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________________ मानव संस्कृति का विकास अवस्थित था। वह सुप्त था या जाग्रत यह किसी को ज्ञात नहीं है । वह न ऊपर था, न नीचे, वहाँ न जल था न स्थल, न प्रकाश थान अंधकार, न उससे कुछ पास था न दूर, न धरती थी न आकाश और न उसके परे ही कुछ था। क्षितिज और अन्तरिक्ष भी नहीं थे। ज्ञातअज्ञात अथवा ज्ञाता द्रष्टा भी नहीं था। वह एकाकी ब्रह्म संकल्प मात्र से सब कुछ करने में समर्थ था वह स्वयं में पूर्ण चैतन्य, आप्तकाम, समर्थ और तृप्त था। उसके मन में एक से अनेक होने का संकल्प उठा । संकल्प करते ही सृष्टि होने लगी। विश्वकर्मा (ब्रह्मा) अवतरित हुए और उन्होंने सारे प्रपञ्च की रचना की। अपने स्वरूप के बारह मानस पुत्र उत्पन्न किए। इन मानस पुत्रों से अथवा मानसिक सृष्टि से परम्परा का चलना सम्भव न जानकर उन्होंने अपने शरीर के दो भाग किए। आधे से पुरुष व आधे से नारी उत्पन्न कर मैथुनी सृष्टि का सूत्रपात किया, जो कालक्रम से विकसित होती गई। २. ब्रह्मा के संकल्प के परिणामस्वरूप उनके मुख से ब्राह्मण, भुजा से क्षत्रिय, उदर से वैश्य और चरणों से शूद्रोंकी उत्पत्ति हुई। यही चातुर्वर्ण्य सृष्टि का आरम्भ था। ३. अक्षर, अव्यक्त और अरूप ब्रह्मा स्वयं विष्णु के रूप में व्यक्त हुआ विष्णु की नाभि से एक कमल निकला, उसमें ब्रह्मा उत्पन्न हुए। ब्रह्म ने सृष्टि और शंकर को भी उत्पन्न किया। प्रजा की सृष्टि होने पर उसके पालन, रक्षण, शासन, संहार और पुनः उत्पत्ति हुई। इसे ब्रह्मा, विष्णु, और शंकर ने सं ब्रह्मा सृजनकर्ता हुए, विष्णु पालक, रक्षक और शासक हुए और शंकर संहारकर्ता बने। सृष्टि-विकास की जटिलता को देख कर ब्रह्मा ने मनु-प्रजापति उत्पन्न किए। इन मनुओं ने समय-समय पर प्रजा के लिए सामाजिक और धार्मिक नियम बनाए और शासन व्यवस्थाएं स्थापित की। ४. अनादि और एकाकी ब्रह्म ने अपने में से माया अथवा योगमाया को उत्पन्न कर सृष्टि करने का आदेश दिया। माया ने सृष्टि को रूप दिया और ब्रह्मदि ने चेतना के रूप में अपना अंश दिया। चेतन अथवा जीव ब्रह्म का अंश है। माया ने सम्पूर्ण जड़ और चैतन्य को आवृत्त कर घटयंत्र की तरह चलाना आरम्भ किया। ब्रह्म का अंश जीव ज्ञान, आनन्द और चिन्मय होते हुए भी माया के कारण अपने को भूल कर संसार में लिप्त रहा है। स्वरूप ५. कूटस्थ ब्रह्म ने लोक-रचना की इच्छा की। सृष्टि कर लेने के बाद ब्रह्म पद पर प्रतिष्ठित होकर अपनी कामनाओं को प्राप्त किया और पूर्ण आनन्द में निमग्न हो अमरत्व को प्राप्त हुआ, आदि। (ख) दूसरी कोटि के अनुसार १. सृष्टि अनादि है। कर्मानुसार सुख-दुःख भोगने के लिए जीव नाना योनियों में जन्मता व मरता रहता है। साधना, तपस्या आदि कर के मुक्त भी हो सकता है। Jain Education International १५५ २. पुरुष और प्रकृति अनादि तत्व है। इनका कोई रचयिता नहीं है। दोनों के योग से जगत् की उत्पत्ति होती है और वियोग