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जैन विद्या के आयाम खण्ड-७
के अभ्यास का प्रश्न ही कहाँ उठेगा? पं० टोडरमल जी ने कहा है, इन्द्रियदमन का अर्थ-इन्द्रियों का दमन करने का अर्थ "पहले तत्त्वज्ञान का उपाय करना, पश्चात् कषाय घटाने के लिए बाह्य यह नहीं है कि उन्हें नष्ट कर दिया जाय या एकदम निराहार रखा साधन करना।... जैन धर्म में तो ऐसा उपदेश है कि पहले तो तत्त्व जाय। यह कैसे संभव है? इससे तो धर्म का साधनभूत शरीर ही नष्ट ज्ञानी हो, फिर जिसका त्याग करे उसका दोष पहचाने, त्याग करने हो जायेगा। इन्द्रियों को नष्ट नहीं किया जा सकता, न ही उन्हें में जो गुण हो उसे जाने, फिर अपने परिणामों को ठीक करे, वर्तमान निराहार रखा जा सकता है। शरीर की सारभूत, जीवनधारिणी इच्छाओं परिणामों ही के भरोसे प्रतिज्ञा न कर बैठे, भविष्य में निर्वाह होता को पूर्ण करना होगा। दमन का अर्थ है-व्यसनजन्य उत्तेजना के कारण जाने तो प्रतिज्ञा करें, तथा शरीर की शक्ति व द्रव्य, क्षेत्र, काल, विषयों में होने वाली इन्द्रियों की प्रवृत्ति को दृढ़ संकल्प शक्ति के भावादिक का विचार करें। इस प्रकार विचार करके फिर प्रतिज्ञा द्वारा रोकना। इन्द्रियों की विषय प्रवृत्ति को दृढ़ संकल्प-शक्ति के द्वारा करना।...सम्यग्दृष्टि जो प्रतिज्ञा करते हैं सो तत्त्वज्ञानादिपूर्वक ही करते रोका जा सकता है। अत: इस शुभ कार्य में संकल्प की दृढ़ता या हैं। ३२" योगीन्दुदेव का भी कथन है कि सम्यग्दर्शन की भूमि के परिणामों की दृढ़ता का नाम ही दम या दमन है। बिना व्रत-रूपी वृक्ष उत्पन्न नहीं होते-“दंसणभूमिह बाहिरा जिय दम संकल्प और व्रत-जैन आचार में इसे ही व्रत कहा वयरूक्ख ण हुंति३३।"
गया है। ब्रह्मदेव ने विषयकषायों से निवृत्त होने के परिणाम (भाव) आदत बदलने के अभ्यास की प्रक्रिया-आदत बदलने को व्रत कहा है३५। यह आत्म परिणाम दृढ़ संकल्परूप होता है। के अभ्यास की प्रक्रिया क्या है? आदत के अनुसार होने वाली प्रवृत्ति इससे ही मनुष्य के मन, वचन, काय अशुभ प्रवृत्तियों से विरत होते को दृढ़ संकल्प शक्ति से रोकने की चेष्टा करना ही वह प्रक्रिया है। हैं। जैन साधना में अनशन, अवमौदर्य आदि बाह्य तपों का, अहिंसा, जैसे कोई सिगरेट को हानिकारक समझकर उसे छोड़ना चाहता है तो ब्रह्मचर्य, अपरिग्रह आदि व्रतों का तथा परीषह-जय आदि का विधान यह आवश्यक होगा कि सिगरेट के व्यसन से ग्रस्त स्नायुतन्त्र जब- इन्द्रियों के पूर्व भोगाभ्यास तथा नवीन भोग संस्कार की संभावना को जब उत्तेजित होकर सिगरेट पीने की इच्छा उत्पन्न करे तब-तब व्यक्ति निरस्त करने के लिए ही किया गया है। पूरी शक्ति से इस इच्छा को पूर्ण न करने का प्रयत्न करे। इसके लिए विरक्ति के बाद ही दम की सार्थकता–यहाँ यह दुहरा कोई प्रतिपक्षी उपाय भी अपनाया जा सकता है जैसे