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जैन, बौद्ध और वैदिक साहित्य- एक तुलनात्मक अध्ययन आजीवक आचार्य नन्द, वत्स, कृश सांकृत्य मस्करी; गोशालक आदि का समूह ।
अनेक भेद किये हैं । २३
स्थानांग में राग और द्वेष का पाप कर्म का बंध बताया है२४ तो अंगुत्तरनिकाय में तीन प्रकार से कर्मसमुदाय माना है लोभन, दोषज आनन्द ने गौतमबुद्ध से इन छः अभिजातियों के सम्बन्ध में (द्वेषज), मोहज उन सभी में मोह को अधिक दोषजनक माना है।" पूछ तो उन्होंने कहा कि मैं भी छह अभिजातियों की प्रज्ञापना करता हूँ। (१) कोई पुरुष कृष्णाभिजातिक (नीच कुल में उत्पन्न) होकर
स्थानांग व समवायांग में आठ मद के स्थान बताये हैं
जातिमद कुलमद; बलमद, तपमद, श्रुतमद, लाभ और ऐश्वर्य मद । २७ कृष्ण धर्म तथा पापकर्म करता है । तो अंगुत्तरनिकाय में मद के तीन प्रकार बताये हैं - यौवन, अरोग्य, जीवित मद। इन तीनों मदों से मानव दुराचारी बनता है ।
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स्थानांग, समवयांग २९ में आस्रव के निरोध को संवर कहा को पैदा करता है । और उसके भेद-प्रभेदों की चर्चा की है तथागत बुद्ध ने अंगुत्तरनिकाय में कहा आलव का निरोध मात्र संवर से ही नहीं होता। उन्होंने इस प्रकार उसका विभाग किया - (१) संवर से (इन्द्रियाँ मुक्त होती हैं तो इन्द्रियों का संवर करने से गुप्तेन्द्रियाँ होने से तद्जन्य आस्रव नहीं होता (२) प्रतिसेवना से (३) अधिवासना से (४) परिवर्जन से (५) विनोद से (६) को पैदा करता है । ३७ भावना से इस सभी में अविद्या निरोध को ही मुख्य आस्रव निरोध माना है ।
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स्थानांग आदि में अरिहन्त, सिद्ध, साधु, धर्म इन चार शरण आदि का उल्लेख है, तो बुद्ध परम्परा में बुद्ध, धर्म और संघ तीन शरण को महत्त्व दिया गया है। स्थानांग में जैन उपासक के लिए पाँच अणुव्रतों का विधान है अंगुत्तरनिकाय में बौद्ध उपासक के लिए पाँच शील का उल्लेख है (१) प्राणातिपातविरमण (२) दत्तादानविरमण (३) काम-भोग- मिथ्याचार से विरमण, (४) मृषावादविरमण, (५) सुरा, मैरेय, मद्य, प्रमाद, स्थान से विरमण २
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स्थानांग में प्रश्न के छह प्रकार बताये है संशय प्रश्न मिथ्यात्रि वेश प्रश्न, अनुयोगी प्रश्न, अनुलोम प्रश्न, जानकर किया गया प्रश्न न जानने से किया गया प्रश्न । अंगुत्तरनिकाय में प्रश्न के सम्बन्ध में चिन्तन करते हुए बुद्ध ने बताया कि कितने प्रश्न ऐसे होते हैं कि जिसके एक अंश का उत्तर देना चाहिए कितने ही प्रश्न ऐसे हैं जो प्रश्नकर्ता से प्रति प्रश्न कर उत्तर देना चाहिए, कितने ही प्रश्न ऐसे हैं जिनका विभाग कर उत्तर देना चाहिए।
स्थानांगसूत्र में छः लेश्याओं का वर्णन है और इन लेश्याओं के भव्य और अभव्य की दृष्टि से संयोगी आदि भंग प्रतिपादित किये गये
