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________________ उपयोग सेतुबन्ध में कुशलता से किया गया है । सेतुबन्ध में प्रमुख रूप से स्कन्धक छन्द का प्रयोग हुआ है, जिसके विविध प्ररोह में पूर्वार्ध तथा उत्तरार्ध दोनों में समान रूप से चार-चार मात्राओं वाले आठ गण होते हैं अर्थात बत्तीस मात्राएँ, इसके अतिरिक्त गलितक, लम्बिता कुमुदिनी ललिता आदि छन्दों का प्रयोग हुआ है । सेतुबन्ध में शब्दालंकार अर्थालंकार एवं शब्दार्थालंकार का प्रयोग हुआ है। जिस तरह आभूषणों से सज्जित नारी का सौन्दर्य निखर जाता है, उसी प्रकार काव्य का अलंकारों से। कहा भी हैं, 'अलंकरोतिः इति अलंकार:' अर्थात् जो भूषित करे वह अलंकार है। अलंकार के द्वारा शब्द और अर्थ दोनों की , Jain Education International 1 " अनेकान्तवाद जैनधर्म दर्शन के प्रमुख सिद्धान्तों में से एक है. जो आग्रही मंतव्यों, वैचारिक संघयों के समाधान की संजीवनी है। आज का जनजीवन संघर्ष से आक्रान्त है, विश्व में द्वेष और इन्द्र का दावानल सुलग रहा है। मानव अपने ही विचारों के कटघरे में आबद्ध है, आलोचना और प्रत्यालोचना का दुश्चक्र तेजी से चल रहा है। वह एकान्त पक्ष का आग्रही होकर अंधविश्वासों के चंगुल में फँसता जा रहा है। क्षुद्र व संकुचित मनोवृत्ति का शिकार होकर एक दूसरे पर छींटाकसी कर रहा है। वह अपने मन्तव्यों को सत्य और दूसरे के विचारों को मिथ्या सिद्ध करने पर तुला रहता है। "सच्चा सो मेरा" सिद्धान्त को भूलकर "मेरा सो सच्चा" सिद्धान्त की घोषणा कर रहा है, जिसके परिणामस्वरूप समाज में अशान्ति की लहर दौड़ रही है। इतना ही नहीं, जब मानव में संकीर्णवृत्ति से उत्पन्न हुए अहङ्कार असहिष्णुता आदि का चरमोत्कर्ष होता है तब धार्मिक व सामाजिक क्षेत्र में भी रक्त की नदियाँ बहने लगती हैं । ऐसी परिस्थितियों से उबरने के लिए ही जैन धर्म-दर्शन ने अनेकान्त का सिद्धान्त विश्व को प्रदान किया है। अनेकान्तवाद वह सिद्धान्त है जो 'अनेक' में विश्वास करता है। अनेक का तात्पर्य हैअनेक धर्म (लक्षण), अनेक सीमाएँ, अनेक अपेक्षाएँ, अनेक दृष्टियाँ आदि जो किसी एक धर्म, एक सीमा, एक अपेक्षा तथा एक दृष्टि को सत्य मानता है और अन्य दृष्टियों को गलत कहता है, वह एकान्तवादी कहलाता है तथा जो अनेक धर्मों या अपेक्षाओं को मान्यता प्रदान करता है, वह अनेकान्तवादी कहलाता है। जैन दर्शन की तत्त्वमीमांसा से ऐसा ही ज्ञात होता है कि वह अनेक में विश्वास करता है। इसलिए उसका तत्त्वमीमांसीय सिद्धान्त अनेकान्तवाद (Pluralism) अथवा सापेक्षतावाद (Theory of Relativity) के नाम से जाना जाता है। 1 शोभा बढ़ती है। सेतुबन्ध में अनेक अलंकारों का समायोजन हो सका है, जैसे उपमा, उत्प्रेक्षा, रूपक, दृष्तांत, यमक, अनुप्रास, श्लेष आदि। इस प्रकार, प्रवरसेन का सेतुबन्ध महाकाव्य महाराष्ट्रीप्राकृत का एक अनुपम ग्रन्थ है, जिसके सन्दर्भ में काव्य रस का परिपाक तो है ही, सांस्कृतिक धरोहर का दस्तावेज भी है। सेतुबन्ध महाकाव्य अपने गाम्भीर्य के कारण प्राचीन आचार्यों से लेकर आधुनिक विद्वानों और अध्येताओं को काफी दूर तक प्रभावित करता रहा है और प्रभावित करता रहेगा । अनेकान्तवाद और उसकी व्यावहारिकता डॉ० विजय कुमार जैन 'अनेकान्त' का शाब्दिक अर्थ 'अनेकान्त' शब्द दो शब्दों के योग से बना है'अनेक'+'अन्त' । 'अन्त' शब्द का व्युत्पत्तिमूलक अर्थ बताते हुए कहा गया है कि वस्तु में अनेक धर्मों के समूह को जानना अनेकान्त है। 'न्यायदीपिका' में अनेकान्त को परिभाषित करते हुए कहा गया है. जिसके सामान्य विशेष पर्याय व गुणरूप अनेक अन्त या धर्म हैं, वह अनेकान्त रूप सिद्ध होता है। इसी प्रकार 'समयसार' में कहा गया हैजो तत् है वही अतत् है, जो एक है वही अनेक है, जो सत् है वही असत् है, जो नित्य है वहीं अनित्य है। इस प्रकार एक वस्तु में वस्तुत्व को उपजाने वाली परस्पर विरुद्ध दो शक्तियों का प्रकाशित होना अनेकान्त है। अतः स्पष्ट है कि अनेकान्तवाद वह सिद्धान्त है जो अनेक अन्त या अनेक धर्मों में विश्वास करता है। यदि दूसरे शब्दों में कहें तो अनेकान्तवाद का अर्थ है - प्रत्येक वस्तु का भिन्न-भिन्न दृष्टियों से विचार करना, परखना आदि । अनेकान्तवाद का यदि हम एक ही शब्द में अर्थ समझना चाहें तो उसे अपेक्षावाद कह सकते हैं । जैन दर्शन में सर्वथा एक ही दृष्टिकोण से पदार्थ का अवलोकन करने की पद्धति को अपूर्ण एवं अप्रामाणिक समझा जाता है और एक हो वस्तु के विभिन्न धर्मों को विभिन्न दृष्टिकोणों से निरीक्षण करने की पद्धति को पूर्ण एवं प्रामाणिक माना जाता है। यह पद्धति ही अनेकान्तवाद है। अनेकान्तवाद के प्रवर्तक - यहाँ हमारे समक्ष दो दृष्टिकोण उपस्थित होते हैं इतिहास और परम्परा यदि हम परम्परा की दृष्टि से विचार करते हैं तो पाते हैं। कि अनेकान्त के उद्भावक प्रथम तीर्थकर आदिपुरुष ऋषभदेव हैं, जिन्होंने सर्वप्रथम यह उपदेश दिया। ऋग्वेद में ऋषभ और नेमिनाथ For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012065
Book TitleBhupendranath Jain Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1998
Total Pages306
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size10 MB
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