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जैनाचार्यों का आयुर्वेद साहित्य निर्माण में योगदान सर्वाधाधिकमागधी विलसभद्भापरिशेषोज्वल
महापंडित आशाधर आदि जैनाचार्यों की विभिन्न कृतियों पर जब हम प्राणावायमहागमादवितथं संगृह्य संक्षेपतः । दृष्टिपात करते हैं तो देखकर महान् आश्चर्य होता है कि किस प्रकार उग्रादित्यगुरुर्गुरुगणैरुद्भासिसौख्यास्पदम् ।
उन्होंने अनेक विषयों पर अपनी अधिकारपूर्ण लेखनी चलाकर अपनी शास्त्रं संस्कृतभाषया रचितवानित्येष भेदस्तयोः॥ अद्भुत विषयप्रवणता और विलक्षण बुद्धि वैभव का परिचय दिया है।
- कल्याणकारक, अ० २५ श्लो० इससे स्पष्ट होता है कि उन्हें उन सभी विषयों में प्रौढ़ प्रभुत्व प्राप्त था, अर्थात सम्पूर्ण अर्थ को प्रतिपादित करने वाली सर्वार्ध मागधी उनका पांडित्य सर्वदिगंतव्यापी था और उनका ज्ञानरवि अपनी प्रखर भाषा में जो अत्यन्त सुन्दर प्राणवाद नामक महागम महाशास्त्र है उसे रश्मियों से सम्पूर्ण साहित्यजगत् को आलोकित कर रहा था। यथावत् संक्षेप रूप से संग्रह कर उग्रदित्य गुरु ने उत्तमोत्तम गुणों से युक्त आयुर्वेद साहित्य के प्रति जैनाचार्यों द्वारा की गई सेवा भी सूख के स्थानभूत इस शास्त्र की संस्कृत भाषा में रचना की । इन दोनों उतनी ही महत्त्वपूर्ण है जितनी अन्य साहित्य के प्रति । किन्तु दु:ख इस -प्राणवाद अंग और कल्याणकारक में यही अन्तर है।
बात का है कि जैनाचार्यों ने जितने वैद्यक साहित्य का निर्माण किया है इस प्रकार जैनागम में आयुर्वेद या वैद्यकशास्त्र की प्रामाणिकता वह अभी तक प्रकाशित नहीं किया जा सका है। यही कारण है कि प्रतिपादित है और आयुर्वेद जिसे जैनागम में प्राणावाद की संज्ञा दी गई वर्तमान में उनके द्वारा रचित अनेक वैद्यक ग्रन्थ या तो लुप्त हो गए हैं है, द्वादशांग का ही एक अंग है । जैन वाङ्मय द्वादशांग की प्रामाणिकता अथवा खंडित रूप में होने से अपूर्ण हैं । कालकवलित हुए अनेक सर्वोपरि है। अत: तदन्तर्गत प्रतिपादित प्राणवाद की प्रामाणिकता भी वैद्यक ग्रन्थों का उल्लेख विभिन्न आचार्यों की वर्तमान में उपलब्ध स्वत: सिद्ध है । इस प्रकार जिस अष्टांग परिपूर्ण वैद्यकशास्त्र को इतर अन्यान्य कृतियों में मिलता है । विभिन्न जैन भंडारों या जैन मन्दिरों में आचार्यों, महर्षियों ने आयुर्वेद की संज्ञा दी है उसे जैनाचार्यों ने प्राणवाद खोजने पर अनेक वैद्यक ग्रन्थों के प्राप्त होने की सम्भावना है । अत: कहा है।
विद्वानों द्वारा इस दिशा में प्रयत्न किया जाना अपेक्षित है। सम्भव है इन संस्कृत साहित्य की श्रीवृद्धि में जैनाचार्यों ने अपना जो वैद्यक ग्रंथों के प्रकाश में आने से आयुर्वेद के उन महत्त्वपूर्ण तथ्यों और महत्त्वपूर्ण योगदान किया है वह सुविदित है। संस्कृत साहित्य का ऐसा सिद्धान्तों का प्रकाशन हो सके जो आयुर्वेद के प्रचुर साहित्य के कोई विषय या क्षेत्र नहीं है जिस पर जैनाचार्यों ने अपनी लेखनी न चलाई कालकचलित हो जाने से विलुप्त हो गये हैं। जैनाचार्यों द्वारा रचित हो । इसका मुख्य कारण यह है कि जैनाचार्य केवल एक विषय के ही वैद्यक ग्रन्थों के प्रकाशन से आर्युवेद के विलुप्त साहित्य और इतिहास अधिकारी नहीं थे, अपितु वे प्रत्येक विषय में निष्णात थे, अत: उनके पर भी प्रकाश पड़ने की संभावना है। विषय में यह कहना सम्भव नहीं था कि वे किस विषय के अधिकृत जैनाचार्यों द्वारा रचित वैद्यक ग्रन्थों में से अब तक जो विद्वान् हैं अथवा उनका अधिकृत विषय कौन-सा है ? जैनाचार्यों ने जिस प्रकाशित हए हैं उनमें से श्री उग्रदित्याचार्य द्वारा प्रणीत कल्याणकारक प्रकार काव्य, अलंकार, कोष, छंद, न्याय, दर्शन व धर्मशास्त्रों का और पूज्यपाद द्वारा विरचित वैद्यसार ये दो ग्रन्थ महत्त्वपूर्ण हैं । इनमें से निर्माण किया उसी प्रकार ज्योतिष और वैद्यक भी उनकी लेखनी से प्रथम कल्याणकारक का प्रकाशन १९४० ई० श्री सेठ गोविन्द जी अछते नहीं रहे । उपलब्ध अनेक प्रमाणों से अब यह स्पष्ट हो चुका है रावजी दोशी, सोलापुर द्वारा किया गया था। इसका हिन्दीअनुवाद और कि जैनाचार्यों ने बड़ी संख्या में स्वतन्त्र रूप से वैद्यक ग्रन्थों का निर्माण सम्पादन पं० वर्धमान पार्श्वनाथ शास्त्री, सोलापुर ने किया है। द्वितीय कर आयुर्वेद साहित्य की श्रीवृद्धि में अपना अभूतपूर्व योगदान किया वैद्यसार नामक ग्रन्थ जैन सिद्धान्त भवन, आरा से प्रकाशित हुआ है। है। इस सम्बन्ध में विभिन्न स्रोतों से एक लम्बी सूची तैयार की गई है इसका सम्पादन और हिन्दी अनुवाद आयुर्वेदाचार्य पं० सत्यंधर जैन, ने जिससे जैनाचार्यों द्वारा रचित वैद्यक सम्बन्धी अनेक कृतियों का संकेत किया है, किन्तु यह ग्रन्थ वस्तुत: पूज्यपाद द्वारा विरचित है इसमें विवाद मिलता है। इनमें से कुछ कृतियाँ मूल रूप से प्राकृत भाषा में लिपिबद्ध है । यद्यपि ग्रन्थ में जो विभिन्न चिकिस्तायोग वर्णित हैं उनमें से हैं और कुछ हिन्दी में पद्यमय रूप में । कनड़ भाषा में भी अनेक जैन अधिकांश में 'पूज्यपादैः कथितं 'पूज्यपादोदितं' अदि का उल्लेख विद्वानों ने आयुर्वेद के ग्रन्थों का प्रणयन कर जैनवाङ्मय को परिपूर्ण मिलता है, किन्तु ऐसा लगता है कि वे पाठ पूज्यवाद के मूल ग्रन्थ से किया है।
संग्रहीत हैं । प्रस्तुत ग्रंथ पूज्यवाद की कृति नहीं है । अत: यह अभी जिन जैनाचार्यों ने धर्म-दर्शन-न्याय-काव्य-अलंकार आदि तक अज्ञात है कि इस ग्रन्थ का रचयिता या संग्रहकर्ता कौन है ? पाठ विषय को अधिकृत कर विभिन्न ग्रन्थों का प्रणयन किया है उन्हीं आचार्यों पूज्यपाद के मूल ग्रन्थ से संग्रहीत हैं । प्रस्तुत ग्रंथ श्री पूज्यपाद की कृति ने वैद्यक शास्त्र का निमार्ण कर अपनी अलौकिक प्रतिभा का परिचय नहीं है। अत: यह अभी तक अज्ञात है कि इस ग्रन्थ का रचयिता या दिया है। प्रातः स्मरणीय स्वामी पूज्यपाद, स्वामी समन्तभद्र, आचार्य संग्रहकर्ता कौन है ? जिनसेन, गुणसागर, गुणभद्र, महर्षि सोमदेव, सिद्धवर्णी रत्नाकर तथा इसमें कोई सन्देह नहीं है कि जैनाचार्यों द्वारा लिखित आयुर्वेद
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