष्टि व असंयमी रहकर सुख दुःख का उपभोग करता रहता फल देव पर्याय में होगा किन्तु द्रव्यार्थिक दृष्टि से देखा जाय तो है। अवधेय है कि जैनदर्शन में आत्मा के भोक्तृत्व को सांख्य की मोतियों की माला में अनुस्यूत सूत्र के समान समस्त पर्यायों में द्रव्य तरह उपचार से भोक्तृत्व नहीं कहा गया है। सांख्यवादी पुरुष को अनुस्यूत रहता है अत: वही नित्य द्रव्य कर्ता एवं भोक्ता है। उपचार से कर्मफलों का भोक्ता मानते हैं४३, आचार्य कुन्दकुन्द ऐसा
आत्मा के अकर्तृत्व का प्रतिपादन करते हुए आचार्य कुन्दकुन्द न मानकर आत्मा को व्यावहारिक स्तर पर वास्तविक रूप से भोक्ता ने कहा है कि निश्चय नय (शुद्ध निश्चय) से यह पारमार्थिक दृष्टि से मानते हैं।४। सांख्यों के उपचार से भोक्ता कहने का तात्पर्य यह है कि आत्मा को कर्ता मानना मिथ्या है, ऐसा मानने वाले अज्ञानी हैं३९। यद्यपि पुरुष भोक्ता नहीं है लेकिन बुद्धि में प्रतिबिम्बित सुख-दु:ख आत्मा किसी से उत्पन्न नहीं हुआ है इसलिए कार्य नहीं है और किसी की छाया पुरुष में पड़ने लगती है यही उसका भोग है। उनके अनुसार को उत्पन्न नहीं करता इसलिए कारण भी नहीं है। कर्म की अपेक्षा भोग क्रिया वस्तुतः बुद्धिगत है परन्तु बुद्धि के प्रतिसंवेदी पुरुष में कर्ता व कर्ता की अपेक्षा कर्म उत्पन्न होते हैं-ऐसा नियम है। कर्ता व भोग का उपचार होता है, जिसप्रकार स्फटिक मणि लालफूल के कर्म अन्य की अपेक्षा सिद्ध न होकर स्वद्रव्य की अपेक्षा से ही सिद्ध सान्निध्य के कारण लाल एवं पीले फूल के संसर्ग के कारण पीली होते हैं, अत: आत्मा-अकर्ता है४°। आत्मा जो स्वभाव से शुद्ध तथा दिखाई देती है एवं एवं फूल के हट-जाने पर अपने स्वच्छ स्वरूप देदीप्यमान चैतन्यस्वखेप ज्योति के द्वारा जिसने संसार के विस्तार में प्रतीत होने लगती है। उसी प्रकार चेतन पुरुष बुद्धि में प्रतिफलित रूप भवन को प्राप्त कर लिया है-अकर्ता है४१। अत: शुद्धनिश्चय नय होता है। जैनदार्शनिक सांख्य के उक्त मत से सहमत नहीं हैं। चूंकि की दृष्टि से आत्मा अकर्ता है। आत्मा में कर्तृकत्वपन पर और पुरुष अमूर्त है इसलिए एक तो उसका प्रतिबिम्ब नहीं हो सकता है, आत्मद्रव्य के एकत्वाध्यास से होता है। 'अज्ञानी जीव भेद संवेदन दूसरे पुरुष का प्रतिबिम्ब बुद्धि में पड़ने से पुरुष को यदि भोक्ता माना शक्ति के तिरोहित हो जाने के कारण आत्मा को कर्ता समझता है। वह जाय तो मुक्त पुरुष को भी भोक्ता मानना पड़ेगा क्योंकि उसका पर और आत्मा को एकरूप समझता है, इसी मिश्रित ज्ञान से आत्मा प्रतिबिम्ब भी बुद्धि में पड़ सकता है। यदि सांख्य भुक्त पुरुष को के अकर्तृत्व व एकस्वरूप विज्ञानघन से पथभ्रष्ट होकर आत्मा को भोक्ता न स्वीकार करे तो तात्पर्यत: पुरुष ने अपना भोक्तृत्व स्वभाव कर्ता समझता है। आत्मा तो अनादिघन निरन्तर समस्तरसों से भिन्न छोड़ दिया है और ऐसा मानने पर आत्मा परिणामी हो जायेगा। अत: अत्यंत मधुर एक चैतन्य रस से परिपूर्ण है। कषायों के साथ आत्मा आत्मा उपचार रूप से भोक्ता नहीं बल्कि वह भोक्तृत्व के अर्थ में का विकल्प अज्ञान से होता है, जिसे आत्मा व कषायों का भेदज्ञान भोक्ता है, समयसार के अनुसार जीव का कर्म एवं कर्मफलादि के हो जाता है, वह ज्ञानी आत्मा सम्पूर्ण कर्तभाव को त्याग देता है, वह साथ निमित्त-नैमित्तिक रूपेण सम्बन्ध ही कर्ताकर्मभाव अथवा भोक्ता नित्य उदासीन अवस्था को धारण कर केवल ज्ञायक रूप में स्थित भोग्य व्यवहार है।४५ रहता है और इसी से निर्विकल्पक अकृत, एक, विज्ञानघन होता आत्मा के अभोक्तृत्व की व्याख्या करते हुए समयसार में हुआ अत्यन्त अकर्त्ताप्रतिभासता है४२।' अज्ञानान्धकार से युक्त जो आचार्य ने कहा है कि प्रकृति के स्वभाव में स्थित होकर ही कर्मफल
आत्मा को कर्ता मानते हैं, वे मोक्ष के इच्छुक होते हुए भी मोक्ष को का भोक्ता है इसके विपरीत ज्ञानी जीव उदीयमान कर्मफल का ज्ञाता प्राप्त नहीं होते। अत: निश्चयनय या पारमार्थिक दृष्टि से कुन्दकुन्द होता है भोक्ता नहीं ६। वह अनेक प्रकार के मधुर, कटु, शुभाशुभ आत्मा में कर्तृत्व नहीं मानते, वह तो आस, अरूप, अगंध सब कर्मों के फल का ज्ञाता होते हुए भी अभोक्ता कहलाता है। जिस प्रकार प्रकार के लिंग आवृत्ति से रहित, अशब्द, अशरीरी, ज्ञायक स्वभाव नेत्र विभिन्न पदार्थों को देखता मात्र है, उनका कर्ता भोक्ता नहीं होता एवं शुद्ध है।
उसी प्रकार आत्मा बंध तथा मोक्ष को कर्मोदय एवं निर्जरा को जानता
मात्र है, उनका कर्ता भोक्ता नहीं होता। पुद्गल जन्य कर्मों का भोक्ता आत्मा का भोक्तृत्व-अभोक्तृत्व :
होते हये भी ज्ञानी आत्मा उसी प्रकार कर्मों या तज्जन्य फलों से नहीं ___ आचार्य कुन्दकुन्द के अनुसार व्यवहार नय की अपेक्षा से बंधता है जिस प्रकार वैद्य विष का उपभोग करता हुआ भी मरण को
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हारा
जैन विद्या के आयाम खण्ड-७ प्राप्त नहीं होता।
सुषमा गांग, प्रस्तावना, पृ० ३१, भारतीय विद्या प्रकाशन इस प्रकार हम देखते हैं कि समयसार में आचार्य कुन्दकुन्द दिल्ली, वाराणसी-१९८२ ने अशुद्ध निश्चय एवं व्यवहारनय की दृष्टि से आत्मा को कर्ता-भोक्ता २. समयसार-पं० पन्नालाल द्वारा सम्पादित-प्रस्तावना, पृ० एवं शुद्धनिश्चय नय की दृष्टि से अकर्ता व अभोक्ता कहा है। कन्दकन्दाचार्य १७, गणेशप्रसाद वर्णी ग्रन्थमाला, वाराणसी-वी०नि०सं०का मुख्य प्रयोजन संसारी जीवों के सम्मुख आत्मा के शुद्धस्वरूप को २५०१ इस प्रकार प्रस्तुत करना था जिसके द्वारा जीव अनन्तगुणात्मक ३. समयसार, 'तात्पर्यवृत्ति', पृ० ५। विशुद्ध आत्मा के स्वरूप को जान सके। इसीलिए उन्होंने आत्मस्वरूप ४. रयणसार-कुन्दकुन्दाचार्य, सं० देवेन्द्रकुमार शास्त्री, गाथा को समझाने के लिए निश्चय एवं व्यवहार दोनों नयों का सहारा १५३, पृ० १९४ लिया। जहाँ कन्दकन्दाचार्य ने 'व्यवहार नय के माध्यम से. आत्मा की ५. आचारांग, १/१/१/४ संसारी अवस्था का निरूपण किया है वहीं निश्चयनय के माध्यम से ६. प्रवचनसार, सं०, ए० एन० उपाध्ये, श्रीमद् राजचन्द्र जैन आत्मद्रव्य को पूर्णत: विशुद्ध तथा समस्त पर पदार्थों से पूर्णत: शास्त्रमाला, अगास १९६४, २/५५, पृ० १८९ असम्बद्ध निर्दिष्ट किया है। शुद्धावस्था में आत्मा स्वचतुष्टय में लीन ७. सर्वार्थसिद्धि, सं० जगरूप सहाय, भारतीय जैन सिद्धान्त किसी कार्य का कर्ता-भोक्ता न होकर ज्ञाता-द्रष्टा मात्र होता है। प्रकाशिनी संस्था, कलकत्ता वि०स० १९८५, ५/१९, व्यवहार नय के माध्यम से कुन्दकुन्दाचार्य का उद्देश्य यह दर्शाना है पृ० १६६ कि यद्यपि संसारी४९ आत्मा की अशुद्धावस्था जिसमें वह समस्त ८. समयसार, गाथा २९७ कर्मों का कर्ता-भोक्ता है, एक वास्तविकता है लेकिन यह आत्मा के ९. वही, गाथा ११ वास्तविक स्वरूप के प्रतिकूल है, क्योंकि यह आगन्तुक है इसीलिए १०. वही, गा० १५६ हेय भी है। परन्तु उस विशुद्धावस्था को प्राप्त करने के लिए आत्मा ११. वही, गा० २९ की अशुद्धावस्था का ज्ञान उतना ही आवश्यक है जितना शुद्धावस्था १२. वही, गा० ११. का। उन्होंने निश्चय-नय द्वारा आत्मा की शुद्धावस्था को उपादेय १३. वही, गा० ११ बताया है। पद्मप्रभ ने नय विवक्षा से आत्मा के कर्तृत्व-भोक्तृत्व भाव १४. वही, गा० १४-१५ को स्पष्ट करते हुये कहा है कि 'निकटवर्ती अनुपचरित असद्भूत १५. ण वि होदि अपमत्तो पा मत्तो जाणओ दु जो भावो। व्यवहार नय की अपेक्षा आत्मा द्रव्य कर्म का कर्ता व तज्जन्यफलोपभोक्ता एवं भणंति शुद्धं णाओ जो सो उ सो चेवा। वही, गाथा ६ है। विशुद्ध निश्चय की अपेक्षा समस्त मोह, राग-द्वेषरूप भावकर्मों का १६. वही, गाथा ५०-५५, नियमसार, ३/३८-४६, ५/७८ कर्ता है तथा उन्हीं का भोक्ता है। उपचरित असद्भूत व्यवहार नय से एवं ८० वह घटपटादि का कर्ता व भोक्ता है। निश्चय नय की दृष्टि से वह १७.. नियमसार, सं०, आर्यिका ज्ञानमती जी, प्रकाशक दि० कर्ता-कर्म से परे एक मात्र ज्ञायक भाव एवं एक टोत्कीर्ण है। एवं जैन त्रिलोक शोध संस्थान, हस्तिनापुर, १९८५, गाथाशुद्ध है वे आचार्यशंकर की तरह आता की अशुद्धावस्था को मिथ्या ३/४४-४८ न मानते हुये आत्मा की संसारी अवस्था को एक वास्तविकता के १८. परमात्मप्रकाश, सं० ए०एन० उपाध्ये, श्रीमद् राजचन्द्र रूप में स्वीकार करने से इन्कार नहीं करते। वे आत्मा के ज्ञाता आश्रम, अगास, १९६०, गाथा ९१ द्रष्टापक्ष पर बल देते समय सांख्य के निकट व शुद्ध निश्चय नय पर १९. .. समयसार, गाथा ७८ बल देते समय वेदान्त के निकट खड़े दिखाई देते हैं। आचार्य २०. नियमसार, गाथा १२/१ १७७-७८ कुन्दकुन्द की व्यापक दृष्टि जैनदर्शन की परिधि में रहकर भी जैनेतर २१. पंचास्तिकाय, सं० पं० मनोहरलाल, प्रका०, श्री परमश्रुत दर्शनों की परिधि को छू लेती है जो इस बात की सूचक है कि 'एक प्रभावक मंडल, श्रीमद् राजचंद्र आश्रम, आगस वि.स. सत् विप्राबहुधावदन्ति' एवं जिज्ञासु केवलमयं विदुषां विवादः' की २०२५, गाथा १६; १०९, १२४ घोषणाएं सत्य हैं।
समयसार, गाथा, ५६-६७ मङ्गलम् भगवान् वीरो मङ्गलम् गौतमो गणी।
पंचास्तिकाय-२७ मङ्गलम् कुन्दकुन्दार्य: जैन धर्मोऽस्तु मङ्गलम्।।
समयसार, आत्मख्याति टीका, गाथा ८६, कलश-५१ कुन्दकुन्दाचार्य की प्रमुख कृतियों में दार्शनिक दृष्टि: डॉ० २५. समयसार-गाथा ९६
२४.
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'समयसार' के अनुसार आत्मा का कर्तृत्व-अकर्तृत्व एवं भोक्तृत्व.....
३९
२६. द्रव्य संग्रह-टीका, नेमिचन्द्र, सं० दरबारीलाल कोठिया, ४०. समयसा, गाथा- ३०८-३१०
श्री गणेश प्रसाद वर्णी जैन ग्रन्थमाला-१६ वाराणसी, ४१. वही, १९४ गाथा १९६६ पृ०८
एदेणदुसो कत्ता आदा णिच्छयबिइहिं परिकहदो। एवं खलु पंचास्तिकाय,
जो जाणदि सो मुंचदि सव्वकत्तित्तं।। समयसार, गाथा- ९७ समयसार, १०५-८१
४३. एतेन विशेषणाद-उपचरित वृत्या भोक्तारं चात्मानं मन्यमाना प्रवचनसार-तत्त्वदीपिका टीका, २९
सांख्या-९७ नाम् निरास:। षड्दर्शनसमुच्चय- सं०, डॉ० समयसार, आत्मख्याति टीका गाथा ८४
महेन्द्रकुमार, जैन न्यायाचार्य, प्रका० भारतीय ज्ञानपीठ समयसार, गाथा ९७
प्रकाशन, वाराणसी, १९७०, कारिका-४९ ३२. नो भौ परिणमतः खलु परिणामो नोभयोः प्रजायेत, वही, ४४. पंचास्तिकाय, गाथा- ६८, पुरुषार्थ सिद्धयुपाय, प्रकाशक८६
श्री परमश्रुत प्रभावक मंडल, श्रीमद् राजचंद्र आश्रम, अगास, ३३. पंचास्तिकाय, गाथा ६१; प्रवचनसार, ६२, समयसार, १९७७, गाथा-१० १२६
४५.
समयसार, गाथा- ३४५-३४८ ३४. पंचास्तिकाय, गाथा-२७
भोक्तृत्वं न स्वभावोऽस्य स्मृत: कर्तुत्व वच्चितः। अज्ञानादेव ३५.
सांख्यकारिका-११, १९, २०, ५७, २६, ४७, ४९, भोक्तायं तदभावाद्वेदक:। समयसार, गाथा- ९६ सं० रमाशंकर त्रिपाठी, प्रकाशक, बालकृष्ण त्रिपाठी, भदैनी, ४७. समयसार, गाथा- ३१४-२० वाराणसी १९७०.
४८. वही, १९५ ३६. श्रावकाचार-(अमितगति) गाथा-४/३५.
निश्चय नय की दृष्टि से आत्मा के दो ही भेद हैं- मुक्त एवं ३७. समयसार, गाथो ३३८-३९.
संसारी- इन दोनों भेदों में ही भव्य, अभव्य, अशुभोपयोगी, समयसार, गाथा-३४५-३४८
शुद्धोपयोगी सबका समावेश हो जाता है, मोक्षपाहड ५ में ३९. अकर्ता जीवोऽय स्थित इति विशुद्ध स्वरसत: समयसार- आचार्य ने बहिरात्मा, अन्तरात्मा एवं परमात्मा तीन भेद गाथा- ३११
किए हैं।
४९.
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भगवान् महावीर : समताधर्म के प्ररूपक
पं० दलसुख मालवणिया
श्रमण-संस्कृति की ही यह विशेषता है कि उसमें प्राकृतिक परिस्थिति : आधिदैविक देवों या नित्यमुक्त ईश्वर का पूज्यस्थान नहीं है। एक भगवान् महावीर को जिस परिस्थिति का सामना करना सामान्य मनुष्य ही अपना चरम विकास करके आम जनता के लिए पड़ा, उसका संक्षिप्त कथन आवश्यक है। धार्मिक अनुष्ठान ब्राह्मणों ही नहीं किन्तु यदि किसी देव का अस्तित्व हो तो उसके लिए भी के हाथों में थे। मनुष्य और देवों का सीधा सम्बन्ध हो नहीं सकता पूज्य बन जाता है। इसीलिए इन्द्रादि देवों का स्थान श्रमण-संस्कृति था, जब तक पुरोहित मदद में न आये। एक सहायक के तौर पर यदि में पूजक का है, पूज्य का नही। भारतवर्ष में राम और कृष्ण जैसे वे आते तो उसमें आपत्ति की कोई बात न थी, किन्तु अपने निहित मनुष्य की पूजा ब्राह्मण संस्कृति में होने तो लगी, किन्तु उन्होंने उन्हें स्वार्थों की रक्षा के लिए प्रत्येक धार्मिक अनुष्ठान में उनकी मध्यस्थता केवल मनुष्य, शुद्ध मनुष्य न रहने दिया। उन्हें मुक्त ईश्वर के साथ अनिवार्य कर दी गई थी। अतएव एक ओर धार्मिक अनुष्ठानों में जोड़ दिया, ईश्वर का अवतार मान लिया। किन्तु श्रमण-संस्कृति के अत्यन्त जटिलता कर दी गई थी कि जिससे उनके बिना काम ही न बुद्ध और महावीर पूर्ण पुरुष या केवल मनुष्य ही रहे। उनको चले और दूसरी ओर अपने स्वार्थ की सिद्धि के लिए अनुष्ठान नित्यबद्ध नित्यमुक्तरूप ईश्वर कभी नहीं कहा गया।
विपुल सामग्री से सम्पन्न होने वाले बना दिये गये थे जिससे उनकी
काफी अर्थप्राप्ति भी हो जाय। ये अनुष्ठान ब्राह्मणों के सिवाय और अवतारवाद का निषेध :
कोई करा न सकता था। अतएव उन लोगों में जात्यभिमान की मात्रा ___ एक सामान्य मनुष्य ही जब अपने कर्मानुसार अवतार लेता भी बढ़ गई थी। मनुष्यजाति की समानता और एकता के स्थान पर है तब
ऊँच-नीच-भावना के आधार पर जातिबद का भूत खड़ा कर दिया यदा यदा हि धर्मस्य ग्लानिर्भवति भारत।
गया था और समाज के एक अंग अर्थात् शूद्र को धार्मिक आदि सभी अभ्युत्थनमधर्मस्य तदात्मानं सृजाम्यहम्।।
लाभों से वंचित कर दिया गया था। जैसे सिद्धान्त को अवकाश नहीं रह जाता। संसार कभी उच्च जाति ने अपने गौर वर्ण की रक्षा के लिए स्त्रियों की स्वर्ग हुआ नहीं और होगा भी नहीं। इसमें तो सदाकाल धर्मोद्धारक स्वतन्त्रता छीन ली थी, उनकों धार्मिको अनुष्ठान की स्वतन्त्रता न की आवश्यकता है। सुधारक के लिए, क्रांति के ध्वजाधारी के लिये, थी। अपने पति की सहचारिणी के रूप में ही धार्मिक क्षेत्र में उनको इस संसार में हमेशा अवकाश है। समकालीन समाज को उस सुधरक स्थान था। गणराज्यों के स्थान पर व्यक्तिगत स्वार्थों ने आगे आकर या क्रान्तिकारी की उतनी पहचान नहीं होती जितनी आनेवाली पीढ़ी वैयक्तिक राज्य जमाने शुरू किये थे और इस कारण राज्यों में परस्पर को। जब तक वह जीवित रहता है उसके भी काफी विरोधी रहते हैं। शंका का वतावरण फैला था। कालबल ही उन्हें भगवान बुद्ध या तीर्थंकर बनाता है। मतलब यह कि
धर्म या धार्मिक अनुष्ठानों का अर्थ इतना ही था कि इस प्रत्येक महापुरुष को अपनी समकालीन परिस्थितियों की बुराइयों से संसार में जितना और जैसा सुख है उससे अधिक इस जन्म में तथा लड़ना पड़ता है, क्रान्ति करनी पड़ती है।
मृत्यु के बाद मिले। धार्मिक साधनों में मुख्य यज्ञ था, जिसमें वेदमन्त्र श्रमणसंस्कृति का मन्तव्य है कि जो भी त्याग और तपस्या के पाठ के द्वारा अत्यधिक हिंसा होती थी। इसकी भाषा संस्कृत होने के मार्ग पर चलकर अपने आत्म-विकास की परकाष्ठा पर पहुँचता के कारण लोकभाषा प्राकृत का अनादर हुआ। वेदमन्त्रों में ऋषियों ने है, वह पूर्ण बनता है। भगवान् महावीर और बुद्ध के समकालीन नाना प्रकार के देवताओं की स्तुति की है, प्रार्थना की है और अपनी अनेक पूर्ण पुरुष हुए हैं, किन्तु आज उनकी कोई प्रसिद्धि नहीं आशा-निराशा व्यक्त की हैं। इन्हीं मन्त्रों के आधार पर यज्ञों की सष्टि जितनी उन दोनों महापुरुषों की है कारण यही है कि दूसरों ने अपनी हुई है। अतएव मोक्ष या निर्वाण की, आत्यन्तिक सुख की, पुनर्जन्म पूर्णता में ही कृत कृत्यता का अनुभव किया और उनको समकालीन के चक्र को काटने की बात को उसमें अवकाश नहीं। धर्म, अर्थ और समाज और राष्ट्र के उत्थान में उतनी सफलता न मिली, जितनी इन काम, इन तीन पुरुषार्थों की सिद्धि के आसपास ही धार्मिक अनुष्ठानों दो महापुरुषों को मिली। स्वयं वे और उनके शिष्यों ने चारों ओर की सष्टि थी। पादविहार करके जनता को स्वतन्त्रता का सन्देश सुनाया और आन्तर इस परिस्थति का सामना भगवान् महावीर से भी पहले और बाह्य बन्धनों से अनेकों को मुक्त किया।
शुरू हो गया था, जिसका आभास हमें आरण्यों और प्राचीन उपनिषदों
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भगवान् महावीर : समताधर्म के प्ररूपक
४१ से मिलता है। किन्तु भगवान् महावीर और बुद्ध ने जो क्रान्ति की की इस साधना के लिए यह आवश्यक है कि अपनी प्रवृत्ति संकुचित
और उसमें जो सफलता पाई वह अद्भुत है। इसीलिए इन दोनों की जाय, क्योंकि मनुष्य चाहे. तब भी सभी जीवों के सुख के लिए महापुरुषों का नाम आज तक लाखों लोगों की जुबान पर है। ' चेष्टा अकेला नहीं कर सकता। अपने आस-पास के जीवों को भी वह
संक्षिप्त चरित्र : महावीर का जन्म क्षत्रियकुंडपुर में (वर्तमान बड़ी मुश्किल से सुखी बना सकता है। तब संसार के सभी जीवों के बसाड़) जो पटना से कुछ ही मील दूर है, हुआ था। उनके पिता का सुख की जिम्मेदारी कोई अकेला कैसे ले सकता है? किन्तु इसका नाम सिद्धार्थ और माता का नाम त्रिशला था। उनके पिता ज्ञातृवंश के मतलब यह नहीं है कि उसे कुछ न करना चाहिए। उसे अपनी मैत्रीक्षत्रिय थे और वे काफी प्रभावशाली रहे होंगे, क्योंकि उनकी पत्नी भावना का विस्तार करना चाहिए तथा अपने शारीरिक व्यवहार को, त्रिशला वैशाली के अधिपति चेटक की बहन थी। इसी सम्बन्ध के अपनी आवश्यकताओं को इतना कम करना चाहिए कि उससे दूसरों कारण तत्कालीन मगध, वत्स, अवन्ती आदि के राजाओं के साथ भी को जरा भी कष्ट न हो। वही व्यवहार किया जाय, उसी प्रवृत्ति और उनका सम्बन्ध होना स्वाभाविक है, क्योंकि चेटक की पुत्रियों के उसी चीज को स्वीकार किया जाय, जो अनिवार्य हो। अपनी प्रवृत्ति विवाह इन सब राजाओं के साथ हुए थे। चेटक की एक पुत्री का को, अनिवार्य प्रवृत्ति को भी अप्रमाद पूर्वक किया जाय। यही संयम विवाह भगवान् महावीर के बड़े भाई के साथ हुआ था। संभव है है और यही निवृत्ति-मार्ग है। भगवान् को अपने धर्म के प्रचार में इस सम्बन्ध के कारण भी कुछ इस संयम-मार्ग का अवलंबन भगवान् महावीर ने अप्रमत्त अनुकूलता हुई हो।
भाव से किया। आत्मा को शुद्ध करने के लिए विज्ञान, सुख और माता-पिता ने उनका नाम वर्धमान रखा था, क्योंकि उनके शक्ति से परिपूर्ण करने के लिए और दोषावरणों को हटाने के लिए जन्म से उनकी सुख-सम्पत्ति में वृद्धि हुई थी। किन्तु इसी सम्पत्ति की उन्होंने जो पराक्रम किया उसकी गाथा आचारांग के अतिप्राचीन नि:सारता से प्रेरित होकर उन्होंने त्याग और तपस्या का जीवन अंश-प्रथम श्रुतस्कंध में ग्रथित है उससे एक दीर्घ तपस्वी की साधना स्वीकार किया। उनकी घोर अत्युत्कट साधना के कारण उनका नाम का साक्षात्कार होता है उस चरित्र में ऐसी कोई दिव्य बात नहीं, ऐसा महावीर हो गया और उसी नाम से वे प्रसिद्ध हुए। वर्धमान नाम को कोई चमत्कार वर्णित नहीं है जो अप्रतीतिकर हो या अंशतः भी लोग भूल तक गये।
असत्य या असंभव मालूम हो। वहाँ उनका शुद्ध मानवीय चरित्र भगवान महावीर के माता-पिता भ० पार्श्वनाथ के अनुयायी वर्णित है, वह अपूर्णता से पूर्णता की ओर प्रस्थित एक अप्रमत्त थे। अतएव बाल्यकाल से ही उनका संसर्ग त्यागी-महात्माओं से संयमी का चरित्र है। उस चरित्र का और जैन धर्म के आचरण के हआ, यही कारण है कि उनको सांसारिक वैभवों की अनित्यता और विधि-निषेधों का मिलान करने से यह स्पष्ट हो जाता है कि भगवान् निस्सारता का ज्ञान हुआ। संसार की अनित्यता और अशरणता के ने जिस प्रकार की साधना खुद की है उसी मार्ग पर दूसरों को ले जाने अनुभव ने ही उनको भी त्याग और वैराग्य की ओर झुकाया। उन्होंने के लिये उनका उपदेश रहा है। जिसका उन्होंने अपने जीवन में और सुख, वैभव के भोग में नहीं, त्याग में देखा। ३० वर्ष की पालन नहीं किया ऐसी कोई कठिन तपस्या या ऐसा कोई आचार युवावस्था में सब कुछ छोड़ कर त्यागी बन गये। ३० वर्ष तक भी नियम दूसरों के लिए उन्होंने नहीं बताया। जो उन्होंने गृहवास स्वीकार किया, उसका कारण भी अपने-माता- गृहत्याग के बाद वे निर्वस्त्र ही रहे। अतएव कठोर शीत, पिता और बड़े भाई की इच्छा का अनुसरण था। संसार में रहते हुए गरमी, डांस-मच्छर और नाना क्षुद्र-जन्तु-जन्य परिताप को उन्होंने भी उनका मन सांसारिक पदार्थों में लिप्त नहीं था, अंतिम एक वर्ष समभावपूर्वक सहा। किसी घर को अपना घर नहीं बनाया। श्मशान में तो उन्होंने अपना सब कुछ दीन-हीन जनों को दे दिया था और और अरण्य, खण्डहर और वृक्षछाया- ये ही इनके आश्रयस्थान थे। अकिंचन होकर घर छोड़कर निकल गये थे।
नग्न होने के कारण भगवान् को चपल बालकों ने अपने खेल का
साधन बनाया, उन पर पत्थर-कंकड़ फेंके। वे रात को निद्रा का संयम और साधना :
त्यागकर बराबर ध्यानस्थ रहे। निद्रा से सताये जाने पर थोड़ा चंक्रमण भगवान् महावीर की तपस्या संयममूलक थी। महावीर के किया। कभी-कभी चौकीदारों ने उन्हें काफी तकलीफें दी। गरम पानी पूर्व भ० पार्श्वनाथ ने पंचाग्नि तप, वृक्ष पर लटकना, लोहे के काटों और भिक्षाचर्या से जैसा मिल गया अपना काम चला लिया। किन्तु पर सोना आदि तापसी तपस्या के स्थान पर अहिंसा, सत्य, अचौर्य, कभी भी अपने निमित्त बना अन्न-पान स्वीकार नहीं किया। बारह वर्ष अपरिग्रह आदि पर जोर दिया था। उसी परम्परा का विकास महावीर की कठोर तपश्चर्या में, परम्परा कहती है कि, उन्होंने सब मिलाकर ने किया। उनकी प्रतिज्ञा थी कि 'किसी प्राणी को पीड़ा न देना। सर्व ३५० से अधिक दिन आहार नहीं किया। मान-अपमान को उस सत्त्वों से मैत्री रखना। जीवन में जितनी भी बाधाएँ उपस्थित हों उन्हें जितेन्द्रिय महापुरुष ने समभाव से सहा। उन्हें साधक जीवन में कभी बिना किसी दूसरे की सहायता के समभावपूर्वक सहन करना।' संयम औषध के प्रयोग की आवश्यकता ही प्रतीत उन्हीं हुई, इतने वे
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जैन विद्या के आयाम खण्ड-७
संयमी और मात्राज्ञ थे। अनार्य देश में उन्होंने विहार किया तब वहाँ अपेक्षा से दिया जाय। यही कल्याणकारी धर्म है। लोगों को शान्ति के अज्ञानी जीवों ने उन पर कुत्ते छोड़े किन्तु वे दुःखों की कुछ भी और सुख, विज्ञान और शक्ति इसी धर्म पर चल कर मिल सकती है। परवाह न करके अपने ध्यान में अटल रहे।
हिंसा और धर्म यह तो विरोध है- इसका ज्ञान लोगों को कराना ही इस प्रकार कषायों पर विजय पाने के लिये, दोषों को उनके उपदेश का सार है। निर्मल करने के लिये साढ़े बारह वर्ष तपस्या, द्वारा उन्होंने ४२ वर्ष की उम्र में वीतरागता पाई और 'जिन' हुए, तत्व का साक्षात्कार जैनसंघ : किया और 'केवली' हए तथा हित का उपदेश देकर 'तीर्थकर' बने। उनके उपदेश को सुनकर वीरांगक, वीरयश, संजय, एणेयक,
सेय, शिव, उदयन और शंख इन आठ समकालीन राजाओं ने उपदेश:
प्रव्रज्या अंगीकार की थी। अभयकुमार, मेघकुमार आदि अनेक राजकुमारों तीर्थंकर होने के बाद सर्वप्रथम उन्होंने ब्राह्मण पंडितों को ने भी घर-बार छोड़ कर व्रतों को अंगीकार किया था। स्कंधक प्रमुख अपना शिष्य बनाया। वेद के लौकिक अर्थ में तथा उसके स्वाध्याय अनेक तापस तपस्या का रहस्य जानकर भगवान् के शिष्य बने थे। में ये निपुण थे। किन्तु उसका आध्यात्मिक अर्थ जब भगवान् महावीर अनेक स्त्रियां भी संसार की असारता समझकर उनके श्रमणी-संघ में ने बताया तो उनको पारमार्थिक धर्म का स्वरूप ज्ञात हो गया। यज्ञ शामिल हो गई थीं। उनमें अनेक तो राजपत्रियां भी थीं। उनके गृहस्थ क्या है, यज्ञकुण्ड क्या है, समिध किसे कहते हैं, आहूति किसकी दी अनुयायियों में मगधराज श्रेणिक और कुणिक, वैशालीपति चेटक, जाय, स्नान कैसे किया जाय, इन बातों का अभूतपूर्व स्पष्टीकरण अवन्तीपति चण्डप्रद्योत आदि मुख्य थे। आनन्द आदि वैश्य श्रमोपासकों जब भगवान् ने किया, वेद में आपाततः दिखने वाले कुछ विरोधों के अलावा शकडाल-पुत्र जैसे कुंभकार भी उपासक-संघ में शामिल को तथा उसमें होने वाली शंकाओं को भगवान् ने जब दूर किया, थे। अर्जुनमाली जैसे दुष्ट हत्यारे भी उनके पास वैरत्याग करके तब वेद-निष्णात इन ब्राह्मणों ने भगवान् में एक नई प्रतिभा और शान्तिरस का पान कर, क्षमा को धारण कर दीक्षित हुए थे। शूद्रों प्रज्ञा का दर्शन किया । वेद को जैन-धर्म में एकान्त मिथ्या नहीं कहा और अतिशूद्रों को भी उनके संघ में स्थान था । गया, किन्तु सम्यग्दृष्टी अर्थात् जैन-धर्म के रहस्य का जिसने पान उनका संघ राढ़ देश, मगध, विदेह, काशी, कोसल, किया है, और जो उसमें तन्मय हो गया है उसके लिए वह सम्यक् शूरसेन, वस्स, अवन्ती आदि देशों में फैला हुआ था। उनके श्रति ही है। वेद-वेदांग उन मोघ पुरूषों के लिए मिथ्या सिद्ध होता विहार के मुख्य क्षेत्र मगध, विदेह, काशी, कोसल, राढदेश और है जिन्होंने धर्म का यथार्थ स्वरूप नहीं पहचाना है।
वत्स देश थे। जिन ब्राह्मणों को अपनी जाति का, अपनी संस्कृत भाषा का, तीर्थंकर होने के बाद ३० वर्ष पर्यन्त सतत विहार करके अपनी विद्वता का अभिमान था उनका वह अभिमान भगवान् के सामने लोगों को आदि में कल्याण, मध्य में कल्याण और अन्त में कल्याण खण्डित हो गया। वे भगवान् के समभाव के सन्देश का लोकभाषा प्राकृत ऐसे अहिंसक धर्म का उपदेश कर ७२ वर्ष की आयु में मोक्षलाभ में प्रचार करने लगे। जिन शूद्रों को धार्मिक अधिकारों से वे पहले वंचित किया। लोगों ने दीपक जलाकर निर्वाणोत्सव मनाया। तब से दिवाली समझते थे उनको भी दीक्षा देकर श्रमण-संघ में स्थान देकर गुरुपद का पर्व प्रारंभ हुआ है ऐसी परम्परा है। अधिकारी बनाया। इतना ही नहीं, हरिकेशी जैसे चाण्डाल मुनि को। इतनी उन्नत भूमिका पर पहुँचाया कि वह ब्राह्मणों का गुरु हो गया,एक चरित्र की विशेषता : समय की बात है कि वह चाण्डाल मुनि यज्ञवाटिका में भिक्षा के लिए भगवान् महावीर के चरित्र की विशेषता अतिशयों में नहीं चला गया, तिरस्कार और अपमान, डण्डों की मार और दुत्कार को थी। जन्म के समय देवलोक से देव-देवियों ने आकर उनका जन्मसमभाव पूर्वक सहन करके भी उसने जब उन यज्ञ करनेवाले ब्राह्मणों को महोत्सव किया, जन्माभिषेक के समय शिशु महावीर ने मेरुकम्पन अहिंसक यज्ञ का रहस्य बतलाया तब उन ब्राह्मणों ने चाण्डाल मुनि से किया, साधना के समय अनेक इन्द्रादि देवों ने उनकी सेवा करने की क्षमा मांगी और उसकी तपस्या की प्रशंसा की और जातिवाद का इच्छा व्यक्त की, उनके समवसरण में देव-देवियों का आगमन हुआ, तिरस्कार करके उसके अनुयायी बन गये।
उनके शरीर में सफेद रक्त था, उनके दाढ़ी-मूंछ न होती थी। ये सब ___भगवान् महावीर ने तीर्थंकर होकर भी अपना अनियत वास तो अतिशय की बातें हैं। ये बातें तो उनके मानवीय चरित्र को कायम रखा । वे और उनके शिष्य भारत में चारों ओर पाद-विहार अलौकिक रूप देने के लिए या भारत के अन्य कृष्णादि महापुरुषों के करके अहिंसा के सन्देश को फैलाने लगे। उनका आदेश था कि पौराणिक चरित्र की प्रतिस्पर्धा में आचार्यों ने उनके चरित्र में रच दी लोगों को शांति, वैराग्य, उपशम, निर्वाण, शौच, ऋजुता, निरभिमानता, हैं। एक सामान्य मानव से एक महापरुष में उनका ऐसा परिवर्तन अपरिग्रह और अहिंसा का उपदेश, द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव की जिन विशेषताओं से हुआ उन में ही उनकी महत्ता है।
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भगवान् महावीर : समताधर्म के प्ररूपक तत्कालीन धार्मिक समाज में छोटे-मोटे अनेक धर्म-प्रवर्तक थे। किन्तु भगवान् बुद्ध और महावीर का प्रभाव अभूतपूर्व था। उन दोनों सच्चा यज्ञ: के श्रमण-संघों ने ब्राह्मण-धर्म में से हिंसा का नाम मिटा देने का अत्युग्र सच्चे यज्ञ का स्वरूप भगवान् ने यों बताया है - प्रयत्न किया। परिणाम यह है कि कालिका या दुर्गा के नाम पर चढ़ाई जीवहिंसा का त्याग, चोरी, झूठ और असंयम का त्याग, जाने वाली बलि को छोड़कर धर्म के नाम पर हिंसा का निर्मूलन ही हो स्त्री, मान और माया का त्याग, इस जीवन की आकांक्षा का त्याग, गया। पशु-वध के बिना जिन यज्ञों की पूर्णाहुति हो नहीं सकती थी ऐसे शरीर के ममत्व का भी त्याग-इस प्रकार सभी बुराइयों को जो त्याग यज्ञ भारतवर्ष से नामशेष हो गये। पुष्यमित्र जैसे कट्टर हिन्दू राजाओं ने देता है वही महात्यागी है। यज्ञ में सभी जीव का भक्षण करनेवाली उन नामशेष यज्ञों को पुनरुज्जीवित करने का प्रयत्न किया, किन्तु यह अग्नि का कोई प्रयोजन नहीं, किन्तु तपस्यारूपी अग्नि को जलाओ। तो श्रमण-संघों के अप्रतिहत प्रभाव, उनके त्याग और तपस्या का फल पृथ्वी को खोदकर कुण्ड बनाने की कोई आवश्यकता नहीं, जीवात्मा है कि वे हिंसक यज्ञ दीर्घकाल तक जीवित न रह सके।
ही अग्निकुण्ड है। लकड़ी से बनी कुण्ड की कोई जरूरत नहीं- मन,
वचन, काय की प्रवृत्ति ही उसका काम देगी। ईंधन जलाकर क्या कर्मवाद:
होगा? अपने कर्मों को, अपने पापकर्मों को ही जला दो। यही यज्ञ है __ भगवान् महावीर ने तो मनुष्य के भाग्य को ईश्वर और देवों जो संयमरूप है, शान्तिदाता है, सुखदायी है और ऋषियों ने भी के हाथ से निकाल कर स्वयं मनुष्य के ही हाथ में रखा है। किसी देव इसकी प्रशंसा की है। की पूजा या भक्ति से या खून से तृप्त करके यदि कोई चाहे कि सुख की प्राप्ति होगी तो भगवान् महावीर ने स्पष्ट ही कह दिया है कि शौच : हिंसा से तो प्रतिहिंसा को उत्तेजना मिलती है, लोगों में परस्पर शत्रुता बाह्य शौच का और उसके साधन तीर्थ-जल का इतना महत्त्व बढ़ती है और सुख की कोई आशा नहीं। सुख चाहते हो तो सब बढ़ गया था कि किसी तीर्थ के जल में स्नान करने से लोग यह समझते जीवों से मैत्री करो, प्रेम करो, सब दुःखी जीवों पर करुणा रखो। थे कि हम पवित्र हो गये। वस्तुत: शौच क्या है, उसका स्पष्टीकरण भी ईश्वर में और देवों में या सामर्थ्य नहीं कि वे सुख या दुःख दे सकें। भगवान् ने कर दिया है-धर्म ही जलाशय है और ब्रह्मचर्य ही शांतिअपने कर्म ही सुखी और दुःखी करते हैं । अच्छा कर्म करो, अच्छा दायक तीर्थ है। उसमें स्नान करने से आत्मा निर्मल और शान्त होती है। फल पाओ और बुरा करके बुरा नतीजा भुगतने के लिए तैयार रहो।
ईश्वर या देव- वह तो तुम ही हो। तुम्हारी अनन्तशक्ति, सुख की नई कल्पना : अनन्त ज्ञान, अनन्तसुख प्रच्छन्न हैं। उनको प्रकट करके तुम ही ईश्वर हो भगवान् महावीर ने स्पष्ट ही कहा है कि सांसारिक सुख या जाओ। फिर तममें और मुझमें कोई भेद नहीं, हम सभी ईश्वर हैं। भक्ति काम भोगजन्य सुख सुख नहीं, दुख ही है। जिसका पर्यवसान दुःख या पूजा करना ही है तो स्व-आत्मा की करो। उसे राग और द्वेष, मोह में हो वह सुख कैसा? काम से विरक्ति में जो सुख मिलता है वह
और माया, तृष्णा और भय से मुक्त करो- इससे बढ़कर कोई पूजा, कोई स्थायी है, वही उपादेय है। सब काम विषरूप हैं, शल्यरूप हैं। इच्छा भक्ति हो नहीं सकती। जिन ब्राह्मणों को तुम मध्यस्थ बना कर देवों को अनन्त आकाश की तरह है, जिसकी पूर्ति कभी सम्भव नहीं। लोभी पुकारते हो, वे तो अर्थशून्य वेद का पाठ मात्र करते हैं। . मनुष्य को कितना भी मिले, सारा संसार भी उसके अधीन हो जाय,
तब भी उसकी तृष्णा का कोई अन्त नहीं। अतएव अकिञ्चनता में जो सच्चा ब्राह्मण:
सुख है, वह कामों की प्राप्ति में नहीं। भ० महावीर ने बताया कि सच्चा ब्राह्मण वह है जो अपनी जब सुख की यह नई कल्पना ही महावीर ने दी तो क्षणिक सम्पत्ति में आसक्त नहीं, किसी इष्ट वियोग में शोकाकुल नहीं, तप्त सुख साधनों को जुटा देने वाले उन यज्ञ-यागों का, उन पूजा-पाठों का सवर्ण की भांति निर्मल है, राग-द्वेष और भय से रहित है, तपस्वी धार्मिक अनुष्ठान के रूप में कोई स्थान न रहा। उनके स्थान पर ध्यान,
और त्यागी है, सब जीवों में समभाव धारण करता है- अतएव स्वाध्याय, अनशन, रसपरित्याग, विनय, सेवा इन नाना प्रकार की उनकी हिंसा से विरत है, क्रोध-लोभ, हास्य और भय के कारण तपस्याओं का ही धार्मिक अनुष्ठान के रूप में प्रचार होना स्वाभाविक है। असत्य-भाषी नहीं है, चोरी नहीं करता, मन वचन और काय से संक्षेप में, महावीर ने अहिंसामूलक संयममार्ग का प्ररूपण संयत है- ब्रह्मचारी है, अकिंचन है- वही सच्चा ब्राह्मण है। ऐसे किया है जो तपप्रधान है। सच्चा सुख भोग और वैभव में नहीं बल्कि ब्राह्मण के सानिध्य में रहकर अपनी आत्मा का चिन्तन, मनन और तप और त्याग में है, यह उन्होंने अपने जीवन से सिद्ध कर दिखाया। निदिध्यासन करके उसका साधत्कार करो। यही भक्ति है, यही पूजा है आज के विषमता-संकुल वातावरण में भगवान् महावीर का और यही स्तुति है।
समताधर्म अत्यन्त श्रेयस्कर है।
पर रहा।
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भगवान् महावीर की साधना
स्व० उपाध्याय अमरमुनि
महाश्रमण तीर्थंकर महावीर अपने युग के अपूर्व गृहत्याग का कारण जीवन के प्रति उनकी उदासीनता नहीं अध्यात्मवादी साधक थे। शुद्ध सत्य की खोज में, उन्होंने प्राप्त थीं, जैसा कि प्राय: कुछ साधकों में हो जाया करती है। न परिवार के भोग-विलासों को ठुकरा कर साधना का वह अमरपथ अपनाया, प्रश्नों को लेकर कोई उद्विग्नता थी और न अन्य कोई सामाजिक जो साधकों के लिये एक दिव्य-ज्योति बन गया। आइए, उस असंतोष ही। किसी व्यक्तिगत दु:ख या कुंठा के कारण घर छोड़ा हो, महान साधक के चरण चिह्नों को दृष्टिगत रखकर उनके साधना- ऐसा भी कुछ नहीं है। महावीर के गृहत्याग का यही एक हेतु थापथ का रहस्य उद्घाटित करें।
स्व-पर के अनन्त चैतन्य को जगाने का,अनन्त आनन्द के स्रोत को बपचन और किशोर अवस्था के बाद उनका जीवन किन मुक्तद्वार करने का। इसी भाव को आध्यात्मिक भाषा में और अधिक राहों से गुजरा, इस सम्बन्ध में कोई विशिष्ट उल्लेख कथासाहित्य में स्पष्टता से कह सकते हैं- उक्त हेतुओं की छाया में, महावीर का अंकित नहीं है। श्वेताम्बर परम्परा के आचार्य उनके विवाह की बात गृहत्याग हो गया। करने और होने में अन्तर है। होने में सहजता है, करते हैं और एक पुत्री होने की भी। अपने राष्ट्र की विकास- अनाग्रहता है और करने में कुछ न कुछ आग्रह की, हठ की ध्वनि है। योजनाओं में उन्होंने क्या किया, सर्वसाधारण जनता के अभावों एवं महान् साधकों का साधनाक्रम सहज होता है और होता है निर्द्वन्द! दु:खों को दूर करने की दिशा में उन्होंने अपना क्या पराक्रम इसलिए महावीर का गृहत्याग एक सहज ऊर्ध्वमुखी अन्तः-प्रेरणा दिखाया, राष्ट्र की सीमाओं पर इधर-उधर से होनेवाले आक्रमणों के थी। अनन्त आनन्द की रसधार से जन-जीवन को आप्लात करने की प्रतिकार में उनका क्या महत्त्वपूर्ण योगदान रहा, ऐसे कुछ प्रश्न है, एक तीव्र संवेदना ही उनके मुनि-जीवन का मुख्य हेतु था। जिनका महावीर के लिखित जीवन-चरित्रों में कोई स्पष्ट उत्तर नहीं पर्वत की कठोर चट्टानों को भेदकर बहने वाले झरने को मिलता। हम यह नहीं मान सकते कि महावीर के जीवन में ऐसा कुछ बना-बनाया पथ कहाँ मिलता है? झरन्य बहता जाता है और पथ भी नहीं हुआ हो, महावीर सहज रूप में प्राप्त अपने वैयक्तिक बनता जाता है। पहले से बने पथ पर बहनेवाली तो नहरें होती हैं, सुखोपभोगों की धारा में ही बह गए हों और लोकमंगल जैसा कुछ निर्झर या नदियाँ नहीं। महावीर भी ऐसे ही अपने साधनापथ के स्वयं भी न कर पाए हों। प्राचीन कथाकारों की, खासकर श्रमण कथाकारों निर्माता थे। आज की भाषा में वे लकीर के फकीर नहीं थे। वे की रुचि कुछ भिन्न रही है। वे प्रथम सांसारिक सुख-समृद्धि की, आज्ञाप्रधानी साधक नहीं, परीक्षा-प्रधानी साधक थे। उनका अन्तरतत्पश्चात् तपत्याग की और कुछ इधर-उधर के दैवी चमत्कारों की विवेक जागृत था, अत: उन्होंने जब जो ठीक लगा, वह किया और बातों को ही अधिक महत्त्व देते हैं, उन्हीं की लम्बी-चौड़ी कहानियाँ जब जो ठीक न लगा, वह न किया। वे एक-दो बार किए, या न लिखते हैं, भले ही वे विश्वास की सीमा से दूर क्यों न चली जाएँ। किये के अन्धदास नहीं हो गये थे। साधना सम्बन्धी उनके परीक्षण उनकी दृष्टि थी कि महावीर राजकुमार थे, अत: उन्होंने अपने देश चलते रहे। स्वीकृत विधि-निषेधों में उचित लगने पर उन्होंने पूरी और समाज के लिए ऐसा जो कुछ भी किया, वह उनका अपना ईमानदारी के साथ परिवर्तन किए। अधिक तो नहीं, पर प्राचीन कर्तव्य था, उसका भला क्या लिखना! तो, तीस वर्ष तक के दीर्घ साहित्य में ऐसे कुछ प्रसंगों का प्रामाणिक उल्लेख मिलता है। प्रारम्भ समय तक, तरुणाई के उद्दीप्त दिनों में, उस महान साधक ने क्या में कभी गृहस्थ के पात्र में भोजनकर लेते थे, किन्तु बाद में वे उसका किया, हमारे लिए कुछ कहना कठिन है।
परित्याग कर करपात्री बन जाते हैं। एक बार करुणाद्रवित होकर
अपना वस्त्र एक याचक दीन ब्राह्मण को दे देते हैं । एक बार अन्तःप्रेरित साधना-पथ पर
वर्षाकाल चौमासे में ही (वर्षा के दिनों में) अन्यत्र विहार कर जाते हैं। स्व की उपलब्धि और स्वनिष्ठ आनंद की खोज ही महावीर ये कुछ बातें ऐसी हैं, जो परम्परागत आचार-शास्त्र की दृष्टि से भिक्ष के चिन्तन का उद्देश्य था। यही एक प्रेरणा थी, जो उन्हें अपना चलता के लिए निषिद्ध हैं। फिर भी महावीर ने ऐसा किया।
आया जीवन-पथ बदलने के लिए विवश कर रही थी। यह प्रेरणा उन्हें किसी दूसरे से, तथाकथित किसी धर्मोपदेशक से नहीं मिली। उन्हें किसी कल्पातीत साधकने प्रेरित एवं निर्देशित नहीं किया। यह प्रेरणा उनके स्वयं के अन्दर की आज के कुछ तथाकथित आचारवादी शब्द-शास्त्री महावीर गहराई से उद्भूत थी। महावीर की यह सहज अन्तः प्रेरणा ही भविष्य के जीवन-चरित्र में से उक्त अंशों को निकाल रहे हैं। उनका कहना है की उनकी समस्त उपलब्धियों का मूलाधार है।
कि महावीर के ये विधि-निषेध जैन आचरण शास्त्र से मेल नहीं
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भगवान् महावीर की साधना
खाते। उग्र साधना-पथ के अविचल यात्री भगवान् शास्त्रोक्त साधना के है। साधना का अर्थ है- जीवन और मरण दोनों को सँवारना, सुधारना विरुद्ध आचरण करें, यह कैसे हो सकता है? इन शास्त्राग्रही लोगों और ज्योतिर्मय बनाना। को मालूम होना चाहिये, कि महावीर ने किसी सम्प्रदाय में, किसी महावीर के सत्य की खोज परम्परागत पूर्व-विश्वासों के गुरु से दीक्षा नहीं ली थी। वे किसी पुरागत तीर्थ में, शासन में दीक्षित मोड़ पर रुकी न रही, जहाँ कि लोग अक्सर रुक जाया करते हैं। नहीं हुए थे। उनके निर्णय किसी आचार-शास्त्र के आधार पर नहीं, तत्कालीन धार्मिक मूल्यों के प्रति एवं साधना की प्रचलित पद्धतियों अपने सहज-स्फूर्त विवेक के आधार पर होते थे। हम वर्तमान के के प्रति महावीर के मन में व्यामोह नहीं था। शुद्ध सत्य की उपलब्धि शास्त्रों को जिनका संकलन एवं निर्माण महावीर के बहुत उत्तर काल के लिए यह आवश्यक भी है। अपने स्वतन्त्र प्रयोगों से प्राप्तव्य सत्य में हुआ महावीर जैसे सुदूर अतीत के महापुरुषों के साथ जोड़ कर के प्रति श्रद्धा रखने वाले साधक परम्परागत सत्यों की सुरक्षा के भूल करते हैं। महावीर की साधना किसी भी पूर्व विचार या शास्त्र व्यामोह में नहीं फँसते। स्वानुभूति से लभ्य सत्य के साथ उनका आदि से प्रतिबद्ध नहीं थी। इसलिए जैन-साहित्य उन्हें प्रारम्भ से ही, गहरा सम्बन्ध होता है। साधना के सम्बन्ध में महावीर को प्रयोगात्मक प्रव्रज्या-ग्रहण के दिन से ही कल्पातीत मानता है।
पद्धति अभीष्ट थी। मुक्त-साधना पद्धति के द्वारा वे 'स्व' का अनुसंधान ____ कल्पातीत का अर्थ है- कल्प से, विधि-निषेध की अमुक करते रहे, जीवन के अनन्त सौन्दर्य एवं अप्रतिम निरुपाधिक आनन्द सीमाओं में बद्ध शास्त्रीय आचार से अतीत रहना, मुक्त रहना। की खोज करते रहे। नि:संदेह महावीर के ये स्वतन्त्र-प्रयोग सत्य के महावीर की साधनाविधि को तथाकथित किसी भी शास्त्र से जोड़ा उद्घाटन की दिशा में अत्यन्त महत्त्वपूर्ण रहे हैं। क्योंकि जीवन की नहीं जा सकता। उनका साधना-पथ न किसी सम्प्रदाय से बंधा था, यही प्रयोगात्मक स्वतन्त्र खोज एक दिन साध्य से संपृक्त होती है, न किसी गुरु से; न किसी शास्त्र से वह बंधा था, उनके अपने पूर्णता की अभिव्यक्ति का रूप लेती है। अन्तरतम की स्वतन्त्र अनुभूति से। वे पहले के, किसी अन्य के खोजे' महावीर की साधना सत्य के प्रयोग की साधना है। शरीर हए मार्ग पर नहीं चले, अपितु खुद मार्ग खोजते गये, चलते गये। की नहीं, आत्मा के सत्य की साधना हैं। वह साधना जो साधक को जब कहीं संशोधन की जरूरत हुई, तो संशोधन किया, बदलने की बन्धन मुक्त करती है, सत्य का अनन्त प्रकाश दिखलाती है, और जरूरत हुई तो बदला।।
साधक को अनन्त आनन्द की धारा में सदा-सर्वदा के लिए प्रवाहित महावीर की आचार-साधना जड़ नहीं थी, सचेतन थी। करती है। सचेतन साधना गतिहीन नहीं होती है। साधना की सचेतनता ज्ञान पर आधारित है। इस संदर्भ में एक संत ने कहा है- ज्ञान गुरु है, आचार मानवीय गरिमा का दर्शनशिष्य है। आचारको अनुभव-सिद्ध ज्ञान के शासन में चलना होगा, आज के ये छूआछूत, ऊँच-नीच, सवर्ण-अवर्ण आदि कोरे शास्त्रीय जड़ शब्दों के शासन में नहीं। मुक्त चिन्तन ही सत्यान्वेषण जाति-प्रथा के जितने भी दुर्विकल्प है, उनका महावीर के दर्शन में का सच्चा साधन है, बद्ध चिन्तन नहीं। किसी ग्रन्थ विशेष या गुरु कोई स्थान नहीं है। महावीर का दर्शन मानवीय गरिमा का दर्शन है। विशेष को प्रमाण मानने वाला उनके अनुसार चलने वाला प्राथमिक ऐसी कोई भी व्यवस्था, जिसमें मानवीय प्रतिष्ठा का गौरवमय भूमिका पर आरूढ़ साधारण साधक हो सकता है, तीर्थङ्कर नहीं हो विकास सम्भव न हो, महावीर को स्वीकार नहीं है- न जन्म से, न सकता। महापुरुष किसी विशिष्ट विचार पथ के निर्माता या नेता होते कर्म से। सभी मानवों का जन्म से प्राप्त शरीर एक जैसा होता हैहैं, सम्प्रदाय के रूप में चली आयी किसी पूर्व विचार-परम्परा के वही ब्राह्मण का, वही क्षत्रिय का, वही वैश्य का और वही शूद्र आदि अनुयायी नहीं।
का। अत: उसमें पवित्र-अपवित्र और ऊँच-नीच आदि के भेद-प्रभेद महावीर का साधनाकाल विलक्षण घटनाओं से भरा है एक कैसे हो सकते हैं? से एक अद्भुत घटना, परिबोध देने वाली घटना। ऐसी घटना, जैसे अब रहा कर्म का प्रश् । अपने वैयक्तिक जीवन की या सघन अन्धकार में काले बादलों के बीच एकाएक बिजली कौंध जाती समाज जीवन की तथाकथित आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए किए हो! धरती और आकाश को सहसा उद्भासित कर जाती है! साधकों जाने वाले कर्म भी अपने कर्ता के ऊँच-नीचपन के द्योतक नहीं है। के लिए महावीर के जीवन की घटनाएं, ऐसी ही सुख-दु:ख के कल्पना कीजिए, एक व्यक्ति अध्ययन-अध्यापन का काम करता है, अँधियारे में प्रकाश देने वाली हैं, तमसाच्छन्न जीवन-पथ को आलोकित दूसरा नगर की स्वच्छता-सफाई आदि का। क्या अध्ययन-अध्यापन करने वाली है।
अपने में एक पवित्र कर्म है और नगर की स्वच्छता-सफाई आदि
अपवित्र कर्म है? कर्म यदि उपयोगी है, वह सामाजिक कल्याण की प्रयोगवीर : महावीर
दिशा में कुछ प्रगति प्रदान करता है, तो फिर वह कोई भी कर्म क्यों साधना का अर्थ जीवन को नकारना, मरण स्वीकारना नहीं न हो, पवित्र है। यदि कर्म अनुपयोगी है, सामाजिक कल्याण की
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जैन विद्या के आयाम खण्ड-७
दिशा में अपना कुछ भी योगदान नहीं करता, अपितु मानव-समाज जाता है। कुएं में की गई ध्वनि, प्रतिध्वनि के रूप में वापस लौटती का अहित करता है; तो फिर वह कोई भी कर्म क्यों न हो, अपवित्र है। भगवान् महावीर तो यह भी कहते थे, कि वह और तू, कोई दो है। कर्म का बाह्य रूप पवित्र-अपवित्र नहीं होता, पवित्र अपवित्र नहीं है। चैतन्य-चैतन्य एक हैं जिसे तू पीड़ा देता है, वह और कोई होता है, उसका अपना अन्दर का रूप, कर्ता के मन का वैचारिक नहीं, तू ही तो है। भले आदमी, तू दूसरे को सताता है, तो सचमुच अन्तरंग! अतएव महावीर सामाजिक उत्थान एवं निर्माण के प्रत्येक दूसरे को नहीं, अपने को ही सताता है। इस सम्बन्ध में आचारांग सूत्र कार्य को पवित्र मानते थे। उनकी दृष्टि में मानव अपवित्र नहीं, मानव में आज भी उनका एक प्रवचन उपलब्ध हैका अनाचार, दुराचार अपवित्र था। हिंसा, घृणा, वैर, असत्य, दम्भ, "जिसे तू मारना चाहता है, वह तू ही है। चोरी, व्यभिचार आदि अनैतिक आचरण अपवित्र हैं, फिर भले ही जिसे तू शोषित करना चाहता है, वह तू ही है। उन दुराचरणों को कोई ब्राह्मण करे, क्षत्रिय करे, वैश्य करे या शूद्र जिसे तू परिताप देना चाहता है, वह तू ही है।" करे; इसमें कोई अन्तर नहीं पड़ता। भगवान् महावीर के दर्शन में यह भगवान् महावीर की अद्वैतदृष्टि है, जो अहिंसा का सदाचार पवित्र कर्म है और दुराचार अपवित्र। ऊँच-नीच की कसौटी मूलाधार है। मनुष्य का अपना नैतिक और अनैतिक जीवन है, न कि जीवनो पयोगी अपने कर्म, अपना पुरुषार्थ, अपना प्रयत्ना
वैचारिक अपरिग्रहमहावीर का जीवन-दर्शन अखण्ड चेतना का दर्शन है, भगवान् महावीर ने परिग्रह के मूल मानव-मन को बहुत मानवीय गरिमा का दर्शन है। मानव को मानवरूप में प्रतिष्ठित देखने गहराई से देखा। उनकी दृष्टि में मानव-मन की वैचारिक अहंता एवं का दर्शन है। मानव ही क्यों, वह चैतन्य मात्र को अखण्ड एवं अभेद आसक्ति की हर प्रतिबद्धता परिग्रह है। जातीय श्रेष्ठता, भाषागत दृष्टि से देखता है। उसकी चैतन्यमात्र के प्रति अद्वैत भाव की उदात्त पवित्रता, स्त्री-पुरुषों का शरीराश्रित अच्छा-बुरापन, परम्पराओं का एकत्व-बुद्धि है। अस्तु, जो दर्शन 'एगे आया' का महान् उद्घोष दुराग्रह आदि समग्र वैचारिक आग्रहों, मान्यताओं एवं प्रतिबद्धताओं करता है, जो प्राणिमात्र में एक समान आत्मतत्त्व का वास्तविक दर्शन को महावीर ने आन्तरिक परिग्रह बताया, और उससे मुक्त होने की कराता है, जो यह कहता कि विश्व का समग्र चैतन्य तत्त्व एक जैसा प्रेरणा दी। महावीर ने स्पष्ट कहा, कि विश्व की मानवजाति एक है। है, वह मानव-मानव में स्पृश्य-अस्पृश्य की, ऊँच-नीच की, पवित्र- उसमें राष्ट्र, समाज एवं जातिगत उच्चता-नीचता जैसी कोई चीज अपवित्र की तथ्यहीन मान्यता को कैसे प्रश्रय दे सकता है? नहीं। कोई भी भाषा शाश्वत एवं पवित्र नहीं है। स्त्री और पुरुष आत्म
भगवान महावीर का अहिंसा-धर्म एक उच्चकोटि का दृष्टि से एक है, कोई ऊँचा-नीचा नहीं हैं इसी के अन्य सब अध्यात्मिक एवं सामाजिक धर्म है। यह मानव जीवन को अन्दर सामाजिक तथा सांप्रदायिक आदि भेद-विकल्पों को महावीर ने औपाधिक और बाहर-दोनों ओर से प्रकाशमान करता है। महावीर ने अहिंसा बताया, स्वाभाविक नहीं। इस प्रकार भगवान् महावीर ने मानवको भगवती कहा है मानव की अन्तरात्मा को अहिंसा भगवती, चेतना को वैचारिक परिग्रह से भी मुक्त कर उसे विशुद्ध अपरिग्रह बिना किसी बाहरी दबाव, भय, आतंक अथवा प्रलोभन के सहज भाव पर प्रतिष्ठित किया। अंत:-प्रेरणा देती है कि मानव विश्व के अन्य प्राणियों को भी भगवान महावीर के परिग्रहवादी चिन्तन की पाँच फलश्रतियाँ अपने समान ही समझे, उनके प्रति बिना किसी भेद-भाव के आज हमारे समक्ष हैंमित्रता एवं बंधुता का प्रेमपूर्ण व्यवहार करे। व्यक्ति को जैसे अपना १. इच्छाओं का नियमन, अस्तित्व प्रिय है, अपना सुख अभीष्ट है, वैसे ही अन्य प्राणियों २. समाजोपयोगी साधनों के स्वामित्व का विसर्जन को भी अपना अस्तित्व तथा सुख प्रिय एवं अभीष्ट है- यह सह ३. शोषणमुक्त समाज की स्थापना, अस्तित्वरूप परिबोध ही अहिंसा का मूल स्वर है। अहिंसा 'स्व' ४. निष्काम बुद्धि से अपने साधनों का जनहित में संविभाग-दान,
और 'पर' की 'अपने' और 'पराये' की घृणा एवं वैर के आधार ५. अध्यात्मिक शुद्धि। पर खड़ी की गई, भेद-रेखा को तोड़ देती है।
अनेकान्त दृष्टिअहिंसा की दृष्टि
भगवान् महावीर ने जितनी गहराई के साथ अहिंसा और भगवान् महावीर कहते थे-वैर हो, घृणा हो, दमन हो, अपरिग्रह का विवेचन किया, अनेकान्त दर्शन के चिन्तन में भी वे उत्पीड़न हो-कुछ भी हो-अंतत: सब लौट कर कर्ता के ही पास आते उतने ही गहरे उतरे। अनेकान्त को न केवल एक दर्शन के रूप में, हैं। यह मत समझो, कि बुराई वहीं रह जाएगी, तुम्हारे पास लौटकर किन्तु सर्वमान्य जीवन धर्म के रूप में प्रस्तुत करने का श्रेय नहीं आएगी। वह आएगी; अवश्य आएगी कृतकर्म निष्फल नहीं महावीर को ही है। अहिंसा और अपरिग्रह के चिंतन में भी उन्होंने
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भगवान् महावीर की साधना
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अनेकान्त दृष्टि का प्रयोग किया। प्रयोग ही क्यों, यहाँ तक कहा को ही हिंसा बताया, कर्मबंधन का हेतु कहा, यही उनका अहिंसा के जा सकता है कि अनेकान्त शून्य अहिंसा और अपरिग्रह भी क्षेत्र में अनेकांतवादी चिन्तन था। महावीर को मान्य नहीं थे।
परिग्रह और अपरिग्रह के विषय में भी महावीर बहुत उदार आप शायद चौकेंगे यह कैसे? किन्तु वस्तु-स्थिति यही और स्पष्ट थे। यद्यपि जहाँ परिग्रह की गणना की गई- वस्त्र-पात्र, है। चूँकि प्रत्येक वस्तु, प्रत्येक सत्ता, प्रत्येक स्थिति और प्रत्येक भोजन एवं भवन आदि बाह्य वस्तुओं को, यहाँ तक कि शरीर को भी विचार अनंत धर्मात्मक है। उसके विभिन्न पक्ष होते हैं। उन पहलुओं परिग्रह की परिगणना में लिया गया, किन्तु जहाँ परिग्रह का तात्त्विक
और पक्षों पर विचार किए बिनाः यदि हम कुछ निर्णय करते हैं, तो प्रश्न आया, वहाँ उन्होंने मूर्छाभाव के रूप में परिग्रह की एक स्वतंत्र यह उस वस्तु, तत्व के प्रति स्वरूपघात होगा, वस्तुविज्ञान के एवं व्यापक व्याख्या की। महावीर वस्तुवादी नहीं, भाववादी थे। अत: साथ अन्याय होगा और स्वयं अपनी ज्ञान-चेतना के साथ भी एक उनका अपरिग्रह का सिद्धान्त बाह्य जड़ वस्तुवाद में कैसे उलझ धोखा होगा। किसी भी वस्तु के तत्त्व-स्वरूप पर चिन्तन करने से जाता? उन्होंने स्पष्ट घोषणा की वस्तु परिग्रह नहीं, भाव (ममता) ही पहले हमें अपनी दृष्टि को पूर्वाग्रहों से मुक्त, स्वतन्त्र और व्यापक परिग्रह है। मन की मूर्छा, आसक्ति और रागात्मक विकल्प-यही बनाना होगा, उसके प्रत्येक पहलू को अस्ति, नास्ति आदि विभिन्न परिग्रह है, यही संसार का मूल कारण एवं बन्धन है। विकल्पों द्वारा परखना होगा, तभी हम उसके यथार्थ स्वरूप का इसी प्रकार जीवन के प्रत्येक क्षेत्र में, चिन्तन के हर नये ज्ञान प्राप्त कर सकेंगे। अहिंसा और अपरिग्रह के विषय में भी यही मोड़ पर महावीर हाँ और ना' के साथ चले। उनका उत्तर 'अस्तिबात है। इसलिए मैने कहा, कि महावीर के अहिंसा और अपरिग्रह नास्ति' के साथ अपेक्षा पूर्वक होता था। एकान्त अस्ति या एकान्त भी अनेकान्तात्मक थे।
नास्ति जैसा निरपेक्ष कुछ भी उनके तत्त्व-दर्शन में नहीं था। अहिंसात्मक अनेकांतवाद का एक उदाहरण लीजिए। भगवान् अनेकान्तवाद वस्तुत: मानव का जीवन-धर्म है, समग्र महावीर ने साधक के लिये सर्वथा हिंसा का निषेध किया। किसी भी मानव जाति का जीवन-दर्शन है आज के युग में इसकी और भी प्रकार की हिंसा का समर्थन उन्होंने नहीं किया। किन्तु जन-कल्याण आवश्यकता है। समानता और सहअस्तित्व का सिद्धान्त अनेकांत की भावना से, किसी उदार ध्येय की प्राप्ति के लिए तथा वीतराग के बिना चल ही नहीं सकेगा। उदारता और सहयोग की भावना जीवन-चर्या में कभी कहीं, परिस्थितिवश अनचाहे भी जो सूक्ष्म या तभी बलवती होगी, जब हमारा चिंतन अनेकान्तवादी होगा। स्थूल प्राणीघात हो जाता है, उस विषय में उन्होंने कभी एकांत भगवान् महावीर के व्यापक चिंतन की यह समन्वयात्मक देननिवृत्ति का आग्रह नहीं किया, अपितु व्यवहार में उस प्राणिहिंसा को धार्मिक और सामाजिक जगत् में, बाह्य और अन्तर जीवन में हिंसा स्वीकार करके भी उसे निश्चय में हिंसा की परिधि से मुक्त माना। सदा-सर्वदा के लिए एक अद्भुत देन मानी जा सकती है। अस्तु, क्योंकि उन्होंने अहिंसा की मौलिक तत्त्व-दृष्टि से बाहर में दृश्यमान हम अनेकान्त को समग्र मानवता के सहज विकास की, विश्व-जन प्राणिवध को नहीं, किन्तु रागद्वेषात्मक अन्तरवृत्ति को, प्रमत्त-योग मंगल की धुरी भी कह सकते हैं।
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द्वन्द्व और द्वन्द्व-निवारण
(जैन-दर्शन के विशेष प्रसंग में)
डॉ० सुरेन्द्र वर्मा
द्वन्द्व का अर्थ और स्वरूप
इन युद्धों में ईश्वर उसी को जिताता है जिसके पक्ष में न्याय होता है। आधुनिक मनोविज्ञान और समाज शास्त्र में द्वन्द्व (कंफ्लिक्ट) द्वन्द्व-युद्धों का युग अब समाप्त हो चुका है। अब दो पक्षों एक बहुत महत्त्वपूर्ण अवधारणा है किन्तु द्वन्द्व का स्वरुप, उसका स्तर (व्यक्ति नहीं) के बीच शस्त्र या शोत-युद्ध होते/चलते हैं।
और प्रारुप तथा द्वन्द्व का निराकरण आज भी बहुत कुछ एक समस्या युद्ध के अतिरिक्त 'द्वन्द्व' परस्पर विरोधी युगल भावों को बना हुआ है । प्रत्येक शास्त्र ने द्वन्द्व को अपनी-अपनी दृष्टि से देखा अभिव्यक्ति देता है । 'द्वन्द्व' के इस अर्थ में कई बातें निहित हैं-- है। मनोविज्ञान जहाँ द्वन्द्व को मूलत: दो वृत्तियों के बीच संघर्ष की स्थिति १. द्वन्द्व बिना 'युग्म' के सम्भव नहीं है। शीत-उष्ण, सख. के रूप में स्वीकार करता है, वहीं समाजशास्त्र द्वन्द्व में निहित दो पक्षों दुःख, इष्ट-अनिष्ट, संयोग-वियोग, ऐसे ही युगल भाव हैं जो द्वन्द्व के के बीच ‘विरोध' पर बल देता है। राजनीति में द्वन्द्व को सशस्त्र -युद्ध या लिए अनिवार्य हैं । ये युग्म विभिन्न क्षेत्रों से उठाएँ जा सकते हैं । शीतयुद्ध के रूप में देखा गया है।
उदाहरण के लिए 'शीत-उष्ण' भौतिक परिवेश सम्बन्धी युग्म है जबकि फादर कामिल बुल्के ने अंग्रेजी-हिन्दी कोश में 'कंफ्लिक्ट' संयोग-वियोग का क्षेत्र सामाजिक है । इष्ट-अनिष्ट, सुख-दुःख आदि के तीन अर्थ दिये हैं- युद्ध , संघर्ष या द्वन्द्व तथा विरोध । यह स्पष्ट है व्यक्ति की मनोदशाओं से सम्बन्धित हैं । जैनदर्शन में मनोवैज्ञानिक या कि आज राजनीतिशास्त्र, मनोविज्ञान तथा समाजशास्त्र ने मोटे तौर पर आन्तरवैयक्तिक युग्मों का विशेषकर उल्लेख हुआ है । उदाहरण के इन तीनों ही अर्थों को क्रमश: स्वीकार कर लिया है।
लिए एक गाथा लाभ-अलाभ, सुख-दु:ख, जीवन-मरण, निन्दा-प्रशंसा क्या प्राचीन भारतीय दर्शन में हमें द्वन्द्व की अवधारणा मिलती और मान-अपमान के प्रति समानभाव विकसित करने के लिए कहती है? हम इस प्रश्न को विशेषकर जैनदर्शन के प्रसंग में देखना चाहेंगे। हैं। महावीर की शिक्षाएँ हमें मुख्यतः प्राकृत भाषा में उपलब्ध हैं। प्राकृत २. युग्म में विरोध-भाव होना आवश्यक है। जिस युग्म में में द्वन्द्व को 'दंद' कहा गया है । प्राकृत -हिन्दी कोश'२ में दंद का एक विरोधी-भाव नहीं होता, वह द्वन्द्व की स्थिति का निर्माण नहीं कर अर्थ तो व्याकरण-प्रसिद्ध उभय पद-प्रधान समास से है। किन्तु स्पष्ट सकता। ऐसे तमाम युग्म गिनाए जा सकते हैं जो एक-दूसरे के पूरक ही यह अर्थ हमारी द्वन्द्व-चर्चा में अप्रासंगिक है। अन्य अर्थ है- होते हैं, विरोधी नहीं। ऐसे 'युग्म' द्वन्द्व को जन्म नहीं देते । द्वन्द्व के १. परस्पर विरूद्ध शीत -उष्ण,सुख-दुःख, आदि युग्म; २.कलह, लिए युग्म का एक दूसरे का पूरक होना अनावश्यक है ।उनका परस्पर क्लेश; और ३.युद्ध । समणसुत्तं के अन्त में जोड़े गए पारिभाषिक शब्द विरोध में होना जरूरी है । सुख और शान्ति का युग्म एक दूसरे का कोश में भी द्वन्द्व को इष्ट-अनिष्ट, दुःख-सुख, जन्म-मरण, संयोग- विरोधी नहीं है, अत: इसमें द्वन्द्व असम्भव है। जैनदर्शन में कई स्थलों वियोग आदि परस्पर विरोधी युगल-भाव द्वारा परिभाषित किया गया है। पर 'सुख और शान्ति' जैसे युग्मों का उल्लेख हुआ लेकिन उन्हें कभी
उपर्युक्त अर्थों के विश्लेषण से द्वन्द्व के दो रूप स्पष्ट होते हैं। द्वन्द्वात्मक स्थिति में प्रदर्शित नहीं किया गया है क्योंकि वे एक दूसरे एक तो द्वन्द्व, युद्ध (या कहें, 'द्वन्द्व-युद्ध') के अर्थ में प्रयुक्त होता है और के पूरक हैं, विरोधी नहीं। दूसरे, वह परस्पर विरोधी युगल भावों को अभिव्यक्ति देता है।
३. द्वन्द्व (और उसके निवारण) के लिए यह आवश्यक है कि दो विरोधी व्यक्तियों या दलों के बीच पूर्वनिश्चित या जाने माने हम 'विरोध' को जाने और समझें, उसके प्रति अवगत हों । जब तक नियमों के अनुसार प्रचलित शस्त्रों द्वारा युद्ध को द्वन्द्व (या द्वन्द्व युद्ध) 'विरोध' की पहचान नहीं होती, द्वन्द्व भी निर्मित नहीं होता। यह बात कहते हैं । ऐसे युद्ध प्राचीन काल में बहुत से देशों में प्रचलित थे । भारत सामाजिक क्षेत्र में उपस्थित द्वन्द्व पर विशेषकर घटित होती है। मानमें वैदिक काल में भी द्वन्द्व-युद्धों का प्रचलन मिलता है। उत्तर वैदिक अपमान, न्याय-अन्याय की स्थितियों में जब तक विरोध 'देखा' नहीं काल में इनके सम्बन्ध में नये नियम बनाकर पूर्व प्रचलित प्रथा में सुधार जाता द्वन्द्व की स्थिति नहीं बन पाती । हजारों साल से शोषित और दलित किया गया । रामायण और महाभारत में द्वन्द्व-युद्धों के अनेक उल्लेख वर्ग समाज में अपने अपमान के प्रति अवगत ही नहीं हो पाते और इस हैं । राम-रावण, बालि-सुग्रीव तथा दुर्योधन-भीम के युद्ध इसके उदाहरण प्रकार यथा स्थिति बनाए रखने में मानों अपना योगदान ही देते हैं। हैं । जो बातें अन्य प्रकार से नहीं सुलझाई जा सकती थीं, उनके निर्णय जैनदर्शन में कई स्थलों पर मान-अपमान की स्थिति के प्रति अवगत के लिए यह नीति अपनाई जाती थी। इसके मूल में यह विश्वास था कि कराने का प्रयास किया गया है --भले ही इसका उद्देश्य मान-अपमान
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द्वन्द्व और द्वन्द्व-निवारण
की स्थिति के द्वन्द्व को समाप्त करना ही क्यों न रहा हो । एक स्थल द्वन्द्व के प्रकार पर माहवीर मान-अपमान तथा हर्ष और क्रोध के द्वन्द्व की निरर्थकता द्वन्द्व का यदि हम क्षेत्रानुसार वर्गीकरण करें तो इसे कई स्तरों बताते हुए हमें अवगत कराते हैं कि व्यक्ति अनेक बार उच्च गोत्र और पर समझा जा सकता हैं। अनेक बार नीच गोत्र का अनुभव कर चुका है अतः न कोई हीन है और न कोई अतिरिक्त (अर्थात् उच्च) । अतः स्पृहा न कर । ऐसे में भला आन्तरवैयक्तिक द्वन्द्व मानसिक या मनोवैज्ञानिक द्वन्द्व है। कौन गोत्रवादी या मानवादी होगा और अपनी स्थिति पर आसक्ति रख इस प्रकार के द्वन्द्व को व्यक्ति अपनी दो परस्पर विरोधी या असंगत सकेगा? इसलिए पुरूष को हर्षित/कुपित नहीं होना चाहिए।५ महावीर इच्छाओं/वृत्तियों के बीच अनुभव करता है ।उदाहरण के लिए जब व्यक्ति हमें अपने द्वन्द्वात्मक स्थितियों के प्रति सदा जाग्रत रहने के लिए अपनी किसी इच्छा की सन्तुष्टि चाहता है और इतर कारणों से यदि इसे प्रोत्साहित करते हैं । वे कहते हैं- अज्ञानी सदा सोते हैं और ज्ञानी सदा सन्तुष्ट नहीं कर पाता तो वह ऐसे ही द्वन्द्व में फँसता है। 'चाहूँ' या 'न जागते हैं। वैर (विरोध) से जिन्होंने अपने को उबार लिया है ऐसे जाग्रत चाहूँ' का यह द्वन्द्व उसे नकारात्मक भावों से भर देता है । इस प्रकार व्यक्ति ही वस्तुत: वीर हैं।
मानसिक या मनोवैज्ञानिक द्वन्द्व विपरीत कामनाओं का और उनकी ४.द्वन्द्व की अवस्था में युगल-भाव विरोध की स्थिति में होते सन्तुष्टि-असन्तुष्टि का द्वन्द्व है। हैं और दोनों ही पक्ष इस विरोध की स्थिति के प्रति अवगत होते हैं। लाभ-अलाभ, सुख-दु:ख, निन्दा-प्रशंसा, मान-अपमान आदि इसके अतिरिक्त विरोध सदैव परस्पर और अन्तरसम्बन्धित होता है । यह भावनाओं से सम्बन्धित द्वन्द्व, जिनका जैन दार्शनिक साहित्य में यथेष्ठ अन्तरसम्बन्ध कुछ इस प्रकार का होता है कि एक पक्ष की हानि, दूसरे उल्लेख हुआ है--इसी प्रकार के मानसिक द्वन्द्वों की ओर संकेत है । इस के लाभ के रूप में या एक का लाभ दूसरे की अपेक्षाकृत हानि के रूप प्रकार के द्वन्द्व में व्यक्ति आन्तरिक रूप से टूट जाता है और समझ नहीं में देखा जाता है। यदि एक का लाभ दूसरे को हानि न पहुँचाए तो द्वन्द्व पाता कि वह क्या करे । की स्थिति बन ही नहीं सकती। यदि एक के लाभ में दोनों का लाभ हो अथवा एक की हानि में दोनों की हानि हो तो स्थिति विरोध की न आन्तरवैयक्तिक द्वन्द्व, व्यक्ति और व्यक्ति के बीच निर्मित होकर मैत्री की अधिक होगी। अत: कहा जा सकता है कि विरोध की होने वाले द्वन्द्व हैं । इस प्रकार के द्वन्द्व में दो व्यक्तियों के बीच अपनेस्थिति के निर्माण के लिए परस्पर विरोध ही नहीं बल्कि एकांगी अपने वास्तविक या कल्पित हित को लेकर विरोध होता है। इसमें एक दृष्टिकोण होना अत्यन्त आवश्यक है । परस्पर एकांगी दृष्टिकोण अपने व्यक्ति का हित दूसरे के अहित के रूप में देखा जाता है। लाभ में दूसरे की हानि और दूसरे की हानि में अपना लाभ देखता है। जैनदर्शन ने सदैव ही इस दृष्टि का खण्डन किया है, और इस प्रकार सामुदायिक द्वन्द्व, व्यक्ति और समूह (समुदायों) के बीच का एकांगी दृष्टि के त्याग में ही द्वन्द्व के निराकरण को सम्भव बताया है। द्वन्द्व है।
५.द्वन्द्व की परिणति, उपर्युक्त परस्पर एकांगी दृष्टि के कारण अशुभ भावनाओं और भ्रष्ट आचरण में होती है। अशुभ-भावनाओं को आन्तरसामुदायिक द्वन्द्व, दो समूहों (समुदायों) के बीच का जैनदर्शन में 'कषाय' कहा गया है । कषाय-क्रोध, मान माया और द्वन्द्व है। लोभरूपी आत्मघातक विकार हैं । जाहिर है ये सभी अशुभ-भावनाएँ द्वन्द्व की स्थिति में दूसरे पक्ष को हानि पहुँचाने में सहायक समझी गयी संगठनात्मक द्वन्द्व, व्यक्ति और जिस संगठन में वह कार्य हैं लेकिन साथ ही ये आत्मघातक भी हैं । इन भावनाओं से प्रेरित करता है उसके बीच का संघर्ष है। व्यवहार भ्रष्ट व्यवहार है । द्वन्द्व में सदैव ही कोई न कोई उग्र उद्वेग संलग्न होता है जो व्यक्ति को एक विशेष प्रकार के आचरण के लिए आन्तरसंगठनात्मक द्वन्द्र, दो संगठनों के बीच का द्वन्द्व है। प्रेरित करता है और द्वन्द्व में उपस्थित इस उद्वेग का स्वरूप समान्यत: नकारात्मक ही होता है । अत: द्वन्द्व के निराकरण के लिए इन साम्प्रदायिक द्वन्द्व, दो सम्प्रदायों के बीच का द्वन्द्व है। नकारात्मक उद्वेगों को समाप्त करना अत्यन्त आवश्यक है । जैन दर्शन जाहिर है द्वन्द्व के उपरोक्त सभी स्तर (प्ररूप) दो पक्षों के में न केवल ऐसे चार उग्र उद्वेगों (कषायों) का वर्णन किया गया है बल्कि विपरीत हित-अहित के विरोध से उत्पन्न द्वन्द्व है। उनसे मुक्ति के लिए कषायों की विपरीत भावनाओं को विकसित करने जैन दार्शनिक साहित्य में हमें द्वन्द्व के इन सभी स्तरों का के लिए भी कहा गया है।८
क्रमिक विवेचन नहीं मिलता। लेकिन यह स्पष्ट देखा जा सकता है कि जैनदर्शन द्वन्द्व के इन सभी प्ररूपों में आन्तरवैयक्तिक द्वन्द्व को सर्वाधिक
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जैन विद्या के आयाम खण्ड-७
महत्त्व देता है क्योंकि द्वन्द्व की आन्तरवैयक्तिक स्थिति ही अन्तत: सभी है । द्वन्द्व व्यक्ति को कर्म के लिए प्रेरित करने वाला एक तत्त्व बन अन्य स्तरों पर किसी न किसी रूप में उपस्थित देखी जा सकती है। सकता है ।१९ लेकिन, क्योंकि जैनों का समस्त दर्शन कर्म के क्षय पर यदि व्यक्ति के अन्दर द्वन्द्व नहीं है तो स्पष्ट ही वह अपने बाह्य सम्बन्धों टिका है इसलिए कर्म को प्रेरित करने वाले तत्त्व जैनदर्शन में शुभ नहीं में द्वन्द्व की स्थिति नहीं बनने देता है।
माने जा सकते । द्वन्द्व इस प्रकार यदि कर्म को प्रेरित करता भी है तो वस्तुत: द्वन्द्व के मोटे तौर से दो ही आयाम हैं- आन्तरिक और भी शुभ नहीं है और यदि नकारात्मक उद्वेगों को सक्रिय करता है तो ऐसे बाह्य । जिसने आन्तरिक द्वन्द्व - अपनी आत्मा में सम्पन्न होने वाले में वह अशुभ ही है। संघर्ष-पर विजय प्राप्त कर ली है, उसी को सच्चा सुख प्राप्त हो सकता . अत: जैनदर्शन कुल मिलाकर विरोधी द्वन्द्व भावों से व्यक्ति को है अर्थात् वही सुख-दुःख का कर्ता आर विकर्ता है । अविजित कषाय ऊपर उठ जाने के लिए प्रेरित करता है । वह द्वन्द्व-भावों के अतिक्रमण
और इन्द्रियाँ-इन्हीं को जीत कर निर्बाध विचरण करना सर्वश्रेष्ठ है । अतः को ही श्रेष्ठ मानता है। महावीर कहते हैं कि बाहरी युद्धों (द्वन्द्वों) से क्या? स्वयं अपने से ही किन्तु द्वन्द्व का यह अतिक्रमण कैसे किया जाए। इसके लिए युद्ध करो । अपने से अपने को जीत कर ही द्वन्द्व से मुक्त हुआ जा सकता कई प्रविधियाँ हो सकती हैं। किन्तु इन प्रविधियों का उपयोग मनुष्य तभी है। किन्तु अपने पर यह विजय प्राप्त करना कठिन अवश्य है । कर सकता है जब वह एक ऐसे उदार मनोगठन को स्वीकार करे जिसमें
आन्तरवैयक्तिक द्वन्द्व, जो व्यक्ति के आन्तरिक संघर्ष की ओर पक्षधरता न हो । द्वन्द्व में सदैव दो पक्ष होते हैं और हर पक्ष अपने विरोधी संकेत करता है, सभी अन्योन्य द्वन्द्वों के मूल में होता है । यदि मनुष्य पक्ष को नकारता है, परपक्ष दृष्टि से वह द्वन्द्व की स्थिति को देख' ही आन्तरिक द्वन्द्व से उत्पन्न कषायों पर नियन्त्रण प्राप्त कर ले तो वस्तुत: नहीं पाता। एकांगी दृष्टि अपनाकर वह दूसरे पक्ष की दृष्टि को पूरी तरह सारे बाह्य द्वन्द्व स्वतः समाप्त हो जाते हैं । अध्यात्म से बाह्य तक खारिज कर देता है । परन्तु जैनदर्शन का वैचारिक-गठन एकांगी नहीं एकरूपता है । जैनदर्शन का यह एक सामान्य सिद्धान्त है कि जो व्यक्ति है। वह अनेक आयामी है। अध्यात्म को जानता है बाह्य को भी जान लेता है । इसी प्रकार जो बाह्य जैनदर्शन मानता है कि हर वस्तु के अनन्त गुण होते हैं -- को जानता है, अध्यात्म को जानता है ।
अनन्तधर्मकं वस्तु' । सत्ता बहरूपधारी है। आम तौर पर हर वस्तु को जैनदर्शन के इस सिद्धान्त को यदि हम द्वन्द्व-स्थिति पर घटित धर्मों (गुणों) के दो भागों में वर्गीकृत किये जा सकता है। ये हैं, करें तो इससे यह पूरी तरह स्पष्ट हो जाएगा कि बाह्य और आन्तरिक स्वपर्याय और परपर्याय । स्वपर्याय किसी भी वस्तु के वे गुण हैं जो द्वन्द्व का मूल स्वरूप एक सा है । मनोवैज्ञानिक विरोधी युग्म-भावनाएँ उसके अपने स्वरूप के परिचायक हैं । ये भावोत्मक धर्म है । परपर्याय जो आन्तरिक द्वन्द्व को जन्म देती हैं, वे ही बाह्य युद्ध और द्वन्द्व में भी वस्तु के अपने गुण न होकर दूसरी वस्तु के गुण होते हैं जिनसे किसी उपस्थित रहती हैं। वस्तुत: लाभ-अलाभ, मान-अपमान, निन्दा-प्रशंसा वस्तु की भिन्नता को रेखांकित किया जाता है । हम मनुष्य का ही की विरोधी युगल-भावनाएँ ही अन्तत: बाह्य द्वन्द्वों पर भी उतना ही उदाहरण लें। उसका आकार, रूप, रंग, कुल, गोत्र, जाति, व्यवसाय, क्रियाशील हैं जितनी व्यक्ति की आध्यात्मिक टूटन के लिए वे उत्तरदायी जन्मस्थान, निवासस्थान, जन्मदिन, आयु, स्वास्थ्य आदि उसके भावात्मक हैं। अत: बाह्य द्वन्द्वों से बचने के लिए भी मनुष्य को मूल रूप से स्वयं धर्म हैं । इनसे उस व्यक्ति विशेष का परिचय और उसकी पहचान मिलती अपने से ही संघर्ष करना है- अपने कषायों पर ही विजय प्राप्त करना है। किन्तु किसी मनुष्य को पूर्णरूप से जानने के लिए यह भी जानना
होगा कि वह क्या नहीं है । अन्य वस्तुओं और अन्य मनुष्यों से उसकी
भिन्नता में भी उसे समझना होगा। ये उसके अभावात्मक लक्षण (पर द्वन्द्व निराकरण के लिए दार्शनिक मनोगठन
पर्याय) होंगे।
अत: एक वस्तु के बारे में अनन्त गणों और दृष्टिकोणों को अनेकान्तवाद और स्याद्वाद
लेकर अनन्त कथन किये जा सकते हैं । इस प्रकार किसी भी विषय के जैनदर्शन में द्वन्द्व एक वाञ्छनीय स्थिति नहीं है । आधुनिक बारे में कोई भी कथन एकान्तिक या निरपेक्ष नहीं हो सकता । सारे कथन मनोविज्ञान और समाजशास्त्र भी द्वन्द्व का प्रतिफल नकारात्मक भावनाओं कुछ विशिष्ट स्थितियों और सीमाओं के अधीन होते हैं । अतः एक ही
और अवाञ्छनीय आचारण में देखते हैं। किन्तु एक सीमित अर्थ में द्वन्द्व वस्तु के बारे में, जो दो भिन्न दृष्टिकोणों से कथन किए जाते हैं वे एक को रचानात्मक भी माना गया है । वस्तुत: आधुनिक दृष्टिकोण के दूसरे के विपरीत भी हो सकते हैं। इस प्रकार हम देखते हैं कि प्रत्येक अनुसार द्वन्द्व न तो अपने आप में शुभ है, न अशुभ क्योंकि उसके कथन का सत्य सापेक्षिक है। यदि सही रूप से देखना है तो, जैन दर्शन परिणाम कुल मिलाकर शुभ और अशुभ दोनों ही हो सकते हैं। के अनुसार, हमें प्रत्येक कथन के पहले 'स्यात्' अथवा 'कदाचित् लगा रचनात्मक दृष्टि से द्वन्द्व को एक ऐसे अवसर के रूप में देखा जा सकता देना चाहिए। इससे यह सङ्केतित हो सकेगा कि यह कथन सापेक्ष माना है जो व्यक्ति/समाज के विकास और सृजनात्मकता के लिए सहायक है, किसी एक दृष्टि या सीमा के अधीन है और किसी भी तरह निरपेक्ष
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द्वन्द्व और द्वन्द्व-निवारण
नहीं है। ऐसा कोई कथन नहीं है जो पूर्णत: सत्य या पूर्णत: मिथ्या हो। हैं जब हम कुल मिलाकर अपने मानसिक गठन को इनके उपयुक्त बना सभी कथन एक दृष्टि से सत्य हैं तो दूसरी दृष्टि से मिथ्या हैं। इस प्रकार सकें । कैट्स और लॉयर ने परस्पर विरोधी हितों पर आधारित द्वन्द्व के अनेकान्तवाद हमें स्याद्वार की ओर स्वत: ले जाता है।
निराकरण हेतु जिस ओवरऑल फ्रेम (व्यापक मनोगठन) की चर्चा की यदि वस्तुस्थिति वास्तव में अनेकांतिक है तो यह आवश्यक है उसमें चार तत्त्व महत्त्वपूर्ण बताए गए हैं। ये हैं-- है कि हम वस्तु से सम्बन्धित अपने कथन में 'स्यात्' शब्द जोड़ दें। एक दूसरे के लिए सम्मान और न्यायप्रियता (Respect वस्तुओं की अनन्त जटिलता के कारण कुछ भी निश्चित रूप से नहीं and Integrity) कहा जा सकता । बेशक इसका यह अर्थ नहीं है कि हम कोई कथन सौहार्दपूर्ण सम्पर्क (Rapport) कर ही नहीं सकते हैं। हाँ निरपेक्ष या एकान्तिक कथन असम्भव है। साधन सम्पन्नता (Resourcefulness) वस्तु का गत्यात्मक चरित्र हमें केवल सापेक्षिक या सोपाधिक कथन एक रचनात्मक वृत्ति (Constructive attitude) करने के लिए ही बाध्य करता है।
सम्मान और न्यायप्रियता का अर्थ है कि हम द्वन्द्व की स्थिति जैन दार्शनिकों ने अपने इस सिद्धान्त को उस हाथी के द्वारा में दूसरे पक्ष के विरोधी आचरण के बावजूद उसके लिए एक सकारात्मक समझना चाहा है जिसके बारे में कई अन्धे व्यक्ति अपना- अपना कथन दृष्टि को बनायें रखें । हम उसके व्यवहार को भले ही अच्छा न समझें कर रहे होते हैं और वे अलग-अलग निष्कर्षों पर पहुँचते हैं। उनमें से और उसे अस्वीकार कर दें पर मानव होने के नाते उसे जो प्रतिष्ठा और हर कोई हाथी का अपने सीमित अनुभव द्वारा, ज्ञान प्राप्त कर पाता है। सम्मान मिलना चाहिए-उससे उसे वंचित न करें। न्यायप्रियता का अर्थ हर कोई हाथी के किसी एक हिस्से को छूता है ओर तदनुसार उसका है हम अपने प्रति ईमानदार हों और जो भी कहें/ करें उसे अनावश्यक वर्णन करता है जो उसका कान पकड़ लेता है वह हाथी को 'सूप' की रूप से गुप्त न रखें । हमारा व्यवहार पादरी हो । उसमें हम केवल तरह बताता है । जो उसके पैर पकड़ता है, वह उसे खम्भे की तरह एक ही पक्ष के हित पर विचार न करें। बताता है, इत्यादि । सच यह है कि हाथी को अपनी सम्पूर्णता में किसी द्वन्द्व के निराकरण हेतु यह भी आवश्यक है कि किसी भी ने भी नहीं देखा है । हरेक ने केवल उसके किसी एक ही अङ्ग का स्पर्श हालत में हम दूसरे पक्ष से अपना सम्पर्क पूरी तरह तोड़ न लें। किया है । इसलिए वस्त: कोई नहीं कह सकता कि सम्पूर्ण हाथी कैसा परिस्थिति को इस प्रकार ढालें कि एक सकारात्मक सम्बन्ध बना रह है। अधिक से अधिक यह कहा जा सकता है 'हो सकता है हाथी सूप सके और दूसरा पक्ष हमारी बात सुनने/समझने के लिए तत्पर रहे। की तरह हो ' अथवा हो सकता है वह खम्भे की तरह हो।
द्वन्द्व और तनाव से परिपूर्ण परिस्थितियों के दबाव में हम हो सकता है', 'कदाचित्', 'स्यात्' ये वे शब्द हैं जो बार- अक्सर एक प्रकार के मानसिक प्रमाद से ग्रस्त हो जाते हैं और उन बार हमें याद दिलाते हैं कि हम यथार्थ को केवल आंशिक रूप से ही संसाधनों के प्रति जिनका हम द्वन्द्व निराकरण के लिए उपयोग कर सकते जान पाते हैं । स्याद्वाद इस प्रकार हमें अपने निर्णयों में अत्यन्त सावधानी हैं प्राय: उदासीन हो जाते हैं । अत: यह आवश्यक है कि हम निराकरण के लिए आमन्त्रित करता है । वह वास्तविकता को परिभाषित करते के प्रति अपनी पूरी जागरूकता बनाए रखें और अपनी सभी योग्यताओं समय हमें सभी प्रकार के मताग्रहों से बचने के लिए सावधान करता है और क्षमताओं का इस दिशा में पूरा-पूरा उपयोग कर सकें । यही साधनजिनदर्शन में स्याद्वाद के साथ दार्शनिक सूक्ष्मता और सुकुमारता मानों सम्पन्नता है। अपने चरम पर पहुँच जाती है।
और अन्त में रचनात्मक वृत्ति । जब तक हम रचनात्मक वृत्ति द्वन्द्व की स्थिति में प्रत्येक पक्ष एकान्तिक दृष्टिकोण अपनाता को नहीं अपनाते द्वन्द्व निराकरण असम्भव है । किसी भी पक्ष के लिए है और यही उसके निराकरण में सबसे बड़ी कठिनाई है । जब तक हम यह आवश्यक है कि वह इस बात के प्रति आश्वस्त हो कि द्वन्द्व का एकांतिक दृष्टि को अपनाये रहेंगे और दूसरे पक्ष के दृष्टिकोण को निराकरण, यदि उचित प्रबन्ध किया जाय तो अवश्य हो ही जाएगा। अनदेखा करते रहेंगे, हम द्वन्द्व को समाप्त करने की बात सोच ही नहीं वह रचनात्मक वृत्ति द्वन्द्व से निपटने के लिए बहुत सहायक होती है । सकते । इसलिए जैनदर्शन हमें सर्वप्रथम उस वैचारिक-मानसिक गठन यदि हम ध्यान से देखें तो उपर्युक्त एक व्यापक मनोगठनको विकसित करने के लिए आमन्त्रित करता है जो अनेकान्त ओर एक दूसरे के प्रति सम्मान और सौहार्दपर्ण सम्पर्क तथा जागरूकता और स्याद्वाद की धारणाओं के अनुरूप हो।
रचनात्मक वृत्ति ठीक उसी प्रकार की दार्शनिक-मानसिक बनावट है
जिसे हम जैनदर्शन के अनेकान्तवाद और स्याद्वाद में पाते हैं । द्वन्द्व की द्वन्द्व निराकरण की प्रविधियाँ
स्थिति में हम दूसरे पक्ष को समादर नहीं दे पाते इसका मूल कारण ही आधुनिक मनोविज्ञान और समाजशास्त्र में द्वन्द्व निराकरण के यह है कि हम एकांतिक दृष्टिकोण अपनाते हैं । यदि हा रा दृष्टिकोण अनेक उपाय बताए गए हैं। किन्तु ये सारे उपाय तभी सफल हो सकते यह हो कि दूसरा पक्ष भी अपने पक्ष की ही तरह सही या गलत हो
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जैन विद्या के आयाम खण्ड-७
सकता है तो दूसरे पक्ष के प्रति असम्मान के लिए कोई स्थान ही नहीं का विकास करेंगे तो क्रमश: क्रोध, मान, माया और लोभ पर स्वत: रहेगा । इसी प्रकार सौहार्दपूर्ण सम्पर्क भी तभी बना रह सकता है जब · विजय प्राप्त कर सकते हैं । इसके ठीक विपरीत योगदर्शन चारित्रिक हम केवल अपने दृष्टिकोण को ही अन्तिम न मानकर, दूसरे पक्ष को गुणों के विकास के लिए उनकी प्रतिपक्ष भावनाओं पर ध्यान देने के समझने के लिए तत्पर हों। दूसरे के लिए भी अन्तत: अनेकान्तवादी लिए कहता जो मनुष्य के लिए दु:ख का कारण बनती है। यदि हम मनोगठन की ही आवश्यकता है । अनेकान्तिक मनोगठन अपने आप उन प्रतिपक्षी भावनाओं पर दु:ख के कारकों के रूप में ध्यान दें तो हम में ही जागरूकता और रचनात्मक वृत्ति उत्पन्न करता है । जैनदर्शन में स्वत: चारित्रिक गुणों का विकास कर सकते हैं । इस प्रकार हम पाते जैसा कि हम पूर्व में उल्लेख कर चुके हैं, जाग्रति पर बहुत बल दिया हैं कि चारित्रिक गुणों के विकास के लिए दोनों दर्शनों में भिन्न वृत्तियाँ गया है। कहा गया है, अज्ञानी सदा सोते हैं और ज्ञानी सदा जागते हैं ।१३ अपनाई गई है। जैनदर्शन जबकि एक स्वीकारात्मक दृष्टिकोण को
अपनाकर सर्जनात्मक भावनाओं के विकास पर बल देता है ताकि भाव-शुद्धि
कषायों का हनन किया जा सके । योगदर्शन प्रतिपक्षी भावनाओं पर ध्यान द्वन्द-निवारण के लिए एक व्यापक रूप से अनेकान्त दृष्टि तो देने के लिए प्रेरित करता है ताकि उनके द:खद परिणामों को जानकर आवश्यक है ही साथ ही कुछ मूर्त उपाय भी हैं जो द्वन्द्व समाधान की हम उनसे बाज आ सके और सद्गुणों का विकास कर सके। ओर निस्सन्देह सङ्केत करते हैं इनमें से एक है-भाव-शुद्धि ।
जो भी हो, भाव-शुद्धि आवश्यक है क्योंकि मान, माया, लोभ द्वन्द्व के स्वरूप को बताते हुए हमने यह रेखांकित किया था और क्रोध की उद्दाम भावनाएं द्वन्द्व की स्थिति को न केवल प्रश्रय देती कि द्वन्द्व सदैव किसी न किसी उग्र-संवेग से आवेष्टित होता है और यह हैं बल्कि बद से बदतर भी बनाती हैं । स्वयं को इन कषायों से मुक्त करने संवेग या भाव सदैव ही विकार युक्त होते हैं । जैनदर्शन में ऐसे चार के लिए यह आवश्यक है कि हम अपने में इनके विपरीत मधुर भावों विकार जिंन्हे कषाय कहा गया है, बताए गए हैं -ये हैं - क्रोध, मान, को-मार्दव, आर्जव, सन्तोष और क्षमा को विकसित करें । मार्दव का माया, और लोभ । यदि हम 'शीतोष्णीय द्वन्द्व'१४ से निजात पाना चाहते अर्थ है, कुल, रूप, जाति, ज्ञान, तप, श्रुत और शील का व्यक्ति तनिक हैं तो सबसे पहले हमें इन कषायों पर विजय प्राप्त करनी होगी। इन पर भी गर्व न करे । अपने अभिमान में मनुष्य दूसरों को अपमानित करता विजय प्राप्त करने का आखिर तरीका क्या है ? ।
है और द्वन्द्व-स्थिति में दुसरे पक्ष को अपमानित करना बड़ा आसान होता . आगम कहता है कि मद, मान, माया और लाभ से रहित भाव है। इससे बचने के लिए मार्दव का विकास होना चाहिए । आर्जव ही भाव-शुद्धि है। अत: यदि हम द्वन्द्व से विरत होना चाहते हैं तो इन कुटिल विचार, कुटिल वचन से अपने को बचाए रखना है १९१ सन्तोष कषायों से हमे अपने आप को मुक्त करना होगा।
लोभ को समाप्त करता है । जब सन्तोष होगा तो लोभ के लिए कोई __इसका उपाय यह है कि कषायों पर ध्यान न देकर उन मधुर- स्थान रहेगा ही नहीं । क्षमा वस्तुत: मैत्री भाव का विकास है । यदि भावनाओं पर हम अपना ध्यान केन्द्रित करें, कषाय जिनके प्रतिपक्षी आपमें मैत्री भाव नहीं है तो आप क्षमा भी नहीं कर सकते । भले ही दूसरे हैं। वे मधुर-भावनाएँ क्या हैं ? कहा गया है कि क्रोध प्रीति को नष्ट का व्यवहार आपके दृष्टिकोण से कितना ही गलत क्यों न हो, किन्तु करता है, मान विनय को नष्ट करता है, माया मैत्री को नष्ट करती है यदि आप उससे मैत्री बनाए रखते हैं और उसे क्षमा दे सकते हैं तो देर
और लोभ सब कुछ नष्ट कर देता है । अत: कहा जा सकता है कि सबेर वह आपकी दृष्टि का भी सम्मान किए बगैर नहीं रह सकता । अत: कषाय उन सारे भावों-प्रीति, विनय, मैत्री आदि का-जो द्वन्द्व निराकरण द्वन्द्व-निवारण की दशा में यह आवश्यक है कि हम अपने कषायों की में सहयोगी हो सकते हैं- नष्ट कर देते हैं । कषायों पर विजय प्राप्त भाव-शुद्धि करें और उन मधुर भावों का विकास करें, कषाय जिनके करना इसीलिए बहुत आवश्यक है । इन पर विजय किस प्रकार प्राप्त प्रतिपक्षी हैं। की जाए । आगम कहता है कि हम क्रोध का हनन क्षमा से करें, मार्दव सामायिक से मान को जीतें, आर्जव से माया को और सन्तोष से लोभ को द्वन्द निवारण के उपायों में, जिसे जैन दर्शन में 'सामायिक' जीतें ।१७ तात्पर्य यह है कि यदि हम कषायों पर विजय प्राप्त करना कहा गया है, एक बहुत महत्त्वपूर्ण प्रविधि है । जहाँ द्वन्द्व है वहाँ विरोध चाहते हैं तो यह आवश्यक है कि हम उन भावनाओं को, जागरूक है। द्वन्द्व से यदि विरोध की भावना को निरस्त कर दिया जाए तो द्वन्द्व, होकर, अपने में विकसित करें जो कषायों का हनन करती हैं। द्वन्द्व नहीं रहता। इसके लिए आवश्यक है कि हम समत्व की भावना
इस प्रसंग में यहाँ जैनदर्शन की तुलना यदि योगदर्शन से की का विकास करें । जाए तो वह दिलचस्प हो सकती है। जैनदर्शन के अनुसार कषायों पर-
जैनदर्शन में 'समत्व' को एक मल्य के रूप में स्वीकार किया अर्थात् नकारात्मक आवेगों पर विजय प्राप्त करने के लिए हमें सृजनात्मक गया है 'श्रमण' वही है जिसमें समत्व की भावना हो- “समयाए समणो भावनाओं पर ध्यान देना चाहिए और उन्हें विकसित करना चाहिए। इस होई२०" । समता, माध्यस्थभाव, शुद्धभाव, वीतरागता, चारित्र, धर्म और प्रकार यदि हम क्षमा, मार्दव, आर्जव और सन्तोष जैसे चारित्रिक गुणों स्वभाव आराधना-ये सभी एकार्थक शब्द हैं.१ । आत्मा को आत्मा के
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द्वन्द्व और द्वन्द्व-निवारण
रूप में जानते हुए जो राग-द्वेष में समभाव रखता है, वही श्रमण पूज्य माना गया है। वह लाभ और अलाभ में, सुख और दुःख में, जीवन और मरण में निन्दा और प्रशंसा में तथा मान और अपमान में समभाव रखता है२३ ।
समत्व-प्राप्ति के लिए ध्यान रूप होना आवश्यक है । सामायिक में समत्व की उपलब्धि के लिए ध्यान पर बल दिया गया है। तत्त्वानुशासन में कहा गया है कि चित्त को एकाग्र करके उसे विचलित न होने देना ही ध्यान है २४ । लेकिन चित्त को शुभ और अशुभ दोनों पर ही केन्द्रित किया जा सकता है। प्रशस्त ध्यान, वह ध्यान है जो समत्व के शुभ-परिणाम हेतु होता है । प्रशस्त ध्यान की साधना समत्व-लाभ के लिए ही होती है।
क्या समत्व साधना (सामायिक) एक आध्यात्मिक साधना मात्र है ? अथवा इसका कोई व्यवहार पक्ष भी है ? डॉ० सागरमल जैन कहते हैं कि समत्वयोग का तात्पर्य चेतना का संघर्ष या द्वन्द्व से ऊपर उठ जाना है । यह जीवन के विविध पक्षों में एक ऐसा सांग सन्तुलन है जिसमें न केवल चैतसिक एवं वैयक्तिक जीवन के संघर्ष समाप्त होते हैं, वरन् सामाजिक जीवन के संघर्ष भी समाप्त हो जाते हैं, शर्त यह है कि समाज के सभी सदस्य उसकी साधना में प्रयत्नशील हों ।२५
५. आयारो, लाडनूं, सं २०३१, पृ० ८०-८१,गाथा,
४९-५१। ६. वही, पृष्ठ१२२, गाथा ९ । ७. वही, पृष्ठ १२४, गाथा ८ । ८. देखें समणसुत्तं, गाथा - १३५-१३६ । ९. वही, गाथा, १२३-१२७ । १०.जे अत्झत्थं जाणइ, से बहिया जाणइ । जे बहिया जाणइ, से अत्झत्थं जाणइ ।
आचारांग, गाथा, ३४७ ११. देखें - कैट्स और लॉयर : कंफ्लिक्ट रेसोलुशन,
सेज, कैलिफोर्निया, १९९३, पृ० १०। १२. वही, पृ० २९ । १३. आयारो (पूर्वोक्त), पृ० १२२, गाथा, १।। १४. यहाँ ध्यात्व्य है कि आयारो (पूर्वोक्त) के तीसरे
अध्ययन का शीर्षक 'शोतोष्णीय' है जो स्पष्ट ही सभी
प्रकार के द्वन्द्व की ओर सङ्केत करता है। १५. नियमसार,१२२। १६. समणसुत्तं गाथा, १३५ । १७. दशवैकालिक, ८/३८ । १८. समणसुत्तं गाथा, ८८ । १९. वही, गाथा, ९१ । २०. वही, गाथा, ३४२। २१. वही, गाथा, २७५ । २२. वही, गाथा, ३४२। २३. वही, गाथा, ३४७ । २४. तत्त्वानुशासन, वीर सेवा मन्दिर ट्रस्ट दिल्ली, श्लोक
५६। २५. देखें, डॉ० सागरमल जैन-जैन, बौद्ध और गीता का
साधना मार्ग, जयपुर, १९८२, पृ० १६-१७ ।
सन्दर्भ १. अंग्रेजी-हिन्दी कोश एस० चन्द्र एण्ड कं० नई दिल्ली - द्वारा प्रकाशित, १९९३, देखें शब्द कंफ्लिक्ट,
पृ०१२८ । २. प्राकृत-हिन्दी कोश अहमदाबाद/ वाराणसी से प्रकाशित,
१९८७, देखें, शब्द 'दंद' पृ० ४४८ । ३. हिन्दी विश्व कोश,खण्ड ६, 'द्वन्द्व-युद्ध पृ० १४३
१४४।
४. लाभलाभे, सुहे दुक्खे जीविए मरणो तहा। समो निन्दापसंसासु तहा माणावमाणओ ।।
-समणसुत्तं, गाथा,३४७
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तनाव : कारण एवं निवारण
डॉ० सुधा जैन वर्तमान में मानव भौतिक क्षेत्र में जितना प्रगति की ओर तनाव का पारिभाषिक अर्थ अग्रसर है, आध्यात्मिक क्षेत्र में उतना ही ह्रासोन्मुख है । जीवन के पी०डी० पाठक के अनुसार - तनाव व्यक्ति की शारीरिक प्रत्येक क्षेत्र में आत्मीयता, निर्भयता, सहिष्णुता, सामाजिकता आदि और मनोवैज्ञानिक दशा है । यह उसमें उत्तेजना और असंतुलन उत्पन्न मानवीय गुणों का अकाल सा पड़ता जा रहा है । आज चारों ओर कर देता है एवं उसे परिस्थिति का सामना करने के लिए क्रियाशील अराजकता, लुटपाट, हत्या, हड़ताल, पथराव, आगजनी आदि का बनाता है । एडवर्ड ए० चार्ल्सवर्थ तथा रोनाल्ड जी० नाथन के अनुसार साम्राज्य है, एक ओर वैयक्तिक जीवन विभिन्न कुंठाओं एवं हीन -तनाव के बहुत से अर्थ होते हैं । किन्तु अधिकतर लोग तनाव को भावनाओं से ओत-प्रोत है तो पारिवारिक, सामाजिक और राजनैतिक जीवन की मांगों के रूप में समझते हैं । पारिभाषिक रूप में इन मांगों जीवन में ईर्ष्या, द्वेष, घृणा, तिरस्कार, प्रतिशोध आदि का बोलवाला को तनाव-उत्पादक (Stressors) कहते हैं। है। अमावस की रात्रि का घनघोर अंधकार जिस प्रकार सर्वत्र छाया रहता है, उसी प्रकार तनावों एवं विषमताओं का प्रभाव सर्वव्यापी होता जा तनाव की परिभाषा रहा है। वर्तमान युग को तनाव युग की संज्ञा दें तो कोई अतिशयोक्ति गेट्स अन्य के अनुसार- 'तनाव, असंतुलन की दशा है, नहीं होगी । मानसिक तनाव से प्रभावित होकर उसका (मानव) जीवन जो प्राणी को अपनी उत्तेजित दशा का अन्त करने हेतु कोई कार्य करने असंतुलित होता जा रहा है । इसलिए वह अपने असंयमित जीवन में के लिए प्रेरित करती है।' शिव नहीं बल्कि शैतान को प्रतिष्ठित कर रहा है। ऐसी परिस्थिति में ड्रेवर के मतानुसार-'तनाव का अर्थ है- संतुलन के नष्ट होने सहज ही प्रश्न उपस्थित होता है कि तनावों से सर्वथा ग्रसित एवं व्यथित की सामान्य भावना और परिस्थिति के किसी अत्यधिक संकटपूर्ण कारक जनजीवन को कैसे तनाव मुक्त कर सहज जीवन जीने का मार्ग दिखाया का सामना करने के लिए व्यवहार में परिवर्तन करने की तत्परता।' जाय।
नार्मन टैलेण्ट के शब्दों में प्रतिबल (Stress) से ऐसे तनाव की समस्या के समाधान के लिए पाश्चात्य चिन्तकों ने दबाव का बोध होता है जिससे व्यक्तित्व के पर्याप्त रूप से कार्य करते विशेष रूप से काम किया है। परन्तु भारतीय समकालीन चिन्तकों ने रहने की योग्यता एक प्रकार से संकटग्रस्त हो जाती है।'६ भी भारतीय वाङ्मय में प्राप्त तथ्यों के आधार पर तनाव का विवेचन, रोजन एवं ग्रेगरी के अनुसार- 'प्रतिबल (Stress) से, विस्तृत विश्लेषण प्रारम्भ कर दिया है। उनमें जैन संत एवं चिन्तक युवाचार्य रूप से ऐसी बाह्य तथा आन्तरिक अनिष्टकारी व वंचनकारी स्थितियों का महाप्रज्ञ (वर्तमान में आचार्य) जी का नाम उल्लेखनीय है। उन्होंने जैन बोध होता है, जिनके प्रति व्यक्ति द्वारा समायोजन कर पाना अत्यधिक साहित्य के आधार पर तनाव को अपने ढंग से समझने और समझाने कष्टकर होता है । का प्रयास किया है।
युवाचार्य महाप्रज्ञ के अनुसार 'तनाव' का शाब्दिक अर्थ
__'जब किसी भी पदार्थ पर पड़ने वाले दाब से पदार्थ के विभिन्न शब्द कोशों में तनाव के पर्यायवाची शब्दों के रूप आकार में परिवर्तन हो जाता है तो उसे तनाव या टान कहा जाता है। में दबाव, दाब, भार, प्रभाव, तंगहाली, तंगी, विपत्ति, कष्ट, तकलीफ, इस प्रकार उपर्युक्त परिभाषाओं के आधार पर हम कह सकते टान, प्रतिबल, बल, जोर, महत्त्व, बलाघात, बलात्मक,स्वराघात, हैं कि तनाव व्यक्ति के सामान्य सुख-चैन पूर्ण जीवन में पैदा होने वाली प्रयत्न आदि शब्द प्राप्त होते हैं। अंग्रजी में भी तनाव के लिए प्रेशर गड़बड़ी या बेचैनी है। कोई भी परिस्थिति जो हमारी सामान्य जीवन धारा (Pressure), इफेक्ट (Effect), हार्डशिप (Hardship), डिस्ट्रेस को अस्त-व्यस्त कर दे, उसे हम 'तनाव उत्पन्न करने वाली' परिस्थिति (Distress) टेन्शन (Tension) मेकेनिक्स (Mechanics), इम्फेशिस कह सकते हैं। (Emphasis) इम्पोरटेंस (Importance) फोनेटिक्स (Phonetics) इम्पेलिंग फोर्स (Impelling Force) वेट फोर्ट (Weight effort) तनाव से उत्पन्न शारीरिक स्थितियाँ आदि मिलते हैं।
पाश्चात्य चिन्तकों चार्ल्सवर्थ और नाथन के अनसार तनाव के परिणामस्वरूप व्यक्ति की निम्नलिखित स्थितियाँ देखी जाती हैं .
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तनाव : कारण एवं निवारण
१.मन्द पाचन क्रिया (Digestion Slows) - तनाव के पहुंचाने के लिए हृदय की धड़कन बढ़ जाती है। कारण पाचन क्रिया मन्द होने से रक्त का प्रवाह मांसपेशियों तथा ७.रक्तचाप बढ़ जाता है। मस्तिष्क की ओर बढ़ने लगता है, जो अपच की स्थिति से भी ज्यादा ८.विद्युत रासायनिक एवं स्त्रावों (Harmons) की ऊर्जा अधिक मात्रा खतरनाक है।
में उत्पन्न होने लगती है । लेकिन आवश्यकतानुसार कार्य न होने से
मांसपेशियों में तनाव के रूप में प्रतिबद्ध हो जाती है। २.तीव्र श्वांस (Breathing gets faster)- तनाव की ९. निरन्तर रक्तचाप उच्च रहने से दिल का दौरा या रक्ताघात स्थिति में श्वांस की गति तेज हो जाती है, क्योंकि मांस पेशियों को (Heart attack or Brain Haemorrhage) हो जाता है। अधिक ऑक्सीजन की जरूरत होती है।
१०.श्वांस की गति तीव्र रहने से दमा आदि श्वांस की बिमारियाँ
उत्पन्न होती हैं। ३.हृदय गति का बढ़ना (Hearts speeds up)- तनाव ११.एड्रीनालीन का स्त्राव बन्द होने से, हृदय की गति कम व के कारण हृदय की गति बढ़ जाती है, साथ ही रक्तचाप भी बढ़ता है। रक्तवाहिनियाँ शिथिल हो जाती हैं जिसके परिणाम स्वरूप बेहोशी आ
जाती है। ४.पसीना आना (Perspiration increases)- तनाव तनाव से उत्पन्न शारीरिक स्थितियों के सम्बन्ध में भारतीय की स्थिति में व्यक्ति के शरीर से अधिक मात्रा में पसीना आने लगता है। एवं पाश्चात्य चिन्तकों में जो संख्यात्मक भेद है, वह भेद कोई विशेष
अर्थ नहीं रखता । यदि देखा जाए तो चार्ल्सवर्थ और नाथन तथा ५.मांसपेशियों में कड़ापन (Muscles tense)- तनाव युवाचार्य महाप्रज्ञ द्वारा बतायी गयी उपर्युक्त शारीरिक स्थितियाँ एक दसरे के कारण मांसपेशियां प्रमुख कार्य के लिए कड़ी हो जाती हैं। में समावेशित हो जाती हैं।
६.रासायनिक प्रभाव (Chemicals action)- तनाव की तनाव के कारण स्थिति में रासायनिक पदार्थ रक्त में मिलकर उसका थक्का जमा देते हैं। तनाव उत्पन्न करने में कई तत्त्व काम करते हैं - सफलता,
असफलता, लोभ, क्रोध, द्वेष, ईर्ष्या, अत्यधिक महत्त्वाकांक्षा आदि। ७.शर्करा तथा वसा (Sugars and Fats)- तनाव की पाश्चात्य चिन्तकों ने भी प्रायः तनाव के दो कारण माने हैं१२वजह से रक्त में शर्करा तथा वसा की मात्रा बढ़ जाती है जो कि तीव्र १. आन्तरिक कारण- तनाव के आन्तरिक कारणों में शक्ति उत्पन्न कर उसे कार्य करने के लिए साधन का काम करती है। आन्तरिक प्रवृत्तियां तथा चिन्तन जो हमारे द्वारा अगमित होना चाहते
युवाचार्य महाप्रज्ञ ने भी इस सम्बन्ध में कहा है कि तनाव की हैं, को लिया गया है। निरन्तर स्थिति बने रहने पर शारीरिक गड़बड़ी उत्पन्न हो सकती है। २.बाह्य कारण- तनाव के बाह्य कारणों में वे सभी बातें इससे शरीर में स्थित दबाव तन्त्र निरन्तर सक्रिय रहता है। दबाव तन्त्र आती हैं जो तनाव उत्पन्न करती हैं, वे इस प्रकार हैं - के अन्तर्गत हाइपोथेलेमस (Hypothelemus), पीयूष ग्रन्थि (१) यातायात का अवरूद्ध होना। (Pituitary gland), एड्रीनल ग्रन्थियां (Adrenal glands) और (२) शहर का प्रदूषण या दूषित वातावरण । स्वायत नाड़ी संस्थान का अनुकम्पी विभाग (Sympathetic part of (३) कॉफी का पांचवाँ प्याला। Auto Nerves System) आते हैं । जिसके कारण शरीर में घटित (४) वे दुकानदार, जो जवाब न दें। होने वाली शारीरिक स्थितियाँ निम्न प्रकार की हो जाती हैं।१ -
(५) क्रोधित अधिकारी। १.पाचन क्रिया मन्द या बिल्कुल स्थगित हो जाती है ।
इनके अतिरिक्त भी कुछ बाह्य कारण और हैं, जो इस प्रकार २.लार ग्रन्थियों के कार्य-स्थगन से मुंह सूख जाता है। ३. चयापचय की क्रिया में तेजी आ जाती है।
(१) वे काम, जिनके सम्पन्न होने के आसार नहीं दिखाई देते है। ४. श्वांस तेजी से चलने लगती है तथा हांफने लगते हैं। (२) वे बच्चे, जो बातों पर कभी ध्यान नहीं देते ।
५.यकृत द्वारा संगृहीत शर्करा को अतिरिक्त रूप से रक्त प्रवाह में (३) वे व्यक्ति जो निरन्तर अपनी गलतियों को छुपाने में ही लगे छोड़ दिया जाता है, जिससे वह हाथ-पैर की मांस पेशियों तक पहँच रहते हैं। जाये।
तनाव के कारणों पर प्रकाश डालते हुए डॉ० होम्स ६.शरीर में अधिक रक्त की आवश्यकता वाले भागों तक उसे (Dr. Homes) और डॉ०आर०राहे (Dr.R. Rahe) ने भी जीवन
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जैन विद्या के आयाम खण्ड-७
विवाह
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शैली के परिवर्तनों के सम्बन्ध में कुछ महत्त्वपूर्ण तथ्य दिये हैं, जो इस के समान अनन्त हैं ।१९ तृष्णा की उपस्थिति में शांति नहीं मिल सकती प्रकार हैं१३
हैं । इच्छाएं-आकांक्षाएं दिन-प्रतिदिन बढ़ती जा रही हैं, जिससे नये-नये क्र०सं० घटना
आविष्कार होते जा रहे हैं। किसी ने कहा भी है-आवश्यकता आविष्कार दम्पति में से किसी एक की मृत्यु
की जननी है (Necessity is the mother of Invention) । तलाक
आवश्यकता और आविष्कार का क्रम निरन्तर चलता रहा, जिसका चोट या बीमारी
दुष्परिणाम विश्वयुद्ध के रूप में हमारे सामने आया। आज ऐसे-ऐसे युद्ध
आयुधों जैसे-एटम बम, हाइड्रोजन बम, मेगाटन बम और ड्रम्स डे का कार्य से निष्कासन
अविष्कार हो चुका है, जो कुछ ही क्षणों में सम्पूर्ण विश्व को नष्ट कर सेवानिवृत्ति
दें। धन, सत्ता और यश की लिप्सा में मानव पागल हो रहा है । अत: लैंगिक समस्याएं
सम्पूर्ण विश्व ही तनाव से ग्रसित है । जैसे-जैसे लाभ होता है, लोभ की कार्य (व्यवसाय) में परिवर्तन
२९ वृत्ति बढ़ती है। उत्तराध्ययन सूत्र में भी कहा गया है- 'ज्यों-ज्यों लाभ जीवन की स्थितियों में परिवर्तन ___ २५ होता है, त्यों-त्यों लोभ बढ़ता जाता है । लाभ लोभ को बढ़ाने वाला १०. सोने या आहार सम्बन्धी आदतों में परिवर्तन १६ है। दो मासा सोने से होने वाला कपिल का कार्य लोभवश करोड़ों से
उपर्युक्त तालिका में दी गई घटनाओं के अंक सभी व्यक्तियों भी पूरा न हो सका । २० दशवैकालिक के अनुसार- क्रोध से प्रीति का, पर समान रूप से लागू नहीं होते, फिर भी इन कारणों से तनाव तो मान से विनय का, माया से मित्रता का और लोभ से सभी सद्गुणों का अवश्य ही उत्पन्न होता है, चाहे उसका कितना ही प्रतिशत क्यों न हो। नाश होता है ।२१ तृष्णा, लोभ, लिप्सा, स्वार्थ परायणर्ता तनावों के यदि इनका योग ३०० हो जाता है तो उसे महातनाव से ग्रसित माना प्रमुख कारणों में से हैं । साध्वी कनकप्रभा के शब्दों में - 'विनाश के जाता है। इस तरह अंकों के आधार पर तनाव के कारणों की तीव्रता- विभिन्न उपकरणों के भार से लदा विश्व कराह रहा है एवं पेचीदा मन्दता का भी निर्धारण हो जाता है ।
राजनैतिक स्थितियां उसे और भी उलझा रही हैं । सत्ता का व्यामोह, जैन दृष्टि में तनावों का मूल कषाय को माना गया है । कषाय विस्तारवादी मनोवृत्ति और अस्मिता का पोषण, इनसे आक्रान्त होकर 'कष' और 'आय' इन दो शब्दों के योग से बना जैन धर्म का एक विश्वचेतना उस चौराहे पर खड़ी है, जिसकी कोई भी राह निरापद नहीं पारिभाषिक शब्द है, जिसका अर्थ है- कर्मों का बन्धन । मूलत: कषाय है ।२२ चार ही हैं- क्रोध, मान, माया और लोभ ।५ ये कषायिक वृत्तियाँ अर्थात् माया-लोभ और क्रोध-मान क्रमश: राग तथा द्वेष की जननी हैं।१६ तनाव के प्रकार इसीलिए आगमों में क्रोध को क्षमा-शांति से, मान को मृदुता-नम्रता तनाव के प्रकारों को व्यक्तिगत, पारिवारिक एवं विश्वव्यापी से, माया को ऋजुता-सरलता से और लोभ को तोष-संतोष से जीतने रूपों में विभक्त कर सकते हैं, जो इस प्रकार हैं - का मार्ग बताया गया है। तीव्रता-मन्दता और स्थायित्व के आधार पर भी आगमों में इन्हें पुन: चार-चार भागों में विभाजित किया गया है - व्यक्तिगत तनाव- प्रत्येक क्षेत्र में कार्य करने वाले व्यक्ति अनन्तानुबन्धी, अप्रत्याख्यानी, प्रत्याख्यानी और संज्वलन ।१८ अनन्तानुबन्धी तनाव से ग्रसित हैं। चाहे मिल मालिक हो, मजदूर हो, व्यापारी हो, कषाय अनन्त काल तक, अप्रत्याख्यानी कषाय का समय एक वर्ष, कर्मचारी हो, प्रशासक हो, सेठ हो, वकील हो अथवा अध्यापक होप्रत्याख्यानी कषाय का समय चार मास तथा संज्वलन कषाय का समय सभी वर्गों के लोग किसी न किसी कारण से तनावयुक्त जीवन जी रहे पन्द्रह दिन माना गया है । जैसे-जैसे कषायिक पर्ते खुलती जाती हैं, हैं। प्रत्येक व्यक्ति अपने से उच्च-स्तर के व्यक्ति को देखता है, उसकी वैसे-वैसे अशान्ति, आकुलता एवं तज्जन्य तनावों की परतें स्वयं सुख-सुविधाओं को देखकर उन्हें प्राप्त करने में जुट जाता है । जिसके अनावरित होती जाती हैं।
कारण उसका दिन का चैन व रात की नींद तक हराम हो जाती है। आज के वैज्ञानिक युग में विज्ञान के द्वारा जितना भी औद्योगिक नींद लेने के लिए भी औषधियों का सेवन करना पड़ता है। यदि वह विकास हुआ है, उसके अनियन्त्रित होने के कारण, मानव जीवन ही सुविधाएं प्राप्त कर भी लेता है तो कभी टेलीफोन की घंटी उसकी नींद असन्तुलित हो गया है। औद्योगिक क्रान्ति के कारण भौतिक अभिवृद्धि में व्यवधान डाल देती है। धन मिलने पर भी सुख मिल जाये, यह तो हुई लेकिन साथ ही आवश्यकताएं भी असीमित हो गईं, जिससे आवश्यक नहीं है । असन्तोष-क्लेश के कारण वह अस्वस्थ हो जाता लालसा, लोभ तृष्णा भी बढ़ी और तनावों का विकास हुआ, क्योंकि है, रक्तचाप जैसी बीमारी का शिकार हो जाता है । अपने उपलब्ध सुखों इच्छाएं अनन्त हैं । उत्तराध्ययनसूत्र में कहा भी गया है- इच्छाएं आकाश को भूलकर बाह्य जगत् में व्यक्ति उसको ढूँढ़ता फिरता है, ठीक उसी
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तनाव : कारण एवं निवारण
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प्रकार जैसे मृग अपनी नाभि में स्थित कस्तूरी की सुवास का वन-वन है। कभी हिंसा की भावना आती है तो कभा प्रतिशोध की । घटना कुछ में खोजता है, पर्वत और कन्दराओं में ढूंढ़ता है, लेकिन अपने भीतर भी नहीं होती लेकिन बदले की भावना लम्बे समय तक चलती रहती नहीं झाँक पाने के कारण कष्ट पाता रहता है । इसी सन्दर्भ में है। व्यक्ति अपनी पूरी शक्ति इसी में लगा देता है और यही तनाव का कबीरदासजी ने भी कहा है .२३
कारण होता है। 'कस्तूरी कुण्डल बसै, मग ढूंढे बन माहिं ।
रौद्रध्यान से उत्पन्न भावनात्मक तनाव चार स्थितियों में उत्पन्न तैसे घट-घट राम हैं, दुनिया देखे नाहिं ।।' होता है .
इसी प्रकार मानव भी लोभ के वशीभूत, सुख की खोज में (१) हिंसानुबन्धी ___- हिंसा का अनुबन्ध, अमूल्य मानव भव को तनाव से ग्रसित कर लेता है, लेकिन उसे सुख (२) मृषानुबंधी - झूठ का अनुबन्ध, नहीं मिल पाता है।
(३) स्तेयानुबन्धी • चोरी का अनुबन्ध और, पारिवारिक तनाव- लोभ की वृद्धि के कारण ही परिवार (४) संरक्षणानुबंधी - परिग्रह के संरक्षण का अनुबन्ध । में तनाव उत्पन्न होता है। पिता-पुत्र में, भाई-भाई में, सास-बहू में और ये चारों ही स्थितियाँ तनाव उत्पन्न करती हैं । शारीरिक तनाव यहां तक कि पति-पत्नी में भी लोभ व अविश्वास उत्पन्न होने के कारण एक समस्या है तो मानसिक तनाव उससे उग्र समस्या है और भावनात्मक प्रतिदिन लड़ाई-झगड़ा, मनमुटाव, द्वेष, ईर्ष्या आदि के कारण तनाव तनाव तो विकट एवं भयंकर समस्या है । इसका परिणाम मानसिक बढ़ता जाता है । यदि परिवार में सन्तोष व्याप्त हो तो तनाव की स्थिति तनाव से भी ज्यादा घातक है। ही उत्पन्न नहीं होती है।
चार्ल्सवर्थ और नाथन ने भी अपनी पुस्तक 'स्ट्रेसमैनेजमेंट' विश्वव्यापी तनाव- व्यक्तिगत और पारिवारिक तनावों का (Stress Management) में तनाव के प्रकारों का उल्लेख किया है। विस्तृत रूप ही समाज और विश्व में देखने को मिलता है । असन्तोष, जिनका यहां पर केवल नामोल्लेख किया जा रहा है। तनाव के ये प्रकार लोभ, अविश्वास ही संघर्ष उत्पन्न करने के मूलभूत कारण होते हैं । आज निम्नलिखित हैं। सत्ता और समृद्धि का मोह, छोटे राष्ट्रों का बड़े राष्ट्रों की तरह बनने की भावनात्मक तनाव (Emotional), पारिवारिक (Family), होड़, बड़े राष्ट्रों में शक्ति विस्तार की भावना, साम्राज्यवाद की स्पर्धा जैसे सामाजिक (Social), परिवर्तनात्मक (Change), रासायनिक अनेक कारण एक राष्ट्र को दूसरे राष्ट्र के प्रति संदिग्ध बना रहे हैं, जिसके (Chemical), कार्य का तनाव (Work), निर्णयात्मक (Deciकारण विश्व में तनाव बढ़ रहे हैं।
sion), रूपान्तरित (Commuting), भय (Phobic), शारीरिक युवाचार्य महाप्रज्ञ ने भी तनाव के तीन प्रकार बताये हैं- (Physycal), बीमारी (Disease), वेदना (Pain), तथा वातावरण शारीरिक तनाव, मानसिक तनाव और भावनात्मक तनाव । प्रत्येक (Environmental), सम्बन्धी तनाव। व्यक्ति इन तनावों से ग्रसित है । ये तनाव निम्न रूप हैं
इस प्रकार हम देखते हैं कि सभी चिन्तकों ने तनाव के शारीरिक तनाव- जब व्यक्ति शारीरिक श्रम करते-करते अलग-अलग प्रकार बताये हैं । संख्या की दृष्टि से समानता न होते भी थक जाता है तो मांसपेशियां विश्राम चाहती है। यदि पूर्णरूपेण विश्राम कुछ प्रकार एक-दूसरे से मिलते जुलते हैं और कुछ बिल्कुल भित्र हैं। नहीं मिल पाता है तो शारीरिक तनाव उत्पन्न हो जाता है।
मानसिक तनाव- इसका मुख्य कारण है- अधिक चिन्तन तनाव-मुक्ति के उपाय या सोचना । कुछ लोग तो इस बीमारी से इतने ग्रसित हो गये हैं कि उपर्युक्त वर्णित तनावों के कारणों एवं प्रकारों को दूर करके बिना उद्देश्य के भी लगातार कुछ न कुछ सोचते रहते हैं और इसी को व्यक्ति तनाव, से मुक्त हो सकता है, क्योंकि जब व्यक्ति ही तनाव रहित अपने जीवन की सफलता मानते हैं । अनावश्यक चिन्तन, मनन के हो जायेगा तो परिवार, समाज व विश्व अपने आप तनाव मुक्त हो कारण ही मानसिक तनाव उत्पन्न होता है।
जायेगा। आचार्य तुलसी ने भी इस सन्दर्भ में कहा है कि२८ . भावनात्मक तनाव- इस तनाव के मूलकारण हैं - आर्त्त 'सुधरे व्यक्ति समाज व्यक्ति से राष्ट्र स्वयं सुधरेगा । और रौद्रध्यान ।२५ जो वस्तु प्राप्त नहीं है, उसे प्राप्त करने का प्रयत्न 'तुलसी' अणु का सिंहनाद, सारे जग में प्रसरेगा । करना, उसी में निरन्तर लगे रहना आर्तध्यान है । इसमें व्यक्ति मनोनुकूल मानवीय आचार संहिता में अर्पित, तन-मन हो । वस्तु को प्राप्त करने के लिए प्रयत्नशील रहता है तथा अप्रिय या मन
संयममय जीवन हो ।' के विपरीत वस्तु से छुटकारा पाने का भी प्रयत्न करता रहता है । इसी यहाँ पर कुछ तनाव-मुक्ति के उपायों का उल्लेख किया जा कारण भावनात्मक तनाव उत्पन्न होता है । रौद्रध्यान भी इसका एक रहा है जो इस प्रकार हैं - प्रमुख कारण है ।मन में निरन्तर संकल्प-विकल्प की स्थिति बनी रहती
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जैन विद्या के आयाम खण्ड-७
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मनोवैज्ञानिक विधि द्वारा तनाव मुक्ति
पशुपालन, समाजसेवा आदि में रुचि लेकर अपने तनाव को कम करता मनोवैज्ञानिकों, ने तनाव कम करने के लिए प्रत्यक्ष एवं है। अप्रत्यक्ष दो प्रकार की विधियों का वर्णन किया है । कुछ मनोवैज्ञानिकों (II) पृथक्करण (Withdrawl) - इसके अन्तर्गत व्यक्ति के अनुसार-तनाव कम करने की ये विधियाँ, व्यक्ति को अपने वातावरण अपने आपको उस स्थिति से पृथक कर लेता है जिसके कारण तनाव से बहुत समय तक समायोजन करने या न करने के लिए उपयुक्त हो उत्पन्न होता है । जैसे- जब कोई किसी का मजाक उड़ाता है तो वह सकती हैं पर इनका उद्देश्य उसके कष्ट की भावना को सदैव कम करना उन लोगों से मिलना-जुलना ही बंद कर देता है। है ।२९ ये विधियाँ इस प्रकार हैं
(III) प्रत्यावर्तन (Regression) - व्यक्ति अपने तनाव
को कम करने के लिए वैसा ही व्यवहार करने लगता है जैसा वह पहले १.प्रत्यक्ष विधियों (Direct methods of tension Re- करता था। जैसे- जब घर में दो बालक हो जाते हैं, तब बड़ा बालक duction)- प्रत्यक्ष विधियों का प्रयोग विशेष रूप से समायोजन की माता-पिता का उतना ही प्रेम पाने के लिए छोटे बच्चे की तरह घुटनों किसी विशेष समस्या के स्थायी समाधान के लिए किया जाता है।३० से चलना, हठ करना आदि क्रियाएँ करने लगता है। ये निम्न हैं
(IV) दिवास्वप्न (Day-Dreaming) - तनाव को कम (I) बाधा का विनाश या निवारण (Destroying or करने के लिए व्यक्ति कल्पना जगत् में विचरण करने लगता है। Removing the Barrier)- इसके अन्तर्गत व्यक्ति उस बाधा का (V) आत्मीकरण (Identification) - व्यक्ति इस विधि में निवारण करता है जो उसके उद्देश्य पूर्ति में बाधक बनती है । जैसे एक किसी महान् पुरूष, अभिनेता, राजनीतिज्ञ आदि के साथ एक हो जाने हकलाने वाला व्यक्ति अपने दोष से मुक्त होने के लिए मुंह में पान का अनुभव करता है । जैसे - बालक अपने पिता से व बालिका अपनी डालकर बोलने का प्रयास करके उसमें सफलता प्राप्त करता है। माता से तादात्म्य स्थापित करके उनके कार्यों का अनुकरण कर प्रसन्न
(II) अन्य उपाय की खोज (Seeking another path)- होते हैं, जिससे उनका तनाव कम हो जाता है । उद्देश्य प्राप्ति में आने वाली बाधा का निवारण करने में जब व्यक्ति (VI) निर्भरता (Dependence) - तनावों को कम करने असफल हो जाता है, तो और किसी उपाय की खोज करने लगता है के लिए व्यक्ति अपने आपकों किसी दूसरे पर निर्भर कर अपने पूर्ण जिससे उसे सफलता मिल सके । उदाहरणार्थ पेड़ पर लगे फल हाथ जीवन का दायित्व उसे सौंप देता है । जिस प्रकार व्यक्ति महात्माओं के से नहीं तोड़ पाने के कारण बच्चे उसे डंडे से तोड़ लेते हैं। शिष्य बनकर उनके आदेशों व उपदेशों का पालन कर जीवन-यापन
(III) अन्य लक्ष्यों का प्रतिस्थापन (Substitution of करते हैं। other Goals)- जब मूल लक्ष्य में ही सफलता प्राप्त नहीं हो पाती (VII) Bilfare F41149 (Rationalisation) - culih है तो व्यक्ति अपना लक्ष्य ही बदल देता है तथा दूसरे लक्ष्य को निर्मित वास्तविक कारण न बताकर ऐसे कारण बताता है जो अस्वीकारें न जायँ कर लेता है । जिस प्रकार बच्चे वर्षा के कारण खेल के मैदान में खेलने और इस प्रकार वह अपने कार्य के औचित्य को सिद्ध करता है, जिस नहीं जा पाते हैं तो घर में ही दूसरा खेल खेलने लगते हैं। प्रकार देर से आफिस आने पर व्यक्ति सही बात न बताकर बस नहीं
(IV) व्याख्या व निर्णय (Analysis, Decision)- जब मिलने या ट्रेफिक जाम की बात कहता है। व्यक्ति के सामने दो समान रूप से वांछनीय, पर विरोधी इच्छाएँ होती (VIII) दमन (Repression)- इसमें व्यक्ति तनाव कम हैं तो वह पूर्व अनुभवों के आधार पर सोच-विचार कर अन्त में किसी करने के लिए अपनी इच्छा का दमन कर देता है । एक का चुनाव करने का निर्णय कर लेता है। जिस प्रकार एडवर्ड अष्टम (IX) प्रक्षेपण (Projection)- व्यक्ति अपने दोष को दूसरे के समक्ष वह इंग्लैण्ड का राजा रहे या मिसेज सिम्पसन से विवाह करे, पर आरोपित कर तनाव कम कर लेते हैं । जैसे मिस्त्री द्वारा बनाये गये का प्रश्न उभरा था। तब उन्होंने राजपद का त्याग कर मिसेज सिम्पसन मकान की दीवार यदि ढह जाती है तो वह कहता है कि सीमेन्ट ही से विवाह करने का निर्णय लिया था।
खराब था।
(X) क्षतिपूर्ति (Compensation) - एक क्षेत्र की कमी २.अप्रत्यक्ष विधियाँ (Indirect Methods of Tension को उसी क्षेत्र में या दूसरे क्षेत्र में पूरा करके व्यक्ति अपने तनाव को कम Reduction) - अप्रत्यक्ष विधियों का प्रयोग केवल दुःखपूर्ण तनाव को कर लेता है। जैसे- पढ़ने-लिखने में कमजोर बालक रात-दिन मेहनत कम करने के लिए किया जाता है। ये विधियाँ निम्न प्रकारेण हैं- करके अच्छा छात्र बन जाता है या खेलकूद में ध्यान देकर उसमें यश (1) शोधन (Sublimation)- जब व्यक्ति की काम प्रवृत्ति तप्त न होने प्राप्त कर लेता है। के कारण उसमें तनाव उत्पन्न करती है तब वह कला, धर्म साहित्य,
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तनाव : 'कारण एवं निवारण
अध्यात्म द्वारा तनाव मुक्ति
भौतिक विकास के फलस्वरूप उत्पन्न तनावों से त्रस्त मानव आज अध्यात्म की ओर अग्रसर हो रहा है। अब वह जान रहा है कि अध्यात्म अर्थात् धर्म की शरण में ही शांति संभव है आज वैज्ञानिक विकास पर अध्यात्म का नियन्त्रण आवश्यक है । ३२ धर्म में रत रहकर या अध्यात्म साधना द्वारा तनाव मुक्त हुआ जा सकता है। कहा भी गया है 'एको हु धम्मों ताणं अर्थात् एकमात्र धर्म ही तिंराने वाला है । १३
आत्मसन्तोष एवं आत्मजागृति द्वारा तनावमुक्ति
लोभ का त्याग किये बिना संतोष की प्राप्ति नहीं हो सकती है और सन्तोष ही शान्ति का एकमात्र उपाय है। कहा भी गया है - गोधन, गजधन, वाजिधन और रतनधन खान । जब आवे सन्तोषधन सब धन धूरि समान ।। सन्तोष के साथ-साथ आत्मजागृति का होना आवश्यक है। जब तक दृष्टि परिवर्तित नहीं होगी, तनाव मुक्ति संभव नहीं है । जब व्यक्ति अपने भीतर में स्थित हो जायेगा, भीतर छुपी अपार सुख राशि को प्राप्त कर लेगा तब वह तनाव से स्वतः मुक्त हो जायेगा। श्री योगीराज डॉ० बोधायन के अनुसार 'अपनी सारी परेशानी का कारण व्यक्ति स्वयं है । कोई दूसरा दुःख नहीं देता है । हम स्वयं दुःख को ग्रहण करते हैं। हमें स्वयं ही इसे त्याग कर तनाव दूर करने होंगे । ३४ आत्मा में अनन्त शक्ति होती है। सुख-दुःख उसी के द्वारा होते हैं। उत्तराध्ययनसूत्र में कहा भी गया है- आत्मा ही दुःख और सुख को देने वाला है। यही मित्र और शत्रु है। जो आत्मा है, वही विज्ञाता है और जो विज्ञाता है वहीं आत्मा है। सुख की आशा में दूसरे को जानने में रत रहना व्यर्थ है । अपने को जानना ही सुख है। भगवान् महावीर ने भी कहा जो एक आत्मतत्त्व को पहचान लेता है वह सब कुछ जान लेता है। जैन आगमों में तो आत्मा को ही परमात्मा माना गया है।"
अतः तनाव मुक्ति के लिए आत्मशक्ति को जागृत करना होगा। जब आत्मा के भीतर छुपे सुख को व्यक्ति प्राप्त कर लेगा तो तनाव•मुक्त ही नहीं वरन् परम पद अर्थात् मोक्ष को भी प्राप्त हो जायेगा ।
समता द्वारा तनाव मुक्ति
आत्मा-शक्ति को जान लेने के बाद समता का विकास तो स्वत: हो जाता है, क्योंकि समता आत्मा का ही गुण है । समतामय जीवन हो जाने पर तनाव स्वयं दूर भाग जायेंगे। संयमित व्यक्ति में रागद्वेष की भावना नहीं रहती है। उसके लिए सभी प्राणी समान होते हैं । वह किसी को किसी भी प्रकार का दुःख नहीं देना चाहता है। इस प्रकार राग-द्वेष कम हो जाने पर तनाव स्वतः ही खत्म हो जायेगा ।
५९
मन्दता व मन, वचन, काय के योगों पर नियन्त्रण होना ही ध्यान की सफलता है । मन की एकाग्रता ही ध्यान है । ३९ स्थिर चिन्तन, मन की सुलीन दशा और चित्त की एकाग्रता ही ध्यान है" क्योंकि तनाव का प्रमुख कारण मन है और मन को ध्यान द्वारा ही नियन्त्रित किया जा सकता है । महर्षि पतंजलि ने भी कहा है कि चित्तवृत्ति का निरोध ही योग हैं" और अपने अष्टांग योग में उन्होंने ध्यान को समाधि से पहले स्थान दिया है । ४२ जब ध्यान के द्वारा मन एकाग्र हो जायेगा तो जीवन स्वतः ही तनाव मुक्त हो जायेगा ।
कायोत्सर्ग द्वारा तनाव मुक्ति
1
कायोत्सर्ग का प्रयोग तनाव मुक्ति का प्रयोग है कायोत्सर्ग में शरीर की शिथिलता व ममत्व के विसर्जन का अभ्यास किया जाता है, जिससे शरीर सर्वथा हल्का व तनाव रहित हो जाता है। मानसिक बोझ कम हो जाता है कायोत्सर्ग तनाव मुक्ति का अचूक प्रयोग है, जो इसका प्रयोग करता है वह तनाव मुक्त हो जाता है। ऐसा कभी नहीं होता है कि व्यक्ति कायोत्सर्ग करे और तनाव मुक्त न हो । ४३
1
चार्ल्सवर्थ और नाथन ने भी कायोत्सर्ग को तनाव मुक्ति का एक महत्त्वपूर्ण प्रयोग बताया है। उन्होंने अपनी पुस्तक 'स्ट्रेस मैनेजमेंट' (Stress Management) में इसके बारे में विस्तृत चर्चा की है । ४४
प्रेक्षाध्यान द्वारा तनाव मुक्ति
तेरापंथ धर्म संघ के दशम आचार्य श्री महाप्रज्ञ ने जैन आगमों का मंथन करके ध्यान की एक अभिनव प्रक्रिया प्रेक्षाध्यान को जन-समूह के सामने प्रकाशित किया है। यह प्रक्रिया उपादान को जानने का अभ्यास है। जो व्यक्ति प्रेक्षाध्यान की प्रक्रिया से गुजरता है वहाँ चेतना को जगाने वाले उपादान का विकास करता है ।४५ तनावों से मुक्ति पाने के लिए वे सरल उपाय बताते है कि आज का जीवन ही तनावग्रस्त है । प्रतिक्षण तनाव उत्पन्न करने वाली घटनाएं घटती रहती हैं। उस तनाव को विसर्जित करने का एक मात्र उपाय है- दीर्घ श्वांस प्रेक्षा । यदि कोई व्यक्ति १५-२० मिनट तक दीर्घ श्वांस प्रेक्षा का प्रयोग करता है तो पूरे दिन भर का तनाव दूर हो जाता है। श्वांस के माध्यम से किस प्रकार तनाव रहित हुआ जा सकता है, इसकी चर्चा चार्ल्सवर्थ और नाथन ने भी की है।" प्रेक्षाध्यान बहिर्जगत् से अन्तर्जगत् की ओर ले जाने वाला प्रयोग है, जो तनाव से ग्रसित व्यक्ति, समाज व राष्ट्र के लिए परमावश्यक है ।
स्वाध्याय और सामायिक (समभाव) द्वारा तनाव मुक्ति
सत्साहित्य का अध्ययन करने से अच्छे विचार मन में आते हैं। अपने हित-अहित का ज्ञान होता है। स्वाध्याय से व्यक्ति स्वयं को पहचान कर तनाव मुक्त हो सकता है। आचार्य श्री हस्तीमल जी के
ध्यान और योग द्वारा तनाव मुक्ति
ध्यान से आत्मिक शांति प्राप्त होती है। विषय कषायों की अनुसार 'जीवन की विषमता और मन की अस्वस्थता से मुक्ति पाने का
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जैन विद्या के आयाम खण्ड-७
मार्ग स्वाध्याय है।" इसी में आगे कहते हैं “घर-घर, कुटुम्ब-कुटुम्ब ऊंचे स्तर वाले लोगों की नकल करने से इच्छाएं बढ़ती हैं, लेकिन
और जाति-जाति में लड़ाई,झगड़े, कलह, क्लेश, और वैर-विरोध चल उनकी पूर्ति न कर पाने के कारण वह मानसिक तनावों से ग्रसित रहता रहे हैं, वे स्वाध्याय से ही दूर हो सकते हैं ।४९ सामायिक से ही है। अत: सादा जीवन जीने से इन तनावों से मुक्त हुआ जा सकता है। समताभाव आता है। सामायिक के बारे में उपाध्याय अमर मुनि का कहना है- “सामायिक बड़ी ही महत्त्वपूर्ण क्रिया है। यदि यह ठीक रूप भावनाओं से तनाव मुक्ति से जीवन में उतर जाए तो संसार-सागर से बेड़ा पार हैं'५० अर्थात व्यक्ति भोजन-भजन में सात्त्विकता होने से प्राणी-प्राणी का हृदय तनाव-मुक्त जीवन यापन कर सकता है ।
मैत्री, प्रमोद, करूणा और माध्यस्थ भावों से आप्लावित रहता है । जैन
धर्मानुसार मैत्री, प्रमोद से मन में प्रसन्नता, निर्भयता और आत्मिक अहिंसा द्वारा तनाव मुक्ति
आनन्द का संचार होता है। करूणा मानवीय संवेदन के प्रति जागरूकता जैन दर्शन का महत्त्वपूर्ण सिद्धान्त है-- अहिंसा । व्यक्तिगत तथा सहानुभूति और माध्यस्थ भावना व्यक्ति में तटस्थता प्रदान करती तनावों के साथ-साथ विश्वव्यापी तनाव भी इससे दूर हो सकते हैं। है, हीन भावनाओं, निराशाओं, राग-द्वेषात्मक विकल्पों से पीड़ित मन अहिंसा से दया, दान, परोपकार, सहनशीलता, सहिष्णुता, प्रेम की को शक्ति प्रदान करती है ।५४ निश्चय ही मैत्री प्रमोद, करूणा और उदात्त भावनाएं जागृत होती हैं । अहिंसा द्वारा सम्पूर्ण विश्व में एकता माध्यस्थ भावनाएँ जीवन को पूर्णता की ओर ले जाती हैं । जिससे और शान्ति का साम्राज्य स्थापित हो सकता है । आज महात्मा गांधी मानव तनाव-रहित हो समस्त सदगुणों का उद्भव अपने जीवन में करता और उनकी अहिंसा विश्वविख्यात है।
अपरिग्रह से तनाव मुक्ति
चिन्तन रहितता से तनाव मुक्ति अहिंसा को ग्रहण करने वाला परिग्रह से स्वत: मुक्त हो जाता अधिक सोचना या चिन्तन करना ही मानसिक तनाव का है। अपरिग्रह की भावना से तृष्णा शांत हो जाती है, जिससे सन्तोष प्रमुख कारण है । अतीत का चिन्तन और भविष्य की कल्पना ही तनाव प्राप्त होता है और स्वत: ही तनाव समाप्त हो जाते हैं, क्योंकि अपरिग्रह को उत्पन्न करती है ।५५ तनाव से मुक्त होने का अर्थ है वर्तमान में जीवन का अर्थ ही है - पदार्थ के प्रति ममत्व या आसक्ति का न होना । वस्तुतः यापन करना । अतीत के चिन्तन व भविष्य की कल्पना को छोड़ना ममत्व या मूर्छा भाव से संग्रह करना परिग्रह कहलाता है अर्थात् मूर्छा होगा। तभी मन को विश्राम मिलेगा व तनाव दूर होगा ।५६ चिन्ता रहित ही परिग्रह है ।५१ परिग्रह को जैन आगम में एक ऐसा वृक्ष माना गया होकर ही आनन्दमय जीवन जिया जा सकता है। है, जिसके स्कन्ध अर्थात् तने लोभ, क्लेश और कषाय हैं ।५२ अत: अपरिग्रह की भावना व्यक्ति को तनाव रहित कर सकती है। इन्द्रिय संयम द्वारा तनाव मुक्ति
सभी इन्द्रियां अपना-अपना पोषण चाहती हैं । यदि इनपर अनेकान्त द्वारा तनाव मुक्ति
नियन्त्रण न किया जाये तो इनकी इच्छा, लालसा बढ़ती चली जायेगी, अनेकान्त के सिद्धान्त से दुराग्रह समाप्त होते हैं । इस जिसका कोई अंत नहीं है । इसीलिए तनावों की वृद्धि जारी रहती है। सिद्धान्त से एक-दूसरे को समझने का प्रयास करने से तनाव दूर होगें। जो व्यक्ति पाँच इन्द्रियों और मन पर विजय प्राप्त कर लेता है,वह तनाव इसी सन्दर्भ में साध्वी कनकप्रभा का कहना है- “वर्तमान के सन्दर्भ में मुक्त हो जाता है । भगवान् महावीर ने कहा भी है -- भी स्याद्वाद की अर्हता निर्विवाद है । इसमें वैयक्तिक, सामाजिक, एगे जिए जिया पंच, पंच जिए जिया दस । राष्ट्रीय और अन्तर्राष्ट्रीय सभी समस्याओं का सुन्दर समाधान सन्निहित दसहा उ जिणिताणं, सव्व सतु जिणामह ।। ५७ है। जैन दर्शन की यह मान्यता सम्पूर्ण विश्व के लिए एक वैज्ञानिक देन इसप्रकार पाँच इन्द्रियाँ, मन और चार कषाय --इन दस को है।५३ अनेकान्तिक दृष्टि का दैनिक जीवन में यदि व्यवहार होने लगे तो जीतने वाला आत्मिक शत्रुओं को जीत कर तनाव मुक्त हो जाता है । निश्चय ही व्यक्ति, समाज व राष्ट्र में व्याप्त तनाव-द्वन्द समाप्त होकर समन्वय, स्नेह, सद्भावना, सहिष्णुता तथा उपशम-मृदुता जैसे उदात्त कषाय मंदता और तनाव मुक्ति गुणों का प्रादुर्भाव होगा, जो निश्चय ही जीवन दर्शन को एक नई दिशा कषाय यानी क्रोध, मान, माया और लोभ के वश में मानव देगा।
तनाव ग्रस्त रहता है। इसके विपरीत इनकी मंदता ही तनाव मुक्तता है।
कषाय आत्मा के शत्रु हैं । उत्तराध्ययनसूत्र में तो कषाय को अग्नि कहा सादा जीवन-उच्च विचार से तनाव मुक्ति
गया है।५८ इनको जीतने का उपाय दशवैकालिक५९ में बताते हए कहा प्रत्येक व्यक्ति उच्चस्तरीय जीवन जीना चाहता है । अपने से गया है
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तनाव : कारण एवं निवारण
उवसमेण हणे कोहं, मद्दवया जिणे। Stress Management, Souvenir Press Ltd. London, मायं चाज्जव भावेणं, लोभ संतोषओ जिणे ।। Ist Edition 1996, Page 18.
अर्थात क्रोध को उपशम से, मान को मदता से, माया को 4. Tension is a state of disequilibrium, which disposes सरलता से और लोभ को संतोष से जीतना चाहिए।
the organism to do somthing to remove the stimu
lating condition. संकल्प दृढ़ता से तनाव मुक्ति
Gates & Others, Educational Psychology, Page301. संकल्प में अनन्त शक्ति है । दृढ संकल्प के द्वारा मश्किल 5. Tension means a general sense of disturbance of से मुश्किल कार्य भी आसान हो जाता है। मुनि मोहन लाल शार्दूल ने
equilibrium and of readiness to atler behaviour to भी कहा है - "मनुष्य के संकल्प में अपरिमित शक्ति होती है। जब वह
meet some almost distressing factor in the sitution. संकल्प बल को संजोकर किसी अनुष्ठान के लिए प्रस्तुत होता है तो
Drever Dectionary, An Introduction to
Psychology of Education, Page- 296. कुछ भी असंभव नहीं रह जाता है। मनुष्य जब सुदृढ़ निर्णय करके बंधन
6. Norman Tallent, Psychology of Adjustment, तोड़ना चाहे तो वह प्रत्येक बंधन तोड़ सकता है, इसमें कोई संशय
___Nostrand, Ist Edition, Page461.' नहीं।६० अत: मानव दृढ़ संकल्पित हो तनावों से अवश्य ही मुक्त हो ,
51 7. Stress may be defined broadly as the external सकता है।
stimulus condition, noxious or depriving which
demand very difficult adjustment-Rosen and Gegary. संयमित आहार से तनाव मुक्ति
डॉ० एच० के० कपिल, आधुनिक नैदानिक मनोविज्ञान, हर प्रसाद कहा गया है "जैसा खाये अन्न, वैसा होगा मन" । व्यक्ति का भार्गव, आगरा, प्रथम संस्करण, १९९१-९२, पृष्ठ ३०४। भोजन यदि तामस व राबस की अपेक्षा सात्विकता से ओत-प्रोत है तो ८. युवाचार्य महाप्रज्ञ, प्रेक्षाध्यान: कायोत्सर्ग, जैन विश्व भारती, लाडनूं उसके आचार-विचार में भी शुद्धता, निर्मलता और भव्यता परिलक्षित तृतीय संस्करण १९८९, ई० सन् पृष्ठ-१ । होगी, क्योंकि हमारे मन की सम्बन्ध हमारे आहार से होता है । हम जैसा ९. Edward A.Charlesworth and Ronald G. Nathan, आहार लेंगे, हमारे वैसे ही विचार होंगे । अखाद्य और अपेय पदार्थ Stress Management, London, Page 4. आत्मतत्त्व को अपकर्ष की ओर ले जाते हैं। जिससे हमारे शरीर के १०. युवाचार्य महाप्रज्ञ, प्रेक्षाध्यान: कायोत्सर्ग, लाडनं, पृष्ठ-२। मुख्य अंगों (हृदय; मस्तिष्क आदि) पर बुरा प्रभाव पड़ता है। इसीलिए ११. वही, पृष्ठ-३।। कहा गया है कि तनाव जैसी भंयकर स्थिति से बचने के लिए मन की १२.Charlesworth and Nathan, Stress Management, स्वस्थता अनिवार्य है और मन तभी स्वस्थ रह सकता है जब, निरामिष,
London, Page 20 संतुलित एवं वासनाओं को उद्दीप्त न करने वाले पदार्थ यानी सात्विक
१३. युवाचार्य महाप्रज्ञ, प्रेक्षाध्यान : कायोत्सर्ग, लाडनूं, पृष्ठ-५। भोजन ही ग्रहण किये जायें।६१
१४.जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश (खण्ड २) जिनेन्द्र वर्णी, भारतीय ज्ञानपीठ, प्रस्तुत आलेख में संक्षेप में तनाव मुक्ति के कुछ उपाय बताये
दिल्ली, तृतीय संस्करण १९९२ ई० सन् पृष्ठ.३३। गये हैं, जिससे हम सर्वथा तनाव मुक्त हो सकते हैं । सही ढंग से यदि
१५. कोहं माणं च मायं च लोभं च पाववड्वणं ।
वमे चत्तारि दोसे उ इच्छंतो हियमप्पणों ।। इन्हें जीवन में उतारा जाय तो मानव जीवन से तनाव शब्द ही गायब
दशवैकालिक, वाचना प्रमुख आचार्य तुलसी, जैन श्वेताम्बर जो जायेगा । जब व्यक्ति संयमित जीवन यापन करने लगेगा तो व्यक्ति
तेरापंथी महासभा, कलकत्ता, वि० संवत् २०२०, ८/३६। ही नहीं वरन् परिवार, समाज, राष्ट्र और यहां तक कि विश्व भी तनाव
१६. माया- लोभेहिंतो रागो भवति। मुक्त हो जायेगा।
कोह-माणेहिं तो दोसो भवति ।। - निशीथचूर्णि, गाथा १३२।
उपाध्याय अमरमुनि, सूक्ति त्रिवेणी, सन्मति ज्ञानपीठ, आगरा, सन्दर्भ
प्रथम संस्करण १९६८ ई० पृष्ठ २२२ । १. डॉ. हरदेव बाहरी, अंग्रेजी-अंग्रेजी हिन्दी कोश, ज्ञानमण्डल लिमिटेड. १७. उवसमेण हणे कोहं माणं भद्दवया जिणे। वाराणसी, प्रथम संस्करण १९९५ ई० सन, पृष्ट १०८३ ।
मायं चज्जवभावेण लोभं संतोसओ जिणे ।। २. पी० डी० पाठक, शिक्षा मनोविज्ञान, विनोद पुस्तक मन्दिर,
दशवैकालिक, आचार्य तुलसी, कलकत्ता, विक्रम संवत् २०२०, ___ आगरा, तीसवां संस्करण, १९९६ ई० सन् पृष्ठ-४१२।
८/३६। 3. Edward A. Charlesworth and Ronald G. Nathan,
१८.जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश (खण्ड-२) जिनेन्द्र वर्णी, दिल्ली, पृष्ठ३४
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६२
जैन विद्या के आयाम खण्ड-७
80.
१९. इच्छा हु आगास समाअगंतिया ।
ध्यान तु विषये तस्मिन्नेकप्रत्यय सन्तति । उत्तराध्ययनसूत्र, साध्वी श्री चन्दना, वीरायतन प्रकाशन, आगरा, पं० हरगोविन्द शास्त्री, अभिधान चिंतामणि, चौखम्बा विद्याभवन, प्रथम संस्करण १९७२,९/४८
वाराणसी, प्रथम संस्करण १९६४ ई०, १/८४ । २०. जहा लाहो तहा लहो, लाहा लोहो पवड्थई ।
४०. श्रीचन्द सुराणा 'सरस', ध्यान योग: रूप और दर्शन, जयपुर पृष्ठ दो मास कपं कज्जं, कोडिए वि न निट्ठियं ।।
२२। . उत्तराध्ययनसूत्र, साध्वी श्री चन्दना, आगरा, ८/१७। ४१. योगश्चित्तवृत्ति निरोधः। २१. कोहो पीइं पणासेइ, माणो विणय नासणो।
ब्रह्मलीन मनि, पातंजलयोग दर्शन, चौखम्बा विद्याभवन, वाराणसी माया मित्ताणि नासेइ, लोभो सव्व विणासणो ।।
चतुर्थ संस्करण १९९० ई० सन, १/२ दशवैकालिक, आचार्य तुलसी, कलकत्ता, ८/३७ ।
४२. यमनियमाऽसनप्राणायामप्रत्याहारधारणाध्यानसमाध्योऽ-ष्टावङ्गानि।। २२. साध्वी कनकप्रभा महावीर व्यक्तिव और विचार, आदर्श साहित्य वही, २/२९ । संघ, चुरू, पृष्ठ ८०
४३. युवाचार्य महाप्रज्ञ, प्रेक्षाध्यान:कायोत्सर्ग, लाडनूं। २३. डॉ० माता प्रसाद गुप्त, कबीर ग्रन्थावली-साखी, प्रामाणिक प्रकाशन, ४४.Charlesworth and Nathan, Stress Management, __ आगरा, प्रथम संस्करण, १९६८, ५३/१ ।
London, Page 39. २४. युवाचार्य महाप्रज्ञ, प्रेक्षाध्यान: कायोत्सर्ग लाडनूं, पृष्ठ १८। ४५. युवाचार्य महाप्रज्ञ, मन का कायाकल्प, आदर्श साहित्य संघ,चुरू, २५. तत्त्वार्थसूत्र, पं० सुखलाल संघवी, पार्श्वनाथ विद्याश्रम शोध संस्थान, पृष्ठ ६७ ।
वाराणसी, तृतीय संस्करण - १९७६, ९/२९ । . ४६. युवाचार्य महाप्रज्ञ, प्रेक्षाध्यान : श्वासप्रेक्षा, लाडनूं चतुर्थ संस्करण २६. हिंसाऽनृतस्तेय विषय संरक्षणेभ्यों रौद्रभविरतदेशविरतयो॥ १९८९ ई० सन्।
वही, ९/३६। ४७. Charlesworth and Nathan, Stress Management, २७.Charlesworth and Nathan, Stress Management, London, Page 60. ___London, Page 39.
४८. आचार्य श्री हस्तीमल जी महाराज, गजेन्द्र व्याख्यान मुक्ता, पुष्ठ १ २८. आचार्य तुलसी, नन्दन निकुंज, आदर्श साहित्य संघ चुरू, पृष्ठ- ४९. वही, पृष्ठ १९६ । २५४।
५०. सामायिकसूत्र, उपाध्याय अमरमुनि, पृष्ठ २८४ । २९.Gates and others, Educational Psychology, Page ५१. मुच्छा परिग्गहो वृत्तो। 692.
दशवैकालिक, सं० आचार्य तुलसी, कलकत्ता, ६/२० । ३०. Direct methods, are typically employed to solve a ५२. प्रश्नव्याकरणसूत्र, सं० अमरमुनि जी महाराज, सन्मति ज्ञानपीठ,
particular adjustment problem once and for all, Ibid. आगरा, ५/१७।। ३१. Indirect methods are employed soley for the alle- ५३. साध्वी कनकप्रभा, महावीर व्यक्तित्व और विचार, चुरू पृष्ठ-४४। viation of unplesant tension. Ibid.
