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________________ १४० जैन विद्या के आयाम खण्ड-७ पैरों से मानी जाती है, आज घृणा एवं तिरस्कार का पात्र बन गया है। राजनीतिक सन्दर्भ में शूद्र या अछूत का नाम आते ही लोगों के नाक-भौं सिकड़ने लगते हैं। आज के भारतीय समाज एवं प्रजातंत्र को देखने से यह ऐसा क्यों? सभी मनुष्य समान हैं । जैन धर्म की मान्यता है कि विश्व कहावत चरितार्थ होती है - "बंदर के हाथ में नारियल' बंदर के हाथ के जितने भी मनुष्य हैं, वे सभी मूलत: एक ही हैं । कोई भी जाति अथवा में नारियल पड़ने से उसकी दुर्दशा होती है । नारियल टूटने का डर रहता कोई भी वर्ग मनुष्य जाति की मौलिक एकता को भंग नहीं कर सकता। है। वही स्थिति आज भारतीय समाज की है। भारतीय प्रजातंत्र को देखते मनुष्य जाति में जो अलग-अलग वर्ग दिखलाई देते हैं। वस्तुत: कार्यों हए ऐसा ही प्रतीत होता है । प्रजातंत्र के प्रधानतः दो अंग होते हैं - के भेद से या धन्धों के भेद से दिखलाई पड़ते हैं । जैन धर्म में स्पष्ट अधिकार और कर्तव्य । प्रजातंत्र का वहीं पर समुचित विकास होता है कहा गया है कि मनुष्य जन्म से उँचा या नीचा नहीं होता बल्कि कर्म जहाँ लोग अधिकार के साथ-साथ अपना कर्तव्य भी समझते है, लेकिन से होता है । जैन मुनि हरिकेशबल जन्म से चाण्डाल कुल के थे जिसके हमारे भारतीय समाज का दुर्भाग्य यह है कि यहाँ लोग अपने अधिकार कारण उन्हें चारों ओर से भर्त्सना और घृणा के सिवा कुछ नहीं मिला। तो समझते हैं परन्तु अपने कर्तव्य को नहीं समझते । वे जहाँ कहीं भी गए, वहाँ उन्हें अपमान-रूप विष का प्याला ही मिला, प्रजातंत्र की रीढ़ चुनाव है । प्रजा के प्रतिनिधि प्रजा के द्वारा लेकिन जब उन्होंने जीवन की पवित्रता का सही मार्ग अपना लिया तो चयनित होकर विधानसभा और लोकसभा के सदस्य बनते हैं। उनसे यह वही वन्दनीय और पूजनीय हो गये। अपेक्षा होती है कि वे अपने क्षेत्र की समस्याओं को सही रूप में सभा हिन्दू-मुसलमान का झगड़ा सदियों से चला आ रहा है और में प्रस्तुत करेंगे तथा समाज के हित के लिए अपने को समर्पित करेंगे। वर्तमान में भी विद्यमान है । सवाल होता है कि हिन्दू कौन है ? किन्तु बात ऐसी नहीं होती है । तथाकथित जनता के प्रतिनिधि अपनी मुसलमान कौन है ? क्या मनुष्य की भी कोई जाति होती है ? मनुष्यों कुर्सी की रक्षा में लगे रहते हैं और प्रजा को भूल जाते हैं, जिनके वे की कोई जाति नहीं होती। जिस प्रकार पानी की कोई जाति नहीं होती, प्रतिनिधि होते हैं । वे दरअसल यह भी नहीं चाहते कि जनता उनके उसी प्रकार मानव की भी कोई जाति नहीं होती, सभी एक समान हैं। चुनाव में स्वतन्त्र रूप से मतदान करे । मतदान केन्द्र तो प्रत्याशियों के मनुष्यों की दो जातियाँ हो ही नहीं सकतीं। फिर भी मन की संकीर्णतावश पालतू गुण्डे-बदमाशों द्वारा अधिकार में कर लिये जाते हैं । अत: चुनाव उसमें ऊँचता-नीचता खोजी जाती है। दिखावे का एक ढोल होता है जिसकी तेच ध्वनि समाज में हंगामा इस