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________________ जैन विद्या के आयाम खण्ड-७ यह तनिक भी सम्भावना नहीं है कि स्त्री अर्हत्, चक्रवर्ती व शुक्र हो५३६। अर्धमागधी में अपने पावन प्रवचन किये और अपने कल्याणकारी जैन आगम साहित्य में अनेक स्थलों पर यह वर्णन है कि दृष्टिकोण से जन-जीवन में अभिनव-जागृति का संचार किया। उनके भरत आदि एक ही क्षेत्र में, एक समय में एक साथ दो तीर्थंकर नहीं पवित्र प्रवचन जो अर्थ रूप में थे, उनका संकलन-आकलन गणधरों व होते, तथागत बुद्ध ने भी अंगुत्तरनिकाय में इस बात को स्पष्ट करते हुए स्थिवरों ने सूत्र रूप में किया। अर्धमागधी भाषा में संकलित यह आगम लिखा कि इसमें किञ्चित भी तथ्य नहीं है कि एक ही समय में दो सम्यक् साहित्य विषय की दृष्टि से, साहित्य की दृष्टि से व सांस्कृतिक दृष्टि से अर्हत् पैदा हों। अत्यन्त महत्त्वपूर्ण है । जब भारत के उत्तर-पश्चिमी और पूर्व के कुछ शब्द साम्य की तरह उक्ति साम्य भी दोनों परम्पराओं में अंचलों में ब्राह्मण धर्म का प्रभूत्व बढ रहा था उस समय जैन श्रमणों मिलता है साथ ही कुछ कथाएँ भी दोनों परम्पराओं में एक सदृश मिलती ने मगध और उसके निकटवर्ती क्षेत्रों में परिभ्रमण कर जैन धर्म की विजय हैं, यहाँ तक कि वैदिक और विदेशी साहित्य में भी उपलब्ध होती हैं। वैजयन्ती फहरायी। यह उस विशाल साहित्य के अध्ययन, चिन्तन मनन उदाहरणार्थ - ज्ञातधर्मकथा की सातवीं चावल के पाँच दानेवाली कथा से परिज्ञात होता है। इसमें जैन श्रमणों के उत्कृष्ट आचार-विचार, व्रतकुछ रूपान्तर के साथ बौद्धों के सर्वास्तिवाद के विनयवस्तु तथा नियम, सिद्धान्त, स्वमत संस्थापन, परमत निरसन प्रभृति अनेक विषयों बाइबल ३७ में भी प्राप्त होती है। इसी प्रकार जिनपाल और जिनरक्षित१३८ पर विस्तार से विश्लेषण है । विविध आख्यान चरित्र, उपमा, रूपक,दृष्टान्त की कहानी बालहस्सजातक१३९ व दिव्यावदान में नामों के हेर-फेर के आदि के द्वारा विषय को अत्यन्त सरल व सरस बनाकर प्रस्तुत किया साथ कही गयी है । उत्तराध्ययन के बारहवें अध्ययन हरिकेशबल की गया है। वस्तुत: आगम साहित्य, जैन संस्कृति इतिहास, समाज और कथावस्तु मातङ्गजातक में मिलती है ।१४ तेरहवें अध्ययन चित्तसम्भूतः४५ धर्म का आधार स्तम्भ है । इसके बिना जैनधर्म का सही व सांगोपांग की कथावस्तु चित्तसम्भूतजातक में प्राप्त होती है । चौदहवें अध्ययन परिचय नहीं प्राप्त हो सकता । यह सत्य तथ्य है कि विभिन्न परिस्थितियों इषुकार को कथा हत्थिपालजातक १४२ व महाभारत के शांतिपर्व १४३ में के कारण जैन धर्म के सिद्धान्तों में भी परिवर्तन-परिवर्द्धन होते रहे हैं, उपलब्ध होती है। उत्तराध्ययन के नौवें अध्ययन 'नमि प्रव्रज्या' की पर आगम साहित्य में मूल दृष्टि से कोई अन्तर नहीं आया है। आशिक तुलना महाजनजातक १४४ तथा महाभारत के शांतिपर्व ४५ से की आगम साहित्य में आयी हुई अनेक बातें परिस्थितियों के जा सकती है। कारण से विस्मृत होने लगीं । आगमों के गहन रहस्य जब विस्मृति के इस प्रकार महावीर के कथा साहित्य का अनुशीलन-परिशीलन अंचल में छिपने लगे तो प्रतिभामूर्ति आचार्यों ने उन