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ही व्यक्ति की वह प्रथम पाठशाला है जहाँ से उसे संस्कारित जीवन की शिक्षा मिलती है। श्री भूपेन्द्र नाथ जी जैन का यह सौभाग्य रहा कि उन्हें लाला हरजसराय जी जैसा संस्कारवान पिता और श्रीमती लाभदेवी जैसी धर्मनिष्ठ माता का सान्निध्य प्राप्त रहा।
श्री भूपेन्द्र नाथ जी जैन की प्रारम्भिक शिक्षा अमृतसर में ही प्रारम्भ हुई और उन्होंने अपने पूज्य पिताजी के द्वारा स्थापित श्री रामाश्रय हाई स्कूल, अमृतसर से १९३७ में हाई स्कूल की परीक्षा उत्तीर्ण की। श्री रामाश्रय हाईस्कूल भारतीय संस्कारों को विकसित करने के लिए स्वतंत्रता प्रेमी और आध्यात्मिक दृष्टि संपन्न भारतीय संस्कृति के प्रति समर्पित उन व्यक्तियों के द्वारा निर्मित किया गया था जो विद्यार्थियों में राष्ट्रभक्ति, नैतिकता, और देशप्रेम के बीज वपित करना चाहते थे और इन व्यक्तियों में हम श्री भूपेन्द्रनाथ जी के पिता लाला हरजसराय जी को अमृतसर का वह प्रथम व्यक्ति पाते हैं जो राष्ट्रीय शिक्षा के प्रति समर्पित था। ज्ञातव्य है कि लाला हरजसराय जी इस हाईस्कूल की स्थापना से लेकर सन् १९६६ तक, जब कि उनका परिवार स्थायी रूप से आकर फरीदाबाद में बस नहीं गया, इसका संचालन करते रहे । परिवार के साथ-साथ इस श्री रामाश्रय हाईस्कूल के संस्कार भी भूपेन्द्र जी के जीवन पर पड़े। हाईस्कूल के पश्चात् संभावना तो यही थी कि श्री भूपेन्द्रनाथ जी अपने पैतृक व्यवसाय में जुड़ जाते, किन्तु उन्होंने पैतृक व्यवसाय से न जुड़कर शिक्षा के क्षेत्र में जुड़ना ही उचित समझा और इंजीनियरिंग की उच्च शिक्षा के लिए वे बी. एच. यू. आये । उस समय पार्श्वनाथ विद्याश्रम स्थापित हो चुका था । पार्श्वनाथ विद्याश्रम की स्थापना और अपनी उच्चशिक्षा के लिए श्री भूपेन्द्रनाथ जी का वाराणसी आना ये दो ऐसे तथ्य थे जिन्होंने भूपेन्द्रनाथ जी को आजीवन इस संस्था से जोड़ दिया । यद्यपि संयोगवशात् वाराणसी में श्री भूपेन्द्रनाथ जी का स्वास्थ्य अनुकूल नहीं रहा और उन्हें कुछ समय के अन्तराल के पश्चात् यहाँ से वापस जाकर पंजाब विश्वविद्यालय, लाहौर में भर्ती होना पड़ा। उन्होंने पंजाब विश्वविद्यालय, लाहौर से सन् १९४१ में B. Sc. Mechanical Eng. (Hons.) की परीक्षा प्रथम श्रेणी से न केवल उत्तीर्ण की अपितु उसमें प्रथम स्थान पाकर अपने परिवार और जैन समाज को गौरवान्वित किया ।
ज्ञातव्य है कि उस युग में जब जैन समाज शिक्षा के प्रति अपना उपेक्षित दृष्टिकोण बनाए हए था तब एक जैन परिवार के बालक का इंजीनियरिंग की उच्च शिक्षा में प्रथम स्थान प्राप्त करना कम महत्त्वपूर्ण नहीं था। पिता के समान पुत्र का भी यह शिक्षा-प्रेम परवर्ती काल में पार्श्वनाथ विद्याश्रम जैसे शिक्षा संस्थान से जुड़े रहने में सहायक बना है। वह युग था जब जैन समाज में अल्पवय में ही विवाह हो जाया करते थे । फलत: श्री भूपेन्द्रनाथ जी जैन को भी यौवन की देहलीज पर कदम रखते ही विवाह के बन्धन में बंधना पड़ा । विवाह के संदर्भ में श्री भूपेन्द्रनाथ जी जैन के पूज्य पिताजी का यह दृष्टिकोण था कि जीवन में संयम की मर्यादा को विकसित करने के लिए समाज में विवाह की व्यवस्था हुई है । वैवाहिक जीवन पूर्ण संयम तक पहुँचने के लिए रखा गया प्रथम चरण है । यह चारित्रिक पवित्रता का सम्यक् अवसर है और पूर्ण संयम की दिशा में बढ़ा एक कदम । उनकी दृष्टि में व्यक्ति के जीवन को यदि कोई नारकीय बनाता है तो वह है विलासिता, स्वार्थपरता एवं उद्दात काम वासना न कि वैवाहिक एवं पारिवारिक जीवन तो संयम की साधना का एक सुन्दर अवसर है । अपने पिता के इस दृष्टिकोण के अनुरूप ही श्री भूपेन्द्रनाथ जैन ने पारिवारिक दायित्व और मर्यादा को स्वीकार किया।
श्री भूपेन्द्रनाथ जी जैन ने पारिवारिक मर्यादाओं को तो स्वीकार किया, किन्तु वो पर्दा प्रथा जैसी विकृत सामाजिक मानसिकता से सहमत नहीं हो सके। वे अमृतसर के समाज और अपने परिवार में प्रथम व्यक्ति हैं, जिन्होंने परिवार में पर्दा प्रथा को समाप्त किया । परिवार के रुढ़िग्रस्त वरिष्ठ जनों को सम्मान देते हुए भी न केवल अपने विरोध को मुखर किया अपितु उसे यथार्थता प्रदान की। यद्यपि कुछ समय तक परिवार के वरिष्ठ सदस्य उनसे नाराज भी रहे किन्तु बाद में जब उन्हें यथार्थ स्थिति का बोध हुआ तो न केवल उनके इस कदम के समर्थक ही बने अपितु प्रशंसक भी बने।
अपनी इंजीनियरिंग की स्नातक परीक्षा उत्तीर्ण करने के पश्चात् प्रारम्भ में श्री भूपेन्द्रनाथ जी जैन शासकीय सेवा से जुड़े और उन्होंने बम्बई और कलकत्ता में अपनी सेवाएँ दी । उसके कुछ समय पश्चात् वे आर्डिनेन्स फैक्ट्री, अमृतसर में नियुक्त किये गये और यहाँ लगभग ३ वर्ष (१९४२-१९४५) तक कार्य किया। किन्तु भारत की गुलामी के उस युग में नौकरशाही की
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