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प्रवरसेन और उनका सेतुबन्ध संस्कप करते हैं। अग्नि परीक्षा के उपरान्त सीता के साथ राम अयोध्या को लौटते हैं।
डॉ० फादर कामिल बुल्के सेतुबन्ध की समीक्षा करते हुये लिखते हैं कि सेतुबन्ध अथवा रावणवध के पन्द्रह आश्वासों में वाल्मिकी कृत युद्ध काण्ड की कथावस्तु का अलंकृत शैली में वर्णन मिलता है और कथानक में कोई महत्वपूर्ण परिवर्तन नहीं किया गया है। उनका ही कहना है कि दसवें आश्वास में राक्षसियों का संभोग वर्णन जो कामिनीकेलि है जिसका अनुसरण कुमार दास के जानकी हरण, अभिनंदन कृत रामचरित, कम्बन कृत तमिल रामायण तथा जावा के प्राचीनतम रामायण आदि में भी किया गया है। सेतुबन्ध की भूमिका में डॉ. रघुवंश ने भी अपना भाव प्रकट करते हुये कहा है कि प्रवरसेन ने आदि रामायण से कथ्य लेकर उसको अपनी कल्पना से अधिक सुन्दर रूप प्रदान किया है ।
सेतुबन्ध का प्रकृति-वर्णन, नगर वर्णन एवं युद्ध वर्णन अत्यधिक आकर्षक एवं सौन्दर्यपूर्ण है। कवि ने यथार्थ और कल्पना का मणिकांचन संयोग उपस्थित किया है। सेतुबन्ध की प्रकृति कल्पना के विविध रंग-रूपों से सजी-सँवारी गयी है। सेनाओं के साथ राम का विभिन्न स्थलों का अभियान करते जाना और रास्ते में वन के विविध पेड़-पौधों, जानवरों आदि को देखने की प्रक्रिया का कवि ने बड़ा हो स्वाभाविक रूप से चित्र चित्रण किया है। सुमेरू पर्वत के सन्दर्भ में कवि ने उसके सौन्दर्य को सूक्ष्म पर्यवेक्षण किया है। समुद्र का मानवीकरण करते हुये कवि ने राम के क्रोध के समक्ष घुटने टेक देने का जो विधान किया है, वह बड़ा ही मार्मिक बन पड़ा है। सेतुबन्ध के कई आश्वासों में शरद ऋतु का वर्णन कवि की कल्पना का आन्तरिक निरीक्षण दृष्टि का संकेतक है। संध्या के सन्दर्भ में कवि की कल्पना है कि दिन का अवसान होने पर रुधिरमय पंक-सी संध्या की लालिमा में सूर्य इस प्रकार डूब गया, जैसे अपने रूधिर के पंक में रावण का शीर्ष-मंडल डूब गया हो (१०/१५) वस्तु वर्णन की प्रमुख तीन । शैलियों का प्रयोग सेतुबन्ध में देखने को मिलता है। वर्ण्य विषय का अलंकृत सरल स्वाभाविक वर्णन सरल शैली के अन्तर्गत आता है जिसका उपयोग कवि ने वन्य वस्तुओं के वर्णन में किया है। तिर्यक् शैली में प्रस्तुत का अप्रस्तुत उपमानों के द्वारा अलंकृत वर्णन किया जाता है एवं उपमेय-उपमान के बीच रूप एवं धर्म का सादृश्य दिखाया जाता है। इस शैली का प्रयोग राम के विलाप के समय बहुलता से हुआ है। उर्मिल शैली में वस्तु के रूप, गुण एवं सौन्दर्य से प्रभावित वातावरण उपस्थित किया जाता है जिसका प्रभाव हृदय पर सीधा पड़ता हैं । इस शैली का प्रयोग समुद्र के परिप्रेक्ष्य में हुआ है, जहाँ कवि ने पूर्णचन्द्र के सौन्दर्य का वर्णन समुद्र में उठते हुये ज्वार को दिखाकर करना चाहा है। इस प्रकार सेतुबन्ध में प्रकृति के अनेक वस्तुओं, रूपों, रंगों एवं सौन्दर्य का वर्णन किया गया है।
