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________________ १५६ जैन विद्या के आयाम खण्ड-७ और नव-निर्माण की कड़ी के रूप में कल्कि अवतार होगा। अधर्म, आकाश और काल ये छ: द्रव्य अनादि और नित्य-शाश्वत हैं। इस प्रकार वैदिकधारा के स्रोतों में भिन्न-भिन्न विचार पाए इन छहों के संयोग-वियोग, संगठन-विघटन, परिणमन-परिवर्तन, जाते हैं। समाज-रचना एवं शासनतंत्र के उदय के विषय में कुछ स्पष्ट क्षय-उपशम, उत्पाद-व्यय आदि से संसार की स्थिति, गति, विनाश उल्लेख नहीं मिलता। श्री सत्यव्रत के उपर्युक्त मत में, इसकी तह में आदि होता है। केवल अहंकार काम करता है। हमारे विचार में यह अटकलबाजी मात्र मनुष्य की संरचना, उद्गगम या प्रादुर्भाव में भी कोई हेतु है। पार्टी, संगठन आदि समाज-रचना के परिणाम हो सकते हैं, नहीं है। आरम्भ में मनुष्य-युगल (पुरुष और स्त्री) एक साथ उत्पन्न तानाशाही, सम्राट, गणाधीश आदि शासनतंत्र की स्थापना के होते थे। उनकी भूख, प्यास आदि की सारी आवश्यकताएं प्रकृति से परिणाम और पौरोहित्य, महंतागीरी, पंडागीरी आदि धर्म-संस्थाओं पूर्ण हो जाती थीं। जैन परम्परा के अनुसार सारी आवश्यकताओं की की स्थापना के परिणाम हो सकते हैं। ये सब कारण नहीं हो पूर्ति कल्पवृक्षों से हो जाती थी। भोगभूमि के काल में सामग्री प्रचुर सकते, कारण कुछ और ही होने चाहिए, परन्तु इनका स्पष्ट होने के कारण मनुष्य-युगल अपने में पूर्ण और सन्तुष्ट थे। परस्पर उल्लेख देखने में नहीं आता। में भी वे शरीर सम्बन्ध मात्र के लिए आश्रित थे। आपस में न किसी मूलतः यद्यपि भारतीय विचार-धारा के अन्तर्गत वैदिक, प्रकार का बन्धन था और न निर्भरता थी। उत्पादन, अर्जन, संग्रह की बौद्ध और जैन परम्पराओं के संदर्भ में विचार करने का संकल्प भी अपेक्षा नहीं थी। युगल मात्र इकाई अथवा समाज था। कालान्तर था, परन्तु कुछ ऐसी भी धाराएँ हैं जिन पर एक दृष्टि डाल लेना में कल्पवृक्षों की शक्ति कम पड़ने लगी, अर्थात् प्रकृति मात्र से मनुष्य उपर्युक्त होगा। की आवश्यकताएं सर्वथा पूर्ण नहीं हो पाती थीं। यहाँ से कर्मभूमि का १. पूरण काश्यप अक्रियावादी थे । उनके मतानुसार किसी सूत्रपात हुआ। मनुष्य को वस्तुओं के उत्पादन की आवश्यकता पड़ने कर्म का कोई फल नहीं होता। जो कुछ है नैसर्गिक रूप में ही से वह कृषि आदि कार्यों में लगा। उत्पादन के साथ ही संरक्षण, विद्यमान है। न इसका कोई निर्माता है और न इसका निर्माण किया भण्डारण आदि की आवश्यकता हुई। आवश्यकताएं बढ़ने भी लगी जा सकता है। विनाश भी न कोई कर सकता है न हो सकता है। और उनके साथ ही पारस्परिक सहायता और सहयोग की अपेक्षा हुई। २. मंखलिपुत्र गोशाल नियतिवादी थे। उनके अनुसार युगल जो पहले स्वतन्त्र और अपने तक ही सीमित थे, अब सहयोगी संसार का संघटन-विघटन नियति की रचना है, इसमें विकल्प करना और परस्पर आबद्ध हो गए और कार्यों के