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जैन आचार में इन्द्रिय-दमन की मनोवैज्ञानिकता
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प्रक्रिया है। मलरूप से इच्छाएँ विषयराग से ही उत्पन्न होती हैं, किन्तु विषय-विरक्त हो जाने पर भी इन्द्रियों के अभ्यासवश विषयेच्छा तृप्ति के लिए जब इन्द्रियाँ विषयभोग करती हैं तब उनके स्नायुओं उत्पन्न होती रह सकती है। जैसे कि चाय आदि की आदत पड़ जाने में भोग का एक संस्कार पड़ता है। यह संस्कार जब बार-बार आवृत्त पर उनसे विरक्ति होने के बावजूद उनके भोग की इच्छा उत्पन्न होती होता है तब वह एक व्यसन या लत में परिणत हो जाता है। तब रहती है। इस तथ्य को देखते हुए गीता का यह कथन बिलकुल सत्य इन्द्रियों में संबंधित विषय के भोग की इच्छा अपने आप उत्पन्न होने प्रतीत होता है कि 'काम' (इच्छा) का निवास मन, बुद्धि और इन्द्रिय लगती है। जिस समय जिस वस्तु के भोग का अभ्यास इन्द्रियों को हो तीनों में रहता है३१। गया है उस समय उस वस्तु की प्राप्ति के लिए ऐन्द्रिक स्नायुओं में व्यसनजन्य इच्छाएँ अधिक- हम जीवन में देखते हैं उद्दीपन होता है। इससे शरीर और मन में व्याकुलता की अनुभूति कि विषय-राग के कारण जितनी इच्छाएँ पैदा होती हैं उससे अधिक होती है जिससे मुक्त होने के लिए उस वस्तु का भोग आवश्यक हो इन्द्रियों के भोगाभ्यास से पैदा होती हैं। प्राचीन युग में भोग की जाता है। इस उद्दीपन को 'तलब' कहते हैं। उदाहरण के लिए जिन्हें वस्तुएँ सीमित थीं जिससे लोगों को कम वस्तुओं का ही भोगाभ्यास बीड़ी, सिगरेट, तम्बाकू, चाय, शराब आदि की लत पड़ जाती है होता था। अत: उनकी भोगेच्छाएँ सीमित रहती थीं। आज जितनी उनके ऐन्द्रियक तन्तुओं में निर्धारित समय पर इन द्रव्यों के भोग की अधिक भोग्य सामग्री पैदा होती जा रही है मनुष्य की भोगेच्छा भी उत्तेजना पैदा होती है और तब उन्हें बरबस इनका सेवन करना पड़ता उतनी ही बढ़ती जा रही है। है। इसी प्रकार जिन्हें अधिक भोजन करने की या अधिक कामसेवन
भोगाभ्यास सार्वजनिक-भोगाभ्यास प्राय: सभी की इन्द्रियों की आदत पड़ जाती हैं उनकी इन्द्रियाँ उतने ही भोजन और उतने ही को हो जाती है, भले ही उसकी मात्रा न्यूनाधिक हो जन्म से ही कामसेवन की माँग करने लगती हैं। इसे मनोवैज्ञानिक भाषा में इन्द्रियाँ भोग में प्रवृत्त हो जाती हैं। इच्छाओं से मुक्ति का प्रश्न प्रतिबद्धीकरण कहते हैं।
