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जैन, बौद्ध और वैदिक साहित्य- एक तुलनात्मक अध्ययन साहित्य अनुपम कोश है।
श्रमणों की चिकित्सा की मनोवैज्ञानिक विधि प्रतिपादित की गई है। साथ ही क्षिप्तचित्त और दीप्तचित्त होने के कारणों पर भी चिंतन किया गया है ।
भगवान् ऋषभदेव मानव-समाज के आद्य निर्माता थे। उनके पवित्र चरित्र के माध्यम से आहार, शिल्प, कर्म, लेखक, मानदण्ड, इक्षुशास्त्र, उपासना, चिकित्सा, अर्थशास्त्र, यज्ञ, उत्सव, विवाह आदि अनेक सामाजिक विषयों पर चर्चा की गई है। मानव जाति को सात वर्णान्तरों में विभक्त किया गया है। सार्थ, सार्ववाहों के प्रकार छह प्रकार की अर्य जातियाँ, छह प्रकार के आर्यकुल आदि समाजशास्त्र से सम्बद्ध विषयों पर विश्लेषण किया गया है। साथ ही ग्राम, नगर, खेड, कर्वटक, मडम्ब, पत्तन, आकार, द्रोणमुख, निगम और राजधानी का स्वरूप भी चित्रित किया गया है। साढ़े पच्चीस आर्य देशों की राजधानी आदि का भी उल्लेख किया गया है राजा, युवराज, महत्तर अमात्य, कुमार, नियतिक, रूपयक्ष, आदि के स्वरूप और कार्यों पर भी चिन्तन किया गया है। साथ ही उस युग की संस्कृति और सभ्यता पर प्रकाश डालते हुए रत्न एवं धान्य की २४ जातियाँ बताई गई है। जोधिक आदि पाँच प्रकार के वस्त्रों का उल्लेख है। १७ प्रकार के धान्य भण्डारों का वर्णन है। दण्ड, विदण्ड, लाठी, विलट्ठी के अन्तर को स्पष्ट किया गया है। कुण्डल, गुण, तुणिय, तिसरिय, बालंभा, पलंबा, हार, अर्धहार, एकावली कनकावली, मुत्तली, रत्नावली, पट्ट, मुकुट आदि उस युग में प्रचलित नाना प्रकार के आभूषणों के स्वरूप को भी चित्रित किया गया है। उद्यान गृह, निर्याण गृह, अट्ट-अट्आलक, शून्यगृह, तृणगृह गोगृह आदि अनेक प्रकार के गृहों का, कोष्ठागार, भांडागार, पानागार, क्षीण गृह, गजशाला, मानसशाला आदि के स्वरूप पर भी विचार किया गया है। इस प्रकार आचारशास्त्र, दर्शनशास्त्र, समाजशास्त्र, नागरिकशास्त्र, मनोविज्ञान आदि पर आगम और उसके व्याख्या साहित्य में प्रचुर सामग्री है ।
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आगम साहित्य का विषय की दृष्टि से ही नहीं किन्तु साहित्यिक दृष्टि से भी प्रभूत महत्त्व है। आगमों में विविध छन्दों का प्रयोग हुआ है उत्प्रेक्षा, रूपक, उपमा, श्लेष अर्थान्तरन्यास आदि अलंकारों का सुन्दर प्रयोग हुआ है। कहीं-कहीं पर जीव को पतंग, विषयों को दीपक और आसक्ति को आलोक की उपमा प्रदान की है। आगम साहित्य में गद्य और पद्य का मिश्रण भी पाया जाता है। यद्यपि गद्य और पद्य का स्वतन्त्र अस्तित्त्व है, किन्तु वे दोनों समान रूप से विषय को विकसित और पल्लवित करते हैं। प्रस्तुत प्रणाली ही आगे चलकर चम्पूकाव्य या गद्य-पद्यात्मक कथाकाव्य के विकास का मूल स्रोत बनी। कथाओं के विकास के सम्पूर्ण रूप भी आगम साहित्य में मिलते हैं। वस्तु, पात्र, कथोपकथन, चरित्र-निर्माण प्रभूति तत्त्व आगम व व्याख्या साहित्य में पाये जाते हैं। तर्कप्रधान दर्शन शैली का विकास भी आगम साहित्य में है जीवन और जगत् के विविध अनुभवों की जानकारी का यह
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दिगम्बराचार्यों ने श्वेताम्बरों के आगमों को प्रमाणिक नहीं माना । श्वेताम्बर दृष्टि से केवल दृष्टिवाद नामक बारहवाँ अंग ही विच्छिन्न हुआ जब कि दिगम्बर दृष्टि से सम्पूर्ण आगम साहित्य ही लुप्त हो गया। केवल दृष्टिवाद का कुछ अंश अवशेष रहा जिसके आधार से षट्खण्डागम की रचना हुई और उसी मूल आधार से अन्य अनेक मेघावी आचायों ने आत्मा और कर्म सम्बन्धी विषयों पर गम्भीर ग्रन्थों की रचना की। श्वेताम्बर आगम साहित्य के समान विविध विषयों की विषद् चर्चाएँ दिगम्बर साहित्य में नहीं है। श्वेताम्बर और दिगम्बर आगम को समझने के लिए दोनों का तुलनात्मक अध्ययन आवश्यक है।
दोनों ही परम्पराओं में अनेक प्रतिभासम्पन्न ज्योतिर्धर आचार्य हुए, जिन्होंने आगम साहित्य के एक-एक विषय को लेकर विपुल साहित्य का सृजन किया। उस साहित्य में उन आचार्यों का प्रकाण्ड पांडित्य और अनेकान्त दृष्टि स्पष्ट रूप से झलक रही है। आवश्यकता है उस विराट् साहित्य के अध्ययन, चिन्तन और मनन की। यह वह आध्यात्मिक सरस भोजन है जो कदापि बासी नहीं हो सकता। यह जीवन दर्शन है प्राचीन मनीषी के शब्दों में यदि कहा जाय तो । अतिशयोक्ति नहीं होगी कि "यदिहास्ति तदन्यत्र यन्नेहास्ति न तत्ववचित्" आगम साहित्य में लोकनीति, सामाजिक शिष्टाचार, अनुशासन, अयात्म, वैराग्य, इतिहास और पुराण, कथा और तत्त्वज्ञान, सरल और गहन, अन्तः और बाह्य जगत् सभी का गहन विश्लेषण है जो अपूर्व है अनूठा है जीवन के सर्वांगीण अध्ययन के लिए आगम साहित्य का अध्ययन आवश्यक ही नहीं अनिवार्य भी है। भौतिक शक्ति के युग में पले पोसे मानवों के अन्तर्मानस में जैन आगम साहित्य के प्रति यदि रुचि जाग्रत हुई तो मैं अपना प्रयास पूर्ण सफल समझेगा। इसी आशा के साथ लेखनी को विश्राम देता हूँ।
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संदर्भ
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आचारांग अ० भा० ० स्वा० जैन शास्त्रोद्दार समिति, १/३/३ सुबालोपनिषद्, ९ खण्ड, ईशाद्यष्टोत्तर शतोपनिषद्, पृ० २१०
भगवद्गीता, अ०२, श्लो० २३
आचारांग, १/४/४
गौडपादकारिका, प्रकरण२, श्लो०६
आचारांग, १/५/६
केनोपनिषद्, खण्ड १, श्लोक ३
कठोपनिषद, अ०१, श्लोक १५
बृहदारण्यक, ब्राह्मण८, श्लोक ८
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१०. माण्डूक्योपनिषद्, श्लो०७
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