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________________ ११२ जैन विद्या के आयाम खण्ड-७ से लघु व्यक्तियों के लिए 'आउस' (आययमान्) शब्द का प्रयोग हुआ (१) लोभ (२) द्वेष (३) मोह- ये तीन अकुशलमूल हैं। है। तथागत बुद्ध को 'आउस गौतम' कहकर सम्बोधित किया गया है। जैन दृष्टि से साधना का मूल सम्यग्दर्शन है और साधना का तो गोशालक ने भी भगवान् महावीर को 'आउसो कासवाँ' कहकर बाधक तत्त्व मोहनीय कर्म । राग और द्वेष ये मोह के ही प्रकार हैं । इसी सम्बोधित किया है ।९६ प्रकार मज्झिमनिकाय में बुराइयों की जड़ लोभ, द्वेष और मोह को बताया अर्हत् और बुद्ध - वर्तमान में जैन परम्परा में 'अर्हत' शब्द गया है। और बौद्ध परम्परा में 'बुद्ध' शब्द रूढ हुआ है। जैनागमों में 'बुद्ध' शब्द तत्त्वार्थसूत्र में सम्यग्दर्शन की उत्पत्ति के अधिगम और निसर्ग का प्रयोग अनेक स्थलों पर हुआ है। जैसे सूत्रकृतांग९७ राजप्रश्नीय८, ये दो कारण बताये है१०८ । मज्झिमनिकाय ०१ में एक प्रश्नोत्तर मिलता स्थानांग१९, समवायांग१०० आदि । बौद्ध परम्परा में पूज्य व्यक्तियों के है कि सम्यग्दृष्टि ग्रहण के कितने प्रत्यय हैं? उत्तर में कहा- दो प्रत्यय लिए 'अर्हत्' शब्द व्यवहत हुआ है । यत्र-तत्र तथागत बुद्ध को 'अर्हत्' हैं - (१) दूसरों के घोष-उपदेश श्रवण और योनिश: मनस्कार- मूल सम्यक् सम्बुद्ध १०१ कहा गया है । तथागत बुद्ध के परिनिर्वाण के पश्चात् पर विचार करना । ५०० भिक्षुओं की एक विराट सभा होती है । वहाँ आनन्द के अतिरिक्त जैन दृष्टि से साधना की पाँच भूमिकाएँ हैं । व्रतों से पहले ५९९ भिक्षुओं को 'अर्हत्' कहा गया है। कार्यारम्भ होने के पश्चात् सम्यक्-दर्शन को स्थान दिया गया है । उसके पश्चात् विरति है। आनन्द को भी 'अर्हत्' लिखा गया है।०२ । शताधिक बार 'अर्हत्' शब्द मज्झिमनिकाय के सम्मादिट्टि सूत्तन्त में दास कुशल धर्मों का उल्लेख का प्रयोग हुआ है। है११० । उनका समावेश पाँच व्रतों में इस प्रकार किया जा सकता है। जैन और बौद्ध दोनों ही परम्पराओं में गृहस्थ उपासक के लिए 'श्रावक' शब्द व्यवहत१०३ हुआ है । जैन परम्परा में गृहस्थ के लिए महाव्रत कुशल धर्म श्रावक' शब्द आया है तो बौद्ध परम्परा में भिक्षु और गृहस्थ दोनों के १. अहिंसा (१) प्राणातिपात (९) व्यापाद से विरति लिए 'श्रावक' शब्द का प्रयोग मिलता है। इसी प्रकार उपासक या २. सत्य (४) मृषावाद (५) पिशुन वचन श्रमणोपासक शब्द भी दोनों ही परम्पराओं में प्राप्त है। गृहस्थ के लिए ३. अचौर्य (६) परुष वचन (७) संप्रलाप से विरति 'आगार' शब्द का भी प्रयोग हुआ है । जैन साहित्य में 'आगारओं ४. ब्रह्मचर्य (२) अदत्तादान से विरति अणगारियं पक्वइत्तए' शब्द आया है १०५ तो बौद्ध साहित्य में भी ५. अपरिग्रह (३) काम में मिथ्याचार से विरति 'अगारम्मा अनगारिअं पव्वज्जन्ति' यह शब्द व्यवहत हआ है १०६ । (८) अभिध्या से विरति सम्यक् दृष्टि और मिथ्यादृष्टि इन शब्दों का प्रयोग भी जैन और बौद्ध भावना - प्रश्नव्याकरणसूत्र में पाँच महाव्रतों की पच्चीस साहित्य में प्राप्त होता है । स्वयं के अनुयायियों के लिए 'सम्यक् दृष्टि' भावनाओं का उल्लेख है।