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________________ गुणस्थान : मनोदशाओं का आध्यात्मिक विश्लेषण 1अप०, २,३,४,५ ३९. गो० जीव०, १९ . २६. गो० जीव० गाथा १३ एवं १४ तथा षटखं० भावानु सूत्र ४०. रत्नशेखर, गुणस्थानक्रमारोह, ११ ७,८,९ ४१. किमिति मिथ्याद्दष्टिरिति न व्यणदिश्यते चेत्र, अनन्तानबन्धिनां २७, जिस कर्म के उदय से अतत्त्वश्रद्धान् हो, वह 'मिथ्यात्व' है। द्विस्वभावत्वा प्रतिपादनफलत्वात् ...... सूत्रो -जैन सि० प्रवे०, पृ०५९ तथानूपदेशोऽप्यर्पितनयापेक्षः। २८. जिस कर्म के उदय से जीव के मिले हुए परिणाम हों, जिन्हें न - घवला जीवट्ठाण संतसुत्त, पृ० १६५ तो सम्यक्त्वरूप कह सकें और न मिथ्यात्वरूप ही, उसे 'सम्यक् ४२-४३. जिसका स्वयं अनुभव हो सके अथवा कदाचित् जिसका दूसरे -मिथ्यात्व' कहते हैं। जैन सि० प्रवे०, पृ०५९ को भी परिज्ञान हो सके उसे व्यक्त और उससे विपरीत को अव्यक्त २९. जिस कर्म के उदय से जीव के सम्यक्त्वगण का मूलघात तो न कहते हैं। हो परन्तु चल मलादिक दोष उपजें उसको 'सम्यक्त्व प्रकृति' ४४-४५. (अ) सम्मामिच्छुदयेण जत्तंतरसब्वघादिकज्जेण। कहते हैं। -जैन सि० प्रवे०, पृ० ५९-६० ण य सम्म मिच्छं पि य सम्मिस्सो होदि परिणामो ॥२१॥ ३०. जो आत्मा के स्वरूपाचरणचारित्र को घातें उनको अनन्तानुबंधी दहिगुडमिव वा मिस्सं पुहभावं णेव कारिदुं सक्कं । चतुष्क (क्रोध, मान, माया, लोभ) कहते हैं। - जैन सि० प्रवे०, एवं मिस्सयभावो सम्मामिच्छो त्ति णादव्वो।।२२।। -गो० जीव० पृ०६१। (ब) धवला, खण्ड १, गाथा १०९ ३१. मिच्छोदयेण मिच्छत्तमसद्दहणं तु तच्च अत्थाणं । -गो० जीव०, (स) सम्यग्मिथ्यात्वरुचिमिश्रः सम्यग्मिथ्यात्व पाकतः । गाथा १५ सुदुष्करः पृथग्भावो दधिमिश्रगुडोपमः ।। -सं० पंचसंग्रह, १.२२ ३२. तत्त्वानि जिनदृष्टानि यस्तथ्यानि न रोचते। ४६. जैसे परस्पर विरुद्ध लक्षण और स्वभाव वाले अग्नि और जल मिथ्यात्वस्योदये जीवो मिथ्यावृष्टिरसौ मतः ।। एक स्थान और एक काल में एक साथ नहीं रह सकते उसी भाँति - सं० पंचसंग्रह, १.१९ सम्यग्मिथ्यात्वरूप दो परस्पर-विरुद्ध भाव एक काल और एक ३३. (अ) मिच्छन्तं वेदन्तों जीवो विवरीयदंसणो होदि । आत्मा में नहीं हो सकते अन्यथा सहावस्थानलक्षणविरोध होगा। ण य धम्मं रोचेदि हु महुरं खु रसं जहा जरिदो।। ४७. जैसे राम में श्याम की अपेक्षा मित्रपना और रमेश की अपेक्षा - गो० जीव०, १७ अमित्रपना ये दोनों ही धर्म एक ही काल में एक साथ होते हैं (यही (ब) मूलाराधना, गाथा ४१, पृ० १४०; मित्रामित्रन्याय है) वैसे ही एक ही आत्मा में तत्त्वश्रद्धान् की (स) पट्खं० संतसुत्त विवरण, - गा० १०६, पृ० १६२ अपेक्षा सम्यक्त्वपना और सर्वज्ञाभास-भासित अतत्त्वश्रद्धान की (ड) सं० पंचसंग्रह, १.६ अपेक्षा मिथ्यापना ये दोनों ही धर्म एक काल और एक ही आत्मा ३४. (१) मिच्छाइठ्ठी जोवो उवइ8 पवयणं ण सद्दहदि । में घटित हो सकते हैं। सद्दहदि असब्भावं उवइ8 वा अणुवइ8 ।। ४८. श्रावक के व्रतों (आचार) का पालन देशसंयम और मुनियों के - गो० जी०, गा० १८ आचार का पालन सकलसंयम कहलाता है । (२) मूलाराधना, गा० ४०, पृ० १३८; ४९. मूल शरीर को बिना छोड़े ही आत्मा के प्रदेशों का बाहर निकलना (३) लब्धिसार, गा०१०९; ‘समुद्घात' है। इसके ७ भेद हैं- वेदना, कषाय, वैक्रियिक, (४) सं० पंचसंग्रह, १-८; (५) छक्खंड चूलिया-गाथा, १५ मरणान्तिक, तैजस, आहार और केवली । मरण से पहले ३५. गो० जीव०, गा० १५ होनेवाले समुद्घात को मारणान्तिक समुद्घात कहते हैं । ३६. (अ) सम्मत्तरयणपव्वयसिहरादो मिच्छभूमिसमभिमुहो। -दृ० द्रव्यसंग्रह, गा०१० णासियसम्मत्तो सो सासणणामो मुणेयव्वो।। ५०. (क) सो संजमं मिण्हदि, देसजमं वा ण बंधदे आउं। ___-गो० जीव०, २० सम्म वा मिच्छं वा, पडिवज्जिय मरदि णियमेण ||२३|| (ब) षट्खंडागम, संतसुत्त जीवट्ठाण, गाथा १०८, पृ० १६६ -गो० जीव० (स) सं० पंचसंग्रह, १.२० (ख) सम्मत्तमिच्छपरिणामेस् जहिं आउगं पूरा बद्ध । ३७. ३८. पुद्गल परमाणु जितने समय में आकाश के एक प्रदेश से तहिं मरणं मरणंतसमुग्धा दो वि यण मिस्समि ॥२४॥ दूसरे प्रदेश पर जाता है उतना समय कहलाता है । ऐसे .गो० जीव० असंख्यात समय एक समय की आवली होती है और एक श्वास ५१. स्थावर नामकर्म के उदय से पृथ्वी, जल, तेज, वायु और में असंख्यात आवली होती हैं। Jain Education Intemational For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012065
Book TitleBhupendranath Jain Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1998
Total Pages306
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size10 MB
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