आध्यात्मिक चेतना जाग्रत होने पर उठता है और इसका अवसर इन्द्रियों का एक अलग विधान-भोगाभ्यास हो जाने आते-आते प्राय: आधी से अधिक उम्र बीत जाती है, तब तक पर इन्द्रियों का अपना एक अलग विधान बन जाता है। पहले वे मन भोगाभ्यास दृढ़ हो जाता है और इन्द्रियाँ व्यसनग्रस्त हो जाती हैं। के अनुसार चलती हैं, बाद में मन को अपने अनुसार चलाने लगती व्यसननिवृत्ति अभ्यास से- इच्छाओं के स्रोत दो हैंहैं। और उनकी चालक शक्ति इतनी प्रबल हो जाती है कि न चाहते विषयराग तथा इन्द्रिय व्यसन। विषयराग तो ज्ञान से नष्ट हो जाता हुए भी वे मन को बलपूर्वक अपनी ओर खींच लेती हैं। यह तथ्य तो है, इन्द्रिय-व्यसन की निवृत्ति कैसे हो? इन्द्रियाँ तो जड़ हैं। उनकी सर्वविदित है कि मन ही हमारे समस्त कार्यों का स्रोत है, मन ही व्यवस्था पूर्णत: भौतिक या स्नायुविक है। उनकी अभ्यासजन्य स्नायुविक इन्द्रियों को अपने-अपने विषयों में प्रवृत्त करता है, पर इस तथ्य पर व्यवस्था को ज्ञान से कैसे बदला जा सकता है? स्नायुतन्त्र आध्यात्मिक शायद सबका ध्यान न गया हो कि इन्द्रियाँ भी मन को बलात् अपने सत्य और दार्शनिक तर्कों को कैसे समझे? तर्कों को चेतन तत्त्व ही विषयों की ओर आकृष्ट कर लेती हैं। गीता में यह तथ्य स्पष्ट शब्दों समझ सकता है। जो विकार अज्ञानजन्य हो उसे ही ज्ञान से नष्ट किया में व्यक्त किया गया है
जा सकता है, लेकिन जो विकार अभ्यासजन्य हो उसे ज्ञान से समाप्त यततो ह्यपि कौन्तेय पुरुषस्य विपश्चित:३°।
करना कैसे संभव है?...मन की यदि कोई धारणा गलत हो तो उसे इन्द्रियाणि प्रमाथीनि हरन्ति प्रसभं मनः।।
केवल समझ से बदला जा सकता है, लेकिन तन की यदि कोई यही कारण है कि कई बार लोग बीड़ी, सिगरेट, शराब आदत गलत है तो उसे केवल समझ से कैसे बदला जा सकता है? आदि की हानियों से सचेत होकर जब उन्हें छोड़ने का प्रयत्न करते जिसे भद्दे अक्षर लिखने की आदत पड़ गई है उसके अक्षर क्या हैं तो बार-बार कोशिश करने पर भी नहीं छोड़ पाते। इसीलिए जहाँ केवल यह समझ आ जाने से सुधर सकते हैं कि उसके अक्षर भद्दे हैं, यह सत्य है कि इन्द्रियों के विषय-निवृत्त हो जाने पर भी मन का उसे सुन्दर अक्षर लिखने चाहिए? जो ज्यादा खाने या ज्यादा सोने विषय-विरक्त होना अनिवार्य नहीं है, वहाँ यह भी सत्य है कि मन का आदी हो गया है उसकी इन आदतों में क्या केवल इनकी के विषय-विरक्त हो जाने पर भी इन्द्रियों का विषय-निवृत्त होना हानिकारकता का बोधमात्र हो जाने से परिवर्तन हो सकता है? नहीं, निश्चित नहीं है। यद्यपि यह सुनने में कुछ विचित्र लगेगा, क्योंकि समझ के अतिरिक्त इन आदतों को बदलने के लिए अभ्यास की हमारे मन में यही धारणा है कि मन ही इन्द्रियों की विषय-प्रवृत्ति का जरूरत है। अभ्यास से उत्पन्न व्यवस्था अभ्यास से ही बदली जा एकमात्र हेतु है और उसके विरक्त हो जाने पर इन्द्रियों का भी विषय- सकती है। हाँ, उस व्यवस्था के गलत होने का बोध तथा उसे बदलने निवृत्त हो जाना अनिवार्य है। पर अनुभव ऐसा नहीं कहता। मन के की इच्छा अवश्य पहले मन में उत्पन्न होनी चाहिए। नहीं तो बदलने
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