११। अन्यत्र अनित्य, अशरण, संसार आदि और दूसरे के अनुयायियों के लिए 'मिथ्यादृष्टि' शब्द का प्रयोग किया द्वादश भावनाओं का भी उल्लेख ११२ है । तत्त्वार्थ सूत्र आदि में मैत्री, गया है। 'वैरमण' शब्द का प्रयोग भी दोनों ही परम्पराओं में व्रत लेने प्रमोद, कारुण्य, माध्यस्थ भावना का उल्लेख १३ है तो मज्झिमनिकाय के अर्थ में हुआ है। में सम्यग्दर्शन के साथ ही भावना का भी वर्णन आया है । मैत्री, करुणा, मज्झिमनिकाय ०७ में सम्मादिट्ठि सुत्तन्त नामक एक सूत्र है। मुदिता और अपेक्षा की भावना करने वाला आध्यात्मिक शान्ति प्राप्त कर उसमें सम्यक् दृष्टि का वर्णन करते हुए लिखा है - आर्य श्रावक सकता है११४ । सम्यग्दृष्टि होता है । उसकी दृष्टि सीधी होती है । वह धर्म में अत्यन्त स्थानांग११५, आवश्यक'१६ व तत्त्वार्थसूत्र १७ आदि में इस श्रद्धावान् होता है । अकुशल एवं अकुशल मूल को जानता है । साथ बात को प्रतिपादित किया गया है कि व्रत ग्रहण करने वाले व्यक्ति को ही कुशल और कुशलमूल को भी जानता है । जिससे वह आर्य श्रावक शल्य रहित होना चाहिए । शल्य वह है जो आत्मा को कांटे की तरह सम्यग्दृष्टि होता है। दुःख दे । उसके तीन प्रकार हैं - अकुशल दस प्रकार का है और अकुशलमूल तीन प्रकार का (१) माया शल्य - छल-कपट करना । (२) निदान शल्य - आगामी काल में विषयों की वाछा करना। (१) प्राणातिपात (हिंसा ) (२) अदत्तादान (चोरी) (३) काम (३) मिथ्यादर्शन शल्य -तत्त्वों का श्रद्धान् न होना। (स्त्रीसंसर्ग) में मिथ्याचार (४) मृषावाद (झूठबोलना) (५) पिशुन वचन मज्झिमनिकाय११८ में तृष्णा के लिए शल्य शब्द का प्रयोग (चुगली) (६) परुष वचन (कठोर भाषण) (७) संप्रलाप (बकवास) (८) हुआ है और साधक को उससे मुक्त होने के लिए कहा गया है। अभिध्या (लालच) (९) व्यापाद (प्रतिहिंसा) (१०) मिथ्यादृष्टि (झूठी आचारांग के शस्त्रपरिज्ञा अध्ययन में इन्द्रिय संयम की महत्ता धारणा) हे आवुसो ये अकुशल है। बताते हुए कहा है कि रूप, रस, गन्ध एवं स्पर्श अज्ञानियों के लिए Jain Education Intemational For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012065
Book TitleBhupendranath Jain Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1998
Total Pages306
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size10 MB
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