५४. सत्वेषु मैत्री गुणिषु प्रमोदं, क्लिष्टेषु जीवेषु कृपा परत्वम्। ३२. साध्वी कनकप्रभा, महावीर, व्यक्तित्व और विचार, चुरू । मध्यस्थ-भाव विपरीत वृतौ, सदा ममात्मा विदधात् देव । ३३. उत्तराध्ययनसूत्र, साध्वी श्री चन्दना, आगरा, १४/४० ।
श्रावकाचार, अमितगति, अनन्तकीर्ति दिगम्बर जैन ग्रन्थमाला न०२, ३४. श्री योगीराज डॉ० बोधायन, ध्यान योग से तनाव मुक्ति पृष्ठ २०। बम्बई, प्रथम संस्करण १९९२ ई० सन् १३/९९। ३५. अप्पाकत्ता विकत्ता य, सुहाण य दुहाण य।
५५. युवाचार्य महाप्रज्ञ, प्रेक्षाध्यान : कायोत्सर्ग, लाडनूं, पृष्ठ १८। अप्पा मित्तममित्तं च, खुप्पद्दओ दुप्पट्ठिओ ।।
५६. युवाचार्य महाप्रज्ञ, किसने कहा मन चंचल है, लाडनूं पृष्ठ १३६। उत्तराध्ययनसूत्र, साध्वी श्री चन्दना, आगरा, २०/३७ । ५७. उत्तराध्ययनसूत्र, साध्वी श्री चन्दना, आगरा, २३/३६ । ३६. जे आया से विण्णया । जे विण्णाया से आया ।
५८. कसाया अग्गिणो वुत्ता । आचारांगसूत्र, (प्रथम श्रुतस्कन्ध), युवाचार्य मधुकर मुनि, आगम प्रकाशन वही, २३/५३ ।
समिति, ब्यावर, प्रथम संस्करण १९८० ई० सन् ५/६/१७१। ५९. दशवैकालिक, सं० अचार्य तुलसी, कलकत्ता, ८/३८ । ३७.जे एगं जाणइ - से सव्वं जाणइ । वही, ३/४/१२९। ६०. मुनि मोहनलाल शार्दूल, जैन दर्शन के परिपार्श्व में, लाडनूं, ३८. अप्पा विय परमप्पा । भावपाहुड़, आचार्य कुन्दकुन्द ।
द्वितीय संस्करण १९८९ ई० सन् पृष्ठ १४३ । ३९.चित्तस्सेगया हवइ झाणं आवश्यकनियुक्ति हरिभद्र सूरि, श्री ६१. मुनि महेन्द्र कुमार व जेठालाल झवेरी, प्रेक्षाध्यान : स्वास्थ्य भेरूलाल कन्हैयालाल कोठारी धार्मिक ट्रस्ट, बम्बई, प्रथम संस्करण
विज्ञान, लाडनूं, प्रथम संस्करण १९८४ । विक्रम संवत् २०३८, १४६३, पृष्ठ १८८।
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गुणस्थान : मनोदशाओं का आध्यात्मिक विश्लेषण
श्री अभयकुमार जैन
आत्महितैषियों एवं अध्यात्म-जिज्ञासुओं के लिए 'गुणस्थान' सम्पन्न है, पर कर्मावरण से आवृत्त है, जिससे इसके यथार्थ स्वरूप का अध्यात्म के क्षेत्र में जैनदर्शन की अनुपम देन है । आत्म-विकास की दर्शन नहीं होता । जैसे-जैसे कर्मावरण की घटा घनी होती जाती है, भूमिकाओं का इतना वैज्ञानिक तथा मनोवैज्ञानिक विश्लेषण अन्य दर्शनों वैसे-वैसे आत्मिक शक्तियाँ दबती जाती हैं और जैसे-जैसे कर्मावरण में मिलना असम्भव है । गुणस्थानों में मनोदशाओं का आध्यात्मिक हटता (दूर होता) जाता है, वैसे-वैसे आत्मा की शक्तियाँ प्रादुर्भूत विश्लेषण, चित्तवृत्तियों के क्रमिक उन्नयन का मनोवैज्ञानिक चित्रण, (प्रकट) होती जाती हैं । यह आत्मिक उत्क्रान्ति ही गुणस्थान है ।१० आत्मशोधन तथा आत्म-परिष्कार का यथातथ्य प्ररूपण, आत्मा के जब तक आत्मा कर्मावरण से आबद्ध रहती है, तब तक यह उत्तरोत्तर विकास का सूक्ष्म विवेचन तथा भावधारा के आरोहण-अवरोहण अपनी अविकसित दशा में बनी रहती है तथा जब यह अपने सम्पूर्ण का क्रम बड़ी सूक्ष्मता से निरूपित है। वैदिक, बौद्ध आदि इतर कर्मों का क्षय कर कर्मावरण को बिलकुल हटा देती है तब यह अपने दार्शनिकों ने अध्यात्म की गहराइयों को प्रस्फुटित करने का यद्यपि प्रयास यथार्थ रूप को पा लेती है, उसकी सारी शक्तियाँ प्रकट हो जाती हैं। किया है, तथापि जैसा विस्तृत, क्रमबद्ध, सूक्ष्म, साङ्गोपाङ्ग, स्पष्ट और यही उसके विकास की चरम अवस्था है। संसारी जीव अपनी अविकसित तर्कसंगत प्ररूपण गुणस्थानों में है, वह अपूर्व है।
दशा (मिथ्यात्व) से आध्यात्मिक शक्तियों का विकास करता हुआ गुणों के स्थानों को 'गुणस्थान' कहा गया है- गुणानां स्थानानि विकास की अन्तिम (कर्ममुक्त) अवस्था तक पहुँचने की चेष्टा करता इति गुणस्थानानि । यहाँ गुणों का अर्थ है आत्म-शक्तियाँ और स्थान से है। इसी को आत्मिक उत्क्रान्ति कहते हैं। तात्पर्य है- आत्म विकास की क्रमिक अवस्थाएँ या श्रेणियाँ । 'जीव के कर्मबन्ध या कर्मावरण के कारण यह जीव अपनी आत्मिक स्वभावभूत ज्ञान, दर्शन और चारित्ररूप गुणों के उपचय और अपचय से शक्तियों को प्रादुर्भूत नहीं कर पाता जिससे वह स्वरूपलाभ से वंचित उनके स्वरूप में जो भेद होता है, वह गुणस्थान है ।' कर्मावरण की रहता है । भगवती-सूत्र११ में प्रमाद और कर्मबन्ध के कारण बतलाए गए तीव्रता और मन्दता के फलस्वरूप नाना जीवों के परिणामों में भिन्नता हैं। स्वामिकार्तिकेयानुप्रेक्षा१२ तथा द्रव्यसंग्रह.३ में योग और कषाय को पाई जाती है । गुणस्थान इसी परिणाम-भिन्नता के द्योतक हैं । जैन कर्मबन्ध का कारण कहा गया है । मूलाचार में मिथ्यात्व, अविरति, आचार्यों ने गणस्थान का स्वरूप (लक्षण) ऐसा ही स्थिर किया है- कषाय और योग को कर्मबन्ध का हेतु कहा गया है। तत्त्वार्थसूत्र१५ के
दर्शनमोहनीय आदि कर्मों के 'उदय', उपशमरे, क्षय, अनुसार मिथ्यादर्शन, अविरति, प्रमाद, कषाय और योग कर्मबन्ध के हेतु क्षयोपशम", आदि अवस्थाओं से उत्पन्न जिन मिथ्यात्वादि परिणामों के हैं। इनमें कषाय.६, जो मोहनीय का भेद है, कर्मबन्ध का प्रमुख हेतु द्वारा जीव विभक्त किये जाते हैं, वे परिणाम-विशेष गुणस्थान कहे जाते है। सभी कर्मावरणों में मोहनीय का प्राधान्य होने से इसे कर्मों का राजा हैं।' मोह और योग (मन वचन, काय) के निमित्त से सभ्यग्दर्शन, कहा गया है। जब तक इसकी बलवत्ता रहती है तब तक अन्य सभ्यज्ञान और सभ्यक्-चारित्ररूप आत्मा के गुणों की तरतम अवस्था- कर्मावरण भी तीव्र बने रहते हैं और इसके शिथिल होते ही अन्य आवरण विशेष को गुणस्थान कहते हैं। दूसरे शब्दों में मोह और योग की भी शिथिल हो जाते हैं। प्रवृत्ति के कारण जीव के अन्तरङ्ग परिणामों में प्रतिक्षण होने वाले उतार- मोहनीयकर्म के दो भेद हैं-दर्शनमोहनीय और चारित्रमोहनीय । चढ़ाव का नाम ही गुणस्थान है।
दर्शनमोहनीय आत्मा के दर्शनगुण का घात करता है ।१७ यह आत्मा के गुणस्थान आत्मशक्तियों के आविर्भाव की तारतम्यभावापन्न स्वरूप का धान नहीं होने देता । फलतः आत्मा जड़ और चेतन के अवस्थाओं के सूचक हैं, जीव के आध्यात्मिक विकास या पतन के श्रेष्ठ विषय में मूढ़ अविवेकी) ही बना रहता है, स्वपर-विवेक न होने से मापदण्ड हैं। जीव अभी किस स्थिति में चल रहा है तथा यह आत्मिक मिथ्यात्वी ही रहता है। दूसरे, चारित्रमोहनीय के कारण यह जीव स्वपरगणों के विकास की किन भूमिकाओं में प्रवर्तमान है, इसके निश्चायक विवेक पाकर भी पर-परिणति से छूटकर स्वरूपलाभ की ओर प्रवृत्त नहीं ये गुणस्थान हैं । मोक्षप्रासाद पर आरोहण के लिए ये पावन सोपान हो पाता । अतएव चारित्रमोहनीय दर्शनमोहनीय का अनुगामी है । हैं। जीव को पतन की (अवगुणों की) ओर से मोड़कर गुण-प्राप्ति की दर्शनमोहनीय के मन्द, मन्दतर और मन्दतम होते ही चारित्रमोहनीय की
ओर उन्मुख करना और उसे अन्तिम अवस्था (मोक्ष) तक पहुँचाना ही शक्ति भी उसी भाँति क्रमश: क्षीण हो जाती है, जिससे आत्मा के विकास इनका प्रधान लक्ष्य है।'
का तथा स्वरूपलाभ का पथ प्रशस्त होता है, वह स्वरूपलाभ करने स्वभावतः आत्मा अनन्तदर्शन, ज्ञान सुख और शक्ति से लगता है।
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जीव की प्रथम अविकसित दशा मिथ्यादृष्टि की होती है और अन्तिम विकसित दशा कर्मविमुक्त (सिद्ध) की होती है। इन दोनों अवस्थाओं के बीच परिणामानुभवन- आध्यात्मिक भूमिकाओं आत्मविकास की दशाओं की अनेक अवस्थाएं होती है। इन्हें जैनशास्त्रों में चौदह भागों में विभक्त किया गया है । इन्हें ही चौदह गुणस्थानों के नाम से जाना जाता है। ये इस प्रकार है-
जैन विद्या के आयाम खण्ड- ७
१. मिथ्यादृष्टि, २. सासादन सम्यग्दृष्टि, ३. मिश्र (सम्यग्मिथ्यादृष्टि), ४. अविरत सम्यग्दृष्टि, ५. देशविरत, ६. प्रमत्तविरत ७. अप्रमत्तविरत, ८. अपूर्वकरण, ९. अनिवृत्तिकरण, १०. सूक्ष्मसाम्पराय, ११. उपशान्तमोह, १२. क्षीणमोह, १३. सयोगीकेवली, १४. अयोगीकेवली ।
यह चौदह गुणस्थान मोहनीय कर्म और योग के निमित्त से है। प्रथम चार गुणस्थान दर्शनमोहनीय कर्म के निमित्त से हैं, पांचवें से बारहवें तक आठ गुणस्थान चारित्रमोहनीय कर्म के निमित्त से हैं तथा तेरहवाँ व चौदहवाँ दोनों गुणस्थान योगों के निमित्त से होते हैं ।१९ तेरहवाँ योगों के सद्भाव से होता है और चौदहवाँ योगों का अभाव होने
पर ।
प्रथम गुणस्थान में जीव के औदयिक भाव होते हैं। द्वितीय में पारिणामिक’१, तृतीय में क्षायोपशमिक तथा चौथे में औपशमिक ३, क्षायिक" और क्षायोपशमिक तीनों ही भाव होते हैं। यह भाव यहाँ दर्शनमोहनीय की अपेक्षा से ही पाये जाते हैं, क्योंकि प्रथम चार गुणस्थानों में चारित्र नहीं पाया जाता।" देशविरत, प्रमत्तविरत और अप्रमत्तविरत इन तीन में चारित्रमोहनीय की अपेक्षा क्षायोपशमिक
। पाया जाता है। जब कि दर्शनमोहनीय की अपेक्षा उपर्युक्त तीनों ही भाव होते हैं। उपशमश्रेणी वाले ८, ९,१०, एवं ११ गुणस्थानों में चारित्रमोहनीय की अपेक्षा से औपशमिक भाव ही होता है। क्षपक श्रेणीवाले ८,९,१०, एवं १२ वें गुणस्थानों में तथा १३ वें, १४वें में एवं सिद्धावस्था में क्षायिकभाव ही होता है।
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१. मिथ्यादृष्टि- यह उत्क्रान्ति की प्राथमिक भूमिका है जहाँ से जीव अपनी ह्रास की स्थिति से उत्क्रान्ति की ओर बढ़ता है। मिथ्यात्व २७, सम्यग्मिथ्यात्व २८ और सम्यक्त्व २९ तथा अनन्तानुबन्धी" क्रोध, मान माया और लोभ इन सात प्रकृतियों के उदय से जिनकी दृष्टि (श्रद्धा) मिथ्या (विपरीत) होती है वह जीव मिथ्यादृष्टि है। मिथ्यात्व के उदय से यह तत्वार्थ का श्रद्धान् नहीं करता अथवा विपरीत (अतत्त्वार्थ का) श्रद्धान् करता है, यथार्थ तत्त्व की ओर उसकी रूचि नहीं रहती १२। जिस प्रकार ज्वरप्रस्त व्यक्ति को मीठा रस अच्छा नहीं लगता उसी प्रकार मिध्यादृष्टि को यथार्थधर्म नहीं रूचता ।" इसे स्व-पर-विवेक नहीं होता, सच्चे देव, शास्त्र और गुरू में श्रद्धा नहीं होती, जड़ को चेतन मानता है, भौतिक सुखों में आसक्त रहता है तथा आचार्याभासों द्वारा उपदिष्ट या अनुपदिष्ट पदार्थ के विपरीत स्वरूप का इच्छानुसार श्रद्धान् करता है । ३४
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यह है कि मिथ्यात्वी होते हुए भी उसकी दृष्टि पूर्णतः अयथार्थ नहीं होती, अपितु किसी-न-किसी अंश में यथार्थ भी होती है वह बाह्य जगत् के पदार्थों को, जो लोकमान्यतानुसार जिस रूप में अभिहित होते हैं, उन्हें उसी रूप में देखता, जानता और मानता है। जैसे घोड़े, ऊँट, हाथी, गाय-बैल, पशु-पक्षी, स्त्री-पुरूष आदि को उसी रूप में देखना, जानना और मानना । मेघाच्छन सूर्य जिस तरह सर्वथा आवृत नहीं होता, उसकी प्रभा का कुछ-न-कुछ आभास होता हैं, जिससे दिन होने का पता चलता है, वैसे ही मिथ्यात्व के प्रबल होने पर मोहोदय की तीव्रता के फलस्वरूप मिथ्यादृष्टि की आत्म-शक्ति अत्यन्त हीन पाई जाती है, जिससे उसे तत्त्वश्रद्धान् नहीं होता । इसीलिए मिथ्यादृष्टि जीव को प्रथम स्थान की भूमिका में समाविष्ट किया गया है ।
छोटे-छोटे प्राणियों से लेकर समस्त असंज्ञी तियंच तथा मनुष्य, देव और नारकियों का बहुभाग प्रथम गुणस्थानवर्ती (मिध्यादृष्टि ) ही होता है। यह जीव तब तक इसी भूमिका में पड़े रहते हैं जब तक कि वे अपने पुरूषार्थ को जाग्रत कर तथा विवेक को उत्पन्न कर सम्यग्दृष्टि नहीं बन जाते ।
इस भूमिका में प्रवर्तमान सभी जीवों की आत्मविकास की स्थिति समान नहीं होती । किसी पर मोहोदय का प्राबल्य होता है तो किसी पर उससे कम या अत्यन्त मन्द प्रभाव रहता है। पर, चूंकि आत्मा स्वभावत: विकासशील है, अतः जाने-अनजाने जब मोहमीय कर्म का प्रभाव कम होने लगता है तो जीव आत्मविकास की ओर उन्मुख लोने लगता है। फलतः उसकी आत्मशक्तियाँ (आत्मिकगुण) भी प्रकट होने लगती हैं, जो आगे चलकर मोहोच्छेद का कारण बनती हैं।
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सामान्यापेक्षया मिथ्यादृष्टि जीव के एकान्त, विपरीत, विनय, संशयित और अज्ञान ये पांच भेद हैं, पर विस्तार से (परिणामों की भिन्नता के कारण ) असंख्यातलोक प्रमाण तक भी भेद हो सकते हैं, क्योंकि मोहोदय की तीव्रता और मन्दता की दृष्टि से इसी एक भूमिका में असंख्य आत्माएँ हो सकती हैं ।
(२) सासादन या सास्वादन सम्यग्दृष्टिसम्यक्त्वरूपी रत्नपर्वत के शिखर से गिरकर जो जीव मिथ्यात्व भूमि के सम्मुख हो चुका है अतएव जिसने सम्यक्त्व की विराधना तो कर दी है, पर अभी मिथ्यात्व को प्राप्त नहीं किया है उसको सासन या सासादन गुणस्थानवर्ती कहते हैं।" औपशमिक सम्यक्त्व को पाकर भी जो जीव अनन्तानुबंधी कषाय के उदय से सम्यक्त्व से च्युत होकर मिथ्यात्व की ओर उन्मुख हो जाता है और जब तक वह मिथ्यात्व की भूमि पर नहीं पहुँचता तब तक उस बीच की स्थिति में वह सासादन गुणस्थानवर्ती रहता है। यह स्थिति अधिक से अधिक छ आवली " । और कम से कम एक समय तक रहती है।"
इस गुणस्थान में प्रथम गुणस्थान की अपेक्षा आत्मशुद्धि अधिक रहती है, पर यह (सासादन) प्रथम गुणस्थान के बाद नहीं होता, मिथ्यादृष्टि को प्रथम गुणस्थान की भूमिका में रखने का कारण अपितु ऊपर के गुणस्थान से गिरकर नीचे की ओर आते वक्त होता है।
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यह अपक्रान्ति की स्थिति में अनन्तानबंधी कषाय के आविर्भाव से होता सहावस्थानलक्षणविरोधदोष ६ की आशंका यहाँ नहीं करनी चाहिए, है। इसमें आने के बाद जीव नियम से पहले गुणस्थान में पहुँचता है। क्योंकि मित्रामित्रन्याय" से एक काल और एक ही आत्मा में मिश्ररूप रत्नशेखरसूरि ने इस गुणस्थान को 'सास्वादन' भी कहा है - सह (सम्यग्मिथ्यात्वरूप) परिणाम हो सकते हैं। आस्वादनेन वर्तते इति सास्वादनम् । खीर वमन करने वाले को जिस सम्यग्मिथ्यादृष्टि जीव देशसंयम या सकलसंयम को ग्रहण प्रकार खीर का आस्वाद आता रहता है, उसी प्रकार जो एक बार (ऊपर नहीं करता और न आयुकर्म का ही बन्ध करता है । मरण और के गुणस्थान में) सम्यक्त्व का आस्वादन कर चुका है, पर वह उससे मारणान्तिक समुद्घात भी इस गुणस्थान में नहीं होते तथा यहाँ का च्युत हो गया है, उसे भी खीर के आस्वाद के समान सम्यक्त्व का जीव नियम से सम्यक्त्वरूप या मिथ्यात्वरूप परिणामों को प्राप्त करके आस्वाद बना रहता है । इसीलिए यह जीव सास्वादन सम्यग्दृष्टि ही मरण करता है, क्योंकि मिश्र गणस्थानों में कभी मरण नहीं होता।५० कहलाता है।
४.असंयत सम्यग्दृष्टि गुणस्थान- जिस जीव की दृष्टि शंका- अनन्तानुबंधी यदि सम्यक्त्व का विराधक है तो फिर सम्यक् (समीचीन, यथार्थ) हो वह सम्यग्दृष्टि, जो सम्यग्दृष्टि तो हो, पर उसकी गणना दर्शनमोहनीय के भेदों में की जानी चाहिए। यदि वह संयम का पालन नहीं करता हो, वह असंयत सम्यग्दृष्टि कहलाता चारित्रमोहनीय का भेद है तो फिर उससे सम्यक्त्व का विराधन नहीं हो है। 'जो इन्द्रियों के विषयों से तथा स्थावर५१ और त्रस५२ जीवों की हिंसा सकता और ऐसी दशा में फिर सासन गुणस्थान बनना भी संभव नहीं। से विरक्त नहीं है, किन्तु जिनोक्त प्रवचन का श्रद्धान् करता है, वह दूसरे, अनन्तानुबन्धी से यदि सम्यक्त्व का नाश हो जाता है तो फिर उसे अविरत सम्यग्दृष्टि है५३ । अप्रत्याख्यानावरणचतुष्क के उदय के (इसे गुणवर्ती जीव को) मिथ्यादृष्टि ही कहना चाहिए, न कि सभ्यग्दृष्टि? कारण यह जीव व्रत-नियम धारण नहीं कर पाता, पर यथार्थ ज्ञान और
समाधान - अनन्तानुबंधी में द्विस्वभावता है अर्थात् इसमें समीचीन दृष्टि होने से तत्त्वार्थ का दृढ़ श्रद्धानी होता है । अत: इसके आत्मा के दर्शन और चारित्र इन दोनों के ही घात करने का स्वभाव पाया आत्मिक गुणों का विकास प्रारम्भ हो जाता है और वह शान्ति का जाता है। अत: यह चारित्र की ही भाँति सम्यक्त्व का भी विराधन (घात) अनुभव करता है तथा चारित्रमोह की शक्ति को निर्बल करने के लिए कर सकता है। दूसरे, सासन गुणस्थानवर्ती को मिथ्यादृष्टि न कहकर उद्यत रहता है। सम्यग्दृष्टि इसलिए कहा गया है कि इसमें मिथ्यादृष्टि से कुछ विलक्षणताएँ संयम का आचरण नहीं करने पर भी असंयत सम्यग्दृष्टि जीव पायी जाती हैं -(१) मिथ्यादृष्टि में अतत्त्वश्रद्धान् व्यक्त होता है जब श्रद्धान के सद्भाव के कारण आत्म-अनात्म के विवेक से सम्पन्न और कि सासादन में वह अव्यक्त होता है। (२) सम्यक्त्व से च्युत हो जाने सप्तभयों से मुक्त रहता है, भोग भोगते हुए भी उनमें लिप्त नहीं होता, पर भी खीर-वमन की भाँति सासादन में सम्यक्त्व का आस्वाद बना अपने विचारों पर पूर्ण नियन्त्रण रखता है, दुःखियों पर दया करता है, रहता है । (३) अत: यहाँ सम्यग्दृष्टि व्यपदेश भूतपूर्व प्रज्ञापन नय की निरपराधियों की हिंसा नहीं करता५५ तथा लक्ष्य और बोध शुद्ध रहने से अपेक्षा से है । (४) यहाँ मिथ्यादृष्टि की अपेक्षा आत्मिक शुद्धि अधिक संयम के पथ पर चलने के लिए उद्यत रहता है५६ । रहती है। अत: इस गुणस्थान का पृथक् निर्देश उचित ही है।
५. देशविरत गुणस्थान- अप्रत्याख्यानावरण कषाय का ३.मिश्र (सम्यक्-मिथ्यादृष्टि) गुणस्थान- सम्यग्मिथ्यात्व क्षयोपशम होने पर जिन जीवों के एकदेशचारित्र प्रकट हो जाता है वे प्रकृति के उदय से जब किसी जीव की दृष्टि कुछ सम्यक् (शुद्ध) और देशविरति या संयतासंयत गुणस्थानवी कहे जाते हैं। प्रत्याख्यानावरण कुछ मिथ्या (अशुद्ध-विपरीत) हो जाती है तो उसे सम्यग्मिथ्यादृष्टि जीव कषाय के उदय से यहाँ पूर्ण संयमभाव तो प्रकट नहीं हो पाता, पर कहते हैं । जिस प्रकार मिले हुए दही और गुड़ का स्वाद मिश्रित (कुछ अप्रत्याख्यानावरण चतुष्क के उपशम से श्रावकव्रतरूप देशचारित्र प्रकट खट्टा और कुछ मीठा) होता है उसी प्रकार मिश्रगुणस्थानवी जीव के हो जाता है। त्रस हिंसा से विरत रहने के कारण यह संयत या देशव्रती परिणाम भी सम्यक्त्व और मिथ्यात्व से मिश्रित होते हैं। बुद्धि-दौर्बल्य तो होता है, पर स्थावर-हिंसा से अविरत रहने के कारण वह असंयत के कारण इस जीव की सर्वज्ञकथित तत्त्वों में न तो सर्वथा रुचि ही होती भी होता है । इसीलिए आत्मविकास की इस भूमिका का अपर नाम है और न सर्वथा अरुचि ही । इसी से वह न तो पूर्ण सम्यग्दृष्टि होता 'संयतासंयत' या 'विरताविरत' भी है। मनुष्य और तिर्यञ्च इन दो है और न पूर्ण मिथ्यादृष्टि । मिले-जुले परिणामों के कारण ही वह जीव गतियों के जीव ही इस गुणस्थान के धारक हो सकते हैं । देव और सभ्यक्-मिथ्यात्वी कहलाता है।
नारकियों के यह संभव नहीं, क्योंकि उनमें संयम का अभाव होता है। उत्क्रान्ति करने वाला जीव प्रथम गुणस्थान से तृतीय (मिश्र) इस गुणस्थान से आत्मा की यथार्थ उत्क्रान्ति आरम्भ होती की भूमिका में पहुँचता है अथवा अपक्रान्ति करने वाला चतुर्थ आदि है। चौथे गुणस्थान में जीव के श्रद्धा और विवेक जागृत होते हैं और गुणस्थानों की भूमिका से इस गुणस्थान की भूमिका में प्रविष्ट होता है इस (५३) में चारित्रिक विकास शुरू हो जाता है। श्रावक की ११ इस तरह उत्क्रान्ति और अपक्रान्ति करने वाले दोनों ही प्रकार के जीवों प्रतिमाएँ इसी गुणस्थान में होती है । को यहाँ आश्रय मिलता है । शीत और उष्ण की तरह ६.प्रमत्तविरत गुणस्थान- आत्मविकास की इस भूमिका में
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जैन विद्या के आयाम खण्ड-७ जीव के प्रत्याख्यानावरण कषाय का क्षयोपशम हो जाने से पापजनक (दबाता) हुआ चढ़ता है और क्षपकश्रेणी पर कर्मों का क्षय (नाश) करता व्यापार सर्वथा निवृत्त हो जाते हैं, पर संज्वलन और नोकषाय का हुआ चढ़ता है। उपशमश्रेणी में ८,९,१० एवं ११ ये चार गणस्थान उदय रहने से संयम के मल को उत्पन्न करने वाला प्रमाद२ भी होता हैं जब कि क्षपकश्रेणी में ८,९,१०, एवं १२ ये चार गुणस्थान हैं। है। अतएव ऐसे जीव को प्रमत्तविरत कहा जाता है६३ । इस गुणस्थान यह सभी गुणस्थान क्रमश: होते हैं और आत्मध्यानी मुनियों के ही होते में महाव्रती संयत साधक सकलसंयम का पालन करते हुए शान्ति का हैं। तो अनुभव करता है पर कभी-कभी प्रमादवश (असावधानी या उदासीनता ८.अपूर्वकरण गुणस्थान- अध:प्रवृत्तकरण को बिताकर के कारण) संयमपालन में बाधा भी पड़ जाती है।
सातिशय अप्रमत्त साधक जब प्रतिसमय अनन्तगुणी विशुद्धता को लिये अध्यात्म-विकास की इस भूमिका में जीव के चारित्र की हुए अपूर्व जाति के परिणामों को करता है तब उसे अपूर्वकरण अपेक्षा क्षायिकभाव होता है, पर सम्यक्त्व की अपेक्षा औपशमिक, गुणस्थानवर्ती कहा जाता है । इसमें जीव पूर्व समय में कभी प्राप्त नहीं क्षायिक, क्षायोपशमिक में से कोई भी एक भाव हो सकता है, क्योंकि हुए ऐसे अपूर्व-अपूर्व परिणामों (भावों) को धारण करते हैं । इसीलिए यहाँ भावसंयम की अपेक्षा है।
इसे अपूर्वकरण कहा जाता है७३ । अपूर्वकरण गुणस्थानवी जीव किसी ७.अप्रमत्तविरत गुणस्थान- संज्वलन और नोकषाय का नये कर्म का उपशमन या क्षपण तो नहीं करते, पर मोहनीय कर्म की मन्द उदय होने पर सकलसंयमधारी मुनि के जब प्रमाद का भी अभाव प्रकृतियों का उपशम या क्षय करने के लिए उद्यत होते हैं और पूर्वबद्ध हो जाता है तब वह अप्रमत्तविरत कहलाता है । यह आत्मचिन्तन और कर्मों की गुणश्रेणी निर्जरा५, गुणसंक्रमण ६ स्थितिखण्डन और आत्मशोधन के प्रति बड़ा सावधान होता है ।६४ इसके दो भेद हैं - अनुमागखण्डन करते हैं। १.निरतिशय और २.सातिशय ।
इस गुणस्थान में भिन्नसमयवर्ती जीवों के परिणाम कभी भी संज्वलन का मन्दोदय होने से प्रमाद का अभाव होने पर जब सदृश नहीं होते, पर एक समयवर्ती जीवों के परिणाम सदृश और केवल सामान्य ध्यानावस्था रहती है और चारित्रमोहनीय की २१ विसदृश दोनों ही होते हैं.९ । इसका काल अन्तर्मुहूर्त है तथा परिणाम प्रकृतियों का जब तक उपशमन या क्षपण कार्य प्रारम्भ नहीं होता तब असंख्यातलोक-प्रमाण है और वे उतरोत्तर प्रतिसमय समानवृद्धि को तक की अवस्था स्वस्थान या 'निरतिशय अप्रमत्त' कही जाती है । यह लिये हुए होते हैं । इसमें नियम से अनुकृष्टि रचुना नहीं होती । (क्योंकि अप्रमादी साधक महाव्रतों६५ मूलगुणों६६ और शीलव्रतों से युक्त होता भिन्न समयवर्ती जीवों के परिणामों में यहाँ सादृश्य नहीं पाया जाता।) है और स्वपर के विवेक (भेदविज्ञान) सहित आत्मध्यान में लीन रहता
९.अनिवृत्तिकरण गुणस्थान- अन्तर्मुहूर्तमात्र इस गुणस्थान है। यह श्रेणी-आरोहण के सम्मुख नहीं होता६८ | प्रमाद के उद्रेक और में शरीर, अवगाहना आदि बाह्य कारणों तथा ज्ञानावरणादिक कर्मों के शमन से कभी-कभी यह सातवें से छठे और छठे से सातवें गुणस्थान क्षयोपशम आदि अन्तरङ्ग करणों की अपेक्षा भेद होते हुए भी समसमयवर्ती में भी आता-जाता रहता है। जैसे आँखों की पलकें (जाग्रत अवस्था में) नाना जीवों के परिणामों की विशुद्धि में परस्पर कोई भेद (निवृत्ति या बन्द होती हैं और खुलती रहती हैं वैसे ही यह छठे और सातवें विषमता) नहीं पाया जाता । इसीलिए इसे अनिवृत्तिकरण कहा गया गुणस्थानों में आता-जाता रहता है । एक मुहूर्त में वह सैकड़ों बार है१ । परिणामों में विशुद्धि की सदृशता का कारण यह है कि उतरता-चढ़ता है । एक ओर अप्रमादजन्य सुखानुभव और दूसरी ओर अनिवृत्तिकरण के जितने समय हैं उतने ही उसके परिणाम हैं । इसलिए प्रमादजन्य वासनाएँ उसकी मन:स्थिति को चंचल बनाये रखते है। प्रत्येक समय में एक ही परिणाम होता है । इसी से भिन्नसमयवर्ती जीवों
जब अप्रमत्त साधक के आत्मिक भावों का रूप अत्यन्त शुद्ध के परिणामों में सर्वथा विसदृशता और एकसमयवर्ती जीवों के परिणामों हो जाता है तो वह निरतिशय अप्रमत्त साधक कहलाता है । यह में सर्वथा सदृशता पाई जाती हैं। अस्खलित रूप से उत्क्रान्ति करता है और श्रेणी चढ़ने के सम्मुख हो चूँकि इस गुणस्थान में भावोत्कर्ष की निर्मल विचारधारा और जाता है। जैसा कि कहा गया है
भी तीव्र हो जाती है, अत: आत्मा के अत्यन्त निर्मल परिणाम ध्यानरूपी चारित्रमोहनीय की २१ प्रकृतियों६९ के उपशम या क्षय करने अग्नि की सहायता से कर्मरूपी वन को दग्ध कर देते हैं ।८२ ध्यानस्थ को आत्मा के अध:करण अपूर्वकरण और अनिवृत्तिकरण ये तीन संयत साधक या तो कर्मों को दबा (उपशमन कर) देता है या उन्हें नष्ट परिणाम निमित्त भूत हैं । सातिशय अप्रमत्त इनमें से नियम से (क्षय) कर देता हैं। यद्यपि यहाँ संज्वलनचतुष्क की मन्दता के कारण अध:प्रवृत्तकरण' को करता है.२ । इसका काल अन्तर्मुहूर्तमात्र है और निर्मल हुई आत्मपरिणति से क्रोध, मान, माया तथा वेद का तो समूल परिणाम असंख्यातलोक प्रमाण है । ये परिणाम ऊपर-ऊपर सदृश वृद्धि नाश हो जाता है, पर स्थूल लोभकषाय विद्यमान रहता है। इसी कारण को प्राप्त होते गए हैं।
इस गुणस्थान को बादर साम्पराय' गुणस्थान भी कहा जाता है । 'बादर' दो श्रेणियाँ - सप्तम गुणस्थान के आगे उपशम और क्षपक- का अर्थ स्थूल है और 'साम्पराय' का तात्पर्य संसार-परिभ्रमण का ये दो श्रेणियाँ होती हैं । उपशमश्रेणी पर जीव कर्मों का उपशम करता कारणभूत 'कषायोदय' है-३ |
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गुणस्थान : मनोदशाओं का आध्यात्मिक विश्लेषण
१०.सूक्ष्मसाम्पराय गुणस्थान- मोहनीय कर्म का क्षय या जीव का नीचे के गुणस्थानों में कभी पतन नहीं होता। मोहनीय कर्म उपशम करके आत्महितेच्छु साधक जब समस्त कषायों को नष्ट कर देता के सर्वथा अभाव से यहाँ पर एक क्षायिकभाव २ ही माना गया। है, केवल सूक्ष्म लोभ-कषाय का उदय ही शेष रहा जाता है तब आत्मा १३. सयोगकेवली गुणस्थान- क्षीणकषायी वीतराग की यह उत्कर्ष-स्थिति 'सूक्ष्मसाम्पराय' के नाम से अभिहित होती छद्मस्थ जब अपने अन्तिम समय में एकत्ववितर्क ३ नामक शुक्लध्यान है । जैसे धुले हुए कसुंभी वस्त्र में लालिमा शेष रह जाती है वैसे ही के प्रभाव से ज्ञानावरण, दर्शनावरण और अन्तराय-कर्म की प्रकृतियों का इस गुणस्थानवर्ती जीव के सूक्ष्म लोभकषाय का उदय पाया जाता है। भी सर्वथा क्षय कर देता है तो उसके अतीन्द्रियदर्शी केवलज्ञान प्रकट
चाहे उपशम श्रेणी का आरोहणकर्ता हो चाहे क्षपक श्रेणी का हो जाते हैं । यह आत्म-परिणति ही सयोग-केवली की स्थिति है। योगों अरोहणकर्ता, पर जो जीव सूक्ष्म लोभ के उदय का अनुभव कर रहा का सद्भाव होने से ‘सयोग' और 'केवल' (असहाय) ज्ञानदर्शन के होता है वह यथाख्यातचारित्र-६ से कुछ ही न्यून रहता है अर्थात् स्वामी होने से इसे 'केवली' कहा गया है । इस गुणस्थान के प्रथम सूक्ष्मसाम्परायी के यथाख्यातचारित्र के प्रकट होने में कुछ ही कमी रहती समय में छद्मस्थता का व्यय (अभाव) और केवलित्व का उत्पाद
(प्राप्ति) एक साथ होता है । कहा गया है-- ११. उपशान्तकषाय (वीतराग छद्यास्थ) गुणस्थान- जिन्होंने केवलज्ञानरूपी सूर्य की किरणों से अज्ञानान्धकार को निर्मलीफल से युक्त जल की तरह अथवा शरद्ऋतु में ऊपर स्वच्छ हो सर्वथा नष्ट कर दिया है तथा जिन्हें नौ केवल-लब्धियाँ ६ प्राप्त हो जाने जाने वाले सरोवर के जल की भाँति सम्पूर्ण मोहनीयकर्म के उपशम से से ‘परमात्मा'९७ का व्यपदेश (संज्ञा) प्राप्त हो गया है तथा इन्द्रिय, उत्पन्न होने वाले निर्मल परिणामों को 'उशान्तकषाय' कहते हैं।८ आलोक आदि की अपेक्षा न रखने वाले ज्ञानदर्शन से युक्त होने के कारण इसकी जघन्यस्थिति एक समय व उत्कृष्टस्थिति अन्तर्मुहूर्त है । उपशान्तकषायी केवली' और योग से युक्त होने के कारण सयोग तथा घातिया कर्मों जीव आगे के गुणस्थानों को सीधे प्राप्त नहीं कर पाता, क्योंकि बिना से रहित होने के कारण 'जिन' कहा जाता है उनका स्वरूप-विशेष ही क्षपक श्रेणी चढ़े कोई भी जीव दसवें आदि गुणस्थानों में नहीं पहुँच सयोगकेवली के नाम से जाना जाता है । सकता।
जैन तीर्थकर इसी अवस्था को प्राप्त कर धर्म का प्रवर्तन करते यहाँ पर मोहनीय कर्म उपशान्त तो अवश्य हो जाता है, पर हैं, जगह-जगह विहार कर प्राणिमात्र के हित का मार्ग प्रशस्त करते हैं, रहता सत्ता में ही है । अत: जैसे ही मोहोदय होता है, वह नियम से इस भव्य जीवों को मोक्ष-मार्ग का उपदेश देकर संसार में मोक्षमार्ग को गुणस्थान से च्युत होकर नीचे के गुणस्थानों में गिरता हुआ दूसरे या प्रकाशित करते हैं । उपदेश देने में इनके वचनयोग का तथा गमनादिक पहले गुणस्थानों में पहुँच जाता है । अत: यहाँ से अध:पतन नियमतः हलन-चलन में काययोग का एवं मनःपर्ययज्ञानी या अनुत्तरादि के देवों होता है । बारहवें गुणस्थान में पहुँचने के लिए कर्मों का क्षय करते हुए की शंकाओं के समाधान में इनके मनोयोग का प्रयोग होता है।९। जब क्षपक श्रेणी का आरोहण करना अनिवार्य है । इस गुणस्थानवी जीव तक अर्हन्त केवली के मन, वचन और काय का व्यापार चलता है तब राग का उदय न होने से और सभी कषायों का उपशमन हो जाने से तक वे सयोगकेवली ही रहते हैं । यह अवस्था कम-से-कम अन्तर्मुहूर्त वीतराग होते हैं और घातिया कर्मों-९ का अभी सद्भाव होने से ये तक और अधिक-से-अधिक कुछ कम एक करोड़ पूर्व१०० तक रहती छद्यस्थ भी होते हैं अर्थात् घातिया कर्मरूप छद्य में स्थित होने से ये है। छद्यस्थ भी हैं । इसीलिए ये 'वीतराग' छद्यस्थ भी कहलाते है।
१४. अयोगकेवली गुणस्थान- जब अर्हन्त केवली ध्यानस्थ १२.क्षीणकषाय गुणस्थान-क्षपकश्रेणी पर आरूढ़ प्रशान्त होकर अपने मन, वचन-काय का सब व्यापार अवरूद्ध कर अघातिया निर्ग्रन्थ साधक मोहनीय कर्म को धीरे-धीरे नष्ट करता हुआ जब उन्हें कर्मों५०१ का भी क्षय कर देते हैं तो उन्हें अयोगी केवली कहा जाता है। पूर्णतया नष्ट कर डालता है तो उसका चित्त स्फटिकमणि के पात्र में रखे ये १८ हजार शीलों के स्वामी हो जाते हैं, उनके कर्मों के आने के द्वार हुए निर्मल जल की भाँति स्वच्छ हो जाता है, उसे वीतरागदेव ने (आस्रव) सर्वथा अवरूद्ध हो जाते हैं और कर्मरज से सर्वथा विमुक्त हो क्षीणकषाय गुणस्थानवर्ती कहा है ।९१ इस गुणस्थान का काल भी योगों से भी सर्वथा रहित हो जाते हैं।०२ । अन्तर्मुहूर्त है। केवल क्षपकश्रेणी पर आरोहण करने वाले जीव ही दसवें इस गुणस्थान का काल अ, इ,उ,ऋ, और ल-इन पाँच लघु गुणस्थान के बाद सीधे इस गुणस्थान में पहुँचते हैं।
वर्णों के उच्चारण काल के बराबर होता है । ये अपने गुणस्थान काल मोहनीय कर्म के सर्वथा क्षीण हो जाने से यहाँ पर जीव की के द्विचरम समय में सत्ता की ८५ प्रकृतियों में से ७२ का नाश करते आत्म-परिणति अत्यन्त निर्मल हो जाती है। अत: यह अपने द्विचरम हैं तथा अन्तिम समय में शेष १३ प्रकृतियों का नाश कर लोकाग्र में समय में निद्रा, निद्रा-निद्रा का क्षय करता है और अन्तिम समय में स्थित सिद्ध-शिला पर ऋजुगति से चलकर एक समय में पहुँच जाते ज्ञानावरण, दर्शनावरण और अन्तराय प्रकृतियों का क्षय कर डालता है हैं। वे संसार से मुक्त हो जाते हैं। जैसे बीज के बिल्कुल दग्ध हो जाने और नियम से यह तरहवें गणुस्थान में पहुँच जाता है । इस गुणस्थानवर्ती पर अंकुर पैदा नहीं होता वैसे ही कर्मरूपी बीज के जल जाने पर (समस्त
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जैन विद्या के आयाम खण्ड-७
कर्मों का क्षय हो जाने पर) भवाङ्कर (संसार) पैदा नहीं होती ।१०३ ७. जैन सि० प्रवे०, पृ० १४४
संसार और मोक्षमार्ग का यही अन्तिम स्थान है । यहीं पर ८. गुणस्थानेषु परमपद-प्रासाद-शिखरारोहण सोपानेषु । शैलेशी अवस्था प्राप्त होती है तथा व्युपरतक्रियानिवृत्ति शुक्लध्यान०४
- कर्मस्तव, दे. स्वो. वृत्ति-१ रूप से परिणाम होते हैं जो संसार का पूर्णतया नाश करने में सर्वथा ९. समता: दर्शन और व्यवहार, पृ० १०४ समर्थ हैं । इससे रत्नत्रयरूप करण को प्राप्त कर संसारातीत सिद्धपर्याय १०. तीर्थंकर महावीर और उनकी आचार्य परम्परा, भाग १, पृ०५४४. को प्राप्त कर लेते हैं। संसार का अन्त हो जाने पर भी आत्मद्रव्य का ११. पमादपच्चया जोगनिमित्तं च ।- भगवतीसूत्र, १. ३.१२७ विनाश नहीं होता, अपितु शुद्ध चैतन्य रूप में उसका अस्तित्व बना १२. स्वामीकार्तिकेयानुप्रेक्षा, गाथा १०२-१०३ । रहता है । इस अवस्था में आत्मा ज्ञानावरणादि आठ कर्मों से रहित, १३. जोगा पयडिपदेसा ठिदि अणुंभागा कसायदो होति ।- द्रव्यसंग्रह, सभ्यक्त्वादि ८ गुणों से युक्त, अनन्तसुखमय, निरंजन, नित्य, कृतकृत्य और लोकाय में (सिद्ध-शिला पर) अवस्थित रहता हैं।०५। १४. मिच्छादसण अविरदि कसायजोगा हवन्ति बन्धस्स । सन्दर्भ
- मूलाचार, १२, १४।
१५. मिथ्यादर्शनाविरतिप्रमादकषाययोगा: बन्धहेतवः । १. गुणाः ज्ञानदर्शनचारित्ररूपा: जीवस्वभावविशेषाः, तिष्ठन्ति गुणाः अस्मिन्निति स्थानम् ।
- तत्त्वार्थसूत्र, ८.१
१६. ये चारित्रपरीणामं कषन्ति शिवकारणम् । ज्ञानादिगुणानामेवोपचयापचयकृत: स्वरूपभेदः,
- पंचसंग्रह (संस्कृत), १,२०३ गुणानां स्थानं गुणस्थानम्। -शतक० मल० हेम० वृत्ति- १४/२
- जो मोक्ष के कारणभूत चारित्र धारण करने के परिणाम न होने
देवें, आत्मा के स्वरूप को कसें, दुख देवें, उन्हें कषाय कहते २. स्थिति को पूरी करके कर्म के फल देने को 'उदय' कहते हैं। -जैन सि० प्रवे०, पृ० ८६
हैं। ये अननता० ४, अप्रत्या० ४, प्रत्या० ४, संज्वलन ४ और ३. द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव के निमित्त से कर्म की शक्ति की
नोकषाय ९ कुल २५ होती हैं। अनुभूति को 'उपशम' कहते हैं।
१७. जैन सि० प्रवे० ५९
१८. (अ) मिच्छो सासण मिस्सो अविरसम्मो य देशविरदो य ।
-वही, पृ०८६ ४. कर्म की आत्यन्तिक निवृत्ति 'क्षय' है।
विरदा प्रमत्त इदरो अपुव्व अण्णिय? सुहमो य ॥९॥
.गो० जीव० - वही, पृ०८७ ५. वर्तमान निषेक में सर्वघाती स्पर्द्धकों का उदयभावी क्षय तथा
उवसन्त खीणमोहो सजोगकेवलिजिणो अजोगी य। देशघाती स्पर्द्धकों का उदय और आगामी काल में उदय में आने
चउदस जीवसमासा कमेण सिद्धा य णादव्वा ॥१०॥
- गो० जीव० वाले निषेकों का सदवस्थारूप उपशम-ऐसी कर्म-अवस्था को 'क्षयोपशम' कहते हैं।
(ब) तत्त्वार्थसार, २. १६-१७ (स) षट्खं० संतसुत्त, विवरणसूत्र
९ से २३ . . वही, पृ०८७
१९. जैन सि० प्रवे०, पृ० १४५ ६. (अ) जेहिं दु लक्खिज्जन्ते उदयादिसु संभवेहिं भावहिं।
२०. जो भाव कर्मों के उदय से हो, वह 'औदयिकभाव' कहलाता है। जीवा ते गुणसण्णा णिद्दिट्ठा सव्वदरसीहिं ॥८॥
- जैन सि० प्रवे०, पृ० ११२ -गो०, जीव०
२१. जो उपशम, क्षय, क्षयोपशम व उदय की अपेक्षा न रखता हुआ (ब) अनेन (गुणशब्दनिरुक्तिप्रधानसूत्रेण) मिथ्यात्वादयोऽयोगिकेवलिपर्यन्ता
जीव का स्वभावमात्र हो उसको 'पारिणामिकभाव' कहते हैं। जीवपरिणामविशेषाः ते एव गुणस्थानानीति प्रतिपादितं भवति ।
- वही, पृ० ११२ _ - जीवप्रबोधिनी टीका २२.
२२. जो कर्मों के क्षयोपशम से हो, वह 'क्षायोपशमिकभाव' कहलाता (स) यैः भावैः औदयिकादिभिर्मिथ्यादर्शनादिभिः परिणामै- जीवा
है। - वही, पृ० ११२ गण्यन्ते..... ते भावाः गणसंज्ञा संवदर्शिभि: निर्दिष्टाः।
२३. जो किसी कर्म के उपशम से हो वह औपशमिकभाव' कहलाता _ - मन्दप्रबोधिनी टीका
है। - वही, पृ० १११ (द) संस्कृत पंचसंग्रह (भारतीय ज्ञानपीठ)-अ० १, का०३,
२४. जो किसी कर्म के क्षय से उत्पन्न हो, उसको 'क्षायिकभाव' कहते
हैं। - वही, पृ० ११२ २५. गो. जीव० गाथा ११ एवं १२ तथा षटखं० भावानु० सूत्र
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गुणस्थान : मनोदशाओं का आध्यात्मिक विश्लेषण
1अप०,
२,३,४,५
३९. गो० जीव०, १९ . २६. गो० जीव० गाथा १३ एवं १४ तथा षटखं० भावानु सूत्र ४०. रत्नशेखर, गुणस्थानक्रमारोह, ११ ७,८,९
४१. किमिति मिथ्याद्दष्टिरिति न व्यणदिश्यते चेत्र, अनन्तानबन्धिनां २७, जिस कर्म के उदय से अतत्त्वश्रद्धान् हो, वह 'मिथ्यात्व' है। द्विस्वभावत्वा प्रतिपादनफलत्वात् ...... सूत्रो -जैन सि० प्रवे०, पृ०५९
तथानूपदेशोऽप्यर्पितनयापेक्षः। २८. जिस कर्म के उदय से जीव के मिले हुए परिणाम हों, जिन्हें न
- घवला जीवट्ठाण संतसुत्त, पृ० १६५ तो सम्यक्त्वरूप कह सकें और न मिथ्यात्वरूप ही, उसे 'सम्यक् ४२-४३. जिसका स्वयं अनुभव हो सके अथवा कदाचित् जिसका दूसरे
-मिथ्यात्व' कहते हैं। जैन सि० प्रवे०, पृ०५९ को भी परिज्ञान हो सके उसे व्यक्त और उससे विपरीत को अव्यक्त २९. जिस कर्म के उदय से जीव के सम्यक्त्वगण का मूलघात तो न कहते हैं।
हो परन्तु चल मलादिक दोष उपजें उसको 'सम्यक्त्व प्रकृति' ४४-४५. (अ) सम्मामिच्छुदयेण जत्तंतरसब्वघादिकज्जेण। कहते हैं। -जैन सि० प्रवे०, पृ० ५९-६०
ण य सम्म मिच्छं पि य सम्मिस्सो होदि परिणामो ॥२१॥ ३०. जो आत्मा के स्वरूपाचरणचारित्र को घातें उनको अनन्तानुबंधी दहिगुडमिव वा मिस्सं पुहभावं णेव कारिदुं सक्कं ।
चतुष्क (क्रोध, मान, माया, लोभ) कहते हैं। - जैन सि० प्रवे०, एवं मिस्सयभावो सम्मामिच्छो त्ति णादव्वो।।२२।। -गो० जीव० पृ०६१।
(ब) धवला, खण्ड १, गाथा १०९ ३१. मिच्छोदयेण मिच्छत्तमसद्दहणं तु तच्च अत्थाणं । -गो० जीव०, (स) सम्यग्मिथ्यात्वरुचिमिश्रः सम्यग्मिथ्यात्व पाकतः । गाथा १५
सुदुष्करः पृथग्भावो दधिमिश्रगुडोपमः ।। -सं० पंचसंग्रह, १.२२ ३२. तत्त्वानि जिनदृष्टानि यस्तथ्यानि न रोचते।
४६. जैसे परस्पर विरुद्ध लक्षण और स्वभाव वाले अग्नि और जल मिथ्यात्वस्योदये जीवो मिथ्यावृष्टिरसौ मतः ।।
एक स्थान और एक काल में एक साथ नहीं रह सकते उसी भाँति
- सं० पंचसंग्रह, १.१९ सम्यग्मिथ्यात्वरूप दो परस्पर-विरुद्ध भाव एक काल और एक ३३. (अ) मिच्छन्तं वेदन्तों जीवो विवरीयदंसणो होदि ।
आत्मा में नहीं हो सकते अन्यथा सहावस्थानलक्षणविरोध होगा। ण य धम्मं रोचेदि हु महुरं खु रसं जहा जरिदो।। ४७. जैसे राम में श्याम की अपेक्षा मित्रपना और रमेश की अपेक्षा
- गो० जीव०, १७ अमित्रपना ये दोनों ही धर्म एक ही काल में एक साथ होते हैं (यही (ब) मूलाराधना, गाथा ४१, पृ० १४०;
मित्रामित्रन्याय है) वैसे ही एक ही आत्मा में तत्त्वश्रद्धान् की (स) पट्खं० संतसुत्त विवरण, - गा० १०६, पृ० १६२ अपेक्षा सम्यक्त्वपना और सर्वज्ञाभास-भासित अतत्त्वश्रद्धान की (ड) सं० पंचसंग्रह, १.६
अपेक्षा मिथ्यापना ये दोनों ही धर्म एक काल और एक ही आत्मा ३४. (१) मिच्छाइठ्ठी जोवो उवइ8 पवयणं ण सद्दहदि ।
में घटित हो सकते हैं। सद्दहदि असब्भावं उवइ8 वा अणुवइ8 ।। ४८. श्रावक के व्रतों (आचार) का पालन देशसंयम और मुनियों के
- गो० जी०, गा० १८ आचार का पालन सकलसंयम कहलाता है । (२) मूलाराधना, गा० ४०, पृ० १३८;
४९. मूल शरीर को बिना छोड़े ही आत्मा के प्रदेशों का बाहर निकलना (३) लब्धिसार, गा०१०९;
‘समुद्घात' है। इसके ७ भेद हैं- वेदना, कषाय, वैक्रियिक, (४) सं० पंचसंग्रह, १-८; (५) छक्खंड चूलिया-गाथा, १५ मरणान्तिक, तैजस, आहार और केवली । मरण से पहले ३५. गो० जीव०, गा० १५
होनेवाले समुद्घात को मारणान्तिक समुद्घात कहते हैं । ३६. (अ) सम्मत्तरयणपव्वयसिहरादो मिच्छभूमिसमभिमुहो।
-दृ० द्रव्यसंग्रह, गा०१० णासियसम्मत्तो सो सासणणामो मुणेयव्वो।। ५०. (क) सो संजमं मिण्हदि, देसजमं वा ण बंधदे आउं।
___-गो० जीव०, २० सम्म वा मिच्छं वा, पडिवज्जिय मरदि णियमेण ||२३|| (ब) षट्खंडागम, संतसुत्त जीवट्ठाण, गाथा १०८, पृ० १६६
-गो० जीव० (स) सं० पंचसंग्रह, १.२०
(ख) सम्मत्तमिच्छपरिणामेस् जहिं आउगं पूरा बद्ध । ३७. ३८. पुद्गल परमाणु जितने समय में आकाश के एक प्रदेश से तहिं मरणं मरणंतसमुग्धा दो वि यण मिस्समि ॥२४॥ दूसरे प्रदेश पर जाता है उतना समय कहलाता है । ऐसे
.गो० जीव० असंख्यात समय एक समय की आवली होती है और एक श्वास ५१. स्थावर नामकर्म के उदय से पृथ्वी, जल, तेज, वायु और में असंख्यात आवली होती हैं।
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जैन विद्या के आयाम खण्ड-७
वनस्पति में जन्म लेनेवाले जीवों को 'स्थावर' कहते हैं।
५ इन्द्रिय-विषय, निद्रा और १स्नेह-१५।। - जैन सि० प्रवे०, पृ० १२०
.जैन सि० प्रवे०, पृ० १०३ ५२. त्रस नामकर्म के उदय से द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय और ६३. संजलणणोकसायाणुदयादो संजमो हवे जम्हा। पंचेन्द्रियों में जन्म लेने वाले जीवों को 'स' कहते हैं।
मलजणणपमादो वि य तम्हा ह पमत्तविरदो सो ।। -जैन सि० प्रवे० पृ० २९
- गो० जी० ३२ ५३. (अ) णो इंदियेस विरदो, णो जीवे थावरे तसे वापि । ६४. संजलणणेकसायाणुदओ मंदो जदा जदा होदि । जो सद्दहदि जिणुत्तं सम्माइठ्ठी अविरदो सो॥
अपमत्तगणो तेण य अपमत्तो संजदो होदि ।। - गो० जीव०, २९
- गो० जी० ४५ (ब) पाकाच्चारित्रमोहस्य व्यस्तप्राण्यक्षसंयमः।
६५. पंचानां पापानां हिंसादीनां मनोवच: कायैः । त्रिष्वेकतमसम्यक्त्वः सम्यग्दृष्टिरसंयतः॥
कृतकारितानुमोदैस्त्यागस्तु महाव्रतं महताम् ॥ - सं० पंचसंग्रह, १, २३
- रत्नकरण्डश्रावकाचार,७२, ५४. जो कषाय आत्मा के देशचारित्र का (श्रावक के व्रतों का) घात करे ६६. धर्म के आधारभूत गणों को मूलगुण कहते हैं। गृहस्थो (गृहस्थधर्म)
उसको अप्रत्याख्यानावरण चतुष्क (क्रोध, मान, माया, लोभ) के८ और मुनियों के २८ मूलगुण कहे गये है। इनके बिना धर्म कहते हैं।
का प्रारम्भ ही नहीं हो सकता। - जैन सि० प्रवे०, पृ०६१ ६७. व्रतों की रक्षा के लिए जो व्रत पाले जाते हैं, वे शीलव्रत कहलाते ५५. (अ) अपिशब्देन संवेगादिइ सम्यक्त्वगुणा: सूच्यनते।
हैं। जैसे खेत के अंकुरों की रक्षा के लिए वाड़ का उपयोग होता
___-जीवप्रबो० टीका है वैसे ही व्रतों की रक्षा के लिए इनका पालन किया जाता है। (ब) अपिशब्देनानुकम्पादिगुणसद्भावानिपरराधहिंसा न करोतीति सूच्यते। ६८. गट्ठासेसपमादो वयगुणसीलोलिमंडिओ णाणी। - मन्दप्रबो० टीका
अणुवसमओ अखवओ झाणणिलीणोह अपमत्तो ।। ५६. तीर्थंकर महावरी और उनकी आचार्य परम्परा, पृ० ५४५
- गा० जी० ५६ ५७. (क) पच्चक्खाणुदयादो संजमभावो ण होदि णवरिं तु। ६९. अप्रत्याख्यानावरण-४, प्रत्याख्यानावरण-४, संज्वलन-४ और थोववदो होदि तदो, देसवदो होदि पंचमओ॥
हास्यादिक नोकषाय-९, कुल २१ प्रकृतियाँ ।
- गो० जीव०, ३० ७०. आत्मा के परिणाम 'करण' कहलाते हैं । चारित्रमोह की उपयुक्त (ख) यस्त्राता त्रसकायानां हिंसिता स्थावरांगिनाम् ।
२१ प्रकृतियों का उमशम या क्षय करने के लिए जीव के अपक्वाष्टकाषायोऽसौ संयताऽसंयतो मतः ॥
अध:करण अपूर्वकरण और अनिवृत्तिकरण- ये तीन परिणाम होते
- सं० पंचसंग्रह, १,२४ हैं। अध:करण श्रेणी चढ़ने के सम्मुख सातिशय अप्रमत्त के होता ५८. जो आत्मा के सकलचारित्र का घात करे उसे प्रत्याख्यानावरण है । अपूर्वकरण आठवें में और अनिवृत्तिकरण नवें गुणस्थान में चतुष्क (क्रोध, मान, माया, लोभ) कहते हैं।
होता है । इनमें प्रतिसमय उतरोत्तर अनन्तगुणी विशुद्धता होती - जैन सि. प्रव०, पृ० ६१ जाती है जिससे कर्मों का उपशम तथा क्षय और स्थिति खण्डन ५९. जो तसबहाउविरदो अविरदओ तहय थावरवहादो।
और अनुभाग खण्डन होते हैं। एक्कसमयम्हि जीवो विरदोविरदो जिणेक्कमई ॥
. चूँकि इसमें ऊपर के समयवर्ती और नीचे के समयवर्ती जीवों के
- गो० जी० परिणाम संख्या और विशुद्धि की अपेक्षा समान होते हैं, इसीलिए ६०-६१. जो आत्मा के यथाख्यात चारित्र को घातें उन्हें संज्वलन इसे अध-प्रवृत्तकरण कहा जाता है। - गो० जी० ४८
नोकषाय कहते हैं । ईषत् कषाय को नोकषाय कहते हैं । इसके ७२. इगवीसमोहखवणुवसमणणिमित्ताणि तिकरणाणि तहिं । ९ भेद हैं -हास्य, रति, अरति, शोक, भय, जुगुप्सा, स्त्रीवेद, पढमं अद्यावत्तं करणं तु करोदि अपमत्तो ।। पुरूष और नपुंसकवेद।
- गो० जी० ४७ ६२. असावधानी, उदासीनता या आलस्य को सामान्यत: प्रमाद कहते ७३. अंतोमुहत्त काल गमिण अघापवत्तकरणं तं ।
हैं । सिद्वान्तानुसार संज्वलन और नोकषाय के तीव्र उदय से पडिसमयं सुज्झतो, अपुव्वकरणं समल्लियई ।। निरतिचार चारित्र पालने में अनुत्साह को तथा स्वरूप की असावधानता
-गो०जी०५० को 'प्रमाद' कहते हैं । ये २५ हैं, जैसे ४ विकथा, ४ कषाय, एदह्मि गुणट्ठाणे विसरिससमयट्ठियेहिं जीवहिं ।
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गुणस्थान : मनोदशाओं का आध्यात्मिक विश्लेषण
७१ पुव्वमपत्ता जमा होति अपुव्वा हु परिणामा ॥
देते) हैं, वे घातिया कर्म कहलाते हैं । वे चार हैं-ज्ञानावरण,
- गो० जी० ५१ दर्शनावरण, मोहनीय और अन्तराय। ७४. क्षपयन्ति न ते कर्म शमयन्ति न किञ्चन ।
९०. जो जीव ज्ञानावरण, दर्शनावरण कर्मों के उदय की अवस्था में केवलं मोहनीयस्य शमनक्षपणोद्यताः ।।
पाये जाते हैं वे सब छद्मस्थ' कहलाते हैं । ये दो तरह के होते
सं० पंचसंग्रह, १.३३ हैं - (१) सराग छद्मस्थ और (२) वीतराग छद्मस्थ । रागयुक्त को ७५. उदयकाल से लेकर उत्तरोत्तर संख्यातगणे हीन-हीन समय में ही सराग और रागरहित को वीतराग कहते हैं । ११वें-१२वें
उत्तरोत्तर परिणामविशुद्धि होती जाने से आगे-आगे असंख्यातगुणे- गुणस्थान के जीव वीतराग-छद्मस्थ होते हैं और १० वें से पहले असंख्यातगुणे अधिक कर्मपरमाणुओं की (गुणाकर रूप से गुणित) गुणस्थान तक के सभी जीव सराग-छद्मस्थ । निर्जरा 'गुणश्रेणी निर्जरा' कहलाती है । यह ८वें से १४वें ९१. णिस्सेसखीणमोहो फलिहामलभायणुदयसमचितो। गुणस्थान तक होती है।
खीणकसाओ भण्णदि णिगंथो वीयरायेहिं ।। ७६. प्रयत्ननिशेष से पूर्वबद्ध सजातीय अशुभ प्रकृतियों को शुभ
- गो० जी०६२ प्रकृतियों में परिणत करना 'गुणसंक्रमण' कहलाता है। ९२. जो भाव किसी कर्म के क्षय से उत्पन्न हो वह क्षायिकभाव ७७. उदय में आने वाले कर्मदलिकों की स्थिति को अपकर्षणकरण कहलाता है । द्वारा कम कर देना (घटा देना) स्थितिखण्डन है।
- जैन सि. प्रवे०, पृ० ११२ ७८. बद्ध कर्मों की फलदान की शक्ति को अपकर्षणकरण द्वारा मन्द ९३. वायु के प्रभाव से शून्य घर के भीतर जलती हुई दीपक की स्थिर कर देना अनुभागखण्डन है।
ज्योति की भाँति को चित्त (अनत:करण) उत्पाद, स्थिति तथा भंग ७९. सं. पंचसंग्रह, १.३५ ।
में से किसी एक ही पर्याय में अतिशय स्थिर होता है । उसे ८०. गो० जी० ५२-५३,
एकत्ववितर्कशुक्लध्यान कहते हैं। इसमें अर्थ, व्यंजन व योग ८१. ये संसथानादिना भिन्नाः समाना: परिणामतः ।
का संक्रमण नहीं होता है।
-ध्यानशतक, गा समानसमयावस्थास्ते भवन्त्यनिवृत्तयः ।।
७९-८० ___- सं० पंचसंग्रह, १.३८ ९४. जो त्रिकालवर्ती समस्थ पदार्थों को और उनकी समस्थ पर्यायों को ८२. होति अणियट्टणो ते पडिसमयं जेस्सिमेक्कपरिणामा ।
एक साथ प्रत्यक्ष जानता है, वह केवलज्ञान है-सर्वद्रव्यपर्यायेष विमलयरझाणहयवहासिहाहिं णिद्दड्ड कम्भवणा ।।
केवलस्य-तत्त्वार्थसूत्र, अ०१,सू. २९ । यह इन्द्रिय, आलोक
-गो० जी०५७ आदि की अपेक्षा नहीं रखता, आत्मा से ही जानता-देखता है। ८३. संसरति पर्यटति संसारमनेनेति सम्परायः।
इसी से यह अतीन्द्रियदर्शी और प्रत्यक्ष कहलाता है। - इस निरुक्ति के अनुसार। ९५. शतक० मल० हेम० वृत्ति ९, पृ०२०-२१ ८४. लोभः संज्वलनः सूक्ष्मः शमं यत्र प्रपद्यते ।
९६. नौ केवल लब्धियाँ- (१) क्षायिक सम्यक्त्व (२) अनन्तदर्शन क्षयं वा संयत: सूक्ष्मः साम्पराय: स: कथ्यते ॥
(३) अनन्तज्ञान (४) अनन्त-चारित्र (५) अनन्तवीर्य (६) दान -सं० पंचसंग्रह, १.४३ ।
(७) लाभ (८) भोग और उपभोग ८५. कौसम्भोऽन्तर्गतो रागो यथा वस्त्रेऽवतिष्ठते।
९७. सामान्यतया जीव की तीन अवस्थाएँ होती हैं - (१) बहिरात्मा, सूक्ष्मलोभगुणे उलोभः शोध्यमास्तथा तनुः ।।
(२) अन्तरात्मा और (३) परमात्मा । सम्यग्दर्शन से रहित -सं० पंचसंग्रह १.४४
मिथ्यादृष्टि जीव बहिरात्मा हैं। सम्यदर्शन से सहित सभी छद्मस्थ ८६. कषायों के सर्वथा अभाव से प्रादुर्भूत आत्मा की शुद्धि-विशेष
जीव अन्तरात्मा कहलाते हैं और सर्वज्ञ हो जाने पर सभी जीवों को 'यथाख्यातचारित्र' कहते हैं।
को परमात्मा माना गया है । चौथे १२ वें गुणस्थानवी जीव ८७. अणुलोह वेदंतो जीवो उबसामगो व खबगो वा।
अन्तरात्मा और इससे ऊपर १३वें गुणस्थानवी जीव परमात्मा
माने गये हैं। परमात्मा के दो भेद हैं - सकल और विकल । चार सो सुहुमसंपराओ जहखादेणूणओ किंचि ।।
___ - गो० जी०६०
घातिया विनाशक अर्हन्त केवली विकल परमात्मा हैं और सम्पूर्ण ८८. अघोमले यथानीते कतके नाम्भोऽस्ति निलम् ।
कर्मों से रहित सिद्ध सकल परमात्मा। उपरिष्ठात्तथा शान्तमोहो ध्यानेन मोहने ।।
केवलणाणादिवायरकिरणकलावप्पणासियण्णाणो । - सं० पंचसंग्रह, १.४७
णवकेवललघुग्गमसुजणियपरमप्पवबएसो ॥ ८९. जो जीव के ज्ञानादिक अनुजीवी गुणों को घातते (प्रकट नहीं होने
असहायणाणदंसणसहिओइदिकेवली हजोगेण ।
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जुत्तोत्ति सजोगिजिणो अणाइणिहणारिसे उत्तो ।
- गो. जीव ६३-६४ ९९. भगवतीसूत्र, शतक ५ १००. आठ वर्ष अन्तर्मुहूर्त कम एक कोटिपूर्व वर्ष प्रमाण। १०१. जो जीव के अनुजीवी गुणों को न घातें उन्हें अघातिया कर्म
कहते हैं । ये चार हैं - वेदनीय, आयु, नाम और गोत्र । १०२. सीलेसिं संपत्तो णिरुद्धणिस्सेसआसवो जीवो। कम्मरयविप्पमुक्को गयजोगो केवली होदि ॥
- गो० जी०६५ १०३. दग्घे बीजे यथात्यनतं प्रादुर्भवति नाङ्करः ।
कर्मबीजे तथा दग्धे रोहति भवाङ्करः ।।
- तत्त्वार्थाधिगम भाष्य, १०.७ १०४. शैल (पर्वत) के समान कम्पन (हलन-चलन क्रिया) से रहित
होकर शैलेशी अवस्था को प्राप्त हुए केवली भगवान् के व्युपरतक्रियानिवृत्ति नाम का सर्वोत्कृष्ट शुक्लध्यान होता है । वे योगों का पूर्णरूप से निरोध कर अयोग केवली नामक १४वें गुणस्थान में प्रविष्ट होकर शैलेशी अवस्था को प्राप्त
होते हुए इस ध्यान के ध्याता होते हैं। १०५. अट्टविहकममवियला सीदीभूदा णिरंजणा णिच्चा। अट्ठगुणा किदकिच्चा लोयग्गणिवासिणो सिद्धा॥
- गो० जी०, ६८
वैदिक एवं श्रमण परम्परा में ध्यान
डॉ० रज्जन कुमार
ध्यान एक दिव्य साधना है। भारतीय संस्कृति के मनीषी चाहे झाँककर देखता है और उन दोषों के परिमार्जन की विधि पर विचार वे वैदिक परम्परा के हों अथवा श्रमण परम्परा के, सबने ध्यान-साधना करता है, तब वह प्रगति पथ पर आगे बढ़ता है । अपने भीतर के दोष के क्षेत्र में पर्याप्त उहापोह की है। दोनों ही परम्परा में ध्यान को एक को देखना एवं चिन्तन-मनन करना एवं उनसे मुक्त होने का प्रयत्न करना अनुष्ठान (कर्मकाण्ड) न मानकर आन्तरिक साधना माना गया है, ही ध्यान है । यही आध्यात्मिक साधना है, क्योंकि इस साधना का प्रमुख जिसकी सहायता से मनुष्य के व्याकुल हृदय, अस्थिर चित्त या उद्विग्न लक्ष्य है और अपने अन्तर को प्रकाशित करना और इस प्रकाश के मन को शान्त करने का प्रयत्न किया जाता है । यह माना गया है कि आलोक से अपने अन्तर में छिपी हुई वासनाओं को निर्मूल कर सप्त पड़े मोक्ष-मुक्ति, कैवल्य, विशुद्धि जैसे सर्वोच्च आध्यात्मिक मूल्य को हुए, सिद्धत्व के बीज को विकसित करना । इस बीज को विकसित करने ध्यानाभ्यास के द्वारा प्राप्त किया जा सकता है। आज के वैज्ञानिक युग की साधना ध्यान है। में तकनीकी विकास के द्वारा प्राप्त गतिशीलता ने मानव की चित्तवृत्ति मानव जीवन आकांक्षाओं और इच्छाओं से उत्पन्न समस्याओं को जो अस्थिरता दी है और जिसके कारण वह तनावग्रस्त होता जा रहा का महासागर है । इन समस्या-सागरों के कारण ही व्यक्ति अपने मूल है उस वृत्ति को स्थिरता और सन्तुलन देने का काम भी ध्यान कर सकता उद्देश्य से भटक जाता है और वृत्तियों के विभिन्न रूपों से प्रभावित होता
रहता है, समस्याओं का निदान नहीं कर पाने के कारण विक्षिप्त होकर
नाना प्रकार के दुःखों से पीड़ित होता रहता है । ध्यान के अभ्यास से ध्यान का स्वरूप
व्यक्ति समस्याओं के मूल कारण को खोजने का प्रयत्न करता है। इससे मानव का परम पुरुषार्थ सच्चे सुख और शान्ति को प्राप्त चित्त धीरे-धीरे शान्त व निर्मल होता है, बुद्धि और विवेक जागृत होते करना है । परम शान्ति से द्वन्द्व मिटते हैं । राग-द्वेष, कामनादि द्वन्द्व हैं, जिससे वह किसी भी बात को गहराई एवं स्पष्टता से पकड़ने लगता मनुष्य की विभिन्न वृत्तियों के परिचायक माने गये हैं। मनुष्य की है। अत: ध्यानी के समक्ष जब भी कोई समस्या उपस्थित होती है तो चित्तवृत्तियाँ इन्हीं के कारण समत्व भाव में नहीं रह पाती हैं और वह उसका चित्त तुरन्त समस्या के वास्वतिक कारण तक पहुँच जाता है और अनुकूल-प्रतिकूल परिस्थितियों से विचलित होता रहता है । जब व्यक्ति वास्तविक मूल कारण के प्राप्त हो जाने पर समस्या का निवारण सुगम आत्म-दर्शन या स्वदर्शन की साधना करता है, अपने भीतर के दोषों को हो जाता है। यह अवस्था कम से कम विक्षेपों के कारण ही सम्भव है।
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वैदिक एवं श्रमण परम्परा में ध्यान
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यही कारण है कि महर्षि पतञ्जली' ने साधकों को वृत्तियों अथवा हो जाता है और यही ध्यान है । बौद्ध-परम्परा में ध्यान के स्वरूप को विकल्पों से मुक्त होने का निर्देश दिया है, क्योंकि विकल्परहित अवस्था स्पष्ट करते हए कहा गया है कि किसी विषय पर चित्त को स्थिर कर ही ध्यान साधना का लक्ष्य है।
चिन्तन करना ही ध्यान है। . आत्मा को पूर्वकृत कर्मों से उत्पन्न संस्कारों से मुक्त करने के भारतीय संस्कृति में ध्यान ऐसी साधना है जो व्यक्ति के अन्तर लिए चित्त को विशुद्ध किया जाता है । पूर्वकृत कर्मों या संस्कारों के का शोधन करती है । इसके अभ्यास से व्यक्ति वृत्तियों, विकल्पों से मुक्त कारण व्यक्ति प्रमादी बन जाता है, निरन्तर इसी दिशा में चिन्तन करता होकर एक-चित्तता की स्थिति को प्राप्त कर सकता है। व्यक्ति अपने रहता है कि कैसे उसे भौतिक सुख-साधन के सारे उपक्रम प्राप्त हो क्षुद्र स्वार्थों और राग-द्वेष की प्रवृत्ति को कम करके समाज में एक जाएँ । एक साधन की उपलब्धि होने पर दूसरे के लिए प्रयत्न प्रारम्भ सुव्यवस्था की नींव डाल सकता है । उसकी यह प्रवृत्ति उसे तो सुख कर देता है। किन्तु इस तरह उसके प्रयत्न अनन्तकाल तक चलते रहें और शान्ति का वातावरण उपलब्ध कराती ही है साथ ही साथ समाज तब भी उसकी आकाक्षांओं या इच्छाओं की पूर्ति सम्भव नहीं है। एक के सभी प्राणियों को भी इस दिशा में विकास करने का अवसर प्रदान इच्छा या विकल्प उपस्थित हुआ उसका अभी समाधान भी नहीं हुआ कि करती है । ध्यान से व्यक्ति विनम्र हो जाता है, उसमें स्वार्थ, अभिमान दूसरा विकल्प उठ खड़ा हुआ। कभी-कभी परस्पर विरोधी विकल्पों या एवं दीनता का धीरे-धीरे अभाव होता जाता है और मैत्री, स्वाभिमान, इच्छाओं से व्यक्ति के मन में संघर्ष का ऐसा वातावरण उपस्थित हो सहृदयता झलकने लगती है । ध्यान की नियमित साधना चिन्तन और जाता है कि मनुष्य स्वयं से भागने लगता है, यह एक अत्यन्त दु:खद व्यवहार की दूरी सदा के लिए समाप्त कर देती है । आज आचरण एवं स्थिति है । ध्यान की साधना से व्यक्ति अप्रमत्त चेता हो जाता है। आस्था के बीच जो खाईं बन गई है उसका सही निदान ध्यान है। सांसारिक उपलब्धियों की नश्वरता को जानकर उनके प्रति उसका लगाव ध्यान एवं वैदिक परम्परा कम होने लगता है। व्यक्ति की विवेक शक्ति जग जाती है। वह नियंत्रित वैदिक वाङ्मय में वेद और उपनिषद् अति प्राचीन हैं। इनमें एवं संयमित जीवन जीने में विश्वास करने लग जाता है। उसका मन योग, ध्यान, साधना विषयक विचार स्थान-स्थान पर मिलते हैं। विकल्पों के द्वन्द्व में भटकना बन्द कर देता है । उसकी यह अवस्था वैदिक-परम्परा में ध्यान-विषयक साधना का उल्लेख योग के अन्तर्गत ध्यान की साधना के लिए उपयुक्त भूमिका प्रस्तुत कर देती है, क्योंकि माना जाता है, क्योंकि योग प्रणाली ही सर्वाधिक प्रचलित प्रणाली थी। वह अपने मन को एक विचार बिन्दु पर स्थिर कर सकता है । जब किसी योग-साधना मंत्रयोग, लययोग, हठयोग, राजयोग, कर्मयोग, भक्तियोग, व्यक्ति का मन किसी एक वस्तु पर केन्द्रित हो जाता है तो वह ध्यान ज्ञानयोग आदि अपने विविध रूपों में प्रचलित रही हैं । वैदिक-वाङ्मय कहलाता है । आचार्य उमास्वाति तत्त्वार्थसूत्र में ध्यान की अवधारणा को में वेदों को बहुत ही महत्त्वपूर्ण स्थान मिला है । यजुर्वेद में योग के स्पष्ट करते हुए कहते हैं कि मन के चिन्तन का एक ही वस्तु पर सम्बन्ध में कहा गया है कि मोक्ष की इच्छा रखने वाले हम (योगी) लोग अवस्थान करना ध्यान है।
__शुद्ध मन (शुद्धान्त:करण) से योगफल के द्वारा प्रकाशमय आनन्दस्वरूप मानव मन बहुत चंचल है। वह कभी भी एक स्थान पर नहीं अनन्त ऐश्वर्य में स्थित होते हैं। यहाँ योग साधना योगी की आध्यात्मिक टिक पाता है। मानव-मन की यह चंचलता ही मनुष्य के दु:खों का वृत्ति का परिणाम है। योगीजन योगाभ्यास के द्वारा मुक्ति या मोक्ष-पथ कारण बनती है । व्यक्ति सदैव यही विचार करता रहता है कि सारी पर अग्रसर होते हैं और परमसुख को प्राप्त करते हैं । यह योग अथवा दुनियाँ उसी के चारों तरफ आकर्षित हो, सभी मनोनुकूल आचरण कर। ध्यान साधना का आध्यात्मिक स्वरूप माना जा सकता है। बाद में सभी परिस्थितियाँ उसके मन के अनुसार घटित हों । लेकिन यह सम्भव औपनिषदिक साहित्य में ध्यान पर विस्तृत चिन्तन हुआ और योग का नहीं हो जाता है। परिणामस्वरूप व्यक्ति इस दिशा में और अधिक प्रयत्न आत्मपरक अथवा अध्यात्मपरक विवेचन भी किया गया । इसे आत्मकरना प्रारम्भ कर देता है। उसके उस प्रयत्न के परिणाम उसकी तृष्णा ज्योति, ब्रह्म-स्वरूप, आत्म-दर्शन को प्राप्त करने वाला कारक माना को निरन्तर बढ़ाते रहते हैं, जो उसके दु:ख का कारण बनते हैं। ध्यान गया। विष्णुपुराण में कहा गया है कि आत्म-ज्योति के दर्शन के लिए की साधना से व्यक्ति अपनी इस भूल को समझता है । वह यह विचार साधना की आवश्यकता होती है । जब साधना समाधि की ओर अग्रसर करता है कि जब मैं स्वयं ऐसा चाहता हूँ, मेरा स्वयं का मन ऐसा होती है तब ध्यान अनिवार्य हो जाता है। समाधि की प्राप्ति में ध्यान चाहता है, तो दूसरा ऐसा क्यों नहीं चाहेगा। जैसे ही उसके मन में यह प्रमुख है। ध्यान की अनुभूति से ही आत्म-स्वरूप प्रगट होता है और भाव जागता है, वह तृष्णारूपी विकल्पों के मिथ्यात्व से अवगत हो ध्यान साधना इन्द्रियों की बाह्य प्रवृत्तियों से नहीं होती वरन् अन्तर्मुखी जाता है। अब उसके मन में एक ही बात कौंधती है, वह है स्वयं को वृत्ति से होती है ।६ अन्तर्मुखी वृत्ति व्यक्ति को रागादि प्रवृत्तियों से मुक्त सुधारने की । जब वह इस अवस्था में आ जाता है तो उसके मन में करती है, फलत: साधक भावरहित होकर अपने साधना पथ पर आगे चलने वाली बहुमुखी चिन्तन की धारा एक ओर प्रवाहित होने लगती बढ़ता जाता है और अन्त में ब्रह्मस्वरूप हो जाता है । कठोपनिषद् में है। इस कारण व्यक्ति अनेक चित्तता से दूर हटकर एक चित्त में स्थित कहा गया है कि योग-विद्या का पालन करके ही नचिकेता रागादि से
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जैन विद्या के आयाम खण्ड-७
अलिप्त होकर तथा मृत्यु के भय से रहित होकर ब्रह्म को प्राप्त हुआ। बहिरंग के अन्तर्गत यम, नियम, आसन, प्राणायाम एवं ईश्वर-प्राणिधान
उपनिषद्-युग में आत्म-सत्ता की ध्वनि अधिक गुंजरित रही। को स्थान दिया गया है । इन बहिरंग और अन्तरंग साधनों को अपनाकर आत्मा ज्ञेय है, कर्म-बन्धनों के तोड़ने का कार्य ज्ञान करता है, जन्म- साधक क्लेशों का सर्वथा नाश करके समस्त प्रकार की चित्तवृत्तियों से मृत्यु चक्र, संकल्प-विकल्पों को क्षीण करना मनुष्य का ध्येय बन जाता मुक्त हो सकता है । इसके लिए साधक को वैराग्यवृत्ति एवं अभ्यास का है। लेकिन सम्पूर्ण कालिक ज्ञान की प्राप्ति ध्यान करने से होती है। आश्रय लेना पड़ता है ।११ क्योंकि वैराग्य के कारण साधक के मन में ध्यान से प्राप्त फलश्रुति शारीरिक स्वस्थता का प्रथम सोपान है । क्योंकि संयमवृत्ति-उत्पन्न होती है । फलस्वरूप उसका मन संसार में भ्रमण नहीं स्वस्थ तन में ही स्वस्थ मन रहता है। ध्यान से शरीर निरोग रहता है। करता है तथा अभ्यास से आध्यात्मिक प्रवृत्ति विकसित होती है और वह हल्का, विकार, वासनाओं से अनासक्त, सौरभयुक्त, प्रकाशवान् हो साधक अन्तरंग में प्रवेश करता है । कहा भी गया है मन को अनेक बार जाता है । मन की मलीनता दूर होने लगती है। व्यक्ति मधुर वाणी का स्थिर करना अभ्यास है और सांसारिक माया-मोह के विषयों में प्रवृत्त न प्रयोग करने लगता है और मधुरता की अनुभूति भी करता है। ध्यान होना वैराग्य है ।१२ की साधना से मनुष्य की स्मृति का विकास होता है । यह व्यक्ति में योग-साधना में ध्याता जब रमण करता है, तब मन की शुभवृत्तियों को जगाती है जिससे साधक आसक्ति, कामना, क्रोध जैसी समस्त प्रक्रिया उपशमित होने लगती है। अभ्यास और वैराग्य से मन दुष्प्रवृत्तियों से अपने को बचाकर रखता है । गीता में कहा गया है - शान्त और उपशान्त हो जाता है। विषयों से विरक्ति होने लगती है और विषयों का चिन्तन करने वाले पुरुष की उन विषयों में आसक्ति हो जाती निर्विषयों में प्रवृत्ति हो जाती है । वस्तुत: ध्यान का यही परम ध्येय है। है और आसक्ति से कामना उत्पन्न होती है और कामना से क्रोध उत्पन्न महर्षि कपिल ध्यान के स्वरूप को स्पष्ट करते हुए कहते हैं कि जब होता है, क्रोध से सम्मोह उत्पन्न होता है, सम्मोह से स्मृति भ्रमित हो व्यक्ति का मन निर्विषयों में प्रवृत्त हो जाय, तो वही ध्यान है ।१३ मन को जाती है और स्मृति-भ्रम से बुद्धि का नाश हो जाता है। बुद्धिहीन व्यक्ति निर्विषयों में प्रवृत कराने में ध्यान का बहुत अधिक योगदान माना गया सभी तरह के अनर्थों की जड़ माना गया है । अत: बुद्धि एवं संयम की है। क्योंकि साधक के मन में अनन्त काल से पड़ी हुई स्थूल वृत्तियों रक्षा के लिए व्यक्ति को ध्यान की साधना अवश्य करनी चाहिए। को जब तक सूक्ष्म नहीं किया जायेगा तब तक निर्बीज समाधि की प्राप्ति
वैदिकपरम्परा में योग-विषयक अवधारणा का विकास और सम्भव नहीं है। ध्यान की साधना से स्थूल वृत्तियों को सूक्ष्म बनाया विस्तार दार्शनिक युग में अधिक हुआ। इस युग में योग अथवा ध्यान जाता है, तब उनका नाश किया जाता है। १४ अब वे वृत्तियाँ नष्ट हो जाती मात्र अध्यात्म विद्या न रहकर एक व्यावहारिक सिद्धान्त के रूप में जाना हैं तब निर्बीज समाधि जो कि साधना का परम ध्येय है प्राप्त कर लिया जाने लगा । योग सम्बन्धी अवधारणा को बहुप्रचारित करने का प्रमुख जाता है । श्रेय महर्षि पतञ्जलि को जाता है। इन्होंने इसे सिद्धान्त के साथ-साथ ध्यान एवं जैन-परम्परा मानव जीवन के व्यावहारिक उपयोग की एक विधा बना दिया। उन्होंने जैन धर्मदर्शन की साधना का केन्द्रबिन्दु है- आत्मा । चित्त और वृत्ति के अन्तर को स्पष्ट किया और चित्तवृत्ति-निरोध को ध्येय आत्मतत्त्व की अनुभूति आत्मज्ञान व आत्मलीनता, यही इस साधना का सिद्ध किया । चित्त में असंख्य वृत्तियों का उदय होता रहता है । जब मूलभूत लक्ष्य रहा है । इस लक्ष्य की ओर गतिमान होने के लिये तक व्यक्ति इन वृत्तियों का निरोध या शमन नहीं करता है तब तक वह आवश्यक है कि व्यक्ति शरीर व मन से अपना तादात्मय न्यून करते हुए अपने स्व-स्वरूप में स्थित नहीं हो पाता है। जैसे ही इन वृत्तियों का अन्तत: आत्मा में ही प्रतिष्ठत हो जाए। इसके लि निरोध होता है वह अपने स्व-स्वरूप में स्थित हो जाता है। उन्होंने परमावश्यक है क्योंकि यही ध्यान मनुष्य को कर्मावरण से मुक्त करता योगशास्त्र में क्रियायोग (अष्टाङ्ग योग) का मार्ग स्पष्ट किया। क्रियायोग है और कर्मावरण से मुक्त हुए बिना आत्मा में प्रतिष्ठत हो पाना सम्भव के अन्तर्गत तप, स्वाध्याय और ईश्वर-प्राणिधान का समावेश किया। नहीं है । भगवान् महावीर परम तपस्वी थे। अपनी कठोर ध्यान साधना स्वधर्म पालन हेतु शारीरिक-मानसिक कष्टों को सहर्ष स्वीकार करना, के बल पर ही उन्होंने ग्रन्थियों का भेदन किया, वीतरागता की अवस्था कर्तव्य-अकर्तव्य बोध कराने वाले साहित्य का पठन-पाठन एवं स्वयं को प्राप्त कर कैवल्य ज्ञान से मुक्त हुए । जैन साधना पद्धति में ध्यान को ईश्वर के अधीन समर्पित कर देना योग के क्रियापक्ष का व्यावहारिक को बहुत अधिक महत्त्व दिया गया है। द्रव्य संग्रह में इसकी उपयोगिता मार्गनिर्देश है।
पर प्रकाश डालते हुए कहा गया है कि नियमपूर्वक ध्यान से मुनि निश्चय पातञ्जल-योग-दर्शन में अष्टाङ्ग योग का वही स्थान है जो व व्यवहार दोनों प्रकार के मोक्ष मार्ग को पाता है। इसलिए एकाग्रचित्त शरीर में आत्मा का। इसके बिना पातञ्जल-योग-दर्शन की परिकल्पना से ध्यान करना चाहिए। ध्यान के द्वारा आत्मा की अनुभूति हो सकती भी नहीं की जा सकती है। पतञ्जलि का सम्पूर्ण दर्शन इसी अष्टाङ्ग योग है ।१५ अत: ध्यान आत्मानुभूति में सहायक हो सकता है बशर्ते इसकी में निहित है। उसके बहिरंग और अन्तरंग ये दो भेद किए गए हैं। निरन्तर एवं नियमपूर्वक साधना की जाए। अन्तरंग योग में धारणा, ध्यान और समाधि का समावेश है। जबकि आत्मानुभूति के लिए चारित्रशुद्धि आवश्यक है और चारित्रशुद्धि
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वैदिक एवं श्रमण परम्परा में ध्यान
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के लिए संयम अनिवार्य है। इन दोनों की प्राप्ति ध्यानाभ्यास के द्वारा माना जाता है। इसकी साधना से मनुष्य आत्मानुभूति के रहस्य को प्राप्त सम्भव है। राग-द्वेष विषयासक्ति मनुष्य को अपने पथ से स्खलित कर सकता है। यह मनुष्य के मन में उत्पन्न होने वाली कषायिक वृत्ति कराते हैं । लेकिन ध्यान-साधना में रत साधक इष्ट-अनिष्ट विषयों के को नष्ट करती है और व्यक्ति को राग-द्वेष रूपी मिथ्यात्व के बन्धन से राग-द्वेष और मोह से रहित हो जाता है, इसलिए उसके जहाँ नवीन मुक्त कराती है । यही ध्यान का उत्स माना गया है । भगवती आराधना कमों के आगमन का निरोध होता है वहाँ उस ध्यान से उद्दीप्त तप के की विजयोदया टीका में ध्यान के स्वरूप पर प्रकाश डालते हुए कहा प्रभाव से पूर्व संचित कर्मों का भी क्षय होता है । तात्पर्य यह है कि संवर गया है - "राग-द्वेष तथा मिथ्यात्व से रहित होकर पदार्थ की यथार्थता
और निर्जरारूपी कर्मक्षय की प्रक्रिया ध्यान-साधना के कारण प्रवाहमान को ग्रहण करने वाला जो विषयान्तर के संचार से रहित ज्ञान होता है रहती है । इस प्रकार साधक मोक्षरूपी मार्ग पर निरन्तर बढ़ता जाता है वही ध्यान की साधना का विधान किया गया है।
और अन्त में इसे प्राप्त भी कर लेता है। ध्यान की साधना से साधक प्रशस्त और अप्रशस्त दोनों ध्यानों के दो-दो उपविभाग किए ऐसा क्यों कर लेता है इस सम्बन्ध मे आचार्य उमास्वाति का कहना है गए हैं । प्रशस्त के दो उपभेद-धर्मध्यान और शुक्लध्यान तथा अप्रशस्त कि मन को अन्य विषयों से हटाकर किसी एक ही वस्तु में नियन्त्रित के दो उपभेद-आर्त और रौद्रध्यान के रूप में स्वीकृत हैं। आर्तध्यान करना ध्यान है ।१६ मन की चंचलता ही व्यक्ति को अपने उद्देश्य से दु:ख के निमित्त से होता है जबकि रौद्रध्यान कुटिल भावों के चिन्तन से भटकाती रहती है । जब उसकी चंचलता को समाप्त कर उसे उसके प्रारम्भ होता है। ये दोनों ही भाव राग-द्वेष को बढ़ाने वाले माने गये हैं। उद्देश्य की तरफ मोड़ने का प्रयास किया जाता है तो यह विकल्पों से अत: इन्हें ध्यान की श्रेणी में न रखकर कुध्यान के अन्तगर्त स्थान दिया रहित होकर अपने लक्ष्य को प्राप्त कर लेना चाहता है । जहाँ तक, जैन गया है, क्योंकि ध्यान की साधना राग-द्वेष से मुक्ति पाने के लिए की साधना के लक्ष्य की बात है तो वह आत्मानुभूति ही है। जाती है। अत: मोक्षाभिलाषी साधक को इन दोनों ध्यानों से विरत रहना
प्राय: चिन्तन करने की विधि को ध्यान करना समझ लिया चाहिए । प्रशस्त की साधना करने वाला साधक सांसारिक विषय जाता है, परन्तु ध्याने और चिन्तन में अन्तर है। यही कारण है कि वासनाओं से अपने आपको मुक्त रखता है, क्योंकि इस ध्यान की साधना जैनाचार्यों ने ध्यान का अर्थ चिन्तन नहीं, बल्कि चिन्तन का एकाग्रीकरण के लिए जो आलम्बन ग्रहण किया जाता है, उसका स्वरूप ही ऐसा करना माना है । आवश्यकनियुक्ति में चित्त को किसी एक लक्ष्य पर होता है कि वे व्यक्ति के मन में उत्पन्न होने वाली दूषित वृत्तियों को नष्ट स्थिर करना या उसका निरोध करना ही ध्यान माना गया है । वस्तुतः करने की क्षमता रखते हैं। उदाहरणस्वरूप-धर्मध्यान श्रुत, चारित्र एवं चिन्तन की प्रक्रिया में मन किसी एक स्थान पर स्थिर नहीं रहता है, धर्म से युक्त ध्यान है। जबकि शुक्लध्यान निष्क्रिय, इन्द्रियातीत और जबकि ध्यान की प्रक्रिया में मन की बहुमुखी चिन्तनधारा को एक ही ध्यान की धारणा से रहित अवस्था है। वस्तुत: ध्यान की साधना का दिशा में प्रवाहित होने दिया जाता है। इस कारण साधक अनेकचित्तता प्रयोजन ही यही है कि साधक समस्त प्रकार की वृत्तियों से मुक्त होकर से मुक्त होकर एक चित्त में स्थिर होता है । तत्त्वानुशासन में भी कहा दर्शन, ज्ञान, चारित्र रूपी मार्ग का आश्रय ले, जो उसे मोक्ष या निर्वाण गया है कि चित्त को विषय विशेष पर केन्द्रित कर लेना ही ध्यान है।८ प्राप्त करा सके । यह अवस्था आगमोक्त विधि से वचन, काय और चित्त एक चित्त में स्थिर रहने वाला व्यक्ति कर्मों का अल्प संग्रह करता है, निरोध के द्वारा ही प्राप्त की जा सकती है, क्योंकि यही ध्यान है।५ । इस बाद में जब वह सुस्थिर चित्त वाला बन जाता है तो कर्मों का क्षय करने अवस्था की प्राप्ति धर्म एवं शुक्ल ध्यान की साधना के द्वारा सम्भव है। लगता है । कर्मों का क्षय करने से वह मलिन वृत्तियों को क्रमशः नाश करते जाता है और अन्ततः आत्मानुभूति की अवस्था में पहुँच जाता है। ध्यान एवं बौद्ध परम्परा योगसारप्राभृत में आचार्य अमितगति ध्यान के लक्षण पर प्रकाश बौद्ध परम्परा में ध्यान का एक व्यवस्थित स्वरूप मिलता है। डालते हुए लिखते हैं- आत्मस्वरूप का प्ररूपक रलत्रय ध्यान किसी इसकी सहायता से व्यक्ति अपने चित्त को शुद्ध करता है तथा कुशल एक ही वस्तु में चित्त को स्थिर करने वाले साधु को होता है, जो उसके धर्म को बढ़ाता है। विद्वानों की ऐसी मान्यता है कि बौद्ध ध्यान-साधना, कर्मों को क्षय करता है ।१९
वैदिक एवं जैन-परम्परा की तरह कठोर नहीं है, परन्तु वह यह स्वीकार जैन परम्परा में ध्यान की प्रकृति के अनुसार इसके दो भेद करती है कि महात्मा बुद्ध एक महान् साधक थे । उनका जीवन किए गए हैं२० - (क) प्रशस्तत ध्यान जो शुभ परिणामों के लिए तथा कठिनतम साधनाओं के अभ्यास का ज्वलन्त उदाहरण है जिसका साक्षी वस्तु के यथार्थ स्वरूप-चिन्तन से उत्पन्न होता है वह प्रशस्त ध्यान बौद्ध साहित्य में वर्णित बुद्ध की तपश्चर्या का विवरण है। यद्यपि भगवान् कहलाता है। यह ध्यान पुण्यरूप आशय के वश से तथा शुभलेश्या बुद्ध स्वयं महान् साधक थे, परन्तु वे कठोर और उग्र साधना अर्थात् देह के आलम्बन से उत्पन्न होता है । अशुभ परिणामों की पूर्ति हेतु, मोह- दण्डन की प्रक्रिया को निर्वाण-प्राप्ति में उपयोगी नहीं मानते थे। इसके मिथ्यात्व, कषाय और तत्त्वों के अयथार्थ रूप विभ्रम से उत्पन्न ध्यान पीछे उनकी यह धारणा थी कि मनुष्य अज्ञान मूलक देह-दण्डन की अप्रशस्त की कोटी में आता है। प्रशस्त ध्यान मोक्ष प्राप्ति में सहायक अपेक्षा ज्ञान-मुक्त ध्यान-साधना के अभ्यास से ही निर्वाण प्राप्त कर
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जैन विद्या के आयाम खण्ड-७
सकता है जो अपेक्षाकृत कम कठोर और उग्र होती है । बौद्ध ध्यान विनाश होता रहता है। उत्पादन और विनाश की यह प्रक्रिया मनुष्य के साधना के सम्बन्ध में डॉ. राधाकृष्णन का यह कथन द्रष्टव्य है-"यद्यपि दुःख का मूल कारण है। यही क्लेश को उत्पन्न करते हैं और ये क्लेश बुद्ध ने कठोर तपश्चर्या की आलोचना की, फिर भी यह आश्चर्यजनक है दूषित सन्तति परम्परा के जनक माने गए हैं । इस दूषित सन्तति परम्परा कि बौद्ध श्रमणों का अनुशासन किसी भी ब्राह्मण ग्रन्थ में वर्णित के अवगुणों को जानना एवं उनसे बचने के उपायों का चिन्तन करना अनुशासन (तपश्चर्या) से कम कठोर नहीं है । यद्यपि बुद्ध सैद्धान्तिक दृष्टि ही प्रज्ञा है, यही विपश्यना है। इसे जान लेने पर साधक यह समझ से तपश्चर्या के अभाव में भी निर्वाण की उपलब्धि सम्भव मानते हैं, लेता है कि यह सास्रव धर्म दुःख है । वह क्लेशरूप सन्तति परम्परा तथापि व्यवहार में तप उनके अनुसार आवश्यक प्रतीत होता है२६ ।" के दोषों से मुक्त होने के लिए प्रयत्नशील हो जाता है। इस अवस्था डॉ० राधाकृष्णन का यह कथन बौद्ध साधना पद्धति में ध्यान के महत्त्व में वह निरन्तर सम्यक् ज्ञान का अभ्यास करता है और अन्तत: अर्हत् का परिचायक है।
पद को प्राप्त कर लेता है । अर्हत् पद ही बौद्ध परम्परा में परम ध्येय जहाँ तक बौद्ध साधना के दिग्दर्शन का प्रश्न है तो यह शील, है और वस्तुत: ध्यान साधना का यही पूर्ण आध्यात्मिक लक्ष्य माना जा समाधि और प्रज्ञा इन त्रिविध साधना पद्धतियों के रूप में जाना जाता है। सकता है । इन्हीं त्रिविध साधना मार्ग में सम्पूर्ण बौद्ध साधना को समाहित माना गया बौद्ध परम्परा में समाधि, विमुक्ति, शमथ, भावना, विशुद्धि, है। शील, ध्यानाभ्यास का आधार है क्योंकि शील में प्रतिष्ठित होने पर विपश्यना, अधिचित्त, योग, कम्मट्ठाण, प्रधान, निमित्त, आरम्भ लक्खण ही समाधि की भावना सम्भव है २७। इसकी महत्ता को प्रतिपादित करते जैसे शब्द ध्यान के लिए प्रयुक्त किये गए हैं ।३१ यहाँ हम पाते हैं कि हुए कहा गया है कि शील में प्रतिष्ठा के बिना कुलपुत्रों का बौद्ध शासन समाधि और ध्यान दोनों ही पर्यायवाची शब्द हैं, यह सत्य भी लगता में प्रवेश नहीं हो सकता है। बौद्ध शासन में प्रविष्ट होने के लिए शील है। लेकिन बौद्ध परम्परा में दोनों में घनिष्ठ सम्बन्ध होते हुए भी इनमें का आचरण परमावश्यक है, क्योंकि उसके बिना समाधि की प्राप्ति सूक्ष्म अन्तर पाया जाता है । विद्वानों की मान्यता है कि ध्यान का परिक्षेत्र सम्भव नहीं है और समाधि कुशलचित्त की एकाग्रता है। काम एवं समाधि की अपेक्षा कुछ अधिक विस्तृत है । कारण समाधि जहाँ मात्र अकुशल धर्मों का परित्याग किए बिना ध्यान समाधि को सिद्ध नहीं कुशल कर्मों से सम्बद्ध है, वहीं ध्यानं कुशल एवं अकुशल दोनों प्रकार किया जा सकता है । काम के परित्याग से काम-विवेक एवं अकुशल के भावों को ग्रहण करता है ।३२ क्षेत्र विस्तार के इस अन्तर के बाद भी कर्म के परित्याग से चित्त-विवेक की उत्पत्ति होती है । इस कारण से इन्हें पृथक् नहीं किया जा सकता है, क्योंकि अर्हत् पद की प्राप्ति के हम अपनी तृष्णा एवं क्लेश को समझ पाते हैं । हम यह जान लेते हैं लिए कुशल और अकुशल कर्मों के विभेद को जानकर कर्म परम्परा से कि समस्त अनर्थों की जड़ यही तृष्णा एवं क्लेश है । हम जितना मुक्त हुआ जाता है। इन दोनों प्रकार के कर्मों के स्वरूप को समझने अधिक अपनी तृष्णा और क्लेशों के पीछे भागेंगे वह उतनी ही अधिक के लिए तथा इनसे मुक्त होने के लिए ध्यान एवं समाधि दोनों का तीव्रता से अपने संहारक रूप में हमारे समक्ष उपस्थित होती रहेगी । यह अभ्यास आवश्यक माना गया है। दूसरी बात है कि हम तृष्णा के सहारक रूप को नहीं समझ पाते हैं, बौद्ध-परम्परा में ध्यान के मूलत: दो भेद हैं३३ - (क) आरम्भ फलतः हम निरन्तर उनकी पूर्ति के लिए प्रयत्नशील रहते हैं और उपनिज्झाण और (ख) लक्खण उपनिज्झाण । आलम्बन पर चिन्तन सांसारिक दु:ख सागर में डूबते-उतराते रहते हैं।।
करने वाला ध्यान है, जबकि लक्खण उपनिज्झाण में लक्षणों पर चिन्तन साधक तृष्णा और क्लेश से मुक्त होने पर समाधि की स्थिति किया जाता है । आरम्भ उपनिज्झाण आठ प्रकार का है- चार रूपावचर को प्राप्त कर सकता है। इसके लिए काम-विवेक एवं चित्त-विवेक और चार अरूपावचर । ये सभी लौकिक ध्यान के अन्तर्गत समाविष्ट आवश्यक है । काम-विवेक की सहायता से तृष्णा को तथा चित्त-विवेक होते हैं, जिसके मार्ग को शमथयान कहते हैं । लक्खण उपनिज्झाण से अकुशल कर्म के त्याग की प्रवृत्ति का विकास होता है । यह अकुशल लोकोत्तर ध्यान है और उसका मार्ग विपश्यनायान के रूप में जाना जाता पतित्याग क्लेश को नष्ट करता है । जब व्यक्ति की तृष्णा एवं क्लेश है । प्रथम आठ ध्यानों से अभ्यास करके साधक कर्म-संस्कारों को नष्ट हो जाते हैं तो व्यक्ति अपने चपल-भाव एवं अविद्या का विनाश निर्जरित करता है, राग-द्वेष को क्षीण करता है फिर भी अति गहरे कर्मकरता है। व्यक्ति के चपल-भाव एवं अविद्या का मूल कारण उसकी संस्कार के बीज नष्ट नहीं हो पाते हैं । ये कभी भी उभर सकते हैं और राग-द्वेषात्मक प्रवृत्ति को माना गया है। अकुशल परित्याग की सहायता साधक को उसके मार्ग से गिरा सकते हैं । अत: इनका समूल नाश होना से व्यक्ति राग-द्वेष को अल्पतम कर लेता है और मोह की अवस्था से आवश्यक है और उसके लिए लोकोत्तर ध्यान का अभ्यास आवश्यक विरत होकर जीवन जीना प्रारम्भ करता है । मोहविरत व्यक्ति अपने है। क्योंकि इनका समूल रूप से विनाश इसी की साधना से सम्भव है। चपल-भाव को संयमपूर्वक कम करता जाता है, एकाग्रचित्त से कुशल जब साधक के सम्पूर्ण कर्म-संस्कार नष्ट हो जाते हैं, राग-द्वेष की सम्पूर्ण कर्मों का आश्रय लेकर समाधि भाव को प्राप्त करता है । पञ्चस्कन्धों वृत्ति समाप्त हो जाती है तब वह निर्वाण को प्राप्त कर लेता है। बौद्ध (रूप, वेदना, संज्ञा, संस्कार एवं विज्ञान) का क्षण-क्षण उत्पादन एवं मान्यता में निर्वाण की अवस्था को दु:खों के अत्यन्त निरोध की अवस्था
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वैदिक एवं श्रमण परम्परा में ध्यान
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माना गया है । इस निर्वाण के लिए प्रज्ञा में प्रतिष्ठित होना आवश्यक ब्रह्मप्राप्तो विरजोऽभूद्विमय्यं रन्योऽप्येवं यो विदधात्ममेव ।। है और प्रज्ञा में प्रतिष्ठित होने के लिए समाधि, सम्यक् समाधि का कठोपनिषद्, सच्चिदानंद सरस्वती, अध्यात्म प्रकाशन कार्यालय, परिपुष्ट होना अनिवार्य है। इनकी परिपुष्टि हेतु शील सम्पन्न होना नरसीपुर (मैसूर), २/३/१८ आवश्यक है।
८. हृदा मनीषा मनसाऽभिक्लप्तो ......... । श्वेताश्वतर उपनिषद, इस प्रकार हम देखते हैं कि बौद्ध परम्परा में ध्यान साधना उद्भा अष्टादश उपनिषद्, १/१३ क्रम-बद्ध, व्यवस्थित एवं संयोजित है । साधक निरन्तर स्थूल से सूक्ष्म ९. गीता, श्री विद्यानंद ग्रंथमाला, काशी, २/६२-६३ की ओर गति करता है और अन्त में लोकोत्तर ध्यान में पहुँच जाता है, १०. तदा द्रष्टुः स्वरूपेऽवस्थानम् । पातञ्जल योगदर्शन - गोयनका, निर्वाण का साक्षात्कार कर लेता है । तथागत द्वारा प्रवर्तित यह कथन ध्यान की पराकाष्ठा को चित्रित करता है जो अनुकरणीय एवं द्रष्टव्य ११. अभ्यास-वैराग्याभ्यां तन्निरोध: । वही, १/१२
१२. अभ्यासेन तु कौन्तेय वैराग्येण च गृह्यते । गीता, ६/३५ अत: यह कहा जा सकता है कि वैदिक, जैन और बौद्ध इन १३. ध्याने निर्विषयं मनः । सांख्यदर्शन, संपा० पं० जनार्दन शास्त्री तीनों परम्पराओं में ध्यान के सन्दर्भ में समुचित चिन्तन मिलता है। तीनों पाण्डेय, भारतमनीषा, वाराणसी, वि० सं० २०२१, ६/२३ ने ही एक स्वर से इसकी महत्ता को स्वीकार किया है तथा इसे निर्वाण, १४. ध्यानहेयास्तवृत्तयः । पातंजल योगदर्शन, गोयनका, २/११ मोक्ष, कैवल्य प्राप्ति का एक सबल साधन माना है । यद्यपि इन तीनों १५. दुविहं पि मोक्खहेउं ज्झाणे पाउणदि जं मुणी णियामा। परम्पराओं की आध्यात्मिक चिन्तनधारा में तीन तत्त्वों को महत्त्वपूर्ण तम्हा पयत्तचित्ता जूयं झाणं समब्भसह ।। माना गया है फिर भी ध्यान को एक विशिष्ट स्थान दिया गया है । जहाँ द्रव्यसंग्रह, अनु० पं० मनोहरलाल शास्त्री, परमश्रुत प्रभावक वैदिक परम्परा में कर्म, ज्ञान एवं भक्ति की त्रिपुटी पर बल दिया गया मंडल, अगास, १९१९, ४७ है, वहीं जैनों ने सम्यग्ज्ञान, सम्यग्दर्शन, एवं सम्यग्चरित्र को प्रमुखता १६. तत्त्वार्थसूत्र, संघवी, १/२७ दी है एवं बौद्धों ने इस हेतु शील, समाधि एवं प्रज्ञा को महत्त्व दिया १७. जीवस्य एगग्गे जोगाभिनिवेस्सो झाणं ... । आवश्यक नियुक्ति, है। वस्तुत: ये तीनों तत्त्व ही मोक्ष-प्राप्ति के साधन माने गए, लेकिन ऋषभदेव जी केशरीमल जी श्वेताम्बर संस्था, रतलाम, १९२९, इन त्रिविध साधना मार्ग में वही साधक सफल हो पाता है जो ध्यान की ८१ सम्यक् साधना करता है।
१८. एकाग्र-चिन्ता-रोधो य: परिस्पनदेन वर्जितः ।
तद्धयानं....।। तत्त्वानुशासन, वीरसेवा मन्दिर ट्रस्ट प्रकाशन, १. योगश्चित्तवृत्तिनिरोधः । योगसूत्र (पतञ्जलि कृत), टीका हरिकृष्ण
दिल्ली, १९६३, ५६ दास गोयनका, गीताप्रेस, गोरखपुर, द्वितीय संस्करण, संवत् र
१९. रत्नत्रयमयं ध्यानमात्मरूप प्ररूपकम् ।। २०११, १/२
अनन्यगत-चित्तस्य विद्यत्ते कर्म-संक्षयम् ।। योगसारप्राभृत, वीतराग एकाग्रचिन्तानिरोधोध्यानम् । तत्त्वार्थसूत्र, विवेचक पं० सुखलाल
सत् साहित्य प्रकाशन ट्रस्ट, भावनगर, संवत् २०३४, ६/७ संघवी, पार्श्वनाथ विद्याश्रम शोध संस्थान, वाराणसी, १९७६,
२०. ...ध्यानमप्रशस्त-प्रशस्तभेदेन द्विविधं । चारित्रसार, उद्धत जैनेन्द्र
सिद्धान्त कोश, भाग २, पृ० २९५, १६७८/२ ९/२७ ३. समन्तपासादिका, नवनालन्दा महाविहार, नालन्दा, १९६४,
२१. रागद्वेषमिथ्यात्वासांश्लिष्टज्ञानं ध्यानमित्युच्यते । भगवती-आराधना, खण्ड १, पृ० १४५-१४६
विजयोदया टीका, अनु० पं० कैलाशचन्द्र सिद्धान्तशास्त्री, जैन ४. युक्तेन मनसा वयं देवस्य सवितः सते । स्वाय शक्तया ।।
संरक्षक संघ, शोलापुर, १९७८, २१, पृ० ४४ यजुर्वेद, दयानंद संस्थान, नई दिल्ली, ३४/४४ र
२२. चत्तारि झाणा पण्णत्ता, तं जहा अट्टेदाणे, रोद्दझाणे, सुक्केझाणे। तस्यैव कल्पनाहीनस्वरूपं ग्रहणं हि यत्
स्थानाङ्गसूत्र, सम्पादक : मधुकर मुनि,श्री आगम पंकाशन मनसाध्याननिष्पाद्यं समाधिः सोऽभिधीयते ।। विष्णु पुराण, ६/
समिति व्यावर, १९८२, ४/२४७ ७/९२, अनु० श्री मुनिलाल गुप्त, गीताप्रेस, गोरखपुर, संवत्
२४. निष्क्रिय करुणातीतं ध्यानधारणवर्जितम् । ज्ञानार्णव, अनु० बालचन्द र
शास्त्री, जैन संस्कृति संरक्षक संघ, शोलापुर, १९७७, ३९/४१ २०२४ ६. न तत्र चक्षुर्गच्छति । केनोपनिषद, अष्टादश उपनिषद. वैदिक २५. तत्त्वार्थसूत्र भाष्य (हरिभद्रसूरि), ऋषभदेव जी केशरीमल जी. संशोधन मंडल पूना, १९५८, १/३ ।
जैन श्वेताम्बर संस्था, रतलाम, १९३६, अध्याय ९, पृ०४८७ ७. मृत्यप्रोक्तां नचिकेतोऽयं लब्ध्वा विद्यामेतां योगविधिं च कृत्स्नम्। २५
२६. इण्डियन फिलॉसफी, भाग-१, डॉ० राधाकृष्णन, जॉर्ज ऐलेन
सन्दर्भ
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ऐण्ड अन्विन, लन्दन, पृ० ४३६
ईस्टर्न बुक लिंकर्स दिल्ली, १९१२, पृ०१-२ २७. विसुद्धिमग्गो, प्रथम भाग, संपादक पं० बद्रीनाथ शुक्ल, पालि ३२. बौद्ध संस्कृति का इतिहास, ले० डॉ० भागचन्द जैन 'भास्कर',
ग्रन्थमाला, वाराणसेय संस्कृत विश्वविद्यालय, १९६१, १/३६ आलोक प्रकाशन, नागपुर, १९१२, पृ० २८१ २८. सासने कुलपुत्तानं पतिट्ठानित्य यं बिना । वही, १/२३ ३३. विसुद्धिमग्ग (खन्दनिद्देश), भाग-२, संपा० धर्मानंद कोसाम्बी, २९. चित्तैकागता लक्षणः समाधिः । बोधिचर्यावतार, प्रका० श्री महाबोधि सभा, सारनाथ (बनारस), १९४३, पृ० १०४-१११
परशुराम वैद्य, बौद्ध संस्कृत ग्रन्थ, मिथिला विद्यापीठ, दरभंगा, ३४. ते झायिनो साततिका निच्चं दलदह पखकमा । १९६०, ८/४ पंजिका पर
फुसन्ति धीरा निब्बांणं योगक्खेमं अनुत्तरं ।। धम्मपद, राहुल ३०. विपश्यना तथाभूतपरिज्ञानस्वभावा प्रज्ञा । वही, ८/४
सांकृत्यायन, १९३७, २/३ ३१. विपश्यना द बुद्धिस्ट वे, संपा० डॉ० हरचरण सिंह सोवटी,
आचार्य हरिभद्र और उनका योग
डॉ. कमल जैन
आचार्य हरिभद्र एक ऐसी जीवन-दृष्टि को लेकर उदित हुये सम्बन्ध को योग कहा है। आचार्य हरिभद्र ने योग को मोक्ष का हेतु जो अनुपम और अद्भुत थी । वे प्रथम मनीषी थे जिन्होंने अपनी कहा है और उन सभी साधनों को योग कहा है, जिससे आत्मा की असाधारण प्रतिभा द्वारा जैन योग को विशिष्ट स्वरूप प्रदान किया। विशुद्धि होती है, कर्ममल का नाश होता है और आत्मा का मोक्ष के उन्होंने परम्परा से चली आ रही प्राचीन शैली को परिस्थिति एवं साथ संयोग होता है । आचार्य के विचार में धार्मिक क्रियाकलाप, लोकरुचि के अनुरुप नया मोड़ दे करके, अभिनव परिभाषा करके जैन आध्यात्मिक भावना, समता का विकास, मनोविकारों का क्षय, मन, योग साहित्य के अभिनव युग का प्रारम्भ किया। उन्होंने जैन योग पर वचन, कार्य को संयमित करने वाले धार्मिक क्रियाकलाप ही श्रेष्ठ योग अनेक मौलिक ग्रन्थों की रचना की । योग सम्बन्धी अवधारणाओं को नई हैं, उन्होंने अपने योग विषयक सभी ग्रन्थों में आत्मा की विशुद्धि के दिशा दी । भित्र सम्प्रदायों की संकीर्णता को दूर करने का प्रयत्न किया सभी साधनों को योग कहा है।
और समन्वित साधना पद्धति को पल्लवित किया और तदनुरूप संयम उपाध्याय अमरमुनि जी ने आत्मा की अनन्तशक्ति को अनावृत व सदाचारगर्भित जीवन चर्या की प्रतिष्ठापना की।
करने, आत्म-ज्योति को अलोकित करने तथा अपने लक्ष्य एवं साध्य आध्यात्मिक साधना का प्रथम लक्ष्य शारीरिक शक्तियों को तक पहुंचने के लिये मन, वचन, कर्म में एकरूपता, एकाग्रता, ऊर्ध्वगामी बनाकर मोक्ष प्राप्ति की दिशा में नियोजित करना है। योग तन्मयता एवं स्थिरता लाने वाली साधना को योग कहा है । आचार्य से ही इन सुप्त शक्तियों को जागृत किया जा सकता है । हरिभद्र ने योग की ३ अवस्थाओं का उल्लेख किया है।
१. इच्छा योग - आत्मलब्धि के लिये जिसने शास्त्रीय योग की परिभाषा
सिद्धान्तों का श्रवण किया है लेकिन प्रमाद के कारण विकल असम्पूर्ण मोक्ष प्राप्ति के मुख्य और गौण, अन्तरंग या बहिरंग, ज्ञानपरक धर्म योग रहता है । इस अवस्था में योगी में योग साधना में आगे बढ़ने या आचारपरक, जितने आध्यात्मिक विकास के साधन हैं, उनका की आन्तरिक भावना तो उत्पन्न हो जाती है परन्तु प्रमाद के कारण वह यथाविधि अनुष्ठान करना और आध्यात्मिक विकास की पूर्णता को प्राप्त कुछ कर नहीं पाता। करना ही योग है।
२. शास्त्र योग - इसमें शास्त्रवेत्ता साधक ज्ञानाचार, दर्शनाचार, चित वृत्ति का निरोध', पुण्यात्मक प्रवृत्ति मोक्ष से योजन चारित्राचार, तपाचार तथा वीर्याचार का शास्त्रीय विधि से पालन करने इत्यादि योग लक्षण भिन्न-भिन्न परम्पराओं में कहे गये हैं। योगियों ने लगता है। सम्यग्ज्ञान, सम्यग्दर्शन और सम्यक् चारित्र इन तीनों के आत्मा के साथ ३. समार्थ्ययोग - साधक आत्मशक्ति के विशिष्ट विकास
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आचार्य हरिभद्र और उनका योग
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के कारण धर्म और शास्त्र के विधि निषेधों का अतिक्रमण का आत्मकेन्द्रित 'अचरमावर्त' में रहता है, विषय वासना और कामभोगों में आसक्त बना हो जाता है, जो उसके मोक्ष का साक्षात् कारण बन जाता है। रहता है, वह साधक योग मार्ग का अधिकारी नहीं हो सकता । कुछ
आचार्य हरिभद्र कहते हैं कि जिसने अभी धर्म का सच्चा मर्म लोग तो केवल लोक व्यवहार के कारण ही इसकी साधना करते हैं, न जाना हो केवल अभिमुख ही हुआ हो, उसे लोक और समाज के बीच आचार्य ने ऐसे लोगों की भवाभिनन्दी कहा है । ये लोग योग के लिये रह कर आचरण करने योग्य धर्म का उपदेश देना चाहिये, जिससे वह अनाधिकारी माने जाते हैं ।१७ भवाभिनन्दी जीव दुःखमय संसार में लौकिक धर्म का पालन करता हुआ योग मार्ग का अनुसरण कर सके। करणीय, अकरणीय को भूल कर हिंसा, परिग्रह, भोग आदि अकृत्यों उसे गुरु, देव, अतिथि आदि की सेवा तथा दीन जनों को दान देने की में प्रवृत्त रहते हैं उसी में सुख मानते हैं, जो जीव चरमावर्त में रहता है, प्रेरणा देनी चाहिए। उसे सदाचार का पालन, शास्त्रों का पाठ, गुरु से जिसने मिथ्यात्व ग्रन्थि का भेदन कर लिया है, जो शुक्ल पक्षी है, वही शास्त्र-श्रवण, पवित्र तीर्थस्थानों का पर्यटन आदि शुभ कार्यों में प्रवृत्त मोक्ष साधना का अधिकारी है, ऐसा साधक शीघ्र ही अपनी साधना से होकर आत्म-निरीक्षण करना चाहिये। अशुभ कर्मों के निराकरण के भवभ्रमण का अंत कर देता है, सात्विक मन, सद्बुद्धि, सम्यग्ज्ञान की लिये आन्तरिक भय होने पर सद्गुरु की शरण लेनी चाहिये, कर्म योग उत्तरोत्तर विकासोन्मुखता के कारण वह मुक्ति परायण होता है ।१९ जैनत्व के उपचार के लिये तप का अनुष्ठान करना चाहिये, मोह रूपी विष को जाति से, अनुवंश से अथवा किसी प्रवृत्ति-विशेष से नहीं माना गया है, दूर करने के लिये स्वाध्याय का आश्रय लेना चाहिये । आचार्य हरिभद्र परन्तु यह आध्यात्मिकता की भूमिका के ऊपर निर्भर करता है । प्रथम ने अर्हतों को शुभ भाव से नमन, सत्पुरुषों की सेवा, संसार के प्रति सोपान में दृष्टि मोक्षाभिमुख होती है जिसका पारिभाषिक नाम अपुनर्बन्धक वैराग्य, सत्पात्र को निर्दोष आहार, उपकरण, औषधि आदि का सब है, मोक्ष के प्रति सहज श्रद्धा और यथाशक्ति दूसरा सोपान है । जब श्रद्धा शास्त्रों का लेखन, पूजन, प्रकाशन, शास्त्र-श्रवण, विधिपूर्वक शुभ आंशिक रूप से जीवन में उतरती है तो देशविरति तीसरा सोपान होता उपधान क्रिया इस सबको योग बीज कहा है । ११
है, जब सम्पूर्ण चारित्र की कला विकसित होती है, तो चौथा सोपान
सर्वविरति होता है। हरिभद्र ने योगबिन्द में योग के अधिकारियों को चार योगियों के प्रकार -
भागों में विभक्त किया है २० : आचार्य ने ४ प्रकार के योगी बताये हैं -
१. अपुनर्बन्धक - ऐसा साधक जो मिथ्यात्व दशा में रहता १. कुल योगी - जो योगियों के कुल में जन्में हो और हुआ भी सद्गुणों की प्राप्ति के लिये प्रयत्नशील रहता है, जिसमें मोक्ष प्रकृति से ही योगधर्मी हों, ब्राह्मण, देव, गुरु का सम्मान करते हों, के प्रति श्रद्धा और रुचि पैदा हो जाती है और राग-द्वेष एवं कषायों का किसी से द्वेष न रखने वाले, दयालु, विनम्र, प्रबुद्ध तथा जितेन्द्रिय हों ।१२ तीव्र बल, घट जाता है, फिर भी वह आत्म-अनात्म (जड़-चेतन) का
२.गोत्रयोगी३. साधक के गोत्र में जन्म लेने वाले योगी विभेद सम्यक् प्रकार से नहीं कर पाता ।२१ आचार्य कहते हैं कि - ऐसे को गोत्र योगी कहा जाता है। यम-नियम आदि का पालन न करने के व्यक्ति को लोक-कल्याण का उपदेश देना चाहिये जैसे दूसरे के दुःख कारण उनकी प्रवृत्ति संसाराभिमुख होती है। अत: वे योग के अधिकारी दूर करना, देव, गुरु तथा अतिथि की पूजा करना, दीन-दुखियों को दान नहीं माने जाते है।
आदि। ३. प्रवृत्तचक्रयोगी - ऐसा योगी अपनी मोक्षाभिलाषा का २. सम्यग्दृष्टि - सांसारिक प्रपंचों में रहता हुआ भी, जो बढ़ाने वाला, सेवा-सुश्रुषा, श्रवण, धारण, विज्ञान, ईहा, उपोह, मोक्षाभिमुख होता है, जिसमें श्रद्धा-रुचि और समझ आंशिक रूप में आ तत्त्वाभिनिवेश आदि गुणों से युक्त होकर यत्न-पूर्वक प्रवृत्ति करने वाला जाती है धार्मिक तत्त्व सुनने की इच्छा, धर्म के प्रति अनुराग, आत्महोता है ।१४
समाधि (आत्म-शांति), देव तथा गुरु की नियमपूर्वक सेवा करने की ४. निष्पन्न योगी - जिसकी मोक्ष साधना निष्पन्न हो चुकी इच्छा जिसमें उत्पन्न हो जाती है, २३ ऐसे साधन को विशुद्ध आज्ञा योग है वह निष्पन्न योगी है। ऐसा योगी सिद्धि के अति निकट होता है। के आधार पर अणुव्रत आदि को लक्ष्य में रखकर उपदेश देना उसकी प्रवृत्ति सहज रूप में ही धर्ममय हो जाती है ।१५
चाहिये ।२४ योग के अधिकारी - जीवन के अनादि प्रवाह में विविध ३. देशविरति - अणुव्रतों का पालन करता हुआ साधक कारणों से कर्ममल क्षीण होते रहते हैं और एक ऐसा समय आता है मोक्ष मार्ग की ओर बढ़ता है । सम्पूर्ण चारित्र की इच्छा विकसित होती जब जीवन की वृत्ति भोगाभिमुख न होकर योगाभिमुख होने लगती है, है। ऐसा साधक सन्मार्ग का अनुसरण करने वाला, श्रद्धावान, धर्मोपदेश राग-द्वेष की तीव्रता भी मंद हो जाती है । वह नये कर्मसस्कारों का के योग्य, धर्म क्रिया में अनुरक्त, यथाशक्ति अध्यात्म साधना में तथा निर्माण करे तो भी उसके संसार में दीर्घकाल तक रहने की संभावना नहीं वीतराग दशा प्राप्त होने तक समत्व की साधना करने वाला होता है ।२५ होती ऐसे काल को जैन परिभाषा में चरमार्वत कहा गया है ।१६ आचार्य ऐसे साधक को परमार्थलक्षी और सूक्ष्म उपदेश देना चाहिए ।२६ ने योग के अधिकारियों की चर्चा करते हये कहा है कि जो साधक ४. सर्वविरति - सम्यक्तव प्राप्त हो जाने से अनुकम्पा,
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जैन विद्या के आयाम खण्ड-७
निवेंद, प्रशम, अनुभाव आदि गुण उसे स्वत: ही प्राप्त हो जाते हैं।२७ कर लेता है।५ इस दृष्टि में अष्टांग योग का तीसरा अंग आसन सधता अब वह सब पापों का पूर्णरूप से त्याग करता है।
है।३६ आगमों से ज्ञात होता है कि महावीर आसन योग के बिना काय इन चारों अधिकारियों को उनके सामर्थ्य के अनुसार उपदेश योग में स्थिरता नहीं मानते थे । वह चंचलता से रहित होकर अनेक देना चाहिये । अपुनबंधक को लोक-धर्म का अर्थात् सदाचरण आदि का, प्रकार के आसन में स्थिर होकर ध्यान करते थे । सम्यग्दृष्टि को अणुव्रत आदि के पालन का, देशविरति को संयम और ४. दीप्रा दृष्टि - इसमें अतहदय में प्रशान्त रस का सहज महाव्रतों के पालन का और सर्वविरति को परमार्थ लक्षी आध्यात्मिक प्रवाह बढ़ता रहता है । तत्त्व-श्रवण सधता है, आत्मोन्मुखता का भाव उपदेश देना चाहिये ।२८
उदित होता है । वह द्रव्य प्राणायाम रेचक, पूरक, कुम्भक तक ही आचार्य हरिभद्र ने योग का एक भेद शास्त्रयोग और निशस्त्रयोग सीमित नहीं रहता किन्तु भाव प्राणायाम की भी साधना करता है। इसमें भी किया है। शास्त्रयोग उस योगी की साधना है, जिसके मोक्ष तक बाह्य-भावों (विभावदशा) का रेचन किया जाता है । अन्तरात्म-भावों का पहंचने में अनेक जन्म रहते हों। निशस्त्रयोग उस साधक को सधता है, पूरक किया जाता है और चिन्तन, मनन उस आत्मभाव को स्थिर जिसे केवल उसी जन्म में मोक्ष प्राप्त करना होता है ।२९ (कुम्भक) किया जाता है। आत्म विकास में इस भाव प्राणायाम का बड़ा
महत्त्व है। इस दृष्टि में साधक आत्म विकास की इस भूमिका पर पहुँच योगदृष्टियाँ
जाता है कि वह धर्म को प्राणों से भी अधिक महत्त्व देने लगता है, योग साधना के क्षेत्र में आध्यात्मिक विकास की अवस्थाओं प्राण-संकट आ जाने पर भी धर्म को नहीं छोड़ता इसमें प्राणायाम' को आचार्य हरिभद्र ने आठ दृष्टियों के रूप में भी प्रस्तुत किया है। सिद्ध होता है ।३८ आचार्य ने श्रद्धा का बोध कराने वाली तथा असत् प्रवृत्तियों को क्षीण उपर्युक्त चार दृष्टियों में मिथ्यात्व' की आंशिक सत्ता बनी रहती करके सत् प्रवृत्तियों की स्थापना करने वाली साधना को ही दृष्टि कहा है। इन दृष्टियों में धार्मिक व्रत-नियमों का पालन तो होता है, किन्तु है। सामान्य दृष्टि से ऊपर उठकर साधक इन योग दृष्टियों तक पहुँचता आन्तरिक विशुद्धि अल्प होती है । यदि तत्त्व ज्ञान की प्राप्ति हो भी
जाये, तो भी वह स्पष्ट नहीं होती है। १. मित्रादृष्टि - आत्माभ्युदय की पहली अवस्था है, इसमें ५. स्थिरादृष्टि - इसमें साधक को सूक्ष्म-बोध प्राप्त होता साधक के हृदय में प्राणी मात्र के लिये मैत्री भाव बढ़ने लगता है । इसमें है। उसके लिये समस्त पदार्थ मात्र ज्ञेय होते हैं। संसार की क्षणभंगुरता सम्यग्दर्शन होने पर भी श्रद्धोन्मुख आत्मबोध की मन्दता होती है, एवं अस्थिरता का ज्ञान हो जाने के कारण वह उनमें आसक्त नहीं होता। अहिंसादि यमों को पालन करने की इच्छा और धार्मिक अनुष्ठानों के प्रति इन्द्रियाँ संयमित हो जाती हैं । धर्म-क्रियाओं में आने वाली बाधाओं का अखेदता होती है वह धार्मिक क्रियाओं को प्रथा के रूप में करता तो परिहार हो जाता है और साधक परमात्म स्वरूप को पहचानने लगता है, परन्तु उसकी दृष्टि पूर्णतया सम्यक् नहीं हो पाती है, परन्तु है। इस दृष्टि में स्थित साधक के मिथ्यात्व-ग्रन्थि का भेदन हो जाता है अन्तर्जागरण और गुणात्मक प्रगति की यात्रा शुरु हो जाती है ।३१ साधक और सम्यग्दर्शन की प्राप्ति हो जाती है। वह आत्मा को ही अजर-अमर सर्वज्ञ को अन्त:करण से नमस्कार करता है । आचार्य एवं तपस्वी की और उपादेय मानता है ।३९ इस दृष्टि में योग का पाँचवा अंग प्रत्याहार यथाचित सेवा करता है, औषधिदान, शास्त्रदान, जिन-पूजा, जिनवाणी सघता है।" के श्रवण, पठन, स्वाध्याय आदि में प्रवृत्त रहता है । इसकी तुलना ६. कान्तादृष्टि - इसमें साधक को अविच्छिन्न सम्यग्ज्ञान 'अष्टांगयोग' के प्रथम अंग 'यम' से की गई है । ३२
रहता है, सांसारिक कार्य करते हुये भी उसका मन आत्मा में ही लगा २. तारा दृष्टि - इसमें मित्रादृष्टि की अपेक्षा बोध कुछ अधिक रहता है, वह संसारिक भोगोपभोगों को अनासक्त भाव से भोगता है स्पष्ट होता है । साधक योगनिष्ठ साधकों की सेवा करता है, इस सेवा उसके राग-द्वेष अत्यल्प होते हैं, चित्तवृत्तियाँ बहुत कुछ उपशांत हो से उसे योगियों का अनुग्रह प्राप्त होता है। योग साधना और श्रद्धा का जाती है, इसमें योगी को अष्टांग योग का छठा अंग 'धारणा' सधता विकास होता है, आत्महित बुद्धि का उदय होता है । चैत्तसिक उद्वेग मिट है। धारणानिष्ठ हो जाने पर वह आत्मतत्त्व के अतिरिक्त अन्य विषयों में जाते हैं -शिष्ट जनों से मान्यता प्राप्त होती है।३३ इससे अष्टांग योग का रस नहीं लेता ।४२ दूसरा अंग 'नियम' सधता है अर्थात् शौच, सन्तोष, तप, स्वाध्याय तथा ७. प्रभादृष्टि. इसमें संस्थित योगी ध्यान प्रिय होता है । परमात्मचिन्तन जीवन में फलित होते हैं।
इसमें सूर्य के प्रकाश की तरह अत्यन्त सुस्पष्ट तत्त्वानुभूति या आत्मानुभूति ३. बला दृष्टि - इस दृष्टि में योगी सुखासन से युक्त होकर होती है । इसमें राग-द्वेष, मोह बाधा नहीं देते । सहज रूप से ही सुदृढ़ आत्म दर्शन को प्राप्त करता है । उसे तत्त्व ज्ञान के प्रति रुचि सत्प्रवृत्ति की ओर उसका झुकाव हो जाता है। प्रशान्त भाव की प्रधानता उत्पन्न होती है तथा योग साधना में किसी प्रकार का उद्वेग नहीं होता। हो जाती है। काम के साधनों को जीत लेता है। इसमें योग का सातवाँ इसमें तृष्णा का अभाव हो जाने से साधक उल्लासमय स्थिति को प्राप्त अंग ध्यान सधता है । ४४
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८. परा दृष्टि - यह दृष्टि समाधिनिष्ठ, आसक्तिं दोषों से ४. समता योग - विवेच्य ज्ञान की उत्पत्ति से आत्मा में रहित और जागरूक चित्त वाली होती है । इसमें चित्त में प्रवृत्ति करने विचार-वैषम्य का लय और सम भाव का परिणमन होने लगता है । की कोई वासना नहीं रहती है। इसमें परमतत्त्व का साक्षात्कार हो जाता वस्तु स्वरूप का यथार्थ बोध होने पर समता का भाव आ जाता है, सूक्ष्म है और साधक आत्मभाव से रमण करता है । इस दृष्टि में साधना कर्मों का क्षय होने लगता है । समता योगी चामत्कारिक शक्तियों का अतिचारों (दोषों) से निदोष होती है । ज्ञानावरणीय, दर्शनावरणीय, प्रयोग नहीं करता। उसकी आशाओं-आकाक्षाओं के तन्तु टूटने लगते मोहनीय तथा अन्तरायकर्म क्षीण हो जाते हैं । आत्मा सर्वज्ञ परमात्मा हैं।५४ बन जाती है। इसमें अष्टांग योग का आँठवाँ अंग समाधि सध जाता ५. वृतिसंक्षययोग - आत्मा में मन और शरीर के संसर्ग है । ४६ इस प्रकार अध्यात्मिक योग साधना के द्वारा साधक शनै:-शनैः से उत्पन्न होने वाली विकल्प रूप तथा चेष्टारूप वृत्तियों का जो निरोध आत्मोत्क्रांति करता हआ मोक्ष एवं निर्वाण पद को प्राप्त कर लेता है। किया जाता है और उन्हें पुन: उत्पन्न नहीं होने दिया जाता उसे वृतिसंक्षय पातंजल योगवर्णित समस्त अष्टांग योग इन आठ योग दृष्टियों में योग कहा जाता है । वृतिसंक्षय से सर्वज्ञता, शैलेशी अवस्था, मानसिक, समाहित हो जाता है। इन दृष्टियों में सम्यग्दर्शन सम्यग्ज्ञान, सम्यक्चारित्र कायिक, वाचिक प्रवृत्तियों का सर्वथा निरोध, मेरुवत् अप्रकम्प अडोल का सार निहित है।
स्थिति तथा निर्बाध आनन्द प्राप्त होकर अन्तत: मोक्ष की प्राप्ति होर्ती धर्मशास्त्रों में बताई गई विधि के अनुसार गरुजनों की सेवा है। ५५ अध्यात्म, भावना, ध्यान समता, वृत्तिसंक्षय इन पाँच में अष्टांग करना, उनसे तत्त्वज्ञान सुनने की उत्कंठा, क्षमतानुसार विधि-निषेधों का योग के आठ अंगों का समावेश हो जाता है । अध्यात्म और भावना में पालन करना व्यवहार योग हैं। जैन परम्परा में आध्यात्मिक विकास यम, नियम, आसन, प्रत्याहार का तथा धारणा और ध्यान समता एवं की सूचक १४ भूमिकायें गुणस्थान के नाम से जानी जाती हैं । आचार्य वृत्तिसंक्षय में समाधि का समावेश हो जाता है । आचार्य हरिभद्र ने हरिभद्र ने इन आध्यात्मिक विकास की १४ भूमिकाओं को निम्न पाँच धर्मशास्त्रों में बताई हुई विधि के अनुसार गुरुजनों की सेवा करना, उनसे योग भूमिकाओं में समाहिजे किया है :
तत्त्व ज्ञान सुनने की इच्छा रखना, क्षमतानुसार शास्त्रोक्त विधि निषेधों का
पालन करना व्यवहार योग कहा है ।५६ व्यवहार योग अनुसरण करतेयोग की पाँच भूमिकायें --
करते सम्यग्ज्ञान, सम्यग्दर्शन और सम्यक्चारित्र में जो विशेष शद्धि आ १. अध्यात्मयोग - जैन परम्परा में मोक्षाभिलाषी आत्मा को
आ जाती है उसे निश्चय योग कहा है ।५७
जाता अध्यात्म-योग से युक्त होने की प्रेरणा दी गई है, क्योंकि चारित्र की शुद्धि के लिये अध्यात्म योग का अनुष्ठान मुमुक्षु आत्मा के लिये विशेष महत्त्व साधना रखता है । इसमें साधक अपने सामर्थ्य के अनुसार अणुव्रतों और
आचार्य हरिभद्र ने साधना की दृष्टि से योग के ५ भेद महाव्रतों को स्वीकार करके प्रमोद, मैत्री, करुणा, माध्यस्थ आदि चार
किये हैं५८ : भावनाओं का चिन्तन-मनन करता है ।।८
१. स्थान - स्थान का अभिप्राय आसन से है जिस सुखासन २. भावना योग - प्राप्त हुये अध्यात्म तत्त्व को निष्ठापूर्वक ..
पर योगी अधिक देर तक चित्त और शरीर को स्थिर रखता हुआ ध्यानस्थ निरन्तर स्मरण करना भावना योग है । इसमें अशुभ कर्मों की निवृत्ति १६
रह सके वही आसन या स्थान उत्तम है। होती है, सद्भावना तथा समताभाव की वृद्धि होती है, चित्त समाधियुक्त
२. ऊर्ण - प्रत्येक क्रिया समन्वाय के साथ जो सूत्र का हो जाता है।
उच्चारण किया जाता है उसे ऊर्ण योग कहा जाता है। इनमें स्वर, मात्रा, - आगमों में भी भावनायोग के महत्त्व को बताते हुये कहा गया
अक्षर आदि का ध्यान रखकर उपयोगपूर्वक शुद्ध उच्चारण किया जाता है कि साधक भावनायोग से जन्ममरण के दुःखों से छुटकारा पाकर
३. अर्थ - सूत्रों के अर्थ को समझना ही अर्थ योग है। शान्ति का अनुभव करता है ।५० ३. ध्यान योग - चित्त को बाह्य विषयों से हटाकर किसी
४. आलम्बन - ध्यान में रूपात्मक बाह्य विषयों का आश्रय
लेना आलम्बन कहा जाता है। एक सूक्ष्म पदार्थ में एकाग्र करना ध्यान योग है ।५१ शुभ प्रतीकों का
५. अनावलम्बन - ध्यान में बाह्य विषयों का आश्रय न आलम्बन लेकर चित्त का स्थिरीकरण ध्यान कहा जाता है । वह दीपक
लेकर शन्य में ही ध्यान को केन्द्रित करना अनावलम्बन योग है। की स्थिर लौ के समान ज्योतिर्मय एवं निश्चल होता है, सूक्ष्म तथा
महावीर स्वलबंन और निरलम्बन दोनों प्रकार की ध्यान साधना करते थे, अन्त:प्रविष्ट चिन्तन से समायुक्त होता है ।५२ प्रश्नव्याकरण में निश्चल
वे प्रहर तक अनिमेष दृष्टि ध्यान से करते थे, मन को एकाग्र करने के दीपशिखा के समान अन्य विषयों के संचार से रहित एक ही विषय पर
लिये दीवार का अवलम्बन लेते थे। ध्यान के विकास-काल में उनकी धारावाही प्रशस्त सूक्ष्म बोध को ध्यान कहा गया है ।५३
- त्राटक साधना बहुत देर तक चलती थी।
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जैन विद्या के आयाम खण्ड-७
अनावलम्बन योग के सिद्ध हो जाने पर 'क्षपक श्रेणी' शुरु हो यौगिक अनुष्ठान जाती है । फलत: ऐसा साधक परम निर्वाण की प्राप्ति करता है । इसमें १.विष अनुष्ठान - इस अनुष्ठान को करते समय साधक साधक के संस्कार इतने दृढ़ हो जाते हैं कि योग प्रवृत्ति करते समय की इच्छा सांसारिक सुख भोगों की ओर होती है। यश, कीर्ति, इन्द्रिय शास्त्र का स्मरण करने की कोई अपेक्षा ही नहीं रहती । समाधि की सुख, धन आदि की प्राप्ति ही उसका परम लक्ष्य होता है । राग आदि अवस्था प्राप्त हो जाती है ।५९ इसकी तुलना पांतजल योग के 'समाधि' भावों की अधिकता के कारण यह अनुष्ठान विष अनुष्ठान है। अंग से की जा सकती है।६०
२. गरानुष्ठान - जिस अनुष्ठान के साथ दैविक भोगों की वह पाँच प्रकार का योग निश्चय दृष्टि से उसी को सधता है अभिलाषा जडी भी रहती है उसे मनीषीजन गर कहते हैं। भोग वासना जो चारित्रमोहनीय के क्षयोपशम से अंशत: या सम्पूर्णतया चारित्र सम्पन्न के कारण कालान्तर एवं भवान्तर में वह आत्मा के दु:ख और अधोपतन होता है । जब योग योगी के सम्पर्क में आने वाले अन्य लोगों को का कारण बनता है। भी उत्प्रेरित एवं प्रभावित करे तब इसे सिद्धि योग कहा जाता है।
३. अनानुष्ठान - जो धार्मिक क्रियायें विवेकहीन होकर
लोक-परम्परा का पालन करते हये भेड़चाल की तरह की जाती हैं उन्हें तात्त्विक दृष्टि से योग के भेद..
अनानुष्ठान कहा जाता है। पाँच प्रकार के शुभ योग कहे गये हैं .
४. तद्धेतु अनुष्ठान - मोक्ष प्राप्ति की अभिलाषा से जो शुभ १. प्रणधि - अपने आचार-विचार में स्थिर रहते हये, सभी क्रियायें, धार्मिक व्रत या अनुष्ठान किये जाते हैं उन्हें तद्धत् अनुष्ठान जीवों पर भाव रखते हुये निश्चल मन से कर्तव्य का संकल्प करना प्रणधि कहा जाता है । यद्यपि राग का अंश यहाँ भी विद्यमान रहता हैं, परन्तु है। इसमें परोपकार करने की इच्छा और हीन गणी पर भी दया भाव प्रशस्त राग होने से वह मोक्ष का कारण है । इसलिये सदानष्ठान कहा रहता है।
जाता है। २. प्रवृत्ति - इसमें साधक निर्दिष्ट योग साधनाओं में मन को
५. अमृतानुष्ठान - जिस अनुष्ठान के साथ-साथ साधक के प्रवृत्ति करता है अर्थात् धार्मिक व्रत अनुष्ठानों को सम्यक्तया पालन मन में मोक्षोन्मुख आत्मभाव तथा वैराग्य की आत्मानुभूति जुड़ी रहती करता है।
है और साधक के मन में अर्हत् पर आस्था बनी रहती है उसे ३. विध्वजय - योग साधना के यम नियमों का पालन करते अमृतानुष्ठान कहा गया है -- आदर, प्रीति, अविध्न, सम्पदागम, हुये अनेक प्रकार की मोहजन्य बाह्य या आंतरिक कठिनाइयां आती हैं। जिज्ञासा, तज्ज्ञसेवा, तज्ज्ञअनुग्रह, ये सदमुष्ठान के लक्षण कहे गये उन पर विजय पाये बिना साधना पूर्ण नहीं हो सकती। अत: अन्तरायों हैं।६७ की निवृत्ति करने वाला शुद्ध आत्म परिणाम विघ्नजय है।
६. असंगानुष्ठान- इसमें समता भाव का उदय होता है। ४. सिद्धि - समता भावादि की उत्पत्ति से साधक की इच्छाओं-आकांक्षाओं का नाश होता है सदाचार का पालन करते हये कषायजन्य सारी चंचलता नष्ट हो जाती है। वह अधिक गण वाले के साधक मोक्ष मार्ग की ओर अग्रसर होता है । ६८ इसके चार भेद कहे गये प्रति बहुमान और हीन गुणवालों के प्रति दया और उपकार की भावना हैं : रखने लगता है।
(क) प्रीति - कषाय से युक्त व्यापारों को प्रीति अनुष्ठान ५. विनियोग - सिद्धि के उपरान्त साधक का उत्तरोतर कहा गया है। आत्मविकास होता जाता है उसकी धार्मिक वृत्तियों में दृढ़ता, क्षमता, (ख) भक्ति - आचार आदि क्रियाओं से युक्त होना भक्ति है । ओज और तेज आ जाता है। उसकी साधना ऊर्जस्वी हो जाता है। (ग) विचार - शास्त्रानुकूल आचार-विचार का चिन्तन एवं साधक की धार्मिक वृत्तियों का उत्तरोत्तर विकास होने लगता है। उपदेश वचनानुष्ठान कहे जाते हैं। परोपकार कल्याण आदि वृत्तियों का विकास हो जाती है ।६४
(घ) असंगानुष्ठान - वचनानुष्ठान में स्वाभाविक प्रवृत्ति को वह सब योग की क्रमिक विकासोन्मुख स्थितियां हैं। असंगानुष्ठान कहा गया है ।६९ इसे अनालम्बन योग भी कहते हैं।
चारित्रिक विकास तथा योग साधना हेत साधकों के लिए कछ इन अनुष्ठानों के योग से योगी स्वभावत: बाह्य वस्तुओं के आश्यक नियम, उपनियम तथा क्रियाओं को करने का विधान है क्योंकि प्रति ममता रहित होकर निर्ममत्व की ओर मुड़ता है, केवल ज्ञान को उनके बिना योग सिद्धि संभव नहीं है। हरिभद्र ने उत्साह, निश्चय, धैर्य, प्राप्त कर अंत में सिद्ध दशा को उपलब्ध कर लेता है। आचार्य कहते सन्तोष, तत्त्वदर्शन तथा जनपद त्याग (परिचित क्षेत्र से दूर रहना) हैं अपनी प्रकृति का अवलोकन करते हुये, लोक परम्परा को जानते हये, लौकिक जनों द्वारा स्वीकृत जीवनक्रम का परिवर्जन -- ये योग साधने शुद्ध योग के आधार पर प्रवृत्ति का औचित्य समझ कर, बाह्य निमित्त के हेतु कहे है ।६५
शकुन, स्वर, नाड़ी, अंग-स्फुरण आदि का अंकन करते हुये योग में
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प्रवृत्त होना चाहिये । योगीजन असंगानुष्ठान को विभिन्न संज्ञाओं से योग का महत्त्व - भारतीय संस्कृति में समस्त विचारकों, पुकारते हैं । सांख्य दर्शन में प्रशान्त वाहिता, बौद्धदर्शन में विसंभाग तत्त्व चिन्तकों एवं मननशील ऋषियों ने योग के महत्त्व को स्वीकार परिक्षय तथा शैवधर्म में शिववर्त्म कहा गया है । कोई इसे ध्रुव मार्ग किया है। योग को लौकिक, पारलौकिक, शारीरिक तथा आत्मोन्नति भी कहते हैं । वस्तुत: सिद्धावस्था अथवा निर्वाण अनेक नामों से का प्रबल हेतु कहा गया है। मन और इन्द्रियों की चंचलता मिटाने तथा अभिहित होकर भी एक ही स्थिति का बोधक है ।२ मुक्त आत्माओं को उनको वश में करने के लिये योग की उपयोगिता स्वीकार की गई है। विभिन्न परम्पराओं में सदाशिव, परब्रह्म, सिद्धात्मा, तथता आदि नामों योग से वृत्त की एकाग्रता सधती है तथा ध्येय में सफलता प्राप्त होती से पुकारा जाता है ।
योग साधना से साधक को स्थिरता, प्रतिभा, अन्तः स्फुरणा, योगजन्य लब्धियां -
धीरज, श्रद्धा, मैत्री, अन्तर्ज्ञान, लोकप्रियता, मृत्युज्ञान, सन्तोष, योगी योग की साधना का उपक्रम करते हुये, जहाँ चिरकाल क्षमाशीलता, सहनशीलता, सदाचार, सुख-शान्ति, गौरव यथा समय से संचित कर्मों का क्षय करता है वहाँ योगी में अनेक विशिष्ट शक्तियां अनुकूल बाह्य परिस्थितियां पैदा हो जाना, जैसे अनेक सुख प्राप्त होते जागृत हो जाती है जिन्हें जैन परम्परा में लब्धि कहा जाता है इनमें रत्न, हैं। योगाभ्यास द्वारा आत्मा के क्लेशात्मक परिणामों का उपशम एवं अणिमा, आमर्षीषधि आदि के नाम आचार्य हरिभद्र ने बताये हैं। क्षय होता हैं।८२ आचार्य हरिभद्र कहते है कि जब चित्त योग रूपी कवच
आमपौषधि • इस लब्धि के प्रभाव के साधक के शरीर के से ढका रहता है तो काम के तीक्ष्ण अस्त्र जो तप को भी छिन्न-भिन्न कर स्पर्श मात्र से रोगी स्वस्थ हो जाता है।
देते है कुण्ठित हो जाते हैं। योग रूपी कवच से टकराकर वह शक्तिइन लब्धियों को बौद्ध परम्परा में अभिज्ञाएं, पातंजल योग शून्य हो जाते हैं ।५ योग मोक्ष का हेतु है वह शुद्ध ज्ञान और अनुभव दर्शन में विभूति५ और वैदिक पुराणों में सिद्धि कहा गया है ।आचार्य पर आधृत है । आत्मकल्याणेच्छु प्रज्ञाशील पुरुषों को इसका अनुसन्धान हरिभद्र के अनुसार जीवन का उत्तरोत्तर विकास करते अहिंसा आदि यम करना चाहिये ।८६ अज्ञानता, अविद्या द्वारा अशुद्ध आत्मा योग रूपी इतनी उत्कृष्ट कोटि में पहुँच जाते हैं कि साधक को अपने आप एक अग्नि पाकर शुद्ध निर्मल हो जाती है । आचार्य हरिभद्र कहते हैं कि योग दिव्य शक्ति का उद्रेक हो जाता है। उसके सन्निधि मात्र से उपस्थित उत्तम कल्पवृक्ष है, उत्तर चिन्तामणिरत्न है, वह साधक की समस्त प्राणियों पर इतना प्रभाव पड़ता है कि वे स्वयं बदल जाते हैं। उनकी इच्छाओं को पूर्ण करता है। योग ही जीवन की चरम सफलता का दुष्पवृत्ति छूट जाती है । पतंजलि भी कहते हैं कि अहिंसा यम के सिद्ध हेतु है।८ योग न केवल सांसारिक सुखों से अपितु जन्ममरण के दुःखों हो जाने पर योगी के आस-पास के वातावरण में अहिंसा इतनी व्याप्त से भी छुटकारा दिला कर निर्वाण की प्राप्ति कराता है ।९० लोक तथा हो जाती है कि परस्पर वैर रखने वाले प्राणी भी आपस में वैर छोड़ देते शास्त्र से जिसका अविरोध हो जो अनुभव संगत तथा शास्त्रानुगत हो वही
योग अनुसरणीय है। मात्र जो जड़ श्रद्धा पर आधृत है विद्वज्जन उसे हेमचन्द्र के योगशास्त्र में कहा गया है कि अस्तेय यम के सध उपादेय नहीं मानते। जाने पर पृथ्वी में गुप्त स्थान में गड़े हये रत्न प्रत्यक्ष दीखने लगते हैं।७६ जैन योग का केन्द्रबिन्दु आत्मस्वरूप उपलब्धि है। जहाँ अन्य हरिभद्रीय आवश्यकवृत्ति से ज्ञात होता है कि एक बार बारहवर्ष का दर्शनों में जीव का ब्रह्म में लीन हो जाना योग ध्येय निश्चित किया है। अकाल पड़ा था, अन्न की बहुत कमी हो गयी थी , भिक्षुओं को आहार वहाँ जैन दर्शन आत्मा की पूर्ण स्वतंत्रता और पूर्ण विशुद्धि के योग का नहीं मिलता था, आचार्य बल विशेष लब्धि के बल से आहर लाकर संघ ध्येय निश्चित करता है । जैन दृष्टि के अनुसार योग का अभिप्राय सिर्फ की रक्षा करते थे। किन्तु जिस साधक का अंतिम उद्देश्य मोक्ष प्राप्ति चेतना का जागरण ही नहीं है वरन् चेतना का ऊर्ध्वारोहण है। योग का होता है वह भौतिक और चामत्कारिक लब्धियों के व्यामोह में नहीं वास्तविक फल मुक्तावस्था स्वरूप आनन्द है जो ऐकान्तिक, अनुत्तर फंसता । जो साधक लब्धियां पाने की अभीप्सा रखते हैं वे आत्मसिद्धि और सर्वोत्तम है। योग विद्या आध्यात्मिक विज्ञान है। अधिकारी जहाँ के मार्ग से च्यत होकर संसार-भ्रमण करते हैं । अत: इनकी प्राप्ति इसके महत्त्वपूर्ण प्रयोग द्वारा असीम लाभ उठा सकते हैं वहाँ अनाधिकारी के लिये न तो साधना करनी चाहिये और न इनका प्रयोग ही करना हानि उठा लेते हैं ।१२ चाहिए । जिस अनुष्ठान के पीछे लब्धि चामत्कारिक शक्ति प्राप्त करने जैन योग और आत्म विकास - अध्यात्म की साधना का का भाव रहता है उसे विष कहा गया है । वह महान कार्य को अल्प आधार आत्मा को कर्म से मुक्त करना है । कर्म शास्त्रीय परिभाषा में प्रयोजनवश तुच्छ बना देता है ।७९
प्रवृत्ति या योग से कर्मों का आकर्षण या आस्रव होता है। हमारा चैतन्य इसलिये जैन परम्परा में योगियों को यह प्रेरणा दी गई है कि कर्म पुद्गलों से आवृत हो जाता है । तपोयोग के द्वारा उसे कर्मावरण से वे तप का अनुष्ठान किसी लाभ, यश, कीर्ति अथवा परलोक में इन्द्रादि अनावृत किया जा सकता है । जिस प्रकार बीज के सर्व जल जाने से देवों जैसे सुख तथा अन्य ऋद्धियां प्राप्त करने की इच्छा से न करें। उसमें अंकुरण की क्षमता नहीं होती उसी प्रकार कर्म रूपी बीज के जल
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जैन विद्या के आयाम खण्ड-७
जाने से संसार रूपी अंकुर की उत्पत्ति नहीं होती । आत्मा और कर्म कर्मों से मुक्ति के लिये दो प्रकार की क्रियायें आवश्यक मानी का सम्बन्ध अनादि काल से है फिर भी दोनों के स्वभाव एक दूसरे से जाती है -- भिन्न हैं ।९४ कर्म में आत्मा के परिणामों के अनुरूप परिणत होने की १. नवीन कर्मों के उपाजन का निरोध, इसे संवर भी कहते योग्यता है इसी कारण आत्मा का कों पर कर्तृत्व घटित होता है ।१५ हैं। मिथ्यात्व, अविरति, प्रमाद, कषाय तथा योग के साहचर्य से कर्म आत्मा २. पूर्वोपार्जित कर्मों का क्षय, इसे निर्जरा कहते हैं। के साथ सम्बन्धित होते हैं। फिर भी तप-साधना के द्वारा इनका पार्थक्य इन दोनों की पूर्णता से ही मुक्ति होती है । नवीन कर्मों का सम्भव है ।९६
- निरोध-संवर, व्रत गुप्ति, समिति, धर्म, अनुप्रेक्षा, चारित्र की साधना से जीव और कर्म पद्गलों के संयोग से संसार-भ्रमण होता है। होता है और तप के द्वारा पूर्वबद्ध कर्म की निर्जरा होती है। जीवन और कर्म पुद्गलों के वियोग से मुक्ति होती है । हिंसा आदि तप - सुसुप्त शक्तियों को जागृत करने के लिये, मन को पापाचरणों से अशुभ कर्मों का, अहिंसादि पुण्याचरणों से शुभ कर्मों का एकाग्र तथा इन्द्रियों का निग्रह करने के लिये जैन योग साधना में तप बोध होता है ।१८ कुछ तार्किक कहते हैं कि सुख का कारण शुभ कर्म को बड़ा महत्त्व दिया गया है । ०३ तप से ही योगी कर्मों की निर्जरा१०४ नहीं है क्योंकि संसार में पापाचरण वाले व्यक्ति को भी सुख की प्राप्ति करके सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान, सम्यक्चारित्र को प्राप्त करता है तप की होते देखा जाता है । आचार्य हरिभद्र कहते हैं ऐसे व्यक्ति का अन्तिम आराधना गृहस्थ एवं श्रमण दोनों के लिये आवश्यक है । कर्म रोग को परिणाम दुःख रूप ही होता है वह सुख जो उसे प्राप्त हो रहा है वह मिटाने के लिये तप अचूक औषधि है।०५ तप से मन, इन्द्रिय और योग किसी पूर्व जन्मकृत धर्माचरण का ही फल है१९ । आचार्य हरिभद्र का की रक्षा होती है । ०६ अनिदान पूर्वक किया गया तप सुख का प्रदाता कहना है कि पूर्वबद्ध कर्मों का क्षय, तप, संवर, निर्जरा द्वारा समय से है ।१०७. तप आत्मशक्ति को प्रकटीकरण करने की क्रिया और साधना पूर्व ही किया जा सकता है ।१०० .
है। कषाया का निराध ब्रह्मचय का
है।०८ कषायों का निरोध ब्रह्मचर्य का पालन, जिनपूजा, अनशन आदि आत्मा और कर्म का सम्बन्ध प्रवाह की दृष्टि से अनादि है। तप के रूप कहे गये हैं १०९ तप के दो भेद हैं, बाह्य तप तथा अभ्यन्तर प्राणी अनादि काल से इस कर्म-प्रवाह में पड़ा हुआ है ।१०१ जीव पुराने तप । बाह्य तप का उद्देश्य शारीरिक विकारों का नष्ट करना तथा इन्द्रियों कर्मों का विपाक भोगते समय नवीन कर्मों का उपार्जन करता रहता है पर जय प्राप्त करना है इसके ६ भेद हैं।९० : किन्तु जब तक उसके समस्त कर्म नष्ट नहीं हो जाते उसकी भव-भ्रमण १. अनशन - विशिष्ट अविधि तक आहार का त्याग से मुक्ति नहीं होती । प्राणी को स्वोपार्जित कर्मों का फल अवश्य भोगना करना । योगबिन्दु में चाँद्रायण, कृच्छ मृत्युंजय, पापसूदन आदि तपों का पड़ता है। जैन परम्परा में कर्मों की आठ मूल प्रकृतियाँ कहीं गई हैं।१०२ उल्लेख हुआ है ।११ पहली ४ प्रकृतियाँ घाती कहलाती हैं इनमें आत्मा के चार मूल गुण २. ऊनोदरी - भूख से कम खाना । ज्ञान, दर्शन, सुख और शक्ति का घात होता है -
३. वृत्ति-परिसंख्यान - भोग्य पदार्थों की मात्रा और संख्या - १. ज्ञानावरण - आत्मा में रहने वाले ज्ञान गुण को प्रकट का कम करना। न होने देना।
४. रस-परित्याग - दूध, दही, घी, मक्खन आदि रसों का . २. दर्शनावरण - आत्म बोध रूप दर्शन गुणों को प्रकट त्याग । न होने देना।
५. विविक्तशय्यासन (संलीनता) - बाधा रहित एकान्त , ३. वेदनीय - वेदनीय कर्म के प्रभाव से सुख-दु:खं की स्थान में वास करना । । अनुभूति होती है।
६. कायक्लेश - विविध आसनों का अभ्यास करते हुये , . ४. मोहनीय- मोहनीय कर्म हमारी जीवन दृष्टि और जीवन सर्दी-गर्मी को सहना एवं देह के प्रति ममत्व का त्याग करना। व्यवहार को दूषित बनाता है।
बाह्य तप से शरीर, मन और वृत्तियों पर अनुकूल प्रभाव पड़ता . ५. आयु - कर्म के प्रभाव से जीव की आयु निश्चित होती है। मानसिक शक्तियों में वृद्धि होती है। तपोयोगी साधक बाह्य तपों है। यह आत्मा को शरीर से बांधे रखता है।
की आराधना से आन्तरिक शुद्धि की ओर अग्रसर होता है । बाह्य तप ६. नाम - जो शरीर एवं इन्द्रिय रचना का हेतु हो, यह अभ्यंन्तर तप के पूरक हैं। इससे कषाय, प्रमाद आदि विकारों का शमन व्यक्ति के व्यक्तित्व का निर्धारक होता है।
किया जाता है । अभ्यंतर तप के छ: भेद हैं।१२.. ७. गोत्र - जिसके प्रभाव से उच्च अथवा नीच कुल में जन्म १. प्रायश्चित्त - चित्त शुद्धि के लिये दोषों की आलोचना होता है या अनुकूल या प्रतिकूल परिवेश की उपलब्धि होती है। करके पापों का छेदन करता११३ है।
८. अन्तराय - यह कर्म हमारी प्राप्तियों या उपलब्धियों में २. विनय - गुरु अथवा आचार्य को सम्मान देना तथा बाधक बनता है।
उनकी आज्ञा का पालन करना । विनय से अहंकार विगलित होता है,
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४. स्वाध्याय- ज्ञान प्राप्ति के लिये अप्रमादी होकर प्रयास करना । वाचना, पृच्छना, परिवर्तना, अनुप्रेक्षा और धर्मकथा इसके पाँच भेद कहे गये हैं । ११४ ५. व्युत्सर्ग
त्याग करना ।
हृदय कोमल एवन जाता है। मन में समर्पण एवं भक्ति का अंकुर से सर्प आदि का विष दूर हो जाता है उसी प्रकार मन्त्र जप से आत्मा प्रस्फुरित होता है। से पाप दूर हो जाते हैं। किसी मन्त्र का बार-बार चिंतन-मनन करना जप ३. वैयावृत्य तथ - नि:स्वार्थ भाव से गुरु, वृद्ध, रोगी, कहा जाता है। उत्तम मन्त्र ही जप का विषय है। आचार्य हरिभद्र कहते ग्लान आदि की सेवा-शुश्रूषा करना । है गुरु तथा देव की साक्षी में पद्मासन में स्थित होकर चिंतनीय विषय में मन लगा कर दंश आदि उपद्रव को सहता हुआ साधक जप करें । १२७ मनीषियों ने शान्त एवं एकान्त-स्थल जप के लिए उत्तम कहे हैं। इसके लिये शुद्ध जलयुक्त नदी, सरोवर, कूप, वापी आदि का देह एवं वस्तुओं के प्रतिम मत्व बुद्धि का और लताओं के मण्डप आदि उत्तम स्थान कहे गये हैं । १२८ जप के लिये हाथ का अंगूठा अंगुलियों के पोरों पर अथवा मनकों पर चलता है, दृष्टि नासिका के अग्रभाग पर स्थित रहती है तथा अन्तरात्मा में प्रशांत भाव या चित्त वृत्ति से जप के विषय, अक्षर एवं तद्गत अर्थ आलम्बन के साथ जप किया जाता है ।१२९ जप से मोह, इन्द्रिय-लिप्सा, काम-वासना तथा कषायों का शमन होता है, कर्मों की निर्जरा होती है और शाश्वत सुख की प्राप्ति होती है। प्रतिज्ञापूर्वक जप करने वाले के व्यक्तित्व में ऐसी पवित्रता आ जाती है कि किसी समय अगर वह जप नहीं भी करता, तो भी उसकी अन्तर्वृत्ति जप पर ही केन्द्रित रहती है । १३० जप के फलस्वरूप भाव धर्म, अन्तः शुद्धिमूलक, अध्यात्म धर्म निष्पन्न है । १३१
भगवान् महावीर ने भी १२ वर्ष उत्कृष्ट तप की साधना की थी। इस दीर्घ कालावधि में उन्होंने केवल ३५९ दिन आहार ग्रहण किया था।११५ फलाकांक्षा से रहित किया गया तप संसार क्षय का कारण और निर्वाण प्राप्ति का अचूक साधन है ।११६
दान परमार्थ की सिद्धि के लिये दान, शील, भावना और तप ये चार प्रमुख कारण बताये गये हैं ।९१७ आचार्य हरिभद्र ने दान और परोपकार रहित सम्पत्ति को लोकविरुद्ध कहा है । ११८ सुपात्र को दिया हुआ दान उसी प्रकार फलदायक होता है जैसे गाय को दिया हुआ तृण दूध में बदल जाता है ।११९ दान से व्यक्ति के महानतम लक्ष्य परमार्थ की सिद्धि तो होती है दान से यश का संवर्धन भी होता है, लोकप्रियता मिलती हैं, दारिद्र और क्लेश का नाश होता है। कार्य करने में अक्षम, अन्ध, दु:खी, रोग-पीड़ित, निर्धन और जिनकी जीविका का कोई सहारा नहीं है ये सब दान के अधिकारी हैं । १२१ अनुकम्पाजन्य दान प्रशस्त चित्त का जनक, ममत्व का नाशक और शुद्ध पुण्य के अभ्युदय में प्रधान कारण है । १२२ शुद्ध दान देने वाला मनुष्य शाश्वत सुख सम्पत्ति को प्राप्त करता है । १२३ आचार्य हरिभद्र ने तीन प्रकार के दानों का उल्लेख किया है१. ज्ञान दान २. अभय दान ३. धर्मोपग्रह दान । ज्ञान-दान सब दानों में श्रेष्ठ माना गया है । १२४ आचार्य ने अपने पोष्यवर्ग के लिए कोई असुविधा न पैदा करते हुए तथा अपने हितों का भी ध्यान रखते हुए दीन-दुखी लोगों को दान देने की सलाह दी है। इस प्रकार उन्होंने दान के संदर्भ में व्यावहारिकता और दूरदर्शिता का परिचय दिया है। व्यक्ति के दान से आश्रित जन, परिजन और भृत्य वर्ग को कष्ट न हो यह बड़ी महत्त्वपूर्ण बात उन्होंने कही है। कुछ पुण्य-लोभी भावुक दानी होते हैं । वे स्वयं तो दानी बनते हैं किन्तु उनके आश्रित जन असुविधायें झेलते हैं। आचार्य हरिभद्र ने ऐसे दान को प्रशंसनीय नहीं माना है । मनुस्मृति में भी अपने परिवार को पीड़ित कर केवल सुख की इच्छा से दान देने वाले को दुःख का भागी कहा है । १२५
मन, वचन, काया से परिशुद्ध तथा जैनाचार के अनुकूल धार्मिक जनों को दिया गया अशन, पान, वस्त्र, औषधि आदि धर्मोपप्रदान है। 194
आचार्य हरिभद्र और उनका योग
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जप योग की प्रारम्भिक अवस्था में जप का विशेष महत्त्व है। जप अध्यात्म है, जप देवता के अनुग्रह का अंग है। जैसे मंत्र प्रयोग
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भावना अनुप्रेक्षा योग साधना में प्रवृत्त होने वाले साधक के लिये भावना का महत्त्व सबसे अधिक है मैत्री, करुणा, माध्यस्थ, प्रमोद आदि ४ भावनाओं का उपदेश देकर निवृत्ति एवं प्रवृत्ति धर्म का समन्वय करने के लिये भूमिका स्थापित की गई है। बहिर्भाव से अन्तर्भाव में रमण करना अनुप्रेक्षा है । साधक की इन्द्रियाँ तथा मन साधक को सर्वदा अपने मार्ग से विचलित करते हैं एवं उसके रागद्वेषादि में वृद्धि करते हैं। इन चंचल प्रवृत्तियों को नियंत्रित करने के लिये जो चिन्तन किया जाता है उसे भावना कहा जाता है। जैन परम्परा में भावना के महत्त्व को प्रतिपादित करते हुये कहा गया है कि दान, शील, तप, भावना ही धर्म है। इनसे संसार भ्रमण की समाप्ति की जा सकती है । १३२
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बन्धुत्व मैत्री भावना का सतत् प्रयास करने से साधक के मन में पवित्र भावों का उदय होता है। पवित्र भाव रूपी जल से साधक की द्वेष रूपी अग्नि शान्त हो जाती है। ३३ । बन्धुत्व की भावना से योगी का मन निष्कप बन जाता है । योगी अपनी वेदना, रोग एवं दुख-दर्द को भूल जाता है। जब वह अनित्यता का चिन्तन करता है, उससे वैराग्य भाव पैदा होता है और समस्त चंचल मनोवृत्तियां और बहुविध मनोकामनायें विलीन होने लगती हैं। इसी प्रकार प्राणी मात्र के प्रति मैत्री भाव, गुणी जनों के प्रति प्रमोद भाव, दुखियों के प्रति करुणा का भाव, विरोधियों के प्रति माध्यस्थ (उपेक्षा) भावना साधक की साधना को आगे बढ़ती है । आचार्य कहते हैं कि द्रव्य, क्षेत्र, काल आदि में प्रतिबन्धरहित सभी जवों पर जो मैत्री, प्रमोद, करुणा और माध्यस्थ भावना रखते हैं वे दृढ़ निश्चय वाले मोक्ष मार्ग की आराधना करने वाले
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सत्य का अनुसंधान करता है। शुभ प्रतीकों का आलम्बन, उन पर चित्त के स्थिरीकरण को ज्ञानी जनों के द्वारा ध्यान कहा गया है । १४६
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होते है । मानसिक भावना की श्रेष्ठता को महत्त्व दिया गया है १३५ । विमल विचारों के पुनः-पुनः चित्त में आते रहने से संस्कार सुदृढ़ होते हैं । सतत् भावना ही ध्यान का रूप ग्रहण करती है। भावना दो प्रकार की है - १. ऊर्ध्वमुखी (शुभ भावना) और २ अधोमुखी (अशुभ भावना)। अशुभ भावना चारित्र को दूषित करती है। इसके कारण जीव अनादि काल से इस संसार में भ्रमण कर रहा है शुभ भावना साधक को अध्यात्म एवं मुक्ति की दिशा में आगे बढ़ने में सहायता देती है। १३० सामायिक- सामायिक का अर्थ है समस्त सावद्य (पापकारी प्रवृत्तियों का विसर्जन । पापों का अपनयन ही समत्व का चरम शिखर है । समत्व से साधना का प्रारम्भ होता है। पदार्थों में इष्ट-अनिष्ट की कल्पना को केवल अविद्या का प्रभाव समझ कर उनके प्रति उपेक्षा धारण करना समता है । समत्व की साधना से कषायों के बन्धन ढीले होते हैं, वीतरागभाव प्रकट होता है। सर्वज्ञों ने सामायिक को मोक्ष का अंग कहा है ।११९ सामायिक से अन्य साधना में चित्त कुछ समय के लिये ही कल्याणकारी होता है, लेकिन सामयिक में तो चित्त पूर्ण शुद्ध होने से सदैव कल्याणकारी होता है । १४० मन, वचन एवं काया तीनों योगों के शुद्ध रूप होने से सर्वथा पाप रहित हैं । १४९ ज्ञान, तप, चारित्र के होने से ही सामायिक की विशुद्धि होती है, सामायिक केवल ज्ञान प्राप्ति का साधन है ।१४२ वीतरागंभाव की सिद्धि के लिये समभाव की साधना जरुरी है, समभाव की सिद्धि के लिये संयम जरुरी है। संयम का अर्थ है पाँच व्रतों की साधना । समता आ जाने पर योगी की वृत्ति में एक ऐसा वैशिष्ट्य आ जाता है कि वह प्राप्त ऋद्धियों और विभूतियों का प्रयोग नहीं करता, उसके सूक्ष्म कर्मों का क्षय होने लगता है और उसकी आशाओं तथा आकांक्षाओं के तन्तु टूटने लगते हैं । १४३
तत्त्वार्थसूत्र में एकाग्रचिन्तन एवं मन, वचन, काया के योगों के निरोध को ध्यान कहा गया है । १४५ उत्तराध्ययनसूत्र में कहा गया है। कि एक आलम्बन पर मन को स्थिर करने से चित्त का निरोध होता। १४० आचार्य हरिभद्र के अनुसार ध्यान से आत्म-नियंत्रण, अक्षुण्ण प्रभावशीलता, मानसिक स्थिरता तथा भव परम्परा का उच्छेद होता है । १४८ ध्रुव स्मृति ही एकाग्रता एवं ध्यान है। जब एक ही वस्तु पर स्मृति निरन्तर स्थिर रहती है, तो वह एकाग्रता बन जाती है। चेतना की यह निरन्तरता या एकाग्रता ही ध्यान है। ध्यान की प्राप्ति के लिये चार भावनाओं (ज्ञान-भावना, दर्शन-भावना, चारित्र - भावना और वैराग्यभावना) का अभ्यास आवश्यक है । १४९ ध्यान करने का अर्थ केवल श्वास- प्रेक्षा या शरीर प्रेक्षा ही नहीं है। ध्यान आलम्बनों के सहारे रागद्वेष मुक्त-क्षण में जीना है। ध्यान की सिद्धि के लिये चार बातें आवश्यक मानी गई हैं- सद्गुरु का उपदेश, श्रद्धा, निरन्तर अभ्यास और स्थिर मन ।
आचार्य हरिभद्र कहते हैं, जैसे वन्दन अपने को काटने वाली कुल्हाड़ी को भी सुगन्धित बना देता है वैसे ही जो व्यक्ति विरोधी के प्रति समभावरूपी सुगन्ध फैलाता है, उसी की सामायिक शुद्ध होती है। १४४ सामयिक में साधक नवीन कर्मों का बन्ध नहीं करता और आत्मस्वरूप में अव्यवस्थित रहने के कारण जो पूर्व बद्ध कर्म रहे हुये हैं उनकी भी निर्जरा कर देता है। सामायिक की विशुद्ध साधना से जीवघाती कर्मों को नष्ट कर केवल ज्ञान को प्राप्त कर लेता है
जैन विद्या के आयाम खण्ड- ७
ध्यान- ध्यान, तप और भावना ये तीनों शक्ति के स्रोत हैं इनके द्वारा वीतरागता उपलब्ध होती है। योग सिद्धि के लिये चंचल इन्द्रियों का निग्रह करके मन में एकाग्रता लाना आवश्यक है। मानव मन की शक्ति की कोई सीमा नहीं है। वह जितना ही एकाग्र होता है, उतनी ही उसकी शक्ति एक लक्ष्य पर केन्द्रित होती है। इसीलिये भारतीय मनीषियों ने ध्यान को सर्वोपरि माना है। राग-द्वेष की प्रवृत्तियां ही मन को अस्थिर करती हैं, इसलिये इन दोनों का निरोध चित्तवृत्ति की स्थिरता के लिये आवश्यक है। मन को केन्द्रित करने के लिये मनीषियों ने ध्यान का विधान किया है। योगी ध्यान की साधना द्वारा चित्त को एकाग्र कर, चेतना की असीम गहराइयों से उत्तरता हुआ, आध्यात्मिक
ध्यान चित्त की एकाग्रता है और अष्टांग योग के सभी अंगों में महत्त्वपूर्ण है। ध्यान से कर्मों का क्षय शीघ्रता से होता है। ध्यान से निपन्न होने वाली एकाग्रता से आध्यात्मिक विकास में अभूतपूर्व प्रगति होती है।१५० ध्यान के चार भेद कहे गये हैं १५१-
१. आर्तध्यान चेतना की प्रिय या वेदनामय एकाग्र परिणति को आर्तध्यान कहा गया है। अर्तिध्यान से कर्मों का क्षय नहीं होता, अपितु कर्मों का बन्धन बढ़ता है और कर्मों का बन्धन बढ़ने से संसार की वृद्धि होती है।
२. रौद्रध्यान अतिशय क्रूर भावनाओं तथा प्रवृत्तियों से संश्लिष्ट ध्यान रौद्रध्यान कहा जाता है । यह ध्यान भी अशुद्ध और अप्रशस्त है। रौद्रध्यान संसार की वृद्धि करने वाला और नरक गति की ओर ले जाने वाला है ।
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३. धर्मध्यान - जिससे धर्म का परिज्ञान हो उसे धर्म ध्यान कहा जाता है। इसे शुभ ध्यान कहा गया है। धर्म ध्यान की अनुभूति आंतरिक है। व्यक्ति स्वयं इसको अनुभव करने लगता है। उसका शील स्वभाव भी बदल जाता है। मैत्री की भावना जागृत होती है, माध्यस्थ भाव प्रकट होता है और मूर्छा घट जाती है।
४. शुक्लध्यान जिस साधक की विषय वासनायें और कषाय नष्ट हो जाते हैं और चित्त वृत्ति निर्मल हो जाती है उसे शुक्ल ध्यान की उपलब्धि होती है। शुक्ल ध्यान की यह उपलब्धि ही हरिभद्र की दृष्टि में हमारी योग साधना की चरम परिणति है क्योंकि यह मोक्ष का अन्यतम कारण है।
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आचार्य हरिभद्र और उनका योग
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सन्दर्भ
२४. वही, ३६
२५. वही, १५ १. पातंजलयोगदर्शन, व्या. डॉ. सुरेश श्रीवास्तव, प्रकाशक-चौखम्बा सुरभारती प्रकाशन, वाराणसी, १९९३, १/२
२६. वही, २७ २. योगशतक, संपा० डॉ० इन्दुकला हीराचन्द झावेरी, प्रका० गुजरात
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सभा, श्री राजनगर, वि० सं० १९९५, ३५२-३५७ ३. योगशतक, संपा० डॉ० इन्दुकला हीराचन्द झावेरी, प्रका० गुजरात
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३७. योगदृष्टिसमुच्चय, श्री हरिभद्र सूरि ग्रन्थ संग्रह, प्रकाशन - श्री १३. वही,
जैनग्रंथ प्रकाशन सभा, श्री राजनगर वि० सं० १९९५, ५७,५८ १४. वही, २१०, २१२
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चौखम्बा सुरभारती प्रकाशन, वाराणसी, १९९३, २/४९ । १६. वही, गा. ९
३९. योगदृष्टिसमुच्चय, श्री हरिभद्र सूरि ग्रन्थ संग्रह, प्रकाशन - श्री १७. योगबिन्दु, श्रीहरिभद्र सूरि ग्रंथ संग्रह, प्रका० श्री जैन ग्रन्थ
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चौखम्बा सुरभारती प्रकाशन, वाराणसी, १९९३, १२/५४ १८. योगदृष्टिसमुच्चय, श्रीहरिभद्र सूरि ग्रंथ संग्रह, प्रका० श्री जैन ग्रन्थ
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जैनग्रंथ प्रकाशन सभा, श्री राजनगर वि० सं० १९९५, १९. वही, ७२,७९ २०. योगबिन्दु, श्रीहरिभद्र सूरि ग्रंथ संग्रह, प्रका० श्री जैन ग्रन्थ प्रकाशक
१६२-१६९
"" ४२. पातंजलयोगदर्शन, व्याख्यान- डॉ० सुरेश श्रीवास्तव, प्रका० सभा, श्री राजनगर, वि० सं० १९९५, १७८ २१. योगशतक,संपा० डॉ० इन्दुकला हीराचन्द झावेरी, प्रका० गुजरात
चौखम्बा सुरभारती प्रकाशन, वाराणसी, १९९३, १९५९,३/१ विधान सभा भद्र, अहमदाबाद, १९५९, १३, योगबिन्दु, श्रीहरिभद्र
४३. योगदृष्टिसमुच्चय, श्री हरिभद्र सूरि ग्रन्थ संग्रह, प्रकाशन - श्री
जैनग्रंथ प्रकाशन सभा, श्री राजनगर वि० सं० १९९५, सूरि ग्रंथ संग्रह, प्रका० श्री जैन ग्रन्थ प्रकाशक सभा, श्री राजनगर, वि० सं० १९९५, २०३-५
१७०-१७१
४४. पातंजलयोगदर्शन, व्याख्यान- डॉ० सुरेश श्रीवास्तव, प्रका० २२. वही, २५ २३. वही, १४
चौखम्बा सुरभारती प्रकाशन, वाराणसी, १९९३, ३/२ ४५. योगदृष्टिसमुच्चय, श्री हरिभद्र सूरि ग्रन्थ संग्रह, प्रकाशन - श्री
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जैन विद्या के आयाम खण्ड-७
जैनग्रंथ प्रकाशन सभा, श्री राजनगर वि० सं० १९९५, ६९. वही, १७५, षोडशक, १०/२ उघृत जैन योग का आलोचनात्मक १७८,१७९, १८४.
