SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 180
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ १४१ अनेकान्तवाद और उसकी व्यावहारिकता की लालसा विश्व में कभी भी युद्ध की आग को भड़का सकती है । यद्यपि ५ शलो०१५ । शस्त्र निर्माण की इस होड़ ने शक्ति संतुलन कायम कर दिया है। ७. एग. च णं महं चित्तविचित्तपक्खगं पंसकोइलगं सविणे पसित्ता भयानक अस्त्रों के निर्माण ने सभी राष्ट्रों को सशंकित कर दिया है कि णं पडिबुद्धे ....जण्णं समणे भगवं महावीरे एंग महं चिन्तविचित्त शस्त्रास्त्रों के इस संग्रह से कहीं मानव जाति का सर्वनाश न हो जाए। जाव पडि बुद्धे तण्णं समणे भगवं महावीरे विचित्तिं ससमयपर समइयं दुवालसंगं गणि पिडगं आघवेई, पनवेइ परुवेई ...... । इतिहास के पन्नों में प्रथम एवं द्वितीय विश्वयुद्ध इसके मुख्य उदाहरण भगवतीसूत्र, संपा० घासीलालजी महाराज, प्र०-अ०भा० श्वे० स्था० जैन शास्त्रोद्धार समिति, राजकोट, १९६८, श०१६ उ० विश्व अनेक गुटों में बँटा हुआ है - समाजवाद, साम्यवाद, ६ सू०३। पूँजीवाद, लोकतंत्रवाद आदि । ये सभी प्रशासन प्रणाला आर सामाजिक ८. भारतीय दर्शन, आचार्य बलदेव उपाध्याय, वाराणसी, १९७९, संगठन में सुधार की बात करते हैं और केवल अपने को मानवजाति का पृष्ठ-९१ । परित्राता समझते हैं । प्रत्येक देश का प्रत्येक दल केवल अपने को व ९. भारतीय दर्शन के प्रमुख सिद्धान्त, डॉ० बी० एन० सिन्हा, अपनी नीति और कार्यक्रमों को सर्वोत्तम मानता है और एकमात्र उसे ही वाराणसी, १९८२ पृष्ठ-७१ । देश में नवजीवन का सञ्चार करने वाला समझता है । प्रत्येक दल या १०. गोयमा ! एत्थ णं दो नया भवंति तं जहा निच्छइयनए य । गुट यह समझता है कि केवल उसके अनुयायी और सदस्य ही देश के वावहारियन गोड्डे फाणियगुले नेच्छइयनयस्स पंचवन्ने दुगंधे पंचरसे प्रशासनिक पदों के योग्य हैं । उसमें इतना धैर्य नहीं कि वह दूसरे दलों अट्ठफासे पन्नते । भगवती सूत्र संपा०-घासीलाल जी महाराज, के सुझावों एवं गुणों को देख सके । यह एक घातक प्रवृत्ति है। प्रत्येक श०१८ उ०६ सू०१। व्यक्ति यह सोचता है कि वही एकमात्र ऐसा व्यक्ति है जिसके लिए ११. साधना के मूलमंत्र, उपाध्याय अमर मुनि, आगरा, पृ० २८३। १२. उत्पादव्ययध्रौव्ययुक्तं सत् । - तत्त्ववार्थसूत्र विवे० पं० सुखलाल सम्पूर्ण विश्व की सत्ता है और दूसरे लोग उसकी दयालुता, सहानुभूति, संघवी, पार्श्वनाथ शोधपीठ ग्रंथमाला-२२, वाराणसी, अ०५, स्नेहशीलता आदि के पात्र हैं। लेकिन संघर्ष का कारण यह है कि विश्व गाथा-२९। में अनगिनत दूसरे लोग भी हैं जो उसी विश्वास और दावे की इच्छा रखते १३. चिन्तन की मनोभूमि, सम्पा०-डॉ० बी० एन० सिन्हा, पृ०१११। हैं । यहीं से संघर्ष का सूत्रपात्र होता है। १४. अनेकान्तात्मकार्थकथनं स्याद्वादः । न्यायकुमुदचन्द्र, भाग-२ संपा०यदि हम सब इस एकान्तवाद के दुष्परिणाम का अनुभव कर पं० महेन्द्र कुमार, माणिकचन्द्र दि० जैनग्रन्थमाला-३८, बम्बई सकें और "भी' का प्रयोग कर सकें तथा यह समझें कि प्रत्येक को १९४१, पृष्ठ ६८६ । दूसरों की इच्छाओं, आशाओं और आकांक्षाओं की उपेक्षा नहीं करनी १५. अष्टसहस्त्री, सम्पा०-वंशीधर, शोलापुर, १९१५, पृष्ठ-२८७ । चाहिए, दूसरों के गुणों को खोजना, पहचानना और सराहना चाहिए तथा १६. नायं वस्तु न चावस्तु वस्त्वंश: कथ्यते बुधैः । उनके साथ मित्रता और शान्तिपूर्वक रहना चाहिए, तो विश्व आज जिस ना समुद्रः समुद्रो वा समुद्रांशो यथैव हि ।। -रत्नकरावतारिका, रूप में दिखाई दे रहा है, उससे बिल्कुल भिन्न होगा। अनेकान्त की छाया सम्पा०-६० दलसुखभाई मालवणिया, लालभाई दलपतभाई ग्रंथमाला-२४, अहमदाबाद, १९६८, भाग-३, पृष्ठ-४ । में विकसित सह-अस्तित्व का सिद्धान्त ही विश्व शान्ति का सबसे सुगम १७. प्रमाणप्रतिपात्रथैकदेशपरामर्श नयः । - स्याद्वादमञ्जरी, सम्पा०एवं श्रेष्ठ उपाय है। डॉ० जगदीशचन्द्र जैन, श्रीमद् रायचंद जैनशास्त्रमाला-१२, अगास सन्दर्भ १९३५, पृष्ठ २४२ । १. अनेकाश्चासो अन्तश्च इति अनेकान्तः । रत्नकरावतारिका, संपा० १८. प्रतिपक्षो वस्त्वंशग्राही ज्ञातुरभिप्रायो नयः । निराकृतप्रतिपक्षस्तु पं० दलसुख भाई मालवणिया, लालभाई दलपत भाई ग्रन्थमाला नयाभासः । इत्यनयोः सामान्यलक्षणम् । प्रमेयकमलमार्तण्ड, १६, अहमदाबाद १९६८, पृष्ठ-८९ । अनु० आर्यिका जिनमती, पृष्ठ-६५७ । २. न्यायदीपिका, सम्पा० पं० दरबारीलाल कोठिया, वीर सेवा मंदिर १९. स्याद्वादमंजरी, श्लो० २८ ग्रंथमाला-४, सहारनपुर १९४५, अ०३, श्लो०७६। २०. श्रीमार्गपरिशुद्धि, श्लो०७ ३. समयसार टीका (अमृतचन्द्र) उद्धृत-डॉ० सागरमल जैन, अनेकान्त, २१. भगवतीसूत्र, १/८/१० स्याद्वाद और सप्तभंगी-एक चिन्तन, पार्श्वनाथ विद्याश्रम ग्रंथमाला २२. प्रज्ञापनासूत्र, पद-३ सू०-२६ ५२, वाराणसी १९९०, पृष्ठ-८ । २३. भगवतीसूत्र, ७/२/५ ४. चिन्तन की मनोभूमि, संपा०-डॉ० बी० एन० सिन्हा, सन्मति २४. वही, २/१२/१२ ज्ञानपीठ आगरा, १९७०, पृष्ठ-१०६ । २५. वही, ७/१/१ ५. ऋग्वेद, दयानन्द सरस्वती, दयानन्द संस्थान, नई दिल्ली, म० २६. सूत्रकृतांग, १/१२/२२ १० अ० ९१ सू०१४। २७. भगवतीसूत्र, ७/२/१ ६. वही, १/३२/१५ तथा बृहदारण्यकोपनिषद्, संपा०, काशीनाथ २८. वही, ७/२/३ आगशे, आनन्दाश्रम संस्कृत ग्रन्थावली ग्रंथांक-१५, अ० २ ब्रा० । Jain Education Intemational For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012065
Book TitleBhupendranath Jain Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1998
Total Pages306
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size10 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy