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________________ १६२ जैन विद्या के आयाम खण्ड-७ बाह्य युद्ध- जो पराक्रम के बल से सेना द्वारा लड़ा जाता है बतलाए हैं- (१) धर्मयुद्ध (२) कूटयुद्ध। कौटिलीय अर्थशास्त्र में उसे बाह्ययुद्ध कहते हैं। . तीन प्रकार के युद्धों का उल्लेख है-प्रकाशयुद्ध, कूटयुद्ध और आन्तरिक युद्ध- स्थूल शरीर और कर्मों के साथ लड़े जाने तूष्णीयुद्ध २९। जैनाचार्य सोमदेव ने दो प्रकार के युद्धों का वर्णन वाले युद्ध को आन्तरिक युद्ध कहा गया है। औदारिक शरीर जो किया है, प्रथमतः उन्होंने 'कूटयुद्ध' की व्याख्या करते हुए लिखा है इन्द्रियों और मनरूपी शस्त्र लिए हुए है, विषय सुख-पिपासु है और कि एक शत्रु पर आक्रमण करके वहाँ से अपनी सेना वापस लौटाकर स्वेच्छाचारी बनकर मानव को नचा रहा है, उसके साथ युद्ध करना जब दूसरे शत्रु का घात किया जाता है, उसे कूटयुद्ध कहते हैं। चाहिए तथा उस कर्मशरीर के साथ लड़ना चाहिए, जो वृत्तियों के तूष्णीयुद्ध वह है जिसमें विष देने वाले घातक पुरूषों को भेजा जाता माध्यम से मनुष्य को अपना दास बना रहा है। काम, क्रोध, मद, है, अथवा एकान्त में चुपचाप स्वयं शत्रु के पास जाकर भेदनीति के लोभ, मत्सर आदि सभी कर्म शत्रु की सेना हैं। भगवान् महावीर ने उपायों द्वारा शत्रु का घात किया जाता है। आन्तरिक युद्ध के लिए दो शस्त्र बतलाए हैं- परिज्ञा और विवेक। धर्मयुद्ध- प्राचीनकाल में धर्मयुद्ध को बहुत महत्व दिया परिज्ञा से वस्तु का सर्वतोमुखी ज्ञान करना और विवेक से उसके जाता था। धर्मयुद्ध के निर्धारित नियम होते थे और इन्हीं नियमों के पृथक्करण की दृढ़ भावना करना।२७ उत्तराध्ययनसूत्र में कहा गया है अनुसार युद्ध किये जाते थे। धर्मयुद्ध के नियम मानवोचित दया आदि कि आत्मा विजेता ही इस लोक और परलोक में सुखी होता है, अत: गुणों से युक्त होते थे। इसका उद्देश्य शत्रु का विनाश करना नहीं, स्वयं पर ही विजय प्राप्त करना चाहिए।२८ अपितु उसे पराजित कर अपनी अधीनता स्वीकार कराना ही होता जैनसूत्रों में भरत और बाहुबली के मध्य लड़े गये युद्धों का था। इसमें विषैले बाणों आदि का प्रयोग तथा अग्निबाणों का प्रयोग वर्णन है। भरत-बाहुबली की सेनाओं द्वारा होने वाले महाप्रलयकारी वर्जित था। इसके साथ ही यह युद्ध समान शक्ति वालों के साथ ही युद्ध से बचने के लिए देवताओं, आचार्यों अथवा मन्त्रियों ने युद्ध के होता था, जिसमें पैदल-पैदल से, गजारोही-गजारोही से, अश्वारोहीनवीन (अहिंसक) तरीकों का विधान किया ताकि दो राजाओं के अश्वारोही से तथा रथारोही-रथारोही योद्धाओं से युद्ध करते थे। यदि निजी स्वार्थों के निमित्त होने वाली अन्य जीवों (सेना आदि) की युद्ध में किसी का रथ टूट जाता था अथवा कोई घायल हो जाता था अकारण हिंसा से बचा जा सके। इस हेतु तत्कालीन आचार्यों ने तो उस पर आक्रमण करना धर्मयुद्ध के विरूद्ध माना जाता था। निम्नलिखित छ: प्रकार के युद्धों का निरूपण किया- धर्मयुद्ध का उद्देश्य तो धर्म की स्थापना करना और अधर्म का नाश १- दृष्टियुद्ध- इस युद्ध में परस्पर दो प्रतिद्वन्द्वी राजा एक करना था। परन्तु सार्वभौम बनने की उत्कृष्ट अभिलाषा के कारण दूसरे की आँखों में आँखें डालकर अपलक देखते थे। इस प्रक्रिया में अश्वमेधादि यज्ञों द्वारा पराक्रम प्रकट करने के लिए भी युद्ध किया जिसकी पलकें पहले झुक जाती, उसे पराजित माना जाता था। जाता था। जब शत्रु पर धर्मयुद्ध द्वारा विजय प्राप्त करना असंभव २- वाक्युद्ध-वाक्युद्ध में परस्पर दो प्रतिद्वन्द्वी राजा अपनी- दिखाई देता था तब कूटयुद्ध का प्रश्रय भी लिया जाता था। अपनी शक्ति के अनुसार तीव्र ध्वनि निनाद करते थे। जिसकी आवाज कूटयुद्ध- आचार्य कौटिल्य के अनुसार छल-कपट द्वारा अधिक प्रभावी सिद्ध होती थी, उसे विजयी माना जाता था। भय खड़ा करना, दुर्गों को ढ़हाना, लूटमार करना, अग्निदाह करना, ३- बाहुयुद्ध- बाहुयुद्ध में बाहुओं से एक दूसरे पर प्रहार प्रमाद और व्यसनग्रस्त शत्रु पर आक्रमण करना, एक स्थान पर युद्ध किया जाता था। को रोककर दूसरे स्थान पर छल से मार-काट मचाना इत्यादि ४- मुष्टियुद्ध- यह आधुनिक बॉविंसग का प्राचीन रूप कूटयुद्ध के लक्षण हैं।३० प्रतीत होता है, जिसमें योद्धा एक-दूसरे पर मुष्टि प्रहार करते थे। ५- मल्लयुद्ध- मल्लयुद्ध आधुनिक कुश्ती का दूसरा युद्ध की आचार संहिता नाम था। प्राचीनकाल में युद्ध के भी कतिपय नियम होते थे। इन्हीं ६- दण्डयुद्ध- उपर्युक्त पांचों युद्धों में यदि निर्णायक नियमों के अनुसार युद्ध किया जाता था और उनका अतिक्रमण करना स्थिति विवादास्पद होती थी तब दण्ड-युद्ध किया जाता था। इसमें बहुत बुरा समझा जाता था। तत्कालीन राजनीति में शरणागत की हाथ में दण्ड (गदा आदि ) लेकर युद्ध किया जाता था। रक्षा करना विशेष श्रेयस्कर माना जाता था। जैन आगम ग्रन्थ जैनग्रथों में भरत और बाहबली के अतिरिक्त किसी अन्य निरयावलिकासत्र में उल्लेख है कि राजा चेटक ने अट्ठारह गणराजाओं राजा द्वारा उक्त प्रकार से युद्ध करने का कोई उल्लेख नहीं है। से मन्त्रणा की जिसमें गणराजाओं ने इस प्रकार कहा- 'हे स्वामिन् ! सामान्य दृष्टि से प्राय: सभी आचार्यों ने युद्ध के दो भेद वैहिल्यकुमार अपने पिता द्वारा दिये गये उपहारों के साथ आपकी Jain Education Intemational For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012065
Book TitleBhupendranath Jain Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1998
Total Pages306
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size10 MB
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