अध्ययन, लेखक डॉ० अर्हद्दास बंडोबा दिगे पार्श्वनाथ विद्यापीठ, ४६. पातंजलयोगदर्शन, व्याख्यान- डॉ० सुरेश श्रीवास्तव, प्रका० वाराणसी, पृ०, . रभारती प्रकाशन, वाराणसी, १९९३, ३/
३ ७ ०. योगशतक, डॉ० इन्दुकला हीराचन्द झवेरी प्रका० गुजरात विधानसभा, ४७. योगशतक, संपा० डॉ० इन्दुकला हीराचन्द झावेरी, प्रका० भद्र, अहमदाबाद, १९५९, ३९ गुजरात विधान सभा भद्र, अहमदाबाद, ५
७१. योगदृष्टिसमुच्चय, श्री हरिभद्र सूरि ग्रन्थ संग्रह, प्रकाशन - श्री ४८. योगबिन्दु, श्री हरिभद्र सूरि ग्रन्थ संग्रह, प्रकाशन - श्री जैनग्रंथ जैन ग्रंथ, प्रकाशन सभा, श्री राजनगर वि० सं० १९९५, १७६
प्रकाशन सभा, श्री राजनगर वि० सं० १९९५, ३५७. ३५८. . ७२. वही, १२८ ४९. वही, ३६०
७३. वही, १३० ५०. सूत्रकृतांग, संपा- मधुकर मुनि आगम प्रकाशन समिति, व्यावर ७४. योगशतक, श्री हरिभद्र सूरि ग्रन्थ संग्रह, प्रकाशन - श्री जैन ग्रंथ, . १९८२, १५/५
. प्रकाशन सभा, श्री राजनगर वि० सं० १९९५, ८३,८४,८५ ५१. योगबिन्दु, श्री हरिभद्र सूरि ग्रन्थ संग्रह, प्रकाशन - श्री जैन ग्रंथ ७५. पातंजलयोगदर्शन, व्याख्यान- डॉ० सुरेश श्रीवास्तव, प्रका० प्रकाशन सभा, श्री राजनगर वि० सं० १९९५,३६२
चौखम्बा सुरभारती प्रकाशन, वाराणसी, १९९३, ३/३ ५२. वही,
७६. योगबिन्दु, व्याख्यान- डॉ० सुरेश श्रीवास्तव, प्रका० चौखम्बा ५३. प्रश्नव्याकरण, संवर द्वार, ५
सुरभारती प्रकाशन, वाराणसी, १९९३, २/८ ५४. योगबिन्दु, श्री हरिभद्र सूरि ग्रन्थ संग्रह, प्रकाशन - श्री जैन ग्रंथ ७७. आवश्यकहरिभद्रीयवृत्ति, पृ० २०२
प्रकाशन सभा, श्री राजनगर वि० सं० १९९५, ३६५ ७८. योगशतक, डॉ० इन्दुकला हीराचन्द झवेरी प्रका० गुजरात विधानसभा, ५५. वही, ३६६-३६७।
भद्र, अहमदाबाद, १९५९, ८३,८३ ५६. योगशतक, संपा० डॉ० इन्दुकला हीराचन्द झावेरी, प्रका० ७९. योगबिन्दु, श्री हरिभद्र सूरि ग्रन्थ संग्रह, प्रकाशन - श्री जैन ग्रंथ, गुजरात विधान सभा भद्र, अहमदाबाद, ५
प्रकाशन सभा, श्री राजनगर वि० सं० १९९५, १५६ ५७. वही, ६
८०. दशवैकालिकसूत्र, जैनशास्त्रमाला कार्यालय, लाहौर ९/४/१ ५८. योगविंशिका, संपा. यथोविजय, प्रका- जैन ग्रंथ प्रकाशन सभा, ८१. योगबिन्दु, श्री हरिभद्र सूरि ग्रन्थ संसह, प्रकाशन - श्री जैन ग्रंथ, राजनगर, वि. स. १९९७, २
प्रकाशन सभा, श्री राजनगर वि० सं० १९९५, ५९. योगविंशिका, संपा. यथोविजय, प्रका- जैन ग्रंथ प्रकाशन सभा, ८२. वही, ४९२ राजनगर, वि. स. १९९७, १७
८३. वही, ३४ ६०. पातंजलयोगदर्शन, व्याख्यान- डॉ. सुरेश श्रीवास्तव, प्रका० ८४. वही, ४९३
चौखम्बा सुरभारती प्रकाशन, वाराणसी, १९९३, ३/३ ८५. वही, ३९ ६१. योगविंशिका, संपा. यथोविजय, प्रका- जैन ग्रंथ प्रकाशन सभा, ८६. वही, ४ राजनगर, वि. स. १९९७, ३/३
८७. योगबिन्दु, श्री हरिभद्र सूरि ग्रन्थ संग्रह, प्रकाशन - श्री जैन ग्रंथ, ६२. वही, ६
प्रकाशन सभा, श्री राजनगर वि० सं० १९९५, ४१ ६३. ललितविस्तरा, १६६, १६७
८८. वही, ३७ ६४. षोडषक, जैन ग्रंथ प्रकाशक सभा, अहमदाबाद, १९३९ ८९. वही, ३८ ६५. योगबिन्दु, श्री हरिभद्र सूरि ग्रन्थ संग्रह, प्रकाशन - श्री जैन ग्रंथ ९०. वही, २२
प्रकाशन सभा, श्री राजनगर वि० सं० १९९५, ४११ ९१. वही, ५०६ ६६. योगबिन्दु, श्री हरिभद्र सूरि ग्रन्थ संग्रह, प्रकाशन - श्री जैन ग्रंथ ९२. योगदृष्टिसमुच्चय, श्री हरिभद्र सूरि ग्रन्थ संग्रह, प्रकाशन - श्री जैन
प्रकाशन सभा, श्री राजनगर वि० सं० १९९५, १५५-१६० ग्रंथ, प्रकाशन सभा, श्री राजनगर वि० सं० १९९५, २१३.. ६७. योगबिन्दु, श्री हरिभद्र सूरि ग्रन्थ संग्रह, प्रकाशन - श्री जैन ग्रंथ ९३. शास्त्रवार्तासमुच्चय, संपा- के. के. दीक्षित, भारतीय संस्कृति प्रकाशन सभा, श्री राजनगर वि० सं० १९९५, १२३
मन्दिर अहमदाबाद, १९६९,११/६९३ ६८. योगदृष्टिसमुच्चय, श्री हरिभद्र सूरि ग्रन्थ संग्रह, प्रकाशन - श्री ९४. योगशतक, डॉ० इन्दुकला हीराचन्द झवेरी प्रका० गुजरात विधानसभा,
जैन ग्रंथ, प्रकाशन सभा, श्री राजनगर वि० सं० १९९५,१७३ भद्र, अहमदाबाद, १९५९, ५४
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आचार्य हरिभद्र और उनका योग
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१२७. योगशतक डॉ० इन्दुकला हीराचन्द झवेरी प्रका० गुजरात ९९. वही, १४०
विधानसभा, भद्र, अहमदाबाद, १९५९, ६१ १००. श्रावकप्रज्ञप्ति, संपा- बालचन्द्र सिद्धान्त शास्त्री, गा० २००,२०३ १२८. योगबिन्दु, श्री हरिभद्र सूरि ग्रन्थ संग्रह, प्रकाशन - श्री जैन १०१. योगबिन्दु, श्री हरिभद्र सूरि ग्रन्थ संग्रह, प्रकाशन - श्री जैन ग्रंथ, प्रकाशन सभा, श्री राजनगर वि० सं० १९९५, ३८१ग्रंथ, प्रकाशन सभा, श्री राजनगर वि० सं० १९९५, १०
३८३ १०२. श्रावकप्रज्ञप्ति, संपा- बालचन्द्र सिद्धान्त शास्त्री, गा०४ १२९. वही,३८४-३८५ १०३. तत्त्वार्थसूत्र, संपा- पं० सुखलाल संघवी, पार्श्वनाथ शोध संस्थान, १३०. वही, ३८७ __वाराणसी, १९९७ ९/३
१३१. वही, ३८८ १०४. वही, श्राक्कप्रज्ञप्ति, संपा- बालचन्द्र सिद्धान्त शास्त्री, गा० ८१ १३२अ. योगशतक, डॉ० इन्दुकला हीराचन्द झवेरी प्रका० गुजरात १०५. अष्टकप्रकरण, जैनग्रंथ प्रकाशन समिति, राजनगर, १९३७, विधानसभा, भद्र, अहमदाबाद, १९५९, ५२.७४.७९ ६/१ .
१३२. ललित विस्तरा, पृ० २०४ १०६. पंचाशक, जैनधर्म प्रसारक सभा, भानगर, १९१२, १९/९२२ १३३. योगशतक, डॉ० इन्दुकला हीराचन्द झवेरी प्रका० गुजरात १०७. वही, १८/८९४
विधानसभा, भद्र, अहमदाबाद, १९५९,७९ १०८. वही, १९/९२९-३१
१३४. वही, ८६-८९. १०९. वही, १८/८९७, उत्तराध्ययन साध्वी चन्दना, वीरापतन प्रकाशन, १३५. पंचाशक, जैनधर्म प्रसारकसभा, भावनगर, १९१२,११/४२ __ आगरा-२, १९३३ २९/२५
१३६. योगबिन्दु, श्री हरिभद्र सूरि ग्रन्थ संग्रह, प्रकाशन - श्री जैन ग्रंथ, ११०. वही, १८/८९८
प्रकाशन सभा, श्री राजनगर वि० सं० १९९५, ७० १११. पंचाशक, जैनधर्म प्रसारक सभा, भावनगर, १९१२ १३७. शास्त्रावार्तासमुच्चय, संपा- के. के. दीक्षित, भारतीय संस्कृति ११२. पंचाशक सटीक विवरण उद्धृत, जैन योग सिद्धान्त और मन्दिर अहमदाबाद, १९६९, ४ साधना, पृ० २५९.
१३८. योगबिन्दु २५२,२७२,३६४ तत्त्वार्थसूत्रहरिभद्र, पृ० ४७८
१३९. अष्टकप्रकरण, जैनग्रन्थ प्रकाशन समिति, राजनगर, १९३७, ११३. तत्त्वार्थसूत्रहरिभद्र, पृ. ४८३-८३ ११४. वही,
१४०. वही, २९/८ ११५. आवश्यकहरिभद्रीयवृत्ति, पु. २२७-९
१४१. वही, २९/२ ११६. पंचाशक, जैनधर्म प्रसारक सभा, भावनगर, १९१२, १४२. वही, ३२/२ १९/९२२
१४३. योगबिन्दु, श्री हरिभद्र सूरि ग्रन्थ संग्रह, प्रकाशन - श्री जैन ग्रंथ, ११७. समराइच्चकहा, पं० भगवानदास, जैन सोसायटी, अहमदाबाद, प्रकाशन सभा, श्री राजनगर वि० सं० १९९५, ३६५ १९३८, १९४२, ५/४४०
१४४. अष्टकप्रकरण, जैनग्रन्थ प्रकाशन समिति, राजनगर, १९३७, ११८. वही, ७/७४७
२९/१ ११९. वही, ३/१९१
१४५. वही, ३०७/१ १२०. योगबिन्दु, श्री हरिभद्र सूरि ग्रन्थ संग्रह, प्रकाशन - श्री जैन १४६अ. योगबिन्दु,३६२
ग्रंथ, प्रकाशन सभा, श्री राजनगर वि० सं० १९९५, १२५ १४६. तत्त्वार्थसूत्र, संपा, पं० सुखलालजी, पार्श्वनाथ विद्यापीठ शोध १२१. अष्टप्रकरण, जैनग्रन्थ प्रकाशन समिति, राजनगर, १९३७ २७/५ संस्थान, वाराणसी-५ १२२. समराइच्चकहा, जैनग्रन्थ प्रकाशन समिति, राजनगर, १९३७, १४७. उत्तराध्ययनसूत्र, संपा, साध्वी चन्दना, वीरायता प्रकाशन
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१५०. वही, ३६६ १५१. सम्बोधप्रकरण, जैनग्रन्थ प्रकाशक सभा, अहमदाबाद, १९१६
आगरा-२२९/२६ १४८. योगबिन्दु, श्री हरिभद्र सूरि ग्रन्थ संग्रह, प्रकाशन - श्री जैन
ग्रंथ, प्रकाशन सभा, श्री राजनगर वि० सं० १९९५,३६३ १४९. वही, ३८८
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प्राचीन जैनग्रन्थों में कर्मसिद्धान्त का विकासक्रम
डॉ० अशोक कुमार सिंह
भारतीय चिन्तन में कर्मसिद्धान्त का अतिमहत्त्वपूर्ण स्थान है। यद्यपि जगत्-वैचित्र्य की व्याख्या के रूप में व्यक्ति के शुभाशुभ कर्मों चार्वाक दर्शन को छोड़कर भारत की सभी दार्शनिक परम्पराओं में को ही कारण माना है फिर भी उनकी दृष्टि में कर्म चित्त-सन्तति का ही कर्मसिद्धान्त का विवेचन उपलब्ध होता है । जैनदर्शन में कर्मसिद्धान्त परिणाम रहा। अत: उन्होंने कर्म को चैतसिक ही माना जबकि निर्ग्रन्थ का जो सुव्यवस्थित एवं सुविकसित रुप प्राप्त होता है वह अन्यत्र दुर्लभ परम्परा ने कर्म के चैतसिक और भौतिक दोनों ही पक्षों को स्वीकार कर है । श्रमण परम्परा के विश्रुत विद्वान् पद्मभूषण पं. दलसुख भाई एक सुव्यवस्थित कर्मसिद्धान्त की विवेचना प्रस्तुत की। मालवणिया का यह कथन अत्यन्त प्रासंगिक है - 'कर्मवाद की जैसी प्रस्तुत निबन्ध में हमारा विवेच्य जैन कर्म सिद्धान्त की विस्तृत व्यवस्था जैनों में दृष्टिगोचर होती है वैसी विस्तृत व्यवस्था व्याख्या न होकर मात्र इतना ही है कि जैन परम्परा में यह सिद्धान्त अन्यत्र दुर्लभ है । कर्मसिद्धान्त का विकास वस्तुत: विश्व-वैचित्र्य के क्रमिक रूप में किस प्रकार विकसित हुआ। डॉ० रवीन्द्रनाथ मिश्र ने कारणों की खोज में ही हुआ है । विश्व-वैचित्र्य के कारणों की विवेचना अपनी पुस्तक 'जैन कर्मसिद्धान्त उद्भव एवं विकास' में काल-क्रम की के रूप में श्वेताश्वतर उपनिषद् में काल, स्वभाव, नियति, यदृच्छा, दृष्टि से जैन कर्मसिद्धान्त के विकास-क्रम को तीन वर्गों में विभाजित कर पुरुषार्थ आदि का उल्लेख हुआ है। किन्तु विचारकों को विश्व-वैचित्र्य प्रत्येक वर्ग की मुख्य विशेषताओं को रेखांकित किया है। उनके अनुसार की व्याख्या करने वाले ये सभी सिद्धान्त सन्तोष प्रदान नहीं कर सके। ये तीन क्रम निम्नवत् हैं - प्रारम्भिक जैन ग्रन्थों (सूत्रकृतांग) भी विश्व-वैचित्र्य के कारणता सम्बन्धी १.जैन कर्म सिद्धान्त का प्रारम्भिक काल या उद्भव काल ई. इन विभिन्न सिद्धान्तों की समीक्षा की गई और इन सिद्धान्तों की निहित पू. छठी से ईसा पूर्व तीसरी शताब्दी। अक्षमता को ध्यान में रखते हुए श्रमण परम्परा में कर्मसिद्धान्त का २.जैन कर्म सिद्धान्त का व्यवस्थापन काल - ई.पू. दूसरी से आविर्भाव हुआ । इस सिद्धान्त में सर्वप्रथम यह माना गया कि वैयक्तिक ईसा की तीसरी शताब्दी । विभिन्नताओं, व्यक्ति की सुख-दुःखात्मक अनुभूति और सदसद् प्रवृत्तियों ३.जैन कर्म सिद्धान्त का विकास काल- ई.की चौथी शती । में उसकी स्वाभाविक रुचि के कारण व्यक्ति के अपने ही पूर्वकर्म होते से बारहवीं शती । हैं। यह मान्यता निर्ग्रन्थ, बौद्ध और आजीवका परम्परा में समान रूप से स्वीकृत रही। न्याय-वैशेषिक जैसे प्राचीन दर्शनों ने ईश्वर-कर्तृत्व की १. जैनकर्म सिद्धान्त का प्रारम्भि काल या उद्भवकाल अवधारणा को स्वीकार करते हुए भी वैयक्तिक विभिन्नता के कारण की डॉ. मिश्र के अनुसार प्रारम्भिक काल या उद्भव काल तक व्याख्या के रूप में ईश्वर के स्थान पर अदृष्ट या कर्म को ही प्रधानता निम्न अवधारणाएं बन चुकी थीं - १.कर्मों का शुभाशुभ फल मिलता दी है । फिर भी यह सुनिश्चित है कि श्रमण परम्पराओं में कर्मसिद्धान्त है। २.कर्म संचित होते हैं, दूसरे शब्दों में वे कालान्तर में फल देने को जो प्रधानता मिली वह ईश्वरवादी परम्पराओं में सम्भव नहीं थी की सामर्थ्य रखते हैं। कर्म या कर्म बन्ध का कारण राग-द्वेष, कषाय क्योंकि वे कर्म के ऊपर ईश्वर की सत्ता को स्थापित कर रही थीं। और मोह है। ३. संचित कर्मों के कारण पुनर्जन्म होता हैं । ४. इन
प्राचीन भारत की श्रमण परम्पराओं में आजीवक परम्परा संचित कर्मों से अर्थात् संसार-परिभ्रमण से मुक्ति हो सकती है। विलुप्त हो चुकी है और उसका कोई साहित्य उपलब्ध नहीं है । अतः तात्पर्य यह कि प्रारम्भिक काल में यद्यपि कर्म सिद्धान्त की उसमें कर्मसिद्धान्त किस रूप में था यह कह पाना कठिन है । बौद्धों ने सभी मूलभूत बातें अस्तित्व में आ चुकी थीं फिर भी इन प्राचीनतम ग्रन्थों
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प्राचीन जैनग्रन्थों में कर्मसिद्धान्त का विकासक्रम
में सुव्यवस्थित रूप से जैन कर्म सिद्धान्त का प्रतिपादन नहीं है। न तो इनमें कर्मप्रकृतियों की चर्चा है, न कर्म और गुणस्थानों के पारस्परिक सम्बन्धों की चर्चा है और न कर्मों की उदय, उदीरणा आदि विभिन्न अवस्थाओं की ही चर्चा है ।
२. कर्मसिद्धान्त का व्यवस्थापन काल
डॉ. मिश्र के इस काल अनुसार कर्म सिद्धान्त के सम्बन्ध में निम्न बातों का प्रवेश हुआ १. कर्म की मूल एवं उत्तर प्रकृतियों का - वर्गीकरण, २. कर्म की मूल एवं उनकी प्रकृतियों के बन्धन के अलगअलग कारणों का विवेचन ३ . बन्धन के ५ हेतुओं का विवेचन और उनका प्रकृतिबन्ध, स्थितिबन्ध, अनुभागबन्ध एवं प्रदेशबन्ध से सम्बन्ध तथा कर्म की उदय, उदीरणा आदि दस अवस्थाओं का उल्लेख, विभिन्न कर्म प्रकृतियों की न्यूनतम और अधिकतम सत्ता की कालावधि तथा कर्मप्रकृतियों के अलग-अलग फल विपाक की चर्चा
३. जैन कर्मसिद्धान्त का विकास काल
ईसा की चौथी से लेकर तेरहवीं शताब्दी तक व्याप्त इस काल की प्रमुख विशेषतायें निम्नवत् हैं- १. कर्म सिद्धान्त पर स्वतन्त्र ग्रन्थों की रचना, २. कर्मविद्धान्त का अन्य जैन दार्शनिक अवधारणाओं जैसे गुणस्थान, जीवस्थान, मार्गणास्थान, लेश्या आदि से सम्बन्ध, ३. कर्मप्रकृतियों का गुणस्थान और मार्गणास्थान में उदय, उदीरणा आदि की दृष्टि से विस्तृत विवेचन, ४ जैन कर्मसिद्धान्त के सन्दर्भ में उत्पन्न दार्शनिक समस्याओं का समाधान और ५. जैन कर्मसिद्धान्त को गणितीय स्वरूप प्रदान किया जाना।
यद्यपि जैन परम्परा सामान्य रूप से आगामों को और विशेष रूप से अंग-आगमों को अर्थ के रूप में महावीर की और शब्द के रूप में गणधरों की रचना मानती है किन्तु विद्वत्समुदाय अनेक कारणों से सभी आगमों यहाँ तक कि सभी अंग आगमों को भी एक काल की रचना नहीं मानता। अर्धमागधी आगम साहित्य का प्राचीनतम ग्रन्थ आचारांग का प्रथम श्रुतस्कन्ध माना गया है। विद्वान् इसे लगभग ई. पू. चतुर्थ शताब्दी की रचना मानते हैं । इसके समकालीन अथवा किंचित् परवर्ती ग्रन्थों में सूत्रकृतांग, ऋषिभाषित और उत्तराध्ययन का क्रम आता है ये तीनों ग्रन्थ ई.पू. लगभग तीसरी शताब्दी की रचना के रूप में मान्य ।
यह माना जाता है कि पार्श्वापत्य परम्परा के आगमों में जिन्हें हम पूर्वो के रूप में जानते हैं 'कर्मप्राभृत' नामक एक ग्रन्थ था, जिससे ‘कर्मप्रकृति आदि कर्म साहित्य के स्वतन्त्र गन्थों का विकास हुआ। किन्तु कर्मसिद्धान्त के ये सभी ग्रन्थ विद्वानों की दृष्टि में ई. सन् की ५वीं शताब्दी के बाद के माने गये हैं । चूँकि हमारा उद्देश्य कर्मसिद्धान्त के ऐतिहासिक विकासक्रम को देखना है अतः इन ग्रन्थों को विवेचन का आधार न बनाकर अर्धमागधी आगम के कुछ प्राचीन ग्रन्थों को ही अपनी
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विवेचन का आधार बनायेंगे। इस दृष्टि से हमने आचारांग, सूत्रकृतांग ऋषिभाषित, उत्तराध्ययन, स्थानांग और समवायांग में निहित कर्मसिद्धान्त के तत्त्वों पर विचार किया।
आचारांग की कर्म सम्बन्धी अवधारणायें
सामान्यतया कर्म शब्द का अर्थ प्राणी की शारीरिक अथवा चैतसिक क्रिया माना गया है। किन्तु कर्मसिद्धान्त की व्याख्या में । शारीरिक क्रिया या मानसिक क्रिया के कारण की और उसके परिणाम की व्याख्या को प्रमुखता दी गई, अतः कर्म के अंग बने
१. क्रिया के प्रेरक तत्त्व, २. क्रिया, ३. क्रिया का परिणाम जहाँ बौद्ध परम्परा ने क्रिया के प्रेरक तत्त्व के रूप में चैतसिक वृत्तियों को ही व्याख्यायित किया वहाँ जैन परम्परा ने क्रिया के मूल में रही हुई चैतसिक वृत्ति के साथ-साथ उसके परिणाम पर भी विचार किया। इस प्रकार कर्म की अवधारणा को एक व्यापकता प्रदान की । किसी क्रिया के मूल में रहे हुए चैतसिक भावधारा को पारिभाषिक दृष्टि से भावकर्म की संज्ञा दी गई। किन्तु कोई भी क्रिया चाहे वह चैतसिक हो या दैहिक अपने परिवेश में एक हलचल अवश्य उत्पन्न करती है। इसी आधार पर यह माना गया कि इन क्रियाओं के परिणाम स्वरूप कर्मद्रव्य आकर्षित होता है और आत्मा को बन्धन में डाल देता है। जैन परम्परा में किसी क्रिया-विशेष के द्वारा जिस पौगलिक द्रव्य का आत्मा की ओर संसरण होता है उसे द्रव्य कर्म कहा जाता हैं। आचारांग में द्रव्यकर्म और भावकर्म जैसे सुस्पष्ट शब्द का प्रयोग हमें नहीं मिलता किन्तु कर्म के चैतसिक पक्ष के साथ-साथ हमें कर्मशरीर और कर्मरज जैसी अवधारणायें स्पष्ट रूप से मिलती हैं। वस्तुतः यही कर्मशरीर और कर्मरज द्रव्यकर्म की अवधारणा के आधार बने हैं। आचारांग स्पष्ट रूप से कर्मरज और उसके आस्रव की बात करता है। इसका तात्पर्य यह है कि वह कर्म के भौतिक पक्ष या द्रव्यपक्ष को स्वीकार करता है। अतः । हम कह सकते हैं कि द्रव्यकर्म और भावकर्म की स्पष्ट अवधारणा भले ही नहीं रही हो उनके बीज के रूप में कर्मरज और कर्मशरीर की अवधारणायें उपलब्ध थीं।
आचारांग में अन्यत्र 'जो गुण है वही आवर्त है' और 'जो आवर्त है वही गुण है यह कहकर सांसारिकता के कारण के रूप में गुणों की चर्चा की गई है और यहाँ आचारांगकार का गुणों से तात्पर्य प्रकृति के तीन गुणों से ही रहा हुआ है। ये गुण प्राचीन सांख्यदर्शन में भौतिक तत्त्व में भौतिक तत्त्व के रूप में स्वीकृत हैं और उनकी प्रकृति से एकात्मकता प्रतिपादित की गई है। अतः इससे भी यही फलित होता है कि आचारांगकार के समक्ष कर्म का पौगलिक पक्ष स्पष्ट रूप से उपस्थित था चाहे उस काल तक द्रव्य कर्म और भाव कर्म जैसी पारिभाषिक शब्दावली का विकास न हुआ।
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कर्म को संसार परिभ्रमण या बन्धन का कारण मानना यह सिद्धान्त भी आचारांग के काल तक स्पष्ट रूप से अस्तित्व में आ चुका
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था। आचारांग में स्पष्ट रूप से उल्लिखित है कि जो आत्मा की पुनर्जन्म की अवधारणा को स्वीकार करता है वही आत्मवादी है, लोकवादी है और कर्मवादी है। इस प्रकार आचारांग की दृष्टि में पुनर्जन्म की अवधारणा के स्पष्ट तीन फलित हैं आत्मवाद, लोकवाद और कर्मवाद । पुनः कर्मवाद भी आत्मा और संसार की सत्ता को स्वीकार किये बिना सम्भव नहीं है। अतः कर्मवाद के लिए आत्मा और संसार का अस्तित्व अनिवार्य है। दूसरे शब्दों में आचारांग के काल में कर्मवाद, पुनर्जन्म की अवधारणा के साथ संयोजित कर लिया गया था।
आचारांग की एक विशेषता यह भी परिलक्षित होती है कि वह कर्म को हिंसा या आरम्भ के साथ संयोजित करता है। उसकी दृष्टि में कर्म या क्रियायें हिंसा के साथ जुड़ी हुई हैं और वे संसार के परिभ्रमण का कारण हैं। इसीलिए उसमें यह कहा गया है कि जो क्रिया (आरम्भ) के स्वरूप को नहीं जानता है वह संसार की विविध जीवयोनियों में परिभ्रमण करता है किन्तु जो कर्म या हिंसा के स्वरूप को जान लेता है वह परिज्ञातकर्मा मुनि सांसारिक जन्म-मरण के चक्र से ऊपर उठता है। इस कथन का स्पष्ट तात्पर्य है कि कर्म या क्रिया बन्धन का कारण है। कर्म या क्रिया से आसव होता है और वह आसव बन्धन का कारण बनता है । इसीलिए आचारांग जो भी सांसारिक विविधतायें हैं वे कर्म से उत्पन्न होती है। आचारांग में अष्टकर्म प्रकृतियों का स्पष्ट उल्लेख नहीं है । कर्म की शुभाशुभता के आधार को लेकर भी आचारांग में स्पष्ट रूप से कोई विस्तृत विवेचन उपलब्ध नहीं होता, किन्तु आचारांगकार कर्म और अकर्म तथा पापकर्म और पुण्य की चर्चा अवश्य करता है। आचारांग में अकम्मराय" निक्कमदंसी" शब्दों का प्रयोग यह बताता है कि आचारांगकार के समक्ष यह अवधारणा स्पष्ट रूप से आ गयी थी बाह्य स्वरूप के स्थान पर कर्त्ता के मनोभावों को प्रधानता देता है।
इस प्रकार आचारांग कर्मबन्ध और कर्म-निर्जरा में घटना के
कि सभी कर्म बन्धक नहीं होते हैं। पुण्य (शुभ) और पाप (अशुभ) कर्म के साथ-साथ अकर्म की यह अवधारणा हमें गीता में भी उपलब्ध होती है ।
जैन विद्या के आयाम खण्ड- ७
चाहे आचारांग में कर्म प्रकृतियों की चर्चा न हो परन्तु कर्म शरीर की चर्चा है - 'धुणे कम्मसरीरगं' १२ कहकर दो तथ्यों की ओर संकेत किया गया है - एक तो यह कि कर्म से या कर्मवर्गणा के पुद्गलों से शरीर की रचना होती है उस शरीर को तप आदि के माध्यम से धुनना सम्भव है। इस प्रकार हम देखते हैं कि आचारांग में कर्म की पौद्गलिकता, कर्मपुद्गलों का आस्रव और उसका आत्मा के लिए बन्धन कारक होना -- ये अवधारणायें स्पष्ट रूप से अस्तित्व में आ गयी थीं। इसके साथ ही कर्म से विमुक्ति के लिए संवर और निर्जरा की अवधारणाएं स्पष्ट रूप से उपस्थित थीं। दूसरे शब्दों में आचारांग में कर्म, कर्मबन्ध, कर्म आस्रव-कर्म- निर्जरा और ये शब्द प्राप्त होते हैं।
कर्मबन्ध के कारण के रूप में आचारांग में मोह, हिंसा १३ और राग-द्वेष की चर्चा उपलब्ध होती है। उसमें स्पष्ट रूप से कहा गया है कि मोह के कारण ही प्राणी गर्भ और मरण को प्राप्त होता है । १४ जो कर्म मोह और राग-द्वेष से निःसृत नहीं हैं वे कर्म भी यदि हिंसा या
परपीड़ा के साथ जुड़े हुए हैं तो भी उनसे बन्ध होता ही है। १५ आचारांग में कहा गया है कि गुणसमितिवान अप्रमादी मुनि के शरीर का संस्पर्श पाकर भी कुछ प्राणी परिताप प्राप्त करते हैं।' पाकर भी कुछ प्राणी परिताप प्राप्त करते हैं। मुनि के इस प्रकार के कर्म द्वारा उसे इस जन्म में वेदन करने योग्य कर्म का बन्ध होता है। इसका तात्पर्य यह है कि आचारांग की दृष्टि में राग-द्वेष और प्रमाद की अनुपस्थिति में भी यदि हिंसा की घटना घटित होती है तो उससे कर्म बन्ध तो होता ही है। इसका तात्पर्य यह है कि ईर्यापथिक कर्म को जो अवधारणा विकसित हुई है उसके भी मूलबीज आचारांग में उपस्थित हैं । फिर भी हमें यह स्मरण रखना चाहिए कि बन्धन के मिध्यात्व आदि पाँच कारणों की चर्चा, अष्टकर्म प्रकृतियों की चर्चा, कर्म की दस अवस्थाओं की चर्चा आचारांग के काल तक अनुपस्थित रही होगी।
आचारांग में कर्मसिद्धान्त के सम्बन्ध में महत्त्वपूर्ण तथ्य यह उपलब्ध होता है कि एक ओर आचारांगकार किसी निमित्त से होने वाली हिंसा की घटना से ही अप्रमत्त मुनि को इस जन्म में वेदनीय कर्म का बन्ध मानता है किन्तु वह दूसरी ओर इस सिद्धान्त का स्पष्ट रूप से प्रतिपादन करता है कि बाह्य घटनाओं का अधिक मूल्य नहीं है। वह स्पष्ट रूप से यह कहता है कि 'जो आस्रव हैं वे ही परिश्रव हैं, अर्थात् कर्म निर्जरा के रूप में परिणत जो परिश्रव अर्थात् कर्म निर्जरा के हेतु हैं वही आस्रव के हेतु बन जाते हैं। इसका तात्पर्य यही है कि कौन सा कर्म आस्रव के रूप में और कौन सा कर्म परिश्रव के रूप में रूपान्तरित होगा इसका आधार कर्म का बाहय पक्ष न होकर कर्त्ता की मनोवृत्ति ही होगी ।
सूत्रकृतांग की कर्म सम्बन्धी अवधारणा
आचारांग की अपेक्षा सूत्रकृतांग के प्रथम श्रुतस्कन्ध को विद्वानों ने किंचित् परवर्तीीं माना है। कर्मसिद्धान्त की दृष्टि से विचार करने पर हम पाते हैं कि आचारांग की अपेक्षा सूत्रकृतांग में कर्म सम्बन्धी अवधारणाओं का क्रमिक विकास हुआ है। वह कहता है कि प्राणी इस संसार में स्वकृत कर्मों के फल का भोग किये बिना उनसे मुक्त नहीं हो सकता है। १७ इस सन्दर्भ में सूत्रकृतांग की यह स्पष्ट मान्यता है कि जो व्यक्ति पूर्व में जैसे कर्म करता है उसी के अनुसार वह बाद में फल प्राप्त करता है । १८ व्यक्ति का जैसा कर्म होगा वैसा ही उसे फल प्राप्त होगा । सूत्रकृतांग में स्पष्ट रूप से इस बात का भी प्रतिपादन है कि व्यक्ति अपने ही किये कर्मों का फल भोगता है । १९ व्यक्ति के सुख-दुःख के कारण उसके स्वकृत कर्म हैं अन्य व्यक्ति या परकृत कर्म नहीं ।"
कर्मबन्ध के कारणों की चर्चा के रूप में सूत्रकृतांग में हमें दो महत्त्वपूर्ण उल्लेख प्राप्त होते हैं। सूत्रकृतांग के प्रारम्भ में परिग्रह या आसक्ति को ही हिंसा या दुष्कर्म का एकमात्र कारण माना गया है। २१ आगे चलकर प्रथम अध्ययन के द्वितीय उद्देशक २२ में यह कहकर कि
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प्राचीन जैनग्रन्थों में कर्मसिद्धान्त का विकासक्रम
अन्त:करण में व्याप्त लोभ, समस्त प्रकार की माया, अहंकार के विविध देखते हैं कि आचारांग और सूत्रकृतांग की अपेक्षा ऋषिभाषित में रूप और क्रोध का परित्याग करके ही जीव कर्मबन्धन से मुक्ति प्राप्त कर्मसिद्धान्त पर्याप्त रूप से विकसित अवस्था में मिलता है । कर्म, कर सकता है, सूत्रकृतांग में चारों कषायों को भी कर्मबन्धन के कारण अकर्म२६ की चर्चा के साथ-साथ शुभाशुभ कर्म की चर्चा३७ तथा के रूप में स्वीकार कर लिया गया है । बन्धन के कारणों की इस चर्चा शुभाशुभ कर्मों से अतिक्रमण की चर्चा ऋषिभाषित में ही सर्वप्रथम में सूत्रकृतांग में प्रकारान्तर से प्राणातिपात, मृषावाद, अदत्तादान और मिलती है । ऋषिभाषित ही ऐसा ग्रन्थ है जिसमें स्वर्ण और लोह-बेड़ी मैथुन से अविरति को भी कर्मबन्धन का कारण माना गया है ।२२ इस की उपमा देकर२९ पुण्य-पाप कर्म से अतिक्रमण की चर्चा है। सर्वप्रथम प्रकार चाहे स्पष्ट रूप से नहीं परन्तु प्रकारान्तर से उसमें मिथ्यात्व, अष्ट कर्मग्रन्थि की चर्चा करने वाला भी यही ग्रन्थ है । ऋषिभाषित में अविरति, प्रमाद और कषाय को योग के साथ बन्धन का कारण मान कर्म के ५ आदान या कारण३९ स्पष्ट रूप से उल्लिखित हैं। लिया गया हैं । अत: बन्धन के जिन पाँच कारणों की चर्चा परवर्ती इसमें यद्यपि कर्म की दस अवस्थाओं की चर्चा नहीं है फिर साहित्य में उपलब्ध है उसका मूलबीज सूत्रकृतांग में उपलब्ध है । यहाँ भी सोपादान, निरादान, विपाकयुक्त, उपक्रमित और अनुदित कर्मों का स्मरण रखना चाहिए कि कषायों की यह चर्चा 'जे कोहं दंस्सि से माणं विवरण उपलब्ध होता है। साथ ही उपक्रमित, उत्करित, बद्ध, स्पष्ट दस्सि' आदि के रूप में आचारांग में आ गयी है । सूत्रकृतांग की और निधत्त कर्मों के संक्षेप एवं क्षय होने एवं निकाचित कर्मों के अवश्य विशेषता यह है कि वह इन कारणों से कर्मबन्धन को स्वीकार करता ही भोगने का उल्लेख है।४३
ऋषिभाषित इस बात पर स्पष्ट रूप से बल देता है कि कोई कर्मसिद्धान्त के सन्दर्भ में सूत्रकृतांग इस बात को स्पष्ट रूप व्यक्ति स्वकृत शुभाशुभ कर्मों का ही फल भोगता है ।४२ से स्वीकार करता है कि व्यक्ति स्वकृत कर्मों के फल का ही भोक्ता होता इस प्रकार हम देखते है कि ऋषिभाषित के काल तक जैन है। वह न तो अपने कर्मों का विपाक दूसरों को दे सकता है न दूसरों कर्मसिद्धान्त पर्याप्त रूप से विकसित अवस्था को प्राप्त हो जाता है। के कर्मों का विपाक स्वयं प्राप्त कर सकता है।
भले ही इसमें अष्ट कर्मप्रकृतियों के अलग-अलग नामों का उल्लेख न कर्म के द्रव्य और भावपक्ष की इन नामों से चर्चा इसमें नहीं हो किन्तु अष्ट कर्मग्रन्थि का उल्लेख होने से यह माना जा सकता है कि मिलती है किन्तु 'कर्मरज'२५ और कर्म का त्वचा के रूप में त्याग जैसे कर्मों की अष्ट मूलप्रकृतियों की चर्चा उस युग तक आ चुकी था । यदि उल्लेखों से स्पष्ट रूप से हमें लगता है कि उसमें कर्म के द्रव्य पक्ष की हम कर्मसिद्धान्त की दृष्टि से विचार करें तो ऐसा प्रतीत होता है कि स्वीकृति रही हुई है । पुनः 'प्रमाद कर्म है और 'अप्रमाद अकर्म' है यह आचारांग और सूत्रकृतांग की अपेक्षा ऋषिभाषित पर्याप्त रूप से विकसित कहकर ६ सूत्रकार ने कर्म के भावपक्ष को भी स्पष्टत: स्वीकार कर लिया ग्रन्थ है। किन्तु कुछ विद्वानों ने इसे आचारांग और सूत्रकृतांग के प्रथम है। कर्म के पुण्य-पाप, कर्म और अकर्म२७, ऐसे तीन पक्षों की चर्चा श्रुतस्कन्ध का समकालीन माना है। इस सन्दर्भ में एक विकल्प यह भी सूत्रकृतांग में उपलब्ध होती हैं । जहाँ तक कर्मप्रकृतियों की चर्चा का माना जा सकता है कि ऋषिभाषित मुख्य रूप से पार्थापत्य परम्परा का प्रश्न है सूत्रकृतांग में मात्र दर्शनावरण८ का उल्लेख मिलता है। इससे ग्रन्थ रहा हो और पार्थापत्य परम्परा में कर्मसिद्धान्त की विकसित चर्चा ऐसा लगता है कि सूत्रकृतांग में कर्मप्रकृतियों की चर्चा के मूलबीज धीरे- भी उपलब्ध हुई है क्योंकि इस ग्रन्थ में कर्मसिद्धान्त का जो विकसित धीरे प्रकट हो रहे थे। कर्म के ईर्यापथिक२९ और साम्परायिक इन दो रूप मिलता है वह मुख्यरूप से इसके 'पार्श्व' नामक अध्ययन में रूपों की चर्चा का प्रश्न अकर्म और कर्म से जुड़ा हुआ है किन्तु इन उपलब्ध होता है । साथ ही कर्मसिद्धान्त के चैतसिक पक्ष और पारिभाषिक शब्दों का प्रयोग हमें सर्वप्रथम सूत्रकृतांग में मिलता है। कर्मसन्तति की जो विशेष चर्चा उस ग्रन्थ में पायी जाती है, वह भी मुख्य प्रथम श्रुतस्कन्ध में साम्परायिक और द्वितीय श्रुतस्कन्ध में तेरह क्रियास्थानों रूप से महाकश्यप, सारिपुत्र, वज्जिपुत्र आदि बौद्ध ऋषियों के उपदेशों की चर्चा के सन्दर्भ में ईर्यापथिक का उल्लेख आया है ।३१ के रूप में ही है । इसलिए यह सम्भावना पूरी तरह से असत्य नहीं हो
कर्म की दस अवस्थाओं में से हमें उदय२२, उदीरणा और सकती कि पापित्य परम्परा में महावीर की अपेक्षा एक विकसित कर्मक्षय की चर्चा मिलती है। कर्मनिर्जरा के सम्बन्ध में उल्लेख है कर्मसिद्धान्त उपलब्ध था । कि तप के द्वारा कर्मक्षय सम्भव है और सम्पूर्ण कर्म का क्षय हो जाने पर परम सिद्धि प्राप्त होती है ।३५ इस प्रकार हम देखते हैं कि सूत्रकृतांग उत्तराध्ययन की कर्मसम्बन्धी अवधारणा में आचारांग के प्रथम श्रुतस्कन्ध की अपेक्षा कर्मसिद्धान्त का क्रमिक अंग-आगम साहित्य में आचारांग के पश्चात् स्थानांग, समवायांग विकास हुआ है।
और भगवतीसूत्र ऐसे ग्रन्थ हैं जिनमें कर्मसिद्धान्त का विकसित रूप
उपलब्ध होता है । किन्तु विद्वानों के अनुसार इन तीनों ग्रन्थों में ऋषिभाषित की कर्मसम्बन्धी अवधारणायें
परवर्तीकाल की सामग्री को अन्तिम वाचना के समय संकलित कर ___ कर्मसिद्धान्त के इस क्रमिक विकास की चर्चा में हम यह लिया गया । इसलिए कर्मसिद्धान्त के विकास की दृष्टि से इन ग्रन्थों
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की चर्चा न कर उत्तराध्ययन में उपलब्ध कर्म सम्बन्धी विवरणों की चर्चा का विवरण भगवती में विस्तार से मिलता है यहाँ केवल एक ही गाथा करना चाहेंगे। उत्तराध्ययनसूत्र में ३३ वें अध्ययन को छोड़कर अन्य में इसका वर्णन है। अध्ययनों में जो कर्मसिद्धान्त सम्बन्धी चर्चायें मिलती हैं वे आचारांग अत: हम इस निष्कर्ष पर पहुँचते हैं कि उत्तराध्ययन में ३३वें और सूत्रकृतांग की अपेक्षा किंचित् विकसित प्रतीत होती हैं । किन्तु अध्ययन में यद्यपि कर्मसिद्धान्त का व्यवस्थित विवरण है फिर भी उनमें उन्हीं सब तथ्यों की चर्चा है जो सूत्रकृतांग में उपलब्ध होते हैं। परवर्ती साहित्य में और भी विस्तृत विवेचना की गई है । उदाहरण के कर्म कर्ता का अनुसरण करता है ।४५ सभी जीवों को अपने कर्म के लिए इसमें नामकर्म की दो शुभ और अशुभ-दो ही उत्तरप्रकृतियों का अनुसार फल भोगना पड़ता है । ६ कामभोगों की लालसा के कारण उल्लेख है जबकि आगे चलकर इसके ४२,६७,९३ एवं १०३ भेदों कर्मपरमाणुओं का आत्मा के साथ बन्ध होता है किन्तु जो रागादि भावों की चर्चा मिलती है। से रहित होता है उसे बन्ध नहीं होता है। कर्म अपने शुभाशुभ इससे स्पष्ट है कि उत्तराध्ययन के पश्चात् भी जैन कर्मसिद्धान्त अध्यवसायों एवं विपाकों के अनुसार पुण्य और पाप रूप होता है।८ का विकास होता गया। ये चर्चायें ऐसी हैं जो प्रकारान्तर से आचारांग और सूत्रकृतांग में भी उपलब्ध हैं । उत्तराध्ययन में कर्म को कर्म-ग्रन्थि, कर्मकंचुक, कर्मरज, स्थानांगसूत्र कर्मगरु. कर्मवन, आदि कहने के जो ठल्लेख उपलब्ध हैं। वे सब भी आचारांग, सूत्रकृतांग, ऋषिभाषित एवं उत्तराध्ययन की तुलना हमारे समक्ष नवीन तथ्य प्रस्तुत नहीं करते हैं । उत्तराध्ययन का मात्र में स्थानांग में कर्म-सिद्धान्त का विकसित रूप प्राप्त होता है। स्थानांग ३३वाँ अध्याय ऐसा है जिसमें आचारांग, सूत्रकृतांग, ऋषिभाषित की के आरम्भ में उल्लेख है कि इस जीवन या अगले जीवन में कर्मों का अपेक्षा कर्मसिद्धान्त के विकसित रूप मिलते हैं । इस अध्याय की फल अवश्य मिलता है। स्थानांग में देवताओं, नारकों, मनुष्यों आदि प्राचीनता के सम्बन्ध में विद्वानों में मतभेद है फिर भी यह अध्याय ई.पू. के कर्मफल के उपभोगकाल का निर्धारण करते हुए वर्तमान भव एवं का ही माना जाता है । ऋषिभाषित में जो अष्टकर्मग्रन्थि का उल्लेख अन्य भव में होने वाले कर्मफल विपाक'६ की चर्चा है । इसमें कर्म की आया है. इसकी भी विस्तृत व्याख्या उत्तराध्ययन में उपलब्ध है। अवान्तर प्रकृतियों से सम्बन्धित दो प्रकार के विवरण मिलते हैं । इसके आगम साहित्य में अष्टमूलप्रकृतियों और उनके अवान्तर भेदों की चर्चा द्वितीय स्थान के चतुर्थ उद्देशक५६ में अठों मूलप्रकृतियों का दो-दो करने वाला यह प्रथम ग्रन्थ है । सम्भवतः उत्तराध्ययन में ही सर्वप्रथम अवान्तर प्रकृतियों में ही वर्गीकरण है - देश एवं सर्व, ज्ञानावरणीय एवं अष्टकर्म प्रकृतियों को घाती और अघाती कर्म में वर्गीकृत किया गया दर्शनावरणीय की ,साता और असाता, वेदमीय कर्म की एवं दर्शन और है।५१ इसमें ज्ञानावरणीय की ५, दर्शनावरणीय की ९, वेदनीय की २ चारित्र, मोहनीय कर्म की। आयुष्य कर्म अद्धायुष्य (कायस्थिति की मोहनीय की २८, आयुष्य की ४, नाम कर्म की २, गोत्र की २ और आयु) और भवायुष्य (उसी भव की आयु), नाम कर्म-शुभ और अशुभ, अन्तराय कर्म की ५ उत्तरकर्मप्रकृतियों का उल्लेख है ।५२ उत्तर गोत्र कर्म-उच्च और नीच तथा अन्तराय कर्म -- प्रत्युत्पन्नविनाशि एवं कर्मप्रकृतियों के विवरण५२ की विशेषता यह है कि दर्शनावरणीय की पिहित-आगामिपथ दो प्रकार का बताया गया है। स्थानांग में ही अन्यत्र उत्तरप्रकृतियों के क्रम में आज की दृष्टि से अन्तर है। वेदनीय की साता- उपर्युक्त भिन्न ज्ञानावरणीय के ५५९, दर्शनावरणीय के ९६ एवं नोकषाय असाता दोनों के अनेक भेद बतायें गये हैं। मोहनीय कर्म के दर्शन एवं वेदनीय के ९५१ भेदों का उल्लेख है। प्रसंगवश वेदनीय कर्म की दो चारित्र मोहनीय दो भेदों में से चारित्र मोहनीय के उपभेद नोकषाय अन्य अवान्तर प्रकृतियो क्षुधा वेदनीय६२ और लोभ वेदनीय कर्म६३ का मोहनीय के ७ या ९ भेद बताये गये हैं । नाम कर्म के पहले शुभ और भी उल्लेख मिलता है। अशुभ भेद किये गये फिर इन दोनों के अनेक भेदों की सूचना दी गई। स्थानांग में उत्तर कर्मप्रकृतियों का वर्गीकरण यह इंगित में गोत्र कर्म के दोनों भेदों-उच्च और नीच के आठ-आठ भेद बताये गये उपलब्ध करता है कि वर्तमान पद्धति से भिन्न एक अन्य परम्परा भी उत्तर
प्रकृतियों के वर्गीकरण की विद्यमान थी। उस वर्गीकरण में सरलीकरण इसमें मूल प्रकृतियों और उत्तरप्रकृतियों का वर्णन करने के दिखलाई पड़ता है। जैसे ज्ञानावरणीय और दर्शनावरणीय के देश अर्थात पश्चात् प्रदेशों का परिमाण, क्षेत्र, काल और भाव का निरूपण है। अशत: और सर्व ऐसे दो भेद थे । इसी प्रकार आयुष्य कर्म की भी
इसमें कर्म की मूलप्रकृतियों की अधिकतम और न्यूनतम वर्तमान जन्म की आयु और भविष्य में होने वाले जन्म की आयु के स्थिति की चर्चा है। इन कर्मप्रकृतियों की कालावधि के सम्बन्ध में एक विचार की दृष्टि से दो ही भेद किये जाते थे तथा अन्तराय कर्म का भी महत्त्वपूर्ण चर्चा यह है कि वेदनीय कर्म की जघन्य स्थिति एक विभाजन वर्तमान में प्राप्त वस्तु का विनाश और भविष्य में होने वाले अन्तर्महर्त५४ की बतायी गयी है वहाँ अन्यत्र १२ अन्तर्मुहर्त बतायी गयी लाभ के मार्ग में बाधा- ये दो भेद थे। उल्लेखनीय है कि कर्म प्रकृति
के द्विविध वर्गीकरण में से मात्र वेदनीय की साता और असाता तथा गोत्र आत्मा के द्वारा कर्मपद्गलों के ग्रहण करने और उनकी संख्या कर्म की उच्च और नीच ही प्रचलित परम्परा में व्यवस्थित हैं । शेष के
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प्राचीन जैनग्रन्थों में कर्मसिद्धान्त का विकासक्रम
वर्गीकरणों की संख्या में परिवर्तन हुआ है। आगमों के ग्रन्थबद्ध होने और योग का एक साथ भी निर्देश कर दिया गया है। परन्तु इससे के पूर्व मूलप्रकृतियों के इस प्रकार वर्गीकरण के पीछे सम्भवतः स्मरण पूर्ववर्ती ऋषिभाषित में इन पाँच कारणों का उल्लेख प्राप्त होता है अत: सुविधा की दृष्टि मुख्य रही होगी।
कर्म सिद्धान्त के विकास की दृष्टि से इसमें उल्लेख होना विशेष अवान्तर प्रकृतियों का जो उल्लेख स्थानांग के अलग-अलग महत्त्वपूर्ण नहीं है। स्थानों में प्राप्त होता है उसमे ज्ञानावरणीय की ५, दर्शनावरणीय की ९, इसमें किन-किन कारणों से मुनष्य अल्पायुष्यकर्म, दीर्धवेदनीय की दो और गोत्रकर्म की दो अवान्तर प्रकृतियों का उल्लेख आयुष्यकर्म का बन्ध करता है इसका सर्वप्रथम उल्लेख मिलता है।७४ प्रचलित परम्परा के ही अनुरूप है, परन्तु उसमें नोकषाय वेदनीय कर्म यही नहीं स्थानांग में नारक, तियँच, मनुष्य और देवायु बाँधने के कारणों के जो ९ भेद बताये गये हैं वे परम्परागत वर्गीकरण में नोकषाय मोहनीय पर भी विचार किया गया है.५ जो कर्म-सिद्धान्त के विकास की दृष्टि से कर्म के ९ भेद माने जाते हैं । यद्यपि इनके नाम आदि में समरूपता है महत्त्वपूर्ण है। नैरयिक जीवों से लेकर वैमानिक तक के सभी दण्डकों किन्तु इन्हें नोकषाय वेदनीय कर्म क्यों कहा गया है, यह विचारणीय है। को जीवों द्वारा छ: प्रकार का आयुबन्ध बताया गया है । ६ परभविक स्थानांग में दस की संख्या वाले तथ्यों का ही संकलन करने के कारण आयुर्बन्ध के प्रसंग में नैरयिक से लेकर वैमानिक तक के सभी जीवों के मोहनीय कर्म की २८ और नाम कर्म की उत्तर प्रकृतियों का उल्लेख भुज्यमान आय के छ: मास के अवशिष्ट रहने पर नियम से परभव की स्थानांग में न होना स्वाभाविक प्रतीत होता है परन्तु अन्तराय कर्म की आयु का बन्ध करते हैं. यह उल्लेख है। स्थानांग की यह अवधारणा ५ अवान्तर प्रकृतियों का उल्लेख न होना विचारणीय है। यहाँ यह दिगम्बर मान्यता के विपरीत है कि असंख्यात वर्ष की आयु वाले मनुष्य उल्लेख करना अप्रासंगिक नहीं होगा कि उत्तराध्ययन के ३३वें और तियँच वर्तमान भव की आय के नौ माह शेष रहने पर परभव की अध्ययन में अन्तराय की दान, लाभ, भोग, उपभोग और वीर्ययाँ ये ५ आयु का बन्ध करते है।८ अवान्तर प्रकृति नाम सहित निर्दिष्ट हैं इससे यह निष्कर्ष निकाला जा जीवों को सदा प्रतिक्षण मोहनीय कर्म का बन्धन होने का सकता है कि उत्तराध्ययन का सह अध्ययन स्थानांग का उत्तरवर्ती है और उल्लेख है । ९ मोहनीय कर्म के उदय से उन्माद, प्रमाद, तथा मैथुन साथ ही उत्तर प्रकृतियों की संख्या में क्रमिक विकास हुआ है। संज्ञा उत्पन्न होने का निर्देश है ।८२ लोभ वेदनीय कर्म के उदय से परिग्रह
कर्म के प्रदेश और अनुभाव दो प्रकार बताये गये हैं।६५ हिंसा संज्ञा होने का उल्लेख है ।। आदि दुष्टकर्मों को दुश्चीर्ण कर्म (दुच्चिण्ण), तप आदि कर्मों को सुचीर्ण स्थानांग में कर्म की अवस्थाओं में उपचय, बन्ध, उदीरणा, (सुचिण्ण)६६ कहा गया है यद्यपि इनका सैद्धान्तिक दृष्टि से विशेष वेदना और निर्जरा का उल्लेख है । एक स्थल पर जीवों द्वारा आठ महत्व नहीं है क्योंकि इनका अर्थ क्रमश: दुष्टकर्म या पापकर्म और कर्म प्रकृतियों का संचय, उपचय, बन्ध, उदीरणा, वेदन और निर्जरण पुण्यकर्म है और कर्मों के पुण्य और पाप होने की अवधारणा आचारांग का उल्लेख है। सूत्रकृतांग में चर्चित उदय और बन्ध की अपेक्षा कर्म में आ चुकी थी । स्थानांग में कर्म के शुभत्व-अशुभत्व पर भी सम्यक् की अवस्थाओं की दृष्टि से अतिरिक्त सूचना भी मिलती है । परन्तु विचार किया गया है। इसे प्रकृति और बन्ध के चार भंगों के माध्यम स्थानांग सहित पूर्ववर्ती सभी ग्रन्थों में कर्म की दसों अवस्थाओं का से व्यक्त किया गया है - १.शुभ और शुभ २.शुभ और अशुभ ३.अशुभ अभाव यह इंगित करता है कि इनका विकास क्रमशः हुआ है और
और शुभ ४.अशुभ और अशुभ । भंगों में प्रयुक्त प्रथमपद प्रकृति और स्थानांग के काल तक दसों अवस्थाओं की अवधारणा नहीं बनी थी। द्वितीय पद अनुबन्ध के लिए है । इसी प्रकार प्रकृति और विपाक की - स्थानांग में कर्म-प्रकृतियों के वेदन और क्षय का आध्यात्मिक दृष्टि से चार भंगों में कर्म का शुभत्व और अशुभत्व बताया गया है ।६८ दृष्टि से भी विचार किया गया है । यद्यपि इस दृष्टि से कुछ बिखरे हुए क्रिया स्थानों के सम्बन्ध में कर्म के ईर्यापथिक और सम्परायिक कर्म का सूत्र ही प्राप्त होते हैं - क्षीणमोह वाले अर्हन्त के तीन सत्कर्म एक साथ भी उल्लेख एक साथ आया है।६९ यद्यपि सूत्रकृतांग के प्रथम श्रुतस्कन्ध नष्ट होते हैं - ज्ञानावरणीय, दर्शनावरणीय और अन्तराय।५ प्रथम में ईर्यापथिक और द्वितीय श्रुतस्कन्ध में साम्परायिक कर्म की चर्चा है समयवर्ती केवली जिन के ज्ञानावरणीय, दर्शनावरणीय, मोह और परन्तु सूत्रकृतांग का द्वितीय श्रुतस्कन्ध प्रथम श्रुतस्कन्ध से बाद का आन्तरायिक ये चार कर्म क्षीण हो चुके होते हैं।६ प्रथम समयवर्ती सिद्ध माना जाता है। अत: यदि सूत्रकृतांग के द्वितीय श्रुतस्कन्ध को स्थानांग के चार सत्कर्म एक साथ क्षीण होते हैं - वेदनीय, आयु, नाम और से परवर्ती माना जाय तो स्थानांग का यह उल्लेख महत्त्वपूर्ण माना जा गोत्र ।८७ सकता है।
इस प्रकार हम देखते हैं कि कर्म की अवान्तर प्रकृतियों के स्थानांग में कर्मबन्ध के चार प्रकारों-प्रकृति, स्थिति, अनुभाग पूर्ण व्यवस्थापन से पूर्व की स्थिति का ज्ञान स्थानांग से होता हैं । इसमें और प्रदेश का तथा बन्ध के दो प्रकारों-प्रेय और द्वेष बन्ध का उल्लेख कर्मबन्ध, उनके कारणों आदि के सम्बन्ध में सूक्ष्मता से विचार की है। चारकषाय २ और प्रमाद का अलग-अलग निर्देश होने के साथ- प्रकिया आरम्भ हो चुकी थी । कर्म की अवस्थाओं के सम्बन्ध में भी साथ आस्रव के ५ कारणों के रूप में मिथ्यात्व, अविरति, प्रमाद, कषाय पूर्ववर्ती ग्रन्थों की अपेक्षा विकास परिलक्षित होता है। साथ ही आयुष्य
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कर्म के सम्बन्ध में परभव की आयु बाँधने का नियत समय भी की गवेषणा करने वाले उपायों की अपेक्षा चौदह जीवस्थान कहे गये हैं उल्लिखित है। ।" इस प्रकार समवायांग तक भले ही वर्तमान चौदह गुणस्थानों का अस्तित्व आ चुका था पर वे अभी जीवस्थान नाम से जाने जाते थे । विभिन्न आध्यात्मिक विकास वाले जीवों को बँधने वाली कर्म प्रकृतियों का भी उल्लेख समवायांग में मिलता है- सूक्ष्मसम्पराय भाव में वर्तमान सूक्ष्मसम्पराय भगवान् केवल सत्रह कर्म प्रकृतियों को बाँधते है । ९६ संक्लिष्ट परिणाम वाले अपर्याप्तक मिथ्यादृष्टि विकलेन्द्रिय (द्वीन्द्रिय, श्रीन्द्रिय चतुरिन्द्रिय) जीव नाम कर्म की २५ उत्तर प्रकृतियों को बाँधते हैं।" देवगति, नरकगति को बाँधने वाले जीव द्वारा २८ कर्म प्रकृतियों को बाँधने का भी निर्देश है। इसी क्रम में प्रशस्त अध्यवसाय से | युक्त सम्यग्दृष्टि भव्य जीव द्वारा तीर्थकर नाम कर्म के अतिरिक्त नाम कर्म की २८ कर्म प्रकृतियों को बाँधकर नियमपूर्वक वैमानिक देवों में उत्पन्न होने का उल्लेख हैं । ९९ समवायांग में आठों मूल प्रकृतियों की अवान्तर प्रकृतियों में से कुछ को समाविष्ट कर और कुछ को छोड़कर उनका योग बताया गया है। यद्यपि इसका कर्म सिद्धान्त के विकास की दृष्टि से विशेष महत्त्व नहीं हैं। इन पर दृष्टिपात करने से इसी तथ्य की पुष्टि होती है कि नाम कर्म को छोड़कर शेष सात कर्म-प्रकृतियों की संख्या नियत हो चुकी थी।
समवायांग
यह सामान्य अवधारणा है कि समवायांग एक संग्रह ग्रन्थ है। इसे ग्रन्थ-बद्ध करते समय उस काल पर्यन्त विद्यमान जैन धर्म-दर्शन सम्बन्धी अनेक अवधारणाओं को इसमें संगृहीत कर लिया गया है। इसमें कर्मसिद्धान्त सम्बन्धी उल्लेखों का अवलोकन करने से भी इसी अवधारणा की पुष्टि होती है। समवायांग में कर्म सिद्धान्त सम्बन्धी जो उल्लेख मिलते हैं संक्षेप में उन्हें इस प्रकार प्रस्तुत किया जा सकता है उत्तर प्रकृतियों की संख्या, विभिन्न कर्मों की उत्तर प्रकृतियों की संख्या का अलग-अलग योग, कर्मबन्ध के कारण, मोहनीय कर्म के बन्ध के ३० कारण, मोहनीय कर्म के ५२ नाम और विभिन्न आध्यात्मिक जीवों की दृष्टि से अवान्तर कर्म प्रकृतियों की सत्ता और बन्ध का निर्देश । उपरोक्त तथ्यों के अतिरिक्त भी जैन कर्म सिद्धान्त के यत्र-तत्र कुछ बिखरे हुए सूत्र मिलते हैं जिनका विवेचन आगे किया जा रहा है।
1
समवायांग के आरम्भ में बन्धन के दो प्रकारों - राग और द्वेष का पाँच कारणों मिध्यात्व अविरति प्रमाद, कषाय और योग का उल्लेख है जिसकी चर्चा ऋषिभाषित और स्थानांग में आ चुकी है। दर्शनावरणीय की ९, मोहनीय कर्म की २८ और नाम कर्म की ४२ अवान्तर प्रकृतियों का नाम निर्देश इसमें मिलता है। सम्भवतः समवायांग में अन्तिम दो के नाम पहली बार निर्दिष्ट हैं। जहाँ तक दर्शनावरणीय कर्म की अवान्तर प्रकृतियों के नाम-निर्देश पूर्वक उल्लेख का सम्बन्ध है इससे पूर्व उत्तराध्ययन और स्थानांग में ये आ चुकी हैं। नाम कर्म की उत्तर प्रकृतियों की संख्या की दृष्टि से इसका विकास होता रहा क्योंकि आगे चलकर नाम कर्म की अवान्तर प्रकृतियों की संख्या क्रमशः ६७,९३, और १०३ तक प्राप्त होती है। मोहनीय कर्म के ५२ नामों का भी उल्लेख है जिसमें क्रोध कषाय के १०, मानकषाय के ११, माया कषाय के १७ और लोभ कषाय के १४ नाम सम्मिलित हैं । समवायांग में विभिन्न जीवों की दृष्टि से अवान्तर कर्म प्रकृतियों की सत्ता का भी निर्देश चार स्थलों पर आया है । २१ वें समवाय में उल्लेख है कि दर्शनमोहत्रिक को क्षय करने वाले निवृत्तिबादर को मोहनीय कर्म की २१ अवान्तर प्रकृतियों की सत्ता रहती है ।११२६ वें समवाय में अभव्यसिद्धिक जीवों को मोहनीय कर्म के २६ कर्माश प्रकृतियों की सत्ता रहती हैं। २७यें समवाय में वेदक सम्यक्तव के बन्ध रहित जीव को मोहनीय कर्म की २७ प्रकृतियों की सत्ता कही गई है। इसी प्रकार २८वे समवाय में यह उल्लिखित है कि कितने भव्यसिद्धिक जीवों के मोहनीय कर्म की अट्ठाईस प्रकृतियों की सत्ता होती है 12
यद्यपि समवायांग में गुणस्थान पद नहीं आया है परन्तु चौदह जीवस्थान कहकर चौदह गुणस्थान गिना दिये गये हैं। कर्मों की विशुद्धि
इसके अतिरिक्त मोहनीय कर्म के बन्ध और स्थिति से सम्बन्धित कुछ प्रकीर्ण सूचनायें मिलती हैं। समायांग में मोहनीय कर्म-बन्ध के तीस कारण गिनाये गये हैं१०१ जिनका निर्देश उत्तराध्ययन ०२, आवश्यकसूत्र १३ और दशाश्रुतस्कन्ध १९४ में भी मिलता है । छेदसूत्र दशाश्रुत स्कन्ध के नवें अध्याय (दशा) में इनका विस्तार से उल्लेख हैं। समवायांग की प्रस्तावना में श्री मधुकर मुनि ने बताया है कि टीकाकारों के अनुसार मोहनीय शब्द से सामान्य रूप से आठों कर्म और विशेष रूप से मोहनीय कर्म ग्रहण करना चाहिए। तात्पर्य यह है कि मोहनीय कर्म के इंगित कारणों को सामान्य कर्म-बन्ध के कारणों के रूप में भी लिया जा सकता हैं ।
इस प्रकार हम देखते है कि समवायांग में अवान्तर प्रकृतियों की दृष्टि से नाम कर्म की ४२ उत्तर प्रकृतियों का नाम सहित निर्देश होना, मोहनीय कर्म के ५२ नाम, मोहनीय कर्म बन्ध के ३० कारण, जीवस्थानों (गुणस्थानों) की दृष्टि से जीवों को बँधने वाली कर्मप्रकृतियों की सूचना ये कुछ ऐसी विशेषतायें हैं जो कर्म सिद्धान्त के विकास की दृष्टि से महत्तवपूर्ण है और कर्म सिद्धान्त के विकासक्रम को द्योतित करती है।
सन्दर्भ-ग्रन्थ
१. पं. दलसुख भाई मालवणिया, 'आत्ममीमांसा' जैन संस्कृति संशोधन मण्डल, बनारस ५ १९५३, पृ० ९५
२.
३.
से. डॉ. तुलसी राम शर्मा ईस्टर्न बुक लिंकर्स, दिल्ली, १९७६.१२/२ डॉ. रवीन्द्रनाथ मिश्र जैन कर्म सिद्धान्त उद्भव एवं विकास,
६५, पार्श्वनाथ शोधपीठ, वाराणसी-५, १९९३, पृ० ६-१८
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प्राचीन जैनग्रन्थों में कर्मसिद्धान्त का विकासक्रम
३२. वही २/२/६ ३३. वही, ५/१/८
३४. वही २/१/१५
३५. असेसम्म विसोहइत्ता अणुत्तरणं परमसिद्धि ६/१८, वही । ३६. सं. महोपाध्याय विनयसागर ऋषिभाषित - प्राकृत भारती अकादमी, जयपुर, १९८८,४/७
३७. वही, ४/१२,१३
४. मुणी मोणं समादाय धुणे कम्मसरीरगं, १/२/६/१६३ आचारांग - अंगसुत्ताणि प्रथम, आचार्य महाप्रज्ञ, जैन विश्वभारती लाडनू प्रथम सं. १९७४
५. डॉ. परमेष्ठीदास जैन आचारांगसूत्र एक अध्ययन, पार्श्वनाथ शोधपीठ, वाराणसी- ५, १९८७, पृ० १३०
६. जे गुणे से आवट्टे, जे आवट्टे से गुणे, १/१/५/९३आचारांग-लाडनूं १९७४
७. से आयावाई, कम्मावाई, किरियावाई, १/१/५ वही । अपरिणाय कम्मे खलु अयं पुरिसे. अणेगरूवाओं जोणी ओ संघई, १/१/१/८, वही,
८.
एवं
से हु मुणी परिण्णाय कम्म, १/१/१/१२, वही ।
९. कम्मुणा उवाही जायइ, १/३/१/८/९, वही ।
१०. अकम्मस्स, १/३/१/१८, वही ।
११. णिक्कम्मर्दसी, २/३/२/३५, वही । १२. वही सन्दर्भ ३
१३. कम्ममूलं च जं छण, १ / २ / ३ / २१ कामेसुगिद्धाणिचयं करोति, १/१/३/३१, वही ।
१४. मोहेण गर्भ मगाइ एति २/५/१/७, वही ।
१५. एगया गुण सविस्स रीयता कायसंफास समणुचिण्ससा एगतिया पाणा उददायंति ।
इहलोग वेयण वेज्जावडियं ।। १/५/४/७१-७२ वही। १६. जे आसवा ते परिस्सवा, जे परिस्सवा ते आसवा, १/४/२/ १३४, वही
१७. सयमेव कडेहिं गाहंति, सूत्रकृतांग जैन आगम प्रकाशन समिति, ब्यावर, १९८२, २/१/४
१८. जं जारिसं पुव्यमकासि कम्मं तमव आगच्छति सम्पराएं एवं जहांकडं कम्म तहासिभारे, वही ५/२/२३ एवं ५ /१/२६
,
१९. सव्वे समयकम्मकप्पिया, वही, २/३ / १७
२०. वही, २ / ३ / १७ व २/१/४
२१. से जाइजाइं बहुकूरकम्मे, जं कुव्वइ भिज्जइ तेण वाले । २२. वही, १/२/२६ २७
२३. वही
२४. वही,
२५. वही, २ / २९
२६. पमायं कम्ममाहंसु, अप्पमायं तहाऽवरं । वहीं, ८/३
२७. वही, ८/३
२८. दंसणावरणंताए वही १५/१
-
२९. वही, ७/७
३०. वही, ८/८
३१. वही, द्वितीय श्रुतस्कन्ध, २ अध्ययन
३८. वही, ४/११, १२, १३.९/२-३-४
३९. वही, ४/१२-१३
४०. वही, ९/७
४९. वही, क्रमश: ३८/८, ९, ९/५, ९/७, ३१/९ ४२. वही ९/९
४३. वही, ९ / २-३
४४. गच्छति कम्मेहिं से सकम्मसिते, वही २-३,४/१२-१३
४५. उत्तराध्ययन, सं. मधुकर मुनि-आगम प्रकाशन समिति, व्यावर, १९८४, १३/२३-२४
४६. वही, ४ / ३
४७. वही २५/४१-४३
४८. वही ४/३ व ३/१०-११
४९. वही, क्रमशः २९ / ३१,१७,९, २२, ३/११, १०/३, ७/९ व १८/४९
५०. वही, ३३/१-१६ ५१. वही
५२. वही, ३३/१.१६
५३. वही, ३३/१८
५४. उत्तराध्ययन, ३३/१८
५५. वही, २५ / ४३
५६. स्थानांगसूत्र- सं. मधुकर मुनि आगम प्रकाशन समिति,
व्यावर, १९८१, २/२/७७
५७. वही, २/४/४२४-४३१
५८. वही, २/४/४३१
५९. वही ५/२/९
६०. वही, ९/१४
६९. वही, ९/६९
६२. वही ४/४/५७९
६३. वही, ४/४/५८२
६४. वही, ३३ / १५
६५. वही, २/३/२६५
६६. वही, ४/२५० ६७. वही, ४ / ६०२-६०३ ६८. वही, २/१/४
९७
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जैन विद्या के आयाम खण्ड-७
६९. वही, ७०. वही, ४/२९० ७१. वही, २/३९३ ७२. वही, २/३९४ ७३. वही, ४/९२-९४ ७४. वही, ५/१०९ ७५. वही, ३/१/१७-१८ ७६. वही, ४/६२८-३१ ७७. वही, ६/११६-११८ ७८. वही, ६/११९-१२३ ७९.गोम्मटसार (जीवकाण्ड) ५/७ की टीका ८०. स्थानांग, ८१. वही, २/७५ व ६/४३ ८२. वही, ८३. वही, ४/४/५८१ ८४. वही, २/१/४ ८५. वही, ४/६५८ ८६. वही, ३/४/५२७ ८७ वही, ४/१/१४२ ८८. वही, ४/१/१४४ ८९. समवायांग-सं.मधुकर मुनि-सं.मधुकर मुनि-आगम प्रकाशन
समिति, ब्यावर, १९८२, २/९
९० वही, ५२/२८४ ९१. वही, २१/१४५ ९२. समवायांग, २६/१७५ ९३. वही, २७/१८० ९४. वही, २८/१८७ ९५. वही, १४/९५ ९६. वही, १७/१२२ ९७. वही, २५/१६९ ९८. वही, २८/१८४ ९९. वही, २९/१९३ १००. वही, ३९/२३८/, ५२/२८६, ५५/२९७, ५८/३०३
आदि १०१. वही, ३०/१९६ १०२. उत्तराध्ययन, ब्यावर, ३१/१९ १०३. आवश्यकसूत्र-सं.मधुकर मुनि अध्याय ४आगम प्रकाशन
समिति, ब्यावर, १९८५, १०४. दशाश्रुतस्कन्ध-अध्याय ९, अनु.आत्माराम, जैनशास्त्रमाला
कार्यालय, लाहौर, १९३६ १०५.समवायांग- मधुकरमुनि-भूमिका पृ० ३४
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जैन धर्म में अनीश्वरवादः एक विश्लेषण
डॉ. डी. आर. भण्डारी,
विश्व के अनेक धर्म ईश्वर के अस्तित्व में विश्वास रखते हैं। जैन दर्शन का अनीश्वरवादःको सर्वव्यापक सर्वशक्तिमान, अनन्त. सर्वज्ञ पर्ण आदि
जैन दर्शन ने आत्मा से अलग ईश्वर की सत्ता को स्वीकार नहीं मानते हैं। ईश्वर सत्, शुभ, न्यायपरायण, दयालु, कल्याणकारी एवं किया है। जैन दर्शन ने आत्मा को ही सर्वज्ञ एवं सर्वशक्तिमान, (अनंत परम-आध्यात्मिक सत्ता है। यह सर्वश्रेष्ठ मूल्य और सर्वश्रेष्ठ साध्य है। वीर्य से युक्त) माना गया है । आत्मा अनंत ज्ञान प्रकाश से परिपूर्ण है, यही सब आदर्शों का आधार है। पाश्चात्य दर्शन में प्लेटो ने 'शुभ के अतः आत्मा अपने मूल रूप में शुद्ध है । चेतन और परमचेतन दो प्रत्यय' को ईश्वर माना है। अरस्तू ने उसे 'आदि संचालक, स्पिनोजा ने विभिन्न अवस्थाएँ नहीं हैं। 'अप्पा सो परमप्पा' अर्थात् जो आत्मा है वही उसे 'वस्तुओं का सार्वभौम सिद्धान्त', लाइबनित्ज ने उसे 'चिद्-बिन्दु- परमात्मा है, यही जैन धर्म का मूल उद्घोष है अपने मूल स्वरूप में सम्राट', बर्कले ने उसे 'महाप्रयोजन' के रूप में तथा हेगेल ने उसे आत्मा शुद्ध, बुद्ध, निर्विकार एवं निरंजन है । वह सांसारिक कर्म भूमि 'निरपेक्ष चैतन्य' के रूप में मान्यता दी है। भारतीय दार्शनिक परम्परा में 'कर्मों के आवरण में बंधनों में बंध जाती है, परन्तु संवर एवं निर्जरा में ऋग्वेद में एक अदृश्य सत्ता के रूप में ईश्वर का चिन्तन आरम्भ की साधना से पुन: पूर्णत: निर्मल होकर सर्वज्ञ बनने का पुरूषार्थ आत्मा हआ। वैदिक परम्परा के ऋषि अदृश्य शक्तियों को दिव्य रूप में में है। अत: मनुष्य स्वयं परमात्मत्व प्राप्त कर सकता है । अत: ईश्वर स्वीकार कर स्तुति करने लगे। इस प्रकार प्रारम्भिक बहुदेववाद के जैसी किसी अन्य सत्ता को स्वीकार करने का प्रश्न ही नहीं उठता। साथ-साथ एकेश्वरवाद भी सहज रूप में अस्तित्व में आ गया। ईश्वरवाद अपनी अनिश्वरवादी धारणा को पष्ट करने हेत जैन धर्म बहत की यह अवधारणा उपनिषद् काल में पल्लवित हुई, साथ ही श्रमण से तर्क देता है। उनका कथन है कि जो धर्म या दर्शन ईश्वर को स्वीकार विचारधारा से भी प्रभावित हुई इस संगम में आध्यात्मिकता का समावेश करके उसे सृष्टिकर्ता, पालनकर्ता एवं संहारकर्ता मानते हैं साथ ही ईश्वर हुआ फलस्वरूप प्राकृतिक तत्त्वों के चिन्तन के साथ आत्मतत्व का को अजन्मा, शाश्वत, निरंजन, निराकार मानते हैं तो उनकी इन मान्यताओं अनुचिन्तन भी प्रारम्भ हुआ ज्ञानपक्ष महत्वपूर्ण बनता गया । इस में कई अन्तर्विरोध खड़े हो जाते हैं जैसे कि - जो अशरीर वाला है वह वैचारिक परिवर्तन द्वारा वेदकालीन बहुदेववाद के स्थान पर एक कर्ता कैसे हो सकता है एवं यदि ईश्वर कर्ता है तो उसका कर्ता कौन सर्वशक्तिमान, अनंत, नित्य, अनिर्वचनीय ईश्वर के नाम से अभिहित हुई है? अगर सृष्टि का निर्माण एवं विनाश करने वाले अलग-अलग ईश्वर यही सत्ता की स्थापना हुई।
हैं तो उनके बीच सामंजस्य करने वाला तत्व कौन है, क्या है ? यदि भारतीय दार्शनिक परम्पराओं में चार्वाक,बौद्ध एवं जैन दर्शन ईश्वर निरंजन, निराकार एवं सर्वव्यापी है तो उसे हाथ-पैर, आदि अंगों, में ईश्वर की सत्ता को स्वीकार नहीं किया गया है, अत: तीनों दर्शन मस्तिक वाला कैसे मान लिया गया ? ईश्वर की सत्ता के कारण कोई 'अनीश्वरवादी' हैं। शेष अन्य दाशनिक परम्पराओं में ईश्वर की सत्ता को मानव ज्ञान या भक्ति के आधार पर केवल ज्ञानी या भक्त बन सकता है, स्वीकार किया है अत: वे ईश्वरवादी दर्शन माने गए हैं । ईश्वरवादी ईश्वर के निकट पहुँच सकता है परन्तु इर्श्वर नहीं हो सकता है, ऐसा दाशनिक परम्पराओं में ईश्वर को विश्व का स्रष्टा, पालनकर्ता एवं क्यों ? जैन धर्म के अनुसार ईश्वरवाद को स्वीकार करने पर हमारे समक्ष संहारकर्ता के रूप में माना गया है। इनमें ईश्वर की परिकल्पना उपरोक्त प्रश्न खड़े हो जाते हैं जिनका संतोषप्रद उत्तर मिल पाना सर्वशक्तिमान, सर्वज्ञ, अनंत, नित्य, स्वंयभू के रूप में की गई है। असम्भव है। इसलिए उन्हें ईश्वर की धारणा स्वीकार्य नहीं है । अपने ईश्वर सर्वोपरि सत्ता, जीवात्मा से विलक्षण, एकमात्र एवं सर्वप्रभुत्व सत्ता अनिश्वरवाद के पक्ष में जैन धर्म ने कुछ तर्क प्रस्तुत किए हैं जो कि निम्न सम्पन्न है । वह जैसा चाहता है वैसा ही होता है । उसके निर्देश के है। अभाव में पत्ता भी नहीं हिल सकता। असम्भव को सम्भव एवं सम्भव को असम्भव करने की शक्ति उसी में केन्द्रित है । सारे कर्मों का कर्ता ईश्वर कर्ता नहीं हो सकता : . ईश्वर है तथा वही कर्मों का फलदाता भी है जिसे जीवात्मा को वहन जैन धर्म की मान्यता है कि जड़ और चेतन तत्त्व अनादि व करना होता है। ईश्वर अनादि मुक्त है, शिष्टानुग्रह तथा दुष्टोनिग्रह के लिए अनंत है तथा यह विराट विश्व मूलत: इन दो तत्वों का विस्तार है। यह उसे बार-बार अवतार लेना पड़ता है।
सत् है अत: न तो इसका निर्माण संभव है और न विनाश । अत: इस दृष्टि से कर्ता या संहारक रूप में ईश्वर की सत्ता मान्य नहीं हो
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जैन विद्या के आयाम खण्ड-७ सकती। साथ ही अनुमान द्वारा भी यह प्रमाणित करना सम्भव नहीं है हैं। यदि यह सत्य है तो ईश्वर का निरंजन-निराकार स्वरूप कैसे मान्य कि ईश्वर ने धरती और आकाश बनाया । अशरीरी ईश्वर कर्ता नहीं हो हो सकता है । यदि वह जादूगर है, मनचाहे अनेक रूप बनाने वाला है सकता। यही सृष्टि का नियम है। साथ ही किसी भी मूल तत्त्व का तो उसका मुक्त-सिद्ध-बुद्ध आत्मा का परिचायक होना मान्य नहीं हो उत्पाद और विनाश संभव नहीं है : जो सम्भव है वह है केवल परिणमन सकता, जिसके लिए मुमुक्ष या साधक भक्ति के लिए लालायित रहे। एवं रूपान्तरण मात्र । साथ निरपेक्ष सर्वत्र माने जाने वाले ईश्वर को सृष्टि की रचना या निर्माण के प्रपंच में पड़ने की क्या आवश्यकता है बनाना ईश्वर का अजन्मा एवं अपुरूषार्थी रूप मान्य नहीं :
और मिटाना तो अबोध बालकों का धर्म या स्वभाव है । जैन-धर्माचार्यों ईश्वरवादियों की यह मान्यता कि 'परमात्मा भूत काल में भी का कहना है कि दयामय प्रभु पहले तो चोर,डाकू, हत्यारे आदि पापी था-वर्तमान में भी है- एवं भविष्यकाल में भी रहेगा'ईश्वर का यह लोगों का निर्माण करता है फिर उन्हें दण्ड देता है, नर्क में भेजता है, देशकालातित रूप अजन्मा रूप है । जैन धर्म एवं दर्शन को बिना किसी यह एक को शोभा नहीं देता । इस प्रकार जैन धर्म में ईश्वर की सत्ता कर्ता पुरूषार्थ के ईश्वर के अस्तित्व की स्वत: स्वरूप धारणा कतई मान्य नहीं के रूप में मान्य नहीं है।
है । उन्हें जो मान्य है वह है माँ के गर्भ से पैदा होना एवं पुरूषार्थ से
ईश्वर बनना । जैन धर्म की यह दृढ़ मान्यता है कि ज्ञान-दर्शन-चरित्र-तप ईश्वर की सर्वशक्तिमान धारणा मान्य नहीं :
की सतत् साधना के बिना कोई परमात्मा नहीं बन सकता अर्थात पुरूषार्थी जैन धर्म का यह कथन है कि यदि ईश्वर सर्वशक्ति सम्पन्न है मानव ही अपनी सतत् साधना से परमात्मा बन जाता है। बिना पुरूषार्थ तो वह कुछ भी कर सकता है, वह दूसरा ईश्वर भी बना सकता है । यदि के संसार की उपादेयता ही नहीं रह जाती अत: जैन धर्म को अपुरूषार्थी ईश्वर में दूसरा ईश्वर बना सकने की शक्ति नहीं है तो वह सर्वशक्ति सम्पन्न ईश्वर मान्य नहीं है। नहीं है।
इस प्रकार जैन धर्म में अलग से ईश्वर की मान्यता स्वीकार
नहीं की गई है । उनके अनुसार आत्मा ही परमात्मा बन सकती है। स्वरूप दर्शन एवं विद्यमानता भी अमान्यः
तीर्थकर महावीर ने आत्मा पर स्वयं परमात्मा बनने का दायित्व डाला भगवद् गीता एवं अन्य ईश्वरवादी ग्रन्थों में ईश्वर को सर्वज्ञ जो कि ज्ञान, चरित्र, दर्शन, तप एवं आराधना द्वारा ही सम्भव है। उन्होंने हाथ-पैर , आँख-कान, मस्तक व मुँह वाला कहा हैं । शुक्लयजुर्वेद मानव जाति को परमात्म पद प्राप्त करने की स्वतंत्रता प्रदान की एवं में बताया गया है कि ईश्वर सब ओर आँखों वाला, सब ओर मुख वाला, उसे परमात्मा बनने के लिए प्रेरित किया। सब ओर हाथ वाला एवं सब ओर पैर वाला है एवं सारी सृष्टि में व्याप्त
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स्याद्वाद की अवधारणा : उद्भव एवं विकास
डॉ० सीताराम दुबे
धार्मिक परिवेश में कायक्लेशप्रधान जैन धर्म जहाँ अपनी एक विशेष उपकरण से अणु अथवा सूक्ष्म रूप में दिखाई देता है, वहीं अहिंसावादी अपरिग्रही नीतियों के लिये विख्यात है; वहीं दार्शनिक दूसरे उपकरण से तरङ्ग के रूप में लक्षित होता है । अत: जब द्रव्य परिप्रेक्ष्य में वह अपने "अनन्तधर्मकं वस्तु" तथा "अनेकान्तात्मकार्थ विशेष ही गुण-पर्याय, सामान्य-विशेष आदि की दृष्टि से बहुधर्मी है; तब कथनं स्याद्वाद:" जैसे सिद्धान्तों से निष्पन्न अनेकान्त एवं स्याद्वाद के विविध द्रव्यों के संयोग से बने जगत् के बारे में कहना ही क्या ? कारण प्रख्यात है । वस्तुत: जैन धर्म के इन दो आधार स्तम्भों को भी विविध घटकों अथवा पदार्थों, गण-पर्याय, सामान्य-विशेष किसी न किसी रूप में उनके "अहिंसावाद" एवं "सूनृत सत्य' से आदि की दृष्टि से एकाधिक धर्म की सापेक्ष स्वीकृति ही अनेकान्तवाद प्रभावित एवं क्रमिक विकास का परिणाम मानना चाहिए । जैन धर्म के है; परन्तु यहाँ यह ध्यातव्य है कि जैन धर्म की यह अनेक-धर्मिता सामान्य अध्ययन से प्रायः सुस्पष्ट है कि इन दार्शनिक सिद्धान्तों को सर्वधर्मिता नहीं है। वस्तुओं में विविध धर्मों का परिलक्षण "मुण्डे मुण्डे दार्शनिक धरातल पर व्यापक रूप में प्रस्थापित करने का प्रारम्भ प्रथम- मतिर्भिन्ना" की तरह मात्र दृष्टिभेद, अपेक्षा-भेद अथवा मन पर निर्भर रहने द्वितीय शताब्दी ईसवी से हुआ और समय-समय पर १८वीं शती तक के कारण नहीं; वरन् वस्तुओं में अन्तर्निहित बहुधर्मिता भी है । अत: जैनाचार्यों ने अपने दार्शनिक चिन्तन एवं समन्वयी वृत्ति से इसे और जैनियों के इस अनेकान्तात्मवाद को वस्तुवाद, विशेषकर वस्तुसापेक्षवाद अधिक प्रभावी बनाने का प्रयत्न किया। इन पर अनेक दार्शनिक ग्रन्थों से अभिहित करना युक्ति संगत होगा। इसे अनेकान्तवाद, सापेक्षवाद की रचना की । अपने वर्णित रूप में स्याद्वादी सिद्धान्त का आज भी आदि अन्य नामों से भी जाना जाता है। महत्त्व है; परन्तु इसका मूल बीज महावीर स्वामी की शिक्षाओं में ही अनेक दार्शनिक ग्रन्थों में “स्यात्" अव्यय को “अनेकान्त" सन्निविष्ट दिखाई देता है । इसके पूर्व वैदिक ब्राह्मण मान्यताओं तथा का द्योतक मानते हुए अनेकान्तवाद को ही स्याद्वाद कहा गया है; किन्तु समसामयिक बुद्ध के उपदेशों में वस्तुओं में विविध धर्मों एवं रूपों की जहाँ द्रव्य में एकाधिक धर्मों की स्वीकृति “अनेकान्तवाद" है; वहीं द्रव्य प्रतीति एवं उनकी अभिव्यक्ति की परम्परा लक्षित होती है। प्रस्तुत में "अनेकान्त" के अनुभूतिपरक ज्ञान की वाणी द्वारा अभिव्यक्ति शोधपत्र में अनेकान्त सम्बलित स्याद्वाद की उत्पत्ति, अभिप्राय एवं 'स्याद्वाद ।६ अत: “अनेकान्तवाद” एवं "स्याद्वाद' को क्रमश: प्रकाश्य विकास की व्याख्या का प्रयत्न किया गया है।
एवं प्रकाशक, ज्ञान एवं अभिव्यक्ति आदि के रूप में स्वीकार करना लोक-परलोक, आत्मा-परमात्मा, जड़-चेतन, बन्धन-मोक्ष अधिक तर्कसम्मत होगा । जैन दर्शन की दृष्टि में यह स्याद्वाद अनेकान्त भारतीय दर्शन की विचारणा के मूल बिन्दु हैं। इनके अस्तित्व, स्वरूप, के अभिव्यक्ति की यथेष्ट पद्धति है । इस प्रकार "उत्पादव्ययध्रौव्य गुणघटक मूल अथवा सञ्जात होने आदि के बारे दार्शनिक शाखाओं में विलक्षण परिमेय", "अनेकान्तवाद" एवं “स्याद्वाद" ये तीनों परस्पर मतभेद हैं । वेदान्त, सांख्य, मीमांसा आदि जहाँ सामान्य की सत्ता को अन्योन्याश्रित हैं । इन्हें जैन दर्शन के आधारभूत स्तम्भ के रूप में स्वीकार करते हैं, वहीं बौद्ध दर्शन विशेष की । वैशेषिक दर्शन सामान्य स्वीकार किया जाता है। प्रथम "उत्पादव्ययध्रौव्य'' त्रिलक्षण के कारण एवं विशेष दोनों की सत्ता को स्वीकार करते हुए उनको परस्पर स्वतन्त्र जहाँ द्रव्य में "अनेकान्त" की अनुभूति होती है वहीं "स्याद्वाद" के मानता है और समवाय के माध्यम से उन्हें सम्बद्ध बताता है । जैन दर्शन माध्यम से उस अनुभूति की तथ्यपरक प्रस्तुति की जा सकती है। यद्यपि वैशेषिक दर्शन की ही तरह सामान्य एवं विशेष की सत्ता को तो इस स्याद्वाद के व्युत्पत्तिपरक अर्थ, प्रयोजन आदि के बारे में स्वीकार करता है; किन्तु उसकी दृष्टि में दोनों परस्पर स्वतन्त्र न हो जैन दार्शनिकों में मतभेद है । कतिपय भारतीय दार्शनिकों ने इसे सापेक्ष हैं और यही जैन दर्शन का अपना वैशिष्ट्य है। इसके अनुसार अर्धसत्य का परिव्यापक और संशय का जनक कहा है। पंडित बलदेव जगत् विविध द्रव्यों का संघात है और द्रव्य "उत्पाद-व्यय-ध्रौव्य" उपाध्याय की दृष्टि में इसे संशयवाद के रूप में नहीं लिया जा सकता। विलक्षण युक्त होता है। गुण की दृष्टि से यह नित्य तथा पर्याय की दृष्टि वे इसका “सम्भव" अर्थ कर रहे प्रतीत होते हैं जबकि डा० नन्दकिशोर से परिवर्तनशील है । जीव द्रव्यार्थिक दृष्टि से शाश्वत और भावार्थिक देवराज ने “स्यात्" से "कदाचित्" का अभिप्राय लिया है। हीरालाल दृष्टि से अशाश्वत है । वस्तु अथवा द्रव्य में विविध गुणों की अवस्थिति जैन ने "स्यात्' को “अस्" धातु के विधिलिङ्ग का अन्यपुरुष स्वीकार आज के वैज्ञानिक प्रयोगों से भी सिद्ध है । क्वान्टम भौतिकी सिद्धान्त करते हुए “ऐसा हो' "एक सम्भावना यह भी है" जैसे दो आशयों की को इसके प्रमाण के रूप में प्रस्तुत किया जा सकता है । एक अणु जहाँ पुष्टि की है ।१० परन्तु इन मतों के गुण-दोषों के विवेचन तथा
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"स्वात् " शब्द पर समग्र रूप से विचार करने पर इसका "कथंचित्" अर्थ लेना ही अधिक वस्तुपरक लगता है।
इस प्रकार “स्यात्” का अर्थ होगा- "सापेक्षिक दृष्टिकोण" । स्यादस्त्येव का अर्थ होगा स्वरूपादि की अपेक्षा वस्तु है ही मज्झिम निकाय के राहुलोवादसुत्त में राहुल को उपदेश देते हुए स्वयं बुद्ध भी "सिया", जिसका आशय "स्यात्" से लिया जा सकता है, का प्रयोग किया है, १२ जहाँ वह "तेजो धातु' के दो सुनिश्चित भेदों के संज्ञान में सहायक सिद्ध हुआ है । "स्यादस्ति" वाक्य में जहाँ " अस्ति" द्रव्य अथवा उसके गुण-विशेष के अस्तित्व का प्रतिपादन करता है, वहीं " स्यात्" पद उस द्रव्य में समुपस्थित नास्तित्व और अन्य अनेक धर्मों के रहने की ओर संकेत करता है। जैन चिन्तन के अनुसार कोई भी प्रत्यय तभी सत्य हो सकता है जब वह बाह्य वस्तु के धर्म को अभिव्यक्त करे ।" अतः "स्याद्वाद" भाषा का वह निर्दोष प्रकार है जिसके द्वारा अनेकान्त वस्तु के परिपूर्ण और यथार्थ स्वरूप के अधिकाधिक समीप पहुँचा जा सकता है।
जैन विद्या के आयाम खण्ड- ७
जैन दर्शन का यह सुस्पष्ट मन्तव्य है कि जगत् का कोई भी द्रव्यविशेष बहुधर्मी है । अतः उसका निःशेष ज्ञान "केवलिन्” को छोड़कर किसी सामान्य व्यक्ति के लिए सम्भव नहीं है। स्वयं 'केवलिन्' भी जिस पर्याय को उसने कल भविष्यत् रूप से जाना था, आज उसे वर्तमान रूप से जानता है, अतः केवलिन का ज्ञान भी काल भेद से बदलता रहता है क्योंकि प्रत्येक "द्रव्य" पर्याय की दृष्टि से परिवर्तनशील है । १४ द्रव्य के सम्पूर्ण ज्ञान के बावजूद यदि सुपात्र नहीं है तो उसे समग्रज्ञान की अनुभूति नहीं कराई जा सकती। अतः समग्रशान की अनुभूति और उसकी युगपत् समग्र अभिव्यक्ति अत्यन्त कठिन या प्रायः असम्भव है। किसी भी नय में प्रयुक्त "स्यात्" पद से वस्तु के उन धर्मों की ओर परोक्ष संकेत होता है जिनका उस "नय" विशेष में उल्लेख तक नहीं होता, ताकि व्यक्ति के मन में वस्तु की अनेकधर्मिता की प्रतीति बनी रहे । वह एकाङ्गी निर्णय से बचा रह सके, दूसरे व्यक्ति मत सम्प्रदाय के अनुभूतिजन्य निर्णय के प्रति भी यथावश्यक सम्मान व्यक्त करे ।
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ब्राह्मण, जैन एवं बौद्ध साहित्य के सामान्य अध्ययन से महावीर स्वामी का काल दार्शनिक चिन्तन-मनन एवं बौद्धिक क्रान्ति के युग के रूप में उभरकर सामने आता युग के रूप में उभरकर सामने आता है। इस युग में प्रवृत्तिमार्गी ब्राह्मण परम्परा, यज्ञ-प्रथा, अन्धविश्वास आदि पर अनेक आक्षेपों के प्रचलन को बढ़ावा मिलता है, आत्मा-परमात्मा, लोक-परलोक, जड़-चेतन आदि के बारे में बौद्धिक व्याख्या के प्रयत्न का सूत्रपात होता है। इन पर चिन्तन-मनन तथा इनको लेकर परस्पर वाद-विवाद करते विविध सम्प्रदायों का संदर्भ मिलता है। जैन एवं बौद्ध वाङ्मय में ऐसे २६ सम्प्रदायों की अलग-अलग लम्बी सूची उपलब्ध होती है और ब्राह्मण धर्मसूत्रादि से उसकी पुष्टि भी होती है। अपनी दृष्टि एवं दार्शनिक सिद्धान्तों को लेकर पृथक् पृथक् समुदायों एवं सम्प्रदायों में बँटे लोगों का संघी, गणि, गणाचार्य के रूप में अपना अलग-अलग नेता होता है। इन नेताओं में अपने मत के प्रचार-प्रसार के निमित्त लोगों को अपनी बुद्धि एवं चिन्तन से प्रभावित कर अपना अनुयायी बनाने की होड़ दिखाई "अनेकान्तवाद" एवं "स्याद्वाद" को ऋषभदेव से सम्बद्ध देती है। इस प्रकार के प्रयास में यदा-कदा कलह के वातावरण का भी
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अब यह जिज्ञासा सहज स्वाभाविक है कि "अनेकान्तवाद" एवं “स्याद्वाद’” की यह अवधारणा जैन धर्म-दर्शन की अभिनव देन है अथवा इसी प्रकार की किसी पूर्व अवधारणा का संशोधित परिवर्धित रूप। इस प्रकार के प्रश्नों पर विचार करते हुए ऐसा लगता है कि यदि परम्परावादी दृष्टि से विचार किया जाय तो अनेकान्तवाद की उत्पत्ति को आदि तीर्थक्रूर ऋषभदेव से सम्बद्ध किया जा सकता है, जबकि कतिपय विद्वानों ने इसे २३वें तीर्थङ्क पार्श्वनाथ के उपदेशों में देखने की चेष्टा की है परन्तु अनेक विद्वानों ने इसके अविष्कार का श्रेय महावीर स्वामी को दिया है।
किया जाना तो निःसंशय नहीं लगता; परन्तु वस्तु के स्वरूप भेद, उनकी प्रतीति की विविधता, एक में अनेक, अनेक में एक होने तथा एक वस्तु में परस्पर विरोधी धर्म की अवस्थिति अथवा देखने की प्रवृत्ति का परिचय तो ऋग्वैदिककाल से ही मिलने लगता है। ऋग्वेद के "नासदीय सूक्त' को इसके प्रमाण के रूप में उद्धृत किया जा सकता है, जिसमें मूल सत्ता के संदर्भ में "सत्", "असत्” एवं “अनुभव” ("न सत्" "न असत्" अर्थात् अवक्तव्य) इन तीन पक्षों को प्रकाशित किया गया है। इसी प्रकार उपनिषदों के अनेक मंत्रों में सत्ता से सम्बद्ध परस्पर विरोधी पक्षों को स्मरण किया गया है । श्वेताश्वतर उपनिषद् में 'क्षर', 'अक्षर', 'व्यक्त' एवं 'अव्यक्त' धर्मों का उल्लेख है। इसी प्रकार 'वस्तु' या 'सत्ता' के अणु से भी छोटे अथवा महत्तम होने का प्रसंग मिलता है। "तदेजति तन्नेजति", "सद्सद्वरेण्यम्" "सदेव सोम्येदमग्र आसीदेकमेचा द्वितीयन्तद्वैकआहुरसदेवेदमग्र आसीदेकमेवाद्वितीयम् तस्मादसतः सज्जायत ।।२१ जैसे विषम पक्षों का परस्पर द्विधाभाव लक्षित होता है । कुछ उपनिषदों में तो "न सन्नचासत्" ( अनुभय अर्थात् अवक्तव्य ) का भी प्रसंग है २२। इन संदर्भों से प्रायः सुविदित है महावीर से पहले वैदिक ब्राह्मण परम्परा में सत्ता अथवा द्रव्य में परस्पर विरोधी पक्षों को प्रतीति एवं अभिव्यक्ति की परम्परा सुज्ञात थी । अतः पार्श्वनाथ के चिन्तन में द्रव्य में अनेकता की अनुभूति तथा उसे अनेक रूपों में अभिव्यक्ति करने की प्रवृत्ति रही हो तो असम्भव नहीं; यद्यपि स्याद्वादियों के रूप में आदि तीर्थङ्कर ऋषभदेव की स्तुति की गई है २४ किन्तु इसे स्याद्वाद के रूप में विकसित करने तथा व्यापक आधार देने का श्रेय महावीर स्वामी को ही दिया जाना अधिक समीचीन लगता है और तत्कालीन बौद्धिक क्रान्ति की परिस्थिति से इसकी संगति भी बिठाई जा सकती है।
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स्याद्वांद की अवधारणा : उद्भव एवं विकास प्रसङ्ग मिलता है ।२८ इन नेताओं का अपने-अपने सिद्धान्तों के साथ सकता है । इसके अनन्तर और सम्भवत: इसके परिणामस्वरूप उनमें उल्लेख मिलता है, जिनमें बुद्ध, मक्खलि गोशाल, सञ्जय बेलट्ठिपुत्त, "स्व-पर" सिद्धान्त के विकसित होने तथा दूसरे के मत के प्रति भी पूरणकस्सप, पकुधकच्चायन, अजित केशकम्बलिन्, निगण्ठनाथपुत्त यथेष्ट सम्मान व्यक्त करने की प्रेरणा का अनुमान किया जाता है ।३८ का विशेष रूप से उल्लेख किया जा सकता है ।२९ बुद्ध अपने सूत्रकृताङ्ग के एक वक्तव्य - विभज्यवादी सिद्धान्त के लिये प्रसिद्ध थे। उन्होंने जड़-चेतन की नो छायए नो वि य लूसएज्जा माणं न सेवेज्ज पगासणं च। व्यावहारिक धरातल पर तर्कसम्मत व्याख्या करते हुए लोक-परलोक, न यावि पन्ने परिहास कुज्जा न यासियावाय वियागरेज्जा ।।''३९ आत्मा-परमात्मा आदि को अव्याकृत कहा।३० मंक्खलि गोशाल नियतिवादी में स्याद्वाद का प्रथम संदर्भ मिलता है । इसमें प्रयुक्त "न तथा सञ्जय बेलट्ठिपुत्त अज्ञानवादी सिद्धान्त के लिये प्रख्यात थे। यासियावाय" को "न चास्याद्वाद" के रूप में व्याख्यायित किया जाता पूरण कस्सप एवं पकुधकच्चायन दोनों अक्रियावादी थे, इसके बावजूद है। स्याद्वाद के प्राकृत रूप “सियावाओ"४० से इसकी बहुत सीमा तक इन दोनों के सिद्धान्तों में किञ्चित् भेद लक्षित होता है ।३१ अजित पुष्टि भी होती है। केशकम्बलिन् की उच्छेदवादी के रूप में प्रतिष्ठा थी ।३२ ।
“भङ्ग" की दृष्टि से विचार किया जाय तो भगवतीसूत्र के एक तत्त्वों की व्यवहार-सम्मत युगपरक व्याख्या करने वाले इस स्थल को छोड़कर, जहाँ तेइस भङ्गों का उल्लेख है, ४१ प्रारम्भिक जैन यग में प्रत्येक प्रबुद्ध चिन्तक द्रव्य, लोक-परलोक आदि के प्रति अपनी आगमों में प्राय: चार भङ्गों का ही प्रयोग हुआ है । अत: ऐसा अनुमान अनूभूतिपरक व्याख्या को अधिकाधिक सत्यपरक बनाने के लिये “सत्", होता है कि: "सत्" "असत्" "उभय", "अनुभय" ("अस्ति", "असत्", "अनुभय' का यथावश्यक प्रयोग करता दिखाई देता है। "नास्ति', "अस्ति नास्ति च" और "अवक्तव्यं") ये चार भङ्ग" ही गौतम बुद्ध के उक्त "विभज्यवाद" एवं "अव्याकृत' से इसका स्पष्ट मौलिक हैं और इन्हें ही प्रारम्भ में महावीर स्वामी ने अधिक महत्त्व संकेत मिलता है। सञ्जय बेलपित्त के "चतुर्भङ्ग" को इसके प्रमाण दिया।३ जिनसे क्रमश: “सात भङ्गों" का विकास हुआ, जिन्हें भगवतीसूत्र के रूप में प्रस्तुत किया जा सकता है। बुद्ध जहाँ लोक-परलोक आदि के उक्त तेइस भङ्गों में से छाँटा जा सकता है । यद्यपि भगवतीसूत्र में से सम्बद्ध प्रश्नों को "अव्याकृत" कह कर शालीनतापूर्वक टाल देते 'एक स्थल पर आत्मा के प्रसंग में स्वतन्त्र रूप से "सात भङ्गों" का हैं और उसे समस्याओं के समाधान के लिये अनुपयोगी बताते हैं, वहीं प्रयोग देखा जा सकता है । ५ सञ्जय बेलठ्ठिपुत्त फक्कड़ाना अंदाज में अपनी अज्ञता प्रकट करना ही कतिपय विद्वानों ने महावीर के "सप्तभङ्ग" को सञ्जय बेलट्ठिपुत्त अधिक उचित समझते हैं ।३३ जैन ग्रन्थों में बद्ध के इस प्रकार के वक्तव्य के चतुर्भङ्ग' से विकसित मानते हुए उनको भी संशयवादी सिद्ध करने पर यत्र-तत्र आक्षेप किया गया है और सञ्जय बेलट्ठिपुत्त की अन्धे के की चेष्टा की है,४६ परन्तु महावीर स्वामी को "संशयवादी' कहना रूप में भर्त्सना की गई है।३४
युक्तिसंगत नहीं प्रतीत होता ।४७ अनेक प्रसंगों से तो ऐसा अनुमान होता अभिव्यक्ति-कथन के बारे में महावीर स्वामी का मत इन दोनों है कि स्वयं उन्होंने सञ्जय बेलपित्त के “अज्ञान" अथवा "संशय" की अपेक्षा अधिक व्यावहारिक एवं वैज्ञानिक लगता है । वे जड़- निवारण का सफल प्रयत्न किया था । वस्तुत: उनका स्याद्वादी सिद्धान्त चेतनादि के संदर्भ में अनेकान्त गर्भित "स्याद्वाद" का सहारा लेते हैं। "अज्ञान" अथवा "संशयवाद" का समाधानात्मक उत्तर हो सकता है। उनकी दृष्टि में द्रव्यों के संघात से बने जगत् एवं जागतिक तत्वों की
जहाँ तक सञ्जय के “चतुर्भङ्ग" से जैन धर्म के "सप्तभङ्ग" अपनी अलग-अलग स्वतन्त्र विशेषतायें हैं; उनमें विविध धर्मों का के विकसित होने की बात है, तो जैसा कि ऊपर संकेत किया जा चुका समावेश होता है ; किन्तु व्यक्ति के ज्ञान की अपनी सीमा और अपेक्षा है कि प्राय: “चतुर्भङ्ग" प्रबुद्ध चिन्तकों के प्रश्नोत्तर की उपयुक्त पद्धति होती है। किसी सामान्य व्यक्ति के लिये किसी वस्तु के धर्मों का सम्पूर्ण थी। ऋग्वेद के नासदीय सूक्त में ही तीन भङ्गों का स्पष्ट उल्लेख है। ज्ञान और एक साथ उनकी समग्र अभिव्यक्ति सम्भव नहीं है । यद्यपि वस्तु अथवा सत्ता के “सत्'-"असत्" जैसे विषम-पक्षों की उपनिषदों प्रत्येक व्यक्ति की अपनी अनुभूति एवं तज्जनित अभिव्यक्ति सत्य; किन्तु में बहुशः विवक्षा की गई है । अत: स्वयं सञ्जय का “चतुर्भङ्ग' विकास अपेक्षा भेद से एकाङ्गी होती है। अत: उन्होंने वस्तुस्थिति के अधिकाधिक का परिणाम है, जिसे महावीर ने अपनी चिन्तन-परक अनुभूति की सत्यपरक व्याख्यान के लिये अभिव्यक्ति के पूर्व “स्यात्" पद के प्रयोग अभिव्यक्ति के लिये उपयोगी समझा, उसे "स्यात्' पद के प्रयोग से पर बल दिया और “विभज्यवाद" को भी उपयोगी माना ।५ इस दृष्टि वस्तु की बहुधर्मिता का संप्रकाशक, सत्यसापेक्ष, अधिकाधिक वस्तुपरक से "स्याद्वाद” को “सापेक्षवाद', अनेकान्तवाद एवं विभज्यवाद भी एवं व्यावहारिक बना दिया । क्रमश: उन्हें “चतुर्भङ्गों' की सीमा का भी कहते हैं ।३६
भान हुआ, उन्हें लगा कि कुछ ऐसी अनुभूतियाँ भी हैं जिनकी अभिव्यक्ति भगवतीसूत्र में वर्णित महावीर स्वामी के चित्र-विचित्र पुंस्कोकिल इन चतुर्भङ्गों' के प्रयोग से सम्भव नहीं, अत: उन्होंने "चतुर्भङ्ग" में विषयक स्वप्न को स्याद्वाद के प्रतीक के रूप में स्वीकार किया जा "अस्ति च अवक्तव्यं च" "नास्ति च अवक्तव्यं च, “अस्ति च नास्ति
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च अवक्तव्यं च" इन तीन नवीन नवों का समावेश कर उसे "सप्तभङ्गी" बना दिया। इस प्रकार जहां बुद्ध का विभज्यवादी सिद्धान्त अपने मूल रूप में यथावत् रहा, सञ्जय बेलट्ठिपुत्त का चतुर्भङ्ग" संशयवाद का उद्भावक बना, एवं महावीर स्वामी का विभज्यवादी सिद्धान्त "उत्पाद व्यय - ध्रौव्य" की अनुभूतिजन्य "अनेकान्त" के माध्यम से विकसित होता हुआ "स्याद्वाद" के रूप में, वस्तु के अभिप्रेत धर्म के साथ ही सन्निहित अन्य धर्म का भी सूचक, सत्यपरक अभिव्यक्ति का समुचित
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जैन विद्या के आयाम खण्ड- ७
माध्यम बन गया ।
जैसा कि ऊपर संकेत किया जा चुका है, जैनियों की स्वाद्वादी अवधारणा महावीर के "अहिंसा" एवं "सूनृत सत्य" विषयक सिद्धान्त के अनुकूल थी। दूसरे की भावना को कर्म से ठेस पहुंचाने की तो बात ही अलग, मन एवं वाणी से भी कष्ट देना दोषप्रद था । उनके युग में धार्मिक दार्शनिक सिद्धान्तों को लेकर प्रायः विविध सम्प्रदाय के लोग परस्पर वाद-विवाद करते रहते; अपने पक्ष का येन-केन प्रकारेण मण्डन तथा दूसरे के सिद्धान्तों का खण्डन ही विविध सम्प्रदायों का लक्ष्य था। ऐसी परिस्थिति में सम्प्रदायों में परस्पर सौमनस्य एवं सद्भाव स्थापित करने तथा स्वयं के संघ में सम्मिलित विविध मत बुद्धि के अनुयायियों में सौहार्द स्थापन के लिये महावीर स्वामी ने इस स्याद्वाद सिद्धान्त का अत्र के रूप में प्रयोग किया और जिसके माध्यम से उन्हें धार्मिक एवं सामाजिक सुख-स्थापन में बल मिला। महावीर के इस स्याद्वाद सिद्धान्त की समय-समय पर युगसापेक्ष व्याख्या और पुनर्व्याख्या हुई, बहुविध वृद्धि एवं समृद्धि हुई ।
ऐतिहासिक दृष्टि से विचार करने पर स्पष्ट है कि महावीर स्वामी के बाद जैन धर्म का इतिहास बहुत कुछ जैन संघ एवं दर्शन का इतिहास है। मौर्य शासक चन्द्रगुप्त जैन धर्मावलम्बी था। उसके समय में आयोजित संगीति से जैन धर्म संघ में अनेक मानकों की स्थापना हुई, दिगम्बर एवं श्वेताम्बर इन दो सम्प्रदायों में जैन संघ का विभाजन हुआ। इन दोनों सम्प्रदायों ने महावीर स्वामी की शिक्षाओं की समसामयिक व्याख्या का प्रयास किया; स्वयं जैन सम्प्रदाय में हो रहे उपविभाजन से समन्वयी वृत्ति की वृद्धि की ओर आकर्षण बढ़ा यद्यपि अशोक बौद्ध था, परन्तु सम्भव है उसके "समवायो एव साधुकिति अत्रमंत्रस धमं सुणारू [च] सुसुंसेर च" जैसे उद्घोष से जैनियों में सद्भाव स्थापन के प्रवास को अधिक बल मिला हो तथा जैन धर्मावलम्बी धर्म सहिष्णु शासक खारवेल के प्रोत्साहन ४९ से भी इस प्रकार की वृत्ति को प्रोत्साहन मिला हो ।
प्रारम्भिक आगम ग्रन्थों में जहां स्याद्वादी अभिव्यक्ति में "चतुर्भङ्ग" के प्रति विशेष आग्रह है, वहीं प्रथम शती ईसा पूर्व के अन्तिम चरण में "सप्तभङ्गी नय" का प्राधान्य लक्षित होता है विक्रम की प्रथम शती हुए आचार्य कुन्दकुन्द के महत्त्वपूर्ण ग्रन्थ "पञ्चास्तिकाय” को हम इसके प्रमाण के रूप में उद्धृत कर सकते हैं आचार्य कुन्दकुन्द ने इसमें
में
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न केवल सप्तभङ्गों का विश्लेषण किया है वरन् "सप्तभङ्ग" पद का भी सुस्पष्ट उल्लेख किया है।
विक्रम की तीसरी से आठवीं शताब्दी तक जैन धर्म के विविध पक्षों की दार्शनिक व्याख्यायें की गई। अनेक अभिनव प्रतिमानों की स्थापना हुई । कतिपय जैन विचारकों ने इस अवधि-विशेष को जैन दर्शन के क्षेत्र में "अनेकान्त स्थापन काल" के रूप में अभिहित किया है। इस युग के प्रारंभिक चरण में नागार्जुन, वसुबन्धु, असङ्ग, दिङ्नाग जैसे बौद्ध दार्शनिकों का उदय हुआ, उनके प्रभाव से स्वयं बौद्ध एवं बौद्धेतर दार्शनिक शाखाओं में खण्डन-मण्डन की प्रक्रिया में तीव्रता आई है। इसी अवधि में जैन आचार्यों में आचार्य समन्तभद्र एवं सिद्धसेन ने अपनी कुशाग्र बुद्धि एवं तर्कणाशक्ति से महावीर स्वामी की शिक्षाओं की तर्क-सम्मत व्याख्या करते हुए अनेक दार्शनिक ग्रन्थों की रचना की, सिद्धान्तों के शुष्क बौद्धिकवादी युग में वितण्डावाद से परे हट समन्वय एवं सहिष्णुता को बढ़ावा देने का प्रयत्न किया और इसके लिये अनेकान्त पोषित स्याद्वाद को माध्यम बनाया ५१
आचार्य समन्तभद्र (विक्रम की द्वितीय तृतीय शती) ने "आप्तमीमांसा", "युक्त्वनुशासन", "वृहत्स्वयम्भूस्तोत्र" जैसे महत्त्वपूर्ण ग्रन्थों की रचना कर उनमें स्याद्वाद के सप्तभङ्गी सिद्धान्त की अनेक दृष्टियों से विवेचना की है। उन्होंने एकान्तवाद की आलोचना एवं अनेकान्तवाद की प्रस्थापना का प्रयास किया। स्याद्वाद के लक्षण को प्रमाणित किया। उन्होंने "सुनय" "दुनैय" की व्याख्या की तथा अनेकान्तवाद को और वैज्ञानिक एवं प्रभावी बनाया ।
विक्रम की ४५वीं शती में हुए जैन आचार्य सिद्धसेन दिवाकर ने 'नय' और 'अनेकान्तवाद' की मौलिक व्याख्या कर "स्याद्वाद" एवं "अनेकान्तवाद" को न केवल जैन दर्शन के लिए अनिवार्य बना दिया, वरन् अनेकान्तवाद के अभाव में जागतिक व्यवहार को ही असम्भव कहा। इस दृष्टि से उनका यह वक्तव्य - "जेण विणा लोगस्स ववहारोवि सव्वथा न निव्वइये । तस्य भुवणेक गुरुणो णमोऽणेगंतवायरस ।"
अत्यंत महत्त्वपूर्ण कहा जा सकता है। उन्होंने समसामयिक दार्शनिक वादों को जैन दर्शन में समन्वित करने का प्रयत्न किया, उसे और अधिक व्यापक बनाया प्रचलित विविध सम्प्रदायों में समता बोध एवं सहिष्णुता के विकास का प्रयास किया। सम्भव है उनके इस प्रकार के प्रयास में धर्मसहिष्णु एवं समन्वयवादी गुप्त शासकों का भी सहयोग मिला हो। यद्यपि इस प्रकार के मत प्रतिष्ठापन के लिये पुष्ट प्रमाणों की अपेक्षा है ।
विक्रम की आठवीं से सत्रहवीं शती तक का समय " प्रमाणस्थापन काल" के रूप में अभिहित किया जाता है। इस युग में दिगम्बर एवं श्वेताम्बर दोनों सम्प्रदायों के प्रमुख आचार्यों
ने अनेकान्त एवं स्याद्वाद पर अनेक विशिष्ट ग्रन्थों की रचना की आचार्य अकलङ्कदेव ने
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स्याद्वाद की अवधारणा : उद्भव एवं विकास
१०५ समन्तभद्र की आप्तमीमांसा पर टीका लिखी और लघीयस्त्रय, न्यायविनिश्चय वस्तुनिहित धर्मों की प्रतीति को "सत्", "असत्" "न सत् न असत्" जैसे महत्त्वपूर्ण ग्रन्थों की रचना की । इन्होंने अपने ग्रन्थ लघीयस्त्रय के जैसे विरोधाभासी पदों से विज्ञापित किया जाता रहा है, क्रमश: इस प्रथम श्लोक में ही तीर्थङ्करों की स्याद्वादी के रूप में श्रद्धापूरित स्तुति प्रकार की अभिव्यक्ति ने वैचारिक मतभेद और ऊहापोह की स्थिति को कर स्याद्वाद को जैन दर्शन का अभिन्न अङ्ग बनाने की सफल चेष्टा जन्म दिया। “सत्ता" अथवा "द्रव्य" में इस द्विधाभाव के कारण अपने की।५३
निर्णय को "सत्य" एवं दूसरे को "असत्य" कहने के प्रति आग्रह बना। इसी प्रकार दिगम्बर सम्प्रदाय के अन्य आचार्यों-वादीभसिंह एक ही तत्त्व में विविध धर्मों की अभिव्यक्ति के कारण इस प्रकार के (विक्रम की आठवीं शती), विद्यानन्दि (वि.९वीं शती), देवसेन वसुनन्दि आग्रह-पूर्वाग्रह के लिये अवकाश भी था । अत: कलह का वातावरण (१०-११वीं शती), सोमदेव (वि.११वीं शती) आदि द्वारा भी क्रमशः बना । महावीर स्वामी ने अपने तत्व-चिंतन के प्रकाश में समसामयिक "स्याद्वादसिद्धि", "अष्टसहसी", "नयचक्र', "आप्तमीमांसा वृत्ति" वृत्तियों पर मनन किया, सामाजिक सुख-शांति, साम्प्रदायिक सद्भाव, "स्याद्वादोपनिषद्” जैसे अतिविशिष्ट ग्रन्थों की रचना की गई। विक्रम वैचारिक समन्वय के लिये इस प्रकार की प्रवृत्ति को घातक माना और की ११-१२ वीं शती में हुए परमारकालीन जैनाचार्य प्रभाचन्द्र ने यह उद्घोष किया कि वस्तु अनन्तधर्मी है । अत: वस्तु में निहित सभी "प्रमेयकमलमार्तण्ड' (परीक्षामुख टीका) एवं "न्यायकुमुदचन्द्र' धर्मों की अनुभूति और उसका युगपत् समग्र प्रकाशन सम्भव नहीं। (लघीयत्रय टीका) जैसे महत्त्वपूर्ण ग्रन्थों का प्रणयन कर दार्शनिक यद्यपि किसी वस्तु को लेकर विचार करने वाले सभी लोगों का धरातल पर स्याद्वाद एवं अनेकान्तवाद को प्रतिष्ठित करने का सफल अनुभूतिजन्य निर्णय सत्य हो सकता है, अत: किसी के निर्णय की न उद्योग किया। उनके इस प्रकार के प्रयत्न को भी परिस्थितिजन्य कहा तो अवमानना की जा सकती है, न ही उसे असत्य ठहराया जा सकता जा सकता है । सम्प्रदाय में बढ़ रही भेद की प्रवृत्ति पर, स्याद्वाद सिद्धान्त है। अत: प्रत्येक व्यक्ति को अपने निर्णय को सत्य बताने का अधिकार के प्रति लोगों की आस्था जगाकर अथवा “अनन्तधर्मात्मकं वस्तु" का है तथा दूसरों के निर्णय के प्रति सम्मान व्यक्त करना कर्तव्य और इसके स्मरण कराकर, अंकुश लगाने का यह महत्त्वपूर्ण प्रयत्न हो सकता है। निर्वाह के लिये प्रत्येक व्यक्ति को अपनी निर्णयात्मक अभिव्यक्ति से पूर्व दिगम्बर सम्प्रदाय के ही ऐक अत्यन्त प्रतिभाशाली आचार्य विमलदास "स्यात्' पद का संयोग अपेक्षित है । प्रथमत: तो उन्होंने इसके लिये ने विचारों के समन्वय की महत्त्वपूर्ण चेष्टा की । उनकी रचना पूर्व प्रचलित चतुर्भङ्गों को ही अपना लिया; उनमें “स्यात्" पद का "सप्तभङ्गीतंरगिणी' नव्य शैली की अकेली एवं अनूठी प्रस्तुति है।५४ प्रयोग कर सत्यपरक बना दिया । कालान्तर में अभिव्यक्ति की समग्रता
इस अवधि में श्वेताम्बर सम्प्रदाय के अनेक युग-प्रधान आचार्यों के लिये तीन अन्य नयों को उसमें समाविष्ट कर “सप्तभङ्गी" बना ने भी अनेकान्त एवं “स्याद्वाद" से सम्बद्ध अनेक विशिष्ट ग्रन्थों की दिया। विक्रम की द्वितीय-तृतीय शती में “सप्तभङ्गी" का ही अधिक रचना का उपयोगी प्रयास किया। इस दृष्टि से हरिभद्र (वि० ८वीं शती) प्रभाव रहा । धर्म के दर्शन के रूप में क्रमिक परिणति के साथ ही साथ के "अनेकान्तजयपताका" एवं "स्याद्वादकुचोद्य- परिहार"; वादिदेवसूरि आचार्य समन्तभद्र, सिद्धसेन आदि के प्रयत्न से समसामयिक आवश्यकता (१२वीं शती) के "स्याद्वादरत्नाकर"; रत्नप्रभसूरि (१३वीं शती) के के अनुरूप साम्प्रदायिक सद्भाव, वैचारिक एवं दार्शनिक समन्वय के स्याद्वादरत्नाकरावतारिका"; मल्लिषेण (१४वीं शती) के "स्याद्वादमञ्जरी' दार्शनिक जगत् में “अनेकान्त' एवं "स्याद्वाद" को प्रतिष्ठित किया जैसे ग्रन्थों का अपना विशिष्ट स्थान है । ये ग्रन्थ अपने विषय के गया। आचार्य प्रभाचन्द्र, मल्लिषेण, विमलदास आदि ने इसे और महत्त्वपूर्ण सार्थक प्रयास हैं।
अधिक पल्लवित एवं पुष्पित किया। इस प्रकार “सप्तभङ्गी नय" इसके अनन्तर १८वीं शती में यशोविजय ने “स्याद्वादमञ्जरी" "स्याद्वाद" का और "स्याद्वाद” तथा “अनेकान्तवाद"जैन दर्शन का पर “स्याद्वादमंजूषा” नामक टीका लिखी और यशस्वतसागर ने पर्याय बन गया। "स्याद्वादमुक्तावली' की रचना की। “अनेकान्तवाद" एवं "स्याद्वाद"
सन्दर्भ ग्रन्थ पर विवक्षा अथवा ग्रन्थ रचना का क्रम आज भी प्रवर्धमान है और धार्मिक सहिष्णुता तथा सामाजिक सुख-शान्ति, वैचारिक समन्वय के लिये इसे १. न्यायदीपिका, सं० पण्डित दरबारीलाल कोठिया, वोर सेवा मन्दिर अत्यन्त उपयोगी कहा जा सकता है।
ग्रन्थमाला, ग्रन्थांक ४, सहारनपुर १९९५, अध्याय ३, श्लोक७६, इस प्रकार जैन धर्म दर्शन की स्याद्वादी अवधारणा से यह "अनेके अन्ता धर्माः सामान्य विशेष पर्याया: गुणाः यस्येति सुविदित है कि "स्याद्वाद” न केवल जैन दर्शन की महत्त्वपूर्ण निधि है, सिद्धाऽनेकान्तः। वरन् विचार-समन्वय, सहिष्णुता, समता बोध आदि की दृष्टि से समस्त २. (i) तत्त्वार्थाधिगमसूत्र, ५.३८, "गुण पर्यायवद्रव्यम्" भारतीय दर्शन में इसका विशिष्ट स्थान है और यह भारतीय संस्कृति को (ii) भगवतीसूत्र, ७,२,५ जैन धर्म दर्शन की अनुपम देन है। भारतीय विचारणा में प्रारम्भ से ही ३. "अनेकश्चासो अन्तश्च इति अनेकान्तः" रत्नाकरावतारिका, पण्डित
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जैन विद्या के आयाम खण्ड-७ दलसुखभाई मालवणिया, लालभाई दलपतभाई ग्रन्थमाला-१६, नानातिथिका, नानाखन्तिका, नाना रुचिका, नाना दित्थि निस्सय अहमदाबाद, पृ. ८९,
निस्सिता", देखें,स्टेन्थल का उदानम्, पृ०६६-६७ ४. सतीशचन्द्र चट्टोपाध्याय तथा धीरेन्द्रमोहन दत्त, भारतीयदर्शन २७. मज्झिमनिकाय, सच्चकसुत्त, उपालिसुत्त, सीहसेनापतिसुत्त आदि । (हिन्दी अनुवाद),पृ. ५५ ।
२८. दीघनिकाय, सामञ्जय्फलसुत्त । ५. "स्यादित्यव्ययमनेकान्तद्योतकं तत: स्याद्वादोऽनेकान्तवादः।" २९. दीघनिकाय, पोट्ठपादसुत्त, अङ्गुत्तरनिकाय, दिट्ठिव ज्ज्सुत्त; स्याद्वादमञ्जरी ५।
१०.२.५.४. महावंश, तृतीय संगीति का विवरण, विशेष "अनेकान्तात्मकार्थकथनं स्याद्वादः।" लघीयस्त्रय टीका, ६२। ५.२३३.३५, ५.२७१ आदि । ७. तुलनीय, डा० सर्वपल्ली राधाकृष्णन्, इन्डियन फिलासॉफी, जिल्द१, ३०. गोविन्दचन्द पाण्डे, स्टडीज इन दी ऑरिजिन्स ऑव बुद्धिज्म, पृ० ३०५-०६।
१९५७, पृ०३४७-४८, बौद्ध धर्म के विकास का इतिहास, ८. बलदेव उपाध्याय, भारतीयदर्शन, १९७९, पृ० १७३।
१९७६, पृ. ३५,३६ ९. हीरालाल जैन, भारतीय संस्कृति में जैन धर्म का योगदान, भोपाल ३१. सीताराम दुबे, बौद्ध संघ का प्रारम्भिक विकास, १९८८, पृ. ४० १९६२, पृ० २४९ ।
और आगे, पृ. ५७-५८ १०. तुलनीय, महेन्द्रकुमार न्यायाचार्य, जैनदर्शन, १९८५, पृ० ५१८ ३२. महेन्द्रकुमार 'न्यायाचार्य', जैन दर्शन, पृ. ५५२; राहुल सांकृत्यायन,
आदि; मोहनलाल मेहता, जैनधर्मदर्शन, १९७३, पृ०३४३ एवं दर्शनदिग्दर्शन, पृ० ४९१ ३५८..
३३. सूत्रकृताङ्ग, संपा० मधुकर मुनि, प्रका० श्री आगम प्रकाशन ११. मज्झिमनिकाय, राहुलोवादसुत्त ।
. समिति, ब्यावर, १९८२१.१२, १२. "यथावस्थितार्थव्यवसायरूपं हि संवेदनं प्रमाणम् ।"
३४. “भिक्खू विभज्जवायं च वियागरेज्जा।" वही, १.१४.२२,३७. प्रमेयकमलमार्तण्ड, पृ. ४१
मेहता, जैन धर्म दर्शन, पृ. ३३७ १३. तुलनीय, मेहता, जैन धर्म दर्शन, ३९२
३५. भगवतीसूत्र, १६.५.३ १४. बलेदव उपाध्याय, भारतीय दर्शन, पृ. ९१
३६. तुलनीय, मेहता, जैन धर्म दर्शन, पृ. ३३४ १५. तुलनीय, महेन्द्र कुमार, जैन दर्शन, पृ. ५९-६०, ५५३-५४ ३७. सूत्रकृताङ्ग, १.१४.१९ १६. श्वेताश्वतरोपनिषद्, गीता प्रेस, गोरखपुर, १.८
३८. प्रश्नव्याकरण, ८.२.१०७ १७. वही, ३.२०
३९. भगवतीसूत्र, १२.१०.४६९ १८. ईशावास्योपनिषद् ,गीता प्रेस, गोरखपुर, १.५
४०. वही, १.१.१७, १.९.७४, १३.७.४९३ आदि । १९. मुण्डकोपनिषद् , गीता प्रेस, गोरखपुर, २.२.१
४१. मेहता, जैन धर्म दर्शन, पृ. ३६५ २०. छान्दोग्योपनिषद्, गीता प्रेस, गोरखपुर, ६.२.१
४२. जैनतर्कवार्त्तिक वृत्ति, प्रस्तावना, पृ.६४४-४८ २१. श्वेताश्वतरोपनिषद्, गीता प्रेस, गोरखपुर, ४.१८
४३. भगवतीसूत्र, १२.१०.४६९ २२. “एकं सद्विप्रा बहुधा वदन्ति ।” ऋग्वेद, १,१६४,४६ ४४. सांकृत्यायन, दर्शन-दिग्दर्शन, पृ. ४९१ २३. “धर्मतीर्थङ्करेभ्यस्तु स्याद्वादिभ्यो नमः ।
४५. तुलनीय, चट्टोपाध्याय एवं दत्त, भारतीय दर्शन, पृ. ५५; मेहता, ऋषभादि महावीरान्तेभ्य: स्वात्मोपलब्धये ।
जैन धर्म दर्शन, पृ. ३६३, महेन्द्रकुमार, जैन दर्शन, पृ. ६१६, अकलङ्कदेव, लघीयत्रय, श्लोक ११ अपने इस ग्रन्थ के “स्याद्वाद मीमांसा' नामक अध्याय में जैन २४. हर्मन याकोबी, सेक्रेड बुक्स ऑव दी ईस्ट, जिल्द २२, पृ. स्याद्वाद पर लगे आक्षेपों का सतर्क खण्डन किया है।
१२८, पाद टिप्पणी १, जिल्द ४५. पृ. ३१५-१९; ठाणांगसुत्त, ४६. देखें, अशोक का द्वादश शिला-प्रज्ञापन पृ०९४ अ, ३४२ ब।
४७. देखें, खारवेल का हाथी गुंफा अभिलेख २५. दीघनिकाय, "सामञफलसुत्त'; विनय चुल्लवग्ग, ५.१०.१२; ४८. महेन्द्रकुमार 'न्यायाचार्य', जैन दर्शन, पृ० १५
अङ्गुत्तरनिकाय, ५.२८.८-१७ (निगण्ठसुत्तादि); देखें, रीस डेविड्स, ४९. वही, पृ. २१ और आगे बुद्धिस्ट इण्डिया, १९५९, पृ०६१, डायलॉग्स ऑव दी बुद्ध, ५०. वही, पृ. १५
जिल्द २, सेक्रेड बुक्स ऑव दी बुद्धिस्ट, पृ. २२०-२२ आदि। ५१. वही, पृ. ४ एवं ६२५ २६. उदान, जयचन्दवग्ग से इनके संगठन पर किञ्चित् प्रकाश पड़ता ५२. वही, पृ. २४ और आगे तथा पृ. ६२३ और आगे।
है । "सम्बहुला नानातित्थिया समन ब्राह्मण परिब्बाजका......
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जैन, बौद्ध और वैदिक साहित्य- एक तुलनात्मक अध्ययन
आचार्य देवेन्द्रमुनि शास्त्री
भारतीय संस्कृति विश्व की एक महान् संस्कृति है । यह हो सकता है, पर यहाँ हम बहुत ही संक्षेप में कुछ प्रमुख बातों पर ही संस्कृति सरिता की सरस धारा की तरह सदा जन-जीवन में प्रवाहित चिन्तन करेंगे। होती रही है । इस संस्कृति का चिन्तन जैन, बौद्ध और वैदिक इन तीन यह सत्य है कि बौद्ध और जैन संस्कृति, ये दोनों ही श्रमण धाराओं से प्रभावित रहा है। यहाँ की संस्कृति और सभ्यता का रमणीय संकृति की ही धाराएँ हैं । तथागत बुद्ध, बौद्ध संस्कृति के आद्य कल्पवृक्ष इन तीनों परम्पराओं के आधार पर ही सदा फलता-फूलता रहा संस्थापक थे तो जैन संस्कृति के आद्य संस्थापक भगवान् ऋषभदेव थे है। इन तीनों ही परम्पराओं में अत्यधिक सन्निकटता न भी रही हो तथापि जो जैन दृष्टि से प्रथम तीर्थंकर थे। भगवान् महावीर उन्हीं तीर्थंकरों की अत्यन्त दुरी भी नहीं थी। तीनों ही परम्पराओं के साधकों ने साधना कर परम्परा में चौबीसवें तीर्थंकर थे। तथागत बुद्ध और तीर्थंकर महावीर ये जो गहन अनुभूतियाँ प्राप्त की, उनमें अनेक अनुभूतियाँ समान थीं और दोनों एक ही समय में उत्पन्न हुए और दोनों का प्रचार स्थल बिहार रहा । अनेक अनुभूतियाँ असमान थीं। कुछ अनुभूतियों का परस्पर विनिमय दोनों मानवतावादी धर्म के थे। दोनों ने ही जातिवाद को महत्त्व न देकर भी हुआ । एक-दूसरे के चिन्तन पर एक-दूसरे का प्रतिबिम्ब गिरना आंतरिक विशुद्धि पर बल दिया। भगवान् महावीर के पावन-प्रवचन स्वाभाविक था किन्तु कौन किसका कितना ऋणी है यह कहना बहुत गणिपिटक (जैन आगम) के रूप में विश्रुत हैं तो बुद्ध के प्रवचनों का ही कठिन है। सत्य की जो सहज अभिव्यक्ति सभी में है उसे ही हम संकलन त्रिपिटक (बौद्धागम) के रूप में प्रसिद्ध है। दोनों ही परम्पराओं यहाँ पर तुलनात्मक अध्ययन की अभिधा प्रदान कर रहे हैं । सत्य एक में शास्त्र के अर्थ में 'पिटक' शब्द व्यवहत हुआ है । वह ज्ञान-मंजूषा है, अनन्त है, उसकी तुलना किसी के साथ नहीं हो सकती तथापि गणि अर्थात् आचार्यों के लिए थी। इसीलिए वह गणिपिटक के नाम अनुभूति की अभिव्यक्ति जिन शब्दों के माध्यम से हुई है, उन शब्दों और से प्रसिद्ध हुई । यद्यपि “गणि" शब्द जैन परम्परा में अनेक स्थलों पर अर्थ में जो साम्य है उसकी हम यहाँ पर तुलना कर रहे हैं जिससे यह व्यवहृत हुआ है तो बौद्ध परम्परा में संयुक्तनिकाय, दीघनिकाय, परिज्ञात हो सके कि लोग सम्प्रदायवाद, पंथवाद के नाम पर जो रागद्वेष सुत्तनिकाय आदि में भी उसका प्रयोग प्राप्त होता है। की अभिवृद्धि कर भेद-भाव की दीवार खड़ी करना चाहते हैं वह कहाँ दोनों ही परम्पराओं का जब हम तुलनात्मक दृष्टि से अध्ययन तक उचित है । जो लोग धर्मों का तुलनात्मक अध्ययन नहीं करते हैं। करते हैं तो स्पष्ट परिज्ञात होता है कि दोनों ही परम्पराओं में विषय,शब्दों उनका दृष्टिकोण बहुत ही संकीर्ण और दुराग्रहपूर्ण बन जाता है । दुराग्रह उक्तियों एवं कथानकों की दृष्टि से अत्यधिक साम्य है। इस साम्य का और संकीर्ण-दृष्टि की परिसमाप्ति हेतु धार्मिक साहित्य का तुलनात्मक मूल आधार यह हो सकता है कि कभी ये दोनों परम्पराएँ एक रही हों अध्ययन बहुत ही आवश्यक है ।
और उन दिनों का मूल स्रोत एक ही स्थल से प्रभावित हुआ हो। आगम गंभीर अध्ययन व चिन्तन के अभाव में कुछ विज्ञों ने जैन धर्म और त्रिपिटक साहित्य के एक-एक विषय को लेकर यदि तुलनात्मक को वैदिक धर्म की शाखा माना किन्तु पाश्चात्य विद्वान् डॉ० हर्मन अध्ययन प्रस्तुत किया जाए तो अनेक नये तथ्य आसानी से उजागर हो जेकोबी, प्रभृति अनेक मूर्धन्य मनीषी उस अभिमत का निरसन कर चुके सकते हैं, किन्तु विस्तार-भय से हम यहाँ संक्षेप में ही कुछ प्रमुख बातों हैं। प्राप्त सामग्री के आधार से हम भी इस निष्कर्ष पर पहुँचे हैं कि श्रमण पर चिन्तन करेगें । शेष विषयों पर कभी अवकाश के क्षणों में चिन्तन संस्कृति वैदिक संस्कृति से उद्भूत नहीं है । यह प्रारम्भ से ही एक किया जायगा। स्वतन्त्र धारा रही है। हमारी दृष्टि से वैदिक और श्रमण धाराओं में जन्य- जहाँ तब आगम और त्रिपिटक साहित्य का प्रश्न है वहाँ तक जनक के पौर्वापर्य की अन्वेषणा करने की अपेक्षा उनके स्वतन्त्र दोनों ही परम्पराएँ जन-साधारण की भाषा को अपनाती रही हैं । त्रिपिटक अस्तित्त्व और विकास की अन्वेषणा करना अधिक लाभप्रद है। साहित्य की भाषा पालि रही है तो जैन आगमों की भाषा अर्धमागधी
वैदिक संस्कृति का साहित्य बहुत ही विशाल है । वेद, प्राकृत रही है। दोनों ही महापुरुषों ने जन-जन के कल्याणर्थ उपदेश उपनिषद्, महाभारत, श्रीमद्भगवद्गीता, भागवत, मनुस्मृति आदि के रूप प्रदान किये । में शताधिक ग्रन्थ हैं और हजारों विषयों पर चर्चाएँ की गई हैं। भाषा ब्राह्मण दार्शनिक मीमांसकों ने वेद को सनातन मानकर उसे की दृष्टि से यह सम्पूर्ण साहित्य संस्कृत में निर्मित है। जैन आगम अपौरुषेय कहा है। नैयायिक-वैशेषिक आदि दार्शनिक उसे ईश्वर प्रणीत साहित्य में आये हुए एक-एक विषय या गाथाओं की तुलना यदि कहते हैं। दोनों का मन्तव्य है कि वेद की रचना का समय अज्ञात है। सम्पूर्ण वैदिक साहित्य के साथ की जाय तो एक विराट्काय ग्रन्थ तैयार इसके विपरीत बौद्ध त्रिपिटक और जैन गणिपिटक पौरुषेय है । ये
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जैन विद्या के आयाम खण्ड-७ निराकार निरजंन ईश्वर द्वारा प्रणीत नहीं है और इनकी रचना के समय का आसक्त । वह न स्त्री है, न पुरुष है, न नपुंसक । भी स्पष्ट ज्ञान है।
वह ज्ञाता है, वह परिज्ञाता है। उसके लिए कोई उपमा नहीं, जैन साधना-पद्धति का अंतिम लक्ष्य निर्वाण है अत: निर्वाण वह अरूपी सत्ता है। की दृष्टि से ही उसमें प्रत्येक वस्तु पर चिन्तन किया गया है। जबकि वह अपद है। वचन अगोचर के लिए कोई पदवाचक शब्द वैदिक परम्परा का मुख्य लक्ष्य-स्वर्ग प्राप्ति है, उसी को संलक्ष्य में नहीं वह शब्द-रूप नहीं, रूप-रूप नहीं, गन्ध-रूप नहीं, रस-रूप नहीं, रखकर वेदों में विविध कर्मकाण्डों की योजना की गई है। ऋग्वेद के स्पर्श रूप नहीं। वह ऐसा कुछ भी नहीं है, ऐसा मैं कहता हूँ।६ प्रारम्भ में धनप्राप्ति की दृष्टि से अग्नि की स्तुति की गई है जब कि यही बात केनोपनिषद् कठोपनिषद्, बृहदारण्यक, आचारांग में प्रथम वाक्य में ही “मै कौन हूँ, मेरा स्वरूप क्या है" इस माण्डूक्योपनिषद्, तैत्तिरीयोपनिषद् ११ और ब्रह्मविद्योपनिषद्१२, में भी पर चिन्तन किया गया है। सूत्रकृताङ्ग के प्रारम्भ में भी बन्धन और मोक्ष प्रतिध्वनित हुई है। की चर्चा की गई है। वहाँ पर स्पष्ट रूप से यह प्रतिपादित किया गया आचांराग१३ में ज्ञानियों के शरीर का विश्लेषण करते हए है कि परिग्रह ही बन्धन है । जितना साधक ममत्व का परित्याग कर लिखा है कि ज्ञानियों के बाह कृश होते हैं, उनका मांस और रक्त पतला समत्व की साधना करेगा उतना ही वह निर्वाण की ओर कदम बढ़ायेगा। एवं न्यून होता है। यही बात अन्य शब्दों में नारद परिव्राजकोनिषद्,१४ लक्ष्य की भिन्नता के कारण वेद और ब्राह्मण ग्रन्थों में स्तुतियों की एवं संन्यासोपनिषद् १५ में भी कही गई है। अधिकता और आध्यात्मिक चिन्तन की अल्पता है। उपनिषद् साहित्य पाश्चात्य विचारक शुगिश ने अपने सम्पादित आचारांग में में आध्यात्मिक चिन्तन उपलब्ध होता है पर उसमें आत्म-चिन्तन के मार्ग आचारांग के वाक्यों की तुलना धम्मपद और सूत्तनिपात से की है। का प्रतिपादन नहीं हुआ है । साधना के अमर राही की दैनिक जीवनचर्या विशेष जिज्ञासुओं को वे ग्रन्थ देखने चाहिए। कैसी होनी चाहिए ? तन,मन और वचन की प्रवृत्ति को किस प्रकार सूत्रकृतांग की तुलना दीघनिकाय व अन्य ग्रंथों से की जा आध्यात्मिक साधना की ओर मोड़ना चाहिए? यह स्पष्ट रूप से नहीं सकती है। स्थानांग और समवायांगसूत्र की रचनाशैली अंगुत्तरनिकाय बताया गया है । उपनिषदों में ब्रह्मवार्ता तो आई है पर ब्रह्मचर्य का पालन और पुग्गलपञ्चति की शैली से बहुत कुछ मिलती-जुलती है । स्थानांग कैसे करना चाहिए ? उसके लिए साधक के जीवन में किस प्रकार की में कहा गया है कि दह स्थान से आत्मा उम्मत्त होती है। अरिहन्त का योग्यता होनी चाहिए ? संयम के विधि-विधान, त्याग और तप का स्पष्ट अवर्णवाद करने से, आचार्य, उपाध्याय का अवर्णवाद करने से, निर्देश नहीं है, जैसा कि आचारांग आदि जैन आगमों में हुआ है। चतुर्विध संघ का अवर्णवाद करने से, यक्ष में आवेश से, मोहनीय कर्म
आचारांग में आत्मा के स्वरूप पर चिन्तन करते हुए लिखा के उदय से१६ तो बुद्ध ने भी अंगुत्तर निकाय में कहा है कि चार है कि सम्पूर्ण लोक में किसी के द्वारा भी आत्मा का छेदन नहीं होता, अचिन्तनीय की चिन्ता करने से मानव उन्मादी हो जाता है। - भेदन नहीं होता, दहन नहीं होता और न हनन ही होता है। इसी की (१) तथागत बुद्ध भगवान के ज्ञान का विषय, (२) ध्यानी के ध्यान का प्रतिध्वनि सुबालोपनिषद्और गीता में भी मिलती है। विषय, (३) कर्मविपाक और (४) लोकचिन्ता ।१७
आचारांग में आत्मा के ही सम्बन्ध में कहा गया है कि जिसका स्थानांग में जिन कारणों से आत्मा के साथ बंध होता है, आदि और अन्त नहीं है उसका मध्य कैसे हो सकता है। गौड़पाद उन्हें आस्व८ कहा है। मिथ्यात्व, अव्रत, प्रमाद, कषाय और योग - कारिका में भी यही बात अन्य शब्दों में दुहराई गई है।
आस्रव का मूल अविद्या को बताया है । अविद्या का निरोध होने से आचारांग में जन्ममरणातीत, नित्य, मुक्त आत्मा का स्वरूप आस्रव का स्वत: निरोध हो जाता है । आस्रव के मास्रव, भवास्रव और प्रतिपादित करते हुए लिखा है - "उस दशा का वर्णन करने से सारे शब्द अविद्यास्रव- ये तीन भेद किये हैं ।१९ मञ्झिमनिकायरे में मन, वचन प्रिवृत्त हो जाते हैं -सामप्त हो जाते हैं । वहाँ तर्क की पहुँच नहीं और और काय की क्रिया को ठीक-ठीक करने से आस्रव रुकता है यह न बुद्धि उसे ग्रहण कर पाती है । कर्म-सल रहित केवल चैतन्य ही उस प्रतिपादित किया गया है। आचार्य उमास्वाति ने भी काय-मन-वचन की दशा का ज्ञाता है।"
क्रिया को योग कहा है और वही आस्रव है ।२१ स्थानांग में विकथा के मुक्त आत्मा न दीर्घ है, न ह्रस्व, न वृत्त-गोल । वह न त्रिकोण स्त्रीकथा, भक्तकथा, देशकथा, राजकथा, मृदुकारुणिकीकथा, है, न चौरस, न मण्डलाकार है । वह न कृष्ण है, न नील, न लाल, दर्शनभेदिनोकथा और चरित्र भेदनेकथा ये सात प्रकार बताए हैं२२, तो बुद्ध न पीला और न शुक्ल ही । वह न सुगन्धिवाला है न दुर्गन्धिवाला है। ने विकथा के स्थान पर निरुध्धन शब्द का प्रयोग किया है। उसके वह न तिक्त है, न कड़वा, न कषैला, न खट्टा और न मधुर । वह न राजकथा, चोरकथा, महामात्यकथा, सेनाकथा, भयकथा, युद्धकथा, कर्कश है, न मृदु; वह न भारी है, न हल्का । वह न शीत है, न उष्ण, अन्नकथा, पानकथा, वस्त्रकथा, शयनकथा, मालकथा, गंधकथा, ज्ञातिकथा, वह न स्निग्ध है, न रुक्ष । वह न शरीरधारी है, न पुनर्जन्मा है, न यानकथा, गामकथा, निगमकथा, नगरकथा, जनपदकथा, स्त्रीकथा आदि
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जैन, बौद्ध और वैदिक साहित्य- एक तुलनात्मक अध्ययन आजीवक आचार्य नन्द, वत्स, कृश सांकृत्य मस्करी; गोशालक आदि का समूह ।
अनेक भेद किये हैं । २३
स्थानांग में राग और द्वेष का पाप कर्म का बंध बताया है२४ तो अंगुत्तरनिकाय में तीन प्रकार से कर्मसमुदाय माना है लोभन, दोषज आनन्द ने गौतमबुद्ध से इन छः अभिजातियों के सम्बन्ध में (द्वेषज), मोहज उन सभी में मोह को अधिक दोषजनक माना है।" पूछ तो उन्होंने कहा कि मैं भी छह अभिजातियों की प्रज्ञापना करता हूँ। (१) कोई पुरुष कृष्णाभिजातिक (नीच कुल में उत्पन्न) होकर
स्थानांग व समवायांग में आठ मद के स्थान बताये हैं
जातिमद कुलमद; बलमद, तपमद, श्रुतमद, लाभ और ऐश्वर्य मद । २७ कृष्ण धर्म तथा पापकर्म करता है । तो अंगुत्तरनिकाय में मद के तीन प्रकार बताये हैं - यौवन, अरोग्य, जीवित मद। इन तीनों मदों से मानव दुराचारी बनता है ।
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स्थानांग, समवयांग २९ में आस्रव के निरोध को संवर कहा को पैदा करता है । और उसके भेद-प्रभेदों की चर्चा की है तथागत बुद्ध ने अंगुत्तरनिकाय में कहा आलव का निरोध मात्र संवर से ही नहीं होता। उन्होंने इस प्रकार उसका विभाग किया - (१) संवर से (इन्द्रियाँ मुक्त होती हैं तो इन्द्रियों का संवर करने से गुप्तेन्द्रियाँ होने से तद्जन्य आस्रव नहीं होता (२) प्रतिसेवना से (३) अधिवासना से (४) परिवर्जन से (५) विनोद से (६) को पैदा करता है । ३७ भावना से इस सभी में अविद्या निरोध को ही मुख्य आस्रव निरोध माना है ।
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स्थानांग आदि में अरिहन्त, सिद्ध, साधु, धर्म इन चार शरण आदि का उल्लेख है, तो बुद्ध परम्परा में बुद्ध, धर्म और संघ तीन शरण को महत्त्व दिया गया है। स्थानांग में जैन उपासक के लिए पाँच अणुव्रतों का विधान है अंगुत्तरनिकाय में बौद्ध उपासक के लिए पाँच शील का उल्लेख है (१) प्राणातिपातविरमण (२) दत्तादानविरमण (३) काम-भोग- मिथ्याचार से विरमण, (४) मृषावादविरमण, (५) सुरा, मैरेय, मद्य, प्रमाद, स्थान से विरमण २
३१
स्थानांग में प्रश्न के छह प्रकार बताये है संशय प्रश्न मिथ्यात्रि वेश प्रश्न, अनुयोगी प्रश्न, अनुलोम प्रश्न, जानकर किया गया प्रश्न न जानने से किया गया प्रश्न । अंगुत्तरनिकाय में प्रश्न के सम्बन्ध में चिन्तन करते हुए बुद्ध ने बताया कि कितने प्रश्न ऐसे होते हैं कि जिसके एक अंश का उत्तर देना चाहिए कितने ही प्रश्न ऐसे हैं जो प्रश्नकर्ता से प्रति प्रश्न कर उत्तर देना चाहिए, कितने ही प्रश्न ऐसे हैं जिनका विभाग कर उत्तर देना चाहिए।
स्थानांगसूत्र में छः लेश्याओं का वर्णन है और इन लेश्याओं के भव्य और अभव्य की दृष्टि से संयोगी आदि भंग प्रतिपादित किये गये
वैसे ही अंगुत्तरनिकाय में पूरण कश्यप द्वारा छ: अभिजातियों का उल्लेख किया गया है जो रंगों के आधार पर निश्चित की गई है; वह इस प्रकार है (१) कृष्णाभिजाति-बकरी, सुअर पक्षी और पशु-पक्षी पर अपनी आजीविका चलाने वाले मानव कृष्णाभिजाति है। (२) नीलभिजात कंटक वृत्ति भिक्षुक नीलाभिजाति हैं। बौद्ध विभु तथा अन्य कर्मवाले भिक्षुओं का समूह। (३) लोहिताभिजाति एक शटक निर्मन्थों का समूह । (४) हरिद्राभिजाति- श्वेत वस्त्रधारी या निर्वस्त्र । (५) शुक्राभिजातिआजीवक श्रमण श्रमणियों का समूह (६) परम शुक्लाभिजाति
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२. कोई पुरुष कृष्णाभिजातिक होकर धर्म करता है। ३. कोई पुरुष कृष्णाभिजातिक हो, अकृष्ण, अशुक्ल निर्वाण
४. कोई पुरुष शुक्लाभिजातिक (ऊँचे कुल में उत्पन्न हो) शुक्ल धर्म करता है।
है ।
५. कोई पुरुष शुक्लाभिजातिक हो, कृष्ण धर्म करता है। ६. कोई पुरुष शुक्लाभिजातिक हो, अकृष्ण- अशुक्ल निर्वाण
३८
महाभारत में प्राणियों के वर्ण छः प्रकार के बताये हैं । सनत्कुमार ने दानवेन्द्र वृत्तासुर से कहा प्राणियों के वर्ण छह होते हैंकृष्ण, धूम्र, नील, रक्त, हारिद्र और शुक्ल । इनमें से कृष्ण धूम्र, नील वर्ण का सुख मध्यम होता है। रक्त वर्ण अधिक सह्य होता है। हारिद्र वर्ण सुख कर और शुक्ल वर्ण अधिक सुखकर होता है।
गीता में गति के कृष्ण और शुक्ल ये दो विभाग किये गये हैं। कृष्ण गतिवाला पुनः पुनः जन्म लेता है और शुक्ल गतिवाला जन्ममरण से मुक्त होता है ।
धम्मपद् में धर्म के दो विभाग किये गये हैं। वहाँ वर्णन है कि पण्डित मानव को कृष्ण धर्म को छोड़कर शुक्ल धर्म का आचरण करना चाहिए ।
पतञ्जलि ने पातञ्जल योगसूत्र में कर्म की चार जातियाँ प्रतिपादित की हैं। कृष्ण, शुक्ल कृष्ण, शुक्ल, अशुक्ल अकृष्णा। ये क्रमशः अशुतर, अशुद्ध, शुद्ध और शुद्धतर हैं।
इस तरह लेश्याओं के साथ आंशिक दृष्टि से तुलना हो सकती
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स्थानांग में सुगत के तीन प्रकार बताये गये हैं (१) सिद्धि सुगत, (२) देव सुगत, (३) मनुष्य सुगत । ४२ अंगुत्तर निकाय में भी राग-द्वेष और मोह को नष्ट करने वाले को सुगत कहा है । ४३
स्थानांग में लिखा है कि पाँच कारणों से जीव दुर्गति में जाता है। यह कारण है हिंसा, असत्य चोरी, मैथुन और परिग्रह । अंगुत्तर निकाय में नरक जाने के कारणों पर चिन्तन करते हुए लिखा है। अकुशल कार्य कर्म, अकुशल वाक् कर्म, अकुशल मन कर्म और सावद्य आदि कर्म ४६ नरक के कारण हैं।
श्रमणोपासक के लिये उपासकदशांग सूत्र और अन्य आगमों
में सावध व्यापार का निषेध किया गया है तथा उन्हें पन्द्रह कर्मादान के
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जैन विद्या के आयाम खण्ड-७ अन्तर्गत स्थान दिया गया है तो बौद्ध साहित्य में भी सावध व्यापार, का स्थानांगसूत्र में बतलाया है कि मध्यलोक में चन्द्र, सूर्य, मणि, निषेध है । वहाँ भी कहा गया है शस्त्र वाणिज्य, जीव व्यापार, मांस का ज्योति, अग्नि से प्रकाश होता है। व्यापार, मद्य का व्यापार और विष व्यापार नहीं करने चाहिए।
अंगुत्तरनिकाय में आभा, प्रभा, आलोक और प्रज्योत इन स्थानांग व अन्य आगम साहित्य में श्रमण निर्ग्रन्थ इन छह प्रत्येक के चार प्रकार बताये गये है। वे हैं - चन्द्र, सूर्य, अग्नि, प्रज्ञा ।५३ कारणों से आहार ग्रहण करता है- (१) क्षुधा की उपशांति (२) वैयावृत्त्य स्थानांग में लोक को चौदह रज्जु प्रमाण कहकर उसमें जीव के लिए (३) ईर्याविशुद्धि के लिए (४) संयम के लिए (५) प्राण धारण और अजीवद्रव्यों का सद्भाव बताया है। वैसे ही अंगुत्तरनिकाय में भी करने के लिए और (६) धर्म चिन्ता के लिए। अंगुत्तरनिकाय में आनंद लोक को अनंत कहा हं ५४ और वह सान्त भी है । तथागत बुद्ध ने यही ने एक श्रमणी को इसी प्रकार का उपदेश दिया है ।४९
कहा है कि पाँच काम गुण रूप रसादि यही लोक है और जो मानव पाँच स्थानांग" में इहलोकभय, परलोकभय, आदानभय, अकस्मात् काम गुण का परित्याग करता है वही लोक के अन्त में पहुँचकर वहाँ भय, वेदनाभय, मरणभय' ओर अश्लोकभय आदि सात भयस्थान बताये पर विचरण करता है। हैं तो अंगुत्तरनिकाय५१ में जाति, जन्म, जरा, व्याधि, मरण, अग्नि, स्थानांग में भूकंप के तीन कारण बताये हैं५५ (१) पृथ्वी के उदक, राज, चोर, आत्मानुवाद-अपने दुश्चरित्र का विचार कि दूसरे मुझे नीचे का धनवात व्याकुल होता है और उससे धनोदधि समुद्र में तूफान दुश्चचरित्र कहेंगे इसका भय, दंड, दुर्गति आदि अनेक भयस्थान बताये आता है, (२) कोई महेश नामक महोरग देव अपने सामर्थ्य का प्रदर्शन गये हैं।
करने के लिए पृथ्वी को चलित करता है, देवासर-संग्राम जब होता है समवायांगसूत्र में नारक, तिर्यञ्ज, मनुष्य और देवताओं के तब भूकंप आता है। आवास स्थल के सम्बन्ध में विस्तार से निरुपण है। जैसे कि रत्नप्रभा अंगुत्तरनिकाय में भूकंप के आठ कारण बताये हैं५६ (१) पृथ्वी पृथ्वी में एक लेख ७८ हजार योजन प्रमाण में ३० लाख नरकावास के नीचे की महावायु के प्रकम्पन से उस पर रही हुई पृथ्वी प्रकम्पित होती हैं। इसी प्रकार अन्य नरकवासों का भी वर्णन है। वैसे ही अंगुत्तर निकाय है, (२) कोई श्रमण-ब्राह्मण अपनी ऋद्धि के बल से पृथ्वी-भावना को में नवसत्त्वास माने हैं। उनमें सभी जीवों को विभक्त कर दिया गया है ।५२ करता है, (३) जब बोधिसत्त्व-माता के गर्भ में आते हैं, (४) जब ये नवसत्त्वावास निम्न हैं
__ बोधिसत्त्व माता के गर्भ से बाहर आते है, (५) जब तथागत अनुत्तर प्रथम सत्तावास में विविध प्रकार के काय और संज्ञावाले ज्ञानलाभ को प्राप्त करते हैं, (६०) जब तथागत धर्मचक्र का प्रवर्तन कितने ही मनुष्य देव और विनिपातिकों का समावेश है। करते हैं, (७) जब तथागत आयु संस्कार का नाश करते हैं, (८) जब
दूसरे आवास में विविध प्रकार की कायावाले किन्तु समान तथा निर्वाण प्राप्त करते हैं। संज्ञा वाले ब्रह्मकायिक देवों का वर्णन है।
जैन दृष्टि से जैन आगम साहित्य में अनेक स्थलों पर ऐसा तीसरे आवास में समान कायवाले किन्तु विविध प्रकार की उल्लेख है कि एक क्षेत्र में एक ही तीर्थकर या चक्रवर्ती आदि होते हैं। संज्ञावाले अभास्वर देवों का वर्णन है।
जैसे भरत क्षेत्र में एक तीर्थकर, ऐरावत क्षेत्र में एक तीर्थंकर, महाविदेह चतुर्थ आवास में एक सदृश काय और संज्ञावाले शुभ कृष्ण क्षेत्र के बत्तीस विजय में बत्तीस तीर्थकर, इस प्रकार जम्मूद्वीप में ३४ देवों का निरुपण है।
तीर्थकर और उसी प्रकार ६८,६८ तीर्थंकर क्रमश: धातकी खण्ड और पाँचवें आवास में असंज्ञी और अप्रतिसंवेदी ऐसे असंज्ञ सत्त्व अर्द्धपुष्कर में होते हैं । इस प्रकार कुल उत्कृष्ट १७० तीर्थकर हो सकते देवों का वर्णन है।
है किन्तु सभी का क्षेत्र पृथक्-पृथक् होता है । जैन मान्यता की तरह ही छठे आवास में रूप संज्ञा, पाटिघ संज्ञा और विविध संज्ञा से अंगुत्तरनिकाय में भी एक क्षेत्र में एक ही चक्रवर्ती और एक ही तथागत आगे बढ़कर जैसे आकाश अनन्त है। वैसे आकाशानंचायतन को प्राप्त बुद्ध होते हैं ऐसी मान्यता है । हुए वैसे सत्त्वों का निरूपण है ।
समवायांग५७ में बताया है कि जहाँ अरिहन्त तीर्थंकर विचरते सातवें आवास में उन सत्त्वों का वर्णन है जो आकाशनंचायतन हैं वहाँ इति, उपद्रव का भय नहीं रहता, मारी का भय, स्वचक्र, परचक्र को भी अतिक्रमण करके अनंत विज्ञान हैं, ऐस विश्चाणनंचायतन को का भय नहीं रहता। आदि तीर्थंकर के ३४ अतिशय है अंगुत्तरनिकाय प्राप्त हुए हैं।
में तथागत बुद्ध के ५ अतिशय बताये है ।५८ वे अर्थज्ञ होते हैं, धर्मज्ञ आठवें आवस में वे सत्त्व हैं जो कुछ भी नहीं है अकिञ्चायतन होते हैं, मर्यादा के ज्ञाता होते हैं, कालज्ञ होते हैं और परिषद् को जानने को प्राप्त हैं।
वाले. होते हैं। नमें आवास में वे सत्त्व हैं जो नवजाना-सायतन को प्राप्त दोनों परम्पराओं (जैन और बौद्ध) में चक्रवर्ती का उल्लेख है
और उसको बहुजनों का हितकर्ता माना है । स्थानांग५१ और समवायांग"
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जैन, बौद्ध और वैदिक साहित्य- एक तुलनात्मक अध्ययन
में चक्रवर्ती के १४ रत्न बताये गये हैं। तो दीघनिकाय में चक्रवर्ती के ७ रत्नों का उल्लेख है। उनकी उत्पत्ति और विजयगाथा प्रायः एक सदृश है।
स्थानांग ६२ में बुद्ध के तीन प्रकार- ज्ञानबुद्ध, दर्शनबुद्ध और चारित्रयुद्ध बताये हैं तथा स्वयंसंबुद्ध, प्रत्येकबुद्ध और बुद्धबोधित ये तीन प्रकार बताये गये हैं । अंगुरनिकाय में बुद्ध के तथागतबुद्ध और प्रत्येकबुद्ध ये दो प्रकार बताये गये है । ६३
स्थानांग" में स्त्री के स्वभाव का चित्रण करते हुए चतुर्भगी बताई गई है । वैसे ही अंगुत्तरनिकाय" में भार्या की सप्तभंगी बताई गई है (१) वधक के समान (२) चोर के समान (३) अय्य सदृश (४) अकर्म कामा (५) आलसी (६) चण्डी (७) दुरुक्तवादिनी इत्यादि लक्षण युक्त। माता के समान, भगिनी के समान, सखी के समान और दासी के समान स्त्री के ये अन्य प्रकार बताए हैं।
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स्थानांग ६६ में चार प्रकार के मेघ बताये हैं (१) गर्जना करते है किन्तु बरसते नहीं है, (२) गर्जते नहीं बरसते हैं, (३) गरजते और बरसते हैं, (४) गरजते भी नहीं बरसते भी नहीं। इस उपमा का संकेत किया है तो अंगुत्तरनिकाय में इस प्रत्येक भंग में पुरुष को पटाया गया है । (१) बहुत बोलता है किन्तु करता कुछ नहीं, (२) बोलता नहीं पर करता है, (३) बोलता भी नहीं और करता भी नहीं, (४) बोलता भी है, करता भी है। इसी प्रकार गरजना और बरसना रूप चतुर्भगी अन्य प्रकार से भी घटित की गई ह
स्थानांग" में कुंभ के चार प्रकार बताये गये हैं (१) पूर्ण और अपूर्ण, (२) पूर्ण और तुच्छ (३) तुच्छ और पूर्ण, (४) तुच्छ और अतुच्छ । इसी तरह कुछ प्रकारान्तर से अंगुत्तरनिकाय में कुंभ की उपमा । पुरुष चतुभंगी से घटित की है। (१) तुच्छ खाली होने पर भी ढक्कन होता है, (२) भरा होने पर भी ढक्कन नहीं होता, (३) तुच्छ होता है बक्कन भी होता है।
(१) जिसकी वेश-भूषा तो ठीक है किन्तु आर्यसत्य का परिज्ञान नहीं है वह प्रथम कुंभ के सदृश है। आर्यसत्य का परिज्ञान होने पर भी बाह्य आकार सुन्दर नहीं हो वह द्वितीय कुंभ के सदृश है। (२) बाह्य आकार भी सुन्दर नहीं और आर्यसत्य का भी परिज्ञान नहीं । बाह्य आकार भी सुन्दर और आर्यसत्य का परिज्ञान भी है। इसी तरह अन्य चतुर्भगों के साथ निकाय के विषयवस्तु की तुलना की सकती है।
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इसी प्रकार उत्तराध्ययनसूत्र की अनेक गाथाओं से बौद्ध साहित्य धम्मपद", थेरीगाथा", अंगुत्तरनिकाय ७३ सुत्तनिपात४, जातक५, महावग्ग तथा वैदिक साहित्य श्रीमद्भागवत एवं महाभारत के शांतिपर्व, उद्योगपर्व ९, विष्णुपुराण, श्रीमद्भगवद्गीता' १, श्वेताश्वतर उपनिषद् शांकर भाष्य का भाव और अर्थ साम्य है ।
उत्तराध्ययन के २५ वें अध्ययन में ब्राह्मणों के लक्षणों का निरूपण किया गया है और प्रत्येक गाथा के अन्त में 'तं वयं बूम
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महाणं" पद है। उसकी तुलना बौद्ध ग्रन्थ धम्मपद के ब्राह्मण वर्ग ३६ वें तथा सुत्तनिपात के वासेद्वसुत ३५ के २४५ वें अध्याय से की जा सकती है। धम्मपद के ब्राह्मण वर्ग की गाथा के अन्त में 'तमहं ब्रूमि ब्राह्मणं" पद आया । सुत्तनिपात में भी इस शब्द का प्रयोग हुआ है । इसी प्रकार महाभारत के शानित पर्व अध्याय २४५ में ३६ श्लोक हैं उनमें ७ श्लोकों के अन्तिम चरण में 'तं देवा ब्राह्मण विदुः ' ऐसा पद है। इस प्रकार तीनों परम्परा के मानवीय ग्रन्थों में ब्राह्मण के स्वरूप की मीमांसा में कुछ शब्दों के परिवर्तन के साथ उन्हीं रूपक और उपमाओं के प्रयोग द्वारा विषय को स्पष्ट किया है ।
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दशवैकालिक की अनेक गाथाओं की तुलना धम्मपद, संयुत्त निकाय८५, सुत्तनिपात ८६, संयुक्त निकाय" सुत्तनिपात कौशिक जातक, विसवन्त जातक ८६. इतिवृत्तक, श्रीमद्भागवत, श्रीमद्भगवतगीता" मनुस्मृति आदि के साथ की जा सकती है। कहीं पर शब्दों में साम्य है तो कहीं पर अर्थ में साम्य है ।
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इसी तरह सूत्रकृतांग की तुलना दीघनिकाय के साथ, उपासक दशांग की तुलना दीघनिकाय के साथ, अन्तकृदशांग की तुलना थेर और धोरीगाथा के साथ राजप्रश्नीय की तुलना पायासीसुत्त के साथ, निशीथ की तुलना विनयपिटक के साथ और छेद सूत्रों की तुलना पातिमुख के साथ की जा सकती है ।
जैन और बौद्ध दोनों ही परम्पराओं में अनेकों शब्दों का प्रयोग समान रूप से हुआ है । उदाहरण के लिए हम कुछ शब्द साम्य यहाँ प्रस्तुत कर रहे हैं।
निगंठ निर्मन्थ, जो अन्तरंग और बहिरंग से मुक्त है। जैन परम्परा में तो श्रमणों के लिए 'निर्ग्रन्थ' शब्द हजारों बार व्यवहृत हुआ है। बौद्ध त्रिपिटक साहित्य में भी जैन श्रमणों के लिए 'निर्मन्थ' शब्द का प्रयोग हुआ है। श्रमण भगवान् महावीर के पुनीत प्रवचन को भी निर्गन्ध प्रवचन कहा है।
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भन्ते जैन और बौद्ध दोनों ही परम्पराओं में आदरणीय व्यक्तियों को आमंत्रित करने के लिए 'भन्ते' (भदन्त) शब्द व्यवहृत हुआ है । १४
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थेरे दोनों ही परम्पराओं में ज्ञान, वय और दीक्षा पर्याय आदि को लेकर घेरे या स्थविर शब्द का व्यवहार हुआ है ।" बौद्ध परम्परा में यह वर्ष से अधिक वृद्ध भिक्षुओं के लिए घेर या बेरी शब्द का प्रयोग हुआ है। जैन परम्परा में भी एक मर्यादा निश्चित की गई है। जो स्वयं भी ज्ञान, दर्शन, चारित्र आदि में स्थिर रहता है और दूसरों को भी स्थिर करता है, वह स्थविर है स्थविर को भगवान् की उपमा से अलंकृत किया गया है। गीता में 'स्थविर' के स्थान पर 'स्थितप्रज्ञ' का प्रयोग हुआ है। स्थितप्रज्ञ वह विशिष्ट व्यक्ति होता है जिसका आचार निर्मल और विचार पवित्र होता है।
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आउसो जैन और बौद्ध दोनों परम्पराओं में समान या अपने
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जैन विद्या के आयाम खण्ड-७ से लघु व्यक्तियों के लिए 'आउस' (आययमान्) शब्द का प्रयोग हुआ (१) लोभ (२) द्वेष (३) मोह- ये तीन अकुशलमूल हैं। है। तथागत बुद्ध को 'आउस गौतम' कहकर सम्बोधित किया गया है। जैन दृष्टि से साधना का मूल सम्यग्दर्शन है और साधना का तो गोशालक ने भी भगवान् महावीर को 'आउसो कासवाँ' कहकर बाधक तत्त्व मोहनीय कर्म । राग और द्वेष ये मोह के ही प्रकार हैं । इसी सम्बोधित किया है ।९६
प्रकार मज्झिमनिकाय में बुराइयों की जड़ लोभ, द्वेष और मोह को बताया अर्हत् और बुद्ध - वर्तमान में जैन परम्परा में 'अर्हत' शब्द गया है। और बौद्ध परम्परा में 'बुद्ध' शब्द रूढ हुआ है। जैनागमों में 'बुद्ध' शब्द तत्त्वार्थसूत्र में सम्यग्दर्शन की उत्पत्ति के अधिगम और निसर्ग का प्रयोग अनेक स्थलों पर हुआ है। जैसे सूत्रकृतांग९७ राजप्रश्नीय८, ये दो कारण बताये है१०८ । मज्झिमनिकाय ०१ में एक प्रश्नोत्तर मिलता स्थानांग१९, समवायांग१०० आदि । बौद्ध परम्परा में पूज्य व्यक्तियों के है कि सम्यग्दृष्टि ग्रहण के कितने प्रत्यय हैं? उत्तर में कहा- दो प्रत्यय लिए 'अर्हत्' शब्द व्यवहत हुआ है । यत्र-तत्र तथागत बुद्ध को 'अर्हत्' हैं - (१) दूसरों के घोष-उपदेश श्रवण और योनिश: मनस्कार- मूल सम्यक् सम्बुद्ध १०१ कहा गया है । तथागत बुद्ध के परिनिर्वाण के पश्चात् पर विचार करना । ५०० भिक्षुओं की एक विराट सभा होती है । वहाँ आनन्द के अतिरिक्त जैन दृष्टि से साधना की पाँच भूमिकाएँ हैं । व्रतों से पहले ५९९ भिक्षुओं को 'अर्हत्' कहा गया है। कार्यारम्भ होने के पश्चात् सम्यक्-दर्शन को स्थान दिया गया है । उसके पश्चात् विरति है। आनन्द को भी 'अर्हत्' लिखा गया है।०२ । शताधिक बार 'अर्हत्' शब्द मज्झिमनिकाय के सम्मादिट्टि सूत्तन्त में दास कुशल धर्मों का उल्लेख का प्रयोग हुआ है।
है११० । उनका समावेश पाँच व्रतों में इस प्रकार किया जा सकता है। जैन और बौद्ध दोनों ही परम्पराओं में गृहस्थ उपासक के लिए 'श्रावक' शब्द व्यवहत१०३ हुआ है । जैन परम्परा में गृहस्थ के लिए महाव्रत
कुशल धर्म श्रावक' शब्द आया है तो बौद्ध परम्परा में भिक्षु और गृहस्थ दोनों के १. अहिंसा
(१) प्राणातिपात (९) व्यापाद से विरति लिए 'श्रावक' शब्द का प्रयोग मिलता है। इसी प्रकार उपासक या २. सत्य
(४) मृषावाद (५) पिशुन वचन श्रमणोपासक शब्द भी दोनों ही परम्पराओं में प्राप्त है। गृहस्थ के लिए ३. अचौर्य
(६) परुष वचन (७) संप्रलाप से विरति 'आगार' शब्द का भी प्रयोग हुआ है । जैन साहित्य में 'आगारओं ४. ब्रह्मचर्य
(२) अदत्तादान से विरति अणगारियं पक्वइत्तए' शब्द आया है १०५ तो बौद्ध साहित्य में भी ५. अपरिग्रह
(३) काम में मिथ्याचार से विरति 'अगारम्मा अनगारिअं पव्वज्जन्ति' यह शब्द व्यवहत हआ है १०६ ।
(८) अभिध्या से विरति सम्यक् दृष्टि और मिथ्यादृष्टि इन शब्दों का प्रयोग भी जैन और बौद्ध भावना - प्रश्नव्याकरणसूत्र में पाँच महाव्रतों की पच्चीस साहित्य में प्राप्त होता है । स्वयं के अनुयायियों के लिए 'सम्यक् दृष्टि' भावनाओं का उल्लेख है।११। अन्यत्र अनित्य, अशरण, संसार आदि और दूसरे के अनुयायियों के लिए 'मिथ्यादृष्टि' शब्द का प्रयोग किया द्वादश भावनाओं का भी उल्लेख ११२ है । तत्त्वार्थ सूत्र आदि में मैत्री, गया है। 'वैरमण' शब्द का प्रयोग भी दोनों ही परम्पराओं में व्रत लेने प्रमोद, कारुण्य, माध्यस्थ भावना का उल्लेख १३ है तो मज्झिमनिकाय के अर्थ में हुआ है।
में सम्यग्दर्शन के साथ ही भावना का भी वर्णन आया है । मैत्री, करुणा, मज्झिमनिकाय ०७ में सम्मादिट्ठि सुत्तन्त नामक एक सूत्र है। मुदिता और अपेक्षा की भावना करने वाला आध्यात्मिक शान्ति प्राप्त कर उसमें सम्यक् दृष्टि का वर्णन करते हुए लिखा है - आर्य श्रावक सकता है११४ । सम्यग्दृष्टि होता है । उसकी दृष्टि सीधी होती है । वह धर्म में अत्यन्त स्थानांग११५, आवश्यक'१६ व तत्त्वार्थसूत्र १७ आदि में इस श्रद्धावान् होता है । अकुशल एवं अकुशल मूल को जानता है । साथ बात को प्रतिपादित किया गया है कि व्रत ग्रहण करने वाले व्यक्ति को ही कुशल और कुशलमूल को भी जानता है । जिससे वह आर्य श्रावक शल्य रहित होना चाहिए । शल्य वह है जो आत्मा को कांटे की तरह सम्यग्दृष्टि होता है।
दुःख दे । उसके तीन प्रकार हैं - अकुशल दस प्रकार का है और अकुशलमूल तीन प्रकार का (१) माया शल्य - छल-कपट करना ।
(२) निदान शल्य - आगामी काल में विषयों की वाछा करना। (१) प्राणातिपात (हिंसा ) (२) अदत्तादान (चोरी) (३) काम (३) मिथ्यादर्शन शल्य -तत्त्वों का श्रद्धान् न होना। (स्त्रीसंसर्ग) में मिथ्याचार (४) मृषावाद (झूठबोलना) (५) पिशुन वचन मज्झिमनिकाय११८ में तृष्णा के लिए शल्य शब्द का प्रयोग (चुगली) (६) परुष वचन (कठोर भाषण) (७) संप्रलाप (बकवास) (८) हुआ है और साधक को उससे मुक्त होने के लिए कहा गया है। अभिध्या (लालच) (९) व्यापाद (प्रतिहिंसा) (१०) मिथ्यादृष्टि (झूठी आचारांग के शस्त्रपरिज्ञा अध्ययन में इन्द्रिय संयम की महत्ता धारणा) हे आवुसो ये अकुशल है।
बताते हुए कहा है कि रूप, रस, गन्ध एवं स्पर्श अज्ञानियों के लिए
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चक्ष विज्ञेय रूप (२
विज्ञेय को प्र
दर्शन विशुद्धि को प्रा
जैन, बौद्ध और वैदिक साहित्य-एक तुलनात्मक अध्ययन
११३ आवर्त रूप हैं ऐसा समझकर विवेकी उनमें मूछित नहीं होता। यदि स्थिति समान होती है और उनकी स्वतन्त्र सत्ता होती है। मुक्त दशा में प्रमाद के कारण पहले इनकी ओर झुकाव रहा तो ऐसा निश्चय करना आत्मा संपूर्ण वैभाविक, औपाधिक विशेषताओं से मुक्त होता है, उसका चाहिए कि मैं इनसे बचूँगा - इनमें नहीं फतूंगा, पूर्ववत् आचरण नहीं पुनरावर्तन नहीं होता। करूँगा।
___मज्झिमनिकाय में निर्वाण मार्ग का विस्तार से वर्णन है ।१२६ मज्झिमनिकाय १९ में पाँच इन्द्रियों का वर्णन है - चक्षु, श्रोत्र वहाँ पर निर्वाण को परमसुख१२० कहा है और बताया है कि शीलविशुद्धि घ्राण, जिह्वा और काय । इन पाँचों इन्द्रियों का प्रतिशरण मन है । मन तभी तक है जब तक कि पुरुष चित्त-विशुद्धि को प्राप्त नहीं होता। चित्ता इनके विषय का अनुभव करता है ।
विशुद्धि तभी तक है जब तक कि दृष्टिविशुद्धि को प्राप्त नहीं होता। पाँच काम गुण है - (१) चक्षु विज्ञेय रूप (२) श्रोत्र विज्ञेय दृष्टिविशुद्धि तभी तक है जब तक कि कांक्षावितरणविशुद्धि शब्द (३) ध्राण पाँच विज्ञेय गन्ध (४) जिह्व विज्ञेय रस (५) काय विज्ञेय को प्राप्त नहीं होता । कांक्षावितरणविशुद्धि तब तक है जब तक स्पर्श
मार्गामार्गन दर्शन विशुद्धि को प्राप्त होता । मार्गामार्गदर्शन विशुद्धि तब स्थानांग, भगवती आदि में नरक, तिर्यच, मनुष्य और देव इन तक है जब तक कि प्रतिपद् ज्ञानदर्शनविशुद्धि की प्राप्ति नहीं होती। चार गतियों का वर्णन है।
प्रतिपद्ज्ञानदर्शनविशुद्धि तब तक है जब तक कि ज्ञानदर्शनविशुद्धि को मज्झिमनिकाय१२१ में पाँच गतियाँ बताई हैं । नरक, तिर्यग, प्राप्त नहीं होता । ज्ञानदर्शनविशुद्धि तभी तक है जब तक कि उपादान प्रेत्यविषय, मनुष्य, देवता। जैन आगमों में प्रेत्यविषय और देवता को रहित परिनिर्वाण को प्राप्त नहीं होता ।१२८ एक कोटि में माना है। भले ही निवासस्थान की दृष्टि से दो भेद किये अजात- जन्मरिहत, अनुत्तर-सर्वोत्तम योगक्षेम (मंगलमय) गये हों पर गति की दृष्टि से वे दोनों एक ही हैं।
निर्वाण पर्येषणा करता है ।१२९ जैन आगम साहित्य में भनक और स्वर्ग में जाने के निम्न जैन और बौद्ध दोनों ही दर्शनों में निर्वाण की चर्चा है । दोनों कारण बताये२२ हैं -महारम्भ, महापरिग्रह, मद्यमांस का आहार और ने निर्वाण के लिए सच्चा विश्वास, ज्ञान और आचार-विचार को प्रधानता पन्चेन्द्रिय वध ये नरक के कारण हैं । सरागसंयम, संयमासंयम, दी है, पद दोनों में मुख्य अन्तर यह है कि बौद्ध दृष्टि से द्रव्य सत्ता का बालतपोपकर्म और अकार निर्जरा ये स्वर्ग के कारण हैं।
अभाव ही निर्वाण है जब कि जैन दृष्टि से आत्मा की शुद्ध अवस्था मज्झिमनिकाय१२ में भी नरक और स्वर्ग के कारण बताये गये निर्वाण है। हैं, वे ये हैं -
पुग्गल - पुद्गल शब्द का प्रयोग जैन और बौद्ध वाङ्मय के (कायिक ३) हिंसक, आदिनादायी (चोर) काम में मिथ्याचारी; अतिरिक्त अन्यत्र देखने को नहीं मिलता । भगवतीसूत्र में जीव तत्त्व के (वाचिक ४) मिथ्यावादी, चुगलखोर, परुषभाषी, प्रलापी (मानसिक३) अर्थ में पुद्गल शब्द का प्रयोग हुआ है ।१३. किन्तु जैन परम्परा में मुख्य अभिध्यालु, व्यापन्नचित, मिथ्यादृष्टि । इन कर्मों को करने वाले नरक में रूप से पुद्गल वर्ण, गन्ध, रस संस्थान और स्पर्श वाले रूपी जड़ पदार्थ जाते हैं, इसके विपरीत कार्य करने वाले स्वर्ग में जाते हैं। को कहा है । बौद्ध परम्परा में पुद्गल का अर्थ आत्मा और जीव है।१३१
जैन दर्शन की साधना- पद्धति का परम और चरम लक्ष्य मोक्ष विनय'- शब्द का प्रयोग भी दोनों ही परम्पराओं में मिलता रहा है। मोक्ष का अर्थ है आत्म-गुणों का पूर्ण विकास, कर्म की है। उत्तराध्ययन और दशवैकालिक सूत्र और ज्ञाताधर्मकथा में विनय की परतन्त्रता से पूर्ण रूप से मुक्त होना । उसमें शरीरमुक्ति और क्रियामुक्ति महत्ता का प्रतिपादन करते हुए विनय को धर्म का व जिनशासन का मूल होती है।
कहा है ।१३२ मोक्ष के लिए पाप प्रत्याख्यान, इन्द्रिय संगोपन, शरीर संयम बौद्ध साहित्य में सम्पूर्ण आचारधर्म में अर्थ में 'विनय' शब्द वाणी संयम, मानमाया परिहार, ऋद्धि रस और सुख के गौरव का त्याग, का प्रयोग हुआ है । विनय-पिटक में इसी बात का निरूपण किया गया उपशद, अहिंसा, अचौर्य, सत्य, ब्रह्मचर्य, परिगह, क्षमा, ध्यान योग है।
और कायव्युत्स गये अकर्म वीर्य हैं । पण्डित इनके द्वारा मोक्ष का जैन परम्परा में 'अरिहन्त' सिद्ध' 'साधू' और केवली-प्रज्ञप्त परिव्राजक बनता है ।१२४ निर्वाण किसी क्षेत्र विशेष का नाम नहीं है अपितु धर्म को 'शरण' माना है, १३३ तो बौद्ध परम्परा में बुद्ध संघ और धर्म को मुक्त आत्माएँ ही निर्वाण हैं, वे लोकाग्र में रहती हैं अत: उपचार से उसे शरण कहा गया है१३४। जैन परम्परा में चार शरण हैं और बौद्ध परम्परा भी निर्वाण कहा जाता है । मुक्त जीव अलोक से प्रतिहत हैं, लोकान्त में तीन शरण है। में प्रतिष्ठित हैं । १२५
जैन परम्परा में तीर्थकर, चक्रवर्ती, इन्द्र आदि पुरुष ही होते मुक्त जीव के शरीर नहीं होते । मुक्त दशा में आत्मा का है। मल्लि भगवती, स्त्रीलिंग से तीर्थकर हुई थी, उन्हें दस आश्चयों में किसी अन्य शक्ति में विलय नहीं होता। सभी मुक्त जीवों की विकास एक आश्चर्य माना गया है१३५। अंगुत्तरनिकाय में बुद्ध ने भी कहा कि 'भिक्षु
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जैन विद्या के आयाम खण्ड-७ यह तनिक भी सम्भावना नहीं है कि स्त्री अर्हत्, चक्रवर्ती व शुक्र हो५३६। अर्धमागधी में अपने पावन प्रवचन किये और अपने कल्याणकारी
जैन आगम साहित्य में अनेक स्थलों पर यह वर्णन है कि दृष्टिकोण से जन-जीवन में अभिनव-जागृति का संचार किया। उनके भरत आदि एक ही क्षेत्र में, एक समय में एक साथ दो तीर्थंकर नहीं पवित्र प्रवचन जो अर्थ रूप में थे, उनका संकलन-आकलन गणधरों व होते, तथागत बुद्ध ने भी अंगुत्तरनिकाय में इस बात को स्पष्ट करते हुए स्थिवरों ने सूत्र रूप में किया। अर्धमागधी भाषा में संकलित यह आगम लिखा कि इसमें किञ्चित भी तथ्य नहीं है कि एक ही समय में दो सम्यक् साहित्य विषय की दृष्टि से, साहित्य की दृष्टि से व सांस्कृतिक दृष्टि से अर्हत् पैदा हों।
अत्यन्त महत्त्वपूर्ण है । जब भारत के उत्तर-पश्चिमी और पूर्व के कुछ शब्द साम्य की तरह उक्ति साम्य भी दोनों परम्पराओं में अंचलों में ब्राह्मण धर्म का प्रभूत्व बढ रहा था उस समय जैन श्रमणों मिलता है साथ ही कुछ कथाएँ भी दोनों परम्पराओं में एक सदृश मिलती ने मगध और उसके निकटवर्ती क्षेत्रों में परिभ्रमण कर जैन धर्म की विजय हैं, यहाँ तक कि वैदिक और विदेशी साहित्य में भी उपलब्ध होती हैं। वैजयन्ती फहरायी। यह उस विशाल साहित्य के अध्ययन, चिन्तन मनन उदाहरणार्थ - ज्ञातधर्मकथा की सातवीं चावल के पाँच दानेवाली कथा से परिज्ञात होता है। इसमें जैन श्रमणों के उत्कृष्ट आचार-विचार, व्रतकुछ रूपान्तर के साथ बौद्धों के सर्वास्तिवाद के विनयवस्तु तथा नियम, सिद्धान्त, स्वमत संस्थापन, परमत निरसन प्रभृति अनेक विषयों बाइबल ३७ में भी प्राप्त होती है। इसी प्रकार जिनपाल और जिनरक्षित१३८ पर विस्तार से विश्लेषण है । विविध आख्यान चरित्र, उपमा, रूपक,दृष्टान्त की कहानी बालहस्सजातक१३९ व दिव्यावदान में नामों के हेर-फेर के आदि के द्वारा विषय को अत्यन्त सरल व सरस बनाकर प्रस्तुत किया साथ कही गयी है । उत्तराध्ययन के बारहवें अध्ययन हरिकेशबल की गया है। वस्तुत: आगम साहित्य, जैन संस्कृति इतिहास, समाज और कथावस्तु मातङ्गजातक में मिलती है ।१४ तेरहवें अध्ययन चित्तसम्भूतः४५ धर्म का आधार स्तम्भ है । इसके बिना जैनधर्म का सही व सांगोपांग की कथावस्तु चित्तसम्भूतजातक में प्राप्त होती है । चौदहवें अध्ययन परिचय नहीं प्राप्त हो सकता । यह सत्य तथ्य है कि विभिन्न परिस्थितियों इषुकार को कथा हत्थिपालजातक १४२ व महाभारत के शांतिपर्व १४३ में के कारण जैन धर्म के सिद्धान्तों में भी परिवर्तन-परिवर्द्धन होते रहे हैं, उपलब्ध होती है। उत्तराध्ययन के नौवें अध्ययन 'नमि प्रव्रज्या' की पर आगम साहित्य में मूल दृष्टि से कोई अन्तर नहीं आया है। आशिक तुलना महाजनजातक १४४ तथा महाभारत के शांतिपर्व ४५ से की आगम साहित्य में आयी हुई अनेक बातें परिस्थितियों के जा सकती है।
कारण से विस्मृत होने लगीं । आगमों के गहन रहस्य जब विस्मृति के इस प्रकार महावीर के कथा साहित्य का अनुशीलन-परिशीलन अंचल में छिपने लगे तो प्रतिभामूर्ति आचार्यों ने उन रहस्यों को स्पष्ट करने से स्पष्ट परिज्ञान होता है कि ये कथाएँ आदिकाल से ही एक करने के लिए नियुक्ति भाष्य, चूर्णि, टीका आदि व्याख्या साहित्य का सम्प्रदाय से दूसरे सम्प्रदाय में, एक देश से दूसरे देश में यात्रा करती सृजन किया । फलस्वरूप आगमों के व्याख्या साहित्य ने अतीत काल रही हैं। कहानियों की यह विश्वयात्रा उनके शाश्वत और सुन्दर रूप की से आने वाली अनेक अनुश्रुतियों, परम्पराओं, ऐतिहासिक और अर्धसाक्षी दे रही है जिस पर सदा ही जनमानस मुग्ध होता रहा है। ऐतिहासिक कथानकों एवं धार्मिक, आध्यात्मिक व लौकिक कथाओं के
उपर्युक्त पंक्तियों में संक्षेप में तुलनात्मक अध्ययन प्रस्तुत द्वारा जैन साहित्य के गुरु गम्भीर रहस्यों को प्रकट किया। यह साहित्य किया गया है । स्थानाभाव के कारण जैसे विस्तार से चाहता था वैसे व्याख्यात्मक होने पर भी जैन धर्म के मर्म को समझने के लिए अतीव नहीं लिख सका तथापि जिज्ञासुओं को इसमें बहुत कुछ जानने को उपयोगी है। इसमें जैन-आचारशास्त्र के विधि-विधानों की सूक्ष्म-चर्चा मिलेगा और यह तुलनात्मक अध्ययन दुराग्रह और संकीर्ण दृष्टि के है। हिंसा-अहिंसा, जिनकल्प व स्थविरकल्प की विविध अवस्थाओं का निरसन में सहायक होगा।
विशद् विश्लेषण किया गया है। क्रियावादी, अक्रियावादी आदि ३६३ उपसंहार - श्रमण भगवान् महावीर एक विराट् व्यक्तित्व के मतमतान्तरों का उल्लेख है। गणधरवाद और निह्नववाद- ये दर्शनशास्त्र धनी महापुरुष थे। वे महान क्रांतिकारी थे । उनके जीवन में सत्य, की विधि द्रष्टियों का प्रतिनिधित्व करते हैं । आजीविक, ताप परिव्राजक, शीली, सौन्दर्य और शक्ति का ऐसा अद्भुत समन्वय था जो विश्व के अन्य तत्क्षणिक और बोटिक आदि मत-मतान्तरों का भी विश्लेषण हुआ है। महापुरुषों में एक साथ देखा नहीं जा सकता । उनकी दृष्टि अत्यधिक मति, रुत, अवधि, मन:पर्यय और केवलज्ञान के स्वरूप पर विस्तार से पैनी थे । समाज में पनपती हुई आर्थिक विषमता, विचारों के विविधता . चिन्तन कर केवलज्ञान और केवलदर्शन के भेद और अभेद का युक्ति और कामजन्य वासना को काले-कजरारे दुर्दमनीय नागों को उन्होंने पुरस्पर विचार है। अनुमान आदि प्रमाण शास्त्र पर भी चिंतन किया गया अहिंसा, सत्य, संयम और तप के गारुडी संस्पर्श से कीलकर समता, है। कर्मवाद जैन दर्शन का हृदय है। कर्म, कर्म का स्वभाव, कर्मस्थिति, सद्भावना व स्नेह की सरस सरिता प्रवाहित की । अज्ञान अन्धकार में रागादि की तीव्रता से कर्मबंध, कर्म का वैविध्य, समुद्घात, शैलेषी भटकती हुई मानव प्रज्ञा को शुद्ध सत्य की ज्योति का दर्शन कराया। अवस्था, उपशम और क्षपक श्रेणी पर गहराई से चिन्तन किया गया है। यही कारण है कि उन्होंने जन-जन के कल्याणार्थ उस युग की बोली ध्यान के सम्बन्ध में भी पर्याप्त विवेचन है। क्षिप्तचित्त और दीप्तचित्त
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जैन, बौद्ध और वैदिक साहित्य- एक तुलनात्मक अध्ययन साहित्य अनुपम कोश है।
श्रमणों की चिकित्सा की मनोवैज्ञानिक विधि प्रतिपादित की गई है। साथ ही क्षिप्तचित्त और दीप्तचित्त होने के कारणों पर भी चिंतन किया गया है ।
भगवान् ऋषभदेव मानव-समाज के आद्य निर्माता थे। उनके पवित्र चरित्र के माध्यम से आहार, शिल्प, कर्म, लेखक, मानदण्ड, इक्षुशास्त्र, उपासना, चिकित्सा, अर्थशास्त्र, यज्ञ, उत्सव, विवाह आदि अनेक सामाजिक विषयों पर चर्चा की गई है। मानव जाति को सात वर्णान्तरों में विभक्त किया गया है। सार्थ, सार्ववाहों के प्रकार छह प्रकार की अर्य जातियाँ, छह प्रकार के आर्यकुल आदि समाजशास्त्र से सम्बद्ध विषयों पर विश्लेषण किया गया है। साथ ही ग्राम, नगर, खेड, कर्वटक, मडम्ब, पत्तन, आकार, द्रोणमुख, निगम और राजधानी का स्वरूप भी चित्रित किया गया है। साढ़े पच्चीस आर्य देशों की राजधानी आदि का भी उल्लेख किया गया है राजा, युवराज, महत्तर अमात्य, कुमार, नियतिक, रूपयक्ष, आदि के स्वरूप और कार्यों पर भी चिन्तन किया गया है। साथ ही उस युग की संस्कृति और सभ्यता पर प्रकाश डालते हुए रत्न एवं धान्य की २४ जातियाँ बताई गई है। जोधिक आदि पाँच प्रकार के वस्त्रों का उल्लेख है। १७ प्रकार के धान्य भण्डारों का वर्णन है। दण्ड, विदण्ड, लाठी, विलट्ठी के अन्तर को स्पष्ट किया गया है। कुण्डल, गुण, तुणिय, तिसरिय, बालंभा, पलंबा, हार, अर्धहार, एकावली कनकावली, मुत्तली, रत्नावली, पट्ट, मुकुट आदि उस युग में प्रचलित नाना प्रकार के आभूषणों के स्वरूप को भी चित्रित किया गया है। उद्यान गृह, निर्याण गृह, अट्ट-अट्आलक, शून्यगृह, तृणगृह गोगृह आदि अनेक प्रकार के गृहों का, कोष्ठागार, भांडागार, पानागार, क्षीण गृह, गजशाला, मानसशाला आदि के स्वरूप पर भी विचार किया गया है। इस प्रकार आचारशास्त्र, दर्शनशास्त्र, समाजशास्त्र, नागरिकशास्त्र, मनोविज्ञान आदि पर आगम और उसके व्याख्या साहित्य में प्रचुर सामग्री है ।
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आगम साहित्य का विषय की दृष्टि से ही नहीं किन्तु साहित्यिक दृष्टि से भी प्रभूत महत्त्व है। आगमों में विविध छन्दों का प्रयोग हुआ है उत्प्रेक्षा, रूपक, उपमा, श्लेष अर्थान्तरन्यास आदि अलंकारों का सुन्दर प्रयोग हुआ है। कहीं-कहीं पर जीव को पतंग, विषयों को दीपक और आसक्ति को आलोक की उपमा प्रदान की है। आगम साहित्य में गद्य और पद्य का मिश्रण भी पाया जाता है। यद्यपि गद्य और पद्य का स्वतन्त्र अस्तित्त्व है, किन्तु वे दोनों समान रूप से विषय को विकसित और पल्लवित करते हैं। प्रस्तुत प्रणाली ही आगे चलकर चम्पूकाव्य या गद्य-पद्यात्मक कथाकाव्य के विकास का मूल स्रोत बनी। कथाओं के विकास के सम्पूर्ण रूप भी आगम साहित्य में मिलते हैं। वस्तु, पात्र, कथोपकथन, चरित्र-निर्माण प्रभूति तत्त्व आगम व व्याख्या साहित्य में पाये जाते हैं। तर्कप्रधान दर्शन शैली का विकास भी आगम साहित्य में है जीवन और जगत् के विविध अनुभवों की जानकारी का यह
दिगम्बराचार्यों ने श्वेताम्बरों के आगमों को प्रमाणिक नहीं माना । श्वेताम्बर दृष्टि से केवल दृष्टिवाद नामक बारहवाँ अंग ही विच्छिन्न हुआ जब कि दिगम्बर दृष्टि से सम्पूर्ण आगम साहित्य ही लुप्त हो गया। केवल दृष्टिवाद का कुछ अंश अवशेष रहा जिसके आधार से षट्खण्डागम की रचना हुई और उसी मूल आधार से अन्य अनेक मेघावी आचायों ने आत्मा और कर्म सम्बन्धी विषयों पर गम्भीर ग्रन्थों की रचना की। श्वेताम्बर आगम साहित्य के समान विविध विषयों की विषद् चर्चाएँ दिगम्बर साहित्य में नहीं है। श्वेताम्बर और दिगम्बर आगम को समझने के लिए दोनों का तुलनात्मक अध्ययन आवश्यक है।
दोनों ही परम्पराओं में अनेक प्रतिभासम्पन्न ज्योतिर्धर आचार्य हुए, जिन्होंने आगम साहित्य के एक-एक विषय को लेकर विपुल साहित्य का सृजन किया। उस साहित्य में उन आचार्यों का प्रकाण्ड पांडित्य और अनेकान्त दृष्टि स्पष्ट रूप से झलक रही है। आवश्यकता है उस विराट् साहित्य के अध्ययन, चिन्तन और मनन की। यह वह आध्यात्मिक सरस भोजन है जो कदापि बासी नहीं हो सकता। यह जीवन दर्शन है प्राचीन मनीषी के शब्दों में यदि कहा जाय तो । अतिशयोक्ति नहीं होगी कि "यदिहास्ति तदन्यत्र यन्नेहास्ति न तत्ववचित्" आगम साहित्य में लोकनीति, सामाजिक शिष्टाचार, अनुशासन, अयात्म, वैराग्य, इतिहास और पुराण, कथा और तत्त्वज्ञान, सरल और गहन, अन्तः और बाह्य जगत् सभी का गहन विश्लेषण है जो अपूर्व है अनूठा है जीवन के सर्वांगीण अध्ययन के लिए आगम साहित्य का अध्ययन आवश्यक ही नहीं अनिवार्य भी है। भौतिक शक्ति के युग में पले पोसे मानवों के अन्तर्मानस में जैन आगम साहित्य के प्रति यदि रुचि जाग्रत हुई तो मैं अपना प्रयास पूर्ण सफल समझेगा। इसी आशा के साथ लेखनी को विश्राम देता हूँ।
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२.