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सेतुबन्ध में नगर वर्णन एवं युद्ध वर्णन बड़ी स्वाभाविकता के साथ किया गया है। रावण की राजधानी लंका नगर का वर्णन सामन्तीय प्रतीकों के साथ हुआ है जो प्रवरसेन की कल्पना की उपज है। लंकापुरी स्फटिक तथा नीलमणि से स्पर्शित विशाल, मण्य एवं स्वर्णिम दीवारों से निर्मित नगरी है। वहाँ के महलों में अनेक कोटे-परकोटे हैं। प्रांगण दीवारों से घिरे अनेक बाग-बगीचों से सुशोभित है। नगर की सभी सड़कें राजपथ से मिलती हैं आदि । प्रवरसेन ने सेतुबन्ध में तत्कालीन सैन्य संगठन एवं युद्ध संचालन सम्बन्धी अनेक स्थलों का उल्लेख किया है सैनिक शक्ति का प्रदान स्वयं राजा होता था, जिसकी आज्ञा से सेनापति सेना का संचालन करते थे। सेना चतुरंगी होती थी, जिसमें पैदल अश्वरोही, रथ तथा गज सेनाओं का समायोजन रहता था। सेनाओं में वानर, भालू तथा पक्षियों का भी उल्लेख मिलता है।
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सेतुबन्ध के भाव एवं कलापक्ष सुगठित, सम्यक् एवं कुशलता से प्रस्तुत किये गये हैं भावपक्ष जहाँ काव्य का अंतरंग सूचित करता है वहाँ कलापक्ष उसका आवरण सेतुबन्ध में प्रवरसेन ने भावपक्ष को उजागर करने के लिये वीररस को ही प्रमुखता दी है। स्वाभाविक है कि इसका स्थायी भाव उत्साह है। यद्यपि अन्य रसों का भी परिपाक सेतुबन्ध में हुआ है किन्तु देश काल पात्र के अनुसार यथावसर वीररस का अंगीभूत होकर ही रौद्र रस वीर रस का मित्र है। इसलिये दोनों के । आलम्बन और आश्रय में विरोध नहीं माना जाता है। राम का क्रोध उनके हृदय में वीर रस के स्थायी भाव उत्साह, को ही संतुष्ट करता है, जिसका निर्वाह युद्ध प्रसंग में हुआ है। प्रवरसेन ने वीभत्स, हास्य तथा शान्त रस को छोड़कर अन्य सभी रसों का अंगभूत रसों के रूप में चित्रण किया है। अंगभूत रसों में शृंगार के सम्भोग और विप्रलम्भ उभय रूपों का वर्णन सेतुबन्ध में हुआ है। यद्यपि सम्भोग श्रृंगार के लिये इस काव्य के कथा वस्तु में अवसर नहीं है, क्योंकि सीता की वियोग स्थिति में राम के शत्रुवध रूपी अध्यवसाय पर इसकी कथा वस्तु आधारित है, फिर भी कदाचित् परम्परागत अनुरोध पालन करने के उद्देश्य से प्रवरसेन ने राक्षसनियों की सम्भोग लीलाओं का वर्णन किया है जहाँ तक विप्रलम्भ शृंगार का प्रश्न है उसका भी वर्णन यथास्थान इस काव्य में हुआ है, जैसे सीता हरण के कारण राम का विरह दुःख प्रकट कर युद्ध प्रसंग में भयानक रस का निर्वाह कवि ने यथायोग्य किया है उस मेघनाद एवं लक्ष्मण का युद्ध, राम-रावण का युद्ध आदि। काव्य को सुन्दर रूप प्रदान करने के लिये भाषा, छंद, अलंकार, कथानक गठन, चरित्र-नियोजन, रीति, वक्रोक्ति आदि की अपेक्षा होती हैं, जो कलापक्ष का आधार है। प्रवरसेन ने उक्त पक्ष को उजागर करने के लिये सेतुबन्ध में अथक प्रयास किया है। सेतुबन्ध की भाषा मनोभावों एवं विचारों को सफलता के साथ वहन करती है। प्रवरसेन ने काव्यानुभूति एवं काव्य भाषा का सम्यक् परिपालन किया है । उनकी काव्य भाषा महाराष्ट्री प्राकृत है और महाराष्ट्री प्राकृत का
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