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________________ महावीर का अपरिग्रह सिद्धान्त : सामाजिक न्याय का अमोघ मन्त्र डॉ० कमलचन्द सोगाणी वर्तमान युग में परिग्रह की सीमा काफी चर्चा का विषय बनी मन में यह बात रही होगी कि समाज साधारण व्यक्तियों के समुदाय से हई है। महावीर युग में हिंसा का प्राधान्य था पर ऐसा लगता है कि आज ही निर्मित होता है और अपरिग्रह की चर्चा उस के युग में परिग्रह का प्राधान्य है । ऐसा नहीं है कि महावीर युग में महत्त्व की है । इसलिए सामाजिक दृष्टिकोण से बाह्य वस्तुओं की परिग्रह की सीमा की चर्चा न हो । अति प्राचीन ग्रन्थों में परिग्रह की सीमा उपस्थिति और अन्तरङ्ग मूर्छा के होने में एक कार्य-कारण का सम्बन्ध के बारे में स्पष्ट कथन मिलते हैं। उनमें यह कहा गया है कि गृहस्थ स्वीकार किया जा सकता है, अर्थात उन्होंने यह स्वीकार किया कि जहाँ को धन-धान्य आदि वस्तुओं को सीमित करना चाहिए और संभवतया बाह्य वस्तुए हैं (वास्तविक अथवा काल्पनिक) वहाँ मूर्छा होगी ही। यह इस निर्देश को मानकर कई गृहस्थों ने परिग्रह की सीमा को बाँध कर कार्य-कारण सम्बन्ध सामाजिक स्तर पर उचित प्रतीत होता है, अर्थात अपरिग्रह की दिशा में अवश्य ही प्रगति की होगी। उन्होंने पांच हाथी किसी व्यक्ति के बाहरी परिग्रह को देखकर अथवा बाहरी परिग्रह की इच्छा के बजाय दो हाथी रखे होंगे, दस मकान के बजाय एक मकान रखा को जानकर हम साधारणतया उसकी अन्तरंग मूर्छा का अनुमान कर होगा, लाखों रूपयों के बजाय हजारों रूपये रखे होंगे। इस तरह से सकते हैं। इस तरह सामाजिक दृष्टिकोण से बाह्य वस्तुओं का होना व परिग्रह के त्याग का उदाहरण प्रस्तुत किया होगा। समाज ने ऐसे लोगों न होना ही महत्त्व का है। मूर्छा का होना और न होना पूर्णतया व्यक्तिगत को त्यागी कहकर सम्मानित भी अवश्य किया होगा, क्योंकि वे तो ग्रन्थों होता है । समाज की निगाह केवल बाह्य वस्तुओं पर ही हो सकती है की सीधी-सादी भाषा के अनुसार अपने जीवन को ढाल रहे थे। और उसी को कम-ज्यादा करना समाज के हाथ में है। अतः परिग्रह का यहाँ यह प्रश्न उपस्थित होता है कि इस प्रकार के त्याग को लक्षण सामाजिक दृष्टिकोण से मूर्छा न होकर बाह्य वस्तुओं का होना अपरिग्रह की संज्ञा दी जाय ? इससे अधिक गहरा प्रश्न यह उपस्थित (वास्तविक) ही माना जा सकता है । इसलिए अपरिग्रहवादियों ने स्थानहोता है कि परिग्रह का लक्षण क्या है ? क्योंकि परिग्रह के लक्षण को स्थान पर बाह्य वस्तुओं की सीमा पर झोर दिया है। इस तरह से जानकर ही हम परिग्रह-अपरिग्रह का निर्णय कर सकते हैं । अपरिग्रहवादियों अपरिग्रह के मापदण्ड का प्रश्न वस्तुओं के परिमाण के मापदण्ड का के सामने जब यह प्रश्न आया तो उन्होंने अपरिग्रह को समझाने के लिए प्रश्न है । अब प्रश्न यह है कि वस्तुओं का कितना संग्रह, अपरिग्रह की परिग्रह का लक्षण प्रस्तुत किया । वे समझते थे कि परिग्रह का लक्षण कोटि में माना जाय? और इस परिणाम का निश्चय कैसे किया जाय ? ज्ञात होने पर मनुष्य उन लक्षणों से बच कर अपरिग्रही बन सकेगा। संभवतया इसके उत्तर में कहा जा सकता है कि वस्तुओं की इसलिए उन्होंने परिग्रह का लक्षण बताते हुए कहा कि यह हो सकता व्यक्तिगत आवश्यकतानुसार संख्या परिमाण का मापदंड मानी जानी है जहाँ मूर्छ है वहाँ परिग्रह है । इसको स्पष्ट करते हुए उनका कहना चाहिए। यदि मुझे एक मकान की आवश्यकता है तो मैं एक मकान है कि व्यक्ति के पास न मकान हो, न धन-धान्य, तब भी इनके प्रति बनवा लूँ और दूसरा मकान न बनवाऊँ । इसी तरह आवश्यकतानुसार आर्कषण या राग हो तो वह निश्चित रूप से परिग्रही है, जैसे कोई लोभी अन्य वस्तुओं का परिमाण भी कर लूँ । यदि मेरी आवश्यकता एक अति दरिद्र व्यक्ति । इसके अतिरिक्त यह भी हो सकता है कि बाह्य में करोड़ रुपये की है तो उतना रख लूँ और बाकी समाज को अर्पण कर परिग्रह हो और अंतरंग में यदि मूर्छा नहीं है तो ऐसा व्यक्ति अपरिग्रही ढूँ। अब प्रश्न यह उठता है कि आवश्कता का निर्णय किस आधार पर कहलायेगा, जैसे राजा जनक । हो? एक उद्योगपति की आवश्यकताएं, प्रोफेसर की आवश्यकताएं यहाँ प्रश्न यह है : क्या परिग्रह का मू»लक्षण कोरा व्यक्तिगत तथा अन्य वर्ग के लोगों की आवश्यकताएं भिन्न-भिन्न हैं । इसलिए नहीं है ? क्या मूर्छा होने और न होने का ज्ञान हमें हो सकता है ? मूर्छा उनके परिग्रह के परिमाण भी भिन्न-भिन्न होंगे। किसी के लिए १० कारें एक मानसिक स्थिति है जिसको दूसरे व्यक्तियों में जान पाना तो अत्यन्त भी आवश्यक हो सकती हैं और किसी के लिए एक भी नहीं। क्या हम कठिन है । इस तरह से परिग्रह का लक्षण होते हुए भी व्यक्ति व समाज परिग्रह का निर्णय व्यक्तिगत आवश्यकतानुसार वस्तुओं की संख्या के के लिए यह उपयोगी नहीं है। सम्भवतया इसी बात को ध्यान में रखकर आधार पर कर सकते हैं ? मेरे विचार से ऐसा करना किसी भी तरह अपरिग्रहवादियों ने कहा कि सामान्यतया जहाँ बाह्य परिग्रह होता है वहाँ उचित नहीं माना जा सकता, क्योंकि यह दृष्टिकोण पूर्णतया व्यक्तिवादी मूर्छा होती है। कुछ असाधारण व्यक्ति इस कोटि से बाहर चले भी जायें है पर अपरिग्रह एक समाजवादी दृष्टि है । अपरिग्रह का मापदण्ड तब तब भी साधारण लोगों के लिए यह लक्षण घटित होता है क्योंकि उनके तक उचित नहीं कहा जा सकता जब तक उसके निर्णय में सामाजिक Jain Education Intemational For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012065
Book TitleBhupendranath Jain Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1998
Total Pages306
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size10 MB
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