३.
४.
५
६.
७.
८.
संदर्भ
,
आचारांग अ० भा० ० स्वा० जैन शास्त्रोद्दार समिति, १/३/३ सुबालोपनिषद्, ९ खण्ड, ईशाद्यष्टोत्तर शतोपनिषद्, पृ० २१०
भगवद्गीता, अ०२, श्लो० २३
आचारांग, १/४/४
गौडपादकारिका, प्रकरण२, श्लो०६
आचारांग, १/५/६
केनोपनिषद्, खण्ड १, श्लोक ३
कठोपनिषद, अ०१, श्लोक १५
बृहदारण्यक, ब्राह्मण८, श्लोक ८
११५
९.
१०. माण्डूक्योपनिषद्, श्लो०७
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जैन विद्या के आयाम खण्ड-७ ११. तैत्तिरीयोपनिषद् , ब्रह्मानन्दवल्ली२, अनुवाक ४
४९. अंगुत्तरनिकाय, ४/१५९ १२. ब्रह्मविद्योपनिषद्, श्लोक ८१-९१
५०. स्थानांग, ५४९ १३. आचारांग, १/६/३
५१. अंगुत्तरनिकाय, ४/११९, ५/७७ १४. नारदपरिव्राजकोपनिषद्, ७, उपदेश
५२. वही, १५. संयन्यासोपनिषद्, १ अध्याय
५३. वही, ४/१४१, १४५ १६. आचारांग, ६
५४. वही, ९/३८ १७. अंगुत्तरनिकाय, ४/७७
५५. वही, स्थानांग ३ १८. (क) स्थानांग, ५, ४/१९,
५६. अंगुत्तरनिकाय, ८/७० (ख) समवायांग, ५
५७. समवायांग, ३४ १९. अंगुत्तरनिकाय, ३/५८, ६/६३
५८. अंगुत्तरनिकाय, ५/१२१ २०. मज्झिमनिकाय, १/१/२
५९. स्थानांग, ५५८ २१. तत्त्वार्थसूत्र, अ०६/१-२
६०. समयवांग, १४ २२. स्थानांग, ७६९
६१. स्थानांग, १७ २३. अंगुत्तर निकाय, ३/३
६२. स्थानांग, ३/१५६ २४. स्थानांग, ९६
६३. अंगुत्तरनिकाय, २/६/५ २५. अंगुत्तरनिकाय, ३/३
६४. स्थानांग, २७९ २६. वही, ३/९७, ६/२९
६५. अंगुत्तरनिकाय, ७/५९ २७. (क) स्थानांग, ६०६,
६६. स्थानांग, ४/३४६ (ख) समवायांग, ८
६७. अंगुत्तरनिकाय, ४/११० २८. अंगुत्तरनिकाय, ३/३९
६८. स्थानांग, ४/३६० " २९. (क) स्थानांग, ४२७, ५९८
६९. अंगुत्तरनिकाय, ४/१०३ (ख) समवायांग, १/५
७०. उत्त०, १/१५; धम्मपद, १२/३ ३०. अंगुत्तरनिकाय, ६/६३
७१. वही, १/१७; थेरीगाथ, २४६ ३१. स्थानांग, ३८९
७२. वही, २/३; थेरीगाथ, २४६,६८६ ३२. अंगुत्तरनिकाय, ८/२५
७३. वही, ४/१; अंगुत्तरनिकाय, पृ० १५९ ३३. स्थानांग, ५३४
७४. वही, २/२५; सुत्तनिकाय, व०१४/१८ ३४. अंगुत्तरनिकाय, ४२
७५. वही, ९/१४; जातक ५३९, श्लोक १२५; ३५. स्थानांग, ५१
जातक ५२९, श्लोक १६ ३६. अंगुत्तरनिकाय,६/६/३, भाग तीसरा, पृ०. ३५,९३-९४ ७६. वही, १९/१५; महावग्ग, १/६/१९ ३७. (क) वही, ६/६/३, भाग तीसरा, पृ० ३५,९३-९४ ७७. वही, २/३; भागवत०, ११/१८/९ (ख) दीघनिकाय, ३/१०, पृष्ठ २९५
७८. वही १/१४ महाभारत शांतिपर्व, २८७ पर्व, २८७/३५ उत्त०, ३८. महाभारत, शान्तिपर्व, २८०/३३
२/३-शांतिपर्व ,२३४/११; उत्त०, २/१९,२०- शांतिपर्व, १२/१०,९/ ३९. गीता, ८/२६
१३; उत्त० ९/४०-शांतिपर्व, २५८/५; उत्त०, १३/२२-शांतिपर्व, १७५। ४०. धम्मपद, पण्डितवग्ग, श्लोक १९
१८,१९; उत्त०,१३/२५- शांतिपर्व, ३२१/७४; उत्त०, १४/१५-शांतिपर्व, ४१. पातञ्जलयोगसूत्र, ४/७
१७५/२०; उत्त०, १४/१६/१७- शांतिपर्व, १७५/३८; उत्त०,१४/२१ - ४२. स्थानांग, १८१
शांतिपर्व, १७५/७, २७७/७; उत्त०१४/२२- शांतिपर्व, १७५ १८; ४३. अंगुत्तर निकाय, ३/७२
२७७/८; उत्त०, १४/२३- शांतिपर्व, १७५/९,२७७/९; उत्त०, १४ । ४४. स्थानांग, ३९१
२४, २५-शांतिपर्व, १७५/१०,११,१२, २७७/१०,११,१२; उत्त०, ४५. अंगुत्तरनिकाय, ३/७२
१४/४६- शांतिपर्व, १७८/९ । ४६. वही, ३/१४१,१५३
७९. उत्त०, ९/४९ - उद्योगपर्व, ३९/८४, उत्त०,१३/२३४७. वही, ५/१७८
उद्योगपर्व, ४०/१५, १८; उत्त० १३/२४-उद्योगपर्व ४०/१७; उत्त० ४८. स्थानांग, ५००
१३/२५ -- उद्योगपर्व ४०/१७; उत्त० २५/२९- उद्योगपर्व ४३/३५ ।
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जैन, बौद्ध और वैदिक साहित्य-एक तुलनात्मक अध्ययन ८०. उत्त०, ९/४९- विष्णु पुराण, ४/१०/१०
१११. प्रश्नव्याकरण संवरद्वार, ८१. उत्त०, २०/३६, ३७-गीता, ६/५, ६; उत्त०, २५/ ११२. (क) तत्त्वार्थसूत्र, ९/७
३१७ गीता, ४/१३; उत्त०, ३२/१००- गीता, २/६४ ११३. तत्तवार्थसूत्र, ७/११ ८२. उत्त०, ३२/२० शांकर भाष्य, श्वेता उप०, पृ० २३ ११४. मज्झिमनिकाय, १/४/१० ८३. दशवै०, १/१-धम्मपद, १९/६
११५. स्थानांग, १/४/१० ८४. वही, १/२-धम्मपद, ४/६
११६. स्थानांग, १८२; समवायांग ३ वही, ८/३८- धम्मपद, १७/३
११७. तत्त्वार्थसूत्र, ७/१८ ८५. वही, २/१-संयुत्तनिकाय, १/१/१७
११८. मज्झिमनिकाय, ३/१/५ ८६. वही, १०८,- सुत्तनिपात, ५२/१०
११९. वही, १/५/३ वही, १०/१०- सुत्तनिपात, ५२/१६
१२०. वही, १/२/४ वही, १०/११-सुत्तनिपात, ५४/४-५
१२१. वही, १/२/४ ८७. वही, ५/२/४-कोशिकजातक, २२६
१२२. वही, १/२/२ ८८. वही, २/७ - विसवन्तजातक, ६९
१२३. मज्झिमनिकाय, ४/४/३७३ ८९. वही, ४/८- इतिवृत्तक, १२
१२४. सूत्रकृतांग, १/८/९/३६ ९०. वही, ३/२-३-भावगत, ११/१८/३
१२५. औपपातिकसूत्र, ९१. वही, ४/७,- गीता, २/५४
१२६. मज्झिम निकाय, १/३/४ वही, ४/९- गीता, ५/७
१२७. वही, २/३/५ वही, ४/१०-गीता, ४/३८
१२८. वही, १/३/४ ९२. वही, ३/१३ - मनुस्मृति, ६/२३
१२९. वही, १/३/६ ९३. कल्पसूत्र, २०४, पृ० २८१
१३०. भगवती, ८/३/१०; २०/३/२ ९४. भगवतीसूत्र, ५
१३१. मज्झिमनिकाय, ११४ ९५. थेरा भगवन्तो-भगवती,
१३२. विनयजिनशासनमूलो, ९६. भगवतीशतक, १५
१३३. आवश्यकसूत्र, ९७. सूत्रकृतांग, १/१/३६
१३४. अंगुत्तरनिकाय, ९८. राजप्रश्नीय, ५ .
१३५. स्थानांग, ठा०, १० ९९. सथानांग ठा०, ३
१३६. अंगुत्तरनिकाय, १००. समवायांग सूत्र, २/२
१३७. सेन्ट मेथ्यू की सुवाती, २५; सेन्ट ल्यूक की सुवार्ता, १९ १०१. दीघनिकाय सामञफलसुत्त, १/५
१३८. ज्ञाताधर्मकथा, ८ १०२. विनयपिटक पंचशतिकास्कन्धक,
१३९. बालहस्सजातक पृ०, १८६ १०३. उपासकदशांग, भगवती,
१४०. जातक (चतुर्थ खण्ड), ४९७; मातंगजातक, पृ० ५८३१०४. अंगुत्तरनिकाय एककनिपात, १४
६०७ १०५. भगवती,
१४१. जातक (चतुर्थ खण्ड) ४९८; मातंगजातक, पृ० ५९८-६०० १०६. महावग्ग,
१४२. हत्थिपाल जातक, ५०९ १०७. मज्झिमनिकाय, १/१/९
१४३. शांतिपूर्व, अध्याय १७५, २७७ १०८. तन्निसगदिधिगमाद्धा-तत्त्वार्थसूत्र, १/३
१४४. महाजनजातक, ५३९ तथा सोनकजातक सं०, ५२९ १०९. मज्झिमनिकाय, १/५/३
१४५. महाभारत शांतिपर्व, अ० १७८ एवं २७६ ११०. मज्झिमनिकाय, १/१/९
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जैनाचायों का आयुर्वेद साहित्य निर्माण में योगदान
आयु ही जीवन है, आयु का वेद (ज्ञान) ही आयुर्वेद है, अतः आयुर्वेद एक सम्पूर्ण जीवनविज्ञान है आयुर्वेद का मूल प्रयोजन 'स्वस्थस्य स्वास्थ्यरक्षणम् आतुरस्य च विकारप्रशमनम्' है, अतः स्वस्थ और व्याधित दोनों के लिए यह उपादेय है यद्यपि शारीरिक स्वास्थ्य का रक्षण एवं विकारोपशमन आयुर्वेद का इहलौकिक एवं भौतिक उद्देश्य है, तथापि पारलौकिक निःश्रेयस, आत्ममुक्ति और आध्यात्मिकता से अनुप्राणित जीवन की यथार्थता के लिए सतत् प्रयत्न करना भी इसके मूल में निहित है। अतः भौतिकता या भौतिकवाद की परिधि से निकलकर आयुर्वेदशास्त्र आध्यात्मिकता की श्रेणी में परिगणित है। इस शास्त्र में मानवमात्र के प्रति कल्याणकारी दृष्टिकोण होने से इसे तथा इससे सम्बन्धित चिकित्साकार्य को आचार्यों ने 'पुण्यतम' कहा है, यथा, 'चिकित्सितात् पुण्यतमं न किंचित्'
भारत में आयुर्वेद की परम्परा अनादिकाल से प्रवाहित है, वैदिक वाङ्मय एवं आयुर्वेद के विभिन्न शास्त्रों में प्राप्त उद्धरणों के अनुसार आयुर्वेद को अथर्ववेद का उपांग माना गया है, अतः कुछ विद्वान् इसे पंचम वेद के रूप में मानते हैं। अथर्ववेद में आयुर्वेद के पर्याप्त उद्धरण एवं बीज उपलब्ध होने से अथर्ववेद से तो इसका निकटतम सम्बन्ध है ही, अन्य वेदों तथा वैदिक साहित्य में भी पर्याप्त रूप से आयुर्वेद के बीज उपलब्ध होने से सम्पूर्ण वैदिक साहित्य से इस का निकटतम सम्बन्ध है। वैदिक वाङ्मय के अनुसार आयुर्वेद की परम्परा अत्यन्त प्राचीन हैं, इनके अनुसार सर्वप्रथम ब्रह्मा ने सृष्टि के आरम्भ में आयुर्वेद की अभिव्यक्ति की ब्रह्मा से उपदेश के रूप में प्रथमतः दक्ष प्रजापति ने आयुर्वेद का ज्ञान प्राप्त किया और उस ज्ञान को उन्होंने उपदेश के रूप में अश्विनीकुमारों को दिया। अश्विनीकुमारों से देवराज इन्द्र ने आयुर्वेद का उपदेश ग्रहण किया, इन्द्र से आयुर्वेद का उपदेश ग्रहण कर पृथ्वी पर उसका अवतरण करने का श्रेय महर्षि
काशीराज दिवोदास, धन्वन्तरि और महर्षि कश्यप का है। तत्पश्चात् पुनर्वसु आत्रेय, महर्षि अग्निवेष, महर्षि सुश्रुत आदि विभिन्न शिष्य-प्रशिष्यों द्वारा अधीत होकर आयुर्वेद इस समग्र भूमंडल पर प्रसारित हुआ । वर्तमान में चरकसंहिता, काश्यपसंहिता, अष्टांगहृदय आदि आयुर्वेद के मुख्य और आधारभूत ग्रंथ माने जाते हैं। इस प्रकार यह आयुर्वेद की एक संक्षिप्त वैदिक परम्परा है ।
वैदिक साहित्य की भांति जैनधर्म और जैन साहित्य से भी आयुर्वेद का निकटतम सम्बन्ध है जैनधर्म में आयुर्वेद का क्या महत्त्व है और उसकी उपयोगिता कितनी है ? इसका अनुमान इस तथ्य से सहज ही लगाया जा सकता है कि जैन वाड्मय में आयुर्वेद का समावेश
आचार्य राजकुमार जैन
द्वादशांग के अन्तर्गत किया गया है। यही कारण है कि जैन वाङ्मय में अन्य शास्त्रों या विषयों की भांति आयुर्वेदशास्त्र या वैद्यक विषय की प्रामाणिकता भी प्रतिपादित है। जैनागम में वैद्यक (आयुर्वेद) विषय को भी आगम के अंग के रूप में स्वीकार किये जाने के कारण ही अनेक जैनाचार्यों ने आयुर्वेद के ग्रंथों की रचना की । यह एक महत्त्वपूर्ण तथ्य है कि जैनागम में केवल उसी शास्त्र विषय या आगम की प्रामाणिकता प्रतिपादित है जो सर्वज्ञ द्वारा उपदिष्ट है। सर्वज्ञ कथन के अतिरिक्त अन्य किसी विषय या स्वरुचि विरचित ग्रंथ अथवा विषय की प्रामाणिकता न होने से जैन वाड्मय में उसका कोई महत्त्व, उपयोगिता या स्थान नहीं है, क्योंकि सर्वज्ञपरमेष्ठी के मुख से जो दिव्यध्वनि खिरती (निकलती ) है उसे श्रुतज्ञान के धारक गणधर ग्रहण करते हैं । गणधर द्वारा गृहीत वह दिव्यध्वनि जो ज्ञानरूप होती है बारह भागों में विभक्त की गई, जिसे आचारांग आदि के रूप में उन्होंने निरूपित किया, गणधर द्वारा निरूपित व ज्ञानरूप आगम के बारह भेदों को द्वादशांग की संज्ञा दी गई है। इन द्वादशांगों में प्रथम आचारांग है और बारां दृष्टिवाद नाम का अंश है। दृष्टिवाद के पाँच भेद हैं। उन पाँच भेदों में से एक भेद पूर्व या पूर्वगत है। इस ' पूर्व भेद' के भी पुनः चौदह भेद हैं। पूर्व के इन चौदह भेदों में प्राणवाय' नाम का एक भेद है। इसी प्राय नामक अंग में अष्टांग आयुर्वेद का कथन किया गया है जैनाचायों के अनुसार आयुर्वेद का मूल प्राणवाय पूर्व यही है। इसी के अनुसार अथवा इसी के आधार पर परवर्तीीं आचार्यों ने वैद्यकशास्त्र का निर्माण अथवा आयुर्वेद विषय का प्रतिपादन किया है। जैनागम के अन्तर्गत प्रतिपादित प्राणवाद पूर्व का निम्न लक्षण बतलाया गया है कायचिकित्साधष्टांग आयुर्वेदः भूतकर्मजांगुलिप्रक्रमः प्राणापानविभागोऽपि यत्र विस्तरेण वर्णितस्तत्प्राणवायम ।
-
अर्थात् जिस शास्त्र में काय, तद्वत दोष तथा चिकित्सा आदि अष्टांग आयुर्वेद का वर्णन विस्तारपूर्वक किया गया हो, पृथ्वी आदि महाभूतों की क्रिया, विषैले जानवर और उनके विष की चिकित्सा आदि तथा प्राणापान का विभाग जिसमें किया गया हो उसे 'प्राणवाद' पूर्व शास्त्र कहते हैं ।
द्वादशांग के अन्तर्गत निरूपित प्राणवाद पूर्व नामक अंग मूलतः अर्धमागधी भाषा में निबद्ध था, इस प्राणवाद पूर्व के आधार पर ही अन्यान्य जैनाचार्यों ने विभिन्न वैद्यक ग्रन्थों का प्रणयन किया है। श्री उग्रदित्याचार्य ने भी प्राणवाद पूर्व के आधार पर कल्याणकारक नाम के वैद्यक ग्रन्थ की रचना की है। इस तथ्य का उल्लेख आचार्यश्री ने स्थानस्थान पर किया है, इसके अतिरिक्त ग्रन्थ के अन्त में उन्होंने स्पष्ट रूप से लिखा है
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जैनाचार्यों का आयुर्वेद साहित्य निर्माण में योगदान सर्वाधाधिकमागधी विलसभद्भापरिशेषोज्वल
महापंडित आशाधर आदि जैनाचार्यों की विभिन्न कृतियों पर जब हम प्राणावायमहागमादवितथं संगृह्य संक्षेपतः । दृष्टिपात करते हैं तो देखकर महान् आश्चर्य होता है कि किस प्रकार उग्रादित्यगुरुर्गुरुगणैरुद्भासिसौख्यास्पदम् ।
उन्होंने अनेक विषयों पर अपनी अधिकारपूर्ण लेखनी चलाकर अपनी शास्त्रं संस्कृतभाषया रचितवानित्येष भेदस्तयोः॥ अद्भुत विषयप्रवणता और विलक्षण बुद्धि वैभव का परिचय दिया है।
- कल्याणकारक, अ० २५ श्लो० इससे स्पष्ट होता है कि उन्हें उन सभी विषयों में प्रौढ़ प्रभुत्व प्राप्त था, अर्थात सम्पूर्ण अर्थ को प्रतिपादित करने वाली सर्वार्ध मागधी उनका पांडित्य सर्वदिगंतव्यापी था और उनका ज्ञानरवि अपनी प्रखर भाषा में जो अत्यन्त सुन्दर प्राणवाद नामक महागम महाशास्त्र है उसे रश्मियों से सम्पूर्ण साहित्यजगत् को आलोकित कर रहा था। यथावत् संक्षेप रूप से संग्रह कर उग्रदित्य गुरु ने उत्तमोत्तम गुणों से युक्त आयुर्वेद साहित्य के प्रति जैनाचार्यों द्वारा की गई सेवा भी सूख के स्थानभूत इस शास्त्र की संस्कृत भाषा में रचना की । इन दोनों उतनी ही महत्त्वपूर्ण है जितनी अन्य साहित्य के प्रति । किन्तु दु:ख इस -प्राणवाद अंग और कल्याणकारक में यही अन्तर है।
बात का है कि जैनाचार्यों ने जितने वैद्यक साहित्य का निर्माण किया है इस प्रकार जैनागम में आयुर्वेद या वैद्यकशास्त्र की प्रामाणिकता वह अभी तक प्रकाशित नहीं किया जा सका है। यही कारण है कि प्रतिपादित है और आयुर्वेद जिसे जैनागम में प्राणावाद की संज्ञा दी गई वर्तमान में उनके द्वारा रचित अनेक वैद्यक ग्रन्थ या तो लुप्त हो गए हैं है, द्वादशांग का ही एक अंग है । जैन वाङ्मय द्वादशांग की प्रामाणिकता अथवा खंडित रूप में होने से अपूर्ण हैं । कालकवलित हुए अनेक सर्वोपरि है। अत: तदन्तर्गत प्रतिपादित प्राणवाद की प्रामाणिकता भी वैद्यक ग्रन्थों का उल्लेख विभिन्न आचार्यों की वर्तमान में उपलब्ध स्वत: सिद्ध है । इस प्रकार जिस अष्टांग परिपूर्ण वैद्यकशास्त्र को इतर अन्यान्य कृतियों में मिलता है । विभिन्न जैन भंडारों या जैन मन्दिरों में आचार्यों, महर्षियों ने आयुर्वेद की संज्ञा दी है उसे जैनाचार्यों ने प्राणवाद खोजने पर अनेक वैद्यक ग्रन्थों के प्राप्त होने की सम्भावना है । अत: कहा है।
विद्वानों द्वारा इस दिशा में प्रयत्न किया जाना अपेक्षित है। सम्भव है इन संस्कृत साहित्य की श्रीवृद्धि में जैनाचार्यों ने अपना जो वैद्यक ग्रंथों के प्रकाश में आने से आयुर्वेद के उन महत्त्वपूर्ण तथ्यों और महत्त्वपूर्ण योगदान किया है वह सुविदित है। संस्कृत साहित्य का ऐसा सिद्धान्तों का प्रकाशन हो सके जो आयुर्वेद के प्रचुर साहित्य के कोई विषय या क्षेत्र नहीं है जिस पर जैनाचार्यों ने अपनी लेखनी न चलाई कालकचलित हो जाने से विलुप्त हो गये हैं। जैनाचार्यों द्वारा रचित हो । इसका मुख्य कारण यह है कि जैनाचार्य केवल एक विषय के ही वैद्यक ग्रन्थों के प्रकाशन से आर्युवेद के विलुप्त साहित्य और इतिहास अधिकारी नहीं थे, अपितु वे प्रत्येक विषय में निष्णात थे, अत: उनके पर भी प्रकाश पड़ने की संभावना है। विषय में यह कहना सम्भव नहीं था कि वे किस विषय के अधिकृत जैनाचार्यों द्वारा रचित वैद्यक ग्रन्थों में से अब तक जो विद्वान् हैं अथवा उनका अधिकृत विषय कौन-सा है ? जैनाचार्यों ने जिस प्रकाशित हए हैं उनमें से श्री उग्रदित्याचार्य द्वारा प्रणीत कल्याणकारक प्रकार काव्य, अलंकार, कोष, छंद, न्याय, दर्शन व धर्मशास्त्रों का और पूज्यपाद द्वारा विरचित वैद्यसार ये दो ग्रन्थ महत्त्वपूर्ण हैं । इनमें से निर्माण किया उसी प्रकार ज्योतिष और वैद्यक भी उनकी लेखनी से प्रथम कल्याणकारक का प्रकाशन १९४० ई० श्री सेठ गोविन्द जी अछते नहीं रहे । उपलब्ध अनेक प्रमाणों से अब यह स्पष्ट हो चुका है रावजी दोशी, सोलापुर द्वारा किया गया था। इसका हिन्दीअनुवाद और कि जैनाचार्यों ने बड़ी संख्या में स्वतन्त्र रूप से वैद्यक ग्रन्थों का निर्माण सम्पादन पं० वर्धमान पार्श्वनाथ शास्त्री, सोलापुर ने किया है। द्वितीय कर आयुर्वेद साहित्य की श्रीवृद्धि में अपना अभूतपूर्व योगदान किया वैद्यसार नामक ग्रन्थ जैन सिद्धान्त भवन, आरा से प्रकाशित हुआ है। है। इस सम्बन्ध में विभिन्न स्रोतों से एक लम्बी सूची तैयार की गई है इसका सम्पादन और हिन्दी अनुवाद आयुर्वेदाचार्य पं० सत्यंधर जैन, ने जिससे जैनाचार्यों द्वारा रचित वैद्यक सम्बन्धी अनेक कृतियों का संकेत किया है, किन्तु यह ग्रन्थ वस्तुत: पूज्यपाद द्वारा विरचित है इसमें विवाद मिलता है। इनमें से कुछ कृतियाँ मूल रूप से प्राकृत भाषा में लिपिबद्ध है । यद्यपि ग्रन्थ में जो विभिन्न चिकिस्तायोग वर्णित हैं उनमें से हैं और कुछ हिन्दी में पद्यमय रूप में । कनड़ भाषा में भी अनेक जैन अधिकांश में 'पूज्यपादैः कथितं 'पूज्यपादोदितं' अदि का उल्लेख विद्वानों ने आयुर्वेद के ग्रन्थों का प्रणयन कर जैनवाङ्मय को परिपूर्ण मिलता है, किन्तु ऐसा लगता है कि वे पाठ पूज्यवाद के मूल ग्रन्थ से किया है।
संग्रहीत हैं । प्रस्तुत ग्रंथ पूज्यवाद की कृति नहीं है । अत: यह अभी जिन जैनाचार्यों ने धर्म-दर्शन-न्याय-काव्य-अलंकार आदि तक अज्ञात है कि इस ग्रन्थ का रचयिता या संग्रहकर्ता कौन है ? पाठ विषय को अधिकृत कर विभिन्न ग्रन्थों का प्रणयन किया है उन्हीं आचार्यों पूज्यपाद के मूल ग्रन्थ से संग्रहीत हैं । प्रस्तुत ग्रंथ श्री पूज्यपाद की कृति ने वैद्यक शास्त्र का निमार्ण कर अपनी अलौकिक प्रतिभा का परिचय नहीं है। अत: यह अभी तक अज्ञात है कि इस ग्रन्थ का रचयिता या दिया है। प्रातः स्मरणीय स्वामी पूज्यपाद, स्वामी समन्तभद्र, आचार्य संग्रहकर्ता कौन है ? जिनसेन, गुणसागर, गुणभद्र, महर्षि सोमदेव, सिद्धवर्णी रत्नाकर तथा इसमें कोई सन्देह नहीं है कि जैनाचार्यों द्वारा लिखित आयुर्वेद
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जैन विद्या के आयाम खण्ड-७ के ग्रंथों की संख्या प्रचुर है, किंतु उन ग्रंथों की भी वही स्थिति है जो १०. डम्भ क्रिया धर्मसिंह धर्मवर्द्धन हिंदी --------- जैनाचार्यों द्वारा लिखित ज्योतिष के ग्रंथों की है, जैन समाज ने तथा ११. पथ्यापथ्य महो० रामलालजी ---- प्र० सचित्र आयुर्वेद अन्यान्य जैन संस्थाओं ने जैनाचार्यों द्वारा प्रणीत धर्म-दर्शन-न्याय- १२. रामनिदान टवा सहित उपर्युक्त ---- वीर सं० २४३१ साहित्य-काव्य-अलंकार आदि के ग्रंथों के प्रकाशन की तो व्यवस्था की १३. कोकशास्त्र चौपाई नर्बुदाचार्य कामशास्त्र में है, उसमें रुचि दिखलाई और उसके लिए पर्याप्त राशि भी व्यय की है,
प्रासंगिक चिकित्सा प्रकाशित किंतु आयुर्वेद और ज्योतिष के ग्रंथों के प्रति कोई लक्ष्य नहीं दिया । यही १४. रसामृत माणिक्यदेव कारण है कि इस साहित्य की प्रचुरता होते हुए भी यह सम्पूर्ण साहित्य
जैनेतर वैद्यक ग्रन्थों पर जैनाचार्यों द्वारा कृत टीकाएँ अभी तक अंधकारावृत्त है । अब तो स्थिति यहाँ तक हो गई कि जैनाचार्यों द्वारा प्रणीत जिन ग्रंथों की रचना का पता चलता है। उन ग्रंथों १. योगरत्नमालावृत्ति गुणा
सं०१२९६
५० आधिर दि० का अस्तित्व ही हमारे सामने नहीं है। उनके स्थानों पर स्वामी समन्तभद्र २. अष्टांगहृदय टीका
सं०१८३५ के वैद्यक ग्रंथ का उल्लेख मिलता, किंतु वह ग्रंथ अभी तक अप्राप्य है। ३. पथ्यापथ्यम टवा चैनसुख मुनि आयुर्वेद के प्रसिद्ध ग्रंथ योगरत्नाकर में भी पूज्यपाद के नाम से अनेक ४. माधवनिदान टवा ज्ञानमा
हेमनिधान
सं०१७३३ योग उद्धत हैं तथा 'श्रीपूज्यपादोदितं' आदि कथनों का उद्धरण देते हए ५. सम्निपातलिका अनेक अजैन विद्वान् वैद्यकी से अपना योगक्षेम चलाते हए देखें गए हैं। ६. योगशतक टीका मूल वररुचि संप्रतभद्र (समन्तभद्र) सं०१७३१ किन्तु अत्यधिक प्रयत्न किए जाने पर भी श्री पूज्यपाद द्वारा विरचित ग्रंथ
श्वेताम्बर हिन्दी वैद्यक ग्रन्थ प्राप्त नहीं हो सका। इसी प्रकार और भी अनेक ग्रन्थों का प्रकरणांतर .
१. वैद्यमनोत्सव नयनसुख सं०१६४९ सोहनन्द नगर से उल्लेख तो मिलता है, किंतु ढूँढने पर उनकी उपलब्धि नहीं होती। .
२. वैद्यविलास तिव्व सहाबा मलूकचंद्र सं०१७२० शक्की नगर जैनाचार्यों के आयुर्वेद सम्बंधी ग्रंथों में जगत् सुन्दरी प्रयोगमाला
३. रामविनोद
रामचंद्र सं०१६६२ नामक ग्रंथ सम्भवत: सबसे अधिक प्राचीन है, योगचिंतामणि, वैद्यमनोत्सव,
४. वैद्यविनोद
रामचंद्र सं०१७२६ मराठ मेघविनोद, रामविनोद, गंगयतिनिदान आदि ग्रंथ भी प्रकाशित हुए हैं, ये
५. कालज्ञान
लक्ष्मीवल्ला सं०१७४१ ग्रंथ श्वेताबर आचार्यों द्वारा विरचित हैं । गत शताब्दी के प्रसिद्ध
६. कविविनोद
मानकवि सं०१७५३ लाहौर चिकित्सक जैन यति रामलाल जी का भी एक बड़ा ग्रंथ प्रकाशित हुआ
७. कविप्रमोद
मानकवि सं०१७४६ कार्तिक सं०२ है इस प्रकार ये कुछ ही ग्रंथ अभी प्रकाशित हुए हैं, इसके विपरीत
८. रसमंजरी
समरथ सं०१७६४ अप्रकाशित जैन वैद्यक ग्रंथों की संख्या अधिक है। मुझे श्री अगरचंद
९. मेघविनोद
मेघमुनि सं०१८३५ फगवाड़ा जी नाहटा से जैनाचार्यों द्वारा लिखित आयुर्वेद संबंधी ग्रंथों की जानकारी
१०. मेघविलास मेघमुनि सं०१८७२ अमृतसर प्राप्त हुई जो निम्न प्रकार है -
११. लोलिम्बराज भाषा यति गंगाराम सं०१८८३ अमृतसर
(वैद्य जीवन) श्वेताम्बर जैनाचार्यों द्वारा रचित वैद्यक ग्रन्थ
१२. सूरज प्रकाश भाव दीपक यति गंगाराम सं०१८८८ अमृतसर ग्रन्थ नाम
१३. भावनिदान यति गंगाराम ग्रन्थकार
भाषा रचनाकाल १. योगचिंतामणि मूल हर्षकीर्ति सूरि संस्कृत सं०१६६२
दिगम्बर जैन वैद्यक ग्रन्थ भाषा टीका नरसिंह खरतर
१. वैद्यसार
पूज्यपाद २. वैद्यकसारोद्धार हर्षकीर्तिसूरि संस्कृत सं०१६६२
२. निदान मुक्तावलि पूज्यपाद ३. ज्वरपराजय जयरत्न
संस्कृत
३. मदन कामरत पूज्यपाद ४. वैद्यवल्लभ हस्तिरुचि
संस्कृत
४. कल्याणकारक उग्रदित्याचार्य ५. वैद्यकसाररत्न चौपाई लक्ष्मी कुशल गुजराती सं०१६६४
५. सुकरयोगरत्नावलि
पार्श्वदेव ६. सुबोधिनी वैद्यक लक्ष्मीचंद्र हिंदी फा० सु० ६.बालगृहचिकित्सा
देवेन्द्रमुनि ७. लंघन पृथ्योपचार दीपचंद्र
संस्कृत ----------- ७. वैद्य निघण्टु अमृतमुनि (कन्नड लिपि) ८. बाल चिकित्सा निदान ............ ----- सं०१७९२
(अकारादि (निघण्टु) ९. योगरत्नाकर चौपाई नयन शेखर गुजराती --------
८. वैद्यामृत
श्रीधरदेव
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९. खगेन्द्रमणिदर्पण
१०. हयशास्त्र
११. कल्याणकारक १२. गौवैद्य
मंगराज (कन्नड लिपि)
अभिनवचंद्र
सोमनाथ
कीर्तिवर्मा
इनमें से कुछ ग्रंथ सम्भवतः श्री अगरचंदजी नाहटा के व्यक्तिगत संग्रह में उपलब्ध हैं। मैं इस दिशा में सतत इनमें से कुछ ग्रंथ सम्भवत: श्री अगरचंद नाहटा के व्यक्तिगत संग्रह में उपलब्ध हैं। मैं इस दिशा में सतत प्रयत्नशील हूँ तथा खोज करने पर और भी अनेक
आचार्य जिनसेन (द्वितीय) और उनका 'पार्श्वाभ्युदय' काव्य
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जैनकाव्यों की महनीय परम्परा में आचार्य जिनसेन (द्वितीय द्वारा प्रणीत पार्श्वाभ्युदय काव्य की पांक्तेयता सर्वविदित है । आचार्य जिनसेन (द्वितीय) आचार्य नेमिचन्द्र शास्त्री को ऐतिहासिक कृति 'तीर्थंकर महावीर और उनकी आचार्य - परम्परा ( खण्ड २)' के अनुसार श्रुतधर और प्रबुद्धाचार्यों के बीच की कड़ी थी। इनकी गणना सारस्वताचार्यों में होती है। यह अपनी अद्वितीय सारस्वत प्रतिभा और अपारकल्पना शक्ति की महिमा से 'भगवत्' जिनसेनाचार्य कहे जाते थे। यह मूलग्रन्थों के साथ ही टीका ग्रन्थों के भी रचयिता थे। इनके द्वारा रचित चार ग्रन्थ प्रसिद्ध है जय धवला टीका का शेष भाग, आदिपुराण' या 'महापुराण', 'पार्श्वाभ्युदय' और 'वर्द्धमानपुराण' । इनमें 'वर्द्धमानपुराण' या 'वर्द्धमान चरित' उपलब्ध नहीं है ।
आचार्य जिनसेन (द्वितीय) ईसा की आठवीं नवीं शती में वर्तमान थे। ये काव्य, व्याकरण, नाटक, दर्शन, अलंकार आचारशास्त्र, कर्मसिद्धान्त प्रभृति अनेक विषयो के बहुश्रुत विद्वान् थे। ये अपने योग्य गुरु के योग्यतम शिष्य थे। जैन सिद्धान्त के प्रख्यात ग्रन्थ 'षट्खण्डागम' तथा आसापाड के टीकाकार आचार्य बीरसेन (सन् ७९२ से ८२३ ई०) इनके गुरु थे। क्षुल्लक जिनेन्द्र वर्गों द्वारा सम्पादित 'जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश' में भी उल्लेख है कि आचार्य जिनसेन, धवना टीका के कर्ता श्री वीरसेनस्वामी के शिष्य तथा उत्तरपुराण के कर्त्ता, श्रीगुणभद्र के गुरू थे और राष्ट्र कूट- नरेश जयतुंग एवं नृपतुंग, अपरनाम अमोघवर्स (सन् ८१५ से ८७७ ई०) के समकालीन थे । राजा आमोघवर्ष की राजधानी मान्य खेट में उस समय विद्वानों का अच्छा
आयुर्वेद सम्बन्धी अन्यों की जानकारी प्राप्त हुई है। किंतु इस दिशा में सतत अनुसंधान और प्रर्याप्त प्रयत्न अपेक्षित है। उपर्युक्त विवेचन से यह तथ्य तो स्पष्ट है कि जैनाचार्यों ने भी अन्य आचार्यों की ही भांति आयुर्वेद साहित्यसृजन में अपना अपूर्व योगदान दिया है। अब आवश्यकता इस बात की है कि अनुसन्धान के द्वारा उस विलुप्तविशाल साहित्य को प्रकाश में लाकर आयुर्वेद साहित्य की श्रीवृद्धि की जाय और आयुर्वेद की दृष्टि से उसका उचित मूल्यांकन किया जाय। इससे आयुर्वेद जगत् में निश्चय ही जैनाचार्यों को गौरवपूर्ण स्थान प्राप्त होगा ।
डॉ० श्रीरंजन सूरिदेव
पहनी ही नहीं और आठ वर्ष की आयु में ही दिगम्बरी दीक्षा ले ली। इन्होंने अपने गुरू आचार्य वीरसेन की, कर्मसिद्धान्त-विषयक ग्रन्थ षट्खण्डागम' की अधूरी जयधवला' टीका को, भाषा और विषय की समान्तर प्रतिपादन शैली में, पूरा किया था और इनके अधूरे 'महापुराण' या 'आदिपुराण' को (कुल ४७ पर्व), जो 'महाभारत' से भी बड़ा है, इनके शिष्य आचार्य गुणभद्र ने पूरा किया था। गुणसेन द्वारा पूरा किया गया अंश या शेषांश 'उत्तरपुराण' नाम से प्रसिद्ध है। पंचस्तूपसंघ की गुर्वावलि के अनुसार वीरसेन के एक और शिष्य थे विनयसेन।
आचार्य जिनसेन (द्वि०) ने दर्शन के क्षेत्र में जैसी अद्भुत प्रतिभा का परिचय दिया है, वैसी ही अपूर्व मनीषा काव्य के क्षेत्र में भी प्रदर्शित की है। इस सन्दर्भ में इनकी ऐतिहासिक और सांस्कृतिक महत्त्व की संस्कृत काव्यकृति 'पार्श्वाभ्युदय' उल्लेखनीय है। प्रस्तुत काव्य के अन्तिम दो श्लोकों से ज्ञात होता है कि उपर्युक्त राष्ट्रकूट वंशीय नरपति अमोघवर्ष के शासनकाल में इस विलक्षण कृति की रचना हुई । श्लोक इस प्रकार हैं :
इति विरचितमेतत्काव्यमावेव मे बहुगुणमपदोष कालिदासस्य काव्यम् । मलिनितपरकाव्यं तिष्ठतादाशशाङ्क भुवनभवतु देवः सर्वदाऽमोघवर्षः || श्री वीरसेनमुनिपादपयोजभृङ्गः श्रीमानभूद्विनयसेनमुनिर्गरीयान् । तच्चो दितेन जिनसेनमुनीश्वरेण
काव्यं व्यधायि परिवेष्टितमेघदूतम् ॥
अर्थात् प्रस्तुत 'पार्श्वाभ्युदय काव्य कालिदास कवि के अनेक
समागम था।
'जैनेन्द्र सिद्धान्तकोश' के सन्दर्भानुसार आचार्य जिनसेन आगर्भ दिगम्बर थे; क्योंकि इन्होंने बचपन में आठ वर्ष की आयु तक लंगोटी गुणों से युक्त निर्दोष काव्य 'मेघदूत' को आवेष्टित करके रचा गया है।
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मेघसन्देश - विषयक अन्य काव्य को निष्प्रभ करने वाला यह काव्य यावच्चन्द्र विद्यमान रहे । और, राजा अमोघवर्ष सदा जगद्रक्षक बने रहें । यहाँ 'देव: अमोघवर्ष: शब्द मेघ का वाचक भी है। इस पक्ष में इसका अर्थ होगा 'सफलवृष्टि करने वाला मेघ' ।
दूसरे श्लोक का अर्थ है - श्रीवीरसेनमुनि के पद पंकज पर मँडराने वाले भृंग-स्वरूप श्रेष्ठ श्रीमान् विनयसेन मुनि की प्रेरणा से मुनिश्रेष्ठ जिनसेन ने 'मेघदूत' को परिवेष्टित करके इस 'पार्श्वाभ्युदय' काव्य की रचना की ।
-
जैन विद्या के आयाम खण्ड- ७
पूर्वोक्त महामुनि आचार्य वीरसेन विनयसेन और जिनसेन नामक मुनिपुंगवों के गुरु थे । विनयसेन की प्रार्थना पर ही आचार्य जिनसेन ने कालिदास के समग्र 'मेघदूत' को समस्यापूर्ति के द्वारा आवेष्टित कर पार्श्वाभ्युदय की रचना की। चार सर्गों में पल्लवित इस काव्य में कुल ३६४ (प्रथम: ११८; द्वितीय : ११८; तृतीय : ५७; चतुर्थ ७१) श्लोक हैं। इसका प्रत्येक श्लोक 'मेघदूत' के क्रम से, श्लोक के चतुर्थांश या अद्धांश को समस्या के रूप में लेकर पूरा किया गया है । समस्यापूर्ति का आवेष्टन तीन रूपों में रखा गया है : १. पादवेष्टित, २. अर्धवेष्टित और अन्तरितावेष्टित । अन्तरितावेष्टित में भी एकान्तरित और इयन्तरित ये दो प्रकार है।
:
द्रष्टव्य है ।
प्रथम पादवेष्टित' में चतुर्थ चरण में 'मेघदूत' के किसी श्लोक का कोई एक चरण रखा गया है और 'अर्धवेष्टित' में 'मेघदूत' के द्वितीय तृतीय चरणों का विन्यास हुआ है।
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के किसी श्लोक के दो चरणों का विनियोग तृतीय चतुर्थ चरणों के रूप में किया गया है और फिर 'अन्तरितावेष्टित' में, 'मेघदूत' के श्लोकों को 'पार्श्वाभ्युदय' के जिस श्लोक में प्रथम और चतुर्थ चरण के रूप में रखा गया है, उसकी संज्ञा 'द्वयन्तरितार्थवेष्टित' है तथा जिस श्लोक में प्रथम और तृतीय चरण के रूप में रखा गया है, उसकी संज्ञा 'एकान्तरित' है । इस प्रकार की व्यवस्था का ध्यातव्य वैशिष्ट्य यह है कि 'मेघदूत' के उद्धत चरणों के प्रचलित अर्थ को विद्वान् कवि आचार्य जिनसेन ने
पादवेष्टित :
श्रीमन्मूर्त्या मरकतमयस्तम्भलक्ष्मीं वहन्त्या योगैकाग्रयस्तिमिततरया तस्थिवांसं निदध्यौ । पार्श्व दैत्यो नभसि विहरन्बद्धवैरेण दग्धः 'कश्चित्कान्ताविरहगुरुणा स्वधिकारात्प्रमत्तः ।।' (सर्ग १ श्लोक १)
:
एकान्तरितावेष्टित
'उत्सङ्गे वा मलिनवसने सौम्य निक्षिप्यवीणां, गाढोत्कण्ठं करुणविरुतं विप्रलापायमानम् । 'मद्गोत्राङ्क विरचितपदं गेयमुद्गातुकामा त्वामुद्दिश्य प्रचलदलकं मूर्च्छनां भावयन्ती ।। (सर्ग ३ श्लो० ३८)
अपने स्वतन्त्र कथानक के प्रसंग से जोड़ने में विस्मयकारी विलक्षणता के द्वितीय चतुर्थ चरणों का विनियोग | हुआ 숨 का परिचय दिया है ।
पादवेष्टित का द्वितीय प्रकार
यहाँ समस्या पूर्ति के उक्त प्रकारों का एक एक उदाहरण
अर्धवेष्टित
शिखरनिपतन्निर्झराराबहुये
शैले ।
रम्योत्सङ्गे पर्यारूढगुमपरिगतोपत्येक तत्र 'विश्रान्तः सन्ब्रज वनदीतीरजानां निषिञ्चनवजलकणैर्वृधिकाजालकानि ।।' (सर्ग १: शलो० १०९)
शुद्यानानां
द्वयन्तरितार्थवेष्टित : 'आलोके ते निपतति पुरा सा बलिव्याकुला वा' त्वत्सम्प्राप्तयै विहित नियमान्देवताभ्यो भजन्तः । बुद्धवारूढं चिरपरिचितं त्वद्गतं ज्ञातपूर्व मत्सादस्य विरहतनु वा भावेगव्यं लिखन्ती ।।' (सर्ग ३ श्लो० ३६) द्वयन्तरितार्थवेष्टित का द्वितीय प्रकार :
अन्तस्तापं प्रापिशुनयता स्वं कवोध्ोन भूयो 'निःश्वासेनाधर किसलयक्लेशिना विक्षिपन्तीम् । शुद्धस्नानात्परुसमलकं नूनमागण्डलम्ब' विश्लिष्टं वा हरिणचरितं लाम्छनं तन्मुखेन्दोः । । (सर्ग ३ श्लोक ४६ ) इस श्लोक के द्वितीय तृतीय चरणों में 'मेघदूत' के श्लोक
एकान्तरितावेष्टित का द्वितीय प्रकार : चित्रन्यस्तामिव सवपुषं मन्मथी यावस्था'माधिक्षामां विरहशयने सन्निषण्णैकपार्श्वाम् ।' तापापास्त्यै हृदयनिहितां हारयष्टिं दधाना 'प्राचीमूले तनुमिव कलामात्रशेषां हिमांशो : ।।' (सर्ग ३ श्लो० ४४) इस श्लोक के द्वितीय चतुर्थ चरणों में 'मेघदूत' के श्लोक
'मामाकाशप्रणिहित भुजं निर्दयाश्लेषहेतो- ' रून्तिष्ठासुं त्वदुपगमन प्रत्ययात्स्वप्नजातात् । सख्यो दृष्ट्वा सकरुणमृदुव्यावहासिं दधानाः कामोन्मुग्धाः स्मरयितु महो संम्रयन्ते विबुद्धान् ।। (सर्ग ४: श्लो० ३६) के श्लोक का है।
इस श्लोक में प्रथम चरण 'मेघदूत' इसलिए इसकी आख्या पूर्वार्ध पादवेष्टित है। पादवेष्टित का तृतीय प्रकार निद्रासङ्गादुपहितरतेर्गाढमाश्लेष वृन्ते 'र्लब्धायास्ते कथमपि मया स्वप्नसंदर्शनेषु ।' विश्लेषस्स्याद्विहितरुदितैराधिजैराशुकोधैः कामोऽयं घटयतितरां विप्रलम्भावतारम् ।।
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(सर्ग 4 श्लो० 37 )
:
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आचार्य जिनसेन (द्वितीय) और उनका ‘पार्वाभ्युदय' काव्य प्रस्तुतश्लोक में द्वितीय चरण में मेघदूत' के श्लोक का है। नाम का राजा राज्य करता था। उस राजा के कमठ और मरुभूमि नाम
इस प्रकार, कविश्री जिनसेन ने पादवेष्टित, पदार्थवेष्टित और के दो मन्त्री थे, जो द्विजन्मा विश्वभूति तथा उसकी पत्नी अनुदरी के पुत्र पादन्तरितावेष्टित के रूप -वैभिन्नय की अवतारणा द्वारा 'पार्वाभ्युदय' थे , कमठ की पत्नी का नाम वरुणा था और मरुभूति की पत्नी वसुन्धरा काव्य के रचना-शिल्प में चमत्कार-वैचित्य उत्पन्न कर अपनी अद्भूत नाम की थी। एक बार छोटा भाई मरुभूति शत्रुराजा वज्रवीर्य के विजय काव्य प्रौढिताका आह्लादक परिचय दिया है।
के लिए अपने स्वामी राजा अरविन्द के साथ युद्ध में गया । इस बीच आचार्य जिनसेन राजा अमोघवर्ष के गुरू थे, यह काव्य के मौका पाकर दुराचारी अग्रज कमठ ने अपनी पत्नी वरुण की सहायता प्रत्येक सर्ग की समाप्ति में, मूल काव्य और उसकी सुबोधिका व्याख्या से भ्रातृपत्नी वसुन्धरा को अंगीकृत कर लिया । राजा अरविन्द जब की पुष्पिका में उल्लिखित है : 'इत्यमोघवर्षपरमेश्वरपरमगुरूश्री जिनसेनाचार्य शत्रुविजय करके वापस आया, तब उसे कमठ की दुर्वृत्ति की सूचना विरचित मेघदूतवेष्टितवेष्टिते पार्वाभ्युदये ...' प्रसिद्ध जैन विद्वान् श्री मिली । राजा ने मरुभूति के अभिप्रायानुसार नगर में प्रवेश करने के पूर्व पन्नालाल बाकलीवाल के अनुसार राष्ट्रकूटवंशीय राजा अमोघवर्ष ७३६ ही अपने भृत्य के द्वारा कमठ के नगर -निर्वासन की आज्ञा घोषित शकाब्द में कर्णाटक और महाराष्ट्र का शासक था । इसने लगातार कराई । क्योंकि, राजा ने दुर्वृन्त कमठ का मुंह देखना भी गवारा नहीं तिरसठ वर्षों तक राज्य किया। इसने अपनी राजधानी मलखेड या किया । कमठ अपने अनुज पर क्रुद्ध होकर जंगल चला और वहाँ उसने मान्यखेट में विद्या एवं सांस्कृतिक चेतना के प्रचुर प्रचार-प्रसार के तापस-वृत्ति स्वीकार कर ली। कारण विपुल यश अर्जित किया था । ऐतिहासिकों का कहना है कि इस अपने अग्रज कमठ को इस निर्वेदात्मक स्थिति से जाने क्यों राजा ने 'कविराजमार्ग' नामक अलंकार-ग्रन्थ कन्नड़ भाषा में लिखा मरुभूति को बड़ा पश्चाताप हुआ । जंगल जाकर उसने अपने अग्रज कमठ था । इसके अतिरिक्त, 'प्रश्नोत्तर रत्नमाला नामक एक लघुकाव्य की को ढूंढ़ निकाला और वह उसके पैरों पर गिरकर क्षमा माँगने लगा। रचना संस्कृत में की थी। यह राजा आचार्य जिनसेन के चरणकमल के क्रोधान्ध कमठ ने पैरों पर गिरे हुए मरुभूति का सिर पत्थर मारकर फोड़ नमस्कार से अपने को बड़ा पवित्र मानता था ।
डाला, जिससे उसकी वहीं तत्क्षण मृत्यु हो गई। 'पार्वाभ्युदय' के अन्त में सुबोधिका- टीका, जिसकी रचना इस प्रकार, अकालमृत्यु को प्राप्त मरुभूति आगे भी अनेक आचार्य मल्लिनाथ की मेघदूत-टीका के अनुकरण पर हुई है, के कर्ता बार जन्म-मरण के चक्कर में पड़ता रहा । एक बार वह पुनर्भव के क्रम पण्डिताचार्य योगिराज की ओर से 'काव्यावतर उपन्स्त हुआ है, जिससे में काशी जनपद की वाराणसी नगरी में महाराज विश्वसेन और महारानी 'पार्वाभ्युदय' काव्य की रचना की एक मनोरंजक पृष्ठभूमि की सूचना ब्राह्मी देवी के पुत्र-रूप में उत्पन्न हुआ और तपोबल से तीर्थंकर पार्श्वनाथ मिलती है।
बनकर पूजित हुआ। अभिनिष्क्रमण के बाद, एक दिन, तपस्या करते एक बार कालिदास नाम का कोई ओजस्वी कविराज अमोघवर्ष समय पार्श्वनाथ को पुनर्भवों के प्रपंच में पड़े हुए शम्बर नाम से प्रसिद्ध की सभा में आया और उसने स्वरचित 'मेघदूत' नामक काव्य को अनेक कमठ ने देख लिया। देखते ही उसका पूर्वजन्म का वैर भाव जग पड़ा राजाओं के बीच, बड़े गर्व से उपस्थित विद्वानों की अवहेलना करते हुए. और उसने मुनीन्द्र पार्श्वनाथ की तपस्या में विविध विध्न उपस्थित किये। सुनाया। तब, आचार्य जिनसेन ने अपने सतीर्थ्य आचार्य विनयसेन के अन्त में मुनीन्द्र के प्रभाव से कमठ को सद्गति प्राप्त हुई । जिज्ञासु जनों आग्रह वश उक्त कवि कालिदास के गर्वशमन के उद्देश्य से सभा के के लिए इस कथा का विस्तार जैन पुराणों में द्रष्टव्य है । मरुभूति का समक्ष उसका परिहास करते हुए कहा कि यह काव्य (मेघदूत) किसी अपने भव से पार्श्वनाथ के भव में प्रोन्नयन या अभ्युदय के कारण इस पुरानी कृति से चोरी करके लिखा गया है, इसीलिए इतना रमणीय बन काव्यकृति का पार्वाभ्युदय नाम सार्थक है। पड़ा है। इस बात पर कालीदास बहुत रूष्ट हुआ और जिनसेन से कहा- इस ‘पार्वाभ्युदय' काव्य में कमठ यक्ष के रूप में कल्पित है 'यदि यही बात है, तो लिख डालो कोई ऐसी ही कृति ।' इसपर जिनसेन और उसकी प्रेयसी भ्रातृपत्नी वसुन्धरा की यक्षिणी के रूप में कल्पना ने कहा - ऐसी काव्यकृति तो मैं लिख चुका हूँ, किन्तु है वह यहाँ से की गई है। राजा अरविन्द कुबेर हैं, जिसने कमठ को एक वर्ष के लिए दूर किसी दूसरे नगर में है। यदि आठ दिनों की अवधि मिले, तो उसे नगर-निर्वासन का दण्ड दिया था। शेष अलकापुरी आदि की कल्पनाएँ यहाँ लाकर सुना सकता हूँ।'
'मेघदूत' का ही अनुसरण-मात्र है । आचार्य जिनसेन को राज्यसभा की ओर से यथाप्रार्थित अवधि आचार्य जिनसेन ने 'मेघदूत की कथा वस्तु को आत्मसात् कर दी गई और इन्होंने इसी बीच तीर्थकर पार्श्वनाथ की कथा के आधार पर उसे 'पार्वाभ्युदय' की कथावस्तु के साथ किस प्रकार प्रासंगिक बनाया 'मेघदूत' की पंक्तियों से आवेष्टित करके 'पाश्र्वाभ्युदय' जैसी महार्थ है, इसके दो-एक उदाहरण द्रष्टव्य हैं : काव्य-रचना कर डाली और उसे सभा के समझ उपस्थित कर कवि तस्यास्तीरे मुहुरुपल वान्नूर्ध्व शोष प्रशुष्यन् कालिदास को परास्त कर दिया।
नुद्वाहुस्सन्यरुषमनसः पञ्चतापं तपो य: । ___'पार्वाभ्युदय' का संक्षिप्त कथावतार इस प्रकार है : भरतक्षेत्र
कुर्वन्न स्म स्मरति जडधीस्तापसानां मनोज्ञां । के सुरम्य नामक देश में मोदनपुर नाम का एक नगर था । वहाँ अरविन्द
'स्मिग्च्छायातरुम वसतिं रामगिर्याश्रमेषु ।।'
(सर्ग १: श्लो०३)
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जैन विद्या के आयाम खण्ड-७ मन्दबुद्धि कमठ उस सिन्धुनदी के तीर पर बार-बार पत्थरों को उल्लेख्य हैं । पकड़ता था। ऊपर से पड़ने वाली तीव्र धूप से उसके शरीर के अवयव 'मेघदूत' की प्रभावन्विति से अविष्ट होने पर भी 'पार्वाभ्युदय सूख रहे थे । ऊपर हाथ उठाये हुए वह कठिन चिन्तनपूर्वक पंचाग्नि की काव्यभाषा, शैली की दृष्टि से सरल नहीं अपितु जटिल है । फलत: तापने का तप कर रहा था । शीतल छाया वाले पेड़ों से युक्त रामगिरि कथावस्तु सहसा पाठकों को हृदयंगम नहीं होती । समस्यापूर्ति के रूप नामक पर्वत पर वास करता हुआ वह तपस्वियों के लिए मनोरम स्थान में गुम्फन होने के कारण तथा कथावस्तु के बलात् संयोजन के कारण का स्मरण तक नहीं करता था ।
भी मूलके अर्थबोध में विपर्यस्तता की अनुभूति होती है । मूलतः त्वां ध्यायन्त्या विरदृशयना भोगमुक्ताखिलाड़ग्याः 'पार्वाभ्युदय' प्रतिक्रया में प्रणीत एक कठिन काव्य है । शङ्के तष्या मृदुतलमवष्टम्य गण्डोपधानम् । 'पार्वाभ्युदय' समस्यापूर्तिपरक काव्य होने पर भी इसमें कविकृत 'हस्तन्यस्तं मुखमसकलव्यक्ति लम्बालक त्वा अभिनव भाव-योजना अतिशय मनोरम है । किन्तु सन्देश कथन को दिन्दोर्दैन्यं त्वदुपसरणक्लिष्ट कान्तिर्विभर्त्ति ।।' रमणीयता 'मेघदूत जैसी नहीं है । इसमें जैनधर्म के किसी सिद्धान्त का
(सर्ग३: श्लो० २७) कहीं भी प्रतिपादन नहीं हुआ है, किन्तु कैलासपर्वत और महाकाल-वन विरह की शय्या पर जिसका सारा शरीर निढाल पड़ा है, ऐसी में जिनमन्दिरों और जिन-प्रतिमाओं का वर्णन अवश्य हुआ है । जगहवसुन्धरा तुम्हारा ध्यान करती हुई अपने कपोलतल में कोमल तकिया जगह सूक्तियों का समावेश काव्य को कलावरेण्य बनाता है । इस प्रसंग लिये लेटी होगी; संस्कार के अभाव में लम्बे पड़े अपने केशों में आधे में 'रम्यस्थानं त्यजति न मनो दुर्विधानं प्रतीहि' (१.७४); 'पापापाये छिपे मुख को हाथ पर रखे हुए होगी, उसका वह मुख मेघ से आधे ढके प्रथममुदितं कारणं भक्तिरेव' (२.६५); कामोऽसहयंघट यतितरां क्षीण कान्तिवाले चन्द्रमा की भाँति शोचनीय हो गया होगा, ऐसी मेरी विप्रलम्भावतारम् ' (४.३७) आदि भावगर्भ सूक्तियाँ द्रष्टव्य है। आशंका है।
शब्दशास्त्रज्ञ आचार्य जिनसेन का भाषा पर असाधरण अधिकार प्रौढ काव्यभाषा में लिखित प्रस्तुत काव्य मेघदूत के समान है। इनके द्वारा अप्रयुक्त क्रियापदों का पदे-पदे प्रयोग ततो अधिक शब्दही मन्दाक्रान्ता छन्द में आबद्ध है । तेईसवे तीर्थंकर पार्श्वनाथ स्वामी की चमत्कार उत्पन्न करता है । बड़े-बड़े वैयाकरणों की तो परीक्षा ही तीव्र तपस्या के अवसर पर उनके पूर्वभव के शत्रु शम्बर या कमठ द्वारा 'पाश्र्वाभ्युदय' में सम्भव हुई है। इस सन्दर्भ में आचार्य कविश्री के द्वारा उपस्थापित कठोर कायक्लेशों तथा सम्भोगशृंगार से संवलित प्रलोभनों प्रयुक्त 'ही' ('हि' के लिए); स्फावयन्' (= वर्धयन्); प्रचिकटयिसुः' (= का अतिशय प्रीतिकर और रुचिरतर वर्णन इस काव्य का शिल्पगत प्रकटायितुमिच्छु:); 'वित्तानिध्नः' (=वित्ताधीन:); 'मङ्घ (=शीघ्रण); वैशिष्टय है।
'सिषिधूषः'(=सिद्धा देवताविशेषाः); 'पेरीयस्व' ( अत्यर्थं पानं विधेहि); मेघदूत जैसे श्रृंगार काव्य को शान्तरस के काव्य में परिणत 'खेन' (-गगनेन); प्रोथिनी' (=लम्बोष्ठी); 'मुरुण्ड:' (=वत्सराजो नरेन्द्रः); करना कविश्री जिनसेन की असाधारण कवित्व शक्ति को इंगित करता 'हृपयन्त्याः ' (=विडम्बयन्त्या:) 'निर्दिधक्षेत' (=निर्दग्धुमिच्छेत); 'वैनयार्थम्' है । संस्कृत के सन्देशकाव्यों या दूतकाव्यों में सामान्यतया विप्रलम्भ (=विजयस्यार्थस्येदं) 'जिगलिषु (=गलिमिच्छ); 'शंफलान्पम्फलीर्ति' शृंगार तथा विरह-वेदना की पृष्ठभूमि रहती है । परन्तु जैन कवियों ने (=शं सुखमेव फलं येषां तान् भृशं फलति); गह्नमानाः' (=जुगुप्सावन्न:); सन्देशकाव्यों में श्रृंगार से शान्त की ओर प्रस्थिति उपन्यस्त कर एतद्विध 'जाघटीति' (=भृशं घटते) आदि नातिप्रचलित शब्द विचारणीय है। काय-परम्परा को नई दिशा प्रदान की है। त्याग और संयम को जीवन 'पार्वाभ्युदय' आचार्य जिनसेन का अवश्य ही एक ऐसा का सम्बल समझने वाले जैन कवियों में श्रृंगारचेतनामूलक काव्य-विधा पार्यन्तिक काव्य है, जिसका अध्ययन-अनुशीलन कभी अशेष नहीं में भारत के गौरवमय इतिहास तथा उत्कृष्टतर संस्कृति के महार्थ तत्त्वों होगा। काव्यात्मक चमत्कार, सौन्दर्य-बोध, बिम्बविधान एवं रसानुभूति का समावेश किया है । सन्देशमूलक काव्यों में तीर्थंकर जैसे शलाका के विविध उपादान ‘पार्वाभ्युदय' में विद्यमान हैं । निबन्धनपटुता, पुरुषों के जीवनवृत्तों का परिगुम्फन किया है । 'मेघदूत' के श्लोकों के भावानुभूति की तीव्रता, वस्तुविन्यास की सतर्कता, विलास-वैभव, चरणों पर आश्रित समस्यापूर्ति के बहुकोणीय प्रकारों का प्रारम्भ कविश्री प्रकृति-चित्रण आदि साहित्यिक आयामों की सघनता के साथ ही जिनसेन द्वितीय के 'पाश्र्वाभ्युदय' से ही होता है। यही नहीं, जैन काव्य- भोगवाद पर अंकुशारोपण जैसी वर्ण्य वस्तु का विन्यास 'पार्वाभ्युदय' साहित्य में दूतकाव्य की परम्परा का प्रवर्तन भी 'पार्वाभ्युदय' से ही हुआ की काव्य प्रौढि को सातिशय चारुता प्रदान करता है। है। इस दृष्टि से इस काव्य का ऐतिहासिक महत्त्व है।
काव्यकार आचार्य जिनसेन ने अर्थव्यंजना के लिए ही मासिक पार्वाभ्युदय' से तो 'अभ्युदय' नामान्त काव्यों की परम्परा ही प्रयोग-वैचित्र्य से काम लिया है । 'काव्यावतर' में वर्णित कथा-प्रसंग प्रचलित हो गई । इस सन्दर्भ में 'धर्मशर्माभ्युदय' (हरिश्चन्द्र : तेरहवीं के आधार पर यदि आचार्य जिनसेन को कालिदास का समकालीन माना शती) 'धर्माभ्युदय' (उदयप्रभसूरि: तेरहवीं शती); 'कप्फिणाभ्युदय' जाय तो, यह कहना समीचीन होगा की भारतीय सभ्यता के इतिहास के (शिवस्वामी: नवमशती) : 'यादवाभ्युदय' (वेंकटनाथ वेदान्तदेशिक : जिस युग में इस देश की विशिष्ट संस्कृति सर्वाधिक विकसित हुई थी, तेरहवीं शती ) 'भरतेश्वराभ्युदय' (आशाधर: तेरहवीं शती) आदि काव्य उसी युग में 'पार्वाभ्युदय के रचयिता विद्यमान थे। वह कालिदास की
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तरह भारतीय इतिहास के स्वर्णयुग के कवि थे । इस युग की सभ्यता 'पाश्र्वाभ्युदय' भाषा की पौढ़ता की दृष्टि से अद्वितीय काव्य है।
और संस्कृति साहित्य में ही नहीं, अपितु ललित, वस्तु, स्थापत्य आदि यह और बात है कि आचार्य जिनसेन के शास्त्रज्ञपण्डित ने उनके कवि विभिन्न कलाओं में परिपूर्णता के साथ व्यक्त हुई है । आचार्य जिनसेन को अवश्य ही परास्त किया है । फलत: इसमें पाण्डित्य के अनुपात (द्वितीय) इस युग के श्रेष्ठ कवि थे और इन्होंने समय की बाह्य में कवित्व कम पड़ गया है । कालिदास की अवमानना के उद्देश्य से वास्तविकता, अर्थात् सभ्यता का चित्रण तो किया ही है, साथ ही उसकी लिखा गया होने पर भी यह काव्य उलटे ही कालिदास की काव्ययता अन्तरंग चेतना का भी जिसे हम संस्कृति कह सकते है; मनोहारी वर्चस्विता का विस्तारक बन गया है। समाहार प्रस्तुत किया है।
कालिदास की काव्यत्रयी पर जैन टीकाएँ
- डॉ० रविशंकर मिश्र
महाकवि कालिदास की काव्यत्रयी "रघुवंश महाकाव्यम्, विद्यमान तत्कालीन संस्कृत साहित्य की महत्वपूर्ण कृतियों पर अपनी लेखनी कुमारसम्भवम्, मेघदूतम'' अपने-अपने काव्यादर्शों के अप्रतिम आइने हैं। चलाकर उस कृति के विषय को अपनी भाषा में निबद्ध कर टीका या वृत्ति रघुवंशम् महाकाव्य जहाँ कवि के अभीष्ट आदर्शों को नितान्त कान्तासम्मित या अवचूरि के रुप में प्रस्तुत करना ही अपना जीवन-व्रत बना लिया था। शैली में चित्रित कर भारतीय संस्कृति का अम्लान मुखरीकरण है, वहाँ इन विद्वान् जैन टीकाकारों का मुख्य ध्येय था -- संस्कृत कुमारसम्भवम् महाकाव्य एक ऎसा धार्मिक आख्यान जिसमें सर्वोत्कृष्ट नैतिक साहित्य-जगत् में लब्धप्रतिष्ठ कवियों की रचनाओं की अपनी सुललित, मूल्यों की गरिमा एवं हमारी भारतीय संस्कृति का सनातन सन्देश है । वास्तव सुग्राह्य एवं सरल संस्कृत भाषा में व्याख्या कर उसे जन-सामान्य के लिए में नारी के प्रति भारतीय संस्कृति के अमर सन्देश को अभिव्यंजित करता आत्मसात करने योग्य बनाना -- जिससे समाज का प्रत्येक वर्ग उन हुआ यह महाकाव्य मानो हाथ उठाकर कह रहा है कि शारीरिक सुन्दरता रचनाओं को समझ सके, हदयंगम कर सके और उनमें वर्णित आदर्शों एवं ही नारी की सर्वोत्कृष्ट सम्पत्ति नहीं है, साथ ही आध्यात्मिक सौन्दर्य के प्रति नैतिक मानवीय मूल्यों को अपने जीवन में सहजतया उतार सके । इस आत्म-समर्पण कोई पराजय नहीं है । काव्यत्रयी का तीसरा मेघदूतम् सुकार्य को करते समय इन जैन टीकाकारों की सूक्ष्मेक्षिक दृष्टि सम्बन्धित खण्डकाव्य एक ऐसी वर्णनात्मक कारुणिक कविता है जो मानव एवं प्रकृति ग्रन्थ के व्याख्यायन पर ही सुस्थिर रहती थी, न कि इस ग्रन्थ के जैन या का अद्वैत स्थापित करती हुई कामरुप मेघ और कामपीड़ित यक्ष के माध्यम अजैन ग्रन्थकार जैसी संकीर्ण वैचारिक दृष्टि पर। यह एक महत्वपूर्ण बिन्दु से सम्पूर्ण जगत् को काम के पावन पीयूष-प्रवाह में निमज्जित कराती है। इन जैन मनीषियों के साम्प्रदायिक व्यामोह से परे होने का स्पष्ट परिचायक यही कारण है कि न केवल भारतीय साहित्य में इस काव्य को सर्वोत्कृष्ट है।
और अतिमूल्यवान गीतिकाव्य माना जाता रहा है बल्कि विश्व-साहित्य का महाकवि कालिदास की इस लोकग्राह्य एवं सार्वजनीन काव्यत्रयी सर्वोत्कृष्ट गीतिकाव्य (Lyric) माना गया है। अपने सम्पूर्ण रचना-क्रम में (रघुवंशम्, कुमारसम्भवम्, मेघदूतम्) की और अधिक महाकवि कालिदास कमोबेश एक गीति-कार, एक गीति-लेखक के रुप में सामान्यजन-ग्राह्य एवं बालसुलभ बनाने के उद्देश्य से इन जैन टीकाकारों अधिक उभर कर आते हैं।
ने इस काव्यत्रयी पर अनेक टीकाओं की रचना की हैं । यद्यपि यह विषय यही कारण है कि महाकवि कालिदास की काव्यत्रयी की प्रसिद्धि अभी और अधिक गहन शोध की अपेक्षा रखता है, फिर भी हमारे इस और लोकप्रियता ने सदैव समकालीन एवं परकालीन साहित्यकारों, काव्यकारों, उल्लेख में काव्यत्रयी के तीनों काव्यों पर किन-किन जैन टीकाकारों ने टीकाकारों, व्याख्याकारों को अपनी ओर सहजतया आकर्षित किया है और अपनी टीकाएँ या वृत्तियाँ लिखी हैं, वे टीकाएँ या वृत्तियाँ अद्यतन प्रकाशित उनके मन को मोहा है । "हर अच्छी चीज की चाहत कौन नहीं करता''- हैं या कि अप्रकाशित हैं, वे टीकाएँ किन-किन ग्रन्थ भण्डारों में उपलब्ध हमारी इस सर्वथा निजी धारणा अनुसार ही सम्भवत: इस काव्यत्रयी की ओर और सुरक्षित हैं तथा उनका किन-किन ग्रन्थसूचियों में उल्लेख है आदि टीकाओं और व्याख्याओं की रचना-परम्परा परवान चढ़ी। उल्लेखनीय है विभिन्न महत्वपूर्ण शोधपरक बिन्दुओं को यहाँ प्रस्तुत करना ही अभिप्रेत है कि संस्कृत साहित्य में जैन साहित्यकारों, काव्यकारों, गीतकारों, नाटककारों, ताकि इस दिशा में और भी अधिक शोध का पथ प्रशस्त हो सके। व्याख्याकारों और टीकाकारों का अत्यन्त महत्वपूर्ण स्थान है । पन्द्रहवीं और सोलहवीं शताब्दी में मुनि चारित्रवर्धनगणि जैसे अनेक स्वनामधन्य विद्वान् रघुवंशम् :जैन टीकाकार हुए हैं, जिन्होंने अपनी स्वतंत्र और नवीन रचनाओं की अपेक्षा रघुवंशम् महाकाव्य महाकवि कालिदास की प्रौढ़तम प्रतिभा की
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जैन विद्या के आयाम खण्ड-७ प्रसूति समझा गया है । लोकप्रियता में यह महाकाव्य अनुपमेय है । उपलब्ध हस्तलिखित ग्रन्थों के सूचीपत्र की ग्रन्थ-संख्या २८२९ पर इस टीका का जानकारी अनुसार इस महाकाव्य पर अब तक लगभग चालीस टीकाएँ भिन्न- उल्लेख प्राप्त होता है । भिन्न कालों में विभिन्न टीकाकारों द्वारा रची गयी मिलती हैं ।' इनमें से १०. मुनि श्री मलयसुन्दरसूरि ने भी रघुवंशम पर एक टीका निम्नलिखित टीकाएँ जैन टीकाकारों द्वारा रची गयी हैं, जिनका उल्लेख लिखी है।५ । विमलगच्छ उपाश्रय अहमदाबाद के हस्तलिखित ग्रन्थों के अनेक स्रोतों में मिलता है -
सूचीपत्र में ग्रन्थ-संख्या२९ पर इस टीका का उल्लेख प्राप्त होता है। १.सोलहवीं शती में खरतरगच्छ के आचार्य श्री जिनभद्रसूरि के शिष्य मनिश्रीचारित्रवर्धन ने "शिशुहितैषिणी' नाम से एक टीका लिखी है, कमारसम्भवम : जिसकी हस्तलिखित प्रतियाँ विभिन्न ग्रन्थ-भण्डारों में सुरक्षित है।
महाकाव्य पद्धति की यह अपने युग की सर्वश्रेष्ठ रचना है, २. मनि श्री मुनिप्रभगणि के शिष्य श्री धर्ममरु ने वि.सं. 1748 जिसका केन्द्रीय काव्य-तत्त्व है- शिव और पार्वती का विवाह जो अपने मूल में रघुवंशम् पर टीका लिखी, जिसका उल्लेख भण्डारकर इंस्टीट्यूट पूना, भाव में पुरुष तथा प्रकृति के मंगल-मिलन का प्रतीक है, जिसमें दैविक डेला उपाश्रय भण्डार अहमदाबाद तथा टी. ऑफ्रेक्ट द्वारा संकलित केटालॉगरम लौकिक, स्वर्ग-भर्त्य, त्याग-प्रेम और तप-विलास का अपूर्व सामंजस्य के भाग प्रथम (पृष्ठ ४८७) में उपलब्ध होता है ।
समाहित है । इस महनीय महाकाव्य पर विविध जैन टीकाकारों द्वारा लिखी ३. खरतगच्छ के आचार्य श्री जयसोम उपाध्याय के सुशिष्य गई निम्नलिखित टीकाओं या वृत्तियों का उल्लेख विविध सन्दर्भो में प्राप्त मुनिश्री गुणविनय के रघुवंशम् पर “विशेषार्थबोधिका' नामक टीका की होता है . रचना वि.सं. १६४४ में की है। इस टीका का उल्लेख विभिन्न ग्रन्थ- १. खरतरगच्छ के मनि श्री चारित्रवर्धनगणि ने कुमारसम्भवम् पर भण्डारों के सूचीपत्रों में मिलता है । यद्यपि 'जैन ग्रन्थावली' में इस टीका “कमार तात्पर्य' नामक बोधगम्य टीका लिखी है । इस टीका का उल्लेख के रचनाकार का नाम 'गुणविजय' दिया गया है, जो सम्भवत: मुद्रण की टी. ऑफेक्ट द्वारा संकलित केटालॉगस केटालॉगरम के भाग प्रथम के पृष्ठ अशद्धि के कारण हआ है, ऐसा जिनरत्नकोशकार ने भी स्पष्ट किया है। ११० पर प्राप्त होता है। ४. विक्रम संवत् १६९२ में खरतरगच्छ के आचार्य श्रीसकलचन्द्र
२. उपकेशगच्छ के मुनि श्रीक्षमामेरु के सुशिष्य मुनि मतिरत्न ने के सुशिष्य मुनि श्रीसमयसुन्दर ने रघुवंशम् पर "अर्थालापनिका" नामक वि.सं. १५७४ में कुमारसम्भवम् महाकाव्य के सात सर्गों पर एक 'अवचरि" टीका लिखी है । इस टीका की मूल हस्तलिखित प्रति कुल १४५ पत्रों में की रचना की है। इस अवचूरि का उल्लेख डॉ० पीटर्सन द्वारा संकलित डेला उपाश्रय भण्डार अहमदाबाद में सुरक्षित है ।
भण्डारकर इंस्टीट्यट पूनाके हस्तलिखित गुन्थ-संग्रह द्वितीय की प्रस्तावना ५. आचार्य श्री रामविजय जी के सुशिष्य मुनि श्री जियगणि ने के पष्ठ ५४ पर प्राप्त होता है। रघुवंशम् पर टीका लिखी है । इस टीका का उल्लेख डेला उपश्रय भण्डार
३. तपागच्छ के आचार्य श्री रामविजयगणि के सुशिष्य मुनि अहमदाबाद के हस्तलिखित ग्रन्थों की सूची में, टी. ऑफेक्ट द्वारा संकलित विजयगणि ने कुमार सम्भवम् महाकाव्य पर "कुमारसम्भववृत्ति' नामक एक केटालॉगस के केटालॉगरम में तथा विमलगच्छ उपाश्रय भण्डार अहमदाबाद एक टीका लिखी है। यह टीका भी महाकाव्य के मात्र सात सर्गों तक ही के सूचीपत्र में प्राप्त होता है।
सीमित मिलती है । अनेक ग्रन्थ-भण्डारों के सूचीपत्रों में इसका उल्लेख प्राप्त ६. मुनि श्री सुमति विजय जी ने रघुवंशम् पर "सुगमान्वया" होता है । नामक एक टीका लिखी है । डॉ. व्हूलर द्वारा संकलित एवं भण्डारकर ४. खतरगच्छ के मुनिश्रीजिनसमुद्रसूरि ने भी कुमारसम्भवम् के इंस्टीट्यूट पूना में संरक्षित ग्रन्थ-भण्डार के सूचीपत्र एवं जैन ग्रन्थावली जैसे मात्र सात सर्गों पर एक टीका लिखी है। अन्य सन्दर्भ स्रोत्रों से इस टीका की जानकारी मिलती है११।।
५. दिगम्बर सम्प्रदाय के मुनि श्री धर्मकीर्ति ने इस महाकाव्य पर ७. मुरि श्री हेमसूरि द्वारा रघुवंशम् पर लिखी गई एक टीका की एक टीका लिखी है । इस टीका का उल्लेख पूना से ईसवी सन १९२८ जानकारी मिलती है । इस टीका की मूल हस्तलिखित प्रति जैसलमेर भण्डार में प्रकाशित 'बृहत्टिपण्णिका' नामक जैन-ग्रन्थ सूची की ग्रन्थ-संख्या ५३० की ग्रन्थ संख्या १०७८ पर सुरक्षित एवं संरक्षित है । जिन रत्नकोश में पर प्राप्त होता है । भी इस टीका का उल्लेख प्राप्त होता है।२।।
६. मुनि श्री कल्याणसागर ने भी कुमारसम्भवम् पर एक वृत्ति ८. तपागच्छ के आचार्य श्री शान्तिचन्द्रगणि जी के सुशिरू मुनि लिखी है । इस वृत्ति का उल्लेख अहमदाबाद के ग्रन्थ-भण्डार के सूचीपत्र श्रीरत्नचन्द्रगणि ने रघुवंशम् पर एक टीका लिखी है। टी. ऑफेक्ट द्वारा में प्राप्त होता है२२ ।। संकलित केटालॉगस केटालॉगरम के तीसरे संस्करण के पृष्ठ १०४ पर इस ७. बड़ा उपाश्रय बीकानेर के महिमभक्ति के इकतीसवें बण्डल में टीका का उल्लेख मिलता है । भण्डारकर इंस्टीट्यूट पूरा के ग्रन्थ- भण्डार कुमारसम्भवम् महाकाव्य पर लक्ष्मीवल्लभकत एक टीका का उल्लेख प्राप्त में इस टीका की प्रति उपलब्ध है ।
होता है । इस टीका की प्रति भी उसी बण्डन में संगृहित है। ९. रघुवंशम् पर ही रचित किसी अज्ञातनाम टीकाकार द्वारा रचित ८. मुनि श्री जिनचन्द्रसूरि ने भी कुमारसम्भवम् महाकाव्य पर एक "पंजिका'' नामक एक टीका का उल्लेख जिनरत्नकोश में मिलता है । टीका लिखी है२४ । इस टीका का उल्लेख अहमदाबाद के सचीपत्र में प्राप्त ज्ञात सन्दभों एवं उल्लेखों के अनुसार यह टीका किसी अज्ञातनाम जैन होता है। टीकाकार द्वारा ही रची गयी है। विजयधर्म लक्ष्मी ज्ञान-भण्डार आगरा के
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कालिदास की काव्यत्रयी पर जैन टीकाएँ
१२७ ९. मुनि श्री जिनभद्रसूरि द्वारा कुमारसम्भवम् महाकाव्य पर लिखी की ग्रन्थ संख्या ४१६ पर एवं ब्रिटिश म्यूजियम लन्दन की ईसवी सन् गई एक टीका का उल्लेख प्राप्त होता है २५ । टी. ऑफेक्ट द्वारा संकलित १९०२ में प्रकाशित हस्तलिखित ग्रन्थों की सूची की ग्रन्थ संख्या २२५ केटालॉगस केटालॉगरम के भाग प्रथम के पृष्ठ ११० पर इस टीका की पर प्राप्त होता है। जानकारी मिलती है।
७. आचार्य श्री धर्मसुन्दरगणि के शिष्य मुनि जिनहंस ने भी १०. डॉ० पीटर्सन द्वारा संकलित एवं भण्डारकर इंसटीट्यूट मेघदूतम् खण्डकाव्य पर एक टीका लिखी है। रामबहादुर हीरालाल द्वारा पूना के दूसरे हस्तलिखित ग्रन्थ-संग्रह की ग्रन्थ-संख्या ७५-७६ पर किसी संकलित एवं नागपुर ईसवी सन् १९२६ में प्रकाशित संस्कृत एवं प्राकृत अज्ञातनाम जैन विद्वान् टीकाकार द्वारा कुमारसम्भवम् पर लिखी गई अवचूरि ग्रन्थों की हस्तलिखित ग्रन्थ-सूची की ग्रन्थ-संख्या ६८२ पर इस टीका का का उल्लेख मिलता है २६ ।
उल्लेख प्राप्त होता है। ११. कुमारसेन नामक एक जैन विद्वान् टीकाकार ने कुमारसम्भवम् ८. खरतरगच्छ के मुनि श्री महिम सिंह ने भी विक्रम संवत् महाकाव्य के एक से तीन सर्गों तक की टीका लिखी है । इस टीका का १६९३ में मेघदूतम् खण्डकाव्य पर एक टीका लिखी है३४ । भण्डारकर उल्लेख भण्डारकर इंस्टीट्यूट फूमा द्वारा ईसवी सन् १९२५ में प्रकाशित इंस्टीट्यूट पूना की हस्तलिखित चौथी ग्रन्थ-सूची की ग्रन्थ संख्या २८० पर हस्तलिखित ग्रन्थों की सूची के पृष्ठ १६ पर मिलता है ।
इस टीका का उल्लेख मिलता है । अन्य ग्रन्थ भण्डारों की ग्रन्थ-सूचियों
में भी इस टीका का उल्लेख है। मेघदूतम् :
९. खरतरगच्छ के मुनि श्री समय सुन्दर ने मेघदूतम् खण्डकाव्य यह खण्डकाव्य महाकवि कालिदास की रसोद्गारि-गिरा का सर्वोत्कृष्ट के प्रथम श्लोक ‘कश्चित्कान्ताविरहतगुरुणा' के तीन अर्थ प्रस्ततु किये हैं। प्रसाद है । इस खण्डकाव्य में स्थापित मानव और प्रकृति का अद्वैत समूचे इसका उल्लेख समयसुन्दर कृत कुसुमांजलि में प्राप्त होता है। संस्कृत साहित्य में अनूठा है । इस अमर खण्डकाव्य पर विभिन्न विद्वान् १०. मुनि श्री मेघराजगणि ने भी मेघदूतम् खण्डकाव्य पर एक टीकाकारों द्वारा अब तक पचासों टीकाएँ लिखी जा चुकी हैं।८ । इस टीका लिखी है३६ । इस टीका का उल्लेख भण्डारकर इंस्टीट्यूट पूना द्वारा खण्डकाव्य पर जैन टीकाकारों द्वारा लिखी गई निम्नलिखित टीकाओं की ईसवी सन् १८९५ के पूर्व प्राप्त हस्तलिखित ग्रन्थों की प्रकाशित ग्रन्थजानकारी प्राप्त होती है
सूची के पृष्ठ ५० पर प्राप्त होता है। १. मेघदूतम् खण्डकाव्य पर जैन टीकाकारों द्वारा लिखी गई ज्ञात ११. मुनि श्री विजयसूरि ने भी मेघदूतम् खण्डकाव्य पर एक टीकाओं में जैन विद्वान् आसके द्वारा लिखी गई टीका सर्वप्रमुख है। यह टीका लिखी है। यह टीका विक्रम संवत् १७०९ में रची गई है, ऐसा टीका बालचन्द्र द्वारा विवेकमंजरी में प्रकाशित भी है । इस टीका की उल्लेख भण्डारकर इंस्टीट्यूट पूना के हस्तलिखित ग्रन्थों के पाँचवे संग्रह की हस्तलिखित प्रति का उल्लेख डॉ० पीटर्सन द्वारा संकलित भण्डारकर ग्रन्थ संख्या ४४३ पर उल्लिखित मिलती है । इंस्टीट्यूट पूना के तीसरे हस्तलिखित ग्रन्थ-संग्रह की पृष्ठ संख्या१०२ पर १२. श्री आर. मित्रा द्वारा कलकत्ता से प्रकाशित हस्तलिखित मिलता है।
ग्रन्थों की नौवीं ग्रन्थ-सूची के पृष्ठ १६३ पर एक अज्ञातनाम जैन टीकाकार २. श्री विजयगणि ने मेघदूतम् खण्डकाव्य पर एक टीका लिखी द्वारा मेघदूतम् खण्डकाव्य पर “मेघलता' नामक एक टीका लिखे जाने का है । इस टीका का उल्लेख डेला उपश्रय भण्डार अहमदाबाद के उल्लेख मिलता है । यह टीकाकार एक जैन विद्वान् ही है, इसकी पुष्टि हस्तलिखित ग्रन्थों की सूची के पृष्ठ ३८ पर तथा विमलगच्छ उपाश्रय टीका के प्रारम्भिक चरण 'प्रणम्य श्रीजिनेशनम्' से स्वयंसिद्ध होती है। भण्डार अहमदाबाद के हस्तलिखित ग्रन्थों की सूची के अनुसार चौदहवें १३. मुनि श्री महीमेरु गणि नामक एक जैन टीकाकार ने बन्डल के उन्नीसवें ग्रन्थ में प्राप्त होता है।
मेघदूतम् खण्डकाव्य पर “बालावबोधवृत्ति'' नामक टीका लिखी है । इस ३. आचार्य श्री विनयमेरु के सुशिष्य सुमतिविजय ने भी टीका की मूल हस्तलिखित प्रति पाटण के ग्रन्थ-भण्डार की ग्रन्थ-सूची में मेघदूतम् खण्डकाव्य पर एक टीका लिखी है । इस टीका का उल्लेख जैन ग्रन्थ-संख्या ४ पर संग्रहीत एवं उपलब्ध है। ग्रन्थावली में मिलता है।
इस प्रकार महाकवि कालिदास की काव्यत्रयी के इन तीनों ही ४. खरतरगच्छ के मुनि श्री चरित्रवर्धन गणि ने भी मेघदूतम् , काव्यों पर जैन टीकाकारों द्वारा अबतक उपलब्ध शोधपरक जानकारी खण्डकाव्य पर एक टीका लिखी है । इस टीका का उल्लेख भण्डारकर अनुसार रघुवंशम् महाकाव्य पर दस टीकाएँ, कुमारसम्भवम् महाकाव्य पर इंस्टीट्यूट पूना की डॉ० पीटर्सन द्वारा संकलित हस्तलिखित ग्रन्थ-सूची के ग्यारह टीकाएँ रची जा चुकी मिलती हैं। परन्तु यह निश्चित तौर पर अब चौथे संग्रह की ग्रन्थ संख्या ३४५ पर प्राप्त होता है।
भी नहीं कहा जा सकता, क्योंकि अभी भी ऐसे बहुत से प्राचीन ग्रन्थ-भण्डार ५. खरतरगच्छ के ही आचार्य श्रीजिनचन्द्रसूरि के सुशिष्य मुनि अंधकार में पड़े हो सकते हैं, जिनमें ऐसी ही अन्य अनेक टीकाओं की क्षेमहंसगणि द्वारा मेघदूतम् खण्डकाव्य पर लिखी गई एक टीका का उल्लेख सम्भावना की जा सकती है । इस दिशा में अभी पर्याप्त शोध की अपेक्षा जैन ग्रन्थावली में प्राप्त होता है।
और गुंजाइश है । इस शोधपरक अध्ययन में मुनि श्री चारित्रवर्धनगणि एक ६. खरतरगच्छ के ही आचार्य श्री जयमन्दिर के सुशिष्य मुनि ऐसे टीकाकार उभर कर सामने आते हैं, जिन्होंने महाकवि कालिदास की कनककीर्ति ने भी मेधदूतम् खण्डकाव्य पर एक टीका लिखी है३२ । इस काव्यत्रयी के तीनों काव्यों पर प्रभावशाली टीकाएँ लिखी हैं । मुनि श्री चारित्र टीका का उल्लेख टी० ऑफेक्ट द्वारा संकलित हस्तलिखित ग्रन्थों की सूची वर्धनगणि की खण्डान्वय शैली की ये टीकाएँ अपने ढंग में अनूठी है ।
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इनमें पाण्डित्य का अनुपम पुट है, जो सर्वथा स्तुत्य है । यहाँ यह कहना भी उचित प्रतीत होता है कि सौन्दर्य और प्रेम का सन्देश देने वाले महाकवि कालिदास ने काव्य की जिस विधा को छू लिया, वह अमर हो गई। काव्यत्रयी के रघुवंशम् और कुमार सम्भवम् में आदर्शोन्मुख प्रेम की मधुर कल्पना में कवि को नायक-नायिकाओं के पारस्परिक मिलन एवं तिरोधान की आँख मिचौनी में न जाने कितने अवसर रोने, रुलाने एवं विकलता में विक्षिप्त भावना के प्रलापों की अभिव्यक्ति के अवसर प्राप्त हुए हैं"। कवि की काल्पनिक सांसारिकता, प्रेम के परिधान में मेघदूतम् के रूप में साकार हो उठी है, जहाँ केवल प्रेम है, स्नेह है, लालसा है और तीव्रतम अनुभूतियों की भावभूमि में आत्मसमर्पण की अजेय परवशता है। महाकवि कालिदास की काव्ययी की इसी विशिष्टता की ओर आकर्षित होकर महाकवि की कविता मन्दाकिनी में न जाने कितने काव्य-मर्मज्ञ कलम के सपूत टीकाकारों ने केवल हिलोरें ही नहीं लिये हैं अपितु चूणान्त निमज्जन भी किया है। मानवीय भावनाओं को इतनी मधुरता से संजोया है कि प्रत्येक मधुप उसके भाव-परिमल में स्वभावतः मुग्ध होकर गुनगुना उठता है और आनन्द-विभोर हो उठता है। फलतः जिज्ञासु को प्रत्येक श्लोक के उचित शब्दों के पारस्परिक सम्बन्ध का ज्ञान तथा श्लोक की भावात्मक अन्तरात्मा को आत्मसात करने में बड़ी ही सहायता प्राप्त होती है। ये टीकाएँ संस्कृत साहित्य के कोश की श्रीवृद्धि में एक बहुत बड़ी देन है । इनमें संस्कृत काव्यानुरागियों को अनुरंजित करने की पूर्ण क्षमता भी है। इन टीकाकारों ने महाकवि की अभिव्यक्ति को अपने सुघड़ हाथों इतना सुन्दर संवार दिया, इतने रंगों से भर दिया कि अपने गुणों की गरिमा में वे अनूठी बनकर रह गई और काव्य-रस-पिपासु आनन्दमग्न हो गये ।
सन्दर्भ
१. महाकवि कालिदास, पृ० ६२
२. क- जिनरत्नकोश, पृ० ३२५
ख- जैनग्रन्थ और ग्रन्थकार, पृ० ४२
क- जिनरत्नकोश, पृ० ३२५
ख- जैनग्रन्थावली, पृ० ३३५
४. जैन ग्रन्थ और ग्रन्थकार, पृ० ४९
५. जिनरत्नकोश, पृ० ३३५ ६. जैन ग्रन्थावली ५० ३३५ पृ० ७. जिनरत्न कोश, पृ० ३२५ ८. क. जिनरत्नकोश, पृ० ३३५
३.
ख. जैनग्रन्थ और ग्रन्थकार, पृ०४९
ग. समयसुन्दर कृत कुसुमांजलि, पृ०५१
९. जैनधावली पृ० ३३५
जैन विद्या के आयाम खण्ड- ७
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१०. जैनबन्ध और अन्यकार, पृ०५४ ११. जिनरत्नकोश, पृ० ३२५ १२. जिनरत्नकोश, पृ० ३२५ १३. वही,
१४. क. वी.
ख. जैन ग्रन्थ और ग्रन्थकार, पृ. ५२ १५. जिनरत्नकोश, पृ० ३२६ १६. जिनरत्नकोश, पृ० ३२६ १७. वही, पृ० ९३
१८. वही,
१९. क. जैन ग्रन्थावली, पृ० ३३४ ख. जैन ग्रन्थ और ग्रन्थकार, पृ० ५४ २०. जिनरत्नकोश, पृ० ९३
२१. बही
२२. वही,
२३. वही,
२४. वही,
२५. वही
२६. जिनरत्न कोश, पृ० ९४
२७. वही, २८. वही,
२९. महाकवि कालिदास, पृ १२४
३०. क. जिनरत्नकोश, पू. ३१३
३१. ख. जैन ग्रन्थ और प्रकार पृ० २६
३२. जिनरत्नकोश, पृ. ३१४
३३. जैन प्रन्थावली, पृ० ३३५.
३४. जिनरत्नकोश, पृ. ३१४
३५. जैन ग्रन्थावली, पृ० ३३५
३६. जिनरत्नकोश, पू. ३१४
३७. श्री जिनरत्नकोश: श्री हरि दामोदर वेलणकर, पृ. ३१४
३८. क. श्री जिनरत्नकोश, पृ. ३१४
ख. जैन ग्रन्थ और ग्रन्थकार, पृ० ५४ ३९. समय सुन्दर कृत कुसुमांजलि, पृ ५१ ४०. जिनरत्नकोश, पृ० ३१४ ४९. वही,
४२. जिनरत्नकोश, पृ० ३१४ ४३. जैनबन्धावली, पृ० ३३५
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प्रवरसेन और उनका सेतुबन्ध
डॉ० अजित शुकदेव शर्मा
प्रवरसेन का 'सेतुबन्ध' महाकाव्य प्राकृत साहित्य में आदि नाम देखने को मिलते हैं - दो कश्मीर के और दो वाकाटक-वंश के। महाकाव्य के नाम से प्रसिद्ध है । इसके कई नाम मिलते हैं, जैसे 'राजतंरगिणी' के अनुसार प्रथम प्रवरसेन प्रथम शती के हैं और दूसरे 'दशमुखवध', 'रावणवध' और रामसेतुप्रदीपम् । रावणवध एवं दशमुखवध प्रवरसेन दूसरी शती के। डॉ० अल्तेकर के अनुसार वाकाटक-वंश के नाम का उल्लेख स्वयं प्रवरसेन ने ही सेतुबन्ध के अंतिम अध्याय आदि पुरुष बिन्ध्यपति के पुत्र प्रवरसेन प्रथम ने २७५ से ३३५ ई० तक (१५/२४) एवं प्रारम्भ में (१/१२) किया है। अलवर के कैटलॉग एवं राज किया। इसी प्रवरसेन प्रथम ने दक्षिण में वाकाटक राज्य का विस्तार रामदास भूपति ने अपनी टीका में क्रमश: रावणवध' एवं 'रामसेतु करके सम्राट की उपाधि धारण की । इसी वाकाटक-वंश की चतुर्थ पीढ़ी प्रदीपम्' का उल्लेख किया है । पुन: महाकाव्य के विषय-वस्तु के में प्रभावती का द्वितीय पुत्र प्रवरसेन द्वितीय का ४१० ई० में राज्याभिषेक अवलोकन से यही तथ्य उद्भाषित होता है कि ग्रन्थ में प्रमुखत: दो हुआ एवं उसका राज्यकाल ४४० ई० तक रहा। वस्तुत: यही प्रवरसेन घटनाओं का ही वर्णन है - समुद्र पर सेतु-रचना का विधान एवं सेतुबन्ध के रचनाकार हैं। प्रवरसेन चूँकि वैष्णव धर्म के मानने वाले थे रावणवध । इन दो घटनाओं में सेतुबन्ध का वर्णन अत्यधिक उत्साहपूर्वक इसलिये विष्णु के अवतार राम के प्रति निष्ठावान होकर उन्होंने रामायण एवं साहित्यिक चमत्कारिता के साथ किया गया है । इसलिये यह की पूर्वपीठिका के सन्दर्भ में सेतुबन्ध की रचना की । यद्यपि उनके निष्कर्ष निकाला जा सकता है कि ग्रन्थ का नाम सेतुबन्ध ही प्रमुख स्थान व्यक्तितत्व के सम्बन्ध में कोई अलग से ग्रन्थ नहीं प्राप्त है, फिर भी रखता है।
उनके विचारों, जीवन-शैली आदि के सम्बन्ध में उनकी ही रचना सेतबन्ध के रचनाकार के सम्बन्ध में भी कई प्रकार के विभ्रम सेतुबन्ध में यत्र-तत्र देखने को मिलती है । सेतुबन्ध के आधार पर कहा उपस्थित होते हैं । सेतुबन्ध के प्रत्येक आश्वास के अन्त में जो पुष्पिका जा सकता है कि वे वैष्णव संस्कृति के पुरोधा है क्योंकि विष्णु के मिलती है, उसमें प्रवरसेन के नाम के साथ कालिदास का भी नामोल्लेख अवतार राम के जीवन-चरित को उजागर करना ही उनका लक्ष्य है। पाया जाता है । सेतुबन्ध के टीकाकार रामदास भूपति तो स्पष्टतः यत्र-तत्र विष्णु के प्रति प्रगाढ़ प्रेम का प्रदर्शन उनके काव्य का विषय कालिदास की ही रचना स्वीकार करते हैं। इस सम्बन्ध में डॉ० रघुवंश है। यद्यपि उन्होंने शिव के प्रति भी अपना प्रेम एवं आस्था को एवं डॉ० श्री रंजन सरिदेव ने यथोचित प्रकाश डाला है। सेतुबन्ध का अभिव्यजित किया है फिर भी वह स्थल कम है। प्रवरसेन का काव्य रचनाकार प्रवरसेन ही है। संभवत: इसके लिपिकार कालिदास नाम के कौशल बाणभट्ट एवं कालिदास के समक्ष रखा जा सकता है, क्योंकि कोई व्यक्ति रहे हों, जिसका नाम प्रवरसेन के साथ जुड़ गया हो । पुनः उनकी रचना में काव्य-संबंधी सभी तत्त्वों का सम्यक् समावेश देखने को ऐसा भी संभव है कि प्रवरसेन का ग्रन्थ अधूरा रहा हो और कालिदास मिलता है। प्राकृत वाङ्गमय के क्षेत्र में उनकी तुलना और अन्य किसी ने उसे पूर्ण किया हो । क्षेमेन्द्र ने अपनी कृति "औचित्य विचार-चर्चा' कवि से नहीं की जा सकती है। उनकी कल्पनाशीलता, अलंकारों का में सेतुबन्ध के रचयिता के रूप में प्रवरसेन को ही स्वीकार किया है। बहुलता से प्रयोग, रसों का सम्यक् समायोजन सिद्ध करता है कि वे महाकवि दण्डी ने काव्यादर्श में सेतुबन्ध काव्य का उल्लेख किया है, एक सिद्धहस्त कवि हैं। उनका ज्ञान-विस्तार भी देखने को मिलता है, लेकिन रचयिता के सम्बन्ध में मौन हैं । यदि सेतुबन्ध कालिदास की क्योंकि उन्होंने उपनिषदों-पौराणिक बिम्बों का आधार लेकर अपने काव्य रचना होती तो उनका नाम अवश्य ही उल्लिखित होता। प्रवरसेन एवं को महिमामंडित करने का प्रयास किया है। राधा गोविन्द बसाक ने ठीक कालिदास की रचनाओं की समीक्षा करने पर ऐसा प्रतीत होता है कि ही कहा है कि प्रवरसेन का काव्य-पक्ष ठोस धरातल पर अवस्थित है। दोनों के साहित्यिक विचारों, कल्पनाओं एवं उद्भावनाओं में काफी ग्रन्थ के आदि में भगवान् विष्णु और समुद्र का संशलिष्ट चित्र दर्शनीय अन्तर है । कालिदास ने अपने नाटकों में शौरसेनी प्राकृत का सहारा है। साथ ही, इसी गाथा के अंतराल से कवि के पौराणिक संस्कार का लिया है और प्रवरसेन का सेतुबन्ध महाराष्ट्री प्राकृत की रचना है। आलोक भी फूटता नजर आता है। वे दोहरे व्यक्तित्व के कवि हैं, बाणभट्ट ने 'हर्षचरितम्' के प्रारम्भ में सेतुबन्ध के रचनाकार प्रवरसेन का क्योंकि उनकी रचनाओं में सरल से सरल एवं जटिल से जटिल बिम्बों स्पष्टत: उल्लेख किया है । अत: इन ऊहापोहों से अलग हटकर यह का संगुंफन हुआ है। कहा जा सकता है कि सेतुबन्ध के रचयिता प्रवरसेन ही हैं।
सेतुबन्ध के प्रारम्भिक गाथायें उपनिषदों के प्रतिबिम्बित रूप प्रवरसेन के देश-काल के सम्बन्ध में भी ऊहापोह देखने को प्रदर्शित करती हैं, क्योंकि कवि ने विष्ण की रहस्यमयता को विरोधभाय मिलते हैं । ऐतिहासिक धरातल पर प्रवरसेन नाम के चार राजाओं के के द्वारा व्यंजित किया है। उनका कहना है कि विष्ण ऊँचाई के
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जैन विद्या के आयाम खण्ड-७ बिना भी ऊतंग हैं । बिना फैले भी सर्वव्यापक हैं, निम्नगामी होते हुये निष्क्रिय और व्यथापूर्ण जीवन व्यतीत कर रहे थे। हनुमान के आते ही बिना भी गम्भीर हैं, लघु होते हुये बिना भी सूक्ष्म है और अज्ञात होकर राम के मन में सीता की स्मृति रोमांचित होने लगती है और रावण के भी प्रकट हैं । कवि आगे की गाथाओं में वामनावतार का प्रसंग देते हुये प्रति क्रोधानल जागृत होता है । सेना का संगठन करके राम लंकाभिमुख विष्णु की महिमा का वर्णन करते हैं । उनका कहना है कि विष्णु सम्पूर्ण होते हैं और पर्वत-कंदराओं को पार करते हुये दक्षिण सागर तट पर ब्रह्मांड में व्याप्त हैं तथा तीनों लोकों का अविर्भाव एवं तिरोभाव करने पहुंचते हैं । सेनाओं के साथ जाते हुये राम की मनःस्थिति और प्राकृतिक में सक्षम हैं । विष्णु ब्रह्म के प्रति विधि एवं जगत के कारण हैं । कवि दृश्यों का वर्णन सेतुबन्ध को एक अलग से विशिष्टता प्रदान करता है। की कल्पनाशीलता. का प्रमाण देखने को मिलता है, जहाँ उन्होंने समुद्र की विराटता एवं उसको पार करने की चिन्ताभावना राम के मुख जामवन्त के मुख से भगवान् श्रीराम का विष्णुत्व वर्णन करवाया है। से प्रकट होती है। सेनाओं को संबोधित करते हुये सुग्रीव का ओजस्वी कवि की दृष्टि में प्रत्यक्ष एवं अनुभव जन्य ज्ञान की अपेक्षा अप्रत्यक्ष तथा भाषण वानरी सेनाओं में साहस का संचार कर देता है । जामवन्त भी अध्ययन-जन्य ज्ञान ही अधिक महत्त्व रखता है । यद्यपि वे वेदान्त वानरी सेनाओं को प्रोत्साहित करते हैं और उसी समय विभीषणअथवा उपनिषदों से प्रभावित नहीं दीख पड़ते फिर भी उन्होंने अपने आकाश मार्ग से उपस्थित होता है । हनुमान विभीषण को लेकर राम के काव्य में माया का प्रयोग किया है, जो सामान्य अर्थ में प्रवंचना का ही समक्ष उपस्थित होते हैं और परिचय कराते हैं। विभीषण राम के चरणों प्रतिरूप है (सेतुबन्ध ११/१३७, १३/९९)।
में झुकते हैं और राम उन्हें आशीष देकर अपनत्व प्रकट करते हैं । सेतुबन्ध के माध्यम से प्रकट होता है कि प्रवरसेन सामन्तीय सेनाओं के साथ राम सर्वप्रथम समुद्र से प्रार्थना करते हैं लेकिन समुद्र जीवन-शैली के पुरोधा हैं, क्योंकि काव्य में सर्वत्र सामन्तीय वातावरण के अनसुना करने पर राम क्रोधित होते हैं एवं धनुष पर चाप चढ़ाते हैं। का चित्र प्रस्तुत हो सका है। विलासप्रियता, रंग-रूप की साज-सज्जा, उनका यह दृश्य देखकर सागर जीव-जन्तुओं सहित व्याकुल होकर सेतु राजनीति, कूटनीति का प्रयोग, सन्धि-विग्रहादि का वर्णन कवि के निर्माण की आज्ञा देता है और राम के समक्ष आत्म समर्पण कर देता राजसिक-वृत्ति का परिचायक है, क्योंकि सेतुबन्ध में सर्वत्र राम एवं है। वानरी सेना बड़े-बड़े पर्वतों की चट्टानों को समुद्र में डालने लगते उनके सहयोगियों के द्वारा राजसी प्रवृत्तियों का आकलन अधिक हुआ हैं लेकिन सेतु नहीं बन पाता है । तब सुग्रीव नल से परामर्श करके सेतु है और साधारण लौकिक जीवन का चित्रण कम । फिर भी, तत्कालीन निर्माण का कार्य आरम्भ करते हैं और सेना सहित राम समुद्र पार करके सामाजिक नीति, आचार एवं परम्परागत निष्ठा के बहुविध चित्र सेतुबन्ध सुमेरु पर्वत पर डेरा डालते हैं । लंका पहुँचने पर राम की चिन्ता और में देखे जा सकते हैं । अगर सच पूछा जाय तो प्राकृत भाषा साहित्य अधिक बढ़ जाती है और सीता वियोग की स्मृति से राम आकुलके क्षेत्र में प्रवरसेन बहुमुखी प्रतिभा के परिचायक कहे जा सकते हैं। व्याकुल हो जाते हैं। उधर सीता के समक्ष रावण नाना प्रकार के प्रलोभन उनके सेतुबन्ध महाकाव्य उपमान चित्रण में सर्वोपरि है । रामायण के देता है एवं मायावी रूप का प्रदर्शन करता है लेकिन सीता इन प्रलोभन छोटे से कथांश के आधार पर कल्पना का एक ऐसा वितान खड़ा कर से अलग हटकर अपने आप में खोई रहती है और यदा-कदा बेहोश हो देना उनकी विराट कल्पना की संयोजन शैली-शिल्प की विशिष्टता का जाती है। त्रिजटा उन्हें नाना प्रकार से आश्वासन देती है लेकिन सीता का संकेतक है। उनकी इस महार्ध रचना के लिये महाराष्ट्री प्राकृत सदा विलाप कम नहीं होता। प्रात:काल होने पर दोनों सेनाएँ आमने-सामने ऋणी रहेगी।
होती हैं और युद्ध प्रारम्भ हो जाता है । रावण को सम्मुख न पाकर राम प्रवरसेन की , इसके सिवा और कोई रचना उपलब्ध नहीं खिन्न होते हैं और राक्षसों पर वाणों का प्रहार करने लगते हैं । मेघनाथ है। लेकिन विश्वास नहीं होता कि सेतुबन्ध जैसे महिमामंडित महाकाव्य राम-लक्ष्मण को नागफाश में बाँधने में सफल हो जाता है। उस समय की रचना करने वाला प्रवरसेन अन्य कोई रचना के प्रति आकर्षित क्यों वानरी सेनाओं में हाहाकर मच जाती है, लेकिन तुरंत बाद ही गरूड़ के नहीं हुआ। सुभाषित भांडागार में कतिपय मुक्तक-श्लोक प्राकृत भाषा आने पर नागफाश का अन्त हो जाता है। उसी समय अट्टाहास करता में प्रवरसेन के नाम से प्रसिद्ध हैं फिर भी, अन्य कोई रचना के सम्बन्ध हुआ युद्ध क्षेत्र में रावण का प्रवेश होता है और राम के साथ घमासान में इतिहास मौन है।
युद्ध होने लगता है। राम के बाण से आहत रावण पुन: लंका की ओर सेतुबन्ध की कथावस्तु बाल्मिकी रामायण के युद्धकाण्ड के लौटता है एवं कुंभकर्ण को जगाता है । कुंभकर्ण के आने से पुन: वानरी आधार पर प्रतिष्ठित होती है । इस ग्रन्थ में पन्द्रह आश्वासों का विधान सेना में हलचल मच जाती है लेकिन कुंभकर्ण मारा जाता है । पुनः है एवं १२९० गाथाओं का समायोजन कथा का प्रारम्भ शरद ऋतु के विभीषण के मंत्रणानुसार इन्द्रजीत का भी वध होता है । यह सब देखकर आगमन से हुआ है, जब राम बालि का वध करके सुग्रीव का राज्याभिषेक रावण कुद्ध होकर राम के साथ पुनः युद्ध करने लगता है। राम के वाणों कर देते हैं, उसी समय हनुमान का प्रवेश होता है, जो सीतान्वेषण के से रावण के सिर एवं हाथ कट जाते हैं और पुनः जुड़ जाते हैं । अन्त लिये गये हुये थे । हनुमान के आने के पूर्व राम सीता के वियोग में में रावण का वध होता है । विभीषण प्रलाप करते हैं और उसका अन्तिम
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प्रवरसेन और उनका सेतुबन्ध संस्कप करते हैं। अग्नि परीक्षा के उपरान्त सीता के साथ राम अयोध्या को लौटते हैं।
डॉ० फादर कामिल बुल्के सेतुबन्ध की समीक्षा करते हुये लिखते हैं कि सेतुबन्ध अथवा रावणवध के पन्द्रह आश्वासों में वाल्मिकी कृत युद्ध काण्ड की कथावस्तु का अलंकृत शैली में वर्णन मिलता है और कथानक में कोई महत्वपूर्ण परिवर्तन नहीं किया गया है। उनका ही कहना है कि दसवें आश्वास में राक्षसियों का संभोग वर्णन जो कामिनीकेलि है जिसका अनुसरण कुमार दास के जानकी हरण, अभिनंदन कृत रामचरित, कम्बन कृत तमिल रामायण तथा जावा के प्राचीनतम रामायण आदि में भी किया गया है। सेतुबन्ध की भूमिका में डॉ. रघुवंश ने भी अपना भाव प्रकट करते हुये कहा है कि प्रवरसेन ने आदि रामायण से कथ्य लेकर उसको अपनी कल्पना से अधिक सुन्दर रूप प्रदान किया है ।
सेतुबन्ध का प्रकृति-वर्णन, नगर वर्णन एवं युद्ध वर्णन अत्यधिक आकर्षक एवं सौन्दर्यपूर्ण है। कवि ने यथार्थ और कल्पना का मणिकांचन संयोग उपस्थित किया है। सेतुबन्ध की प्रकृति कल्पना के विविध रंग-रूपों से सजी-सँवारी गयी है। सेनाओं के साथ राम का विभिन्न स्थलों का अभियान करते जाना और रास्ते में वन के विविध पेड़-पौधों, जानवरों आदि को देखने की प्रक्रिया का कवि ने बड़ा हो स्वाभाविक रूप से चित्र चित्रण किया है। सुमेरू पर्वत के सन्दर्भ में कवि ने उसके सौन्दर्य को सूक्ष्म पर्यवेक्षण किया है। समुद्र का मानवीकरण करते हुये कवि ने राम के क्रोध के समक्ष घुटने टेक देने का जो विधान किया है, वह बड़ा ही मार्मिक बन पड़ा है। सेतुबन्ध के कई आश्वासों में शरद ऋतु का वर्णन कवि की कल्पना का आन्तरिक निरीक्षण दृष्टि का संकेतक है। संध्या के सन्दर्भ में कवि की कल्पना है कि दिन का अवसान होने पर रुधिरमय पंक-सी संध्या की लालिमा में सूर्य इस प्रकार डूब गया, जैसे अपने रूधिर के पंक में रावण का शीर्ष-मंडल डूब गया हो (१०/१५) वस्तु वर्णन की प्रमुख तीन । शैलियों का प्रयोग सेतुबन्ध में देखने को मिलता है। वर्ण्य विषय का अलंकृत सरल स्वाभाविक वर्णन सरल शैली के अन्तर्गत आता है जिसका उपयोग कवि ने वन्य वस्तुओं के वर्णन में किया है। तिर्यक् शैली में प्रस्तुत का अप्रस्तुत उपमानों के द्वारा अलंकृत वर्णन किया जाता है एवं उपमेय-उपमान के बीच रूप एवं धर्म का सादृश्य दिखाया जाता है। इस शैली का प्रयोग राम के विलाप के समय बहुलता से हुआ है। उर्मिल शैली में वस्तु के रूप, गुण एवं सौन्दर्य से प्रभावित वातावरण उपस्थित किया जाता है जिसका प्रभाव हृदय पर सीधा पड़ता हैं । इस शैली का प्रयोग समुद्र के परिप्रेक्ष्य में हुआ है, जहाँ कवि ने पूर्णचन्द्र के सौन्दर्य का वर्णन समुद्र में उठते हुये ज्वार को दिखाकर करना चाहा है। इस प्रकार सेतुबन्ध में प्रकृति के अनेक वस्तुओं, रूपों, रंगों एवं सौन्दर्य का वर्णन किया गया है।
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सेतुबन्ध में नगर वर्णन एवं युद्ध वर्णन बड़ी स्वाभाविकता के साथ किया गया है। रावण की राजधानी लंका नगर का वर्णन सामन्तीय प्रतीकों के साथ हुआ है जो प्रवरसेन की कल्पना की उपज है। लंकापुरी स्फटिक तथा नीलमणि से स्पर्शित विशाल, मण्य एवं स्वर्णिम दीवारों से निर्मित नगरी है। वहाँ के महलों में अनेक कोटे-परकोटे हैं। प्रांगण दीवारों से घिरे अनेक बाग-बगीचों से सुशोभित है। नगर की सभी सड़कें राजपथ से मिलती हैं आदि । प्रवरसेन ने सेतुबन्ध में तत्कालीन सैन्य संगठन एवं युद्ध संचालन सम्बन्धी अनेक स्थलों का उल्लेख किया है सैनिक शक्ति का प्रदान स्वयं राजा होता था, जिसकी आज्ञा से सेनापति सेना का संचालन करते थे। सेना चतुरंगी होती थी, जिसमें पैदल अश्वरोही, रथ तथा गज सेनाओं का समायोजन रहता था। सेनाओं में वानर, भालू तथा पक्षियों का भी उल्लेख मिलता है।
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सेतुबन्ध के भाव एवं कलापक्ष सुगठित, सम्यक् एवं कुशलता से प्रस्तुत किये गये हैं भावपक्ष जहाँ काव्य का अंतरंग सूचित करता है वहाँ कलापक्ष उसका आवरण सेतुबन्ध में प्रवरसेन ने भावपक्ष को उजागर करने के लिये वीररस को ही प्रमुखता दी है। स्वाभाविक है कि इसका स्थायी भाव उत्साह है। यद्यपि अन्य रसों का भी परिपाक सेतुबन्ध में हुआ है किन्तु देश काल पात्र के अनुसार यथावसर वीररस का अंगीभूत होकर ही रौद्र रस वीर रस का मित्र है। इसलिये दोनों के । आलम्बन और आश्रय में विरोध नहीं माना जाता है। राम का क्रोध उनके हृदय में वीर रस के स्थायी भाव उत्साह, को ही संतुष्ट करता है, जिसका निर्वाह युद्ध प्रसंग में हुआ है। प्रवरसेन ने वीभत्स, हास्य तथा शान्त रस को छोड़कर अन्य सभी रसों का अंगभूत रसों के रूप में चित्रण किया है। अंगभूत रसों में शृंगार के सम्भोग और विप्रलम्भ उभय रूपों का वर्णन सेतुबन्ध में हुआ है। यद्यपि सम्भोग श्रृंगार के लिये इस काव्य के कथा वस्तु में अवसर नहीं है, क्योंकि सीता की वियोग स्थिति में राम के शत्रुवध रूपी अध्यवसाय पर इसकी कथा वस्तु आधारित है, फिर भी कदाचित् परम्परागत अनुरोध पालन करने के उद्देश्य से प्रवरसेन ने राक्षसनियों की सम्भोग लीलाओं का वर्णन किया है जहाँ तक विप्रलम्भ शृंगार का प्रश्न है उसका भी वर्णन यथास्थान इस काव्य में हुआ है, जैसे सीता हरण के कारण राम का विरह दुःख प्रकट कर युद्ध प्रसंग में भयानक रस का निर्वाह कवि ने यथायोग्य किया है उस मेघनाद एवं लक्ष्मण का युद्ध, राम-रावण का युद्ध आदि। काव्य को सुन्दर रूप प्रदान करने के लिये भाषा, छंद, अलंकार, कथानक गठन, चरित्र-नियोजन, रीति, वक्रोक्ति आदि की अपेक्षा होती हैं, जो कलापक्ष का आधार है। प्रवरसेन ने उक्त पक्ष को उजागर करने के लिये सेतुबन्ध में अथक प्रयास किया है। सेतुबन्ध की भाषा मनोभावों एवं विचारों को सफलता के साथ वहन करती है। प्रवरसेन ने काव्यानुभूति एवं काव्य भाषा का सम्यक् परिपालन किया है । उनकी काव्य भाषा महाराष्ट्री प्राकृत है और महाराष्ट्री प्राकृत का
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उपयोग सेतुबन्ध में कुशलता से किया गया है । सेतुबन्ध में प्रमुख रूप से स्कन्धक छन्द का प्रयोग हुआ है, जिसके विविध प्ररोह में पूर्वार्ध तथा उत्तरार्ध दोनों में समान रूप से चार-चार मात्राओं वाले आठ गण होते हैं अर्थात बत्तीस मात्राएँ, इसके अतिरिक्त गलितक, लम्बिता कुमुदिनी ललिता आदि छन्दों का प्रयोग हुआ है । सेतुबन्ध में शब्दालंकार अर्थालंकार एवं शब्दार्थालंकार का प्रयोग हुआ है। जिस तरह आभूषणों से सज्जित नारी का सौन्दर्य निखर जाता है, उसी प्रकार काव्य का अलंकारों से। कहा भी हैं, 'अलंकरोतिः इति अलंकार:' अर्थात् जो भूषित करे वह अलंकार है। अलंकार के द्वारा शब्द और अर्थ दोनों की
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अनेकान्तवाद जैनधर्म दर्शन के प्रमुख सिद्धान्तों में से एक है. जो आग्रही मंतव्यों, वैचारिक संघयों के समाधान की संजीवनी है। आज का जनजीवन संघर्ष से आक्रान्त है, विश्व में द्वेष और इन्द्र का दावानल सुलग रहा है। मानव अपने ही विचारों के कटघरे में आबद्ध है, आलोचना और प्रत्यालोचना का दुश्चक्र तेजी से चल रहा है। वह एकान्त पक्ष का आग्रही होकर अंधविश्वासों के चंगुल में फँसता जा रहा है। क्षुद्र व संकुचित मनोवृत्ति का शिकार होकर एक दूसरे पर छींटाकसी कर रहा है। वह अपने मन्तव्यों को सत्य और दूसरे के विचारों को मिथ्या सिद्ध करने पर तुला रहता है। "सच्चा सो मेरा" सिद्धान्त को भूलकर "मेरा सो सच्चा" सिद्धान्त की घोषणा कर रहा है, जिसके परिणामस्वरूप समाज में अशान्ति की लहर दौड़ रही है। इतना ही नहीं, जब मानव में संकीर्णवृत्ति से उत्पन्न हुए अहङ्कार असहिष्णुता आदि का चरमोत्कर्ष होता है तब धार्मिक व सामाजिक क्षेत्र में भी रक्त की नदियाँ बहने लगती हैं । ऐसी परिस्थितियों से उबरने के लिए ही जैन धर्म-दर्शन ने अनेकान्त का सिद्धान्त विश्व को प्रदान किया है। अनेकान्तवाद वह सिद्धान्त है जो 'अनेक' में विश्वास करता है। अनेक का तात्पर्य हैअनेक धर्म (लक्षण), अनेक सीमाएँ, अनेक अपेक्षाएँ, अनेक दृष्टियाँ आदि जो किसी एक धर्म, एक सीमा, एक अपेक्षा तथा एक दृष्टि को सत्य मानता है और अन्य दृष्टियों को गलत कहता है, वह एकान्तवादी कहलाता है तथा जो अनेक धर्मों या अपेक्षाओं को मान्यता प्रदान करता है, वह अनेकान्तवादी कहलाता है। जैन दर्शन की तत्त्वमीमांसा से ऐसा ही ज्ञात होता है कि वह अनेक में विश्वास करता है। इसलिए उसका तत्त्वमीमांसीय सिद्धान्त अनेकान्तवाद (Pluralism) अथवा सापेक्षतावाद (Theory of Relativity) के नाम से जाना जाता है।
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शोभा बढ़ती है। सेतुबन्ध में अनेक अलंकारों का समायोजन हो सका है, जैसे उपमा, उत्प्रेक्षा, रूपक, दृष्तांत, यमक, अनुप्रास, श्लेष आदि।
इस प्रकार, प्रवरसेन का सेतुबन्ध महाकाव्य महाराष्ट्रीप्राकृत
का एक अनुपम ग्रन्थ है, जिसके सन्दर्भ में काव्य रस का परिपाक तो है ही, सांस्कृतिक धरोहर का दस्तावेज भी है। सेतुबन्ध महाकाव्य अपने गाम्भीर्य के कारण प्राचीन आचार्यों से लेकर आधुनिक विद्वानों और अध्येताओं को काफी दूर तक प्रभावित करता रहा है और प्रभावित करता रहेगा ।
अनेकान्तवाद और उसकी व्यावहारिकता
डॉ० विजय कुमार जैन
'अनेकान्त' का शाब्दिक अर्थ
'अनेकान्त' शब्द दो शब्दों के योग से बना है'अनेक'+'अन्त' । 'अन्त' शब्द का व्युत्पत्तिमूलक अर्थ बताते हुए कहा गया है कि वस्तु में अनेक धर्मों के समूह को जानना अनेकान्त है। 'न्यायदीपिका' में अनेकान्त को परिभाषित करते हुए कहा गया है. जिसके सामान्य विशेष पर्याय व गुणरूप अनेक अन्त या धर्म हैं, वह अनेकान्त रूप सिद्ध होता है। इसी प्रकार 'समयसार' में कहा गया हैजो तत् है वही अतत् है, जो एक है वही अनेक है, जो सत् है वही असत् है, जो नित्य है वहीं अनित्य है। इस प्रकार एक वस्तु में वस्तुत्व को उपजाने वाली परस्पर विरुद्ध दो शक्तियों का प्रकाशित होना अनेकान्त है। अतः स्पष्ट है कि अनेकान्तवाद वह सिद्धान्त है जो अनेक अन्त या अनेक धर्मों में विश्वास करता है। यदि दूसरे शब्दों में कहें तो अनेकान्तवाद का अर्थ है - प्रत्येक वस्तु का भिन्न-भिन्न दृष्टियों से विचार करना, परखना आदि । अनेकान्तवाद का यदि हम एक ही शब्द में अर्थ समझना चाहें तो उसे अपेक्षावाद कह सकते हैं ।
जैन दर्शन में सर्वथा एक ही दृष्टिकोण से पदार्थ का अवलोकन करने की पद्धति को अपूर्ण एवं अप्रामाणिक समझा जाता है और एक हो वस्तु के विभिन्न धर्मों को विभिन्न दृष्टिकोणों से निरीक्षण करने की पद्धति को पूर्ण एवं प्रामाणिक माना जाता है। यह पद्धति ही अनेकान्तवाद है।
अनेकान्तवाद के प्रवर्तक
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यहाँ हमारे समक्ष दो दृष्टिकोण उपस्थित होते हैं इतिहास और परम्परा यदि हम परम्परा की दृष्टि से विचार करते हैं तो पाते हैं। कि अनेकान्त के उद्भावक प्रथम तीर्थकर आदिपुरुष ऋषभदेव हैं, जिन्होंने सर्वप्रथम यह उपदेश दिया। ऋग्वेद में ऋषभ और नेमिनाथ
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अनेकान्तवाद और उसकी व्यावहारिकता
१३३ आदि तीर्थंकरों के नाम आये हैं, जिससे यह प्रतीत होता है कि अनेकान्त में झूठा है । दोनों के आपसी कलह का मुख्य कारण यही है । दूसरा का प्रर्वतन वैदिक काल के पहले का है। परन्तु ऐतिहासिक दृष्टि से पक्ष भी यही ठीक समझता है । अत: महावीर ने वैचारिक जगत् के दोषों अनेकान्त के प्रवर्तक के रूप में जैन धर्म के चौबीसवें तीर्थंकर भगवान् को दूर करने का प्रयास किया। एक बार गणधर गौतम भगवान् महावीर महावीर का नाम आता है । जैसा कि भगवतीसूत्र से ज्ञात होता है कि के साथ विचारों के सागर में डुबे हुए थे कि एकाएक गौतम की निगाह महावीर ने स्वप्न में एक चित्र-विचित्र पुंस्कोकिल को देखा, जिसके सन्निकटवर्ती वृक्ष के भंवरे पर पड़ी। उन्होंने तत्क्षण महावीर से प्रश्न कारण वे स्व-पर सिद्धान्तों से प्रेरित हुए। उन्होंने अपने मत के साथ किया - भगवन् ! यह जो भँवरा उड़ रहा है, उसके शरीर में कितने रंग अन्य मतों को भी उचित सम्मान दिया । उन्होंने जिस स्कोकिल को हैं ? देखा वह अनेकान्तवाद या सापेक्षवाद का प्रतीक था। उसके विभिन्न भगवान् ने गौतम की जिज्ञासा को शान्त करते हुए कहा - रंग, विभिन्न दष्टियों को इंगित कर रहे थे। कोकिल का रंग यदि एक गौतम ! व्यवहारनय की दृष्टि से भँवरा एक ही रंग का है और उसका होता तो सम्भवतः महावीर एकान्तवाद का प्रतिपादन करते । किन्तु बात रंग काला है, किन्तु निश्चयनय की दृष्टि से शरीर में पाँच वर्ण हैं । ठीक ऐसी नहीं थी, उन्हें तो अनेकान्तवाद को प्रतिष्ठित करना था और उन्होंने इसी प्रकार गौतम गणधर ने गुड़ के सम्बन्ध में भी प्रश्न उपस्थित कियावैसा ही किया । परन्तु आचार्य बलदेव उपाध्याय के अनुसार अनेकान्तवाद भगवन् ! गुड़ में कितने वर्ण, कितने गंध, कितने रस और कितने के उद्भावक तेईसवें तीर्थंकर भगवान् पार्श्वनाथ हैं।
स्पर्श
महावीर ने कहा - गौतम ! व्यवहारनय की दृष्टि से तो गुड़ अनेकान्तवाद की आवश्यकता
मधुर है, किन्तु निश्चयनय की दृष्टि से इसमें पाँच वर्ण, दो गंध और आठ ई० पूर्व छठी शताब्दी भारतीय इतिहास में वैचारिक क्रान्ति स्पर्श हैं । का काल माना जाता है । इसमें आर्थिक, सामाजिक, धार्मिक आदि सभी अत: निश्चयनय से वस्तु के वास्तविक स्वरूप का परिज्ञान प्रकार के परिवर्तन देखे जाते हैं । खासतौर पर धर्म-दर्शन के क्षेत्र में मानो होता है और व्यवहारनय से बाह्य स्वरूप का । इस तरह वस्तु के अनन्त जैसे परिवर्तन की होड़ सी लग गयी थी, जिसकी जानकारी जैनागमों धर्म होते हैं । इसलिए किसी भी वस्तु के एक धर्म को सर्वथा सत्य मान तथा त्रिपिटकों से होती है। नागमों से ज्ञात होता है कि महावीर के लेना और दूसरे धर्म को सर्वथा मिथ्या कहना दोषयुक्त है। ऐसा कहना समय में उनके मत को छोड़कर ३६३ मतों का प्रचार-प्रसार था । बौद्ध वस्तु-पूर्णता को खंडित करना है । परस्पर विरोधी प्रतीत होने वाले धर्म त्रिपिटकों में भी वर्णन मिलता है कि बुद्ध के समय बौद्धमत के अलावा एक-दूसरे के विरोधी अवश्य हैं, परन्तु सम्पूर्ण वस्तु के विरोधी नहीं हैं। ७२ चिन्तन प्रणालियाँ थीं। किन्तु सभी मत एकान्तवादी थे। हर वस्तु में दोनों समान रूप से आश्रित होते हैं। व्यक्ति अपने विचार के अलावा अन्य व्यक्ति के विचार को गलत दुनियाँ का कोई भी पदार्थ या कोई भी व्यक्ति अपने आप में समझता था। तत्त्व के सम्बन्ध में भी भिन्न-भिन्न मान्यताएँ देखी जा रही भला या बुरा नहीं होता है । बदमाश, गुण्डा या दुराचारी मनुष्य की थीं। कोई तत्त्व को एक मानता था कोई अनेक, कोई नित्य मानता था अन्तरात्मा भी अनन्त-अनन्त गुणों से युक्त होती है, क्योंकि प्रत्येक तो कोई अनित्य, कोई कूटस्थ मानता था तो कोई परिवर्तनशील आत्मा अनन्त-अनन्त गुणों से युक्त है। दुनियाँ में जड़ पदार्थ भी अनन्त समझता था। किसी ने तत्त्व को सामान्य घोषित कर रखा था तो किसी हैं। सत्य भी अनन्त है । असत्य भी अनन्त है। धर्म भी अनन्त है और ने विशेष । इस प्रकार के मत-मतान्तर से दर्शन के क्षेत्र में आपसी विरोध अधर्म भी अनन्त है तथा अंधकार भी अनन्त है । एक छोटा सा जलकण तथा अशान्ति की स्थिति थी और वैचारिक अशान्ति से व्यावहारिक भी अनन्त गुणसम्पन्न है और महासागर भी अनन्त गणसम्पन्न है । जगत् भी प्रभावित था । एकान्तवाद के इस पारस्परिक शत्रुतापूर्ण उपाध्याय अमरमुनि जी ने वस्तु की अनन्तधर्मता को एक लघु कथा के व्यवहार को देखकर महावीर के मन में विचार आया कि क्लेश का माध्यम से बड़े ही सरल एवं सहज ढंग से प्रस्तुत किया है - एक राजा कारण क्या है ? सत्यता का दंभ भरने वाले प्रत्येक दो विरोधी पक्ष अपने नगर के आस-पास पर्यटन कर रहा था। साथ में मन्त्री भी था। आपस में इतने लड़ते क्यों हैं ? यदि दोनों पूर्ण सत्य हैं तो फिर दोनों घूमते-घूमते दोनों उस ओर निकल पड़े जिस ओर शहर का गंदा पानी में विरोध क्यों ? इसका अभिप्राय है दोनों पूर्णरूपेण सत्य नहीं हैं। तब एक खाई में भरा हुआ, सड़ रहा था, कीड़े बिल-बिला रहे थे। उसे प्रश्न उपस्थित होता है कि क्या दोनों पूणरूपेण मिथ्या हैं ? ऐसा भी देखते ही राजा का मन ग्लानि से भर गया। वह नाक-सिकोड़ने लगा। नहीं कहा जा सकता है क्योंकि ये दोनों जिस सिद्धान्त का प्रतिपादन पास ही खड़े राजा के सद्धि नामक मंत्री ने कहा - करते हैं, उसकी प्रीति होती है। बिना प्रतीति के किसी भी सिद्धान्त "महराज इस जलराशि से घृणा क्यों कर रहे हैं ? यह तो का प्रतिपादन असम्भव है। अत: ये दोनों सिद्धान्त अंशत: सत्य हैं और पदार्थों का स्वभाव है कि वे प्रतिक्षण बदलते रहते हैं । जिनसे आज आप अंशत: असत्य । एक पक्ष जिस अंश में सच्चा है, दूसरा पक्ष उसी अंश घृणा कर रहे हैं, वे ही पदार्थ एक दिन मनोमुग्धकारी भी बन सकते हैं।"
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जैन विद्या के आयाम खण्ड-७ इस तरह बातचीत करते हुए दोनों राजभवन में लौट आये और अपने- जो वस्तु में स्थायी रहता है जैसे - मनुष्य बच्चा हो या बूढ़ा, स्त्री हो अपने कार्य में लग गए।
या पुरुष, मोटा हो या पतला, उसमें मनुष्यत्व रहेगा ही । किन्तु जब कुछ दिनों के उपरान्त राजा के मन्त्री सुबुद्धि ने राजा के सम्मान कोई व्यक्ति बालक से युवा होता है तो उसका बालपन नष्ट हो जाता है में एक भोज का आयोजन किया। अपने घर बुलाकर सुन्दर एवं स्वादिष्ट और युवापन उत्पन्न होता है । ठीक इसी प्रकार सोना कभी अंगूठी, कभी भोजन कराया और पात्र में पीने के लिए पानी दिया। वह पानी इतना माला, कभी कर्णफूल के रूप में देखा जाता है जिसमें सोना का अंगूठी स्वादिष्ट एवं सरस था कि राजा पानी पीता ही गया, फिर भी उसके मन वाला रूप नष्ट होता है तो माला का रूप बनता है, माला का रूप जब में पानी पीने की लालसा बनी रही। अंतत: राजा ने मन्त्री से पुछा - नष्ट होता है तो कर्णफूल का रूप बनता है । ये बदलने वाले धर्म हमेशा "तुमने मुझे आज जो पानी पिलाया, ऐसा स्वच्छ, सुवासित एवं स्वादिष्ट उत्पन्न एवं नष्ट होते रहते हैं और गुण स्थिर रहता है । अत: जगत् के जल मैंने आज तक नहीं पीया । तुमने यह जल किस कुएँ से मंगवाया सभी पदार्थ उत्पत्ति, स्थिति और विनाश इन तीन धर्मों से युक्त होते हैं। था, मुझे भी बताओ? मंत्री ने कहा - राजन् यह पानी तो सर्वत्र सुलभ एक ही साथ एक ही वस्तु में तीनों धर्मों को देखा जा सकता है। है। यहाँ निकट जलाशय से मँगवाया है। महाराज ने जब जलाशय का मिशाल के तौर पर, एक स्वर्णकार स्वर्णकलश तोड़कर मुक्ट बना रहा नाम बताने का आग्रह किया तो मन्त्री ने कहा - महराज यह मधुर एवं है। उसके पास तीन ग्राहक पहुँचते हैं । जिनमें से एक को स्वर्ण घट सुवासित जल उसी गंदी खाई का है जिसकी दुर्गन्ध से आप व्याकुल चाहिए, दूसरे को स्वर्ण मुकुट चाहिए और तीसरे को केवल सोना । हो गये थे और नाक को बन्द कर लिया था ।११
लेकिन स्वर्णकार की प्रवृत्ति देखकर पहले ग्राहक को दु:ख होता है, राजा ने साश्चर्य मुद्रा में मन्त्री से कहा - तुम मजाक तो नहीं दूसरे को हर्ष और तीसरे को न तो दुःख ही होता है और न ही हर्ष अर्थात् कर रहे हो । मन्त्री ने विनम्र भाव से कहा- नहीं, मैं मजाक नहीं कर वह मध्यस्थ भाव की स्थिति में होता है। तात्पर्य यह है कि एक ही रहा हूँ, जो कुछ भी कह रहा हूँ वह सत्य है । यह कहते हुए मन्त्री ने समय में एक स्वर्ण में विनाश, उत्पत्ति और ध्रुवता देखी जा सकती है। इस गन्दे पानी को साफ करने की प्रक्रिया भी बतायी । अब राजा को इसी आधार पर जैन दर्शन में तत्त्व को परिभाषित करते हुए कहा गया विश्वास हो गया कि संसार का हर पदार्थ अत्यन्त गुण सम्पन्न है । यही है - सत् उत्पाद, व्यय तथा ध्रौव्य यानी स्थिरता से युक्त है ।१२ अनेकान्तवाद है।
जैन दर्शन की तत्त्वमीमांसा से जो लोग परिचित नहीं हैं, वे
तुरन्त यह प्रश्न उपस्थित कर सकते हैं कि एक ही वस्तु में ध्रुवता तथा अनेकान्तवाद के मौलिक आधार
उत्पत्ति और विनाश कैसे हो सकता है? क्योंकि स्थायित्व और अनेकान्तवाद जैन दर्शन की आधारशिला है। जैन तत्त्वज्ञान अस्थायित्व दोनों एक दूसरे के विरोधी हैं । अत: एक ही वस्तु में परस्पर का महल इसी अनेकान्त के सिद्धान्त पर टिका है । वस्तु के अनन्त धर्म विरोधी धर्मों का समन्वय कैसे हो सकता है, किन्तु जैन दर्शन इसका होते हैं । इन अनन्त धर्मों में से व्यक्ति अपने इच्छित धर्मों का समय- समाधान करते हुए कहता है कि कोई भी वस्तु गुण की दृष्टि से ध्रुव समय पर कथन करता है। वस्तु के जितने धर्मों का कथन हो सकता है, स्थायी है तथा पर्याय की दृष्टि से अस्थायी है, उसमें उत्पत्ति और है वे सब वस्तु के अन्दर होते हैं । व्यक्ति अपनी इच्छा से उन धर्मों का विनाश है । पदार्थ में आरोपण नहीं कर देता है । अनन्त या अनेक धर्मों के कारण ही वस्तु अनन्तधर्मात्मक कही जाती है । वस्तु के इन अनन्त धर्मों के अनेकान्तवाद और स्याद्वाद दो प्रकार होते हैं - गुण और पर्याय । जो धर्म वस्तु के स्वरूप का अनेकान्तवाद के व्यावहारिक पक्ष को स्याद्वाद के नाम से निर्धारण करते हैं अर्थात् जिनके बिना वस्तु का अस्तित्व कायम नहीं रह विभूषित किया जाता है । स्याद्वाद अनेकान्तवाद का ही विकासमात्र है। सकता उन्हें गुण कहते हैं । यथा-मनुष्य में 'मनुष्यत्व', सोना में 'स्यात्' शब्द अनेकान्त का द्योतक है ।१३ स्याद्वाद और अनेकान्तवाद 'सोनापन' । मनुष्य में यदि 'मनुष्यत्व' न हो तो वह और कुछ हो सकता दोनों एक ही हैं । इसका कारण यह है कि स्याद्वाद में जिस पदार्थ का है, मनुष्य नहीं । वैसे ही यदि सोना में 'सोनापन' न हो तो वह अन्य कथन होता है, वह अनेकान्तात्मक होता है । दोनों में यदि कोई अन्तर कोई द्रव्य होगा, सोना नहीं । गण वस्तु में स्थायी रूप से रहता है। है तो मात्र शब्दों का । स्याद्वाद में स्यात् शब्द की प्रधानता है तो वह कभी नष्ट नहीं होता और न बदलता ही है, क्योंकि उसके नष्ट हो अनेकान्तवाद में अनेकान्त की। किन्तु मूलत: दोनों एक ही हैं। आचार्य जाने से वस्तु नष्ट हो जायेगी। गुण वस्तु का आन्तरिक धर्म होता है। प्रभाचन्द्र ने 'न्यायकुमुदचन्द्र' में कहा है - अनेकान्तात्मक अर्थ के कथन जो धर्म वस्तु के बाह्यकृतियों अर्थात् रूप-रंग को निर्धारित करते हैं, जो को स्यावाद कहते हैं। स्यात् शब्द का व्युत्पत्तिमूलक अर्थ बताते बदलते रहते हैं, उत्पन्न और नष्ट होते रहते हैं, उन्हें पर्याय कहते हैं। हुए कहा गया है - स्यादिति वादः स्याद्वादः ।१५ यहाँ 'स्यात्' शब्द के जैसे - मनुष्य कभी बच्चा, कभी युवा और कभी बूढ़ा रहता है । गुण दो अर्थ देखने को मिलते हैं - पहला अनेकान्तवाद और दूसरा अनेकान्त
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अनेकान्तवाद और उसकी व्यावहारिकता
१३५ के कथन करने की भाषा-शैली । जैन दार्शनिकों ने 'अनेकान्त' एवं हुए उन्होंने कहा है - हे गौतम! धर्मास्तिकाय द्रव्य दृष्टि से एक है, 'स्यात्' दोनों शब्दों का एक ही अर्थों में प्रयोग किया है। इन दोनों शब्दों इसलिए वह सर्वस्तोक है। साथ ही धर्मास्तिकाय में प्रदेशों की अपेक्षा के पीछे एक ही हेत् रहा है और वह है - वस्तु की अनेकान्तात्मकता। असंख्यात् गुण भी हैं ।२२ अधर्मास्तिकाय आकाश आदि द्रव्य दृष्टि से यह अनेकान्तात्मकता अनेकान्तवाद शब्द से भी प्रकट होती है और एक और प्रदेश दृष्टि से अनेक हैं। एक-अनेक के सिद्धान्त को और स्याद्वाद से भी । अत: स्याद्वाद और अनेकान्तवाद दोनों ही एक हैं। भी सरल तरीके से इस प्रकार समझा जा सकता है- मान लें राम एक दोनों एक ही सिक्के दो पहलू हैं । अन्तर है तो इतना कि एक प्रकाशक व्यक्ति है । उसकी ओर इशारा करते हुए हम कई लोगों से पूछते हैंहै तो दूसरा प्रकाश्य है, एक व्यवहार है तो दूसरा सिद्धान्त । यह कौन है ? हमारे इस प्रश्न के उत्तर में क्रमश: प्रत्येक व्यक्ति कहता
है - पहला-राम जीव है । दूसरा-राम मनुष्य है। तीसरा-राम क्षत्रिय है। एक और अनेक
चौथा-राम मेरा पिता है । इस प्रकार हम देखते हैं कि उत्तरों में विभिन्नता जैन दर्शन ने अपनी तत्त्वमीमांसा में यह प्रतिपादित किया है है, फिर भी वे सब सत्य हैं । प्रथम व्यक्ति राम को एक पूर्ण द्रव्य के कि वस्तु के अनन्त धर्म होते हैं, किन्तु किसी वस्तु के अनन्त धर्मों को रूप में देखता है । दूसरा पयार्य के रूप में । तीसरा भी पर्याय के रूप जानना हमारे लिए सम्भव नहीं है ? अनन्त को तो कोई सर्वज्ञ ही जान में तथा बाकी के उत्तरदाता और अधिक सूक्ष्मता से पर्याय के भिन्न-भिन्न सकता है, जिसे पूर्ण ज्ञान की उपलब्धि रहती है। सामान्यजन तो अनन्त रूपों को देखते हैं । अत: प्रथम व्यक्ति को राम कहने का अधिकार है धर्मों में से कुछ धर्मों को अथवा एक धर्म को ही जानते हैं। जैन दर्शन किन्तु राम मनुष्य नहीं है, कहने का अधिकार नहीं है । इसी तरह दूसरे की भाषा में कुछ को यानी एक से अधिक धर्मों को जानना प्रमाण है व्यक्ति को 'राम मनुष्य है' कहने का अधिकार है, किन्तु राम जीव नहीं तथा एक धर्म को जानना नय है। इस प्रकार नय न प्रमाण के अन्तर्गत है, कहने का अधिकार नहीं है, क्योंकि राम में जीव एवं मनुष्यत्व दोनों आता है, न अप्रमाण के । जैसे समुद्र का एक अंश न समुद्र है और विद्यमान हैं । इस तरह हम देखते है कि द्रव्यार्थिक रूप में जीव में न असमुद्र बल्कि समुद्रांश है, उसी प्रकार नय प्रमाणांश है ।१६ नय को एकता है, परन्तु पर्यायार्थिक दृष्टि से अनेकता है। परिभाषित करते हुए कहा गया है - प्रमाण से स्वीकृत वस्तु के एक देश का ज्ञान कराने वाले परामर्श को नय कहते हैं ।१७
नित्यता और अनित्यता आचार्य प्रभाचन्द्र कहा है - प्रतिपक्ष का निराकरण करते सत् के विषय में विद्वानों में मत-भिन्नता देखी जाती है। कोई हए वस्तु के अंश को ग्रहण करना नय है ।१८ प्रमाण, नय और दुर्नय इसे नित्य मानता है तो कोई अनित्य । इस सम्बन्ध में वेदान्त दर्शन के भेद को स्पष्ट करते हुए आचार्य हेमचन्द्र ने 'अन्ययोगव्यवच्छेदद्वात्रिंशिका' अपरिवर्तनशीलता को स्वीकार करता है तो बौद्ध दर्शन परिवर्तनशीलता में लिखा है१९ - वस्तु का कथन तीन प्रकार से होता है - 'सदेव' अर्थात् को। यहाँ जैनदर्शन की मान्यता है कि प्रत्येक वस्तु नित्य और अनित्य सत् ही है, 'सत्' अर्थात् सत् है, 'स्यात् सत्' अर्थात कथंचित् सत् है। दोनों है । गुण की दृष्टि से वस्तु में नित्यता देखी जाती है और पर्याय सत् ही है में भाषा में निश्चयात्मकता आ जाने से अन्य धर्मों का निषेध की दृष्टि से अनित्यता । यथा- आम्रफल हरा रहता है किन्तु कालान्तर हो जाता है । "सत् है' में अन्य धर्मों के प्रति उदासीनता रखकर कथन में वह पीला हो जाता है, फिर भी वह रहता आम्रफल ही है । वस्तु की अभिव्यक्ति होती है। "स्यात् सत् है' में सत् को किसी अपेक्षा से का पूर्व पर्याय नष्ट होता है और उत्तर पर्याय उत्पन्न होता है किन्तु वस्तु माना गया है, क्योंकि वह 'स्यात्' पद से युक्त है। उपर्युक्त तीनों कथनों का मूल रूप सदा बना रहता है। अत: सत्य नित्य भी है और अनित्य में पहला प्रकार दुर्नय है, दूसरा प्रकार नय तथा तीसरा प्रकार प्रमाण भी है। मिट्टी का एक घड़ा जो आकार, स्वरूप आदि से ही विनाशशील यानी अनेकान्त है । नय ज्ञाता का एक विशिष्ट दृष्टिकोण है। एक ही लगता है, क्योंकि वह बनता और बिगड़ता रहता है । घड़े का अस्तित्व वस्तु के विषय में अनेक दर्शकों के अनेक दृष्टिकोण होते हैं, जो परस्पर न तो पहले था और न बाद में रहेगा। किन्तु मूल स्वरूप में मिट्टी मौजूद मेल खाते हुए प्रतीत नहीं होते तथापि उन्हें असत्य नहीं कहा जा थी और घड़े के बनने के बाद भी तथा घड़े के नष्ट हो जाने पर भी मौजूद सकता, क्योंकि उनमें भी सत्य का अंश रहता है।
रहेगी। अत: प्रत्येक वस्तु नित्य एवं अनित्य है। जैन दर्शन यह मानता है कि प्रत्येक वस्तु में एकता तथा दीपक के विषय में भी ऐसी धारणा है कि इसमें अनित्यता अनेकता है। जीव-द्रव्य की एकता और अनेकता का प्रतिपादन करते होती है, क्योंकि वह बुझ जाता है। दीपक के विषय में अन्य दर्शनों हए महावीर ने कहा है - सोमिल! द्रव्य दृष्टि से मैं एक हूँ। ज्ञान और की भी यही धारणा है। लेकिन जैन दर्शन का कहना है कि अग्नि या दर्शन की दृष्टि से मैं दो हूँ। न बदलने वाले प्रदेशों की दृष्टि से मैं अक्षय तेज की दो पर्यायें होती हैं - प्रकाश और अंधकार । जब एक पर्याय हूँ, अवस्थित हूँ। बदलते रहने वाले उपयोग की दृष्टि से मैं अनेक हूँ।२१ नष्ट होती है तो दूसरी पर्याय आती है। प्रकाश के नष्ट होने पर अंधकार इसी प्रकार अजीव-द्रव्य की एकता और अनेकता का स्पष्टीकरण करते आता है और अंधकार के नष्ट होने पर प्रकाश आता है। पर्यायें बदलती
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रहती हैं। परन्तु अग्नि का अग्नित्व या तेजत्व नष्ट नहीं होता । अभिप्राय यह है कि दीपक जिसे हम अनित्य मानते हैं वह मात्र अनित्य ही नहीं, बल्कि नित्य भी है। इसी प्रकार आकाश को सामान्यतः नित्य माना जाता है । अन्य दर्शन भी ऐसा मानते हैं, क्योंकि आकाश अपने गुण के कारण नित्य तथा पर्याय के कारण अनित्य है। जैन दर्शन में आकाश को अजीव माना गया है। इसका सामान्य धर्म आश्रय देना है। यह इसका
जैन विद्या के आयाम खण्ड- ७
है । किन्तु विशेष व्यक्ति अथवा वस्तु को जो आश्रय इसके द्वारा दिये जाते हैं, वे उत्पन्न एवं नष्ट होते हैं। यथा- एक व्यक्ति कमरे में बैठा है। इस समय वह आकाश के अन्दर एक निश्चित आश्रय को प्राप्त कर रहा है, लेकिन थोड़ी देर बाद वह कमरे से निकलकर मैदान में बैठ जाता है तो ऐसी स्थिति में उसका आश्रय जो कमरे में था, नष्ट हो गया और मैदान में उत्पन्न हो गया। पहले उसकी स्थिति कमरे में थी अब मैदान में हो गयी । यही आकाश के द्वारा दिए गये आश्रय का उत्पन्न तथा नाश होना है। आकाश का पर्याय आकाश की अनित्यता है तथा सामान्य रूप से सबको आश्रय देना आकाश का गुण है जो आकाश की नित्यता है।
इसी प्रकार जीव की नित्यता एवं अनित्यता के विषय में भगवान् महावीर ने कहा है
गौतम ! जीव किसी दृष्टि से शाश्वत है तो किसी दृष्टि से अशाश्वत । गौतम ! द्रव्यार्थिक दृष्टि से जीव शाश्वत है तो भावार्थिक दृष्टि से अशाश्वत ।" अर्थात् जीव में जीवत्व का कभी अभाव नहीं होता। जीव चाहे किसी भी अवस्था में हो, जीव ही होता है। यह द्रव्यार्थिक दृष्टि है। इस संदर्भ में जीव नित्य है। जीव किसी न किसी पर्याय में होता है । एक पर्याय को छोड़कर दूसरी पर्याय को ग्रहण करता है। यह पर्यायार्थिक दृष्टि है । इस सन्दर्भ में जीव अनित्य है। लोक की सीमितता याअसीमितता के सवाल का समाधान भी इसी प्रकार किया है।
लोक द्रव्य दृष्टि से सान्त है, क्षेत्र दृष्टि से सान्त है, काल दृष्टि से अनन्त है और भाव (प्रक्रिया) दृष्टि से अनन्त है।" लोक को चार प्रकार से जाना जाता है द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव रूप से द्रव्य की दृष्टि से लोक सान्त है, क्योंकि वह संख्या में एक है। क्षेत्र की दृष्टि में भी सान्त है, क्योंकि सम्पूर्ण आकाश के कुछ क्षेत्र में ही लोक का वास है । काल की दृष्टि से लोक अनन्त है क्योंकि वर्तमान, भूत और भविष्य का कोई क्षण ऐसा नहीं जिसमें लोक का अस्तित्व न हो ऐसे ही भाव की दृष्टि से भी लोक अनन्त है, क्योंकि एक लोक के अनन्त पर्याय हैं। इस तरह जैन दर्शन नित्यता एवं अनित्यता के सिद्धान्त का प्रतिपादन करता है। यही अनेकान्तवाद है।
सामान्य और विशेष
सामान्य और विशेष के विषय में भी मत-मतान्तर पाये जाते हैं। कोई सिर्फ सामान्य की सत्ता को स्वीकार करता है तो कोई केवल
विशेष की सत्ता की । वेदान्त, सांख्य, मीमांसा आदि सामान्य की सत्ता को स्वीकार करते हैं। इन लोगों का कहना है कि जो कुछ भी है सामान्य है, सामान्य के अतिरिक्त और कुछ नहीं है। यदि सामान्य न हो तो विशेष का अस्तित्व ही न हो। 'मनुष्यत्व' सामान्य है और मनुष्यत्व के बिना राम मोहन, सोहन आदि विशेष मनुष्यों का अस्तित्व नहीं हो सकता है। अतः सामान्य की ही सत्ता है। ठीक इसके विपरीत बौद्ध दर्शन की मान्यता है। बौद्ध दर्शन विशेष की सत्ता में विश्वास करता है, विशेष के कारण ही किसी की सत्ता होती है। सामान्य की सत्ता विशेष से अलग नहीं हो सकती। क्या मनुष्यत्व राम, श्याम आदि मनुष्यों से अलग पाया जा सकता है ? नहीं! अतः तत्त्व सामान्य नहीं बल्कि विशेष है। वैशेषिक दर्शन सामान्य और विशेष दोनों की सत्ता में विश्वास करता है, लेकिन दोनों को अलग-अलग मानते हुए कहता है कि सामान्य विशेष दोनों ही समवाय सम्बन्ध से सम्बन्धित हैं। जैन दर्शन का कथन इन सब मान्यताओं से बिल्कुल अलग है। जैन दर्शन वैशेषिक दर्शन की भाँति सामान्य और विशेष दोनों की सत्ता मानता है, परन्तु अलग-अलग नहीं । दोनों ही सापेक्ष हैं। मनुष्यत्व के बिना किसी मनुष्य विशेष का बोध नहीं हो सकता और मनुष्य विशेष के बिना मनुष्यत्व (सामान्य) कहीं दृष्टिगोचर नहीं होता। अतः सामान्य और विशेष दोनों सापेक्षतः देखे जाते हैं। यहीं जैन दर्शन का अनेकान्तभाव है।
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अस्ति और नास्ति
अस्ति नास्ति दो एकान्तवादी पक्ष हैं। एक पक्ष कहता है कि सर्व अस्ति तो दूसरा पक्ष कहता है कि सर्व नास्ति। इस तरह दोनों ही एकान्तवादी हैं । अनेकान्तवाद ही सही अर्थों में इस संघर्ष का एक मात्र समाधान है। भगवान् महावीर ने सर्व अस्ति एवं सर्व नास्ति दोनों पक्षों का अनेकान्त द्वारा समर्थन किया है। उन्होंने कहा है कि जो अस्ति है वही नास्ति है। 'भगवतीसूत्र' में कहा गया है हम जो अस्ति है उसे अस्ति कहते हैं, जो नास्ति है. उसे नास्ति कहते हैं। प्रत्येक पदार्थ है भी और नहीं भी है। अपने निज-स्वरूप से है और पर स्वरूप से नहीं। अपने पुत्र की अपेक्षा से पिता, पितारूप में सत् है और पररूप की अपेक्षा से पिता, पितारूप में असत् है । यदि पर-पुत्र की अपेक्षा से पिता ही है तो वह सारे संसार का पिता हो जायेगा, जो असम्भव है। इसे और भी सरल भाषा में हम इस तरह कह सकते हैं गुड़िया चौराहे पर खड़ी है। एक ओर से छोटा बालक आता है, वह उसे माँ कहता है। दूसरी ओर से एक वृद्ध आता है, वह उसे पुत्र कहता है। तीसरी ओर से एक युवक आता है, वह उसे पत्नी कहता है। इसी तरह कोई ताई, कोई मामी, तो कोई फुफ़ी और कोई दीदी कहता है सभी एक ही व्यक्ति को विभिन्न नामों से सम्बोधित करते हैं तथा परस्पर संघर्ष करते हैं कि यह तो माँ ही है, पुत्री ही है, पत्नी ही है, दीदी ही है आदि.....। अब | प्रश्न उठता है कि आखिर गुड़िया है क्या ? इस समस्या का समाधान
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अनेकान्तवाद और उसकी व्यावहारिकता
१३७ एक ही है और वह है अनेकान्तवाद । अनेकान्तवाद का कहना है कि महावीर - जो व्यक्ति यह नहीं जानता कि ये जीव? अजीव यह तुम्हारे लिए माँ है, क्योंकि तुम इसके पुत्र हो पर अन्य लोगों के हैं और ये त्रस हैं, ये स्थावर हैं, उसका प्रत्याख्यान दुष्पत्याख्यान है, लिए यह माँ नहीं है । वृद्ध कहता है कि यह पुत्री भी है, आपकी अपनी जो यह जानता है कि ये जीव हैं और ये अजीव हैं, ये त्रस हैं, ये स्थावर अपेक्षा से, सब लोगों की अपेक्षा से नहीं । इस प्रकार अपनी-अपनी हैं उसका प्रत्याख्यान सुप्रत्याख्यान है, क्योंकि उसका कथन सत्य है ।२७ अपेक्षा से ताई, मामी, दीदी आदि सब है। इससे यह स्पष्ट होता है कि जयन्ती - भगवन्! सोना अच्छा है या जागना ? प्रत्येक वस्तु के दो पहलू हैं- है भी, नहीं भी । दर्शन की भाषा में यही महावीर - जयन्ती ! कुछ जीवों के लिए सोना अच्छा है और अनेकान्तवाद है।
कुछ जीवों के लिए जागना अच्छा है।
जयन्ती - वह किस प्रकार ? 'ही' वाद और 'भी' वाद
महावीर - जो अधर्मी है, अधर्मान्ग है, अधर्मिष्ठ है, अधर्माख्यायी संसार में दो वाद पाये जाते हैं - 'ही' वाद और 'भी' वाद। है, अधर्मप्रलोकी है, अधर्मप्ररंजन है, अधर्म समाचार है, अधार्मिक वृत्ति 'ही' वाद कहता है - 'मैं ही सच्चा हूँ' अर्थात् मेरा कथन सत्य है और युक्त है, उनके लिए सोना अच्छा है क्योंकि वे सोते रहेंगे तो अनेक जीवों मेरे सिवा सभी सम्प्रदायों का कथन असत्य है । ठीक इसके विपरीत को पीड़ा नहीं होगी। वे अपने को तथा अन्य लोगों को अधार्मिक कार्यों 'भी' वाद वाला कहता है - 'मैं भी सच्चा हूँ' अर्थात् मेरे सिवा दूसरे में रत नहीं रख पायेंगे । अत: उनके लिए सोना अच्छा है । परन्तु जो सम्प्रदायों का कथन भी सत्य है । वह भी किसी एक दृष्टि से सत्यवादी जीव धार्मिक है, रागी है, धार्मिक वृत्ति रखने वाले हैं, उनके लिए जागना है। दूसरे शब्दों में ही-मत के अनुयायी का कहना है कि दिन ही है और अच्छा है क्योंकि वे अनेक जीवों को सुख देते हैं। जब तक वे जागते भी मत के समर्थकों का कहना है कि दिन भी है अर्थात् जहाँ सूर्य नहीं रहेंगे तब तक अपने को तथा अन्य व्यक्तियों को धार्मिक कार्यों में रत हैं, वहाँ रात भी है। 'ही' और 'भी' के अभिप्रायों में बहुत ही अंतर है। रखेंगे। अत: उनका जागना अच्छा है । २८ । 'ही' के प्रयोग में एकान्तता का आग्रह समाया हुआ है । वह एक पक्ष जयन्ती - भगवन्! बलवान् होना अच्छा है या निर्बल होना ? के विचारों के समक्ष दूसरे के विचारों की अवहेलना करता है । अपूर्ण महावीर - जो जीव धार्मिक हैं अर्थात् धार्मिक वृत्ति वाले हैं, ज्ञान को पूर्ण मानकर मनुष्य को दिग्भ्रमित करता है जबकि 'भी' पक्ष उनका बलवान् होना अच्छा है, क्योंकि वे अपने बल का प्रयोग धार्मिक अपने विचारों के साथ-साथ दूसरे के विचारों का भी स्वागत करने के कार्यों में करेंगे जिससे दूसरे जीवों को सुख की प्राप्ति होगी और, जो लिए सतत् समुद्यत रहता है। यदि हम आम के विषय में कहते हैं कि जीव अधार्मिक वृत्ति वाले हैं, उनका निर्बल होना अच्छा है, क्योंकि वे
आम में केवल रूप ही है, रस ही है, गंध ही है, स्पर्श ही है, तब हम अपने बल का प्रयोग, अधार्मिक कार्यों में करेंगे, जिससे अन्य जीवों को मिथ्या एकान्तवाद का प्रयोग करते हैं । यदि इसी को हम इस रूप में कष्ट पहँचेगा। कहते हैं कि आम में रूप भी है, रस भी है, गंध भी है, स्पर्श भी है, तब हम अनेकान्तवादी दृष्टिकोण का प्रतिपादन करते हैं । इस प्रकार 'ही' अनेकान्तवाद की उपयोगिता वाद विचार-वैषम्य एवं संघर्ष की स्थिति उत्पन्न करता है जब कि 'भी' अनेकान्तवाद कोई कोरी कल्पना नहीं बल्कि एक व्यावहारिक वाद विचार-वैषम्यता एवं संघर्ष को मिटाता है ।
सिद्धान्त है जिसका सम्बन्ध धार्मिक, सामाजिक, राजनीतिक, सांस्कृतिक,
वैचारिक आदि सभी क्षेत्रों से है । व्यावहारिकता के परिवेश में अनेकान्त अनेकान्तवाद और विभज्यवाद
का अभिप्राय है . "व्यक्ति को एक ही अनुभव या एक ही ज्ञान पर विभज्यवाद अनेकान्तवाद का ही एक रूप है । विभज्यवाद आग्रहवान् न बनाकर अपने मस्तिष्क को ज्ञान के लिए उन्मुक्त रखना। का अर्थ होता है - किसी भी तथ्य को विभाजनपूर्वक कहना या प्रस्तुत तात्पर्य है कि हमको एक ज्ञान हुआ या एक अनुभव हुआ, उसी में अपने करना । सूत्रकृतांग में एक जगह प्रसङ्ग आया है कि भिक्षु को कैसी भाषा आपको न समेटकर, अपने मस्तिष्क को हर ज्ञान के लिए खुला रखना का प्रयोग करना चाहिए ? इसके उत्तर में कहा गया है कि भिक्षु चाहिए जिससे कि हम एक दूसरे के विचारों का लेन-देन भली-भाँति विभज्यवाद का प्रयोग करे ।२६ भगवतीसूत्र में गौतम और जयन्ती के कर सकें । दूसरे की बातों को भी हम अच्छी तरह से ग्रहण कर सकें साथ हुई भगवान् महावीर की बातचीत का उल्लेख है जो अनेकान्तवाद और अपनी बात को भी अच्छी तरह से दूसरों को समझा सकें । यदि और विभज्यवाद को प्रकाशित करता है, वह निम्नप्रकार है - हमें किसी वस्तु के यथार्थ स्वरूप को समझना है तो उसके अनेक
गौतम - यदि कोई कहे कि मैं सर्वप्राण, सर्वभूत, सर्वजीव, पहलुओं को देखना होगा । एक पहलू से देखने से वस्तु के एक पहलू सर्वसत्व की हिंसा का प्रत्याख्यान (त्याग) करता हूँ तो क्या उसका यह का ही ज्ञान होता है । यथा - किसी मकान का एक तरफ से चित्र लेंगे प्रत्याख्यान सुप्रत्याख्यान है या दुष्पत्याख्यान ?