से लय होता है। पुरुष चैतन्य और प्रकृति जड़ है। रूप, रस, गंध, स्पर्श आदि प्रकृति के विकार अथवा प्रसार हैं और चेतना, स्पंदन, आस्वादन आदि पुरुष के गुण हैं। इस सिद्धांत के अनुसार सृष्टि का क्रम इस प्रकार है- पुरुष एवं प्रकृति दो मूल तत्त्व हैं। पुरुष का स्वरूप जीव और प्रकृति से महत् महत् से अहंकार, अहंकार से पाँच तन्मात्राएँ, उनसे ग्यारह इन्द्रियाँ और पाँच स्थूल महाभूतमय जगत् इस प्रकार पच्चीस तत्त्वों से सारा विस्तार होता है। 'वैदिक संस्कृति के मूलतत्त्व' पुस्तक में श्री सत्यव्रत सिद्धांतालंकार ने लिखा है "प्रकृति के साथ पुरुष (आत्मा) का संयोग होकर सारे दृश्य जगत् का पसारा होता है। पसारा बढ़ता हुआ दो दिशाएं लेता है। प्रकृति की प्रधानता में स्वार्थ प्रधान होकर विकास नीचे की ओर होता है, अर्थात् इन्द्रियां और भोग प्रधान हो जाते हैं । प्रकृति की प्रधानता में संघर्ष का सृजन होता है और पुरुष की प्रधानता में शान्ति, आनन्द और सद्भाव का।" समाज, शासन आदि का हेतु बताते हुए वे लिखते हैं"इस पसारे के नेपथ्य में अहंकार काम करता है, वह सर्वत्र विराजमान रहता हुआ नाना दृश्य उत्पन्न करता है। अहं (मैं) मेरा में बदल कर परिवार की सृष्टि करता है, परिवारों से कुटुम्ब, कुटुम्बों से समाज, समाज से जाति, देश आदि। इस प्रकार अहं का पसारा बढ़ता जाता है। जब दो अहं टकराते है तो युद्ध होते हैं, जय-पराजय, विकासविनाश उद्भव ह्रास आदि होते हैं। तानाशाही, सम्राट् पद, गणाधीश आदि अलंकार के ही विकसित रूप होते हैं। पार्टी संगठन, शासनतंत्र आदि सभी अहंकार का कूड़ा है। " 3 ३. पांच महाभूतों (पृथ्वी, जल, तेज, वायु एवं आकाश ) के योग से संसार की रचना हुई है। इसका रचयिता, नियामक अथवा शासक कोई नहीं है। संसार के सम्पूर्ण पदार्थ मनुष्य के भोग के लिए है। सृष्टि के हेतु पंच महाभूत हैं और उसकी उपयोगिता भोग है। इतनी ही वास्तविकता है, बाकी सब कल्पनाएँ और विडम्बनाएँ हैं। ४. दश अवतारों को कुछ लोग सृष्टि के विकास की श्रृंखला का इतिहास मानते हैं। उनके अनुसार मत्स्यावतार जीवन की प्रारम्भिक अवस्था का द्योतक है, कूर्म जल और स्थल दोनों में जैविक विकास का द्योतक है, बराह स्थल पर जैविक विकास की ओर संकेत करता है, नृसिंह पशु और मनुष्य दोनों के बीच की कड़ी है, वामन अविकसित मानव का प्रतीक है, परशुराम बौद्धिक विकास की अपूर्णता का प्रतीक है, रामावतार विकसित मानव का स्वरूप है। और कृष्णावतार पूर्णता का द्योतक है। मनुष्य के अपरिमित विकास, वैज्ञानिक उन्नति की पराकाष्ठा और प्रकृति पर विजय के बाद विनाश For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012065
Book TitleBhupendranath Jain Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1998
Total Pages306
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size10 MB
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