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जैन विद्या के आयाम खण्ड-७ अन्तर्गत स्थान दिया गया है तो बौद्ध साहित्य में भी सावध व्यापार, का स्थानांगसूत्र में बतलाया है कि मध्यलोक में चन्द्र, सूर्य, मणि, निषेध है । वहाँ भी कहा गया है शस्त्र वाणिज्य, जीव व्यापार, मांस का ज्योति, अग्नि से प्रकाश होता है। व्यापार, मद्य का व्यापार और विष व्यापार नहीं करने चाहिए।
अंगुत्तरनिकाय में आभा, प्रभा, आलोक और प्रज्योत इन स्थानांग व अन्य आगम साहित्य में श्रमण निर्ग्रन्थ इन छह प्रत्येक के चार प्रकार बताये गये है। वे हैं - चन्द्र, सूर्य, अग्नि, प्रज्ञा ।५३ कारणों से आहार ग्रहण करता है- (१) क्षुधा की उपशांति (२) वैयावृत्त्य स्थानांग में लोक को चौदह रज्जु प्रमाण कहकर उसमें जीव के लिए (३) ईर्याविशुद्धि के लिए (४) संयम के लिए (५) प्राण धारण और अजीवद्रव्यों का सद्भाव बताया है। वैसे ही अंगुत्तरनिकाय में भी करने के लिए और (६) धर्म चिन्ता के लिए। अंगुत्तरनिकाय में आनंद लोक को अनंत कहा हं ५४ और वह सान्त भी है । तथागत बुद्ध ने यही ने एक श्रमणी को इसी प्रकार का उपदेश दिया है ।४९
कहा है कि पाँच काम गुण रूप रसादि यही लोक है और जो मानव पाँच स्थानांग" में इहलोकभय, परलोकभय, आदानभय, अकस्मात् काम गुण का परित्याग करता है वही लोक के अन्त में पहुँचकर वहाँ भय, वेदनाभय, मरणभय' ओर अश्लोकभय आदि सात भयस्थान बताये पर विचरण करता है। हैं तो अंगुत्तरनिकाय५१ में जाति, जन्म, जरा, व्याधि, मरण, अग्नि, स्थानांग में भूकंप के तीन कारण बताये हैं५५ (१) पृथ्वी के उदक, राज, चोर, आत्मानुवाद-अपने दुश्चरित्र का विचार कि दूसरे मुझे नीचे का धनवात व्याकुल होता है और उससे धनोदधि समुद्र में तूफान दुश्चचरित्र कहेंगे इसका भय, दंड, दुर्गति आदि अनेक भयस्थान बताये आता है, (२) कोई महेश नामक महोरग देव अपने सामर्थ्य का प्रदर्शन गये हैं।
करने के लिए पृथ्वी को चलित करता है, देवासर-संग्राम जब होता है समवायांगसूत्र में नारक, तिर्यञ्ज, मनुष्य और देवताओं के तब भूकंप आता है। आवास स्थल के सम्बन्ध में विस्तार से निरुपण है। जैसे कि रत्नप्रभा अंगुत्तरनिकाय में भूकंप के आठ कारण बताये हैं५६ (१) पृथ्वी पृथ्वी में एक लेख ७८ हजार योजन प्रमाण में ३० लाख नरकावास के नीचे की महावायु के प्रकम्पन से उस पर रही हुई पृथ्वी प्रकम्पित होती हैं। इसी प्रकार अन्य नरकवासों का भी वर्णन है। वैसे ही अंगुत्तर निकाय है, (२) कोई श्रमण-ब्राह्मण अपनी ऋद्धि के बल से पृथ्वी-भावना को में नवसत्त्वास माने हैं। उनमें सभी जीवों को विभक्त कर दिया गया है ।५२ करता है, (३) जब बोधिसत्त्व-माता के गर्भ में आते हैं, (४) जब ये नवसत्त्वावास निम्न हैं
__ बोधिसत्त्व माता के गर्भ से बाहर आते है, (५) जब तथागत अनुत्तर प्रथम सत्तावास में विविध प्रकार के काय और संज्ञावाले ज्ञानलाभ को प्राप्त करते हैं, (६०) जब तथागत धर्मचक्र का प्रवर्तन कितने ही मनुष्य देव और विनिपातिकों का समावेश है। करते हैं, (७) जब तथागत आयु संस्कार का नाश करते हैं, (८) जब
दूसरे आवास में विविध प्रकार की कायावाले किन्तु समान तथा निर्वाण प्राप्त करते हैं। संज्ञा वाले ब्रह्मकायिक देवों का वर्णन है।
जैन दृष्टि से जैन आगम साहित्य में अनेक स्थलों पर ऐसा तीसरे आवास में समान कायवाले किन्तु विविध प्रकार की उल्लेख है कि एक क्षेत्र में एक ही तीर्थकर या चक्रवर्ती आदि होते हैं। संज्ञावाले अभास्वर देवों का वर्णन है।
जैसे भरत क्षेत्र में एक तीर्थकर, ऐरावत क्षेत्र में एक तीर्थंकर, महाविदेह चतुर्थ आवास में एक सदृश काय और संज्ञावाले शुभ कृष्ण क्षेत्र के बत्तीस विजय में बत्तीस तीर्थकर, इस प्रकार जम्मूद्वीप में ३४ देवों का निरुपण है।
तीर्थकर और उसी प्रकार ६८,६८ तीर्थंकर क्रमश: धातकी खण्ड और पाँचवें आवास में असंज्ञी और अप्रतिसंवेदी ऐसे असंज्ञ सत्त्व अर्द्धपुष्कर में होते हैं । इस प्रकार कुल उत्कृष्ट १७० तीर्थकर हो सकते देवों का वर्णन है।
है किन्तु सभी का क्षेत्र पृथक्-पृथक् होता है । जैन मान्यता की तरह ही छठे आवास में रूप संज्ञा, पाटिघ संज्ञा और विविध संज्ञा से अंगुत्तरनिकाय में भी एक क्षेत्र में एक ही चक्रवर्ती और एक ही तथागत आगे बढ़कर जैसे आकाश अनन्त है। वैसे आकाशानंचायतन को प्राप्त बुद्ध होते हैं ऐसी मान्यता है । हुए वैसे सत्त्वों का निरूपण है ।
समवायांग५७ में बताया है कि जहाँ अरिहन्त तीर्थंकर विचरते सातवें आवास में उन सत्त्वों का वर्णन है जो आकाशनंचायतन हैं वहाँ इति, उपद्रव का भय नहीं रहता, मारी का भय, स्वचक्र, परचक्र को भी अतिक्रमण करके अनंत विज्ञान हैं, ऐस विश्चाणनंचायतन को का भय नहीं रहता। आदि तीर्थंकर के ३४ अतिशय है अंगुत्तरनिकाय प्राप्त हुए हैं।
में तथागत बुद्ध के ५ अतिशय बताये है ।५८ वे अर्थज्ञ होते हैं, धर्मज्ञ आठवें आवस में वे सत्त्व हैं जो कुछ भी नहीं है अकिञ्चायतन होते हैं, मर्यादा के ज्ञाता होते हैं, कालज्ञ होते हैं और परिषद् को जानने को प्राप्त हैं।
वाले. होते हैं। नमें आवास में वे सत्त्व हैं जो नवजाना-सायतन को प्राप्त दोनों परम्पराओं (जैन और बौद्ध) में चक्रवर्ती का उल्लेख है
और उसको बहुजनों का हितकर्ता माना है । स्थानांग५१ और समवायांग"
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