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________________ जैनधर्म और गुजरात जैनाचार्य उस गुर्जर देश में जा पहुँचे। उनके ज्ञान और चारित्र के प्रभाव से बहुत से गूर्जर आकृष्ट हुए और उनके ज्ञान और धर्म को स्वीकार करने लगे। भिल्लमाल उर्फ श्रीमाल में बड़े-बड़े जैन मंदिरों का निर्माण होने लगा। प्रतिवर्ष सैकड़ों कुटुम्ब जैन गोष्ठिकों के रूप में जाहिर होने लगे। परमार, प्रतिहार चाहमान और चावड़ा जैसे क्षात्रधर्मी गुर्जरों में से सैकड़ों कुटुम्ब जैन बनने लगे। जैनाचार्यों ने उनको एक नवीन जन जाति के समूह रूप में संगठित किया और श्रीमाल नगर उस नये जैन समाज का मुख्य उत्पात्ति स्थान होने से उस जाति का श्रीमाल वंश ऐसा नया नाम स्थापित किया। वही श्रीमाल वंश बाद में वटवृक्ष के समान असंख्य शाखा प्रशाखा द्वारा समस्त देश में व्याप्त हुआ। उस वंश की एक महती शाखा पोरवाड़ वंश के नाम से प्रसिद्ध हुई जिसमें विमलशाह और वस्तुपाल तेजपाल जैसे पुरुष रत्न उत्पन्न हुए। गुजरात के वणिकों का अधिकांश उसी श्रीमाल वंश की संतान है। भिल्लमाल (वर्तमान- भीनमाल ) की राजलक्ष्मी के अस्तंगमन के बाद अणहिलपुर का भाग्योदय हुआ और गूर्जरों के ही एक राजवंश में जाति वनराज चावड़ा के छत्र के नीचे उस प्राचीन गुर्जर देश की धन-जनात्मक समग्र संपत्ति अणहिलपुर की सीमा में आकर व्यवस्थिति हुई। श्रीमाल के नाम की स्मृति निमित्त उन्होंने सरस्वती के तीर श्रीस्थल की नवीन स्थापना की। कुछ ही दशकों में वह Jain Education International १८९ श्रीस्थल और अणहिलपुर के आसपास का समस्त प्रदेश भिल्लमाल के प्राचीन प्रदेश की तरह गुर्जर देश इस नवीन नाम से भारतविश्रुत हुआ। शीलगुणसूरि नामक एक जैनाचार्य का वरप्रदहस्त बाल्यवस्था में ही वनराज के मस्तक पर प्रतिष्ठित हुआ और उनके मंगलकारी आशीर्वाद से उसका वंश और उसका पाट नगर अभ्युदय को प्राप्त हुए अणहिलपुर की स्थापना के दिन से ही जैनाचार्यों ने उस भूमि के सुख, सौभाग्य, सामर्थ्य और समृद्धि की मंगल कामना की थी। उनकी यह कामना उत्तरोत्तर सफल हुई और अणहिलपुर के सौराज्य के साथ गुर्जर प्रजा का और तद्द्द्वारा जैन धर्म का भी उत्कर्ष हुआ। गुजरात और उसकी संस्कार विषयक देन के विषय में इस प्रकार मैने अपने कुछ दिग्दर्शनात्मक विचार आपके समक्ष रखे हैं। ये विचार सिर्फ दिग्दर्शन कराने के लिये ही है। इन विचारों का सप्रमाण और सविस्तार वर्णन करने के लिये तो ऐसे अनेक व्याख्यान देने होंगे। बड़ौदा के इस विशाल न्यायमंदिर में आज जो मुझे इस प्रकार अपने जैन धर्म विषयक विचार प्रकट करने का मानप्रद और आनन्ददायक आमन्त्रण दिया गया है एतदर्थ मैं श्रीमन्त सरकार सर सयाजी राव महाराज के सुयोग्य मंत्रिमंडल के प्रति अपना हार्दिक आभार प्रकट करता हूँ, तथा आप सभी श्रोताजनों ने मेरे इन विचारों को सुनने के लिए जो रस और उत्साह का प्रदर्शन किया है एतदर्थ मैं आपका भी हृदय से आभार मानकर अपना यह वक्तव्य समाप्त करता हूँ । For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012065
Book TitleBhupendranath Jain Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1998
Total Pages306
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size10 MB
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