रहस्यों को स्पष्ट करने से स्पष्ट परिज्ञान होता है कि ये कथाएँ आदिकाल से ही एक करने के लिए नियुक्ति भाष्य, चूर्णि, टीका आदि व्याख्या साहित्य का सम्प्रदाय से दूसरे सम्प्रदाय में, एक देश से दूसरे देश में यात्रा करती सृजन किया । फलस्वरूप आगमों के व्याख्या साहित्य ने अतीत काल रही हैं। कहानियों की यह विश्वयात्रा उनके शाश्वत और सुन्दर रूप की से आने वाली अनेक अनुश्रुतियों, परम्पराओं, ऐतिहासिक और अर्धसाक्षी दे रही है जिस पर सदा ही जनमानस मुग्ध होता रहा है। ऐतिहासिक कथानकों एवं धार्मिक, आध्यात्मिक व लौकिक कथाओं के उपर्युक्त पंक्तियों में संक्षेप में तुलनात्मक अध्ययन प्रस्तुत द्वारा जैन साहित्य के गुरु गम्भीर रहस्यों को प्रकट किया। यह साहित्य किया गया है । स्थानाभाव के कारण जैसे विस्तार से चाहता था वैसे व्याख्यात्मक होने पर भी जैन धर्म के मर्म को समझने के लिए अतीव नहीं लिख सका तथापि जिज्ञासुओं को इसमें बहुत कुछ जानने को उपयोगी है। इसमें जैन-आचारशास्त्र के विधि-विधानों की सूक्ष्म-चर्चा मिलेगा और यह तुलनात्मक अध्ययन दुराग्रह और संकीर्ण दृष्टि के है। हिंसा-अहिंसा, जिनकल्प व स्थविरकल्प की विविध अवस्थाओं का निरसन में सहायक होगा। विशद् विश्लेषण किया गया है। क्रियावादी, अक्रियावादी आदि ३६३ उपसंहार - श्रमण भगवान् महावीर एक विराट् व्यक्तित्व के मतमतान्तरों का उल्लेख है। गणधरवाद और निह्नववाद- ये दर्शनशास्त्र धनी महापुरुष थे। वे महान क्रांतिकारी थे । उनके जीवन में सत्य, की विधि द्रष्टियों का प्रतिनिधित्व करते हैं । आजीविक, ताप परिव्राजक, शीली, सौन्दर्य और शक्ति का ऐसा अद्भुत समन्वय था जो विश्व के अन्य तत्क्षणिक और बोटिक आदि मत-मतान्तरों का भी विश्लेषण हुआ है। महापुरुषों में एक साथ देखा नहीं जा सकता । उनकी दृष्टि अत्यधिक मति, रुत, अवधि, मन:पर्यय और केवलज्ञान के स्वरूप पर विस्तार से पैनी थे । समाज में पनपती हुई आर्थिक विषमता, विचारों के विविधता . चिन्तन कर केवलज्ञान और केवलदर्शन के भेद और अभेद का युक्ति और कामजन्य वासना को काले-कजरारे दुर्दमनीय नागों को उन्होंने पुरस्पर विचार है। अनुमान आदि प्रमाण शास्त्र पर भी चिंतन किया गया अहिंसा, सत्य, संयम और तप के गारुडी संस्पर्श से कीलकर समता, है। कर्मवाद जैन दर्शन का हृदय है। कर्म, कर्म का स्वभाव, कर्मस्थिति, सद्भावना व स्नेह की सरस सरिता प्रवाहित की । अज्ञान अन्धकार में रागादि की तीव्रता से कर्मबंध, कर्म का वैविध्य, समुद्घात, शैलेषी भटकती हुई मानव प्रज्ञा को शुद्ध सत्य की ज्योति का दर्शन कराया। अवस्था, उपशम और क्षपक श्रेणी पर गहराई से चिन्तन किया गया है। यही कारण है कि उन्होंने जन-जन के कल्याणार्थ उस युग की बोली ध्यान के सम्बन्ध में भी पर्याप्त विवेचन है। क्षिप्तचित्त और दीप्तचित्त Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012065
Book TitleBhupendranath Jain Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1998
Total Pages306
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size10 MB
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