प्रगतिवादी युग में भी शक्तिशाली लोग अशक्तों एवं मचाती है । इस तरह राजनीति के क्षेत्र में भी एकान्तवाद का बोलबाला असमर्थों का शोषण उसी प्रकार कर रहे हैं जिस प्रकार छोटी मछली को देखा जाता है । राजनीति का प्रवेश समाज में समाज के स्तर को उँचा बड़ी मछली निगल जाती है। इसका मुख्य कारण है- आर्थिक विषमता। उठाने के लिए हुआ किन्तु वही राजनीति आज क्षुद्रता के दायरे में आर्थिक विषमता मानो भारतीय समाज का अंग बन गयी है । पूँजीपति सिमटकर रह गयी है। यद्यपि प्रजातांत्रिक प्रणाली में तो एकान्तवादिता और मजदूर, धनी-मानी, खेत मालिक और खेतों में काम करने वाले को स्थान ही नहीं मिला है। उसमें न तो हठवादिता है, न दुराग्रह है, गरीब लोग आज भी हैं । गरीबी हटाओ अभियान चलता आ रहा है, न पक्ष प्रतिबद्धता है, न असहिष्णुता है और न अधिनायकवाद ही है। विभिन्न आंकड़े तैयार होते आ रहे हैं, किन्तु हल कुछ भी सामने नहीं फिर भी आज के समाजनिर्माता अपनी स्वार्थता से वशीभूत होकर आ रहा है, क्योंकि न्यायकर्ता जब न्याय करने बैठता है तो तराजूरूपी प्रजातन्त्र के अनैकांतिक दृष्टिकोण को ऐकांतिक बना दिये हैं । जबकि बुद्धि पर उसका अपना स्वार्थरूपी बाट होता है । अत: वह न्याय कैसे प्रजातंत्र को सही मायने में क्रियान्वित करने के लिए अनैकान्तिक करेगा? __दृष्टिकोण का होना जरूरी है। यदि प्रजातंत्र की नीव अनैकांतिक है, कहा माना कि जीवन में बुराइयाँ होती हैं, भूलें होती हैं और उनका जाए, तो कोई अतिशयोक्ति नहीं होगी क्योंकि बिना अनैकान्तिक परिमार्जन भी किया जाता है, उन्हें सुधारने का प्रयास भी किया जाता है। दृष्टिकोण के प्रजातंत्र एक दिन भी क्रियाशील नहीं रह सकता । यदि रोग है तो उसका उपचार भी होगा। बुराई के साथ संघर्ष करने का प्रजातांत्रिक प्रणाली में तो विरोध में भी अविरोध लाना पड़ता है, मनुष्य का अधिकार है । मानव ने इस संसार में एक महत्त्वपूर्ण विभिन्नता में एकता के सूत्र पिरोने पड़ते हैं । उत्तरदायित्व तथा कर्तव्य लेकर जन्म लिया है । अत: व्यक्ति को बुराइयों से संघर्ष करना ही पड़ेगा। बराइयों से इस संघर्ष में अनेकान्तवाद से अन्तर्राष्ट्रीय सन्दर्भ में ज्यादा शक्तिशाली अन्य कोई अस्त्र नहीं होगा। सामाजिक विभिन्नताओं प्रत्येक देश, राष्ट्र, दल व गट केवल अपनी और अपने हितों के बीच सामञ्जस्य एवं पारस्परिक स्नेह को कायम रखने में अनेकान्तवाद की रक्षा और सुरक्षा के बारे में चिन्तित हैं फिर चाहे उसके लिए दूसरों की. अहम् भूमिका होगी। की बलि क्यों न दे दी जाए? आज भयानक से भयानक अस्त्रों-शस्त्रों का अनुसंधान हो रहा है। कई भयानक संहारक अस्त्र बन चुके हैं । प्रभूता Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012065
Book TitleBhupendranath Jain Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1998
Total Pages306
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size10 MB
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