तो वह चित्र मकान के एक पक्ष का ही ज्ञान करायेगा, जबकि दूसरा पक्ष
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अछूता ही रहेगा। एक मकान के यथार्थ एवं पूर्ण ज्ञान के लिए हमें मकान के चारों तरफ के अलग-अलग चित्र लेने पड़ेंगे तब जाकर हमें मकान की बाह्यकृति का पूर्ण ज्ञान होगा। फिर भी हम उसके अंतरंग भाग के ज्ञान से वंचित रह जायेंगे। अतः पुनः हमें उसके अंतरंग पक्ष के चित्र लेने पड़ेंगे, तब जाकर मकान का हमें पूर्ण एवं यथार्थ ज्ञान होगा। ठीक यही बात विश्व के सम्बन्ध में भी लागू होती है। जब तक हम विश्व का अनेक बिन्दुओं से अनेक पहलुओं से सूक्ष्मतापूर्वक निरीक्षण नहीं करते हैं, तब तक हमें उसके सम्बन्ध में पूर्ण एवं यथार्थ ज्ञान होना असम्भव है । व्यक्ति, समाज, राष्ट्र एवं विश्व के सम्बन्ध में आज यही अपूर्णता घातक सिद्ध हो रही है। क्योंकि व्यक्ति खुद को एवं समाज को जाने बिना ही राष्ट्र एवं विश्व के प्रति अपना मत व्यक्त करने का प्रयत्न करता है ।
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जैन विद्या के आयाम खण्ड- ७ धार्मिक सन्दर्भ में
धर्म और दर्शन, जो सदियों से विविध प्रकार के संतापों से मुक्ति पाने का साधन माना जाता रहा है, मानव हृदय की दुर्बलता एवं संकिता ने उसे भी दूषित कर दिया है। आग बुझाने के लिए जिस पानी का उपयोग अब तक किया जाता रहा है, आज वही पानी आग लगाने का कार्य कर रहा है तो फिर आग कैसे बुझेगी ? शान्ति की प्राप्ति के लिए धर्म और दर्शन मानव समाज में आए लेकिन वे ही आज अशान्ति के कारण बन गये हैं। एक ओर मनुष्य, मनुष्य का शोषण कर रहा है, व्यक्ति-व्यक्ति के प्रति मानसिक अन्तर्द्वन्द्व, मन-मुटाव, आशंका के कारण आज राष्ट्र शीतयुद्ध के दौर से गुजर रहा है। ऐसी स्थिति में सर्वत्र ऐसे चिन्तन एवं विचारों की आवश्यकता है जो व्यक्ति-व्यक्ति के बीच समाज- समाज के बीच, राष्ट्र राष्ट्र के बीच समरसता, समन्वय एवं सामञ्जस्य स्थापित कर सके। इन सभी समस्याओं के समाधान के लिए दृष्टि एक ही ओर जाती है और वह है अनेकान्त का सिद्धान्त अनेकान्तवाद ही है जो अनेकता में एकता, अनित्यता में नित्यता, असत्व में सत्व को एक सूत्र में पिरो सकने की क्षमता रखता है ।
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आज का युग अन्वेषण एवं परीक्षण का युग है जिसमें अनेक आणविक परीक्षण हो रहे हैं। वैचारिक धरातल पर अनेकान्तवाद का स्थान सर्वोपरि है । अनेकान्तवाद की आवश्यकता आज पूरे विश्व को है। चाहे वह दर्शन का क्षेत्र हो या विज्ञान का, चाहे धार्मिक हो या सामाजिक, राजनीतिक हो या सांस्कृतिक, राष्ट्रीय हो या अन्तर्राष्ट्रीय । आज के सन्दर्भ में अनेकान्तवाद की प्रासंगिकता पर प्रश्नचिह्न लग गया है कि क्या अनेकान्तवाद आज की तमाम समस्याओं को सुलझाने में सक्षम है ? जहाँ तक प्रासंगिकता का प्रश्न है तो अनेकान्तवाद जितना प्रासंगिक महावीर के काल में था, उससे कहीं ज्यादा प्रासंगिक आज के सन्दर्भ में हो गया है । अतः आज के सन्दर्भ में धार्मिक, वैचारिक सामाजिक, राजनीतिक, सांस्कृतिक एवं अन्तर्राष्ट्रीय क्षेत्र में उसकी प्रासंगिकता पर दृष्टिपात करना आवश्यक सा जान पड़ता है।
'धर्म' एक व्यापक शब्द है जिसके अन्तर्गत व्यक्ति, समाज, जाति, देश आदि सभी अन्तर्भूत हो जाते हैं। धर्म के सन्दर्भ में भिन्नभिन्न विचारधाराएँ देखी जाती है। कोई कहता है कि कर्म ही धर्म है, कोई कहता है जीव पर दया करना धर्म है, किसी के अनुसार परमार्थ पथ पर जीवन की आहुति देना धर्म है, कोई कहता है समाज, देश और जाति की रक्षा के लिए आपत्तिकाल में लड़ना धर्म है। परन्तु सही मायने में देखा जाए तो मानव का सम्पूर्ण जीवन ही धर्म क्षेत्र है। मानव धर्म एक ऐसा व्यापक धर्म है जिसका पालन करने से मनुष्य अपना तथा सम्पूर्ण विश्व का कल्याण कर सकता है । तात्पर्य यह है कि हमारा जीवन ही धर्म है, सारा विश्व धर्म है हम जो भी कर्म करते हैं, वे सब धर्म के अन्तर्गत आ जाते हैं।
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धर्म प्रगतिशील साधनों और अनुभवों से उत्पन्न एक विमल विभूति है जिसके आलिङ्गन से ही मानव उन्नति के पथ पर अग्रसर होने लगता है। धर्म का कार्य एकता, समानता, पुरुषार्थ आदि गुणों से मनुष्यों को दीक्षित करना है, न कि परस्पर विरोधी उपदेशों से समाज में भेद-भाव उत्पन्न करना, किन्तु आज आधिभौतिक सभ्यता की क्रूरता से जितना मन अशांत है उससे भी कहीं अधिक रूढ़ि और वासनाओं की पूजा ने मन को व्यथित कर रखा है। यह सत्य है कि जीवन की यात्रा अतीत को साथ लेकर ही तय की जा सकती है, उसका सर्वथा त्याग करके नहीं । अतीत जीवन को लेकर ही मनुष्य भविष्य की योजनाएँ निर्धारित करता है। किन्तु इसका यह अर्थ नहीं है कि लौटकर अतीत में ही पहुँच जाए। अतीत तो भविष्य की ओर बढ़ने की प्रेरणा देता है। अतः मनुष्य का कल्याण इसी में है कि वह अतीत और वर्तमान के बीच समन्वय स्थापित कर सुन्दर भविष्य का निर्माण करे । जब तक हम प्राचीन आडम्बर एवं आचार-विचारों से चिपके रहेंगे तब तक हमारा वर्तमान भविष्य के निर्माण में समर्थ नहीं होगा। समाज में प्रचलित अंधविश्वासों की विभिन्न भावनाएं न तो प्राचीन हैं और न अर्वाचीन, बल्कि इनकी जड़ तो समाज में धर्मगुरुओं के सम्प्रदाय व स्वार्थ की लोलुपता से फैली है ।
प्राचीनकाल में साम्प्रदायिक कट्टरता बहुत बलवती थी । इतिहास इस बात का साक्षी है कि भिन्न-भिन्न युगों में जिन समाजों में लोगों का ध्यान धर्म-केन्द्रित रहा है और धर्म का लोगों के जीवन में आधिपत्य रहा है उनके सभी प्रकार के संघर्षों, नृशंसताओं, यंत्रणाओं आदि का मूल कारण केवल भ्रान्ति रही है। धर्म के ठेकेदारों के मस्तिष्क में यह बात घुस गयी कि केवल उन्हीं का धर्म, विश्वास एवं उपासना पद्धति एकमात्र सत्य है और दूसरे का गलत। केवल वे ही ईमानदार हैं, शेष सभी 'विधर्मी' एवं 'काफिर' हैं। केवल उन्हीं की जीवन पद्धति मोक्षदायिनी है, केवल उन्हीं का ईश्वर सम्पूर्ण विश्व का ईश्वर है, अन्य लोगों के देवगण मिथ्या हैं अथवा उनके ईश्वर के अधीन हैं। इस प्रकार
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अनेकान्तवाद और उसकी व्यावहारिकता की बातों से मानव स्वभाव का इतिहास भरा पड़ा है। धर्मांधता के पीछे मानव समाज, धर्मसेवा समाज, शिक्षक समाज, विद्यार्थी समाज, ब्राह्मण अनेक अमूल्य जाने गयीं, रक्त की नदियाँ बहायी गयीं तथा मानव जीवन समाज आदि । मानव समाज प्राणियों के एक प्रकार को बताता है । धर्म को कष्टमय एवं दुःखमय बना दिया गया । आज पुन: वही स्थिति सेवा समाज, शिक्षक समाज आदि एक विशेष प्रकार के काम करने दृष्टिगोचर हो रही है । परस्पर सम्प्रदायों में राग-द्वेष की भावना, खण्डन- वालों का ज्ञान कराता है। इसी तरह ब्राह्मण समाज से एक विशेष वर्ग मण्डन की बहुलता, खून-खराबा, तीव्र संघर्ष की सम्भावना बहुत अथवा विशेष प्रकार की संस्कृति में पले हुए लोगों का बोध होता है। अधिक बलवती होती जा रही है । इसका मुख्य कारण है धर्म के यथार्थ यद्यपि समाज शब्द में प्रस्तुत प्रयोग अलग-अलग अर्थों को इंगित करते स्वरूप को न समझना । सभी धर्मों के अपने मूल सिद्धान्त होते हैं, जिन्हें हैं किन्तु इनसे इतना स्पष्ट होता है कि 'समाज' शब्द एक प्रकार से रहने आदर्श रूप में जाना जाता है । साथ ही उनकी अभिव्यक्ति के लिए वाले अथवा एक तरह का कार्य करने वाले लोगों के लिए व्यवहार में विभिन्न प्रतीक भी स्वीकृत होते हैं । यथा - मन्दिर, मस्जिद, गिरजाघर, आता है। किन्तु आज समाज शब्द का अर्थ ही बदल गया है । आज गुरुद्वारा, जिनालय आदि । आदर्श जब पुराना हो जाता है तो प्रतीक का समाज वह समाज है जिसमें घृणा, द्वेष, छुआ-छूत, जाति-पांति, प्रबल हो उठता है और समाज में प्रतीकों की ही प्रधानता देखी जाती ऊँच-नीच, अमीर-गरीब के भेद-भाव निवास करते हैं । यह सत्य है कि है। आदर्श के निर्बल और प्रतीक के सबल हो जाने पर धर्मान्धता अपना समाज में विभिन्न विचारधारा के व्यक्ति रहते हैं । उनके रहन-सहन, प्रभाव जमाती है जो समाज के लिए अत्यन्त ही घातक सिद्ध होती है। खान-पान, बोल-चाल आदि अलग-अलग होते हैं, लेकिन इनका इसका ज्वलन्त उदाहरण है - मन्दिर-मस्जिद विवाद । यहाँ राम और मतलब यह तो नहीं है कि मानव, मानव से अलग है । दोनों ही मनुष्य मुहम्मद के आदर्शों की बात कोई नहीं करता, परन्तु मन्दिर के घण्टे- हैं, दोनों में मनुष्यता का वास है, फिर ये भेदभाव कैसा ? मनुष्यघड़ियाल तथा मस्जिद के गुम्बद की चर्चा प्राय: सभी लोग करते हैं, समुदाय का नाम ही तो समाज है। जमीन के टुकड़े को समाज नहीं जिसका नतीजा हम लोगों के सामने है। इन सारी समस्याओं का कहते, मकानों का, ईटों का या पत्थरों का ढेर भी समाज नहीं कहलाता समाधान अनेकान्तवाद के पास है। उसके अनुसार महावीर भी हैं, राम और न ही गली-कूचे, दुकान या सड़क आदि का नाम समाज है । यदि भी हैं, मुहम्मद भी हैं, ईसा भी हैं, गुरुनानक भी हैं।
हम इलाहाबाद का समाज या वाराणसी का समाज कहते हैं तो इसका एक ओर हम धर्मनिरपेक्ष राष्ट्र की बात करते हैं, वहीं दूसरी अभिप्राय होता है इलाहाबाद या वाराणसी में रहने वाला मानव समुदाय। ओर धर्मान्धता का परिचय देते हैं । राष्ट्र धर्मनिरपेक्ष तो तब होगा जब फिर एक जाति का दूसरी जाति के साथ, एक वर्ग का दूसरे वर्ग के सभी धर्मों को समान आदर प्राप्त होगा। सभी धर्मों को समानता का साथ और एक मोहल्ले का दूसरे मोहल्ले के साथ घृणा और द्वेष क्यों अधिकार तब मिलेगा जब हम भावात्मक एकता और सहिष्णुता की ? एक प्रान्त का दूसरे प्रान्त से, एक देश का दूसरे देश से युद्ध भावना को अपने अन्दर स्थान देगें। भावात्मक एकता एवं सहिष्णुता क्यों? की भावना से हम बड़े प्रेम एवं शान्ति के साथ रह सकते हैं । यदि इस आज जातीयता कम करने का जितना ही प्रयास किया जा रहा भावना पर हम चलें, दूसरों के वक्तव्य में जो सत्य दबा पड़ा है, उसे है वह उतनी ही बढ़ती जा रही । प्राय: यह सुनने में आता है कि यह स्वीकार करें, अपनी ही बात को सत्य मानकर उसे दूसरों पर दुराग्रहपूर्वक ब्राह्मण वर्ग है, यह क्षत्रिय वर्ग है, यह वैश्य वर्ग है तो यह शूद्र वर्ग थोपने का दुष्प्रयास न करें, तो सम्भवत: व्यावहारिक जीवन में सहिष्णुता है। लोग अपना परिचय देते समय भी अपनी जाति का परिचय देने में जागृत होगी और रोज-रोज के अनेक संकट टाले जा सकेंगे । धर्म भी नहीं चूकते । ब्राह्मण यह कहने में गौरव की अनुभूति करता है कि निरपेक्षता का सिद्धान्त भी इसी बात पर बल देता है कि मानव को हम ब्रह्मा के मुख से उत्पत्र हुए हैं, इसलिए हम सर्वश्रेष्ठ हैं । किन्तु अपनी-अपनी भावना के अनुकूल किसी भी धर्म के अनुपालन की ब्रह्मा के मुख से उत्पन्न होने का तात्पर्य यह कदापि नहीं है कि ब्राह्मण स्वतन्त्रता है । किन्तु सुरसा के मुँह की तरह वर्तमान में फैल रही ब्रह्मा के मुख से निकल पड़े हों बल्कि आप चिन्तन और मनन करते अशांति और समस्याएँ मानव की मानवता को निगलती जा रही हैं. हैं उसका प्रयोग मुख से कीजिए। अपनी पवित्र वाणी से मानव समाज जिसके फलस्वरूप आए दिन होने वाले साम्प्रदायिक संघर्ष, कलह को लाभान्वित कीजिए । क्षत्रिय वर्ग, जिसकी उत्पत्ति ब्रह्मा की भुजाओं आदि उभर कर सामने आ रहे हैं । आखिर इन समस्याओं का समाधान से मानी जाती है, का यह अर्थ है कि क्षत्रिय वर्ग अपनी भुजाओं के बल क्या है ? समाधान यदि कोई है तो वह है - अनेकान्त का मार्ग पर निर्बलों की रक्षा करे । वैश्य वर्ग की उत्पत्ति इसलिए हुई कि वह अनेकान्त ही एक ऐसा मूलमन्त्र है जो आज की सभी धार्मिक उलझनों कृषि के द्वारा जीवनोपयोगी वस्तुएँ उत्पन्न कर वाणिज्य के द्वारा उन्हें को सुलझा सकता है।
स्थानान्तरित करके सम्पूर्ण समाज को भोजन दे, शक्ति पहुँचाए, लोगों
को जीवित रखे । किन्तु यह हमारे समाज का दुर्भाग्य है कि वैश्यवर्ग सामाजिक सन्दर्भ में
अपनी प्रतिष्ठा को सुरक्षित नहीं रख सका । अर्थ-पिपासा की लालसा सामान्यत: समाज शब्द का विभिन्न अर्थों में प्रयोग है । यथा- ने उन्हें अन्धा बना दिया है । चौथा वर्ण शूद्र जिसकी उत्पत्ति ब्रह्मा के
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जैन विद्या के आयाम खण्ड-७ पैरों से मानी जाती है, आज घृणा एवं तिरस्कार का पात्र बन गया है। राजनीतिक सन्दर्भ में शूद्र या अछूत का नाम आते ही लोगों के नाक-भौं सिकड़ने लगते हैं। आज के भारतीय समाज एवं प्रजातंत्र को देखने से यह ऐसा क्यों? सभी मनुष्य समान हैं । जैन धर्म की मान्यता है कि विश्व कहावत चरितार्थ होती है - "बंदर के हाथ में नारियल' बंदर के हाथ के जितने भी मनुष्य हैं, वे सभी मूलत: एक ही हैं । कोई भी जाति अथवा में नारियल पड़ने से उसकी दुर्दशा होती है । नारियल टूटने का डर रहता कोई भी वर्ग मनुष्य जाति की मौलिक एकता को भंग नहीं कर सकता। है। वही स्थिति आज भारतीय समाज की है। भारतीय प्रजातंत्र को देखते मनुष्य जाति में जो अलग-अलग वर्ग दिखलाई देते हैं। वस्तुत: कार्यों हए ऐसा ही प्रतीत होता है । प्रजातंत्र के प्रधानतः दो अंग होते हैं - के भेद से या धन्धों के भेद से दिखलाई पड़ते हैं । जैन धर्म में स्पष्ट अधिकार और कर्तव्य । प्रजातंत्र का वहीं पर समुचित विकास होता है कहा गया है कि मनुष्य जन्म से उँचा या नीचा नहीं होता बल्कि कर्म जहाँ लोग अधिकार के साथ-साथ अपना कर्तव्य भी समझते है, लेकिन से होता है । जैन मुनि हरिकेशबल जन्म से चाण्डाल कुल के थे जिसके हमारे भारतीय समाज का दुर्भाग्य यह है कि यहाँ लोग अपने अधिकार कारण उन्हें चारों ओर से भर्त्सना और घृणा के सिवा कुछ नहीं मिला। तो समझते हैं परन्तु अपने कर्तव्य को नहीं समझते । वे जहाँ कहीं भी गए, वहाँ उन्हें अपमान-रूप विष का प्याला ही मिला, प्रजातंत्र की रीढ़ चुनाव है । प्रजा के प्रतिनिधि प्रजा के द्वारा लेकिन जब उन्होंने जीवन की पवित्रता का सही मार्ग अपना लिया तो चयनित होकर विधानसभा और लोकसभा के सदस्य बनते हैं। उनसे यह वही वन्दनीय और पूजनीय हो गये।
अपेक्षा होती है कि वे अपने क्षेत्र की समस्याओं को सही रूप में सभा हिन्दू-मुसलमान का झगड़ा सदियों से चला आ रहा है और में प्रस्तुत करेंगे तथा समाज के हित के लिए अपने को समर्पित करेंगे। वर्तमान में भी विद्यमान है । सवाल होता है कि हिन्दू कौन है ? किन्तु बात ऐसी नहीं होती है । तथाकथित जनता के प्रतिनिधि अपनी मुसलमान कौन है ? क्या मनुष्य की भी कोई जाति होती है ? मनुष्यों कुर्सी की रक्षा में लगे रहते हैं और प्रजा को भूल जाते हैं, जिनके वे की कोई जाति नहीं होती। जिस प्रकार पानी की कोई जाति नहीं होती, प्रतिनिधि होते हैं । वे दरअसल यह भी नहीं चाहते कि जनता उनके उसी प्रकार मानव की भी कोई जाति नहीं होती, सभी एक समान हैं। चुनाव में स्वतन्त्र रूप से मतदान करे । मतदान केन्द्र तो प्रत्याशियों के मनुष्यों की दो जातियाँ हो ही नहीं सकतीं। फिर भी मन की संकीर्णतावश पालतू गुण्डे-बदमाशों द्वारा अधिकार में कर लिये जाते हैं । अत: चुनाव उसमें ऊँचता-नीचता खोजी जाती है।
दिखावे का एक ढोल होता है जिसकी तेच ध्वनि समाज में हंगामा इस प्रगतिवादी युग में भी शक्तिशाली लोग अशक्तों एवं मचाती है । इस तरह राजनीति के क्षेत्र में भी एकान्तवाद का बोलबाला असमर्थों का शोषण उसी प्रकार कर रहे हैं जिस प्रकार छोटी मछली को देखा जाता है । राजनीति का प्रवेश समाज में समाज के स्तर को उँचा बड़ी मछली निगल जाती है। इसका मुख्य कारण है- आर्थिक विषमता। उठाने के लिए हुआ किन्तु वही राजनीति आज क्षुद्रता के दायरे में आर्थिक विषमता मानो भारतीय समाज का अंग बन गयी है । पूँजीपति सिमटकर रह गयी है। यद्यपि प्रजातांत्रिक प्रणाली में तो एकान्तवादिता और मजदूर, धनी-मानी, खेत मालिक और खेतों में काम करने वाले को स्थान ही नहीं मिला है। उसमें न तो हठवादिता है, न दुराग्रह है, गरीब लोग आज भी हैं । गरीबी हटाओ अभियान चलता आ रहा है, न पक्ष प्रतिबद्धता है, न असहिष्णुता है और न अधिनायकवाद ही है। विभिन्न आंकड़े तैयार होते आ रहे हैं, किन्तु हल कुछ भी सामने नहीं फिर भी आज के समाजनिर्माता अपनी स्वार्थता से वशीभूत होकर आ रहा है, क्योंकि न्यायकर्ता जब न्याय करने बैठता है तो तराजूरूपी प्रजातन्त्र के अनैकांतिक दृष्टिकोण को ऐकांतिक बना दिये हैं । जबकि बुद्धि पर उसका अपना स्वार्थरूपी बाट होता है । अत: वह न्याय कैसे प्रजातंत्र को सही मायने में क्रियान्वित करने के लिए अनैकान्तिक करेगा?
__दृष्टिकोण का होना जरूरी है। यदि प्रजातंत्र की नीव अनैकांतिक है, कहा माना कि जीवन में बुराइयाँ होती हैं, भूलें होती हैं और उनका जाए, तो कोई अतिशयोक्ति नहीं होगी क्योंकि बिना अनैकान्तिक परिमार्जन भी किया जाता है, उन्हें सुधारने का प्रयास भी किया जाता है। दृष्टिकोण के प्रजातंत्र एक दिन भी क्रियाशील नहीं रह सकता । यदि रोग है तो उसका उपचार भी होगा। बुराई के साथ संघर्ष करने का प्रजातांत्रिक प्रणाली में तो विरोध में भी अविरोध लाना पड़ता है, मनुष्य का अधिकार है । मानव ने इस संसार में एक महत्त्वपूर्ण विभिन्नता में एकता के सूत्र पिरोने पड़ते हैं । उत्तरदायित्व तथा कर्तव्य लेकर जन्म लिया है । अत: व्यक्ति को बुराइयों से संघर्ष करना ही पड़ेगा। बराइयों से इस संघर्ष में अनेकान्तवाद से अन्तर्राष्ट्रीय सन्दर्भ में ज्यादा शक्तिशाली अन्य कोई अस्त्र नहीं होगा। सामाजिक विभिन्नताओं प्रत्येक देश, राष्ट्र, दल व गट केवल अपनी और अपने हितों के बीच सामञ्जस्य एवं पारस्परिक स्नेह को कायम रखने में अनेकान्तवाद की रक्षा और सुरक्षा के बारे में चिन्तित हैं फिर चाहे उसके लिए दूसरों की. अहम् भूमिका होगी।
की बलि क्यों न दे दी जाए? आज भयानक से भयानक अस्त्रों-शस्त्रों का अनुसंधान हो रहा है। कई भयानक संहारक अस्त्र बन चुके हैं । प्रभूता
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अनेकान्तवाद और उसकी व्यावहारिकता की लालसा विश्व में कभी भी युद्ध की आग को भड़का सकती है । यद्यपि ५ शलो०१५ । शस्त्र निर्माण की इस होड़ ने शक्ति संतुलन कायम कर दिया है। ७. एग. च णं महं चित्तविचित्तपक्खगं पंसकोइलगं सविणे पसित्ता भयानक अस्त्रों के निर्माण ने सभी राष्ट्रों को सशंकित कर दिया है कि
णं पडिबुद्धे ....जण्णं समणे भगवं महावीरे एंग महं चिन्तविचित्त शस्त्रास्त्रों के इस संग्रह से कहीं मानव जाति का सर्वनाश न हो जाए।
जाव पडि बुद्धे तण्णं समणे भगवं महावीरे विचित्तिं ससमयपर
समइयं दुवालसंगं गणि पिडगं आघवेई, पनवेइ परुवेई ...... । इतिहास के पन्नों में प्रथम एवं द्वितीय विश्वयुद्ध इसके मुख्य उदाहरण
भगवतीसूत्र, संपा० घासीलालजी महाराज, प्र०-अ०भा० श्वे०
स्था० जैन शास्त्रोद्धार समिति, राजकोट, १९६८, श०१६ उ० विश्व अनेक गुटों में बँटा हुआ है - समाजवाद, साम्यवाद,
६ सू०३। पूँजीवाद, लोकतंत्रवाद आदि । ये सभी प्रशासन प्रणाला आर सामाजिक ८. भारतीय दर्शन, आचार्य बलदेव उपाध्याय, वाराणसी, १९७९, संगठन में सुधार की बात करते हैं और केवल अपने को मानवजाति का पृष्ठ-९१ । परित्राता समझते हैं । प्रत्येक देश का प्रत्येक दल केवल अपने को व ९. भारतीय दर्शन के प्रमुख सिद्धान्त, डॉ० बी० एन० सिन्हा, अपनी नीति और कार्यक्रमों को सर्वोत्तम मानता है और एकमात्र उसे ही वाराणसी, १९८२ पृष्ठ-७१ । देश में नवजीवन का सञ्चार करने वाला समझता है । प्रत्येक दल या १०. गोयमा ! एत्थ णं दो नया भवंति तं जहा निच्छइयनए य । गुट यह समझता है कि केवल उसके अनुयायी और सदस्य ही देश के
वावहारियन गोड्डे फाणियगुले नेच्छइयनयस्स पंचवन्ने दुगंधे पंचरसे प्रशासनिक पदों के योग्य हैं । उसमें इतना धैर्य नहीं कि वह दूसरे दलों
अट्ठफासे पन्नते । भगवती सूत्र संपा०-घासीलाल जी महाराज, के सुझावों एवं गुणों को देख सके । यह एक घातक प्रवृत्ति है। प्रत्येक
श०१८ उ०६ सू०१। व्यक्ति यह सोचता है कि वही एकमात्र ऐसा व्यक्ति है जिसके लिए
११. साधना के मूलमंत्र, उपाध्याय अमर मुनि, आगरा, पृ० २८३।
१२. उत्पादव्ययध्रौव्ययुक्तं सत् । - तत्त्ववार्थसूत्र विवे० पं० सुखलाल सम्पूर्ण विश्व की सत्ता है और दूसरे लोग उसकी दयालुता, सहानुभूति,
संघवी, पार्श्वनाथ शोधपीठ ग्रंथमाला-२२, वाराणसी, अ०५, स्नेहशीलता आदि के पात्र हैं। लेकिन संघर्ष का कारण यह है कि विश्व
गाथा-२९। में अनगिनत दूसरे लोग भी हैं जो उसी विश्वास और दावे की इच्छा रखते १३. चिन्तन की मनोभूमि, सम्पा०-डॉ० बी० एन० सिन्हा, पृ०१११। हैं । यहीं से संघर्ष का सूत्रपात्र होता है।
१४. अनेकान्तात्मकार्थकथनं स्याद्वादः । न्यायकुमुदचन्द्र, भाग-२ संपा०यदि हम सब इस एकान्तवाद के दुष्परिणाम का अनुभव कर पं० महेन्द्र कुमार, माणिकचन्द्र दि० जैनग्रन्थमाला-३८, बम्बई सकें और "भी' का प्रयोग कर सकें तथा यह समझें कि प्रत्येक को १९४१, पृष्ठ ६८६ । दूसरों की इच्छाओं, आशाओं और आकांक्षाओं की उपेक्षा नहीं करनी १५. अष्टसहस्त्री, सम्पा०-वंशीधर, शोलापुर, १९१५, पृष्ठ-२८७ । चाहिए, दूसरों के गुणों को खोजना, पहचानना और सराहना चाहिए तथा १६. नायं वस्तु न चावस्तु वस्त्वंश: कथ्यते बुधैः । उनके साथ मित्रता और शान्तिपूर्वक रहना चाहिए, तो विश्व आज जिस
ना समुद्रः समुद्रो वा समुद्रांशो यथैव हि ।। -रत्नकरावतारिका, रूप में दिखाई दे रहा है, उससे बिल्कुल भिन्न होगा। अनेकान्त की छाया
सम्पा०-६० दलसुखभाई मालवणिया, लालभाई दलपतभाई
ग्रंथमाला-२४, अहमदाबाद, १९६८, भाग-३, पृष्ठ-४ । में विकसित सह-अस्तित्व का सिद्धान्त ही विश्व शान्ति का सबसे सुगम
१७. प्रमाणप्रतिपात्रथैकदेशपरामर्श नयः । - स्याद्वादमञ्जरी, सम्पा०एवं श्रेष्ठ उपाय है।
डॉ० जगदीशचन्द्र जैन, श्रीमद् रायचंद जैनशास्त्रमाला-१२, अगास सन्दर्भ
१९३५, पृष्ठ २४२ । १. अनेकाश्चासो अन्तश्च इति अनेकान्तः । रत्नकरावतारिका, संपा०
१८. प्रतिपक्षो वस्त्वंशग्राही ज्ञातुरभिप्रायो नयः । निराकृतप्रतिपक्षस्तु पं० दलसुख भाई मालवणिया, लालभाई दलपत भाई ग्रन्थमाला
नयाभासः । इत्यनयोः सामान्यलक्षणम् । प्रमेयकमलमार्तण्ड, १६, अहमदाबाद १९६८, पृष्ठ-८९ ।
अनु० आर्यिका जिनमती, पृष्ठ-६५७ । २. न्यायदीपिका, सम्पा० पं० दरबारीलाल कोठिया, वीर सेवा मंदिर
१९. स्याद्वादमंजरी, श्लो० २८ ग्रंथमाला-४, सहारनपुर १९४५, अ०३, श्लो०७६।
२०. श्रीमार्गपरिशुद्धि, श्लो०७ ३. समयसार टीका (अमृतचन्द्र) उद्धृत-डॉ० सागरमल जैन, अनेकान्त,
२१. भगवतीसूत्र, १/८/१० स्याद्वाद और सप्तभंगी-एक चिन्तन, पार्श्वनाथ विद्याश्रम ग्रंथमाला
२२. प्रज्ञापनासूत्र, पद-३ सू०-२६ ५२, वाराणसी १९९०, पृष्ठ-८ ।
२३. भगवतीसूत्र, ७/२/५ ४. चिन्तन की मनोभूमि, संपा०-डॉ० बी० एन० सिन्हा, सन्मति
२४. वही, २/१२/१२ ज्ञानपीठ आगरा, १९७०, पृष्ठ-१०६ ।
२५. वही, ७/१/१ ५. ऋग्वेद, दयानन्द सरस्वती, दयानन्द संस्थान, नई दिल्ली, म०
२६. सूत्रकृतांग, १/१२/२२ १० अ० ९१ सू०१४।
२७. भगवतीसूत्र, ७/२/१ ६. वही, १/३२/१५ तथा बृहदारण्यकोपनिषद्, संपा०, काशीनाथ
२८. वही, ७/२/३ आगशे, आनन्दाश्रम संस्कृत ग्रन्थावली ग्रंथांक-१५, अ० २ ब्रा० ।
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महावीर का अपरिग्रह सिद्धान्त : सामाजिक न्याय का अमोघ मन्त्र
डॉ० कमलचन्द सोगाणी
वर्तमान युग में परिग्रह की सीमा काफी चर्चा का विषय बनी मन में यह बात रही होगी कि समाज साधारण व्यक्तियों के समुदाय से हई है। महावीर युग में हिंसा का प्राधान्य था पर ऐसा लगता है कि आज ही निर्मित होता है और अपरिग्रह की चर्चा उस
के युग में परिग्रह का प्राधान्य है । ऐसा नहीं है कि महावीर युग में महत्त्व की है । इसलिए सामाजिक दृष्टिकोण से बाह्य वस्तुओं की परिग्रह की सीमा की चर्चा न हो । अति प्राचीन ग्रन्थों में परिग्रह की सीमा उपस्थिति और अन्तरङ्ग मूर्छा के होने में एक कार्य-कारण का सम्बन्ध के बारे में स्पष्ट कथन मिलते हैं। उनमें यह कहा गया है कि गृहस्थ स्वीकार किया जा सकता है, अर्थात उन्होंने यह स्वीकार किया कि जहाँ को धन-धान्य आदि वस्तुओं को सीमित करना चाहिए और संभवतया बाह्य वस्तुए हैं (वास्तविक अथवा काल्पनिक) वहाँ मूर्छा होगी ही। यह इस निर्देश को मानकर कई गृहस्थों ने परिग्रह की सीमा को बाँध कर कार्य-कारण सम्बन्ध सामाजिक स्तर पर उचित प्रतीत होता है, अर्थात अपरिग्रह की दिशा में अवश्य ही प्रगति की होगी। उन्होंने पांच हाथी किसी व्यक्ति के बाहरी परिग्रह को देखकर अथवा बाहरी परिग्रह की इच्छा के बजाय दो हाथी रखे होंगे, दस मकान के बजाय एक मकान रखा को जानकर हम साधारणतया उसकी अन्तरंग मूर्छा का अनुमान कर होगा, लाखों रूपयों के बजाय हजारों रूपये रखे होंगे। इस तरह से सकते हैं। इस तरह सामाजिक दृष्टिकोण से बाह्य वस्तुओं का होना व परिग्रह के त्याग का उदाहरण प्रस्तुत किया होगा। समाज ने ऐसे लोगों न होना ही महत्त्व का है। मूर्छा का होना और न होना पूर्णतया व्यक्तिगत को त्यागी कहकर सम्मानित भी अवश्य किया होगा, क्योंकि वे तो ग्रन्थों होता है । समाज की निगाह केवल बाह्य वस्तुओं पर ही हो सकती है की सीधी-सादी भाषा के अनुसार अपने जीवन को ढाल रहे थे। और उसी को कम-ज्यादा करना समाज के हाथ में है। अतः परिग्रह का
यहाँ यह प्रश्न उपस्थित होता है कि इस प्रकार के त्याग को लक्षण सामाजिक दृष्टिकोण से मूर्छा न होकर बाह्य वस्तुओं का होना अपरिग्रह की संज्ञा दी जाय ? इससे अधिक गहरा प्रश्न यह उपस्थित (वास्तविक) ही माना जा सकता है । इसलिए अपरिग्रहवादियों ने स्थानहोता है कि परिग्रह का लक्षण क्या है ? क्योंकि परिग्रह के लक्षण को स्थान पर बाह्य वस्तुओं की सीमा पर झोर दिया है। इस तरह से जानकर ही हम परिग्रह-अपरिग्रह का निर्णय कर सकते हैं । अपरिग्रहवादियों अपरिग्रह के मापदण्ड का प्रश्न वस्तुओं के परिमाण के मापदण्ड का के सामने जब यह प्रश्न आया तो उन्होंने अपरिग्रह को समझाने के लिए प्रश्न है । अब प्रश्न यह है कि वस्तुओं का कितना संग्रह, अपरिग्रह की परिग्रह का लक्षण प्रस्तुत किया । वे समझते थे कि परिग्रह का लक्षण कोटि में माना जाय? और इस परिणाम का निश्चय कैसे किया जाय ? ज्ञात होने पर मनुष्य उन लक्षणों से बच कर अपरिग्रही बन सकेगा। संभवतया इसके उत्तर में कहा जा सकता है कि वस्तुओं की इसलिए उन्होंने परिग्रह का लक्षण बताते हुए कहा कि यह हो सकता व्यक्तिगत आवश्यकतानुसार संख्या परिमाण का मापदंड मानी जानी है जहाँ मूर्छ है वहाँ परिग्रह है । इसको स्पष्ट करते हुए उनका कहना चाहिए। यदि मुझे एक मकान की आवश्यकता है तो मैं एक मकान है कि व्यक्ति के पास न मकान हो, न धन-धान्य, तब भी इनके प्रति बनवा लूँ और दूसरा मकान न बनवाऊँ । इसी तरह आवश्यकतानुसार आर्कषण या राग हो तो वह निश्चित रूप से परिग्रही है, जैसे कोई लोभी अन्य वस्तुओं का परिमाण भी कर लूँ । यदि मेरी आवश्यकता एक अति दरिद्र व्यक्ति । इसके अतिरिक्त यह भी हो सकता है कि बाह्य में करोड़ रुपये की है तो उतना रख लूँ और बाकी समाज को अर्पण कर परिग्रह हो और अंतरंग में यदि मूर्छा नहीं है तो ऐसा व्यक्ति अपरिग्रही ढूँ। अब प्रश्न यह उठता है कि आवश्कता का निर्णय किस आधार पर कहलायेगा, जैसे राजा जनक ।
हो? एक उद्योगपति की आवश्यकताएं, प्रोफेसर की आवश्यकताएं यहाँ प्रश्न यह है : क्या परिग्रह का मू»लक्षण कोरा व्यक्तिगत तथा अन्य वर्ग के लोगों की आवश्यकताएं भिन्न-भिन्न हैं । इसलिए नहीं है ? क्या मूर्छा होने और न होने का ज्ञान हमें हो सकता है ? मूर्छा उनके परिग्रह के परिमाण भी भिन्न-भिन्न होंगे। किसी के लिए १० कारें एक मानसिक स्थिति है जिसको दूसरे व्यक्तियों में जान पाना तो अत्यन्त भी आवश्यक हो सकती हैं और किसी के लिए एक भी नहीं। क्या हम कठिन है । इस तरह से परिग्रह का लक्षण होते हुए भी व्यक्ति व समाज परिग्रह का निर्णय व्यक्तिगत आवश्यकतानुसार वस्तुओं की संख्या के के लिए यह उपयोगी नहीं है। सम्भवतया इसी बात को ध्यान में रखकर आधार पर कर सकते हैं ? मेरे विचार से ऐसा करना किसी भी तरह अपरिग्रहवादियों ने कहा कि सामान्यतया जहाँ बाह्य परिग्रह होता है वहाँ उचित नहीं माना जा सकता, क्योंकि यह दृष्टिकोण पूर्णतया व्यक्तिवादी मूर्छा होती है। कुछ असाधारण व्यक्ति इस कोटि से बाहर चले भी जायें है पर अपरिग्रह एक समाजवादी दृष्टि है । अपरिग्रह का मापदण्ड तब तब भी साधारण लोगों के लिए यह लक्षण घटित होता है क्योंकि उनके तक उचित नहीं कहा जा सकता जब तक उसके निर्णय में सामाजिक
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दृष्टि को महत्त्व न दिया जाय। मेरे लिए कितना आवश्यक है इसका निर्णय व्यक्ति नहीं समाज करेगा। व्यक्ति का निर्णय शोषण को जन्म देता है पर समाज का निर्णय अपरिग्रह की भावना को । समाज का निर्णय जनतांत्रिक राज्य का निर्णय कहा जा सकता है। राज्य सामाजिक आवश्यकतानुसार परिग्रह के परिमाण को निश्चित कर सकता है, अर्थात् कितना व्यक्ति के पास रहे और कितना व्यक्ति से समाज को चला जाय यदि एक व्यक्ति १०० मिलों का मालिक है तो उसके लाभ को वह व्यक्ति कितना रखे और समाज के पास कितना जाय इसका निर्णय व्यक्ति नहीं समाज ही करेगा ।
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कभी-कभी यह कहा जाता है कि परिवाह के परिमाण की भावना समाज की प्रगति को अवरुद्ध करने वाली होती है। किन्तु मेरे विचार से ऐसा मानना उचित नहीं है। अपरिग्रह की भावना व्यक्ति की उत्पादन शक्ति को क्षीण नहीं करती, पर उसकी संग्रह शक्ति को सीमित करने की बात कहती है । अत्याधिक संग्रहवृत्ति एक मानसिक रोग है और स्वस्थ समाज के निर्माण के लिए इस रोग को समाप्त करना आवश्यक है। समाज की प्रगति उत्पादन शक्ति से होती है, संग्रहवृत्ति से नहीं । अत: अपरिग्रह का मापदंड हुआ समाज का वस्तुओं के परिमाण के विषय में निर्णय एक ऐसा देश हो सकता है जहां किसी व्यक्ति के पांच भवन भी परिग्रह न माने जायें और एक ऐसा देश भी हो सकता है जहां एक भवन का होना भी परिग्रह को कोटि में आये इस तरह से कहा जा सकता है कि मूर्छा की तीव्रता व मन्दता का संबंध
राजस्थान अपने प्राचीन जैन मंदिरों (प्रासादों) के लिये देशभर में प्रसिद्ध रहा है। इन प्रासादों की भव्यता और वास्तुकला दोनों को ही देखकर आज के अध्येताओं को आश्चर्य होता है। राजस्थान में बीकानेर राज्य अपनी गरम जलवायु और मरुभूमि के हृदय स्थल पर बसे होने के कारण बहुत ही शुष्क प्रदेश के रूप में जाना जाता रहा है। बीकानेर राज्य की साहित्य, कला, वास्तुकला एवं वीरता में अपनी अलग पहचान रही है। इसकी स्थापना में भी जैन श्रीमंतों- श्रावकों का प्रमुख हाथ रहा है । जब राव बीका जी जोधपुर से निकल कर जांगल प्रदेश में आये तो उनके साथ में लाखससी बैद, चौथमल कोठारी, वरसिंह बच्छावत साथ में थे । बीकानेर का सौभाग्य कि रहा जैन ओसवाल घराने के ही बच्छावत परिवार, बैद परिवार, सुराणा परिवार, कोचर परिवार और राखेचा परिवार के ही वंशधर पीढ़ी दर पीढ़ी दर दीवान
बाह्य वस्तुओं की संख्या से नहीं है पर सामाजिक परिस्थिति में वस्तुओं के परिमाण के सम्बन्ध में समाज के निर्णय से है। सामाजिक परिस्थियों के बदलने से बाह्य वस्तुओं के परिमाण भी बदलते जायेंगे । अमरीका के परिग्रह परिमाण के विचार में और भारत के परिग्रह परिमाण के विचार में अन्तर होगा। ऐसा प्रतीत होता है कि अपरिग्रहवादियों ने परिमाण के प्रश्न को खुला ही रखा है। देश काल के अनुसार परिणाम बदला जा सकता है।
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बीकानेर का जैन वास्तुकला का अनूठा त्रैलोक्य दीपक प्रासाद
श्री हजारीमल वाँठिया
यदि परिमाण का माप समाज है तो भारत जैसे देश में कर के माध्यम से, भूमि-सीमा आदि के माध्यम से परिमाण को निश्चित करना अपरिग्रह की भावना को दृढ़ करना है। भारत के अधिकांश लोगों को देखते हुए हम सभी किसी न किसी रूप में शोषणवादी हैं। हमारा एक पेंट एक मकान, एक शर्ट भी परिग्रह ही है क्योंकि भारत के करोड़ों लोग इससे भी वंचित हैं। अपरिग्रह की भावना समाजवाद की दिशा में हमारे देश को अग्रसर कर सकती है, क्योंकि अपरिग्रह का मापदण्ड वस्तु परिमाण के सम्बन्ध में समाज का निर्णय है व्यक्ति का नहीं जिस प्रकार अहिंसा रसोई घर तक सीमित रह गयी उसी प्रकार अपरिग्रह थोथे दान देने तक । एक स्कूल बनवाने, अस्पताल बनवाने आदि में हमने अपरिग्रह को सीमित कर दिया। वास्तव में अपरिग्रह तो सारी मानव जाति को सम्मान से जीने देने की एक सामाजिक कला है और इस तरह से महाबीर का अपरिग्रह का सिद्धान्त समाज को विकसित करने का एक अमोघ मंत्र है ।
(प्रधान मंत्री) और सेनानायक (कमान्डर इन चीफ) के पदों पर आसीन रहे और राज्य की श्री वृद्धि के साथ जैन परचम को भी फहराया। शहर में चौबीस जिन मंदिरों की स्थापना हुई । अनेक जैन ज्ञान भंडार स्थापित हुये इनमें दीवान कर्मचंद्र बच्छावत का नाम सिरमौर है जो बादशाह अकबर के परम मित्र और विश्वसनीय व्यक्ति थे।
वि० [सं० १५२२ आसोज सुदि १० को मंडोर (जोधपुर) से गौरे भैंरूजी की मूर्ति को साथ लेकर राव बीकाजी के साथ १०० घुड़सवार, ५०० पैदल सैनिकों के साथ इस जांगल प्रदेश में आये और आस-पास की पूरी धरती पर अपना कब्जाकर वि० सं० १५४५ वैसाख सुदि २ शनिवार को बीकानेर के किले की जो राती घाटी में स्थित हैउसकी नींव माता करणीजी के हाथ से लगवाई, जिसके लिये निम्न दोला अभी तक प्रसिद्ध है -
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जैन विद्या के आयाम खण्ड-७ पनरै सौ पैंतालबें, सुद बैसाख सुमेर।
संवत १५४१ में प्रारम्भ कराया गया था और मूलनायक की प्रतिष्ठा थावर बीज थरपियौ, बीकै बीकानेर ।।
वि० सं० १५७१ में संपन्न हुई। इसके शिलालेख का पाठ इस प्रकार बीकानेर स्थापना के बाद से ही दिन दूना और रात चौगुना श्री हैएवं समृद्धि से समृद्ध होता रहा और इसके लिये भी निम्न दोहा प्रसिद्ध १.संवत १५७१ वर्षे आसौ
२.सुदी २ रवौ राजाधिराज ऊंट मिठाई इसतरी, सोनोगहणो साह ।
३. श्री लूणकरण जी विजय राज्ये पाँच चीज पृथ्वी सिरै, बाह बीकाणा वाह ।।
४.साह भांडा प्रासाद नाम तेलोभारत की आजादी के बाद राजस्थान में भी देशी-रियासतों का ५.क्य दीपक करापितं सूत्र० पुनर्गठन हुआ है तो बीकानेर राज्य के तीन जिले हो गये - (१) बीकानेर ६.गौदा कारित (२) श्रीगंगानगर (३) चुरु । बीकानेर जिला मरुभूमि की गोद में निर्माण की शैली भी दृष्टि से ५२ प्रकार के जिनालय होते हैं, राजस्थान में आथूणै-उतरादै २७.११ और २९०३ उत्तरी अक्षांश और उनमें से यह त्रैलोक्य दीपक' शैली का है एवं इसका निर्माण कार्य ७१५४ और ७४.१२ पूर्वी देशान्तर पर स्थित है । प्रस्तुत आलेख में सूत्रधार गौंदा की देखरेख में सम्पन्न हुआ। बीकानेर शहर के एक जैन प्रासाद-भाण्डासर जैन मंदिर की वास्तुकला इस मंदिर के निर्माण से सम्बन्धित एक घटना ४८३ वर्ष जाने पर प्रकाश डालने का प्रयत्न किया गया है।
के बाद आज भी जन-जन की जुबान पर है एवं यह घटना बताती है बीकानेर में सबसे प्राचीन जैन मंदिर श्री चिन्तामणि जी का है कि पूर्वजों में धर्म का मर्म समझने की कितनी विलक्षण बुद्धि थी एवं जो कन्दोई बाजार (भुजिया बाजार) में है जिसकी प्रतिष्ठा वि० सं०१५६१ वे किस प्रकार एक-एक बूंन्द द्रव्य का सदुपयोग करना जानते थे। बैसाख सुदि रविवार को हुई और उसके बाद दूसरा प्राचीन मंदिर इस मंदिर के निर्माता शाह भांडा घी का व्यापार करते थे। एक 'भाण्डासर मंदिर' है जिसकी प्रतिष्ठा वि० सं० १५७१ आसौज सुदि दिन घी के मटके में एक मक्खी गिर गयी । शाह ने तुरन्त मक्खी को २ को हुई । यहाँ यह उल्लेखनीय है कि इस भाण्डासर प्रासाद को लेकर निकाल कर उंगली की सहायता से फेंक दिया, लेकिन मक्खी फेंकने अनेक विद्वानों ने उसके अलग-अलग पक्षों को लेकर आलेख प्रकाशित से भूमि पर दो चार बूँदें घी की भी गिर गयी तो उन्होंने उठकर भूमि पर करवाये हैं। किन्तु मैने अपने जीवन काल में जब जब इस प्रासाद का पड़ी घी की बूंदों को वापिस उंगली की सहायता से पड़ी अपनी जूती अवलोकन किया, मुझे इस प्रासाद की निर्माण शैली में कुछ न कुछ नया पर रगड़ दिया । इस समय मंदिर का निर्माण कार्य देखने वाला मिस्त्री ही नजर आया।
वहाँ पास में खड़ा था । वह सेठ की यह हरकत देखकर अपने मन में इस मंदिर का सूत्रधार जैसलमेर का गोदा नाम का व्यक्ति सोचने लगा कि यह व्यक्ति क्या मंदिर बनवायेगा? अत: उसने सेठ के था। इसके निर्माण कार्य में मुख्यरूप से जैसलमेर का टिकाऊ पत्थर मन की थाह लेने के लिए कहा कि सेठ जी इस मंदिर को निरुपद्रव एवं
और खारी के लाल पत्थर का उपयोग हुआ। इसके भव्य रंग-मंडप, सुदृढ़ बनाने के लिये इसकी नींव में घी डालने की जरूरत है। इतना विशाल गंबज और शिखर की निर्माण कला इतनी सुन्दर है कि आदमी कहकर वह तो चला गया और जब दूसरे दिन सुबह आया तो यह उसको देखते ही भाव विभोर हो उठता है । इस तिमंजिले भव्य जिनालय देखकर विस्मित रह गया कि नींव में घी डाला जा रहा है तन्त उसने का शिखर भारत के सर्वोच्च शिखरों में से एक है। मंदिर को विशालता सेठ के पैर पकड़ लिये और सही बात बयान कर दी। इस बात से लगाई जा सकती है कि इसके परकोटे की लम्बाई सामने उनकी बात सुनकर सेठ ने कहा कि उस भूमि पर गिरे हुए घी से १७७ फुट और पीछे से १९० फुट है। इसी प्रकार इसकी चौड़ाई पर चींटियां जमा हो जाती और अनजाने में उन पर पैर पड़ने से जीव सामने से १४५ फुट ६ इंच और पीछे से १०५ फुट ६ इंच है। मूल हिंसा होती जब कि जूती पर घी चुपड़ने से जूती मजबूत होगी और हिंसा मंदिर की लम्बाई ७२ फुट ६ इंच व बाह्य मण्डप २२ फुट ६ इंच, रूकेगी। उन्होनें कहा कि सद् कार्यों में द्रव्य का उपयोग करो दुरुपयोग कुल ९५ फुट है। इसी प्रकार इसकी पीछे की चौड़ाई ५२ फूट ६ इंच नहीं।
और सामने की ओर ३९ फट बैठती है । तीन मंजिला होने के इसके निर्माण के लिए जैसलमेर से पत्थर मंगाया गया था एवं फलस्वरूप व नगर में ऊँचे स्थान पर निर्मित होने के कारण इसकी यहां का पानी खारा होने के कारण निर्माण कार्य के लिए पानी यहाँ से समतल भूमि से ऊँचाई ११८ फुट और मंदिर के फर्श से ३९ फुट है। ८ मील दूर 'नाल' नामक गांव से मँगाया गया ताकि मंदिर सुदृढ़ रहे । इसी भांति मंदिर परकोटे का ओसार १० फुट चौड़ा उठाया हुआ है और उन व्यक्तियों की सूझ-बूझ का ही परिणाम है कि आज लगभग ५०० ऊपर की ओर कंगूरे २ फुट ६ इंच चौड़े हैं।
वर्ष व्यतीत हो जाने पर भी यह मंदिर उसी शान से सीना ताने खड़ा है। इस मंदिर का निर्माणकार्य शाह भाना के पुत्र शाह भांडा द्वारा पीले पाषाण के शिखर पर संगमरमर के सफेद चूने से पलस्तर किया
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हुआ है।
पार्श्वभाग में भी अति सुन्दर विभिन्न वाद्य यन्त्र लिए हुए चित्र बने हुए हैं। मंदिर की भमती (फेरी) तीन फेरियों के रूप में है। चौमुख मुख्य प्रवेश द्वार पर तीर्थङ्करों के जन्माभिषेक का चित्र बना हुआ है। सभी प्रतिमा होने के कारण पहली फेरी गर्भगृह में है, दूसरी फेरी चार भागों खम्भों एवं अन्य खाली स्थानों पर सुन्दर फूलपत्ती का अकंन है। में विभक्त है, क्योंकि चारों ओर दर्शनार्थ जगह रखी गई है। इन चार मंदिर का फर्श सुन्दर संगमरमर का है एवं फर्श में भी अनेकों भागों में प्रत्येक भाग में काउसग्ग मुद्रा में ६तीर्थङ्कर मूर्तियां, दो यक्ष सुन्दर-सुन्दर नमूने बनाये गये हैं, जिनका निर्माण आज असंभव सा मूर्तियां एवं चार नृत्यांगनाएं बनी हुई हैं। इस प्रकार पूरी भमती में २४ प्रतीत होता है। इस मंदिर का विकास क्रम बीसवीं सदी में भी नहीं रुका जिन मूर्तियां, ८ यक्ष एवं १६ नृत्यांगनाएं बनी हुई है। कुल ४८ मूर्तियां और इस सदी के प्रारंभ में ही इसे चित्रकला के माध्यम से सजाने का
काम हाथ में लिया गया । बीकानेर के ही चित्रकार मरादबख्श ने मूल नायक के ऊपर विशाल छत्री बनी हुई है, जिसके चारों वि० सं० १९६० में चार वर्ष तक निरन्तर कार्य करके अनेक चित्र एवं खम्भों व वेदी पर शुद्ध स्वर्ण से मनोत का अत्यन्त मनोहारी काम किया सोने की मनोती का कार्य कर मंदिर के सौन्दर्य में अभिवृद्धि की । हआ है । सभा मण्डप को सजाने में भी चित्रकारों ने कोई कसर नहीं उपरोक्त आलेख मेरी दृष्टि में जैन वास्तुकला और चित्रकला के नये छोड़ी और अपने हुनर का स्वर्णिम प्रदर्शन किया है। मंदिर के अन्दर आयामों को समझने में सक्षम होगा। वर्तमान में इसकी प्रबन्ध व्यवस्था विभिन्न जैन कथाओं से सम्बन्धित सैकड़ों चित्र बने हुए हैं जो ऐसे लगते श्री चिन्तामणि जैन मंदिर प्रन्यास नामक संस्था कर रही है। हैं कि अभी मुंह से बोलने वाले हैं। इसके अलावा सभी दरवाजों के
जैन परम्परा के विकास में स्त्रियों का योगदान
डॉ० अरुण प्रताप सिंह
जैन परम्परा की विशेष प्रसिद्धि त्याग, तपस्या, संयम एवं भयभीत व्यक्ति का कथन है जो आध्यात्मिक विकास के मार्ग में स्त्री को निवृत्तिमूलक गुणों के कारण है । वह व्यक्ति में उन मानवीय मूल्यों के बाधक समझता है। इन्हीं ग्रन्थों में जो अत्यल्प उदाहरण प्राप्त हैं, उनसे विकास का प्रयास करती है जिससे व्यक्ति सच्चे अर्थों में मनुष्य बन स्पष्ट है कि पंक स्त्रियां नहीं, पुरुष भी है । वही उसे पथ-भ्रष्ट करना सके । जैन परम्परा सामाजिक एवं धार्मिक सहिष्णुता में विश्वास करती चाहता है और इसका प्रयास भी करता है । उत्तराध्ययन में वर्णित है। वीतरागता का भाव जिस किसी में भी हो, उसके लिए वन्दनीय है। राजीमती एवं रथनेमि का उदाहरण इसका प्रमाण है । राजीमती भोजकुल इस प्रकार यह परम्परा सर्वधर्मसमभाव से अनुप्राणित है। इसका विश्वास के नरेश उग्रसेन की एक संस्कारित पुत्री थी, जिसका विवाह श्रीकृष्ण है कि यदि व्यक्ति अपने अन्तर्निहित गुणों का विकास कर ले तो वह के भ्राता अरिष्टनेमि से होना निश्चित हुआ था। अरिष्टनेमि के संन्यास स्वयं तीर्थंकर बन सकता है। तीर्थंकर आध्यात्मिक गुणों के विकास की ग्रहण करने के उपरान्त राजीमती ने अपने मनसास्वीकृत पति के मार्ग सर्वोच्च अवस्था है।
का अनुसरण किया। राजीमती का विधिवत विवाह नहीं हुआ था, वह इतनी उत्कृष्ट अवधारणाओं से संपृक्त जैन परम्परा के विकास चाहती तो पुनर्विवाह कर सकती थी - इसके लिए कोई भी नैतिक या में स्त्री-पुरुष दोनों का प्रंशसनीय योगदान है। फिर भी स्त्रियों का योगदान धार्मिक अवरोध नहीं था; परन्तु सारे वैभव एवं सांसारिक सुखों को तो अति महत्त्वपूर्ण है । अंग साहित्य में "भिक्खु वा-भिक्खुणी वा" तिलांजलि देकर मनसास्वीकृत पति के मार्ग का अनुसरण कर उसने तथा “निग्गन्थ वा निग्गन्थी वा" का उद्घोष न केवल नारी की महत्ता जिस त्याग का परिचय दिया, यह पूरे भारतीय साहित्य में अनुपम है, को मंडित करता है, अपितु उनके योगदान को भी रेखांकित करता है। अद्वितीय है । संन्यास के मार्ग में भी उसका आचरण स्पृहणीय है,
जैन परम्परा के आदर्शों एवं मान्यताओं को अक्षुण्ण रखने में वंदनीय है । एकदा अरिष्टनेमि के दर्शन के लिए जा रही राजीमती के स्त्रियों की सार्थक भूमिका थी। सूत्रकृतांगकार को यद्यपि यह कहने में वस्त्र वर्षा के कारण भीग जाते हैं। वहीं एक गुफा में वस्त्र सुखा रही कोई संकोच नहीं है कि स्त्रियाँ हलाहल विष तथा पंक के समान हैं। राजीमती को नग्न अवस्था में देखकर रथनेमि का चित्त विचलित हो यह पुरुष प्रधान समाज का ही दुष्परिणाम है जहाँ हर व्यक्तिगत या जाता है। वे विवाह का प्रस्ताव करते हैं । राजीमती जिस दृढ़ इच्छा सामाजिक बुराई को स्त्री के मत्थे मढ़ दिया जाता है, वास्तव में यह एक शक्ति का परिचय देती है, वह जैन परम्परा की अमूल्य धरोहर है ।
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जैन विद्या के आयाम खण्ड-७ राजीमती धिक्कारते हुए रथनेमि से कहती है कि हे रथनेमि तू यदि ज्ञाताधर्मकथा में थावच्चापुत्र का वर्णन है जो अपनी माता का साक्षात इन्द्र भी हो तब भी मैं तेरा वरण नहीं कर सकती हूँ। वह उन्हें एकमात्र पुत्र था । पुत्र का संकल्प जानने पर उसकी माता थावच्चा स्वयं क्रोध, मान, माया, लोभ का निग्रह करने तथा इन्द्रियों को वश में करने श्रीकृष्ण के पास जाती है और उनसे छत्र, मकट और चामर प्रदान करने का उपदेश देती है । उसके दृढ़ चरित्र का ही परिणाम था कि रथनेमि का निवेदन करती है जिससे वे अपने पुत्र का अभिनिष्क्रमण संस्कार को अपनी भूल का एहसास होता है और वे सुस्थिर चित्त होकर पुनः सम्यक्रूपेण कर सके ।११ इस तरह के अनेक उदाहरण जैन ग्रन्थों में तप मार्ग का अवलम्बन ग्रहण करते हैं।
भरे पड़े हैं । इन प्रमाणों से स्त्रियों के योगदान का मूल्यांकन किया जा ऐसी घटनाओं का अत्यधिक महत्त्व होता है । व्यक्ति के सकता है । आचरण से ही किसी धर्म या पंथ का प्रचार-प्रसार होता है तथा वह जैनधर्म के चतुर्विध संघ में भिक्षुणी-संघ एवं श्राविका संघ का लोगों की श्रद्धा का केन्द्र बनता है । आचरण से ही सांस्कृतिक परम्परा अपना विशिष्ट महत्त्व है। संसार त्याग कर तप-तपस्या का पथानुसरण विकसित होती है, अन्यथा तो वह कोरा किताबी ज्ञान बनकर रह जाती। करने वाली भिक्षणियों एवं संसार में रहकर घर-गृहस्थी का भार संचालन राजीमती का आचरण एक ऐसा आदर्श है जो कई शताब्दियों के बाद करने वाली श्राविकाओं ने जैन परम्परा के विकास में महत् योगदान दिया आज भी हमें प्रेरित कर रहा है।
है। जैन आचार्यों ने संघ को सुचारु रूप से चलाने के लिए नियमों की जैन परम्परा एवं आदर्शों को अक्षुण्ण रखने में स्त्रियों का व्यवस्था की । सभी प्राचीन ग्रन्थों के अनुशीलन से स्पष्ट है कि नियमों अनुपम योग था । संघ में प्रवेश लेने के समय पत्नी एवं माता की के पालन के सम्बन्ध में भिक्षु-भिक्षुणियों में कोई भेद नहीं किया गया। अनुमति आवश्यक थी । यदि वे अपने पुत्रों-पतियों को सहर्ष अनुमति जैन भिक्षुणियाँ उन नियमों के पालन में कसौटी पर खरी उतरीं। उनके न देतीं तो जैन संघ में भिक्षु-भिक्षुणियों की इतनी अधिक संख्या न द्वारा नियमों का उल्लंघन किया गया हो - इसकी कोई स्पष्ट सूचना ग्रन्थों होती। अपने एकमात्र पुत्र तक को वे भिक्षु बनाने में कोई अवरोध नहीं से नहीं प्राप्त होती । सुकुमालिका १२, काली' आदि भिक्षणियों के कुछ बनती थीं - यदि माता एवं पत्नी के स्नेह को तौलने का कोई तराजू होता उदाहरण अवश्य हैं, परन्तु वे अपवादस्वरूप हैं । ज्ञाताधर्मकथा में तो उस पर तौल कर उनके त्याग के अवदान का अनुमान लगाया जा सुकुमालिका का जो वृत्तान्त दिया गया है, वह महाभारत के प्रसिद्ध नारी सकता है । युवती कन्याओं का पूरा भविष्य सामने मुँह बाये खड़ा रहता पात्र द्रौपदी के पूर्वभव से सम्बन्धित है । द्रौपदी का पाँच पुरुषों के साथ था, वृद्ध माताओं का जर्जर शरीर अवरोधक का काम कर सकता था, विवाह का पूर्व कारण क्या था - कथा के माध्यम से इस पर प्रकाश परन्तु इन युवती कन्याओं एवं वृद्ध माताओं के समक्ष जैन परम्परा के डाला गया है । वस्तुत: यह घटना अपवादस्वरूप ही है - अन्यथा ग्रन्थों आदर्श एवं मान्यताएँ थीं जिसके शनै:-शनै: विकास का उत्तरदायित्व भी में वर्णित प्राय: सभी भिक्षुणियाँ त्याग-तपस्या की जीवन्त प्रतिमाएँ उन्हीं पर था । नारियों ने अपने गुरुतर दायित्व का मूल्यांकन किया। दिखायी पड़ती हैं। ये भिक्षणियां ध्यान एवं स्वाध्याय में लीन रहकर उन्होंने अपने सांसारिक सुखों के आगे उन आदर्शों एवं मान्यताओं को चिन्तन-मनन किया करती थीं । अन्तकृद्दशा में यक्षिणी आर्या के प्रश्रय प्रदान किया जो अक्षुण्ण थीं तथा निरन्तर प्रवाहमान थीं। सान्निध्य में पद्मावती' तथा चन्दना आर्या के सान्निध्य में काली" आदि
जैन धर्म के नियमों से अवगत श्रावक-पत्नियों ने परिवार की भिक्षणियों को ग्यारह अंगों का अध्ययन करने वाली बताया गया है। परम्परा को अक्षुण्ण रखा । वे स्वयं धर्म में श्रद्धा रखती थीं तथा अपने इसी प्रकार ज्ञाताधर्मकथा१६ में सुव्रता और द्रौपदी को ग्यारह अंगों में पत्रों एवं पतियों को प्रोत्साहन भी देती थीं। पति के प्रतिकूल होने पर निष्णात बताया गया है। जैन भिक्षणियों की विद्वत्ता के प्रमाण हमें बौद्ध भी उससे अविरक्त न रहने वाली पत्नी ही प्रशंसनीय मानी गई थी। ग्रन्थों से भी होते हैं । थेरी गाथा की परमत्थदीपनीटीका में भद्राकुण्डलकेशा१७ श्रावक आनन्द की पत्नी शिवानन्दा का ऐसा ही आदर्श चरित्र उपासकदशांग तथा नंदुत्तरा८ का उल्लेख प्राप्त होता है जिन्होंने क्रमश: महान् बौद्ध में वर्णित है ।" इसी ग्रन्थ में चुलनीपिता का उल्लेख है। देवोपसर्ग से भिक्षु सारिपुत्र एवं महामौद्गल्यायन के साथ शास्त्रार्थ किया था। ये विचलित होने पर इसकी माता ने ही उपदेश देकर धर्म में दृढ़ रहने को भिक्षुणियाँ तर्कशास्त्र में निष्णात थीं। प्रोत्साहित किया। इसी प्रकार सुरादेव की पत्नी धन्या एवं चुल्लशतक ध्यान एवं स्वाध्याय के क्षेत्र में ही नहीं, तपस्या के क्षेत्र में भी की पत्नी बहला का वर्णन है जिन्होंने अपने पतियों की देवोपसर्ग से जैन भिक्षणियाँ प्रशंसा की पात्र थीं । अन्तकृद्दशा में भिक्षणी पद्मावती रक्षा की तथा सुस्थिर मन से धर्म में दृढ़ रहने का उपदेश दिया। इन द्वारा उपवास, बेला, तेला, चोला, पंचोला से लेकर पन्द्रह-पन्द्रह दिन स्त्रियों की अपनी प्रशंसनीय भूमिका के कारण ही सकडालपुत्र की पत्नी की एवं महीने-महीने तक की विविध प्रकार की तपस्याएँ करने के अग्निमित्रा को धर्म सहायिका, धर्मवैद्या, धर्मानुरागरक्ता, समसुखदुःख उल्लेख हैं । इसी ग्रन्थ में भिक्षुणी काली की तपस्या का भी वर्णन है। सहायिका कहा गया है । चुलनीपिता की माता को देव एवं गुरु के रत्नावली तप करने के पश्चात् आर्याकाली का शरीर माँस और रक्त से सदृश पूजनीय कहा गया है ।" मर्यादा की रक्षा हेतु माताएं अपने रहित हो गया था, उनके शरीर की धमनियाँ प्रत्यक्ष दिखायी देती थीं, एकमात्र पुत्र तक को संघ में भेजने को तत्पर रहती थीं। शरीर इतना कृश हो गया था कि उठते-बैठते उनके शरीर से हड्डियों की
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जैन परम्परा के विकास में स्त्रियों का योगदान आवाज उत्पन्न होती थी।
स्वीकार करें तो भी हम यह पाते हैं कि उनमें श्रावकों की संख्या तप, स्वाध्याय एवं ध्यान में अपना सम्पूर्ण जीवन व्यतीत १,५९,००० तथा श्राविकाओं की संख्या ३,१८,००० थी। इसी करने वाली इन साध्वियों ने जैन धर्म की महान परम्परा को पल्लवित प्रकार भिक्षु-भिक्षुणी संघ में भी भिक्षुणियों की संख्या भिक्षुओं की तुलना एवं पुष्पित किया। इन साध्वियों ने जैन धर्म के प्रचार एवं प्रसार में में अधिक है। अन्य तीर्थंकरों के चतुर्विध संघों में भी भिक्षुणियों एवं अमूल्य योगदान दिया । इसका क्रमबद्ध इतिहास तो नहीं लिखा जा श्राविकाओं की संख्या पुरुषों से अधिक है । संख्या की यह अधिकता सकता परन्तु यह विचार अवश्य किया जा सकता है कि जैन धर्म के संघ में उनकी क्रियाशीलता को दर्शाती है एवं तत्परिणामस्वरूप उनके प्रसार में उनका योगदान अमूल्य था । जैन धर्म के प्रचार-प्रसार हेतु योगदान को रेखांकित करती है । जैन संघ में उल्लिखित यह संख्या भिक्षओं एवं आचार्यों के साथ वे भी उन प्रदेशों में गईं जो अपरिचित कवि की कल्पना-प्रसूत नहीं है अपित् सुस्पष्ट प्रमाणों पर आधारित है। थे एवं जहाँ जाना कष्ट साध्य था।
पुरातात्त्विक प्रमाण हमें बहुलता से नहीं प्राप्त होते, परन्तु जो भी प्राप्त जैनधर्म के प्रसार एवं उसकी परम्परा को अक्षुण्ण रखने में हैं उनसे उपर्युक्त तथ्य की पुष्टि होती है। उदाहरणस्वरूप हम मथुरा के भिक्षुणियों के समान श्राविकाओं का भी अप्रतिम योगदान है। श्रावक जैन लेखों का अध्ययन करें । मथुरा के लेख क्षाण सम्राट कनिष्क एवं श्राविकाओं के योगदान के कारण ही इन्हें संघ का विशिष्ट अंग बनाया उसके उत्तराधिकारियों के समय के हैं । कनिष्क एक सुप्रसिद्ध बौद्ध नरेश गया । धर्मरूपी रथ के दो चक्रों की कल्पना की गई जिसमें एक चक्र के रूप में भी मान्य है। निश्चय ही जैन संघ के लिए यह बहुत अनुकूल को भिक्ष-भिक्षणियों से तथा दूसरे चक्र को श्रावक-श्राविकाओं से परिस्थिति नहीं रही होगी। इस स्थिति में भी मथा में जैन मन्दिरों एवं सम्बन्धित किया गया । श्राविकाओं ने ही साधु-साध्वियों को दैनिक चैत्यों के निर्माण में स्त्रियों की बहुसंख्या में सहभागिता हमें आश्चर्य में आवश्यकताओं की चिन्ता से मुक्त किया । जैनधर्म के विकास में यह डाल देती है। यहाँ जैन धर्म के प्रचार-प्रसार हेतु बहुमूल्य दान करती उनका महती योगदान था। श्राविकाओं के इस योगदान के अभाव में हुई प्रदर्शित हैं। इनमें धनी एवं उच्च वर्ग की स्त्रियों के साथ ही धर्म रथ का चक्र निस्सन्देह सुचारु रूप से गति करने में समर्थ नहीं था। लोहकार२३, रंगरेज, गांधिक'५, स्वर्णकार२६, नर्तक आदि की पत्रियों, साधु-साध्वियों का आध्यात्मिक जीवन श्रावक-श्राविकाओं के इस योगदान पत्नियों एवं पुत्र-वधुओं के दान का भी उल्लेख है। इनमें गणिकाओं२८ का अत्यन्त ऋणी रहेगा।"
का भी नामोल्लेख है जो अपने अन्य सम्बन्धियों के साथ एक मन्दिर श्रावक-श्राविकाओं के योगदान की महत्ता को आचार्यों ने भी के लिए आयागपट्ट एवं तालाब के निर्माण हेतु दान देते हुए प्रदर्शित स्वीकार किया। उत्तराध्ययन में गृहस्थों को भिक्षु-भिक्षुणियों का माता- हैं। पिता बताया गया है। जैन ग्रन्थों में भिक्षुओं एवं श्रावक-श्राविकाओं के समाज के प्रत्येक वर्ग के स्त्रियों की यह सहभागिता जैन मध्य सम्बन्धों को विस्तार से निरूपित किया गया है। भिक्षओं को यह परम्परा के विकास में उनके स्वत: योगदान को सूचित करती है। बिना निर्देश दिया गया था कि वे किसी श्रावक के ऊपर भार न बनें । जैसे किसी दबाव एवं राजकीय आकर्षण के स्त्रियों का यह अवदान जैन धर्म भ्रमर प्रत्येक फूलों का रस ग्रहण करता है और उन्हें कोई कष्ट नहीं के प्रसार में उनकी महत्त्वपूर्ण भूमिका को स्पष्ट करता है। समाज के पहुँचाता उसी प्रकार भिक्षुओं को यह सुझाव दिया गया था कि वे प्रत्येक उच्च एवं निम्न वर्ग के साथ समान सम्पर्क ने जैनधर्म को अक्षुण्ण बनाये श्रावक परिवार पर पूर्णतया अवलम्बित न रहें ।२१ भिक्षुओं का श्रावक- रखा एवं उसको निरन्तर गति प्रदान की। श्राविकाओं से सम्पर्क जैनधर्म के विकास में मील का पत्थर साबित
जैन धर्म परम्परा के विकास में स्त्रियों के योगदान सम्बन्धी ये हआ। भारत से बौद्ध धर्म के समाप्तप्राय एवं जैन धर्म के निरन्तर उदाहरण प्राचीन ग्रन्थों से उद्धृत हैं। कालान्तर में जैनधर्म में भी पुरुष विकसित होने में उपर्युक्त कारक ने महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई। श्रावक- की प्रधानता को स्वीकार कर लिया गया - फलस्वरूप समाज में नारी श्राविकाओं से जैन आचार्यों का सम्पर्क निरन्तर बना रहा और आज भी का स्थान गौण होता चला गया और उनकी भूमिका महत्त्वहीन हो गयी। है। इसके विपरीत बौद्ध धर्म अपने उपासक-उपासिकाओं से शनैः-शनैः २१वीं शताब्दी के आने वाले समय में हमें समाज में नारी की सार्थक कटता हुआ मठों एवं चैत्यों तक सीमित रह गया। मठों एवं चैत्यों के भूमिका की तलाश करनी है। इसमें प्राचीन साहित्य एवं अभिलेख हमारे विध्वंस होने पर समाज में उनको पहचानने वाला भी कोई न रहा। लिए मार्ग दर्शक सिद्ध हो सकते हैं। हमें उनकी प्रतिष्ठा एवं सम्मान जबकि समाज की उर्जा शक्ति अर्थात् श्रावक-श्राविकाओं का प्रोत्साहन के लिए नया क्षेत्र सृजित नहीं करना है, अपितु पहले से ही प्राप्त उनकी जैनधर्म को निरन्तर उत्साहित किये रहा ।
प्रशंसनीय भूमिका को पुनः प्रतिष्ठित करना है। जैनधर्म के विकास, प्रसार एवं परम्परा को स्थायित्व प्रदान
सन्दर्भ करने में ऊपर हमने जिन श्रावक-श्राविकाओं के योगदान की चर्चा की है - उनमें श्राविकाओं का योगदान सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण है । यदि जैनधर्म १. सूत्रकृतांग (आगम प्रकाशन समिति, व्यावर, राजस्थान, १९८२), के सभी तीर्थंकरों में हम केवल महावीर की ही ऐतिहासिकता को १/४/१/१०-११; उत्तराध्ययन (वीरायतन प्रकाशन, आगरा
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जैन विद्या के आयाम खण्ड-७ १९७२ गच्छाचार (आगम प्रकाशन समिति), ७०, ८४
भिक्षणी संघ (पार्श्वनाथ विद्याश्रम शोध संस्थान, वाराणसी, १९८६), २. उत्तराध्ययन, २२/२९
पृ. ३२-६० ३. “जई सि रूवेण वेसमणो, ललिएण नलकूबरो।
२२. "Itisevident that the lay part ofthe community were तहा वि ते न इच्छामि, जइ सि सक्खं पुरन्दरो ।'
not regarded as outsiders, as seem to have been ४. वही, २२/४७/-४९
the case in early Buddhism; their position was, from ५. उपासकदशांग (आगम प्रकाशन समिति, व्यावर, १९८२), पृ.११
the beginning, well defined by religious ६. वही, पृ. ११३
duties and privilages. The bond which united them
to the order of monks was an effective one it can ७. वही, पृ. १२१
not be doubted that this close union between lay८. वही, पृ. १२६
men and monks brought about by the similarity of ९. वही, पृ. १६४
their religious duties differing not in kind but in de१०. वही, पृ. १०८
gree enabled jainism to eavoid fundamental changes ११. ज्ञाताधर्मकथा (आगम प्रकाशन समिति, व्यावर), १/५, पृ.१६२
within and to resist dangers from with out for more १२. वही, १/१६
them two thousand years, while Buddhism, being १३. अन्तकृद्दशा (श्री आत्माराम जैन प्रकाशन समिति, लुधियाना).
less exacting as regards the lay men underwent the ___अष्टम वर्ग।
most extraordinary evolutions and finally disap१४. वही, पंचम वर्ग,
peared altogether in the country of its origin". १५. वही, अष्टम वर्ग
- Jacobi, H.; Jainism, Encyclopaedia of Religion १६. ज्ञाताधर्मकथा, १/१६
and Ethicss, Vol. VII, p. 470 १७. थेरीगाथा, परमत्थदीपनी टीका, ४६
२३. List of Brahmi Inscriptions (Ed. H. Luders Berlin, १८. वही, ४२
Indological Book House, Varanasi, 1972),
329,53,54. १९. अन्तकृद्दशा, पंचम वर्ग २०. "तएणं सा काली अज्जा तेणं ओरालेणं जाव धमणि संतया जाया .
२४. Ibid, 32.
२५. Ibid, 37,68,76. या वि होत्था । से जहा नामए इंगालसगडी वा जाव सुहुयहुयासणे ।
२६. Ibid, 95. इंव भासरासिपलिच्छण्ण, तवेणं तेएणं तवतेयसिरीए अईव
२७. Ibid, 100. उवसोभेमाणी चिट्ठई।
- वही, अष्टम वर्ग २८. Ibid. 102. २१. दशवैकालिक, १/२-४; विस्तार के लिए देखें - जैन और बौद्ध
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जैन साहित्य और शिल्प में वाग्देवी सरस्वती
डॉ० मारुतिनन्दन तिवारी
___ संगीत, विद्या और बुद्धि की अधिष्ठात्री देवी सरस्वती भारतीय साहित्य में : देवियों में सर्वाधिक लोकप्रिय रही हैं। भारतीय देवियों में केवल लक्ष्मी अंगविज्जा, पउमचरिय और भगवतीसूत्र जैसे प्राचीन ग्रन्थों में (समृद्धि की देवी) एवं सरस्वती ही ऐसी देवियाँ हैं जो भारत के ब्राह्मण, सरस्वती का उल्लेख मेधा और बुद्धि की देवी के रूप में है। एकाणंसा बौद्ध और जैन तीनों प्रमुख धर्मों में समान रूप से लोकप्रिय रही हैं। सिरी बुद्धी मेधा कित्ती सरस्सती। -अंगविज्जा, अध्याय ५८ ब्राह्मण धर्म में सरस्वती को कभी ब्रह्मा की (मत्स्यपुराण) और कभी देवी के लाक्षणिक स्वरूप का निर्धारण आठवीं शती ई० में विष्णु की (ब्रह्मवैवर्तपुराण) शक्ति बताया गया है। ब्रह्मा की पत्री के रूप ही पूर्णता प्राप्त कर सका था । आठवीं शती ई० के ग्रंथ चतुर्विशतिका में भी सरस्वती का उल्लेख किया गया है। बौद्धों ने प्रारम्भ में सरस्वती (बप्पभट्टिसूरिकृत) में हंसवाहना सरस्वती को चतुर्भुज बताया गया है की पूजा बुद्धि की देवी के रूप में की थी, पर बाद में उसे मंजश्री की और उसकी भुजाओं में अक्षमाला, पद्म, पुस्तक एवं वेणु के प्रदर्शन का शक्ति के रूप में परिवर्तित कर दिया । ज्ञातव्य है कि मंजश्री बौद्ध देव- निर्देश है । वेणु का उल्लेख निश्चित ही अशुद्ध पाठ के कारण हुआ है। समूह के एक प्रमुख देवता रहे हैं। जैनों में भी सरस्वती प्राचीन काल
वास्तव में इसे वीणा होना चाहिए था। से ही लोकप्रिय रही हैं, जिनके पूजन की प्राचीनता के हमें साहित्यिक
प्रकटपाणितले जपमालिका कमलपुस्तकवेणुवराधरा । और पुरातात्विक प्रमाण प्राप्त होते हैं।
धवलहंससमा श्रुतवाहिनी हरतु मे दुरितं भुविभारती ।। प्रारंभिक जैन ग्रन्थों में सरस्वती का उल्लेख मेधा और बद्धि
-- चतुर्विशतिका
दसवीं शती ई० के ग्रन्थ निर्वाणकलिका (पादलिप्तसूरिकृत) की देवी के रूप में किया गया है, जिसे अज्ञान रूपी अंधकार का नाश
में समान विवरणों का प्रतिपादन किया गया है। केवल वेणु के स्थान करनेवाली बताया गया है । संगीत, ज्ञान और बुद्धि की देवी होने के
पर वरदमुद्रा का उल्लेख है । १४१२ ई० के ग्रन्थ आचारदिनकर कारण ही संगीत, ज्ञान और बुद्धि से संबधित लगभग सभी पवित्र प्रतीकों
। (वर्धमानसूरिकृत) में भी समान विवरणों का उल्लेख है । केवल (श्वेतरंग, वीणा, पुस्तक, पद्म, हंसवाहन) को उससे सम्बद्ध किया गया
या गया वरदमुद्रा के स्थान पर वीणा के प्रदर्शन का निर्देश है। था। जैन ग्रन्थों में सरस्वती का अन्य कई नामों से भी स्मरण किया गया, भगवती वाग्देवते वीणापस्तकमौक्तिकालवलयश्वेताब्जमण्डितकरे। यथा श्रुतदेवता, भारती, शारदा, भाषा, वाक्, वाक्देवता, वागीश्वरी,
- आचारदिनकर वाग्-वाहिनी, वाणी और ब्राह्मी । उल्लेखनीय है कि जैनों के प्रमुख
श्वेताम्बर ग्रन्थों के विपरीत दिगम्बर ग्रन्थ प्रतिष्ठातिलक (१५४३ उपास्यदेव तीर्थकर रहे हैं, जिनकी शिक्षाएं जिनवाणी', 'आगम' या ई०) में सरस्वती का वाहन मयूर बताया गया है । प्रतिमानिरूपण 'श्रत' के रूप में जानी जाती थीं । जैन आगम ग्रंथों के संकलन एवं सम्बन्धी ग्रंथों के अध्ययन से स्पष्ट है कि हंसवाहना (कभी-कभी लिपिबद्धीकरण का प्राथमिक प्रयास लगभग दूसरी शती ई० पू० के मयरवाहना) सरस्वती चतर्भजा होंगी और उनके करों में मख्यत: मध्य में मथुरा में प्रारंभ हुआ था। ऐसी धारणा है कि मथुरा में प्रारम्भ पुस्तक, वीणा तथा पद्म प्रदर्शित होगा। होने वाले सरस्वती-आन्दोलन के कारण ही जैन आगमिक ज्ञान का लिपिबद्धीकरण प्रारम्भ हुआ था और उसके परिणामस्वरूप ही आगमिक मूर्त अंकनों में : ज्ञान की अधिष्ठात्री देवी के रूप में सरस्वती को उसका प्रतीक बनाया जैन परम्परा में सरस्वती की मूर्तियों का निर्माण कुषाण-युग गया और उसकी पूजा प्रारम्भ की गई। आगमिक ज्ञान की अधिष्ठात्री से निरन्तर मध्ययुग (१२वीं शती ई०) तक सभी क्षेत्रों में लोकप्रिय रहा देवी होने के कारण ही उसकी भुजा में पुस्तक के प्रदर्शन की परम्परा है। मूर्तचित्रणों में सरस्वती को मुख्यत: तीन स्वरूपों में अभिव्यक्त प्रारम्भ हई । मथरा के कंकालीटीले से प्राप्त सरस्वती की प्राचीनतम जैन किया गया है - द्विभुज, चतुर्भुज और बहभज । ग्रंथों के निर्देशों के प्रतिमा में भी देवी की एक भुजा में पुस्तक प्रदर्शित है। कुषाणयुगीन अनुरूप ही मूर्त अंकनों में सरस्वती का वाहन हंस (या मयूर) है और उक्त सरस्वती मूर्ति (१३२ ई०) सम्प्रति राजकीय संग्रहालय, लखनऊ उनकी भुजाओं में मुख्यत: वीणा, पुस्तक एवं पद्म प्रदर्शित है । सरस्वती (क्रमांक जे-२४) में संकलित है।
को या तो पद्म पर एक पैर लटकाकर ललितमुद्रा में आसीन निरूपित किया गया है, या फिर स्थानक मुद्रा में खड़े रूप में ।
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जैन विद्या के आयाम खण्ड- ७
सरस्वती की प्राचीनतम मूर्ति कुषाणकाल (१३२ ई०) की है, जो मथुरा के कंकालीटीले से प्राप्त हुई है। जैन परम्परा की यह सरस्वती मूर्ति भारतवर्ष में सरस्वती प्रतिमा का प्राचीनतम ज्ञात उदाहरण है। द्विभुज सरस्वती का दोनों पैर मोड़कर पीठिका पर बैठे दर्शाया गया है | देवी का मस्तक और दक्षिण भुजा भग्न है। देवी की वामभुजा में पुस्तक प्रदर्शित है। भग्न दक्षिण भुजा में अक्षमाला के कुछ मनके स्पष्ट दिखाई पड़ते हैं । सरस्वती के दोनों पार्श्वों में दो उपासक आमूर्तित हैं, जिनमें से एक की भुजा में घट प्रदर्शित है और दूसरा नमस्कारमुद्रा में अवस्थित है । उल्लेखनीय है कि इस मूर्ति के बाद आगामी लगभग ४५० वर्षों तक यानी गुप्तवंश की समाप्ति तक जैन परम्परा की एक भी सरस्वती मूर्ति प्राप्त नहीं होती। सरस्वती मूर्ति का दूसरा उदाहरण सातवीं शती ई० का है। राजस्थान के वसंतगढ़ नामक स्थान से प्राप्त मूर्ति में द्विभुज सरस्वती को स्थानक मुद्रा में पद्मासन पर आमूर्तित किया गया है। पद्मासन के दोनों ओर मंगलकलश उत्कीर्ण हैं। सरस्वती की भुजाओं में पद्म और पुस्तक प्रदर्शित है। सरस्वती भामण्डल हार, एकावली एवं अन्य सामान्य अलंकरणों से सज्जित है। द्विभुज सरस्वती की अन्य मूर्ति राजस्थान के ही राणकपुर जैन मन्दिर (जिला पाली) से प्राप्त है । इसमें सरस्वती को दोनों हाथों से वीणावादन करते हुए दर्शाया गया है। समीप ही हंसवाहन उत्कीर्ण है।
"
-
"
सरस्वती की संगमरमर की एक मनोहारी प्रतिमा राजस्थान के गंगानगर जिले के पल्लू नामक स्थान में है। १०वीं ११वीं शती ई० की इस मूर्ति में चतुर्भुज सरस्वती को साधारण पीठिका पर खड़ा दर्शाया गया है। पीठिका पर हंसवाहन और हाथ जोड़े उपासक आकृतियाँ निरूपित है । अलंकृत कांतिमण्डल से युक्त देवी के शीर्षभाग में तीर्थंकर की लघु आकृति उत्कीर्ण है। देवी के ऊर्ध्व दक्षिण और बाम करों में क्रमशः सनालपद्म और पुस्तक प्रदर्शित है, जब कि निचले करों में वरद-अक्षमाला और कमण्डल स्थित है। सरस्वती के दोनों पार्थो में वेणु और वीणावादिनी स्त्री आकृतियाँ आमूर्तित हैं । सरस्वती - मूर्ति के दोनों पार्श्वों और शीर्ष भाग में अलंकृत तोरण उत्कीर्ण है, जिस पर जैन तीर्थकरों महाविद्याओं, गन्धवों और गज व्यालों की आकृतियाँ उत्कीर्ण हैं। देवी कई प्रकार के हारों, करण्डमुकुट, वनमाला, धोती, बाजूबन्द, मेखला, कंगन और चूड़ियों जैसे अलंकरणों से सुभोभित है। मूर्ति सम्पति बीकानेर के गंगा गोल्डेन जुबिली संग्रहालय (क्रमांक २०३) में है । समान विवरणों वाली कई मूर्तियाँ खजुराहो (मध्यप्रदेश), तारंगा एवं विमलवसही और सेवाड़ी जैसे जैन स्थलों में हैं। ऐसी एक मूर्ति राष्ट्रीय संग्रहालय, दिल्ली (क्रमांक- १/६/२७८) में भी शोभा पा रही है।
झांसी जिले के अन्तर्गत देवगढ़ में भी ग्यारहवीं शती ई० की एक मनोज्ञ सरस्वती-मूर्ति है । जटामुकुट से सुशोभित चतुर्भुज सरस्वती स्थानकमुद्रा में सामान्य पीठिका पर खड़ी हैं। सरस्वती की भुजाओं में अक्षमाला व्याख्यानमुद्रा, पद्म वरदमुद्रा और पुस्तक प्रदर्शित है। मूर्ति के शीर्षभाग में तीन लघु तीर्थंकर मूर्तियाँ और पार्श्वों में चार सेविकाएँ
हैं
आमूर्तित हैं। सरस्वती की दो मूर्तियाँ ब्रिटिश संग्रहालय में भी संकलित राजस्थान से प्राप्त ११वीं १२वीं शती ई० की पहली मूर्ति में चतुर्भुज सरस्वती त्रिभंग में खड़ी हैं। देवी की दो अवशिष्ट वाम भुजाओं में अक्षमाला और पुस्तक प्रदर्शित है। शीर्षभाग में पाँच लघु तीर्थंकरमूर्तियाँ एवं पीठिका पर सेवक और उपासक आमूर्तित हैं । दूसरी मूर्ति संवत् १०९१ (१०३४ ई०) में तिव्यकित है। लेख में स्पष्टतः वाग्देवी का नाम खुदा है। बड़ौदा संग्रहालय की ११वीं - १२वीं शती ई० की हंसवाहना चतुर्भुज सरस्वती मूर्ति में देवों के हाथों में वीणा, वरद-अक्षमाला, पुस्तक एवं जलपात्र प्रदर्शित हैं। पार्श्ववर्ती चामरधारिणी सेविकाओं से सेव्यमान सरस्वती विभिन्न अलंकरणों से सज्जित है।
राणकपुर की चतर्भुज मूर्ति में देवी को ललितमुद्रा में आसीन दिखाया गया है। देवी की भुजाओं में अक्षमाला, वीणा, अभयमुद्रा और कमण्डलु है । एक अन्य उदाहरण में चतुर्भुज सरस्वती हंस पर आरूढ़ है और उनकी एक भुजा में अभयमुद्रा के स्थान पर पुस्तक है। चतुर्भुज सरस्वती की एक सुन्दर प्रतिमा राजपूताना संग्रहालय अजमेर में है । बांसवाड़ा जिले के अर्थुणा नामक स्थान से प्राप्त मूर्ति में देवी वीणा, पुस्तक अक्षमाला और पद्म धारण किए हैं। समान विवरणोंवाली मूर्तियाँ कुंभारिया के नेमिनाथ एवं पाटण के पंचासर मन्दिरों (गुजरात) और विमलवसही में हैं। विमलवसही की एक चतुर्भुज मूर्ति में हंसवाहना सरस्वती की तीन अविशिष्ट भुजाओं में पद्म पद्म और पुस्तक है
चतुर्भुज सरस्वती की १३वीं शती ई० की एक स्थानक मूर्ति हैदराबाद संग्रहालय में है। हंसवाहना देवी के करों में पुस्तक, अक्षमाला, वीणा और अंकुश (या कन) हैं। परिकर में उपासक और तीर्थंकर पार्श्वनाथ की आकृतियाँ उत्कीर्ण हैं। राजस्थान के भरतपुर जिले के बयाना नामक स्थान से प्राप्त चतुर्भुज मूर्ति में देवी का वाहन मयूर हैं। देवी के करों में पद्म पुस्तक, वरद और कमण्डलु हैं।
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सरस्वती की बहुभुजी मूर्तियों के उदाहरण मुख्यतः गुजरात तारंगा ) और राजस्थान (विमलवसही एवं लूणवसही) के जैन स्थलों में हैं । षड्भुज सरस्वती की दो मूर्तियाँ लूणवसही में हैं। दोनों उदाहरणों में सरस्वती हंस पर आसीन हैं। एक मूर्ति में देवी की पाँच भुजाएँ खण्डित हैं और अवशिष्ट एक भुजा में पद्म है। दूसरी मूर्ति में दो ऊपरी भुजाओं में पद्म प्रदर्शित है, जब कि मध्य की भुजाएँ ज्ञानमुद्रा में हैं। निचली भुजाओं में अभयाक्ष और कमण्डलु चित्रित हैं। अष्टभुज सरस्वती की हंसवाहना मूर्ति तारंगा के अजितनाथ मन्दिर में है । त्रिभंग में खड़ी देवी के ६ अवशिष्ट करों में पुस्तक, अक्षमाला, वरदमुद्रा, पद्म, पाश एवं पुस्तक प्रदर्शित है। सरस्वती की एक षोडशभुज मूर्ति विमलवसही के वितान पर उत्कीर्ण है । नृत्यरत पुरुष आकृतियों से आवेष्टित देवी भद्रासन पर आसीन है। देवी के अवशिष्ट हाथों में पद्म, शंख, वरद, पद्म पुस्तक और कमण्डलु प्रदर्शित है। हंसवाहना देवी के शीर्षभाग में तीर्थंकर मूर्ति उत्कीर्ण हैं।
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'जैन वाङ्मय का संगीत पक्ष'
डॉ० कमल जैन
संगीत हमारी अन्तरात्मा के परिष्कार एवं उसके आध्यात्मीकरण आयोजन करती रहती थी। संगीत के सात स्वरों की उत्पत्ति के विषय का सहज एवं सशक्त माध्यम है। यह चेतना को उस लोक में प्रतिष्ठित में कई प्रकार के उल्लेख प्राप्त होते हैं । स्थानांगसूत्र में संगीत के सात करता है जहां सौन्दर्य बोध आध्यात्मिक बोध की अभिव्यंजना बन जाता स्वरों की उत्पत्ति नाभि से मानी गई है। कीर्तिकेयानुप्रेक्षा में सप्त स्वरों है। संगीत प्राकृतिक आनन्द भाव का नैसर्गिक उच्छवास है, गगनचारी का सम्बन्ध शारीरिक अवयवों से माना गया है । कण्ठ से षडज, शिर विहंगो के मधुर गीत, झरनों का कल-कल निनाद, मधुर पवन के झोकों से ऋषभ, नासिका से गांधार, हृदय से मध्यम, मुख से पंचम, तालु से झूमते पेड़ पौधों का संगीत किसको उल्लासित नहीं करता। संगीत से धैवत और सकल शरीर से धैवत । स्थानांगसूत्र में पशु-पक्षियों से का मुख्य उद्देश्य लोकचित्तरंजन है, पुत्र जन्म हो या जीवन का कोई स्वरज्ञान, मात्राओं एवं ध्वनियों की सम्बद्धता बताई गई है । मयूर से संस्कार, युद्ध हो या शांति, पूजा हो या मंगल यात्रा हर अवसर पर षड़ज, कुक्कुट से ऋषभ, हंस से गांधार, भेड़ से मध्यम, कोयल से संगीत की स्वर लहरियां गूंजती रहती हैं। संगीत की मधुर झंकार से पंचम, क्रौंच और सारस से धैवत तथा हाथी से निषाद स्वर की उत्पत्ति मानव तो क्या पशु-पक्षी भी मोहित हो जाते हैं, वे भी अपने क्रूर स्वभाव हुई । सात स्वरों के तीन ग्राम कहे गये हैं, षड़ज ग्राम, मध्यम ग्राम को छोड़कर अहिंसक बन जाते हैं।
तथा गान्धार ग्राम । षड़जग्राम की आरोह-अवरोह रूप सात मूर्च्छनायें जैन संस्कृति और वाङ्मय में प्राचीन काल से ही संगीत का कहीं गई है, भंगी, पौरवीया, हरित , रजनी, सारकान्ता, सारसी, शुद्ध महत्त्वपूर्ण स्थान रहा है । जैन पंरपरा इसे अनादि नित्य मानती है । पुरूषों षड़जा । मध्यम ग्राम की सात मूर्च्छनाओं में उतरभद्रा, रजनी, उत्तरा, की ७२ कलाओं और नारी की ६४ कलाओं में संगीत को श्रेष्ठ माना उत्तरायता, अश्वक्रान्ता, सौवीरा और अभिरुद्रगता। गांधार ग्राम की सात जाता है । जैन पौराणिक मान्यतानुसार आदि तीर्थंकर ऋषभदेव ने अपने मूर्छनाओं में नंदीक्षुद्रिका, पूरका, शुद्धा, गान्धारा, उत्तर गांधारा सुठुत पुत्र वृषभसेन को १०० अध्यायों वाले संगीत शास्त्र में गीत, वाद्य तथा आयामा एवं उत्तरायता का उल्लेख हुआ है । गीत के छह दोष, आठ गान्धर्व विद्या का उपदेश दिया था। जैन साहित्य में अनेक स्थलों पर गुण, तीन वृत्त और दो भणतियां होती है जो बुद्धिमान व्यक्ति इन्हें जानता विविध दृष्टियों से गीतों के उल्लेख मिलते हैं कहीं कला की दृष्टि से, है वह रंगमंच पर इन्हें गा सकता है । गीत प्राकृत और संस्कृत दोनों कही प्रतिपादन की दृष्टि से और कहीं विरक्ति की विवेचना के रूप में। भाषाओं में गाये जाते है । अनुयोगद्वार में संगीत विषयक विस्तृत समवायाङ्ग सूत्र की टीका में आचार्य अभयदेव ने गान्धर्व कला के ज्ञान- सामग्री मिलती है उसमें स्वर, गीत, वाद्य, मूर्च्छनाओं के नामों का क्रम विज्ञान को गीत कहा है । जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति की टीका में आचार्य विमल भरत के नाट्यशास्त्र के अनुरुप नहीं है। अभिधानराजेन्द्रकोष में गीत, गिरि ने पद, स्वर एवं ताल बद्ध गान्धर्व को गीत कहा है। संगीतोपनिषद्- नृत्य, वाद्य एवं नाट्य का विस्तार किया है। गीये शब्द के अर्न्तगत सारोद्वार में कहा गया है कि तूर्य वाद्य और नाटक की उत्पत्ति भरत गीत तथा संगीत की विस्तृत परिभाषा दी है जो नाट्यशास्त्र, संगीतसमयासार चक्रवर्ती की नवनिधियों में से अंतिम निधि शंख से हुई थी। मध्य तथा अन्य साहित्यिक उल्लेखों के अनुकूल है। कालीन जैनकथा नागपंचमी में संगीत का महत्त्व बताते हुये कहा गया जैन साहित्य में वाद्यों को तत, वितत, धन तथा सुषिर इन है कि सुन्दर युवतियों के हावभाव से अथवा संगीत के मधुर आलाप चार भागों में विभक्त किया गया है । निशीथचूर्णि में तत के अर्न्तगत से जिसका हृदय मुग्ध नहीं होता वह या तो पशु है या देवता अर्थात् वीणा, विपञ्ची, वद्धिसग, तुणय, तुम्बवणिया, ठकुण और जोडय आदि संगीत व रमणियों के हावभाव में मानव को रसासिक्त करने की शक्ति वाद्यों का उल्लेख है । चर्म से आबद्ध वाद्य वितत कहे गये हैं, इनमें
___मृदंग, दर्दुर, भेरी, डिंडम आदि हैं । कांस्य आदि धातुओं से बने वाद्य जैन हरिवंशपुराण में किन्नर, गांधर्व, तंबरू, नारद तथा धन कहे जाते हैं। करताल, कांस्यवन, नयभटा, सुक्तिका, कण्ठिका, विश्वास को संगीत के देवता के रूप में मान्यता दी गई है। वसुदेवहिंडी पटवाद्य, पट्टाघोष, धर्धर, मंजरी, कर्तरी आदि की गणना इसमें होती से भी ज्ञात होता है कि संगीत शिक्षा आरम्भ करने से पहले तुम्बुरू और थी। फूंक कर बजाये जाने वाले वाद्य सुषिर कहे जाते थे।१० समराइच्चकहा नारद की पूजा की जाती थी। हरिभद्र के उल्लेखों से ज्ञात होता है कि में वीणा, शृंग, भेरी, तूर्य, शंख, झाल, दुंदभी, पटह आदि वाद्यों का गान्धर्व संगीत कला में निपुण होते थे । संगीत को वह अपनी उल्लेख हुआ है। वसुदेवहिंडी में पडह, शंख, भेरी दुंदभी, परिली, आजीविका का साधन भी बनाते थे। गान्धर्व स्त्रियां संगीत सामारोहों का पर्वक, पल्लीसग, काहल, वन्तग खरमुखी मुंकद, भल्लरी आलिंग,
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जैन विद्या के आयाम खण्ड-७ मृदंग, वेणु, वीणा आदि तत, वितत एवं सुषिर वाद्यों का उल्लेख हुआ प्रदर्शित की थी। कपिल मुनि ने ध्रुवपद गाकर पांच तस्करों से स्तेय है।१२ दशाश्रुतस्कन्ध में कहा गया है कि भोगकुल और उग्रकुल के कृत्य छुड़ा कर उन्हें श्रमण दीक्षा प्रदान की थी। चित्र और संभूत नामक राजकुमार नाट्य, गीतवादिंत्र, ताल, त्रुटित, घन मृदंग आदि वाद्यों से मातंग पुत्र तिसरय और वेण बजाते हुये नगर से निकलते थे तो उनके युक्त थे । कल्पसूत्र की टीका में तीन प्रकार के ढोल-पणव, मुरज और गायन वादन से नगर के लोग मोहित हो जाते थे ।१६ मृदंग का उल्लेख हुआ है । अनुयोगद्वार के टीकाकार मलधारी हेमचन्द्र आवश्यकचूर्णि से ज्ञात होता है कि सिन्धु सौवीर का राजा ने गोमुखी और काहल का उल्लेख किया है भी कहा जाता था। इनके उदयन संगीत से मदोन्मत हाथियों को वश में कर लेता था । जब वह अतिरिक्त आडंबर और पटह नामक ढोल का भी उल्लेख हुआ है। वीणा बजाता था तो उसकी महिषी सरसों के ढेर पर नृत्य करती थीं। राजप्रश्नीय सूत्र के टीकाकार ने शंख, श्रृंग, शखिका, खरमुखी, पेया, वसुदेवहिंडी में उल्लेख आया है कि वसुदेव ने तुम्बवीणा और कंसताल पिरिपिरिका, पणव, भंभा, होरम्भ, भेरी, झालर, दुन्दुभि, मुरज, मृदंग, के साथ जो लयबद्ध संगीत प्रस्तुत किया था, वह षडज ग्राम की मूर्छना नन्दी मृदंग, आलिंग, कुस्तुंबा गोमुखी, मादला, वीणा, विपत्ती, वल्लकी, से युक्त, छ: दोषों से रहित, तीन स्थानों से शुद्ध आचरण वाला आठ षडभ्रामरी वीणा, भ्रामरी वीणा, वहवीसा, पिरवादिनी वीणा, सुघोषाघंटा, गुणों और रसों से युक्त ताल के अनुरूप था। नन्दीघंटा, नंदीघोषधंटा, सौ तार वीणा, काछवीवीणा, चित्रवीणा, आभोट, सार्वजनिक स्थानों पर संगीत उत्सव पूरी रात चलते रहते थे, झंझा, नकुल, तूण, तंबुवीणा, मुकुन्द, हुडुक्क, विचिक्की, करटी, जिसमें कला प्रेमी संगीत का रसास्वादन करते थे। वसुदवेहिंडी में एक डिड़म, किणिक, कडंब, दर्दर, दर्दरिका, कलशिका, भडक्क, तल, ऐसी मांतग कन्या का उल्लेख हुआ है जो वनमहोत्सव के समय ताल, कांस्यताल, रिंगरिसिका, लत्तिका, मकरिका, शिशुमारिका वाली, शास्त्रीय पद्धति के अनुकूल नेत्रों का संचार, हाथ की मुद्राओं का प्रदर्शन, वेणु, परिली, बद्धक आदि का उल्लेख किया है ।१३ देवगढ़ खजुराहो, ताल से पैरों की थिरकन आदि के अभिनय से युक्त नृत्य करती थी। दिलवाड़ा, विदिशा, मथुरा आदि से मिले मूर्तियों के पुरात्व अवशेष धार्मिक महोत्सवों और मनोरजनार्थ संगीत गोष्ठियों में पदनिक्षेप, भौहों इनकी पुष्टि करते हैं।
और नेत्रों का संचार, अभिनय, हाव-भाव, ताल-लय, अंग-प्रत्यंग एवं निवृत्ति प्रधान जैन परंपरा में भी संगीत को वैराग्य भावना और स्तनों के कंपन आदि मुद्राओं पर विशेष ध्यान दिया जाता था । आध्यात्मिक पवित्रता का माध्यम माना गया था । आदि तीर्थंकर प्रतियोगितायें आयोजित की जाती थी, प्राश्निक नियुक्त किये जाते थे ऋषभदेव के वैराग्य को प्रदीप्त करने में महत्त्वपूर्ण निमित्त कारण विजेता को राजकीय सम्मान से पुरस्कृत किया जाता था। नीलाजंना का नृत्य करते हुए देहपात हो जाना था। नीलजंना की कथा चौदहवीं शती के जैन आचार्यों द्वारा रचित संगीत के ग्रंथ से स्पष्ट होता है कि जैनों ने किस प्रकार इन कृत्यात्मक कलाओं को मिलते हैं। आचार्य पार्श्वदेव ने अपने ग्रंथ 'संगीत समयासार' में नाद, 'त्याग और वैराग्य के साथ जोड़ दिया था। सागारधर्मामृत में आत्मतत्त्व राग, वाद्य, ताल, प्रस्तार, प्रबन्ध अभिनय, नृत्य आदि विभिन्न विषयों एवं आत्मशोधन की प्रक्रिया हेतु जिन भक्ति के लिये संगीत को सर्वश्रेष्ठ पर प्रकाश आता है। सुधाकलश ने 'संगीतोपनिषद्सारोद्वार' गीत, ताल, साधन कहा गया है । संगीत के योग से भक्ति में तीव्रता आती है, राग, चर्तुविद्य वाद्य एवं नृत्यांग, उपांग, प्रत्यांग आदि नृत्य पद्धतियों का लालित्य में वृद्धि होती है तथा हृदय द्रवित होकर तदाकार वृत्ति में स्थिर उल्लेख किया है।२९ उपयुक्त उल्लेखों से प्रतीत होता है कि जैन ग्रंथ हो जाता है । पंचाशक में आचार्य हरिभद्र कहते हैं कि जब किसी अनेक दुर्लभ संगीतिक उल्लेखों से भरे पड़े हैं जो संगीत शास्त्र के चैत्यालय या नये मन्दिर का निर्माण हो तो उसमें भक्तिपूर्वक संगीत नृत्य शोधार्थियों के लिये बड़े महत्त्वपूर्ण हो सकते हैं । इस लेख में उदाहरण गायन का आयोजन करके प्रभु भक्ति करनी चाहिये।
स्वरुप कुछ तथ्यों का उदघाटन करना शक्य हो सका है । आवश्यकता जैन पंरपरा के धार्मिक जीवन में भक्ति मार्ग का विकास ही इन है, एक पृथक सुनियोजित सर्वेक्षण की। कृत्यात्मक कलाओं का आधार बना । देवगण तीर्थंकरों के समय भक्तिवश विभिन्न मंगलमय नृत्य एवं नाटक प्रस्तुत करते थे । राजप्रश्नीय
संदर्भ सूत्र में सूर्याभदेव द्वारा महावीर के समक्ष संगीत मय नाटक करने की कथा मिलती है । सूर्याभदेव ने देव-देवियों सहित स्वस्तिक, श्रीवत्स, १.जिनसेन, आदि पुराण, १६/१७९-१२३ गन्धावर्त, वर्धमानक, भद्रासन, कलश, मत्स्य, आवर्त, प्रत्यावर्त श्रेणी, संघदास गणि, वसुदेवहिंडी, पृ० ५०२ प्रश्रेणी, सौवस्तिक पुष्यमानव आदि ३२ प्रकार की नाटक विधियां २. समवायांग, सूत्र ७२ की टीका प्रस्तुत की थी५ । उत्तराध्ययनसूत्र की टीका से ज्ञात होता है कि ब्रह्मदत्त ३. संगीतोपनिषद्सारोद्धार उद्धृत जैन साहित्य का बृहद् इतिहास, चक्रवर्ती के समक्ष एक नट ने 'मधुकरी गीत' नामक नाट्य विधि भाग ५, पृ० १५६-१५७ ।
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'जैन वाङ्गमय का संगीत पक्ष'
१५३ ४. नागपंचमी कथा, १०/२९४
१३. राजप्रश्नीय, सूत्र ७७, पृ० ४९ ५. वसुदेवहिंडी, पृ० ३८४
१४. हरिभद्रसूरि, पंचाशक ६. कार्तिकेयानुप्रेक्षा
१५. राजप्रश्नीय, सूत्र ८५ ७. स्थानांगसूत्र, ७/४१-४२
१६. उत्तराध्ययनसूत्र, अध्याय ८ और १३ की टीका ८. वही, ७/४४-४८
१७. जिनदास महत्तर, आवश्यकचूर्णि, २/१६१ ९. हेमचन्द्र, अभिधानराजेन्द्रकोष, २/१४३-१८४
१८. वसुदेवहिंडी, मध्यमखंड, पृ० १९० १०. जिनदास महत्तर, निशीथचूर्णि, भाग ४ पृ० २००-२०१ १९. वही, पृ० १०२० ११. हरिभद्रसूरि, समराइच्चकहा, १/१६,२४
२०. वही, पृ०३९४.४७८ १२. धर्मसेनगणि वसुदेवहिंडी, मध्यमखंड, पृ० १९,९३ २१. जैन साहित्य का बृहद इतिहास, भाग ५, पृ० १५६-१५७।
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मानव-संस्कृति का विकास
श्री कन्हैयालाल सरावगी
किसी भी देश अथवा जाति का इतिहास जानने के पूर्व अन्धविश्वासों ने उनका पोषण कर रीति-रिवाज चलाये। समाज का मनुष्य का इतिहास जानना आवश्यक है। इसका विचार पौर्वात्य उदय घुणाक्षर-न्याय से हुआ और शासन-सूत्र सबलों के हाथ (भारतीय) व पाश्चात्य, इन दो धाराओं द्वारा किया जाता है। पाश्चात्य चले गये जो निर्बलों पर हावी होते। चीनी विचारधारा के उद्गगम विचारधारा में इस्लाम, ईसाई, यहूदी आदि धर्म आते हैं और इन में समाज, राजनीति और धर्म के क्षेत्र के उदय का कारण किसी सबकी प्राय: समान मान्यता है। इनके अनुसार परमात्मा ने सात दिनों अन्तरिक्षीय शक्ति की प्रेरणा और नियमन या आह्वान का फल में इस चराचर दृश्य जगत् की सृष्टि की, सारे जड़ और चेतन पदार्थों मात्र है। का निर्माण किया। चैतन्य सृष्टि में एक मानव-युगल भी बनाया, पौर्वात्य या भारतीय विचार की तीन मुख्य धाराएं हैंजिसे आदम (ऐडम) और हव्वा (ईव) के नाम से जाना जाता है। वैदिक, बौद्ध और जैन। इन धाराओं में (वैदिक और जैन धाराओं में) अर्थात् आदम और हव्वा मानव जगत् के आदि माता-पिता थे। आज उपयुक्त- विषय का विस्तृत विचार हुआ है। बौद्धों ने इसे अनावश्यक, का विराट जन-समूह इन्हीं का वंशज है। सुप्रसिद्ध अर्वाचीन पाश्चात्य अव्याकृत और अनुपयोगी कह कर उस पर विचार ही नहीं किया। विद्वान् डार्विन के अनुसार मनुष्य बन्दर का विकसित रूप है। विभिन्न इस विषय में बौद्ध वाड्मय मूक है किन्तु वैदिक और जैन के देशों की सभ्यता के विकास के विषय में कोई ठोस विचार नहीं पाया अतिरिक्त भारत में अन्य विचारधाराएँ भी रही हैं। ढाई-तीन हजार जाता है। कुछ ऐसे प्रश्न हैं, जिनका समुचित समाधान पाश्चात्य वर्षों पूर्व भारत में साढ़े तीन सौ से भी अधिक विचारों (मतों) का वाङ्मय में नहीं मिलता। जैसे
वर्णन पाया जाता है। आज भी विभिन्न मतों की संख्या सम्भवतः सौ १. एक युगल अनेक कैसे हुआ?
तक पहुँच जायेगी। अधिक विस्तार में न जाकर मोटे तौर पर विचार २. आगे भी युगल ही होते रहे अथवा नर-नारी अलग-अलग कर इन मत-मतान्तरों में कुछ को वैदिक और कुछ को जैन शिविरों उत्पन्न हुए?
में एकत्र कर सकते हैं। अस्तु विचार की सुलभता के लिए उनका इसी ३. सामाजिक गठन कैसे हुआ और उसकी आवश्यकता क्यों हुई? रूप में विभाग कर प्रत्येक में मानवीय इतिहास और संस्कृति का ४. शासन-प्रणाली का सूत्रपात कब, कैसे, क्यों और किन परिस्थितियों उद्गम खोजने का प्रयास करना उपयुक्त होगा। में हुआ?
पहले हम वैदिक चिन्तन धारा को लें। दूसरों की अपेक्षा ५. धर्म-मतों के उदय के पीछे कौन से कारण थे?
वैदिक साहित्य को अधिक विशाल कहने में अतिशयोक्ति नहीं है, ६. शासन और धर्म स्थापना का कार्य ईश्वर के बदले मनुष्य ने क्योंकि वैदिक साहित्य विपुल मात्रा में उपलब्ध है। वेद, उपनिषद् अपने हाथों में कब और कैसे ले लिया?
आरण्यक, पुराण तथा अन्य स्फुट साहित्य की विपुल निधि उपलब्ध ७. डार्विन की परिकल्पना का मानव-पूर्वज वानर आज भी अविकसित है और इसके चिन्तक, पुरस्कर्ता एवं साहित्य स्रष्टा हिमालय से पशु क्यों है?
सेतुबन्ध तक और अरुणाचल से सिन्धु तक फैले हुए हैं। इसमें कई भारतीय चिन्तन की गहराई में उतरने के पहले यह कह विचार अन्तरभूत हैं परन्तु मुख्य दो हैं- एक सृष्टिवादी और दूसरा देना अनुपयुक्त नहीं होगा कि चिन्तन के धरातल पर भारत की असृष्टिवादी अथवा एक संसार को ब्रह्मा की सृष्टि मानने वाले और तुलना में पश्चिम बहुत बौना है। यूरोप, अरब, अमेरिका, मध्य- दूसरे स्वयंभू मानने वाले। दूसरे शब्दों में सादि और अनादि अर्थात् एशिया आदि सभी एक ही सरणी के विभिन्न कोण और किनारे हैं। जगत् का आरम्भ काल के किसी पटल पर और किसी हेतु से मानने चीन की स्थिति थोड़ी भिन्न है। वहाँ लाओत्से, कन्फ्यूशियस आदि वाले एवं कालातीत और हेतु रहित मानने वाले। पहली कोटि में की विचारधाराएं अपने वैशिष्ट्य के साथ प्रतिष्ठित है। चीनी विचारधारा वेदांत, उत्तरमीमांसा, वैशेषिक आदि और दूसरी में सांख्य, न्याय, भी उपर्युक्त प्रश्नों की गहराई में उतरी हुई दिखाई नहीं देती। पूर्वमीमांसा आदि दर्शनों को रखा जाता है।
प्राचीन पाश्चात्य धाराएँ धर्म-मतों के विकास का इतिहास (क) पहली कोटि के अनुसार- सृष्टि के आरम्भ की कथा अनेक तो बताती हैं, परन्तु उनकी उत्पत्ति के विषय में मूक हैं। अर्वाचीनों प्रकार से बताई जाती हैने कुछ अटकलें लगाई हैं कि भय ने धर्म को जन्म दिया और १. आरम्भ में केवल एक ब्रह्म था, जो अन्तरिक्ष में कहीं
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मानव संस्कृति का विकास
अवस्थित था। वह सुप्त था या जाग्रत यह किसी को ज्ञात नहीं है । वह न ऊपर था, न नीचे, वहाँ न जल था न स्थल, न प्रकाश थान अंधकार, न उससे कुछ पास था न दूर, न धरती थी न आकाश और न उसके परे ही कुछ था। क्षितिज और अन्तरिक्ष भी नहीं थे। ज्ञातअज्ञात अथवा ज्ञाता द्रष्टा भी नहीं था। वह एकाकी ब्रह्म संकल्प मात्र से सब कुछ करने में समर्थ था वह स्वयं में पूर्ण चैतन्य, आप्तकाम, समर्थ और तृप्त था। उसके मन में एक से अनेक होने का संकल्प उठा । संकल्प करते ही सृष्टि होने लगी। विश्वकर्मा (ब्रह्मा) अवतरित हुए और उन्होंने सारे प्रपञ्च की रचना की। अपने स्वरूप के बारह मानस पुत्र उत्पन्न किए। इन मानस पुत्रों से अथवा मानसिक सृष्टि से परम्परा का चलना सम्भव न जानकर उन्होंने अपने शरीर के दो भाग किए। आधे से पुरुष व आधे से नारी उत्पन्न कर मैथुनी सृष्टि का सूत्रपात किया, जो कालक्रम से विकसित होती गई।
२. ब्रह्मा के संकल्प के परिणामस्वरूप उनके मुख से ब्राह्मण, भुजा से क्षत्रिय, उदर से वैश्य और चरणों से शूद्रोंकी उत्पत्ति हुई। यही चातुर्वर्ण्य सृष्टि का आरम्भ था।
३. अक्षर, अव्यक्त और अरूप ब्रह्मा स्वयं विष्णु के रूप में व्यक्त हुआ विष्णु की नाभि से एक कमल निकला, उसमें ब्रह्मा उत्पन्न हुए। ब्रह्म ने सृष्टि और शंकर को भी उत्पन्न किया। प्रजा की सृष्टि होने पर उसके पालन, रक्षण, शासन, संहार और पुनः उत्पत्ति हुई। इसे ब्रह्मा, विष्णु, और शंकर ने सं ब्रह्मा सृजनकर्ता हुए, विष्णु पालक, रक्षक और शासक हुए और शंकर संहारकर्ता बने। सृष्टि-विकास की जटिलता को देख कर ब्रह्मा ने मनु-प्रजापति उत्पन्न किए। इन मनुओं ने समय-समय पर प्रजा के लिए सामाजिक और धार्मिक नियम बनाए और शासन व्यवस्थाएं स्थापित की।
४. अनादि और एकाकी ब्रह्म ने अपने में से माया अथवा योगमाया को उत्पन्न कर सृष्टि करने का आदेश दिया। माया ने सृष्टि को रूप दिया और ब्रह्मदि ने चेतना के रूप में अपना अंश दिया। चेतन अथवा जीव ब्रह्म का अंश है। माया ने सम्पूर्ण जड़ और चैतन्य को आवृत्त कर घटयंत्र की तरह चलाना आरम्भ किया। ब्रह्म का अंश जीव ज्ञान, आनन्द और चिन्मय होते हुए भी माया के कारण अपने को भूल कर संसार में लिप्त रहा है।
स्वरूप
५. कूटस्थ ब्रह्म ने लोक-रचना की इच्छा की। सृष्टि कर लेने के बाद ब्रह्म पद पर प्रतिष्ठित होकर अपनी कामनाओं को प्राप्त किया और पूर्ण आनन्द में निमग्न हो अमरत्व को प्राप्त हुआ, आदि।
(ख) दूसरी कोटि के अनुसार
१. सृष्टि अनादि है। कर्मानुसार सुख-दुःख भोगने के लिए जीव नाना योनियों में जन्मता व मरता रहता है। साधना, तपस्या आदि कर के मुक्त भी हो सकता है।
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२. पुरुष और प्रकृति अनादि तत्व है। इनका कोई रचयिता नहीं है। दोनों के योग से जगत् की उत्पत्ति होती है और वियोग से लय होता है। पुरुष चैतन्य और प्रकृति जड़ है। रूप, रस, गंध, स्पर्श आदि प्रकृति के विकार अथवा प्रसार हैं और चेतना, स्पंदन, आस्वादन आदि पुरुष के गुण हैं। इस सिद्धांत के अनुसार सृष्टि का क्रम इस प्रकार है- पुरुष एवं प्रकृति दो मूल तत्त्व हैं। पुरुष का स्वरूप जीव और प्रकृति से महत् महत् से अहंकार, अहंकार से पाँच तन्मात्राएँ, उनसे ग्यारह इन्द्रियाँ और पाँच स्थूल महाभूतमय जगत् इस प्रकार पच्चीस तत्त्वों से सारा विस्तार होता है।
'वैदिक संस्कृति के मूलतत्त्व' पुस्तक में श्री सत्यव्रत सिद्धांतालंकार ने लिखा है
"प्रकृति के साथ पुरुष (आत्मा) का संयोग होकर सारे दृश्य जगत् का पसारा होता है। पसारा बढ़ता हुआ दो दिशाएं लेता है। प्रकृति की प्रधानता में स्वार्थ प्रधान होकर विकास नीचे की ओर होता है, अर्थात् इन्द्रियां और भोग प्रधान हो जाते हैं । प्रकृति की प्रधानता में संघर्ष का सृजन होता है और पुरुष की प्रधानता में शान्ति, आनन्द और सद्भाव का।"
समाज, शासन आदि का हेतु बताते हुए वे लिखते हैं"इस पसारे के नेपथ्य में अहंकार काम करता है, वह सर्वत्र विराजमान रहता हुआ नाना दृश्य उत्पन्न करता है। अहं (मैं) मेरा में बदल कर परिवार की सृष्टि करता है, परिवारों से कुटुम्ब, कुटुम्बों से समाज, समाज से जाति, देश आदि। इस प्रकार अहं का पसारा बढ़ता जाता है। जब दो अहं टकराते है तो युद्ध होते हैं, जय-पराजय, विकासविनाश उद्भव ह्रास आदि होते हैं। तानाशाही, सम्राट् पद, गणाधीश आदि अलंकार के ही विकसित रूप होते हैं। पार्टी संगठन, शासनतंत्र आदि सभी अहंकार का कूड़ा है। "
3
३. पांच महाभूतों (पृथ्वी, जल, तेज, वायु एवं आकाश ) के योग से संसार की रचना हुई है। इसका रचयिता, नियामक अथवा शासक कोई नहीं है। संसार के सम्पूर्ण पदार्थ मनुष्य के भोग के लिए है। सृष्टि के हेतु पंच महाभूत हैं और उसकी उपयोगिता भोग है। इतनी ही वास्तविकता है, बाकी सब कल्पनाएँ और विडम्बनाएँ हैं।
४. दश अवतारों को कुछ लोग सृष्टि के विकास की श्रृंखला का इतिहास मानते हैं। उनके अनुसार मत्स्यावतार जीवन की प्रारम्भिक अवस्था का द्योतक है, कूर्म जल और स्थल दोनों में जैविक विकास का द्योतक है, बराह स्थल पर जैविक विकास की ओर संकेत करता है, नृसिंह पशु और मनुष्य दोनों के बीच की कड़ी है, वामन अविकसित मानव का प्रतीक है, परशुराम बौद्धिक विकास की अपूर्णता का प्रतीक है, रामावतार विकसित मानव का स्वरूप है। और कृष्णावतार पूर्णता का द्योतक है। मनुष्य के अपरिमित विकास, वैज्ञानिक उन्नति की पराकाष्ठा और प्रकृति पर विजय के बाद विनाश
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जैन विद्या के आयाम खण्ड-७ और नव-निर्माण की कड़ी के रूप में कल्कि अवतार होगा। अधर्म, आकाश और काल ये छ: द्रव्य अनादि और नित्य-शाश्वत हैं।
इस प्रकार वैदिकधारा के स्रोतों में भिन्न-भिन्न विचार पाए इन छहों के संयोग-वियोग, संगठन-विघटन, परिणमन-परिवर्तन, जाते हैं। समाज-रचना एवं शासनतंत्र के उदय के विषय में कुछ स्पष्ट क्षय-उपशम, उत्पाद-व्यय आदि से संसार की स्थिति, गति, विनाश उल्लेख नहीं मिलता। श्री सत्यव्रत के उपर्युक्त मत में, इसकी तह में आदि होता है। केवल अहंकार काम करता है। हमारे विचार में यह अटकलबाजी मात्र मनुष्य की संरचना, उद्गगम या प्रादुर्भाव में भी कोई हेतु है। पार्टी, संगठन आदि समाज-रचना के परिणाम हो सकते हैं, नहीं है। आरम्भ में मनुष्य-युगल (पुरुष और स्त्री) एक साथ उत्पन्न तानाशाही, सम्राट, गणाधीश आदि शासनतंत्र की स्थापना के होते थे। उनकी भूख, प्यास आदि की सारी आवश्यकताएं प्रकृति से परिणाम और पौरोहित्य, महंतागीरी, पंडागीरी आदि धर्म-संस्थाओं पूर्ण हो जाती थीं। जैन परम्परा के अनुसार सारी आवश्यकताओं की की स्थापना के परिणाम हो सकते हैं। ये सब कारण नहीं हो पूर्ति कल्पवृक्षों से हो जाती थी। भोगभूमि के काल में सामग्री प्रचुर सकते, कारण कुछ और ही होने चाहिए, परन्तु इनका स्पष्ट होने के कारण मनुष्य-युगल अपने में पूर्ण और सन्तुष्ट थे। परस्पर उल्लेख देखने में नहीं आता।
में भी वे शरीर सम्बन्ध मात्र के लिए आश्रित थे। आपस में न किसी मूलतः यद्यपि भारतीय विचार-धारा के अन्तर्गत वैदिक, प्रकार का बन्धन था और न निर्भरता थी। उत्पादन, अर्जन, संग्रह की बौद्ध और जैन परम्पराओं के संदर्भ में विचार करने का संकल्प भी अपेक्षा नहीं थी। युगल मात्र इकाई अथवा समाज था। कालान्तर था, परन्तु कुछ ऐसी भी धाराएँ हैं जिन पर एक दृष्टि डाल लेना में कल्पवृक्षों की शक्ति कम पड़ने लगी, अर्थात् प्रकृति मात्र से मनुष्य उपर्युक्त होगा।
की आवश्यकताएं सर्वथा पूर्ण नहीं हो पाती थीं। यहाँ से कर्मभूमि का १. पूरण काश्यप अक्रियावादी थे । उनके मतानुसार किसी सूत्रपात हुआ। मनुष्य को वस्तुओं के उत्पादन की आवश्यकता पड़ने कर्म का कोई फल नहीं होता। जो कुछ है नैसर्गिक रूप में ही से वह कृषि आदि कार्यों में लगा। उत्पादन के साथ ही संरक्षण, विद्यमान है। न इसका कोई निर्माता है और न इसका निर्माण किया भण्डारण आदि की आवश्यकता हुई। आवश्यकताएं बढ़ने भी लगी जा सकता है। विनाश भी न कोई कर सकता है न हो सकता है। और उनके साथ ही पारस्परिक सहायता और सहयोग की अपेक्षा हुई।
२. मंखलिपुत्र गोशाल नियतिवादी थे। उनके अनुसार युगल जो पहले स्वतन्त्र और अपने तक ही सीमित थे, अब सहयोगी संसार का संघटन-विघटन नियति की रचना है, इसमें विकल्प करना और परस्पर आबद्ध हो गए और कार्यों के बंटवारे का आरम्भ हुआ। किसी भी दशा में उपयुक्त नहीं है। नियति की रचना में किसी का एक युगल का आपसी सीमित सहयोग जब अपर्याप्त कोई वश नहीं। जब, जो, जैसा होना है वह सब पूर्व निश्चित है। अनुभव होने लगा तो उसे अन्य युगलों की सहायता अनुभव हुई।
३. अजित केशकम्बलि उच्छेदवादी थे। उनके अनुसार युगल के बदले नर-नारी अलग-अलग भी उत्पन्न होने लगे। इससे संसार की रचना चार भूतों (पृथ्वी, तेज, वायु और जल) से हुई विवाह की आवश्यकता पड़ी और इस प्रकार पारिवारिक जीवन है। जब कोई मरता है तो चारों धातु अपने-अपने स्थान को चले आरम्भ हुआ। अनेक परिवारों ने मिल कर समाज बनाया। समाज का जाते है।
गठन हो जाने के बाद व्यक्तियों के हित, स्वार्थ और स्वत्व की रक्षा ४. पकुध कात्यायन अन्योन्यवादी थे। अनके अनुसार का प्रश्न आया। इसके लिए एक ऐसे व्यक्ति या संगठन की आवश्यकता संसार सात पदार्थों द्वारा निर्मित है। ये सात पदार्थ पृथ्वी, जल, तेज, हुई जो यथोचित व्यवस्था कर सके, विवाद उपस्थित होने पर उचित वाय, सुख, दुःख एवं जीव हैं। ये किसी के द्वारा बनाए हुए नहीं हैं। न्याय कर सके और सबको नियम से बाँध सके। इसके लिए राजा
५. संजय वेलट्ठिपुत्र विकल्पवादी थे। उनके अनुसार संसार, अथवा शासन-सूत्र की प्रतिष्ठा हुई। ज्यों-ज्यों जनसंख्या बढ़ी, समस्याएँ जीव आदि किसी की कोई निश्चित धारणा नहीं है। संसार की स्थिति बढ़ीं और एक ही व्यक्ति सब-कुछ नहीं कर पाया तो इन कार्यों का है अथवा वह शून्य मात्र है, कर्ता-अकर्ता है या नहीं, लोक-परलोक भी विभाजन हुआ। कुछ लोग शासनतंत्र के संचालक हुए और कुछ भी है या नहीं इनमें उनकी कोई निश्चित धारणा नहीं है। नैतिक तंत्र के। इस प्रकार शासन और आचारतंत्र का पार्थक्य हुआ।
६. जैन-दृष्टि इन सभी से भिन्न अथवा सबका समन्वित आचारतंत्र ने धार्मिक और आध्यात्मिक-तन्त्र का रूप लिया और स्वरूप दीखती है। इसे यों भी कह सकते हैं कि जैनों ने इसे विभिन्न शासनतंत्र का विकास राजतंत्र और गणतंत्र के रूप में हुआ। शासनतंत्र दृष्टिकोणों से देखा और परीक्षण किया है। उनकी दृष्टि सम्भावनाओं शारीरिक तल पर नियंत्रण करता है और धार्मिक तंत्र विचारों के तल पर आधृत है, उसमें मान्यताओं के आग्रह और घेरों को स्थान नहीं पर। शासन का आधार बल होता है और धर्म से चेतना प्रभावित है। जैन विचार-धारा के अनुसार यह दृश्यमान् जगत् अनादि काल से होती अथवा की जाती है। चला आता है। इसकी कोई आदि सीमा नहीं है। जीव, पुद्गल, धर्म, यहाँ धर्म की व्युत्पत्ति और अर्थ समझ लें। “धर्म' धृ-मन्
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मानव संस्कृति का विकास
से निष्पन्न है। " धृते लोकोऽनेन, धरति लोकं वा धर्मः” अथवा "इष्टे स्थाने धत्ते इति धर्म:" अर्थात् जिसके द्वारा लोक (श्रेष्ठ स्थान में) धारण किया जाता है अथवा जो लोक को धारण करता है किंवा जो इष्ट स्थान (मुक्ति) में धारण करता है वह धर्म है। धर्म की और भी परिभाषाएं हैं यथा- "जो संसार के दुःखों से छुड़ाकर जीव को उत्तम सुख प्राप्त करावे वह धर्म है।" "जिससे सर्वांगीण उदय, समृद्धि तथा मुक्ति की प्राप्ति हो वह धर्म है।" "मानव में दिव्यता की अभिव्यक्ति की विद्यमानता को धर्म कहते हैं।" "सत्य तथा न्याय के आचरण एवं हिंसा के त्याग को धर्म कहते हैं।" "वस्तु के स्वभाव को धर्म कहते हैं।" स्वामी चिन्मयानन्द ने कहा कि “लॉ आफ बीइंग (जीवन की कला) धर्म है।" इत्यादि ।
इससे ज्ञात होता है कि 'धर्म' कोरा शब्द ही नहीं है, वह एक रहनि' है और शब्द उसका सांकेतिक चिह्न है। धर्म शब्द में नहीं समा सकता, वह आचार और स्वभाव में परिलक्षित होता है। धर्म को जिसने जिस रूप में देखा जाना अथवा चरित्र में उतारा उसने उसकी उसी प्रकार परिभाषा कर दी। समाज को व्यवस्थित और नैतिक रूप में धारण करने में धर्म का बहुत बड़ा योगदान रहा है।
"
अनेक व्यक्ति जब एक प्रकार की आचार -क्रियाओं, प्रथाओं, जनरीतियों और प्रवृत्तियों को स्वीकार कर सामूहिक रूप में रहने लगते हैं तो वह समाज बन जाता है। इस प्रकार के समूह जातियों, विरादरियों आदि में परिस्फुटित होते हैं। समाज रचना से जहाँ मनुष्य के स्वार्थी को सुरक्षा मिलती है, वहाँ उसे समाज के हित में कुछ त्याग भी करना पड़ता है। परस्पर सहयोगी बनना, अन्य के दुःखपौड़ा आदि में यथोचित संवेदना और सेवा करना सामाजिक जीवन की प्राथमिक अनिवार्यताएं हैं। व्यक्ति केन्द्रित चेतना को सद्भावपूर्वक समष्टि के हित में घटित करने से समाज का विकास होता है प्राप्ति, रक्षण और समर्पण, यह है सामाजिक जीवन का मौलिक स्वरूप या सार-संक्षेप ।
परिवार या समाज के स्वस्थ संचालन के लिए निम्नलिखित कुछ आवश्यक कर्तव्य या मुद्दे हैं
१. नैतिकतापूर्ण आजीविका द्वारा संतान, परिवार, रोगी, वृद्ध, विकलांग, अकिंचन, साधु आदि की सेवा सुश्रूषा पालन, रक्षण आदि करना। शारीरिक एवं मानसिक विकास का वातावरण तैयार करना।
२. अनुशासन, श्रम, संतुलन, सद्भाव, समादर सहकारिता सहयोग, सहिष्णुता और सेवा के द्वारा उत्पादन, निर्माण और विकास में योगदान देना।
३. कलह, वैर, वैमनस्य, घृणा, अहंकार, दुःसंकल्प, क्रोध, लोभ, झूठ, चोरी, हिंसा, अतिसंग्रह, कपट, दमन, शोषण, असदचन आदि परिवार तथा समाज के विघटनकारी तत्वों से विरत
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रहकर मैत्री, प्रमोद, कारुण्य और माध्यस्थ आदि भावनाएँ रखना तथा कर्तव्यों को अधिकारों से अधिक महत्त्व देना।
यौन सम्बन्ध को विवाह के द्वारा विहित और पतिव्रत्य और स्वदारसन्तोषव्रत के द्वारा उसे व्यवस्थित और नियंत्रित करना आदि।
मनुष्य यद्यपि जातियों, बिरादरियों आदि में बँटा हुआ दीखता है, पर यह एक उपचार मात्र है। जाति नाम की चीज मनुष्य होने तक ही सीमित है महाभारत में वर्णित यक्ष-युधिष्ठिर संवाद से इस विषय पर प्रकाश पड़ता है। जाति के सम्बन्ध में प्रश्न पूछने पर युधिष्ठिर ने कहा था- 'हे महासर्प (यक्ष) ! जाति तो केवल मनुष्य 'के अर्थ में समझना चाहिए। सभी वर्णों के सम्मिश्रण से इसकी परीक्षा करना कठिन है। सभी मनुष्य सभी वर्णों की स्त्रियों में सदा संतान उत्पन्न करते रहे है। इसलिए धर्म का तत्त्व जाननेवालों ने शील आचार) को वांछनीय बताया है। नारदपुराण में भी लिखा है"आचारप्रभवो धर्मः।
(
कामवासना के पीछे मनुष्य ने मनुष्य पर नाना प्रकार के अत्याचार किए, रक्त बहाया, युद्ध, हत्याएँ, अपहरण, बलात्कार आदि किए। मानव इतिहास साक्षी है कि संसार में जितना रक्तपात हुआ है उसमें कम से कम एक चौथाई के लिए मनुष्य की कामवासना जिम्मेदार है। धार्मिक विद्वेषों और क्रियाकाण्डों के कारण भी भीषण नरसंहार हुआ है। भारत में आर्य-अनार्य, ब्राह्मण श्रमण, हिन्दूबौद्ध, हिन्दू-मुसलमान आदि के झगड़े, दंगे आदि धर्मान्धता के नाम पर हुए थे। यूरोप में क्रूसेड, मक्का-मदीना आदि के नरसंहार, यहूदियों ईसाइयों के युद्ध आदि भी धार्मिक विद्वेष के कारण हुए थे। सतीप्रथा, काशीकरवत, जौहर, नरमेध आदि के नाम पर असंख्य प्राणों की आहुतियाँ दी गई है। इनके साथ पशुओं की हत्या को भी जोड़ दें तो हिंसा का ८० प्रतिशत से भी अधिक भाग धर्म के नाम
पर चला जायगा ।
अर्थलिप्सा, अधिकारों की महत्त्वाकांक्षा, साम्राज्यवाद की भावना आदि कारणों से भी मनुष्य का विपुल रक्त बहाया गया है। प्राचीन युग में देवासुर संग्राम, मनुष्य-राक्षसमुद्र, महाभारत, यवनों, मुगलों आदि के आक्रमण आदि और इस बीसवीं शताब्दी के दो विश्व महायुद्ध, पाकिस्तान से हिन्दुओं का और जर्मनी से यहूदियों का निष्कासन, हत्याएँ आदि मनुष्य की लिप्सा अथवा तृष्णा के ही परिणाम हैं। इनके अतिरिक्त अर्थ और अधिकार के लिए भाई ने भाई का, बेटे ने बाप का मित्र ने मित्र का रक्त बहाने में भी कोई कसर नहीं रखी है।
आकस्मिक उत्तेजना, कलह, अपमान, राजदण्ड आदि के कारण भी संख्यातीत हत्याएँ हुई हैं। संक्षेप में कह सकते हैं कि संसार में आज तक जितना रक्तपात हुआ है उसके पीछे मनुष्य की
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लम्पटता, लालसा, अधिकार - लिप्सा, महत्त्वाकांक्षा, धर्मान्धता और कामवासना रही हैं। सहिष्णुता, जातिवाद, वर्गवाद आदि पनपने लगते हैं और इनके कारण अत्याचार, शोषण, उत्पीड़न, हत्या आदि होती है। इस विशृंखलता से बचने के लिए ऊपर लिखे गये कर्तव्यों की निष्ठा आवश्यक है। कर्तव्यनिष्ठा लोकसंग्रह का भी मंत्र हैं और ऊँची से ऊँची आध्यात्मिक उपलब्धि का भी सम्बल है। इससे चित्त की वृत्तियाँ संकीर्ण स्वार्थपरता से हटकर उदात्त, सहिष्णु और सेवापरायण बनती हैं।
वैदिक परम्परा में समाज व्यवस्था चार आश्रमों (ब्रह्मचर्य गार्हस्थ, वानप्रस्थ और संन्यास) एवं चार वर्णों (ब्राह्मण, क्षत्रिय वैश्य और शुद्र) के रूप में गठित है। श्रमण (जैन और बौद्ध) परम्परा में वैदिकों की तरह वर्णाश्रम व्यवस्था नहीं है. उनमें मुनि (भिक्षु), आर्यिका (भिक्षुणी) श्रावक (श्रमणोपासक) और श्राविका (श्रमणोपासिका) चार संघरूप है। प्रस्तुत लेख में तो करें), किसी को दुःख न हो अथवा
केवल परिवार और समाज के तल पर मनुष्य के अधिकारों और कर्तव्यों का दिग्दर्शन मात्र कराया गया है, अतः अधिक विस्तार यहाँ संभव नहीं है।
जैन विद्या के आयाम खण्ड- ७
हुआ।
२. राजनैतिक सत्ता की दृढ़ता के लिए कुछ नैतिक नियमों का सृजन किया गया और उसका पारलौकिक महत्त्व बताकर उसे धर्म का रूप दे दिया गया।
३. दुर्बल, दलित, शोषित और हताश मनुष्यों को भाग्य के नाम पर संतोष कराने के लिए परलोक में सुख-सुविधा की कल्पना धर्म और अध्यात्म के माध्यम से दी गई।
५. आजीविका की शाश्वता के हेतु क्रियाकाण्ड, पूजा - विधान, मठ-मंदिर आदि प्रतिष्ठापित किए गए।
६. परिग्रह और शोषण की वैधता सिद्ध करने के लिए प्राप्त एवं संगृहीत वैभव, अनुकूल परिस्थिति, समृद्धि
आदि को प्रारब्ध, पुण्योदय, पूर्व जन्मों के दानादि सत्कर्मों का फल बताया गया ।
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वैदिक परम्परा में राजा को ईश्वर का रूप माना गया है। बैर, पाप, अपमानादि को तज कर सुखी हों। इसका अर्थ यह है कि राजा शारीरिक और मानसिक दोनों तलों का शासक है। जैसे शासन-सूत्र के सफल संचालन के लिए आवश्यकतानुसार नियम-उपनियम, धारा उपधारा, विधि-विधान, दण्ड पुरस्कार आदि बने, वैसे ही मानसिक और आध्यात्मिक विषमताओं, विकृतियों आदि को अनुशासित करने के लिए धार्मिक आचार, विचार, नियम, कर्मकाण्ड, दर्शन, ज्ञान आदि व्यवस्थाएँ बनीं और पाप-पुण्य स्वर्ग-नरक आदि की परिकल्पनाएँ की गई। धर्म की उत्पत्ति के अनेक हेतु देखने-सुनने में आते हैं। यथा
भोगभूमि के काल में मनुष्य के लिए किसी प्रकार के नियम नहीं थे, उनकी आवश्यकता भी नहीं थी। कहीं स्व-पर विरोध नहीं था। परिग्रह, शोषण, अपहरण, व्यभिचार, कपट और हिंसा भी नहीं थी । मनुष्य पक्षी की भाँति स्वतंत्र, आकाश की भाँति अलिप्त, दर्पण की भाँति निर्मल, मधुकर की भाँति अल्पलाभ-संतुष्ट और भविष्य की चिन्ता से मुक्त एवं निर्भय था। कर्मभूमि के उदय के साथ उसके नैसर्गिक आचार में भी विकार आने लगा और अमृतमय जीवन में स्वार्थ का विष घुलने लगा, इससे जनमानस क्षुब्ध होने
१. धर्म की उत्पत्तिभय से और उसका पालन अन्धविश्वासों लगा। जिस जीवन में भौतिक वस्तुओं का आवश्यकता से अधिक की गोंद या पालने में संग्रह परिग्रह होता है वह परिवार अथवा समाज के लिए उपयोगी नहीं होता। जब मानव दानव बन जाता है तो पीड़ितों के त्राण, उनमें ज्ञान का अमृत प्रवाहित करने और भूले हुए स्वरूप की सुधि कराने के लिए समय-समय पर दार्शनिक, ऋषि, अवतार, तीर्थंकर आदि महामानव आते हैं।
महावीर स्वामी के काल में 'धर्म के मामले में मानव अपनी विकृतियों का दास बना हुआ था वैयक्तिक स्वातंत्र्य समाप्त हो चुका ४. वर्ग- स्वार्थ ने भी अपनी सुरक्षा और आजीविका के था और मानव के अधिकार तानाशाहों द्वारा समाप्त किए जा रहे थे। लिए धर्म का स्वांग रचा।
मानवता कराह रही थी और उसकी गरिमा खण्डित हो चुकी थी। धर्म राजनीति का एक भोथरा हथियार मात्र रह गया था।' (तीर्थंकर महावीर और उनकी आचार्य परम्परा भाग १, पृ० ७२ । ) महावीरस्वामी ने ३० वर्ष तक यथाजात नैसर्गिक अविरुद्ध और शुद्ध सात्विक जीवन आचार-विचार का स्वयं व्यवहार करते हुए घूम-घूम कर
७. स्व- पर कल्याण की भावना से और सर्वोदय- समाज की रचना के उद्देश्य से कुछ कल्याणेच्छु महामानवों ने अविरुद्ध, शुद्ध और सात्विक जीवन के द्वारा एक प्रकार की 'रहनि' की शिक्षा दी और स्वयं उसका आचरण करने के कारण उसे धर्म या स्वभाव की संज्ञा दी। ऐसे महात्माओं की दृष्टि में कोई छोटा-बड़ा, नीचऊँच, पापी- पुण्यात्मा नहीं था। उनकी दृष्टि में सर्वहितैषिता अर्थात् जीव मात्र की सुख-शान्ति थी। वसुधैव कुटुम्बकम् उनका मंत्र था और उनका घोष था।
सर्वे सुखिनः सन्तु सर्वे सन्तु निरामयाः ।
सर्वे भद्राणि पश्यन्तु मा कश्चित् दुःखभाग्भवेत् || -सभी सुखी हों, निरोग हों, सब कल्याण को देखें (प्राप्त
जीवन्तु जन्तवः सर्वे क्लेशव्यसनवर्जिताः । प्राप्नुवन्तु सुखं त्यक्त्वा वैरं पापं पराभवम् ।।
- सभी जीव कष्ट या आपदाओं से वर्जित जीवन जीएँ तथा
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मानव-संस्कृति का विकास
लोक के उस ओर जाने की प्रेरणा दी थी। इससे भय, अविञ्चास, नहीं आने दी। जो लोग महावीर की सहज नग्नता को समझ नहीं दु:ख, परिताप, हिंसा आदि पर्याप्त कम हो गए थे।
पाए, उनके लिए वे पहेली बन गए। उन लागों ने उन्हें देवदूष्य से महावीर स्वामी की दिव्यध्वनि में लोगों ने पहली बात यह ढंक दिया। जो देवदूष्य महावीरस्वामी को काँटों में घसीटने वाला सनी थी वस्तु उत्पाद, व्यय और ध्रौव्य युक्त है अर्थात् जीव जन्म, था, वह स्वयं काँटों में उलझ कर रह गया। महावीर की दिशा और मुत्यु और अमरत्व (सातत्य) युक्त है। दूसरा सूत्र यह सुना गया कि साधना का हार्द हम उनकी जीवनी और उनकी शिक्षाओं में देख मोक्ष, मुक्ति अथवा स्वतंत्रता की तीन सीढ़ियाँ-सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान सकते हैं। कार्लाइल को भी शायद महावीर की हवा लग गई थी।
और सम्यक्-चरित्र हैं। यदि कहें कि ज्ञान-विज्ञान का सारा चक्र इन यौगलिक संस्कृति तक उसकी दृष्टि नहीं जा सकी, परन्तु निर्दोष दो त्रिपटियों की धुरी पर घूमता है तो अतिशयोक्ति नहीं होगी। शैशव के प्रलोभन ने उसे अवश्य प्रभावित किया। उसने कहा- “मझे
हम ऊपर कह आए हैं कि आदिम मानव प्रकृति के अति पालना (झले) वाली शैशव स्थिति में लौट जाने दो (लेट मी स्लाइड निकट था, संग्रह-परिग्रह आदि की ओर उसका ध्यान ही नहीं था। बैक माई ब्रैडल)।' वह अकाम, अकिंचन, अनावृत और सरल था। उसे न लोकसंग्रह की आज संसार में जो आपाधापी, शस्त्रों की होड़, अधिकारों चिन्ता थी। न परलोक (स्वर्ग, नरक) की परवाह। पाँच महाव्रतों की छीनाझपटी, सभी क्षेत्रों में उथल-पुथल मची हुई है, अंधाधुध (सत्य, अस्तेय, अपरिग्रह, अहिंसा और ब्रह्मचर्य) के माध्यम से विधेयक बन रहे हैं, अधिकारों का सीमांकन और जाने क्या-क्या हो महावीर स्वामी मनुष्य को उसी नैसर्गिक अवस्था में पहुँचाना चाहते रहा है, उन सबके बदले यदि संसार महावीर के दिशा-बोध को थे। एक लंगोटी का परिग्रह भी अनर्थों का जनक हो सकता है, अपना ले तो सारी रस्साकशी का अंत हो कर स्वस्थ, स्वावलम्बी इसलिए भगवान महावीर ने तृष्णा या शल्य की वह परिस्थिति ही और सर्वोदयी समाज का उदय हो सकता है।
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युद्ध और युद्धनीति : जैनाचार्यों की दृष्टि में
-इन्द्रेशचन्द्र सिंह
युद्ध और युद्ध-प्रणाली उतनी ही प्राचीन है जितनी कि होते अपितु युद्ध में संलग्न राज्यों की सेनाएं ही लड़ाई में विधिवत मानव जाति की कहानी। मानव जीवन की कहानी युद्धों से भरी पड़ी भाग लेती हैं। अत: उपर्युक्त विवेचन के पश्चात् हम इस निष्कर्ष पर है। भौतिक संसार में युद्ध और संघर्ष मानव जीवन के सहचर हैं। पहुँचते हैं कि युद्ध दो या दो से अधिक राज्यों अथवा राष्ट्रों की प्राचीन काल से लेकर आज तक युद्धों ने एक नये समाज, सभ्यता सेनाओं के बीच होने वाली लड़ाई है।
और संस्कृति को जन्म दिया है, लेकिन अन्त में वह नवीनतम युद्ध सामाजिक विघटन का सबसे बड़ा स्वरूप है जिसमें सभ्यता भी अपनी सुलगाई हुई अग्नि में भस्म हो गई। संघर्ष परस्पर विरोधी राष्ट्र या मानव समूह हिंसात्मक साधनों द्वारा एक विश्वव्यापी है। व्यक्ति, समाज, देश या राष्ट्र हर किसी का अस्तित्व दूसरे पर घात-प्रतिघात करते हैं। यद्यपि समय-समय पर विभिन्न शक्ति पर कायम रहता है अतः अस्तित्व की सुरक्षा के लिए युद्ध विद्वानों, दार्शनिकों, राजनीतिज्ञों आदि ने युद्ध को भिन्न-भिन्न रूपों में अपरिहार्य हो जाता है। यदि मानव जाति के उद्भव और विकास पर परिभाषित करने का प्रयास किया है। यह परिभाषाएँ उनके काल और दृष्टि डाली जाय तो विदित होगा कि यह वसुन्धरा प्रारम्भ से ही व्यवसाय को अपेक्षित न कर सकीं। वास्तव में युद्ध सदैव एक वीरभोग्या है, यहाँ कायरों और दुर्बलों के लिए कोई स्थान नहीं है। सामाजिक तथ्य रहा है, परिवर्तित समाज, धर्म, अर्थ एवं नैतिक मानव का सर्वोपरि लक्ष्य आत्मरक्षा और आत्मविश्वास ही रहा है। पद्धतियाँ परिवर्तित ही नहीं होतीं वरन् समय-समय पर पूर्णतया
प्रकृति के नियम और विधान बहुत ही सशक्त और अविचल विलुप्त हो जाया करती हैं, सैनिक पद्धतियाँ भी बदलती हैं, तथापि होते हैं। जन्म है तो मृत्यु, सर्जन है तो विनाश, विकास है तो विकार युद्ध का कभी भी विनाश नहीं होता। शान्ति स्थापित करने की पवित्र भी है। यही प्रकृति का अटल नियम है। युद्ध मानवीय भाव है और भावनाएं, युद्ध निरोधक राष्ट्रीय चेष्टाएं, नि:शस्त्रीकरण हेत की गई मानवीय भाव प्रकृति से प्रभावित होता रहता है, इसीलिए युद्ध में सन्धियाँ सभी निरन्तर युद्ध की दावानल में स्वाहा होती रही हैं। जैसेनिर्माण और विनाश दोनों निहित रहते हैं। जब तक प्रकृति है, मानव जैसे सभ्यता का विकास हुआ, वैसे-वैसे प्रत्येक शताब्दी ने महाविनाशक है तब तक युद्ध का अस्तित्व रहेगा। मानव का अन्त होने पर ही युद्ध युद्ध देखे, जो पिछले युद्धों से कहीं अधिक विनाशकारी और निर्मम का अन्त हो सकता है। वास्तव में युद्ध करना मानव का धर्म है। सिद्ध हुआ। सम्भवत: इसीलिए कतिपय प्राचीन विचारकों ने युद्ध को राजधर्म सम्राटों के युद्ध राष्ट्र के युद्ध होने लगे। विश्वमंच युद्धमाना है। यहाँ तक कि युद्ध से पराङ्मुख होना, शत्रु के सामने घुटने नाट्य से कभी भी रिक्त नहीं रहा। यदा-कदा पटाक्षेप केवल उसको टेक देना भारतीय नीति को कभी भी बर्दास्त नहीं रहा।
अधिक कर और बर्बर बनाने के लिए अवकाशमात्र सिद्ध हआ। वास्तव में भिन्न-भिन्न लोग युद्ध का पृथक्-पृथक् अर्थ युद्ध के कारणलगाते हैं, किन्तु 'युद्ध' शब्द इतना सामान्य, प्रचलित तथा दैनिक प्राचीन काल में 'वीरभोग्या वसुन्धरा' का सिद्धान्त प्रचलित जीवन से सम्बद्ध है कि शायद ही कोई ऐसा व्यक्ति होगा, जिसे यह था। उस युग में कीर्ति, कांचन और कामिनी ही युद्ध के प्रमुख कारण न मालूम हो कि युद्ध का अर्थ क्या है? यद्यपि युद्ध का शाब्दिक अर्थ होते थे तथा इनके मूल में विषय लालसा और कषाय की भावना लड़ना होता है लेकिन प्राविधिक विचार से युद्ध और लड़ाई में थोड़ा निहित होती थी। प्राचीन काल में सर्वाधिक युद्ध स्त्रियों के कारण लड़े अन्तर प्रतीत होता है। लड़ाई मानव-मानव के बीच सम्पन्न हो सकती गये। जैन ग्रन्थों में संकटापन्न स्त्रियों की रक्षा के लिए, उनके रूपहै, लेकिन युद्ध मानव-मानव के बीच नहीं होता। इसलिए केवल सौन्दर्य से आकृष्ट हो उन्हें प्राप्त करने के लिए अथवा स्वयंवरों के राज्यों के बीच होने वाली लड़ाई को ही 'युद्ध' की संज्ञा प्रदान कर अवसर पर युद्ध किये जाने के अनेकश: उल्लेख मिलते हैं। प्राचीन सकते हैं। 'युद्ध' अधिक समय तक चलने वाली लड़ाई को कहते हैं। जैन ग्रन्थों में सीता', द्रौपदी२, रूक्मिणी३, पद्मावति, तारा", ज्ञातव्य है कि जब दो या दो से अधिक राज्यों के बीच युद्ध होता है, कांचना, रक्त सुभद्रा, अहित्रिका', किन्नरी, सुरूपा१०, विद्युन्मती११ तो राज्यो के संपूर्ण नागरिक युद्ध की ज्वाला में कूदकर स्वाहा नहीं और रोहिणी१२ नामक स्त्रियों के उल्लेख हैं, जिनके कारण संहारकारी
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युद्ध
और युद्धनीति
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युद्ध लड़े गये। मिथिला की राजकुमारी मल्ली १३ और कौशाम्बी की महारानी मृगावती १४ भी युद्ध का कारण बनीं कालकाचार्य की भगिनी सरस्वती को उज्जयिनी के राजा गर्दभिल्ल ने अपहृत कर अपने अन्तःपुर में रख लिया था, जिसके कारण कालकाचार्य ने ईरान के शाहों के साथ मिलकर, गर्दभिल्ल के साथ युद्ध किया १५ प्रायः एक राजा अपने पड़ोसी राजा पर आक्रमण करने का अवसर खोजता और यदि कोई बहुमूल्य वस्तु उसके पास होती तो उसे प्राप्त करने के लिए अपनी सारी शक्ति लगा देता । उज्जयिनी के राजा प्रद्योत और कांपिल्यपुर के राजा दुर्मुख के बीच एक बहुमूल्य दीप्तिवान महामुकुट को लेकर युद्ध छिड़ गया। इस मुकुट में ऐसी शक्ति थी कि उसे पहनने से राजा दुर्मुख दो मुंहवाला दिखाई देने लगता था। प्रद्योत ने इस मुकुट की माँग की, लेकिन दुर्मुख ने कहा कि यदि प्रद्योत अपना नलगिरि हाथी, अग्निभीरूरथ, महारानी शिवा और लोहजंघ पत्रवाहक १६ देने को तैयार हो तो वह उसे मुकुट दे सकता है। इस पर दोनों में युद्ध हुआ, प्रद्योत की विजय हुई और दुर्मुख बन्दी बना लिया गया। निरयावलिकासूत्र १७ में उल्लेख है कि चम्पा के राजा कूणिक का वैशाली के गणराजा चेटक के साथ सेचनक गन्धहस्ति और अट्ठारह लड़ी के बहुमूल्य हार को लेकर युद्ध हुआ था। उत्तराध्ययनटीका में वर्णन आता है कि राजा नमि का अपने भाई चन्द्रयश के साथ राज्य-प्रधान धवलहस्ति के लिए युद्ध हुआ। कथानुसार राजा नमि का हाथी खम्भा तुड़ाकर भाग गया था, चन्द्रयश ने उसे पकड़ लिया और माँगने पर नहीं दिया। चन्द्रयश ने कहा कि किसी के रत्नों पर उसका नाम नहीं लिखा रहता, जो उन्हें बाहुबल से प्राप्त कर ले वे उसी के हो जाते हैं।
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जैन आगम ग्रन्थ आचारांगसूत्र में तीन कारणों से हिंसा करने का उल्लेख है (१) प्रतिकार की भावना से अर्थात् यह सोचकर कि यह मेरे स्वजन आदि की हिंसा करता है, (२) प्रतिशोधवश, अर्थात् इसने मेरे स्वजनों को हिंसा की है, (३) आतंक तथा भयवश अर्थात् अमुक व्यक्ति मेरे स्वजन की हिंसा करेगा इस कारण भावी आतंक की संभावना से हिंसा करता है। २० इसके अतिरिक्त हिंसा के कुछ और कारणों का भी उक्त ग्रन्थ में उल्लेख हुआ है- (१) अपने इस जीवन के लिए, (४) पूजा आदि पाने के लिए, (५) सन्तान आदि के जन्मोत्सव पर, (६) मुत्यु सम्बन्धी कारणों और प्रसंगों पर, (७) मुक्ति की प्रेरणा आदि मिटाने के लिए। १९ आचारांग में कहा गया हैं कि सम्पूर्ण विश्व काम से पीड़ित है तथा स्त्री साक्षात् कामस्वरूप है। अतः कामी पुरूष स्त्रियों को भोग सामग्री मानकर कामवश उत्तेजित होकर अनेक प्रकार की हिंसा करते हैं । २२ स्त्री के निमित्त हुये युद्धों की चर्चा पूर्व में की जा चुकी है।
जैन पौराणिक ग्रन्थों में मुख्यतः स्त्री, राज्य, कामना, सर्वोपरिता की भावना, देश नगर आदि में अशान्ति तथा अपमान आदि कारणों से युद्ध होने के उल्लेख मिलते हैं। पद्मपुराण, हरिवंशपुराण तथा पाण्डवपुराण में वर्णित अधिकांश युद्ध स्त्रियों के कारण हुए। पउमचरिय में हनुमान और महेन्द्र के बीच तथा लव-कुश और लक्ष्मण के बीच युद्ध का मुख्य कारण मातृ - अपमान था। कुछ पौराणिक युद्ध स्वाभाविक वैर के कारण हुए, जिनमें सिंहोदरलक्ष्मण २३, कृष्ण-कंस २४ तथा कृष्ण जरासंध २५ के युद्ध विशेष उल्लेखनीय हैं। उक्त साहित्य में युद्धार्थ जिन शस्त्रों का उल्लेख हुआ है, उनका साकार रूप बम, टैंक, राकेट तथा विमानों के रूप में द्रष्टव्य है । यद्यपि प्राचीन युद्ध-प्रणाली की व्यूह रचना एवं नियम आज उतने महत्व के नहीं रहे फिर भी उसका आधार बहुत कुछ परिमार्जित रूप में अब भी प्रयुक्त होता है।
प्राचीनकाल में प्राय: सीमाप्रान्त को लेकर (राज्यविस्तार की इच्छा से) राजाओं में युद्ध हुआ करते थे। कभी-कभी विदेशी राजाओं का भी आक्रमण हो जाया करता था। चक्रवर्ती सम्राट बनने की अभिलाषा रखने वाला राजा अपने दलबल सहित दिग्विजय करने के लिए प्रस्थान करते थे और समस्त प्रदेशों पर अपना अधिकार जमा लेते थे। ऋषभदेव के पुत्र भरत की कथा जैनसूत्रों में मिलती है। भरत ने चक्ररत्न की सहायता से संपूर्ण भूखण्ड पर आधिपत्य स्थापित कर चक्रवर्ती पद प्राप्त किया था। १८ कभी-कभी स्वाभिमान की रक्षा के लिए भी युद्ध होते थे, चक्ररत्न के अहंकार से चूर जब भरत ने बाहुबली पर आक्रमण किया तब 'मैं और भरत एक ही पिता के हैं
पुत्र
! ऐसे स्वाभिमान के कारण बाहुबली ने भरत के साथ युद्ध किया युद्ध के प्रकार
और दृष्टियुद्ध, मल्लयुद्ध तथा खण्डयुद्ध आदि में भरत को परास्त
कर अन्त में विरक्ति के कारण दीक्षा ग्रहण कर लिया । १९
गये हैं
मानवीय हिंसा का व्यापक और वीभत्स रूप ही युद्ध है। (१) बाह्य युद्ध और (२) आन्तरिक युद्ध ।
जैनागम ज्ञाताधर्मकथाङ्गसूत्र में राजा कनकरथ की अत्यधिक राज्यलिप्सा का उदाहरण मिलता है-राजा कनकरथ को यह भय था कि यदि मेरा कोई पुत्र वयस्क हो गया तो संभव है कि वह मुझे सत्ताच्युत करके स्वयं राज्य-सिंहासन पर आसीन हो जाये। किन्तु उस काल में विकलांग पुरुष राज्य सिंहासन का अधिकारी नहीं हो सकता था। अवएव वह अपने प्रत्येक पुत्र को अंगहीन बना देता था। २६
जैनागम ग्रंथ आचारांगसूत्र में बुद्ध के दो प्रकार बतलाये
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जैन विद्या के आयाम खण्ड-७ बाह्य युद्ध- जो पराक्रम के बल से सेना द्वारा लड़ा जाता है बतलाए हैं- (१) धर्मयुद्ध (२) कूटयुद्ध। कौटिलीय अर्थशास्त्र में उसे बाह्ययुद्ध कहते हैं। .