बंटवारे का आरम्भ हुआ। किसी भी दशा में उपयुक्त नहीं है। नियति की रचना में किसी का एक युगल का आपसी सीमित सहयोग जब अपर्याप्त कोई वश नहीं। जब, जो, जैसा होना है वह सब पूर्व निश्चित है। अनुभव होने लगा तो उसे अन्य युगलों की सहायता अनुभव हुई। ३. अजित केशकम्बलि उच्छेदवादी थे। उनके अनुसार युगल के बदले नर-नारी अलग-अलग भी उत्पन्न होने लगे। इससे संसार की रचना चार भूतों (पृथ्वी, तेज, वायु और जल) से हुई विवाह की आवश्यकता पड़ी और इस प्रकार पारिवारिक जीवन है। जब कोई मरता है तो चारों धातु अपने-अपने स्थान को चले आरम्भ हुआ। अनेक परिवारों ने मिल कर समाज बनाया। समाज का जाते है। गठन हो जाने के बाद व्यक्तियों के हित, स्वार्थ और स्वत्व की रक्षा ४. पकुध कात्यायन अन्योन्यवादी थे। अनके अनुसार का प्रश्न आया। इसके लिए एक ऐसे व्यक्ति या संगठन की आवश्यकता संसार सात पदार्थों द्वारा निर्मित है। ये सात पदार्थ पृथ्वी, जल, तेज, हुई जो यथोचित व्यवस्था कर सके, विवाद उपस्थित होने पर उचित वाय, सुख, दुःख एवं जीव हैं। ये किसी के द्वारा बनाए हुए नहीं हैं। न्याय कर सके और सबको नियम से बाँध सके। इसके लिए राजा ५. संजय वेलट्ठिपुत्र विकल्पवादी थे। उनके अनुसार संसार, अथवा शासन-सूत्र की प्रतिष्ठा हुई। ज्यों-ज्यों जनसंख्या बढ़ी, समस्याएँ जीव आदि किसी की कोई निश्चित धारणा नहीं है। संसार की स्थिति बढ़ीं और एक ही व्यक्ति सब-कुछ नहीं कर पाया तो इन कार्यों का है अथवा वह शून्य मात्र है, कर्ता-अकर्ता है या नहीं, लोक-परलोक भी विभाजन हुआ। कुछ लोग शासनतंत्र के संचालक हुए और कुछ भी है या नहीं इनमें उनकी कोई निश्चित धारणा नहीं है। नैतिक तंत्र के। इस प्रकार शासन और आचारतंत्र का पार्थक्य हुआ। ६. जैन-दृष्टि इन सभी से भिन्न अथवा सबका समन्वित आचारतंत्र ने धार्मिक और आध्यात्मिक-तन्त्र का रूप लिया और स्वरूप दीखती है। इसे यों भी कह सकते हैं कि जैनों ने इसे विभिन्न शासनतंत्र का विकास राजतंत्र और गणतंत्र के रूप में हुआ। शासनतंत्र दृष्टिकोणों से देखा और परीक्षण किया है। उनकी दृष्टि सम्भावनाओं शारीरिक तल पर नियंत्रण करता है और धार्मिक तंत्र विचारों के तल पर आधृत है, उसमें मान्यताओं के आग्रह और घेरों को स्थान नहीं पर। शासन का आधार बल होता है और धर्म से चेतना प्रभावित है। जैन विचार-धारा के अनुसार यह दृश्यमान् जगत् अनादि काल से होती अथवा की जाती है। चला आता है। इसकी कोई आदि सीमा नहीं है। जीव, पुद्गल, धर्म, यहाँ धर्म की व्युत्पत्ति और अर्थ समझ लें। “धर्म' धृ-मन् Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012065
Book TitleBhupendranath Jain Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1998
Total Pages306
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size10 MB
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