वैसे ही अंगुत्तरनिकाय में पूरण कश्यप द्वारा छ: अभिजातियों का उल्लेख किया गया है जो रंगों के आधार पर निश्चित की गई है; वह इस प्रकार है (१) कृष्णाभिजाति-बकरी, सुअर पक्षी और पशु-पक्षी पर अपनी आजीविका चलाने वाले मानव कृष्णाभिजाति है। (२) नीलभिजात कंटक वृत्ति भिक्षुक नीलाभिजाति हैं। बौद्ध विभु तथा अन्य कर्मवाले भिक्षुओं का समूह। (३) लोहिताभिजाति एक शटक निर्मन्थों का समूह । (४) हरिद्राभिजाति- श्वेत वस्त्रधारी या निर्वस्त्र । (५) शुक्राभिजातिआजीवक श्रमण श्रमणियों का समूह (६) परम शुक्लाभिजाति
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२. कोई पुरुष कृष्णाभिजातिक होकर धर्म करता है। ३. कोई पुरुष कृष्णाभिजातिक हो, अकृष्ण, अशुक्ल निर्वाण
४. कोई पुरुष शुक्लाभिजातिक (ऊँचे कुल में उत्पन्न हो) शुक्ल धर्म करता है।
है ।
५. कोई पुरुष शुक्लाभिजातिक हो, कृष्ण धर्म करता है। ६. कोई पुरुष शुक्लाभिजातिक हो, अकृष्ण- अशुक्ल निर्वाण
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महाभारत में प्राणियों के वर्ण छः प्रकार के बताये हैं । सनत्कुमार ने दानवेन्द्र वृत्तासुर से कहा प्राणियों के वर्ण छह होते हैंकृष्ण, धूम्र, नील, रक्त, हारिद्र और शुक्ल । इनमें से कृष्ण धूम्र, नील वर्ण का सुख मध्यम होता है। रक्त वर्ण अधिक सह्य होता है। हारिद्र वर्ण सुख कर और शुक्ल वर्ण अधिक सुखकर होता है।
गीता में गति के कृष्ण और शुक्ल ये दो विभाग किये गये हैं। कृष्ण गतिवाला पुनः पुनः जन्म लेता है और शुक्ल गतिवाला जन्ममरण से मुक्त होता है ।
धम्मपद् में धर्म के दो विभाग किये गये हैं। वहाँ वर्णन है कि पण्डित मानव को कृष्ण धर्म को छोड़कर शुक्ल धर्म का आचरण करना चाहिए ।
पतञ्जलि ने पातञ्जल योगसूत्र में कर्म की चार जातियाँ प्रतिपादित की हैं। कृष्ण, शुक्ल कृष्ण, शुक्ल, अशुक्ल अकृष्णा। ये क्रमशः अशुतर, अशुद्ध, शुद्ध और शुद्धतर हैं।
इस तरह लेश्याओं के साथ आंशिक दृष्टि से तुलना हो सकती
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स्थानांग में सुगत के तीन प्रकार बताये गये हैं (१) सिद्धि सुगत, (२) देव सुगत, (३) मनुष्य सुगत । ४२ अंगुत्तर निकाय में भी राग-द्वेष और मोह को नष्ट करने वाले को सुगत कहा है । ४३
स्थानांग में लिखा है कि पाँच कारणों से जीव दुर्गति में जाता है। यह कारण है हिंसा, असत्य चोरी, मैथुन और परिग्रह । अंगुत्तर निकाय में नरक जाने के कारणों पर चिन्तन करते हुए लिखा है। अकुशल कार्य कर्म, अकुशल वाक् कर्म, अकुशल मन कर्म और सावद्य आदि कर्म ४६ नरक के कारण हैं।
श्रमणोपासक के लिये उपासकदशांग सूत्र और अन्य आगमों
में सावध व्यापार का निषेध किया गया है तथा उन्हें पन्द्रह कर्मादान के
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