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________________ मानव संस्कृति का विकास से निष्पन्न है। " धृते लोकोऽनेन, धरति लोकं वा धर्मः” अथवा "इष्टे स्थाने धत्ते इति धर्म:" अर्थात् जिसके द्वारा लोक (श्रेष्ठ स्थान में) धारण किया जाता है अथवा जो लोक को धारण करता है किंवा जो इष्ट स्थान (मुक्ति) में धारण करता है वह धर्म है। धर्म की और भी परिभाषाएं हैं यथा- "जो संसार के दुःखों से छुड़ाकर जीव को उत्तम सुख प्राप्त करावे वह धर्म है।" "जिससे सर्वांगीण उदय, समृद्धि तथा मुक्ति की प्राप्ति हो वह धर्म है।" "मानव में दिव्यता की अभिव्यक्ति की विद्यमानता को धर्म कहते हैं।" "सत्य तथा न्याय के आचरण एवं हिंसा के त्याग को धर्म कहते हैं।" "वस्तु के स्वभाव को धर्म कहते हैं।" स्वामी चिन्मयानन्द ने कहा कि “लॉ आफ बीइंग (जीवन की कला) धर्म है।" इत्यादि । इससे ज्ञात होता है कि 'धर्म' कोरा शब्द ही नहीं है, वह एक रहनि' है और शब्द उसका सांकेतिक चिह्न है। धर्म शब्द में नहीं समा सकता, वह आचार और स्वभाव में परिलक्षित होता है। धर्म को जिसने जिस रूप में देखा जाना अथवा चरित्र में उतारा उसने उसकी उसी प्रकार परिभाषा कर दी। समाज को व्यवस्थित और नैतिक रूप में धारण करने में धर्म का बहुत बड़ा योगदान रहा है। " अनेक व्यक्ति जब एक प्रकार की आचार -क्रियाओं, प्रथाओं, जनरीतियों और प्रवृत्तियों को स्वीकार कर सामूहिक रूप में रहने लगते हैं तो वह समाज बन जाता है। इस प्रकार के समूह जातियों, विरादरियों आदि में परिस्फुटित होते हैं। समाज रचना से जहाँ मनुष्य के स्वार्थी को सुरक्षा मिलती है, वहाँ उसे समाज के हित में कुछ त्याग भी करना पड़ता है। परस्पर सहयोगी बनना, अन्य के दुःखपौड़ा आदि में यथोचित संवेदना और सेवा करना सामाजिक जीवन की प्राथमिक अनिवार्यताएं हैं। व्यक्ति केन्द्रित चेतना को सद्भावपूर्वक समष्टि के हित में घटित करने से समाज का विकास होता है प्राप्ति, रक्षण और समर्पण, यह है सामाजिक जीवन का मौलिक स्वरूप या सार-संक्षेप । परिवार या समाज के स्वस्थ संचालन के लिए निम्नलिखित कुछ आवश्यक कर्तव्य या मुद्दे हैं १. नैतिकतापूर्ण आजीविका द्वारा संतान, परिवार, रोगी, वृद्ध, विकलांग, अकिंचन, साधु आदि की सेवा सुश्रूषा पालन, रक्षण आदि करना। शारीरिक एवं मानसिक विकास का वातावरण तैयार करना। २. अनुशासन, श्रम, संतुलन, सद्भाव, समादर सहकारिता सहयोग, सहिष्णुता और सेवा के द्वारा उत्पादन, निर्माण और विकास में योगदान देना। ३. कलह, वैर, वैमनस्य, घृणा, अहंकार, दुःसंकल्प, क्रोध, लोभ, झूठ, चोरी, हिंसा, अतिसंग्रह, कपट, दमन, शोषण, असदचन आदि परिवार तथा समाज के विघटनकारी तत्वों से विरत Jain Education International १५७ रहकर मैत्री, प्रमोद, कारुण्य और माध्यस्थ आदि भावनाएँ रखना तथा कर्तव्यों को अधिकारों से अधिक महत्त्व देना। यौन सम्बन्ध को विवाह के द्वारा विहित और पतिव्रत्य और स्वदारसन्तोषव्रत के द्वारा उसे व्यवस्थित और नियंत्रित करना आदि। मनुष्य यद्यपि जातियों, बिरादरियों आदि में बँटा हुआ दीखता है, पर यह एक उपचार मात्र है। जाति नाम की चीज मनुष्य होने तक ही सीमित है महाभारत में वर्णित यक्ष-युधिष्ठिर संवाद से इस विषय पर प्रकाश पड़ता है। जाति के सम्बन्ध में प्रश्न पूछने पर युधिष्ठिर ने कहा था- 'हे महासर्प (यक्ष) ! जाति तो केवल मनुष्य 'के अर्थ में समझना चाहिए। सभी वर्णों के सम्मिश्रण से इसकी परीक्षा करना कठिन है। सभी मनुष्य सभी वर्णों की स्त्रियों में सदा संतान उत्पन्न करते रहे है। इसलिए धर्म का तत्त्व जाननेवालों ने शील आचार) को वांछनीय बताया है। नारदपुराण में भी लिखा है"आचारप्रभवो धर्मः। ( कामवासना के पीछे मनुष्य ने मनुष्य पर नाना प्रकार के अत्याचार किए, रक्त बहाया, युद्ध, हत्याएँ, अपहरण, बलात्कार आदि किए। मानव इतिहास साक्षी है कि संसार में जितना रक्तपात हुआ है उसमें कम से कम एक चौथाई के लिए मनुष्य की कामवासना जिम्मेदार है। धार्मिक विद्वेषों और क्रियाकाण्डों के कारण भी भीषण नरसंहार हुआ है। भारत में आर्य-अनार्य, ब्राह्मण श्रमण, हिन्दूबौद्ध, हिन्दू-मुसलमान आदि के झगड़े, दंगे आदि धर्मान्धता के नाम पर हुए थे। यूरोप में क्रूसेड, मक्का-मदीना आदि के नरसंहार, यहूदियों ईसाइयों के युद्ध आदि भी धार्मिक विद्वेष के कारण हुए थे। सतीप्रथा, काशीकरवत, जौहर, नरमेध आदि के नाम पर असंख्य प्राणों की आहुतियाँ दी गई है। इनके साथ पशुओं की हत्या को भी जोड़ दें तो हिंसा का ८० प्रतिशत से भी अधिक भाग धर्म के नाम पर चला जायगा । अर्थलिप्सा, अधिकारों की महत्त्वाकांक्षा, साम्राज्यवाद की भावना आदि कारणों से भी मनुष्य का विपुल रक्त बहाया गया है। प्राचीन युग में देवासुर संग्राम, मनुष्य-राक्षसमुद्र, महाभारत, यवनों, मुगलों आदि के आक्रमण आदि और इस बीसवीं शताब्दी के दो विश्व महायुद्ध, पाकिस्तान से हिन्दुओं का और जर्मनी से यहूदियों का निष्कासन, हत्याएँ आदि मनुष्य की लिप्सा अथवा तृष्णा के ही परिणाम हैं। इनके अतिरिक्त अर्थ और अधिकार के लिए भाई ने भाई का, बेटे ने बाप का मित्र ने मित्र का रक्त बहाने में भी कोई कसर नहीं रखी है। आकस्मिक उत्तेजना, कलह, अपमान, राजदण्ड आदि के कारण भी संख्यातीत हत्याएँ हुई हैं। संक्षेप में कह सकते हैं कि संसार में आज तक जितना रक्तपात हुआ है उसके पीछे मनुष्य की For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012065
Book TitleBhupendranath Jain Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1998
Total Pages306
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size10 MB
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