तीन प्रकार के युद्धों का उल्लेख है-प्रकाशयुद्ध, कूटयुद्ध और आन्तरिक युद्ध- स्थूल शरीर और कर्मों के साथ लड़े जाने तूष्णीयुद्ध २९। जैनाचार्य सोमदेव ने दो प्रकार के युद्धों का वर्णन वाले युद्ध को आन्तरिक युद्ध कहा गया है। औदारिक शरीर जो किया है, प्रथमतः उन्होंने 'कूटयुद्ध' की व्याख्या करते हुए लिखा है इन्द्रियों और मनरूपी शस्त्र लिए हुए है, विषय सुख-पिपासु है और कि एक शत्रु पर आक्रमण करके वहाँ से अपनी सेना वापस लौटाकर स्वेच्छाचारी बनकर मानव को नचा रहा है, उसके साथ युद्ध करना जब दूसरे शत्रु का घात किया जाता है, उसे कूटयुद्ध कहते हैं। चाहिए तथा उस कर्मशरीर के साथ लड़ना चाहिए, जो वृत्तियों के तूष्णीयुद्ध वह है जिसमें विष देने वाले घातक पुरूषों को भेजा जाता माध्यम से मनुष्य को अपना दास बना रहा है। काम, क्रोध, मद, है, अथवा एकान्त में चुपचाप स्वयं शत्रु के पास जाकर भेदनीति के लोभ, मत्सर आदि सभी कर्म शत्रु की सेना हैं। भगवान् महावीर ने उपायों द्वारा शत्रु का घात किया जाता है। आन्तरिक युद्ध के लिए दो शस्त्र बतलाए हैं- परिज्ञा और विवेक। धर्मयुद्ध- प्राचीनकाल में धर्मयुद्ध को बहुत महत्व दिया परिज्ञा से वस्तु का सर्वतोमुखी ज्ञान करना और विवेक से उसके जाता था। धर्मयुद्ध के निर्धारित नियम होते थे और इन्हीं नियमों के पृथक्करण की दृढ़ भावना करना।२७ उत्तराध्ययनसूत्र में कहा गया है अनुसार युद्ध किये जाते थे। धर्मयुद्ध के नियम मानवोचित दया आदि कि आत्मा विजेता ही इस लोक और परलोक में सुखी होता है, अत: गुणों से युक्त होते थे। इसका उद्देश्य शत्रु का विनाश करना नहीं, स्वयं पर ही विजय प्राप्त करना चाहिए।२८
अपितु उसे पराजित कर अपनी अधीनता स्वीकार कराना ही होता जैनसूत्रों में भरत और बाहुबली के मध्य लड़े गये युद्धों का था। इसमें विषैले बाणों आदि का प्रयोग तथा अग्निबाणों का प्रयोग वर्णन है। भरत-बाहुबली की सेनाओं द्वारा होने वाले महाप्रलयकारी वर्जित था। इसके साथ ही यह युद्ध समान शक्ति वालों के साथ ही युद्ध से बचने के लिए देवताओं, आचार्यों अथवा मन्त्रियों ने युद्ध के होता था, जिसमें पैदल-पैदल से, गजारोही-गजारोही से, अश्वारोहीनवीन (अहिंसक) तरीकों का विधान किया ताकि दो राजाओं के अश्वारोही से तथा रथारोही-रथारोही योद्धाओं से युद्ध करते थे। यदि निजी स्वार्थों के निमित्त होने वाली अन्य जीवों (सेना आदि) की युद्ध में किसी का रथ टूट जाता था अथवा कोई घायल हो जाता था अकारण हिंसा से बचा जा सके। इस हेतु तत्कालीन आचार्यों ने तो उस पर आक्रमण करना धर्मयुद्ध के विरूद्ध माना जाता था। निम्नलिखित छ: प्रकार के युद्धों का निरूपण किया-
धर्मयुद्ध का उद्देश्य तो धर्म की स्थापना करना और अधर्म का नाश १- दृष्टियुद्ध- इस युद्ध में परस्पर दो प्रतिद्वन्द्वी राजा एक करना था। परन्तु सार्वभौम बनने की उत्कृष्ट अभिलाषा के कारण दूसरे की आँखों में आँखें डालकर अपलक देखते थे। इस प्रक्रिया में अश्वमेधादि यज्ञों द्वारा पराक्रम प्रकट करने के लिए भी युद्ध किया जिसकी पलकें पहले झुक जाती, उसे पराजित माना जाता था। जाता था। जब शत्रु पर धर्मयुद्ध द्वारा विजय प्राप्त करना असंभव
२- वाक्युद्ध-वाक्युद्ध में परस्पर दो प्रतिद्वन्द्वी राजा अपनी- दिखाई देता था तब कूटयुद्ध का प्रश्रय भी लिया जाता था। अपनी शक्ति के अनुसार तीव्र ध्वनि निनाद करते थे। जिसकी आवाज कूटयुद्ध- आचार्य कौटिल्य के अनुसार छल-कपट द्वारा अधिक प्रभावी सिद्ध होती थी, उसे विजयी माना जाता था। भय खड़ा करना, दुर्गों को ढ़हाना, लूटमार करना, अग्निदाह करना,
३- बाहुयुद्ध- बाहुयुद्ध में बाहुओं से एक दूसरे पर प्रहार प्रमाद और व्यसनग्रस्त शत्रु पर आक्रमण करना, एक स्थान पर युद्ध किया जाता था।
को रोककर दूसरे स्थान पर छल से मार-काट मचाना इत्यादि ४- मुष्टियुद्ध- यह आधुनिक बॉविंसग का प्राचीन रूप कूटयुद्ध के लक्षण हैं।३० प्रतीत होता है, जिसमें योद्धा एक-दूसरे पर मुष्टि प्रहार करते थे।
५- मल्लयुद्ध- मल्लयुद्ध आधुनिक कुश्ती का दूसरा युद्ध की आचार संहिता नाम था।
प्राचीनकाल में युद्ध के भी कतिपय नियम होते थे। इन्हीं ६- दण्डयुद्ध- उपर्युक्त पांचों युद्धों में यदि निर्णायक नियमों के अनुसार युद्ध किया जाता था और उनका अतिक्रमण करना स्थिति विवादास्पद होती थी तब दण्ड-युद्ध किया जाता था। इसमें बहुत बुरा समझा जाता था। तत्कालीन राजनीति में शरणागत की हाथ में दण्ड (गदा आदि ) लेकर युद्ध किया जाता था। रक्षा करना विशेष श्रेयस्कर माना जाता था। जैन आगम ग्रन्थ
जैनग्रथों में भरत और बाहबली के अतिरिक्त किसी अन्य निरयावलिकासत्र में उल्लेख है कि राजा चेटक ने अट्ठारह गणराजाओं राजा द्वारा उक्त प्रकार से युद्ध करने का कोई उल्लेख नहीं है। से मन्त्रणा की जिसमें गणराजाओं ने इस प्रकार कहा- 'हे स्वामिन् !
सामान्य दृष्टि से प्राय: सभी आचार्यों ने युद्ध के दो भेद वैहिल्यकुमार अपने पिता द्वारा दिये गये उपहारों के साथ आपकी
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शरण में आया है, अतः राजकुल को यह उचित नहीं है कि शरणागत कुमार को लौटा दें अतः हम सब राजा कूणिक से युद्ध करने के लिए तैयार हैं। ३१ इसी प्रकार जम्बूद्वीपप्रज्ञप्तिसूत्र ३२ में ५. उल्लेख है कि भरत राजा द्वारा नामोल्लखित बाण जब मागध तीर्थाधिपति के भवन में गिरा तब सर्वप्रथम वह कुपित हुआ लेकिन भरत द्वारा छोड़े गये बाण को जानकर वह हार, मुकुट, कुण्डल, कड़े तथा वस्त्रादि लेकर भरत के पास पहुँचा और भरत ने उसे शरणागत जानकर आभयदान दिया।
युद्ध
८.
ज्ञाताधर्मकथाङ्गसूत्र में वर्णन है कि राजा पद्मनाभ अपनी राजधानी अमरकंका को श्रीकृष्ण वासुदेव द्वारा भग्न किया हुआ जानकर भयभीत होकर द्रौपदी देवी की शरण में गया। तब द्रौपदी ने उससे कहा देवानुप्रिय ! क्या तुम नहीं जानते कि पुरूषोत्तम कृष्ण का अप्रिय करते हुए तुम मुझे यहाँ लाये हो? किन्तु जो हुआ हुआ सो हुआ अब तुम भेंट आदि लेकर मुझे आगे करके उनकी शरण मे चलो, उत्तमपुरूष प्राणिवत्सल होते हैं अर्थात् जो उनके सामने नम्र होते हैं उन पर दया और प्रसन्नता प्रकट करते हैं, ऐसा करने से ही तुम्हारे नगरी की रक्षा होगी, अन्यथा नहीं पद्मनाभ की दयनीय दशा को देखकर कृष्ण वासुदेव ने उसे मुक्त कर दिया। १३
९.
युद्धार्थियों के अपने कुछ नियम और सिद्धान्त भी होते थे जिनका पालन बड़ी सजगता से किया जाता था। जैनग्रन्थ व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र के अनुसार राजा वरूण ने नियम ले रखा था कि रथमूसल संग्राम में बुद्ध करते हुए जो मुझ पर पहले प्रहार करेगा, मैं केवल उसे ही मारूँगा, अन्य व्यक्तियों को नहीं । ३४
सन्दर्भ
१.
और युद्धनीति
जैनग्रन्थ नीतिवाक्यामृत में भी युद्ध के कतिपय नियमों का उल्लेख है। सोमदेव के अनुसार संग्राम भूमि में पैरों पर खड़े हुए भयभीत और शस्त्रहीन शत्रु की हत्या करने में ब्रह्महत्या का पाप लगता है। युद्ध में जो शत्रु बन्दी बना लिए गये हों उन्हें वस्त्रादि देकर मुक्त कर देना चाहिए।
२.
पउमचरिय में सीता की कथा मिलती है। रावण ने सीता का अपहरण किया जिसे प्राप्त करने के लिए राम ने रावण के साथ युद्ध किया।
ज्ञाताधर्मकथा में द्रौपदी की कथा है। द्रौपदी के कारण पाण्डवपद्मनाभ और कृष्ण-पद्मनाभ में युद्ध हुआ।
३-४. रूक्मिणी और पद्मावती कृष्ण वासुदेव की आठ अग्रमहीषियों में गिनी गयी हैं, रूक्मिणी कुण्डिनी नगर के राजा भीष्मक की पुत्री तथा रूक्मि की बहन थी और पद्मावती हिरण्यनाभ
७.
१०.
१६३
की कन्या थी । कृष्ण द्वारा इनके अपहरण किये जाने का उल्लेख त्रिषष्टिशलाकापुरूषचरित में मिलता है।
तारा सुग्रीव की पत्नी थी। तारा सम्बन्धी युद्ध का वर्णन त्रिषष्टिशलाकापुरूषचरित में लिखता है (८, ९, १०, ११) टीकाकार अभयदेव के अनुसार कांचना, अहिन्निका, किन्नरी, सुरूपा और विद्युन्मती की कथाएं अज्ञात हैं कुछ लोग राजा श्रेणिक की अग्रमहिषी चेल्लणा को ही कांचना कहते हैं (उद्धृत, जैन आगम साहित्य में भारतीय समाज पृ०९२ ) | सुभद्रा कृष्ण वासुदेव की बहन थी। अर्जुन द्वारा सुभद्रा के अपहरण की कथा हरिवंशपुराण तथा त्रिषष्टिशलाकापुरूषचरित में मिलती है।
रोहिणी बलराम की माता और वसुदेव की पत्नी थी। रोहिणी युद्ध कथा त्रिषष्टिशलाकापुरूषचरित तथा वसुदेवहिण्डी में मिलती है।
काशी, कोसल, अंग, कुणाल, कुरू और पांचाल के राजाओं ने मिथिला की राजकुमारी मल्ली के रूप, गुण की प्रशंसा सुनकर मिथिला पर आक्रमण कर दिया। मिथिला के राजा कुम्भ का इनके साथ युद्ध हुआ। ज्ञाताधर्मकथा में इस कथा का उल्लेख है।
मृगावती कौशाम्बी के राजा शतानीक की महारानी थी। कोई चित्रकार उसका चित्र बनाकर उज्जयिनी के राजा प्रद्योत के पास ले गया। प्रद्योत रानी पर मोहित हो गया, उसने शतानीक के पास दूत भेजा कि या तो वह मृगावती को भेज दे अथवा बुद्ध के लिए तैयार हो जाय इसका वर्णन आवश्यकचूर्णि में हुआ है।
}
११.
द्रष्टव्य निशीथचूर्णी संपा० उपाध्याय मरमुनिजी प्रका०भारतीय विद्या प्रकाशन, वाराणसी । १०.२८० । १२. वृहत्कल्पभाष्य संपा० पुण्य विजयजी प्रका० आत्मानंद जैन सभा, भावनगर वि०सं० १९९८. ६६३२८ (राजा के धावक जरूरी पत्र लेकर पवन वेग के समान दौड़कर जाते थे ।)
१३. निरयावलिकासूत्र, संपा० मधुकरमुनि प्रका० श्री आगम प्रकाशन समिति, व्यावर १९८५, ४३ १० १५७-१५८ १४. जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति संपा० मधुकर मुनि, प्रका० श्री आगम प्रकासन समिति, ब्यावर, ३/४१-७१:
१५. पद्मचरित संपा०; पं० दरबारीलाल, प्रका० माणिकचन्द्र ग्रंथ मालसमिति गिरगांव, मुम्बई, वि०सं० १९८५ ४/६७
७४ ।
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१६४
जैन विद्या के आयाम खण्ड-७
२५
१६. 'अप्पेगे हिंसिंस मे त्ति वा, अप्पेगे हिसंति वा, अप्पेगे हिंसिस्संति आचारांगसूत्र, संपा०- मधुकर मुनि, प्रका०- श्री आगम वाणे वधेति।
प्रकाशन समिति, ब्यावर, १९८४, ५/३/१५९ । आचारांगसूत्र, संपा०- मधुकर मुनि, प्रका०- श्री आगम तथा देखिए-अप्पाणमेव जुज्झाहि किं ते जुज्झेण बज्झओ? प्रकाशन समिति, ब्यावर, १९८४, १/६/५२;
उत्तराध्ययनसूत्र, संपा०- मधुकरमुनि, प्रका० श्री आगम प्रकाशन १७. इमस्म चेव जीवियस्स परिवंदण-माणण-पूयणाए, जाई-मरण- समिति, ब्यावर, ९/३५ मोयणाए दुक्ख पडिघातहेतुं'--वही १/७
२४. उत्तराध्ययनसूत्र संपा० मधुकर मुनि, प्रका०- श्री आगम १८. थीभि लोए पव्वहिते।
प्रकासन समिति, ब्यावर, १/१५; ते भो! वदंति एयाई आयतणाइं-वही २/४/८४
कौटिलीय अर्थशास्त्र, संपा०- उदयवीर शास्त्री प्रका०- मेहरचन्द १९. पद्मपुराण, संपा०- पं०- पन्नालाल जैन, प्रका०- भारतीय लक्ष्मणदास, दरियागंजए दिल्ली, १९७० २१/६/७ ज्ञानपीठ, काशी, सर्ग ३३
२६. वही ४६/६/७ २०. हरिवंशपुराण, संपा- पं० दरबारी लाल न्यायतीर्थ- २७ निरयावलिकासूत्र संपा०- मधुकर मुनि, प्रका०- श्री आगम
प्रका०- माणिकचन्द दिगम्बर जैन ग्रन्थमाल समिति- प्रकाशन समिति, ब्यावर, १९८५, ४४/१६६ मुम्बई, सर्ग ३६
८. जम्बूद्वीप्रज्ञप्तिसूत्र, संपा०- मधुकरमुनि, प्रका०- श्री आगम २१. पाण्डवपुराण, संपा०- जिनदास जैन कडकुलेशास्त्री, सोलापुर, प्रकाशन समिति, ब्यावर, १९८६, १८/१५२ १९८०, सर्ग १९
२९. ज्ञाताधर्मकथासूत्र संपा० मधुकर मुनि, प्रका०- श्री आगम २२: ज्ञाताधर्मकथा, संपा० - मधुकर मुनि, प्रका०- श्री आगम प्रकासन समिति, ब्यावर, १६/१९० प्रकाशन समिति, ब्यावर १५,पृ० ३६२
३०. व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र संपा० मधुकर मुनि, प्रका०- श्री आगम २३. इमेण चेव जुझहि किं ते जुझेण वज्झतो'।
प्रकासन समिति, ब्यावर, १८२ ७/९/८
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श्रमण और श्रावक का पारस्परिक सम्बन्ध : आगमों के आलोक में
डॉ० सागरमल जैन
जैन धर्म मूलत: निवृत्तिमार्गीय सन्यास मूलक श्रमण परम्परा एक महत्वपूर्ण अङ्ग माना। उन्होंने श्रावक वर्ग को मात्र इसलिए का धर्म है। यह भी सत्य है कि वैदिक परम्परा के विपरीत उसमें महत्त्व नहीं दिया कि वह भिक्षुसंघ के पोषण का मूल आधार है। संन्यास को ही साधनात्मक जीवन का चरम आदर्श स्वीकार किया यद्यपि इसमें कहीं वैमत्य नहीं है कि सभी परम्पराओं में भिक्षु- संघ गया है। अत: यह स्वाभाविक है कि उसमें श्रमण जीवन की प्रधानता के सम्पोषण और संरक्षण का दायित्व गृहस्थ वर्ग पर ही माना गया हो। उसका यह प्राचीन आदर्श रहा है कि व्यक्ति को पहले श्रमण है। यही कारण था कि वैदिक-परम्परा में जब चतुर्विध आश्रमधर्म का उपदेश दिया जाना चाहिये। श्रमण धर्म में दीक्षित होने में व्यवस्था मान्य हुई तो उसमें गृहस्थ आश्रम को अन्य सभी आश्रमों असमर्थता व्यक्त करे तो ही उसे श्रावक धर्म का उपदेश देना चाहिए। का आश्रय-स्थल माना गया । महावीर ने भी इस तथ्य को स्वीकार अत: यह तो निर्विवाद सत्य है कि जैन परम्परा में श्रमण धर्म की किया है। उन्होंने श्रावक के बारह व्रतों में एक व्रत अतिथि-संविभाग प्रधानता रही है और उसमें श्रमण को ही समाज के मार्गदर्शन और रखा है। उपासकदशा सूत्र में महावीर सकडाल पुत्र को यह निर्देश नेतृत्व का अधिकार दिया गया है किन्तु इस आधार पर यह निष्कर्ष देते हैं कि आजीवक श्रमणों के लिए भी तुम्हारा घर एक प्रजा के निकाल लेना कि जैनधर्म में गृहस्थ धर्म या श्रावक वर्ग का कोई समान रहा है अत: उनके आहार पानी की उपेक्षा मत करना। इस स्थान ही नहीं है, अनुचित कहा जायेगा।
प्रकार महावीर भी श्रमण- श्रमणियों के सम्पोषण के लिए गृहस्थों के तीर्थंकर धर्म-तीर्थ के रूप में जिस चतुर्विध संघ की कर्तव्य को मान्य करते हैं। किन्तु उन्होंने इसलिए महत्त्व दिया है कि स्थापना करते हैं उसमें साधु और साध्वी के साथ श्रावक और धर्म उसे साधना और धर्मतीर्थ की विकास यात्रा में वह भी एक श्राविकाओं को भी समान महत्त्व दिया गया है। श्रावक भी संघरूपी सहगामी यात्री है। इससे आगे बढ़कर गृहस्थों को संघ के नियंत्रण का तीर्थ का एक महत्वपूर्ण स्तम्भ है। श्रावक वर्ग के अभाव में मुनिसंघ अधिकार भी दिया। स्थानांगसूत्र में गृहस्थ को साधु-साध्वियों के का भी अस्तित्व नहीं रह सकता। ज्ञातव्य है कि मुनिवर्ग के अभाव माता-पिता के रूप में उल्लिखित करने के पीछे मूल उद्देश्य उसे में श्रावक-संघ का तो अस्तित्व रह सकता है। किन्तु श्रावक संघ के उसके कर्तव्य और अधिकार दोनों का बोध कराना था। जिस प्रकार अभाव में मुनि संघ नहीं रहता। अत: दोनों स्थापना और विच्छेद माता-पिता बालक के सम्पोषक और संरक्षक होने के साथ-साथ साथ-साथ होता है। जहाँ-बौद्ध परम्परा में गृहस्थ मात्र उपासक रहा, उसके निर्देशक और नियामक भी होते है। उसी प्रकार गृहस्थ वर्ग भी वहाँ जैन परम्परा में वह श्रावक बना। यहाँ यह भी ज्ञातव्य है कि साधु-साध्वियों का न केवल सम्पोषक या संरक्षक होता है अपितु बौद्ध-परम्परा में श्रावक (सावक) शब्द भिक्षु का वाचक है। गृहस्थ उनका नियामक भी होता है। इससे यह स्पष्ट है कि जैन परम्परा में के लिए वहाँ उपासक शब्द ही प्रचलित रहा है। उपासक और श्रावक गृहस्थ को श्रमण साधकों के चरित्र का प्रहरी भी मान लिया गया । शब्द के व्युत्पत्तिलम्य अर्थ में एक बहुत बड़ा अन्तर है। उपासक मात्र उसे यह अधिकार प्राप्त था कि यदि कोई साधु-साध्वी श्रमण मर्यादाओं सेवक है उसका कार्य है सेवा करना। जबकि श्रावक धर्म का श्रोता का सम्यक् रूपेण परिपालन नहीं कर रहा हो तो वह उसे श्रमण संघ होता है, जो श्रोता होता है वही ज्ञानी होता है, वहीमार्गदर्शन या से पृथक् कर दे। नेतृत्व का अधिकारी होता है। अत: श्रावक धर्मतीर्थ का एक महत्त्वपूर्ण जैन परम्परा में मुनि दीक्षा से लेकर आचार्य के सर्वोच्च पद घटक होता है। दूसरे बौद्ध-परम्परा में उपासक को बौद्ध-संघ का के चयन तक में गृहस्थ की अनुमति आवश्यक मानी गयी थी। यह सदस्य नहीं माना जाता था। जबकि जैन धर्म में वह चतुर्विध संघ का परम्परा आज तक भी प्रचलित है। यही कारण था कि जैन परम्परा में अंग है। उसके अभाव में संघ नहीं माना जाता था। यद्यपि भगवान् श्रावक वर्ग श्रमण संघ का प्रहरी बना रहा। उसका परिणाम यह हुआ बुद्ध ने संघ को प्रधानता दी किन्तु संघ से उनका तात्पर्य सदैव ही कि बौद्ध भिक्षु संघ में जो शिथिलता आई और उसके कारण भारत भिक्षु-भिक्षुणी का संघ ही रहा। उन्होंने उपासक वर्ग को उसका अंग में उसका अस्तित्व समाप्त हो गया, वह स्थिति जैन धर्म में नहीं नहीं बनाया, परिणाम यह हुआ कि उपासक वर्ग का भिक्षु-संघ पर आई। आज यह दुर्भाग्य है कि श्रावक वर्ग अपने इस दायित्व के प्रति कोई नियंत्रण नही रहा है। फलत: भिक्षु संघ उतरोत्तर शिथिलाचारी सजग नहीं है। संघ व्यवस्था और धर्म प्रभावना की दृष्टि से श्रावक होकर एक दिन अपनी अस्मिता को ही मिटा बैठा। इसके विपरीत वर्ग और श्रमण वर्ग सहयात्री और सहभागी हैं। भगवान महावीर ने श्रावक और श्राविका-वर्ग को अपने धर्म संघ का वस्तुत: न केवल संघ व्यवस्था की दृष्टि से अपित् आध्यात्मिक
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साधना की दृष्टि से भी गृहस्थ का स्थान उतना निम्न नहीं है जितना सामान्यतया मान लिया जाता है सूत्रकृतांग में स्पष्ट रूप से यह निर्देश है कि आरम्भ नो आरम्भ रूप गृहस्थ धर्म का यह स्थान आर्य हैं और समस्त दुःखों का अन्त करने वाला मोक्षमार्ग है। आज जो साधु विशेषण मात्र श्रमणों का है, कुछ शताब्दियों पूर्व तक यह विशेषण श्रावकों का भी रहा है। गृहस्थों के शाह और साहू जैसे उपनाम इसी का अपभ्रंस रूप है। जैन परम्परा के अनेकों अभिलेख ऐसे हैं जिनमें गृहस्थों के विशेषण के रूप में 'साधु' शब्द का प्रयोग हुआ है। अतः गृहस्थ को अत्यन्त निम्नस्तरीय मानना उचित नहीं है। उत्तराध्ययनसूत्र में तो स्पष्ट रूप से यह उल्लेख हैं कि चाहे सामान्य गृहस्थों की अपेक्षा श्रमणों को श्रेष्ठ मान लिया जाय किन्तु कुछ गृहस्थ भी ऐसे होते हैं जो श्रमणों से भी श्रेष्ठ होते हैं। इससे यह स्पष्टतया फलित होता है कि अनेक परिस्थितियों में गृहस्थ का साधनामय जीवन मुनियों से श्रेष्ठ हो सकता है। हमारे समाने इस युग में भी श्री हरीमल जी पारख जैसे कुछ सद् गृहस्थ रहे जिनका बाह्य आचार साधुओं की अपेक्षा भी श्रेष्ठ था। वस्तुतः आध्यात्मिक विकास और चारित्रिक साधना का सम्बन्ध केवल वेश और बाह्य आचार नियमों तक सीमित नहीं है। उत्तराध्ययनसूत्र में ही स्पष्ट रूप से उस तथ्य को भी स्वीकार कर लिया गया है कि व्यक्ति गृहस्थ जीवन में रहकर भी अपनी आध्यात्मिक साधना के द्वारा निर्वाण के चरम लक्ष्य को प्राप्त कर सकता है । ३ श्वेताम्बर और यामनीय परम्परा के द्वारा मान्य प्राचीन ग्रंथों में ऐसे अनेक उल्लेख है जिनमें गृहस्थ जीवन से सीधे परिनिर्वाण मुक्ति को उल्लेखित किया गया है। यदि गृहस्थ और मुनि दोनों ही सीधे मोक्ष प्राप्त करने की योग्यता रखते हैं तो फिर उनमें किसी को श्रेष्ठ और किसी को हेय नहीं कहा जा सकता। वस्तुतः प्रश्न किसी के गृहस्थ या मुनि होने का नहीं है। प्रश्न है उसने अपनी वासनाओं और विकारों पर किस सीमा तक विजय प्राप्त की है। वस्तुतः जिसके जीवन में अनासक्ति एवं समत्व का जितना विकास हुआ है वही उसकी श्रेष्ठता का मापदण्ड है उत्तराध्ययन के जिस उल्लेख का हमने पूर्व में निर्देश किया है वही यह सूचित करता है कि संयम और साधना के क्षेत्र में एक गृहस्थ भी मुनि की अपेक्षा श्रेष्ठ हो सकता है। यदि गंभीरता से विचार करें तो मुनि की अपेक्षा भी गृहस्थ जीवन में रहकर वासनाओं पर विजय प्राप्त करना और समभाव की साधना में निरत रहना अधिक कठिन है। मुनि जीवन की जो आचार व्यवस्था है उसमें फिसलन और विचलन के अवसर गृहस्थ को अपेक्षा अल्प होते हैं जंगल में साधना करने की अपेक्षा वेश्या के यहाँ चातुर्मास करने वाले स्यूलिभद्र को अधिक धन्यता इसलिए प्राप्त हुई कि उसने विचलन की सारी सम्भावनाओं के बावजूद अपनी चारित्रिक साधना को उज्जवलतम् बनाये रखा। अतः गृहस्थ जीवन में रहकर आध्यात्मिक साधना में अग्रसर होने वाले व्यक्ति को अधिक महत्व दिया जाता हैं। एक मुनि भी ब्रह्मचर्य
जैन विद्या के आयाम खण्ड- ७
का पालन करता है किन्तु विजय सेठ और उनकी पत्नी विजया के द्वारा एक शय्या पर सोकर ब्रह्मचर्य पालन की जो महानता है वह उससे कई गुना अधिक है।
आध्यात्मिक विकास के मार्ग में उतना महत्त्वपूर्ण नहीं है कि व्यक्ति ने मुनि का वेश धारण कर रखा है या गृहस्थ का महत्त्वपूर्ण यह है कि उसने अपनी वासनाओं पर नियंत्रण करने तथा अपने चैतसिक समत्व को बनाए रखने में कितनी क्षमता है और ऐसे श्रेष्ठ श्रावकों को मुनि संघ के सजग प्रहरी बने रहने का पूर्ण अधिकार है।
वस्तुतः गृहस्थ और मुनि के पारस्परिक सम्बन्धों को लेकर जो विवाद उत्पन्न होते हैं उनमें हम केवल उनके बाह्य रूपों पर ध्यान देते हैं। उनके चारित्रिक और आध्यात्मिक विकास की सामान्यतया उपेक्षा ही कर देते हैं। वस्तुतः एक चरित्र सम्पन्न आगमज्ञ गृहस्थ को यह अधिकार प्राप्त है कि वह मुनि संघ का सजग प्रहरी बनकर कार्य करें। आज सामान्य रूप से यह दृष्टिकोण विकसित हो रहा है कि मुनि श्रेष्ठ है और गृहस्थ को उसके नियंत्रण का कोई अधिकार नहीं है। वस्तुतः समाज का यह दुर्भाग्य है कि न तो मुनिवर्ग में आमि ज्ञान और आचार प्रवणता है और न गृहस्थों में साधना आज स्थिति यह है कि हमारा मुनिसंघ अपनी जो भौतिक आवश्यकताओं की पूर्ति के निमित्त श्रावकों और विशेष रूप से सुम्पन्न श्रावकों का आश्रित बनता जा रहा है और वे श्रावक जो उनके भक्त बने हुए होते हैं उनमें न तो चरित्र बल होता है और न आगमज्ञान, मात्र अनुचित साधनों से उपार्जित सम्पदा के बल पर समाज के नेता बने हुए हैं। यहीं स्थिति रही तो वही कहावत चरितार्थ होगी 'हम तो डूबेंगे सनम तुम्हें भी ले डूबेंगे' । वस्तुतः आज श्रावकों और साधुओं के बीच पारस्परिक सम्बन्धों को तय करना आवश्यक है।
वह सत्य है कि उन श्रावकों को जिनके पास न चारित्रिक बल है और न आगमज्ञान उन्हें मुनि संघ के नियंत्रण और मार्गदर्शन का अधिकारी नहीं माना जा सकता, किन्तु इसका अर्थ यह भी नहीं है कि श्रावक वर्ग को मुनि को अपनी स्वच्छन्द प्रवृत्तियों से रोकने का कोई अधिकार नहीं है। हमारे सामने उपासकदशांग का आनन्द और गौतक का कथानक इसका मार्गदर्शक है। आनन्द अपने ही आवास में स्थित साधनागृह में समाधिमरण की साधना में रत है, भिक्षार्थ जाते हुए गौतम उसके यहाँ जाते हैं, आपस में अवधिज्ञान की सीमा को लेकर दोनों में मतभेद होता है। गौतम जब महाबीर के पास पहुँचकर उस घटना का उल्लेख करते हैं तो महावीर उन्हें स्पष्ट आदेश देते हैं कि आहार ग्रहण करने के पूर्व आनन्द के पास जाकर क्षमायाचना करो। क्या गौतम से अधिक चरित्रवान् और शानी आज का साधु वर्ग है? महावीर के निकटस्थ शिष्य होने पर भी उनका किसी गृहस्थ के यहाँ क्षमा याचना करने जाने का यह प्रसंग इस बात का साक्षी है कि अपनी कमी या गलतियों के लिए मुनि को श्रावक
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श्रमण और श्रावक का पारस्परिक
से क्षमायाचना तक करनी होती है। अतः जो यह समझते हैं कि मुनि श्रेष्ठ हैं और वह चाहे कैसा भी हो और गृहस्थ को उसके नियंत्रण का कोई अधिकार नहीं है वे एक प्रांति में हैं। भाष्य और चूर्णि साहित्य में ऐसे अनेक कथानक हैं जिनमें गृहस्थों को शिथिलाचारी साधुओं के वन्दन और उन्हें भक्ति पूर्वक आहार आदि देकर उनका संरक्षण करने का निषेध किया गया है। साधुवर्ग के प्रति श्रद्धा और सम्पोषण के दायित्व के साथ-साथ उनके चरित्र का सजग प्रहरी होना भी गृहस्थ का दायित्व है।
प्रायश्चित्त व्यवस्था के सन्दर्भ में भाष्यचूर्णि साहित्य में ऐसे स्पष्ट उल्लेख हैं कि आचार्य आदि के अभाव में साधु योग्य श्रावक के समक्ष भी अपनी आलोचनाकर सकता है और प्रायश्चित्त ले सकता है। इससे भी इस तथ्य की पुष्टि होती हैं कि भ्रमण संघ के प्रशासन में उसका पूरा अधिकार था। हां इस सन्दर्भ में इतनी सजगता आवश्यक है कि श्रावक को श्रमण संघ को अनुशासित करने का अधिकार तक ही प्राप्त होता है जब वह स्वयं चरित्रवान् हो एवं आगमज्ञ हो । प्राचीनकाल में श्रावकों में आगमों के अध्ययन की परम्परा थी। भगवतीसूत्र में पाश्चांपत्य श्रावकों के द्वारा और जयन्ती श्राविका के द्वारा महावीर से अनेक प्रश्नों पर चर्चा के प्रसंग मिलते हैं। यदि श्रावक और श्राविका वर्ग के अध्ययन का निषेध यह तो मध्यकाल की ही देन है कि जब चैत्यवास का विकास हुआ और साधुओं के सामने यह प्रश्न खड़ा हो गया कि यदि गृहस्थों में आगम का पठन-पाठन होगा, तो वे मुनि के आगमिक आचार और वर्तमान आचार के अन्तर को जान जायेंगे, फलतः उनमें उनके प्रति अश्रद्धा का भाव उत्पन्न होवेगा। अतः श्रावक को आगमों के अध्ययन का जो निषेध किया गया उसके पीछे चैत्यवासी मुनियों का शिथिलाचार ही प्रमुख कारण था। प्राचीन आगमिक व्याख्याओं में स्पष्ट रूप से दान के क्षेत्र में पात्र अपात्र का विचार मात्र इतना ही नहीं, बल्कि उसमें पात्र में भी श्रेष्ठ, मध्यम और अधम की भी चर्चा है। यदि श्रावक मुनि संघ के आचार का सजग प्रहरी नहीं माना जा सकता है तो फिर उसे पात्र-अपात्र का विचार करने का कोई अर्थ नहीं रह जाता है। हम यह भी देखते हैं कि परवर्ती काल में पात्र-अपात्र सम्बन्धी विचार की इस अवधारणा का आचार्यों ने विरोध भी किया और यहां तक कहा गया कि गृहस्थ के लिए मुनिवेश ही पर्याप्त है उसे उनके सम्बन्ध में पात्र-अपात्र का विचार नहीं करना चाहिए । ५
भगवतीसूत्र में पारर्श्वापत्य श्रावकों के द्वारा और जयन्ती श्राविका के द्वारा महावीर से अनेक प्रश्नों पर चर्चा के प्रसंग मिलते हैं। यदि श्रावक और श्राविका वर्ग आगम और धर्म सम्बन्ध में ज्ञान और जिज्ञासा नहीं रखता तो इसप्रकार की चर्चाएं सम्भव नहीं थीं। पुनः उपासकदशांग आदि आगम तो पूर्णतया श्रावक वर्ग से सम्बन्धित है। उनका अध्ययन साधु की अपेक्षा गृहस्थ के लिए ही आवश्यक है। मात्र यही नहीं यापनीय परम्परा में छेदपिण्डशास्त्र और छेदशास्त्र
सम्बन्ध : आगमों के आलोक में
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नामक ग्रन्थों में तो स्पष्ट रूप से श्रावक श्राविकाओं की प्रायश्चित्त विधि का वर्णन है। इससे फलित यही होता है कि श्रावक-श्राविका वर्ग में आगम ग्रन्थों के अध्ययन की परम्परा थी। स्थानक वासी परम्परा में ऐसे अनेक श्रावक थे, जो बत्तीस ही आगमों के ज्ञाता थे। आधुनिक सन्दर्भ में गृहस्थ एवं मुनि संघ का सम्बन्ध
आगमिक सन्दर्भों के आधार पर हमने श्रावक और साधुओं के पारस्परिक सम्बन्ध की जो चर्चा की, उसे वर्तमान सन्दर्भ में भी स्पष्ट कर लेना अप्रासंगिक नहीं होगा, क्योंकि प्राचीन काल की अपेक्षा भी आज दोनों की पारस्परिक निर्भरता अधिक हो गयी है। प्राचीन काल में जब मुनि संघ सामान्यतया वनों गिरिकन्दराओं में अथवा नगरों के बाहर निवास करते थे, तब गृहस्थों से उनका सम्बन्ध मात्र भिक्षा प्राप्त करने या गृहस्थों की जिज्ञासा पर उन्हें धर्मोपदेश करने से अधिक नहीं था, किन्तु चैत्यवास और नगरनिवास के साथ ही गृहस्थों और मुनियों के सम्बन्ध में अधिक प्रगाढ़ता आई है अब वे कदम-कदम पर श्रावकों पर आश्रित होते जा रहे हैं। आज न केवल उनके भोजन वस्त्र या चिकित्सा का उत्तरदायित्व गृहस्थों पर होता है अपितु उनके प्रवचन आदि की व्यवस्था करना, संचार साधनों के माध्यम से उन्हें प्रसारित करवाना, अपने एवं उनके अहं की तुष्टि के लिए अथवा जैन धर्म की प्रभावना के लिए बड़े-बड़े समारोहों को आयोजित करवाना, उसमें राजनेता आदि को आमंत्रित करवाना प्रभावना के हेतु विविध प्रकार के महोत्सव, तीर्थयात्राएँ एवं पूजा प्रतिष्ठा आदि का आयोजन करवाना- इन सब कार्यों के लिए मुनि संघ गृहस्थों पर ही निर्भर होता जा रहा है, मात्र यही नहीं आज दर्शनार्थ आये हुए उनके भक्तों के आवास, भोजन आदि की व्यवस्था का उत्तरदायित्व भी स्थानीय संघों पर होता है। यह सब खर्च करवाने के लिए आज मुनि संघ को सामान्य श्रावकों की अपेक्षा पूंजीपतियों की अपेक्षा होती है, फलतः वह पूंजीपतियों की मुट्ठी में आता जा रहा है। अब उसकी स्वतन्त्रता धीरे-धीरे समाप्त होती जा रही है। यह एक निर्विवाद सत्य है कि वह जितना जितना गृहस्थों पर आश्रित होगा उसकी स्वतन्त्रता और प्रामाणिकता सीमित होगी। दूसरी ओर आध्यात्मिक साधना में शिथिलता आयेगी। आज का जो पूंजीपति वर्ग है वह मुनियों की उपासना या सान्निध्य इसलिए नहीं पाना चाहता कि उससे उसका आध्यात्मिक या चारित्रिक विकास हो । उसकी साधु वर्ग से मुख्य अपेक्षा अपने भौतिक कल्याण को लेकर ही होती है। वह केवल इसलिए मुनियों के पास जाता है कि उनकी कृपादृष्टि आध्यात्मिक शक्ति अथवा तपोबल से उसका भौतिक कल्याण होगा तथा सम्पत्ति आदि में अभिवृद्धि होगी। इसप्रकार लौकिक ऐषणा और भौतिक आकांक्षा की पूर्ति के नाम पर सम्पत्तिवान् श्रावकों का एक वर्तुल खड़ा हो रहा है। लोगों में यह विश्वास प्रचलित हो गया है कि अमुक मुनि में विशेष प्रकार की दिव्य शक्ति, तपोबल आदि है जिससे उनका भौतिक कल्याण हो सकता है, उनके पीछे
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जैन विद्या के आयाम खण्ड-७
भीड़ जुटने लगती है। यह एक आध्यात्मवादी निवृत्ति प्रधान जैन उनके प्रतिशत में भी कोई बहुत बड़ा अन्तर आया हो ऐसा भी मैं संस्कृति के लिए चिन्तनीय है, ये एक दिन यह कथन सार्थक हो नहीं मानता, किन्तु आज एक भी घटना से जिन शासन की जितनी जायेगा कि 'गुरु चेला दोनों डूबे बैठ पत्थर की नाव'। यदि श्रावकवर्ग प्रतिष्ठा धूमिल होती हैं उतनी प्राचीनकाल में नहीं होती थी, क्योंकि
और श्राविका वर्ग में यह सजगता आवश्यक है कि मुनियों से उसका संचार के माध्यम इसने सक्रिय नहा थे आज मात्र छोटी सी घटना को सम्पर्क और सम्बन्ध अपने चारित्रिक विकास के लिए ही अपेक्षित है भी तिल का ताड़ बनाकर प्रस्तुत कर दिया जाता है, अत: इस अपनी भौतिक एषणाओं की सम्पूर्ति के लिए नहीं। दूसरी ओर सम्बन्ध में अधिक सजगता की आवश्यकता हैं। यदि आज जिनमुनियों में भी यह चेतना विकसित होना आवश्यक है कि वे शासन की प्रतिष्ठा की रक्षा करना है तो हमें यह ध्यान रखना होगा आध्यात्मिक साधना एवं चारित्रिक विकास के लिए दीक्षित हुए हैं न कि संघ के सभी सदस्यों की जीवन शैली निर्दोष हो। इसलिए यह कि लोगों की भौतिक एषणाओं की सम्पूर्ति के लिए। लोकैषणा के आवश्यक है कि त्यागी-वर्ग श्रावकों का सजग प्रहरी बने और श्रावक लिए दोनों का एक दूसरे पर आश्रित होना यह शुभ लक्षण नहीं है। वर्ग त्यागी वर्ग का सजग प्रहरी बने। किन्तु प्रहरी बनने का उद्देश्य आज स्थिति यह है कि मुनियों को अपनी लोकैषणा की पूर्ति या अहं उनकी साधना में सहयोगी बनकर उनके आध्यात्मिक विकास के लिए के पोषण एवं प्रदर्शन के लिए श्रावकों से धन चाहिए और श्रावकों कार्य करना है न कि एक दूसरे की कमियों को समाज में उजागर को उनकी कृपा से भौतिक सम्पदा। इस दुश्चक्र का परिणाम क्या करना। होगा, यह विचारणीय है। आज सामान्या यह स्थिति विकसित होती आज एक खतरा यह भी बढ़ गया है-संचार माध्यम जा रही है कि समाज में चारित्रवान और ज्ञानी श्रावकों का कोई मूल्य ब्लैकमेल करने की कला में निपुण होता जा रहा है अत: उसके प्रति और महत्त्व नहीं रह गया है। साधुओं में आगम ज्ञान लुप्तप्राय होता भी सजग रहना है। आवश्यकता यह है कि एकान्त में बैठकर ही
रहा है, ऐसी स्थिति में जो निर्धन, किन्तु श्रद्धा सम्पन्न एवं चारित्र गुण-दोषों की समीक्षा करनी होगी, तिल से ताड़ बनाने में सम्पूर्ण सम्पन्न श्रावक वर्ग है वह समाज से कटता जा रहा है। यह एक भिन्न जिन शासन की प्रतिष्ठा धूमिल होगी, उसमें श्रावक की प्रतिष्ठा भी बात है कि आज समाज में आर्थिक सम्पन्नता बढ़ी है किन्तु यह भी शामिल है। प्राचीन आगम साहित्य में प्रायश्चित् व्यवस्था को गोपनीय कम विचारणीय नहीं है कि इस आर्थिक समृद्धि की अभिवृद्धि के विषय इसीलिए माना गया था। बौद्धों में जहाँ प्रायश्चित् निर्धारण संघ साथ हमारी चारित्रिक निष्ठा और चारित्रबल दोनों का पतन हुआ है। के द्वारा होता था वहाँ जैनों में आचार्य के द्वारा होने से संघ की
आज संचार साधनों की द्रुतगति हुई प्रगति हुई है, एक प्रतिष्ठा सुरक्षित रहती थी। आज भी आवश्यकता यही है कि श्रावक छोटी सी घटना भी अखबार में सुर्खियों में छप जाती है। परिणाम वर्ग प्रहरी बने उसकी भूमिका सिपाही की भूमिका हो। वह न्यायाधीश यह होता है कि किसी एक मुनि का चारित्रिक पतन भी सम्पूर्ण समाज नहीं है, वह दायित्व आचार्य का है। यदि दोनों वर्ग अपनी-अपनी के मुख पर कालिख लगा देता है। जब संचारमाध्यम इतना प्रबल मर्यादा और दायित्व को समझेंगे तभी जैन शासन की प्रतिष्ठा बढ़ेगी। नहीं था तब यह विषय इतना चिन्तनीय नहीं था। यह तो सत्य है कि सन्दर्भ भगवान् महावीर के काल से लेकर आज तक कोई ऐसा समय नहीं १. सूत्रकृतांग २/२/३९, रहा जब इतने बड़े श्रमण संघ में किसी मुनि का चारित्रिक पतन हुआ २. उत्तराध्ययन ५२० हो, घटनाएँ तो पूर्वकाल में भी होती थीं और आज भी होती हैं। ३. उत्तराध्ययन ३६/४९, भरहेसचरियं ४६१-४६४
४. उपासकदशा- आनन्द नामक प्रथम अध्ययन
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जैनधर्म और वर्णव्यवस्था
पं० फूलचन्द्र सिद्धान्त शास्त्री'
भारतवर्ष को स्वराज्य मिलने के बाद भारत सरकार और बात साफ है। जैन हिन्द नहीं हैं यह कहना तो उनका जन प्रतिनिधियों का इस ओर ध्यान गया है। भारतीय संविधान सभा बहाना मात्र है। वास्तव में वे केवल इतना ही चाहते हैं कि जैन ने जिस संविधान को स्वीकार किया है उसमें दो सिद्धान्त निश्चित रूप मन्दिरों में अस्पृश्यता पूर्ववत् कायम बनी रहें। से मान लिए गए हैं।
वे ऐसा क्यों चाहते हैं, इसका कारण बहुत स्पष्ट है। किन्तु १. हम मनुष्यों में किसी भी प्रकार की अस्पृश्यता नहीं मानते। हम उसमें जाना नहीं चाहते। हमारे सामने मुख्य प्रश्न संस्कृति का है। २. हिन्दुओं के प्रत्येक सार्वजनिक स्थान और सम्पत्ति का, चाहे वह आगम इस विषय में क्या कहता है, हमें तो यहाँ इसी बात का मन्दिर, धर्मशाला या ट्रस्ट ही क्यों न हो, सभी हिन्दू समान रूप से निर्णय करना हैं। उपयोग कर सकते है।
यह तो मानी हुई बात है कि हिन्दू शब्द किसी धर्म विशेष भारत की दो प्रमुख संस्कृतियाँ का वाची नहीं है। सदरपूर्व काल से जितने धर्मों के मनुष्य यहाँ उस भी सर्वप्रथम हमें यह देखना है कि वर्ण क्या वस्तु है निवास करते थे और जिन धर्मों के प्रवर्तक यहाँ जन्मे थे वे सब हिन्दू और उसकी स्थापना यहाँ किन परस्थितियों में हुई। यह तो सर्व शब्द की व्याख्या में आते हैं। इस व्याख्या के अनुसार न केवल विदित है कि भारतवर्ष में श्रमण और वैदिक दो संस्कृतियां मुख्य हैं। वैदिक धर्म के अनुयायी हिन्दू ठहरते हैं अपितु जैन बौद्ध और सिख इन दोनों के आचार-विचार और क्रिया-कलाप में महान् अन्तर है। ये भी हिन्दू ही माने जाते हैं। संविधान की २५ वी धारा के नियम वैदिक संस्कृति मुख्य रूप से ईश्वरवादियों की परमपरा है और श्रमण नं०२ में इस बात का स्पष्ट रूप से उल्लेख कर दिया गया है कि- संस्कृति स्वावलम्बियों की परम्परा है। इन दोनों में पूर्व पश्चिम का ___Hindu Includes Jain, Baudha and Sikhas. अन्तर है। पतञ्जलि ऋषि ने हजारों वर्ष पहले अपने भाष्य में इसे
जहाँ तक हम देखते हैं सिखें और बौद्धों को इसमें कोई स्वीकार किया है। वे इन दोनों के विरोध को अहि-नकूल (साँप आपत्ति नहीं है। वे इस तथ्य को न केवल स्वीकार करते हैं अपितु न्योला) के समकक्ष का मानते हैं। 'हस्तिना ताड्यमानोऽपि न गच्छेत् इसका प्रचार भी करते हैं, क्योंकि इसमें वे अपना सांस्कृतिक लाभ जेन मन्दिरम्' आदि वचन इसी विरोध के सूचक हैं। इसलिए जब देखते हैं। राहुल जी ने अनेक बार लिखा है कि हमें किसी भी हालत कभी हम सांस्कृतिक दृष्टि से विचार करते हैं तब हमें इनके अन्तर में अपने को हिन्दू कहलाना नहीं छोड़ना है।
को सामने रखना आवश्यक हो जाता है, अन्यथा पदार्थ का निर्णय किंत् कुछ रूढ़िवादी जैन इस तथ्य को स्वीकार करने से करने में न केवल कठिनाई आती है अपितु दिशाभ्रम होने का भय हिचकिचाते है। उनके सामने मुख्य प्रश्न जैन मन्दिरों का है। उन्हें रहता है। भय है कि हिन्दू शब्द को उक्त व्याख्या माने लेने पर हमें जैनमन्दिर कथित अस्पश्यों को खोलने पड़ेंगे जब कि वे इसे लिए वर्ण शब्दकी व्याख्या तैयार नहीं है।
वर्ण क्या है यह प्रश्न बहत कठिन नहीं है। इसका अर्थ इस समय जैन समाज में विवाद दो स्तरों पर चल रहा है। आकार या रूप रंग होता है। प्राचीन ऋषियों ने इसी अर्थ में इसका प्रथम तो यह कि 'जैन हिन्दू हैं या नहीं' और दूसरा यह कि 'अस्पृश्य योग किया था। उन्होंने मनुष्यों के रूप रंग की जानकारी के लिए जैन मन्दिरों में जा सकते हैं या नहीं।' प्रथम प्रश्न ऐतिहासिक हैं और उनकी आजीविका और चर्या को मुख्य साधना माना था। मनुष्य जन्म दूसरा सांस्कृतिक ।
से अपनी आजीविका लेकर नहीं आता। किन्तु वह जिन परिस्थितियों कुछ जैनों का ख्याल है कि सरकार से 'जैन हिन्दू नहीं है' में बढ़ता है और उसे अपने विकास के जैसे साधना उपलब्ध होते हैं इस बात के स्वीकार करा लेने पर 'कथित अस्पृश्य जैन मन्दिरों में उनके आधार से उसकी आजीविका निश्चित होती है। डॉ० अम्बेडकर जा सकते हैं या नहीं' इस प्रश्न के अलग से निर्णय कराने की आजकी कथत 'महार' जाति मे जन्म है। 'महार' दक्षिण में एक आवश्यकता नहीं रहती। वे सोचते है कि इस तरह जैन मन्दिर उन अछूत जाति है। इनके माता-पिता इसी जाति के अंग थे। किन्तु आज कानुनों से अपने आप बरी हो जाते हैं जो कथित अस्पृश्यों को वे कानून के महान् पण्डित है। भारत को उनपर नाज है। वे भारतीय मन्दिर प्रवेश का अधिकार देते हैं।
संविधान के मुख्य कर्ता धर्ता है। उनकी बुद्धि और प्रतिभा का विश्व
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जैन विद्या के आयाम खण्ड-७ ने लोहा माना है। यों तो वैदिकों की पुरानी व्यवस्था के अनुसार वे बोलता उसे हम ब्राह्मण कहते हैं।२ अस्पृश्य ठहरते हैं पर आज वे किसी भी उच्च कोटि के ब्राह्मण से चित्तमन्तमचित्तं वा, अप्पं वा जइ वा बहुं। हीनकोटि के नहीं माने जा सकते। इस तथ्य को प्राचीन ऋषियों ने भी न गिण्हाइ अदत्तं जे, तं वयं बूम माहणं।। अनुभव किया था। तभी तो उन्होंने कहा था
सचित्त या अचित्त कोई भी पदार्थ, भले ही फिर वह थोड़ा क्रियाविशेषाद् व्यवहारमात्राद्याभिरक्षाकृषिशिल्पभेदाता
हो या ज्यादा, जो बिना दिये नहीं लेता उसे हम ब्राह्मण कहते हैं।३ शिष्टाश्च वर्णाश्चतुरो वदिन्ति न चान्यथा वर्णचतुष्टयं स्यात् ।।
दिव्वमाणुसतेरिच्छं, जो न सेवइ मेहुणं। -बरांगचरित सर्ग २५ श्लोक ११
मणसा कायवक्केणं, वं वयं बम माहणं।। प्राचीन शिष्ट पुरुषों ने चार वर्णों का जिन कारणों से जो देव, मनुष्य और तिर्यंच सम्बन्धी सभी प्रकार के मैथुन प्रतिपादन किया था उन्हीं का इस श्लोक में सुस्पष्ट रूप से वर्गीकरण का मन, वचन और शरीर से कभी सेवन नहीं करता उसे हम ब्राह्मण किया गया है। वे कारण छ: हैं-१ क्रियाविशेष, २ व्यवहारमात्र, ३ कहते हैं। दया, ४ प्राणियों की रक्षा, ५ कृषि और ६ शिल्प। श्लोक के जहा पोम्मं जले जायं, नोवलिप्पइ वारिणा। अन्तिम चरण में बतलाया है कि चार वर्गों की सत्ता इन्हीं कारणों से एवं अलितं कामेहि, वं वयं बूम माहणं।। मानी जा सकती है, अन्य किसी भी प्रकार से चार से चार वर्ण नहीं जिस प्रकार कमल जल में उत्पन्न होकर भी जल से लिप्त हो सकता है।
नहीं होता, इसी प्रकार जो संसार में रहकर भी काम भोगों से सर्वथा ' इनमें प्रारम्भ के दो सामान्य कारण हैं और अन्त के चार अलिप्त रहता है उसे हम ब्राह्मण कहते हैं। क्रम से ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र इन चार वर्णों के सूचक हैं आदिपुराण में भी ब्राह्मण वर्ण की उत्पत्ति का सुस्पष्ट सर्वप्रथम आचार्य क्रिया विशेष को चार वणों हेतु कहना चाहते हैं, निर्देश किया है। वहाँ बतलाया है कि भरत चक्रवर्ती ने तीन वर्ण के परन्तु उन्हें भय है कि कहीं कोई इस आधार से मनुष्यों के वास्तविक व्रती श्रावकों को ब्राह्मण वर्ण का कहा था और तभी से ब्राह्मण वर्ण भेद न मान बैठे, इसलिए वे कहते हैं कि मनुष्यों को ऐसा कहना कि लोक में प्रसिद्धि को प्राप्त हुआ। 'यह अमुक वर्ण का है, यह अमुक वर्ण का है' व्यवहारमात्र है। लोक चार वर्णों के कार्यों का निर्देश करते हुए वहाँ यह श्लोक में ब्राह्मण आदि शब्द के द्वारा कथन करने की रूढ़ि है- कोई ब्राह्मण आया है६.. कहलाता है और कोई क्षत्रिय, वैश्य या शूद्र। इसके लिए इस कथन ब्राह्मणा व्रतसंस्कारात् क्षत्रियाः शस्त्रधारणात्। की अन्य कोई मौलिक विशेषता नहीं है। यदि थोड़ी देर को यह मान वणिजोऽर्थार्जनाच्छद्रा न्यग्वृत्तिसंश्रयात्।। भी लें कि व्यवहार में इन नामों के प्रचलित होने के कोई अन्य कारण जिन्होंने व्रतों को स्वीकार किया है वे ब्राह्मण हैं, जो अवश्य हैं तो वे दया, अभिरक्षा, कृषि और शिल्प इनके सिवा और आजीविका के लिए शस्त्र स्वीकार करते हैं, वे क्षत्रिय हैं जो न्यायमार्ग हो ही क्या सकते हैं। यही कारण है कि प्राचीन काल में इन क्रियाओं से अर्थाजन करते हैं वे वैश्य है और जो जघन्य वृत्ति स्वीकार करते के आधार से ब्राह्मण आदि चार वर्णों का नामकरण किया गया था। हैं वे शूद्र हैं। १. ब्राह्मण वर्ण
इससे भी यही ज्ञात होता है कि ब्राह्मण वर्ण का मुख्य - पहला कारण दया है। यह अहिंसा का प्रतीक है। अहिंसा आधार आजीविका नहीं है किन्तु व्रतों को स्वीकार करना है। तभी तो आदि पाँच व्रतों को स्वीकार कर उनका पालन करना ही ब्राह्मण वर्ण पद्मचरित में कहा हैकी मुख्य पहचान है। 'ब्राह्मण कौन' इसका निर्देश प्राचीन साहित्य में व्रतस्थमपि चाण्डाल। तं देवा ब्राह्मणं विदुः।। 'वस्तृत आधारों पर किया है। इसकी व्याख्या करते हुए उत्तराध्ययन इस श्लोक में आचार्य रविषेण ने कितनी बड़ी बात कहीं में कहा है
है। इससे जैन धर्मकी आत्मा निखर उठती है। वे इसमें स्पष्ट रूप तसपाणे वियाणित्ता, संगहेण य थावरे।
से उस चाण्डाल (चाण्डाल कर्म से आजीविका करनेवाले) को भी जो न हिंसइ तिविहेणं, वं वयं बूम माहणं ॥
ब्राह्मणरूप से स्वीकार करते हैं जो जीवन में व्रतों को स्वीकार जो त्रस स्थावर सभी प्राणियों को भलीभाँति जानकर उनकी करता है। मन, वचन और काय से कभी हिंसा नहीं करता उसे हम ब्राह्मण जैनधर्म के अनुसार वर्णव्यवस्था का रहस्य क्या है यह कहते हैं।
इसमें खोल कर बतलाया गया है। कोई भी मनुष्य अपनी आजीविका कोहा वा दइ वा हासा, लोहा वा जइ वा भया।
क्षत्रिय, वैश्य, शूद्र, किसी वर्ण की क्यों न करता हो यदि वह व्रतों मुसं न वयईं जो उ, तं वयं बूम माहणं।।
का पालन करने लगता है तो वह वर्ण से ब्राह्मण हो जाता है यह जो क्रोधसे, हास्यसे, लोभसे अथवा भयसे असत्य नहीं इसका तात्पर्य है।
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जैनधर्म और वर्णव्यवस्था
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मनुस्मृति में ब्राह्मण के अध्ययन, अध्यापन, दान और देश की रक्षा करना और देश के भीतर सुव्यवस्था बनाये रखना रखना प्रतिग्रह ये चार मुख्य कार्य बतलाए हैं। अन्यत्र आदिपुराण में भी इन उनका काम है यह 'अभिरक्षा' शब्द से व्यक्त होता है। कार्यों का निर्देश है। किन्तु इनका पूर्वोल्लेखों से समर्थन नहीं होता। आजकल राजनीति में अहिंसा के प्रवेश का श्रेय महात्मा वस्तुतः ब्राह्मण वर्ण की स्थापना आजीविका की प्रधानता से न की गांधी को दिया जाता है। यह हम मानते हैं कि महात्मा गांधीने आज जाकर जीवन में व्रतों का महत्त्व स्थापित करने के लिए ही की गई की दूषित राजनीति में एक बहुत बड़ी क्रान्ति की है। इससे न केवल थी। आगे चलकर ब्राह्मण वर्ण स्वयं एक जाति बन गई यह वैदिक भारतवर्ष का मस्तक ऊँचा हुआ है अपितु विश्व को बड़ी राहत मिली धर्म की ही कृपा समझिए।
है। किन्तु यह कोई नई चीज नहीं हैं। हजारों वर्ष पहले से जैन २. क्षत्रिय वर्ण
शासकों की यही नीति रही है। भारत ने दूसरे देशों पर कभी दुसरा कारण अभिरक्षा है। किसी भी देश में ऐसे लोगों की आक्रमण नहीं किया, मात्र आक्रमण से इस देश की रक्षा की यह इसी बड़ी आवश्यकता होती है जो परचक्र से देश की रक्षा करते हुए नीतिका सुन्दर फल है। आज विश्व इस चीज को समझ रहा है और समाज में सुव्यवस्था बनाए रखते हैं। अभिरक्षा शब्द द्वारा इसी कार्य वह इसके लिए भारत की प्रशंसा भी करने लगा है। की सूचना की गई है। यह कार्य क्षत्रिय वर्ण की मुख्य पहचान है। ३. वैश्य वर्णइसके अनुसार शासन, सेना और पुलिस में लगे हुए मनुष्य क्षत्रिय तीसरा कारण कृषि है। प्रत्येक देश की अभिवृद्धि का मुख्य वर्ण के माने जा सकते हैं।
कारण कृषि, वाणिज्य, उपयोगी पशुओं का पालन और उनका क्रयसाधारणत: यह समझा जाता है कि शस्त्र धारण करना और विक्रय करना माना गया है। कार्य-विभाजन के साथ यह कार्य करना मारकाट करना क्षत्रियों का काम है। किन्तु जो लोग कहते हैं वे इस जिन्होंने स्वीकार किया था उन्हें वैश्य संज्ञा दी गई थी। उक्त कार्य बात को भुला देते हैं कि शस्त्रविद्या में निपुणता प्राप्त करना तथा देश वैश्य वर्ण की मुख्य पहचान है।
और समाज पर आपत्ति आने पर उसके वारण का उद्यम करना यह इस समय भारतवर्ष में वैश्यवर्ण एक स्वतन्त्र जाति मान किसी एक वर्ण का काम नहीं है। वर्ण में मुख्यता आजीविका की ली गई है और उसका मुख्य काम दलाली करना रह गया है। कृषि रहती है। यदि हम यह कहें कि वर्ण आजीविका का पर्यायवाची है तो और उपयोगी पशुओं का पालन करना यह काम उसने कभी का छोड़ कोई अत्युक्ति न होगी। जिस समय आदिनाथ जन्मे थे उस समय दिया है। इन दोनों कामों को करने वाले अब प्राय: शुद्र माने जाते हैं। उनका कोई वर्ण न था किन्तु जब उन्होंने प्रजा की रक्षा द्वारा इसी नीति का परिणाम है कि देश में आर्थिक विषमता अपना मुंह अपनी आजीविका करना निश्चित किया और आजीविका के आधार बाये खड़ी है। कृषक वर्ग देश की रीड़ है। उसके हाथ में ही व्यापार से मनुष्यों को तीन भागों में विभक्त कर दिया तब वे स्वयं अपने रहना चाहिए यह हमारे देश की पुरानी व्यवस्था थी। आज कल वह को क्षत्रिय वर्ण का कहने लगे। अभिप्राय यह है कि यदि कोई व्यवस्था सर्वथा लुप्त हो गई है जिससे न केवल भारतवर्ष दु:खी है पुलिस, सेना और शासन के प्रबन्ध में लगकर इस द्वारा अपनी अपितु विश्व में त्राहि-त्राहि मची हुई है। आजीविका करता है तो वह क्षत्रिय वर्ण का कहा जाता है, अन्यथा उत्पादन और वितरण का परस्पर सम्बन्ध है। उत्पादन एक नहीं। क्षत्रियों का वर्ण अर्थात् कार्य बतलाते हुए महाकवि कालीदास के हाथ में हो और वितरण दूसरे के हाथ में यह परम्परा समाज रघुवंश में राजा दिलीप के मुख से क्या कहलाते हैं यह उन्हीं के व्यवस्था को नष्ट करने के लिए घुन का काम करती है। हम रूस की शब्दों में सुनिये
आर्थिक प्रणाली को दोष दे सकते हैं पर बारीकी से देखने पर विदित क्षतात्किल त्रायत इत्युदनः क्षत्रस्य शब्दो भुवनेषु रूढः। __ होता है कि उसमें इसी तत्त्व की प्रकारान्तर से प्रतिष्ठा की गई है।
अर्थात् क्षत्रिय शब्द पृथिवी पर 'आपत्ति से रक्षा करना' इस इसमें सन्देह नहीं कि इससे किसी हद तक व्यक्ति की स्वतन्त्रता का अर्थ में रूढ़ है।
घात होता है और व्यक्ति को आर्थिक दृष्टिकोण से समष्टि के अधीन इससे स्पष्ट है कि बहुत प्राचीन काल की बात तो जाने रहने के लिए बाध्य होना पड़ता है किन्तु वर्तमान उत्पादन और दीजिए महाकवि कालीदास के काल में क्षत्रिय नाम की कोई जाति वितरण की प्रणाली के चालू रहते इस दोष के प्रक्षालन का अन्य विशेष नहीं मानी जाती थी। किन्तु जो अभिरक्षा द्वारा अपनी आजीविका कोई उपाय भी नहीं हैं। करते थे ते ही क्षत्रिय कहे जाने थे।
प्राचीन काल में कृषक को ही सर्वेसर्वा माना गया था। क्षत्रियवर्ण के कार्य में अभिरक्षा शब्द अपना विशेष महत्त्व वही उत्पादक था और वही वितरक। उस समय आज के समान रखता है। शासन की नीति क्या हो यह इस शब्द द्वारा स्पष्ट किया गया कृषकों से व्यापारियों का स्वतन्त्र वर्ग न था। यह बात इसी से है। आक्रमण और सुरक्षा ये शासन-व्यवस्था के दो मुख्य अंग माने जाते स्पष्ट है कि उस समय कृषि और वाणिज्य (व्यापार) एक ही व्यक्ति हैं। किन्तु आक्रमण करना यह क्षत्रियों का काम न होकर मात्र परचक्र से के हाथ में रख्ने गए थे।
न था। याक समान
य कृषि और
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जैन विद्या के आयाम खण्ड-७
चाया
४. शूद्रवर्ण
हुए लिखा है कि जिस विराट् पुरुष ने नदी, तालाब, वृक्ष, लताएँ, चौथा कारण शिल्प है। गृह उद्योग में इसका महत्त्व सर्वोपरि पशु, देव और दानव बनाए उसका ब्राह्मण मुख है, क्षत्रिय बाहु है, है। प्राचीन काल में यह काम करने वाले मनुष्यों को ही शूद्र वर्ण का वैश्य जंघाएँ हैं और शूद्र दोनों पैर हैं। कहा गया था इसमें सन्देह नहीं।
अथर्ववेद में भी यह उल्लेख आता है किन्तु वहाँ वैश्यों को किन्तु धीरे धीरे यह स्थिति बदलती गई और आजीविका जंघाओं की उपमा न देकर उदर की उपमा दी गई है। के आधार से अनेक जातियाँ बनने लगीं। समाज में ऐसे मनुष्यों का वेदों के बाद ब्राह्मण और उपनिषद् काल आता है किन्तु एक स्वतन्त्र वर्ग बना जो नाच-गान से अपनी आजीविका करने वहां इनके कार्यों का अलग से विचार नहीं किया गया है। लगा। इसके बाद इस स्थिति में और भी अनेक परिवर्तन हुए और इसके बाद मनुस्मृति का काल आता है। मनुस्मृति ब्राह्मण अन्त में उन मनुष्यों का एक वर्ग सामने आया जिनका पेशा सेवावृत्ति धर्म का प्रमुख ग्रन्थ है। इसकी रचना मुख्यतया चार वर्णों के धर्म . करना रह गया। समाज में ये स्थित्यन्तर कैसे हुए इसके कारण अनेक कर्तव्यों का कथन करने के लिए की गई थी। हैं। किन्तु यहां हम उन कारणों का विचार नहीं करेंगे क्योंकि यह एक यहाँ पर हम प्रसंग से धर्म के सम्बन्ध में दो शब्द कह देना स्वतन्त्र निबन्ध का विषय है। तत्काल हमें यह देखना है कि शूद्रों की चाहते हैं। 'धर्म' शब्द मुख्यतया दो अर्थों में व्यवहत होता है- एक इस स्थिति के उत्पन्न करने में मुख्य कारण कौन है।
व्यक्ति के जीवन संशोधन के अर्थ में जिसे हम आत्म धर्म कहते हैं यह तो हम पहले ही बतला आये हैं कि हमारे देश की और दूसरा समाज कर्तव्य के अर्थ में। मनुस्मृतिकार ने इन दोनों अर्थों श्रमण और वैदिक ये दो संस्कृतियां मुख्य हैं, इसालए शूद्रों की में धर्म शब्द का उल्लेख किया है। वे समाज कर्तव्य को वर्णधर्म वर्तमान स्थिति के कारणों की छानबीन करने के लिए इनके साहित्य कहते हैं और दूसरे को सामान्य धर्म कहते हैं। धर्म, अर्थ, काम और का आलोडन करना आवश्यक हो जाता है। उसमें भी सर्वप्रथम मोक्ष इन चार पुरुषार्थों में धर्म पुरुषार्थ से वर्णधर्म ही लिया गया है। प्राचीन जैन और बौद्ध साहित्य को लीजिए। बौद्धों के धम्मपद और उनके मत से सामान्य धर्म अर्थात् आत्मधर्म के अधिकारी सभी जैनों के उत्तराध्ययन में समान रूप से यह गाथा आती है. मनुष्टा हैं किन्तु समाज-कर्तव्य सब के जूदे हैं। गीता में 'स्वधमें कम्मुणा बह्माणो होइ कम्मुणा होइ खत्तिओ।
निधनं श्रेयः' से इसी समाजधर्म का ग्रहण होता है। वइसो कम्मुणा होइ सुद्दो हवइ कम्मुणा।।
मनुस्मृतिकार ९वें अध्याय में शूद्र वर्ण के कार्यों का निर्देश इसमें चारों वर्गों की स्थापना का मुख्य आधार कर्म माना करते हुए कहते हैंगया है।
विप्राणां वेदविदुषां गृहस्थानां यशस्विनाम् यद्यपि इससे इस बात पर प्रकाश नहीं पड़ता कि किस वर्ण शुश्रूषैव तु शूद्रस्य धर्मो नैश्रेयसः परः।। का कर्म क्या है? फिर भी श्रमण संस्कृति के अनुसार इन चार वर्षों वेदपाठी, गृहस्थ और यशस्वी विप्रों की सेवा करना यही की स्थापना का मुख्य आधार सामाजिक उच्चता और नीचता तथा शूद्रों का परम धर्म है जो निश्रेयस का हेतु है। जातिवाद नहीं है इतना इससे स्पष्ट हो जाता है।
इसके आगे वे पुन: कहते हैंइन वर्गों का पृथक् पृथक् कर्म क्या है इसकी विशद शुचिरुत्कृष्टशुश्रूषुर्मुदुवागनहंकृतः। व्याख्या आचार्य जटासिंहनन्दी ने वरांगचरित में की है। इसका ब्राह्मणाद्याश्रयो नित्यमुत्कृष्टां जातिमश्नुते।। उल्लेख हम पहले ही कर आए हैं।
पवित्र रहने वाला, अच्छी टहल करने वाला, धीमे से जैन परम्परा में इसके बाद आदिपुराण का काल आता है। बोलने वाला, अहंकार से रहित और ब्राह्मण आदि तीन वर्षों के आदिपुराण में चार वर्गों के वे ही कार्य लिखे हैं जिनका उल्लेख आश्रय में रहने वाला शुद्र ही उत्तम जाति को प्राप्त होता है। जटासिंहनन्दी ने किया है। किन्तु शूद्रों के कार्यों में उसके कर्ता ने इस तरह इन दोनों परम्पराओं के साहित्य का आलोचन एक नये कर्म का प्रवेश और किया है जिसे उन्होंने न्यग्वृत्ति (सेवावृत्ति) करने से यह बात बहुत साफ हो जाती है कि शूद्रवर्ण का मुख्य शब्द से सम्बोधित किया है। वे शूद्र वर्ण के कार्य का शिल्पकर्म के कर्तव्य तीन वर्गों की सेवा करना मनुस्मृति की देन है। आदिपुराण में रूप में उल्लेख न कर उसके स्थान में मुख्य रूप से न्यग्वृत्ति शब्द यह बात मनुस्मृति से आई हैं। आदिपुराण में जो शूद्रों के स्पृश्य और का निर्देश करते हैं।
अस्पृश्य ये भेद किये गए है वह भी मनुस्मृति व इतर ब्राह्मण ग्रन्थों यह तो श्रमण परम्परा की स्थिति है। अब थोड़ा वैदिक का अनुकरण-मात्र है। यह इसी से स्पष्ट है कि आदिपुराण के पहले परम्परा को देखिए।
अन्य किसी आचार्य ने शूद्रों के न तो कारू-अकारू और स्पृश्य वैदिक परम्परा में वेदों का प्रथम स्थान है। उनमें ऋग्वेद अस्पृश्य ये भेद किये हैं और न उनका काम तीन वर्गों की सेवा पहला है। इसके पुरुष सूक्त में सृष्टि के उत्पत्ति-क्रम का निर्देश करते करना ही बतलाया है। आदिपुराणकार को ऐसा क्यों करना पड़ा
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इसके लिए हमें भारत की तात्कालिक और इससे पहले की परिस्थिति शूद्र के साथ असंवत नामक नरक को प्राप्त होता है। १७ श्राद्धकर्म के का अध्ययन करने की आवश्यकता है। इस समय भारतवर्ष में अयोग्य शूद्र का पका अन्न न खावे, किन्तु अन्न न मिलने पर एक हिन्दुओं और मुसलमानों का विरोध जिस स्तर पर चालू है ठीक वही रात्रि निर्वाह योग्य उससे कच्चा अन्न ले लेवे।१८ मृतक शूद्र को गांव स्थिति उस समय श्रमणों-ब्राह्मणों की थी। उस समय श्रमणों और के दक्षिण द्वार से ले जावे।१९ मरे हुए ब्राह्मण को शूद्र के द्वारा न ले श्रमणोपासकों को 'नंगा लुच्चा' कहकर अपमानित किया जाता था, जाय, क्योंकि शूद्र के स्पर्श से दूषित हुई वह शरीर की आहुति स्वर्ग उनके मन्दिर ढाये जाते थे, मूर्तियों के अंग भंग कर उन्हें विद्रूप देने वाली नहीं होती।२० शूद्रों को मास में एक बार हजामत बनवाना बनाया जाता था, बौद्धों को 'बुद्ध' शब्द द्वारा संबोधित किया जाता चाहिए और ब्राह्मण का जूठा भोजन करना चाहिए।२१ केवल जाति था और जैन-बौद्ध साधुओं को अनेक प्रकार से कष्ट दिये जाते थे। से जीविका निर्वाह करने वाला धर्महीन ब्राह्मण राजा की ओर से मीनाक्षी के मन्दिर में अंकित चित्र आज भी हमें उन घटनाओं की धर्मवक्ता हो सकता है।२२ परन्तु शूद्र कदापि नहीं हो सकता। जो शूद्र याद दिलाते हैं। ८-९वीं शताब्दी में यह स्थिति इतनी असह्य हो गई अपने से उच्च वर्ण की निन्दा करे तो राजा उसकी जिह्वा निकाल ले, थी जिसके परिणाम स्वरूप बौद्धों को तो यह देश ही छोड़ देना पड़ा क्योंकि उसका पैर से जन्म है और उसको अपने से उच्च को कुछ भी था और जैनों को तभी यहां रहने दिया गया था जब उन्होंने ब्राह्मणों कहने का अधिकार नहीं है।२३ यदि कोई शूद्र ब्राह्मण को नीच आदि के सामने सामाजिक दृष्टि से एक तरह आत्मसमर्पण कर दिया था। कुवचन कहे तो अग्नि में तपाकर १० अंगुल की लोहे की कील यह तो हम आगे चल कर बतलाएँगे कि आदिपुराण में मनुस्मृति से उसके मुँह में ठोक दे।२४ यदि कोई शूद्र अहंकारवश किसी ब्राह्मण कितना अधिक साम्य है। यहाँ केवल इतना ही उल्लेख करना पर्याप्त को उपदेश देवे तो राजा उसके कानों में तपा हआ तेल छोड़ देवे।२५ है कि आदिपुराण में शूद्र वर्ण का जो सेवावृत्ति कार्य बतलाया गया मनु जी की आज्ञा है कि शूद्र जिस अंग से द्विजातियों की ताड़ना करे है उसका श्रमण परम्परा से मेल नहीं खाता।
उसी अंग का भंग कर देना चाहिए।२६ हाथ से मारे तो हाथ, पैर से इस प्रकार शूद्र वर्ण का प्रधान कार्य क्या था और बाद में मारे तो पैर भंग कर देना चाहिए।२७ शूद्र के ब्राह्मण के आसन पर उनकी सामाजिक स्थिति में किस प्रकार परिवर्तन होता गया इसका बैठने पर लोहा गर्म करके उसकी पीठ दाग दे, देश से निकाल दे संक्षेप में निर्देश किया।
और उसके शरीर से मांसपिण्ड कटवा दे।२८ शूद्र के ब्राह्मण पर मनुस्मृति और शूद्रवर्ण
थूकने पर दोनों होट कटवा दे, मूतने पर लिंगेन्द्रिय छिदवा दे और अब यहाँ यह देखना है कि शूद्रवर्ण की इस तरह की अपान वायु छोड़ने पर गुदा छेदन कर दे।२९ जो शूद्र अभिमानवश निकृष्ट अवस्था के होने में मनुस्मृति का कितना हाथ है। यह तो हम द्विजाति को बाल पकड़ कर पीड़ा दे या पैर या वृषणों को कष्ट दे तो पहले ही बतला आए हैं कि मनुस्मृति में चारों वर्गों के कार्यों और उसके हाथ को कटवा दे। शूद्र यदि भर्ता आदि द्वारा रक्षित स्त्री के उनके परस्पर सम्बन्ध का विस्तृत विचार किया गया है। उसके कर्ता साथ गमन करे तो उसकी लिंगेन्द्रिय कटवा दे।३१ क्रीतदास या ग्रन्थ के आदि में मंगलाचरण के बाद स्वयं लिखते हैं ११:- प्राप्तदास इन्हीं से टहल सेवा करावे, क्योंकि ब्रह्माजी ने शूद्र को भगवन्! सर्ववर्णानां यथावदनुपूर्वशः।
ब्राह्मण का दासकर्म करने के लिए ही उत्पन्न किया है।३२ ब्राह्मण अन्तरप्रभवाणां च धर्मानो वक्तुमर्हसि।।
मालिक द्वारा त्यागा हुआ शूद्र दासत्व से मुक्त नहीं हो सकता, हे भगवन्! सब वर्णों और संकीर्ण जातियों के धर्मों को क्योंकि उसका दासत्व स्वभावसिद्ध है, उसे कौन छुड़ा सकता है।३३ आद्यन्त आप हमें कहने के योग्य हैं।
स्त्री, पुत्र और दास (शूद्र) ये अधम कहे गए हैं, क्योंकि वे जो धन मनुस्मृति कहती है
एकत्र करते हैं वह इन्हीं के मालिक का होता है।३४ शूद्र का काम है 'ब्राह्मण, क्षत्रिय और वैश्य इनकी निष्कपट भाव से सेवा कि वह निरन्तर अपने कार्य में रत रहे।३५ स्वर्ग की प्राप्ति के वास्ते करना यही एक धर्म शूद्र का कहा गया है। ११ शूद्र सन्ध्या करने का और इस लोक में अपनी गजर के वास्ते शूद्र ब्राह्मण की सेवा करे, अधिकारी नहीं। तथा जो द्विज प्रात: और सायंकाल के समय सन्ध्या क्योंकि वह ब्राह्मण का सेवक है। सेवक शब्द से शूद्र की कृतकृत्यता नहीं करता वह भी शूद्र के समान सब प्रकार के द्विजकर्तव्य से है।३६ ब्राह्मण की सेवा करना शूद्र का परम धर्म कहा है, शूद्र जो बहिष्करणीय है। १२ शूद्रकन्या से चारों वर्गों के मनुष्य विवाह कर अन्य कर्म करता है वह सब निष्फल हो जाता है।३७ सेवक शूद्र के सकते हैं परन्तु शूद्र शूद्रकन्या से ही विवाह कर सकता है। १३ श्राद्ध वास्ते ब्राह्मण उच्छिष्ट भोजन, पुराने वस्त्र और धान्यों के बाकी बचे में भोजन करते समय ब्राह्मण को चाण्डाल न देखे।१४ शूद्रों के राज्य कण और पुराने बर्तन देवे।३८ शूद्र का उपनयन संस्कार न करे, में निवास न करे।'' शूद्र को उपदेश न देवे और न झूठ हवन से उसका यज्ञादि धर्म में भी कोई अधिकार नहीं है।३९ शूद्र धनसंचय न बचा हुआ शाकल्य देवे तथा शूद्रों को धर्म और व्रतों का उपदेशन करे, क्योंकि उसके पास धन बढ़ जाने पर वह ब्राह्मणों को सताने करे।१६ शद्रों को धर्म और व्रत का उपदेश करने वाला मनुष्य उसी लगता है।
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भारतीय परंपरा में विषमता के बीज मनुस्मृति ने बोए यह वि.सं. २००४, ९/३३४ उक्त उल्लेखों से स्पष्ट हो जाता है।
९. वही- ९/३३५ उपसंहार
१०. वही- १/२ भारतवर्ष में ईस्वी चौथी शताब्दी के पूर्व अछूतपन की ११. वही- १/९१ बीमारी नहीं थी। जब ब्राह्मणधर्म का भारतवर्ष में प्राबल्य हुआ और १२. वही- २/१०३ वे जैन-बौद्धों को परास्त कर मनुस्मृति के आधार से समाज-व्यवस्था १३. वही- ३/१३ को दृढमूल कराने में समर्थ हुए तभी से इस भयानक बीमारी ने हमारे १४. वही- ३/२३९ देश में प्रवेश किया है।
१५. वही-४/६१ . बौद्ध इस देश को छोड़कर चले गए इसलिए वे इस १६. वही- ४/८० बीमारी के शिकार न हो सके किन्तु जैनों को ८-९वीं शताब्दी में १७. वही- ४/८१ इसके सामने न केवल नतमस्तक होना पड़ा अपितु समानता के १८. वही- ४/२२३ आधार पर स्थापित अपनी पुरानी सामाजिक व्यवस्था से उन्हें चिरकाल १९. वही- ५/९२ के लिए हाथ धोने पड़े।
२०. वही- ५/१०४ ब्राह्मण धर्म की समाज व्यवस्था के अनुसार अछूतपन एक २१. वही- ५/१४० स्थायी वंशानुगत कलंक है जो किसी तरह धुल नही सकता। २२. वही- ८/२०
आज के रूढ़िवादी जैनी कुछ भी क्यों न कहें पर हमें इस २३. वही- ८/२७० बात का संतोष है कि जैन धर्म की उदात्त भावना के दर्शन उसके २४. वही- ८/२७१ विशाल साहित्य में आज भी होत हैं जिसका उसने सदा काल २५. वही- ८/२७२ तिरस्कार किया है। तभी तो आचार्य जिनसेन कहते है४१:- २६. वही- ८/२७९ मनुष्यजातिरेकैव जातिकमोंदयोद्भवा।
२७. वही- ८/२८० वृत्तिभेदाहिताद् भेदाच्चातुर्विध्यमिहाश्नुते।।
२९. वही- ८/२८२ जाति नाम कर्म के उदय से उत्पन्न हुई मनुष्य जाति एक है। ३०: वही- ८/२८३ यदि उसके चार भेद माने जाते हैं तो केवल आजीविका के कारण ही। ३१. वही- ८/३७४
३२. वही- ८/४१३ १. उत्तराध्ययन, संपा. भगवान् विजयजी, प्रका. श्रीशचन्द्र भट्टाचार्य, ३३. वही- ८/४१४ कलकत्ता, वि०सं० १९३६, २५/२२
३४. वही- ८/४१६ वही . २५/२३
३५. वही- ८/४७८ ३. वही - २५/२४
३६. वही- १०/१२२ ४. वही - २५/२५
३७. वही- १०/१२३ ५. वही - २५/२६
३८. वही- १०/१२५ ६. आदिपुराण, संपा० पं० पन्नालाल जैन, प्रका. भारतीय ज्ञानपीठ ३९. वही- १०/१२६ मूर्तिदेवी जैन ग्रंथमाला, ग्रन्थांक-९, ३२/४६
४०. वही- १०/१२९ ७. उत्तराध्ययन, २५/३१
४१. आदिपुराण, संपा० - पं० पन्नालाल जैन, प्रका० भारतीय. ८. मनुस्मृति, अनु, ज्योतिषाचार्य श्रीगणेशदत्त पाठक, बनारस, ज्ञानपीट मूर्तिदेवी जैन ग्रंथमाला, ग्रंथांक-९-३८/४५
सन्दर्भ
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जैनधर्म और गुजरात
- स्व० मुनिश्री जिनविजय जी
परिस्थिति का धर्म पर प्रभाव हमें अपने धर्म, समाज और सिद्ध हो रहे हों तो हमें उनमें परिवर्तन करना ही चाहिए और नई संस्कृति के इतिहास का यथार्थ ज्ञान नहीं होता इसी से हम लोग परिस्थिति के अनुकूल नये नियम या सिद्धान्त का निर्माण कर लेना प्रजाकीय जीवन के विषय में अनेक प्रकार की भ्रमणाओं में फँस चाहिए। परिवर्तन तो प्रकृति का अबाधित नियम है। वस्तुमात्र में जाते हैं। धर्म और समाज के जिस वातावरण में हम जीते हैं उसी को रूपान्तर कर देना, यह तो काल का मुख्य स्वभाव है। समग्र चेतनहम शुद्ध और सनातन धर्म मान लेते हैं। देश-काल की परिस्थिति के अचेतन सृष्टि में प्रकृति का उक्त नियम व काल का वह स्वभाव बल से धर्म और समाज की नीतिरीति में सतत महत्त्वपूर्ण परिवर्तन अव्याहतरूप से प्रवर्तमान है। जिसकी उत्पत्ति है उसका नाश भी होते आए हैं और होते ही रहते हैं- इस विचार को हृदयंगम करने में अवश्यम्भावी है। अखण्ड ब्रह्माण्ड उस महानियम के अधीन है। फिर प्रजा की बुद्धि तत्पर नहीं होती और इसीलिए हम अपने प्रजाकीय अपना यह क्षुद्र मानव समाज उसमें अपवादभूत कैसे हो सकता है? जीवन के यथार्थ सुधार और उन्नति के उपायों को भी हमेशा शंका प्रकृति के उक्त नियम से विरुद्ध हम कैसे जा सकते हैं? और यदि
और भय की दृष्टि से देखते रहते हैं और इस प्रकार धार्मिक और अपनी अज्ञानता के कारण हम ऐसा करें तब भी प्रकृति को यह सह्य सामाजिक अधोगति के शिकार बन जाते हैं। धर्म या समाज के किसी कैसे होगा? अग्नि का स्वभाव दाह उत्पन्न करने का है। उसके इस भी नियम या सिद्धान्त का उद्भव विशिष्ट ऐतिहासिक परिस्थिति के स्वभाव की उपेक्षा करके यदि हम चलें तो क्या अग्नि अपनी कारण ही होता है। परिस्थिति के परिवर्तन के साथ ही सिद्धान्त और शक्ति का परिचय हमें न देगी? अज्ञान बालक को या श्रेष्ठ विद्वान नियम भी बदल ही जाते हैं और इस प्रकार परिवर्तनशील नियमों वृद्ध को अग्नि अपने स्वभाव का परिचय समान रूप से देगी। इसी
और सिद्धान्तों के कारण धर्म या समाज का नाश नहीं किन्तु विकास प्रकार प्रकृति भी अपने नियम की अवहेलना करने वाले धर्म या ही होता है। यह तथ्य तभी बँद्धिग्राह्य हो सकता है जब हमें ऐतिहासिक समाज को अपने स्वभाव का परिचय देती है। उसके नियमों को परिस्थिति का यथार्थ ज्ञान हो। ऐसे ऐतिहासिक ज्ञान के अभाव में पहचान कर तदनुकूल नियम और सिद्धान्तों का सर्जन यदि हम प्रत्येक प्रजा अपने धर्म के सिद्धान्तों और सामाजिक नियमों को ईश्वर करें तब तो हमारे विकास को प्रकृति पनपने देगी अन्यथा प्रकृति प्रेरित किसी दिव्य पुरुष के द्वारा वे स्थापित है- ऐसा मानने लगती हमारा नाश ही कर देगी। है और उनमें किसी प्रकार के परिवर्तन को अक्षम्य और अनिष्ट मानती हुई जो रोगनाश के लिए रामबाण औषध होती है उसी को धर्म की विडम्बना रोग की पोषक मान कर उससे दूर रहने का प्रयत्न करती है और धर्म और समाज की आधुनिक विचारहीन परिस्थिति के फलतः अपने ही नाश को आमन्त्रण देती है। अपनी जो धार्मिक और कारण हमारी प्रजा की नई पीढ़ी का प्रतिभाशाली और प्रगतिगामी सामाजिक अवनति हुई है और उसी के फलस्वरूप हम जिस प्रकार वर्ग विद्युद्वेग से परिवर्तनशील जगत् की परिस्थिति के साथ हमारी कितनी ही शताब्दियों से पराधीनता और पामरता के शिकार हो रहे प्रजाकीय गति-स्थिति का कोई मेल न देख कर अत्यन्त खिन्न हो रहा हैं उसका कारण अन्य कुछ भी नहीं है किन्तु हमारी प्रजा की वह है और उसे इस अवस्था का मूल कारण हमारा वर्तमान धार्मिक अज्ञानजन्य रूढ अन्ध-श्रद्धा ही है। धर्म का कोई सिद्धान्त या समाज वातावरण ही नजर आता है और इसी लिए वह धर्म के नाम से ही का कोई नियम त्रिकालबाधित हो ही नहीं सकता । उन सिद्धान्तों व घबराता है। नियमों को बनाने वाला कोई ईश्वर या मानवेतर शक्ति नहीं थी किन्तु उस वर्ग को ऐसा लगता है कि हमारे सभी प्रकार के हमारे जैसे ही शरीर और संस्कार को धारण करने वाले मनुष्य ही थे। सामाजिक अनिष्टों के मूल में भी धर्म है। धर्म ही ने मनुष्य-मनुष्य के देश-काल की परिस्थिति के अनुसार अपने जनसमूह के कल्याणार्थ च ऊँच-नीच भाव का भयानक भेदभाव स्थापित किया है। धर्म ही तत्तप्रकार के सिद्धान्तों और नियमों को स्थापित करने की आवश्यकता ने हमें किसी खास जाति के मानव समूह के प्रति अस्पृश्यता की उन्हें प्रतीत हुई और वैसा ही किया। जब तक वैसी परिस्थिति बनी अधम बुद्धि की सीख दी है। धर्म ही ने मानव समूहों में शत्रुभाव रहे और वे नियम तथा सिद्धान्त प्रजा को लाभकारक हों तब तक उत्पन्न व पृष्ट करने की भावना को जागत किया है। धर्म है उनका पालन आवश्यक होता है। किन्तु यदि परिस्थिति ने पलटा स्वातन्त्रय का विरोध करके बाल लग्न, वैधव्यबन्धन आदि अनिष्टकर खाया हो और वे नियम और सिद्धान्त लाभ के स्थान में हानिकारक रूढ़ियों द्वारा स्त्री जाति की सम्पूर्ण उन्नति का अवरोध किया है। धर्म
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की संकुचित भावना के कारण हिन्दू जाति सैकड़ों और हजारों उपजातियों में बँट गई है। यहां कारण है कि हिन्दू जाति दुनिया की दृष्टि में सामर्थ्य और शक्ति से शून्य संगठनहीन एक मानव समूह के रूप में प्रसिद्ध हो गई है। धर्म को संकीर्ण वृत्ति के कारण हो हम जाति और परिवारों में भी पारस्परिक एकरूपता उत्पन्न नहीं कर सकते, संगठन नहीं कर सकते, तो समस्त महाप्रजा की तो बात ही क्या करना ?
जैन विद्या के आयाम खण्ड- ७
ये और ऐसे नाना प्रकार के विचार अद्यतन विचारशील और उत्कर्षाभिमुख नवयुगीन प्रजा को धर्म के विरोध में उपस्थित होने की प्रेरणा दे रहे हैं और उससे धार्मिक क्षेत्र में जो कुछ सारभूत और लाभकर्ता तत्त्व अन्तर्हित हैं उनका भी शुष्क के साथ हरा भी जलता है इस न्याय से, उच्छेद करने के लिए आज का युवकवर्ग उत्सुक रूढ़ हो रहा है। दूसरी ओर इसके प्रत्याघात रूप में धर्म के रूढ़ और मूढ़ उपासक, धर्म का जो सारहीन, सिर्फ बाह्य आवरण रूप भाग है उसी को धर्म की आत्मा मानकर उसी की रक्षा में और जो रक्षणीय है उसकी उपेक्षा में ही धर्म की रक्षा की इतिश्री मान रहे हैं।
धर्म की यह विडम्बना, धर्म के यथार्थ तत्त्व के विषय में जो व्यापक अज्ञान प्रजा में शताब्दियों से बद्धमूल है, उसी का आभारी है। जिस धर्म को प्रजाको प्रगति का विरोधी माना जाता है वह वस्तुतः तात्त्विक शुद्ध धर्म नहीं है किन्तु उसका विकृत रूप मात्र है। प्रत्याघाती लोग जिस धर्म का आचरण करके धार्मिक होने का दम भरते हैं वह धर्म का कोई सनातन तत्त्व नहीं है किन्तु प्रसंगानुसार केले के छिलके के समान फेंक देने के योग्य धर्म का एक निःसार अङ्ग है। प्रकृति में विकृति को उत्पन्न करना यह कालधर्म है। किन्तु उस विकृति को दूर कर पुनः प्रकृति को शुद्ध करना मनुष्य का परुषार्थ धर्म है। इस न्याय से धर्म के स्वरूप में कालकृत विकार भाव उत्पन्न होता ही है और उस विकार का नाश भी विचारशील पुरुषार्थियों के द्वारा होता ही है। भगवद्गीता के
" यदा यदा हि धर्मस्य ग्लानिर्भवति भारत। अभ्युत्थानमधर्मस्य तदात्मानं सृजाम्यहम् ।।" इस सुप्रसिद्ध श्लोक में भगवान् श्री कृष्ण ने जो भाव व्यक्त किया है वह इसी नियम को लक्ष्य करके ही है।
धर्म की शुद्ध प्रकृति क्या है और विकृति क्या है, इस बात की चर्चा करने का यहाँ उद्देश्य ही नहीं है और अवकाश भी नहीं है। हमें इसका यथार्थ ज्ञान, संसार के धार्मिक इतिहास का निरपेक्ष अवलोकन करने से हो सकता है, यही कहने का यहाँ उद्देश्य है।
जैन धर्म की विडम्बना
जैसी स्थिति हमारे देश के सभी धर्म और समाजों की है वैसी ही जैन धर्म और समाज की भी है। जैन भी आज अपने धर्म
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के सिद्धांत और समाज के नियमों में देश काल की परिस्थिति के अनुकूल कुछ परिवर्तन हो तो उन्हें शंका और भय की दृष्टि से देखते हैं और रूडिचुस्त सत्ताप्रिय वर्ग उन परिवर्तनों का विरोध करता है। पुराना तो सभी कुछ सच्चा और अच्छा, ऐसी उसकी मान्यता है। प्राचीन ग्रन्थों में जो कुछ लिखा है वह सब स्वयं भगवान् महावीर ने ही कहा है और उसमें कुछ भी परिवर्तन या संशोधन को अवकाशं नहीं है। जैसे प्रत्येक धर्म में वैसे जैन धर्म में भी अनेक सम्प्रदाय उत्पन्न हुए हैं और वे एक दूसरे को जैनाभास मानते और कहते हैं और सिर्फ अपने ही को भगवान् महावीर के सच्चे और शुद्ध अनुयायी समझते हैं। यह सब ऐतिहासिक ज्ञान के अभाव का फल है।
जैनों के विषय में अन्य धर्मानुयायी वर्ग में भी भिन्न-भिन्न प्रकार की नाना मिथ्या कल्पनाएं और भ्रमणाएँ विद्यमान है कोई उसे नास्तिक मत मानते हैं, कोई बौद्धधर्म की शाखा समझते हैं। और कोई तो उसे विदेशी कहने की भी धृष्टता करते हैं। विदेशी लेखकों का अन्धानुकरण करने वाले विद्वान् इस्लाम की तरह जैन धर्म को भी एक बिलकुल भिन्न ही आचार-विचार वाला और इसी से हिन्दू प्रजा या जाति से बिलकुल स्वतन्त्र भावना वाला धर्म है यह मान करके उसकी चर्चा करते हैं। कुछ को तो जैन धर्म के नाम से ही चिढ़ हैं। वे तो यही कहते हैं कि जैनों की अहिंसा भावना ने ही भारत में 'कायरता उत्पन्न की है और इसी कारण से आर्यप्रजा पौरुष को गवाँ कर विधर्मी शत्रुओं से लोहा न ले सकने के कारण पराधीन हुई है। जैन धर्म के विषय में ऐसी जो नाना प्रकार की भ्रमणाएं फैल रही हैं उसका कारण भी ऐतिहासिक ज्ञान का अभाव ही है।
इन सब विषयों की चर्चा करना आवश्यक होने पर भी प्रस्तुत व्याख्यान में अवकाश नहीं है इससे इतना सुचन मात्र करके मै गुजरात के जैन धर्म के विषय में कुछ सिंहावलोकन करने का प्रयत्न करता हूँ।
गुजरात और जैन धर्म का सम्बन्ध
गुजरात आज जैन धर्म का विशिष्ट केन्द्रभूत स्थान है जैनों संख्या और शक्ति जितनी गुजरात में दीखती है उतनी हिन्दुस्तान के किसी अन्य प्रदेश में नहीं दीखती जैनों की धार्मिक और सामाजिक ऐसी सब प्रवृत्तिओं में जो जागृति गुजरात में देखी जाती है वह अन्य किसी प्रदेश में नहीं है। जैन दृष्टि से गुजरात को ऐसा प्राधान्य वर्तमान काल में ही प्राप्त हुआ है ऐसा नहीं है। उसका इतिहास तो गुजरात के प्रजाकीय विकास के इतिहास जितना ही प्राचीन है। गुजरात के प्राचीन सांस्कृतिक विकास का और जैन धर्म के विकास का परस्पर महत्वपूर्ण गाढ़ सम्बन्ध है। गुजरात की जैन धर्म के विकास में महत्वपूर्ण देन है और इसी प्रकार जैन धर्म ने भी गुजरात
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के विकास में महत्त्वपूर्ण देन दी है। गुजरात ने यदि जैन धर्म को हिन्दू सम्राटों और मुसलमान बादशाहों के सन्तान अपनी नाममात्र की रक्षण और पोषण न दिया होता तो जैन धर्म की अवस्था आज से भी गद्दी संभाल नहीं सके हैं जब कि ये वणिक पुत्र आज तक अपनी दूसरी ही होती। और जैन धर्म ने भी यदि गुजरात के संस्कार विकास गद्दी अखण्डरूप से सुरक्षित रख सके हैं और यही उनकी अद्भुत में विशिष्ट प्रयत्न न किया होता तो गुजराती संस्कृति आज दूसरे ही व्यवहार कुशलता की निशानी है। प्रकार की होती।
अणहिलपुर के स्वजातीय सम्राट् गए और दिल्ली के जैन धर्म ने गजरात को जिस प्रकार के अहिंसा, संयम और विधर्मी सुल्तान आए। ये सुल्तान अस्त हए और गुजरात के स्वतन्त्र तप के आदर्श संस्कारों से संस्कृत किया है वैसे संस्कार भारत के बादशाहों का उदय हुआ। ये बादशाह विलीन हुए और मुगल सम्राट दूसरे प्रदेशों को नहीं मिले। यही कारण है जिससे गुर्जर प्रजा में जैसी सत्ताधीश बने। मुगल निस्तेज हुए और मराठा चमकने लगे। मराठा संस्कार समद्धि की एक विशिष्ट प्रभा देखी जाती है वैसी अन्यत्र नहीं निर्वीर्य हुए और अन्त में अंग्रेज इस भूमि के भाग्य विधाता बने।
या, प्राणिहिंसा और व्यभिचार जैसे दुर्गुणों से गुजरात की भूमि में इस प्रकार इतनी राजसत्ताएँ खड़ी हुई और धूल गर्जर प्रजा आज अधिकांश में जो मुक्त देखी जाती है और उसमें में मिल गईं किन्तु गुजरात के व्यापार क्षेत्र में और प्रजामण्डल में सुसंस्कारिता की जो एक विशिष्ट छाप देखी जाती है उसका श्रेय उन्हीं गुजरात के वैश्य संतानों की अवाधित सत्ता अखण्ड रूप से अधिकांश में जैन धर्म की प्राचीन विरासत को ही मिलना चाहिए। चालू रही है और यही कारण है कि अब तक गुजरात की धन समृद्धि
जैनों ने गुजरात के वाणिज्य-व्यापार, राजशासन, कलाकौशल, योग्यरूप से सुरक्षित है। अतएव इस सुरक्षा कार्य में जैनों का ज्ञानसंवर्धन और सदाचार प्रचार इन सब प्रजाकीय संस्कृति के अंगों महत्त्वपूर्ण योगदान है यह मानना पड़ेगा। में व्यापक रूप से महत्वपूर्ण योगदान किया है।
गुजरात के शासन कार्य में जैनों की देन गुजराती 'वणिक' शक्ति और जैन धर्म ।
गुजरात के व्यापार क्षेत्र की तरह जैनों ने गुजरात के गुजरात की कणिज्य शक्ति और व्यापारिक कुशलता राजशासन कार्य में भी महत्त्वपूर्ण भाग लिया है। इसका साक्षी प्राचीन काल से समस्त भारतवर्ष में सुप्रसिद्ध है। गुजरात के उस स्पष्टरूप से गुजरात का प्राचीन इतिहास है। मन्त्री जाम्ब, सेनानायक व्यापारी वर्ग का अधिकांश जैनधर्मी है। गुजरात के गाँव-गाँव में जैन नेढ, मन्त्रीश्वर दण्डनायक विमल, महामात्य मुन्जाल, सांतू, आशुक, वणिक अपनी सामाजिक और व्यापारिक प्रतिष्ठा सुदूर प्राचीन काल उदयन, आम्बड, बाहड, सज्जन, सोम, धवल, पृथ्वीपाल, वस्तुपाल, से आदर्श रीति से जमाए हुए हैं। गुजरात का जैन वणिक यह 'राष्ट्र तेजपाल, पेथड़ और समराशाह आदि अनके जैन वणिक राजशासन का महाजन' है; और वस्तुत: भूतकाल में उसने अपना वह पद करने वाले हो गए हैं जिन्होंने गुजरात के राजतन्त्र को सुसंगठित, अनेक प्रकार से सार्थक सिद्ध किया है। अणहिलपुर की स्थापना से सुप्रतिष्ठित और सुव्यवस्थित करने में अद्भुत बुद्धिकौशल और लेकर आज तक के गुजरात के सामाजिक-राजकीय इतिहास का यदि रणशौर्य प्रदर्शित किया है। जैन वणिकों ने अपने राजनीतिप्रवीण हम अवलोकन करें तो पता लगेगा कि इन बारह शताब्दियों जितने प्रतिभा कौशल के द्वारा अणहिलपुर की एक छोटी सी जागीरदारी को समय में गुजरात की वणिक प्रजा में से अनेक राजनीतिज्ञ, मन्त्री, महाराज्य की प्रतिष्ठा समर्पित की और गुर्जर देश, जिसकी भारत में शासनकर्ता, सेनापति, योद्धा, व्यापारी, दानेश्वरी, विद्वान्, कलाप्रेमी, कुछ भी विशिष्ट ख्याति न थी, उसे एक बलवान् और सुविशाल राष्ट्र त्यागी और प्रजाप्रेमी उत्पन्न हुए है उनकी नामावली अंगुलि के सहारे होने का अक्षय गौरव दिलाया है। लाट, आनर्त, सौराष्ट्र, अबुर्द तथा गिनी नहीं जा सकती। उन 'महाजनों' की संख्या सैकड़ों की नहीं कच्छ इन सभी इतिहास प्रसिद्ध और जग विख्यात समृद्धि पूर्ण किन्तु हजारों की है।
प्राचीन प्रदेशों को अणहिलपुर के एकछत्र के नीचे सुसंबद्ध करने में इस बारह शताब्दी के महायुग में गुजरात की सार्वभौम तथा एक संस्कृति और एक भाषा द्वारा उन सब प्रजाओं को आपसी सत्ताधारी ऐसी दो राजधानियाँ हुई है- प्रथम अणहिलपुर- पाटण प्रान्त-भेद भूल करके एक गुर्जर महा प्रजा के रूप में सुसंगठित
और दूसरा अहमदाबाद। अणहिलपुर का प्रथम नगरसेठ विमल करने में जैन व्यापारी और शासनकर्ताओं ने जो भाग लिया है वह पोरवाड ज्ञाति का जैन वणिक था और अहमदाबाद का विद्यमान नगर अत्यन्त महत्त्वपूर्ण है इसमें शंका को स्थान नहीं है। सेठ भी ओसवाल जाति का जैन वणिक ही है। गुजरात के इन दो पाटनगरों के इन आद्यन्त सेठों के बीच अन्य सैकड़ों सेठ हो गये जो वैश्य कौम और जैन धर्म प्राय: जैन ही थे।
जैन धर्म के पालन करने वालों में अधिकांश वैश्यों का है। काल के महा प्रभाव से टक्कर लेकर गुजरात के चक्रवर्ती जैन-धर्म की अहिंसा की भावना जितनी वैश्यों के लिये अनुकूल है
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उतनी दूसरे वर्गों के लिए नहीं यह सूक्ष्म विचार करने पर स्पष्ट होता है। जैनधर्म की प्रकृति का जितना सुमेल वैश्यों की प्रकृति के साथ होता है उतना अन्य वर्णों की प्रकृति के साथ नहीं होता है। वैश्यों के जीवन व्यवसाय के साथ शान्ति का गहरा सम्बन्ध है । शान्तिमय परिस्थिति में ही व्यापार की वृद्धि और स्थिरता है अशान्त परिस्थिति व्यापारी की प्रकृति और प्रवृत्ति के लिए हमेशा प्रतिकूल होती है। जैन धर्म अत्यन्त शान्तिप्रिय धर्म है। हिंसा और विद्वेष उत्पन्न करने वाले तत्त्व जैनधर्म की प्रकृति के सर्वथा विरोधी तत्व हैं। इससे शान्तिप्रिय वर्ग के लिए जैनधर्म के तत्व अधिक सुग्राह्य और समादरणीय बन जाते हैं। युद्ध विजिगीषा, लूट इन तत्त्वों के उपासकों को जैनधर्म के तत्त्व प्रिय नहीं लगते।
जैन जातियों के इतिहास को देखने से पता चलता है कि कुछ जैनाचार्यों के विशिष्ट प्रभाव से आकर्षित होकर सैकड़ों की संख्या में क्षत्रिय और किसानों ने जैन धर्म को स्वीकार किया था। किन्तु धर्मान्तर के साथ ही उन लोगों का व्यवसायान्तर भी करके उन्हें क्षात्रधर्म या कृषिकर्म का त्याग करके वैश्यवर्ण का व्यवसाय लेना पड़ा था। इस प्रकार व्यवसायान्तर के संस्कार बल से ही वे स्थैर्यपूर्वक जैन धर्म के पालन में समर्थ हुए हैं। इससे यदि मैं यह कहूँ कि जैन धर्म की प्रकृति के लिये बनिये अनुकूल हैं और बनियों को जैन धर्म, तो मेरा यह कथन सिर्फ हास्य के लिए ही नहीं हैं किन्तु पूर्णरूप से वस्तुसूचक भी है।
यद्यपि यह कहने में कोई ऐतिहासिक तथ्य नहीं है कि पूर्वकाल में गुजरात के सभी वैश्य जैनधर्म का पालन करते थे। किन्तु इतना तो निश्चयपूर्वक कहा जा सकता है कि वल्लभाचार्य के संप्रदाय के प्रचार से पूर्व गुजरात में वैश्यों का बहुत बड़ा हिस्सा जैनधर्म का पालन करता था। यों तो धर्म के विषय में गुजरात की प्रजा में अति प्राचीन काल से उदार भावना का ही प्राबल्य रहा है। यही कारण है कि जैन, शैव और वैष्णव धर्मों के बीच गुजरात में कभी भी ऐसी कटुता उत्पन्न नहीं हुई जिससे परस्पर धर्मों में तीव्र विरोध की भावना जागृत हो सके। गुजरात के वैश्य कुटुम्बों में जैन, शैव और वैष्णव मत समान रूप से आवृत हुए हैं और आज भी यह आदर भाव कायम है। गुजराती प्रजा का यह विशिष्ट संस्कार है जिसके निर्माण में जैन धर्म की महत्वपूर्ण देन है। गुजरात का शिल्प स्थापत्य
जैन विद्या के
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इस प्रकार हमने देखा कि गुजरात में जैनधर्मी मुख्यतः वैश्यवर्ग है। उस वैश्यवर्ग का प्रधान जीवन व्यवसाय वाणिज्य व्यापार है। उस व्यवसाय के बल पर जैनों ने गुजरात में लक्ष्मी का ढेर लगा दिया है। व्यापार के अलावा जैसा पहले बताया गया है जैनों के एक वर्ग ने शासन कार्य में महत्त्वपूर्ण भाग लिया है और उससे भी उनके पास लक्ष्मी के भंडार भरपूर रहे हैं जैनधर्म के गुरुओं ने
प्राप्त लक्ष्मी के सदुपयोग के लिए जैन श्रावकों को सतत प्रेरित किया और उस उपदेश के अनुसार श्रावकों ने भी दान-पुण्य आदि सुकृत्यों में लक्ष्मी का सद्व्यय किया है।
जैन गृहस्थों के जीवन कृत्य में सबसे मुख्य स्थान जैन मन्दिर को दिया गया है। इससे प्रत्येक धनाढ्य जैन गृहस्थ की यह महत्त्वाकांक्षा रहती है कि यदि शक्ति और सामग्री प्राप्त हो तो छोटेमोटे एक नये जैन मन्दिर का निर्माण करना और यदि उतनी शक्ति न हुई तो सामुदायिक रूप से भी मन्दिर या मूर्ति के निर्माण में या उसकी पूजा-प्रतिष्ठा करने में यथाशक्ति सहयोग करना, इस प्रकार जैसे भी हो अपनी लक्ष्मी का सदुपयोग उक्त कार्य में अवश्य करना। मन्दिर निर्माण को उस काल के जैनाचार्यों ने जो इतना महत्त्व दिया और उस कार्य के द्वारा पुण्य प्राप्ति की महत्त्वाकांक्षा को जागृत करने के लिए श्रावकों को आचार्यों ने जो लक्ष्मी की सार्थकता का सतत उपदेश दिया उसी से जैनों ने गुजरात में आज तक हजारों जैन मंदिरों का निर्माण किया और लाखों की संख्या में जैन मूर्तियों की प्रतिष्ठा करवाई । गुजरात के छोटे-बड़े प्रायः सभी ग्राम - नगरों में छोटे-बड़े असंख्य जैन मन्दिरों का निर्माण हुआ और इस प्रकार गुजरात की स्थापत्य कला का अद्भुत विकास सिद्ध हुआ। उन सुन्दर और सुरम्य मन्दिरों के अस्तित्व से गुजरात के कितने ही क्षुद्र ग्रामों को नगर की शोभा प्राप्त हुई और नगरों को अपनी सुन्दरता के कारण स्वर्गपुरी की विशिष्ट आकर्षकता मिली। दुर्भाग्य से गुजरात के उन दिव्य देवमन्दिर और भव्य कला धामों का विधर्मियों के हाथों से व्यापक विध्वंस हुआ है और आज तो उनमें से सहसांश भी विद्यमान नहीं फिर भी जो थोड़े बहुत अवशेष बचे हैं उनके दर्शन से गुजरात की स्थापत्यकला के विषय में आज हमको यत्किन्चित स्मृति संतोष हो सके ऐसा आह्लाद होता है, उसके लिए हमें जैनों को ही धन्यवाद देना चाहिए।
"
शत्रुंजय, गिरनार, ताना, आबू और पावागढ़ जैसे गुजरात के पर्वत शिखर जो आज प्रवासियों के आकर्षण का विषय बने हुए है, उनके ऊपर यदि जैनों के द्वारा निर्मित देव मन्दिर नहीं होते, तो उनका नाम भी कौन याद करता? अहमदाबाद में मुसलमानों की मस्जिदों को छोड़कर यदि हठीभाई का जैन मन्दिर नहीं होते तो वहाँ दूसरा ऐसा कौन सा हिन्दू स्थापत्य का सुन्दर कलाधाम है जिसे हिन्दू अपनी जातीय शिल्पकला के सुन्दर स्थान के रूप में पहचानते ? अवनति के इस अन्तिम युग में भी जघडिया, कावी, छांणी, मातर, बारेजा, पेचापूर, पानसर, सेरिसा, शंखेश्वर, भोयणी, मेत्राणा आदि अनेक छोटे गाँवों में और दूर जङ्गलों में जैनों ने लाखों रूपया खर्च करके भव्य मन्दिरों का निर्माण किया है और ऐसा करके देश की शोभा में सुन्दर अभिवृद्धि की है, सेरीसा, शंखेश्वर, पानसर और भोयणी जैसे अत्यन्त क्षुद्र ग्राम भी आज भव्य जैन मन्दिरों के शिखरों
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के कारण मानों मुकुटधारी ग्रामवर बन गये हैं और यात्रियों के लिये जिसकी ख्याति दूर देशों में फैली हुई हो। चौलुक्यों के समय में जिस खड़ी की गई विशाल धर्मशालाओं से वे एक छोटे से शहर का दृश्य गुजरात के गाँव-गाँव में और सीम-सीम में सुन्दर शिवालय शोभित उपस्थित कर रहे हैं।
होते थे और संध्या समय में उन शिवालयों में होने वाले शंखध्वनि उन देव मन्दिरों के दर्शनार्थ हिन्दुस्तान के कोने-कोने से और घंटानाद से गुर्जर भूमि का समस्त वायुमण्डल शब्दायमान होता प्रत्येक वर्ष में हजारों जैन यात्री आते हैं और उन गाँवों की भूमि को था, इस भक्तभूमि को आज मानो भगवान् शंकर छोड़ कर चले गए पुण्य भू गिन कर वहाँ की धूलि मस्तक पर चढ़ाते हैं। गुजरात के वे हैं, और उनकी यह श्रद्धाशील धरतीमाता शोकग्रस्त होकर संध्याभग्न गाँव जैन मन्दिरों के कारण पुण्यधाम बन गए हैं। सैकडों भव्य वंदन, मंगल गान-वादन को स्थगित करके हताश हो स्तब्ध हो गई जैन प्रति प्रात:काल- 'सेरीसरो संखेसरो पन्चासरे रे' ऐसे नामोत्कीर्तन हो ऐसा प्रतीत होता है। 'हर हर महादेव' का घोष आज गुजरात में पूर्वक, जिस प्रकार हिन्दू लोग काशी, कांची, जगन्नाथपुरी जैसे धामों क्वचित् ही सुना जाता है। भूदेव सिर्फ ब्रह्मभोजन के समय ही मोदक की प्रातः स्तुति करते हैं, उसी प्रकार उन गाँवों का मङ्गल पाठ करते दर्शन से प्रमुदित होकर अपने इष्टदेव का स्मरण और नामोच्चारण हैं। जैनों ने इन आधुनिक मन्दिरों के द्वारा गुजरात की शिल्प कला करते दिखाई देते हैं, इसको छोड़कर उस शैव समाज की शिवोपासना को जीवित रखा है। यदि इस प्रकार जैनों ने मन्दिरों के निर्माण के आज नाम कीी ही रह गई है और शिवालयों का अधिकांश उपेक्षित द्वारा शिल्पियों को प्रश्रय नहीं दिया होता तो आज हिन्दू-स्थापत्य के हो अस्त-व्यस्त हो रहा है। सिद्धान्तानुसार एक साधारण स्तम्भ का भी निर्माण कर सके ऐसे शैव धर्म और जैन धर्म के स्थापत्य शिल्पी दुर्लभ हो जाते।
महाराज मूलराज ने सिद्धपुर में रुद्रमहालय की स्थापना की देव मन्दिरों की रचना के पीछे जो उदार और उदात्त और उसमें पूजा-अर्चा के लिए एक सहस्र ब्राह्मण कुलों को उत्तर भावपूर्ण ध्येय रहा हुआ है, जो संस्कार और सदाचार के प्रेरक तत्व भारत से बहुत दान-मान के साथ बुलाकर गुजरात में ब्रह्मपुरिओं का रहे हुए है, उनको हम भूल गये हैं और इसी से आधुनिक मंदिर निर्माण किया। उन ब्रह्मकुलों के निवाहार्थ उसने अनेक गाँव दान में संस्था उप-कारक होने के स्थान में अनेक अंशों में अपकारक हो रही देकर 'यावच्चन्द्रदिवाकरौ' के ताम्रपत्र लिख दिये। मूलराज के वंशजों है। आज मन्दिरों को हमने पुण्यधामों के स्थान में एक प्रकार के ने भी उत्तरोत्तर उनके दान-माल में बृद्धि की और इस प्रकार समस्त पण्यागार जैसे बना रखे हैं। धर्मार्जन के बदले वे द्रव्यार्जन की दुकानें गुजरात में ब्राह्मण वंशजों के सुखपूर्वक जीवनयापन की व्यवस्था कर हो गई हैं। इस विषय में अन्य लोगों की अपेक्षा जैन अधिक दोष पात्र दी गई। पाटन के उक्त राजवंश के पतन के साथ म्लेच्छों के हाथों से हैं यह कटु सत्य जैन बन्धुओं के रोष को स्वीकार करके भी कहना अणहिलपुर और सिद्धपुर के उन विभूतिमान् शिवालयों का भी पडता है।
विध्वंस हुआ। उनमें से सिद्धपुर के रुद्र महालय का तो पुनरुद्धार उस वैष्णवों के मन्दिर तो आज उनके नाम के अनुसार 'महाराजों समय में शाह सालिग देशलहरा ने किया। शाह सालिग शत्रुन्जय की हवेलियां' है। उन मन्दिरों-हवेलियों में जाने पर हमें देवमन्दिर का तीर्थ के महान् उद्धारक समराशाह का बन्धु था और जाति से तनिक भी आभास नहीं मिलता किन्तु किसी विलासी गृहस्थ के ओसवाल तथा धर्म से जैन था। किन्तु उसके बाद किसी भी शैव भक्त मकान में हम जा पहुंचे हैं ऐसा भास होता है। गुजरात के वैष्णव जन ने या शिव के उपासक हजारों ब्रह्म-बन्धुओं ने भी उस महालय मन्दिरों को इस प्रकार बनियों के घरों के सदृश आकार प्रकार में की रक्षा या जीर्णोद्धार के लिए कुछ प्रयत्न किया हो यह जानने में किसने और कब परिवर्तित कर दिया उसका कुछ भी पता मुझे नहीं नहीं आया। मुगलों के अधिकार नाश के बाद सद्भाग्य से वह स्थान मिलता। मालवा, मारवाड, मेवाड़ आदि देशों में सैकडों वैष्णव शिवाजी के सैनिक मराठा सरदारों के शासन में आया और भाग्यबल मन्दिर हैं जो स्थापत्य और पावित्र्य की दृष्टि से जैन मन्दिरों के समान से सिद्धराज जैसे ही संस्कारप्रिय श्रीमंत सरकार सयाजी राव महाराज ही भव्य और प्रशस्त हैं। द्वारका, डाकोर या गिरनार जैसे स्थानों में आज उस श्रीस्थल के स्वामी हैं। क्या चक्रवर्ती सिद्धराज की स्वर्गवासी ऐसे ही दो-चार वैष्णव मन्दिर कदाचित् हो सकते हैं, किन्तु इनके आत्मा यह आशा नहीं रखती होगी कि उसकी जीवन साधना के अलावा गुजरात में कहीं भी ऐसे मन्दिर दिखाई नहीं देते। यद्यपि महान् कार्य रूप उस रुद्र महालय का, उसी का सधर्मी और उसी की गुजरात के वैष्णव लोग जैनों की अपेक्षा अधिक धनवान् और प्रियभूमि का समर्थ स्वामी पुनरुद्धार करे? धर्मचुस्त दिखाई देते हैं।
कलोल के पास सेरिसा गाँव में पार्श्वनाथ का एक प्रसिद्ध गुजरात का शैवधर्म तो आज बिलकुल शिथिल दशा में है। तीर्थ था जहाँ वस्तुपाल-तेजपाल ने भव्य मन्दिर का निर्माण किया ऐसे समृद्ध और संस्कारयुक्त देश में एक मात्र सोमनाथ को छोड़कर था। म्लेच्छों ने उस स्थान को इस प्रकार नष्ट-भ्रष्ट कर दिया कि दूसरा एक भी बडा शैवधाम या भव्य शिवालय दृष्टिगोचर नहीं होता उसका एक पत्थर भी वहाँ मिलना दुर्लभ हो गया था। किन्तु
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अहमदाबाद के एक धर्मप्रिय उदार सेठ साराभाई डाह्याभाई ने उक्त तीर्थ का पुनद्धार करने में अपनी अस्थिर लक्ष्मी का सदुपयोग करना शुरू किया और उसी के फलस्वरूप आज वहाँ अष्टमंगलोपेत महाध्वज और स्वर्णकुम्भों में समलंकृत शिखर वाला एक भव्य और सुन्दर जैन मन्दिर सुशोभित हो रहा है। प्रति वर्ष हजारों यात्री वहाँ दर्शन शैव मन्दिरों की दुर्दशा और जैन मन्दिरों की सुरक्षा करने आते हैं और सैकड़ों वर्षों तक नष्ट-भ्रष्ट होने वाले तीर्थ का पुनरुद्धार हुआ देख कर आनन्द और आह्लाद का अनुभव करते हैं। जैनों की ओर से इस प्रकार का तीर्थोद्धार का कार्य समस्त देश में सतत चालू है। जैनों की इस देवभक्ति और तीर्थरक्षा की भावना का शैवों और वैष्णओं को भी अनुकरण करना चाहिए और नष्ट-भ्रष्ट हुए तीर्थस्थानों का योग्य रूप में पुनरुद्धार करके देश की शिल्पकला और रूप शोभा में अभिवृद्धि करनी चाहिए।
वनराज के राज्याभिषेक के समय में स्थापित पाटण का पञ्चासर पार्श्वनाथ का जैन मन्दिर आज भी जब देश-देशान्तर के हजारों यात्रियों को आकृष्ट कर रहा है तब चौलुक्य चक्रवर्तियों द्वारा स्थापित समस्त गुजराती प्रजा के राष्ट्र- मन्दिर के योग्य ऐसे 'सोमेश्वर प्रासाद' और 'त्रिपुरुष प्रासाद' जैसे महान् शिवालयों के अस्तित्व की भी देशवासियों को कुछ खबर ही नहीं रही है। देश में रहने वाले लाखों शैवधर्मी- जिनमें अनेकानेक राजा, महाराजा, जागीरदार, सरदार, कोटयाधिपति आदि का समावेश होता है वे आज अपने राष्ट्र और धर्म के इष्टदेव की ऐसी उपेक्षा करें यह वस्तुतः शोचनीय है।
देवमन्दिर आज हमारे ऐसे समृद्ध और धर्मप्राण देश में भी अनेक प्रकार से महत्वहीन और अस्तव्यस्त दशा में पड़े हों ऐसा दीखता है।
मन्दिरों की प्रशस्ति
सुन्दर और भव्यदेव मन्दिर यह ग्राम और नगर के विभूतिमान् अलंकार हैं, पवित्रता के प्रेरक धाम हैं उत्सव और प्रीतिभोज के लिए आनन्द भवन हैं, अनजान अतिथि के लिए उन्मुक्त आश्रयस्थान हैं, शोक और संताप के निवारक रङ्गमण्डप हैं, गरीब और धनिक प्रजाजनों को एकासन पर बैठाने वाले व्यासपीठ हैं, भक्त और मुमुक्षु जीवों को आध्यात्मिक भावों में रमण करने के मुक्त क्रीड़ांगण हैं, संगीत और नृत्य की सात्विक शिक्षा देने वाले उत्तम विद्यालय हैं, पण्डितों और सन्तों की ज्ञान-विज्ञानपूर्ण वाणी सुनने के विशाल व्याख्यान गृह हैं, राजा और रङ्क दोनों के लिए समानरूप से हृदय के दुःख का भार दूर करने और आश्वासन पाने के आशानिकेतन हैं और आधि, व्याधि और उपाधि से मुक्ति देने वाले मोक्षधाम हैं।
प्राचीन काल में हमारे देवमन्दिर ही सामाजिक कार्यं के लिये सभामण्डप थे। देवमन्दिर ही हमारे विद्यागृह थे । देवमन्दिर ही अतिथि भवन थे। देवस्थान ही नाट्यगृह, न्यायालय और धर्माधिष्ठान थे। हमारी सब प्रकार की राष्ट्रीय, सामाजिक, सांस्कृतिक, धार्मिक और आध्यात्मिक प्रवृत्ति के केन्द्र हमारे ये देवमन्दिर ही थे। यही कारण है कि हमारे पूर्वजों ने देव - मन्दिरों रचना और रक्षा करने में मनुष्य जन्म की कृतकृत्यता मानी है। सम्राट् से लेकर एक साधारण प्रजाजन की जीवन की महत्त्वाकांक्षा का वह एक लक्ष्य स्थान माना गया है। किन्तु वर्तमान में मात्र जैनों को छोड़कर इतर हिन्दुओं में यह भावना बहुत शिथिल हो गई है और जैसा कि मैंने पहले सूचित किया, अपने देवस्थानों की रक्षा करने में जितने जैन जागृत रहे हैं उतने जैनेतर जागृत नहीं रहे है। देवमन्दिरों की पवित्रता की रक्षा करने के लिए जैनों ने जिस उदारता का परिचय दिया और जिस भावना को पुष्ट किया है उसका अन्य धर्मावलम्बियों में अधिकांश कहाँ हैं वे अचलेश्वर के उपासक जिन्होंने लाखों मन सुवर्ण अभाव ही देखा जाता है। इसी से जैनों की अपेक्षा इतर हिन्दू का दान वहाँ दिया था ? कहाँ हैं वे भव्य नृपति, जो राज वैभव
आप में से कुछ लोगों ने आबू की यात्रा की होगी। आबू में अचलगढ़ के ऊपर अचलेश्वर महादेव का बड़ा तीर्थ धाम है। यह अचलेश्वर लाखों क्षत्रियों के इष्ट देव हैं। सिरोही के राजा के तो वे कुलदेवता हो हैं, इसके अलावा भी राजस्थान के सभी राजाओं के परम उपास्य देव हैं। उक्त अचलेश्वर महादेव के मन्दिर की कैसी दयनीय स्थिति है यह देखने वालों से अपरिचित नहीं। उस अचलेश्वर के पास ही टेकरी के ऊपर जैनों का मन्दिर है, वह कितना स्वच्छ, भव्य और सुन्दर है। यदि उक्त दोनों मन्दिरों की है। यदि उक्त दोनों मन्दिरों की तुलना की जाय तो 'कहाँ राजा और कहाँ रङ्क गांगा तैली' यह लोकोक्ति याद आ जाती है। जैनों ने उस समस्त पर्वत के शिखर के मार्ग को पक्का बना दिया है। शिखर के ऊपर छोटी-बड़ी अनेक धर्मशालाओं का निर्माण किया है और यात्रियों के रहने के लिये बहुत अच्छी व्यवस्था की है। पानी की, भोजनालय की तथा ताजे-ताजे फल-फूल, शाक के मिलने की भी व्यवस्था है। देवालय में मानो साक्षात् देवता आकर नाचते हों इतना स्वच्छ और सुरम्य उसका प्रांगण है धूप, दीप और पुष्पों से मन्दिर के मण्डप महक रहे हैं, मानों दूध से धो डाले हों ऐसे वे उज्ज्वल और सुधाधौत हैं। जब कि उक्त अचलेश्वर का मन्दिर मैला, गन्दा, कुरूप और यत्र तत्र कचरे से परिपूर्ण, महीने में भी एक बार जहाँ सफाई न होती हो ऐसा धूलधूसरित दिखाई देता है। मन्दिर के चौक में ही गन्दे बाबा लोग पड़े हुए हों, रसोई पकाते हों, जूठन फेंकते हों, वहीं थूकते हों, पेशाब करते हों- ऐसे दृश्य वहाँ का है। मैं जब कभी वहाँ जाता हूँ तो यह दृश्य देख कर अत्यन्त ग्लानि होती है और हमारी ऐसी धार्मिक अधोगति देख कर मन मे अतिशय संताप होता है।
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किया
जैनधर्म और गुजरात
१८१ छोड़कर उस महायोगी महामन्दिर में दिन और रात 'शिव' 'शिव' नहीं करते। यही कारण है कि गुजरात में जैनेतर मन्दिरों की भव्यता ऐसी महाध्वनि करके समाधि की साधना में लीन होकर बैठे रहते आज दृष्टिगोचर नहीं होती। इस वस्तुस्थिति को मैं हमारी प्रजाकीय थे? कहाँ हैं वे अनेक महर्षि जो इस पशुपति के पुण्य सान्निध्य में धार्मिक भावना की बड़ी क्षति की सूचक समझता हूँ। परब्रह्म की प्राप्त्यर्थ कई वर्ष तक ब्रह्मचिन्तन और गायत्रीगान किया करते थे? कहाँ हैं वे अनेक योगी जो उस ज्योतीश्वर के गर्भागार के राष्ट्रीय ममत्व का अभाव सुवर्ण घटित घंटनादों से गञ्जायमान होने वाली गिरिमेखला की जैन हो, शैव हो, वैष्णव हो, बौद्ध हो या फिर ईसाई या एकान्त कंदराओं में कन्दमूल और फलफूल खाकर कठोर तपस्या मुस्लिम हो, किसी भी प्रजा के धार्मिक स्थानों की अधोगति उस प्रजा करते थे और योग की दिव्य विभूतियों को हस्तगत करते थे? उस के जीवन की ही अधोगति की सूचक है। हम यह अच्छी तरह जानते काल में लाखों नर-नारी भारत के कोने-कोने से नाना प्रकार के कष्टों हैं कि इंगलैण्ड, फ्रांस या जर्मनी जैसे युरोपीय जड़वादी देशों में को झेल कर उस धाम की यात्रा करने आते थे और उस महेश्वर के आज धार्मिक बाह्य आचरणों का कुछ भी महत्व नहीं है। धर्मगुरु या प्रसाद को शिर पर चढ़ाकर जीवन को कृतकृत्य समझते थे। मेरे धर्म ग्रंथों के ऊपर वहाँ आज तनिक भी श्रद्धा और भक्ति नहीं देखी अभिप्राय से अचलेश्वर अमुक अंश में समस्त गूर्जर संस्कृति और जाती। फिर वहाँ के धर्मस्थान-गिरजाघरों की पवित्रता और प्रतिष्ठा गूर्जर पौरुष का प्रेरक धाम है, गूर्जर लोगों का वह कैलास है और की उतनी ही सुरक्षा की जाती है। वहाँ के लोग गिरजाघरों को आज गूर्जर क्षात्रधर्म की वह यज्ञवेदी है।
मोक्ष का दैवी धाम नहीं मानते फिर भी अपनी जातीय संस्कृति और ऐसे इस पवित्र धाम की आज उपरिवर्णित दुःखदायक अस्मिता के प्रेरक स्थान के रूप में अत्यन्त आदर से उनको स्वीकार दुर्दशा है। सिरोही महाराज और बीकानेर महाराज, जयपुर दरबार करते हैं। राष्ट्रीय कला कौशल के अपूर्व स्मारक के रूप में वे उनकी
और उदयपुर दरबार और ऐसे कितने हैं फिर भी किसी राजा महत्ता का गान करते हैं और कितने ही धन और जन की बलि से भी महाराजा को यह सूझ नहीं कि जिस देव को उनके पूर्वजों ने अपने उनकी रक्षा करने के लिए वे लोग सदा तत्पर रहते हैं। भौतिक देह तक दे दिये थे उस देव के योग्य पूजा प्रक्षालन की और उसके विज्ञान के सर्वोच्च शिखर पर स्थित जर्मन प्रजा आज भी जातीय मन्दिर की सफेदी की सो कुछ व्यवस्था करें! सिरोही महाराज ने संस्कृति और स्थापत्य के उत्तम निदर्शक ऐसे अनेक नये-नये गिरजाघरों किसी ट्रेवर नाम गौराङ्ग देव की स्मृति को अमरता प्रदान करने के का निर्माण करती है और उसमें करोड़ों रूपयों का खर्च राष्ट्रीय लिये करीब लाख रूपयों का खर्च करके आबू पर्वत के ऊपर 'ट्रेवर खजाने में से करती है। वहाँ की प्रजा यह मानती है कि गिरजाघर टालर' नामक बन्ध बांधा और उसमें सिर्फ गोरी चमड़ी वाले सैनिकों समस्त प्रजा की सर्व साधारण सम्पत्ति है। सम्पूर्ण राष्ट्र की संयुक्त को ही नंगे होकर नहाने की ओर उसकी मछलियों को पकड़ कर सम्पत्ति है। प्रत्येक प्रजा जन को वह स्वकीय वस्तु प्रतीत होता है खाने की पुण्यकारी व्यवस्था कर दी। किन्तु अचलेश्वर के सेवक कहे और इसी लिये प्रत्येक प्रजाजन उसके लिए ममत्व भाव रखता है। जाने वाले उस राज्य के आधुनिक किसी राजा ने वहाँ के पवित्र माने- दुर्भाग्य से अपने देश में ऐसी प्रजाकीय भावना जागृत नहीं है। यही जाने वाले मंदाकिनी कुण्ड में लोगों को शौच जाने से रोकने की कोई कारण है कि हम अपनी राष्ट्रीय अस्मिता का विकास कर नहीं सकते व्यवस्था नहीं की।
हैं। धर्म, जाति और संप्रदाय की संकीर्ण भावना ने हमारा राष्ट्रीय ऐसी दुर्दशा मैंने मेवाड़ के महाधाम एकलिङ्गेश्वर में भी गौरव कुंठित कर दिया है, गतप्राण बना दिया है। कुछ अंशों में देखी है और उज्जयिनी के महाकालेश्वर की भी देखी है, इनके मुकाबले में जैनों के शत्रुजय, गिरनार, तारंगा, केसरिया पारस्परिक विद्वेष जी आदि तीर्थों को देखें और उनकी व्यवस्था देखें। इन दोनों में
जैनों के भव्य मंदिरों को देख कर किसी वैष्णव को आनन्द जमीन आसमान का भेद है। वह ऐसा ही है जैसा बम्बई में नहीं होगा और किसी वैष्णव के सुन्दर धाम को देख कर जैन को बालकेश्वर में स्थित धनिकों के महालयों में और भूलेश्वर में आनन्द नहीं होगा। शैव, वैष्णव, बौद्ध, जैन सभी की यही दशा है। गुमास्ताओं के मालों में है।
इतना ही नही किन्तु जैनों में भी श्वेताम्बर मन्दिर के प्रति दिगम्बर का जैन और शैव मन्दिरों की व्यवस्था के विषय में यहाँ जो और दिगम्बर मन्दिर के प्रति श्वेताम्बर का द्वेषभाव है। हमारी यह कुछ कहा गया है उसका विपरीत अर्थ आप न लें कि ऐसा कह कर संकीर्ण भावना राष्ट्रीय ऐक्य और अस्मिता में बाधक है और इसी से मैं जैनों का बड़प्पन दिखाना चाहता हूँ और जैनेतरों की हीनता। मेरा हमारी उन्नति में भी विघात होता है। भले ही हमारी धार्मिक मान्यता अभिप्राय तो सिर्फ इतना ही है कि जैन जिस प्रकार अपने देवस्थानों में भेद हो और उससे हम अन्य धर्म के देवस्थानों को अपने की पवित्रता सुरक्षित रखने का यथाशक्ति प्रयत्न करते हैं वैसा जैनेतर आध्यात्मिक कल्याण का साधन मान कर न पूजें फिर भी वह भी
हा
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जैन विद्या के आयाम खण्ड-७
हमारे ही राष्ट्र की बहुमूल्य सम्पत्ति है, हमारे ही राष्ट्र की एक उत्तम चावडा के राज्याभिषेक के युग से लेकर कर्ण वाघेला के पतन के विभूति है, हमारे ही कलाकारों का एक सुन्दर कलाकर्म है, हमारी ही समय के दरमियान की प्रत्येक शताब्दी की जैन यतिओं द्वारा निवास-भूमि का एक मनोरम आभूषण है और हमारे ही पड़ोसी भाई निर्मित ऐसी अनेक अपभ्रंश कृतियाँ अणहिलपुर के भंडारों में से का एक पवित्र धाम है- इस दृष्टि से उस पर हमारा ममत्व क्यों नहीं हमें प्राप्त होती हैं। हो और उसे देख कर आह्लाद का अनुभव क्यों नहीं हो?
