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________________ जैन आचार में इन्द्रिय-दमन की मनोवैज्ञानिकता १९ सन्दर्भ होगा, अनुमान लगाया जा सकता है। अब यदि भोजन पुन: आवश्यक प्रकाश योगेन्दु, परमश्रुत प्रभावक मंडल, बम्बई, १९३७ मात्रा में करने का अभ्यास किया जाय तो इससे हानि होगी या लाभ, ३/६६ आसानी से समझा जा सकता है। इसे ही इन्द्रियदमन यह इन्द्रियानुशासन १५. (क) मनशुद्धयैव शुद्धिः स्याद्देहिनां नात्र संशयः। कहते हैं। व्यसनजन्य इच्छाओं का दमन रागजन्य इच्छाओं के दमन वृथा तद्वयतिरेकेण कायस्यैव कदर्थनम् ।। के समान नहीं है। रागजन्य इच्छाओं को दबाने से वे नष्ट नहीं होती ज्ञानार्णवा, २२/१४ अपित् गढ़ मन में जाकर बैठ जाती हैं। किन्तु राग समाप्त होने या मन्द होने के बाद जब व्यसनजन्य इच्छाओं का दमन किया जाता है (ख) रागद्वेषप्रवृतस्य प्रत्याख्यानादिकं वृथा'- योगसार, तब उनके बच रहने का कोई अवकाश नहीं रहता, क्योंकि तब अमितगति, ९/७१ ऐन्द्रिक स्नायुओं की व्यसनात्मक व्यवस्था ही समाप्त हो जाती है तो १६. (क) जह सलिलेण ण लिप्पइ कमलिणिपत्तं तज्जन्य इच्छाएँ भी स्वयमेव नष्ट हो जाती हैं। सहावपयडीए। उपर्युक्त तथ्यों के परिप्रेक्ष्य में जैन आचार में प्रतिपादित ताह भावेण ण लिप्पइ कसायविसएहिं सप्पुरिसो।। इन्द्रियदमन पूर्णत: मनोवैज्ञानिक है। भावपाहुड़, अष्टप्राभृत, प्रका०- परमश्रुत प्रभावक मंडल, अगास, १९६९,१५३ मोक्षमार्ग प्रकाशक, पं० टोडरमल, टोडरमल ग्रन्थमाला, सत्यामक्षार्थसम्बन्धाज्ज्ञानं नासंयमाय यत्। जयपुर, वि.स. २०२३, ७/२५२ तत्र रागादिबुद्धिर्या संयमस्तन्निरोधनम्।। वही, ७/२३० पञ्चाध्यायी (उत्तरार्ध), संपा० प्र० देवकीनन्दन 'तस्माद्वीर्यसमुद्रेकादिच्छारोधस्तपो विदुः'-मोक्षपञ्चाशत्-४८ शास्त्री, प्रका० गणेश प्रसाद वर्णी जैनग्रंथमाला, 'इच्छानिरोधस्तपः'-मो० मा० प्र०, ७/२३० पर उद्धृत बनारस, विनि०सं०२४७६,११२१ धम्मपद-चौखम्बा विद्याभवन, वाराणसी, गाथा ३६९ १७. (क) “तीव्र कषायसे जिसके इच्छा बहुत है उसे दुःखी वही, ३५४ कहते हैं। मंद कषाय से जिसके इच्छा थोड़ी है गीता, गीता प्रेस, गोरखपुर ३/३६, ३७ ठसे सुखी कहते है।" -मो० मा० प्र०, ३/७१ वही, ९/२१ (ख) अपि सुतपसामाशावल्लीशिखा तरूणायते। वही, ५/२४ भवति हि मनोमूले यावन्ममत्वजलार्द्रता।। 'इन्द्रिय-मन के विषयों में प्रवृत्ति',- मो० मा० प्र० ७/ आत्मानुशासन, गुणभद्र, प्रका० जैनग्रन्थ रत्नाकर २२६। मन का विषय है-'विकल्प', गो० जी०, ४७९/ कार्यालय, कार्यालय बम्बई, वि० सं० १९८६, ८८५ (जै० सि० को ०भाग, ३ पृ० ५७८) २५२ "अभ्यन्तरे सुख्यहं दु:ख्यहमिति हर्षविषादकरणं विकल्प विषयेच्छा भी 'रति' कषाय के अन्तर्गत है-'मनोज्ञेषु इति। अथवा वस्तुवृत्या सङ्कल्प इति कोऽर्थो विकल्प इति विषयेष परमाप्रीतिरेव रतिः'-नियमसार (ता०७०) तस्यैव पर्याय" द्रव्य संग्रह-टीका-४१ “पुत्रादि मेरे हैं' ऐसा भाव संकल्प कहलाता है। विकल्प संकल्प की पर्याय रति ही औत्सुक्य (अभिलाषा) की जननी हैहै। (जै० सि० को०, भाग ३ पृ० ५४५) 'यदुदयाद्देशादिष्वौत्सुक्यं स रतिः-ससिक, १०. ऐसे मुनियों को आचार्य कुन्दकुन्द ने द्रव्यलिंगी मुनि कहा पूज्यपाद, संपा० पं० फूलचंद शास्त्री, प्रका० है और उन्हें काफी सावधान किया है। भावपाहुड-५, ७२, भारतीय ज्ञानपीठ काशी, १९५५,८/९ ७३, १२१ गाथा। 'प्रीत्यप्रीती रागद्वेषी रागद्वेषी'-पंचास्तिकाय (त०प्र०) ११. मूलाचार, बट्टकेर,माणिकचन्द्रदिग० जैनग्रंथ माला, बम्बई. १३१ (=इष्टअनिष्ट पदार्थों में प्रीति-अप्रीतिरूप वी०नि० सं० २४४९ गाथा ९९५ परिणाम को रागद्वेष कहते हैं।) १२. गीता, २/५९ राग और इच्छा में अन्तर है। राग तो इष्ट पदार्थों वही, ३/६ में प्रीतिरूप परिणाम है। उन पदार्थों की प्राप्ति १४. 'पर तसु संजम अत्थि णवि जं मणसुद्धि ण तास'- परमात्म की आशा इच्छा कहलाती है-'चिरमेते ईदृशा (ग) Jain Education Intemational For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012065
Book TitleBhupendranath Jain Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1998
Total Pages306
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size10 MB
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