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________________ चक्ष विज्ञेय रूप (२ विज्ञेय को प्र दर्शन विशुद्धि को प्रा जैन, बौद्ध और वैदिक साहित्य-एक तुलनात्मक अध्ययन ११३ आवर्त रूप हैं ऐसा समझकर विवेकी उनमें मूछित नहीं होता। यदि स्थिति समान होती है और उनकी स्वतन्त्र सत्ता होती है। मुक्त दशा में प्रमाद के कारण पहले इनकी ओर झुकाव रहा तो ऐसा निश्चय करना आत्मा संपूर्ण वैभाविक, औपाधिक विशेषताओं से मुक्त होता है, उसका चाहिए कि मैं इनसे बचूँगा - इनमें नहीं फतूंगा, पूर्ववत् आचरण नहीं पुनरावर्तन नहीं होता। करूँगा। ___मज्झिमनिकाय में निर्वाण मार्ग का विस्तार से वर्णन है ।१२६ मज्झिमनिकाय १९ में पाँच इन्द्रियों का वर्णन है - चक्षु, श्रोत्र वहाँ पर निर्वाण को परमसुख१२० कहा है और बताया है कि शीलविशुद्धि घ्राण, जिह्वा और काय । इन पाँचों इन्द्रियों का प्रतिशरण मन है । मन तभी तक है जब तक कि पुरुष चित्त-विशुद्धि को प्राप्त नहीं होता। चित्ता इनके विषय का अनुभव करता है । विशुद्धि तभी तक है जब तक कि दृष्टिविशुद्धि को प्राप्त नहीं होता। पाँच काम गुण है - (१) चक्षु विज्ञेय रूप (२) श्रोत्र विज्ञेय दृष्टिविशुद्धि तभी तक है जब तक कि कांक्षावितरणविशुद्धि शब्द (३) ध्राण पाँच विज्ञेय गन्ध (४) जिह्व विज्ञेय रस (५) काय विज्ञेय को प्राप्त नहीं होता । कांक्षावितरणविशुद्धि तब तक है जब तक स्पर्श मार्गामार्गन दर्शन विशुद्धि को प्राप्त होता । मार्गामार्गदर्शन विशुद्धि तब स्थानांग, भगवती आदि में नरक, तिर्यच, मनुष्य और देव इन तक है जब तक कि प्रतिपद् ज्ञानदर्शनविशुद्धि की प्राप्ति नहीं होती। चार गतियों का वर्णन है। प्रतिपद्ज्ञानदर्शनविशुद्धि तब तक है जब तक कि ज्ञानदर्शनविशुद्धि को मज्झिमनिकाय१२१ में पाँच गतियाँ बताई हैं । नरक, तिर्यग, प्राप्त नहीं होता । ज्ञानदर्शनविशुद्धि तभी तक है जब तक कि उपादान प्रेत्यविषय, मनुष्य, देवता। जैन आगमों में प्रेत्यविषय और देवता को रहित परिनिर्वाण को प्राप्त नहीं होता ।१२८ एक कोटि में माना है। भले ही निवासस्थान की दृष्टि से दो भेद किये अजात- जन्मरिहत, अनुत्तर-सर्वोत्तम योगक्षेम (मंगलमय) गये हों पर गति की दृष्टि से वे दोनों एक ही हैं। निर्वाण पर्येषणा करता है ।१२९ जैन आगम साहित्य में भनक और स्वर्ग में जाने के निम्न जैन और बौद्ध दोनों ही दर्शनों में निर्वाण की चर्चा है । दोनों कारण बताये२२ हैं -महारम्भ, महापरिग्रह, मद्यमांस का आहार और ने निर्वाण के लिए सच्चा विश्वास, ज्ञान और आचार-विचार को प्रधानता पन्चेन्द्रिय वध ये नरक के कारण हैं । सरागसंयम, संयमासंयम, दी है, पद दोनों में मुख्य अन्तर यह है कि बौद्ध दृष्टि से द्रव्य सत्ता का बालतपोपकर्म और अकार निर्जरा ये स्वर्ग के कारण हैं। अभाव ही निर्वाण है जब कि जैन दृष्टि से आत्मा की शुद्ध अवस्था मज्झिमनिकाय१२ में भी नरक और स्वर्ग के कारण बताये गये निर्वाण है। हैं, वे ये हैं - पुग्गल - पुद्गल शब्द का प्रयोग जैन और बौद्ध वाङ्मय के (कायिक ३) हिंसक, आदिनादायी (चोर) काम में मिथ्याचारी; अतिरिक्त अन्यत्र देखने को नहीं मिलता । भगवतीसूत्र में जीव तत्त्व के (वाचिक ४) मिथ्यावादी, चुगलखोर, परुषभाषी, प्रलापी (मानसिक३) अर्थ में पुद्गल शब्द का प्रयोग हुआ है ।