जैन पण्डित हमेशा प्राचीन और वर्तमान दोनों भाषाओं के हम धन का संचय करने में किसी धर्म या संप्रदाय का उपासक रहे हैं। उन्होंने दोनों प्रकार के भाषा और साहित्य को अपनी विचार नहीं रखते। पैसा यदि मिलता हो तो एक जैन भी वैष्णव के कृतियों से अलंकृत किया है। प्राकृत और संस्कृत इन दोनों पुरातन साथ साझा कर लेगा और वैष्णव जैन के साथ। यदि वेतन अच्छा भाषाओं के साथ अपभ्रंश युग में उन्होंने अपभ्रंश भाषा को समृद्ध मिलता हो तो एक हिन्दू मुसलमान की नौकरी कर लेता है और बनाने के लिये उसमें भी उतनी ही साहित्य रचना की है और यग के मुसलमान ईसाई के यहाँ। इस प्रकार सांसारिक स्वार्थ सिद्ध करने में व्यतीत होने पर जब गुजराती भाषा के युग का प्रारम्भ हुआ तब किसी कौम और संप्रदाय के संस्कार बाधक नहीं होते, तो फिर धर्म उसमें भी उतनी ही तत्परता से रचना करने लग गये। जैसे पारमार्थिक विषय में वे संस्कार क्यों बाधक होते हैं? और क्यों आचार्य हेमचन्द्र के जीवन की समाप्ति के साथ ही अपभ्रंश हम पारस्परिक द्वेष और शत्रुता को पुष्ट करते हैं? ऐसे द्वेष और भाषा के जीवन की भी समाप्ति हुई और गुजराती भाषा के उदय शत्रुत्व से न तो हमारी भौतिक उन्नति हो सकती है और न आध्यात्मिक। काल का प्रारम्भ हुआ। उस उदय काल के आदि क्षण से लेकर आज उससे तो एकान्त अवनति और अशान्ति ही प्राप्त होती है। हमें यह तक जैन विद्वानों ने गुजराती भाषा की अविरत सेवा की है और बात सर्व प्रथम समझ लेनी चाहिए।
जिसकी तुलना किसी भी देशी भाषा से न की जा सके उतनी अधिक अस्तु यह तो मैंने थोड़ा विषयान्तर किया अब मूल विषय कृतियों से उस भाषा के भण्डार को उन्होंने परिपूर्ण किया है। विद्या का विचार किया जाय।
विलासी और संस्कृति-प्रतिमूर्ति महाराजाधिराज सयाजी राव के प्रशंसनीय
आदेश से स्व० विद्वान् श्री चमल लाल दलाल ने पाटण के भण्डारों साहित्य रचना
का विस्तृत पर्यवेक्षण किया था। जिसके फलस्वरूप गुजराती भाषा जिस प्रकार स्थापत्य कला का विकास करके जैनों ने के उस पुरातन अमूल्य जवाहिर को विश्व के समक्ष रखने का अपूर्व गुजरात को अपूर्व और आकर्षक शोभा अर्पित की है उसी प्रकार उद्योग किया था। उसके फलस्वरूप हममें उस जवाहिर के खजानों की साहित्य की विविध रचना द्वारा जैनों ने गुजरात को अनुपम ज्ञान- शोध की जिज्ञासा जागृत हुई। जैन विद्वान श्री मोहन लाल देसाई समृद्ध किया। गुजरात की साहित्य समृद्धि और बहुत विशाल है। अन्तिम करीब २० वर्ष से गुजराती भाषा में ग्रथित जैन साहित्य की अणहिलपुर के अभ्युदय काल के प्रारम्भ से आज तक जैनों ने शोध कर रहे हैं और उसके फलस्वरूप उन्होंने अब तक में हजारगुजरात में रह कर जिस साहित्य की रचना की है उसकी तुलना के हजार पृष्ठ के तीन ग्रन्थ तैयार किये हैं। उनको देखने से आप यह लिये दूसरा कोई देश नहीं है। प्राकृत, संस्कृत, अपभ्रंश, प्राचीन कल्पना कर सकेंगे कि जैन विद्वानों ने गुजराती भाषा की कैसी उत्कृष्ट गुजराती और नवीन गुजराती ऐसी विविध भाषाओं के हजारों ग्रंथों से सेवा की है। गुजरात के ज्ञानभंडार परिपूर्ण हैं। प्राकृत भाषा जो हमारे देश की अणहिलपुर, भरुच, खम्भात, कपडवज,धोलका, धंधुका, समस्त आर्य भाषाओं की मातामही है उसका विपुल भण्डार एक मात्र कर्णावती, डभोई, बडोदरा, सूरत, पालनपुर, पाटडी, चन्द्रावती, गुजरात की संपत्ति है। वलभी युग के आरम्भ से मुगलाई के अन्त ईडर, वडनगर आदि गुजरात के प्रत्येक मध्यकालीन नगरों के तक गुजरात के जैन यति प्राकृत ग्रन्थों की रचना करते और इस उपाश्रयों में रहकर जैन यतिओं ने असंख्य संस्कृत ग्रन्थों की रचना प्रकार प्राकृत भाषा का अखण्ड परिचय गूर्जर प्रजा को वे देते रहे हैं। की है। उन ग्रन्थों में व्याकरण, काव्य, कोष, अलंकार, साहित्य, प्राकृत भाषा के उक्त परिचय सातत्य के कारण गुजराती भाषा के छद, नाटक, न्याय, आयुर्वेद, ज्योतिष, गणित, आख विकास क्रम का इतिहास हमें अतीव सुलभ और सुस्पष्ट रूप से प्राप्त आदि ज्ञान-विज्ञान के समस्त विषयों का समावेश किया है। सैंकड़ों हो सकता है।
ऐसे कथा ग्रन्थ हैं जिनमें गुजरात के सामाजिक लोक जीवन विषयक हिन्दी, मराठी, बंगाली और गुजराती भाषाओं की साक्षात् विविध सामग्री मिल सकती है। उस काल में प्रचलित सैकड़ो गुजराती जननी जो मध्यकालीन अपभ्रंश भाषा मानी जाती है उसका भी लोक कथाओं को लौकिक संस्कृत भाषा में परिवर्तित करके उनके भी जितना विपुल और विशिष्ट साहित्य गुजरात के जैन भण्डारों में अनेक संग्रह उन्होंने ग्रथित किये हैं। गुजरात के मध्य कालीन प्राप्त होता है उतना अन्यत्र कहीं भी उपलब्ध नहीं होता। वनराज इतिहास की यथाश्रुत घटनाओं को ग्रन्थबद्ध करके गुजरात के इतिहास
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जैनधर्म और गुजरात को सुरक्षित रखने के लिये उन्होंने ऐतिहासिक-अर्धऐतिहासिक ऐसे मुख्य ध्येय था। गुजरात की शक्ति और संस्कृति के विषय में संख्याबद्ध प्रबन्धों की रचना की है। गुजरात के राष्ट्रीय इतिहास का यत्किन्चित् भी आक्षेप या लघुता हो- यह उनको स्वप्न में भी असह्य जितना संरक्षण जैनों ने किया है उसका सहस्रांश भी जैनेतरों ने नहीं था। उनके इस उत्कट देश प्रेम और संस्कार रुचि ने उन्हें अपने देश किया। धार्मिक मनोवृत्ति की संकीर्ण भावना के कारण यदि जैनों की में रुद्रमहालय, त्रिपुरप्रासाद, और सोमेश्वर आदि सैकड़ों भव्यमहालयों उस महान् राष्ट्र देन की कीमत कम आंकी जाय या उसे अस्वीकार के निर्माण की प्रेरणा दी, कर्णसरोवर, मिनलसरोवर, सिद्धसर जैसे किया जाय तो एक प्रकार का राष्ट्रद्रोह ही समझा जाना चाहिए। अनेक महासरोवरों के निर्माण के लिए उत्साहित किया, स्थान-स्थान
गुजरात के पास उसके अपने सन्तानों की रचना के रूप में पर सुन्दर तोरण और कीर्तिस्तम्भ खड़े करने को उत्कंठित किया, ज्ञान-विज्ञान के सर्व विषयों की उत्तमोत्तम कृतियाँ विद्यमान हैं। इस बड़े-बड़े सारस्वत भाण्डारागार स्थापित करने और सत्रागार सहित प्रकार से जैनों ने गुजरात को साहित्य साम्राज्य की दृष्टि से सर्वतन्त्र विद्यामठों को स्थापित करने के लिए प्रवृत्त किया। स्वतन्त्र राष्ट्र बनाया है।
वस्तुत: गुजरात के साहित्यिक समृद्धि के भण्डारों को नपों का धार्मिक समभाव और उसका फल परिपूर्ण करने का यश जैनों को है फिर भी उत्तम साहित्य सर्जन धर्म और उपासना के विषय में वे अतीव समदर्शी थे। की प्रेरणा जैनों ने कहाँ से और किस प्रकार ली उसका भी तनिक उनके समय में गुजरात में मुख्यरूप से दो ही प्रजाधर्म प्रवर्तित थेविचार हो जाना चाहिये। यद्यपि यह विवेचन विस्तृत होना चाहिए। शैव और जैन। चौलुक्यों का कुलधर्म शैव था फिर भी वे जैनधर्म के उसकी पूर्वभूमिका का पता लगाने के लिए हमें गुजरात के पुरातन प्रति पूर्ण सद्भाव रखते थे। जैनमंदिरों को राज्य की ओर से पूजाइतिहास के बहुत से पन्ने उलटने पड़ेंगे जिसके लिए यहाँ सेवा के लिये अधिक मात्रा में भूमिदान आदि दिये जाते थे। पर्व और अवकाश नहीं है, फिर भी अत्यन्त संक्षिप्त रूप में उसके विषय उत्सवों के प्रसंग में राजा लोग खूब धूमधाम से जैन मन्दिरों में जाते में कुछ बातें कह देता हूँ।
थे और श्रद्धापूर्वक स्तुति प्रार्थना करते थे।
उनकी ऐसी धार्मिक समदर्शिता और संस्कारप्रियता के गुजरात की अस्मिता का उत्थान
कारण जैन आचार्य विशेष रूप से आशान्वित थे। अत: उस राज्य गुजरात के सुवर्ण काल के प्रस्थापक चौलुक्य नृपति उत्कट की महत्ता और कीर्ति बढ़े ऐसा हृदय से चाहते थे और तदनुसार स्वदेश प्रेमी थे। उनकी महत्त्कांक्षा गुजरात को भारत का मुकुटमणि प्रवृत्ति करते थे। चौलुक्यों के शासन काल में जैनधर्म को उत्तम बनाने की थी। शक्ति, संस्कृति और समृद्धि में गुर्जर देश अन्य देशों संरक्षण मात्र ही मिला हो यह बात नहीं, बल्कि उत्तम पोषण भी की अपेक्षा तनिक भी-पिछड़ न जाय उनकी साम्राज्य नीति का यह मिला था। इससे जैन विद्वान् निर्भय, निश्चिंत और निश्चलमना होकर महनीय मुद्रालेख था। वे जितने शौर्यपूजक थे उतने ही संस्कारप्रिय अणहिलपुर तथा उसके आस-पास के सुस्थान और सुग्रामों के भी रहे। साहित्य, संगीत, स्थापत्य आदि सत्कलाओं का उनको शौक उपाश्रयों में बैठ कर उक्त प्रकार की विविध साहित्यिक रचना करके था। कलाकोविदों के वे श्रद्धाशील भक्त थे। वे अपने शौर्य बल से गुजरात की प्रजा को ज्ञान से समृद्ध करते थे; गजरात की गणगरिमा जिस प्रकार गुजरात के साम्राज्य की सीमा का विस्तार चाहते थे, उसी की वृद्धि करते थे। गुजरात के ऐसी ज्ञान गरिमा के कारण ही उसे प्रकार उत्तमोत्तम स्थापत्य की रचना द्वारा गुजरात के नगरों की शोभा "विवेक बृहस्पति" का सम्मानास्पद विरुद् मिला था। और ऐसी बढ़ाना चाहते थे। विद्वान और विशेषज्ञों का समूह संग्रह करके उनके स्थिति की उत्पत्ति में उक्त प्रकार से जैनाचार्यों ने अग्र भाग लिया था। द्वारा साहित्य रचना करवाते थे और इस प्रकार गूर्जर प्रजा की ज्ञान ज्योति को विकसित करते थे। भारत के अन्य राज्यों में जैसे-जैसे गुजरात में सदाचार वृद्धिविशिष्ट देवस्थान या जलाशय आदि स्थापत्य के सुन्दर कार्य हए हों सदाचार के विषय में भी जैनधर्म ने गुजराती प्रजा की या होते हों वैसे कार्य गुजरात में भी होने चाहिए। दूसरे प्रान्तों में जैसे समुन्नति में सविशेष भाग लिया है। जैन धर्म आचार प्रधान धर्म है; विद्यापीठ और सारस्वत भण्डार विद्यमान हों वैसे विद्यापीठ और यम-नियम, तप-त्याग आदि के विषय में जैन धर्म में पर्याप्त भार भण्डार गुजरात में भी होने चाहिए। भारत के अन्य राजदरबारों में दिया जाता है। अहिंसा तो जैन आचार-विचार का ध्रुव बिन्दु ही है। जैसे समर्थ विद्वान, पण्डित, कवि, मन्त्री, राजदूत, सेनानायक, उसी को लक्ष्य करके जैन धर्म के सभी आचारों का संविधान हुआ नीति-विशारद, व्यापार प्रवीण और अन्य कलानिपुण पुरुष विद्यमान है। अहिंसा की सम्पूर्ण व्याख्या तो बहुत गहन है। स्थूल व्याख्या हों वैसे या उनसे भी बढ़कर श्रेष्ठ पुरुषरत्न गुजरात की राजसभा को यह है कि मनुष्य को किसी भी मनुष्य-पशु आदि किसी जीव की शोभित करने वाले होने ही चाहिए- यही उनकी साम्राज्य जिगीषा का हिंसा नहीं करनी चाहिए, किसी भी प्राणी का नाश नहीं करना
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जैन विद्या के आयाम खण्ड-७
चाहिए। इस स्थूल व्याख्या के भी उत्सर्ग अपवाद आदि भेद-प्रभेद विशिष्ट दयाभाव युक्त और दुःखित जनों को उदारतापूर्वक दान और गौण-मुख्य आदि विविध प्रकार हैं। उसकी सूक्ष्मता में जाना देने वाली है-ऐसी ख्याति है। उन गुणों की उन्नति गुजरात में जो यहाँ अनावश्यक है।
हुई है उसका कारण जैन संस्कारों की सतत प्रेरणा और प्रोत्साहन सामान्यतः इतना जानना आवश्यक है कि जैन धर्म की रहा है ऐसा मेरा नम्र मत है। दीक्षा का सर्व प्रथम और सर्व प्रधान नियम है जीव हिंसा का त्याग। गुजरात में पिछड़ी हुई जाति का मनुष्य भी सर्प, बिच्छू जो मनुष्य स्थूल जीव हिंसा का भी त्याग नहीं कर सकता वह जैन जैसे भयङ्कर विषैले जीवों का भी बिना कारण घात करने में पाप धर्म का अनुयायी भी नहीं हो सकता। मांसाहार के लिए ही प्रायः मानेगा और कारण मिलने पर भी उनकी हत्या करने में संकोच का मनुष्य स्थूल जीव हिंसा करते हैं। मांसाहार के निमित्त से ही जगत् में अनुभव करता है। इसके विपरीत अन्य प्रदेशों में रहने वाला उच्च नित्य प्रति लाखों-करोंड़ों पशु, पक्षी, मछली आदि प्राणियों का ब्राह्मण जन भी सदि का नाम मात्र सुन कर उसकी हत्या करने को संहार होता है। यह संहार तभी कम हो सकता है जब मनुष्य मांसाहार उत्साहित हो जाता है। गुजरात का किसान गर्मी के दिनों में शुल्क को कम करे। इस दृष्टि से जैन मांसाहार के सबसे अधिक विरोधी रहे होने वाले तालाबों की मछलियों की सुरक्षा के लिए अनेक प्रयत्न हैं। जहाँ जहाँ उनके वश की बात हो वहाँ-वहाँ में मांसाहार का निषेध करता हुआ नजर आता है जब कि बिहार आदि प्रदेशों का ब्रह्मवादी करने-कराने में प्रयत्नशील रहते आये हैं। सचमुच ऐसा करके वे और सर्व शास्त्र पारगामी भूदेव भी मछलियों के मारने और मरवाने जीवहिंसा को कम करने में अपनी शक्ति का पूरा उपयोग करते आये की व्यवस्थित प्रतृत्ति में लीन हुआ देखा आता है। हैं। अकबर बादशाह जैसे मुगल सम्राट को भी जैनाचार्यों ने अपने सदुपदेश द्वारा हिंसा के निषेध की ओर सुरुचिसंपन्न बना दिया था। पिंजरा पोल संस्था इसी से उन्होंने अपने साम्राज्य में वर्ष में कई दिनों तक जीव हिंसा अनाथ और अपंग पशुओं के पालन-पोषण और संरक्षण न करने के फरमान निकाले थे, तथा उन्होंने स्वयं भी वर्ष के अमुक करने वाली पिंजरा पोल जैसी प्राणी दया की पुण्यसंस्था स्थापित मासों में और दिनों में मांसाहार सर्वथा न लेने का नियम ले रखा था। करने का सबसे पहला श्रेय गुजराती प्रजाजन को ही मिलना चाहिए।
यह तो कहा ही जा चुका है कि चौलुक्यों के शासन काल मारवाड़, मेवाड़ और मालवा आदि प्रदेशों में इस संस्था का जो में गुजरात में जैनों का काफी प्रभाव था इसके अलावा उस वंश का अस्तित्व है वह भी गुजरात के ही अन्दर से है। पिंजरापोल संस्था के सबसे प्रतापी और शूरवीर राजा कुमारपाल जैनधर्म में सम्पूर्ण श्रद्धावान् प्रधान प्रचारक और संचालक जैन हैं यह सर्वविदित है। यह एक होकर अपनी उत्तरावस्था में उसने गृहस्थोचित दृढ़ दीक्षा भी स्वीकृत दूसरी बात है कि आज वह पिंजरापोल संस्था उसके अज्ञान और की थी। उस राजा ने अपने सम्पूर्ण साम्राज्य में जीवहिंसा को रोकने असमयज्ञ संचालकों द्वारा अत्यन्त दयाजनक और दुर्व्यवस्थित दशा के लिए आग्रहपूर्वक राजाज्ञाएँ दी थीं और मांसाहार न करने के लिए को प्राप्त है, तब इससे विचारशील वर्ग द्वारा यह निन्दा की पात्र भी तथा देवी-देवताओं को बलि न चढ़ाने के लिए राज्य घोषणाएँ की हुई है। किन्तु यह दोष व्यवस्था का है संस्था का नहीं। थीं। मांसाहार और जीवहिंसा के निषेधक-ऐसे सतत आदेशों और संस्था का मूल उद्देश्य तो प्राणियों की शुद्ध सेवा का है प्रचार के कारण गुजरात की प्रजा में से ये बातें बहुत कम हो गईं। और तद् द्वारा मानव हृदय की भूतदया की भव्यभावना के विकास आज समस्त हिन्दुस्तान में गुजरात ही ऐसा है जहाँ सबसे कम का है। जैन इस कार्य में प्रतिवर्ष आज भी लाखों रूपयों का खर्च मांसाहार है और सबसे कम जीव-हिंसा होती है। मांसाहार के निषेध करते हैं। जितना ध्यान अनाथ एवं असमर्थ जैन बालकों के संरक्षण के साथ ही मद्य और व्यभिचार के निषेध के लिए भी गुजारात में ही और पालन पोषण में भी नहीं दिया जाता है यह स्पष्ट है, किन्तु अधिक प्रयत्न किया गया है।
व्यवस्था के दोष के कारण इस कार्य में प्रायः पुण्य के स्थान में कुछ गुजरात के उच्च गिने जाने वाले प्रजावर्ग में उन दुर्व्यसनों पाप का भी उपार्जन किया जाता होगा। समयानुकूल सुव्यवस्था के का सर्वथा तो नहीं किन्तु अत्यधिक मात्रा में भी जो प्रशस्य अभाव फलस्वरूप यह संस्था आज हमारे दरिद्र देश के लिए अनेक प्रकार देखा जाता है उसका कारण पूर्वकालीन जैन आचार्यों के उपदेश से अधिक उपयोगी हो सकती है। का प्रभाव ही है। गुजरात में मद्य का प्रचार सिर्फ तथाकथित निम्न जातियों में है और वह भी अंग्रेजों के शासन काल में ही बढ़ा है। अहिंसा विषयक आक्षेप का उत्तर मांस, मद्य और व्यभिचार की प्रबलता के अभाव में प्रजा में खून जीवदया की ऐसी प्रवृत्ति और तद् द्वारा की जाने वाली और संत्रास की प्रवृत्ति भी कम हो यह स्वाभाविक है। समस्त अहिंसा की पुष्टि के विषय में कभी-कभी यह आक्षेप सुनाई देता है भारतवर्ष में आज गुजराती प्रजा शान्तिप्रिय, सौम्यस्वभावसम्पन्न, कि जैनों के इस अहिंसा प्रचार के कारण प्रजा में शौर्यवृत्ति और
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जैनधर्म और गुजरात
१८५ क्षात्रधर्म शिथिल हए और फलस्वरूप आम प्रजा पौरुषहीन होकर संरक्षण करने के लिए जैनों ने बड़े-बड़े क्षत्रिय वीरों से भी बढ़कर पराधीन बन गई इत्यादि।
उत्साह दिखलाया था। गुजरात के साम्राज्य के उत्कर्ष के लिए अहिंसा के विषय में उक्त आक्षेप सर्वथा भ्रमात्मक और जैनधर्मी वीर योद्धाओं ने अनेक रणसंग्राम खेले हैं और अद्भुत युद्ध तत्वशन्य है। मैंने जैसे प्रथम सूचित किया है उस रीति से जैनधर्म की कौशल बताया है। गुजराती भूमि में कभी-कभी तो जो दुर्धर्ष कार्य अहिंसा की कल्पना और व्याख्या बहुत विशाल और गम्भीर है। उक्त क्षत्रिय पुत्र भी न कर सके वह इन तथाकथित वणिक पुत्रों ने करके व्याख्या के अनुसार दृश्य तथाकथित अहिंसा वस्तुत: हिंसा हो दिखाया है। सकती है और स्थूल दृष्टि से दृश्य हिंसा भी सिद्धान्तसम्मान अहिंसा आबू के जगत्प्रसिद्ध कलाधाम आदिनाथ मन्दिर का निर्माता हो सकती है। हिंसा-अहिंसा की सिद्धि और साधना का आधार न विमलशाह जैन ऐसा प्रचंड-सेनानायक हो गया है जिसने गुजरात के सिर्फ बाह्य प्रवृत्ति ही नहीं है किन्तु बाह्यप्रवृत्ति में रहे हुए हेतु की सैन्यों को सिन्धु नदी के नीर में तैरा करके गजनी की सीमा को शुद्धि-अशुद्धि के कारण होने वाली आन्तरिक वृत्ति है। जैन या अन्य पददलित करने वाला बना दिया। मंत्री उदयन के पुत्र दण्डनायक कोई जिसे अहिंसा समझते हों और अपनी जिस प्रवृत्ति को अहिंसा आंबड ने गूर्जर सैन्यों को सह्याद्रि की घटियाँ किस प्रकार पादाक्रान्त की पोषक मानते हों वह भी इस तत्व दृष्टि के अनुसार वस्तुतः करना यह अनुभव पाठ सैन्यों के साथ रहकर के दिया और अपने अहिंसा हो भी सकती है या नहीं भी हो सकती। तत्वत: अहिंसक सम्राट की शत्रु विजिगीषा किस प्रकार पूर्ण करना इसकी सोपपत्तिक व्यक्ति अहिंसा धर्म के पालने के निमित्त किसी समय चींटी जैसे शिक्षा देने के लिये मल्लिकार्जुन जैसे बलवान् कोंकणाधीश नृपति क्षुद्रतम जन्तु के प्राण बचाने के लिए भी अपने प्राणों का परित्याग का स्वहस्त से कण्ठकर्तन करके मस्तक रूप श्रीफल के द्वारा गर्जर कर सकता है जबकि दूसरे किसी अवसर में अपनी अहिंसा पालन के नरेन्द्र की चरण पूजा करके दिखलाई। गुजराती योद्धाओं को विन्ध्याचल ही निमित्त से चक्रवर्तियों के महासैन्यों का भी संहार स्वयं कर सकता की अटवी कैसे पददलित करना और उसमें यथेच्छ विहरने वाले है और करा भी सकता है। इस प्रकार अहिंसा धर्म 'कुसुमादपि गजयूथों को किस प्रकार शिक्षा देकर के अणहिलपुर की हस्तिशालाओं कोमल' ओर 'वज्रादपि कठोर' है। उसका शुद्ध आचरण तलवार की को अजेय बना देना इस बात की अपूर्व विद्या मंत्री लहर ने दी थी। धार पर चलने जैसा कठिन कार्य है। सर्वस्व के त्याग की तैयारी के धनुर्विद्या में प्रवीण उसी दण्डनायक ने अणहिलपुर के सन्निकट बिना इस अहिंसा धर्म का सम्पूर्ण पालन शक्य नहीं है और न राग- विन्ध्यवासिनी देवी का बड़ा पीठ स्थापित करके उसके प्रांगण में द्वेष के विषय के बिना अहिंसा की सिद्धि हो सकती है। आधुनिकान गुर्जर सैनिकों को प्रजाजनों को धनुर्विद्या के शौर्यपूर्ण पाठ पढ़नेसमाज इस अहिंसा की सम्पूर्ण साधना करता है ऐसा मेरा मन्तव्य या पढ़ाने के लिये पाठशाला खड़ी की थी। वक्तव्य नहीं है किन्तु मैं तो बताना यह चाहता हूँ कि अहिंसा की उदयन मन्त्री ने सोरठ के ऊपर धावा बोल कर राखेंगार का नि:शंक व्याख्या क्या है। देश काल की परिस्थिति का विवेकपूर्वक राज्य नष्ट किया और सिद्धराज को चक्रवर्ती पद दिलाया। मन्त्री विचार किये बिना, मूढभाव से यदि कोई समाज अहिंसा की अन्य वस्तुपाल ने गुजरात के स्वराज्य को नष्ट होने से बचाने के लिए प्रवृत्ति करता हो तो वह वास्तविक अहिंसा नहीं हो सकती। उस अपनी जिन्दगी में त्रेसठ बार युद्धभूमि में गूर्जर सेना का संचालन प्रवृत्ति का परिणाम यदि बहुजन समाज के लिये हानिकर होता हो तो किया था। उसके युद्धकौशल के प्रताप से दिल्ली के इस्लामी सैन्यों वह निरी हिंसा ही है। अतः ऐसी अन्ध प्रवृत्ति अवश्य दोष और को भी गुजरात की सीमा में पराजय प्राप्त हुआ था। भीमदेव द्वितीय तिरस्कार की पात्र होती है।
जब नाबालिग था तब उसका एक सज्जन नामक जैन सेनानायक था
जो नियमत: सायं-प्रातः प्रतिक्रमण करता था। जब युद्ध प्रसंग होता जैन सेनापतियों का पराक्रम
तो वह हाथी के हौदे पर बैठे-बैठे घड़ी भर एकाग्रचित्त होकर अपने किन्तु अहिंसा की ऐसी रूढ़ या अन्ध प्रवृत्ति के साथ भी अहिंसा धर्म के आध्यात्मिक नियम का पालन कर लेता और शेष प्रजा की पराधीनता का तनिक भी सम्बन्ध नहीं है। अहिंसा के नाम समय में शत्रु संहार की रणभेरी पूँक अपने प्रजाकीय राष्ट्रीय धर्म का को जिन्होंने स्वप्न में भी नहीं सुना ऐसे अनेक प्रजा वर्ग जगत् के पालन करता था। उसी के सेनापतित्व में आबू की तलहटी में इतिहास में पराधीन हुए हैं और होते रहे हैं। अहिंसा की इस तात्विक शहाबुद्दीन जैसे महान् सुल्तान को. भी पराजित होना पड़ा थाविचारणा को छोड़कर यदि उसे हम व्यावहारिक दृष्टि से सोचें तो इसे मुसलमान तवारीखों में माना भी गया है। पता लगेगा कि जैनों ने अहिंसा का ऐसा अनर्थ तो कभी नहीं किया गुजरात के इतिहास में ऐसे अनेक वृत्तान्त मिलते हैं जिनके जिससे प्रजा की शौर्यवृत्ति नष्ट हो गई हो! उल्टा जैन समाज और अनुसार जैनधर्म के समर्थ उपासक वणिकों ने क्षत्रियों के जैसा ही गुजरात का इतिहास तो इस बात का साक्षी है कि अपने देश का रणशौर्य दिखलाया है और शत्रुओं के संहार द्वारा अपने राष्ट्रधर्म के
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जैन विद्या के आयाम खण्ड-७ पालन की सम्पूर्ण साधना करके दिखा दी है। मुगलों के जमाने में भी कला के सुन्दरतम नमूने रूप में एक उत्कृष्ट संगमरमर का तोरणबनवाकर दिल्ली और राजपूताना के राज्यों में अनेक शूर-वीर जैन वणिक हो उसने इस्लाम के पाक धाम मक्का शरीफ को भेंट रूप भिजवाया था। गए हैं जिन्होंने उच्च सेनाधिपतित्व जैसे पदों को शोभित किया है। अपने धर्म में चुस्त रहते हुए भी अन्य धर्म के प्रति ऐसी उदारता जिनके सेनाधिपतित्व में हजारों राजपूतों, मुगलों, अरबों और पठानों दिखलाने वाला और अन्य धर्म के स्थानों के लिए इस प्रकार लक्ष्मी ने बड़े-बड़े जङ्ग लड़े हैं, जयपुर, जोधपुर, उदयपुर आदि राजपुताना का व्यय करने वाला उसके समान दूसरा कोई पुरुष भारतवर्ष के के राज्यों के इतिहासों में इस बात के अनेक प्रमाण विद्यमान हैं। इतने इतिहास में मुझे तो अज्ञात ही है। जैनधर्म ने गुजरात को वस्तुपाल विवेचन से स्पष्ट है कि अहिंसा धर्म के उपासकों ने क्षात्रधर्म को जैसे असाधारण सर्वधर्म समदर्शी और महादानी महामात्य की अनुपम शिथिल कर दिया है या प्रजा के पौरुष को हतोत्साह बना दिया है- भेंट दी है। यह आक्षेप सर्वथा अज्ञानसूचक और इतिहास विरुद्ध है।
शाह समरा और सालिग राष्ट्र सेवा
वस्तुपाल और तेजपाल जैसे सर्वथा अद्वितीय भाग्यशाली पूर्व काल के जैन जितने धर्म प्रिय थे उतने ही राष्ट्र भरत तो नहीं किन्तु उनके गुणों के साथ अनेक प्रकार से साम्य रखने वाले भी थे और जितने राष्ट्रभक्त थे उतने ही प्रजावत्सल भी रहे। उनकी उनके बाद शाह समरा और सालिग यह बन्धुयुगल पाटण में हुआ। लक्ष्मी का लाभ धर्म, राष्ट्र, प्रजागण इन सब को समान रूप से उन्होंने अलाउद्दीन के प्रलयंकर आक्रमण के समय गूर्जर प्रजा की मिलता था। वे साधर्मिक वात्सल्य भी करते और प्रजासंघ को भी अनेक प्रकार से अद्भुत सेवा की थी। उन्होंने अपनी असाधारण भोज देते थे। वे जैन मंदिरों के अलावा सार्वजनिक स्थानों का भी राजकीय पहुँच के कारण गुजरात के सैकड़ों जैन और हिन्दू देव निर्माण करते थे। वे जैन जातिओं के साथ ही ब्राह्मण वर्ग को भी स्थानों का मुसलमानों के हाथों सर्वनाश होना रोक दिया था तथा सम्मान देते थे। शत्रंजय और गिरनार की यात्रा के साथ सोमनाथ की नष्ट-भ्रष्ट हुए देवस्थानों का पुनरुद्धार किया व कराया था। हजारों भी यात्रा करते और द्वारका भी जाते थे।
प्रजाजनों को उन्होंने मुसलमानों के विघातक कैदखानों से मुक्ति
दिलाई थी। पाटण का स्वराज्य नष्ट हुआ उस समय गूर्जर प्रजा को वस्तुपाल-तेजपाल
आपत्ति के काल में आश्वासन देने वाले जो भी महाजन थे उनमें शाह वस्तुपाल तेजपाल बन्धुयुगल आदर्श जैन थे। जैनधर्म की समरा और उनके भाई अग्रणी थे। वस्तुपाल-तेजपाल के समान उनके प्रभावना के लिए जितने द्रव्य का व्यय उन्होंने किया इतना किसी सत्कृत्यों का इतिहास भी सुविस्तृत है। अन्य ने किया हो यह इतिहास में नहीं मिलता। मध्ययुग के इतिहास काल में जितने समर्थ जैन उपासक हो गए हैं उनमें वस्तुपाल सबसे जगडु शाह महान् था, जैनधर्म का यह श्रेष्ठ प्रतिनिधि था। एक साधारण जैनयति संवत् १३१३ से १५ तक गुजरात और उसके आस-पास के अपमान का बदला लेने के लिए उसने गुजरेश्वर महाराज वीसलदेव के प्रदेश में सर्वभक्षी ऐसा महाभयंकर दुष्काल हुआ जबकि वीसलदेव के सगे मामा का हस्तच्छेद करा दिया था। उसका स्वधर्माभिमान जैसे महाराजों और सिन्ध के बड़े अमीरों के लिए भी अपने आश्रितों इतना उग्र था। फिर भी जैन धर्मस्थानों के अलावा उसने लाखों रूपये को खाने के लिए अन्न देना दुष्कर हो गया था तब सामान्य प्रजा का खर्च करके जैनेतर धर्मस्थान भी बनवाये थे। सोमेश्वर, भृगुक्षेत्र, तो कहना ही क्या? ऐसी स्थिति में कच्छ भद्रेश्वर का रहने वाला शाह शुक्लतीर्थ, वैद्यनाथ, द्वारका, काशीविश्वनाथ, प्रयाग, गोदावरी आदि जगडु वणिक, जिसने आने वाले भयंकर दुष्काल की आगाही अपने अनेक हिन्दू तीर्थस्थानों की पूजा-अर्चा के निमित्त उसने लाखों का गुरु से सुन कर लाखों मन अनाज का संग्रह किया था उसे, उसने दान किया था। सैकड़ों ब्रह्मशाला और ब्रह्मपरियों का निर्माण किया दुष्काल पीड़ित प्रजा को खुले हाथ बाँट कर गुजरात के लाखों था। पथिक जनों के आराम के लिए जगह-जगह पर अगणित कुएँ मनुष्यों को उस समय जीवनदान दिया था।
और वाटिकाएँ निर्मित की थीं, अनेक सरोवरों और विद्यापीठों का निर्माण किया। सैकड़ों अरक्षित गाँवों में दर्गों का निर्माण किया, आचार्य हीरविजयसूरि और भानुचन्द्र उपाध्याय सैकड़ों शिवालयों का पुनरुद्धार किया। सैकड़ों वेदपाठी ब्राह्मणों को अकबर के समय में हीरविजयसरि और उनके शिष्यों ने वर्षासन दिये। इन सब कार्यों से अतिविशिष्ट और अनुपम कार्य तो अपने उपदेश कौशल द्वारा अकबर को प्रसन्न किया था और उससे उसने यह किया कि मुसलमानों को नमाज पढ़ने के लिए अनेक गुजरात की समस्त प्रजा के लिए प्रजा-पीड़क जजिया कर से माफी मस्जिदों को बनवाया। हजारों रूपयों का खर्च करके गुजराती शिल्प- दिलाई थी। अकबर के सैन्य ने जब सोरठ जीत लिया तब उसने वहाँ
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जैनधर्म और गुजरात
के हजारों प्रजाजनों को बंदी बनाया था। उन्हें हीरविजयसूरि के शिष्य भानुचन्द्र उपाध्याय ने बादशाह से बड़ी मुश्किल से शाही हुकुम प्राप्त करके छुड़ाया था। एवं दूसरे भी कई जैनों ने बादशाहों और सुलतानों के पास से गाय-भैंस आदि देश के बहुमूल्य पशुधन की हत्या न हो इसके लिए फरमान प्राप्त किये थे। निःसंदेह ऐसा करके देश की जीवित संपत्ति की समय-समय पर सुरक्षा की थी। इसी तरह के अनेक दृष्टांत है जबकि जैनों ने धर्म के अलावा अपने देश के हित के लिए उतना ही अधिक प्रयत्न और देश की उत्तम सेवा की है।
इतिहास का संरक्षण
गुजरात के उत्कर्षकालीन इतिहास की स्मृति का संरक्षण भी सबसे अधिक जैनों ने ही किया है यह तो अब सुप्रसिद्ध तथ्य है। मूलराज से लेकर कुमारपाल तक के चौलुक्य महाराजाओं के वंश का सुकीर्तन आचार्य हेमचन्द्र ने काव्यबद्ध किया है उस वंश के राजर्षि कुमारपाल का धार्मिक जीवन सोमप्रभ, यशः पाल, प्रभाचन्द्र, मेरुतुङ्ग, जयसिंहसूर और जिनमण्डल आदि अनेक जैन विद्वानों ने अन्यबद्ध किया है। प्रभाचन्द्र, मेरुतुङ्ग, राजशेखर आदि प्रबन्धकारों ने मूलराज, भीमदेव, सिद्धराज कुमारपाल आदि राजाओं के यथाश्रुत इतिवृत्तों के अनेक प्रकरण पुस्तकबद्ध किये वस्तुपाल की कीर्तिकथा करने वालों ने वीरधवल बाघेला के वंश को इतिहास में अमर किया है। तदुपरान्त अनेक दूसरे अंधकारों और लेखकों ने अपने-अपने समय के कितने नृपतियों और अमात्यों के बारे में छोटे-बड़े उल्लेखों द्वारा उनके अस्तित्व और समय आदि के विषय में प्रकीर्ण होने पर भी उपयोगी तथ्यों की सामग्री संगृहीत की है जो कि इतिहास की त्रुटित शृङ्खला के मिलाने में अत्यधिक सहायक हो सकें ऐसी है। एक काश्मीर को छोड़ कर हिन्दुस्तान के दूसरे सब प्रदेशों की अपेक्षा गुजरात का मध्यकालीन इतिहास अधिक विस्तृत, अधिक व्यवस्थित और अधिक प्रमाणभूत मिलता है। इस बात का मुख्य यश जैन विद्वानों को ही है।
कितने अति आलोचनाप्रिय इतिहास गवेषक जैनों की इस इतिहास सेवा को स्वमतरंजित अतएव अतिशयोक्ति पूर्ण मान कर उसकी वास्तविकता को कम करने के लिये जब कभी प्रयत्न करते नजर आते हैं, तब उस प्रयत्न में इतिहासनिष्ठा की अपेक्षा कुछ साम्प्रदायिक असहिष्णुता का ही अधिक अंश मुझे प्रतीत होता है। इसी से मेरुतुद्र ने जो यह कहा है कि 'तद्वेषी नैव नन्दति वह अधिक सत्य मालूम होता है। वस्तुतः उन सभी ऐतिहासिक जैन सामग्री का हमें प्रामाणिक रूप से ऊहापोह अवश्य करना चाहिए और साधक-बाधक प्रमाणों की कसौटी द्वारा उसके सत्यत्व और मिथ्यात्व की जांच भी करनी ही चाहिए पर साथ ही वह जैन लेखक के द्वारा लिखी गई है या जैनधर्म से सम्बद्ध है इतने मात्र से किसी
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उक्ति या कथन को सदा और सर्वत्र शङ्का चिह्न के साथ तो नहीं रखना चाहिए। प्रबन्धकारों का समस्त वक्तव्य सर्वथा इतिहास सिद्ध है ऐसा कोई इतिहासकार नहीं मान सकता। स्वयं प्रबन्धकारों का भी यह दावा नहीं। परन्तु जब तक उसके विरुद्ध कोई सबल प्रमाण हमारे पास न हो तब तक उनके कथन को एक सामान्य इतिहासगर्भित कथन के रूप में यदि स्वीकार कर लिया जाय तो उसमें कुछ अनैतिहासिकता का दोष नहीं है। उन प्रबन्धकारों ने जिस प्रकार जैनधर्म से सम्बद्ध अनेक बातों का संग्रह किया वैसे ही धर्मनिरपेक्ष अनेक बातों का भी संग्रह किया है। इतना ही नहीं, जैनेतर धर्मों की महत्वपूर्ण किंवदन्तियों का भी समानभाव से संग्रह किया है। अतएव उनका हेतु केवल जैन-धर्म की महिमा वर्णन का ही था ऐसा तो नहीं कहा जा सकता, भले ही वह हेतु मुख्य रहा हो फिर भी गुजरात के इतिहास की सर्व साधारण और सार्वजनिक घटनाओं को धन्थबद्ध करने की भी उनकी अभिरुचि अवश्य रही है। मीनल देवी सोमनाथ की महायात्रा करने गई और उस तीर्थ के प्रत्येक यात्री से लिये जाने वाले मुंडकारा से वह अत्यंन्त खिन्न हुई और इससे सिद्धराज द्वारा उसवेरे को बन्द कराके उस महान् तीर्थ की यात्रा को सर्वजन सुलभ बना दिया इस तरह के सर्वसामान्य तथ्यों का मेरुतुल ने अपने प्रबन्धचिन्तामणि में और राजशेखर ने प्रबन्धकोश में जो उल्लेख किया है उसका जैनधर्म के साथ भला क्या सम्बन्ध है? वस्तुतः उन प्रबन्धकारों को देश में प्रचलित पुरानी कथाओं को संगृहीत करने का शौक था इसी से उन्होंने जो कुछ पढ़ा या सुना उसे अपनी पद्धति और रुचि के अनुसार लेखबद्ध करके पुस्तकारूढ़ कर दिया। उस समय के प्रबन्धकारों को न तो हम लोगों की ऐतिहासिक दृष्टि ज्ञात थी और न क्रमबद्ध इतिहास लिखने की पद्धति ही प्रचलित थी। व्यक्ति विशेष के जीवन में कौन सी घटना ऐतिहासिक दृष्टि से अधिक महत्तव की है और कौन सी सामान्य है उसकी तुलना करने का या उस दृष्टि से उसका उल्लेख करने का उनका तनिक भी प्रयत्न न था। उनका उद्देश्य अधिकांश में उपदेशात्मक लिखने और कुछ अंश में मनोरंजन करने का था। उन ऐतिहासिक घटनाओं को अपने श्रोताजनों के समक्ष वे इसीलिये रखते थे कि श्रोता उपदेशक को जिस वस्तु का प्रतिपादन करना हो उसकी सप्रमाणता स्वीकृत कर सके और उनमें से योग्य उपदेश ग्रहण कर सके। उपदेश के हेतु के बिना कुछ अन्य घटनाओं को वे मात्र प्रसङ्गोचित सभारंजन करने के लिये ही दृष्टान्तरूप से कहते थे और उस दृष्टान्त में कितनी ही व्यक्तियों की किञ्चित् अधिक परिचय देने के लिये उनके जीवन से सम्बद्ध कुछ छोटी-बड़ी ऐतिहासिक घटनाओं का भी वे उल्लेख करते थे। इस प्रकार जिन ऐतिहासिक घटनाओं का वे उल्लेख करते थे वे सर्वथा इतिहास संगत ही हैं या कुछ न्यनाधिक है, जिन घटनाओं का सम्बन्ध जिस व्यक्ति के साथ जोड़ा जाता है वह यथार्थ
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है या अन्यथा इस विचारणा का उनको कुछ विशिष्ट प्रयोजन ही उपस्थित नहीं होता था। अतएव उन्होंने "यादृशं श्रुतं तादृशं लिखितम्"इस सूत्र का ही सामान्य रूप से अनुसरण प्रबन्ध ग्रन्थों की रचना में किया है। उन प्राचीन प्रबन्धों का अध्ययन व संशोधन इसी दृष्टि को समक्ष रख कर ही करना चाहिए और उसी रूप में उनका योग्य उपयोग भी। किसी भी रूप में सही पर हमारे देश की यत्किकञ्चित् भी प्राचीन स्मृति को उन प्रबन्धकारों ने ही सुरक्षित रखा है अन्यथा वह संपत्ति आज हमारे लिये सर्वथा अप्राप्य होती।
जैन विद्या के आयाम खण्ड- ७
इस प्रकार गुजरात के जैन धर्म ने अपनी आश्रय भूमि को अपनी क्या देन दी उसका रेखाचित्र खींचने का मैंने तनिक प्रयत्न किया है। गुजरात को उस जैन धर्म का परिचय कैसे और कब प्राप्त हुआ इसका भी संक्षिप्त सिंहावलोकन करना यहाँ स्वतः प्राप्त है।
गुजरात
में जैन धर्म का प्रचार
वस्तुतः गुजरात जैन धर्म की जन्म भूमि नहीं है और न जैन धर्म का कोई मुख्य प्रवर्तक गुजरात में उत्पन्न ही हुआ। फिर भी फिर भी हमारे पूर्व कथन से स्पष्ट है कि गुजरात जैन धर्म के लिए सर्वश्रेष्ठ और सर्वप्रिय आश्रय स्थान बना है। इतिहास युग में जैन धर्म ने अपना जो कुछ उत्कर्ष सिद्ध किया है वह गुजरात में ही सिद्ध किया है। देखा जाए तो गुजरात में ही सबसे अधिक उत्कर्ष भी हुआ है गुजरात की भूमि एक तरह से जैन धर्म की दृष्टि से दत्तक पुत्र की माता के समान है। फिर भी उसकी गोद में जैन धर्म ने जन्म दात्री भूमि की अपेक्षा भी अधिक प्रेम और वात्सल्य का लाभ लिया है। गुजरात और जैन धर्म के प्रकृति मेल में ऐसे कौन से ऐतिहासिक कारणों और सामाजिक तत्त्वों का हिंसा है इसका इतिहास बहुत रसप्रद और क्रान्ति सूचक है। किन्तु इसके विशेष विवेचन का यह अवसर नहीं है। इसके लिए तो हमें कुछ विशेष तफसील में जाने की जरूरत है। जैन धर्म की आचार-विचारात्मक प्रकृति के परिचय के साथ ही गुजरात के जिन प्रजाजनों ने जैन धर्म को स्वीकार किया उनके लाक्षणिक जाति परिचय की भी मीमांसा करना आवश्यक है। इसके अलावा गुजरात के राजकीय परिवर्तनों की और भौगोलिक परिस्थितियों की भी विस्तृत विचारणा करनी चाहिए।
जिस प्रकार प्रत्येक व्यक्ति और जाति की विशिष्ट प्रकृति होती है; उसी प्रकार प्रत्येक धर्म की भी खास प्रकार की प्रकृति होती है। ब्राह्मण, बौद्ध, शैव, वैष्णव, जैन आदि प्रत्येक धर्म की विशिष्ट प्रकृति है। जैसे अमुक प्रकृति के मनुष्य को अमुक प्रदेश की आबोहवा विशेष अनुकूल या प्रतिकूल हो जाती हैं, वैसे धर्म के लिए
भी
कुछ प्रादेशिक वातारण अनुकूल या प्रतिकूल हो जाता है। जैन धर्म की अहिंसा प्रधान प्रकृति को गुजरात और उसके आसपास के प्रदेश की सामाजिक, राजकीय और भौगोलिक सब प्रकार की पाशस्थिति
विशेष रूप से अनुकूल हो गई जिससे वह धर्म उस प्रदेश में सुदृढ़ और विकसित हुआ सिर्फ इतना ही मैं यहाँ इशारा करना चाहता हूँ। गुजरात की भौगोलिक परिस्थिति ऐसी है कि उस भूमि में प्राचीन कारन से अनेक जातियाँ यहाँ आकर बसती रही हैं और इस प्रकार यहाँ के निवासियों को दूसरी जातियों के साथ सतत समागम होता आया है। आर्य और अनार्य, वैदिक और अवैदिक, ग्रीक और रोमन, इजिप्शियन और पर्शियन, सीथियन और पार्थियन हूण और अरब, ईरानियन और मंगोलियन इस प्रकार से विविध जाति के विदेशियों का निवास भिन्न-भिन्न समय में छोटी-बड़ी संख्या में उस भूमि में हुआ है। इनमें से अधिकांश अपना जाति पार्थक्य छोड़कर एक महा हिन्दू जाति के रूप में मिश्रित हुए हैं। उस भूमि में वास करने वाले ऐसे अनेक भिन्न जातीय जनों के अद्भुत संमिश्रण युक्त यह प्राचीन हिन्दू समाज गुजरात में था। वह समाज तब किसी विशिष्ट प्रकार के रूढ़ धार्मिक संस्कारों से जकड़ा हुआ नहीं था तथा जाति और वर्ण की संकीर्णता के वर्तुल से घिरा हुआ भी नहीं था। ऐसे समय में जैन धर्म ने गुजरात की भूमि में पदार्पण किया था। जैनधर्म के निष्परिग्रही, निलोभ, निर्भय, और तपस्वी उपदेशकों के दान, शील, तप और भावनापोषक सतत प्रवचनों ने गुजरात के उन हजारों प्रजाजनों में जैनधर्म के प्रति विशिष्ट श्रद्धा उत्पन्न की। धीरे-धीरे क्षत्रिय, वैश्य और कृषिकारों के अनेक कुटुम्बों ने जैन धर्म को स्वीकार किया और जिस जाति या वर्ण में मांसाहार या मद्यपान का प्रचार था उसका त्याग करके वे समानधर्मी कुटुम्बों की पृथक् गोष्ठियों के रूप में संगठित हो गए। प्रत्येक गाँव के ऐसे संगठित जैन गोष्ठिकों ने अपने-अपने स्थान में जैन मंदिरों का निर्माण किया और उन्हीं में अपनी सभी धर्म क्रिया करने लग गए। लाट, आनर्त, सौराष्ट्र और मालवा के प्रदेशों में जब क्षत्रियों की सत्ता प्रवर्तमान थी तब जैन धर्म का इस प्रकार उन प्रदेशों में धीरे-धीरे किन्तु स्थायी प्रचार शुरू हुआ।
इसके बाद थोड़े ही समय में हूण और गूर्जर लोगों का एक पराक्रमी जनसमूह पंजाब की ओर से दक्षिण पूर्व भाग में आगे बढ़ा और दिल्ली, आगरा, अजमेर के प्रदेशों से होता हुआ वह अर्बुदाचल की पश्चिम दिशा में स्थित मरु प्रदेश में आकर रुक गया। सिंध, कच्छ और मरुभूमि की सीमाओं में स्थित भिल्लमाल नाम के स्थान को उन्होंने अपनी राजधानी बनाई उसके आस-पास का समस्त प्रदेश हूण और गूर्जर लोगों से आबाद हुआ। गुर्जरों के संख्या बाहुल्य से उस प्रदेश की गूर्जर देश के रूप में अभिनव ख्याति हुई और इस प्रकार गुजरात का नूतन जन्म हुआ। अणहिलपुर के उदय से पहले गूर्जर संस्कृति और सत्ता का केन्द्र भिल्लमाल था। गुर्जरों के पराक्रम और पुरुषार्थ के बल से वह स्थान श्री और समृद्धि से प्लावित हो गया। इसी से उसका दूसरा नाम श्रीमाल भी प्रसिद्ध हुआ। हूण और गुर्जर लोगों को जैनधर्म का उपदेश देने के लिये अनेक समर्थ
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जैनधर्म और गुजरात
जैनाचार्य उस गुर्जर देश में जा पहुँचे। उनके ज्ञान और चारित्र के प्रभाव से बहुत से गूर्जर आकृष्ट हुए और उनके ज्ञान और धर्म को स्वीकार करने लगे। भिल्लमाल उर्फ श्रीमाल में बड़े-बड़े जैन मंदिरों का निर्माण होने लगा। प्रतिवर्ष सैकड़ों कुटुम्ब जैन गोष्ठिकों के रूप में जाहिर होने लगे। परमार, प्रतिहार चाहमान और चावड़ा जैसे क्षात्रधर्मी गुर्जरों में से सैकड़ों कुटुम्ब जैन बनने लगे। जैनाचार्यों ने उनको एक नवीन जन जाति के समूह रूप में संगठित किया और श्रीमाल नगर उस नये जैन समाज का मुख्य उत्पात्ति स्थान होने से उस जाति का श्रीमाल वंश ऐसा नया नाम स्थापित किया। वही श्रीमाल वंश बाद में वटवृक्ष के समान असंख्य शाखा प्रशाखा द्वारा समस्त देश में व्याप्त हुआ। उस वंश की एक महती शाखा पोरवाड़ वंश के नाम से प्रसिद्ध हुई जिसमें विमलशाह और वस्तुपाल तेजपाल जैसे पुरुष रत्न उत्पन्न हुए। गुजरात के वणिकों का अधिकांश उसी श्रीमाल वंश की संतान है।
भिल्लमाल (वर्तमान- भीनमाल ) की राजलक्ष्मी के अस्तंगमन के बाद अणहिलपुर का भाग्योदय हुआ और गूर्जरों के ही एक राजवंश में जाति वनराज चावड़ा के छत्र के नीचे उस प्राचीन गुर्जर देश की धन-जनात्मक समग्र संपत्ति अणहिलपुर की सीमा में आकर व्यवस्थिति हुई। श्रीमाल के नाम की स्मृति निमित्त उन्होंने सरस्वती के तीर श्रीस्थल की नवीन स्थापना की। कुछ ही दशकों में वह
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श्रीस्थल और अणहिलपुर के आसपास का समस्त प्रदेश भिल्लमाल के प्राचीन प्रदेश की तरह गुर्जर देश इस नवीन नाम से भारतविश्रुत हुआ। शीलगुणसूरि नामक एक जैनाचार्य का वरप्रदहस्त बाल्यवस्था में ही वनराज के मस्तक पर प्रतिष्ठित हुआ और उनके मंगलकारी आशीर्वाद से उसका वंश और उसका पाट नगर अभ्युदय को प्राप्त हुए अणहिलपुर की स्थापना के दिन से ही जैनाचार्यों ने उस भूमि के सुख, सौभाग्य, सामर्थ्य और समृद्धि की मंगल कामना की थी। उनकी यह कामना उत्तरोत्तर सफल हुई और अणहिलपुर के सौराज्य के साथ गुर्जर प्रजा का और तद्द्द्वारा जैन धर्म का भी उत्कर्ष हुआ। गुजरात और उसकी संस्कार विषयक देन के विषय में इस प्रकार मैने अपने कुछ दिग्दर्शनात्मक विचार आपके समक्ष रखे हैं। ये विचार सिर्फ दिग्दर्शन कराने के लिये ही है। इन विचारों का सप्रमाण और सविस्तार वर्णन करने के लिये तो ऐसे अनेक व्याख्यान देने होंगे। बड़ौदा के इस विशाल न्यायमंदिर में आज जो मुझे इस प्रकार अपने जैन धर्म विषयक विचार प्रकट करने का मानप्रद और आनन्ददायक आमन्त्रण दिया गया है एतदर्थ मैं श्रीमन्त सरकार सर सयाजी राव महाराज के सुयोग्य मंत्रिमंडल के प्रति अपना हार्दिक आभार प्रकट करता हूँ, तथा आप सभी श्रोताजनों ने मेरे इन विचारों को सुनने के लिए जो रस और उत्साह का प्रदर्शन किया है एतदर्थ मैं आपका भी हृदय से आभार मानकर अपना यह वक्तव्य समाप्त करता हूँ ।
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आगम का गंगावतरण
डॉ० रामजी सिंह
जिस प्रकार कैलाश स्थित भगवान् शिव की जटाओं में की मृत्यु हो जाने से इसमें व्यवधान होता था। प्राप्त सूचना के उलझी गंगा के अवतरण का श्रेय भागीरथ को दिया गया है, उसी अनुसार आगम की प्रथम वाचना पाटलिपुत्र में जैन श्रमणों के एक प्रकार आधुनिक युग में नियुक्तियों, भाष्यों, चूर्णियों एवं टीकाओं सम्मेलन में हुआ। इस सम्मेलन में श्रुत ज्ञान के ११ अंगों का आदि से युक्त जैनागमों को लोक-कल्याण के लिये प्रांजल रूप में संकलन किया गया किन्तु दृष्टिवाद किसी को याद नहीं था इसलिए लाने का श्रेय सागरमन्दसूरिजी पुण्यविजयजी, अमोलकऋषिजी, पूवों का संकलन नहीं हो सका। भद्रबाहु ने, जो पूर्वो के एकमात्र आत्मारामजी, उपाचार्य मिश्रमल जी एवं आचार्य तुलसी को है। ज्ञाता थे, उन्होंने भी स्थूल भद्र को दस पूर्वो का अर्थ सहित अध्ययन यही आगम का गंगावतरण भी है। यह दुर्भाग्य है कि जैनों के करवाया और अंतिम चार पूर्वो का अर्थ सहित अध्ययन कराने के अलग-अलग सम्प्रदायों में जैनागमों की संख्यादि के विषय में भी लिए मना कर दिया। जो कुछ भी हो पाटलीपुत्र के सम्मेलन में जैन एकवाक्यता नहीं है। श्वेताम्बरीय अर्धमागधी जैन आगम का प्रायः आगमों की प्रथम वाचना हुई, जिसका काल महावीर निर्वाण के ईस्वी सन् के पूर्व पाँचवी शताब्दी से लेकर ईस्वी सन् की पाँचवी लगभग १६० वर्ष पश्चात् माना जाता है। दूसरी वाचना महावीर शताब्दी तक माना जाता है। जैन परम्परा के अनुसार अर्हत् निर्वाण के लगभग ८२७ वर्ष बाद आर्य स्कन्दिल के नेतृत्व में भगवान् ने आगमों का प्ररूपण किया और उनके गणधरों के द्वारा मथुरा में हुई। इसे माथुरी वाचना कहा जाता है। इसी समय नागार्जुनसरि वे सूत्ररूप में निबद्ध किये गये
के नेतृत्व में भी वलभी में ही एक सम्मेलन हुआ। उक्त दोनों अत्थं भासइ अरहा, सुत्तं गंथंति गणहरा निउणा। वाचनाओं में वाचना भेद रह गया। आगमों की तीसरी वाचना महावीर सासणस्स हियट्ठाए, तओ सुतं तित्थ पवत्तहू।। निर्वाण के लगभग ९८० या ९९३ वर्ष पश्चात् वलभी में देवधिगणि
श्री जैनश्वेताम्बर कांफ्रेंश द्वारा प्रकाशित जैन ग्रन्थावली में क्षमाश्रमण के नेतृत्व में हुई। इस प्रकार सभी मिलाकर चार सम्मेलन ८४ आगमों का उल्लेख है। १९२५ में जैन साहित्य संशोधन या वाचानाएँ हुई। मण्डल से प्रकाशित बृटिप्पणका नामक जैनग्रंथ सूची तैयार की आधुनिक काल में मुद्रण व्यवस्था का विकास होने के साथ गयी थी। इसी के आधार पर जैन ग्रंथावाली का प्रकाशन हुआ है आगमों के प्रकाशन में जैन आचार्यों की अभिरुचि जागृत हुई। जिसमें ८४ प्राचीन आगम-ग्रन्थों का उल्लेख है। श्वेताम्बर सम्प्रदाय सर्वप्रथम मुर्शिदाबाद से श्वेताम्बर परमपरा में मान्य आगमों को मुद्रित में ४५ आगमों को स्वीकार किया गया । पंडित बेचरदास दोशी के किया गया, किन्तु उनका न तो वैज्ञानिक दृष्टि से सम्पादन नहीं किया अनुसार १२ अंग आगमों को सब सम्प्रदायों ने मान्य किया और गया था और न उनका भाषान्तर या अनुवाद ही हुआ था। अनुवाद यापनीय आचार्य अपराजित ने अपनी भगवती आराधना टीका में की दृष्टि से स्थानकवासी जैनाचार्य अमोलकऋषिजी ने अपनी परम्परा जैन आगमों के विवरण प्रस्तुत किया हैं दोनों परम्पराओं के अनुसार में मान्य ३२ आगमों का सर्वप्रथम हिन्दी अनुवाद किया। उसके द्वादशांग गणधरों द्वारा रचित है। श्वेताम्बरों की भांति दिगम्बरों ने भी पश्चात् मुनि श्री धासीलाल जी ने ३२ आगमों को संस्कृत छाया तथा दृष्टिवाद के ५ विभाग किये जिनमें १४ पूर्व का अन्तर्भाव होता है। हिन्दी और गुजराती व्याख्या के साथ प्रकाशित किया। यद्यपि अर्थघटन प्राचीनकाल में भी समस्त श्रृत ज्ञान १४ पूर्वो में अन्तर्निहित था। में उनकी मुख्य दृष्टि अपने सम्प्रदाय पर आधारित थी इनके अतिरिक्त भगवान् महावीर ने अपने ११ गणधरों को इनका उपदेश दिया था, आचार्य आत्मारामजी ने भी अनेक आगमों का हिन्दी व्याख्या के किन्तु काल दोष से यह पूर्व नष्ट हो गये।
साथ प्रकाशन कराया। फिर भी आगमों का वैज्ञानिक दृष्टि से सम्पादन
पाठ संशोधन आदि सम्बन्धी अनेक समस्यायें थी, जिनकों दृष्टि में वाचनाएं :
रखकर कार्य करना अपेक्षित था। इस संदर्भ में मुनिश्री चतुरविजय जी प्राचीन काल में मुद्रण आदि की सुविधा उपलब्ध न होने के एवं पुण्यविजयजी ने आगमों के सम्पादन और प्रकाशन का कार्य कारण मौखिक परम्परा से ज्ञान का संरक्षण होता था। जैसे वैदिक महावीर जैन विद्यालय, मुम्बई द्वारा किया। निश्चित ही महावीर जैन परम्परा में द्विवेदी, त्रिवेदी और चतुर्वेदी होते थे, उसी प्रकार जैन विद्यालय द्वारा प्रकाशित ये आगम वैज्ञानिक दृष्टि से सम्पादित किये परम्परा में भी स्मरण का महत्त्व था। लेकिन कभी-कभी दुष्काल आदि गये फिर भी अनुवाद के अभाव में जनसामान्य के लिये ये उपयोगी के कारण भिक्षुगण या तो बिखर जाते थे या आगमपाठी (भिक्षुओं) नहीं बन पाये। इसी क्रम में स्थानकवासी मुनि- मिश्रीमलजी ने ३२
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आगम का गंगावतरण
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आगमों को हिन्दी अनुवाद के साथ-साथ प्रकाशित किया। हिन्दी अर्थ, संस्कृत छाया और हिन्दी अनुवाद देकर उसे जन मानस के अनुवाद विस्तृत व्याख्या और विद्वतापूर्ण भूमिका के कारण ये पास पहुँचा दिय गया। ठीक उसी तरह जिस प्रकार गोस्वामी तुलसीदास संस्करण विद्वानों और जन सामान्य दोनों के लिये अधिक ग्राह्य बने ने वाल्मीकि के संस्कृत रामायण को जनभाषा मे रचकर जन मानस हैं। इसी क्रम में तेरापंथ सम्प्रदाय के आचार्य श्री तुलसी जी ने तक पहुंचा दिया। आगमों के संशोधन का कार्य शुरू किया है। जो लगभग ४० वर्षों आगम ज्ञानका आधार : अपरोक्षानुभूति से उनके समर्पित साधु और साध्वियों के द्वारा हो रहा है। इसकी जैन परम्परा में ज्ञान को अपौरुषेय नहीं माना गया है। सिद्द प्रशंसा देश विदेश के विद्वानों ने की है। प्रसिद्ध 'भारतविद् प्रो० राथ तो इस स्थिति पर पहुँच गये कि उनके द्वारा ज्ञान प्रसार किया जाना ने इतने कम समय में इतने बड़े कार्य सम्पन्न होते देखकर कहा है कि अपेक्षित नहीं है। इसलिए आगम का ज्ञानकरूणामूर्ति अर्हतों के सचमुच में कोई दैवी शक्ति काम कर रही है। पंडित दलसुख भाई माध्यम से होता है। अर्हतों का यह ज्ञान उनके प्रातिभ ज्ञान या मालवणिया ने कुछ नमूने देखकर ही अपार प्रसन्नता प्रकट की और अपरोक्षानुभूति का प्रतिफल है। आगम ज्ञान इस प्रकार सामान्य ज्ञान कहा कि यह अपूर्वकार्य है। आगम सम्पादन में आचार्य श्री तुलसी नहीं है जो इन्द्रियों द्वारा प्राप्त होता है लेकिन इसे न तो इन्द्रियकी दीर्घदृष्टि है।
ज्ञान के विरुद्ध माना जायेगा और न बुद्धि-ज्ञान के विरुद्ध। हाँ यह प्रथम, इस कार्य में कोई वेतनभोगी कार्यकर्ता नहीं होगा। इन्द्रीयातीत और तर्कातीत ज्ञान है। इसमें इन्द्रिय और बुद्धि-जन्य कार्यकर्ता अवैतनिक होंगे।
ज्ञान भी समाहित रहते हैं इसमें सहज सृजनात्मकता का बाहुल्य है। दूसरा, यह गैर साम्प्रदायिक दृष्टि से किया जायेगा ताकि जिस प्रकार वेदों की ऋचाओं में हम स्फूर्तत, शक्ति और सृजनात्मकता यह सभी सम्प्रदायों को मान्य हो सके।
पाते हैं ठीक उसीप्रकार आगम के ज्ञान में भी वे चीजे मिलती हैं। तीसरा, जो कार्य होगा वह इतना गम्भीर और ठोस होगा प्रातिभज्ञान केवल तत्त्वज्ञान का ही आधार नही, यह सामान्य ज्ञान कि उसे “अपूर्व' कहा जा सके।
एवं विज्ञान का भी आधार है। लक्ष्य यह रहा कि सूत्र का अर्थ मूलस्पी रखा जाए। इसके लिए व्याख्या ग्रन्थों की अपेक्षा मूल आगमों का अधिक आधार लिया आप्रथकत्वानुयोग : गया। यह प्रयास रहा कि आगमों की व्याख्या आगमों से ही की जाए ज्ञान प्रदान करने की दो पद्धतियाँ हैं- पृथकत्वानुयोग एवं क्योंकि आगम परस्पर अवगंठित रहे हैं। विशेष अर्थ यदि कहीं अपृथकत्वानयोग। हम किसी चीज को या तो विश्लेषण करकेआवश्यक हो तो टिप्पणियों में स्पष्ट किया जाय। इसके अलावा उसको खंड-खंड करके देखते हैं या उसे हम संश्लेषित कर अखंड वैदिक और बौद्ध साहित्य से भी तुलना का कार्य हुआ। परस्पर भेद रूप सोचने की कोशिश करते हैं। आगम का ज्ञान-अपृथकत्वानयोग को टिप्पण में स्पष्ट किया गया। कालक्रम से अर्थभेद कैसे हुए इसको है। इसका अर्थ है कि आगम जीवन से सम्बन्धित सभी विषयों को भी बताया गया। सबसे पहले तो संशोधित संस्करण तैयार किया समाविष्ट करता है। जीवन समग्रता को कहते हैं। आगम जीवन का गया फिर उसकी संस्कृत छाया और अन्त में हिन्दी अनुवाद दिया काव्य है, इसलिए इसमें समग्रता स्वाभाविक है। जीवन को खंडगया। पाद टिप्पण प्रशस्त और इतने स्पष्ट हैं कि उनकी प्रामाणिकता खंड देखना जीवन के साथ अन्याय है। यही कारण है कि आगम में पर कोई प्रश्न उठा नहीं सकता।
जीवन की समग्रता दीखती है। अतिविशेषीकरण के इस यग में आज इस प्रकार आचार्य तुलसी द्वारा मूल आगमों का संशोधन पुन: एक अन्तर अनुशासनिक (इन्टरडिसीप्लीनरी) धारा बढ़ रही है एवं अनुवाद एक अपूर्व सारस्वत कार्य है। हिन्दी में वेद के संस्करण जो आगम के अपृथकत्वानयोग पद्धति का समर्थन है। जीवन कोई निकले और कुछ भाष्य भी। आर्य समाज ने हिन्दी में अनुवाद भी बंद कोठरी के समान नहीं है, इससे सामाजिक, राजनीतिक, दार्शनिक, उपस्थित किया। किन्तु वेद के विभिन्न पाठों के संशोधन का कार्य नैतिक सभी प्रश्न जड़े हैं। अभी तक नहीं हो पाया है। उसी प्रकार बौद्धों के त्रिपिटक को भिक्ष जगदीश कश्यप ने अवश्य प्रकाशित कराया लेकिन अभी तक सम्प्रदाय निरपेक्षता : संस्कृत छाया एवं हिन्दी अनुवाद का कार्य बाकी है। यद्यपि राहुलजी आगम किसी सम्प्रदाय विशेष का या किसी पंथ विशेष ने अधिकांश का हिन्दीअनुवाद कर दिया है, किन्तु उसमें भी अर्थ का ग्रंथ नहीं है। यह सम्पूर्ण मानव जाति का मार्ग दर्शक है। इसलिए संशोधन की सम्भावना तो शेष है ही। आचार्य तुलसी ने आगम आगम का अध्ययन जैन धर्म या पंथ की मर्यादाओं के बाहर देखा संशोधन, संस्कृत छाया एवं हिन्दी अनुवाद सब काम एक साथ किये जाना चाहिए। आगम उसी प्रकार कोई साम्प्रदायिक ग्रंथ नहीं हैं, जैसे हैं। अतः प्रशस्ति के पात्र हैं। अभी तक आगम साहित्य जो प्राकृत वेद नहीं हैं। जिस प्रकार वेद निखिल मानव जाति के मार्ग-दर्शक हैं रूपी शिव की जटाओं में उलझ हुआ था उसके प्रत्येक शब्द की उसी प्रकार आगम सम्पूर्ण मानव जाति के मार्ग-दर्शक ग्रंथ हैं। इसके
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जैन विद्या के आयाम खण्ड-७ मुख्य दो प्रमाण हैं- एक तो उसमें वर्णित उपदेश न तो काल बाध्य के लिये आगमों की मूल भाषा का परिवर्तन और संशोधन करना हैं, न देश बाध्य हैं। दूसरे, उसमें ऐसा कहीं कुछ आदेश या निर्देश पड़ा। मलयगिरि आदि टीकाकारों की भाषा के सम्बन्ध में ऐसा नहीं है जिसमें यह प्रतिबंध हो कि यह अमुक पंथ के लिये है, अमुक परिवर्तन बहुत स्पष्ट है। आगमों की भाषा में इतना परिवर्तन और के लिए नहीं। यह तो आगम का अपमान है कि उसे पंथ विशेष का इतनी विविधता कभी-कभी बहुत कठिनाई प्रस्तुत करती हैं और ग्रंथ माना जाता है।
लगता है कि प्राकृत भाषा में नियमों की उपेक्षा है और इसलिए एक
प्रकार से संपादकीय अनुशासनहीनता भी नजर आती है। किन्तु आगम की भाषा : जनभाषा
इसकी प्राणवत्ता एवं सहजता का संस्पर्श तो दिव्य है। वस्तुत: वैदिक संस्कृत में जो सहजता और स्वयं स्फूर्तता थी वह पाणिनि के उत्तरकाल में प्राप्त नहीं है। वहाँ तो व्याकरण के उपसंहार नियमों के बंधन इतने प्रचंड हैं कि सहजता, अकृत्रिमता संभव नहीं। जो भी हो आगम साहित्य विशाल, विविधता युक्त एवं भाषा जब व्याकरण के नियमों से बंध जाती है तो इसकी सहजता प्राणवान है। इसमें प्राचीनतम जैन परम्परा, अनुश्रुतियाँ, लोक कथाएं, और स्वतः स्फूर्तता में कमी आ जाती है। श्रमण संस्कृति कोई धर्मोपदेश, दर्शन 'आचार' रीति-रिवाज सभी का यह विश्वकोष जैसा अभिजात्य संस्कृति या पंडित-संस्कृति नहीं थी इसलिए भगवान बुद्ध है। व्याख्या प्रज्ञप्ति में महावीर का तत्त्व-ज्ञान, उनकी शिष्य परम्परा ने भी जनभाषा पालि का उपयोग किया और तीर्थंकरों ने जनभाषा एवं मत-मतान्तरों का विवेचन, कल्पसूत्र में महावीर का विस्तृत प्राकृत को अपनाया। लेकिन यह एक दुर्भाग्य है कि जनभाषा होते जीवन और ज्ञाताधर्मकथा, निर्ग्रन्थप्रवचन के साथ उपदेशयुक्त कथाहए भी आज जन से बहुत दूर है। इसके अनेक ऐतिहासिक और कहानियां, आचारांग, सूत्रकृतांग, उत्तराध्ययन, दशवैकालिक सूत्रों में राजनैतिक कारण भी हैं। भगवान महावीर ने अर्धमागधी भाषा में आचरण और संयम के नियम मिलते हैं। जो भी हो आगम केवल उपदेश दिया और गणधरों ने इस उपदेश के आधार पर आगमों की जैन सम्प्रदाय का ही नहीं भारतीय मनीषा का दुर्लभ वाङ्मय है। रचना की। रुद्रट काव्यालंकार के अनुसार प्राकृत वह है जो व्याकरण दिगम्बरों के षट्खंडागम और कषायपाहुड जैसे विशाल ग्रंथ और आदि के संस्कार से विहीन है और जो बालक, महिला आदि की उनकी टीकाएँ आकार में महाभारत से कम नहीं माने जा सकते हैं। आसानी से समझ में आ सकती है। किन्तु हेमचन्द्र और मार्कण्डेय अभी जैन आगम पर बहुत कम काम हुए हैं। अभी तो इसका आदि विद्वान् ने प्राकृत की प्रकृति संस्कृत से निष्पन्न समझते हैं। जो समीक्षात्मक अध्ययन शुरू नहीं हुआ है। जब हम आगमों की गहराई भी हो, प्राकृत एक लोक भाषा है और कठोर व्याकरण के बोझ से में जायेंगे तो इसमें भी विज्ञान और अध्यात्म दोनों का समन्वय बहुत हद तक मुक्त है। आगमों की भाषा में विविधता दीखती है। पायेंगे। सम्प्रदाय निरपेक्ष विचारधारा के साथ दोनों का अलग-अलग समवायांग, व्याख्याप्रज्ञप्ति और प्रज्ञापना आदि आगमों की भाषा को मूल्यांकन होना चाहिए। आगम के अध्ययन के बिना भारतीय संस्कृति हेमचन्द्र ने आर्ष प्राकृत नाम दिया है। टीकाकारों को सूत्र स्पष्ट करने का इतिहास अपूर्ण रह जायेगा।
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ज्ञाताधर्मकथा की सांस्कृतिक विरासत
प्रो० प्रेमसुमन जैन
प्राकृत भाषा के प्राचीन ग्रन्थों में अर्धमागधी में लिखित और वृद्धी को रूपक द्वारा प्रस्तुत करती है। उदकजात नामक कथा अंगग्रन्थ प्राचीन भारतीय संस्कृति और चिंतन के क्रमिक विकास को संक्षिप्त है। किन्तु इसमें जल-शुद्धि की प्रक्रिया द्वारा एक ही पदार्थ के जानने के लिए महत्त्वपूर्ण साधन हैं। अंग ग्रन्थों में ज्ञाताधर्मकथा का शुभ एवं अशुभ दोनों रूपों को प्रकट किया गया है। अनेकान्त के विशिष्ट महत्त्व है। कथा और दर्शन का यह संगम ग्रन्थ है। इस ग्रन्थ सिद्धान्त को समझाने के लिए यह बहुत उपयोगी है। नन्दीफल की के नाम में भी इसका विषय और महत्त्व छिपा हुआ है। उदाहरण कथा यद्यपि अर्ध कथा है किन्तु इसमें रूपक की प्रधानता है। प्रधान धर्म कथाओं का यह प्रतिनिधि ग्रन्थ है। ज्ञातपुत्र भगवान् समुद्री अश्वों के रूपक द्वारा लुभावने विषयों के स्वरूप को स्पष्ट महावीर की धर्म कथाओं को प्रस्तुत करने वाले इस ग्रन्थ का नाम किया गया है। ज्ञाताधर्मकथा सार्थक है। विद्वानों ने अन्य दृष्टियों से भी इस ग्रन्थ के छठे अध्ययन में कर्मवाद जैसे गरु गंभीर विषय को रूपक नामकरण की समीक्षा की है।
द्वारा स्पष्ट किया है। गणधर गौतम की जिज्ञासा के समाधान में
भगवान् ने तूंबे के उदाहरण से इस बात पर प्रकाश डाला कि मिट्टी दृष्टान्त एवं धर्म कथाएं:
के लेप से भारी बना हुआ तूंबा जल में मग्न हो जाता है और लेप ____ आगम ग्रन्थों में कथा-तत्त्व के अध्ययन की दृष्टि से हटने से वह पुनः तैरने लगता है। वैसे ही कर्मों के लेप से आत्मा ज्ञाताधर्मकथा में पर्याप्त सामग्री है।
भारी बनकर संसार-सागर में डूबता है और उस लेप से मुक्त होकर इसमें विभिन्न दृष्टान्त एवं धर्म कथाएं हैं, जिनके माध्यम से उर्ध्वगति करता है। दसवें अध्ययन में चन्द्र के उदाहरण से प्रतिपादित जैन तत्त्व-दर्शन को सहज रूप में जन-मानस तक पहुँचाया गया है। किया है कि जैसे कृष्णपक्ष में चन्द्र की चारु चंद्रिका मंद और मंदतर ज्ञाताधर्मकथा आगमिक कथाओं का प्रतिनिधि ग्रन्थ है। इसमें कथाओं होती जाती है और शुक्लक्ष में वही चंद्रिका अभिवृद्धि को प्राप्त होती की विविधता है और प्रौढ़ता भी। मेघकुमार, थावच्चापुत्र, मल्ली तथा है वैसे ही चन्द्र के सदृश कर्मों की अधिकता से आत्मा की ज्योति द्रौपदी की कथाएँ ऐतिहासिक वातावरण प्रस्तुत करती हैं। प्रतिबुद्धराजा, मंद होती है और कर्म की ज्यों-ज्यों न्यूनता होती है त्यों-त्यों उसकी अर्हत्रक व्यापारी, राजा रूक्मी, स्वर्णकार की कथा, चित्रकार ज्योति अधिकाधिक जगमगाने लगती है। कथा, चोखा परिवाजिका आदि कथाएँ मल्ली की कथा की अवान्तर ज्ञाताधर्मकथा पशुकथाओं के लिए भी उद्गम ग्रन्थ माना कथाएँ हैं। मूलकथा के साथ अवान्तर-कथा की परम्परा की जानकारी जा सकता है। एक ही ग्रन्थ में हाथी, अश्व, खरगोश, कछुए, के लिए ज्ञाताधर्मकथा आधार भूत स्रोत है। ये कथाएँ कल्पना- मयूर, मेढक, सियार आदि को कथाओं के पात्रों के रूप में चित्रित प्रधान एवं सोद्देश्य हैं। इसी तरह जिनपाल एवं जिनरक्षित की किया गया है। मेरूप्रभ हाथी ने अहिंसा का जो उदाहरण प्रस्तुत कथा, तेतलीपुत्र, सुषमा की कथा एवं पुण्डरीक कथा कल्पना किया है, वह भारतीय कथा साहित्य में अन्यत्र दुर्लभ है। ज्ञाताधर्मकथा प्रधान कथाएँ हैं।
के द्वितीय श्रुतस्कंध में यद्यपि २०६ साध्वियों की कथाएँ हैं। ज्ञातधर्मकथा में दृष्टान्त और रूपक कथाएँ भी हैं। मयूरों के किन्तु उनके ढांचे, नाम, उपदेश आदि एक-से हैं। केवल काली अण्डों के दृष्टान्त से श्रद्धा और धैर्य के फल को प्रकट किया गया है। की कथा पूर्ण कथा है। नारी-कथा की दृष्टि से यह महत्त्वपूर्ण हैं। २ दो कछुओं के उदाहरण से संयमी और असंयमी साधक के परिणामों ज्ञाताधर्मकथा में भारतीय संस्कृति के विभिन्न पक्ष अंकित को उपस्थित किया गया है। तुम्बे के दृष्टान्त से कर्मवाद को स्पष्ट हैं। प्राचीन भारतीय भाषाओं, काव्यात्मक प्रयोगों, विभिन्न कलाओं किया गया है। दावद्रव नामक वृक्ष के उदाहरण द्वारा आराधक और और विद्याओं, सामाजिक जीवन और वाणिज्य व्यापार आदि के विराधक के स्वरूप को स्पष्ट किया गया है। ये दृष्टान्त कथाएँ सम्बन्ध में इस ग्रन्थ में ऐसे विवरण उपलब्ध हैं जो प्राचीन भारतीय परवर्ती साहित्य के लिए प्रेरणा प्रदान करती हैं।
संस्कृति के इतिहास में अभिनव प्रकाश डालते हैं। इस ग्रन्थ के सूक्ष्म इस ग्रन्थ में कुछ रूपक कथाएँ भी हैं। दूसरे अध्ययन की सांस्कृतिक अध्ययन की नितान्त आवश्यकता है। कुछ विद्वानों ने इस धना सार्थवाह एवं विजय चोर की कथा आत्मा और शरीर के सम्बन्ध दिशा में कार्य भी किया है जो आगे के अध्ययन के लिए सहायक का रूपक है। सातवें अध्ययन की रोहिणी कथा पांच व्रतों की रक्षा हो सकता है। यहाँ संक्षेप में ग्रन्थ में अंकित कतिपय सांस्कृतिक
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जैन विद्या के आयाम खण्ड-७ बिन्दुओं को उजागर करने का प्रयत्न है।
आगे चलकर ऐसे धार्मिक प्रचारकों की एक स्थान पर राजा के समक्ष
अपने-अपने मतों की परीक्षा भी प्रचलित हो गई थी। धार्मिक दृष्टि भाषा और लिपि :
से ज्ञाताधर्मकथा में वैदिक परम्परा में प्रचलित श्रीकृष्ण कथा का भी इस ग्रन्थ में प्रमुख रूप से अर्धमागधी प्राकृत का प्रयोग विस्तार से वर्णन हआ है। श्रीकृष्ण, पाण्डव, द्रौपदी, आदि पात्रों के हुआ है। किन्तु साथ ही अन्य प्राकृतों के तत्त्व भी इसमें उपलब्ध हैं। संस्कारित जीवन के अनेक प्रसंग वर्णित हैं। इस ग्रन्थ में पहली बार देशी शब्दों का प्रयोग इस ग्रन्थ की भाषा को समृद्ध बनाता है। इस श्रीकृष्ण के नरसिंहरूप का वर्णन है१०, जबकि वैदिक ग्रन्थों में ग्रन्थ में प्रस्तुत कथाओं के माध्यम से यह तथ्य भी सामने आता है विष्ण का नरसिंहावतार प्रचलित है। कि प्राचीन समय में सम्पन्न और संस्कारित व्यक्ति के लिए बहुभाषा विद् होना गौरव की बात होती थी। मेघकुमार को विविध प्रकार की समाज सेवा और पर्यावरण संरक्षण : अठारह देशी भाषाओं का विशारद कहा गया है। ये अठारह देशी इस ग्रन्थ के धार्मिक वातारण में भी समाज सेवा और भाषाएं कौन-सी थीं, इस बात का ज्ञान आठवीं शताब्दी के प्राकृत पर्यावरण-सरंक्षण के प्रति सम्पन्न परिवारों का रुझान देखने को ग्रन्थ कुवलयमाला के विवरणरहोता है।५ यद्यपि अठारह लिपियों के मिलता है। राजगह के निवासी नन्द मणिकार द्वारा एक ऐसी वापी का नाम विभिन्न प्राकृत ग्रन्थों में प्राप्त हो जाते हैं।६ इन लिपियों के निर्माण कराया गया था जो समाज के सामान्य वर्ग के लिए सभी सम्बन्ध में आगम प्रभाकर पुण्यविजयजी म.का यह अभिमत था कि प्रकार की सुख-सुविधाएं उपलब्ध कराती थी। वर्तमान युग में जैसे इनमें अनेकों नाम कल्पित हैं। इन लिपियों के सम्बन्ध में अभी तक सम्पन्न लोग शहर से दूर वाड़ी का निर्माण कराते हैं उसी कि यह कोई प्राचीन शिलालेख भी उपलब्ध नहीं हुआ है, इससे भी यह पुष्करणी वापिका थी। उसके चारों ओर मनोरंजन पार्क थे। उनमें प्रतीत होता है कि ये सभी लिपियां प्राचीन समय में ही लुप्त हो गई, विभिन्न कलादीर्घाएं और मनोरंजनशालाएं थीं। राहगीरों और रोगियों या इन लिपियों का स्थान ब्राह्मीलिपि ने ले लिया होगा। कुवलयमाला के लिए चिकित्सा-केन्द्र भी थे। ११ इस प्रकार का विवरण भले ही में उद्योतनसूरि ने गोल्ल, मध्यप्रदेश, मगध, अन्तर्वेदि, कीर, ढक्क, धार्मिक दृष्टि से आसक्ति का कारण रहा हो, किन्तु समाज सेवा और सिन्धु, मरु, गुर्जर, लाट, मालवा, कर्नाटक, ताइय (ताजिक), पर्यावरण-संरक्षण के लिए प्रेरक था। " कोशल, मरहट्ट और आन्ध्र इन सोलह भाषाओं का उल्लेख किया है। ज्ञाताधर्मकथा में प्राप्त इस प्रकार के सांस्कृतिक विवरण
ह गाथाओं में उन भाषाओं के उदाहरण भी प्रस्तुत किये तत्कालीन उन्नत समाज के परिचायक हैं। इनसे विभिन्न प्रकार के हैं। डाँ०ए० मास्टर का सुझाव है कि इन सोलह भाषाओं में औडू वैज्ञानिक प्रयोगों का भी पता चलता है। चिकित्सा के क्षेत्र में सोलह
और द्राविडी भाषएँ मिला देने से अठारह भाषाएँ, हो जाती हैं, जो प्रमुख महारोगों और उनकी चिकित्सा के विवरण आयुर्वेद के क्षेत्र में देशी हैं।
नई जानकारी देते हैं। कुछ ऐसे प्रसंग भी हैं जहां इस प्रकार के तेलों
के निर्माण की प्रक्रिया का वर्णन है जो सैकड़ों जड़ी-बूटियों के प्रयोग कला और धर्म :
से निर्मित होते थे। उनमें हजारों स्वर्णमद्राएँ खर्च होती थीं। ऐसे ज्ञाताधर्मकथा में विभिन्न कलाओं के नामों का उल्लेख भी शतपाक एवं सहस्त्रपाक तेलों का उल्लेख इस ग्रन्थ में है। इसी ग्रन्थ महत्त्वपूर्ण है। ७२ कलाओं का यहाँ उल्लेख है, जिसकी परम्परा के बारहवें अध्ययन में जलशुद्धि की प्रक्रिया का भी वर्णन उपलब्ध परवर्ती प्राकृत ग्रन्थों में भी प्राप्त हैं। इन कलाओं में से अनेक है जो गटर के अशुद्ध जल को साफ कर शुद्ध जल में परिवर्तित कलाओं का व्यवहारिक प्रयोग भी इस ग्रन्थ के विभिन्न वर्णनों में करती है।१२ यह प्रयोग इस बात भी प्रतीक है कि संसार में कोई प्राप्त होता है। मल्लि की कथा में उत्कृष्ट चित्रकला का विवरण प्राप्त वस्तु या व्यक्ति सर्वथा अशुभ नहीं है, घृणा का पात्र नहीं है। है। चित्रशालाओं के उपयोग भी समाज में प्रचलित थे। ज्ञाताधर्मकथा यद्यपि धर्म और दर्शन-प्रधान ग्रन्थ है। इसमें विभिन्न धार्मिक सिद्धान्तों व्यापार एवं भूगोल :
और दर्शनिक मतों का विवेचन भी है। समाज में अनेक मतों को प्राचीन भारत में व्यापार एवं वाणिज्य उन्नत अवस्था में मानने वाले धार्मिक प्रचारक होते थे, जो व्यापारियों के साथ विभिन्न थे। देशी एवं विदेशी दोनों प्रकार के व्यापारों में साहसी, वणिक पत्र स्थानों की यात्रा कर अपने सिद्धान्तों का प्रचार करते थे। धन्य उत्साहपूर्वक अपना योगदान करते थे। ज्ञाताधर्मकथा में इस प्रकार के सार्थवाह की समुद्रयात्रा के समय अनेक परिव्राजक उसके साथ गये अनेक प्रसंग वर्णित हैं। समुद्रयात्रा द्वारा व्यापार करना उस समय थे। यद्यपि इन परिव्राजिकों के नाम एवं पहचान आदि अन्य ग्रन्थों से प्रतिष्ठा समझी जाती थी। सम्पन्न व्यापारी अपने साथ पूंजी देकर उन प्राप्त होती है। ब्राह्मण और श्रमण जैसे धार्मिक सन्त उनमें प्रमुख थे। निर्धन व्यापारियों को भी साथ में ले जाते थे, जो व्यापार में कुशल
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ज्ञाताधर्मकथा की सांस्कृतिक विरासत
होते थे। समुद्रयात्रा के प्रसंग में पोतपट्टन और जलपत्तन जैसे बन्दरगाहों का प्रयोग होता था। व्यापार के लिए विभिन्न प्रकार की वस्तुएँ जहाज में भरकर व्यापारी ले जाते थे और विदेश से रत्न कमाकर लाते थे। अश्वों का भी व्यापार होता था। १३ इस प्रसंग में अश्व विद्या की विस्तृत जानकारी प्राप्त होती है।
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ज्ञाताधर्मकथा की विभिन्न कथाओं में जो भौगोलिक विवरण प्राप्त होता है वह प्राचीन भारतीय भूगोल के लिए विशेष उपयोग का है। राजगृही, १४ चम्पा, १५ वाराणसी, द्वारिका, मिथिला, हस्तिनापुर, १६ साकेत, मथुरा, श्रावस्ती आदि प्रमुख प्राचीन नगरों के वर्णन कात्यात्मक दृष्टि से जिने महत्त्व के हैं, उतने ही भौगोलिक दृष्टि से भी राजगृह के प्राचीन नाम गिरिब्रज, वसुमति बार्हद्रतपुरी, मगधपुर, बराय वृषभ, ऋषिगिरी, चैत्यक बिम्बसारपुरी और कुशालपुर थे। बिम्बसार के शासनकाल में राजगृह में आग लग जाने से वह जल गई इसलिए राजधानी हेतु नवीन राजगृह का निर्माण करवाया। इन नगरों में परस्पर आवागमन के मार्ग क्या थे और इनकी स्थिति क्या थी इसकी जानकारी भी एक शोधपूर्ण अध्ययन का विषय बनती है। विभिन्न पर्वतों, नदियों, वनों के विवरण भी इस ग्रन्थ में उपलब्ध हैं। कुछ ऐसे नगर भी हैं, जिनकी पहचान अभी करना शेष है। १७
सामाजिक धरणाएँ
इस प्रन्थ में सामाजिक रीतिरिवाजों, खान-पान, वेशभूषा धार्मिक एवं सामाजिक धारणाओं से संबंधित सामग्री भी एकत्र की जा सकती है। महारानी धारिणी की कथा में स्वप्नदर्शन और उसके फल पर विपुल सामग्री प्राप्त है। १८ जैनदर्शन के अनुसार स्वप्न का मूल कारण दर्शनमोहनीय कर्म का उदय है दर्शनमोह के कारण मन में राग और द्वेष का स्पन्दन होता है, चित्त चंचल बनता है। शब्द आदि विषयों से संबंधित स्थूल और सूक्ष्म विचार तरंगों से मन प्रकंपित होता है। संकल्प-विकल्प या विषयोन्मुखी वृत्तियां इतनी प्रबल हो जाती हैं कि नींद आने पर भी शांति नहीं होती। इन्द्रियां सो जाती हैं किन्तु मन वृत्तियां भटकती रहती हैं। वे अनेक विषयों का चिन्तन करती रहती हैं। वृत्तियों की इस प्रकार की चंचलता ही स्वप्न है। आचार्य जिनसेन ने स्वस्थ अवस्था वाले और अस्वस्थ अवस्था वाले, ये दो स्वप्न के प्रकार माने हैं। जब शरीर पूर्ण स्वस्थ होता है तो मन पूर्ण शांत रहता है, उस समय जो स्वप्न दीखते हैं वह स्वस्थ अवस्था वाला स्वप्न है। ऐसे स्वप्न बहुत ही कम आते हैं और प्रायः सत्य होते हैं। मन विक्षप्त हो और शरीर अस्वस्थ हो उस समय देखे गये स्वप्न असत्य होते हैं।
ते च स्वप्ना द्विधा श्राता स्वस्थास्वस्थात्मगोचरा: समैस्तु धातुभिः स्वस्वविषमैरितरैर्मता ।
१९५
तथ्या स्युः स्वस्थसंदृष्टा मिथ्या स्वप्नो विपर्ययात, जगत्प्रतीतमेतद्धि विद्धि स्वप्नविमर्शनम् ।।
महापुराण ४१-५९/६० इसी प्रकार धारिणी के दोहद की भी विस्तृत व्याख्या की जा सकती है। उपवन भ्रमण का दोहद बड़ा सार्थक है । दोहद की इस प्रकार की घटनाएं आगम साहित्य में अन्य स्थानों पर भी आई हैं। जैन कथासाहित्य में बौद्ध जातकों में और वैदिक परम्परा के ग्रन्थों में दोहद का अनेक स्थानों पर वर्णन हैं। यह ज्ञातत्य है कि जब महिला गर्भवती होती है तब गर्भ के प्रभाव से उसके अन्तर्मानस में विविध प्रकार की इच्छाएं उत्पन्न होती हैं। ये विचित्र और असामान्य इच्छाएँ दोहद दोहला कही जाती है। दोहद के लिए संस्कृत साहित्य में द्विहृद भी आया है। द्विहद का अर्थ है दो हृदय को धारण करनेवाली अंगविज्जा जैन साहित्य का एक महत्वपूर्ण ग्रन्थ है। उस ग्रन्थ में विविध दृष्टियों से दोहदों के संबंध में गहराई से चिन्तन किया है। जितने भी दोहद उत्पन्न होते हैं उन्हें पांच भागों में विभक्त किया जा सकता है- शब्दगत, गंधगत, रूपगत, रसगत और स्पर्शगत । क्योंकि ये ही मुख्य इन्द्रियों के विषय है और इन्हीं की दोहदों में पूर्ति की जाती है । १९
सन्दर्भ
१.
नौवें अध्ययन में विभिन्न प्रकार के शकुनों का उल्लेख है। " शकुन दर्शन ज्योतिषशास्त्र का एक प्रमुख अंग है। शकुनदर्शन को परम्परा प्रागैतिहासिक काल से चलती आ रही है। कथा साहित्य का अवलोकन करने से स्पष्ट होता है कि जन्म, विवाह, बहिर्गमन, गृहप्रवेश और अन्यान्य मांगलिक प्रसंगों के अवसर पर शकुन देखने का प्रचलन था। गृहस्थ तो शकुन देखते ही थे, श्रमण भी शकुन देखते थे। देश, काल और परिस्थिति के अनुसार एक वस्तु शुभ मानी जाती है और वहीं वस्तु दूसरी परिस्थितियों में अशुभ भी मानी जाती है। एतदर्थं शकुल विवेचन करने वाले ग्रन्थों में मान्यता- भेद भी प्राप्त होता है। प्रकीर्णक गणिविद्या में लिखा है कि शकुन मुहूर्त से भी प्रबल होता है। जंबूक, चास (नीलकंठ), मयूर, भारद्वाज, नकुल यदि दक्षिण दिशा में दिखलाई दें तो सर्वसंपत्ति प्राप्त होती है। इस ग्रन्थ में भी पारिवारिक संबंधों और शिक्षा तथा शासन व्यवस्था आदि के सम्बन्ध में भी पर्याप्त सामग्री उपलब्ध है। धरिणी के शयनकक्ष का वर्णन स्थापत्य कला और वस्वकला की अमूल्य निधि है।
(क) जातधर्मकथा (सम्पा. पं. शोभाचन्द भारिल्ल) व्यावर १९८९
(ख) भगवान् महावीरनी धर्मकथाओ (पं. बेचरदास दोशी ).
पृ०
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जैन विद्या के आयाम खण्ड-७
४३
१८०
८. ज्ञाताधर्मकथा, अ० १६ (ग) स्टोरीज् फ्राम द धर्म आफ नाया (बेवर), इंडियन एंटीक्वेरी, ९. कुवलयमालाकहा, धर्मपरीक्षा अभिप्राय,
१०. ज्ञाताधर्मकथा, अ. १६ २. धम्मकहाणुयोग (मुनि कमल), भागर
११. वही, अ० १३ १२-वही, अ० १२ १३-वही, अ० १७ जैन आगमों में वर्णित भारतीय समाज (जगदीश चन्द्र जैन), १४. भगवान महावीर- एक अनुशीलन (देवेन्द्रमनि) पृ०२४१वाराणसी
अट्ठारसविहिप्पगारदेसी भासाविसारए, ज्ञाता, अ.। १५. औपपातिक सूत्र ___ कुवलयमालाकहा का सांस्कृतिक अध्ययन (प्रेम सुमन जैन), १६. ज्ञाताधर्मकथा, अ० १६ वैशाली, १९७५
१७. वही, द्वितीय श्रुतस्कन्ध में उल्लिखित नगर। ६. ज्ञाताधर्मकथा (व्यावर), भूमिका (देवेन्द्रमुनि), पृ० ३८- १८. ज्ञाताधर्मकथा (ब्यावर), पृ० १६ ४०
१९. वही, पृ० २९-३० ७. समवायांग, समवाय ७२
२०. ज्ञाताधर्मकथा, अ. ९
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जैन वास्तुकला-संक्षिप्त विवेचन
डॉ०शिवकुमार नामदेव
भवन-निर्माण एवं शिल्प-विज्ञान का नाम वास्तुकला है। अशोक एवं दशरथ ने आजीवक भिक्षुओं के रहने के लिए निर्मित इसका उद्भव और विकास मानव-सभ्यता के विकास की कहानी से कराया था। इनकी दीवारें शीशे की भाँति चिकनी एवं चमकदार हैं। सम्बद्ध है। मानव का प्रारंभिक जीवन विचरणशील रहा है। कालांतर शंगकाल की कला का विश्वकला के इतिहास में महत्त्वपूर्ण में वह क्रमश: गुहा आदि के रूप में विकास करते हुए सुदृढ़ भवनों योगदान है। इस काल की कला की विशेष उपलब्धि मूर्ति कला और तक पहुँचा होगा। मानव की इसी क्रमिक यात्रा का सफल परिणाम वास्तुकल है। जिस समय पश्चिमी भारत में बौद्ध शिल्पी लेणों वास्तुकला है।
(गुहाओं) का निर्माण कर रहे थे, लगभग उसी समय कलिंग (उड़ीसा) यद्यपि भारतीय वास्तुकला का इतिहास भी मानव-विकास में जैन शिल्पी भिक्षुओं के निवास के लिए कुछ गुफाओं का उत्खनन के युग से मानना पड़ेगा, तथापि विशुद्ध ऐतिहासिक दृष्टि से हम कर रहे थे। ये गुफाएँ भुवनेश्वर से ५ मील उत्तर पश्चिम की ओर इसका उदय सिन्धु-सभ्यता से मानते हैं। यद्यपि वास्तुकला सम्बन्धी उदयगिरि और खण्डगिरि नामक पहाड़ियों में बनाई गई थीं उदयगिरि वर्णन विभिन्न साहित्यिक ग्रंथों-वेद, ब्राह्मण और आगम तथा जातकों में १९ खण्डगिरि में १६ गुफाएँ हैं। उदयगिरि की प्रमुख गुफाओं में मिलता है, किन्तु वे जिज्ञासा तृप्त नहीं कर सकते। अत: हमें में-रानीगुम्फा, अलकापुरी, मंचपुरी, गणेश और हाथीगुम्फा हैं। हाथीगुम्फा सिन्ध-सभ्यता के अवशेषों से ही संतोष करना पड़ता है। वास्तुकला में ही खारवेल का सुप्रसिद्ध शिलालेख है। खण्डगिरि की १६ का प्रवाह समय की गति और शक्ति के अनुरूप बहता गया, समय- गुफाओं में भवमुनि, आकाशगंगा, देवसभा, अनंतगुफा मुख्य हैं। समय पर कलाविज्ञों ने इसमें नवीनतत्वों का समावेश कराया, मानों कोसम एवं इलाहाबाद के निकट पभोसा में दो गुफाएँ हैं। इन गुफाओं वह स्वकीय सम्पत्ति ही हो। निर्माण-पद्धति, औजार आदि में भी में शुंगकालीन लिपि में लेख भी अंकित हैं। इससे ज्ञात होता है कि क्रांतिकारी परिवर्तन हुए।
इन गुफाओं का निर्माण भगवान् पार्श्वनाथ के अनुयायियों के लिए जैन-वास्तुकला के पूर्वकालीन अवशेष अत्यल्प मात्रा में किया गया था।३।। उपलब्ध हुए हैं, जो बौद्ध वास्तुकला से विशेष-भिन्नता नहीं रखते। स्तूपों का निर्माण तीर्थकरों एवं स्थविरों के भस्मावशेषों के जैनों ने अर्हन्तों (मुनियों) के रहने के लिए हजारों बसतिका एवं ऊपर किया गया था। इस प्रकार का एक स्तूप राजगिरि के निकट बिहार बनवाए, गुफाओं एवं उपाश्रयों का निर्माण किया, मृतक- विपुलगिरि पहाड़ी पर है। वैशाली का स्तूप मुनिसुव्रत एवं मथुरा का अवशेषों के लिए हजारों चैत्य एवं स्तूप खड़े किए, पंचकल्याणकों स्तूप सुपार्श्वनाथ को समर्पित किया गया था । जिनप्रभसूरि (१४वीं की स्मृति में मुख्य-मुख्य स्थलों पर तीर्थ स्थापित किए, मूर्तियों की सदी ई०)के अनुसार मथुरा के स्तूप का पुनर्निमाण पार्श्वनाथ के समय पूजा-प्रतिष्ठा के लिए सहस्रों मंदिर एवं सहस्रकूट तथा कीर्ति- (८००ई०पू०) में किया था एवं कालांतर में उसे नवीन स्थिति में प्रभावक अनेक मानस्तंभ एवं कीर्तिस्तंभ खड़े किए।
लाने का श्रेय बप्पभट्टसूरि को है। जैन मूर्ति-शिल्प के विषय में पूरा डा० प्राणनाथ विद्यालंकार' को प्रभासपाटण से एक ताम्रपत्र श्रेय मथुरा को है, क्योंकि सबसे प्राचीन जैन प्रतिमाएँ एवं स्तूप उपलब्ध हआ था। इसमें लिखा है कि बेबीलोन के नृपति नेबुचंदनेजार मथुरा में है, मथुरा में दो जैनस्तूप थे-पहला शृंगकालीन और दूसरा ने रैवतगिरि के नेमिनाथ के मंदिर का जीर्णोद्धार कराया था। जैन कुषाण-कालीन। कंकालीटीला नामक स्थान में इन स्तूपों के सहस्राधिक साहित्य इस घटना पर मौन है। उक्त लेख से स्पष्ट है कि ई०पू० शिल्पावशेष प्राप्त हुए हैं। फ्यूरर के समय किए गए उत्खनन से छठी शती में गिरनार पर जैन मंदिर था। जूनागढ़ के पूर्व बाबाप्यारा प्राप्त भगवान् मुनिसुव्रत की एक प्रतिमा के लेख पर 'देवनिर्मित' के नाम से जो मठ प्रसिद्ध है, वहाँ पर जैन गुफाएँ उत्कीर्णित हैं। स्तूप का उल्लेख है। जिनप्रभसूरिरचित 'तीर्थकल्प' में इस स्तूप की
मगध के शासक शिशुनाग एवं नंद ने पाटलिपुत्र में पाँच चर्चा है। उनके अनुसार यह स्तूप प्रारम्भ में सोने का था और उस पर जैनस्तूप बनवाये थे। चीनी यात्री ह्वेनसांगरे ने भी इन पंच जैन स्तूपों बहुमूल्य रत्न जड़े थे। इसका निर्माण कुबेरादेवी नामक महिला द्वारा का उल्लेख अपने यात्रा-विवरण में करते हुए लिखा है कि अबौद्ध सातवें तीर्थंकर सुपार्श्वनाथ के सम्मान में किया गया था। बाद में राजा द्वारा वे खुदवा डाले गए।
२३वें तीर्थकर पार्श्वनाथ के समय में स्तूप को ईटों से आवेष्टित किया मौर्यकालीन जैन वास्तुकला से सम्बन्धित गुहा-गृह बराबर गया। स्तूप के बाहर एक पाषाण-मंदिर भी बनाया गया। 'तीर्थंकल्प' एवं नागार्जुनी पहाड़ियों पर विद्यमान हैं। इन गुफाओं को मौर्यसम्राट में आगे लिखा है कि भगवान् महावीर के ज्ञानप्राप्ति से तेरह सौ वर्ष
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बाद बप्पभट्टसूरि ने स्तूप की मरम्मत कराई। यह कार्य ८वीं सदी के मध्य में पूरा हुआ। इसके बाद ११वीं शती तक जैनधर्म के प्रसिद्ध केन्द्र के रूप में इस टीले का महत्व रहा।
जैन विद्या के आयाम खण्ड- ७
जैन- वास्तु के विन्यास का स्वरूप लगभग वही था, जो बौद्ध स्तूपों का था। उदाहरण के लिए जैनस्तूप के मध्य में बुदबुदाकार बड़ा और ऊँचा ढूहा होता था और उसके चारों ओर वेदिका और चारों दिशाओं में चार तोरण होते थे। उसके ऊपर भी हर्मिका और छत्रावली का विधान रहता था, वह भी वेदिकासहित त्रिमेधियों पर बनाया जाता था। उसके चार पार्श्वो में तीर्थंकरों की मूर्तियाँ लगाई जाती थीं। स्तूप की रचना में अनेक भाँति की मूर्तियों और वेदिका के स्तम्भों पर शालभंजिका मूर्तियों की रचना की जाती थी। वेदिका का निर्माण वास्तु विन्यास का उत्कृष्ट कर्म था। उसमें ऊर्ध्वं स्तम्भ, आड़ी सूचियाँ, उष्णीष, आलंबन, तोरण, पार्श्वस्तंभ, धार्मिक चिन्ह और आयागपट्ट संज्ञक उत्कीर्ण शिलापट्ट तोरण द्वारों के मुखपट्ट पुष्पग्रहणी वेदिकाएँ, सोपान एवं ध्वजस्तम्भ आदि विविध शिल्पसामग्री लगाई जाती थी ।
"
पूर्व गुप्तकालीन गुफाओं में सोनभंडार की गुफा महत्त्वपूर्ण है। वैभारगिरि की तलहटी में स्थित इस गुफा में प्रथम या द्वितीय सदी ई०का लेख है। लेख में गुफाओं के निर्मात्ता वैरदेव को मुनि कहा गया है। मुनिशब्द का प्रयोग जैन साधुओं के लिए आता है।" वैभारगिरि में ही एक खंडित जैनमन्दिर के अवशेष उपलब्ध हुए हैं। मध्यकालीन अन्य जैन गुहा मन्दिरों में बादामी, धाराशिव ( सोलापुर से उत्तर में ३७ मील), ऐहोल, एलोरा आदि के जैन गुहा मन्दिर महत्त्वपूर्ण है। इनके अतिरिक्त पीतलखोरा के निकट पाटन ग्राम के पूर्व में कन्हर पहाड़ी के पश्चिमी भाग में नागार्जुन की कोठरी एवं सीता की नहानी नामक गुफाएँ हैं। नासिक के निकट स्थित चामरलेण का काल ११-१२वीं सदी है। अन्य गुहा मन्दिरों में भामेर - मन्दिरों में भामेर ( धूलिया से ३० मील), बामचंद्र ( पूना से १५ मील), अंकाइतंकाइ, उदयगिरि (भेलसा) आदि भी महत्त्वपूर्ण हैं। उदयगिरि (क्रमांक २०) गुप्तकाल का एक मात्र जैन गुहा मन्दिर है जहाँ कुमारगुप्त प्रथम के समय का एक लेख है।
दक्षिण भारत में कुछ ही जैन स्मारक है, जबकि संगमकाल में वहाँ जैन धर्म का प्रभुत्व था। यहाँ के अधिकांश स्मारकों को शैव पंथियों ने नष्ट कर दिया था। इनमें से सबसे महत्त्वपूर्ण प्राचीन मन्दिर सित्तनवासल में स्थित है जो पल्लवनरेश महेन्द्रवर्मा प्रथम के समय का है। कालान्तर में इसे शैवधर्म में परिवर्तित कर लिया गया था। दक्षिण के अंतिम वर्ग के ५ जैन गुहा-मन्दिर एलोरा (क्रमांक ३० से ३४) के हैं, जिनका निर्माण संभवतः ९वीं सदी के प्रारम्भ में हुआ।
पुरातन जैनावशेषों में मंदिरों का भी विशिष्ट स्थान है। जैन तीर्थ और मंदिरों का श्रेष्ठत्व न केवल धार्मिक दृष्टि से ही है, अपितु भारतीय शिल्प स्थापत्य और कला की दृष्टि से भी उनका अपना
स्वतंत्र स्थान है। मंदिर आध्यात्मिक साधना के पुनीत स्थल होने के साथ ही साथ जिनधर्म और नैतिक परंपरा के समर्थक भी हैं। मयशास्त्र और काश्यपशिल्प में जैन और बौद्ध मंदिरों का उल्लेख है। मानसार के अनुसार जैन मंदिर नगर के बाहर और वैष्णवमंदिर नगर के मध्य में होना चाहिए। संभवत: बहुसंख्यक जैन मंदिर शांति के कारण नगर के बाहर बनाये जाते थे अतः मानसार में उक्त वर्णन मिलता है। श्री गौरीशंकरजी ओझा लिखते हैं कि सन् की सातवीं शताब्दी के आस-पास से बारहवीं शताब्दी तक के सैकड़ों जैन और वेदधर्मावलंबियों के अर्थात् ब्राह्मणों के मन्दिर अब तक किसी न किसी दशा में विद्यमान हैं। क्षेत्र भिन्नता के अनुसार इन मंदिरों की शैलियों में भी अन्तर है। कृष्णा नदी के उत्तर से लेकर सारे उत्तरी भारत के मन्दिर आर्य शैली के हैं और उक्त नदी के दक्षिण के द्रविड़ शैली के जैनों और ब्राह्मणों के मंदिरों की रचना में बहुत कुछ साम्य है। अंतर इतना है कि जैन मंदिरों के स्तंभों, छतों आदि में बहुधा जैनों से सम्बन्ध रखनेवाली मूर्तियाँ तथा कथाएँ खुदी हुई पाई जाती है, और ब्राह्मणों के मंदिरों में उनके धर्म सम्बन्धी बहुधा जैनों के मुख्य मंदिर के चारों ओर छोटी-छोटी देवकुलिकाएँ बनी रहती हैं, जिनमें भिन्न-भिन्न तीर्थंकरों की प्रतिमाएँ स्थापित की जाती है। जैन मंदिरों में कहीं-कहीं दो मण्डप और एक विस्तृत वेदी भी होती है। दोनों शैलियों के मंदिरों में गर्भगृह के ऊपर शिखर और उसके सर्वोच्च भाग पर आमलक होता है। आमलक के ऊपर कलश रहता है और वहीं ध्वज दंड भी होता है।
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सामान्यतः जैनमंदिरों की विशेषताएँ ये हैं : १. इनके आंगन के चारों ओर स्तंभयुक्त छोटे-छोटे मंदिरों का समूह होता है और इस मंदिर समूह के मध्य में मुख्य मंदिर का निर्माण किया जाता है। २. इन मंदिरों का मुख चारों ओर होता है और प्रतिमा भी चतुर्मुख होती है ।।
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जैन मंदिरों में निम्न मंदिर उल्लेखनीय हैं - सौराष्ट्र के थान के दो लघु मंदिर, भरहुत के निकट पिथोरा' में पट्टनी देवी का मंदिर ओसिया (राजस्थान) का महावीर मंदिर (प्रतिहारनरेश वत्सराज के काल का ७७०ई०-८००ई०), महोबा से १० मील उत्तर-पूर्व में स्थित मकरबाई' का जैन मंदिर, खजुराहो के जैनमंदिर, देवगढ़ (झांसी) के जैन मंदिर, देलवाड़ा के जैन मंदिर, राणकपुर (राजस्थान), मीरपुर, सरोत्रा, तारंगा पर्वत गुजरात कुम्भारिय, चित्तौड़, ऊन ( म०प्र०), उदयपुर, ग्यारसपुर, बूढ़ी चंदेरी ( म०प्र०) आदि ।
काठियावाड़ में पालीताना में शत्रुंजय पहाड़ी पर शताब्दियों तक जैन श्रावक मंदिर निर्मित कराते रहे। चार सौ बीस फुट चौड़ी घाटी मंदिर व शिखरों से भरी है। शत्रुंजय का पहाड़ तो मंदिरों का नगर ही कहा जाता है। जूनागढ़ भी जैनों के मंदिरों का नगर है। राणकपुर (जोधपुर राजस्थान) चौमुखी मंदिर के लिए प्रसिद्ध है। राजस्थान के जैन मंदिर समूह की अपनी निजी विशेषता
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ज्ञाताधर्मकथा की सांस्कृतिक विरासत
१९९ है। जैनों कलाकारों ने पर्वतीय स्थानों में पहाड़ियों को खोदकर एवं एवं व्यास ३२ फुट है, १६वीं शती की कला का भव्य प्रतीक है उनके शिखरों पर भी जैन देवालयों का निर्माण किया, जिससे वह सम्पूर्ण स्तम्भ की शिल्पकला दर्शनीय है। वास्तव में इसे सम्पूर्ण स्थान मंदिर नगर' बन गया। भारत में प्राचीन जैन मंदिरों की संस्कृति का गौरव स्तंभ कहना ही अधिक यक्ति संगत है। चित्तौड़ में बहुलता नहीं है, जितनी अधिकता पन्द्रहवीं सदी में दीख पड़ती है। एक और भी कीर्तिस्तंभ है। आबू में भी एक जैन कीर्तिस्तंभ है। इसका कारण यह हो सकता है कि जीर्ण मंदिर के स्थान पर जैनियों ने नये मंदिर बनवाये। दूसरा कारण यह भी हो सकता है कि पुराने सन्दर्भ मंदिरों को धर्मान्ध लोगों ने नष्ट कर दिया हो।
१. खण्डहरों का वैभव, पृ० ४९ से उद्धृत मानस्तंभ मध्यकाल में जैन वास्तुकला का एक प्रमुख अंग २. On Yuan Chwang's Travels in India. p. 96 बन गया था। मध्यकाल में जैन मंदिर के सम्मुख विशाल स्तंभ ३. The Age of Imperial Unity. pp. 98. 172. 175 निर्मित करने की प्रथा विशेषतः दिगम्बर जैन समाज में रही है। ४ विविधतीर्थकल्प, सम्पादक-मुनि जिनविजय, प्रका० सिंधी दक्षिण भारत और विन्ध्यप्रदेश से ऐसे स्तंभों की उपलब्धि प्रचुर जैन ज्ञानपीठ शांतिनिकेतन वि०सं० १९९० पृ० १७ मात्रा में हुई है। यह मानस्तंभ इन्द्र-ध्वज का प्रतीक अधिक युक्तिसंगत ५. Archaeological Survey of India. Annual Report जान पड़ता है। देवगढ़ आदि में उपलब्ध अधिकतर मानस्तम्भ ऐसे 1905-06.Indological Book House.Varanasi. हैं जिनके ऊपरी भाग में शिखर जैसी आकृति है। बघेलखण्ड एवं pp.98,166. महाकोशल के मानस्तम्भों के छोर पर चतुर्मुख जिन प्रतिमाएँ हैं। ये ६. मध्यकालीन भारतीय संस्कृति, पृ० १७५-१७६ स्तंभ गोल तथा कई कोनों के बनते थे। मानस्तम्भों पर मूर्तियों एवं ७. Studies in Jain Art-U.P Shah. cultural Research लेख भी अंकित रहते थे।
Society, Banaras. 1955. p. 18 अभी तक जैन कीर्तिस्तंभों का समुचित अध्ययन नहीं हो ८. वही पाया है इस कारण बहुत-से लोग कीर्तिस्तम्भ को मानस्तंभ मान ९. A.S.I.. A.R. 1925. p. Indological Book House बैठते हैं। चित्तौड़ का कीर्तिस्तभ, जिसकी ऊँचाई लगभग ७६ फुट Varanasi. 15.
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जैन कला विषयक साहित्य
धर्म और संस्कृति की भाँति 'कला' शब्द भी बहुप्रचलित और बहुचर्चित रहा है। कला की अनेकविध परिभाषाएँ एवं व्याख्याएँ की गई है। 'कल' धातु से व्युत्पन्न होने कारण 'कला' शब्द का अर्थ होता है करना, सृजन, रचना, निर्माण या निषपन्न करना, और 'कं लातीति कला' सूत्र के अनुसार 'जो आनंद दे वह कला है।' शैवागम में उसे 'किचित्कर्तृत्वलक्षण' अर्थात् संकुचित कर्तृत्वशक्ति माना गया है, और क्षेमराज के अनुसार 'करना आत्मा की वह कर्तृत्वशक्ति है जो वस्तुओं व प्रमाता के स्व को परिमित रूप में व्यक्त करे। वात्स्यायन ने कला का सम्बन्ध कामपुरुषार्थ के साथ जोड़ा है और उसके ६४ मुख्य भेद तथा ५१८ अवान्तर भेद किये हैं। आचार्य जिनसेन के अनुसार आदि पुरुष भगवान् ऋषभदेव ने पुरुषों की ७२ और स्त्रियों की ६४ कलाओं की शिक्षा युगारंभ में ही दी थी। इनमें समस्त लौकिक ज्ञान-विज्ञान, कला-कौशल, हस्त शिल्प, मनोरंजन के साधन आदि समाविष्ट हो जाते हैं।
उपर्युक्त समस्त कलाएँ मुख्यतया दो वर्गों में विभाजित की जाती हैं- उपयोगी कला और ललित कला। उपयोगी कलाओं में निर्मित वस्तु की उपयोगिता की दृष्टि का प्राधान्य रहता है, जबकि काव्य संगीत चित्रमूर्ति स्थापत्य नामक पांचों ललितकलाओं में आनन्द प्रदान करने की दृष्टि का प्राधान्य एवं महत्व रहता है। किसी देश, • जाति या परम्परा की सांस्कृतिक बपौती या समृद्धि का मूल्यांकन उसकी ललित कलाकृतियों के आधार पर ही बहुधा किया जाता है। वे संस्कृति - विशेष के प्रतिबिम्ब एवं मानदण्ड, दोनों ही होती हैं। जैसा कि एक विद्वान ने कहा है, 'कलानागर जीवन की समृद्धि का प्रमुख उपकरण है और उसके द्वारा सुख-सौभाग्य की सिद्धि के साथसाथ व्यक्तित्व का परिष्कार भी होता है, अर्थात जीवन में सौंदर्य तथा समृद्धि का संचार, व्यक्तित्व का संस्कार और चित्त प्रसादन होता है।' इस प्रकार, संक्षेप में कलाकार की निज की सौन्दर्यानुभूति की लोकोत्तर आनन्द प्रदायिनी रसात्मक अभिव्यक्ति को 'कला' कह सकते हैं।
सुदूर अतीत से चली आई तथा प्राय: सम्पूर्ण भारतवर्ष में अल्पाधिक व्याप्त जैन संस्कृति का विभिन्नयुगीन कलावैभव अतिश्रेष्ठ विपुल एवं विविध है। अपने विविध रूपों को लिए हुए काव्य और संगीत को छोड़ भी दें और केवल चित्र, मूर्ति एवं स्थापत्यशिल्प को ही लें, जैसा कि कलाविषयक आधुनिक ग्रन्थों में प्राय: किया जाता है, तो भी इन तीनों ही से सम्बन्धित कलाकृतियों में, बाहुल्य एवं विविधता की दृष्टि से जैन परम्परा किसी अन्य परम्परा से पीछे नहीं
डाँ० ज्योति प्रसाद जैन
रही है। अतएव भारतीय कला साहित्य में भी जैनकला का अपना प्रतिष्ठित स्थान रहा है।
कला साहित्य दो प्रकार का होता है- एक तो तकनीकी, जिसमें कला विशेष की कृतियों के निर्माण के सिद्धांत, विधि, सामग्री आदि का वैज्ञानिक विवेचन होता है, दूसरा वह जिसमें विशेष कलाकृतियों का विवरण या वर्णन होता है, तुलनात्मक अध्ययन, समीक्षण और मूल्यांकन भी होता है। प्राचीन साहित्य में मानसार, समरांगणसूत्रधार, वास्तुसार जैसे ग्रन्थों में प्रथम प्रकार का कलासाहित्य मिलता है। मानसार को कई विद्वान जैन कृति मानते हैं, ठक्करफेर का वास्तुसार तथा मण्डनमंत्री के ग्रन्थ तो जैन रचनाएं ही हैं। रायपसेणइय आदि कतिपय आगमसूत्रों में भी इस प्रकार की क्वचित् सामग्री प्राप्त होती है। प्रतिष्ठा पाठों में जिनमूर्तियों एवं अन्य जैन देवी-देवताओं का प्रतिमाविधान वर्णित है। जैन पुराण एवं कथासाहित्य में अनेक स्थलों पर विविध चित्र, मूर्ति एवं स्थापत्य कलाकृतियों के सुन्दर वर्णन या विवरण उपलब्ध है।
आधुनिकयुगीन कला साहित्य मैं : (१) प्रथम तो पुरातात्विक सर्वेक्षण, उत्खनन, शोध-खोज द्वारा विभिन्न प्रदेशों या स्थलों में प्राप्त पुरावशेषों, कलाकृतियों आदि के विवरण हैं। गत शताब्दी के उत्तरार्ध में जनरल अलेक्जेण्डर कनिंघम व उसके प्राय: समकालीन अन्य सर्वेक्षकों की बृहत्काय रिपोर्टों में भारतवर्ष के विभिन्न भागों में बिखरी कलाकृतियों का आकलन हुआ। फुहरर ने १८९१ में तत्कालीन पश्चिमोत्तर प्रदेश ( वर्तमान उत्तर प्रदेश) के पुरावशेषों का जिलेवार वर्णन दिया था। अन्य कई विद्वानों ने उसी प्रकार अन्य कई प्रदेशों का दिया । तदनन्तर ही पुरातत्व विभाग की रिपोर्टों, बुलेटिनों आदि में नवीन जानकारी में आई सामग्री दी जाती रही है। स्वभावतः इन विवरणों में तत्तत् प्रदेशों में प्राप्त जैन कलावशेष भी समाविष्ट हुए। स्व० ब्र० शीतलप्रसादजी ने वैसी रिपोर्टों के आधार से ही मद्रास, मैसूर, बम्बई संयुक्त प्रांत (उ०प्र०) आदि कई प्रान्तों के प्राचीन जैन स्मारकों पर पुस्तकें लिखी व प्रकाशित की थी।
(२) दूसरे भारतीय इतिहास सम्बन्धी विविध आधुनिक ग्रन्थों में विभिन्न युगों को सांस्कृतिक झलक प्रस्तुत करने के निमित्त तत्सम्बन्धित कलावैभव की समीक्षा व उल्लेख भी रहता है और उनमें भी जैन कलाकृतियाँ अल्पाधिक सम्मिलित की ही जाती हैं। इस प्रकार इंडियन एन्टीक्वेरी, रायल एशियाटिक सोसा की विभिन्न शाखाओं के जरनल अन्य ऐतिहासिक-सांस्कृतिक शोध पत्रिकाओं में भी प्रसंगवश जैन कला का विवेचन होता रहा है।
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जैन कला विषयक साहित्य
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पुस्तकें।
१९४४)
(३) तीसरे, कई प्रौढ़ कलामर्मज्ञों ने भारतीय कला पर बृहत्काय विवेचनात्मक ग्रन्थ रचे हैं, यथा बजेस, फर्गुसन, हैवेल, तथा जैन तीर्थाज इन इंडिया एण्ड देयर आर्किटेक्चर (अहमदाबाद स्मिथ, कुमारस्वामी, पर्सी ब्राउन, स्टेला क्रैमरिश, बाखोफेर, फैकफोर्ट,
१९४४) हैनरिख ज़िमर, बैनजमिन रोडेफ, लुईस फ्रेडरिक आदि ने। इन सभी .
। ६. डॉ० मोतीचन्द्र- जैन मिनियेचर पेन्टिग्स फ्राम वेस्टर्न इण्डिया विद्वानों ने ब्राह्मण और बौद्ध के साथ ही साथ जैन-कलाकृतियों पर भी प्रकाश डाला है, समीक्षा की, तुलनात्मक अध्ययन और मल्यांकन (अहमदाबाद १९४९) भी किया है।
७. मुनि पुण्यविजय- जेसलमेर चित्रावली (अहमदाबाद १९५९) (४) अनेक जैनेतर एवं जैन कलामर्मज्ञों एवं विद्वानों ने ८. मनि जयन्तविजय- आबू पर्वत एवं उसके जैन मन्दिरों पर कई विभिन्न स्थानीय जैन-कलाकृतियों पर अथवा विविध या विशिष्ट जैन- कलाकृतियों पर अनगिनत लेख लिखे हैं। इस सम्बन्ध में
९. मुनि कान्तिसागर- खोज की पगडंडियाँ और खण्डहरों का उल्लेखनीय नाम हैं- बोगेल, बहलर, बजेंस, कजिन्स, क्लाउज
वैभव, (दोनों भारतीय ज्ञानपीठ से प्रकाशित।) ब्रून, काशीप्रसाद जायसवाल , आर० डी० बनर्जी, ए० बनर्जी शास्त्री, भगवान लाल इरुजी, बी० एम० बरुआ, डी० आर०
१०.टी० एन० रामचन्द्रन-जैन मोनमेण्ट्स आफ़ इण्डिया (कलकत्ता भण्डारकर, रामप्रसाद चंदा, वासुदेव शरण अग्रवाल, दयाराम साहनी, मोतीचन्द, एच०डी० सांकलिया, कृष्ण दत्त बाजपेयी, नी०प० ११. यू०पी० शाह - स्टडीज इन जैन आर्ट (वाराणसी) १९५५. जोशी, आर० सी० अग्रवाल, बी०एन० श्रीवास्तव, देवला मित्रा, १२. क्लॉस फिशर- केब्ज एण्ड टेम्पल्स आफ दी जैन्स (जैन सेनगप्ता, रमेशचन्द्र शर्मा, शैलेन्द्र रस्तोगी, उ०प्र० शाह, मारुतिनन्दन मिशन, अलीगंज १९५६) प्रसाद तिवारी, शिव कुमार नामदेव, विजय शंकर श्रीवास्तव, ब्रजेन्द्रनाथ
१३. डा० भागचन्द्र जैन- देवगढ़ की जैन कला (भारतीय ज्ञानपीठ शर्मा, तेज सिंह गौड़ प्रभृति जैनेतर विद्वान तथा बाबू छोटेलाल जैन,
१९७५) कामता प्रसाद जैन, एम० ए० ढांकी, विशम्भरदास वार्गीय, नीरज जैन, गोपी लाल अमर, अगरचन्द नाहटा, के० भूजबलि शास्त्री,
१४. शोधाङ्क ३१ (२९ दिसम्बर १९७२) - में राज्य संग्रहालय
लखनऊ द्वारा आयोजित जैन कला संगोष्ठी का विवरण तथा बालचन्द्र जैन, भूरचन्द जैन आदि जैन लेखक उल्लेखनीय हैं।
जैन कला पर विभिन्न विद्वानों द्वारा पठित निबन्धों का सार स्वयं हमारे दर्जनों लेख विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं, स्मारिकाओं, ग्रन्थों
संकलित है। आदि में जैन कला पर प्रकाशित हो चुके हैं। जैन पत्रिकाओं में से जैन सिद्धांत भास्कर, जैन एन्टीक्वेरी, अनेकान्त, अहिंसावाणी. १५. जैन आर्ट एण्ड अर्किटेक्चर, ३ खण्ड (भारतीय ज्ञानपीठ, वायस आफ़ अहिंसा, शोधाङ्क, श्रमण, जैन जर्नल में विभिन्न
१९७५) लेखकों के जैन कला विषयक लेख, कभी-कभी सचित्र भी बहुधा
-जैनकला के विषय में प्रकाशित अब तक के ग्रन्थों में यह निकलते रहे हैं।
महाग्रन्थ सर्वाधिक विशाल, सर्वांगपूर्ण एवं प्रमाणिक है। ग्रन्थ सचित्र (५) जैनकला विषयक विशिष्ट एवं उल्लेखनीय ग्रन्थों में और अंग्रेजी एवं हिन्दी दोनों भाषाओं में प्रकाशित हआ है। निम्नोक्त नाम गिनायें जा सकते हैं
. इस प्रकार जैन कला-साहित्य का यह संक्षेप में प्राय: १. विन्सेण्ट स्मिथ- जैन स्तूप एंड अदर एण्टीक्विटीज आफ
सांकेतिक परिचय है। इस साहित्य की विद्यमानता में जैन कला के
किसी भी अंग या पक्ष पर शोध करने वाले छात्रों को सामग्री का मथुरा (इलाहाबाद १९०१)
अभाव नहीं है। कला मर्मज्ञों के लिए जैन कला के किसी भी अंग का २. ए० एच० लांगहर्स्ट -हम्पी रूइन्स (मद्रास १९१७)
तुलानात्मक अध्ययन, समीक्षा एवं मूल्यांकन करना अपेक्षाकृत सुगम ३. एम० एम० गांगुली-उड़ीसा एण्ड हर रिमेन्स, एन्शिएन्ट एण्ड हो गया है। जो कलारसिक अथवा सामान्य जिज्ञास हैं, वे भी उपर्युक्त मेडिवल (कलकत्ता १९१२)
साहित्य से जैन कला विषयक सम्यक् जानकारी प्राप्त कर सकते हैं। ४. नार्मन ब्राउन-१९१८ और १९४१ के बीच प्रकाशित जैन इतना सब होने पर भी यह मान बैठना उचित नहीं होगा कि इस क्षेत्र चित्रकला पर पाँच पुस्तकें।
में अब और कुछ करना शेष नही है। अभी बहुत-कुछ किया जा ५. साराभाई नवाब- जैन चित्र-कल्पद्रम, ३ भाग (अहमदाबाद
सकता है, करने की आवश्यकता है।
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जैन विद्या क आयाम खण्ड-७
तमिल इतिहास लेखन में जैन लेखकों का योगदान
डॉ० असीम कुमार मिश्र
भारत के सुदूर दक्षिण का ऐतिहासिक साहित्य समृद्ध है। तमिलभाषा का अत्यन्त प्राचीन ग्रंथ है 'तोलकाप्पियम' यह जिसमें जैन लेखकों का भी महत्वपूर्ण योगदान है। दिगम्बर परम्परानुसार एक श्रेष्ठ व्याकरण ग्रंथ है। साथ ही इसमें पंचतंत्र की कई रोचक अन्तिम जैनाचार्य भद्रबाहु ने दक्षिण प्रदेश में सर्वप्रथम प्रवेश किया कथाएँ वर्णित है। विद्वानों का मत है कि इसके रचयिता 'तोलकाप्पियर' था। उत्तर भारत में अकाल के समय जब विपुल साधु संघ का भरण- जैन थे।२ तोलकाप्पियम का रचनाकाल क्या था, इसका निर्णय करना पोषण कठिन हो गया, तब आचार्य भद्रबाहु (मगध नरेश चन्द्रगुप्त कठिन है फिर भी इसका काल प्राय: ई०पू० की दूसरी शती माना मौर्य के गुरु) ने अपने शिष्यों के साथ मगध छोड़कर दक्षिण की जाता है। इससे पूर्व संघकालीन ग्रंथ 'एट्टत्तकै' (प्रधानतया शृंगाररस
ओर प्रस्थान किया और श्रवणबेलकुलम या श्रमण बेलगोल नामक और वीररस की कविताओं के आठसंग्रह) का उल्लेख मिलता है। ये स्थान पर पहुंचे। आचार्य भद्रबाह ने वहाँ से अपने शिष्य विशाख को कविताओं के रूप में राजाओं तथा युद्धो के विषयों पर लिखे गये हैं चोल और पाड्य नरेशों के शासन क्षेत्र तमिलनाडु में जैन-धर्म का और पर्याप्त ऐतिहासिक सूचना प्रदान करते हैं। इसके अतिरिक्त प्रचार करने हेतु भेजा था। इन्हीं आचार्य विशाख के सानिध्य में 'पत्तुप्पाट्ट' संघकालीन एक अन्य ग्रन्थ है। चन्द्रगुप्त मौर्य ने समाधिमरण प्राप्त किया था। उक्त तथ्यों की पुष्टि 'शिलप्पधिकारम्' तमिल साहित्य के पंच महाकाव्यों जैन ग्रन्थों एवं शिलालेखों के आधार पर की जाती है। (पेरूपंचकावियम्) में से एक है। सम्भवत: इसकी रचना तृतीय संगम
कुछ विद्वानों का ऐसा मत है कि यह उल्लेख ईसा की नवीं के समय में हुई थी। शिलप्पधिकारम् के रचयिता श्री इंलंगो-अगिल शताब्दी से पहले का नहीं है। अत: उपरोक्त उल्लेख में वर्णित काव्य के प्रमुख पात्र चेर- नरेश चेंगट्टवन के छोटे भाई थे। इसके चन्द्रगुप्त, चन्द्रगुप्त द्वितीय और आचार्य भद्रबाहु-भद्रबाहु तृतीय हो रचयिता एक जैन थे किन्तु यह ग्रंथ अत्यन्त उदार एवं सहिष्णुतापूर्ण सकते हैं। किन्तु इसके विपरीत ऐतिहासिक बौद्ध ग्रन्थ 'महावंश' में दृष्टिकोण का परिचय देता है। इस ग्रंथ में कण्णकी नामक एक सती इस बात का उल्लेख मिलता है कि चन्द्रगुप्त मौर्य के समय में सिंहल की कथा है। इस काव्य की प्रमुख घटनाओं का केन्द्रवर्ती अवलंब नरेश 'पाण्डुकाभय' ने निगंठो की सहायता की थी। इसके अलावा नूपुर होने के कारण इस महाकाव्य का नाम शिलप्पधिकारम् बना। प्रथम-द्वितीय शती के ब्राह्मलिपि में अंकित कुछ जैन शिलालेख अपने कथा की पृष्ठभूमि में यह महाकाव्य चेंगट्टवन को एक महान दक्षिण तमिलनाडु की गुफा में पाये जाते हैं। अत: इस आधार पर वीर की भूमिका प्रदान करता है, साथ ही करिकालन चोल की सैनिक यह कहा जा सकता है कि जैन श्रमणों ने ईसा पू० दूसरी शती के प्रतिभा की प्रशंसा भी करता है। आस-पास तमिलनाडु में आकर, तमिल भाषा द्वारा जैनधर्म का शिलप्पधिकारम् में तमिल देश की सांस्कृतिक एकता का प्रचार-प्रसार शुरू कर दिया था। यद्यपि आज तमिलनाडु में प्राचीन वर्णन है। इसमें तमिल के तीन राज्यों (चोल, पाड्य व चेर) की एक जैन परम्परा लुप्त प्राय हो गयी है फिर भी एक समय ऐसा था, जब सांस्कृतिक इकाई का गठित रूप चित्रित है। नायक कोवलन और तमिल देश के कोने-कोने में जैन धर्म का प्रचार था। जैनधर्म के इस नायिका कण्णकी चोल देश के वासी हैं। वे व्यवसाय के लिए स्वर्णयुग का पता उपलब्ध शिलालेखों और अनेक स्थानों पर प्राप्त पाड्यदेश गये, वहाँ कोवलन पर चोरी का अभियोग लगाकर उसे प्रस्तर-मूर्तियों द्वारा लगता है।
मृत्यु दण्ड दिया गया। कण्णकी अपने पति को निरपराध सिद्ध करती जैन परम्पर में कुन्दकुन्दाचार्य का महत्वपूर्ण स्थान है। ये है। इसके बाद वह चेर राज्य के जंगलों में चली जाती है। इस प्रकार ई०पू० या ई०सन् की पहली शती में हुए थे।१ इनके द्वारा रचित इस कथा के सूत्र में चोल, पाड्य और चेर तीनों राज्य एक सूत्र में ग्रन्थों का दिगम्बर परम्परा में विशिष्ट स्थान है। इनके बाद गुणनंदी ग्रंथित हो गये हैं। इसी प्रसंग में सती कण्णकी द्वारा क्रोध में मदरै और समन्तभद्र का नाम लिया जाता है। दूसरी शती में आचार्य नगरी को भस्म करने का उल्लेख है। इस घटना की तिथि का भी समन्तभद्र ने काँची नरेश को तर्क में पराजित किया, फलस्वरूप रचनाकार ने निर्देश किया है। तद्नुसार-आषाढ़मास के कृष्ण पक्ष के काँची नरेश सन्यास ग्रहण कर शिवकोटि आचार्य के नाम से विख्यात शुक्रवार को जब अष्टमी तिथि और कार्तिक नक्षत्र का मिलन होगा, हए। तमिल देश में यही जैनों का आदिकाल था। इसी क्रम में अग्निदेव पाण्ड्य राजधानी मदुरै का विनाश करेंगे और पाड्य नरेश अकलंकदेव, जिनसेन (प्रथम), वीरसेन, जिनसेन (द्वितीय) एवं की भी दुर्गति अवश्यंभावी है। इस तिथि के विषय में स्व०गुणभद्र तमिलनाडु में आये। तत्पश्चात् तमिल के सुविख्यात पंचमहाकाव्यों एल० डी० सामि कण्णु पिल्लै ने बताया कि यह तिथि २३ जुलाई में तृतीय 'जीवकचिन्तामणी' के रचयिता तिरूत्तक्कदेबर, 'चूलामणि' ७५६ ई० था। किन्तु इसके विपरीत सुविख्यात इतिहासवेत्ता (जैन महाकाव्य) के कवि तोलामोलिदेबर और गुणभद्र के शिष्य रामचंद्रदीक्षितर जो कि खगोलशास्त्री भी हैं, ने यह बताया कि मदुरै अर्थबली-उस समय के प्रसिद्ध जैनाचार्य थे।
नगरी ई० की दूसरी शती में अनलकवलित हुई।
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तमिल इतिहास लेखन में जैन लेखकों का योगदान
शिलप्यधिकारम् कावेरीपत्तन के राजा करिकलन का सिंहल के राजा (गजबाहु से समकालीनता प्रस्तुत करता है। जिससे पूर्वकालीन सिंहलीय काल-गणना का समन्ध शेष भारत की काल गणना के साथ जोड़ा जा सकता है। इस महाकाव्य में तमिल समाज की राजनीतिक, सामाजिक, धार्मिक अवस्था का सजीव चित्रण मिलता है विविध धर्मों का सद्भाव, उत्सव व पर्व आदि का भी वर्णन मिलता है। अतः इस ग्रन्थ को दो हजार वर्ष पूर्व के तमिल देश का दर्पण कहा जा सकता है। इसका उत्तर भाग 'मणि मेखले प्रधान महाकाव्यों में से एक है। यद्यपि यह एक बौद्ध लेखक चात्तनार की रचना है। तथापि इसका वर्णन प्रसंगतः अनिवार्य है। इसमें भी इतिहास सम्बन्धी विभिन्न तथ्य हैं। यह ग्रन्थ बौद्ध दर्शन को उच्च स्थान पर रखता है, फिर भी इसमें शिलप्पधिकारम् के समान ही सहिष्णुता झलकती है। इसके बाद 'नीलकेशी' नामक जैन काव्य ग्रन्थ का प्रणयन हुआ, जिसमें पांचाल देश, कुण्डलवर्तनम् नामक नगर, उसके राजा समुद्रसारन, उस प्रदेश के मंदिर, उनमें किये जाने वाले हत्याकांड तथा भूत-पिशाचों का रोचक वर्णन है। इसके कर्त्ता का नाम नहीं ज्ञात है। इसके व्याख्याकार प्रसिद्ध तमिल जैन ग्रन्थ'मेरुमन्थर पुराणम्' ' के रचयिता वामन मुनिवर हैं। पंचमहाकाव्यों में एक 'जीवक चिन्तामणि' जैन मुनि तिरूत्तक्कदेवर की रचना है। इसका समय नवीं शती है। यह एक शृंगार रस पूर्ण रचना है जिसमें तमिल प्रदेश के राजनीतिक, सामाजिक एवं सांस्कृतिक जीवन का सजीव वर्णन है। यह ऐतिहासिक दृष्टि से भी महत्वपूर्ण है।
इस काव्य का मुख्य उद्देश्य अंहिसा धर्म का समर्थन है। कवि चोल कुल के थे। उन्होंने आदर्श साम्राज्य को अपनी कल्पना को मूर्त रुप देने के लिए ही जैन पुराण के अन्तर्गत् जीवकन की कथा को अपने काव्य का विषय बनाया। इस आशय को कवि ने अपने काव्य में आदि से अन्त तक व्यक्त किया है कि जिस प्रकार जीवकन ने कई राजपरिवारों से सम्बन्ध स्थापित कर अपने को महाबली बनाया या वैसे ही चोल राजाओं को भी कई राज परिवारों के साथ वैवाहिक संबंध स्थापित करना चाहिये। सम्भवत: इसी प्रेरणा के फलस्वरूप चौल नरेशों ने आसपास के पल्लव, आन्ध्र आदि अन्य राजकुलों के साथ वैवाहिक सम्बन्ध जोड़ लिया था। चोल नरेश के 'चक्रवर्ती होने का जो स्वप्न कवि ने अपनी रचना में देखा था वह राजेन्द्र चोल के काल में साकार हुआ।
दीपंकुडि जयंकोण्डार का 'कलिंगनुप्यरणि' तमिल में एक संग्राम विषयक कविता है जिसमें चोल नरेश कुलोतुंग (ग्यारहवीं (शताब्दी) के कलिंग पर अभियान का वर्णन है। 'परणि' उस विशिष्ट प्रबंध काव्य को कहते हैं, जिसमें सहस्र गजो को समरांगण में मारने वाले वीरवर का प्रभावकारी वर्णन हो। कलिंगचुप्परणि के रचयिता श्रमण संघ के साधु थे यह ग्रन्थ कुलोतुंग के राज्यकाल के अन्त के निकट लिखा गया था और उसी की विजयों का यश गाता है।" इसमें राजा के जन्म तथा यौवन का वर्णन संक्षेप में किया गया है। युवराज होने पर वह दिग्विजय के लिए प्रस्थान करता है जिसका अर्थ यहाँ
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उत्तर दिशा में एक दीर्घ अभियान से है, यद्यपि दक्षिण-पूर्व में भी एक युद्ध का उल्लेख है उसकी अनुपस्थिति में पिता की मृत्यु के बाद अराजकता व्याप्त हो जाती है। परन्तु अन्त में नायक लौट आता है, शान्ति स्थापित करके सिंहासन पर अधिकार कर लेता है। तत्पश्चात् कुलोतुंग अपने एक सामन्त को, दूसरे अभियान पर उत्तर में भेजता है, जो कलिंग की सेना को पराजित कर देता है। जिसके परिणामस्वरूप कलिंग का राजा (अनन्तवर्मा) आत्मसमर्पण कर देता है और नियमानुसार कर देना स्वीकार करता है।
इस प्रसंग में यह उल्लेखनीय बात है कि बिल्हणकृत 'विक्रमांकदेवचरित' भी उन्हीं घटनाओं का वर्णन करता है जिनका जयकोण्डार ने अपने काव्य में वर्णन किया है, विशेष रुप से चोल सम्राट की मृत्यु के पश्चात आने वाली अराजकता।
परणि के अतिरिक्त 'उला', 'कलम्बकम' 'अन्तादि' आदि प्रसिद्ध प्रबन्ध ग्रन्थ थे 'विक्रमशोलन उला' पूर्वकालीन चोल इतिहास पर लागू होने वाले कुछ रोचक प्रसंगों का उल्लेख करता है। जिसमें करिकालिन की पूर्व कथा तथा कुलोतुंग प्रथम के चालुक्य साम्राज्यके अन्दर दूर तक जाकर पश्चिम सागर पर्यन्त पहुंचने वाले अभियानों का वृत्तान्त है। इस ग्रन्थ का मुण्य वर्ण्य विषय चिदम्बरं में नटराज शिव को अर्पित एक देवालय का पुनर्निर्माण है। देवालय के अन्य उल्लेखनीय इतिहास 'मदुरैजलवरलारू' (मदुराय के महान देवालय पर ) और 'श्री रंगम्कोयिलोलुगु' (श्रीरंगम के देवालय पर) में वर्णित है।
जैन लेखकों ने तमिल साहित्य के साथ तमिल इतिहास लेखन के क्षेत्र में भी अपना महत्वपूर्ण योगदान दिया। जैनाचार्यों ने साधारणतया धार्मिक और नैतिकता के प्रचार-प्रसार हेतु बोधक लघुकथाओं महाकाव्यों आदि की रचना की थी। 'मणिप्रवाल' शैली के प्रवर्तन में भी जैन लेखकों का महत्वपूर्ण योगदान रहा। कलश्री के शासन काल में जब संस्कृत, प्राकृत आदि भाषाओं की अधिकता से तमिल को दुर्गति हो रही थी तब जैनाचार्यों ने ही अपनी साहित्य सेवा तथा धर्म प्रचार द्वारा तमिल की रक्षा की थी। जैन लेखकों ने अपने धार्मिक प्रचार का माध्यम तमिल भाषा को बनाया जिसके कारण भाषा तथा धर्म दोनों का साथ-साथ विकास हुआ। जैनाचायाँ के विशुद्ध तमिल प्रेम का एक उदाहरण है 'तिरूनाथ कुन्दूम' (श्रीनाथ गिरि) का शिलालेख । यह शिलालेख तमिल के प्राचीनतम् अभिलेखों में से एक है।
संदर्भ
१.
२.
३.
४.
५.
जैन साहित्य का वृहद् इतिहास, भाग ७, पं० के० भुजवली शास्त्री, पृ० १०१/
वही, पृ० १०८
शिल्प्पदिकारम, मदुरै काण्ड्म, पद्य १३३ १३६१।
जैन साहित्य का बृहद् इतिहास, भाग ७, पृ० १५१ भारतीय इतिहास लेखन की भूमिका, प्रो० जगन्नाथ अग्रवाल,
पृ० १०८।
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तपागच्छ का इतिहास
भाग-१
शिव प्रसाद
निर्ग्रन्थ परम्परा के श्वेताम्बर आम्नाय के गच्छों में तपागच्छ जैसा कि ऊपर हम देख चुके हैं, आचार्य जगच्चन्द्रसरि का स्थान आज तो सर्वोपरि जैसा है। इस गच्छ की परम्परानुसार इस गच्छ के आदिम आचार्य माने जाते हैं। इनके द्वारा रचित न तो बृहद्गच्छीय आचार्य सोमप्रभसूरि और मणिरत्नसूरि के शिष्य जगच्चन्द्रसूरि कोई कृति मिलती है और न ही इस सम्बन्ध में कोई उल्लेख ही हए, जिन्होंने अपने गच्छ में व्याप्त शिथिलाचार के कारण चैत्रगच्छीय प्राप्त होता है। जगच्चन्द्रसूरि के दो प्रमुख शिष्य थे-देवेन्द्रसूरि और आचार्य धनेश्वरसूरि के प्रशिष्य और भुवनचन्द्रसूरि के शिष्य देवभद्रगणि विजयचन्द्रसूरि। गुरु के निधनोपरान्त देवेन्द्रसूरि उनके पट्टधर बने। के पास उपसम्पदा ग्रहण की एवं १२ वर्षों तक निरंतर आयंबिल तप ये अपने समय के प्रमुख विद्वानों में से एक थे। इन्होंने अपनी कृतियों किया जिससे प्रभावित होकर आघाटपुर के शासक जैत्रसिंह ने उन्हें में अपनी गुरु-परम्परा तथा कुछ में अपने साहित्यिक सहयोगी के वि०सं० १२८५/ई०स० १२२९ में 'महातपा' विरुद् प्रदान किया। रूप में अपने कनिष्ठ गुरुभ्राता विजयचन्द्रसूरि का उल्लेख किया आगे चलकर उनकी शिष्य संतति तपागच्छीय कहलायी। है।
तपागच्छ में आचार्य देवेन्द्रसूरि, विजयचन्द्रसूरि, धर्म देवेन्द्रसरि ने विशेष रूप से गजरात और मालवा में बिहार घोषसूरि, सोमप्रभसूरि, सोमतिलकसूरि, देवसुन्दरसूरि, मुनिसुन्दरसूरि, किया। वि०सं० १३०२ में उज्जैन में इन्होंने वीरधवल नामक एक हेमविमलसूरि, आनन्दविमलसूरि, हीरविजयसूरि, विजयसेनसूरि, श्रेष्ठी-पुत्र को दीक्षित कर उसका नाम विद्यानन्द रखा। कुछ समय पश्चात् विजयदेवसूरि, उपा० यशोविजय जी तथा वर्तमान युग में आचार्य वीरधवल का लघुभ्राता भी देवेन्द्रसूरि के पास दीक्षित हुआ और उसका विजयानन्दसूरि, आचार्य विजयधर्मसूरि, आचार्य सागरानन्दसूरि, नाम धर्मकीर्ति रखा गया। २२ वर्ष तक मालवा में विहार करने के आचार्य बुद्धिसागरसूरि आदि कई विद्वान् और प्रभावक आचार्य हो चुके पश्चात् आचार्य देवेन्द्रसूरि स्तम्भतीर्थ (खंभात) पधारे। उनके कनिष्ठ हैं तथा आज भी कई प्रभावशाली और साहित्यरसिक मुनिजन विद्यमान गुरुभ्राता विजयसिंहसूरि ने इस अवधि में स्तम्भतीर्थ की उसी हैं। इन मुनिजनों ने अपनी उत्कृष्ट रचनाओं, ज्ञानभंडारों की स्थापना, पौषधशाला में निवास किया जहाँ ठहरमा आचार्य जगच्चन्द्रसरि ने तीर्थयात्रा, तीर्थ क्षेत्रों के जीर्णोद्धार एवं जिन प्रतिमाओं की प्रतिष्ठा आदि निषिद्ध कर दिया था। इस दरम्यान उन्होंने मुनिआचार के कठोर नियमों कार्यों द्वारा पश्चिमी भारत विशेषकर गुजरात, राजस्थान एवं दिल्ली और को भी शिथिल कर दिया। देवेन्द्रसूरि को ये सभी बातें ज्ञात हुई और पंजाब के कुछ क्षेत्रों में श्वेताम्बर मूर्तिपूजक समाज को जीवन्त एवं वे वहाँ न जाकर दूसरी पौषधशाला, जो अपेक्षाकृत कुछ छोटी थी, समुन्नत बनाये रखने में महत्त्वपूर्ण योगदान दिया है जो आज भी जारी में ठहरे। इस प्रकार जगच्चन्द्रद्रसूरि के दो शिष्य एक ही नगर में एक
ही समय दो अलग-अलग स्थानों पर रहे। बड़ी पौषधशाला में ठहरने अन्य बहुत सारे गच्छों की भाँति तपागच्छ से भी समय-समय के कारण विजयचन्द्रसूरि का शिष्य समुदाय बृहद्पौषालिक तथा पर विभिन्न उपशाखाओं का प्रादुर्भाव हुआ, जिनमें बृहद्पौषालिक देवेन्द्रसूरि का शिष्य परिवार लघुपौषालिक कहलाया। शाखा, कमलकलशशाखा, कुतुबपुराशाखा, लघुपौषालिक अपरनाम गूर्जरदेश में विहार करने के पश्चात् देवेन्द्रसूरि पुन: मालवा सोमशाखा, राजविजयसूरिशाखा अपरनाम रत्नशाखा, सागरशाखा, पधारे। वि०सं० १३२७/ई०स० १२६१ में वहीं उनका देहान्त हो विमलशाखा, विजयशाखा आदि प्रमुख हैं।
गया। उन्होंने विद्यानन्दसूरि को अपना पट्टधर घोषित किया था तपागच्छ के इतिहास के अध्ययन में स्त्रोत के रूप में इस किन्तु उनके निधन के मात्र १३ दिन पश्चात् विद्यानन्दसूरि का भी गच्छ के मुनिजनों द्वारा रचित ग्रन्थों की प्रशस्तियाँ, उनकी प्रेरणा से निधन हो गया। इन घटनाओं के ६ माह पश्चात् विद्यानन्द के छोटे या स्वयं उनके द्वारा लिखी गयी पुस्तकों की प्रतिलिपि या दाता भाई धर्मकीर्ति को धर्मघोषसूरि के नाम से देवेन्द्रसूरि का पट्टधर प्रशस्तियाँ तथा बड़ी संख्या में पट्टावलियाँ मिलती हैं। इसी प्रकार इस बनाया गया। गच्छ के मुनिजनों द्वारा प्रतिष्ठापित बहुत बड़ी संख्या में सलेख जिन देवेन्द्रसूरि द्वारा रचित विभिन्न कृतियां मिलती हैं, जिनमें प्रतिमायें प्राप्त हुई हैं, जो वि०सं० १४०१ से लेकर वर्तमानयुग तक से कुछ इस प्रकार हैं: की हैं। साम्प्रत निबन्ध में इनमें से महत्त्वपूर्ण और आवश्यक साक्ष्यों १. श्राद्धदिनकृत्यवृत्ति का उपयोग करते हुए इस गच्छ के इतिहास पर प्रकाश डालने का प्रयास २. नव्यपंचकर्मग्रन्थ सटीक किया गया है।
३. सिद्धपंचाशिका सटीक
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तपागच्छ का इतिहास
२०५ ४. धर्मरत्नप्रकरण बृहद्वृत्ति
कर दिया। इनके द्वारा रचित कृतियों में यतिजीतकल्पसूत्र, २८ ५. सुदर्शनाचरित्र
यमकस्तुतिओ, श्रीमच्छर्मस्तोत्र आदि उल्लेखनीय है १२। इनके शिष्यों ६. चैत्यवन्दन आदि ३ भाष्य
के रूप में विमलप्रभ, परमानंद, पद्मतिलक और सोमतिलक का नाम ७. वन्दारुवृत्ति अपरनाम श्राद्धप्रतिक्रमणसूत्रवृत्ति मिलता है। वि०सं० १३७३/ई०स० १३१७ में इनके निधन के पश्चात्
८. दानादि ४ कुलक, जिसपर वि० सं० की १७ वीं शती सोमतिलकसूरि ने तपागच्छ का नायकत्व ग्रहण किया। में विजयदानसूरि के प्रशिष्य एवं राजविजयसूरि के शिष्य देवविजय ने सोमतिलकसूरि का जन्म वि०सं० १३३५ वि०सं० में धर्मरत्नमंजूषा के नाम से वृत्ति की रचना की। इसके अलावा उनके द्वारा हुआ था, वि०सं० १३६९ में इन्होंने दीक्षा ग्रहण की और वि०सं० रचित कुछ स्तुति-स्तोत्र भी मिलते हैं।
१४२४ में इनका देहान्त हुआ। इनके द्वारा रचित कृतियाँ इस प्रकार देवेन्द्रसूरि के पट्टधर धर्मघोषसूरि द्वारा रचित कृतियां इस हैं:१३ प्रकार हैं :१०
१. बृहन्नव्यक्षेत्रसमास १. संघाचारभाष्य
२. सप्ततिशतस्थानप्रकरण (रचनाकाल वि० सं० १३८७/ २. कायस्थितिस्तवन
ई०स० १३२१) भवस्थितिस्तव
सज्झकचतुर्विंशतिजिनस्तुतिवृत्ति ४. स्तुतिचतुर्विंशति
४. चतुर्विंशतिजिनस्तवनवृत्ति ५. देहस्थितिप्रकरण
तीर्थराजस्तुति चतुर्विंशतिजिनस्तवसंग्रह
विचारसूत्र ७. दुषमाकालसंघस्तवन
अठ्ठाइसयमकस्तुतिओ पर वृत्ति ८. युगप्रधानस्तोत्र
वीरस्तव ९. ऋषिमंडलस्तोत्र
९. कमलबन्धस्तवन १०. परिग्रहप्रमाणस्तवन
१०. साधारणजिनस्तुति ११. चतुर्विंशतिजिनस्तुति
१३. शत्रुजययात्रावर्णन १२. अष्टापदकल्प
इनके शिष्यों में पद्यतिलक, चन्द्रशेखर, जयानन्द, देवसुन्दर १३. गिरनारकल्प
आदि का नाम मिलता है। पद्यतिलक द्वारा रचित कोई कति नहीं मिलती, १४. श्राद्धजीतकल्प
किन्तु चन्द्रशेखर और जयानन्द द्वारा रचित कृतियाँ प्राप्त होती हैं। मुनि चतुरविजयजी ने इनके अनेक स्तवनों को जैनस्तोत्रसंदोह, चन्द्रशेखर द्वारा रचित कृतियों में उषितभोजनकथा, प्रथमभाग में प्रकाशित किया है११॥
यवराजर्षिकथा, श्रीमद्स्तम्भनकहारबंधस्तवन आदि का नाम धर्मघोषसूरि के पट्टधर सोमप्रभसूरि हुए। इनका जन्म वि०सं० मिलता है१४ १३१० में हुआ था। वि०सं० १३२१ में इन्होंने दीक्षा ग्रहण की। जयानन्दसूरि द्वारा रचित कृतियों में स्थूलिभद्रचरित्र'५, वि०सं०१३३२ में सूरि पद प्राप्त हुआ और जैसा कि ऊपर कहा जा देवप्रभस्तत्र ६, साधारणजिनस्तोत्र आदि उल्लेखनीय हैं। जयानन्दसूरि चुका है वि० सं०१३५७ में गुरु के निधन के पश्वात् उनके पट्टधर बने। को वि० सं० १४२० में आचार्य पद प्राप्त हुआ और वि०सं० १४४१ इन्होंने कोंकण आदि प्रदेशों में जल का अधिकता और मारवाड़ आदि में इनका देहान्त हुआ। में जल की दुर्लभता के कारण तपागच्छीय मुनिजनों का विहार निषिद्ध
८.
वा
सोमतिलकसूरि के वि० सं०१४२०/ई०स० १३६४ में निधन के पश्चात् देवसुन्दरसूरि उनके पट्टधर बने १८१ वि० सं०१३९६ में इनका जन्म हुआ था, वि० सं० १४०४ में इन्होंने दीक्षा ग्रहण की और वि० सं० १४२० में सूरि पद प्राप्त किया१९। इनके उपदेश से बड़ी संख्या में प्राचीन ग्रन्थों की प्रतिलिपियां करायी गयीं, जिनमें से अनेक आज भी उपलब्ध हैं २०। इनके द्वारा प्रतिष्ठापित कुछ जिन प्रतिमायें भी प्राप्त हुई हैं, जो वि० सं० १४४७ से १४६८ तक की हैं। इनका विवरण इस प्रकार है: क्रमांक वि० सं० तिथि
प्राप्तिस्थान
संदर्भग्रन्थ १. १४४७ फाल्गुन सुदि ८
दादा पार्श्वनाथदेरासर, मुनि बुद्धिसाग़र, संपा०, सोमवार
नरसिंहजी की पोल, जैनधातुप्रतिमालेखसंग्रह, भाग २, बड़ोदरा
लेखांक १४६
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________________
२.
१४५८
फाल्गुन सुदि २ बुधवार
१४६१
श्रावण सुदि ११ गुरुवार
१४६५
ज्येष्ठ वदि ११
१४६६
श्रावण सुदि १०
१४६६
तिथिविहीन
जैन विद्या के आयाम खण्ड-७ अनुपूर्ति लेख, आबू मुनिजयन्तविजय, संपा०,
अर्बुप्राचीनजैनलेखसंदोह,
लेखांक ६०७. बड़ा मंदिर,
विनयसागर, संपा० नागौर
प्रतिष्ठालेखसंग्रह, लेखांक १८४. आदिनाथ जिनालय, वही, लेखांक १९१. मालपुरा आदिनाथ जिनालय, मुनि बुद्धिसागर, पूर्वोक्त, भाग १, खेरालु
लेखांक ७६१. चिन्तामणिजिनालय अगरचंद भंवरलाल नाहटा, बीकानेर
संपा०, बीकानेरजैनलेखसंग्रह
लेखांक ६३२. चिन्तामणिपार्श्वनाथ नाहटा, पूर्वोक्त, जिनालय, बीकानेर लेखांक ६३४.
वही, लेखांक ६३५. जगवल्लभ पार्श्वनाथ मुनि बुद्धिसागर, पूर्वोक्त, देरासर, नीशापोल, भाग १, लेखांक १२०१ अहमदाबाद दादापार्श्वनाथ देरासर, वही, भाग २, नरसिंह जी की पोल, लेखांक १२० बडोदरा माधवलालबाबू का देरासर, विजयधर्मसूरि, संपा०, पालिताना
प्राचीनलेखसंग्रह, लेखांक १०८.
७.
१४६७
वैशाख सुदि ७
वही
१४६८ १४६९
तिथिविहीन फाल्गुन सुदि ३
९.
१०.
१४६९ तिथिविहीन
११.
१४६...२ तिथिविहीन
देवसुन्दरसूरि के शिष्यों में ज्ञानसागरसूरि, कुलमण्डनसूरि, गुणरत्न, साधुरत्न, सोमसुन्दरसूरि, साधुराजगणि, क्षेमरसूरि आदि का नाम मिलता है।
ज्ञानसागरसूरि द्वारा रचित कई कृतियां मिलती२१ हैं, जो इस प्रकार हैं:
१. उत्तराध्ययनअवचूरि वि०सं० १४४१ २. आवश्यकसूत्र पर अवचूरि वि०सं० १४४० ३. ओधनियुक्ति पर अवचूरि ४. मुनिसुव्रतस्तवन ५. धनौधनवखंडपार्श्वनाथस्तवन ६. शास्वतचैत्यवन्दन आदि कुलमंडनसूरि द्वारा रचित कृतियां २२ इस प्रकार हैं: १. विचारामृतसंग्रह वि०सं० १४४३
२. प्रवचनपाक्षिक रूप अधिकार वाला सिद्धान्तालापकाद्धार
प्रज्ञापनाअवचूर्णि प्रतिक्रमणसूत्रअवचूरि कल्पसूत्रअवचूरि कायस्थितिस्तोत्र पर अवचूरि अष्टादशचक्रबन्धस्तवन
हारबंधस्तवन ९. काकबंधचौपाई आदि
देवसुन्दरसूरि के तीसरे शिष्य गुणरत्न भी अपने समय के प्रसिद्ध रचनाकार थे। उनके द्वारा रचित कृतियां२२अ निम्नानुसार हैं:
१. कल्पान्तर्वाच्य वि० सं० १४५७. २. सप्ततिका पर देवेन्द्रसूरि की टीका के आधार पर
अवचूर्णि वि० सं० १४५९
..
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________________
टीका
2
tic orn
तपागच्छ का इतिहास
२०७ ३. देवेन्द्रसूरि कृत कर्मग्रन्थों पर अवचूरि में हुआ था। इनके पिता का नाम सज्जन और माता का नाम माल्हण ४. पयन्नाप्रकीर्णक पर अवचूरि
था। वि० सं० १४३७ में सात वर्ष की आयु में इन्होंने जयानंदसूरि ५ सोमतिलकसूरिविरचित क्षेत्रसमास पर अवचूरि के पास दीक्षा ग्रहण की और सोमसुन्दर नाम प्राप्त किया। वि०सं० ६. नवतत्त्वअवचूरि
१४५० में पाटण में इन्हें वाचक पद मिला और वि०सं० १४५७ ७. अंचलमतनिराकरण
में पाटण में ही देवसुन्दरसूरि द्वारा आचार्य पद प्राप्त हुआ। मुनिसुन्दरसूरि ८. ओधनियुक्तिउद्धार
कृत गर्वावली३० (रचनाकाल वि०सं० १४६६); चारित्ररत्नगणिकृत ९. क्रियारत्नसमुच्चय
चित्रकूटमहावीरप्रासादप्रशस्ति३१ (रचनाकाल वि० सं० १४९५); १०. घट्दर्शनसमुच्चय पर तत्त्वरहस्यदीपिका नामक प्रतिष्ठासोमकृत सोमसौभाग्यकाव्य३२ (रचनाकाल वि०सं०१५३४)
सोमचरित्रगणिकृत गुरुगुणरत्नाकर३३ (रचनाकाल वि० सं० १५४१) ११. कत्याणमंदिरस्तोत्रटीका
आदि ग्रन्थों से इनके जीवन के विषय में विस्तृत जानकारी प्राप्त होती १२. सत्तरियाअवचूरि वि०सं० १४५९ के लगभग १३. आतुरप्रत्याख्यानअवचूरि
आचार्य सोमसुन्दरसूरि द्वारा रचित कृतियां ३४ इस प्रकार १४. चतुःशरणअवचूरि १५. संथारकअवचूरि
आराधनारास १६. भक्तपरिज्ञा अवचूरि
उपदेशमालाबालावबोध (रचनाकाल वि०सं० १४८५) वि०सं० १४६९ के दो प्रतिमा लेखों में प्रतिमाप्रतिष्ठापक ३. षष्ठिशतकबालावबोध (रचनाकाल वि०सं० १४९६) के रूप में भी इनका नाम मिलता २३ है।
४. योगशास्त्रबालावबोध देवसुन्दरसूरि के चौथे शिष्य साधरत्न ने १४५६ में ५. भक्तामरस्तोत्रबालावबोध यतिजीतकल्प पर वृत्ति की रचना की२४। इसी काल के आस- ६. आराधनापताकाबालावबोध पास इनके द्वारा रचित नवतत्त्वअवचूरि२५ नामक कृति भी प्राप्त ७. षडावश्यकबालावबोध होती है।
नवतत्त्वबालावबोध (रचनाकाल वि०सं० १५०३) उन्ही के ही पांचवें शिष्य सोमसुन्दरसूरि अपने समय के ९. अष्टादशस्तवी (रचनाकाल वि०सं० १४९० के आसपास) सर्वश्रेष्ठ रचनाकार थे। इनके सम्बन्ध में आगे विस्तार से विवरण दिया १०. आतुरप्रत्याख्यानटीका गया है।
११. आवश्यकनियुक्तिअवचूरि छठे शिष्य साधुराजगणि द्वारा वि०सं०१४७० के लगभग १२. इलादुर्गऋषभजिनस्तवन साधारणजिनस्तुति की वृत्ति२६ के साथ रचना की गयी। श्री हरिदामोदर १३. चैत्रवन्दनसूत्रभाष्यटीका वेलणकर ने उक्त वृत्ति के रचनाकार का नाम श्रुतसागर बताया है २५, १४. जिनकल्याणकादिस्तवन जो कापडिया के अनुसार भ्रांति हैं।
१५. जिनभवस्तोत्र सातवें शिष्य क्षेमंकर गणि द्वारा रचित सिंहासनबत्तीसी२९ १६. पार्श्वस्तोत्र (रचनाकाल वि०सं० १४५० के आसपास) नामक कृति मिलती है। १७ श्राद्धजीतकल्पवृत्ति सोमसुन्दरसूरि
१८. षटभाषामयस्तव तपागच्छ के प्रमुख नायकों में सोमसुन्दरसूरि का विशिष्ट स्थान १९. सप्ततिकासूत्रचूर्णि है। इनका जन्म वि०सं० १४३० में प्रह्लादनपुर (वर्तमान पालनपुर) २०. साधुसामाचारीकुलक
८.
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________________
जैन विद्या के आयाम खण्ड- ७
सोमसुन्दरसूरि द्वारा वि०सं० १४७० से वि०सं० १४९९ के मध्य तक प्रतिष्ठापित बड़ी संख्या में जिन प्रतिमायें प्राप्त हुई है। इनका संक्षिप्त विवरण इस प्रकार है
क्रमांक प्रतिष्ठापना तिथि / मिति
प्रतिष्ठास्थान
संदर्भ ग्रन्थ
जैन देरासर,
त्रापज, काठियावाड़
प्राचीनलेखसंग्रह, लेखांक २०९. प्रतिष्ठालेखसंग्रह,
मुनिसुव्रतजिनालय
लेखांक २०२.
मालपुरा
सुमतिनाथ मुख्य बावन,
जैनधातु प्रतिमालेखसंग्रह, भाग २, लेखांक ५००
जिनालय, मातर
२०८
१.
२.
३.
४.
५.
६.
७.
८.
९.
१०.
११.
१२.
१३.
१४.
१५.
१६.
१७.
१८.
संवत्
१४७०
१४७०
१४७१
१४७२
१४७३
१४७३
१४७४
१४७४
१४७४
१४७४
१४७५
१४७५
१४७६
१४७७
१४७७
१४७७
१४७८
१४७९
वैशाख सुदि २ शुक्रवार
ज्येष्ठ सुदि ५
माघ सुदि ७
तिथिविहीन
वैशाख वदि ८
मार्गशीर्ष सुदि ६ शुक्रवार
ज्येष्ठ वदि ११ रविवार
मार्गशीर्ष सुदि ८ सोमवार
फाल्गुन सुदि ८
फाल्गुन सुदि
ज्येष्ठ वदि ११ रविवार
वैशाख वदि १ शनिवार
चैत्र सुदि ५ सोमवार
मार्गशीर्ष वदि ३
मार्गशीर्ष वदि ४
माघ सुदि ९
माघ वदि ४
श्रेयांसनाथ देरासर,
फताशाह की पोल,
अहमदाबाद
आदिनाथजिनालय,
सिरोही
अनुपूर्तिलेख, आबू,
कुन्थुनाथ जिना०, मांडवीपोल, खंभात
चिन्तामणिजी का मंदिर बीकानेर
वहीं
नेमिनाथ जिना०, वीसनगर,
खरतरगच्छीय बड़ा मंदिर, तूलपट्टी, कलकत्ता
घर देरासर,
कलकत्ता
चिन्तामणिजी का मंदिर, बीकानेरलेखांक ६८०.
वहीं
वहीं
अनुपूर्तिलेख, आबू
वहीं
कन्थुनाथदेरासर,
वही, भाग १, लेखांक १३६०,
प्रतिष्ठालेखसंग्रह,
लेखांक २०९.
अर्बुदप्राचीन जैनलेखसंदोह, लेखांक ६११.
जैनधातुप्रतिमालेखसंग्रह, भाग२ लेखांक ६४४, बीकानेरजैनलेखसंग्रह, लेखांक ६७३. वही, लेखांक ६७४.
जैनधातुप्रतिमालेखसंग्रह, भाग१, लेखांक ५२१. जैनधातुप्रतिमालेख, लेखांक ७३. जैनलेखसंग्रह, भाग १, लेखांक १३१.
बीकानेर जैनलेखसंग्रह,
वही लेखांक ६८६.
वही, लेखांक ६८८.
अर्बुदप्राचीन, लेखांक ६१५.
वही, लेखांक ६१७.
जैनधातुप्रतिमालेखसंग्रह,
Page #248
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________________
१९.
२०.
२१.
२२.
२३.
२४.
२५.
२६.
२७.
२८.
२९.
३०.
३१.
३२.
३३.
३४.
३५.
१४७९
१४८०
३८.
१४८०
१४८१
१४८१
१४८१
१४८१
१४८१
१४८१
१४८२
१४८२
१४८२
१४८२
१४८३
१४८३
१४८३
१४८४
३६. १४८४
३७.
१४८४
१४८४.
माघ सुदि ७
ज्येष्ठ सुदि ५
तिथिविहीन
वैशाख सुदि ३
माघ सुदि १०
"
"
फाल्गुन सुदि ३
तिथिविहीन
फाल्गुन सुदि १५
तिथिविहीन
मार्गशीर्ष वदि ७
माघ सुदि १० बुधवार
तिथिविहीन
वैशाख सुदि ३
तपागच्छ का इतिहास
बडनगर
तिथिविहीन
संभवनाथदेरासर, मीयागाम
नेमिनाथ जिना०, मेहताजी की पोल,
बडोदरा
फाल्गुन सुदि ३
शांतिनाथ जिना०, दादाबाडी, लस्कर, ग्वालियर
फाल्गुन सुदि ३ शनिवार चिन्तामणिजी का मंदिर,
बीकानेर माणिकसागर जी का मंदिर,
श्रेयांसनाथ जिना,
फताशाह की पोल, अहमदाबाद
चिन्तामणिजी का मंदिर,
बीकानेर
वहीं
पार्श्वनाथ जिना०, ईडर
डीपार्श्वनाथ जिना०,
अजमेर
शांतिनाथ जिना०, वीरमगाम
जैन देरासर, सौदागरपोल,
अहमदाबाद
अनुपूर्तिलेख, आबू
चौमुखजी देरासर, इंडर
शांतिनाथ जिना०, देशनोंक
शांतिनाथ जिना०, शांतिनाथपोल,
अहमदाबाद
चौमुखी देरासर, ईडर
कल्याणपार्श्वनाथ देरासर,
वीसनगर
आदिनाथ चैत्य, धराद
कोटा
भाग १,
लेखांक ५७२.
वहीं, भाग २, लेखांक २८६.
वही, भाग२. लेखांक १७९.
बीकानेर जैन....... लेखांक ७०२.
वही लेखांक ७०६. जैनधातुप्रतिमा..... लेखांक १४८२.
.भाग १,
जैनलेखसंग्रह, भाग १,
लेखांक ५४६.
प्रतिष्ठालेखसंग्रह, लेखांक १२५.
जैनधातु....... भाग १, लेखांक ७८९.
अर्बुदप्राचीन जैन......... लेखांक ६१९.
जैनलेखसंग्रह, भाग२. लेखांक १४२१.
२०९
श्रीप्रतिमालेखसंग्रह, लेखांक १६९.
बीकानेरजैनलेख -, लेखांक ७२०.
प्रतिष्ठालेखसंग्रह, लेखांक २३७.
जैनधातुप्रतिमा....... भाग १, लेखांक १३७६. बीकानेरजैन.......
*******
लेखांक १८७२. जैनधातुप्रतिमा.... भाग १, लेखांक १४२६. बीकानेरजैन......, लेखांक २२३५. जैनधातुप्रतिमा......, भाग १, लेखांक १२९८.
वही भाग १, लेखांक ५६४. यही भाग १. लेखांक ५३३
Page #249
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________________
जैन विद्या के आयाम खण्ड-७ बावनजिनालय, उदयपुर
३९.
१४८४
जैनलेखसंग्रह, भाग२, लेखांक १९८०. वही, भाग१, लेखांक ८३६
४०.
१४८५.
आदिनाथ जिना०, नाडोल
वैशाख सुदि ३ बुधवार वैशाख सुदि ३
४१.
१४८५.
बावनजिना०, उदयपुर
वही, भागर, लेखांक १९७२
एवं
४२. १४८५
४४.
१४८५
४६.
१४८५
४७.
१४८५
४८.
१४८५
४९.
१४८५
प्रतिष्ठालेखसंग्रह,
लेखांक १३२. वैशाख सुदि ३ बुधवार पदाप्रभ जिलालय, नाडोल प्राचीनजैनलेखसंग्रह, भाग२,
लेखांक ३६८. ज्येष्ठ सुदि १३ आदिनाथ जिनालय, सांडेसर जैनधातुप्रतिमा......, भाग १,
लेखांक ४७७. ज्येष्ठ सुदि १३ पार्श्वनाथ जिनालय, करेडा प्राचीनजैनलेखसंग्रह, भाग २,
लेखांक १३४. माघ सुदि १० शनिवार विमलनाथ जिनालय, संघवीपाड़ा जैनधातुप्रतिमा......, भाग २, खंभात
लेखांक ७८६. तिथिविहीन आदिनाथ जिना०, देलवाडा जैनलेखसंग्रह, भाग२,
लेखांक २०१७. वीर जिना०, रीजरोड, अहमदाबाद जैनधातुप्रतिमा......, भाग१,
लेखांक ९८२. विमलवसही, आबू
आबंदप्राचीन-, लेखांक १६. कुन्थुनाथ जिना०, रांगडी बीकानेरजैनलेखसंग्रह, चौक, बीकानेर
लेखांक १६९६. वैशाख सुदि १० चिन्तामणिजी का मंदिर, बीकानेर __ वही, लेखांक ७३०. शांतिनाथ जिना०, छाणी, बडोदरा जैनधातुप्रतिमा......,भाग२,
लेखांक २६३. चन्द्रप्रभजिना०, सुल्तानपुरा, बडोदरा वही, भाग२, लेखांक १९२. माघ सुदि ४ शनिवार जैनमंदिर, ऊंझा
वही, भाग२, लेखांक २०२. तिथिविहीन
वही, भाग १, लेखांक १५०. शांतिनाथ जिना०,
वही, भाग२, चौकसीपोल, खंभात
लेखांक ८४८. मार्गशीर्ष सुदि ५ वीर जिनालय, झवेरीवाड, वही, भाग१, लेखांक ८४५.
अहमदाबाद
मनमोहनपार्श्वनाथ जिना०, बडोदरा वही, भाग२, लेखांक ८८. पौष सुदि ५ मुनिसुव्रत जिना०, मालपुरा प्रतिष्ठालेखसंग्रह, लेखांक २६८. माघ सुदि ७
चौमुखजी देरासर, अहमदाबाद जैनधातुप्रतिमा......, भाग१,
५०. ५१.
१४८६ १४८६
५३.
१४८६. १४८६ १४८६ १४८६
५५.
५६.
१४८७
५७. १४८७ ५८. १४८७ ५९. . १४८७
Page #250
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________________
६०.
६१.
६२.
६३.
६४.
६५.
६६.
६७
६८.
६९.
७०.
७१.
७२.
७३.
७४.
७५.
७६.
७७.
७८.
७९.
८०.
८१.
१४८७
१४८८
१४८८
१४८८
१४८८
१४८८
१४८८
१४८८
१४८८
१४८८
१४८८
१४८८
१४८८
१४८९
१४८९
१४८९
१४८९
१९८९
१४८९
१४८९
१४८९
१४८९
माघ - १
वैशाख सुदि ६
वैशाख सुदि ७ शनिवार
वैशाख... १
ज्येष्ठ वदि ४ शनिवार
ज्येष्ठ सुदि ५ शनिवार
कार्तिक सुदि २ सोमवार
मार्गशीर्ष वदि २
मार्गशीर्ष वदि ५ गुरुवार
फाल्गुन सुदि ८
13
मितिविहीन
ज्येष्ठवदि १० शुक्रवार
ज्येष्ठ वदि ११
आषाढ वदि १०
आषाढ़ सुदि ५
ज्येष्ठ यदि ११
आषाढ सुदि ८
तिथिविहीन
तपागच्छ का इतिहास
लेखांक १४०.
जैनमंदिर, साहूकारपेठ, मद्रास
जैनलेखसंग्रह, भागर, लेखांक २०७५.
शांतिनाथ जिना०, कनासानो पाडो, जैनधातुप्रतिमा...... भाग १, लेखांक ३१३.
पाटण
आदिनाथ जिना० गागरडू
मनमोहनपार्श्वनाथजिना०, बडोदरा
शांतिनाथ जना०, माणेक चौक,
खंभात
संभवनाथ जिनालय, मीयागाम मुनिसुव्रत जिनालय, भरुच वीर जिनालय, रीजरोड, अहमदाबाद आदिनाथ जिना० बासा
लेखांक ५३१.
भीलडिया तीर्थ
बावन जिनालय, उदयपुर
आदिनाथ जिना० माणेक चौक, खंभात
मुनिसुव्रत जिना०, मालपुरा अजितनाथ देरासर, सुतार की खडकी, अहमदाबाद
शीतलनाथ जिना०, उदयपुर अजितनाथ जिना० हणाद्रा लेखांक १९९.
अजितनाथ जिनालय, तारंगा
शीतलनाथ जिनालय, उदयपुर आदिनाथ जिनालय, बेजलपुरा,
भरुच
शीतलनाथ जिनालय, उदयपुर दादापार्श्वनाथ देरासर, नरसिंहजी की पोल, बडोदरा
शीतलनाथ जिनालय, उदयपुर
प्रतिष्ठालेखसंग्रह, लेखांक २७०
जैनधातुप्रतिमा..., भाग २, लेखांक ८६.
वही, भाग २,
लेखांक ९९३.
वही भाग २ लेखांक २८५.
लेखांक ३२८.
वही, भाग२, वही भाग १, लेखांक ९५२.
लेखांक ५३१ एवं अर्बुदाचलप्रदक्षिणाजैनलेखसंदोह,
२११
जैनप्रतिमालेखसंग्रह, लेखांक ३७३.
जैनलेखसंग्रह, भाग २, लेखांक १९८३.
जैनधातुप्रतिमा...... भाग २, लेखांक १०२०.
प्रतिष्ठालेखसंग्रह, लेखांक २७३.
जैनधातुप्रतिमा...... भाग १, लेखांक १३३६.
प्राचीनलेखसंग्रह, लेखांक १४७. अर्बुदाचलप्रदक्षिणाजैनलेखसंदोह,
जैनलेखसंग्रह, भाग २, लेखांक १७३१. वही, भाग२. लेखांक १०२९.
जैनधातुप्रतिमा....., भाग २, लेखांक ३६१. जैनलेखसंग्रह, भाग २, जैनधातुप्रतिमा......, भाग २, लेखांक १३५.
प्राचीनलेखसंग्रह, लेखांक १४८.
लेखांक १०६७.
Page #251
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________________
८२.
१४९०
जैन विद्या के आयाम खण्ड-७ वैशाख वदि ७
सुविधिनाथ जिनालय,
शेरडीवाला की पोल, खंभात वैशाख सुदि ३ शांतिनाथ जिनालय, राधनपुर मार्गशीर्ष वदि ५ सोमवार संभवनाथ देरासर, पादरा
८३.
१४९० १४९०
जैनधातुप्रतिमासंग्रह, भागर, लेखांक ६५९. प्राचीनलेखसंग्रह, लेखांक १४९. जैनधातुप्रतिमा......, भाग२, लेखांक १२. वही, भाग१, लेखांक १०५५.
१४९०
फाल्गुन सुदि ११
पार्श्वनाथ देरासर, देवसानो पाडो अहमदाबाद शीतलनाथ जिनालय, उदयपुर सुमतिनाथ जिनालय, जयपुर
८६. ८७.
१४९१ १४९१
वैशाख सुदि ६ गुरुवार आषाढ वदि ७
८८. १४९१
आषाढ सुदि २
चिन्तामणिजी का मंदिर, बीकानेर
८९. १४९१
आषाढ-१३
चौमुखजी देरासर, ईडर
९०. १४९१ ९१. १४९१
माघ सुदि ५ फाल्गुन वदि ५
मुनिसुव्रत जिना०, मालपुरा चिन्तामणिपार्श्वनाथ जिनालय, चौकसीपोल, खंभात वीरजिनालय, रीजरोड, अहमदाबाद शीतलनाथ जिना०, उदयपुर
९२. १४९२ ९३. १४९२
वैशाख सुदि २ ज्येष्ठ वदि ११
प्राचीनलेखसंग्रह, लेखांक १५५. प्रतिष्ठालेखसंग्रह, लेखांक २८३. एवं . जैनलेखसंग्रह, भाग२, लेखांक ११८१. बीकानेरजैनलेखसंग्रह, लेखांक ७५२-५४. जैनधातु......,भाग१, लेखांक १४१९. प्रतिष्ठालेखसंग्रह, लेखांक २८४.
जैनधातुप्रतिमा......, भाग२, लेखांक ८१३. वही, भाग१, लेखांक ९४६. जैनलेखसंग्रह, भाग२ लेखांक १०७६. बीकानेरजैन......, लेखांक १२१८. वही, लेखांक १३२६. जैनधातुप्रतिमालेख, संपा० कांतिसागर, लेखांक ६९. जैनधातुप्रतिमालेखसंग्रह, भाग१, लेखांक ७४९. बीकानेरजैनलेख......, लेखांक १३२५. श्रीप्रतिमालेखसंग्रह, लेखांक १६३. प्रतिष्ठालेखसंग्रह, लेखांक ३०२. वही, लेखांक ३०७. जैनलेखसंग्रह, भागर, लेखांक १९६८.
९४. १४९२
ज्येष्ठ सुदि ११
९५. १४९३ ९६. १४९३
वीरजिनालय, वैदों का चौक, बीकानेर वहीं अनन्तनाथ जिना०, काथाबाजार
वैशाख सुदि ३ ज्येष्ठ वदि १२ शनिवार
९७.
१४९३
तिथिविहीन
आदिनाथ जिनालय, खेरालु
९८.
१४९३
तिथिनष्ट
९९. १४९३ १००. १४९४ १०१. १४९४ १०२. १४९४
महावीर जिनालय, वैदों का चौक, आदिनाथ चैत्य, थराद अजितनाथ जिनालय, सिरोही पार्श्वनाथ जिनालय, मेडतारोड बावन जिनालय, उदयपुर
माघ सुदि ५ तिथिविहीन फाल्गुन वदि ५
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१०३. १४९४
तिथिविहीन
१०४. १४९४ १०५. १४९४
१०६. १४९४ १०७. १४९५
ज्येष्ठ वदि६
१०८. १४९५
ज्येष्ठ वदि १४
१०९. १४९५
ज्येष्ठ सुदि १३
मतासिटा
११०. १४९५
ज्येष्ठ सुदि १४
वैशाख सुदि १३ माघ सुदि ५
१११. १४९६ ११२. १४९६ ११३ १४९६. ११४. १४९६ ११५ १४९६
तपागच्छ का इतिहास चिन्तामणिजी का मंदिर, बीकानेर बीकानेरजैनलेखसंग्रह,
लेखांक ७७२-७७३. जैन मंदिर, पाटडी
प्राचीनलेखसंग्रह, लेखांक १६६. कुन्थुनाथ जिनालय, बडनगर जैनधातुप्रतिमा......, भाग१,
लेखांक ५६९. बावन जिनालय, उदयपुर जैनलेखसंग्रह, भाग२, लेखांक ५६९. जैनमंदिर, चवेली
जैनधातुप्रतिमा....., भाग २,
लेखांक १९७१. पार्श्वनाथ जिना०,
बीकानेरजैन....., नाहटों की गुवाड़, बीकानेर लेखांक १५०२. उपकेशगच्छीय शांतिनाथ जिनालय, प्रतिष्ठालेखसंग्रह, लेखांक ३१०. मेड़तासिटी चिन्तामणिजी का मंदिर, बीकानेर बीकानेरजैन.....,
लेखांक ७८३, ७८५. शांतिनाथ देरासर, अहमदाबाद जैनधातु....., भाग१, लेखांक ११३२. आदिनाथ जिनालय, खेरालु वही, भाग १, लेखांक ७६२. वीरजिनालय, रीजरोड, अहमदाबाद जैनधातु....., लेखांक ९६७. चिन्तामणिजी का मंदिर, बीकानेर बीकानेरजैनलेखसंग्रह, लेखांक ७८६. जैनमंदिर, राणकपुर
प्राचीनजैनलेखसंग्रह, भागर,
लेखांक ३०७. शांतिनाथ जिनालय, रतलाम प्रतिष्ठालेखसंग्रह, लेखांक ३१६. अनुपूर्ति लेख, आबू
अर्बुदप्राचीन....., लेखांक ६२९. अजितनाथ जिनलाय, सिरोही प्रतिष्ठालेखसंग्रह, लेखांक ३२४. त्रैलो दीपक प्रासाद, राणकपुर जैनलेखसंग्रह, भाग१, लेखांक ७००. पंचायती मंदिर, जयपुर
प्रतिष्ठालेखसंग्रह, लेखांक ३१७. केशरियानाथ मंदिर, भैसरोडगढ़ वही, लेखांक ३२३. वीरजिनालय,रीजरोड, अहमदाबाद जैनधातुप्रतिमा....., भाग१,
लेखांक ९७०. अनुपूर्तिलेख, आबू
अर्बुदप्राचीन....., लेखांक ६३०. गौडीपार्श्वनाथ जिना०, अजमेर जैनलेखसंग्रह, भाग१, लेखांक ५५३. संभवनाथ जिनालय, अजमेर प्रतिष्ठालेखसंग्रह, लेखांक ३२९. जैनमंदिर, ऊंझा
जैनधातुप्रतिमा....., भाग१, लेखांक १६५.
'तिथिविहीन
११६ १४९६ ११७. १४९६ ११८. १४९७ ११९. १४९६ १२० १४९७. १२१. १४९७ १२२. १४९७
चैत्र सुदिमाघ सुदि ४ सोमवार माघ सुदि १३
१२३. १४९९ १२४. १४९९ १२५. १४९९ १२६. १४९९
मार्गशीर्ष सुदि २ माघ सुदि ५ माघ सुदि ५ माघ सुदि ६ सोमवार
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२१४
जैन विद्या के आयाम खण्ड-७ सोमसन्दरसरि के विशाल शिष्य परिवार में कई प्रसिद्ध विद्वान् रचना की। और प्रभावक आचार्य हुए हैं। इनका संक्षिप्त विवरण इस प्रकार है: सोमसुन्दरसूरि के एक अन्य शिष्य जिनकीर्तिसूरि हए जिनके १. मुनिसुन्दरसूरि
द्वारा रची गयी विभिन्न कृतियां४२ मिलती हैं जो इस प्रकार हैंसोमसुन्दरसूरि के प्रथम शिष्य और पट्टधर मुनिचन्द्रसूरि अपने १. नमस्कारस्तवन पर स्वोपज्ञवृत्ति (रचनाकाल वि०सं० युग के प्रख्यात् आचार्यों में एक थे। वि० सं० १४२६ अथवा वि०सं० १४९४) २. उत्तमकुमारचरित्र ३. शीलगोपालकथा ४. १४३६ में इनका जन्म हुआ। वि०सं० १४४३ में इन्होंने दीक्षा ग्रहण चम्पक श्रेष्ठिकथा ५. पंचजिनस्तवन ६. धन्यकुमारचरित्र (रचनाकाल की, वि० सं०१४६६ में इन्हें वाचक पद प्राप्त हुआ। वि० सं० १४७८ वि० सं०१४९७) ७. दानकल्पद्रुम ८. श्राद्धगुणसंग्रह में सोमसुन्दरसूरि ने इन्हें सूरि पद प्रदान किया और वि०सं० १५०३ तपागच्छ के ५२ वें पट्टधर रत्नशेखरसूरि भी सोमसुन्दरसूरि में इनकी मृत्यु हुई३५। इनके सम्बन्ध में आगे विस्तृत विवरण प्रस्तुत के ही शिष्य थे। किया जा रहा है।
सोमसुन्दरसूरि के अन्य शिष्यों में सोमदेवसूरि, सुधानंदनसूरि,
जिनमंडनगणि, रत्नहंसगणि, विवेकसमुद्र, प्रतिष्ठासोम आदि का नाम २. भावसुन्दर
मिलता है।४३ इन्होंने उज्जैन में 'पानविहारमंडनमहावीरस्तवन ६' की रचना की। इनके बारे में विस्तृत विवरण उपलब्ध नहीं है। मुनिसुन्दरसूरि
तपागच्छीय आचार्य सोमसन्दरसूरि के प्रतिभा सम्पन्न पट्टधर ३. भुवनसुन्दरसूरि
और शिष्य मनिन्दिरसुरि के प्रारम्भिक जीवन के बारे में कोई जानकारी इनके द्वारा रचित कृतियाँ३७ इस प्रकार हैं
नहीं मिलती। पट्टावलियों के अनुसार वि०सं० १४२६ या १४३६ १. परब्रह्मोवोत्थापन स्थलवाद २. महाविद्याविडंबनवृत्ति में इनका जन्म हुआ, वि० सं० १४४३ में इन्होंने दीक्षा ग्रहण की और ३. महाविद्याविडंबनटिप्पणविवरण ४. लघुमहाविद्याविडंवन ५. वि० सं० १४६६ में वाचक पद प्राप्त किया। वि० सं० १४७८ में व्याख्यान
वडनगर में इन्हें आचार्य पद प्राप्त हुआ और वि० सं० १५०३ में इनका
निधन हुआ४। इनके द्वारा रचित कृतियां४५ इस प्रकार है: जयचन्द्रसूरि
१. विद्यगोष्ठी (वि०सं० १४५५/ई० स०१३९८-९९) इनके द्वारा रचित प्रत्याख्यानस्थानविवरण, समयकत्त्वकौमुदी २. अध्यात्मकल्पद्रुम अपरनाम शांतसुधारस वि०सं० १४५५/ और प्रतिक्रमणविधि नामक कृतियां३८ प्राप्त हुई हैं। इनके द्वारा ई०स० १३९८-९९) प्रतिष्ठापित जिनप्रतिमायें भी पर्याप्त संख्या में प्राप्त हुई हैं जो ३. त्रिदशतरंगिणी (वि० सं०१४६६/ई०स०१४०६) यह वि० सं०१४९६ से १५०६ तक की हैं। इनका संक्षिप्त विवरण इस महाविज्ञप्ति पत्र मुनिसुन्दरसूरि ने देवसुन्दरसूरि के पास भेजा प्रकार है
था। १०८ हाथ लम्बे इस विज्ञप्ति पत्र का केवल गुर्वावली वाला वि० सं० १४९६ १ प्रतिमा लेख
अंश ही आज प्राप्त हो सका है। वि० सं० १५०० १ प्रतिमा लेख
चतुर्विंशतिस्तोत्ररत्नकोश वि० सं० १५०२ ५ प्रतिमा लेख
जयानन्दचरित (वि० सं० १४८३/ई०स० १४२७) वि०सं० १५०३ १७ प्रतिमा लेख
मित्रचतुष्ककथा (वि०सं०) १४८४/ई० स० १४२८) वि० सं० १५०४ ९ प्रतिमा लेख
उपदेशरत्नाकरस्वोपज्ञवृत्ति के साथ (वि० सं० १४९३/ वि० सं० १५०५ १७ प्रतिमा लेख
ई०स० १४३७) वि० सं० १५०६ १ प्रतिमा लेख
८. संतिकरथोत्त (शांतिकरस्तोत्र) (वि० सं० १४९३ अथवा जयचन्द्रसूरि के शिष्य जिनहर्षगणि हए जिनके द्वारा रचित १५०३) वस्तु पालचरित (वि० सं०१४९७), रयणसेहरीकहा, ९. सीमंधरस्तुति विंशतिस्थानप्रकरण, (विचारामृतसंग्रह), प्रतिक्रमणविधि (वि०सं० १०. पाक्षिकसत्तरी १५२५), आरामशोभाचरित्र, अनर्घराघववृत्ति, अष्टभाषामय ११. योगशास्त्र के चतुर्थ प्रकाश पर बालावबोध सीमंधरजिनस्तवन आदि कृतियां मिलती हैं३९।
इसके अलावा इनके द्वारा रचित कुछ स्तवन४६ भी मिलते जिनहर्षगणि की शिष्यसंतति में साधुविजय, शुभवर्धन आदि हैं जो इस प्रकार हैं: मुनि हुए।
१. चतुर्विंशतिजिनकल्याणकस्तवन दीपमालिकाकल्प (रचनाकाल वि०सं०१४८३) के २. जीरापल्लीपार्श्वनाथस्तवन (रचनाकाल वि०सं० १४७३/ रचनाकार जिनसुन्दरसूरि भी सोमसुन्दरसूरि के ही शिष्य थे।
ई०स० १४१७) सोमसुन्दरसूरि के एक शिष्य अमरसुन्दर हुए, जिनके द्वारा ३. शत्रुजयश्रीआदिनाथस्तोत्र (वि० सं० १४७६/ई० स० १४२०) रचित कोई कृति नहीं मिलती किन्तु अमरसुन्दर के शिष्य धीरसुन्दर ४. गिरनारमौलिमण्डनश्रीनेमिनाथस्तवनम् (वि० सं० १४७६/ ने वि० सं० १५०० के लगभग आवश्यकनियुक्ति पर अवचूरि४१ की ई०स० १४२०
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तपागच्छ का इतिहास
२१५ ५. शत्रुजयआदिनाथस्तवन (वि०सं० १४७६/ई०स० १४२०) ९. सीमंधरस्वामिस्तेवनम् (वि०सं० १४८२/ई०स० १४२६) वृद्धनगरस्थआदिनाथस्तवनम्
१०. वर्धमानजिनस्तवनम् सारणदुर्गअजितनाथस्तोत्रम्
११. श्री जिनपतिद्वात्रिंशिका (वि०सं०१४८३/ई०स० १४२७) ८. इलादुर्गालंकारश्रीऋषभदेवस्तवनम
आचार्य मुनिसुन्दरसूरि द्वारा प्रतिष्ठापित कुछ जिन प्रतिमायें भी मिलती हैं, जो वि० सं० १४८९ से १५०१ तक की हैं। इनका विवरण इस प्रकार है: क्रमांक संवत् तिथि
प्रतिष्ठा स्थान
संदर्भ ग्रन्थ १. १४८९ वैशाख सुदि
मनमोहनपार्श्वनाथ जिनालय, जैनधातुप्रतिमालेखसंग्रह, भागर जीरारवाडो, खंभात
लेखांक ७५९ १४९७ वैशाख वदि ४ पार्श्वनाथ देरासर, लाडोल
वही, भाग१, लेखांक ४६५. १४९९ आश्विन सुदि १० सुमतिनाथ मुख्यबावन जिना०, वही, भाग१, लेखांक ४६४.
मातर १४९९ तिथिविहीन
पार्श्वनाथ देरासर, देवसानो पाडो, वही, भाग१, लेखांक १०७५.
अहमदाबाद १५०० वैशाख सुदि ५ गुरुवार शांतिनाथ जिनालय, कनासानोपाडो, वही, भाग१, लेखांक ३१४.
पाटण १५०० वैशाख सुदि ५ श्रीस्वामीजी का मंदिर
जैनलेखसंग्रह, भाग २. रोशन मुहल्ला, आगरा
लेखांक १४६१. ७. १५०० तिथिविहीन
शांतिनाथ जिनालय,
जैनधातु......, भाग१,
शेखनो पाडो, अहमदाबाद लेखांक १०४२. १५०१ वैशाख वदि ५ रविवार शांतिनाथ जिनालय, देशनोंक बीकानेरजैनलेखसंग्रह,
लेखांक २२३६. धैशाख सुदि २ शनिवार बालावसही, शत्रुजय
शत्रुजयवैभव, लेखांक ९०. १०. १५०१
भीड़भंजन पार्श्वनाथ देरासर, जैनधातु......, भागर, खेडा
लेखांक ४५०. १५०१
वैशाख सुदि ३ आदिनाथ जिनालय, पूना प्राचीनलेखसंग्रह, लेखांक १८६. १५०१ ज्येष्ठ सुदि १० त्रैलोक्यदीपक प्रासाद,
जैनलेखसंग्रह, भाग१, राणकपुर
लेखांक ७०४. १५०१
जैनमंदिर, इतवारी बाजार, नागपुर जैनधातुप्रतिमालेख, लेखांक ९६. १५०१
घर देरासर, ऊंझा
जैनधातुप्रतिमलेखसंग्रह, भाग१,
लेखांक २१०. ५. १५०१ ज्येष्ठ सुदि
आदिनाथ जिनालय, वासा अर्बुदाचलप्रदक्षिणा......,
लेखांक ५३३. १५०१ आषाढ सुदि २ संभवनाथ देरासर, झवेरीवाड़, जैनधातु......, भाग१, लेखांक ८१७.
अहमदाबाद १५०१.
चन्द्रप्रभजिना०, सेंडहर्स्टरोड, मुंबई जैनधातुप्रतिमालेख, लेखांक ९४. १५०१ मार्गशीर्ष सुदि १० सुपार्श्वनाथजिनालय, जैसलमेर जैनलेखसंग्रह, भाग१, लेखांक २१८२. १५०१ माघ वदि ५ गुरुवार गौडीपार्श्वनाथ जिनालय, उदयपुर वही, भाग२, लेखांक ११२६.
एवं
प्राचीनलेखसंग्रह, लेखांक, १८०. २०. १५०१ माघ वदि६
चिन्तामणिजी का मंदिर, बीकानेर, बीकानेरजैन......,
लेखांक ८४९-८५०. २२. १५०१ माघ वदि १ बुधवार वही
वही, लेखांक ८५२. २३. १५०१ फाल्गुन वदि ३ बालावसही, शत्रुजय
शत्रुजयवैभव, लेखांक ९२. २४. १५०१ फाल्गुन वदि ५ पार्श्वनाथ जिनालय, नौहर
बीकानेरजैन......,
लेखांक २४७६. २५-२६.१५०१ तिथिविहीन
चिन्तामणिजी का मंदिर, बीकानेर वही, लेखांक ८३७-३८.
१५०१
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२१६
जैन विद्या के आयाम खण्ड-७ शांतिनाथ जिनालय, जावर (उदयपुर) के वि० सं० १४७८ मुनिसुन्दरसूरि के चौथे शिष्य शिवसमुद्रगणि हए। इनके द्वारा पौष दि ५ के प्रशस्तिलेख७ में सोमसुन्दरसूरि, जयचन्द्र, रचित कोई कृति नहीं मिलती और न ही इस सम्बन्ध में कोई उल्लेख भुवनसुन्दर, जिनसुन्दर, जिनकीर्ति, विशालराज, रत्नशेखर, उदयनंदि, ही प्राप्त होता है किन्तु इनके शिष्य हेमविमलगणि द्वारा वि०सं० लक्ष्मीसागर, सत्यशेखरगणि, सूरसुन्दरगणि आदि मुनिजनों के साथ १५१७ में लिखित नेमिनाथचरित्र की एक प्रति पाटण के ग्रन्थभंडार मुनिसुन्दरसूरि का भी नाम मिलता है। ठीक जीरावला स्थित विभिन्न से प्राप्त हुई है ऐसा मुनि चतुरविजय जी ने उल्लेख किया है५५। जिनालयों के देवलिकाओं पर उत्कीर्ण वि०सं० १४८३ वैशाख सदि४८७ और भाद्रपद वदि ७ के कई लेखों के बारे में भी देखी जा संदर्भ सकती है। यहां भी सोमसुन्दरसूरि, जयचन्द्र, भुवनसुन्दर और जिनसुन्दर १. मुनिसुन्दरसूरिकृत गुर्वावलि (रचनाकाल वि० सं० १४६६/ के साथ मुनिसुन्दरसूरि का उल्लेख है। यही बात उक्त तीर्थ पर निर्मित ई०स० १४१०) श्लोक ८०-९६. महावीर जिनालय के देरी क्रमांक ७ पर उत्कीर्ण वि०सं० १४७८ पौष यशोविजय जैनग्रन्थमाला, ग्रन्थांक ४, वीरसम्वत् २४३७, दि २ रविवार के शिलालेखों५० में भी दिखाई देती है।
पृष्ठ ८-१०.