सिगरेट के बदले देना आवश्यक है कि विषयविरक्ति के बाद ही व्रत यह दम सार्थक किसी अन्य अहानिकर वस्तु का सेवन किया जाय या चित्त को किसी है, क्योंकि तभी सच्ची निष्कामता फलित होती है, जैसा कि पं० रूचिकर कार्य में व्यस्त कर दिया जाय। पर व्यसनजन्य इच्छा को टोडरमल जी ने कहा है, "फल तो रागभाव मिटने से होगा, इसलिए किसी भी दशा में तृप्त न किया जाय। इस कार्य में आरंभ में कष्ट तो जितनी विरक्ति हुई हो उतनी ही प्रतिज्ञा करना३६" इसके अतिरिक्त बहुत होगा, लेकिन हम पायेंगे कि धीर-धीरे इन्द्रियों की व्यसनजन्य विषयों से विरक्ति के बाद ही इन्द्रियदमन सफल होता है । उत्तेजना तृप्ति की सामग्री न मिलने से क्षीण होती जा रही है और इन्द्रियदमन हानिकारक नहीं-इन्द्रियदमन अर्थात् व्यसनउनके स्नायुओं की व्यवस्था का स्वभाव बदल रहा है। इस प्रकार वह जन्य इच्छाओं का दमन हानिकारक भी नहीं है, इसके विपरीत व्यसन एक दिन पूर्णत: समाप्त हो जायेगा। इसे ही जैन आचार में स्वास्थ्यप्रद तथा शान्तिप्रद है। ये इच्छाएँ प्राकृतिक नहीं अपितु दम या इन्द्रियदमन कहा गया है और इसी कारण इन्द्रियदमन की अप्राकृतिक हैं। प्राकृतिक इच्छाओं का अज्ञानतापूर्ण दमन व्यक्तित्व में आवश्यकता प्रतिपादित की गई है।
विकृति उत्पन्न करता है, अप्राकृतिक इच्छाओं का दमन नहीं। उलटे ___ इन्द्रियदमन अपरिहार्य-फ्रायड के मनोवैज्ञानिक सिद्धान्तों यह तो व्यक्तित्व की अस्वाभाविकता और जटिलत मिटाकर स्वाभाविकता का प्रचार होने के बाद 'दमन' शब्द खतरनाक मालूम होने लगा है, और सरलता उत्पन्न करता है। अप्राकृतिक इच्छाओं को पूर्ण न करना पर उपर्युक्त तथ्य से इसकी मनोवैज्ञानिकता सिद्ध है। रागजन्य इच्छाओं कोई प्रकृति विरूद्ध कार्य नहीं है, बल्कि प्रकृतिसंगत कार्य है। इससे को ज्ञानजन्य वैराग्य से विसर्जित किया जा सकता है किन्तु व्यसनजन्य शारीरिक और मानसिक स्वास्थ्य का घात करनेवाली प्रकृतिविरूद्ध इच्छाओं से मुक्ति पान के लिए उपर्युक्त इन्द्रियदमन या इन्द्रियनिग्रह इच्छाओं को रोककर जीवन में शान्ति और स्वास्थ्य लाने का ही अपरिहार्य है। इसके बिना व्यसनजन्य इच्छाएँ समाप्त नहीं हो सकतीं। प्रयत्न किया जाता है। यह तो कोई प्रकृति संगत कार्य न हआ कि विषय वासना और इन्द्रिय व्यसन दोनों को जीतने से ही निष्कामता इन्द्रियों को खतरनाक लत डाल दी जाय और फिर उसका पोषण आती है। जैसा कि पहले कहा गया है-गीता का मत है कि काम का किया जाता रहे। यह तो शरीर-विध्वंस के अलावा कुछ नहीं है। निवास मन, बुद्धि और इन्द्रिय तीनों में होता है अत: उसके अनुसार आदमी को जितना भोजन चाहिए उससे ज्यादा की आदत डाल ले भी इन तीनों को जीतने वाला ही मुक्त होता है।
__ और फिर ज्यादा ही भोजन करता जाय तो इसका परिणाम क्या
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