१३. किन्तु जैन परम्परा में मुख्य अभिध्यालु, व्यापन्नचित, मिथ्यादृष्टि । इन कर्मों को करने वाले नरक में रूप से पुद्गल वर्ण, गन्ध, रस संस्थान और स्पर्श वाले रूपी जड़ पदार्थ जाते हैं, इसके विपरीत कार्य करने वाले स्वर्ग में जाते हैं। को कहा है । बौद्ध परम्परा में पुद्गल का अर्थ आत्मा और जीव है।१३१ जैन दर्शन की साधना- पद्धति का परम और चरम लक्ष्य मोक्ष विनय'- शब्द का प्रयोग भी दोनों ही परम्पराओं में मिलता रहा है। मोक्ष का अर्थ है आत्म-गुणों का पूर्ण विकास, कर्म की है। उत्तराध्ययन और दशवैकालिक सूत्र और ज्ञाताधर्मकथा में विनय की परतन्त्रता से पूर्ण रूप से मुक्त होना । उसमें शरीरमुक्ति और क्रियामुक्ति महत्ता का प्रतिपादन करते हुए विनय को धर्म का व जिनशासन का मूल होती है। कहा है ।१३२ मोक्ष के लिए पाप प्रत्याख्यान, इन्द्रिय संगोपन, शरीर संयम बौद्ध साहित्य में सम्पूर्ण आचारधर्म में अर्थ में 'विनय' शब्द वाणी संयम, मानमाया परिहार, ऋद्धि रस और सुख के गौरव का त्याग, का प्रयोग हुआ है । विनय-पिटक में इसी बात का निरूपण किया गया उपशद, अहिंसा, अचौर्य, सत्य, ब्रह्मचर्य, परिगह, क्षमा, ध्यान योग है। और कायव्युत्स गये अकर्म वीर्य हैं । पण्डित इनके द्वारा मोक्ष का जैन परम्परा में 'अरिहन्त' सिद्ध' 'साधू' और केवली-प्रज्ञप्त परिव्राजक बनता है ।१२४ निर्वाण किसी क्षेत्र विशेष का नाम नहीं है अपितु धर्म को 'शरण' माना है, १३३ तो बौद्ध परम्परा में बुद्ध संघ और धर्म को मुक्त आत्माएँ ही निर्वाण हैं, वे लोकाग्र में रहती हैं अत: उपचार से उसे शरण कहा गया है१३४। जैन परम्परा में चार शरण हैं और बौद्ध परम्परा भी निर्वाण कहा जाता है । मुक्त जीव अलोक से प्रतिहत हैं, लोकान्त में तीन शरण है। में प्रतिष्ठित हैं । १२५ जैन परम्परा में तीर्थकर, चक्रवर्ती, इन्द्र आदि पुरुष ही होते मुक्त जीव के शरीर नहीं होते । मुक्त दशा में आत्मा का है। मल्लि भगवती, स्त्रीलिंग से तीर्थकर हुई थी, उन्हें दस आश्चयों में किसी अन्य शक्ति में विलय नहीं होता। सभी मुक्त जीवों की विकास एक आश्चर्य माना गया है१३५। अंगुत्तरनिकाय में बुद्ध ने भी कहा कि 'भिक्षु Jain Education Intemational For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012065
Book TitleBhupendranath Jain Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1998
Total Pages306
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size10 MB
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