मुनि प्रतिष्ठासोम, सोमसौभाग्यपट्टावली (रचनाकाल वि०सं० शिष्यपरिवार
१५२४/ई०स० १४६८) मुनिदर्शनविजय, संपा०, सोमसुन्दरसूरि के शिष्य रत्नशेखरसूरि और जयचन्द्रसूरि, पट्टावलीसमुच्चय, प्रथम भाग, श्री चारित्र स्मारक ग्रन्थमाला, जिनका पूर्व में परिचय दिया जा चुका है, मुनिसुन्दरसूरि के आज्ञानुवर्ती ग्रन्थांक २२, वीरमगाम १९३३ ई०, पृष्ठ ३५-४०. थे। मुनिसुन्दरसूरि के निधन के पश्चात् रत्नशेखरसूरि उनके पट्टधर बने। धर्मसागरउपाध्याय, "श्रीतपागच्छपट्टावली-स्वोपज्ञ वृत्ति मुनिसुन्दरसूरि के एक शिष्य संघविमल हए, जिन्होंने
सहित” (रचनकाल वि० सं० १६४६/ई०स० १५९०. वि० सं० १५०१/ई०स० १४४५ में सुदर्शनश्रेष्ठीरास५१ की रचना पट्टावलीसमुच्चय, प्रथम भाग, पृष्ठ ५७. की।
कल्याणविजयगणि, पट्टावलीपरागसंग्रह, जालोर १९६६ उनके दूसरे शिष्य हर्षसेन द्वारा रचित कोई कृति नहीं मिलती ई०स०, पृष्ठ १४५-४६ किन्तु हर्षसेन के शिष्य हर्षभूषण द्वारा रचित श्राद्धविधिविनिश्चय मुनि जिनविजय जी द्वारा संपादित विविधगच्छीयपट्टावली(रचनाकाल वि०सं० १४८०/ई०स० १४३४), अंचलमतदलन संग्रह (सिंघी जैन ग्रंथमाला, ग्रन्थांक ५३, मुम्बई १९६१ई०) पर्युषणविचार (रचनाकाल वि०सं० १४८६/ई०स० १४३०) तथा में भी तपागच्छ और उसकी कुछ शाखाओं की पट्टावलियां वाक्यप्रकाशओक्तिकटीका नामक कृति प्राप्त होती है५२।
प्रकाशित हैं। मुनिसुन्दरसूरि के तीसरे शिष्य विशालराज द्वारा रचित कोई २. तपागच्छ पट्टावली, वृद्धपौषालिक पट्टावली, लघुपौषालिक कृति नहीं मिलती, किन्तु इनके शिष्यों-प्रशिष्यों का विभिन्न रचनाओं अपरनाम हर्षकुलशाखा या सोमशाखा की पट्टावली, के कर्ता एवं प्रतिलिपिकार के रूप में नाम मिलता है५३। इनका संक्षिप्त विजयानंदसूरिशाखा अपरनाम आनंदसूरिशाखा की पट्टावली, विवरण निम्नानुसार है:
तपागच्छ विमलशाखा की पट्टावली, तपागच्छ सागरशाखा १. विवेकसागर
की पट्टावली, तपागच्छ रत्नशाखा अपरनाम राजविजयशाखा इनके द्वारा रचित हरिशब्दगर्भित वीतराणस्तवन नामक कृति की पट्टावली, कमलकलशशाखा की पट्टावली, कुतुबपुराशाखा प्राप्त होती है।
की पट्टावली, तपागच्छ-विमलसंविग्न और विजयसंविग्न २. मेरुरलगणि
शाखा की पट्टावलियां। इनके शिष्य संयममूर्ति का प्रतिलिपिकार के रूप में उल्लेख उक्त सभी पट्टावलियों के लिये द्रष्टव्य-मोहनलाल दलीचन्द मिलता है।
देसाई जैनगूर्जरकविओ, भाग९, संपा० जयन्त कोठरी, ३. कुशलचारित्र
मुम्बई १९९७ ई०, पृष्ठ ४४-११४. इनके शिष्य रंगचारित्र द्वारा वि०सं० १५८९ में लिखी गयी तपागच्छ की विभिन्न पट्टावलियों का सार पट्टावलीपरागसंग्रह क्रियाकलाप की प्रति प्राप्त हुई है।
पृष्ठ १३३-२२८ पर भी दिया गया है। ४. सुधाभूषण
चित्तावालयगच्छिकमंडणं जयइ भुयणचंदगुरू। इनके एक शिष्य जिनसूरि द्वारा रचित गौतमपृच्छावाला० तस्स विणेओ जाओ गुणभवणं देवभवदमणी।। (रचनाकाल वि० सं० १५०५ के आसपास), प्रियंकरनृपकथा, तप्पयभत्ताजगचंद सूरिणो तेसिं दुन्नि वरसीसा। रूपसेनचरित्र आदि कृतियां प्राप्त होती हैं।
सिरिदेविंदमुणींदो तहा विजयचंदसूरिवरो।।४०५०।। सुधाभूषण के दूसरे शिष्य कमलभूषण द्वारा रचित कोई कृति इस सुदरिसणाइ कहानाण- तवच्चरणकारणं परमं। नहीं मिलती किन्तु इनके शिष्य विशालसौभाग्यगणि द्वारा वि० सं० मूलकहाउ फुडत्थाभिहिया देविंदसूरीहिं।। ४०५१।। १५९५ में लिखी गयी कल्पसूत्र की प्रति सिनोर के जैन ज्ञान भंडार परमत्था बहुरयणा दोगच्चहरा सुवन्नलंकारा। में संरक्षित है५४॥
सुनिहि व्व कहा एसा नंदउ वियुहस्सिया सुइरं।।४०५२।।
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तपागच्छ का इतिहास
२१७ सुदर्शनाचरित्र की प्रशस्ति
२३. बुद्धिसागरसूरि, संपा०, जैनधातुप्रतिमालेखसंग्रह, भाग१, C.D. Dalal, Ed. A Descriptive Catalogue of लेखांक १२०१; भाग२, लेखांक १२०. Manuscripts in the.Jamia Bhandarsat Pattan, २४-२५ मुनि चतुरविजय, पूर्वोक्त, भाग२, प्रस्तावना, पृष्ठ ८४. GO.S. No. LXXVI, Baroda 1937A.D.p.p. २६. हीरालाल रसिकलाल कापडिया, जैनसंस्कृतसाहित्यनो 208-209.
___ इतिहास, भाग २, खंड १, पृष्ठ ३७९. धर्मरत्नवृत्ति की प्रशस्ति
२७. H.D. Velankar, Jinarainakosha Poona, 1944 Muni Punya Vijaya: Catalogue of Palm Leaf A.D, P.299 Mss in the Shanti Natha Jaina Bhandar, २८. जैनसंस्कृतसाहित्यना......, पृष्ठ ३७९. Cambay, Vol, II, GO.S. No. 149, Baroda २९. श्री अगरचन्द नाहटा ने इसका रचनाकाल वि० सं०१४७१ 1966 A.D.
के आसपास बतलाया है। श्राद्वदिनकृत्यप्रकरण-स्वोपज्ञवृत्तिसहित की प्रशस्ति
द्रष्टव्य- "विक्रमादित्य विषयक जैन साहित्य"जैनसत्यप्रकाश, Muni Punya Vijaya, Ibid. P. 263-65.
वर्ष ९, अंक ४-६, विक्रमविशेषांक, पृष्ठ १८०-१८८. मुनिसुन्दरकृत गुर्वावली, श्लोक १५१-१६४; १३५- ३०. ___ द्रष्टव्य- संदर्भ क्रमांक १. १३६.
जैनसाहित्यनो......, पृष्ठ ४७०, कंडिका ६८९. तपागच्छीयपट्टावली (धर्मसागर उपा०कृत)
वही, पृष्ठ ४५३ पादटिप्पणी क्रमांक ४४०. पट्टावलीसमुच्चय, भाग१, पृष्ठ ५७-५८.
मुनि चतुरविजय, पूर्वोक्त, भागर, प्रस्तावना, पृष्ठ ८४७-८. वहीं
९३. मुनि चतुरविजय, संपा०, जैनस्तोत्रसंदोह, भाग१, अहमदाबाद ३५. पट्टावलीसमुच्चय, भाग १, पृष्ठ ६६. १९३२ ई० स०, प्रस्तावना, ५५-५६, पृष्ठ त्रिपुटीमहाराज, ३६. मुनि चतुरविजय, पूर्वोक्त, भागर, प्रस्तावना, पृष्ठ ८८. जैनपरम्परानो इतिहास, भाग३, श्री चारित्रस्मारक ग्रंथमाला, ३७. जैनसाहित्यनो......, पृष्ठ ४६५, कंडिका ६७७.
ग्रथांक ५६, अहमदाबाद वि० सं० २०२०, पृष्ठ २८३. ३८. वही, पृष्ठ ४६५, कंडिका ६७६. १०-११.मुनि चतुरविजय, पूर्वोक्त, भाग१, प्रस्तावना, पृष्ठ ३९. मुनि चतुरविजय, पूर्वोक्त, भाग२, प्रस्तावना, पृष्ठ ८८.
P. Peterson Third Report of Operation in Xo. Jinaratnakosha, P-175. Search of Sanskrit Mss in the Bombay Circle, ४१. मुनि चतुरविजय, पूर्वोक्त, भागर, प्रस्तावना, पृष्ठ ९०. Bombay 1893 A.D. No. 312.
वही, पृष्ठ ९१-९३. मोहनलाल दलीचंद देसाई, जैनसाहित्यनो संक्षिप्तइतिहास, ४४. द्रष्टव्य, संदर्भ क्रमांक ३५. मुम्बई १९३३ ई०स०, पृष्ठ ४१७, कंडिका ५१७. ४५. मुनि चतुरविजय, पूवोंक्त, भाग२, प्रस्तावना, पृष्ठ ८९३त्रिपुटीमहाराज, पूर्वोक्त, भाग ३, पृष्ठ ४२७.
९५. जैनसाहित्यनी......, पृष्ठ ४६४-४६५, कंडिका वही, पृष्ठ ४२२.
६७४-६७५. P. Peterson : Fifth Report of operation in ४६. मुनि कांतिसागर, शत्रुजयवैभव, कुशल पुष्प ४, जयपुर Search of Sanskrit Mss in the Bombay १९९० ई, पृष्ठ १७३-१७४.
Circle, Bombay 1896 A.D., No.-216. ४७. मुनि विद्याविजय, संपा०, प्राचीनलेखसंग्रह, भावनगर १६. हीरालाल रसिकलाल कापडिया, जैनसंस्कृतसाहित्यनो १९२९ ई०स०, लेखांक ११८.
इतिहास, भाग२, खंड १, श्री मुक्तिकमल जैन मोहनमाला, ४८.. दौलत सिंह लोढ़ा संपा०, जैनप्रतिमालेखसंग्रह, लेखांक
ग्रन्थांक ६४, बडोदरा ई०स० १९६९, पृष्ठ २७०-७१. ३०३बी, ३०४बी, ३५०, ३६०. १८. उपा० धर्मसागरकृत "तपागच्छपट्टावली"
वही, लेखांक २८०-२८६, २८९, २९६, ३०८ ३१२. Muni Punya Vijaya. Ed. Catalogue of PalmLeaf Mss in the Shanti Natha Jaina Bhandar, अर्बुदाचलप्रदक्षिणा जैनलेखसंदोह, लेखांक १३०-१३७, Combay, Vol, I-II, G.O.S. No. 136, 149, १३९, १४३, १५४- १५८. तथा Boroda 1961966 A.D.
पूरनचंद नाहर , जैनलेखसंग्रह, भाग१, लेखांक २७८. मुनि जिनविजय, संपा०, जैनपुस्तकप्रशस्तिसंग्रह, सिंघी ५०. श्रीप्रतिमा....., लेखांक २७८, तथा अर्बुदाचल जैनग्रन्थमाला, ग्रन्थांक १८, मुम्बई १९४३ ई०
प्रदक्षिणा...., लेखांक १६१. २२. जैनसाहित्यनो......, पृष्ठ ४४३, कंडिका ६५२-५३ ५२-५३.मुनि चतुरविजय, पूर्वोक्त, भाग२, प्रस्तावना, पृष्ठ ९५. २२अ. मुनि चतुरविजय, पूर्वोक्त, भाग२, प्रस्तावना, पृष्ठ ८४. ५४. वही, पृष्ठ..९५-९६.
१२
४३.
FK
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तपागच्छ-कमलकलशशाखा का इतिहास
शिव प्रसाद
__ तपागच्छीय आचार्य सोमसुन्दरसूरि के शिष्य और मुनिसुन्दरसूरि, बने तब सोमदेवसूरि ने अपने शिष्य शुभलाभ को आचार्य पद प्रदान रत्नशेखरसूरि आदि के आज्ञानुवर्ती आचार्य सोमदेवसूरि अपने समय कर सुधानन्दनसूरि नाम दिया। वि०सं० १५११ में लिखी गयी के समर्थ कवि और प्रमुख वादी थे। मेवाड़ के शासक राणाकम्भा, शांतिनाथचरित की प्रतिलेखन प्रशस्ति से ज्ञात होता है कि उक्त प्रति जमापद के शासक खेंगार और चांपानेर के शासक जयसिंह को अपनी सोमदेवसृरि के शिष्य के उपदेश से लिखी गयी। सोमदेवसूरि के एक काव्यकला से इन्होंने प्रभावित किया था। इनके द्वारा रचित अन्य शिष्य चारित्रहंसगणि हुए जिनके द्वारा रचित कोई कृति नहीं सिद्धान्तस्तवअवचूरि, कथामहोदधि, चतुर्विंशतिजिनस्तोत्र, मिलती किन्तु इनके शिष्य सोमचारित्र ने वि०सं० १५४/ यस्मद्स्मद्दष्टादसस्तव की अवचूरि (रचनाकाल वि०सं० १४९७/ ई०स०१४८५ में गुरुगुणरत्नाकरकाव्य की रचना की। इस काव्य ई०स०१४४१) आदि कृतियां मिलती हैं।२ वि०सं० १५१७, में आचार्य लक्ष्मीसागरसूरि का जीवनवृत्तांत वर्णित है। १५१८ और १५२० के प्रतिमा लेखों में इनका नाम मिलता है। सोमदेवसूरि के एक शिष्य सुमतिसुन्दर हुए जिनके उपदेश
दिल्ली स्थित नवघरे के मंदिर में भगवान् शांतिनाथ की से चालिग (?) नामक एक श्रावक, जो राणकपुर स्थित त्रैलोक्यदीपक प्रतिमा पर वि० सं० १५१७ का एक लेख उत्कीर्ण है। इसमें प्रासाद के निर्माता धरणाशाह के भाई रत्नसिंह का पुत्र और मालवा के रत्नशेखरसूरि और लक्ष्मीसागरसूरि के साथ सोमदेवसूरि का भी नाम सुल्तान गयासुद्दीनखिलजी का धर्मभ्राता था, ने राणा लक्षसिंह की मिलता है।
अनुमति से अचलगढ़ पर विशाल चौमुख प्रासाद का निर्माण कराया अचलगढ़ स्थित चौमुख जिनालय में प्रतिष्ठापित आदिनाथ और उसमें पित्तल की १२०मन वजन की जिन प्रतिमा प्रतिष्ठापित की प्रतिमा पर वि० सं० १५१८ वैशाख वदि४ का एक लेख उत्कीर्ण करायी। है। इसमें तपागच्छीय आचार्य सोमसुन्दरसूरि के पट्टधर के रूप में सुमतिसुन्दरसूरि के उपदेश से मांडवगढ़ के संघवी वेलाक मुनिसुन्दरसूरि और जयचन्द्रसूरि तथा इन दोनों के पट्टधर के रूप में ने सुल्तान से फरमान प्राप्त कर संघ के साथ जीरापल्ली, अबूंदगिरि, रत्नशेखरसूरि एवं रत्नशेखरसूरि के शिष्य के रूप में सोमदेवसूरि और राणकपुर आदि तीर्थों की११। । लक्ष्मीसागरसूरि का नाम मिलता है। ठीक यही बात इसी जिनालय सुधानन्दन के एक शिष्य (नाम अज्ञात) ने वि०सं०१५३३/ में प्रतिष्ठापित इसी समय की शांतिनाथ और नेमिनाथ की प्रतिमाओं ई०स० १४७७ के आसपास ईडरगढ़चैत्यपरिपाटी१३ की रचना की। पर उत्कीर्ण लेखों से भी ज्ञात होती है। पार्श्वनाथदेरासर, देवसानोपाडो, सुमतिसुन्दर के शिष्य कमलकलश हुए। इन्हीं से वि० सं०१५५४ अहमदाबाद में संरक्षित अभिनन्दन स्वामी की धातु प्रतिमा वि०सं० या १५५५१३ (अन्य मतानुसार वि०सं० १५७२१४) में तपागच्छ १५२० आषाढ़ सुदि २ गुरुवार का एक लेख उत्कीर्ण है। इसमें की एक नई उपशाखा-कमलकलशशाखा अस्तित्व में आयी। किस सोमदेवसूरि का उल्लेख करते हुए उन्हें लक्ष्मीसागरसूरि का शिष्य कहा कारण से और कहां इस शाखा का जन्म हुआ, इस सम्बन्ध में कोई गया है।
जानकारी नहीं मिलती। रत्नशेखरसूरि के पश्चात् लक्ष्मीसागरसूरि तपागच्छ के नायक
कमलकलशसूरि द्वारा प्रतिष्ठापित कुछ जिन प्रतिमायें प्राप्त हुई हैं जो वि० सं० १५५१ से लेकर १६०३ तक की हैं। इनका विवरण इस प्रकार है: १. वि० सं० तिथि/मिति लेख का स्वरूप प्राप्तिस्थान
संदर्भ ग्रन्थ १५५१ वैशाख सुदि १३ पद्मप्रभ की प्रतिमा
अगरचन्द भंवरलाल नाहटा, गुरुवार का लेख
संपा०, बीकानेरजैनलेखसंग्रह,
लेखांक १२५३. २. १५५३ वैशाख दि शांतिनाथ की नेमिनाथ का
पूरनचन्द नाहर, संपा०, प्रतिमा का लेख पंचायती बड़ा
जैनलेखसंग्रह, भाग१, मंदिर, अजीमगंज, लेखांक१५. मुर्शिदाबाद
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२१९
३. १५५३
फाल्गुन सुदि४
४. १५६०
वैशाख सुदि३
तपागच्छ-कमलकलशशाखा का इतिहास शांतिनाथ की जैनमंदिर, चाणस्मा धातु की प्रतिमा का लेख वासुपूज्य की आदिनाथ चैत्य, थराद धातु की प्रतिमा का लेख बारसाख पर महावीर जिनालय, उत्कीर्ण लेख पींडवाड़ा
५. १६०३
माघ वदि८ शुक्रवार
मुनि बुद्धिसागर, संपा०, जैनधातुप्रतिमालेखसंग्रह, भाग१, लेखांक ११५. दौलत सिंह लोढा, संपा०, जैनप्रतिमालेखसंग्रह, लेखांक१२५. मुनि जयन्तविजय, संपा०, अर्बुदाचलप्रदक्षिणा, जैनलेखसंदोह, लेखांक३८२. एवं जैनलेखसंग्रह भाग१, लेखांक९४९.
कमलकलशसरि के एक शिष्य भूवनसोमगणि हए जिन्होंने वि०सं०१५५१ में डीसा में आनन्दभूवन के पठनार्थ दशवैकालिकसत्र की प्रतिलिपि की१५। आनन्दभुवन कौन थे! भुवनसोमगणि और कमलकलशसूरि से उनका क्या सम्बन्ध था! इस बारे में कोई जानकारी नहीं मिलती।
कमलकलशसूरि के पट्टधर उनके दूसरे शिष्य जयकल्याणसूरि हुए। इनके द्वारा प्रतिष्ठापित कई जिन सलेख प्रतिमायें मिली हैं, जिनका विवरण निम्नानुसार है: वि०सं० तिथि/मिति लेख का स्वरूप प्राप्तिस्थान
संदर्भ ग्रन्थ १. १५६६ फाल्गुनै वदि६ पार्श्वनाथ की प्रतिमा शीतलनाथ जिनालय, जैनलेखसंग्रह, भागर, गुरुवार का लेख उदयपुर
लेखांक ११०३ २. १५६६ फाल्गुन सुदि१० शिलालेख चतुर्मुख विहार, मुनि जयन्तविजय, संपा०,
आदिनाथ प्रासाद,
अर्बुदप्राचीनजैनलेखसंदोह अचलगढ़
लेखांक ४६४, ४७१, ४७३, ४७४, ४८२, ४८३ एवं ४८४. मुनिजिनविजय, संपा०, प्राचीनजैनलेखसंग्रह,
भाग२, लेखांक २६३,२६८. ३. १५६६ फाल्गुन सुदि१० आदिनाथ की। अदिनाथ जिनालय, जैनलेखसंग्रह, भाग२, सोमवार प्रतिमा का लेख अचलगढ़
लेखांक२०२७-२०२. ४. १५६७ वैशाख वदि१ अजितनाथ की घर देरासर, बडोदरा जैनधातुप्रतिमालेखसंग्रह, भाग२, गुरुवार प्रतिमा का लेख
लेखांक २४६. ५. १५७२ वैशाख सुदि५ धर्मनाथ की प्रतिमा पार्श्वनाथजिनालय, नाहटों बीकानेरजैनलेखसंग्रह, सोमवार का लेख
की गवाड़, बीकानेर लेखांक १५११. ६. १५७३ फाल्गुन वदि२ वासुपूज्य की धातु वासुपूज्य जिनालय, वही, लेखांक१३८९ रविवार की चौबीसी प्रतिमा बीकानेर
का लेख फाल्गुन वदि४ संभवनाथ की अजितनाथ जिना०, जैनलेखसंग्रह, भाग २,
प्रतिमा का लेख कटरा, अयोध्या.. लेखांक १६४३. पौष सुदि६
सुमातिनाथ जिनालय, विनयसागर, संपा०, रविवार
जयपुर
प्रतिष्ठालेखसंग्रह, लेखांक ९७७.
८. १५८७
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२२०
जैन विद्या के आयाम खण्ड-७ जयकल्याण के एक शिष्य चारित्रसुन्दर अपरनाम चरणसुन्दर१६ कमलकलशशाखा में हर्षरत्नसूरि नामक आचार्य हुए जिनके शिष्य हुए जो वि० सं० १५६६ फाल्गुन सुदि १० को अचलगढ पर निर्मित जीवणविजय ने वि० सं० १८३८ में अपने गुरु की चरणपादका आदिनाथ प्रासाद में प्रतिमाप्रतिष्ठा के समय उपस्थित थे। स्थापित करायी। इस प्रकार वि०सं० की १९वीं शताब्दी के प्राय: मध्य
__ जयकल्याण के एक अन्य शिष्य विमलसोम हुए जिनके द्वारा तक इस शाखा का अस्तित्त्व रहा। रचित न कोई कृति मिलती है और न ही कोई जिन प्रतिमा। ठीक यही संदर्भ बात इनके शिष्य लक्ष्मीरत्न के बारे में भी कही जा सकती है, किन्तु १. "तपागच्छ-कमलकलशशाखा की पट्टावली" इनके शिष्य ने (अपने को लक्ष्मीरत्नशिष्य बतलाते हुए) वि० सं० की मोहनलाल दलीचंद देसाई, जैनगूर्जरकविओ, भाग ९, संपा०, १७वीं शताब्दी में सुरप्रियरास की रचना की।१७
जयन्त कोठारी, मुम्बई १९९७ ई०, पृष्ठ १०६-७. ___ कमलकलशशाखा से सम्बद्ध अगला साक्ष्य इसके लगभग २. वही १०० वर्ष पश्चात् का है। वि० सं० १६५६ में कोकशास्त्रचतुष्पदी के ३. पूरनचंद नाहर, जैनलेखसंग्रह, भाग १, कलकत्ता १९१८ ई०, कर्ता नर्बदाचार्य ने स्वयं को कमलकलशशाखा के मतिलावण्य का लेखांक ४८३. शिष्य कहा है १८। चारित्रसून्दर एवं लक्ष्मीरत्न आदि के साथ इनका क्या ४. मनि जिनविजय, संपा०, प्राचीनजैनलेखसंग्रह, भाग२, भावनगर सम्बन्ध रहा, प्रमाणों के अभाव में यह जान पाना कठिन है।
१९२१ ई०स०, लेखांक २६४. कमलकलशशाखा से सम्बद्ध अगला साक्ष्य इसके लगभग ५. वही, लेखांक २६५,२६७.. १३५ वर्ष पश्चात् का है। यह वि० सं० १७८५ का एक शिलालेख मुनि जयन्तविजय, संपा० अर्बुदप्राचीनजैनलेखसंदोह, उज्जैन है। जो विमलवसही, आबू१९ से प्राप्त हुआ है। इसमें कमलकलश शाखा वि० सं० १९९४, लेखांक ४६७,४६९. के पद्मरत्नसूरि और उनके शिष्यों-उमंगविजय, भावविजय आदि द्वारा ६. मुनि बुद्धिसागर, संपा०, जैनधातुप्रतिमालेखसंग्रह, भाग१, यहां की यात्रा करने का उल्लेख है।
लेखांक १०६०. जैन मंदिर माकरोरा, सिरोही से प्राप्त वि०सं०१७९० के ७. तपागच्छ-कमलकलशशाखा की पट्टावली एक शिलालेख में तपागच्छीय कमलकलशशाखा के रत्नसूरि और उनके देसाई, पूर्वोक्त, पृष्ठ १०६. शिष्य कमलविजयगणि के चातुर्मास करने का उल्लेख है। ८. मुनि चतुरविजय, संपा०, श्रीजैनस्तोत्रसन्दोह, भाग २,
जैसा कि ऊपर हम देख चुके हैं वि०सं० १७८५ के लेख अहमदाबाद १९३६ई०, प्रस्तावना, पृष्ठ १०४. में पद्मरत्नसूरि का नाम आ चुका है, अत: वि०सं० १७९० के मोहनलाल दलीचंद देसाई, जैनसाहित्यनो संक्षिप्तइतिहास, शिलालेख२° में उल्लिखित रत्नसूरि को समसामयिकता, नामसाम्य मुम्बई १९३३ ई०, कंडिका ७२९, पृष्ठ ५०२. आदि के आधार पर उक्त पद्मरत्नसूरि से अभिन्न माना जा सकता है। १०. वही, कंडिका ७२५, पृष्ठ ४९९-५००. इस आधार पर दोनों शिलालेखों में उल्लिखित भावविजय और ११. वही, कंडिका ७२६, पृष्ठ ५००. कमलविजय परस्पर गुरुभ्राता सिद्ध होते हैं।
१२. वही, कंडिका ७२६, टिप्पणी, पृष्ठ ४९९. नईदाचार्य और भावरत्नसूरि के बीच किस प्रकार का सम्बन्ध १३. द्रष्टव्य- संदर्भ संख्या ७ था, यह ज्ञात नहीं होता।
१४. मुनि चतुरविजय, पूर्वोक्त, प्रस्तावना, पृष्ठ ११०. भावरत्नसूरि (वि० सं० १७८५-९०) शिलालेख १५. वही, पृष्ठ ११०-११.
१६. मुनि जयन्तविजय, पूर्वोक्त, लेखांक ४६४, ४७१, ४७३,
४७४, ४८२, ४८३ एवं ४८४.
मुनि जिनविजय, प्राचीनजैनलेखसंग्रह, भाग २, लेखांक भावविजय कमलविजय
२६३, २६८. कमलकलशशाखा से सम्बद्ध अगला साक्ष्य वि०सं० १७. जैनगूर्जरकविओ, भाग १, पृष्ठ २४४-४५. १८३८ का एक शिलालेख२१ है जो अचलगढ़ से प्राप्त हुआ है। यह १८. Vidhatri Vora.Ed. Catalogne of GujaratiMss. Muni शिलालेख इस शाखा के हर्षरत्नसूरि और सुन्दरविजयगणि की पादुका Shree PunyaVijayajis Collection. L.D. Serics No. पर उत्कीर्ण है।
71. Ahmedabed 1978 A.D. P-477. चूकि वि०सं० १७८५ और १७९० में इस शाखा के जैनगूर्जरकविओ, भाग २, पृष्ठ ३००, ३०३. आचार्यों का रत्नान्त नाम मिलता है, यही बात वि० सं० १८३८ के १९. अर्बुदप्राचीनजैनलेखसंदोह, लेखांक १९७. चरणपादुका के लेख में भी हम देखते हैं, अत: यह कहा जा सकता २०. जैनलेखसंग्रह, भाग १, १९१८ ई, लेखांक ९७०.. है कि भावरत्नसूरि के पश्चात् और वि०सं० १८३८ के पूर्व २१. अर्बुदप्राचीनजैनलेखसंदोह, लेखांक ४८९.
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२२१
तपागच्छ-कमलकलशशाखा का इतिहास तपागच्छ- कमलकलशशाखा के मुनिजनों की गुरु-परम्परा की तालिका
(जगच्चन्द्रसूरि)
(देवेन्द्रसूरि)
(धर्मघोषसूरि)
(सोमप्रभसूरि)
(सोमतिलकसूरि)
(देवसुन्दरसूरि) (सोमसुन्दरसूरि)
(मुनिसुन्दरसूरि) रत्नशेखरसूरि
सोमदेवसूरि
लक्ष्मीसागरसूरि
सुधानंदन सूरि
सुमतिसुन्दर
चारित्रहंस
रत्नहंस (इनके उपदेश से वि० सं० १५११ में शांतिनाथचरित की प्रतिलिपि की गयी)
सुधानंदनसूरिशिष्य (वि०सं०१५३३ के लगभग ईडरगढचैत्यपरिपाटीकर्ता)
कमलकलशसूरि (कमलकलशशाखा के प्रवर्तक)
वि० सं० १५५१-१६०३ प्रतिमालेख
सोमचारित्र (वि० सं० १५४१ में गुरुगुणरलाकरकाव्य कर्ता)
जयकल्याणसूरि (वि०सं० १५६६-१५८७) प्रतिमालेख
भुवनसोमगणि (वि०सं० १५५१/ई०स० १४९५ में दशवैकालिकसूत्र के प्रतिलिपिकार)
विमलसोम
चरित्रसुन्दर अपरनाम चरणसुन्दर (वि० सं० १५६६ में अचलगढ पर हुए चतुर्मुखप्रासाद की प्रतिष्ठा के समय उपस्थित)
लक्ष्मीरत्न
लक्ष्मीरत्नशिष्य (वि०सं०१७ वीं सं० शती में सुरप्रियरास के कर्ता
मतिलावण्य
नर्बुदाचार्य (वि०सं० १६५६ में कोकशास्त्र चतुष्पदी के कर्ता)
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२२२
जैन विद्या के आयाम खण्ड-७
पद्मरत्नसूरि, पं० भावविजयगणि आदि
हर्षरत्नसूरि
सुन्दरविजयगणि
जीवणविजय (वि० सं० १८३८ में अपने गुरु हर्षरत्नसरि एवं
सुन्दरविजयगणि की चरणपाद्का के प्रतिष्ठापक)
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तपागच्छ-कुतुबपुरा शाखा का इतिहास
शिव प्रसाद
तपागच्छ के ५०वें पट्टधर, प्रसिद्ध रचनाकार आचार्य
रत्नमंडनगणि के शिष्य सोमजय हए। लक्ष्मीसागरसूरि द्वारा इन्हें सोमसुन्दरसूरि के शिष्य और मुनिसुन्दरसूरि, रत्नशेखरसूरि, लक्ष्मीसागरसूरि
आचार्य पद प्राप्त हुआ। मंत्रीश्वर गदाशाह द्वारा निर्मित १०८ मन वजन आदि के आज्ञानुवर्ती आचार्य सोमदेवसूरि हुए। इनके एक शिष्य सुधानन्दन
की ऋषभदेव की पित्तल की एक प्रतिमा जो आबू स्थित भीमाशाह के मंदिर हुए जिनके प्रशिष्य कमलकलशसूरि से तपागच्छ की कमलकलश शाखा
में संरक्षित है, जिस पर उत्कीर्ण वि०सं० १५२५ फाल्गन सुदि ७ शनिवार अस्तित्व में आयी। सोमदेवसूरि के दूसरे शिष्य रत्नहंसगणि की शिष्यसन्तति के बारे में कोई जानकारी नहीं मिलती। सोमदेवसूरि के तीसरे
के चार लेख और वि० सं०१५२९ के एक लेख में तपागच्छीय आचार्य
लक्ष्मीसागरसूरि, जिनहंस,सुमति सुन्दरगणि आदि के साथ सोमजय और शिष्य रत्नमंडन गणि हुए। इनके द्वारा रचित रंगरत्नाकरनेमिफाग
उनके शिष्य जिनसोम का भी नाम मिलता है। जिनसोम द्वारा रचित (रचनाकाल वि०सं० १४९९/ई० स०१४४३), जल्पमंजरी,
स्तम्भनपार्श्वजिनस्तोत्र, ऋषभवर्धमानजिनस्तोत्र, तारंगामंडननारीनिरासफाग, सुकृतसागर (रचनाकाल वि० सं० १५१७/ई०स०
अजितनाथजिनस्तवन, महावीरस्तवन आदि कृतियां मिलती हैं। १४६१) आदि रचनायें प्राप्त होती हैं।
सोमजय के चौथे शिष्य इन्द्रनंदि हए, जिनके द्वारा प्रतिष्ठापित कई जिनप्रतिमायें मिलती हैं, जो वि०सं० १५४० से वि०सं० १५७९ तक की हैं। इनका विवरण इस प्रकार है: क्रमांक संवत् तिथि/मिति
प्राप्तिस्थान
संदर्भग्रन्थ १. १५४० ज्येष्ठ सुदि२ सोमवार सुविधिनाथ जिनालय, मुनि जयन्तविजय
पित्तलहर, आबू
संपा० अर्बुदप्राचीनजैनलेखसंदोह,
लेखांक ४३२,४३४,४३५ २. १५४८ तिथिविहीन
सीमधरस्वामी का मंदिर, अगरचंद भंवरलाल नाहटा बीकानेर
संपा०, बीकानेरजैनलेखसंग्रह,
लेखांक ११९० १५५६ माघ सुदि६
शांतिनाथ जिना०, खंभात मुनि बुद्धिसागर, संपा०,
जैनधातुप्रतिमालेखसंग्रह, भाग२,
लेखांक ८९८. १५५८ आषाढ़ सुदि ८ घरदेरासर, बडोदरा
वही, भाग२, लेखांक २३१. १५५९ आषाढ़ सुदि ८ जैनमंदिर, सूतटोला,
पूरनचंद नाहर, संपा०, वाराणसी
जैनलेखसंग्रह, भाग २,
लेखांक ४०४ १५६१ ज्येष्ठ दि२ सोमवार सुमतिनाथ मुख्य-बावन मुनि बुद्धिसागर, पूर्वोक्त,
जिनालय, मातर
भाग२, लेखांक ५०६ १५६३ आषाढ़ सुदि... गुरुवार घरदेरासर, लखनऊ
पूरनचन्द नाहर, पूर्वोक्त,
भाग२, लेखांक १६१०. १५६३
शांतिनाथ जिनालय,
मुनि बुद्धिसागर, पूर्वोक्त,
कनासानो पाडो, पाटण भाग१, लेखांक ३७५. १५६३
संभवनाथ देरासर, पादरा वही,
भाग२, लेखांक १५. १५६९ मितिविहीन
आदिनाथ जिनालय,
नाहर, पूर्वोक्त, भाग१, नाडलाई,
लेखांक ८४९ तथा मनि जिनविजय, संपा०, प्राचीनजैनलेखसंग्रह, भाग२, लेखांक ३३८.
७... १५६३
९.
१५६३
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२२४
जैन विद्या के आयाम खण्ड-७ ११. १५७१ मितिविहीन
वहीं
नाहर, पूर्वोक्त, भाग१, लेखांक ८५७ तथा मुनि जिनविजय, पूर्वोक्त, भाग२,
लेखांक३३९. १२. १५७६
मुनि बुद्धिसागर, पूर्वोक्त, भाग२,
लेखांक १३११ १३. १५७९ मितिविहीन
जैनमंदिर, भांमासर
नाहर, पूर्वोक्त, भाग२,
लेखांक १३५४ वि०सं०१५५८ में इन्होंने अपने एक शिष्य धर्महंस को सौभाग्यनंदि के पट्टधर हंससंयम हुए, जिनके समय की कुतुबपुरा नामक ग्राम में अपने पट्ट पर स्थापित किया। कुतुबपुरा नामक वि० सं० १६०६ में लिखित एक ग्रन्थ की प्रति प्राप्त हुई है१२। स्थान से अस्तित्त्व में आने के कारण इसका नाम कुतुबपुराशाखा पड़ा। हंससंयम के शिष्य हंसविमल का नाम वि०सं० १६२१ के एक धर्महंस द्वारा रचित कोई कृति नहीं मिलती और न ही इस सम्बन्ध में शिलालेख में उत्कीर्ण है।१३ यह शिलालेख विमलवसही, आबू से प्राप्त कोई उल्लेख ही प्राप्त होता है किन्तु इनके शिष्य इन्द्रहंस द्वारा रचित हुआ है। इस शाखा से सम्बद्ध यह अंतिम साक्ष्य है। कुछ कृतियाँ मिलती हैं जो इस प्रकार हैं
संयमसागर के शिष्य हंसविमल तथा हंससंयम के शिष्य १. भुवनभानुचरित्र (वि०सं०१५५४/ई०स०१४९८) हंसविमल एक ही व्यक्ति थे अथवा अलग-अलग! पर्याप्त साक्ष्यों के २. उपदेशकल्पवल्लीटीका (वि० सं०१५५५/ई०स०१५९९) अभाव में इस सम्बन्ध में ठीक-ठीक कुछ भी कह पाना कठिन है, फिर ३. बलिनरेन्द्रकथा (वि० सं०१५५७/ई०स०१५०१
भी समसामयिकता, नामसाम्य, गच्छसाम्य आदि को देखते हए दोनों ४. विमलचरित्र (वि० सं०१५७८/ई०स०१५२२)
हंसविमलसूरि को एक ही व्यक्ति माना जा सकता है। इन्द्रनन्दिसूरि के एक शिष्य सिद्धान्तसागर ने वि०सं०१५७० संदर्भ में दर्शनरलाकर की रचना की। सिद्धान्तसागर की शिष्यपरम्परा आगे १. मोहनलाल दलीचंद देसाई, जैनसाहित्यनो संक्षिप्तइतिहास, चली अथवा नहीं इस सम्बन्ध में हमारे पास कोई जानकारी उपलब्ध मुम्बई १९३३ ई०, पृष्ठ ४९८, कंडिका७०९ नहीं है।
मुनि चतुरविजय, मन्त्राधिराजचिन्तामणि अपरनाम जैनस्तोत्रसंदोह, इन्द्रनन्दिसूरि के एक अन्य शिष्य सौभाग्यनंदि हुए, जिनके
भाग२, द्वारा रचित मौनएकादशीकथा' नामक कृति प्राप्त होती है। इनके द्वारा अहमदाबाद वि०सं० १९९२, प्रस्तावना, पृष्ठ १०४ तथा प्रतिष्ठापित कुछ जिन प्रतिमायें भी प्राप्त हुई हैं जो वि०सं०१५७१ H.D. Velankar, Jinratnakosha, Poona 1944 A.D., से वि० सं० १५९७ तक की हैं। इनका विवरण इस प्रकार है:
P-433. १. १५७१ तिथिविहिन देवकुलिका का लेख मुनि जिनविजय, २-३ मुनि जिनविजय, संपा०, प्राचीनजैनलेखसंग्रह, भावनगर आदिनाथ जिना० पूर्वोक्त भाग२,
१९२१ ई०स० लेखांक २४५, २५१, २५२, २५६ हस्तिकुण्डी (हथुडी) लेखांक ३३
मुनि जयन्तविजय, संपा० अर्बुदप्राचीनजैनलेखसंदोह, उज्जैन २. १५७६ माघसुदि ५ शांतिनाथ जिना०, मुनि बुद्धिसागर,
वि०सं० १९९४........., शातिनाथ पोल, गरुवार पूर्वोक्त, भागर,
लेखांक ४०७,४०८,४१०,४११,४१८,४१९,४७२.
मुनि चतुरविजयजी, पूर्वोक्त, पृष्ठ १०५-१०७. लेखांक१३११ अहमदाबाद
वही, पृष्ठ १०६. ३. १५८८ ज्येष्ठ सुदि ५ वहीं
वही, भाग१,
मोहनलाल दलीचंद देसाई, पूर्वोक्त, पृष्ठ ५२४-२५, कंडिका गुरुवार लेखांक १३२५
७७०-७२ ४. १५९१ वैशाख वदि६ संभवनाथ जिनालय, नाहर, पूर्वोक्त,
मोहनलाल दलीचंद देसाई, जैनगूर्जरकविओ, भाग९, संपा०, शुक्रवार बालूचर, मुर्शिदावाद भाग१,लेखांक ५४
जयन्त कोठारी, मुम्बई १९९७ ई०, “तपागच्छ ५. १५९७. चैत्र सुदि१३ जैनमंदिर, मुनि बुद्धिसागर,
कुतुबपुराशाखानिगममत पट्टावली" पृष्ठ १०७. गुरुवार चाणस्मा पूर्वोक्त, भाग१,
जैनसाहित्यनो....., कंडिका ७५८,
लेखांक १३१९. वही, कंडिका ७५८. इन्द्रनंदिसूरि के चौथे भी शिष्य संयमसागर का भी उल्लेख १०. जैनगूर्जरकविओ, भाग९, पृष्ठ १०७. मिलता है१०। इनके द्वारा रचित कोई कति नहीं मिलती और न ही किन्ही ११-१२ वही। अन्य साक्ष्यों से इस सम्बन्ध में कोई जानकारी ही प्राप्त होती है। इनके १३. मुनि जयन्तविजय, अर्बुदप्राचीन......, लेखांक १९६ शिष्य के रूप में हंसविमल का नाम मिलता है।
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तपागच्छ का इतिहास
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तपागच्छ- कुतुबपुराशाखा के मुनिजनों की गुरु परम्परा की तालिका
(जगच्चन्द्रसूरि)
(देवेन्द्रसूरि)
(धर्मघोषसूरि)
(सोमप्रभसूरि)
(सोमतिलकसूरि)
(देवसुन्दरसूरि)
(सोमसुन्दरसूरि)
सोमदेवसूरि
सुधानंदनसूरि
रत्नहंसगणि
रत्नमंडन
सुमतिसुन्दसूरि
सोमजयसूरि
कमलकलशसूरि
जिनसोम
इन्द्रनंदिसूरि (कुतुबपुराशाखा के आदिपुरुष)
धर्महंस
संयमसागर
कमलकलशशाखा प्रारम्भ
सिद्धान्तसागर (वि०सं० १५७० में दर्शनरत्नाकर के कर्ता
सौभाग्यनंदिसूरि . (वि०सं० १५७१-९७ प्रतिमालेख)
हंससंयम
इन्द्रहंस (भुवनभानुचरित्र, हंसविमल उपदेशकल्पवल्लीटीका, बलिनरेन्द्रकथा आदि के कर्ता)
हंसविमल (वि० सं० १६२१ प्रतिमालेख)
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English Section
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SIXTEEN VIDYADEVIS ASDEPICTED IN JAINA TEMPLES AT KUMBHĀRIA
Dr. Harihar Singh The sixteen Vidyādevis or the goddesses of
known dhyānas prescribed for their execution in the Learning are popularly represented in the Jaina texts: Temples at Kumbhāriā, Banaskāntha Dist., Gujarat. Five in number the Jaina temples are wholly built of
1. Rohiņi. According to the Jaina texts, she white marble and are dedicated to Mahāvīra (1061 rides a cow and holds a conch, rosary, bow and A.D.), Säntinātha (circa 1081 A.D.), Pārsvanātha
arrow. All the available images of the goddess also
arro (circa 1100 A.D.), Neminātha (1136 A.D.) and represent her as riding a cow and holding bow and Saibhavanätha (early 13th century A.D.) All of these arrow in two of her four hands, but the symbols to the temples belong to Svetāmbara Jainism. The images
other two hands differ. On the basis of symbols they of Vidyādevis at this site, as also at other places, form
are divisible into three groups. In one group she bears a part of the decorative element of the temples rather
sword and fruit and is represented on the pillar-shaft than an object of worship depicted on the walls,
of the mukhamandapa of the Mahavira, Pārsvanātha doorframes, pillars, pilasters and ceilings. and Santinatha temples. The symbols of the second Ocassionaly, they are also noticed Vidyādevis appear group consist of varda and conch: this type of the in a set of sixteen in a ceiling of the eastern aisle of images is seen on the doorframe and ceiling of the the rangamandapa they are always shown in the devakulikās of the Pārsvanātha temple. individual forms. Here is the earliest representation of the third group bear varda and fruit and are found of Vidyādevis in a set of sixteen, but due to the depicted in the ceiling of the mukhamandapa and absence of their cognizances the identification of all the rangamandapa (panel of 16 Vidyadevis) of the of them cannot be made with an amount of certainty.
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śāntinātha temple. Another drawback of these images is that they are
2. Prajñapti - There are two images of this not depicted in their correct order. The individual goddess One of these is sculptured on the doorframe images, on the other hand, are generally shown with of the central devakulikā of the Pārsvanātha temple. their respective attributes and cognizances, so that
Here she rides a peacock and carries sala, sakti, varada they are not only easily identified but also help in and fruit. This description of the goddess also tallies identifying those in the set of sixteen.
with the dhyāna prescribed for her image in the All the images of Vidyādevis at Kumbhäriä Nirvanakalika, only that here the sula is replaced by possess four arms. They are sculptured both in the a śakti. The other image is the one carrying sakti, standing and sitting attitudes. In the latter case they kukkuta, varada and citrus in the pannel of 16 are always shown in the lalita-pose. They wear beaded Vidyadevis in the Santinātha temple. Although none girdles with a katisütra, two or three-stranded beaded of the dhyanas precribe kukkuta as her attribute, it garlands. necklace with an urasutra, a thin seems to be a popular symbol of this goddess, as it is kucabandha, earrings, karandamukuta, bangles, also associated with her images in the Vimalavasahi armlets anklets and a long garland like vaijayanti of at Abu." Vişnu, the last one being apparent only in the standing 3. Vajraśnkhala - According to the attitude. Sometimes in the standing attitude a scarf is Nirvānakalikā, she is seated on a lotus and carries also tied across the thighs. All these images are
varada, chain, lotus and chain again. A well executed almost in the round or in the high or midium
preserved image of the goddess is found on the and are full of relief grace and charm. Below is given doorframe of the central de vakulikā of the Pārsvanātha the iconographic peculiarities of these images and the temple, which wholly corresponds to this text. The * Di. Harihar Singh, Reader, Dept. of A. I. H. C., B.H.U.
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ASPECTS OF JAINOLOGY VOL-VII
images of Vajraśịnkhalā in the panel of 16 Vidyādevis on the sanctum wall of the Neminātha temple. The in the Sāntinātha temple and on the sanctum wall of four-armed goddess here rides a buffalo and carries the Neminātha temple also hold the same set of sword and shield; her other two arms are broken off. symbols, with this difference that the lotus is replaced
7. Kāli- There are five images of this goddess by a fruit.
at Kumbhāriā. One of these, sculptured on the 4. Vajrānkuśā- In the Nirvānkalikā she is mukhamandapapillar of the Māhāvira temple is seated described as riding an elephant and carrying varada, on a lotus and bears in her four hands book, lotus, vajra, citrus and goad. The images of this goddess club and varada. No dhyāna supporting the book on the mukhamandapa pillar and rangamandapa symbol is available, but the recognizing symbol of ceiling (Panel of 16 Vidyādevis) of the Sāntinātha, and the lotus cognizance leave little scope for doubts devakulikā pillar of the Pārsvanātha and the sanctum for her identification. In another form she is represented wall of the Neminātha temple wholly correspond to as holding club, lotus, varada and citrus and seated the icongraphic description of the text. But there is no on a lotus. This type of images may be seen in the uniformity in the representation of vajra and ankuśa panel of 16 Mahāvidyās in the rangamandapa ceiling in the two upper hands.
of the Sāntinātha temple and on the sanctum wall and
western devakulikā wall of the Neminātha temple. In Two other forms of the goddess are also
the third variety the lotus symbol is substituted for known. In one the vajra is replaced by a noose
bell; an image of this variety is depicted on the (mukhamandapa pillar of the Mahāvīra temple) and
doorframe of the central devakulikā of the in the other citrus is substituted for pitcher (sikhara of
Pārsvanātha temple. The images of the two latter the Sambhavanātha temple).]
varieties also do not wholly correspond to the texts, 5. Apraticakrā - According to the Svetāmbra as according to the texts she is seated on a lotus and texts like Ācāradinkara and Nirvāņakalikā, she rides holds either in two hands club and varada or in four a Garuda and holds discs in all of her four hands.'All hands rosary, club, vajra and abhaya. the available images of the goddess no doubt invariably
8. Mahākāli- There are five images of this depict Garuda as her vehicle, but discs are held by
goddess, all of which ride a man and hold in four the two upper hands only; her other two hands bear
hands vajra, bell, varada and fruit. They are located varada and conch or pitcher or fruit. All these images
on the mukhamandap pillar of the Māhāvīra temple, are seen on the gūdhamandapa door of the Mahāvīra
rangamandapa ceiling (Panel of 16 Mahāvidyās) of temple, mukhamandapa pillars and the ceilings,
the śāntinātha temple, devakulikā pillar of the rangamandapa ceiling (panel of 16 Vidyādevis) and
Pārsvanatha temple and the sanctum wall and the the sikhara of the sāntinātha temple, gūdhamandapa
western devakulikā (central wall of the Neminātha door, mukhamandapa pillars and devakulikā pillars
temple. These images fully correspond to the and ceiling of the Pārsvanātha temple, sanctum wall and devakulikā doorframe of the Neminātha temple,
iconographic peculiarties as given in the and the sikhara of the Sambhavanātha temple.
Caturvimsatikā of Bappabhattisūri.
9. Gauri. The images of Gauri are very rare 6. Purūşadatta - The Nirvanakalikädescribes
at Kumbhāriā. An image of the goddess is seen on buffalo as the vāhana of the goddess and varada, sword, citrus and shield as her attributes. The figure
the sanctum wall of the Neminātha temple. Here she
rides a buffalo and carries lotuses in the upper two of Puruşadattā in the panel of 16 Mahāvidyās in the
hands, her lower right arm shows vardākṣa and the śāntinātha temple closely follows the text, with this difference that one of her four hands carries bow or
corresponding left one being broken off. Although
buffalo is not known as the vāhana of Svetāmbara snake. A sculpture of this goddess is also preserved
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SIXTEEN VIDYADEVIS AS DEPICTED IN JAINA TEMPLES AT KUMBHĀRIĀ
Gauri, the lotuses and rosary are femilar symbols of the goddess. The goddess identified as Gauri in the set of 16 Mahavidyäs in the rangamandapa dome of the Vimalavasahi at Abu also bear similar symbols and cognizance." The goddess with lotuses, varadākṣa and citrus in the panel sixteen Mahavidyās in the Santinatha temple may also be identified with Gauri.
10. Gandhari Acording to the Svetambara texts, she is to be sculptured as seated on a lotus and holding a staff and vajra or varada, staff, abhaya and vajra. One of the sixteen Vidyadevis in the rangamandapa ceiling of the Santinatha temple carries vajra, staff, varada and fruit and may be identified with this goddess. A similar images is also depicted on the doorframe of the central devakulika of the Pärsvanatha temple. Another image of this goddess is built on the sanctum wall of the Neminatha temple. Here the four arm standing goddess carries the same set of symbols as are noticed in the above two images, but has ram instead of lotus cognizance. The goddess identified as Gāndhäri in the set of sixteen Vidyadevis in the dome of the rangamandapa of the Vimalavasahi at Abu also rides a ram. 13
11. Mahājvālā - There are three images of this goddess. One of these is built on the mukhamaṇḍapa pillar of the Mahāvīra temple. This four armed image carries in four hands pāśa, jväläpätra, varada and citrus and sits on a lion. The images of mahavidyas in the rangamandapa ceiling of the Santinatha temple also carries the same set of symbols but pasa is replaced by jvālāpātra. Another image of the goddess stationed on the sanctum wall of the Neminatha temple also sits on a lion but holds jväläpätra and struk in the two upper hands, while the objects held by the other two arms are one. These descriptions correspond more to the dhyana in the Acâradinakara than any other text, as it describes her vehicle14 Since cat shows much resemblance to the lion,it is not unlikely if the sculptor intended it to represent cat rather than lion.
३
she sits on a lotus and is four-armed carrying varada, noose, rosary and a bough of a tree.15 The doorframe of the güdhamandapa in the Mahavira temple depicts an image of Manavi who is represented as carrying lotus bough of a tree, varda and pitcher in her four arms. Although her congnizance is broken off, the recognizing symbol of bough of tree leaves no room for doubts for her identification. The image of Manavi in the panel of 16 Mahavidyas in the Santinatha temple shows bough of tree in both the upper hands, while her lower right hand is in the varadamudrā and the corresponding left one bears the fruit. An identical image of Manavi along with her lotus cognizance is sculptured on the sanctum wall of the Neminatha
temple.
13. Vairotyä The images of Vairotyä are most popularly represented in the Jaina temples at Kumbhäriä. There are two varieties of images of this goddess. In one she rides a snake, in the other bull is depicted as her vechile. The images of the latter variety are larger in number. The iconographic texts also prescribe snake instead of bull as the vähana of the goddess. On the basis of ayudhas the images of Vairotyä may be divided into three groups. In one she holds snake, shield, sword and fruit; in the second
she is armed with snake and varada in three of her four hands, while the fourth one is mutilated, but there is no uniformity in the depiction of ayudhas in the respective hands. All these images are sculptured on of the Mahavira temple; rangamandapa ceiling (panel the gudhamandaps door and mukhamandapa pillars of 16 Vidyadevis) and mukhamandapa pillar, pilaster and ceilig of he Śantinätha temple; gudhamandapa door, mukhamandapa pillar and devakulikā pillars, ceilings and doorframes of the Parsvanatha temple; and the sanctum wall and the devakulika door of the
Neminatha temple.
14. Acyuptă She is described in the Svetambara literature as riding a horse and holding a bow, sword, shild and arrow." There are seven images of this goddess at Kumbharia. Two of these, namely one in the panel of 16 Vidyadevis in the
12. Manavi - According to the Nirvanakalik, rangamandapa ceiling of the Santinātha temple and
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the other on the devakulika door of the Parsvanatha temple fully corresponds to the text. The other five images show a slight change in the depiction of attributes. One of these carries arrow, bow, broken varada and (broken) and pitcher and is located on the gadhamandapa door of the Mahavira temple. Another image holds arrow, bow, varada and (broken) and is scultured on the mukhamandapa pilaster of the Śantinatha temple. Two images located on the güdhamandapa doorframe of the Parsvanatha temple and the sanctum wall of the Neminatha temple carry arrow or bow in one of her arms, while the other three hands are broken off. The remaining one built on the devakulika door of the Neminatha temple bears arrow, bow, varada and fruit.
ASPECTS OF JAINOLOGY VOL-VII
15. Mānasi - There are three images of this goddess. One of these built on the devakulika doorframe of the Pärsvanätha temple rides a swan and bears in four hands vajra, päša, abhaya and fruit. Another image located on the mukhamandapa pilaster of the Santinätha temple also rides a swan but holds lotus and fruit in two hands, while the objects of the other two hands are mutilated. The iconographic texts also presecribe swan as her vahana, but her symbols include varada and vajra or vajra, varada and rosary." The image in the panel 16 Vidyadevis in the Santinatha temple carries in four hands noose, lotus (p), varada & fruit. On the basis of noose symbol. which one of the aforesaid images also possesses, this image may be identified with Manavi, although the most recognizing symbol, viz. vajra, is conspicuous by its absence.
16. Mahāmānasi According to the Nirvanakalika, she rides a lion and bears in four hands varada, sword, kamandalu and lance. The Säntinätha temple possesses two images of the goddess, one in the panel of 16 Mahavidyas in the rangamandapa ceiling and the other located on the mukhamandapa pilaster. Both these images bear in four hands noose, lotus, citrus and varada and fortunately the latter also represents the lion mount. Another image of the goddess is to be seen on the gudhamandapa
-
doorframe of the Mahāvīra temple. Here again she rides a lion but holds vajra and vajraghanta in two hands, her other two hands are sadly damaged. An image of the goddess is also found on the doorframe of the central devakulika of the Parsvanatha temple. Riding on a lion the goddess here carries in four hands sword, shield, varada and conch. Except for the vahana, none of these images fully corresponds to the description of the iconographic texts.
References:
1. Bhattacharya, B.C., The Jaina Iconography, Delhi, 1974, p.124.
Ibid., p.124, n.4.
Tiwari, M.N.P., 'Iconography of Sixteen. Jaina Mahavidyās as Represented in the Ceiling of the Santinatha temple at Kumbhäriä, Sambodhi, vol. 2, No. 3. Ahmedabad, Oct. 1973, pp. 17-18 4. Shah U.P., Iconography of the Sixteen Jaina
Mahavidyas, Journal of the Indian Society of Original Art, Vol. XV, Calcutta, 1947, pp.125-26.
2.
3.
5. See, Bhattacharya, B.C., op. cit., p. 125, n.
2.
6. Ibid., p. 125
7.
Ibid., p. 126.
8. Ibid., p. 127, n.1.
9. Ibid, p.127.
10. Caturvimśatikā, ed. by H.R. Kapadia, Bombay, 1926, p.119.
11. Shah, U.P., op. cit., p. 146.
12. Bhattcharya, B.C., op. cit., p. 129. 13. Shah, U.P., op. cit., p. 150.
14. Acaradinakara, pt. II, Bombay, 1922, p. 162. 15. See, Bhattacharya, op. cit., pp. 130-131. 16. Ibid., p. 130; Dipāmava,. by P.O. Sompura, Ahmedabad, 1960, p. 419.
17. Bhattacharya, B.C., op. cit., p. 131. 18. Ibid., p. 131.
19. Dipǎmana, p. 421.
20. See, Bhattacharya, B.C., op. cit, p. 13' n. 1.
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SOME REFLECTIONS ON ŚĀKTOPĀSANĀ WITH SPECIAL REFERENCE TO ŚRI VIDYA
Prof. Rewati Rman Pandey
Upa-samipe āsana-Sithitih : Upāsanā. It is really dedication an devotion with full concentration of one's mind to his or her object of worship. The secret of all success lies in ones total concentration to one's goal: abhyāsaḥ sarvasādhana, abhyāsena tu kaunteya. Upasana consists in uninterrupted concentration on divine forms of God for a pretty long time. The ideal of Upāsanā is beautifully illustrated in the following verse of the Srimadbhāgavata:madgunărutimātrena mayi s arvaguhāśaye manogatirvacchinna yathā gangāmbhaso'mbuddhau.
111.29.11 In devotion or Upāsanā human mind is totally diverted towards God, when devotee's mind is completely purified by contineous listening divine excellences. In the state of deep concentration.,the devotee sees the presence of his or her deity in each and every particle of the universe as the Yakṣa of the Meghadüta sees everywhere the presence of her beloved, yakşıņi, să så sä sä jagatsakale ko'yama-dvaitavādah.
A devotee has to undergo certain devotional retuals for the purification of his or her mind, boy and entire sens-organism.:
devo bhūtva yajet devān nādevo devamarcayet The natural psycho-physical organism of man is spiritualised through various sacraments, sacrifices and observance of fasts etc. The Manusmrti holds:- mahāyajnaiśca yajnaisca brähmiyam kriyate tanuh.
There are various devotional rituals through which human body is purified, such as bhūśuddhi, prana-pratisthä, antarmātrikányāsa, bahirmātrikānyāsa, rsyādinyasa and mantrākṣarādinyäsa, etc. It has been reiterated into the following Vedic Rcā:
ataptanurna tadäme, śnute divam.
One whose body is not purified cannot realise the ecstasy of spirituality. In the following verse of the Srimadbhāgavata, it is well depicted that once * Prof. & Head, Dept. of Philosophy and Religion, Banaras Hindu University, Varanai - 5
heart is purified, the devotee is lost into divinity:
dhyāyatacaranāmbojam bhāvanirjitacetasã autkanthyāsrukalākşasya hrdyasinme śanairhariḥ. premātibharanirbhinnapulakāngo' tinirvítah ānandasmplave lino nāpaśyamubhayam mune. rūpam bhagavato yattanmanhkāntam sucāpaham apaśyan sahasottasthe vaiklvāhurmană iva... diděkṣustadaham bhūyaḥ pranidhāya mano hrdi. vikşamāno' pi nāpaśyamavitripta iväturah. evam yatantam vijane māmāhāgocare giram gambhīrāślaksnayā vācā śucah praśayanniva. hantāsminjanmani bhavāmā mam drastumihärhati avipakvakaşāņām durdarso, ham kuyoginam. sakridyaddrśitam rūpame takāmāya te' nagha matkamah śanakaih sådhuḥ sarvan muncati hrcchyān. satsevayādirghayāpi jātā mayi drdhā matih hitvavadyamimam lokam gantä majjänatāmasi. matirmayi nibaddheyam navipadyeta kahicit prajasarganirodhe' pi smstanca madanugahất?
Once divine awakening occures in the heart of devotee he can never forget his lord. The devotee experinces the ecstasy of Divine presence, his heart becomes more and more spiritualised. In devotion a stage comes when devotee feels himself as if he has been forgotten by his Lord, his anxiety towards his Lord increases, his heart becomes more and more spiritualised. When the heart of devotee is completely spiritualised, he or she immediately realises his or her cherised deity. In the following verse the Bhagavata gives a beautiful picture of the state of ecstasy of Gopis:
dussahapreșthavirahati vratapadhutāśubhāh dhyānaprāptâcyutāśeșanirvṛtyä kṣiṇama- ngalah.'
The Kulārņavatantra defines Upāsanā in the following way :
karmaṇā manasā vācā sarvävasthāsu sarvadā samipaseva vidhinā upăstiriti kathyatee.
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ASPECTS OF JAINOLOGY VOL-VII
Upāsanā concept has been used in various tamaham p ranaumi
nityam. 2 meanings :
yasyāh svarūpam brahmādayo na jananti syâdupāsanamāsane, śuśrūṣāyām sarābhyāse' tasmāducyate ajneyā. yasyāh anto na labhyate pyupadhâne ca genduke, vrate višeșe pranaye. tasmäucyate anantā. yasyäh lakṣyam nopalakṣyate
But according to the Yogavāsiştha (5.42.25) tasmãducyte alaksyaā. yasyāh jananm nopalabhyate the Brahmasutras (III. 2.5.24) commented by Acārya tasmāducyate ajā, ekai vai svarūpiņītasmaducyate samkara as well as Ācārya Rāmānuja and the naikā, ata evocyate ejneyanantā laksyājaikā naiketi,"3 Srimadbhāgavata (IVIII. 7.51,52) and (VIII.5.29) the The Svetāśvatara maintains :chief meaning of the concept of Upāsanā is the no tasya kāryam karanamca vidyate concetration on God.
na tatsamaścābhyadhikaśca drsyate, yatra yatra mano yāti tatra param padam, parāsya saktivividhaiva śrüyate tatra tatra param Brahma sarvatra svābhāviki jnānabalakriya ca.14
samavasthitam: tatra tatra samadhyah. Again the same Upanişad maintains:Then again :
tvam sts tvam pumānasi tvam kumāra uta drstim jnanamayim kịtvā pāśyed brahmam- kumār's. Acārya Samkara himself maintains while ayam jagat.
commenting the Brahmasūtra : na hi tayā vinā In the following pages an enquiry into the parameśvarasya sraştrtvam sidhyati.' sigificance and universality of the concept of Sakti is Not only this rather something more:attempted. The Rgveda refers it in the following way:- kāraṇasyātmabhūtā saktih, sakeścätmabhūtam aham rudrebhhirvasubiścaramya
kāryam." In this regard the folowing two quotations hamadityairut viśvadevaih, from the works of Ācārya Samkara are quite ham mitravruņobhā bibharya
remarkable :hamindrāgni ahama vinobhā. sabdabrahmamayi carácaramayi jyotimmayi vāngmayi, the above şcă is found in the Sridevyartharvasirśa n ityānandamayi nirananjanamayi tattvammayi also. It gives following description also:
cinmayi, aham brahmasvarūpiņi.
tattvätitamayi parātparamayi māyāmayi śrīmayi, Mattah prakrtipuru sātmakam jagat.?
saravaiśvaryamayi sadāśivamayi mām pāhi vedo' hamavedo'ham. Vidyāmavidyaham..... mināmbike. 8 adhaścordhvam ca
tiryakcāham.
athavā nişkalam dhyāyet accidānandavaham somam tvaştāram pūṣaṇam bhagam dadhāmi. igrahm iti smrtyā ca tvam stri tvam pumân iti aham visnumurukramam brahmānamuta prajāpatim śvetāśvataropanişadi upadhikstanānārūpasambdadhri
havokteśca. Ataeva seyam devateikșata ityādau aham rāştri sangamani vasūnām cikituși prathamā tatsatyam sa ātmā ityante ca śrutau strilingāntadeyajniyānām aham surve pitaramasya mürdhanmama vatādipadānām tatasatyamiti napuṁsakāntasya sa yonirapsyvanathsamudre ya evam veda. sa daivim ātmeti pulingătmaśabdasya ekarthatvät." sampadāmāpnoti.
If we look into above qutotations we come to eşatmaşktih esātmaśaktih. eșă viśvamihini. the following conclusions :pāśānkusadhanurbānadhara. eșā Srimahāvidyā. 1. Sāktopāsanā is as Vedic as any other upāsanā. ya evam veda sa sokam tarati." 2. Sakti is the ultimate reality. saiśātau vasavah. saişāikadaśa rudrah. saisā Let us examine the Agamas :dvādaśādityah, saişā viśvadevāh somapa vidyāh samastatva devi bhedāh asomapāśca. saişã yatudhânā asurā, rakṣānai piśācā
striyah samastāh sakalā jagatsu yakṣāh siddhāh. saişā prajapatindramanavah, tvaữaikayā püritambayaitat saisā grahanakyatrajyotinşi,kalākāşthadikā larūpiņi
kä te stutiḥ stavyaparāparoktih.20
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ca,
yā devi sarvabhūteșu saktirūpeṇa sansthita Mahātripurasundari granted several boons to goddess ramastasyai namastasyai namastasyi namonarnah.21 of wealth, Lakşami and among those boons, one was Sadaikatvam na bhedo' sti sarvadaiva mamāsya the concept of Sri ad from that time onward Sri became
one of the synonyms of the goddess of wealth, yo'sau sähamaham yāsau bhedo'sti mativibhramāt.22 Laksami. Now, thus Śrī has become a symbol of Ganeśajanani durga radha laksami saraswati greatness. Even great gods like Vişnu, Siva, Kāli, sāvitri ca sriştividhau prakrtih pancadhāh smrtāh.2 Durgā and great incarnations like Rāma and Krşņa Sarveśāktāh dwijāh proktah na śaivānaca vaişnavāh. are not without the prefix Śrī. Tripureśvari herself adiśaktimupāsante gāyatrim vedamātaram.24 being Brahmasvarūpiņi who is the supreme reality of
Above quotations well establish Sāktopāsanā the cosmos is known by the concept,' Sri; Sa hi and with equal force they also prove the Sairamệtā satām. By the worship of 'Srividyā' the SAKTYADVAITAVĀDA.
de votee gets both, worldly pleasures as well as In the following pages an humble attempt is emancipation : made with regard to the Upasanã of srividyā. As a Śrīsundarisevanstatparāņām matter of fact it is esoteric, Gurumukhaikamātr- bhogaśca mokşaśca karstha eva. asamadhigamyeyam vidyā; nevertheless whatever is Why is 'ŚRĪVIDYĀ IDENTIFIED WITH THE possible through available literature is given below. BRAHMAVIDYA ? Because it leads to the self
Srividyā itself is known as Lalitā, Rājarāje- realisation,' Tarati sokamātmavit. The Atharvanadśvarī, Mahā Tripurasundari, Pancadasi and Sodasi, vitiyopanişad declares in very clear words:etc. terms. These various names though connot be one reality, yet they have parent differences also.
tripurasundari tripura vāsini tripurāśristripura Among the well known ten Mahāvidyās, the malinitripurāsiddhistri purajanani tripurabh-airavi Şodasi Vidyā is Srividyā. To every devotee his or tābhyo vai namo namah .... brahmabrahher own deity is supreme. With this view kāli, Tārā mavidityetairmantrairbhagavatim yajet, ityā and Sodasi should be equal; because to every devotee bhagavān, tato devi svțmanam darśayati, his her particular deity is supreme. But Srividya does tasmadya etairmantrairyayati sa brahm paśyati, not belong to that category; its significance is real. It sa sarvam paśyati, so'mstattvam ca gacchati, ya is really supreme.
evam, veda it mahopnişat.25 Among the ten Mahāvidyās the frist three Sricakropanişad declares - Mahāvidyās are main, i.e. 1. Kāli, 2. Tärā, 3. Șodasi. vinā Saktim na mokṣo na jnanam na satyam na Out of these three there are nine Mahāvidy, and the dharmo na tapo na harirna haro na virancih. tenth is the complementary one. But the root Vidyā is s arvam Saktiyuktam bhavet.26 only one and that is Srividyā. Śrividyā is also termed Srividyātārakopanişad holds :as Brahma Vidyā or Brahmamayi rather Srividyā itself ya evam veda sa mukta bhavati sa mukto is Brahmavidyā. Let us examine.
bhavati.?? Srividyāsaparyāprakarana begins with the The concept Srividyā connotes both, offerings of salutations to the great teachers of the Śrītripurasundari hymn as well as its presiding deity tradtion of Brahmavidyā :also. Generally Śrīconnotes the goddess Lakşami but O m namo brahmādibhyo brahmavidyāsamas described in the Hāritāyanasamhitā, Brahman- pradāyakartsbhyo. vamśarşibhyo namo gurubhyah dapurā nottarakhanda and other mythical literatures sarvoplavarahitaprajnanagjhannapratyagartho and myths the chief meaning of Sri is Mahātripur- brahmähamasmi, sohamasmi,brahmahamasmi. asundari. According to a myth the goddess Laksami Närāyaṇam padmabhavam vasiştham, worshipped for a long time Mahātripurasundari.
saktim ca tatputraparāśaram ca, Pleased with the worship of goddess Laksami, vyāsam sukam gaudapadam mahāntam,
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ASPECTS OF JAINOLOGY VOL-VII givindayogindramathāsya śisyam, satcidānanda, is itself Mahākameśvara. The srīšarkarācāryamathasya padmapādam cosmic reality which is satcidānandamaya is
ca hastamalkam ca siasyam, Mahātripurasundari, Lalită. As the locus of tam trotakamvārtikakāramanyāna
Mahātripurasundarī, Lalitā, Mahākāmeśvari is smadgurn santatamânato'smi. 28 Mahākāmeśvara himself, it is figuratively said that If the rituals od Srividya are examined, it is Mahākāmeśvari, Lalitā is in the eternal embrace of through and thorugh Atmaśodhana Țatvācamanam:- Mahākāmeśvara. The devotee (Upāsaka) the self
Om hřim Srim aim kaeilahrim atmatattvam qualified by internal organ. Thus unqualified self is sodhayāmi swāhā.29
Mahākāmeśvara (Acosmic Self). The qualified self is Gurupadukāmantrah :
Mahākāmeśvari (Cosmic Self). The self qualified by om aim hrim śrim.......... soham internal organ is devotee (Upāsaka). svarūpanirūpanahetave sriguruve namah."
Siva without Sakti is śava: Svatantratantra maintans that svātmā eva Śivah saktyā yukto yadi bhavati saktah prabhavitum viśvātmikā lalita devi. One may question that if na cedevam devo na khalu kuśalah spanditumapi. liberation is the only aim then it could be realised by Srividyā Rājarājeśvari presides over five the Aupanişad Brahmavidyā : atmă vă are corpses of Brhmā, Vişnu, Rudra, Isa and Sadāśiva. drastavyah... Through Ātmavidya one can realise How ? Acosmic Brahman associated with various emancipation :' tarati sokamātmaviť what is the need powers takes the form of Brahmā, Vişnu and Rudra of Srividyā which is so much complicated due to its etc. engages itself in five actions (Pancakstya), very complex rituals. It is true that there is well creation, maintenance, destruction, selfestablished tradition of Atmavidyā, Brahmavidyā concealmentand, self-revelation (śrști, sthiti, laya, through Sravana, Manana and Nididhyāsana. But it nigraha and anugraha). Above-mentioned five deities is the toughest path as declares in the Upanişads :- the first four are feet and Sadāśiva is the pedastal on scaryo jnāta kuśalānuśiştah."
which in the embrace of Mahākāmeśvara Further the same Upanişad declares :
Mahākāmeśvarī presides over. kşurasya dhāra nišitā duratyayā durgam
Let us examine the symbolism of four weapons pathastatkavayo vadanti.
in the four hands of Kāmeśvari :The path of Ātmavidyā is as dangerous as They are Pāśa (noose) Anukusa (hook,) travelling on razor's adge. The Bhagavadgitā holds Ikṣudhanu (sugar-cane-bow) and pañca puspabānas the same view :
(five flowery arrows). On these four concentration is manusayāņām sahasreșu kaścidyatati siddhaye." made by the devotees of Kāmeśvarī.
But the path of Srividyā is simpler co-mpared Pāśa symbolises attachment towards the 36 to the path of the traditional Ātmavidyā advocated by elements of this system. Rāgah pasah the Upanişad. Even an ordinary man is qualified to (Bhāvanopanişad , sütra -33). enter in to the worship of Srividyā. Śrīvidyā being Ankusa symbolises hatred and dislike, the worship of goddess mother, she herself takes care Dveşo'nkuśah (Bh. TS. 24) ikṣudhanu symbolises of her devotee. Then again, the path of Ātmavidyā is manas which is of the nature of action ikşudhanuh the path of utter negation : Atyantavairāgyavatah (Bh. St. 22) Panca - Puspabāņa :samādhiḥ, while the path of Śrīvidyā is both, the path They symbolises the five subtle elements of affirmation as well as negation :
(pañca tanmātrā) of Sabda, Sparśa, Rupa, Rasa and Śrisundarisevanatatparāņām
gandha (Sabdāditanmātrah pañca puspabāņāh - Bh. bhogaśca mokşaśca karastha eva. Str. 21). The Uttaracatuhśaiśāsra describes the exact Let us examine the nature of Kāmeśvara, nature of these weapons in the following way:kāmeśvari and the devotee. Acosmic reality which is Icchāśaktimayam påsamankuśam jnāmarūpiņam,
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Kriyāśaktimaye bāņadhanusi dadhadjjwalam. consciousness over the Sodaśāntendumandal part of
Pāśa symbolises icchāśakti, Ankusa the body of the Universal Conscious Power is the symbolises jnānasakti and Bāņa Dhanușa symbolises offering of the betel, Tāmbūlārparņam. The kriyāśakti.
imagination of the all possible sound including parā, There are various methods of the external paśyanti etc. into Brahman is the offering of the prayer, worship (Bahiryāga) of päśānkusaikṣushanupan- Stuti-gānam. The mental modifications which go cbāņadhāriņi, Pancapretāsanāsīnā, Mahātripur- towards objects, imagining there of eradicating their saunsari. One may folow any method so far as the object-materiality and then merging them into bahiryāga is concerned. Various rituals form the Brahman is the offering of Pradaksiņā. The withdrawl internal aspects of worship (Rahasya pūjā). The of mental modifications from their objects and then imigination that the perfect universal conscious power merging them into Brahaman is the salutation, is well established in her grandeur is the offering of Praņāma. This is the very esoteric part of Saktopāsanā. seat (Asanam) The washing of the feet of the universal A devotee who is initiated by a teacher if he or she conscious power forming the gross world out of space worships daily with full concentration the universal air, fire etc. by the imagination of water of conscious power in the above manner the devotee saccidānanda is the offering of water (Padyam). realises Siva. If the entire process of the Antaryāga is Washing of the hands of the universal conscious philosophically analysed we come to the conclusion power forming the subtle world of name and form of Adhyānopāpāvādābhyām nişprapancam out of subtle elements of impurities by the imagination prapancate, the dialectic of superimposition - nagation of water of saccidānanda is the offering of Arghyam. fully operates. This is the secret of Srividya which The imagination of washing of all the organs of the makes it Brahmavidyā, because at the last ritual of body of the universal Conscious Power by the water Prayer the devotee imagines to withdraw all mental of satcidānanda is Snānam. The imagination of the modifications from their objects and then merge them cloth of consciousness and then drying up of all the into Acosmic Brahman. There remains then nothing imagined modes of organ of universal Conscious except the Acosmic Brahman. Power by this cloth is Deha_Pronchanam. The Depending on the competence of devotee imagination of ornaments of immortality, there are four forms of Worship-Upāsanā of Sri Vidya. undecayingness and of subjectivity and then They are the following four ;imagination of offering of such attributeless ornaments The gross form :- In this form of to the Universal Conscious Power is Mahākāmeśvarī each and every part, organ of the Abharāṇāpamam. The imagination of imposition of body of Mahākameśvari is well distinct and extremely Consciousness by eradicating the physicality of beautiful. This form could be realised through the various organs of the body of the Universal Conscious concentration of hymn by the devotee. This gross form Power Gandhavilepanam, in the same way the of Kameśvarī is the object of perception as the devotee imagination of imposition of consciousness by enjoys the bliss of transcendental beauty of Kameśvarī eradicating the sky-organs of the body of the Universal by his her eyes as well as by his or her hands touching Conscious Power is offering of flowers Puspārpanam. the feet of Kāmeśvari. In the same way the imagination of imposition of the subtle Form :- This form of consciousness over the Taijas organs of the Universal Mahākāmeśvarī is hymnal, and as such is the object Conscious Power is offering of Dipam, of percepion by ear as well as by the apeech organ. Dipadarśanam. The imagination of imposition of A hymn is very subtle is recited by the speech organ consciousness over the nector-organs of the body of and is heard by the ears, referred in the the Universal Conscious Power is the offering of Lalitásahastranāma:Naivedyam. The imagination of imposition of Srimadvāgbhāvakūtaikasvarūpamukhapankajā.
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TI
ASPECTS OF JAINOLOGY VOL-VII 'Vāgbhvakūta is the first five alphabets of the Manmatha tradition, i.e., the tradition of Kāmarājavidyā is Pancadasi hymn which are the face-rose of in vogue. In the Tripurārahasya-Māhātmya-Khandathere is Mahākāmeśvari ; Mantramayi Devatā according to amyth according to which Kämadeva through his dedicated his theory the organs of the body of deity is visualised devotion to Mahākāmeśvari got her pleased and in return by the recitation of hymn of that particular deity and had some rare blessings and among these blessings there were and it is the object of perception of ear being heard certain facilities for the devotees of Māhākāmeśvari. From and by the speech organ as being recited by it. then onward the tradition of Kämariajvidyā became very The Transcendental (para ) Form :
popular. The devotee could realise it only by Manas Kāmarājavidyā has fifteen alphabets, kakārādi. It is organ only because it is' Caitanyamātmano rūpam, also called kādividyā The Tripurop-anisaddescribes about Mahākāmeśvarī being consciousness itself. There are it in the following way :different grades of devotee.
kamo yonih karnalā vajrapāņih, The fourth (Turiya) Form :
guhā ha să mătariśvābhramindrah, This form of Mahākāmeśvari cannot be punarguhā sakalā māyayāca, grasped even by speech and Manas organs. The
purūcyeşā viśvamātādividya indivisibe form of Mahākāmeśvari is experienced Lopāmūdrā-tradition is Hādividyā. It has also 15 only by the free souls in the indivisible Ahamtā form:- alphabets. The hymns related with the kādi and Hädividyās
The success of Upāsanā of Srividya lies in are used in the worship of Kāmeśvari who is sitting in the the complete identification of devoteee to his or her embrace of Kāmeśvara. Remaining ten tradittions are simply teacher. This is the secret of this Upāsanā. Srividyā reffered into the recitation of this tradition. They do not have herslf is Consciousness incarnate and there is non- any particular use in the current worship-methods. difference between the Srividyā, its hymn and its Tripurā is really the presiding deity Srividyā of the teacher. The devotee must identify himself or herself Śrīkāmarāja Vidyā - tradition. Tri-- that which is purāof with the entire tradition of this Upāsanā stating from Trimūrtis, i.e., that which transcends the guņa- traya. its founder Śri Ādinātha etc. In the Sundeītāpaniya it According to the Gaudapādīya Sūtra--- tattvatrayeņa bhidā. is well illustrated that as the terms Ghat, Kalasa and Tripurārnava gives another etymology-three nerves - Idā, Kumbha cannote one and the same meaning, in the pingalā and Suşumnāthemselves are Tripura, as she is the same way humn (Mantra), its deity (Devatā) and the power which resides in the Manas, Buddhiand Citta. There teacher (Guru) terms cannote one and the same are a few more etymologies of this term, Tripurā'. Being the meaning.
mother of Trimūrti (Brahmā, Vişnu, Mahesa); Being yathā ghataśca Kalasah Kumbhaścaikārthavacakāh, Trayīmayi (Rk, Yjuh. Sāma.), at the time of Mahapralaya tathā mantro devată ca guruścaikäthavācakāh. she absorbs Trilokīworld in herself. The Sanketapaddhati
There are the following 12 subschools of and the Vämakeśvara- Tantradescribe the nature of Tripurā Srividyā; named after their teachers:
in this way--- Brahmā, Vişnu, Isarūpīņi Srividyā herself has 1. Manu, 2. Candra, 3. Kuber, 4. Lopāmudrā, three forms, Inānasakti is her middlepart and Kriyāśakti is 5. Manmatha, (Kamadeva) 6. Agasti, 7. Agni, 8. her lower part. Sürya, 9. Indra, 10 Skanda (Kumāra Kārtikeya) 11. Generally all other deties have two symbols of Śiva and 12. Krodhabhattāraka (Durvāsā). Varābhayaboon and non-fear, as they grant boon as well as manuscandra Kuberaśca lopāmudrā ca manmathah, non-fear to their devotees. Srividyā being Brahmamyi agastiragnih sūryaśca indrah skandah śivastathā, incarnate herself for the welfare of the world. She does not krobhattārako devyā dvādaśāmi upāsakāh dramatise herself by granting Vara-boon-and Abhaya(Non
All these 12 teachers had their indendent traditions. fear) to her devotees. At present the 4th and 5th traditions of Lopāmudrā and Srividyā has ten sport-bodies :-1. Kumāri, 2. Manmatha are in vogue. Among these two also mostly the Trirüpă, 3. Gauri, 4. Ramä, 5. Bharati, 6. Kali 7.Candikā, 8.
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Kätyāyani, 9. Durga and 10. Lalita.
in Jainim. In the Tântric tradition Vidyā and Mantrahave Having thrown some light on Sāktopāsanā with very significant place. The difference between Vidyāand special reference to śrividya let us examine the Sāktopāsa in mantra is very simple. Vidya is always presided over by a Buddhism and Jainism:
female deity, while the presideng deity of Mantra is always a Out of Mahāyāna Vajrayāna or Mantrayāna male deity. Thus there are 16 Vidyās they have 16 female emerged as a branch, which itself became the source of nine presiding deities. There are 24 yaksiyās one for each subsects of Vajrayana. They are:1. Srāvakayāna, 2. Tīrthankara For detalis Sagarmal Jain's Tantric Sadhanais Pratyekabudhayāna, 3. Bodhisattvayāna, 4.Kriyātantrayāna, the best book they are found in the two traditions of Jainism, 5. Garyā or Upāyatantrayāna. 6. Yogatantrayāna, is. some in the Svetāmbara tradition and some in the which itself has three subsects, 7. Mahāyogatanrayāna, Digambara tradition. 8. Anuttaayogatanrayāna and 9. Atiyogatantrayāna. Out of In the Hindu tradition here are only ten Mahāvidyas these three nine subsects of vajrayāna first three were but in Jainism there are 16 Vidyas It's a fact that the Tāntric ascertained in the three Budhhist Councils just after the tradition was smuggled in Jainism either from Hinduism or departure of Buddha himeself. Remaining six were taught of form Buddhism but once it entered into Jainism the various Padmasambh- ava in Tibbet. In the yāna literature four dimensions of occult sciences like Yantras and Mantras made disciplines were exponded: 1. Drştipāda, 2. Dhayānapăda a, their strong grounding in Jainism. These Yantras and Mantras 3. Caryāpāda, 4.Phalapād.
have their presiding deities and they are effective only their The worship of the Buddhist deity-Tārā is well deities are awakened. Jainism has almost the same status and known worshiped by Hindus as well as Buddhists alike. there significance for Śāktopāsanā which we find in Hinduism is huge literature on the worship of Tara. There are at least 33 and Buddhism.. When we come to the Stotra literature in books on the worship of Tara. In these books five organed Jainism there are stotras addressed to various deities. But worship of Tārā- Patala, Paddhati, Kavaca, Nāmasahasra and when we read Sri Padmavatistotra we are reminded of stotra have been in detail described. Manimekhalā-the female Lalităsahasranama. She has been addressed with various deity similar to Tārā female deity of Mahāyāna is worshiped names such as Kali Karāli, Candi, Cāmundi, Brahmāņi, by Hinayāna. Buddhists of Ceylon and Thailand etc. woship Kälarātri, Tārā, Gauri, Vajrā, Gāyatrī, Prakriti, Bhārti, her as the sea-deity. Tärä-Tārākā pair is like the pair of siva- Tripură, Samayā, Māyä etc. In the entire Jainism she is Śakti. Advayavajrasangrahatreats Sūnyataas the bride and supposed to be the most auspicious deity. The worship of this can be achieve by Pratibhāsa, the bridegroom. They have Padamāvati leads to both first, the devotee gets all wordly been associated in a pair. They can relish the natural bliss pleasures and ultimately liberation too. The author of this only when they are in pair like Siva-Sakti.
article congratulates on this occassion Dr. Sagarmal Jain For Jainism like Buddhism is atheistic but it belives in his latest book published in 1997 entitled Jaina Dharma Aur twenty-four Tirthankaras. They are worshipped like Hindu Tantri Sadhanā since it has thrown light on some of esoteric deities. In the early Jainism there was no place for Mantra branches of Jaina Tradition so long very little known and it and Tantra. But still earlier, the tradition of Pārsvanātha is reference book for further investigations ino the Jaina accepted Mantra and Tantra. In the Jaina Tradition of Tantra, Tântric Sādhanā. it is Pārsvanātha or Padmăvati is worshiped and never Mahāvīra. In Jainism about 4th and 5th century B.C. Tantra References :entred into it. There is reference of Vidyadharakula in the
1. Manusmrtih, II, 28. Kalpasūtra Pattāvali. The ancient Jaina literature also refers 2. Srimadbhāgavata, 1.6.17 --25. Janghācāri and vidyācāri two Śramaņas who acquired 3. Ibid, X.29.10. supernatural powers through rigorous sādhanäs by which 4. Kulārnava Tantra, XvII, 67. they could move into the sky. Dr. Sagarmal Jain's recent 5. Pangalopanişad, IV. 21-22. book-Jainadharma aura Tântric Sadhana is a beautiful
6. Řg Veda, Astaka, VIII, 7.11. reference book which has exploded a huge Tantric literature
7. Drvyatharvasirșa, 2.
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ASPECTS OF JAINOLOGY VOL-VII
8. Ibid., 4. 9. Ibid., 6. 10. Ibid., 7. 11.Ibid., 15. 12.Ibid., 17. 13. Ibid., 23. 14. Svetāśvatara, VI.8. 15. Ibid., IV.3. 16.S.B.S. 1.4.3. 17.Ibid., II.1.30. 18. Minākṣīstotram. 19.Lalitātriśatībhāsya. 20.Durgāsaptaśati. IX.6. 21. Ibid., Ix.
22.Devibhāgavata, III.6.2. 23. Ibid., IV. I.1. 24. Ibid., 25. Atharvandvitiyopanişad(The last lines). 26.śrīcakropanişad (The last lines). 27. Srividyātārakopanişad (The last lines). 28. Srikarapatra Swami, Srividya-Varivasyä, Edtd. by Sri Sītā Rama Kaviräja) Akhi Bharatiya Dharmasangha, Varanasi. p.22. 29.Ibid., p.23. 30.Ibid., p.23. 31. Kathopanişad, 1.2.7. 32.Ibid., 1.3.4. 33.Bhagavadgita, VII.3 34. Trpuropanişad, 8.
ORIGIN AND DEVELOPMENT OF TĪRTHANKARA IMAGES
Dr. Harihar Singh
Jainism is a living faith in India. The Jainas Krşņa. This order received great impetus under Pārsva attribute a great antiquity to their religion. According and Mahāvīra in the 8th and 6th centuries B.C. to Jaina tradition Jainism is eternal, and has been respectively.? Attempts have, however, been made to revealed again and again by various Tīrthankaras who show that prior to the Vedas, Jainism existed even in are also called Jinas, that is' the one who has conquered the Indus civilization. But this is merely a conjecture. the world'. In the present Aavasarpini period (the Unless sound evidence come to light, it is hard to say descending half of the time wheel) there were twenty- anything with a degree of certainty. Apart from this four Tīrthankaras, the Ist being Rsabhadeva and the except for the last two Tirthārkaras, namely Pārsva last, Vardhamāna Mahāvīra.
and Vardhamāna, whose historicity is proved beyond The Jainas trace their origin to the doubt, * all the Jainas appear to be mythical figures, as Vedas. Their earliest Tirthankara Lord Rşabha, is no historical records whatsover have come to light. referred to in the Vişnu and Bhāgavata Purūņas. The I t was for long belived that Indian art Rgveda refers to a certain Kesi, that is one who has originated from the age of Mauryas, but wih the locks of hair; and since this is found associated with discovery of the Indus civilization the antiquity of Rşabha, it is supposed that Kesi is a synonym for Indian art goes to the 3rd millenium B.C. There is a Rşabha. This is furthr supported by an evidence in big hiatus between this pre-historic phase of Indian the Rgveda itself, wherein Keśī and Vrşabha - bull, art and the earliest historical period, namely the the vehicle of Rsabha - are described together.' That Mauryan. But the explorations and excavations done Jainism was in existence in the Ķgvedic period is also in the Indus and the Gangetic valleys and elsewhere supposed by the fact that there existed a religious order are bringing this hiatus closer, and it is quite possible which denied the authority of the Veda. This heretic that after sometime we may be able to reconstruct the religion was probably Jainism. At the time of the histoy of this period. It was due probably to the Mahābhārata war, this Order was led by Neminātha, perishable nature of the materials like wood, clay, the 22nd Tirthankara, who was a relative of Lord ivory, etc., that the art objects could not long survive. Dr. Harihar Singh, Reader, Dept. of A. I. H.C., B. HU.
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ORIGIN AND DEVELOPMENT OF TIRTHANKARA IMAGES
It is only terracotta (backed clay) which could survive and a stratigraphical allocation of numerous terracotta objects, usually found in ancient sites, may help us in determining the history of Indian art from the end of the Harappa culture to the advent of the Mauryas.
The Indus civilisation, which, according to the recently accepted chronology, is dated not earlier than the 2nd half of the 3rd millenium B.C., has bequeathed to us a number of sculptures in different materials and numerous seals and sealings with figures engraved upon them. Among these findings is a small statuette, about four inches high, hailing from Harappa, and is very analogous to the Lohanipur Jina image of the Mauryan age. This broken image, of which only the torso now remains, is nude and has two large circular depressions on the shoulder fronts, a feature not to be seen in any Jina image as yet. According to U.P. Shah it probably represents some ancient Yakṣa. Others, however,identify it with a Jina image. But the Harappa script being undeciphered, this attribution is not accepted on all hands, and moreover it has not yet been decided as to what religion this culture indeed adhered to.
It is difficult to say exactly at what date Jina images came into existence. If we leave aside literary references, the first archaeological evidence to a Jina image is found in the Hathigumpha inscription of king Khäravel of Kalinga (Orissa). Who ruled in the Ist or 2nd centurry B.C. and was a Jaina by faith. The epigraph which records the year wise exploitations of Khāravela reveals that in the 12th year he brought back the statue of Kalinga. Jina which had been taken away by king Nanda of Magadha. The Nanda king may be defined with Mahäpadmananda, as the Puranas say that he brought the entire land under his undisputed way and also exterminated all the Ksatriyas."This event may have taken place some time between 364-324 B.C. Although here is a very early reference to Jina image, there is no actual example to corroborate it, this is because Indian artists started making images in permanent materials like stone from the Mauryan age.
The earliest remains of Jina images are available from the Maurayan period. There are two
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mutilated male torsos acquired from Lohanipur and now exhibited in the Patna Museum. Both the images are made of Chunar sandstone and are naked. The larger one retain a high quality of polish, which is a characteristics feature of the Mauryan sculptures, while the smaller one, identical in style and appearence, has no polish. They have both been found with a large quantity of Mauryan bricks and a worn silver punchmarked coin. Jayaswal ascribed the larger torso to the Mauryan period and the unpolished smaller on the Sungan." According to Banerji-Sastri, the unpolished torso probably belongs to the Gupta Period." From their appearences they seem to be standing in the kayotsarga posture, a mudra very common with the Jina images. Since both the torsos very much resemble the Jina images of the later period, they represent some Tirthankaras. However, except for their nudity and their particular posture there is no indication to call them Jina figures, as the most important symbol called the śrīvatsa, which is invariably engraved on the chest of all the later Jina images and is a recognising symbol to differentiate a Jina figure from the Buddha, is absent here.
Of the Sunga period very little is known in so far as the Jina images are concerned. The Hathigumpha inscription of Khäravela, referred to above, besides making mention of an earlier tradition of the Jina images, also furnishes an indirect evidence that the Jina images were there during his times. There are a number of caves excavated in the Udayagiri and Khandagiri (Orissa), some of them are even attributable to Khāravela's queens, but, strange enough, none of the early excavated caves has Tithankara images and where ever they are found they belong to the 8th-9th centuries A.D.12
A very old bronze image of Tirthankara Pārsvanatha or Supārsvanatha, now exhibited in the Prince of wales Mauseum, Bombay, was found at Jondhali Baug, Thana district. In absence of any written record no precise date can be assigned to it. On stylistic grounds Shah dates it not later than circa 100 B.C." This nude image in kayotsargamudra has a small canopy overhead. The figure does not bear the Śrivatsa mark on the chest. Its pedestal is,
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unfotunately, lost, so that nothing is known about its feature which are invariably noticed in the images of cognizance. But its snake canopy is very important the succeeding period. The images of Ādinātha show from the iconographic view-point. Hemacandra locks of hair falling on the shoulder, and those of describes that Tirthankara Supärsvanātha had a Pārsvanātha a sevenhooded serpent canopy overhead. serpent canopy, one hooded, five-hooded, or nine- We have already mentioned this characteristcs of the hooded. Regarding Pārsvanātha he states that he had later, while regarding Adinātha we learn from the a seven hooded snake canopy over his head. The Trişasti that during the time of his initiation the Lord association of cobra with Pārśva is also known from tore out the hair of his head in four handfuls, and as an inscription of the Gupta period, though the actual he was on the point of pulling out the rest of his hair image is missing. 16 From the ramains of canopy it in the 5th handful, he was requested to let it remain appears that the image under review originally had a and the Lord, unwilling to refuse, kept the creeper of five-hooded cobra canopy. If Hemacandra is to be hair just as it was. 18 The literary reference is fairly followed the present image is that of Supārsvanātha, corroborated by the archaeological finds of the Kuşāņa the 7th Tirthankara, but since the images at this time as well as later periods. Since Adinatha alone is shown were not carved according to the prescribed rules of with this mark, it is very easy to identify his images. the texts, it could also be that of Pārsva, the 23rd Some Ayagapattas have a figure of Jina in Jina, as is generally supposed. During the Kuşāņa the centre. In one instance there is a padmāsana Jina period we notice a marked development in the with a seven-hooded snake canopy overhead. As is iconographic features of the Títhankara image. evident from the snake-canopy, this figure is Excavations carried out at Kankali Tila, Mathura, have unmistakably that of Pārsvanatha."Other Ayagapatta yielded a veritable store-house of Jaina antiquities Jina images are inidetifiable, as they do not bear any including Jina images, Āyāgapattas. etc, mostly attiribute. belonging to the reigns of Kaniska Huviska and Smith, taking pedestal lions to be the Vāsiska. They are made of white - speckled red cognizance of Mahāvīra, identified such figures with sandstone and are divisible into four groups: (1) Mahāvīra.20 But this is quite untenable. Lions are standing images in Kāyotsargamudrā, (2) seated generally depicted on the pedestal of Jina images of images in padmāsana, (3) Pratimā Sarvatobhadrikā this period, not as lāñchana but as supporters of the (the quadruple images) in standing posture and (4) throne. If they are represented as lāñchana they are Pratima Sarvatobhadrika in sitting posture.All the Jina not shown in the centre of the pedestal, which is images are nude.
usually the practice. Besides, two images in Smith's21 The Jina images of this period are marked with can be definitely identified with Rşabhadeva, as they śrivtsa symbol," which introduced for the first time show locks of the hair on the shoulders, Thus, we see during this period, and became an indispensable sign that by the kuşāna age the iconographic feature of the of all the later Jina images. But their distinctive Jina images were not fully evolved but they were on cognizances (lāñchanas) were yet to come, and instead the formative state, and excepting those of Ādinātha they contained cakra, alone or placed on pillar, with and Pārsvanātha, none of the Jina images can be its rim to the front, and figures of lion or seated Jina, identified with a degree of certainity. Generally, figures of house-holders including men, After the Kuşāņas and before the coming of women and children are also depicted.
the Imperial Guptas came a transitional phase. During In the absence of cognizances the Jina images this period Jina Images were executed without of the Kuşāņa period, except for those of Adinātha cognizances, of this period very few images are and Pārsvanātha, are unidentifiable. Images of known. Some Jina images recovered from Chausa, Ādinātha and Pārsvanātha, too, do not carry the now displayed in the Patna museum, are worth lāñchanas, but they bear some other distinguishing mentioning. These images carry the influences of the
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ORIGIN AND DEVELOPMENT OF TIRTHANKARA IMAGES Mathura sculptures described above, and but for the Neminātha the prince, 24 but Shah2 takes it to Cakra - images of Ādinātha and Pārsvanātha, which show purusa which is a popular representation in the Gupta locks of hair on the shoulder and a seven-hooded cobra period. There is a padmāsana Jina in dhyānamudra canopy overhead respectively, none can be identified on either side of Cakra-puruşa. As is well evident with an amount of certainty. The recognising symbols from the representation of Sankha, the lāñchana of were still to come into vogue. In one specimen, Neminātha, there is not the least doubt about the however, is represented a crescent on top of the identification of the image. parikara, for which one may mistake it to be the Another piece datable to the Gupta period hails cognizance of the 8th Tīrthankara, Candraprabha. But from Varanasi and is now preserved in the state as the locks of hair on the shoulder apparently Museum, Lucknow.26 This is an image of Ajitanātha indicate, it cannot be identified with other than , 2nd Tirthankara, standing in the käyotsargamudrā Rşabhanātha. Some sculptures also retain the śrivatsa with his elephant-vāhana. Among the images without sign. These images from Chausa are mostly dated to cognizances only those of Rsabha and Pārsva, which th 3rd 4th centuries A.D.
bear the usual signs, can be identified. One such image With the advent of the Guptas there had been of Rşabhadeva is preserved in the Baroda Museum,27 a tremendous change in every field. Texts on and another in the Prince of Wales Museum, iconometry were written images began to be made Bombay.28 according to the rules and regulations prescribed by After the Gupta period the sculptor strictly the texts on iconography. From this period onward followed the iconographic texts, as the Jina images we discern a marked development in the iconographic of this period were fashioned not only with their features of Tirtharikara images. Now they reveal the respective cognizances but also with their different recognising symbols, with the help of which śāsanadevatās. The images with śāsanadevatās began we can differentiate the Jina images from one another, to be made probably from the 7th-8th centuries A.D. though images without cognizances are not altogether Such images may be seen in the caves of Badami and wanting
Aihole, in the museums at Lucknow etc. and in the About the distinguishing features of Jina early medieval temples of the India. images Varāhamihira speaks in his Brhatsmhitā that a Tírthankara should be represented as having long References hanging arms, the śrivatsa symbol, a peaceful 1. Risabhachandra, K., 'Jaindharma kā Prasāra' in appearences, youthful body as being nude.22 Although Hindi),Shri Mahavira Jaina Vidyalaya Golden the author does not say anything about the lāñchana, Jubilee Vol., pt. I, Bombay, 1968, pp. 9-10. there are specimen of this period exhibiting the 2. Jain, H., The Culural Heritage of India, vol I., lāñchanas.
edited by S.K. Chatterji, 2nd edition, Calcutta, From the Vaibhar hill, Rajgir (Bihar), hails a 1958, p. 400. seated image of Neminātha, the 22nd Jina with a 3. Risabhachandra, K., op. cit., p. 10; Jain K.P., fragmentary inscription, in the Gupta characters, Jaina Antiquary, vol. XIV, No. 1, Arrah, 1948, referring to Candragupta of the Gupta dynasty23 This pp.1-7. is the earliest example known so far with precise date 4. Jacobi, H. Encyclopaedia of Religion and ethics, and showing cognizance of the Tīrthankara. The vol. VII, edited by James Hastings, New York, figure shows on the pedestal two sankhas with a 1914, p.466; Ghatage, A.M., The Age of Imperial dharmacakara in between. The dharmacakra is very Unity, edited by R.C. Majumdar, Bombay, 1951, interesting because it shows a young prince standing pp. 411-13. in the centre of the wheel, which also serves the 5. Wheeler, M., The Indus Civilization, purpose of his aureole. Some identify it with supplementary vol. to the Cambridge History of
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India, Cambridge, 1953, pl. XVII c. pp. 66-67. 6. Shah, U.P., Studies in Jaina Art, Varanasi, 1955, p.4.
7. Jain, K.P., Ahimsa-vānī (in Hindi), year 7, Nos. 1-2, Aliganj (Etah), 1957, p.54.
8. Barua, B.M., Old Brahmi Inscriptions, Calcutta, 1929, pp. 22. and 45; Sircar, D.C., Select Inscriptions, vol. I, Calcutta, 1942, p.209 Mittal, A.C., An Early History of Orissa, Varanasi, 1962, p. 158 Raychaudhuri, H.C., Age of the Nandas and Mauryas, edited by K.A. Nilakanta Sastri, Varanasi, 1952, p.18; Mookerji, R.K.,The Age of Imperial Unity, edited by R. C. Majumdar, Bombay, 1951, p.32.
10. Jayaswal, K.P., Jouranal of Bihar Orissa Research Society, vol. XXII, p.130-32
12. Kuraishi, M.M.H., Ancient Monuments of Bihar and Orissa, Calcutta, 1931, p. 244.
11. Banerjee Shastri, Journal of Bihar Orissa Research Society, Vol XXv, p. 120ff. 13. Shah, op. cit., p.9
14. Trişaştiśalākaprusacaritra, vol. II, edited by B. Bhattacharya, English translation by H.M. Johnson, Baroda, 1937, pp. 309-10.
15. Trişaşti., vol. V. etd by B.J. Sandesara, Baroda, 1962, pp. 395-96.
16. Fleet, J.F., Carpus inscriptionum Indicarum, vol. III, reprint Varanasi, 1963, p.259.
17. It is one of the eight auscipious objects known to both the sects of Jaina religion, the others being svastika, nandyavarta, vardhamanaka (powder flask), bhadrasana (throne ), kalasa (pitcher), drapana (mirror) and matsya (pair of fish). For 18. Trişaşti., vol. I, p.166 illustration vide Trisasti., vol. I, pIV.
19. Smith, V. A., The Jain Stupa and Other Antiquities of Mathura, reprint, Varanasi, 1969, p.17; Bhattacharya, B.G. Jaina Iconography, Lahor, 1939, p.16. Shah, U.P., op. cit., 77-78. Smith, op. cit., pp. 49, 50-51 and pls. 91,93-94. Ibid, pls. 91 and 94.
आजानुलम्बबाहु; श्रीवत्साङ्कः प्रशान्तमूर्तिश्च । दिग्वासास्तरुणी रूपवाँश्च कार्योऽर्हता देवः ॥
-Bṛhatsamhita, edited by A.Jha, Varanasi, 1959,58-45.
23. Chanda, R.P., Archaeological Survey of India,
Annual Report, 1925-26, p. 125, pl. LVI, fig. 6. 24. Ibid., p. 126.
25. Shah, U.P., op. cit., p. 14.
26.
Sharma, R.C., Shri Mahavira Jaina Vidyalaya Golden Jubilee Volume, pt. 1, Bombay, 1968, p. 155, fig. 11.
20
21.
22
27.
28.
Shah, U.P., op. cit., p. 16, fig. 19.
Shah, U.P., Akota Bronzes, Bombay, 1959, pp. 28-29 pls, 10-11.
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THE PURE AND THE AUSPICIOUS IN THE JAINA
TRADITION*
Padmanabh S. Jaini
According to Louis Dumont's well-known Rşabhadatta. However, Indra, king of the gods, who thesis Concerning the India Caste structure, the Varna has come to pay his respects to the foetus, became system is based upon the fundamental opposition greatly agitated, and the following thoughts occurred between the respective purity and impurity of the to him: highest Brāhmaṇa caste and the lowest untochable,
It has never happened nor does it happen nor will and the relative purity of the two intermediate castes.
it happen that Arhats, Cakravartin...in the past, present or As valuable as this thesis is for understanding future should be born in low families, means families, traditional Indian Society, however, it is valid only degraded families, poor families, indigent families, beggar on the presumption that the Brāhmaṇs are indeed at families or Brähmana families. For indeed, Arhats, the apex of the social structure. His interpretation Cakravartins...in the past, present and future are born in would not apply to Indian social groups which uphold high families, noble families, royal families, warrior the major provisions of the Varna scheme, while families, families belonging to the race of Ikşväku or of rejecting the traditional hierarchy by degrading the Hari or in other such like families of pure descent on both Brähmana one step, and similarly upgrading the sides. Surely this is an extraordinary event in the world: Kşatriya, and thus placing the latter at the apex of the
In the evermoving and endless progressive and regressive
time cycles, it is possible that a prodigious exception might social system
occur and an Arhat, a Cakravartin....might enter the womb The disjunction between sacredness and of a woman from an undeserving clan owing to the potency temporal power is supposed to account for the of the karma pertaining to the formation of their bodies superiority of the Brāhmana and the subordination of and clans. But they have never been born from the womb the Ksatriya. While this interpretation is certainly
of such a woman; they are never thus born, nor will they orrect within the traditional Vedic Varna system,
ever be born. Hence it is the established custom that the
embryo of an arhat so conceived is taken from the womb when the Ksatriya is elevated to the highest position,
of a woman and is transferred to the womb of a noblythe Brāhmaṇa can no longer claim superiority on the
bred clan. I shold therefore have the embryo of the last basis of a purity which he is presumed to embody.
Tirthankara transferred from the womb of the Brāhmana The case of the Jainas, who claim to be not only non
woman Devānandā to that of Trišalā, a Ksatriya woman Vedic, but even anti-Vedic, in their cosmological
of the Kaśyapa gotra, belonging to the Nața clan, living view, is of special significance for the study of such in the Ksatriya sector (the queen of king Siddhartha) in social groups as the Sramanas.2
the town of Kundagrāma. To illustrate the radical reinterpretation of The Jainas believe that Indra ordered his dumont's thesis which is necessary when examining commander of the army, a demigod named such non-Vedic groups, the legend relating the Harinegamesi, to conduct the transfer. The scene of conception of Mahāvīra, the highest spiritual master the change of embryo (garbhāpaharaņa) is depicted of the Jainas, is particularly illuminating. We are told on the Jaina reliefs found at Mathura datable to the that the was originally conceived in the womb of first century B.C., and the event itself constitutes the Devänandă, a Brāhmana woman, the wife of a certain first of the Kalyānakas, or auspicious events, together
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ASPECTS OF JAINOLOGY VOL-VII with the birth (janma), renunciation (Dikṣā), needs from wish-fulfilling trees and, hence, had no enlightenment (Kevalajñana) and death (nirvāņa), neccessity for human institutions of government, or which are celebrated by the Jainas even today in defense, or administration. At the end of this period, connection with the career of Mahāvīra.
however, the magic trees disappeared and new means
of survival were required. With the need for food The most startling fearture of the Jaina legend
production and the just distribution of resources, the is its strong rejection of the supremacy of the
legend says that Rsabha assumed the powers of kind Brāhmaṇa caste, and its proclamation of the
and appointed several men as armed defenders (ugra) superiority of the Kșatriya. In the case of Mahāvīra
and administrators (bhoga). The king as well as these the opportunity to be born as a Brāhmaṇa was available, and yet rejected. For the other Tîrthankaras
officers assumed the title Ksatriya. Thus according
to the Jaina mythology, at the beginning of civilization as well, the Jainas have ordained that they be
there were only two classes of people, the Kșatriya conceived only in a Ksatriya womb;' the Jaina
and the non-Ksatriya. Gradually, as Rşabha invented position appears to be totally uncompromising in this regard. The Buddhists too maintain that the Kșatriyas
the various occupations of agriculture, animal
husbandry, and so forth, the Vasaya and Sūdra castes are superior to the Brāhmaṇa, but do not prohibit the birth of a Buddha in a Brāhmana family. A passage
(jäti) came into existence. There was still no Brähmana in the Jātaka states unambiguously: "the Buddhas are
caste at all. not born in a family of Vaisyas or of Sūdras, but only According to the Jainas, the formation of the in the two families of Kşatriyas and Brāhmaṇa."6 Brāhmaṇa caste is attributed not to Rsabha, but to his When we compare these two Sramaņa attitudes, it son Bharata, the first Universal Monarch or becomes evident that for the Buddhists, as well as for Cakravartin of India. It is said that Rşabha ultimately the Jainas, both the Vaisyas and sūdras occupied the renounced the throne and became the first mendicant same low status as in the Brahmanical system. of our era, eventually achieving enlightenment and However, the Buddhist ranking of the Brahman and founding the first Jaina monastic order. Under bis the Ksatriya was not fixed. It could be changed tutelage, a large number of people assumed the lay according to the will of the people (lokasammatí). Vows (aņuvratas), which lead the layman The Jainas seem to have rejected any such opption progressively towards greater renunciation of worldly For them, the Brāhman a was forever inferior to the goods and family ties and culminate in the life of Kșatriya, although he remained higher than the two recluse. It is said that Bharata honored these lay lowest castes. The Jaina reasons for maintaining the disciples with gifts of wealth and marked them with supremacy of the Ksatriya must therefore be special sings such as the sacred thread, and so forth, examined.
by virtue of which they were called Dvija (twiceOne of the reasons for placing the Kșatriya at
born). Their spiritual rebirth apparently released them
from the incumbent duties of the other castes. The the pinnacle of the social order can be traced to the
Ardha-Māgadhi form of the Sanskrit word Brāhmana Jaina legend concerning the establishment of human
is mähana. The Jaina texts explain the derivation of civilization at the beginning of the present aeon
this word as māhana (don't kill), which was the advice (Kalpa). The Jainas believe that Rşabha, the first
given by the dvijas to Bharata and otherkings in Tirthankara, was the creator of this civilization which
conformity with their vows. However ad hoc this began after the Golden Age, when all people were
etymology may be, it does attest to the Jaina belief equal and had no rulers. They obtained all of their
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THE PURE AND THE AUSPICIOUS IN THE JAINA TRADITION that in the secular world there are only three castes large, the Jaina community, as it is constituted now, and thus no place for Brāhmaṇa. Only a person who has no community of Brāhmaṇa. The Svetāmbaras, renounces the world sufficiently to be called a lay as well as the Digambaras of the North, do not have a disciple may be called a Brahman. This lay disciple class of priests who perform rituals in their temples, has no functions to perform for the material benefit nor do they employ any members of the Hindu of the society and does not fill any office either at Brāhmaṇa caste to carry out these functions. While court or the temple; his real associations are more they show the incumbent respect to Brāhmana, as with the ascetic who has totally renounced the world Hindus would, they do not consider Brāhmana and who comes to be known as the "true" Brāhmana. superior to themselves. The one exception to this rule The fact that Mahāvīra was not allowed to be born of is found among Digambaras of Karnataka, who do in Brāhmana parents and yet was given the title māhaņa fact have a group of priests known as Indra (or when he became a mendicant is sufficient to illustrate Upādhye), sometimes euphemistically known as the Jaina refusal to accommodate the Brāhmaṇa caste; "Jaina-Brahmans."" The Indras are probably Hindu the secular world consisted of only three castes and Brāhmaṇa converted to Jainism at some time during was not organized according to divine ordinance such the early medieval period, who were entrusted with as found in the Vedic Purusasūkta. While castes the task of attending to the temple rituals and catering eventually became hereditary and may indeed have a to the needs of the Jaina laity on the occasions of hierarchy of their own. this structure lacked any divine various samskāras, such as marriage, child-birth, and Sunction and consequently remained entirely secular. funerals. Their main source of income is the offerings
of food made regularly at the altar by households of a The legend of Mahāvīra's change of womb
given village and the produce of the land attached to leads one to question why the Jainas thought it was
the temples, the proceeds of which they enjoy unworthy of a Tirthankara to be born into a Brahmana
hereditarily. They are thus comparable to the family. The story of course presupposes that the
traditional Brāhmaṇa of the traditional Hindu society. Brahmana parents were not Jainas, whereas the new
There is no intermarriage between the Indras and parents were followers of Pārsva," the twenty-third
ordinary Jainas, nor, of course, with members of the Tirthankara and predecessor of Mahavira. But this
Hindu Brähmana community, who treat these alone is not sufficient to explain the rejection of
Brāhmana as non-Hindus. Brahman family. The word Bhikkhāya-kule (beggar " families), immediately preceding the word māhana, There is a subtle distinction apparent here in the quotation above is very significant: it seems to which is not without significance for our discussion allude disparagingly to the fact that the Brāhmaṇa on purity in Indian society. A Hindu Brāhmaṇa is subsisted on the favors bestowed by others, considered intrinsically pure and, for that reason, other technically making them beggars. The Jainas have castes do not hesitate to receive food from him. In traditionally believed that only a mendicant may beg the case of the "Jaina Brāhmaṇa," however, orthodox for his alms: a house holder's position is to give, not Jainas who have formally taken the lay vows will not receive, charity. The Brāhmaṇa, by remaining a accept food from him even though he may take food householder, violates the law when he accepts the gifts from them. The inferiority of the Jaina Brāhmaṇa given by others, and is thus looked down upon by the derives not only form the fact that he receives gifts Jainas in the same way as they might regard an (Daksiņā) from others for the ritual services apostate monk. It should be stated here that, by and performed, but also because he subsists upon the
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ASPECTS OF JAINOLOGY VOL-VII grains and fruits which have been offered by the associated with the Brāhmaṇa. One noteworthly devotees at the altar of a Jina. These offerings are example is fire (Agni) which is thought to be sacred called Devadravya (goods intended for the worship by all Hindus. Being both a divinity (Devatā) as well of the Lord) and are considered nirmālya, fit to be as the priest of the gods, fire is belived to have an discarded, either by burying them in the ground or by innate sacredness of its own. The importance of fire, throwing them in water. In traditional Hindu temples around which almost all the saṁskāras revolve, such substances would be regarded as prasāda, food including those associated with the funeral ceremony, blessed by the Lord, and thus the purest of substances, is well documented. Given this pan-Indian belief which is eagerly consumed by the devotee. For the concerning fire, one would expect the Jainas also to Jaina devotee, the worship of the Jina is a meditational retain some modicum of veneration of fire. But such act, despite its apparent similarity to the Brahmanical is not the case if one observes Jaina attitudes both as pūjä. Strictly speaking there is no deity in the Jaina revealed in their scriptures and in their social customs. temple : the Jina, unlike the Brahmanical gods, The Jainas do indeed include agni or fire in their list transcends all pretense of "descending" into an of celestial beings (jyotişks devas) together with the image. 12 The visit to a temple is a meritorious act sun and moon. But agni is not considered any more simply because it reminds the devotee of the Jina's sacred than the other celestial beings. preaching. The Jaina layman regards the temple as
The ancient Jaina texts, on the other hand, the holy assembly (samavasarana) of the Jina and
repudiating the efficacy of the fire sacrifice, appear imagines the Jina's presence in that image. It would
to be silent on the role of fire itself. In the postbe socially unacceptable to approach such an august
canonical period, Jainas, especially in the South, assembly empty-handed. The offerings therefore are
undertook the task of integratiæg themselves into neither received by the Lord nor blessed by any ritual
Brahmanical society. It is to Jinasena, a ninth century act on the part of the priest. The "Jaina-Brāhmana,"
Digambara ācārya, that credit is due for achieving this by eating the offered food, demeans himself and for
assimilation at a social level, without compromising that reason is considered lower in status than the
the basic Jaina doctrines. He introduced, apparently śrävaka, the initiated Jaina layman. These
for the first time, a large number of Saṁskäras for observations should show that, for a Jaina, neither
initiating a Jaina layman into the four-fold aśrama the image, the offerings, nor the priest are holy or
scheme, and laid down a variety of ceremonies pure. Rather, the idea of renunciation, as symbolized
involving the kinding of the sacred fire and the by the image of the Jina,"" is the source of purity. By
offering of food in Jaina temples. Explaining the extension, only the emancipated soul or his follower,
worship of fire, however, Jinasena proclaims: the mendicant, may be regarded as the embodiment of purity. In Jainism, the Sramaņa replaces the Fire has no inherent sacredness and no divinity. Brahmana in the caste hierarchy, leaving no truly But because of its contact with the body of the Tirthankara defined station for the latter. The Jina or his mendicant (at the time of his cremation), it can be considered pure. disciple may be called a māhana metaphorically, but
Such worship of fire, in the same way that the worship of
holy places is made sacred by the Tirthankara's having he is certainly not a Brāhmana in the sense of a
attained nirvana there, is not in any way blameworthy, member of the classical Brāhmaṇa Varņa.
For the Jainas, fire is regarded as suitable for worship Certain objects of veneration, which are also only on a conventional level. It is in this wise that Jainas considered agents of purification are usually worship fire as part of their veneration of the Jinas. 15
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THE PURE AND THE AUSPICIOUS IN THE JAINA TRADITION
The inauspiciousness of the funeral pyre not with standing, the Jainas have thus claimed that whatever sanctity fire has is solely derived from its contact with the dead body of the Jaina ascetic.
What is true of fire is probably true likewise of the other material elements (mahābhūtas): earth, water and wind. It is wellknown that the Hindus also regard these elements as sacred and worship them in various forms, considering them to be agents of purity. However, no hymn to earth, such as found in the Atharvaveda.16 is attested to in Jaina texts. Jainas have decried all forms of respect shown to inanimate objects such as fields, stones, mounds or mountains. The Hindu custom of expiatory bathing in rivers and oceans, and worship of the Ganges and other rivers as holy objects, are totally unknown to the Jainas. 17 In fact, the Jainas prefer to use boiled water even for bathing and Jaina monks are not allowed even to touch cold water. All these material substances, including the wind element, are believed by the Jainas to be the bodies of one-sensed (ekendriya) beings, who constitute a form of life.
Vegetable life has also been trated by the Jainas in a manner similar to the mahabhūtas. The Hindus regard certain leaves, flowers and trees as more sacred than others, and make definite association between these with certain gods and goddesses. The Jainas, however, have show a totally different attitude toward vegetable life. The vegetable kingdom for the Jainas constitutes one of the lowest forms of life, called nigoda, and they are wamed against destroying these beings. The Jainas are forbidden to eat a large number of fruits and vegetables, especially those with many seeds, like figs, or those which grow underground like potatoes. The Jaina spares their lives not because he considers them sacred or inhabited by divinities, but because they are the abodes of an infinite number of souls clustered together. The Jaina mendicant has even stricter dietary restriction, and is advised to avoid all forms of greens, since they are
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still alive; hence he subsists mainly on cereals and dried fruits which have no seeds. 18 He may neither kindle a fire nor extinguish one; he may neither draw water from a well nor fan himself. He thus protects
the minute life present in these material elements. Even in modern Jaina monaastic residences (upâśraya) the monks or nuns still live without lights or fans.
These observations should be adquate to show that the Jainas have not regarded as sacred those objects which are universally accepted as pure and auspicious by the Hindus. By repudiating the sanctity of these material objects, as well as of the "sacred cow" and the Brahmana casts, the Jainas would seem to have divorced worldly life from the notion of purity. They see sacredness instead in renunciation, which is attributed not to any particular caste but to a group of people: the ascerics who embody renunciation and render other things sacred and pure only by their association with these people.
The Jaina rejection of the inherent purity of the material elements does not imply, however, that the Jainas refuse to accept any object as being auspicious and symbolic of wealth, fame and prosperity. A Tirthankara's mother, for example, is said to witness certain dreams at the moment of the
conception of the child. 19 These dreams include such animals as a white elephant, a white bull and a lion; divinities like the sun, the moon, and the goddess Śri; and objects like garlands of flowers, vases filled with water, an ocean of milk, a heap of jewels, and pair of fish. All these are no doubt considered auspicious by the Hindus as well. The Jaina households and their temples are not devoid of some form of these representations. But what is significant is the Jaina insistence that these are not true mangalas (auspicious objects). They receive such status solely because of local custom (deśācāra or lokācāra) and, hence, are not sanctioned by the sacred texts.
The Jainas explain the term mangala as: (1)
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that which removes (galayadi) impurities (malaim); or (2) that which brings (Jādi) happiness (mangam sokkham). The Pañcāstikāya-Tatparyavṛtti-tika20 enumerates several objects considered auspicious (mangala) by worldly people and seeks to prove that they are mangala only because of their similarity to particular qualities of the liberated soul. Sesame seeds (siddhartha) are mangala, for example, only because their name reminds us of the siddhas (the perfected beings). A full pitcher (pürṇa-kumbha) is mangala only because it reminds us of that arhat who is endowed with perfect bliss. Similarly a mirror (mukura) is to be considered an auspicious object only because it resembles the omniscient cognition of the Jina.
ASPECTS OF JAINOLOGY VOL-VII
The Jainas are emphatic in their assertion that only ascetics-namely those who follow the Jaina mendicant laws are truly auspictious (mangala). These are considered to be four holy objects (cattari mangalam) in which a layman takes refuge for his spiritual salvation. They are: (1) the arhat or Jina, i.e. one who is worthy of worship of (2) the siddha: one who has accomplished his goal, by becoming free from embodiment; (3) the sadhu, or Jaina mendicant; and, finally, dharma, the sacred law taught by the kevalin: i.e. one who is isolated from the karmic bonds. The formula is also called mangalika and is chanted regularly by the Jaina laity and mendicants together with another sacred formula, the Panca namaskara mantra, or salutations to the five holy beings: namely, the arhat, the siddha, the acarya. the upadhyaya (mendicant teacher), and the sidhu. At the end of this ancient formula they finally recite a verse (of unknown date) in which it is asserted that this five-fold salutation which destroys all evils is preeminent (prathamamangala) among all auspicious things.22
The Indian tradition has unreservedly accepted the holiness of the ascetic because of his renunciation of worldly possessions. But it is doubtful that he was ever considered to be an auspicious (Subha) sight, especially in the context of such festive
occasions as the celebration of marriage, or the beginning of a new business venture. While the ascetic might have represented suddha the purity associated with the transcendental practices which led to moksamangala was reserved originally only for those worldly, meritorious activities (punya) which led to the three puruşarthas of dharma, artha, and kama. The Buddhists and Jainas attempted to assimilate the ascetic ideal into mangala not by degrading the Suddha, but instead by raising mangala to a new status which incorporated both the worldly subha and the supramundane suddha.
In this new scheme, anything which was not śuddha was considered to be aśuddha: activities which were not productive of salvation. However, this aśuddha was subsequently subdivided into the mundane pure (subha) and the mundane impure (asubha). i.e., the dichotomies of good and evil, wholesome and unwholesome, which were only conducive to worldly happiness and unhappiness. Thus, for the Jainas, (mangala) came to refer both to the transcendental (Suddha), as well as to that portion of the mundane sphere which was pure (subha). A similar pattern seems to be operating in the Theravadin Buddhist division of the meditational heavens into the Suddhavasa and Subhakinha23 The former is "the pure abodes," inhabited by the anagamins who attain to arhatship from that abode in that very life, whereas the latter is the abode of Brahmas: beings who. however exalted. will return to the cycle of transmigration.
Accordingly, the Jainas begin with the repudiation of innate sacredness of material objects but allow that an association with "truly" holy (mangala) might render them auspicious (Subha). The Jaina refusal to allow the integration of the Brahmana in their caste system seems consistent with their rejection of category called "the auspicious" (mangala) independent of the wordly pure (Subha) and the transcendentally pure (suddha).
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THE PURE AND THE AUSPICIOUS IN THE JAINA TRADITION
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Notes & References:
This article was published originally in Journal of Developing Societies, Vol. I, pp. 84-93, E.J. Brill, 1985 Reprinted with kind permission of E.J. Brill, Leiden. Louis Dumont, Homo Hierarchicus (Chicago: The University of Chicago Press, 1970). See P.S. Jaini, "Sramaņas : Their Conflict with Brahmanical Society, in J.W. Elder, ed. Chapters in Indian Civilization, I, (Dubuque, lowa :
Kendall Hunt, 1970), pp. 39-81. 3. ...na eyam bhūyam'na eyam bhavvam, na eyam
bhavissam, jam ņam arahamtā vā cakkavatti vā... bhikkhāyakulesu vā māhanakulesu vä āyāimsu. Kalpasutra.21 See H. Jacobi, tr., Jaina Sütras, Sacred Books of the East, Vol. XXII, pt. 1, p. 225. It should be noted that the Digambara Jainas reject the authenticity of this Svetāmbara scripture and also do not admit the legend
pertaining to Mahāvira's change of womb. 4. Vincent A. Şmith, The Jain Stūpa and Other
Antiquities of Mathura (1901; reprint ed.,
Varanasi: Indological Book House, 1969). 5. According to the Jaina tradition all the twenty-
four Tīrtharkaras of the present age were born into the Ksatriya families (17 in the Ikşvākuvamsa, 2 in the Harivamsa, 1 (Pārsva) in the Ugravamsa and 1(Mahāvīra) in the the Nāthavamsa). For details see Jinendra varni, Jainendra-Siddhānta-Kosa, 4 vols. (Delhi : Bhāratiya Jñānapitha, 1970-73). ...Buddhā nāma Vessakule vā Suddakule vā na nibbattanti, lokasammute pana Khattiyakule vā Brāhmanakule va dvisu yeva kulesu nibbattanti, idāni ca Khattiyakulam lokasammutam, tattha nibbattissāmīti....jātakatthavannanā, ed. V. Fausboll, Vol I, Pali Text Society, (reprinted, 1963), p. 40. In conformity with this belief the Buddhists have stated that of the twenty-five Buddhas of the present period, twenty-two Buddhas were born into the Khşatriya families
and three (Konāgamana, Kakusandha and Kassapa, Nos, 22, 23 and 24) were born into the Brahman families. See Buddhavamsa and Cariyapitaka, ed. N.A. Jayawickrama, Pali Text
Society, 1974. 7. For the Jaina speculations on the origin of the
castes, see P.S. Jaini, 1974, "Jina Rşabha as an avatāra of Vişnu," in Bulletin of the school of Oriental (anf) African Studies, XL, pt. 2
(University of London, 1974), pp. 321-337. 8. For the Digambara account, see Adipurāņa (of
Jinasena), Part I, ch. 38-40 (Varanasi : Bhärātiya Jñānapitha, 1963). For the Svetāmbara account, see Trişasti-salākāpuruşacarita (of Hemacandra), Vol. I., in The Lives of Sixty-three Illustrious Persons, tr. Helen M. Johnson, Vol I (Baroda :
Oriental Institute, 1962). 9. Bharato 'the samāhūya śrāvakān abhyadhād idam/ gļhe madiye bhoktavyam yuşmābhiḥ prativasaram// krsyādi na vidhātavyam kintu svādhyāyatatparaih apūrvajñānagrahanam kurvānaiḥ sthyeyam anvayam/
bhuktvā ca me ntikagataiḥ pathaniyam idam sadā/ jito bhavān vardhate bhis tasmān mā hana mā hana/ ... krameņa māhanās te tu brāhmaṇā iti viśrutāḥ.../
Trişaștiśalākāpuruşacaritra, I, 8, 227-248. 10. On the 23rd Tirthankara Pārsva, see M.
Bloomfield, The Life and Stories of the Jaina Savior Pārsvanātha (Baltimore : University of
Maryland Press, 1919). 11. For further details on the Jaina priestly castes,
see V.A. Sangave, Jaina Community: A Social
survey (Bombay : Popular Book Depot, 1959). 12. For a detailed description of the Jaina forms of
worship see P.S. Jaini, The Jaina Path of Purification (Berkeley: California Press, 1979). It should be noted that many Jaina temples have images of yakşas or "guardian spirits" who are worshipped by the laity. These are invoked by mantras and are believed to manifest themselves in their images. However, the Jaina layman is admonished to refrain from treating them as
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equal to the Jina and the mendicant is of course barred from even saluting them, since they are inferior to him. See ibid. p. 194, notes 13-14. 13. The reformist Jaina sect known as the Sthanakavasi rejects even this symbolic representation and regards idol-worship (Murtipojā) as a form of mithyatva (wrong behaviour) even when performed by a layman. See Jaini, 1979, ch. IX.
14. See R. Williams, Jaina Yoga: A Survey of the Mediaeval Śrāvākācāras (London: Oxford University Press, 1963).
15. na svato gneh pavitratvam devatārupam eva val kintv arhaddivyamartijyäsambandhát pávano nalah/ tatah pajyaggatam asya matva rcanti dvijottamah/
nirväṇakṣetrapujavat tatpūjā to na duşyati// vyavahāranayāpekṣā tasyeṣtā pūjyatā dvijaiḥ Adipurana of Jinasena, xl, 88-90
The Buddhist texts go even further and reject all popular belief regarding the divinity of fire and
water.
sikhim hi devesu vadanti h'eke, apar milakkhā pana devam ahu/
sabbe va ete vitatham vadanti, aggi na devannataro na capo//
nirindriyam santam asannākayam, vessänaram kammakaram pajanam/ paricariya-m-aggim sugatim katham vaje, pāpāni kammānī pakubbamano//
Jātakatthavaṇṇanā, VI, 892-3. 16. Atharvaveda, XII, 1 (63 verses). 17. Somadevasuri, a tenth century Jaina author gives a long list of such practices forbidden to a Jaina layman.
suryargho grahaṇānam samkrāntau dravinavyayaḥ/ sandhya sevágnisatkaro gehadeharcano vidhih// nadīnadasamudreșu maijanam dharmacetasa/... varartham lokayäträrtham uparodhärtham eva va/ upāsanam amiṣām syāt samyagdarśanahanaye// Upasakadhyayana, vv. 136-140.
(ed. K. Shastri, Varanasi: Bharatiya Janapitha, 1964).
18. No less than thirty-two kinds of plants are forbidden for a Jaina layman. See R. Williams, Jaina Yoga, pp. 110-116.
19.
For a canonical description of these dreams see H. Jacobi, The Jaina Sutras, Part 1, pp. 231-238. 20. For this text as well as for a detailed discussion on the mangala objects, see Jinendra Varni, Jainendra-Siddhanta-Koša, Vol. III. pp. 251-255. 21. (manglasuttāni:) cattări mangalam, arhantā
mangalam, sidha manglam, sähū mangalam, kevalipannatto dhammo mangalam/
cattari loguttama: arahanta... siddha...sahu... dhammo
loguttamo/cattari saranam pavajjämi: arahante...siddhe...sahu...dhammam saranam
pavajjāmi//
(pancanamokkāramangalasuttam:) namo arahantanam, namo siddhanam, namo ayariyānam, namo uvajjhāyānam, namo loe savvasähunam//
22.
Avassayasuttam, 1-4, Jaina-Agama-series, no. 15 (Bombay: Shri Mahavira jaina Vidyalaya, 1977). eso panca-namokkäro savva-pävappanasano/ mangalanam ca savvesim padhamam havai mangalam//
Quoted in R. Williams, Jaina Yoga, p. 185. This is comparable to the refrain "etam mangalam uttmam" of the famous Mangalasutta of the Budhists. This sutta also lists the perfect virtues of the enlightented person as the best of the mangalas:
tapoca brahmacariyan ca eta mangalam uttamam/ Khuddakapatha, p. 3 (Pali Text Society, 1915). 23. For details on these abodes see G.P. Malalasekera, Dictionary of Pali Proper Names, Vol. II, Pali Text Society, 1960, pp. 1199 and 1229.
* With courtesy from the collections of Prof. P.S.Jaini's articles on Janalogy.
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CONCEPT OF AHIMSA IN THE SANTIPARVAN
The doctrine of Ahimsa (non-injury), on its philosophical and religious basis from ancient time, is the most important constituent part of religions like Hinduism, Jainism and Buddhism. It has been perfected by the saints and seers of the Santiparvan (the Mahabharata) with the origins traced out to the Vedas, the Upanisads down to the Manusmrti. Its central philosophy lies in the following lines:
"The one who pervades and penetrates into this universe is present in all mobiles and immobiles (caracara). One who identifies himself with all other things of this world, attains Brahman. He who always realises that there are also enlightened souls (jñānasvarupa ātmā) in others' bodies as there is in his own (body), transcends his generality and approaches immortality. He who assumes himself in other's souls and devotes to their service without having any desire for himself except the attainment of the Brahman, is considered as an adequate man, and even gods do not know his track of tracklessness'.1
Dr. Bashistha Narayan Sinha*
practical application of this idea (given by Bhisma) is found in Jainism, because its every metaphysical, ethical and epistemological argument has been extended to support the theory of Ahimsa. But the great Manu3 has declared it as one of the features (Lakṣaṇa) of religion: not to take anything without permission, charity, study, penance, not to injure anybody, practising truth, to give up wrath and performance of sacrifice.
Vyasa has emphasised the comprehensive nature of Ahimsa by saying that it prevades all the Dharma and the Artha (Purusärtha) as the foot-marks of the other-beings moving on foot are eclipsed within the foot-marks of an elephant. The person who refrains from all malignancy becomes immortal. One who practises equanimity, poise, truth, who is endowed with fortitude, who has controlled his senses, and who grants shelter to all beings, leads the life of immortality. It is one of the penances like truthfulness, gift and control of senses.? and also one of the thirteen forms which are adopted by truthfulness: truthfulness (as part), impartiality, self-control, forgiveness, modesty, endurance, goodness, renunciation, contemplation, dignity, fortitude, compassion and abstension from injury, It is one of Dama (self
That, it propounds-'Do not injure anybody. because life is dear to all as it is dear to you. It supports harmlessness which is practised not only in action as abstaining from killing and troubling a creature, but
also in through and speech, i.e., in removal of illfeeling restraint; part of the eightfold Yoga). In a simple and
and the use of harsh words.2
common way it can be regarded as one of the ethical virtues,10 which constitute a good conduct and cause happiness in life.
Ahimsa is the complete Dharma.3 It is the greatest because it involves negation of injury to all beings. According to Bhisma, it is the goal of all Dharma (righteousness); all moral disciplines are intended to inculcate the spirit of Ahimhså. Therefore, universal good will to all beings, is the essence of religions. Whatever that does not accept the doctrine of Ahimsa, cannot be regarded as religion. The
* Former Reader, Dept. of Philosophy, Mahatma Gandhi Kashividyapeeth; Varanasi.
Himsa (injury) an antonym to Ahimsa is divided into two classes:
1. Bhava Himsä, which is contemplative than transformative.
2. Dravya Himsā, a substantialised action like murder etc.
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ASPECTS OF JAINOLOGY VOL-VII The former is conceptual while the latter is both but the punishment should be in proportion to the mental and physical. In the SP. intention has been crimes committed, and one should rule over his regarded as the main measuring rod of some action kingdom by inflicting lightest possible punishment to be Himsā or Ahimsā. That is why, not only Ahimsā to the naughty fellows. but all other virtues are prescribed to be practised in
So far as meat-eating is concerned it allows thought, speech and action (Mansā, Vācā and
one to take meat for the preservation of his life during Karmana)." The latter or Dravya Hissä which is
emergency. If one is dying by the pangs of hunger done with a purpose (intention), may be analysed and
and the only available food is meat, he may take it. classified into the following classes:
The story of Viśvāmitra may be quoted here as an 1. Himsā done for protective reason, such as a man example. In this story Viśvāmitra is presented as being attacked by some beasts or some gang of taking flesh of a dog from a Candāla's (sinful man) robbers, tries to defend his life, for which he uses some house, to save himself from starvation-death. There weapon and thus injures and kills some person. he says very frankly: 2. Himsă done for physical reason, as to take meat, One who is dying of hunger, should save his fish and egg etc. to gain different vitamins in order to life by any means whatsoever (i.e. even by taking maintain a good health and for this they slay animals. meat), so that having become fit, he may practise
virtue, again'.14 3. Himsă done for hedonistic reason, as the hunters prey on beasts for the sake of pleasure or to take meat But SP. is totally against the Himsă done on or fish prepared with the mixture of different spices the religious ground. According to it, it is the in order to relish the so called good taste.
misunderstanding of priests and the persons who
favour the animals slaughtering for offering oblation 4. Himsă done for commercial reason, as some
to the firegod. In this connection opinions of king animals like calves, deer etc. are butchered, so that
Vicakşaņu and Nārada, and the discussion held some soft, fine and fashionable commodities may be
between god and rsis are very important. Vicaksanu made out of their skins, horns, bones etc. 5. Himsă done for religious reason as some people
"The persons who violate the prescribed slaughter goats, buffaloes, sheeps and hogs on the
limits, who are fools, who are atheists and who have altars of gods and goddesses to propitiate them,
neither name nor fame, support the doctrine of Himsa. specially at the time of performing some religious
The great Manu has never favoured this principle; of sarcifices, while others butcher goats, and sheeps for
their own sweet will they slay animals in sacrifices. their religious uplift.
If one says that the tree cutting for Yüpa (some The SP, allows the first type of Himsä, wooden pot used in Yajna) and animal slauhtering therefore, it permits Kșatriyas, to be always ready to for sacrifices, are not useless but they are righteous protect countrymen from robbers and to exhibit and religious deeds; the religion dependent upon these bravery in the battle-field, as duties incumbent on activities and principles should neither be accepted them.12 Though at one place it allows (Kșatriyas) to as religion nor be preferred by anybody. Wine, fish, punish the wicked persons and to kill them also, if honey, meat, seasamum-seeds and preparations of rice needed, it is not in favour of heavy punishment. Thus and pulse have been introduced in the sacrifices by it suggests. 13 that wicked should be dispelled totally ingenious persons. They are not indicated for use in
says: 15
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CONCEPT OF AHIMSA IN THE SANTIPARVAN
sacrifices by the Veda. The dexterous persons who being affected by pride, aberration and concupiscence, have introduced the above things, have definitely shown their subordination to the greed of gain. Brāhmaṇas always worship Visnu with flowers and preparation of rice, milk and sugar etc. The only class of trees, which has been prescribed in the Vedas, should be used in sacrifices, Moreover, the oblation which is prepared by the pure man having pure heart and clean nature, is worthy to be offered to all deities.'
Narada presents the story of a Brahmana who wants to perform a Yanjña without any sort of injury, and he (Brahmana) begins that. In the beginning he follows the path of Ahimsa but towards the end, being affected by wrong advices (given to test him), he becomes ready to kill some animal and he thinks:
'Having slaughtered that animal (Dharma personified as a deer and living with the Brahmana as his friend) I should obtain heaven'.1
16
And, with this apprehension and hypocritical notion he receded downward from the high saintly state. This shows that Ahimsa is a great virtue.
A discussion held between gods and some Ṛsis,17 for clarifying the meaning of the term 'Aja', lays stress on Ahimsa. According to the Rṣis the purport of the word 'Aja is corn or seed' but the gods hold the meaning to-be 'goat'. Thus. Rsis are in favour of offering corn as oblation while gods are in favour of slaughtering animals for that (oblation). The deliberation of each school is emphasised by the followers but that fails to reach any unanimity and they (followers) refer the matter to the king Vasu, who is also called Upacari (for possessing the power of passing through sky), to be the judge. But the king Upacari having heard the arguments of both the parties delivers the judgement favouring the gods. This causes anger in the minds of the Rṣis and they curse him:18
'O king! you know that the word 'Aja' means grain but you have favoured gods knowingly. So go down on the Earth from Heaven. You will lose your power of roaming in the sky, since today; our curse will push you to go down to the lower regions below the earth (Pātāla)'.
It happens so. Thus, the SP. advises not to reside at a place where the Vedas are not studied and the Yajña, Tapas, Satya, sense-control and Ahimsā are not practised. In this way it elevates this theory (of Ahimsa) to a high level of an universal law, especially in the fields of ethics and religion, by removing different misunderstandings and. misinterpretations. But, it (SP.) does not bind itself with any particular view; sometimes it permits Himsä in protective cases while at other times it totally negates it by saying that one should even leave that place where theory of Ahimsa is not practised.
References:
1.
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3.
4.
5.
6.
7.
8.
9.
9.
२७
Chapter 160, Verses 15, 16
10.
11.
Chapter 124, Verses 66, 67, ch. 215 Verses 6,7 Chapter 227, Verse 27 (1/2), Ch. 290 Verse 20 12. Chapter 60, Verses 14, 17, 18 13. Chapter 267 whole.
14. Chapter 141, Verse 63, also see the whole chapter.
Chapter 265 whole.
Chapter 272 Verse 18, also see the whole chapter. 17. Chapter 337 Verses 1-77.
18. Chapter 340 Verses 88, 89.
15.
16.
Säntiparvan, Edt- Pt. Ram Narayan Datta, Chapter 239, Verses 20-23; Ch. 167 Verse 9. Chapter 277, Verse 27 (1/2)
Chapter 272, Verse 20
Chapter 262, Verse 10
Chapter 36, Verse 10
Chapter 245, Verses 18, 19
Chapter 161, Verse 8
Chapter 162, Verses 8, 9
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NIRGRANTHA DOCTRINE OF KARMA-A HISTORICAL PERSPECTIVE (WITH SPECIAL REFERENCE TO BHAGAVATĪ).
Dr. Ashok Kumar Singh
This article attempts to trace the history of Jaina karma to none 2. doctrine as depicted in ancient Jaina canons, espicially Anga The main features of the Nirgrantha Karma doctrine texts. For this purpose the theme of the karma doctrine of of Jainas may be put, in nutshell, as followsVyākhyāprajñapti the fifth of the Angatexts also known It has material form, eight Mülaprakrtis (fudamental as Bhagavati has been analysed in the light of Ācārānga, species)viz. Jñāñāvraniya (knowledge-obscuring).', Sūtrakrystiga Rşibhāşita, Uttarādhyayana, Sthānanga and Darśanāvaraniya (conation obscuring), Vedaniya(feeling Samavāyāniga positively, the cearliest extant Jaina canonical producing), Mohaniya (Deluding)". Āyuşya (Agetexts.
determining), Nāmakarma (physique making), Gotra Bhagavati, in its present form, is divided into 41 (Status-determining) and Antarāya(obstructive) karman. Satakas. Barring Sataka XV all the other śatakas are sub- Each of Mülaprakrtis has been further divided into Uttara divided into uddešakas. The total number of satakas Karmaprakstis (sub-spcies). Jñánāvarņiya has five, including the sub-satakas is 138 and that of Uddešakas is Darsanāvaraniya-nine. Vedaniya-two, Mohaniya-28, 1925.
Āyusya-four, Nama-103. Gotra-2 and Antarāya-5. Karma doctrine is one of the most important Karmaprakstis are classified into ghāti and Aghāti phenomenon of all the systems of Indian thought. With group. Ghāti has if two catergories. First Sarvaghātithe only exception of Carvakan, all the schools of Indian karman - completely destroying the qualities peculair to philosophy deal with Karma doctrine. Infact, the doctrine the soul, second Deśaghāti - karman destroying the soul of karma was evolved to answer the cause of continuity of qualities in a greater or lesser measure. Aghati means this world, with all its visible vividity and multiplicity. karman - destroying no property of the soul. Sub-species Various thinkers have thought over the immediate cause of karman are also designated as Punya (virtuous) and of the universe, commencing from Kāla (time) and ending Pāpa (sinfiul). with Puruşa (Hiranyagarbha). Svetasvatara Upanişad Again the atoms, which have turned into Karma are mentions- "Kāla or Svabhāva (nature), Niyati (the settled contemplated from four points of views.- According to course) or Yadrecha (chance) or Bhūtāni (elements) or the manner of their effect, (2) the duration of their effect, Yoni (Prakrti) or Purusa as the cause. Again, according to (3) Intensity of their effect, and (4) according to their it any combination of these causes, in whichever, manner number of pradeśas. The inter-relation of Uttarakarmacombined, does not deserve to be treated as the cause." prakrtis has also been dealt in according to Bandha, Sattā The above views, however, could not wholly ascertain the and Udai. truth. The limitations of the causes, separately as well as five causes of bondage of karman are Mithyātva combined, paved way for the evolution of Karma doctrine. (Perversity), Avirati (non-abstinence), Pramāda (nonwhich maintained that individual dissimilarities, feeling vigilence), Kaşāya (passion) and Yoga (activity). There of pleasure and pain, innate virtuous and vicious are ten different states of Karma-bondage in Nirgrantha inclinations, seen in this world, owe their existence to the doctrine of Karma namely Bandha (bondage), Sattā previous Karman.
(existence), Udvartanā (delayed fruition), Apavartanā The account of karman is most systematically decreased realisation), Sarkramaņa (alteration), Udaielaborated with its minutest details in Jaina tradition. (realisation), Udiraņā (premature fruition), Upaśamana Padmabhūşana Pt. Dalsukha Malvania', one of the great (subsidence), Nidhatti (Thickening), and Nikācanā savant of Sramanic tradition, has well remarked, "Detail (incapacitation). account of Karma doctrine as envisaged by Jainas is parallel The means of suppression of Karma are three guptis
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NIRGRANTHA DOCTRINE OF KARMA-A HISTORICAL PERSPECTIVE (WITH SPECIAL REFERENCE TO BHAGAVATI)
(control), five samitis (carefulness), ten dharmas (duties), Samavāyānga. However, some of them are mentioned in Anupreksas-twelve (reflections), 22 parişahas (the patient these texts. It is in this perspective that the account of endurance) and five degrees of cāritra (conduct). Bhagavati may be seen.
The annihilation of Karman is attained by six external The doctrine of karma, as found in Bhagavati may be austerities and six internal austerities. However, the means discussed under the following heads.(1) References to other of suppression of Karma, reffered to above are not directly (later) canons. (2) Different states of karma bondage. (3) related with the karma doctrine, hence absent in Basic principles of Jaina karma doctrine. (4) Refutation Karmagranthas.
of other's or heretic pastulates pertaining to karmadoctrine, Karmavipäka (fruition of Karmas), Karma bondage, (5) Activities of daily routine made subject to karma Karma and Guņasthāna (stages of spiritual development), bondage. Karma and marganā sthāna (stand points of investigation) The inerpolation in the texts imply that all the subjectare also dealt, herein.
matter is exactly not of one and the same period. Thus, to In addition, some important problems of Jaina karma claim that all the facts of a particular texts belongs to the doctrine such as whether fruits of karmas are subject to same period is not easy. God ? What is the time of fruition of karmas, are also in Bhagavati, at a number of places, it has been dealt in here. It also contains detailed discussion on some suggested either explicitly by means of Jaha cr implicitly problems, regarding relationship between soul and karma., that particular discussion of certain topic may be taken or such as which is prior-soul or karma, which is more answered, as in other (referred) texts. The canonical texts powerful soul or karma.
referred to in Vyakhyāprajnapti are Prajñāpanā, Needless to mention that whole of the above Nirgrantha Jivābhigama, Jambūdvipaprajñapti, Samavāyānga, karma doctrine was not propounded within a spur of Aupapātika, Anuyogadvāra and Nandi, (order of texts given moment. As usual it is the outcome of the process of here is according to the frequency of reference). Out of gradual evolution. Therefore, an attempt to present the these seven, the first three are frequently referred. literary account, depicting the evolution of the Nirgranuha incidently, almost all explicit instances pertaining to doctrine in a historical perspective, is in order.
karma doctine, occurred in Bhagavati, referred to Before coming to the doctrine of karma as depicted in Prajñāpanā viz.' Karma Praksti, karmabandha, Karmasthiti Bhgavati, a glimpse of main features of karma doctrine as and Karmaveda except one in Anuyogadvāra. mentioned in Äcārānga etc. is necessary. The facts of the In Bhagavati all the ten terms denoting the different above texts have been shown by the table.* (See page 30) states of Karman namely Bandha, Sattā, Udai, Udiranā,
It shows that Mūlaprakstis are totally absent in Upasama, Nidhatti, Nikácanā, and Sakramana are found. Ācāränga. Sūtrakstānga mentions only one Darśanāvarana. In addition, Calana (moving), Prahāņa (decreasing), Rsibhāsita refers to the concept of eight karmagranthis Chedana (cutting), Bhedana (breaking), Dagdkha for the first time but without divulging their names. Eight (burning), Yathakarma, Yathānikarma, as per karma types of karınaprakstis with their names have made maiden acquired, as per time, place, states and causes determining appearnce in Uttaradhyayana's chapter allegedly an outcome are seen. Thus for the first time in Bhagavati, interpolation. yet dating prior to the 1st century A.D. the complete description regarding different states of karma
Uttaraprakytis (sub-types) occur for the first time in is found. Uttarādhyayana, but that of 103 types of Nāmakarma were The sūtras, explaining the basic tenets of Nirgrantha still absent in Samavāyānga. Uttaradhyayana mentions karma doctrine, occurred in Bhagavati, are in a good Ghāti and Aghāti karmaprakstis, while the present concept number. Some of them are as followsof five causes of karma bondage occur in Rșibhäşita. The The living beings experience the fruits of self-created divison of karma into Iryāpathika (passional influx) and misery. All the four types of beings, who have performed Sämparāyika (passionless influx) is found in Sūtrakstānga. sinful acts, are not liberated without experiencing their All the ten states of Karma bondage are not seen till effects. The suffering of all the souls is made and perceived
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End
Sub-Types of
Fund.
Sub-Types of
shati
Ghāti etc.
Virtuous/
sinful
10 Different stage of karma
The Text Nature of Karman Basic Principles Fund
ental
Specie Acara- Material Destruction of nga form (Karma karma is possible Sarira
(Dhune kammapsychic form Sariragam)/ Karma
(Akarma) root of world cycle Sutra- Material Enjoyment of self Conati kệtānga form
karma is essential
on (Karmaraja) fruits as per karma, obscuri Psychic
enjoyment of self -ng form
karma and not of (Vigilance is others. not karma
PunyaPapa
Udai (Realisation), Udirana (Premature fruition)
Nature of Causes of Karma
Karma Bondage Bondage Indirect ref. to Delusion, passionless Violence, influx
Attachment & (Akarma) hatred, influx
is afflux Passional influx Possession or (samparāya) Attachment Passionless four passions, influx
killing of living beings, Untruth, Nonstealing abstaining from coupulation Mithyātva (Perversity Avirati-Nonabstinece Pramadaon vigilence, Kasāya (Passion) andiyoga (activity)
Rşibha sita
Karma-Akarma Enjoyment of
auspicious self karamas, karma follows the doer,
Eight karmaknots
Auspicious Inauspicious
| Sopädāna
Niradāna, Upakramit Utkārita, Bandha, Niddhatta
Uttarād- hyayana
Material form
Jñanav araniya etc. Eight
Ghäti Agh āti
Auspi cous Inauspicous
Mithyatva etc
Sthanan nga
Jäänāva araniya etc. Eight
Jñāna 25, Darā anav .9 Vedaniya-2 Mohaniya 28 Ayuşya-4 Nāmakarma-2 Gotra-2 . Antarāya - 5
Two different Descriptions (1) Jnāna-twa (2) Dars-two (3) Ved-two (4) Moha-two (5) Ayuşya two (6) Nama-two (7) Gotra-two (8) Antaraya-two Mohaniya-28 Nama - 42
Sämparāyika Iryāpathika, Preya and dveşa
Upacaya Bandha. Udiranā
Samavayanga
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NIRGRANTHA DOCTRINE OF KARMA-A HISTORICAL PERSPECTIVE (WITH SPECIAL REFERENCE TO BHAGAVATI).
enjoy an admixture of happiness and misery.
A number of instances, contained in Bhagavati, depict the consequences in terms of karma-bondage, of the day to day affairs of the persons, hailing from all walks of life viz. monks, laymen warriors, physicians, merchants etc. The routine affairs and activities like laughing, licing, litting-fire have been made subject to karma-bondage.
Bhagavati maintains that knowledge and belief of the present existence will continue in the next existence but conduct, asceticism and self-discipline will not.22 Beings without self-discipline, not observing commandments, and not renouncing bad karman may become gods in the abode of Vaṇamantaras etc. On account of unwillingly suffered, thirst, hunger etc. Jaina monks because of doubt, desire, uncertainty, defection and blemish, bind Kamkṣamohaniya karman."T1. consequences, for a monk, of taking food intentionally prepared for him results in binding all eight karman, except quantity of life." The İryapathika karman bound, by monks is consumed within two samayas. The activity of monk is due to pramāda (carelessness) and due to Yoga (activity). Teacher (Upadhyaya), serving his gana, well, will attain liberation.27 A monk transgressing prohibitions and enjoying prohibited objects, binds seven types of karman, except age determining Karman."
In hundreds, thousands and millions of years, a
hellish being does not cosume as much karman as a monk annihilates in an instant.
If a layman, having practised samayika, stays in an upāśraya (monasteries), performs an passional influx action and not an passionless influx because his self is attached to activity.30 A layman giving virtuous food to monks etc, brings about annihilation of karman. Even though the food is impure, the annihilation of karman, he brings about is still greater than the inauspicious act he commits.31 If a monk gets an arsa and a physician gently cuts it off, in that physician binds karma where as the monk does not.32 Again if two equally strong men fight, the one whose karman results in Viriya wins.33 A buyer and a seller bind karmas due to special cases of bying and selling." Bhagavati mentions that whenever a person, who
by their ownselves. The souls are reborn on the strength of their own Karmas. 10 The actions of livig beings are always experienced by the mind." The single being and indeed the entire (animate world) acquires its diversity as a result of karman.12 All the beings acquire a certain ayu without being aware of it."3 The soul, who has already bound karman may or may not again bind bad karman in present and future," The state of one who is free from Karman must be conceived as a state of being unconnected, undefiled and of distinct condition going undisturbedly to the target i.e. attaining Siddhahood at Siddhasthana."
In Bhagavati, Mahāvīra is also seen as refuting the postulates of other systems relating to karman doctrine." The heretics maintain that those, killed in wars reborn among the gods. Refuting it Mahavira cites a few examples of wars, with the number of killed therein and the name of their existences in the next world. For example, in Rathamusala Sangrama (War of the chariot with the mace.) out of the 9,600,000 men killed, 10,000 of whom were reborn as the roe of a fish, one was reborn among the gods, one in a good family, the others among hellish and animals.
The contention of heretics is that living being at the same instant acquires karma, determining two life spans the span of this life and that of the next. Against this Lord maintains" that a living being acquires karma, determining one life-span only, may be of this or of the next.
Against the postulates of others that a living being performs two activities at the same time, which are activity due to movement and that due to passions, Lord Mahāviral preaches that a living persons at one time performs only one activity.
A living being experiences, at anyone time, one lifespan, may be life span of this birth or the life-span of the next.19
Also against the postulate of heretics that the perception (Vedana) of all the four types of beings always corresponds with the actions performed, Nirgrantha doctrine maintains that beings may or may not correspond.
Jainas also refute the contention of the heretics that all beings only experience suffering. According to Mahavira, some of the beings suffer only misery and rarely happiness, while some of these experience only happiness and rarely any misery. There are also some who
at
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३ २
pronounces a false accusation is reborn as a man, he will have to endure, being treated in the same way. 35
Effects of certain psychic states as well as laughing etc. activities, with regard to karma bondage, has been
dealt in this text.
The one, subjugated by four passions, binds all eight types of karman, except Age determining karman.36 The one, subjugated by his senses, binds only seven karma prakṛtis like above. In the same way while laughing and becoming inquisitive, a living being binds seven types or eight types. A person, having performed auspicious and blissful karmas, properly attains silver, gold, etc. wealth. Bhagavati also depicts that, of two equal men, karman are stronger with the one that lights a firebody than with the one that extinguishes it."
ASPECTS OF JAINOLOGY VOL-VII
Now we come to such concepts, occurred in Bhagavati, as deal with the eight karma praktis in terms of their bondage, duration, realisation and annhilation. The bondage of karma, has been treated in this text at length, along with its types and subtypes. Bhagavati deals with karma bondage etc. in connection with the 24 four kinds of beings in the world." The 24 kinds of beings often repeated here in the contexts of Jaina Karmadoctrine needs elaboration. It comprehends the hellish beings, the ten kinds of Bhavanväsi gods, the five kind of one-sensed beings, two sensed beings, three sensed beings and four sensed beings, five sensed animals, men, Vanamantara, Jyotiska and Vaimanika gods.
Bhagavati" also treats the above subject from the view-point of eleven (qualities), namely
1. Jiva (kind of soul)
2. Lesya (colouring of soul)
3. Paksika (belonging to the light or dark half of existence)
4. Drşti (belief)
5. Jnana (knowledge)
6. Ajñana (ignorance)
7. Samina (instinct)
8. Veda (sex)
9. Kaṣaya (passion) 10. Yoga(activity)
11. Upayoga (consciousness) According to Bhagavati, heaviness and lightness of the soul is a result of committing and obstaining from the eighteen sins, respectively. Five colours, two smells, five tastes, relate to karma prakṛtis on account of eighteen sins.
The possibility of the simultaneous occurrence of the herein. The actions of living beings always bring about different kinds of karman in one being also has been dealt
accumulation of particles of karman. The one, who binds all eight kinds of karman, except Age-determining, may experience all of the twenty two parişahas but only twenty of them at the same time. It also held that of the two beings of the same species, living in the same abode, the one that is sinful and hertical has more karman, action, influx and perception than the one that is sinless and with right attitude. It also discusses karma bondage of souls of 24 danḍakas. with regard to anantaropapannaka" living in the first samaya of their existence, paramparopapannaka"-in the later samaya, anantarāvagāḍha"- in the first samaya of their occupation of the new place of origin, paramparavagadha-in a later samaya of their occupation of the new place of origin, anantarahāraka" - in the first samaya of their attraction of matter, paramparāhāraka“ - in later samaya of their attraction of the matter, Anantaraparyaptaka" in the first samaya of their development and paramparaparyāptaka" in the later samaya of their development. Also in connection with Carimathat will again enter the same existence and Acarima that will not enter the same existence again. In the same vein, binding or not binding of unauspicious karmans, eight karmans, in past, present and future, as well those having bound, perceived or finished has been treated. Regarding the bondage of Karkasavedaniya" experienced as suffering and Akarkasavedaniya experienced as without suffering, Bhagavati propounds that by the eighteen sin s certain souls produce karman of the former type while the abstinence from these sins produce later type of karman. Of Calitam (moving out) and acalitam (dormant karmas), bondage, fructification, suffering, intensification, piling, cementing, are concerned with the later only while destruction applies to the moving out.
The karman resulting from an afflux action may be bound only by human beings who, though formerly women, men or neuters, have got rid of the sexual feelings. This
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NIRGRANTHA DOCTRINE OF KARMA A HISTORICAL PERSPECTIVE (WITH SPECIAL REFERENCE TO BHAGAVATT)
33
binding always has a beginning and an end. This, date of Bhagavati concept of Guņasthāna has not come Iryāpathika Karma is always bound as a whole by the into being as indicated by Porf. S. M. Jain in his tract whole. Among men of the three sexes, both those having Gunasthāna Siddhāntākā Vikāsa. the sexual feeling and those having got rid of it, may bind It may also be pointed out that apart from the doctrinal karman resulting from sämparāyika bondage. The binding aspect of karmas there might have been an effort on the may have a beginning or not. If it has a beginning it has part of the Jaina Ācāryas to regulate the daily activities of also an end. Sâmparāyika karma is bound as whole by the common men as well as of monks, in the framework of whole. Binding is also distinguished as material and karmas. psychic. Material binding is two-fold-visrasā(spontaneous) and Prayoga (brought about by the impulse). Psychic
References bondage is that of fundamental species and sub-species. Both the forms of psychic bondage exist in all beings and
(1) Dr. Ashok Kumar Singh, "Prācīna Jaina granthno Mñe apply to all of the eight types of karman.
Karma Siddhānta kā Vikasakarma", Aspects of Jainology The binding of karman is three fold, effected by the
Vol. 5, ed. Prof. S.M. Jain & Dr. A.K. Singh, Parsvanath Jivappaoga(exertion of soul) Anantarabandha(immediate)
Vidyapeeth, Varanasi-5, 1994, pp.101-113. and Parampara-bandha (mediate). This is true for all
(2) alat: a firefarto ya uf: you sfa farm44 hellish, animals, men and gods. This is demonstrated for
संयोग एषां न लात्मभावादात्माऽप्यनीश: सुखदुःखहेतोः ॥२॥ the binding of the eight kinds of karman and their realisation
Eighteen Principal Upanişadas Vol. ed. V.P. Limaye & (udaya) as well as for the binding of sexes (veda) bodies,
R.D. Vadekar, Vaidika Samsodhaka Mandal, Poona, 1958, instincts, lesyas, kinds of belief and kinds of knowledge
1/2/2, p. 283. and non-knowledge.
(3) Pf. Dalsukha Malvania, Atmamiämsä, Jaina Cultural The fifteen places, where karman is bound and
Research Society, Varanasi -5, 1963; p. 95 consumed, are the five Bhäratas, five Airavatas and the
(4) Vide Dr. A.K. Singh," Prācina Granthro of five Mahāvidehas. The thirty places that are free from
Jainology" Aspects Vol, 5, Parsvanath, 1994, pp. 103-4 karman are five Himavatas, five Hirnayavatas, five
(Ācāränga), 104-5 (Sūtrakstānga) 105-6 (Rşibhāṣita), 106 Harivarşas, the five Ramagga, the five Devakurus and five
(Uttaradhyayana), 107&8 (Sthânânga) and 109-10 Uttarakurus.
(Samavāyānga) Bhagavati also depicts minimum and maximum
(5) Prajñāpanüsütra ed. Madhukar Muni, Jināgama duration of their incubation period. The period of
granthamālā 16, Āgama Prakāšana Samiti Byavar (Raj) effectiveness of karman equals its thinless its abādha. Again
1983. the description, about the Kāṁksā-mohaniya-faith
(6) Anuyogadvārasūtra ed. Madhukar Muni, Jināgama deluding, and Age-determining karmas to different beings,
granthamālā 28, Agama Prakasana Samiti, Byavar is found.
(Raj 1987), In the conclusion we may say that the first impression
(7) Vyākhyāprajñaptisūtra( 5 Vols) ed. Madhukar Muni, we get while going through the Bhagavati that it has treated
Jināgama Granthamāla No, Āgama Prakāśana Samiti, each and every subject very exhaustively. Treatment of
Byavar (Raj) Vol.1 Sataka 1/Uddeśaka 1/Sūtra 5(2), 9, Bandha, Udai and Sattă according to 24 Dandakas and 11
and 1/4/6, sthanas for the first time occurred here, the bondage etc.
(8) Ibid - Jue to routine activities of common men as well as of
(9) Ibid - 17/4/19 monks is a significant contribution of this text. Again,
(10) Ibid - 25/8/8 the detailed treatment to the karma bondage of one sensed
(11) Ibid - 16/2/17 beings is not found in the earlier Jaina Canonical texts.
(12) Ibid - 37/5/12 The absence of treatment of karma doctrine according (13) Ibid to the stages of Spiritual develoment confirms that till the
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३ ४
(14) Ibid-26
(15) Ibid-7-1
(16) Ibid-7/2/20
(17) Ibid-31/9/20
(18) Ibid 1/10
(19) Ibid - 5/31
(20) Ibid-5/5/20 (21) Ibid-6/10/11 (22) Ibid
(23) Ibid-1/1/12(2) (24) Ibid - 1/3/15 (2) (25) Ibid - 1/9/20 (26) Ibid-3/3/10 (27) Ibid(28) Ibid-7/8/9 (29) Ibid - 16/4/2 (30) Ibid-7/3/16
(31) Ibid - 8/6/1 (32) Ibid - 16/3/50 (33) Ibid-1/8/9 (34) Ibid-5/6/5 (35) Ibid-5/6/20 (36) Ibid- 12/2/21 (37) Ibid-5/4/7
ASPECTS OF JAINOLOGY VOL-VII
(38) Ibid-3/1/6 (39) Ibid-5/6/9
(40) Ibid-1/1/6-10, 7/6/15-30, 7/8/3-4, 19/8/5-7, 16/2/ 17-19, 18/3/21-23,26/1/34-43
(40) Ibid-1/1/6-10, 7/6/15-30, 7/8/3-4, 19/8/5-7, 16/2/ 17-19, 18/3/21-23 and, 26/1/34-4341. Ibid-26/1/ 1-33
(42) Ibid-1/9/9
(43) Ibid-26/2/1-9
(44) Ibid-26/3/1-2
(45) Ibid-26/4/1
(46) Ibid-26/5/1
(47) Ibid-26/6/1 (48) Ibid-26/7/1
(49) Ibid-26/8/1
(50) Ibid-26/9/1
(51) Ibid-7/6/15
(52) Ibid-17/4/19
(53) Ibid-8/4/19
(54) Ibid-18/3/15-16
Ibid-20/7/4-7
Ibid-34/1, 3910, 4-11
Prof. Sagarmal Jain, Ganasthana Siddhanta : Ek Vaslesana, p.v. No. 87, Parsvanatha Vidyapeeth, Varanasi- 1996,
(55)
(56)
(57)
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GUNAVRATA AND UPASAKADASANGA
Gunavrata is a kind of vow concerned with householders. It is a reinforcing vow and also known as qualitying vow. Different types of vows are practised by monks and householders. The vows of monks are known as mahāvratas or great vows. Monks accept their vows with full strength and complete awareness. That is why their vows are called Sarvavirata (totally abstained). On the other hand a householder can not accepts his vow in full strength like that of a monk due to fulfill his social obligations. Thus the vows of householders are called Deśavirata (partial). Partial vows are 12 in numbers and divided into three categories viz. 1.5 Anuvratas (minor vows), II.3 Gunavratas (qualitying vows) and III. 4 Siksavratas (Supplementary or Educative vows) this is much developed and later division of the partial vows. The earlier division is rather different and only categorised in two parts- 1.5 Anuvratas and II.7 Sikśāvratas. That is found in ancient Jain canonical scriptures.
Jain scriptures are known as Agama and found in large numbers. The Agamas are divided into Anga, Upanga, Mülasūtra, Chedasūtra, Prakirṇaka and others. The Anga is the oldest among all the Agamas. It is 12 in numbers, but exist only 11. The Upäsäkadasangais one of them. It describes the vows and lifestyles of those Jain householders who live at that time when Lord Mahavir was alive. In this Adga Agama the partial vows are divided into two categories- 15 Anuvratas and II. 7 sikävratas We have several editions of this Anga-Agama by different scholars and monks. Most of them describe the two categories of the partial vows. But some editions of the Upasakadasanga contain the later divisions of the partial vows i.e. 1.5 Anuvratas, I1.3 Guhavratasand 11.4 siksavratas. This usage creates a scholasicitic problems. To check them we collect following editions of the Upasakadalanga
1. Upasagadasão: Edpt. Bechardas Doshi, Prākritavidyā Mandala. L.D. Istitute of Indology, Ahmedabad. 2. Upasakadasanga: Ed. Amolak Rishi, Jaina Shashtrodhara Mudarnalaya, Sikandarabad, 1972
Dr. Rajjan Kumar
3. Uvāsagadasão (Angasuttāni, Pt-3); Acarya Tulsi, Jaina Vishva Bharati, Ladnum (Raj) 2031
4. Uvāsagadasão: Shri Madhukar Muni Agama Prakashana Samiti, Byavar (Raj). 2037
5. Upasakadasangasütra: Shri Ghasilalji, swetambar sthanakvasi jain singh, karachi, 1993
6. Upāsakadaśā: (Agama Sudha Sindhu) :- Shri Jinendra Vijayagani, Harsha Pushpamruta Jaina Granthamālā Lakhabavala, shantipuri (Saurashtra)
7. Uvāsagadasão: (Abhayadeva Commentary) Pt. Bhagvandas Harshachand Jainanarda pustakalaya sopipur, surat, 1992
Among all the above editions of the upāsakadasanga only two edited by Madhukar Muni and Ghasilalji describe the three division of the partial vows. In both the editions the reading (patha) is in the form of the preachings of Lord Mahavir. Both the editors conclude the same reading in different ways. Madhukar Muni adds some readings in such a way that it looks like an original reading of the Upasakadaśānga. On the other hand, shri Ghasilalji quotes it as a supplment reading. We can observe and compare both the readings in following ways:
(धर्मकथामूलम्)
अगारधम्मं दुवालसविहं आइक्खड़, तंजहा पंच अणुब्वयाई, तिण्णि गुणब्बयाई, चत्तारि सिक्खावयाई ॥ पंच अणुब्वया, तंजहा .......|| तिष्णि गुणब्बयाई, तंजहा- अणत्थदंडवेरमणं, दिसिब्वयं, उपभोगपरिभोगपरिमाणं । चत्तरि सिक्खावयाई, तंजा सामाइयं, देसावगासियं, पोसहोववासे, अतिहिसंविभागे,. ...... आणाए आराहए भवइ ॥ २
अगारधम्मं दुवासलविहं आइक्खड़, तं जहा पंच अणुब्वयाई, तिणि गुणव्वयाई, चत्तारि सिक्खावयाई पंच अणुब्वयाई, तं जहा ---| तिण्णि गुणण्वयाई तं जहा अणत्थदंडवेरमणं, दिसिव्वयं, उवभोगपरिभोगपरिमाणं चत्तारि सिक्खाववाई, तं जहां सामाइयं, देसावगासिय पोसहोववासे, अतिहिसंविभागे ......... ! आणाए आराहए भवइ ।
We can also observe that those editions of the upāsakadaśänga which do not mention the reading, contain the word gunavrata. The readings are as follows: तरणं समणे भगवं महाबोरे आणंदस्स गाहावईस्स गाहावईस्स
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ASPECTS OF JAINOLOGY VOL-VII
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og hafa ....
siksăvrata are described in the Aupapātikasūtra, but तएणं समणे भगवं महावीरे आणन्दस्स गाहावइस्स Munishri has mentioned only siksavrata in his Hindi ...
commentery of the Upāsakadašānga. Though earlier he तएणं समणे भगवं महावीरे आणन्दस्स गाहावइस्स तीसे used the reading of the Aupapatikasutra in the
Upāsakadaśânga in such a manner, that it looks like an The above investigation has raised. Some
original reading of the Upāsakadaśānga, but the concept
of Guņavrata is not so ald and that fact has been fundamental problems viz. I. The concept of Gunavrata
supported in his Hindi commentary of the is as old as the Upāsakadaśanga, II. This concept is not so old as the Upāsakadaśānga, III Guņavrata is a later
Upāsakadaśānga. To for eliminate the ion of this
problem we can see below that reading of the concept of the vows, and Iv. It is a developed concept. If we try to discuss on all these points, we have
Aupapātikasūtra too :
__ अगारधम्म दुवालसविहं आइक्खइ, तं जहा - १ पंच अणुव्वाई, २. following findings :- Now, the question is which one of the above volumes is correct. whether those which
तिण्णि गुणव्वयाई, ३. चत्तारि सिक्खावयाई । पंच अणुव्वयाइं तं जहां contain that reading wherein Gunavrata incited are
........ I fafuut Tuloq4T5, JET 6. 3TUAGE.THU, . correct or those volums are correct which do not mention taley, c. 3041794HUT if firalaus Ethat reading. On the basis of only one reading we can ATHIŞTİ, P. HCM , Ø. E 82. not conclude like this and also not raise the question of sufferifer....... ! 3710TT BRET 4951 the authenticity of those editions. Here, we can only T he above mentioned reading of the Aupātika sūtra try to find out the sources of that reading. Because, if is reconciled with that reading used by Madhukar Muni it is not an original reading of the upăsakadasnga, it and Ghasilalji in their editions of the Upāsakadasanga. means it is an addition and has some sources.
Acārya Tulsi has mentioned the name of the Aupapatika According to the Jain scholrs the Gunavrata is rather sutra in the foot note of the Upásakadašārga. ofcourse new and developed concept. As the upāsakadasānga is Acharya Tulsi has accepted the modern Research very old and this concept should not have been methdology but Madhukar Muni and Ghasilali belive mentioned in it. Here we quote the view of Dr. S.M. in traditional methods. Jain, an eminent Jain scholar?." The divisions of There is a tradition that a reading or verse may be Gunavrata and siksāvrata came in existence after the interpolated in any Agama, if that reading or verse composition of the Upasakadaśānga and the possess the word 'Jaab'. This traditional methods for Tattavārthasūtra. Those Jain scriptures mentioning such addition or completion of a reading is widely accepted types of division are not so old. They are composed by the editors of the Āgamas. Thus Muni Madhkarji after those two scriptures". Thus we opine that the and Gahsilalji both have used this methdology in their reading of the upāsakadaśärgathat mentions the concept editions of the Upāsakadaśānga and completed the of Gunavrata is not an original reading of this Agama. reading. We quote those reading of the Opāsakadasanga It is a later interpolation.
containing the word 'Jaab' as follwos." Now, we would like to find out the sources of this
.... en la CETI reading. We used the copies of the upāsakadaśānga
.... yang ra hai edited by Ācārya Tulsi and Madhuka rMuni for
.... HEAT a 974 het .....! investing the sources of that reading. Madhukar Muni
..... H FC 444446... ! has written in his Hindi Commentary." Seven
..... 465461f a 44 El.... siksāvratas are cited in the Aupapātikasūtra, this concept
... HTC HTC 4-4-El... ! is mentioned there in. This commentary of Madhukar
On the basis of the above discussion we can Muni not only shows a direction but also creates an
conclude that Gunavrata is not described in the academic problem. The concept of Gunavrata and
Upāsakadaśānga. If some editions of this text mention
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GUNAVRATA AND UPASAKADASANGA
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the concept of Gunavrata, we should understand that 2. Upasakadaśāngasūtra (Ghashilalji) p.51 this is borrowed from other sources. Gunavrata is a 3. Uvāsagadaśão (Madhukar Muni), 1/11, p.21 later and developed concept and it is mentioned in the 4. Upāsakadaśangasūtra (Amolak Rishi), 1/11,p.7 Upānga Agama the Aupapātika. The reading of the 5. Uvāsagadaśão (Pt. Bachardas Doshi), 1/11.p.3 Upasakadaśanga which mentions this concept is 6. Upāsakadaśānga (Abhayadeva Commentary), p.6 borrowed from this Upānga. Upanga is an appendix of 7. Jaina dharma kā Vāpniya Sampryadaya - the Anga Agama and this fact has been proved. Normally Dr. Sagarmal Jain, Parashvanath Vidyapith, Varanasi, the facts cited in Upāngasūtra are new in comprasion 1995 P.334 to the fact , described in the Anga Agama, the concept 8. Uvāsagadaśão (Madhukar Muni), p.57 of Gunavrata is mentioned in the Aupapātika sūtra not 9. Aupapätikasūtra (Madhukar Muni), Byavara in the Upāsakadaśänga. Hence it is a new and developed (Raj)57,p.113 concept and not cited in the original verse of the 10. Uvāsagadaśão (Angasuttāņi, pt III) - Acārya Tulsi, Upāsakadaśānga.
11. Uvāsagadaśão (Doshi), 1/11, p.3 ; Uväsagadaśão (Ācārya References
Tulsi), 1/21, p.399; Uvāsagadaśão (Amolaka Rishi), 1/11.p.7; Upåsakadašānga (AbhayadevaCommentary).
p6; Upåsakadašānga (Jinendravijayagani),1/5, p.263; 1. Uvasagadaśão (Madhukar Muni)'1/11 pp.19-21
Uvāsagadaśao (Madhukar Muni) 1/11. p.19. Upāsakadaśāngasūtra (Ghashilalji), p.51
p.399
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Jain Education Intemational
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